नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-सातवां
दिनांक 31 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
सीता: प्रेम की अनन्य घटना
ध्यान और प्रेम करीब-करीब एक ही अनुभव के दो नाम हैं।
जब किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में ध्यान घटता है, तो हम उसे
प्रेम कहते हैं। और जब बिना किसी दूसरे व्यक्ति के, अकेले ही
प्रेम घट जाता है, तो उसे हम ध्यान कहते हैं।
प्रश्न:
भगवान, आपके अनुसार ही, प्रेमी-प्रेमिका
का प्रेम तो टिकाऊ भी होता है, लेकिन पति-पत्नी का नहीं।
और कल आपने कहा कि राम और सीता का प्रेम अपने आप में इतना पूर्ण
था कि
वे एक-दूसरे से आजीवन संतुष्ट रहे।
क्या यह संभव है? या यह नियम को सिद्ध करने वाला
मात्र अपवाद है?
और यदि संभव है, तो कैसे संभव होता है?
और दूसरी बात, आपने गृहस्थों को संन्यास की
दीक्षा दी है।
कितने ही दंपति और प्रेमी-प्रेमिकाओं के जोड़े आपके संन्यास में
दाखिल हैं।
वे अपने सेक्स और संसार को, साधना और
संन्यास को कैसे समन्वित करें,
इस दिशा में भी कृपया हमारा मार्गदर्शन करें।
राम
और सीता का संबंध प्रेम का ही संबंध है, पति-पत्नी का नहीं। विवाह दो भांति
संभव हो सकता है। एक आयोजित, कि माता और पिता निर्णय लें,
पंडित-ज्योतिषी निश्चय करें, परिवार-समाज
सहयोगी हो, लेकिन जिन व्यक्तियों का विवाह हो रहा है,
उनकी कोई भी मरजी न पूछी जाए, समाज तय करे।
ऐसा विवाह आयोजित विवाह है। ऐसे विवाह में बड़ी सुरक्षा है, बड़ी
सिक्योरिटी है।
क्योंकि
बड़े-बूढ़े जब तय करते हैं,
तो पूरे गणित का उपयोग करते हैं, पूरे अनुभव
का उपयोग करते हैं। जीवन में जो उन्होंने जाना है, सीखा है,
समझा है, उस हिसाब से तय करते हैं। बड़े-बूढ़े
चालाक स्वभावतः होते हैं। उनकी चालाकी, उनकी कनिंगनेस,
उनका गणित वे उपयोग में लाते हैं। और उन्होंने जीवन में कुछ
महत्वपूर्ण बातें देखी हैं, जो कि बच्चे बच्चे होने के कारण
नहीं देख सकते। उन्होंने देखा है कि भाव की दशाएं सदा टिकती नहीं हैं। उन्होंने
जाना है कि भाव की ऊंचाई पर जो निर्णय लिए जाते हैं, जब भाव
नीचे गिरेगा तो वे निर्णय नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने यह भी जाना है कि सपनों में
ज्यादा देर तक नहीं जीया जा सकता। सपने अंततः टूट जाते हैं।
रोमांस
एक सपना है। रोमांस एक ऐसा सपना है, जिसमें हम दूसरे को परमात्मा देखते
हैं, दूसरे में परमात्मा देखते हैं। लेकिन हमारी मनोदशा तो
ऐसी नहीं कि दूसरे में परमात्मा हम सतत देख सकें। क्षणभर को झलक मिलती है और खो
जाती है, फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है। और जब दूसरे में
परमात्मा हमें नहीं दिखाई पड़ेगा, तो उस झलक के आधार पर जो
संबंध हमने निर्मित किया था, वह बिखरित हो जाएगा।
इसलिए
पश्चिम में इतना ज्यादा तलाक है। क्योंकि पश्चिम में समाज विवाह को तय नहीं कर रहा
है, बच्चे स्वयं तय कर रहे हैं। सौ विवाह इस वर्ष होंगे, तो उसमें से पच्चीस अगले वर्ष टूट जाएंगे। जो पचहत्तर चलते हैं, वे भी मजबूरी में चलते मालूम पड़ते हैं। अन्य कारणों से चलते मालूम पड़ते
हैं, प्रेम के कारण नहीं। बच्चे हैं, नौकरी
है, अकेलापन है, छोड़ने में मजबूरी है,
छोड़ने में सम्मान को धक्का लगता है, इन सब
कारणों से टिकते हैं।
तो
जो विवाह समाज तय करता है,
वह बड़ा टिकाऊ है। पहली बात। और टिकाऊ वह इसीलिए है कि उसमें कोई
प्रेम की ऊंचाई नहीं है, उसमें गणित का समतल जगत है। उसमें
हिसाब को प्रधानता है, भावना को नहीं। समाज जब तय करता है तो
बुद्धि से तय करता है, उसमें हृदय को स्थान नहीं। और हृदय
भरोसे योग्य नहीं है, क्योंकि हृदय इस क्षण कह सकता है हां
और दूसरे क्षण कह सकता है न।
हृदय
की थिरता तो केवल समाधिस्थ पुरुषों को उपलब्ध होती है। बुद्धि का तो तर्क और गणित
है, उसकी थिरता तो सभी को उपलब्ध हो सकती है। इसलिए बुद्धि को शिक्षित किया जा
सकता है, विद्यालय, विश्वविद्यालय,
परीक्षाएं; लेकिन हृदय का न कोई विद्यालय है,
न कोई विश्वविद्यालय है, न कोई परीक्षाएं हैं।
हृदय को शिक्षित नहीं किया जा सकता।
हृदय
पारे की भांति है,
उसे पकड़ा नहीं जा सकता। हृदय को तो पकड़ने में वे ही सफल हो पाते हैं,
जो समाधिस्थ हुए, जो लीन हो गए, जिनका अहंकार संपूर्ण रूप से समाप्त हो गया। उनका हृदय समाधिस्थ होता है।
ऐसे समाधिस्थ हृदय से जो प्रेम उठता है, वह तो सनातन है,
शाश्वत है। उसका कभी कोई अंत नहीं होता।
पर
ऐसा प्रेम तो कभी उठेगा किसी राम को, किसी सीता को। ऐसे प्रेम का आसरा
लेकर समाज नहीं चलाया जा सकता। और इसको हम आधार मानकर चलेंगे, तो अधिक लोग दुखी हो जाएंगे, पीड़ित हो जाएंगे।
तो
समाज-आयोजित विवाह है। अनुभव, समझ, गणित, सभी आयोजित विवाह के पक्ष में हैं। उससे चीजें टिकती हैं। माना कि आकाश
नहीं छुआ जा सकता, लेकिन पृथ्वी पर पैर जमे रहते हैं। कोई
बहुत आनंद की वर्षा भी नहीं होगी, लेकिन सुख-दुख का छोटा-सा
झरना सदा बहता रहता है।
वे
जो आनंद की वर्षा की आकांक्षा करते हैं, उसमें से सौ में से निन्यानबे,
अक्सर दुख के मरुस्थल में खो जाते हैं। वे जो थोड़े से सुख-दुख के
झरने पर राजी हैं, उन्हें न तो कभी आकाश मिलता है आनंद का और
न कभी दुख का मरुस्थल मिलता है। वे जीवन को चला लेते हैं। उनके जीवन में सुख-दुख
दो चाक बन जाते हैं और उनकी गाड़ी चल जाती है। और उस चलती गाड़ी का हमने नाम जीवन दे
रखा है।
आयोजित
विवाह टिकाऊ होगा,
स्थायी होगा, उसमें महासुख न होंगे, उसमें महादुख भी न होंगे। न वह प्रेम के कारण बना है, न प्रेम के खोने पर टूटेगा। और जब प्रेम के कारण बना ही नहीं है, तो प्रेम के खोने का सवाल नहीं है। वह एक सामाजिक संस्था है। हजारों साल
के अनुभव के बाद, हृदय को हम मौका नहीं देते हैं और बुद्धि
से तय करते हैं। विवाह बुद्धि का निर्णय है।
लेकिन
प्रेम बिलकुल अनूठी बात है,
उसका बुद्धि से कोई संबंध नहीं। प्रेम का विचार से कोई संबंध नहीं।
जैसा ध्यान निर्विचार है, वैसा ही प्रेम निर्विचार है। और
जैसे ध्यान बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता, वैसे ही प्रेम
भी बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता।
ध्यान
और प्रेम करीब-करीब एक ही अनुभव के दो नाम हैं।
जब
किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में ध्यान घटता है, तो हम उसे प्रेम कहते हैं।
और जब बिना किसी दूसरे व्यक्ति के, अकेले ही प्रेम घट जाता
है, तो उसे हम ध्यान कहते हैं। ध्यान और प्रेम एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं। ध्यान और प्रेम एक ही दरवाजे का नाम है, दो
अलग-अलग स्थानों से देखा गया। अगर बाहर से देखोगे, तो दरवाजा
प्रेम है। अगर भीतर से देखोगे, तो दरवाजा ध्यान है। जैसे एक
ही दरवाजे पर बाहर से लिखा होता है एंटे्रन्स, प्रवेश;
और भीतर से लिखा होता है एग्जिट, बहिर्गमन। वह
दरवाजा दोनों काम करता है। अगर बाहर से उस दरवाजे पर आप पहुंचे, तो लिखा है प्रेम। अगर भीतर से उस दरवाजे को अनुभव किया, तो लिखा है ध्यान।
ध्यान
अकेले में ही प्रेम से भर जाने का नाम है और प्रेम दूसरे के साथ ध्यान में उतर
जाने की कला है।
कभी
कोई पहुंच पाएगा। क्योंकि कितने कम ध्यानी हैं! उतने ही कम प्रेमी होंगे।
ध्यानियों के हिसाब से हम दुनिया नहीं चलाते, प्रेमियों के हिसाब से भी नहीं चला
सकते। इसलिए ध्यानी और प्रेमी, दोनों दुनिया की आंखों में
पागल हैं। ध्यानी और प्रेमी, दोनों को दुनिया अंधा कहती है।
इन्हें कुछ सूझता नहीं।
असल
में आंखें हैं बुद्धि के पास। और बुद्धि सोचती है, बस उसके ही पास आंखें हैं।
हृदय के पास कोई और आंखें हो सकती हैं, इसका बुद्धि को पता
भी नहीं। और पता भी हो जाए तो भरोसा नहीं। क्योंकि हृदय जीता है पल-पल, क्षण-क्षण। हृदय एक सहज धारा है।
हृदय
हिसाब नहीं रखता अतीत का कि कल क्या हुआ, परसों क्या हुआ। बुद्धि हिसाब रखती
है पूरे अतीत का और अतीत के आधार पर निर्णय लेती है वर्तमान में। जो जीवन में जाना
है, उस पूरे को मौजूद करके आज क्या करना है, उस संबंध में निर्णय लेती है। हृदय के पास कोई संगृहीत संपदा नहीं है।
हृदय निर्भार है, हृदय का कोई अतीत नहीं है, उसकी कोई स्मृति नहीं है। वह इसी क्षण झटके से निर्णय लेता है। वह कुछ
सोचता-विचारता नहीं। वह अतीत में नहीं जाता। वह अनुभव को बीच में नहीं लाता। वह
स्मृति का प्र्रयोग नहीं करता। उसका जो प्रतिसंवेदन है, रिस्पांस
है, वह इसी पल है, नया और ताजा है।
हृदय सदा, जैसे सुबह की ओस ताजी होती है, ऐसा ताजा है।
बुद्धि
सदा बासी है। हृदय सदा ताजा है। जैसे वसंत में नई कोंपल फूटती है वृक्ष से, ऐसा ताजा
है। बुद्धि सदा पुरानी है, सड़ी-गली है। बुद्धि सदा खंडहर है।
हृदय सदा यहां और अभी है। इसलिए हृदय बुद्धि की दृष्टि में अंधा और पागल है।
प्रेमी
और ध्यानी ज्यादा नहीं हैं,
ज्यादा हो भी नहीं सकते। ध्यानियों के संबंध में तो हम भी मानते हैं
कि ज्यादा नहीं हैं, लेकिन प्रेमियों के संबंध में हम नहीं
मानते। प्रेमी तो हम सभी समझते हैं, हम सब हैं। लेकिन मैं
आपसे कहता हूं, इस भ्रांति को छोड़ दें। जितने न्यून ध्यानी
हैं, उतने ही न्यून प्रेमी हैं। क्योंकि प्रेम भी ध्यान की
ही एक घटना है। और जैसे बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट, इने-गिने ध्यानी हुए, ऐसे ही इने-गिने प्रेमी हुए हैं। सीता, राधा या मीरा,
इने-गिने प्रेमी हुए हैं।
जिस
कामवासना को आप प्रेम समझते हैं, वह प्रेम नहीं है। और जिस कामवासना की दौड़ को
आप समझते हैं, आपके जीवन का कोई बहुत महत्वपूर्ण कृत्य है,
वह जरा भी महत्वपूर्ण नहीं है। वह सिर्फ प्रकृति के द्वारा संचालित
प्रक्रिया है। वह प्रकृति के द्वारा आपको जबर्दस्ती दिया गया धक्का है। जिसमें
प्रकृति संतति के लिए आपको नियोजित करती है।
बीज
टूटते हैं, वृक्ष बनते हैं, वृक्षों में बीज लगते हैं। पक्षी
गीत गाते हैं, आकर्षित करते हैं एक-दूसरे को, संभोग करते हैं, अंडे रखते हैं, बच्चे देते हैं। बस आप भी यही कर रहे हैं। मछलियों में, पक्षियों में, वृक्षों में, आप
में, जहां तक कामवासना का संबंध है, कोई
भी भेद नहीं है।
कामवासना
प्राकृतिक घटना है। प्रेम अप्राकृतिक, अलौकिक, परा-प्राकृतिक
घटना है। प्रकृति के बहुत पार है प्रेम। इसे खयाल में ले लें, और फिर समझने की कोशिश करें।
राम
और सीता का प्रेम,
प्रेम है, विवाह नहीं। और अगर बाल्मीकि की
रामायण आपने पढ़ी है, अन्यथा पढ़नी चाहिए। क्योंकि बाल्मीकि के
बाद फिर तुलसी और सबने रामायण लिखी हैं, लेकिन उन सब
रामायणों में शुद्धता खो गई। बाल्मीकि की रामायण शुद्ध है। शुद्ध इसलिए है कि
बाल्मीकि को न नीति की चिंता है, न धर्म की। बाल्मीकि ने
रामायण वैसी कही है जैसे राम रहे होंगे।
तुलसी
को बड़ी चिंता है राम की प्रतिमा को सम्हालने की। तो जो भी लगे कि इसमें कुछ नीति
को कष्ट होगा,
उस सबको गिरा दिया है। जिस बात में भी लगे कि राम की प्रतिमा में
थोड़े धब्बे आ जाएंगे, उसको हटा दिया है।
तुलसी
आदर्शवादी हैं। बाल्मीकि यथार्थवादी हैं, रिअलिस्ट। इसलिए बहुत सी तो बातें
आपको बड़ा कष्ट देंगी बाल्मीकि में, क्योंकि आप सोच ही नहीं
सकते कि राम और सीता के आस-पास ऐसी बात भी हो रही है।
राम
पहुंचते हैं सीता की नगरी में, बगीचे में घूमते हैं, सीता
को देखकर प्रेम में पड़ जाते हैं। यह हम सोच ही नहीं सकते। यह तो हम कहेंगे,
यह तो एक आवारा लड़का भी यही करता है, किसी
लड़की को देखा और प्रेम में पड़ जाता है। ये कोई ढंग राम के हैं? लेकिन राम का प्रेम हो गया विवाह के पहले। फिर विवाह तो उसी प्रेम की
परिपूर्ति की यात्रा है।
सीता
को भी प्रेम हो गया इस युवक को देखकर। ये दो हृदय मिल गए, समाज
गवाही बाद में देगा। इन दो हृदयों के मिलने की घटना पहले घट गई है। और इसके बाद
मेरी समझ है कि अगर सीता का किसी और से भी विवाह हो जाता, तो
वह ऊपर ही ऊपर रहता। वह जो ताजगी, इन दो हृदयों के कुंआरेपन
में जो प्रेम का जन्म हुआ था, वैसा कुंआरापन फिर किसी और
प्रेम में नहीं हो सकता था। वह उधार होता, शरीर पर होता।
रावण
भी सीता को ले जाता,
तो सीता को कभी पा नहीं सकता था। वह पाने की घटना घट चुकी, वह कोई और व्यक्ति पा ही चुका था। राम किसी और से विवाह कर लेते, तो भी जो सीता से संगीत जन्मा था, उनके दोनों के
हृदय के मिलने की जो अनायास घटना घटी थी, जो आकस्मिक हुआ था,
अन-आयोजित हुआ था, वैसा फिर नहीं हो सकता था।
इस
दिशा से राम और सीता को कभी अध्ययन नहीं किया गया है। क्योंकि हम प्रेम का अध्ययन
ही नहीं करते,
हम प्रेम से बचना चाहते हैं। यह राम का और सीता का प्रेम में पड़
जाना प्रथम घटना है। इसके बाद शेष सारा विकास हुआ है। और इसे हम न समझें, तो राम और सीता के जीवन में बड़ी व्यर्थ की झंझटें और प्रश्न खड़े होते हैं,
जिनको हल करना मुश्किल हो जाता है।
एक
पंडित मेरे पास आए। वे कृष्ण-भक्त हैं और राम-विरोधी हैं। सिर्फ पंडित ही ऐसा कर
सकते हैं कि राम-भक्त हों कि कृष्ण-विरोधी हों, कि कृष्ण-भक्त हों कि राम-विरोधी
हों, क्योंकि पंडित हमेशा पक्ष और विपक्ष में होगा। उसके पास
हृदय तो नहीं होता है, जो समझ पाए। अगर समझ पाए तो राम और
कृष्ण एक ही दिखाई पड़ेंगे।
उस
पंडित ने मुझे कहा कि और सब तो ठीक है राम के जीवन में, लेकिन
सीता का निष्कासन एक दो कौड़ी के आदमी, एक धोबी के कहने पर,
एक सुनी हुई बात पर, एक अफवाह पर गर्भवती सीता
को घर से निकाल देना, जंगल में फेंक देना, यह बात कुछ मर्यादा पुरुषोत्तम के योग्य मालूम नहीं पड़ती। इसमें प्रेम की
बड़ी कमी मालूम होती है। तो राम राजपुरुष रहे होंगे, एक राजनीतिज्ञ
रहे होंगे, लेकिन प्रेमी तो नहीं हैं। क्योंकि यह कैसा प्रेम?
जब
मैंने उन पंडित को कहा कि मेरे देखे यह प्रेम की बड़ी अनूठी घटना है और सिर्फ
प्रेमी ही यह कर सकता है,
तो उनकी समझ में आना मुश्किल हो गया। मैं मानता हूं कि राम सीता को
जंगल में फेंक सके, सिर्फ इसीलिए कि प्रेम इतना गहन है कि
राम के मन में यह खयाल भी नहीं उठता कि सीता संदेह करेगी, कि
सीता ऐसा भी सोच सकती है कि राम ने गलत किया। सीता इसे स्वीकार करेगी। यह प्रेम
ऐसा अनन्य है। सीता समझेगी कि यही उचित है।
तो
दुनिया में और सारे लोगों ने अनुचित का सवाल उठाया हो, लेकिन
सीता ने नहीं उठाया है। राम के बच्चों ने, लव-कुश ने उठाया
है, लेकिन सीता ने नहीं उठाया है। लक्ष्मण के मन में सवाल
उठा है। जो भी रामायण पढ़ेगा उसको सवाल उठेगा ही कि यह बात क्या है, लेकिन सीता ने सवाल नहीं उठाया है। सीता ने स्वीकार कर लिया है।
जब
हम किसी को प्रेम करते हैं,
तो वह जैसा भी है, हम उसे वैसा पूरा स्वीकार
कर लेते हैं। वह हमारे साथ जो भी करेगा, वह बुरा तो हो ही
नहीं सकता। यह प्रेम की सहज निष्पत्ति है कि वह सारी दुनिया को बुरा दिखाई पड़े,
लेकिन प्रेमी को बुरा दिखाई नहीं पड़ सकता।
प्रेमी
अपने अहंकार को छोड़ ही चुका होता है। और राम सीता को भेज सकते हैं वनवास, क्योंकि
यह सीता का भेजना नहीं, खुद का ही जाना है। यह भेद इतना भी
नहीं रहा है।
इसलिए
जब हम दूसरे को कुछ कष्ट दे रहे हों, तो विचार भी उठता है। जब अपने को
ही किसी त्याग या कष्ट में ले जा रहे हों, तो विचार का कोई
सवाल नहीं। सीता इतनी अपनी है राम को कि छोड़ने में उन्हें यह विचार नहीं उठा कि
कुछ अनुचित हो रहा है। जैसे वे खुद एक दिन पिता के कहने पर जंगल चले गए थे,
वैसे ही सीता भी जंगल चली जाती है। जहां प्रेम है, वहां प्रश्न नहीं है, वहां एक परम स्वीकृति है।
राम
और सीता के बीच जो घटना घटी है, वह प्रेम की ही अनन्य घटना है। और पति-पत्नी
होना गौण है। वह सामाजिक उपचार है। वह समाज की स्वीकृति है। वह मूल आधार नहीं है।
और
सीता के मन में दूसरे पुरुष का सवाल नहीं उठेगा। जहां प्रेम की कमी है, वहीं
दूसरे का सवाल उठता है। और राम के मन में दूसरी स्त्री का प्रश्न नहीं उठेगा। जहां
प्रेम की कमी है, जहां हम तृप्त नहीं हैं, अतृप्त हैं, वहीं दूसरा हमें आकर्षित करता है।
प्रेम
एक अद्वैत है,
जहां दूसरा बिलकुल...दूसरे का कोई सवाल ही नहीं। जिस दिन भी आप किसी
के प्रेम में पड़ गए, उस दिन सारी स्त्रियां उस स्त्री में
समा गईं, सारे पुरुष उस पुरुष में समा गए। फिर वह स्त्री
प्रकृति है और आपका पुरुष पुरुष है और यह सारा जगत खो गया। और इसीलिए प्रेम की
इतनी भूख है; और जब तक ऐसा प्रेम न मिल जाए, तब तक तृप्ति भी न होगी; तब तक आप कितने ही साथी
बदलें। और बदल चुके हैं आप।
पश्चिम
में वे जरा जल्दी में हैं,
इसीलिए एक ही जीवन में बदलते हैं; आप इतनी
जल्दी में नहीं, अलग-अलग जीवन में बदलें, बुनियादी कोई फर्क नहीं है। इस देश में हमें पता है कि जन्मों-जन्मों की
लंबी यात्रा है, कोई जल्दी नहीं है। एक जीवन, एक पत्नी; फिर दूसरे जीवन, दूसरी
पत्नी, दूसरा पति बदलने की हमें सुविधा है। पश्चिम में चूंकि
ईसाइयत ने कहा, एक ही जन्म है। इतनी सुविधा नहीं है। तो एक
ही जन्म में उनको उतना काम करना पड़ता है, जो आप कई जन्मों
में फैलाकर कर रहे हैं। उन्हें जल्दबाजी है, क्योंकि समय कम
है। आपके पास समय बहुत है, इसलिए जल्दबाजी नहीं है। लेकिन
कोई बुनियादी अंतर नहीं है।
एक
सुंदर स्त्री को देखकर क्षणभर को आपको अपनी पत्नी खो जाती है, भूल जाती
है। क्षणभर को आपके मन में वासना का धुआं भर जाता है। क्षणभर को आप इस स्त्री को
भोगने को आतुर हो जाते हैं। चाहे राम-राम जपकर भुला देते हों, आंख बदल देते हों, भाग खड़े होते हों, पीछे लौटकर न देखते हों, लेकिन इस सबसे कोई फर्क
नहीं पड़ता है। न तो आंख चुराई जा सकती है भीतर की वासना से, न
राम-राम कहकर उसे दबाया जा सकता है। वह है। और वह तब तक रहेगी, जब तक आपके जीवन में प्रेम नहीं घटा।
और
दो यात्राएं हैं: या तो प्रेम घट जाए और या ध्यान घट जाए। और दो तरह के व्यक्ति
हैं, एक स्त्री का चित्त है, जहां प्रेम पहले घट सकता है,
फिर ध्यान घटेगा। और एक पुरुष का चित्त है, जहां
ध्यान पहले घटे, फिर प्रेम घटेगा। ये दो ढंग हैं। लेकिन कोई
भी पहले घटे, दूसरा अनिवार्य-रूप से घटने वाला है। एक कदम उठ
गया है, तो दूसरा भी उठेगा।
तो
आप अपने को पहचान लें,
अगर आपके जीवन में प्रेम से ही परमात्मा की खोज होने वाली है,
और आपको लगता है कि ध्यान में मेरी कोई रुचि नहीं, प्रेम में ही मेरा रस है, तो आप ध्यान की व्यर्थ
चेष्टा मत करें। आप प्रेम में ही डूबने का उपाय करें।
और
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह प्रेम किसका है। वह आपकी पत्नी का है कि आपके बच्चे
का है कि आपकी गाय का है कि एक वृक्ष के साथ है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्योंकि सवाल दूसरे का नहीं, सवाल प्रेम करने की प्रक्रिया
का है। एक पत्थर से भी आप प्रेम कर लें, तो भी वही घट सकता
है।
इसलिए
ऐसा मत सोचना आप कि पत्थर की जो मूर्तियां रखी हैं, वे मूर्तियां सदा ही व्यर्थ
रखी रही हैं। वहां भी कई बार प्रेम घट गया है। पत्थर की मूर्ति के पास भी भक्त ने
भगवान को पा लिया है। क्योंकि पत्थर की मूर्ति का सवाल ही नहीं है, सवाल तो भीतर के हृदय का है।
भक्त
को आप देखें,
उसका व्यवहार देखें उसकी पत्थर की मूर्ति से, वैसा
व्यवहार आपने किसी जीवित चिन्मय व्यक्ति के साथ भी नहीं किया है। उसकी चिंता,
उसकी फिक्र। भगवान को सुबह उठाता है, उनके
द्वार पर घंटी बजाता है। कहता है, उठो नंदकिशोर, सुबह हो गई। और हमें हंसी आएगी। क्योंकि हम यह सोच ही नहीं सकते कि यह
क्या नासमझी है, क्या पागलपन है। पानी ले जाकर रखेगा कि दतौन
करो, दतौन रखेगा, हाथ-मुंह धुलाएगा,
उठाएगा, कपड़े बदलेगा। और लीन है, जैसे कोई मां अपने बच्चे की चिंता करती हो, कोई
प्रेयसी अपने प्रेमी की चिंता करती हो, वैसा लीन है। और उस
लीनता के क्षण में सारा जगत खो गया है, वह पत्थर की मूर्ति
ही सारा अस्तित्व है। भोजन तैयार करेगा, भोग लगाएगा, तभी खुद प्रसाद ले सकेगा। सांझ होगी तो सुलाएगा, भगवान
थक गए। दोपहर होगी तो द्वार बंद करेगा। रात होगी तो मच्छरदानी लगाएगा।
हमें
लगेगा कि सब पागलपन है। और अगर एक मनोवैज्ञानिक को ले आएं जांच करने को, तो वह
कहेगा, यह पैथालॉजिकल है। यह आदमी रुग्ण है, इसकी बुद्धि खराब हो गई, यह क्या कर रहा है? परवर्शन मालूम होगा, विकृति मालूम होगी, क्योंकि मनोविज्ञान को कोई भी पता नहीं प्रेमी के हृदय का।
इससे
कोई भी संबंध नहीं कि प्रेम-पात्र कौन है। प्रेम-पात्र तो सिर्फ बहाना है।
प्रेम-पात्र के बहाने के द्वारा भीतर प्रेम की सरिता जो अवरुद्ध पड़ी है, वह बह उठे,
जो झरना रुक गया है, वह फिर झरने लगे, कहीं पत्थर अटक गए हैं, वे पत्थर हट जाएं। तो पात्र
तो सिर्फ पत्थर हटाने का काम कर रहा है। झरना तो मेरे भीतर है। एक दफा बहने लगे,
तो आप निश्चिंत होकर जान लेंगे कि इसका प्रेम-पात्र से कोई भी संबंध
न था। यह झरना तो मेरा स्वभाव था। लेकिन मैंने ही पत्थर रख-रखकर झरने को रोक रखा
था। प्रेम-पात्र ने सहायता दी और पत्थर हट गए और झरना निर्बाध बहने लगा।
तो
अगर प्रेम आपका रस हो,
तो पागल होने की तैयारी चाहिए। फिर किससे प्रेम, यह सवाल ही नहीं है। कृष्ण की मूर्ति काम दे सकती है, जीसस की मूर्ति काम दे सकती है, एक अनगढ़ पत्थर भी
काम दे सकता है।
मैंने
सुना है कि एक फकीर के पास एक आदमी गया और उस आदमी ने कहा, मुझे
परमात्मा को खोजना है। और उस फकीर ने कहा, खोज बड़ी कठिन है
और परमात्मा बड़ी छलांग है, पहले तुम थोड़ी छोटी-छोटी छलांगें
भरना शुरू करो। उस आदमी ने कहा, वह कौन-सी छोटी छलांग है?
उस फकीर ने कहा, तुम किसी को प्रेम करो। यह
छोटी-छोटी छलांग का अभ्यास है। फिर परमात्मा प्रेम की आखिरी छलांग है, जिसमें तुम बिलकुल न बचोगे, खो जाओगे अनंत खाई में,
फिर तुम्हारा नामोनिशान न बचेगा, फिर तुम्हारी
राख भी खोजे से न मिलेगी। वह आखिरी छलांग है, उसको जरा रुको।
शायद उतनी हिम्मत अभी तुम न जुटा पाओ, थोड़ी-थोड़ी छलांग लो,
छोटे-छोटे गङ्ढों में अभ्यास करो। तो उस आदमी ने कहा, मेरा तो किसी से प्रेम नहीं। और मैं तो अब तक यही सोचता रहा कि ये पत्नी,
बच्चे, इनसे कैसे छुटकारा हो ताकि मैं
परमात्मा तक जाऊं। और मैंने तो कभी किसी की तरफ प्रेम भरी नजर से नहीं देखा,
क्योंकि मैं डरता रहा कि प्रेम बंधन बन जाएगा।
निश्चित
ही प्रेम बंधन बनता है। अगर भीतर अहंकार हो, तो प्रेम बंधन बनता है। अगर भीतर
अहंकार न हो, तो बंधेगा कौन? हम सबको
प्रेम बंधन बन जाता है, क्योंकि भीतर बंधने वाला मौजूद है।
और प्रेम चारों तरफ से कसता है। और जब प्रेम कसता है, तो हम
भीतर तड़फड़ाते हैं। लेकिन अगर भीतर मैं हूं, तो प्रेम तो हो
ही नहीं सकता। इसलिए प्रेम के नाम पर जिसे हम चलाते हैं, वह
मोह है, वासना है, तृष्णा है, कामना है। और अहंकार भीतर है, तो वासना, तृष्णा, मोह, सब बांध लेते
हैं।
हमने
वासना को पाशविक कहा है। लेकिन आपको शायद खयाल न हो कि पाशविक शब्द का अर्थ क्या
होता है! पशु का क्या अर्थ होता है! पशु का अर्थ है, जो बंधा हुआ है। पाश का
अर्थ होता है, बांधने वाला, बंधन। पशु
का अर्थ होता है, जो बंधा हुआ है। पाशविक का अर्थ होता है,
बंधने को तत्पर। पशु का अर्थ जानवर से नहीं है, जो भी बंधा है, वह पशु है। पाश उसके चारों तरफ है।
और बंध वही सकता है, जो भीतर खड़ा है।
प्रेमी
तो बंध ही नहीं सकता है। इसलिए प्रेम को जो जानते हैं, उन्होंने
परम स्वतंत्रता कहा है। उन्होंने कहा, प्रेम मोक्ष है,
क्योंकि प्रेम में तुम मिट जाओगे, बंधेगा कौन?
अगर पाश होंगे भी, तो शून्य में भटकते रहेंगे,
बंधेगा कौन? और शून्य को तुम पाश से बांधने की
कोशिश करोगे, तो तुम्हारे पाश में ही गांठ पड़ जाएगी, लेकिन भीतर तो कोई पाया नहीं जा सकता है।
तो
उस आदमी ने कहा कि मैं तो बचता रहा प्रेम से, क्योंकि प्रेम पाश है, और प्रेम बंधन है। और यह तुम मुझे क्या सिखाते हो! तो मैंने तो कभी किसी
को प्रेम किया नहीं।
उस
फकीर ने कहा,
फिर भी सोचो, क्योंकि ऐसा आदमी खोजना कठिन
है--चाहे उसने बचाने की कितनी ही चेष्टा की हो--जिसने वस्तुतः किसी को कभी प्रेम न
किया हो। यह खोजना ही कठिन है, क्योंकि प्रेम स्वभाव है। तुम
जरा सोचो, आंख बंद करो।
उस
आदमी ने बहुत सोचा। उसने कहा कि अगर ऐसा ही हो, तो मेरे पास एक गाय है, उससे मेरा थोड़ा लगाव है। तो फकीर ने कहा, बस
पर्याप्त है। गाय ही तुम्हारा पहला अभ्यास हो जाएगी छलांग में। तुम जाओ और गाय को
हृदयपूर्वक प्रेम करो। गाय तुम्हारी स्मृति में समा जाए, रोएं-रोएं
में बैठ जाए। उठो तो गाय, बैठो तो गाय, चलो तो गाय, तुम गायमय हो जाओ। उस आदमी ने कहा,
आप भी मुझे क्या पागलपन बता रहे हैं! दुनिया क्या कहेगी? और यह बात ही उन्मत्तता की मालूम पड़ती है!
फकीर
ने कहा, प्रेम सदा उन्मत्तता है। और जो मस्त होने को तैयार हैं, केवल उन्हीं पर परमात्मा प्रेम की तरह बरसता है। तुम जाओ, कोशिश करो।
और
कहते हैं, उस आदमी ने गाय से ही परमात्मा को पा लिया। फिर वह पूछने नहीं आया फकीर को
वापस कि अब और कहां छलांग लगाऊं। वह गाय में देख-देखकर, गाय
की आंख में डूब-डूबकर, उसे परमात्मा की आंख स्मरण आ गई।
और
गाय के पास आंख है भी। इसलिए हिंदू गाय को माता कहते रहे हैं। गाय के पास जैसी
निर्विकार आंख है। वैसी कहीं भी खोजनी कठिन है। आदमी की आंख भी वैसी निर्विकार
नहीं। जैसा शुद्ध,
जैसे आकाश बिलकुल निरभ्र हो, बादल बिलकुल न
हों। गाय की आंख के पास बैठकर कभी देखने की कोशिश करें। और अगर आपके हृदय में
प्रेम हो, तो तत्क्षण गाय के हृदय का प्रेम उठना शुरू हो
जाएगा। क्योंकि गाय पर न तो समाज के कोई बंधन हैं, और न गाय
को कोई नीति की शिक्षा दी गई है, न गाय को कोई अपना-पराया है,
न गाय के पास कोई बुद्धि है, जो हिसाब रखती है,
गणित लगाती है, सोच-विचारकर चलती है। गाय तो
शुद्ध हृदय है। अगर आपके भीतर प्रेम है, तो गाय तत्क्षण
प्रेम की तरंगें आपकी तरफ भेजने लगेगी।
आप
चकित होंगे, अभी पश्चिम में बड़ा काम चलता है पौधों के ऊपर। गाय तो बहुत दूर, वे कहते हैं, जब आप पौधे के प्रति भी प्रेम-पूर्ण
खड़े होते हैं तो पौधा प्रेम की तरंगें भेजना शुरू कर देता है। एक वैज्ञानिक,
जो इस संबंध में बड़ा काम कर रहा था, उसने
यंत्र खोज रखे हैं। विद्युत के यंत्र हैं, जो पौधे से बांध
दिए जाते हैं। और जैसा कार्डियोग्राम में नक्शा बन जाता है, ग्राफ
बन जाता है कागज पर कि हृदय कैसा धड़क रहा है, ऐसा पौधे के
भीतर विद्युत की तरंगें कैसी धड़क रही हैं, उसका ग्राफ बन
जाता है।
तो
उसने देखा कि जब पौधे को प्रेम करने वाला पास खड़ा हो व्यक्ति, जो उसे
सहला रहा हो, जो उसके कारण प्रसन्न हो रहा हो, तो अलग ग्राफ बनता है। पौधा प्रफुल्लित है, वह ग्राफ
से पता चलता है। माली कैंची लेकर आता है, ग्राफ फौरन बदल
जाता है। अभी माली काटा भी नहीं है, सिर्फ कैंची लेकर आ रहा
है, और ग्राफ बदल गया। और जैसे ही माली काटता है, तो न केवल जिस पौधे को काट रहा है, उसका ग्राफ बदलता
है, जो पौधे पास हैं, उनका भी ग्राफ
बदल जाता है। क्योंकि वे भी उसकी पीड़ा को अनुभव करते हैं।
यह
वैज्ञानिक बहुत हैरान हुआ कि न केवल पौधा काटा जाए तो दूसरे पौधे को पीड़ा होती है
और उसकी पीड़ा के ग्राफ बनते हैं, अगर आप पौधे के पास एक मुर्गी की गरदन मरोड़ दें,
तो भी सारे पौधे रोते हैं, और उनके ग्राफ बदल
जाते हैं।
यही
नहीं, उस वैज्ञानिक ने यह भी अनुभव किया कि जो आदमी पौधों को नुकसान पहुंचाए या
मुर्गी को मार डाले, वह दूसरे दिन भी आए, तो उसके कमरे में प्रवेश करते से ही, बगीचे में आते
से ही, ग्राफ बदल जाते हैं। क्योंकि पौधे सचेत हैं, एक बुरा आदमी भीतर आ रहा है। महीनों के बाद भी उस आदमी के प्रवेश पर पौधे
शंकित हो जाते हैं कि यह आदमी अच्छा नहीं है।
तो
पौधे तो और भी कम विकसित जीवन-धारा के अंग हैं। अगर आप गाय को प्रेम कर सकें और
उसकी आंख में झांक सकें,
तो उसकी आंख वह द्वार हो जाएगी, जिसमें बाहर
से लिखा है प्रेम और भीतर से लिखा है ध्यान।
किसी
को भी प्रेम कर सकें,
अगर प्रेम आपके जीवन का ढंग है, अगर लगता है
कि प्रेम आपकी प्यास है, तो उसमें डूब जाएं। पर पूरे डूबें,
तो ही उबर सकेंगे। बचाने की कोशिश की, तो फिर
न उबर पाएंगे।
या
आपको लगे कि नहीं प्रेम मेरा रस नहीं--ऐसे लोग हैं, जिनका प्रेम रस नहीं--तो
उन्हें कुछ दुखी और चिंतित और निराश हो जाने की जरूरत नहीं। ध्यान उनका मार्ग है।
तब वे अकेले हों और अपने में डूबें। अगर दूसरे में नहीं डूब सकते, तो अपने में डूबें। अगर अपने में नहीं डूब सकते, तो
दूसरे में डूबें। डूबने के दो ही ढंग हैं। या तो अपने में ही लीन हो जाएं या दूसरे
में लीन हो जाएं।
महावीर
अपने में लीन होते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं। परमात्मा की
कोई जरूरत नहीं ध्यानी को, क्योंकि ध्यानी को दूसरे की ही
जरूरत नहीं है। परमात्मा तो दूसरा है, मुझसे अन्य। इसलिए
महावीर कहते हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं। अप्पा सो
परमप्पा! वे कहते हैं, वह जो भीतर छिपा है, आत्मा है, वही परमात्मा है और कोई परमात्मा नहीं है।
यह
कोई नास्तिकता नहीं है। यह ध्यानी का वक्तव्य है। और प्रेमी इससे बड़े परेशान हो
जाते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि यह आदमी नास्तिक है। मीरा सुने तो नाराज हो जाए;
सीता सुने तो नाराज हो जाए; चैतन्य महाप्रभु
सुनें तो कहें, यह क्या बात हुई! यह आदमी नास्तिक है।
महावीर
नास्तिक नहीं हैं। यह ध्यानी की आस्तिकता है।
और
महावीर सुनेंगे मीरा को आंसू बहाते और नाचते और कहते कि मेरा तो गिरधर गोपाल, दूसरा न
कोई रे, तो महावीर कहेंगे, यह क्या हो
रहा है? यह क्या पागलपन है? यह क्या
मोह-जाल है? यह क्या मन का खेल है? महावीर
इसे धर्म न कह पाएंगे। क्योंकि यह प्रेमी का धर्म है, यह
प्रेमी की आस्तिकता है।
प्रेमी
की आस्तिकता,
ध्यानी को सदा ही कुछ उन्मत्त, कुछ पागल,
कुछ गलत बात मालूम पड़ेगी। ध्यानी की आस्तिकता प्रेमी को सदा
नास्तिकता मालूम पड़ेगी।
इसलिए
हिंदुओं ने जैन,
बौद्ध और चार्वाक, तीनों को एक साथ नास्तिक
परंपराएं गिनाया है। चार्वाक तो ठीक है, लेकिन उसमें जैन और
बौद्ध भी गिनाए, ये तीन संप्रदाय नास्तिक हैं।
उसका
कारण है, प्रेमी सोच ही नहीं सकता कि अपने में कैसे डूबोगे? यह
अपने में डूबना तो ऐसे ही हुआ, जैसे कोई अपने ही पैरों को
पकड़कर उठाने की कोशिश करे। अपने में कैसे डूबोगे? यह अपने
में डूबना तो ऐसे ही हुआ, जैसे कोई चमीटे से उसी चमीटे को
पकड़ने की कोशिश करे। यह अपने में कोई कैसे डूब सकता है? डूबने
के लिए कुछ तो और चाहिए। कोई अन्य चाहिए। वह अन्य ही परमात्मा है, जिसमें हम डूब सकेंगे।
लेकिन
ध्यानी कहता है कि जब तक दूसरा है, तब तक थोड़ा न बहुत तनाव बना ही
रहेगा। दूसरे की चिंता, दूसरे का विचार, प्रार्थना, पूजा, तो मन जारी
ही रहेगा। जब तक दूसरा है, तब तक डूबोगे कैसे? जब तक दूसरा है, उसकी मौजूदगी भी डूबने में थोड़ा-सा
अंकुश बनी रहेगी। दूसरा बिलकुल नहीं है, तभी तुम डूबोगे,
तभी डूबना पूरा होगा।
वे
दोनों ही ठीक कहते हैं। और मेरे देखे, ये एक ही दरवाजे के दो नाम हैं।
राम
और सीता के बीच अनन्य प्रेम घटा है। किसी और साधना की जरूरत न रही। कुछ और करना
आवश्यक न रहा,
बस प्रेम ने सब कर दिया है। यह प्रेम इतना अनूठा था कि हिंदुओं ने
राम के नाम को पीछे कर दिया और सीता के नाम को आगे कर दिया। हिंदू कहते हैं,
सीता-राम। क्योंकि राम फिर भी पुरुष हैं, उनके
प्रेम में ध्यान की छाया होगी। सीता स्त्री है, उसके ध्यान
में भी प्रेम होगा। तो प्रेमियों ने नाम ही आगे-पीछे कर दिया।
सिर्फ
हिंदू अकेली जाति है,
जो सीता-राम कहती है, राधा-कृष्ण कहती है।
क्योंकि हिंदुओं का सारा मनोभाव प्रेम के द्वार से विकसित हुआ है। यहां ध्यानी भी
हुए हैं, लेकिन ध्यानी हिंदू-धारा के बाहर पड़ गए हैं।
हिंदू-धारा का मूल-सूत्र प्रेम है।
तो
बुद्ध यहां हुए,
महावीर यहां हुए, पतंजलि यहां हुए, लेकिन वे हिंदू-धारा के बाहर फिंक गए। वे मूल-स्रोत नहीं बन सके। वे इस
परंपरा की प्रमुख धारा नहीं हैं। आनुषंगिक, छोटे झरने हैं,
जो इसके साथ बह रहे हैं। हिंदू विचार को जिसे भी समझना हो, उसे प्रेम की अल्केमी को पूरा समझ लेना जरूरी है।
यह
जो राम और सीता के बीच घटा है, यह आपके और किसी के भी बीच घट सकता है। तो आप
यह मत सोचना कि कहां खोजें राम को, कि कहां खोजें सीता को,
और अब यह मिलना कहां होगा? अगर आपने ऐसा सोचा,
तो शुरू से ही आप गलत तर्क में पड़ गए। असल में जब भी आप किसी को
प्रेम करेंगे, वहीं सीता आपको मिल जाएगी; जब भी आप किसी को प्रेम करेंगे, वहीं राम मिल जाएगा।
क्योंकि कोई भी प्रेयसी इससे कम में तो राजी हो ही नहीं सकती कि अपने प्रेमी को
राम देखे। इससे कम में राजी नहीं हो सकती।
तो
जो हम कहते रहे हैं कि पति परमात्मा है, पतियों ने भला उसका लाभ उठाया हो,
चाहे उससे भारी नुकसान हुआ हो, चाहे उसके कारण
स्त्रियों का बड़ा शोषण किया गया हो, दमन किया गया हो,
लेकिन बात में तो मौलिक सत्य है। जब भी आप किसी को प्रेम करते हैं,
तो तत्क्षण मनुष्य खो जाता है और परमात्मा प्रगट हो जाता है। प्रेम
जैसे छैनी है, जो पत्थर से मूर्ति को प्रगट कर देती है। जैसे
प्रेम पर्दे को हटा देना है। आप पर जो मनुष्यता है, वह पर्दा
है। प्रेमी उसे हटा देता है और आपके भीतर छिपे हुए चिन्मय-स्वरूप को देख लेता है।
आपका जो स्त्री या पुरुष होना है, वह एक ऊपर का रूप है,
एक औपचारिकता है। उसे प्रेमी हटा देता है और सीता प्रगट हो जाती है।
तो
आप सीता को खोजने अयोध्या मत चले जाना। और सीता को खोजने अतीत में भी जाने की कोई जरूरत
नहीं है। और राम के लिए बैठने से नहीं चलेगा। अगर प्रेम है, तो जहां
भी प्रेम का प्रकाश पड़ेगा, वहीं राम दिखाई पड़ना शुरू होगा,
वहीं सीता प्रगट हो जाएगी।
प्रत्येक
व्यक्ति को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि मेरी प्यास क्या है? बड़े से
बड़ा कठिन काम यही है कि हम ठीक से अपनी प्यास समझ लें। नहीं तो प्रेमी ध्यान करता
रहे, व्यर्थ समय जाएगा; ध्यानी प्रेम
का उपाय करता रहे, व्यर्थ समय जाएगा। क्योंकि पूरे वक्त भीतर
से विरोध बना रहेगा।
महावीर
को ले जाएं हम रासलीला में,
विरोध बना रहेगा। महावीर के मन में प्रतिरोध चलता ही रहेगा कि यह सब
व्यर्थ हो रहा है। कि हम कहें चैतन्य महाप्रभु को कि बैठ जाओ बुद्ध के वृक्ष के
पास तुम भी आंख बंद करके, उनको मंजीरा और ढोलक याद आते
रहेंगे। ढोलक और मंजीरे के बिना कैसा बोधि-वृक्ष? वह
बोधि-वृक्ष चैतन्य के लिए नहीं है।
और
इन दोनों के बीच,
मैं आपसे कहता हूं, कोई विरोध नहीं है।
अपने-अपने ढंग हैं। और हर व्यक्ति का अपना अनूठा ढंग होता है जिससे वह यात्रा करता
है। परमात्मा तक हम सब अद्वितीय ढंग से पहुंचते हैं। और जब भी कोई चेतना परमात्मा
के पास पहुंचती है, तो ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी होती। यह
पहली दफा घटती है और आखिरी दफा घटती है। और यही महिमा है कि इस जगत में कोई
पुनरुक्ति नहीं होती। और इस जगत का जो आत्यंतिक अनुभव है, वह
तो पुनरुक्त हो ही नहीं सकता। हर व्यक्ति जब परमात्मा के निकट पहुंचता है, तो ऐसी घटना न तो कभी पीछे घटी होती है और न आगे घटने वाली होती है। यह
मिलन सदा ही अद्वितीय और बेजोड़ होता है।
अपनी
नियति को पहचानें,
अपने रस को। फिर प्रेम या ध्यान की विधि को चुन लें। अगर कठिन हो और
लगता हो कि कुछ समझ में नहीं आता, विभ्रम बना रहता हो,
तो प्रेम से शुरू करें। पहले प्रेम का प्रयोग करें। अगर असफल हो
जाएं, तो ध्यान का प्रयोग करें। अगर लगता हो कि ध्यान ही
मेरा मार्ग है, तो ध्यान का प्रयोग करें। असफल हो जाएं,
तो प्रेम का प्रयोग करें। और इस दिशा में कोई भी असफलता असफलता नहीं
है। क्योंकि अगर ध्यान में असफल भी हुए, तो जितना भी ध्यान आ
जाएगा, वह प्रेम में काम पड़ेगा। अगर प्रेम में असफल हुए,
तो जितना प्रेम आ जाएगा, वह ध्यान में काम
पड़ेगा।
इस
जगत में कोई भी,
परमात्मा का जो सृजन का क्रम है, उसमें कोई भी
पत्थर व्यर्थ नहीं जाता। सब पत्थर काम में आ जाते हैं। अस्वीकृत पत्थर भी भवन में
काम आ जाते हैं। और कभी-कभी तो ऐसा होता है, अस्वीकृत पत्थर
ही भवन की बुनियाद बनते हैं।
प्रश्न:
भगवान, आपके किसी प्रवचन में दुर्वासा ऋषि का जिक्र
आया है।
एकाग्रता की परिणति को विक्षिप्तता की अवस्था के उदाहरण के रूप
में दुर्वासा ऋषि बताए गए हैं।
पर त्राटक में एकाग्रता का ही भाव रहता है।
इन दोनों में क्या फर्क है, कृपा करके
बताएं।
परंपरागत
जो त्राटक है,
त्राटक की जो परंपरागत धारणा है, वह तो
एकाग्रता की ही है। और एकाग्रता से शक्ति पैदा होती है, सिद्धियां
अर्जित होती हैं, लेकिन जो परम विश्रांति की हमें खोज है,
उस परमात्मा से मिलन नहीं होता। एकाग्रता अहंकार का ही अंग और
विस्तार है। तुम मिटते नहीं, तुम और मजबूत हो जाते हो। तुम
पिघलते नहीं, तुम और बर्फ की तरह जम जाते हो। तुम्हारी शक्ति
तो बढ़ जाती है, तुम्हारा आनंद नहीं।
लेकिन
जिसे मैं त्राटक कह रहा हूं, वह एकाग्रता का प्रयोग नहीं है, वह केवल देखने का प्रयोग है, जस्ट लुकिंग।
फर्क
को समझ लें। त्राटक का अर्थ होता है, किसी एक बिंदु पर--सूर्य पर,
मूर्ति पर, बिंदु पर--किसी भी चीज पर अपने
सारे मन को एकजुट लगा देना है। मन को कर लेना है संकीर्ण कि मन यहां-वहां न भागे।
मन की सब धाराएं एक तरफ मुड़ जाएं। मन एक बिंदु की तरफ बहता हुआ रह जाए। जरा-सी भी
चेतना की किरण यहां-वहां न बिखरती हो। बिना बिखरे सब एक बिंदु पर आकर टिक जाए।
चेष्टा एक बिंदु पर टिकाने की है। मन को बांध-बांधकर, पकड़-पकड़कर
एक जगह बिठाने की है।
जिसे
मैं त्राटक कहता हूं,
वह सिर्फ नाम-मात्र को त्राटक है, इस अर्थ
में। मैं त्राटक कहता हूं कि तुम भीतर खाली हो जाओ। मन को पकड़-पकड़कर मेरी तरफ लाने
की जरूरत नहीं, तुम भीतर खाली हो जाओ, सिर्फ
मेरी तरफ देखो। इस देखने में तुम भीतर कोई उपाय मत करो। इस देखने में तुम खाली,
शांत खड़े हो जाओ और सिर्फ देखो। आंख तुम्हारी अपलक मेरी तरफ हो। आंख
के द्वारा तुम्हें मेरे तक नहीं आना है, आंख के द्वारा मैं
तुम तक आऊंगा। आंख तुम्हारा द्वार है। लेकिन अगर भीतर तुम अतिशय भरे हो, तो जगह नहीं है। तुम भीतर अगर खाली हो और तुम्हारा सिंहासन रिक्त है,
तो तुम्हारी खाली आंखों के द्वार से मैं प्रवेश कर सकता हूं।
परंपरागत
त्राटक में, साधक अपनी चेतना को बिंदु तक ला रहा था, इस त्राटक
में साधक कहीं भी नहीं जा रहा है, सिर्फ अपने भीतर खाली हो
रहा है। और आंखों को खुली रखे, ताकि मैं उसके भीतर आ सकूं।
यह बिलकुल बुनियादी रूप से भिन्न है।
और
यह जो सिर्फ देखने की प्रक्रिया है, बड़ी अनूठी है। क्योंकि जब तुम
सिर्फ देखते हो, त्राटक करने की चेष्टा भी नहीं
करते--क्योंकि उस करने में भी देखना अशुद्ध हो जाएगा, विचारों
की तरंगें चित्त में आ जाएंगी--जब तुम सिर्फ देखते हो, तो
तुम्हारी आंखें आकाश की तरह कोरी हो जाती हैं। जब तुम कुछ देखने की कोशिश नहीं
करते, मात्र देखते हो, तो तुम भीतर
एकदम शांत, तनावरहित हो जाते हो।
कभी
जमीन पर लेटकर आकाश की तरफ सिर्फ देखो। सोचो मत। आकाश में बादल बन रहे हों तो उन
बादलों में मूर्तियां मत देखो, हाथी-घोड़े मत देखो, कुछ
सोचो मत। तुम सिर्फ देख रहे हो। तुम्हारी आंखें जैसे आंखें नहीं, बल्कि कैमरे का लेंस हैं, जो कुछ सोच नहीं रहा,
सिर्फ देख रहा है। जो भी गुजर रहा है, तुम एक
दर्पण की भांति लेटे हो। दर्पण से जो भी गुजरेगा, दिखाई
पड़ेगा। लेकिन दर्पण सोचता नहीं कि बादल काला है कि सफेद है, कि
ऐसा होना था कि नहीं होना था, कि क्यों बादल आ गए हैं! क्या
वर्षा होने के करीब है? कुछ मत सोचो, तुम
सिर्फ देखते रहो। सिर्फ आंखें खुली रखो, झपको मत।
तुम
थोड़ी ही देर में पाओगे कि बाहर का आकाश तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गया। जल्दी ही तुम
पाओगे कि भीतर का आकाश और बाहर का आकाश एक महाआकाश बन गए। उनके बीच की जो छोटी सी
पतली दीवाल थी,
वह तिरोहित हो गई। तब तुम पाओगे, कौन बाहर,
कौन भीतर? भीतर कहां है, बाहर कहां है? कहां भीतर समाप्त होता है और कहां
बाहर शुरू होता है? सब सीमाएं खो गईं। तुम भी आकाश हो।
ठीक
ऐसा ही प्रयोग है मेरे त्राटक का प्रयोग। मैं इधर शून्य बैठा हूं। तुम उधर भरे
बैठे हो, मिलना कैसे हो? मैं यहां बहने को उत्सुक, तुम्हारा पात्र वहां उलटा रखा है। मैं यहां तत्पर कि सब तरफ से तुममें
प्रवेश कर जाऊं, लेकिन तुमने कहीं कोई रंध्र भी नहीं छोड़ी
है। तुमने सब तरफ दीवाल मजबूत सीमेंट-कांक्रीट की बना रखी है। तुम तड़फते हो,
चिल्लाते हो, तुम्हारी प्यास मुझे सुनाई पड़ती
है, तुम्हारी पीड़ा मुझे दिखाई पड़ती है, तुम्हारी खोज ईमानदारी से भरी है, लेकिन तुम अपने ही
बनाए हुए घेरे में बंद हो गए हो।
और
तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुमने अपने कारागृह को अपना निवास-स्थान समझ रखा है। और
तुमने अपनी जंजीरों को आभूषण मान रखा है। तुम उन्हें सम्हालते हो। तुम डरते हो, कहीं वे
चोरी न चली जाएं। तुम उन्हें बचाते हो, तुमने सब तरह के पहरे
लगा रखे हैं। तुमसे बड़ा तुम्हारा और कोई दुश्मन नहीं है।
फिर
भी तुम्हारी पीड़ा सच है। तुम तड़फते हो, उसमें कुछ झूठ नहीं है। तुम बाहर
निकलना चाहते हो, वह आयोजन, वह
आकांक्षा भी है। लेकिन तुम्हें यह पता नहीं कि बाहर निकलने में तुम ही बाधा डालते
हो। तुम उस आदमी की भांति हो, जो दौड़ना चाहता हो लेकिन अपने
पैरों में जंजीरें बांध रहा हो। और शायद सोचता हो कि जंजीरें बांधने से पैर मजबूत
होंगे और मैं ठीक से दौड़ सकूंगा। तुम अपने ही विपरीत बहुत से कृत्यों में लगे हो।
यही
मनुष्य का दुख है। वह सोचता है कि जो मैं कर रहा हूं, वह हितकर
है। और उससे अकल्याण सिद्ध होता है। और जब तक तुम्हें यह साफ न हो जाएगा, तब तक तुम्हारी पीड़ा का कोई अंत नहीं हो सकता।
एक
बात समझ लेनी बहुत गहरे में जरूरी है कि तुम्हारी पीड़ा के निर्माता तुम ही हो, कोई दूसरा
नहीं। तुम ही हो जिम्मेवार, दायित्व तुम्हारा है। पीड़ा के
बीज तुम बोते हो, लेकिन बीज बोते समय तुम सोचते हो, तुम आनंद के बीज बो रहे हो। क्योंकि बीज में तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता,
न पीड़ा और न आनंद, बीज तो बंद है। जब तुम बीज
बोते हो, तब तुम आनंद के सोचकर बोते हो। वर्षों बाद जब फल
आने शुरू होते हैं, दुख आता है, तब तुम
सोचते हो, यह दुख किसने दिया?
और
बीज में और फलों के आने में इतना फासला है कि तुम भूल चुके होते हो कि ये बीज
तुमने बोए थे। और फासला इतना ज्यादा है और बीज और फल इतने भिन्न हैं कि तुम याद भी
कैसे रखो कि ये वे ही बीज हैं जो हमने बोए थे। अक्सर तुम सोचते हो हमारे आनंद के
बीज तो व्यर्थ चले गए,
सड़ गए, गल गए, ठीक भूमि
उन्हें न मिली, और ये दुख के बीज, जो
दूसरों ने हम पर फेंके, ये फल गए हैं।
जानकर
हैरानी होगी तुम्हें कि अफ्रीका में अभी सौ वर्ष पहले तक, ऐसे बहुत
से कबीले थे, जिनको यह खयाल ही नहीं था कि बच्चे के जन्म का
कोई भी संबंध संभोग से है। सिर्फ सौ वर्ष पहले तक! और उसका कारण था। और वैज्ञानिक
कहते हैं कि वही धारणा सदियों पूर्व सारी दुनिया में थी। क्योंकि बच्चा तो नौ
महीने बाद पैदा होगा। यह नौ महीने का फासला इतना बड़ा है--हमें हैरानी होती है,
क्योंकि हमें पता है अब--यह फासला इतना बड़ा है कि तुमने जो संभोग नौ
महीने पहले किया था, उससे यह बच्चा पैदा हो रहा है, इसका कैसे संबंध जोड़ो? फिर सभी संभोग से बच्चे पैदा
नहीं होते। सैकड़ों संभोग में से एकाध संभोग से बच्चा पैदा होता है? फिर वह नौ महीने बाद पैदा होता है।
तो
अफ्रीका में खयाल था कि यह बच्चे के पैदा होने का कारण कुछ और है। ईश्वर की कृपा, देवी-देवताओं
की पूजा, गंडेत्ताबीज, किसी
साधु-संन्यासी का आशीर्वाद--ऐसा कोई कारण, जो प्रत्यक्ष
दिखाई पड़े। लेकिन यह संभोग इसका कारण हो सकता है, यह खयाल
में नहीं था।
ठीक
वैसी ही दशा भीतर गहरे में पूरी मनुष्यता की है। तुम्हें खयाल ही नहीं कि तुम्हारे
दुख के बीज तुम्हीं बोते हो। नौ महीने से भी ज्यादा बड़ा फासला है। और बीज और भी
सूक्ष्म हैं,
संभोग से भी ज्यादा सूक्ष्म हैं। फिर फल कभी नौ साल बाद आते हैं,
कभी नब्बे साल बाद आते हैं। क्योंकि ये दुख के सभी बीज मौसमी नहीं
हैं। कुछ के तो जल्दी आ जाते हैं, कुछ के वर्षों समय लेते
हैं। कुछ तो छोटे फूलों की तरह हैं, जो मौसम में आते हैं और
खो जाते हैं। और कुछ बड़े देवदार वृक्षों की भांति हैं, जो
लंबे समय तक तुम्हारा पीछा करते हैं। फिर उस छोटे से सूक्ष्म बीज से इतना बड़ा
वृक्ष, आकाश को छूने वाला, पैदा होगा,
इसका खयाल भी नहीं उठता।
लेकिन
तुम ही जिम्मेवार हो। तुम्हारी भूमि में कोई दूसरा बीज न तो फेंक रहा है, न फेंक
सकता है। फेंकने का उपाय ही नहीं है। क्योंकि तुम्हारी जो मनोभूमि है, उसमें दूसरे का कोई प्रवेश ही नहीं है। तुम ही वहां बोते हो, तुम ही पानी डालते हो, तुम ही सम्हालते हो, तुम ही फल आ जाते हैं तो फसल काटते हो, तुम ही हो
वहां अकेले।
इस
बात की प्रतीति सघन हो जाए,
तो तुममें साधक का जन्म हुआ। और तब तुम ठीक-ठीक आंखें पाओगे। और तब
तुम वे बीज बोना बंद कर दोगे, जो जहरीले हैं। और तब तुम
घास-पात को काटना शुरू कर दोगे। तब तुम्हारी पूरी ऊर्जा अमृत को पैदा करने में
संलग्न हो जाएगी।
यह
अनुभव अमृत का,
तुम्हें बिलकुल भी नहीं है। आनंद को तुमने कभी जाना नहीं है। इसलिए
बड़ी कठिनाई है और कठिनाई वास्तविक है, कि जिसे हमने जाना
नहीं है, उसकी हम ठीक से आकांक्षा कैसे करें? और जिसका हमें स्वाद भी नहीं मिला, उसकी हम फसल कैसे
उगाएं? और जिसके संबंध में हमें कोई भी प्रतीति नहीं है,
कोई संस्पर्श नहीं हुआ, उसको हम पुकारें कैसे,
बुलाएं कैसे, खोजें कहां? तुम्हें दुख का अनुभव हुआ है, तुम्हें सुख का भी
अनुभव हुआ है, आनंद का तुम्हें कोई अनुभव नहीं हुआ। तो यह
आनंद की खोज कैसे शुरू होगी?
तुम
खोजते हो आनंद। तुम कहोगे,
हम खोज रहे हैं। वह आनंद नहीं है, वह तुम्हारे
सुख की ही बड़ी कल्पना है बस। तुम सोचते हो, आनंद महासुख जैसी
चीज होगी। तुम सोचते हो, जैसा संभोग में सुख मिला है,
ऐसा आनंद में सहस्रगुना मिलेगा। मगर वह है गुना। वह सुख का ही फैलाव
है। तुम अपनी प्रेयसी से मिले, तो सुख मिला। तुम सोचते हो,
परमात्मा का मिलना ऐसा ही कुछ सुख होगा, अनंतगुना।
उसमें गुण का फर्क नहीं है, परिमाण का ही फर्क है। वह जो
अंतर तुम्हें दिखाई पड़ता है, क्वांटिटी का है, क्वालिटी का नहीं है। तुम सोचते हो, बहुत धन मिल
जाता है, राज्य मिल जाता है, बड़ा
साम्राज्य मिल जाता है, तो जो सुख मिलता है, जब परमात्मा का राज्य मिलेगा, तो इसी का ही
अनंत-अनंतगुना सुख होगा। लेकिन फर्क मात्रा का है।
और
मैं तुमसे कहता हूं,
फर्क मात्रा का बिलकुल नहीं है। आनंद कुछ है, जो
तुमने कभी जाना ही नहीं। सुख के छोटे से तराजू से तुम उसे न तौल पाओगे। सुख के
आयाम से तुम उसे न पहचान पाओगे। लेकिन तुम सुख को ही खोज रहे हो, तुम उसे आनंद कहते हो बस।
इसलिए
मेरे त्राटक का प्रयोग है। त्राटक का प्रयोग सत्संग का गहरा प्रयोग है। जब मैं
तुमसे कहता हूं,
तुम चुप और खाली हो जाओ, सिर्फ मेरी तरफ देखो,
ताकि मैं तुम्हारे भीतर आ सकूं; उस मेरे
तुम्हारे भीतर आने में, तुम्हें पहला स्वाद मिलेगा। वह स्वाद
तुम्हारी कोशिश को सजग कर देगा। वह स्वाद तुम्हें पहली बार कहेगा कि आनंद की बूंद
कैसी हो सकती है। फिर तुम सागर की खोज पर निकल जाओगे, फिर
मुझे कुछ करना नहीं है। फिर वह स्वाद ही तुम्हें खींचेगा और ले जाएगा। फिर तुम्हें
कोई रोकने वाला नहीं। फिर दुनियाभर की ताकतें भी तुम्हारे बीच में बाधा बनें,
हिमालय भी खड़े हो जाएं, तो तुम पार कर जाओगे।
एक बार तुम्हारा स्वाद जग गया, फिर सब बाधाएं छोटी हैं। और
जब तक तुम्हारा स्वाद नहीं जगा, तब तक सागर हो सकता है
तुम्हारी पीठ के पीछे ही लहरें ले रहा हो, लेकिन तुम लौटकर
भी न देखोगे। क्योंकि देखने का कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हारी आंखें वहां लगी रहती
हैं, जहां तुम्हें सुख का स्वाद है।
जो
लोग सिंह या शेर को घर में पालते हैं, उनका अनुभव है कि वह उसी दिन से
खतरा शुरू होगा, जिस दिन से उसे मांस का स्वाद मिल जाएगा।
उसको शाक-सब्जी खिलाते रहो, रोटी खिलाते रहो, बचपन से ही उसे स्वाद ही न दिया हो मांस का, खून का,
तो वह शाकाहारी रहेगा।
एक
शिकारी के संबंध में मैंने सुना है, उसने एक सिंह के बच्चे को पाला था,
शुद्ध शाकाहारी। उसे एक बार भी मांस का कोई स्वाद न मिला। लेकिन एक
दिन शिकारी अपने बगीचे में बैठा है और उसके पैर में चोट लग गई, तो थोड़ी-सी खून की बूंद झलक गई। और उसका सिंह उसके पास बैठा है। उस सिंह
ने उसकी खून की बूंद को चाट लिया। बस, उपद्रव शुरू हो गया।
फिर अब इस सिंह को घर में रखना असंभव है, इसे स्वाद लग गया।
बस
ऐसा ही स्वाद तुम्हें लगाने के लिए मेरा त्राटक है। जरा सा तुम्हें स्वाद आ जाए, एक किरण
उतर जाए, फिर तुम सूरज को पा लोगे। एक बूंद पर तुम्हारी पकड़
आ जाए, फिर सागर ज्यादा दूर नहीं है।
सत्संग
का यही अर्थ है कि ऐसे किसी व्यक्ति के साथ, जिसने जाना हो, तुम्हें भी जानने की दौड़ लग जाए। ऐसे किसी व्यक्ति के पास, जिसने जीया हो, तुम्हारा दीया भी भभक उठे और लपट पकड़
ले। इसलिए संत निरंतर कहते रहे हैं, बिना गुरु के यह न होगा।
इसका
कारण यह नहीं कि गुरु कुछ सिखाएगा, तब होगा, इसका
कारण यह है कि स्वाद ही बिना गुरु के नहीं होगा। यह कोई शिक्षण की बात नहीं है कि
गुरु तुम्हें सिखाएगा, विधि देगा, गणित
देगा, नक्शा देगा, किताब देगा और कहेगा,
यह गाइड-बुक है, इससे तुम चले जाओ।
न, यह मतलब
नहीं है। इसके बिना जा सकते हो। क्योंकि उस अनंत के लिए, अनंत
रास्ते हैं, सभी तरफ से रास्ते हैं, गाइड-बुक
की कोई जरूरत नहीं है। कहीं से भी तुम वहां पहुंच सकते हो। नक्शों का कोई सवाल
नहीं है, नक्शा नाहक बोझ हो जाएगा। अनेक पर हो गया है। कोई
वेद को सिर पर रखे है, कोई बाइबिल को, कोई
गीता को रखे है। वह उसकी वजह से ही नहीं चल पाता। क्योंकि नक्शा काफी बड़ा है,
उसको ढोकर...और बिना उसको लिए, कहां जाएं?
न, बिना
नक्शे के भी तुम पहुंच जाओगे, क्योंकि उसका कोई नक्शा नहीं
है। वह सब जगह है। असली सवाल स्वाद है। जो तुम्हें स्वाद लगा दे, वही शास्त्र। जो तुम्हें स्वाद दे दे, वही सदगुरु।
जहां तुम्हें स्वाद आ जाए, वही तीर्थ।
और
एक बार, एक बूंद भी तुमने चख ली, अचानक तुम पाओगे, यह जगत व्यर्थ हो गया। कोई और सार्थकता का आयाम खुला, एक नई यात्रा शुरू हुई। पुराना सपना टूट गया, एक नए
जागरण का प्रारंभ हुआ।
त्राटक
का अर्थ है, मैं तुम्हारा स्वाद बन जाऊं। जरा देर को तुम जगह दे दो, जरा-सी रंध्र, तुम्हारे अंधेरे में थोड़ा-सा प्रकाश,
बस उतना काफी है।
त्राटक
की जो परंपरागत धारणा है,
वह मेरी धारणा नहीं है। त्राटक मेरे लिए एकाग्रता का नहीं, ध्यान का ही प्रयोग है।
आज इतना ही।
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