मंगलवार, 9 मई 2017

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05



मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 05 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-पांचवां  

* संन्यास का आमंत्रण
* सदगुरु की मधुशाला
* जागो
* मीठा दर्द

प्रश्न-सार

*कैसे लूं संन्यास? मन में सेर् ईष्या, अहंकार, क्रोध, कुछ भी तो नहीं निकाल पाती! और आप जो बार-बार रात-दिन स्वप्न में सामने रहते हैं! क्या करूं?

*मेरा पात्र इतना बड़ा नहीं है कि आपको समा सके। जब भी मैं आपको प्रवेश देती हूं, आपकी ऊर्जा इतनी अतिशय होती है कि वह हंसी, रुदन या नृत्य बन कर बह जाती है। कभी-कभी मैं सोचती हूं कि कहीं मैं आपके उदार आशीषों को लेने में कृपण तो नहीं हो रही! या ऊर्जा के व्यक्त होने का यही सही ढंग है?

*मैं संसार को जगाना चाहता हूं। क्या करूं?

*मेरे नैना सावन-भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा! यह प्यास कहां से उठती है? प्यास में आनंद और दर्द दोनों कैसे हैं?


*पहला प्रश्न: भगवान! लूं तो कैसे लूं संन्यास? मन में सेर् ईष्या, अहंकार, क्रोध, कुछ भी तो नहीं निकाल पाती। और आप जो बार-बार रात-दिन स्वप्न में सामने रहते हैं! क्या करूं?

मधुरी! मैं रुका था तेरे प्रश्न का उत्तर देने को; जानता था कि संन्यास होगा ही। अब तेरा संन्यास हो गया है, इसलिए उत्तर देता हूं।
प्रश्न तो मधुरी ने पूछा था संन्यास के पूर्व; उत्तर दे रहा हूं संन्यास के बाद। क्योंकि मधुरी कोई अकेली मधुरी तो नहीं। और भी बहुत मधुरियां हैं, जो ऐसी ही दुविधा में, ऐसी ही झिझक, ऐसी ही हिचक में अटकी हैं। न कदम आगे बढ़ाए बढ़ता है, न पीछे लौटने का उपाय है।
पीछे लौटा नहीं जा सकता, क्योंकि सिवाय दुख के वहां और कुछ भी नहीं; गहरी अमावस की रात है। आगे बढ़ने में डर लगता है--अज्ञात का भय, अनजान-अपरिचित मार्ग। पीछे भीड़ है। भीड़ का साथ है। भीड़ की सुरक्षा है। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई। भीड़ में एक तरह का आश्वासन है कि इतने लोग गलत तो नहीं हो सकते।
संन्यास है अकेले होने की घोषणा। संन्यास है इस बात का उदघोष कि मैं अकेला आया हूं, अकेला हूं, अकेला जाऊंगा। सब संग-साथ झूठ है। माया है। ममता है। मोह है। एक भ्रांति है। मन का एक जाल है।
संन्यास का अर्थ है कि जो संसार मैंने बसा लिया है, वह बस भुलावे के लिए, सांत्वना के लिए। ये जो जिंदगी के चार दिन हैं, इन्हें किसी तरह गुजार लेने के लिए। व्यस्तता के लिए। फिर तो मौत आती है और अकेला कर जाती है। जो मौत करती है, वही संन्यास करता है। मौत जबरदस्ती अकेला करती है, संन्यास तुम्हारी स्वेच्छा से अकेले होने की घोषणा है। इसलिए मौत चूक जाती है, क्योंकि जबरदस्ती किसी को बदला नहीं जा सकता। बदलाहट स्वांतः सुखाय होती है, स्वेच्छा से होती है, स्वस्फूर्त होती है। बदलाहट स्वतंत्रता का फूल है। मौत जबरदस्ती करती है। और जितनी जबरदस्ती करती है, उतने ही तुम जोर से अपने माया-मोह को, अपनी देह को, अपने मन को पकड़ लेते हो--कस कर पकड़ लेते हो।
इधर आती है मौत, उतनी ही तुम्हारी आसक्ति बढ़ जाती है। तुम किनारे को और जोर से पकड़ लेते हो कि कहीं तूफान तुम्हें छीन ही न ले जाए। क्योंकि दूसरा किनारा तो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। वह तो केवल उन्हें दिखाई पड़ता है, जो तूफान को अवसर मानते हैं; जो तूफान में स्वेच्छा से उतर जाते हैं; जो तूफान की प्रतीक्षा करते हैं; जो अपनी नाव का पाल खोले बैठे हैं कि कब आए तूफान और कब हम यात्रा पर निकल जाएं।
दूसरा किनारा तो उन साहसी आंखों को दिखाई पड़ता है। दुस्साहस चाहिए, तो ही दूसरा किनारा दिखाई पड़ता है। संन्यास दुस्साहस है। जो मौत नहीं कर पाती, वह संन्यास करता है।
मधुरी, तूने पूछा था: "लूं तो कैसे लूं संन्यास?'
प्रत्येक व्यक्ति जो संन्यास लेने के लिए आतुरता से भरता है, इस सवाल से पीड़ित होता है: "लूं तो कैसे लूं संन्यास?'
कौन सी अड़चनें हैं? कौन सी बाधाएं हैं? क्या है तुम्हारे पास खोने को? क्या पाया है, जो खो जाएगा? हाथ खाली हैं या कि राख से भरे हैं--जो कि खाली होने से भी बदतर है। तुम्हारे भीतर कौन सा संगीत है, जिसके छूट जाने की पीड़ा होगी? कांटे ही कांटे हैं। शोरगुल जरूर है--संगीत कहां! कांटे बहुत हैं; फूल तो एक भी न खिला। चाहे तो थे फूल; लगे कांटे। चाहा तो था उत्सव; मिला विषाद। तुम्हारे पास खोने को क्या है? यह तट खो भी जाएगा तो क्या खो जाएगा? क्यों इस तट पर नाव को बांधे बैठे हो?
मगर नहीं। आदमी का मन ऐसा है कि परिचित दुखों से भी एक नाता बना लेता है। जानी-मानी चिंताएं भी अच्छी लगती हैं। जाने-माने दुश्मनों से भी एक दोस्ती होती है। अगर दुश्मन मर जाए, तो तुम्हारी जिंदगी में कुछ जगह खाली हो जाती है।
मैंने सुना है कि जिस दिन महात्मा गांधी को गोली लगी और जिन्ना को खबर दी गई कि गांधी मर गए, जिन्ना अपनी बगिया में बैठा था कराची में। जिसने खबर दी थी, सोचा था कि जिन्ना प्रसन्न होगा। जीवन भर का शत्रु मर गया। जिसको मुसलमान न मार पाए, उसको हिंदुओं ने मार दिया। ऐसी ही उलटी दुनिया है! यहां पराए तो पराए हैं ही, अपने और भी ज्यादा पराए हैं। यहां दूर तो दूर हैं ही, जो पास हैं उनकी दूरी का तुम्हें अंदाज नहीं!
लेकिन खबर देनेवाले को अपनी गलती एहसास हुई। जिन्ना एकदम उदास हो गया। उठा बगिया से, भवन के भीतर चला गया। जिसने खबर दी थी, वह पीछे-पीछे गया। उसने कहा, मैं तो सोचता था, आप प्रसन्न होंगे। जीवन भर का शत्रु मिटा!
लेकिन तुम्हें पता है, जिन्ना ने क्या कहा? गांधी के मरने के साथ मेरे भीतर कुछ मर गया। वह शत्रुता पुरानी थी; वह नाता गहरा था। मैं अब वही नहीं हूं जो गांधी के रहते हुए था। और जिन्ना वही नहीं रहा। गांधी की मौत ने कुछ जिन्ना के भीतर मार दिया।
यह बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य है। तुम जिनसे लड़ते हो, उनसे भी तुम्हारे लगाव बन जाते हैं। तुम्हारे दुख भी तुम्हारे संगी-साथी हैं। उनके बिना तुम्हें बेचैनी होगी। जो बहुत दिन बीमार रह जाता है, वह बीमारी को भी पकड़ता है।
मनोवैज्ञानिक आज इस सत्य की वैज्ञानिक प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं कि जो लोग ज्यादा दिन बीमार रह जाते हैं; हो सकता है बीमारी शारीरिक रूप से शुरू हुई हो, लेकिन शरीर तो कभी का ठीक हो गया हो, लेकिन उनके मन ने बीमारी को पकड़ लिया है। अब वे बीमारी को छोड़ नहीं सकते। बीमारी उनका न्यस्त स्वार्थ बन गई। अब बीमारी के कुछ लाभ हैं, जो वे ले रहे हैं।
बीमार हो, तो सहानुभूति मिलती है। बीमार हो, तो असफल हो जाओ तो कोई यह नहीं कह सकता कि तुम असफल हुए। तुम करते भी क्या, बीमार थे! बीमारी में तुम अगर धन न कमा पाओ, प्रतिष्ठित न हो पाओ, यश न पा सको, तो तुम कह सकते हो--सुरक्षा का एक उपाय है--कि करूं क्या, मैं बीमार हूं! तुम्हारे पास एक छाता है, जो तुम ओढ़ ले सकते हो। जो सब तरह से तुम्हारी सुरक्षा करेगा।
परीक्षा के वक्त अक्सर विद्यार्थी बीमार हो जाते हैं। जान कर नहीं; किसी गहरे अचेतन से बीमारी उठती है। मैं ऐसे विद्यार्थियों को जानता हूं, जो हर साल सिर्फ परीक्षा के समय ही बीमार होते हैं! इधर परीक्षा आई कि उधर बीमारी आई। जैसे-जैसे परीक्षा करीब आई, वैसे-वैसे बीमारी बढ़ती है। और बीमारी में सब लक्षण होते हैं शरीर के। लेकिन शरीर की नहीं होती। मन डरा है परीक्षा से। बीमारी में एक रक्षा है। अगर असफल हुए, तो उत्तरदायित्व बीमारी का है। अगर सफल हुए, तब तो कहना ही क्या! अहंकार को चार चांद लग जाएंगे--बीमार थे और सफल हुए!
मधुरी, क्या है छोड़ने को? हाथ खाली हैं!
संन्यास, लोग सोचते रहे हैं सदियों से, कि त्याग का नाम है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारे पास है क्या त्याग को? किन नासमझों ने तुम्हें समझाया है कि संन्यास त्याग है! संसार होगा त्याग; संन्यास त्याग नहीं है। संसारी ने बहुत त्यागा है, परमात्मा को त्यागा है, और क्या त्यागोगे? अमृत को त्यागा है और जहर को पीया है। सार्थक को त्यागा है और व्यर्थ के अंबार लगा लिए हैं। असली धन, ध्यान को त्यागा है। और ठीकरे, चांदी के ठीकरे--अब तो चांदी के ठीकरे भी नहीं हैं, कागज के सड़े-गले नोट--उनको इकट्ठा कर रहा है। और फिर भी तुम कहे चले जाते हो कि संन्यासी त्यागी है और संसारी भोगी है!
बदलो भाषा। कहना शुरू करो कि संसारी त्यागी है, संन्यासी भोगी है। क्योंकि संन्यासी परमात्मा को भोगने चला। उस परम रस को पीने चला। छोड़ रहा है कूड़ा-करकट; हीरे-जवाहरात बीनने चला। और जो कूड़ा-करकट छाती से लगाए बैठे हैं, उनको तुम कहते हो भोगी। थोड़ी दया तो करो! ऐसे ही वे बहुत दुख पा रहे हैं और गालियां तो न दो!
संन्यासी ऐसे ही बहुत आनंद पा रहा है और तुम फूलमालाएं लेकर चले कि महात्यागी! मैं भाषा को बदलना चाहता हूं। क्योंकि भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, तुम्हारे भावों की अभिव्यक्ति होती है। मुझे कहने दो कि संन्यासी भोगी है--परम भोगी है। संसारी त्यागी है--महात्यागी है।
मधुरी, कुछ छोड़ने को नहीं, कुछ त्यागने को नहीं। सब कुछ पाने को है। कार्ल माक्र्स ने अपनी अदभुत किताब, जिससे कम्युनिज्म का जन्म हुआ, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में अंतिम जो कड़ी लिखी है, वह कम्युनिज्म के संबंध में तो सही नहीं है, लेकिन धर्म के संबंध में जरूर सही है। वह कड़ी होनी चाहिए थी गीता में; वह कड़ी होनी चाहिए थी कुरान में। नहीं है। आश्चर्य! वह कड़ी है कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में। है, यह भी आश्चर्य! वहां नहीं होनी थी।
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का अंतिम वक्तव्य है कि हे दुनिया के सर्वहाराओ! इकट्ठे हो जाओ! तुम्हारे पास खोने को क्या है सिवाय जंजीरों के? और पाने को? पाने को सब कुछ है!
माक्र्स मजदूर को सर्वहारा कहता था। मैं संसारी को सर्वहारा कहता हूं। मजदूर के पास भी कुछ होता है; एकदम सर्वहारा नहीं होता। नहीं होंगे स्वर्णपात्र, मिट्टी के सही; मगर कुछ तो होता है। मजदूर सर्वहारा नहीं है। असली सर्वहारा तो संसारी है। उसे लगता है बहुत कुछ मेरे पास; और है कुछ भी नहीं। सपने हैं हाथों में। आंख खुलेगी, बहुत चौंकेगा, बहुत तड़फेगा--कि किस धन को मैं धन मानता रहा! असली सर्वहारा संसारी है।
और क्या है तुम्हारे पास खोने को सिवाय जंजीरों के? और जंजीरें भी भद्दी और बेहूदी! जंजीरें भी सुंदर नहीं; सोने की नहीं। जंजीरें भी दुख की, पीड़ा की, संताप की, विषाद की! और पाने को? पाने को सब कुछ पड़ा है--सारा अस्तित्व; परमात्मा का सारा राज्य; परमात्मा का यह सारा महोत्सव; ये चांदत्तारे, ये सूरज, ये नदी, ये पहाड़, ये रेगिस्तान--इनका सन्नाटा, इनका शून्य, इनका मौन, इनकी शांति, इनका आनंद; ये फूल, ये वर्षा की बूंदों का संगीत, ये आकाश में घिरे मेघ, यह सब तुम्हारा है। तुम्हारा इस अर्थों में नहीं कि तुम इसे तिजोड़ी में बंद कर सकते हो। चांदत्तारे तिजोड़ियों में बंद नहीं किए जाते। तुम्हारा इस अर्थ में नहीं कि फूलों पर तुम ताले डाल दोगे। फूलों पर ताले नहीं डाले जाते। तुम्हारा इस अर्थ में कि तुम इस रस को पी सकते हो। तुम इसमें डुबकी मार सकते हो। तुम्हारा इस अर्थ में कि तुम सहभागी हो सकते हो; कि तुम भी इस लय में आबद्ध हो सकते हो। इसलिए तुम्हारा कि तुम भी पैरों में घुंघरू बांधो और इस महारास में सम्मिलित हो जाओ। तुम भी उठाओ बांसुरी। तुम भी थाप दो अपनी मृदंग पर। तुम भी बनो मीरा। तुम भी बनो चैतन्य। तुम्हारा इस अर्थ में कि तुम भी बनो बुद्ध, तो हिमालय तुम्हारे प्राणों में समा जाए। तुम्हारा इस अर्थ में कि तुम भी बनो महावीर, तो चांदत्तारे तुम्हारे भीतर भ्रमण करें।
मालकियत नहीं है तुम्हारी इस पर। लेकिन तुम इसे भोग सकते हो। सच तो यह है, मालकियत हो तो भोगना मुश्किल हो जाता है। मालकियत कंजूसी लाती है। मालकियत में कंजूसी अनिवार्य हो जाती है। जहां मालकियत है, परिग्रह है, वहां डर पैदा होता है--कहीं खर्च न हो जाए। क्योंकि जितना खर्च हो जाएगा, उतनी मालकियत कम हो जाएगी। मालकियत धन पर निर्भर है। और धन उतना ही होगा जितने तुम कृपण हो।
मैंने सुना है, एक कंजूस दुकान बंद करके घर आया। तब बिजली की बत्तियां तो थीं नहीं। उन दिनों मिट्टी के दीये जला करते थे। उसने देखा कि दीपक की लौ बड़ी भड़क रही है। वह पत्नी से बोला, देखती नहीं हो कि दीपक की लौ कितनी तेज भड़क रही है! न जाने कितना तेल व्यर्थ में जल गया होगा! तभी उसे याद आया कि दुकान में उसने एक ही ताला लगाया था; दूसरा ताला तो लगाया ही नहीं। कहीं सब कुछ लुट न जाए! हड़बड़ी में उसने सोचा कि पहले दुकान पर दूसरा ताला लगा आऊं। चल पड़ा। भागा।
रास्ते में जाकर उसके मन में विचार आया कि ऐसी कौन सी आफत आई जाती थी! दुकान पर एक ताला तो लगा ही हुआ है। दूसरा बाद में भी लगाया जा सकता है। पहले दीपक की लौ तो कम कर आऊं, वरना इस बीच कितना सारा तेल व्यर्थ ही जल जाएगा!
यह सोच कर वह फिर घर लौट आया। देखा कि दीपक की लौ अब कम है। पत्नी बोली, मैंने इस दीपक की लौ सुई की नोक से कम कर दी थी। सुई में जो तेल लग गया था, वह मैंने बालों में लगा लिया। आप चिंता न करें। आपको तेल का ध्यान तो आ गया, मगर अपने जूते का ध्यान नहीं आया! आप यहां से गए भी, फिर बीच रास्ते से लौट भी आए। अब यहां से फिर दुकान को ताला लगाने जाएंगे, वहां से फिर घर लौटेंगे। क्या इस तरह जूते व्यर्थ ही नहीं घिस जाएंगे?
वह कंजूस बोला, नहीं भागवान! यह देख, जूता मैं पैर में कभी पहनता नहीं। बगल के झोले में रखा हुआ है!
जहां परिग्रह है, वहां कृपणता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने नगर के सबसे बड़े धनपति से जाकर पूछा कि एक राज पूछना चाहता हूं। और तो यह राज कोई बता न सकेगा। तुम ही बता सकते हो। इतने धनी तुम कैसे हुए? क्योंकि मैंने तो सुना है कि तुमने भीख मांगने से शुरू किया था।
उस धनी ने कहा, एक क्षण ठहर। पास में जलती हुई मोमबत्ती को बुझा दिया और कहा, अब बोल। क्योंकि हम नाहक बातचीत करें, इतनी देर में न मालूम कितनी मोमबत्ती जल जाए!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब कुछ कहने की जरूरत नहीं। मैं राज समझ गया। मोमबत्ती क्या फूंकी कि तुमने सब कह दिया। धन्यवाद!
धन तो कृपणता से इकट्ठा होगा। धनी भोग नहीं सकता। परिग्रही भोग नहीं सकता। भोगने के लिए एक अपरिग्रह-भाव चाहिए। सिर्फ संन्यासी ही भोग सकता है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम संन्यासी हो जाओगे तो इस अस्तित्व के मालिक हो जाओगे। मालकियत का भाव ही चला जाएगा। मालकियत मूढ़ता की बात है। संन्यास धीरे-धीरे तुम्हें यह दिखलाएगा कि तुम तो हो ही नहीं, परमात्मा ही है। मैं तो हूं ही नहीं, तो मालकियत किसकी? परिग्रह किसका? और तुम मिटे कि सब तुम्हारा है। मगर ध्यान रखना, तुम मिटे--तो सब तुम्हारा है। इधर तुम गए कि सारा अस्तित्व आ गया।
मधुरी, संन्यास लेने में क्या भय है? लेकिन तूने जो कारण दिए हैं, वे विचारणीय हैं।
"मन में सेर् ईष्या, अहंकार, क्रोध, कुछ भी तो नहीं निकाल पाती।'
र्ा, अहंकार, क्रोध, ये बीमारियां हैं। संन्यास इनकी ही तो औषधि है। क्या औषधि लेने के पहले बीमारियां निकल जानी आवश्यक शर्त है? अगर औषधि लेने के पहले बीमारी से मुक्त हो जाना आवश्यक शर्त हो, तो औषधि का प्रयोजन क्या है? अगर कोई चिकित्सक कहे कि जब ठीक हो जाओ तब आना। अभी बीमार हो, पहले ठीक तो हो लो, फिर आना। तो क्या तुम उसे चिकित्सक कहोगे?
बुद्ध ने अपने को वैद्य कहा है। नानक ने भी अपने को वैद्य कहा है। और ठीक कहा है। क्योंकि बुद्ध या नानक जैसे व्यक्ति के पास औषधि है, उपचार है, निदान है। वे यह शर्त नहीं लगा सकते कि पहले तुम ठीक होकर आओ।
तो मधुरी, मैं तुझसे नहीं कहूंगा कि पहलेर् ईष्या छोड़, फिर संन्यास। तब तो मुश्किल हो जाएगी। न छूटेगीर् ईष्या, न होगा संन्यास। कि पहले अहंकार छोड़, फिर संन्यास। तब तो असंभावना हो जाएगी। अगर अहंकार संन्यास के बिना ही छूट सकता है, तो संन्यास की क्या अर्थवत्ता होगी? कि पहले छोड़ क्रोध, फिर संन्यास। तो बचा क्या फिर! फिर संन्यास क्या करेगा?
यह तो ऐसे ही हुआ कि किसी से हम कहें, पहले अंधेरे को मिटाओ, फिर दीया जलेगा! यह तो बात ही मूढ़ता की हो गई। ऐसे कहीं अंधेरा हटा है? मारो धक्के लाख! तुम्हीं मिट जाओगे धक्के मारते-मारते; अंधेरा नहीं मिटेगा। अंधेरा तो नकार है, निषेध है, अभाव है। अभाव को धक्के नहीं मारे जा सकते। और जो मारेगा, वह पागल हो जाएगा। और अगर पृथ्वी को तथाकथित धार्मिक लोगों ने विक्षिप्त कर दिया है, तो अकारण नहीं। यही राज है।
सारी पृथ्वी को एक पागलखाना बना दिया है तुम्हारे तथाकथित धार्मिक पंडित-पुरोहित, संत-महात्माओं ने। क्योंकि उन्होंने तुम्हें एक ऐसा पाठ सिखाया है, जो पूरा हो ही नहीं सकता। उन्होंने तुम्हें एक ऐसी पहेली दे दी है कि तुम मर जाओ, लाख बार जन्मो और लाख बार मरो, तुमसे पहेली हल नहीं होगी। क्योंकि पहेली के हल होने का वह ढंग ही नहीं है। उन्होंने तुमसे कहा, पहले अंधेरा मिटाओ, फिर संन्यास।
मैं तुमसे कहता हूं, पहले दीया जलाओ, फिर अंधेरा तो मिट ही गया।
दीया जलाने का विज्ञान है संन्यास, अंधेरा मिटाने का नहीं। अंधेरे से क्या लेना-देना है! दीये का अंधेरे से मिलना ही कब हुआ! रोशनी और अंधेरे का अब तक साक्षात्कार नहीं हुआ है।
मैंने सुना है, एक बार अंधेरे ने परमात्मा से प्रार्थना की कि तुम्हारा सूरज मेरे पीछे क्यों पड़ा है? रोज सुबह उठ आता है! मैं रात विश्राम भी नहीं कर पाता कि बस चला मेरे पीछे! मैंने इसका कुछ कभी बिगाड़ा नहीं। याद भी नहीं आता कि कभी इससे मेरी किसी तरह की भी वार्ता हुई हो, मुलाकात हुई हो। दुश्मनी तो दूर, दोस्ती भी कभी नहीं हुई! दोस्ती-दुश्मनी की बात ही नहीं उठती, मेरा आमना-सामना नहीं हुआ, आंखें चार नहीं हुईं। यह अन्याय हो रहा है!
बात तो सही थी, तर्कयुक्त थी। और परमात्मा को सूरज को बुलाना पड़ा कि क्यों तू बेचारे अंधेरे के पीछे पड़ा है?
सूरज ने जो कहा, वह भी विचारणीय है; बहुत विचारणीय है, खूब हृदय में सम्हाल कर रख लेने जैसा है। सूरज ने कहा, कौन अंधेरा? कैसा अंधेरा? कहां है अंधेरा? मैंने तो देखा नहीं। जिसे मैं जानता ही नहीं, उसके पीछे क्यों पडूंगा! जिसे पहचानता ही नहीं, उसे सताऊंगा क्यों! आप कृपा करके इतना करें, अंधेरे को मेरे सामने बुला दें, ताकि मैं उसे देख तो लूं!
इस बात को हुए सदियां हो चुकीं। परमात्मा अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं ला सका है। कहते हैं परमात्मा सर्वशक्तिमान है। इस संबंध में नहीं। इस संबंध में परमात्मा हार गया।
अंधेरे को कैसे लाओगे सूरज के सामने? और अंधेरा अगर सूरज के सामने आ जाएगा, तो क्या सूरज खाक सूरज रहा! नपुंसक सूरज होगा। तस्वीर होगी सूरज की, सूरज नहीं होगा।
सूरज है तो अंधेरा नहीं हो सकता। हां, अंधेरा कितना ही हो, तो सूरज हो सकता है। अंधेरा सूरज को होने से नहीं रोक सकता। सूरज की तो बात छोड़ो, एक छोटे से मिट्टी के दीये को नहीं रोक सकता अंधेरा। अंधेरा तो बिलकुल नपुंसक है। वह तो पूर्ण नपुंसकता है; नकार है, अभाव है; उसका होना ही नहीं है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
और ऐसा ही है अहंकार। अहंकार यानी भीतर का अंधेरा। और ऐसी ही हैर् ईष्या।र् ईष्या अहंकार का ही एक प्रक्षेपण है। और ऐसा ही है क्रोध। वह भी अहंकार का एक अंग है।
र्ा और क्रोध में बहुत भेद नहीं है। क्रोध है सक्रियर् ईष्या;र् ईष्या है निष्क्रिय क्रोध। पुरुष क्रोध कर लेते हैं; स्त्रियांर् ईष्या कर लेती हैं। पुरुष का मौलिक लक्षण है क्रोध; आगबबूला हो जाना;र् ईष्या उसके लिए क्रोध के रूप में आती है। स्त्री का मौलिक लक्षण हैर् ईष्या। जल-भुन जाती है भीतर-भीतर; ऊपर चाहे कहे, चाहे न कहे। घुट-घुट जाती है भीतर-भीतर।र् ईष्या स्त्रैण रूप है क्रोध का और क्रोध पौरुषिक रूप हैर् ईष्या का। और दोनों अहंकार के कारण पैदा होते हैं।
क्योंर् ईष्या पैदा होती है? क्योंकि कोई तुमसे आगे निकला जा रहा है। किसी ने तुमसे अच्छी साड़ी खरीद ली, कि किसी ने तुमसे सुंदर गहने खरीद लिए, कि किसी ने नया मकान बना लिया, कि किसी की तिजोड़ी में ज्यादा रुपये इकट्ठे हो गए।र् ईष्या जनमी, क्योंकि अहंकार को चोट लगी। तुम्हारे भीतर आग भभकने लगी, धुआं उठने लगा। तुम चिता पर चढ़ गए। तुम्हारे भीतर चिंता पैदा हो गई।
क्रोध का अर्थ है: तुम्हारे अहंकार के लिए किसी ने बाधा दे दी। तुम किसी यात्रा पर निकले थे विजय की और कोई बीच में आड़े आ गया, कि किसी के कारण बीच में पत्थर पड़ गया, कि किसी ने तुम्हें धक्का मार कर रास्ते से अलग कर दिया, कि कोई पगडंडी में बीच में बाधा बन कर खड़ा हो गया, अवरोध हो गया। क्रोध भभकेगा।
क्रोध और ईष्या बहुत भिन्न नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्रोध थोड़ा उजड्ड है;र् ईष्या थोड़ी सुसंस्कृत है।
मैंने सुना है, राजस्थान की कहानी है, एक राजस्थानी राजपूत बड़ी अकड़ का आदमी था। अकड़ उसकी ऐसी थी कि दिन भर मूंछ पर ताव देता रहता था। और अकड़ उसकी ऐसी थी कि गांव में किसी और को मूंछ पर ताव देने नहीं देता था। गांव में सबको अपनी मूंछ नीची रखनी पड़ती थी। नहीं तो सरदार नाराज हो जाए। और राजपूत दुष्ट था; लोगों की पिटाई करवा दी थी। वह हत्या भी करवा सकता था। लोग भय के कारण अपनी मूंछें कटा कर रखते थे; कभी भूल-चूक से, हवा के झोंके में मूंछ ऊपर हो जाए और राजपूत देख ले! और कम से कम जब राजपूत के घर के सामने से निकलते थे, तब तो बिलकुल ही मूंछ को नीचे कर लेनी पड़ती थी। दोनों हाथ से पकड़ कर मूंछ नीची करके निकलते थे।
मगर गांव में एक नया बनिया आया। नया-नया था, अभी जवान था, उसको भी मूंछ रखने का शौक था। उसको लोगों ने कहा कि भैया, मूंछ नीची कर ले, इस गांव में रहना है तो।
उसने कहा, जाओ-जाओ। ऐसे देख लिए बहुत मूंछ नीची करवाने वाले! मेरी कोई नीची करवा दे तो देखूं!
राजपूत को खबर लगी। उसने तो अपनी तलवार म्यान से बाहर कर ली। उसने कहा, यह कौन हरामजादा अकड़ दिखला रहा है! लेकिन निकलने दो घर से, आने दो मेरे सामने, न गर्दन उतार दूं!
लोगों ने बनिए के लड़के को भी जोश पर चढ़ाया। लोग भी थे तो क्रोध में ही राजपूत पर। सोचा कि हो सकता है हो जाए टक्कर। लोगों ने कहा कि मान भाई, तू कर ले नीची मूंछ! उनका मतलब यह था कि करना मत नीची मूंछ। बहुत समझाया कि देख, वह आदमी बड़ा खतरनाक है। तलवारें चल जाएंगी! बनिए के लड़के ने कहा कि तो मैं भी कोई साधारण नहीं हूं। मैं भी बनिया हूं। अगर वह राजपूताना का राजपूत है, तो मैं भी मारवाड़ का मारवाड़ी हूं। लोगों ने कहा कि और तो ठीक, अपने घर में मूंछ ऊंची रखना ठीक, उसके सामने से मत निकलना! उसने कहा, अभी निकलूंगा।
मूंछ पर ताव देकर वह बनिए का लड़का निकला राजपूत के सामने से। राजपूत तो तलवार लेकर बाहर आ गया। उसने कहा, रुक! तुझे लोगों ने बताया नहीं? मूंछ नीची कर ले! उस बनिए के लड़के ने कहा, तू कर ले अपनी मूंछ नीची। बहुत दिन हो गई तेरी ऊंची; अब यह ऊंची रहेगी।
राजपूत राजपूत था। उसने एक तलवार बनिए को भी दी, कि तू भी एक तलवार सम्हाल। क्योंकि निहत्थे आदमी पर हमला नहीं कर सकता। आ मैदान में, निपटारा हो ले। इस गांव में एक ही मूंछ ऊंची रहेगी--या तेरी, या मेरी। दूसरा जिंदा नहीं रह सकता।
बनिए ने कहा, जैसी मर्जी। लेकिन एक बात समझ लो। जरा पांच मिनट का मुझे वक्त दो। घर जाकर पत्नी-बच्चों को साफ कर आऊं। क्योंकि मेरे मरने के बाद--हो सकता है मैं मर जाऊं--नाहक पत्नी क्यों दुख पाए! मूंछ मेरी; झगड़ा मेरा तुझसे; मेरे बच्चे क्यों भूखे मरें, अनाथ हों! जाकर उनको खत्म कर आऊं। और अगर तू मेरी मान, तो तू भी जा और पत्नी-बच्चों का सफाया कर आ। क्योंकि कौन जाने, तू मर जाए!
राजपूत को बात जंची। उसने कहा, बात तो बिलकुल ठीक है। झगड़ा हमारा है। इसमें पत्नी-बच्चे क्यों कष्ट पाएं!
दोनों घर गए। पांच-सात मिनट बाद राजपूत तो साफ करके लौट आया पत्नी-बच्चों को। बनिया मूंछ नीची करके लौट आया। राजपूत ने कहा, अरे तूने मूंछ नीची क्यों की?
उसने कहा, मैंने सोचा, क्यों नाहक हत्या करना! पत्नी मारो, बच्चे मारो, फिर तुमको मारो। क्या सार? अरे यह मूंछ नीची सही!
मगर उसने राजपूत का घर बरबाद करवा दिया। उसने राजपूत को बरबाद करवा दिया। यह स्त्रैण ढंग हुआ बदले का, क्रोध का,र् ईष्या का, जलन का। मगर है तो बात वही, मूंछ ऊंची कि नीची, इससे फर्क नहीं पड़ता। मगर बनिए ने भी चाल चली!
क्रोध अहंकार का सक्रिय रूप है, राजपूती रूप है समझो; औरर् ईष्या अहंकार का वणिक रूप है, निष्क्रिय रूप है। मगर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मधुरी, अहंकार तो जाएगा संन्यास से। संन्यास का अर्थ है: समर्पण। संन्यास का अर्थ है: झुक जाने की क्षमता। संन्यास का अर्थ है: अहोभाव से झुक जाना। संन्यास का अर्थ है: यह घोषणा सदगुरु के समक्ष कि अब मैं नहीं हूं, तुम ही हो। और यही घोषणा एक दिन परमात्मा के समक्ष पहुंच जाती है। सदगुरु से तुमने जो निवेदन किया है, वह वस्तुतः परमात्मा से ही निवेदन किया है। क्योंकि सदगुरु तो डाकिया भर है। तुम्हारे संदेश वहां तक पहुंचा देता है, क्योंकि तुम अभी अपने संदेश वहां नहीं पहुंचा पाते।
सदगुरु तुम्हारी भाषा भी जानता है और परमात्मा की भी भाषा। तुम बोलते हो शब्दों में, परमात्मा बोलता है मौन में। सदगुरु तुमसे बोलता है, शब्दों का उपयोग करता है। और जब परमात्मा से बोलता है, तो चुप्पी साध लेता है। वहां मौन भाषा है। वहां मौन संवाद है।
सदगुरु का एक पैर उस लोक में है, एक पैर इस लोक में है। सदगुरु की देह पृथ्वी पर, आत्मा आकाश में। सदगुरु के साथ जुड़ जाने का नाम सत्संग। सदगुरु के साथ जुड़ जाने का नाम संन्यास। इसका संबंध त्याग इत्यादि से बिलकुल नहीं है। यह एक अनूठा गठबंधन है। यह एक अनूठी सगाई है। यह उस विराट के साथ भांवर डाल लेनी है।
मधुरी, मैंने तुझे पहले उत्तर नहीं दिया, क्योंकि तेरे प्रश्न से मुझे साफ था कि जरा ठहरूं, संन्यास हो ही जाने दूं। इसलिए भी उत्तर नहीं दिया कि यह भी हो सकता है, मेरे समझाने के कारण तू संन्यास ले ले। तब थोड़ी सी चूक हो जाएगी। क्योंकि कई बार यह हो सकता है कि मैंने समझाया, मेरी बात जंची, मेरा तर्क जंचा, तेरी बुद्धि प्रभावित हुई, तू संन्यस्त हो गई। और कल दूर जाकर फिर संदेह उठ आएं।
इसलिए मेरी पूरी आकांक्षा यही होती है कि संन्यास तुम्हारा अपना अंतर्भाव हो। मेरे समझाने से नहीं, मेरे होने से घटे। मेरे कहने से नहीं, मेरी मौजूदगी से घटे। मैं तुम्हारी बुद्धि को सब तरह से राजी करूं, फिर घटे, तो वह संन्यास खोपड़ी का होगा। और मेरी सन्निधि में तुम्हारा हृदय तरंगायित हो जाए, और फिर घटे, तो वह संन्यास हृदय का होगा। उसकी गहराई और। उसका मजा और। उसकी मौज और। उसका रंग और। उसका ढंग और।
बुद्धि में तो रूखी-सूखी बातें घटती हैं; वहां रसधारें नहीं बहतीं। बुद्धि तो गणित करने में कुशल है; वहां प्रेम का पैर भी नहीं पड़ता। प्रेम तो हृदय में घटता है। और संन्यास प्रेम का कदम है। यह प्रेम की यात्रा है।
इसलिए मैं चुप रहा। तेरे प्रश्न को सम्हाले रखा रहा, कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों...! अब तेरा संन्यास हो गया है। अब तुझसे मन की बातें कही जा सकती हैं। अब तूने अपना हृदय खोला है। अब तेरे हृदय पर मैं हस्ताक्षर कर सकता हूं।
संन्यास का अर्थ है: भर गया मन, देख लिया सब, यहां पाने योग्य कुछ भी नहीं है। कि अब और लौट कर नहीं आना है--संन्यास का अर्थ है। आ चुके बहुत बार देह में; पड़ चुके बहुत बार गर्भ के गङ्ढे में; देख चुके बहुत पीड़ाएं, देख चुके बहुत संताप। अब और नहीं आना। अब दुबारा नहीं आना है।
बादलों के पास से आना नहीं,
दे नयन में नयन मुस्काना नहीं।

है अंधेरी रात, मैं भटकी हुई,
और सिर से पांव तक अटकी हुई,
भाल पर की रेख-सी अंधी हुई,
पायलों-सा और तड़पाना नहीं।

फिर मुझे इस बार भी भ्रम हो गया,
यूं छला जाना सहज क्रम हो गया,
जिंदगी का व्यर्थ सब श्रम हो गया,
आस के उस गांव से आना नहीं।

रूप केवल एक क्षण का हास है,
देख, उजला कफन सिर के पास है,
जिंदगी बस मौत का ही रास है,
रूप पर तुम और इतराना नहीं।

अब मुझे तुम और भी भटकाओ मत,
दे मुझे दाने अधिक तड़पाओ मत,
और मेरी मृत्तिका लजवाओ मत,
फिर  मुझे  इस  पार  है  आना  नहीं।
संन्यास ऐसी प्रतीति है:
और मेरी मृत्तिका लजवाओ मत,
फिर मुझे इस पार है आना नहीं।
अब मुझे तुम और भी भटकाओ मत,
दे मुझे दाने अधिक तड़पाओ मत,
जिंदगी बस मौत का ही रास है,
रूप  पर  तुम  और  इतराना  नहीं।
इतरा लिए शरीर पर, इतरा लिए धन पर, पद पर। इतरा लिए बहुत। जन्मों-जन्मों इतरा लिए। कब तक आते जाना है? मधुरी, बहुत हुआ!
संन्यास इस बात का निर्णय है कि काफी काफी है। अब और है आना नहीं। इस जीवन में एक ही भूल है, और वह भूल है कि संन्यास समझ में न आए। और सब भूलें तो गौण हैं। उनका कोई बहुत मूल्य नहीं है। जिसको एक बात समझ में आ गई--संन्यास का अर्थ, गरिमा, महिमा--उसे सब समझ में आ गया।
याद भूल जाने को एक उम्र कम है, पर--
एक भूल काफी है उम्र भर रुलाने को।

एक सांस जीवन में एक बार आती है,
बार-बार लेकिन क्यों आंख डबडबाती है,
मनचाहा आंचल तो मुश्किल से मिलता है
इसीलिए आंसू को धूल बहुत भाती है,
रूप के बढ़ाने को लाख फूल कम हैं, पर--
चार फूल काफी हैं अर्थियां सजाने को।
याद भूल जाने को एक उम्र कम है, पर--
एक भूल काफी है उम्र भर रुलाने को।

कुछ तो मन मृग-जल के पीछे भरमाता है,
कुछ मन का मेघों से मरुथल-सा नाता है,
आशा ही आशा में ओंठ सूख जाते हैं
कौन बुझे प्राणों की प्यास बुझा पाता है,
प्राण-दान पाने को बूंद-बूंद मुश्किल, पर--
एक बूंद काफी है जिंदगी डुबाने को।
याद भूल जाने को एक उम्र कम है, पर--
एक भूल काफी है उम्र भर रुलाने को।

प्रात कब हंसाता है, सांझ कब रुलाती है,
किस-किस से सांसों की कथा लिखी जाती है,
समय सभी घावों को पूर नहीं पाता है
दबी हुई पीड़ा भी उभर-उभर आती है।
दर्द के मिटाने को सौ-सौ सुख कम हैं, पर--
एक दर्द काफी है लाख सुख भुलाने को।
याद भूल जाने को एक उम्र कम है, पर--
एक  भूल  काफी  है  उम्र  भर  रुलाने  को।
और मैं उस भूल को कहता हूं: संन्यास को न समझने की भूल। यहां सभी संसार को समझने में लगे हैं। समझ कुछ पाते नहीं; नासमझी बढ़ती ही चली जाती है। जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे नासमझी बढ़ती है। बच्चे ही कहीं बूढ़ों से ज्यादा समझदार होते हैं। क्योंकि चित्त ताजा होता है। मन का दर्पण स्वच्छ होता है। चीजें साफ दिखाई पड़ती हैं। धूल नहीं जमी होती। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, वैसे-वैसे धूल जमी--अनुभव की धूल, ज्ञान की धूल, और समझना और-और मुश्किल हो जाता है।
बात तेरी समझ में आ गई। संन्यास में तेरा प्रवेश हुआ। तू अहोभागी है! अब तू देखना, ध्यान का यह दीया जैसे-जैसे जलेगा, वैसे-वैसेर् ईष्या और क्रोध और अहंकार, सब चले जाएंगे। उन्हें छोड़ना नहीं पड़ेगा; वे तुझे छोड़ देंगे। और तभी मजा है। तभी रस है।
जिन चीजों को हम छोड़ते हैं, वे कभी हमसे छूट नहीं पातीं। कुछ न कुछ अटका रह जाता है। जो आदमी धन छोड़ कर जंगल चला जाता है, वह जंगल में बैठ कर भी धन का ही विचार करता है। करेगा ही। छोड़ कर भागा है। छोड़ कर हम भागते ही उसको हैं, जिसमें हमारा रस इतना होता है कि हमें डर होता है कि अगर हम भागे न, तो उलझ जाएंगे। जो व्यक्ति पत्नी को छोड़ कर भाग गया है, वह स्त्रियों के संबंध में सोचता ही रहेगा; बचना असंभव है। नहीं तो भागता ही क्यों? भागते कायर हैं; भागते भयभीत हैं; और जहां भय है, वहां मुक्ति नहीं।
जो व्यक्ति स्त्री से डर कर भागा है, क्योंकि शास्त्रों ने कहा है, स्त्री नर्क का द्वार है...। जिन्होंने लिखा, उनको कुछ पता नहीं होगा। उन्होंने अपना क्रोध जाहिर किया है स्त्री के प्रति; और कुछ भी नहीं। उन्होंने घोषणा की है इस वक्तव्य में कि उनका मन स्त्री में बहुत लिप्त था। स्त्री उन्हें नरक की तरफ खींचती हुई मालूम पड़ी होगी। इसलिए तो बेचारों ने लिखा कि स्त्री नरक का द्वार है।
अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो फिर स्त्रियां तो नरक जा ही नहीं सकतीं! स्त्रियों को एक बड़ा लाभ है इसमें; उन्हें राजी हो जाना चाहिए इस बात से। स्त्रियां तो नरक तभी जा सकती हैं, जब पुरुष भी नरक का द्वार हो। नहीं तो स्त्रियों को कौन नरक ले जाएगा!
लेकिन चूंकि स्त्रियों ने शास्त्र लिखे नहीं। लिखना तो दूर, पुरुषों ने पढ़ने तक नहीं दिए स्त्रियों को शास्त्र। आज भी यहूदी स्त्रियां सिनागॉग में, यहूदियों के मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकतीं। उनके लिए दूर ऊपर छज्जा बना होता है, उस पर बैठ सकती हैं।
मैंने कहानी सुनी है कि जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थी और गोल्डामेयर इजरायल की, तो इंदिरा इजरायल गई। गोल्डामेयर से इंदिरा ने कहा कि और सब चीजें दिखाईं, लेकिन यहूदी मंदिर नहीं दिखाया। गोल्डामेयर थोड़ी सकुचाई, कि कैसे यह बात कहे कि यहूदी मंदिर में स्त्री को प्रवेश नहीं है। मुसलमानों की मस्जिद में भी स्त्री को प्रवेश नहीं है। एक छज्जा अलग बनाया होता है--दूर, ऊपर! मगर अब इंदिरा ने जोर दिया, तो गोल्डामेयर लेकर उसे गई। दोनों छज्जे पर बैठीं।
इंदिरा जब वापस लौटी, तो दिल्ली में किसी ने पूछा कि कुछ खास चीजें देखीं? तो इंदिरा ने कहा, और सब तो देखा ही देखा, एक खास बात देखी कि इजरायल में प्रधानमंत्री छज्जों पर बैठ कर प्रार्थना करते हैं, मंदिर में नहीं। दोनों ही प्रधानमंत्री! तो इंदिरा ने समझा कि प्रधानमंत्रियों के लिए विशेष आयोजन है--छज्जा। वह प्रधानमंत्रियों के लिए नहीं है आयोजन। वह स्त्रियों को मंदिर-प्रवेश से रोकने का उपाय है। बस उतने दूर तक आ सकते हो; उससे नीचे आना मुश्किल। कभी-कभी इसमें बड़ी झंझटें हो जाती हैं।
एक दफा एक स्त्री छज्जे पर से गिर पड़ी। ज्यादा झांक कर देख रही होगी कि नीचे क्या हो रहा है? जवान सुंदर युवती छज्जे पर से गिरी, उसका घाघरा शेंडेलियर में फंस गया। वह नग्न लटकी है! रबाई बूढ़ा आदमी था, होशियार आदमी। बूढ़े होशियार हो जाते हैं। तत्क्षण, युगपत उसने तरकीब निकाल ली। उसने कहा, सावधान! कोई ऊपर न देखे। जो ऊपर देखेगा, दोनों आंखों से अंधा हो जाएगा। लेकिन फिर भी एक बूढ़ा ऊपर देखा। रबाई ने कहा, देख! उसने कहा, मैं एक ही आंख से देख रहा हूं। अब इस उम्र में एक आंख चली भी गई तो क्या हर्जा! वह एक आंख बंद किए था और एक आंख से देख रहा था!
अगर तुम होशियारियां निकालोगे तो दूसरे भी होशियारियां निकाल लेते हैं। तुम बूढ़े हो, तो वह भी बूढ़ा था। तुमसे कुछ कम न था। तुम अनुभवी, तो वह भी अनुभवी था। उसने कहा, अब इस उम्र में एक आंख दांव पर लगा देने में कुछ हर्जा नहीं है!
स्त्रियां नरक का द्वार--जिन्होंने लिखा होगा, भगोड़े होंगे। स्त्रियों को बिना समझे भाग गए होंगे। कामवासना मिटी न होगी। दब गई होगी अचेतन में। दबा ली होगी। उसकी छाती पर बैठ गए होंगे। वह भभक रही होगी। अंगारा राख में दब गया होगा; बुझा नहीं होगा।
नहीं; धन से भागोगे, तो धन पीछा करेगा। पद से भागोगे, पद पीछा करेगा। स्त्रियों से भागोगे, स्त्रियां पीछा करेंगी। पुरुषों से भागोगे, पुरुष पीछा करेंगे। जिससे भागोगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा। संन्यास भागना नहीं है, जागना है--जहां हो, वहीं जागना है। संन्यास साक्षी-भाव है।
मधुरी, साक्षी बन!र् ईष्या का भी दर्शन कर, क्रोध का भी, अहंकार का भी, मोह का, मद का, मत्सर का, जो भी उठता हो, जो भी धुएं मन को घेरते हों, उन सबके भीतर शांत भाव से बैठ कर साक्षी! देखो, सिर्फ देखो। निर्णय न लो। बुरा-भला न कहो। गालियां न दो। न्यायाधीश न बनो। चुनाव न करो। निर्विकल्प, चुनावरहित, साक्षी-भाव--बस संन्यास का यह सार-सूत्र है। फिर सब मिट जाएगा। सब जो व्यर्थ है, मिट जाएगा; और जो सार्थक है, उभर आएगा। तब यही संसार परमात्मा में रूपांतरित हो जाता है।

*दूसरा प्रश्न: भगवान! मुझे बहुत दुख होता है कि मेरा पात्र इतना बड़ा नहीं है कि आपको समा सके। जब भी मैं आपको प्रवेश देती हूं, आपकी ऊर्जा इतनी अतिशय होती है कि वह हंसी, रुदन या नृत्य बन कर बह जाती है। कभी-कभी मैं सोचती हूं कि कहीं मैं आपके उदार आशीषों को लेने में कृपण तो नहीं हो रही! या ऊर्जा के व्यक्त होने का यही सही ढंग है?

प्रेम काव्या! बूंद में जब सागर उतरेगा, तो बूंद नाचेगी। तभी तो नाचने का शुभ क्षण आया। तभी तो नाचने की घड़ी आई। फूल जब खिलेगा, सुवासित होगा, सूरज की किरणें फूल पर नाचेंगी, तो फूल के भांवर पड़ने की घड़ी आ गई, शुभ मुहूर्त आ गया। यही तो घड़ी है, जिसकी प्रतीक्षा थी जन्मों-जन्मों से। फूल नाचेगा, मस्त होगा, मदमस्त होगा, अलमस्त होगा।
सत्संग में ऊर्जा तो बरसेगी; वही तो सत्संग का अर्थ है। और यह ऊर्जा मेरी नहीं, परमात्मा की है। तुम्हारे भीतर भी जो नाच उठा है, वह भी परमात्मा का है। क्योंकि परमात्मा का ही परमात्मा से मिलना हो सकता है, परमात्मा और परमात्मा में ही तालमेल हो सकता है।
शिष्य और गुरु के बीच जब जुगलबंदी बंध जाती है पूरी-पूरी, तो न शिष्य रह जाता, न गुरु रह जाता; बस जुगलबंदी रह जाती है। तब सितार और तबले में एक लयबद्धता रह जाती है। तब सितार सितार नहीं होता, तबला तबला नहीं होता। जब जुगलबंदी अपनी चरम शिखर पर पहुंचती है, तो तबला सितार होता है, सितार तबला होता है। तब कौन कौन है, तय करना मुश्किल हो जाता है!
काव्या, ऐसे अनूठे क्षणों में नाचो! गाओ! गुनगुनाओ! हंसो! रोओ! भाषा असमर्थ है। ये भाव-भंगिमाएं स्वाभाविक हैं। यह अभिव्यक्ति का ठीक-ठीक ढंग है। और डरना मत। मत सोचना कि कहीं ऐसे मैं मिली हुई ऊर्जा को, मिले हुए आशीषों को व्यर्थ ही नष्ट तो नहीं कर रही हूं!
नष्ट तो कुछ होता ही नहीं। इस अस्तित्व में कुछ भी नष्ट नहीं होता। आदान-प्रदान है; आना-जाना है। न कुछ सृजन होता है, न कुछ विनाश होता है। अभी आकाश में बादल घिरे और बूंदाबांदी हो रही है। पहाड़ों पर वर्षा होगी। नदियां भर जाएंगी। बाढ़ आएगी। सागर में जाकर बाढ़ नदियां अपनी उलीच देंगी। सागर पर धूप चमकेगी। सूरज से आग बरसेगी। भाप बनेगी। फिर बादल बनेंगे। फिर बूंदाबांदी। फिर नदियां भरेंगी। फिर बाढ़। फिर सूरज। फिर बाढ़। एक वर्तुलाकार अस्तित्व है। यहां कुछ भी नष्ट नहीं होता। नृत्य तो चलता रहता है। रास तो चलता रहता है। नष्ट कुछ भी नहीं होता।
लेकिन हमारा मन कंजूस है। तो जब आनंद की कोई घटना घटती है, तो पुरानी कंजूसी, पुरानी आदतें जोर मारती हैं। पुराने संस्कार कहते हैं कि जैसे हम धन को पकड़ कर रखते थे ताला-चाबी के भीतर, ऐसे ही आनंद की एक पुलक आई है, बांध लो इसे। अब छोड़ मत देना। कहीं ऐसा न हो कि छिटक जाए हाथ से!
अगर आनंद की पुलक को पकड़ा, तो मर जाएगी। जो पकड़ेंगे--चूक जाएंगे। जो बांट देंगे--बचा लेंगे। इस गणित को ठीक से समझ लो। इस भीतर के गणित को खुद जाने दो स्वर्णाक्षरों में अपने हृदय पर। जीसस ने कहा है: जो अपने को बचाएगा, मिट जाएगा; और जो मिटने को राजी है, उसका मिटना असंभव है।
काव्या, जब आनंद तुझे नचाने लगे, तो रोक मत लेना यह सोच कर कि इस आनंद को सम्हालना चाहिए। कहीं यह छितर न जाए, बिखर न जाए, बंट न जाए। मेरा पात्र तो छोटा है, कहीं पात्र के ऊपर से बह न जाए। बहने दो! जितना बहेगा, उतना ज्यादा मिलेगा। जितना बहेगा, उतना पात्र बड़ा होगा। और जितना बहेगा, उतने नये-नये झरनों से फूट कर तुम्हें भीतर से भरेगा। जैसे कुआं। पानी उलीचो; नये झरनों से पानी चला आता है।
लेकिन कोई कंजूस अपने कुएं को बंद कर दे; ताला लगा दे--कि ऐसे रोज-रोज लोग पानी निकालते रहे, तो एक दिन पानी खतम हो जाएगा; कल गर्मी आ सकती है, कोई मुसीबत के क्षण आ सकते हैं, तो मैं प्यासा मरूंगा। ताला मार दे--कि जब जरूरत होगी, तब मैं ही पीऊंगा; हर किसी को न पीने दूंगा। तो कुआं मर जाएगा। उसके झरने मर जाएंगे। झरनों पर पत्थर, कंकड़, रेत, धूल जम जाएगी। और जब पानी उलीचा न जाएगा, तो नये पानी की कोई जरूरत ही न रहेगी। पुराना पानी सड़ेगा, गलेगा, विषाक्त हो जाएगा। और कभी अगर जरूरत के क्षण में इस कृपण ने उस पानी को पीया, तो मरेगा--जीएगा नहीं। वह पानी फिर प्राणदायी नहीं होगा।
तुम्हारे भीतर जब भी आनंद बरसे--बांटो! दोई हाथ उलीचिए! फिर उसमें कंजूसी न करना। मगर कृपणता हमारे मन की आदत है, यह मैं तुम्हें याद दिला दूं। मन कंजूस है। क्योंकि मन का गणित यह है--बचाओ। मन कहता है: अगर तुमने रुपये बचाए, तो बचेंगे। अगर बांटे, तो गए।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सड़क से गुजर रहा है। एक भिखमंगे ने हाथ फैलाया। कल ही मुल्ला की लाटरी खुली थी, तो बड़ी मौज में था। और कोई दिन होता, तो हजार सबक सिखाए होते इस मस्तत्तड़ंग भिखमंगे को; उपदेश पिलाया होता। लेकिन आज दिल जरा मौज में था। बाग-बाग था; फूल ही फूल खिले थे; पैमाना फूलों-फूलों से भरा था; पैर जमीन नहीं छू रहे थे। निकाल कर सौ रुपये का नोट उस भिखमंगे के हाथ पर रख दिया। भिखमंगे को भी भरोसा नहीं आया। सोचा कि नोट नकली तो नहीं है! उलट-पुलट कर देखा।
नसरुद्दीन ने पूछा, तुम्हें देख कर लगता है अच्छे परिवार के हो, कुलीन हो। तुम्हारे चेहरे की रेखाएं, तुम्हारी भाव-भंगिमा। यद्यपि तुम्हारे कपड़े पुराने पड़ गए हैं, जरा-जीर्ण हो गए हैं, लेकिन लगता है कीमती रहे होंगे कभी। तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?
उस भिखमंगे ने कहा, मेरी यह हालत कैसे हुई, इसे जानने में आपको ज्यादा देर न लगेगी। इसी तरह सौ-सौ रुपये के नोट भिखमंगों को देते रहें। ऐसे ही मैं देता रहा। जो मेरी हालत हो गई, साल-छह महीने में आपकी भी हो जाएगी। आप रास्ते पर ही हो!
वह भिखमंगा ठीक कह रहा है। अर्थशास्त्र का नियम तो यही है कि अगर ऐसे रुपये बांटोगे, तो जल्दी चुक जाओगे। खुद भी भीख मांगोगे। लेकिन एक भीतर का अर्थशास्त्र है, वहां नियम ठीक उलटा है। कभी झील के किनारे खड़े हुए? झील में झांक कर देखा? तो तुम्हारी जो तस्वीर झील में बनती है, वह उलटी बनती है। उसमें सिर नीचे की तरफ होता है; पैर ऊपर की तरफ होते हैं। अगर मछलियां तुम्हें झील में देखती होंगी, तो सोचती होंगी, खूब अजीब जानवर है यह भी! सिर नीचे की तरफ, पैर ऊपर की तरफ!
इस संसार में उस परलोक की छाया बनती है। हम झील की मछलियां हैं। हमें जैसा दिखाई पड़ता है, वह शाश्वत नियम के बिलकुल विपरीत है। इस जगत में तो सिर नीचे, पैर ऊपर। यहां तो हर एक व्यक्ति शीर्षासन कर रहा है। और चूंकि हर एक व्यक्ति शीर्षासन कर रहा है, इसलिए हर एक व्यक्ति को दुनिया उलटी दिखाई पड़ रही है। दिखाई पड़ेगी ही।
मैंने सुना है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, तो एक गधा सुबह-सुबह ही उनके बगीचे में घुस गया। आदमी होता कोई, तो द्वारपाल रोक देता। मगर द्वारपाल भी रात भर का थका था और झपकी खा रहा था। और उसने भी देखा, गधा है। जाता है तो जाने दो। कोई जासूसी तो कर नहीं सकता। कोई गोली मार नहीं सकता। गधा ही ठहरा; करेगा भी क्या! थोड़ी-बहुत घास चर कर वापस लौट जाएगा। सो उसने भी फिक्र न की। गधा भीतर हो गया।
मगर गधा कोई साधारण गधा नहीं था। गधा बड़ा पढ़ा-लिखा था! असल में गधे का जो मालिक था, जो उस पर ईंटें ढोता था, उसे अखबार पढ़ने का बहुत शौक था। तो जब भी ईंटें ढोने का काम नहीं होता, मालिक अखबार पढ़ता। गधा भी उसके पीछे खड़ा होकर अखबार देखता रहता, देखता रहता, देखता रहता। फिर संग-साथ, सत्संग का असर तो होता ही है। पहले बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने लगा। फिर छोटे-छोटे अक्षर पढ़ने लगा। फिर गधा बिलकुल पारंगत हो गया अखबार पढ़ने में। फिर धीरे-धीरे जब पढ़ना सीख गया, तो बोलना भी सीख गया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू सुबह-सुबह शीर्षासन कर रहे थे, जो उनकी आदत थी। गधा उनके जाकर सामने ही खड़ा हो गया। पंडित नेहरू तो भूल ही गए कि वे शीर्षासन कर रहे हैं। उन्होंने देखा, यह गधा उलटा क्यों खड़ा है!
उन्होंने कहा, ऐ गधे! ऐ गधे के बच्चे! मैंने बहुत बदतमीज देखे, तुझ जैसा बदतमीज नहीं देखा। तू उलटा क्यों खड़ा है?
गधे ने कहा, क्षमा करें पंडित जी! उलटा मैं नहीं खड़ा हूं, उलटे आप खड़े हैं।
जब गधे ने कहा, क्षमा करें पंडित जी, तो होश खो गए पंडित जी के। पसीना-पसीना हो गए। एकदम उछल कर खड़े हो गए; सीधे हो गए। गधा--और बोला!
उस गधे ने कहा, क्या आप मेरे बोलने से चौंक गए? क्या आप घबड़ा गए? मुझमें और कोई खास विशेषता नहीं है, सिर्फ मैं बोलता हुआ गधा हूं!
तब तक पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने को सम्हाल लिया था। राजनेता थे, सम्हालने में कुशल थे। ऐसी घड़ियां तो रोज ही आती थीं। सम्हाल ही लेते थे। कहा कि नहीं-नहीं, तेरे बोलने से मैं कुछ घबड़ाया नहीं। मैंने बहुत से बोलते गधे पहले भी देखे हैं।
तो क्या आप इससे डर गए, उस गधे ने पूछा, कि गधा आपसे मिलने आया है?
तब तक पंडित नेहरू पूरे सम्हल गए थे। उन्होंने कहा कि बिलकुल नहीं। क्योंकि मुझसे सिवाय गधों के और मिलने आता ही कौन है!
शीर्षासन अगर तुम कर रहे हो, तो यह भ्रांति हो सकती है कि सारी दुनिया उलटी है। और इस दुनिया में सांसारिक व्यक्ति जो है, वह शीर्षासन कर रहा है। तुमने तो योगियों को शीर्षासन करते देखा है, मेरा अनुभव कुछ और है। मेरा अनुभव है: सब संसारी शीर्षासन कर रहे हैं। योगी तो वह, जो पैर के बल खड़ा हो गया; जो अब उलटा नहीं है। यहां सभी संसारियों की खोपड़ी उलटी है। योगी तो वह, जिसकी खोपड़ी उलटी नहीं है।
काव्या, उस महागणित को समझ जो भीतर का गणित है। वहां लुटाने से मिलता है। बांटने से बढ़ता है। बचाने से कम होता है। जो बिलकुल बचा लेता है, सब समाप्त हो जाता है। लेकिन मन कंजूस है, वह बाहर का ही नियम जानता है।
चंदूलाल का दस लाख रुपया बैंक में जमा था। कभी वह अपने ऊपर एक पैसा भी खर्च नहीं करता था। तभी तो दस लाख रुपया जमा कर पाया। जीता था भिखमंगे की तरह। एक फटीचर साइकिल पर चलता था। उस साइकिल में घंटी की भी कोई जरूरत न थी, क्योंकि एक मील दूर से ही लोग जान जाते थे कि चंदूलाल आ रहा है! आवाज साइकिल की इतनी होती थी! उसके टायर-टयूब में इतने थेगड़े लगे थे कि चंदूलाल भी गिनती भूल गया था कि कितने थेगड़े हैं। उसकी साइकिल एक अजूबा थी। प्रदर्शनी में रखने योग्य थी। चलती थी, यह चमत्कार था। सिर्फ उसी से चलती थी। किसी और से चल भी नहीं सकती थी। इसलिए चंदूलाल कहीं भी रख कर काम कर आता था। ताला लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। कोई दूसरा तो उसे चलाए तो फौरन गिरे! सिर्फ चंदूलाल ही चलाता था। जैसे सरकस में लोग साइकिल चलाते हैं, ऐसी साइकिल थी।
चंदूलाल कभी आइसक्रीम नहीं खाता था। और जब से कोका-कोला बंद हुआ, तब से तो बहुत ही प्रसन्न था। यह एक खर्चा उसके पीछे लगा था, यह भी खतम हो गया। एक बार उसने आत्महत्या करने तक की सोची थी, लेकिन जहर के बढ़े हुए दाम देख कर रुक गया था!
फिर चंदूलाल बूढ़ा हुआ और बीमार पड़ा। मित्रों ने कहा, चंदूलाल, देखो तुम्हारी हालत बड़ी खराब है। तुम्हारा इलाज होना जरूरी है। तुम्हें हास्पिटल में भर्ती करा देते हैं।
चंदूलाल ने कहा कि पहले यह बताओ, खर्चा कितना होगा? अरे बुढ़ापा तो सभी को आता है। और मौत भी कोई नई चीज नहीं, घटती ही रही है। जो भी जन्मा, सो मरा। ज्ञान की बात उसने कही। मन इतना चालबाज है! बचाना है पैसे, ब्रह्मज्ञान की चर्चा छेड़ दी--कि मालूम नहीं उपनिषद क्या कहते हैं! सर्वं खल्विदं ब्रह्म--सबमें ब्रह्म ही व्याप्त है। अरे किसका मरना! किसका जीना! यह तो सब रामलीला है। न कोई आता, न कोई जाता। आत्म तो अमर है।
मित्रों ने कहा, चंदूलाल, यह बकवास छोड़ो। हालत तुम्हारी खराब होती जा रही है। अस्पताल चलना ही होगा। नहीं माने, तो चंदूलाल ने कहा कि पहले हिसाब। तो मित्रों ने कहा, कमरे का बीस रुपया रोज, डाक्टर की फीस दस रुपया रोज, इंजेक्शन लगाने वाले के भी दस रुपये। और अनेक खर्च, दवाइयां इत्यादि। करीब पंद्रह दिन इलाज चलेगा।
चंदूलाल ने पूछा, कुल खर्च कितना होगा। पूरा हिसाब बताओ!
मित्रों ने कहा, यही कोई पांच सौ रुपये के करीब खर्च होगा। थोड़ा कम-ज्यादा भी हो सकता है।
चंदूलाल की एकदम छाती बैठ गई। जितना बूढ़ा वह नहीं था उससे भी ज्यादा बूढ़ा हो गया। मौत इतने करीब नहीं थी, और करीब मालूम पड़ी। पांच सौ रुपये! तो उसने पूछा, फिर मरने पर कितना खर्च होता है?
तो मित्रों ने कहा, मरने पर लकड़ियां लेनी पड़ेंगी, कफन खरीदना पड़ेगा, पुरोहित आदि को भी कुछ देना होगा।
चंदूलाल ने पूछा, कुल कितना, ठीक-ठीक हिसाब बताओ! मेरे पास ज्यादा समय नहीं है सोच-विचार का।
तो मित्रों ने कहा कि यही कोई दस रुपये की लकड़ियां, पंद्रह रुपये का कफन, पांच-दस रुपये पुरोहित को देना पड़ेंगे। पच्चीसत्तीस रुपये में काम निपट जाएगा। सस्ता पुरोहित पकड़ो, थोड़ी गीली लकड़ियां ले लो, कफन भी जो पहले उपयोग किए जा चुके हैं, तो थोड़ा कम में, समझो कि पंद्रह रुपये में निपट जाएगा!
तो चंदूलाल ने कहा, तो फिर मरना ही ठीक है। ऐसे भी ऋषि-मुनि कह गए हैं कि आत्मा अमर है। अमर आत्मा के लिए पचास रुपया खर्च करना! दस-पंद्रह में निपटा लेना। और सच तो यह है कि मैं मर जाऊं, तो धर्मादे में चले जाना। वहां से लकड़ियां भी मुफ्त मिल जाएंगी, कफन भी मुफ्त मिल जाएगा। और अगर कुछ भी न हो सके, तो जब मैं मर ही गया तो क्या चिंता करनी, म्युनिसिपल का ठेला अपने आप ही ले जाएगा। तुम फिक्र ही मत करना!
एक मन है हमारा, जो इस भाषा में ही सोचता है; जो हमेशा कंजूसी की भाषा में सोचता है। बचा लो। जितना बच सकता हो, उतना बचा लो। यही जीवन को गंवाने की व्यवस्था है।
काव्या, जो आनंद तुझे यहां उपलब्ध हो रहा है, जो गीत तेरे भीतर फुलझड़ियों की भांति फूट रहे हैं, लुटाओ! नाचो! गाओ! बचाना मत, बांटो! जितना बांट सको, उतना ही यह आनंद बढ़ेगा।
पूछती है तू: "मुझे बहुत दुख होता है कि मेरा पात्र इतना बड़ा नहीं...।'
पात्र किसका बड़ा है? कितना ही बड़ा पात्र हो, परमात्मा के समक्ष छोटा ही होगा। यह पूरा आकाश भी छोटा पड़ जाता है। यह पूरा आकाश भी उसे कहां समा पाता है! इसलिए इस चिंता में न पड़। इस दुख में भी न पड़। उसकी एक बूंद भी हमारा पात्र सम्हाल ले तो पर्याप्त है, उसकी एक बूंद भी तो सागर है। अमृत की एक बूंद भी तो काफी है; कोई सागर थोड़े ही पीना पड़ेगा अमर होने के लिए! एक बूंद गले के भीतर उतर जाए, कंठ से नीचे उतर जाए, एक बूंद हृदय में पहुंच जाए, बस पर्याप्त है।
तू पूछती है: "जब भी मैं आपको प्रवेश देती हूं, आपकी ऊर्जा इतनी अतिशय होती है कि वह हंसी, रुदन या नृत्य बन कर बह जाती है।'
बह जाने दो। जी खोल कर बहने दो। उन्मत्त होकर हंसो। अलमस्त होकर नाचो। यह मधुशाला है--इसे कभी भूलो मत। यह अभी जिंदा मंदिर है, और जिंदा मंदिर हमेशा मधुशाला होते हैं। पीओ और पिलाओ। ढालो। यह जो सुराही मैंने तुम्हारे सामने रख दी है, यह तुम्हें दिखाने को नहीं। पीओ! और हिसाब मत लगाओ।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर कुछ मेहमान आए हैं। मिठाइयां बनी हैं। पराठे बने हैं। मित्र ने कई बार मना किया कि बस नसरुद्दीन! बस नसरुद्दीन! अब बहुत हो गया। मगर वह कहे इस ढंग से--बस नसरुद्दीन--कि लगे कि कह रहा है कि और नसरुद्दीन!
कहने के भी ढंग होते हैं। अगर सीखना हो, तो पंडित-पुरोहितों से सीखना चाहिए। मैंने पंडित-पुरोहितों को देखा है। जब वह भोजन की थाली पर तुम और एक पराठा डालो, तो साधारण जिसको नहीं चाहिए, वह दोनों हाथों से रोकता है कि नहीं-नहीं। पंडित दोनों हाथ दूर करके कहता है--नहीं-नहीं! बीच में जगह छोड़ देता है, जहां से पराठा डालो।
आखिर मित्र ने कहा कि बस-बस, नसरुद्दीन! सात पराठे ले चुका, अब और नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, सात नहीं, ले तो चुके हो सत्रह, मगर गिनती कौन कर रहा है!
गिनती चल रही है और कहता है--गिनती कौन कर रहा है! ले तो चुके हो सत्रह, लेकिन गिनती कौन कर रहा है!
गिनती छोड़ो। यह जगत गणित का नहीं, काव्य का है। इसलिए तो काव्या, तुझे काव्या नाम दिया। तुझे नाम दिया है--प्रेम काव्या--प्रेम की कविता। यहां कहां गणित! कहां हिसाब! पीओ-पिलाओ! नाचो-गाओ!
मैं तुम्हें चाहता हूं, एक नृत्यमय धर्म में तुम्हारा प्रवेश हो। उदास धर्मों से दुनिया काफी परेशान हो चुकी। मुंह लटकाए हुए साधु-संन्यासियों से दुनिया काफी बोझिल है। ये मुर्दों से छुटकारा चाहिए। ये कब्रिस्तानी चेहरे, ये कब्रों में ही रहें, मंदिर और मस्जिद इनसे मुक्त होने चाहिए। मंदिरों में बांसुरी बजे फिर कृष्ण की। मस्जिदों में फिर गीत उठें कुरान के। गुरुद्वारे में फिर मर्दाना साज छेड़े और नानक गीत गाएं।
एक उत्सव चाहिए, एक महोत्सव चाहिए।
महाराग सिखाता हूं तुम्हें, वैराग्य नहीं। क्योंकि मेरी दृष्टि में महाराग ही वैराग्य है। तुम्हें काव्य सिखाता हूं, गणित नहीं। क्योंकि मेरी दृष्टि में काव्य ही धर्म है, गणित धर्म नहीं।


*तीसरा प्रश्न: भगवान! मैं संसार को जगाना चाहता हूं। क्या करूं?

रामतीर्थ! पहले खुद तो जागो! संसार ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? क्यों लोगों के पीछे पड़ना चाहते हो?
ये तरकीबें हैं हमारे मन की। खुद जागना नहीं चाहते; तो चलो, दूसरों को जगाएं! इससे एक भ्रांति बनी रहती है कि जागरण के महाकार्य में लगे हैं--दूसरों को जगा रहे हैं!
लोग दूसरों की सेवा कर रहे हैं; अभी अपनी सेवा कर नहीं पाए! लोग दूसरों को प्रेम कर रहे हैं; अभी अपने से भी प्रेम जगा नहीं है! लोग बांटने चले, और भीतर अभी संपदा का जन्म नहीं हुआ! गीत गुनगुनाने की आकांक्षा है, मगर भीतर इतना रस उमगा है कि गीत बन सकें? बांसुरी तो बजाओ, जरूर बजाओ, मगर स्वर कहां से लाओगे? बासे, उधार स्वर किसी को जगाने के लिए सहयोगी नहीं हो सकते।
रामतीर्थ, अभी तुम नये-नये संन्यासी हो। अभी चार दिन भी तो नहीं हुए संन्यासी हुए। अभी चार दिन पहले तुम सोए हुए थे। पूछते थे कि मैं कैसे जागूं?
और अब तुम संसार को जगाने का सोचने लगे! मन की चालबाजियों से सावधान रहना। मन बड़ा चालबाज है, बड़ा पाखंडी है। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। मन चाणक्य है। मन मैक्यावेली है। मन इतना कुशल है धोखे देने में कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कब तुम्हारी जेब काट गया। तुम्हें कानों-कान खबर न होगी, तुम्हीं को धोखा दे जाएगा।
अभी तुम्हें जागना है। हां, तुम जाग जाओगे, तो पूछने की जरूरत न पड़ेगी कि लोगों को कैसे जगाऊं। जिस विधि से तुम जागो, उसी विधि को लोगों को भी जतला देना। अभी पूछते हो, क्योंकि खुद तो जागे नहीं हो। अभी खुद तो गहरे सो रहे हो। गौर से सुनता हूं, तो तुम्हारी नींद की घुर्राहट मुझे सुनाई पड़ती है!
एक बार मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। कोई पंद्रह-बीस साल लगातार सफर करता रहा पूरे मुल्क की। लेकिन वैसा मौका एक ही बार आया। अदभुत मौका था। चार ही व्यक्ति थे हम एयरकंडीशंड कंपार्टमेंट में। मगर क्या संयोग कि मेरे सामने की नीचे की बेंच पर जो आदमी था वह घुर्राए। मगर वह कुछ भी नहीं! उसके ऊपर की बेंच का जो जवाब दे--कि पहले वाला बिलकुल ऐसा लगे कि शांत सो रहा है। और मेरे ऊपर की बेंच वाला जो था, उसने तो दोनों को मात कर दिया। वे ऐसे सुरत्ताल में...जवाब-सवाल! जैसे कव्वाल करते हैं न कव्वाली। अकेला मैं परेशान।
जब मुझे कुछ न सूझा, तो मैंने जागे-जागे इतने जोर से घुर्राना शुरू किया कि वे तीनों जाग गए। मुझसे बोले, भाई साहब, आप क्या कर रहे हैं?
मैंने कहा, अब और क्या करूं! तुम तीनों मुझे सोने नहीं देते। नींद वालों को न जीतने दूंगा। यह मेरा धंधा है। हालांकि मुझे नींद तो तुम आने नहीं दोगे; मगर मैं तुम्हें सोने नहीं दूंगा। और तरकीब मुझे पकड़ में आ गई। मैं भी घुर्राऊंगा। या तो तुम घुर्राना बंद करो या फिर रात भर की तैयारी कर लो। और स्वभावतः तुम तो नींद में घुर्राते हो। इसलिए तुम्हारी एक सीमा है। मैं तो जागा हुआ घुर्राऊंगा; तो मेरी कोई सीमा नहीं है। मैं तुमको ही नहीं जगाऊंगा, इसमें आस-पास के जो कंपार्टमेंट हैं, उनके लोगों को भी जगा दूंगा।
अगर तुम लोगों की तरफ गौर से देखो, तो रास्ते पर चलते हुए भी वे घुर्रा रहे हैं। काम करते हुए भी घुर्रा रहे हैं। नींद तो लगी है, सतत लगी है। आंखें खुली हों, इससे क्या होता है! आंखें खुले-खुले भी लोग सोए हुए हैं।
मनोवैज्ञानिकों ने यह खोज की है कि दुनिया में कारों, ट्रकों, बसों के जो सर्वाधिक एक्सीडेंट होते हैं, वे होते हैं दो बजे से चार बजे रात के बीच। और जो अनुभव खोजबीन से पता चला, वह बड़ा आश्चर्यजनक है। वह अनुभव यह है कि जो दुर्घटनाएं होती हैं, उन दुर्घटनाओं में ऐसा नहीं होता कि दो और चार के बीच नींद का समय होता है तो ड्राइवर सो जाता है। नहीं, उसकी आंख खुली रहती है और नींद लग जाती है। आंख खुली रहती है। आंख तो बिलकुल खुली रहती है, लेकिन पथरा जाती है। उसमें दिखाई कुछ नहीं पड़ता।
आंख चूंकि खुली रहती है, इसलिए ड्राइवर को यह भी शक पैदा नहीं होता कि मैं सो गया हूं। सो वह गाड़ी चलाए जाता है। और उसे दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता। सर्वाधिक दुर्घटनाएं इस कारण होती हैं। अगर ड्राइवर को यह भी पता चल जाए कि मेरी आंख बंद हो गई, तो वह रोक दे गाड़ी। मगर आंख खुली है, अभ्यासवश आंख खुली है। पुराना अभ्यास--आंख खुली है। लेकिन भीतर नींद इतनी गहरी हो गई है कि खुली आंख पर भी छा गई है।
आध्यात्मिक अर्थों में संत यह सदा से जानते रहे हैं कि तुम सब जागे हुए भी सो रहे हो। कृष्ण ने प्रसिद्ध वचन कहा है। उससे विपरीत वचन भी खयाल में रख लेना, वह भी उतना ही सत्य है।
कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्व भूतायाम् तस्याम् जागर्ति संयमी। जो सबके लिए अंधेरी रात है, जब सब सो जाते हैं, तब भी संयमी, समाधिस्थ, योगी, योगस्थ जागा होता है। यह आधा वचन है। योगी सोया-सोया भी जागा होता है; उसकी आंख बंद होती है, मगर भीतर जागरण होता है। अयोगी जागा-जागा भी सोया होता है। यह दूसरा हिस्सा है उसका, जो कृष्ण ने नहीं कहा। लेकिन मैं चाहता हूं, यह तुम याद रखना। यह तुम्हारे ज्यादा काम का है। पहला तो तुम्हारे किस काम का! जब योगी बनोगे, तब उसका अर्थ समझ में आएगा। दूसरा हिस्सा तुम्हारे ज्यादा काम का है कि तुम आंख खोले-खोले भी सोए हुए हो।
रामतीर्थ, मत पूछो अभी कि संसार को जगाना चाहता हूं। यह भी अहंकार है। यह अहंकार की नई यात्रा--कि मैं संसार को जगा कर रहूंगा। पहले तुम प्रधानमंत्री बनना चाहते होओगे। फिर देखा कि प्रधानमंत्री बुरी तरह पिट जाते हैं। अभी देखी मोरारजी भाई की कैसी गति हो गई! दुर्गति हो जाती है। देखा कि अरे यह काम ठीक नहीं। और चरणसिंह कितनी देर तक नहीं पिटेंगे, कहना मुश्किल है। महीने भर भी बच जाए पिटाई तो काफी!
तो तुमने सोचा होगा, रामतीर्थ, कि संन्यास ही ले लें! अब तो मोरारजी भाई भी संन्यास लेने का विचार कर रहे हैं। पूना के एक अखबार ने तो सुझाव दिया है कि यहीं रजनीश आश्रम के सामने आश्रम खोल दें तो अच्छा रहे!
बात मुझे भी जंची। यहीं कोरेगांव पार्क में खोलें तो बड़ी कृपा हो।
तुमने सोचा होगा कि कोई सार नहीं दिल्ली में। रामतीर्थ दिल्ली ही रहते हैं। देख-देख दिल्ली का नाटक, नौटंकी, घबड़ा गए होंगे। सोचा कि चलो पूना! संन्यासी हो गए। लेकिन पुरानी भ्रांतियां अभी सिर पर सवार हैं। अब सारी दुनिया को जगाना है! संसार को जगाना है!
जिसको सोना है, उसे सोने दो। अभी तुम जागो। अभी सारी चेतना और सारी ऊर्जा को अपने ही जागरण में लगा दो। हां, तुम्हारी प्रतिभा सजग हो जाए, तो तुम कुछ रास्ता निकाल सकोगे। निश्चित निकाल सकोगे। सभी जागने वालों ने दूसरों को जगाने का रास्ता निकाल लिया है। लेकिन जागने के बाद। तब फिर यह अहंकार की उदघोषणा नहीं होती। यह फिर प्रेम का आंदोलन होता है, प्रेम की अभिव्यक्ति होती है।
दक्षिण में तेनालीराम की बहुत कहानियां प्रचलित हैं। जैसे उत्तर में बीरबल, ऐसे दक्षिण में तेनालीराम। बूढ़े तेनालीराम के घर में चोर घुसे। बेचारा बूढ़ा भला क्या करता! लड़ भी नहीं सकता, और न चिल्ला सकता; वरना वे चोर उसकी जान ही ले लेते। लेकिन तेनालीराम बड़ा बुद्धिमान आदमी था। दक्षिण में उसकी बुद्धिमत्ता की बड़ी प्यारी कहानियां हैं। उसने एक अदभुत होशियारी की। जोर से अपनी पत्नी को आवाज लगा कर जगाया और चुंबन लेकर बोला, प्रिये, यदि हमारा एक लड़का होता, तो उसका नाम हम क्या रखते?
बुढ़िया चौंक कर बोली, सठिया गए हो क्या! आधी रात को नींद खराब करके यह कहां का सवाल पूछ रहे हो! इस उम्र में अब कहां लड़का! जिंदगी तो चली गई लड़का न हुआ, अब इस बुढ़ापे में लड़के का विचार कर रहे हो। होश में हो कि सपना देख रहे हो!
तेनालीराम ने कहा कि नहीं-नहीं, मजाक नहीं करता। मैं उसका नाम ढब्बूजी रखता।
चोरों ने बूढ़े-बुढ़िया का प्रेमालाप सुना, तो उन्हें बड़ा मजा आया। ढब्बूजी! लड़के का नाम! वे छिप कर और गौर से सुनने लगे।
तेनालीराम ने फिर बुढ़िया को आलिंगन में बांध कर कहा, डाघलग, यदि अपना एक लड़का और होता, तो उसका क्या नाम रखती?
पत्नी बोली, आश्चर्य है, तुम इस उम्र में कहां की बातें कर रहे हो! शराब तो नहीं पी गए आज? होश में आओ। एक तो हुआ नहीं, दूसरे का नाम सोच रहे हो!
बूढ़ा बोला, मैं तो उसका नाम चंदूलाल रखता।
चोरों को तो इस रोमांस में बड़ा रस आने लगा।
तेनालीराम ने अपने तीसरे बेटे का नाम नसरुद्दीन और चौथे का नाम मटकानाथ रखा।
बुढ़िया ने तो कहा कि तुम सन्निपात में हो। तुम बकवास न करो। अब तुम सो जाओ। अब पांचवें की बात ही न छेड़ो। लेकिन वह माना ही नहीं। वह फिर पत्नी से बोला, मान लो कभी अपने घर में चोर घुसते, तो मालूम मैं क्या करता? देखो, इस तरह खिड़की में से बाहर मुंह निकाल कर चिल्लाता। तेनालीराम ने सचमुच खिड़की से मुंह निकाल कर जोरों से चिल्लाया: ढब्बूजी, चंदूलाल, नसरुद्दीन, मटकानाथ, दौड़ो-दौड़ो! घर में चोर घुसे हैं!
तेनालीराम के सारे पड़ोसी डंडा लेकर आ गए। उन्होंने चोरों की अच्छी मरम्मत की। ये सब उसके पड़ोसियों के नाम थे!
कुछ न कुछ रास्ता आ ही जाएगा। तुम तो जागो। सदियों-सदियों में बुद्धपुरुषों ने बहुत उपाय खोजे हैं लोगों को जगाने के। अलग-अलग उपाय खोजे हैं। भिन्न-भिन्न विधियां खोजी हैं। तुम भी खोज लोगे। मगर पहले तुम्हारा बुद्धत्व तो फलित हो। उसके पहले इन व्यर्थ बातों में मत पड़ो। उसके पहले ये बातें सन्निपात की बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं।
जागो! तुम्हारे जागरण में से ही सूत्र निकल आएंगे कि तुम दूसरों के लिए भी सहयोगी हो जाओगे। तुम्हारा जागरण ही दूसरों को जगाने के लिए आधार बन जाएगा। तुम्हारे जागरण की हवा औरों को भी जगाने लगेगी। जैसे सुबह की ताजी हवा नींद को तोड़ने लगे। कि सुबह की सूरज की किरण तुम्हारे कक्ष में आ जाए और तुम्हारे चेहरे को छू ले, और उसकी गरमाहट--और तुम्हारी नींद टूट जाए। रास्ते मिल जाएंगे। मगर अभी चिंता दुनिया की की, तो तुम और सो जाओगे।
मैं तुम्हें समाज-सेवक नहीं बनाना चाहता। और न मैं तुम्हें समाज-सुधारक बनाना चाहता हूं। और न मैं चाहता हूं कि तुम कोई दुनिया भर में क्रांति करने के महान अभियान में लग जाओ। मैं तुम्हें छोटा सा काम दे रहा हूं--लेकिन सबसे बड़ा काम है वह--तुम आत्म-क्रांति में लगो।
आत्म-क्रांति ही एकमात्र मौलिक क्रांति है और उसी क्रांति के आधार पर जगत में कोई दूसरी क्रांति हो सकती है। जब तक आत्म-क्रांति नहीं होती, सभी क्रांतियां असफल हैं।


*आखिरी प्रश्न: भगवान!
      मेरे नैना सावन-भादों,
      फिर भी मेरा मन प्यासा!
      फिर भी मेरा मन प्यासा!
भगवान! दिन-ब-दिन प्यास बढ़ती जाती है। यह प्यास कहां से उठती है?
प्यास में आनंद और दर्द दोनों कैसे हैं? भगवान यह समझाने की अनुकंपा करें!

प्रेम मीनाक्षी! प्रेम में पीड़ा भी होती है, आनंद भी होता है। यह प्रेम का विरोधाभास है। प्रेम में पीड़ा होती है, जैसे गुलाब की झाड़ी में कांटे होते हैं। और प्रेम में आनंद होता है, जैसे गुलाब की झाड़ी पर फूल होते हैं।
लेकिन प्रेम की पीड़ा बड़ी मधुर है। प्रेम की पीड़ा भी बड़ी प्यारी है; केवल धन्यभागियों को उपलब्ध होती है। प्रेम का दर्द दर्द ही नहीं, दवा भी है। अभागे तो वे ही हैं, जिन्होंने प्रेम की पीड़ा नहीं जानी, जिनके भीतर कभी प्यास नहीं उठी--भीतर की प्यास।
तूने कहा: "मेरे नैना सावन-भादों,
             फिर भी मेरा मन प्यासा!'
यह प्यास बाहर की नहीं है। यह प्यास भीतर की है। और ये जो आंसू तेरी आंखों से बरस रहे हैं, यह पीड़ा जिसने तेरी आंखों को सावन-भादों बना दिया, अहोभाव है, कृतज्ञता है।
इजिप्त की पुरानी कहावत है कि तुम परमात्मा को चुनो, इसके पहले परमात्मा तुम्हें चुन लेता है। तुम गुरु को चुनो, इसके पहले गुरु तुम्हें चुन लेता है।
उसकी धीमी-धीमी पगध्वनि तुझे सुनाई पड़नी शुरू हो गई है। और जब उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है--जैसे कि चौके से आती हुई सुस्वादु भोजन की गंध नासापुटों को छुए तो और भूख लग आती है, भूख न भी लगी हो तो भूख लग आती है--ऐसे ही जब उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, ऐसे ही जब गुरु का सान्निध्य मिलने लगता है, तो गहन भूख लगती है, गहन प्यास जगती है। ऐसी प्यास जो इस जगत की किसी भी चीज से बुझेगी नहीं। बाहर उसको बुझाने का कोई उपाय ही नहीं है। तेरे भीतर ही वह जल-स्रोत फूटेगा, जो उसे बुझाएगा। तेरे भीतर ही वह झरना टूटेगा, जो तृप्त करेगा।
लेकिन यह शुभ घड़ी है, इसका स्वागत कर। इसे समझने की चिंता में मत पड़। इसको कोई कभी नहीं समझ सका। प्रेम को कौन कब समझ सका है! प्रेम की प्यास को कौन कब समझ सका है!
चंदा की शादी है, चांदी की रातें हैं
तुमसे  कुछ  कहने  को, अधरों  पर  बातें  हैं
               फागुन की रातें हैं।

झिलमिल से तारे तो आतिश-अनारों-से
उजली पोशाकों में, बादल कहारों-से
नभवाली डोली में, दूल्हे-से चांद को
लेकर   जो   जाते   हैं,   धरती   को   भाते   हैं
               फागुन की रातें हैं।

नदियां पातुरनी-सी पायल बजाती हैं
समधिन-सी गेहूं की बालें लजाती हैं
दर्शक-समूहों-से पेड़ों के कुनबे हैं
कोलाहल  करने  को  हिलडुल  कर  गाते  हैं
               फागुन की रातें हैं।

गंधी की लड़की-सी बेला चमेली है
खुशबू-सा यौवन ले फिरती अकेली है
बाराती लड़कों से गेंदे के फूलों पर
कनखी  ही  कनखी  में  कर  जाती  घातें  हैं
               फागुन की रातें हैं।

खेतों के लावे मशालों से जलते हैं
शिशिरा के झोंके तरुणियों से चलते हैं
पीपल के पातों को ताशे-सा बजता सुन
अनगिन अनब्याहे-से मन दुख-दुख जाते हैं
                            फागुन  की  रातें  हैं।
शुभ घड़ी आई, फागुन की रात आई। राम से विवाहने का क्षण आया। इसलिए प्यास जगी; इसलिए आंखें सावन-भादों हो गईं।
लेकिन ये आंसू मोतियों से ज्यादा कीमती हैं। इन आंसुओं का अभिनंदन करो। इन आंसुओं को समझने मत जाना! क्योंकि विश्लेषण सभी चीजों को क्षुद्र कर देता है। और विचार केवल सतह को छूता है; गहराइयां विचार को उपलब्ध नहीं होतीं।
इन आंसुओं को लेकर किसी केमिस्ट के पास मत चली जाना, मीनाक्षी! समझने, कि ये आंसू क्या हैं? क्योंकि केमिस्ट की दुकान पर तो चाहे आंसू प्रेम के हों, चाहे क्रोध के, चाहे दुख के, चाहे आनंद के--सब एक जैसे हैं। अंधेर नगरी! वहां तो कुछ मोल-भाव में भेद ही नहीं है। टका सेर भाजी, टका सेर खाजा, अंधेर नगरी, अनबूझ राजा। विचार के जगत में तो बटखरे एक से हैं। वहां कोई तौल अलग-अलग नहीं होती।
यह तो बड़ी सूक्ष्म तौल पर तय होगा कि आंसू भिन्न हैं। आनंद के आंसू भिन्न होते हैं दुख के आंसुओं से। वैज्ञानिक अर्थों में नहीं, धार्मिक अर्थों में, रहस्यात्मक अर्थों में। आनंद के आंसुओं में एक काव्य होता है, एक रस होता है। आंसू नहीं होते, मोती ही होते हैं। मोतियों से भी ज्यादा कीमती मोती!
तैयारी कर आगे की। सोच-विचार में न पड़ कि क्या हो रहा है। जो हो रहा है, होने दो! यहां तो बहुत कुछ अनहोना होना है। इसीलिए मैं हूं, इसीलिए तुम हो, इसीलिए यह सत्संग है, इसीलिए यह मधुशाला है, इसीलिए यह पियक्कड़ों की जमात है। जो नहीं होता, वह होना है। जिसके होने का कोई कारण नहीं है, वह होना है। जिसके होने के लिए कोई विधि-विधान नहीं खोजा जा सकता, वह होना है। अनघट घटना है। फागुन की रात आ गई है। बारात आने के क्षण आ गए हैं।
बिन देखे ऐसी लगन लगी,
दर्शन  होगा  तो  क्या  होगा!
सुनता हूं रूप-गर्विता है,
धरती पर पांव नहीं पड़ते।
वह नशा चढ़ा अपनेपन का,
औरों पर नयन नहीं मुड़ते।

सिंगार समय उसके सम्मुख
दर्पण होगा तो क्या होगा!

सुनता हूं मैं उसकी पलकें
बिन आंजे ही कजराली हैं।
दृग नीले इतने, सागर की--
जैसे  गहराई  पी  ली  है।

जब उसकी बड़री आंखों में
अंजन होगा तो क्या होगा!

सुनता हूं उसके अधर सुधर,
फूलों को हंसी सिखाते हैं।
उसकी वाणी से वर पाने
सरगम के स्वर ललचाते हैं।

उन अधरों पर जब प्यार भरा
गायन होगा तो क्या होगा!

मन में कोई कामना जगे,
दर्शन न करूं तो अच्छा है।
उसकी पूजा करते-करते,
मैं अगर मरूं तो अच्छा है।

जब अहम् रूप का पिघल मुझे,
अर्पण  होगा  तो  क्या  होगा!

यह तो शुरुआत है अभी। ये तो प्रेम के पहले-पहले कदम हैं।
सोच-विचार छोड़ो, मीनाक्षी! चलो निर्विचार में। चलो भाव के लोक में। क्योंकि भाव का लोक ही उसका द्वार है।
बिन देखे ऐसी लगन लगी,
दर्शन  होगा  तो  क्या  होगा!
अभी तो उस परमात्मा का कोई अनुभव नहीं हुआ। अभी तो बहुत दूर से--मेरे द्वारा--तुमने परमात्मा की प्रतिध्वनि सुनी है। अभी बांसुरी नहीं सुनी; बांसुरी की अनुगूंज पहाड़ियों में, झीलों में हो रही है, वह सुनी है। अभी चांद नहीं देखा; झीलों में बना प्रतिबिंब देखा है।
बिन देखे ऐसी लगन लगी,
दर्शन  होगा  तो  क्या  होगा!
तैयारी करो। कुछ महत होने के करीब है।

आज इतना ही।


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