शुक्रवार, 19 मई 2017

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07



पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 07 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-सातवां-(प्रश्न-सार)

1--आप सत्य को जैसा है वैसा ही कह देते हैं--दो टूक। इसीलिए आपके शत्रु पैदा हो जाते हैं। जैसे आपने कल दयानंद के संबंध में कहा। बात सच है पर चुभती है। क्या आप ऐसे संबंधों में चुप ही रहें तो ठीक न हो?
2—आपने कहा कि आप भारत-रत्न होना पसंद नहीं करेंगे। कृपया बताएं कि क्या आप विश्व-रत्न होना पसंद करेंगे?
3—आप किसी प्रश्न का उत्तर लंबा और किसी का अति संक्षिप्त क्यों देते हैं?
4—पंद्रह साल बीत चुके पर आपका कोई शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ। कृपा करके समझाइए।
5—मेरा मन कहता है कि संन्यास मत लो पर भीतर और कुछ कह रहा है--यह मौका बार-बार नहीं आएगा।
6—आपके प्रवचनों से यह लगता है कि आप ब्रह्मचारियों के विरोध में हैं, नीति-नियमों और आदर्शों के विरोध में हैं। ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की आलोचना भी आप निरंतर करते रहते हैं। शास्त्रों से भी मुक्त होने को आप कहते हैं। आखिर आपका अभिप्राय क्या है? आपका धर्म क्या है? समाज के लिए कुछ नीति-नियमों का आप विधान करेंगे?


पहला प्रश्न: भगवान!
आप सत्य को जैसा है वैसा ही कह देते हैं--दो टूक। इसीलिए आपके शत्रु पैदा हो जाते हैं। जैसे आपने कल दयानंद के संबंध में कहा। बात सच है, पर चुभती है। क्या आप ऐसे संबंधों में चुप ही रहें तो ठीक न हो?

सत्यानंद!
सत्यानंद तुम्हें नाम दिया मैंने और तुम मुझे असत्य में आनंद लेने की सलाह दे रहे हो! थोड़ा तो सोचा होता। मौनं सम्मति लक्षणम्--चुप रह जाना भी सम्मति का लक्षण है। फिर मैं कोई राजनेता नहीं हूं कि वह कहूं जो लोगों को पसंद पड़े; कि वह कहूं जो लोगों को भाए। मैं तो वही कह सकता हूं जैसा है, फिर चाहे जो परिणाम हो। मित्र बनें, शत्रु बनें--वह बात गौण है।
जीसस के कितने मित्र थे? बहुत ज्यादा नहीं। ज्यादा होते तो जीसस को सूली देनी आसान न होती। सुकरात के कितने मित्र थे? ज्यादा नहीं।
लोग तो असत्य में जीते हैं, इसलिए जब भी सत्य कहा जाएगा--चुभन होगी, पीड़ा होगी, बौखलाहट होगी। यह स्वाभाविक है। इसमें उनका कुछ कसूर भी नहीं। लेकिन मेरा भी कुछ कसूर नहीं है। मैं वही कह सकता हूं जैसा मुझे दिखाई पड़ता है।
और तुमने अब तक जो माना है, अगर मेरे वक्तव्य उसके विपरीत जाते हैं, तो तुम्हारी नाव डूबने लगती है, तुम्हारे ताश के घर गिरने लगते हैं। स्वभावतः, तुम्हारे न्यस्त स्वार्थों को चोट पहुंचती है। इतना तुममें सत्य के साथ चलने का साहस नहीं है कि तुम गिर जाने दो अतीत को, कि अगर गिरता हो तुम्हारा बनाया हुआ भवन, रेत का सिद्ध होता हो, तो तुम उसे रेत का सिद्ध हो जाने दो।
अगर तुममें थोड़ी समझ हो तो तुम धन्यवाद दोगे मुझे। तुम कहोगे, जब समझ में आ गया तभी जल्दी है। यह भी हो सकता था, कोई न मिलता कहने वाला और तुम ताश के घर बनाते-बनाते ही मिट जाते। तुम झूठी और व्यर्थ की धारणाओं में ही जीते और समाप्त हो जाते। उनमें ही रहते और वे ही तुम्हारी कब्रें बन जाते। जब जागे तब सबेरा।
फिर मुझे क्या फर्क पड़ता है कि कौन मित्र बना, कौन शत्रु बना! शत्रु बन कर भी मेरा क्या बिगड़ जाने वाला है! जीसस का भी तुमने क्या बिगाड़ लिया? यूं भी तो आदमी को मर जाना होता है। मरने से तो कोई बच सकता नहीं। देह तो गिरेगी ही गिरेगी। चार दिन के लिए है। तो क्यों न सत्य का ही आनंद ले लिया जाए! क्यों न सत्य के ही फूल खिला लिए जाएं! क्यों झूठ के कांटे बोने! कोई तो सुनेगा। सभी तो बहरे नहीं हैं। सभी तो अंधे नहीं हैं। सभी तो कायर नहीं हैं।
वे जो थोड़े से लोग भी सुन लेंगे, वे जो थोड़े से लोग भी देख लेंगे, तो काफी है। इस पृथ्वी पर थोड़े से लोग भी सत्य की किरण को पकड़ कर चलते रहें, तो अंधेरा जीत नहीं पाएगा। सत्य की एक छोटी सी किरण भी गहन से गहन अंधेरे को पराजित करने में समर्थ है।
तुम जीसस को मार सकते हो, मगर जीसस के प्राणों को नहीं, जीसस की आत्मा को नहीं, जीसस के सत्य को नहीं। तुम मुझे भी मार सकते हो। उसमें कुछ बहुत अड़चन नहीं है। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वह और भी प्रगाढ़ हो जाएगा, और भी बलशाली हो जाएगा। वह सत्य और भी बड़े अक्षरों में आकाश पर लिख जाएगा। फिर तुम उसे पोंछ भी न सकोगे।
इसलिए सत्य की एक खूबी है कि सत्य के साथ मर जाने में भी मजा है--असत्य के साथ जीने में भी मजा नहीं है। सत्य के रास्ते पर पीड़ाएं भी मधुर हैं--असत्य के रास्ते पर सुविधाएं भी जहर हैं। सत्य अमृत है--असत्य जहर है।
मत ऐसी बात सोचो, सत्यानंद।
तुम कहते हो: "आप सत्य को जैसा है वैसा ही कह देते हैं।'
वैसा ही कहना चाहिए। जरूरत है ऐसे बहुत से लोगों की जो सत्य को वैसा ही कह दें जैसा है। तो धीरे-धीरे लोग भी सत्य को झेलने के आदी हो जाएंगे, समर्थ हो जाएंगे। उनका भी बल बढ़ेगा। उनका भी आत्मबल जगेगा। उनके भीतर भी सत्य चोट करेगा, शुरू में पीड़ा होगी, लेकिन कब तक? अगर बार-बार यह चोट पड़े तो यही चोट एक दिन भीतर संगीत के झरने बन कर फूट पड़ती है।
और मैं तो दो टूक ही कहूंगा। मैं तो कहूंगा: दो और दो चार ही होते हैं। राजनेता और भाषा बोलता है। उसकी भाषा लचर-पचर होती है। वह इस ढंग से बोलता है कि ऐसा भी मतलब हो सके, वैसा भी मतलब हो सके। न उसके हां का मतलब हां होता है, न न का मतलब न होता है। उसके बोलने का ढंग ऐसा होता है कि कल जैसी हवा बहे, वैसे अर्थ निकाले जा सकें। राजनेता अगर साधु भी हो जाए, तो भी पुरानी आदतें नहीं छूटतीं। वह पुरानी आदतों से बाज नहीं आता।
विनोबा भावे के वक्तव्य तुम देखते हो?
आज एक बात छपेगी अखबारों में, चार दिन बाद वे उसका खंडन कर देंगे। वे बात इस ढंग से कहेंगे कि उसके दोनों अर्थ हो सकें। गोल-मोल बात कहेंगे।
जब चिकमगलूर के चुनाव में इंदिरा जीती, और उन्हें खबर दी गई कि इंदिरा जीत गई, तो वे ताली बजा कर हंसे। अखबारों में खबरें छप गईं कि वे खुश हुए, वे प्रसन्न हुए जीत से। फिर सोचा-विचारा होगा कि यह मंहगा सौदा है। मोरारजी ताकत में थे। अभी इंदिरा की जीत से खुश होना, भूल-चूक हो गई। जल्दी ही वक्तव्य आ गया कि उनके हंसने और ताली बजाने का कोई संबंध इंदिरा की जीत से नहीं था। वे तो यूं ही मौज में कभी-कभी ताली बजाते हैं और कभी-कभी हंसते हैं। बात बदल दी।
अभी चार-छह दिन पहले, इन चुनावों के परिणाम के पहले, एक मंत्री महोदय को उन्होंने कहा कि इंदिरा कांग्रेस की विजय होगी नौ ही प्रांतों में। मंत्री महोदय ने वक्तव्य दे दिया। अखबारों में छप गया। दो दिन बाद उनको लगा होगा कि अगर सब प्रांतों में विजय नहीं हुई, तो मेरी बात झूठी पड़ेगी। और जैसे ही दिखाई पड़ा कि तमिलनाडु में, एक प्रांत में तो हार होनी सुनिश्चित है, फौरन वक्तव्य दे दिया कि मैंने ऐसा कहा ही नहीं है।
अब या तो वह मंत्री झूठ बोला। अगर झूठ बोला था, तो तत्क्षण वक्तव्य देना था। ये दो-चार दिन प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन देख रहे होंगे कि हवा का रुख क्या होता है? अगर नौ ही प्रांतों में जीत जाए, तो कहने को हो जाएगा--भविष्यवाणी की, भविष्य के ज्ञाता हैं, द्रष्टा हैं। लेकिन जब देखा कि एक प्रांत में हार सुनिश्चित होती जा रही है, तो पीछे भद्द होगी, इसलिए बेहतर है कि अब कह दो कि ऐसा मैंने कहा ही नहीं है।
और ऐसा एक बार नहीं, ऐसा अनेक बार हो चुका है। इंदिरा और अर्स दोनों की मौजूदगी में उन्होंने वक्तव्य दिया था। और दो दिन बाद वक्तव्य बदल गए। या तो इंदिरा और अर्स झूठ बोले। मगर उनकी ही मौजूदगी में वक्तव्य दिया था इंदिरा और अर्स ने अखबार वालों को। तभी उनको मना कर देना था कि मेरा ऐसा मंतव्य नहीं है। तब वे चुपचाप बैठे रहे। और जब इंदिरा और अर्स चले गए वहां से, दो दिन बाद जब सोच-विचार किया होगा कि इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं, अभी सत्ता औरों के हाथ में है, तो तत्क्षण वक्तव्य बदल दिया कि मैंने ऐसा कहा ही नहीं है। मैं तो चुप ही बैठा था। मैं तो कुछ बोला ही नहीं।
मैं कोई राजनेता नहीं हूं। मुझे तो जो ठीक लगेगा, वही कहूंगा। दयानंद मुझे कभी जंचे नहीं, मैं करूं क्या? ऐसा भी नहीं कि मैंने सब तरह से कोशिश नहीं की है। सब तरह से दयानंद को समझने की कोशिश की है। क्योंकि कोई भी निर्णय लेना पूरी परख के बाद ही उचित होता है। रामकृष्ण मुझे जंचे--दोनों समसामयिक थे--लेकिन दयानंद मुझे नहीं जंचे।
अब या तो मैं चुप रहूं। और तुम पहले नहीं हो सत्यानंद, जिसने मुझे यह सलाह दी हो, औरों ने भी, मुझे मित्रों ने सलाह दी है कि आर्यसमाजी रुष्ट होते हैं। वह सच है कि वे रुष्ट होते हैं। और मेरे संबंध में जो भी गालियां दे सकते हैं, देते हैं। और गाली देने में वे कुशल हैं।
लेकिन मेरी भी मजबूरी समझो। मैंने लाख उपाय किए कि इस आदमी में कुछ भी मिल सके, मगर मुझे कुछ इस आदमी में दिखा ही नहीं। यह आदमी मुझे हमेशा से गोबर-गणेश मालूम हुआ। शास्त्र छान डाले उनके लिखे हुए, उनमें मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ा।
और जो भी उन्होंने कहा है, वह भद्दा और बेहूदा है, अशोभन है। उन्होंने जिस ढंग से महावीर की और बुद्ध की, मोहम्मद की और जीसस की निंदा की है--वह आलोचना नहीं है, सीधी निंदा है--वह इतनी बेहूदी है और अभद्र है कि आश्चर्य होता है कि ऐसे अभद्र वक्तव्यों को हम सम्मान देते चले जा रहे हैं!
अब जिन मित्र ने कल प्रश्न पूछा था--वेदालंकार ने--उन्होंने चाहा था कि मैं दयानंद की तुलना और गिनती जीसस के साथ करूं। और उनको पता होना चाहिए कि दयानंद खुद राजी नहीं होते इस बात से, क्योंकि दयानंद की दृष्टि में जीसस तो अज्ञानी हैं। दयानंद बहुत नाराज होते अगर उनको यह पता चले कि कोई वेदालंकार, ये गुरुकुल कांगड़ी से निकले हुए कचरे, ये उनकी तुलना और उनकी समानता और गणना जीसस के साथ करवा रहे हैं। जीसस को तो उन्होंने जी भर कर, पानी पी-पी कर कोसा है। जीसस तो बिलकुल ही गलत आदमी हैं। जीसस के साथ तो उनकी तुलना करने का सवाल ही नहीं उठता--उनके ही हिसाब से नहीं उठता।
और मेरी दृष्टि में जीसस उन अमृत पुरुषों में से एक हैं, जिनके कारण यह पृथ्वी धन्य हुई है। वे इस पृथ्वी के कमल हैं--जैसे बुद्ध, जैसे महावीर, जैसे कृष्ण, जैसे लाओत्सु, जैसे जरथुस्त्र, जैसे मूसा, जैसे मोहम्मद, जैसे बहाउद्दीन, जैसे जलालुद्दीन, जैसे अलहिल्लाज--इस अदभुत परंपरा के वे एक हिस्से हैं। इन्हीं चमचमाते तारों में से एक। उनसे पृथ्वी का आकाश ज्योतिर्मय हुआ है।
लेकिन इनमें से कोई दयानंद को पसंद नहीं है--न बुद्ध, न महावीर, न जीसस, न मोहम्मद। और जलालुद्दीन, बहाउद्दीन, फरीद--इन सबकी तो बात ही छोड़ दो; इन सबकी तो कोई गिनती वे करेंगे नहीं। बहुत संकीर्ण बुद्धि के व्यक्ति हैं। उनका तो सारा जगत बस उन चार वेदों में सीमित है। उन वेदों के बाहर कुछ भी नहीं है। न वेदों के बाहर कुछ हो सकता है कभी। सब कुछ वेदों में आ गया है।
मैंने वेद भी छान डाले। वेदों में सब कुछ नहीं आ गया है, नहीं तो उपनिषद पैदा नहीं होते। उपनिषदों का दूसरा नाम वेदांत है। वेदांत का अर्थ होता है: जिनके कारण वेदों का अंत हो गया; जिनके कारण वेदों की समाप्ति हो गई; जिनके कारण वेदों का मूल्य खो गया।
और उपनिषदों में स्पष्ट घोषणा है कि वेद केवल सांसारिक लोगों के लिए हैं, जिनकी बुद्धि अति भौतिक है और अति सांसारिक है। वे ब्रह्मवादियों के लिए नहीं हैं। जिनको ऊंची उड़ान लेनी हो, जिनको आकाश छूना हो, उनके लिए उपनिषद हैं।
उपनिषद की मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है। जहां कुछ श्रद्धा योग्य हो, वहां मैं श्रद्धा देने को हमेशा तैयार हूं; वहां सिर झुकाने को हमेशा राजी हूं। लेकिन वेदों के प्रति मेरे मन में कोई श्रद्धा नहीं है। हां, एक प्रतिशत वेदों के मंत्र छोड़ दिए जाएं, उनके प्रति मेरी श्रद्धा है। कुछ मंत्र हैं, जैसे कचरे में कुछ हीरे पड़े हों। लेकिन इस कारण मैं कचरे का सम्मान नहीं कर सकता।
दयानंद की दृष्टि ऐसी है कि वेद में जो है, चूंकि वेद में है इसलिए उसका सम्मान होना चाहिए। तोड़ो-मरोड़ो, लेकिन उसमें से कुछ अर्थ निकालने की कोशिश करो। उसको श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश करो। वेदों के साथ जगत में ज्ञान का अंत हो गया; बस उसके बाद फिर ज्ञान की कोई जरूरत नहीं रही।
सच यह है कि वेदों के साथ सिर्फ ज्ञान का प्रारंभ हुआ। प्राथमिक चरण हैं वेद। जैसे छोटा बच्चा चलता है, पहले कदम, लड़खड़ाते हुए। खुशी बहुत होती है मां को बच्चे के चलने से, लेकिन बच्चे के पहली दफा चलने को कोई बहुत मूल्य नहीं दिया जा सकता। इससे कोई मंजिलें तय नहीं होतीं। यह तो सीखने की शुरुआत है। वेद क ख ग है अध्यात्म का, इससे ज्यादा नहीं। उपनिषदों ने ऊंचाई ली। फिर ब्रह्मसूत्र है, जिसने और ऊंचाई ली। फिर बुद्ध और महावीर आए, जिन्होंने पराकाष्ठा पर पहुंचा दी बात को।
दयानंद के वचनों में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसको मैं मूल्य दे सकूं। और ऐसा नहीं कि मैंने चाह कर उन्हें मूल्य नहीं दिया है। मेरी उनसे क्या दुश्मनी है? मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है। सत्य से मेरी प्रीति है। इसलिए सत्य के अनुकूल जो भी पड़ेगा, उससे मेरी प्रीति है।
मुझे दयानंद के व्यक्तित्व में भी कुछ नहीं दिखाई पड़ा। व्यक्तित्व को तो छोड़ दें, दयानंद की तस्वीर भी देखता हूं मैं तो वे बिलकुल सिद्ध भोंदू मालूम होते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। न बुद्ध की गरिमा है, न जीसस की महिमा है, न कृष्ण का सौंदर्य है, न रामकृष्ण की मस्ती है--एक पोंगा पंडित, बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
सत्यानंद तुम कहते हो: "बात सच है, पर चुभती है।'
सत्य सदा चुभता है, क्योंकि हम असत्य में जीते हैं। मगर मैं क्या करूं, तुम्हारी मवाद निकालनी है। और मवाद निकालनी हो तो पीड़ा तो होगी। मेरा काम ही सर्जरी का है। तुम्हें पीड़ा भी होगी, दर्द भी होगा, लेकिन मवाद से मुक्ति अगर चाहिए हो तो यह पीड़ा झेलनी पड़ेगी। इस पीड़ा से अगर गुजरे तो तुम्हारे जीवन में स्वास्थ्य का उदय हो सकता है।
तुम कहते हो: "क्या आप ऐसे संबंधों में चुप ही रहें तो ठीक न हो?'
तुम्हारे लिए ठीक हो, मेरे शिष्यों के लिए ठीक हो, क्योंकि उनको अड़चनें कम हों, उनको झंझटें कम हों, लेकिन मेरे लिए ठीक नहीं हो और सत्य के लिए ठीक नहीं हो। और इस बात को तुम ध्यान रखना--यहां मैं तुम्हारे लिए नहीं हूं, सत्य के लिए हूं। और तुम्हें भी अगर मेरे पास होना है तो सत्य के लिए होना है, किसी और कारण से नहीं। मेरे और तुम्हारे बीच अगर कोई भी सेतु है तो सत्य है।
और सत्य के लिए सब कुछ देने की, सब कुछ निछावर करने की तैयारी चाहिए ही, इससे कम में यह सौदा हो नहीं सकता। इससे कम में कभी कोई इस सौदे को कर नहीं पाया है। जीवन को भी निछावर करना पड़े तो ठीक है, यही सही, लेकिन सत्य को मत खोना। सब खो देना, सत्य को मत खोना। बहुत तुम्हें पीड़ाएं झेलनी पड़ेंगी। तुम्हारे लिए सूलियां दे रहा हूं। तुम्हें सिंहासन नहीं मिल जाएंगे। तुम्हें हजार तरह के अपमान झेलने पड़ेंगे। तुम्हें जगह-जगह से मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी।
लेकिन सिवाय इसके, सत्य की अभिव्यक्ति का न तो कभी कोई उपाय रहा है, न अब तक है। आशा करनी चाहिए कि भविष्य में स्थिति बदलेगी। मगर यह बड़ी दूर की आशा है। भीड़ कभी भी सत्य के लिए राजी होगी--यह संभव नहीं दिखाई पड़ता। आशा तो करनी चाहिए, मगर यह आशा कब यथार्थ बनेगी, कहना बहुत मुश्किल है। आशा तो बुद्ध ने भी की थी। आशा तो कृष्ण ने भी की थी। हजारों साल बीत गए, आशा आशा ही है; अभी भी यथार्थ नहीं बना। आशा मैं भी करता हूं, लेकिन शायद हजारों साल और बीतेंगे।
लेकिन आदमी प्रौ?ढ़ होना शुरू हुआ है। धीरे-धीरे होता है आदमी प्रौढ़। एक आदमी की जिंदगी सत्तर साल की होती है, इसलिए हमको लगता है सत्तर साल बहुत बड़ा समय हो गया। मनुष्यता की जिंदगी तो बहुत लंबी है, लाखों साल की है, यहां हजारों साल की कोई गिनती नहीं होती। अगर दस-पच्चीस हजार साल में भी आदमी इस योग्य हो जाए कि सत्य को प्रीति से ग्रहण कर सके और सत्य को सुने और उसके भीतर मैत्री पैदा हो, तो भी समझना कि जल्दी घटना घट गई, पृथ्वी रूपांतरित हो गई। तो समझना कि रात कट गई अमावस की और सुबह हो गई है।
लेकिन सबके जीवन में यह जब होगा तब होगा, तुम्हारे जीवन में तो आज हो सकता है। आज होना चाहिए। मेरे साथ होने का एक ही अर्थ हो सकता है कि तुमने यह तय किया है कि किसी भी मूल्य पर सत्य के साथ होना है। संन्यास का और कोई प्रयोजन नहीं है।
मत मुझे ऐसी सलाहें दो। क्योंकि तुम्हारी सलाह यह बताती है कि तुम अपने जीवन में क्या करोगे। तुम्हारी सलाह से मैं कुछ प्रभावित होने वाला नहीं हूं। मैंने अपने जीवन में किसी की सलाह कभी मानी ही नहीं। एक भी मौके पर मैंने किसी की सलाह कभी मानी नहीं। और मुझे कोई पछतावा नहीं है। मैं अपने ढंग से जीया हूं। मैंने कोई समझौता नहीं किया। और मैं अति आनंदित हूं। समझौता किया होता, तो मुझे ग्लानि होती, तो मेरे भीतर अपराध-भाव होता। मैंने कोई समझौता नहीं किया। मुझे जैसा जीना था, वैसा जीया हूं। जो करना था, वही किया है। जो कहना था, वही कहा है।
लेकिन तुम जब मुझे ऐसी सलाह देते हो, तो तुम्हारे जीवन में खतरा है। मैं तो मानूंगा नहीं, लेकिन तुम्हारे जीवन में खतरा है कि तुम यही करोगे जो तुम मुझसे कह रहे हो। तुम सत्य को छिपाने की कोशिश करोगे। तुम सत्य पर लीपापोती करोगे। तुम दूसरे को देख कर कहोगे कि उसे क्या प्रीतिकर लगेगा, क्या अप्रीतिकर लगेगा।
लेकिन इस तरह तो तुम मार्ग से च्युत हो जाओगे। तुम जो सत्य की खोज में निकले हो, जिस महान अन्वेषण पर चले हो, वह लक्ष्य चूक जाएगा। फिर भीतर से राजनीति आ जाएगी तुम्हारे। तुम्हें फिर इसकी चिंता ज्यादा हो जाएगी कि मित्र बनाएं। और अगर झूठ से मित्र बनते हैं, तो झूठ ठीक। अगर सत्य से शत्रु बन जाते हैं, तो सत्य खतरनाक है; ऐसे सत्य से क्या लेना-देना?
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: सत्य ही एकमात्र मित्र है। और मित्रता की कोई जरूरत नहीं है। वह एक मित्र मिल गया तो परम मित्र मिल गया, क्योंकि सत्य यानी परमात्मा।
मुझे तो सलाह ऐसी देना ही मत, अपने भीतर भी इस तरह के भाव बना कर मत रखना, क्योंकि इस तरह के अंतर्भाव बने रहें, तो खतरनाक हैं।

दूसरा प्रश्न: भगवान!
आपने कहा कि आप भारत-रत्न होना पसंद नहीं करेंगे। कृपया बताएं कि क्या आप विश्व-रत्न होना पसंद करेंगे?

चैतन्य भारती!
धत तेरे की! जीवन भर में एक तो तुमने प्रश्न पूछा...तुम भी पूर्व-काल के आर्यसमाजी हो, क्या मामला है? क्या कचरा बात पूछी! ऐसा भी होता कि तुम बहुत पूछने वालों में होते, तो भी ठीक था। शायद पहला ही प्रश्न है तुम्हारा। और मुझसे जुड़े हो तुम वर्षों से--कोई पंद्रह वर्षों से। पंद्रह वर्षों में यह तुम्हें कुल सूझा प्रश्न! बड़ा आध्यात्मिक प्रश्न पूछा तुमने!
मुझे न तो भारत-रत्न होने में कोई रस है, न विश्व-रत्न होने में कोई रस है। मैं तो जो हूं, वह हूं। मैं तो साधारण व्यक्ति हूं। रत्न होने का कोई सवाल ही नहीं है।
रत्न होने से बचना, क्योंकि जो रत्न होते हैं अक्सर रतन सिद्ध होते हैं--पहुंचे हुए रतन!
मुझे कोई रस नहीं है रत्न होने में। और कंकड़-पत्थर ही हैं रत्न, और क्या हैं? चमकदार सही। कीमत भी आदमी की नजरों में है। आदमी को हटा लो जमीन से तो कंकड़-पत्थरों में और रत्नों में क्या फर्क रह जाएगा? सब बराबर हो जाएंगे। एकदम साम्यवाद आ जाएगा। न कंकड़-पत्थर कम मूल्य के होंगे, न हीरे-जवाहरात ज्यादा मूल्य के होंगे।
मुझे इन खिलौनों में रस नहीं है। मैं तो जो हूं, पर्याप्त हूं; जितना हूं, उससे तृप्त हूं; जैसा हूं, उससे परम आह्लादित हूं। इसमें न कुछ जोड़ा जा सकता है, न कुछ घटाया जा सकता है।
इस सत्य को जान लेने को ही तो मैं भगवत्ता की उपलब्धि कहता हूं--कि जब कुछ जोड़ा न जा सके, कुछ घटाया न जा सके; जब तुम्हारा होना परिपूर्ण तृप्तिदायी हो।
मुझे न कोई पदवी चाहिए, न कोई सम्मान चाहिए, न कोई सत्कार चाहिए, न कोई सिंहासन चाहिए, न कोई पुरस्कार चाहिए। मुझे तो मिल गए सब पुरस्कार! जिस दिन अपने को पाया, उस दिन सब पा लिया। मुझे तो मिल गईं सब पदवियां। मुझे तो परमपद उसी दिन मिल गया। जिस दिन अपने भीतर विराजमान हो गया, उससे बड़ा फिर कोई सिंहासन नहीं है। जिस दिन अपने भीतर बैठना आ गया, उस दिन बस सब सिंहासन छोटे पड़ गए, सब रत्न फीके हो गए। जब से अपने को देखा है, रत्नों की तो बात छोड़ो, चांदत्तारे-सूरज भी फीके हो गए।
बच्चों जैसी बातें नहीं पूछा करो।

तीसरा प्रश्न: भगवान!
आप किसी प्रश्न का उत्तर लंबा और किसी का अति संक्षिप्त क्यों देते हैं?

स्वरूपानंद!
तुमने देखा अभी, चैतन्य भारती का उत्तर असल में "धत तेरे की', उतने में हो गया। बाकी तो जरा उनकी पीठ थपथपायी। जितनी जरूरत होती है, जिसकी जैसी जरूरत।
कल अखबार में एक कहानी पढ़ रहा था। एक विज्ञान के शिक्षक विद्यार्थियों को विज्ञान की सापेक्षवाद की धारणा समझा रहे थे। अल्बर्ट आइंस्टीन की सापेक्षवाद की धारणा तो दुरूह धारणा है, कठिन धारणा है। खुद अल्बर्ट आइंस्टीन को समझाने में मुश्किल पड़ती थी। खुद आइंस्टीन कहता था कि शायद पृथ्वी पर एक दर्जन से ज्यादा लोग नहीं हैं, जो मेरी इस धारणा को ठीक से समझते हों। तो शिक्षक ने काफी विस्तार से समझाया।
विस्तार इतना था कि एक विद्यार्थी ने खड़े होकर पूछा कि महानुभाव, अगर प्रश्न पूछा जाए परीक्षा में तो इतना लंबा उत्तर हम कैसे लिखेंगे?
तो उन्होंने कहा, देखो, उत्तर दो प्रकार के होते हैं, एक अर्जुन-टाइप और दूसरा हनुमान-टाइप।
विद्यार्थी ने पूछा, आपका मतलब?
तो उन्होंने कहा, अर्जुन-टाइप का मतलब, जब अर्जुन से कहा गया कि बेटा, तुझे क्या दिखाई पड़ता है? तीर मारना है उसे निशाने पर, चिड़िया की आंख में। तो उसे न वृक्ष दिखाई पड़े, न फूल दिखाई पड़े, न फल दिखाई पड़े। इतना ही नहीं, उसे पक्षी भी पूरा नहीं दिखाई पड़ा। इतना ही नहीं, उसे दो आंखें भी नहीं दिखाई पड़ीं। जिस आंख में तीर मारना था, बस वही आंख दिखाई पड़ी। तो जितना प्रश्न पूछा जाए! एक तो उत्तर होता है अर्जुन-टाइप, शिक्षक ने कहा, बस उतना ही उत्तर दे देना। और दूसरा होता है हनुमान-टाइप, कि गए थे संजीवनी बूटी लेने, वह मिली नहीं, सो पूरा पहाड़ ले आए। और रख दिया वैद्य जी के सामने कि लो अब आप ही निकाल लो, कौन सी संजीवनी बूटी है। अगर समझ में न आए कि क्या उत्तर देना, तो फिर पूरा का पूरा पहाड़ ही। फिर तुम पूरा का पूरा लिख देना उत्तर।
तो स्वरूपानंद, देखता हूं कौन कितने में समझेगा। अर्जुन जैसा व्यक्ति हो, तो थोड़े में उत्तर दे देता हूं! और हनुमान-छाप हो कोई, और अधिकतर तो हनुमान-छाप लोग हैं, उनको कुछ समझ में नहीं आएगा; छोटे में उत्तर दिया जाए तो वे चूक ही जाएंगे। हनुमान से तो जितना बच सको बचना।
मैंने सुना है, एक सहेली अपनी दूसरी सहेली को कह रही थी कि तुझे पता है? अभी-अभी तुझे गर्भ रहा है, जरा सोच-समझ कर चलना। क्योंकि मैंने सुना है--एक स्त्री को गर्भ रहा, वह हनुमान की भक्त थी और हनुमान चालीसा पढ़ती थी। फिर उसको बच्चा हुआ। पहला ही बच्चा। पति बाहर चहलकदमी कर रहा है, नर्सें भाग रही हैं, कंपाउंडर भाग रहे हैं, दवाइयां लाई जा रही हैं, ले जाई जा रही हैं। फिर डाक्टर भी बाहर भागता हुआ आया। उसकी हड़बड़ाहट ऐसी कि पति को भी घबड़ाहट हुई कि बात क्या है! बटन कोट की कहीं की कहीं लगी हैं, टाई उड़ कर पीछे की तरफ चली गई है, हैट भी उलटा लगा हुआ है, पैंट की बटनें भी खुली हुई हैं--मामला क्या है? इतनी हड़बड़ाहट! पसीना-पसीना हुआ जा रहा है! उसने कहा, डाक्टर साहब, डाक्टर साहब! मैं जिससे पूछता हूं, कोई उत्तर नहीं दे रहा। बात क्या है? बच्चा हुआ कि नहीं?
डाक्टर ने कहा, भई, बच्चा हो गया है, घबड़ाओ मत।
तो कहा कि लड़का हुआ कि लड़की?
उसने कहा, अब यह हम अभी नहीं बता सकते। जो भी हुआ है वह एकदम उचक कर और शेंडेलियर पर चढ़ गया है। वह जब उतरे शेंडेलियर से तब पता चले कि लड़का है कि लड़की।
हनुमान चालीसा पढ़ने का फल! अब जो पुत्र हुए हैं, वे हनुमान-छाप हो गए। वे पहले ही से एकदम चढ़ गए हैं शेंडेलियर पर।
वह स्त्री तो बहुत घबड़ाई, जिससे यह बात हो रही थी। उसने कहा, ऐसा क्या, किताबों का ऐसा असर होता है?
उसने कहा, हां! एक महिला द्वैतवाद पर शास्त्र पढ़ रही थी, सो उसको दो बच्चे पैदा हुए। यह खबर फैल गई, तो दूसरी महिला को जिसको अभी-अभी गर्भ रहा था, उसने सोचा कि बेहतर है अद्वैतवाद पर किताब पढ़ी जाए! नहीं तो ये दो बच्चे पैदा हो गए, और उपद्रव हो गया। तो उसने अद्वैतवाद पर ग्रंथ पढ़ा। पढ़ती रही अद्वैतवाद पर ग्रंथ। और परिणाम जो हुआ, वह यह हुआ कि अद्वैतवादी पैदा हुआ। अद्वैतवादी अर्थात उनकी एक ही आंख थी, एक ही हाथ, एक ही टांग।
अब तो वह जो सहेली सुन रही थी, वह एकदम घबड़ा कर खड़ी हो गई। उसने कहा, मैं तो मारी गई! हाय दैया!
उसने कहा, तू क्यों घबड़ा रही है?
उसने कहा कि मैं तो किताब पढ़ रही हूं--अलीबाबा, चालीस चोर। मेरा क्या होगा?
हनुमान-छाप न हो जाना। थोड़े सावधान रहना। मगर अधिकतर लोग हनुमान-छाप हैं। उनके लिए लंबा उत्तर देना पड़ता है। उनको मारे जाओ, मारे जाओ, बामुश्किल वे थोड़े-बहुत जगते हैं। थोड़े-बहुत आंख खोल कर देख लें तो ठीक है। और कई तो ऐसे हैं कि जगे हुए पड़े हैं, बहाना कर रहे हैं सोने का। उनको तो कितना ही मारो, वे आंख ही नहीं खोलते।
दोपहर थी, नसरुद्दीन और चंदूलाल ट्रेन में सफर कर रहे थे। एयरकंडीशंड कमरा, दोनों ही थे एक कमरे में। नसरुद्दीन पहले तो थोड़ा सा घुर्राया और फिर एकदम गालियां देने लगा कि ऐसी की तैसी तेरी चंदूलाल! अरे हरामजादे! वह चपत लगाऊंगा बेटा, छठी का दूध याद दिला दूंगा!
चंदूलाल ने एकदम हिलाया और कहा, नसरुद्दीन, तुम जब भी नींद में होते हो तो अंट-शंट बकते हो।
नसरुद्दीन ने कहा, कौन कहता है कि मैं नींद में हूं? और होश में अंट-शंट बकूं तो झगड़ा-झांसा खड़ा होता है। सो नींद में बकता हूं। मतलब, जो मुझे कहना है वह तो मैं कहूंगा ही। अगर होश में कहने दोगे तो होश में कहूंगा, नहीं तो बेहोशी का बहाना करके कहूंगा।
जो लोग बहाना किए पड़े हैं, उनके साथ बहुत दिक्कत हो जाती है। उनको बहुत खींचातानी करनी पड़ती है। उनकी टांग खींचो, पानी के छींटे मारो, उठा कर बिठालो, बिस्तर से खींचो, बामुश्किल निकलते हैं। उनके लिए लंबा उत्तर देना पड़ता है, स्वरूपानंद। जो समझ सकते हैं, उनको बस एक चोट काफी होती है।

चौथा प्रश्न: भगवान!
पंद्रह साल बीत चुके, पर आपका कोई शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ! कृपा करके समझाइए।

पूछने वाले ने नाम नहीं लिखा है।
भैया, ऐसी भी क्या कायरता! वेदालंकार हो? क्या, मामला क्या है? कल काफी कुटाई-पिटाई हो गई, इसलिए आज नाम ही नहीं लिखा! नाम तो लिख देते कम से कम। उससे मुझे सुविधा होती है।
किसने कहा कि बुद्धत्व को कोई उपलब्ध नहीं हुआ? लेकिन यह मेरी प्रक्रिया का अंग है कि जो उपलब्ध होते जाएंगे, उनको मैं कहूंगा: चुप रहो। चुपचाप काम में लगे रहो। घोषणा करने की आवश्यकता नहीं है। घोषणा से कुछ लाभ भी नहीं है। मैं भी चुप ही रह कर काम करता। मजबूरी थी, इसलिए घोषणा करनी पड़ी। घोषणा करनी पड़ी ताकि अनेक लोगों को आमंत्रित कर सकूं।
मेरे पास जो लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो रहे हैं, उनको घोषणा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब मैं समझूंगा जरूरी, कि अब घोषणा करनी आवश्यक है, तब जरूर घोषणा करूंगा।
अनेकों के जीवन में क्रांति घट रही है, रोशनी फूट रही है। कल ही मैं फली भाई के संबंध में कह रहा था। हीरा पायो गांठ गठियायो; बाको बार-बार क्यों खोले! पा गए हैं हीरा, गांठ गठिया ली, अब बार-बार क्या खोलना! किसी को क्या कहना! चुपचाप आनंद ले रहे हैं।
सभी को घोषणा करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि बुद्धत्व के बाद दो अवस्थाएं होती हैं: एक तो बोधिसत्व की और एक अर्हत की। जो अर्हत है, उसको तो घोषणा करनी ही नहीं है। क्योंकि वह किसी का शिक्षक नहीं होगा, वह सदगुरु नहीं होगा। उसने अपना पा लिया, पहुंच गया। वह दूसरे को सहारा नहीं दे सकता है। दूसरे को सहारा देने के लिए सिर्फ बुद्धत्व काफी नहीं है, कुछ और बातें जरूरी हैं--जो अगर पिछले जन्मों में अर्जित की हों तो ही हाथ में होंगी, अन्यथा उसे चुप ही रहना होगा।
तो आधे तो अर्हत होंगे। उनकी तो घोषणा करने की आवश्यकता ही नहीं है। उनकी तो मैं जरूरत समझूंगा तो घोषणा करूंगा। जरूर कभी उनकी मैं घोषणा करूंगा। एक खास परिमाण में जब मेरे पास अर्हत होंगे तब मैं उनकी घोषणा करूंगा।
मेरे काम की अपनी प्रक्रिया है। जैसे पंद्रह साल तक मैं देश के कोने-कोने में घूमता रहा, मैंने अपने बुद्धत्व की भी घोषणा नहीं की पंद्रह साल तक। जिनको अंदाज भी होने लगा उनको भी मैंने कहा--चुप रहना। मुझसे आकर भी जिन्होंने कहा कि हमें इस तरह का आभास होता है, उनसे भी मैंने कहा--चुप रहना, बोलना मत, कहना मत। अभी मुझे देश के कोने-कोने में घूमना है। अभी इस बात की घोषणा कि मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हूं, मेरे सारे काम को ही रोक देगी। जिस दिन मुझे यात्रा बंद कर देनी होगी, जिस दिन जरूरत नहीं रह जाएगी यात्रा की, जिस दिन लोग मेरे पास आने शुरू हो जाएंगे, उस दिन घोषणा कर दी जाएगी।
तो पंद्रह साल तक चुप रहा मैं। चुपचाप काम को जारी रखा। नहीं तो आज तुम मुझे जीवित नहीं पाते। आज मेरा होना असंभव होता। यह देह मुझसे कभी की छीन ली गई होती।
मेरे काम करने का अपना गणित है।
फिर मैंने उन पंद्रह वर्षों में किसी को संन्यास नहीं दिया। क्योंकि संन्यास देना, मतलब एक भयंकर आग से जूझना, एक आग पैदा करना। जब मैं बैठ गया एक जगह, तब मैंने संन्यास देना शुरू किया। जब उसकी घड़ी आई, जब ठीक वसंत का अवसर आया, तब फूल खिले।
जब जरूरत पड़ी, मैंने घोषणा की अपने बुद्धत्व की। जब जरूरत पड़ी, तब मैंने संन्यास देना शुरू किया। जिस दिन मुझे लगेगा कि अब एक ठीक मात्रा मेरे पास है अर्हतों की, तो उनकी घोषणा कर दूंगा। मगर वे किसी के काम के नहीं होंगे। दर्शनीय होंगे। तुम उनके पास बैठ सकोगे, मगर वे मौन में होंगे। वे कुछ बोलेंगे नहीं।
जब जरूरत समझूंगा कि अब बोधिसत्वों की घोषणा करनी है, तो बोधिसत्वों की घोषणा कर दूंगा। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब मैं देखूंगा कि मेरे पास संन्यासियों का इतना बड़ा वर्ग है सारी दुनिया में कि मेरे बोधिसत्वों की व्यवस्था कर सकेगा। नहीं तो उनको नाहक जगह-जगह पत्थर पड़ेंगे, और कुछ भी नहीं होगा।
मुझे कोई नाहक तुम पर पत्थर फिंकवाने का शौक नहीं है। मजबूरी में पत्थर फिंक जाएं, बात और, मगर कोई तुम्हें शहीद बनवाने की मेरी इच्छा नहीं है। चाहता नहीं कि तुम्हें नाहक सूली लगे। लगती हो और घड़ी ही आ जाए, तो यह भी नहीं कहूंगा कि बचना। मगर यह भी नहीं कहूंगा कि अपने हाथ से नाहक सूली चढ़ना। कोई तुम्हें शहीद बनाने का मेरा आयोजन नहीं है।
इसलिए मुझे प्रतीक्षा करनी होगी। जब मेरे पास सारी दुनिया में एक निश्चित वर्ग होगा...आई जाती है वह घड़ी। अब करीब डेढ़ लाख संन्यासी हैं सारी दुनिया में। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी कि गांव-गांव संन्यासी होंगे। जब गांव-गांव संन्यासी होंगे, तब मैं घोषणा कर सकूंगा कि कौन-कौन बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं। क्योंकि फिर उन्हें जाना होगा। उन्हें गांव-गांव घूमना होगा। उन्हें गांव-गांव बैठना होगा और उन्हें झेलना होगा। अभी वे मेरी छत्रछाया में बैठ सकते हैं, फिर उन्हें अपने पैर पर खड़ा होना होगा। मगर उसकी तैयारी पूरी कर लूं।
जीसस ने अगर तैयारी से काम किया होता तो बात और हुई होती। जीसस का काम अव्यवस्थित था, इसलिए तैंतीस साल की उम्र में फांसी भी लग गई और कुछ काम भी ढंग से नहीं हो पाया, व्यवस्थित नहीं हो पाया। और जीसस के मरने के बाद जिनके हाथ में काम पड़ा, वे गलत लोग थे। गलत लोगों के हाथ में ही पड़ सकता था, क्योंकि ठीक लोग पैदा नहीं हो सके।
मैं समय आएगा तब बीज बोता हूं, और समय आएगा तब फसल काटूंगा। तुम्हारे कहने से नहीं, कि कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं, मैं कहूंगा कि कितने लोग हो गए हैं बुद्धत्व को उपलब्ध। यह तो मेरी अपनी दृष्टि में जब जरूरी होगा, इसकी घोषणा की जाएगी।
मगर इतना तुमसे कहता हूं कि बहुत उपलब्ध हो गए हैं, बहुत उपलब्ध हो रहे हैं, बहुत उपलब्ध हो जाएंगे। संभवतः पृथ्वी पर इतने बुद्ध एक साथ कभी उपलब्ध नहीं हुए हैं जितने कि उपलब्ध हो सकते हैं। इतनी बड़ी व्यवस्था से, इतने बड़े वैज्ञानिक ढंग से बुद्ध-ऊर्जा का क्षेत्र कभी निर्मित नहीं किया गया है। हो भी नहीं सकता था पहले, क्योंकि मेरे पास समस्त बुद्धों के अनुभव का निचोड़ है, जो उनके पास नहीं था। आखिर बुद्ध को वह अनुभव नहीं हो सकता जो पच्चीस सौ वर्ष का मुझे है। जीसस को वह अनुभव नहीं हो सकता जो इन दो हजार वर्षों का मुझे है।
स्वभावतः मेरे बाद जो बुद्ध आएंगे उनको और भी ज्यादा अनुभव होगा--मुझसे ज्यादा होगा। बुद्धत्व तो एक ही घटना है, लेकिन जीवन का अनुभव, लोगों का अनुभव, लोगों के साथ काम करने का अनुभव, वह तो बढ़ता जाएगा; वह तो समय के साथ गहरा होता जाता है।
मुझे अतीत के सारे बुद्धों की जीवन-प्रक्रिया का खयाल है। और उस सबका निचोड़ मैं उपयोग कर रहा हूं। समय रहने पर घोषणा कर दी जाएगी। ठीक समय पर ही कोई काम होगा, कोई कदम उठाया जाएगा। मैं समय के पहले कोई काम करना न पसंद करता हूं, न करना उचित मानता हूं।

पांचवां प्रश्न: भगवान!
मेरा मन कहता है कि संन्यास मत लो, पर भीतर और कुछ कह रहा है--यह मौका बार-बार नहीं आएगा।

यह भी जिन्होंने पूछा है, उन्होंने नाम नहीं लिखा।
कैसे तुम संन्यास लोगे? नाम तक बताने से डर रहे हो! कि कहीं पत्नी को पता न चल जाए, घरवालों को पता न चल जाए कि तुमने यह प्रश्न पूछा, कि मेरे भीतर कुछ कह रहा है कि संन्यास ले लो! कहीं कोई झंझट, झगड़ा खड़ा न हो जाए!
संन्यास खतरनाक काम है। बड़े से बड़ा खतरा जीवन में अगर कोई है, तो संन्यास है। क्योंकि संन्यास का अर्थ होता है: अहंकार की मृत्यु। अगर अहंकार को बचाना हो तो अपने मन की सुनो। और अगर अहंकार से थक गए हो, परेशान हो गए हो, अहंकार से संत्रस्त हो गए हो, अहंकार के नरक को अनुभव कर लिया है--तो फिर जो भीतर से आवाज आ रही है उसे सुनो। वही असली आवाज है जो भीतर से आ रही है। मन तो बाहर की आवाजों को दोहराता है। मन तो प्रतिध्वनि करता है। मन तो पत्नी क्या कहेगी, पिता क्या कहेंगे, बच्चे क्या कहेंगे, भाई क्या कहेंगे, गांव के लोग क्या कहेंगे, इस सबकी बातें सोचता है। भीतर से जो आवाज आ रही है, वह तुम्हारे प्राणों की पुकार है।
मगर दो में से एक चुनोगे--एक ही चुन सकते हो--तो जो चुनोगे वह तो बचेगा, जो छोड़ दोगे वह मरेगा। अगर भीतर की आवाज चुनी, तो वह जो मन है उसे मरना होगा। और मन है क्या? अहंकार का ही दूसरा नाम है।
एक युवक की गांव में शादी हुई। वह पहली बार दुल्हन को लेने ससुराल गया। ससुराल वालों ने बहुत अच्छा भोजन बनाया था। थाली देख कर ही युवक के मुंह में पानी आ गया। सभी चीजें बहुत पसंद थीं उसे, सिर्फ मूली की सब्जी नहीं भाती थी। उसने सोचा पहले मूली की सब्जी खत्म कर दूं, फिर सभी चीजें मस्ती से खाऊंगा। परंतु जैसे ही उसने मूली की सब्जी खत्म की, ससुराल वालों ने यह सोच कि दामाद जी को मूली की सब्जी बहुत पसंद आई है, फिर से कटोरे को सब्जी से भर दिया।
बेचारे युवक ने बामुश्किल उस सब्जी को भी खत्म किया। और ससुराल वालों से बोला कि अब यह सब्जी मुझे बिलकुल न देना। पर उन्होंने सोचा कि इन्हें यह सब्जी इतनी पसंद आई है और शायद संकोचवश मना कर रहे हैं, अतः उन्होंने बहुत मना करने के बावजूद कटोरी को मूली की सब्जी से भर दिया।
इतने में एक पड़ोसी जंवाई जी को आया जान कर मिलने आया और बातचीत के दौरान उनसे पूछा कि आप कितने भाई हैं? वह युवक बोला कि अभी तक तो चार भाई हैं, पर यदि मूली की सब्जी वाली कटोरी को फिर से भरा जाएगा तो निश्चित ही तीन ही बचने वाले हैं।
अब तुम सोच लो। दो में से एक ही बचेगा। या तो मन बच सकता है या भीतर की आवाज बच सकती है। अगर तुम्हें मन बचाने जैसा लगे, तो मैं नहीं कहूंगा कि संन्यास लो। अगर मन ने तुम्हें कुछ दिया हो, आनंद दिया हो, जीवन में रस की धार बहाई हो, तो क्यों छोड़ना मन को! उसकी सुनो। और अगर मन ने कुछ न दिया हो, सिर्फ कांटे ही कांटों से तुम्हारा रास्ता भर दिया हो; अहंकार ने सिर्फ विषाद ही दिया हो, घाव ही घाव दिए हों, तो अब क्या पूछ रहे हो! अब लो छलांग। अब मरने दो मन को। मैं तैयार हूं चौथी बार मूली की सब्जी से तुम्हारी कटोरी भरने को। तुम जरा इशारा तो करो। मगर तुम्हारे बिना इशारे के मैं कुछ नहीं कहूंगा।
मैं नहीं चाहता कि किसी के ऊपर कुछ भी आरोपित हो। यहां के प्रभाव में संन्यास मत ले लेना। यहां इतने लोगों को संन्यासी देख कर संन्यासी मत हो जाना। क्योंकि वह झूठ होगा। वह तो यहां से बाहर निकलोगे कि बह जाएगा, कच्चा रंग होगा। भीतर की आवाज को परखो, पहचानो और सही निर्णय जब उठ आए कि मन की मृत्यु के लिए राजी हो...और जल्दी कुछ नहीं है। सोचो खूब। अगली बार आना। मैं अभी इतनी जल्दी विदा होने वाला नहीं हूं। लाख छुरे फेंके जाएं, कोई फिक्र मत करो। जब तक मुझे रहना है, कोई छुरा कुछ बिगाड़ सकता नहीं। जिस दिन मुझे जाना है, छुरे वगैरह फेंकने की कोई जरूरत न रहेगी, मैं तुमसे कह दूंगा कि अब जाता हूं। यूं ही बैठे-बैठे चला जाऊंगा। कहोगे तो बोलता-बोलता चला जाऊंगा; कहोगे तो चलता-चलता चला जाऊंगा--जैसा तुम कहोगे। कोई छुरा वगैरह फेंकने की जरूरत नहीं रहेगी, जिस दिन मुझे जाना है।
मगर मैं जाऊंगा उस दिन, जिस दिन कम से कम एक हजार बुद्धों की घोषणा कर जाऊं। उसके पहले नहीं जाने वाला हूं। उसके पहले कोई शक्ति मुझे यहां से अलग नहीं कर सकती।
इसलिए तुम दोबारा आ जाना, कोई जल्दी नहीं है। आश्वस्त करता हूं तुम्हें कि मैं यहां रहूंगा दोबारा भी। जल्दी मत करना, क्योंकि जल्दी में लिया संन्यास कहीं रास्ते में ही खत्म न हो जाए! और अगली बार जब पूछो, तो कम से कम नाम जरूर लिख देना। क्या डरना? किससे डरते हो? इतना भय अच्छा नहीं। भय मूर्च्छा का लक्षण है, मूढ़ता का लक्षण है। प्रतिभा निर्भय होती है।
हालांकि अक्सर ऐसा होता है कि मूढ़ लोग निर्भय मालूम पड़ते हैं। कहते हैं कि जहां बुद्धिमान प्रवेश न करे, वहां मूरख घुस जाते। क्योंकि मूरख देखता ही नहीं कि ओखली में सिर दे रहा है। मगर उसकी बहादुरी बहादुरी नहीं होती, उसको तो अंधेपन की वजह से...।
मैं नहीं चाहूंगा कि तुम किसी मूर्च्छा में संन्यास ले लो। मूर्च्छा में तुम्हारा संन्यास संन्यास ही नहीं होगा। मूर्च्छा ही तो संसार है। फिर संन्यास और संसार में फर्क क्या होगा? इतना ही तो फर्क है: मूर्च्छा और जागृति का, मूढ़ता और बोध का। संसार में तो मूढ़ ही मूढ़ भरे हुए हैं, एक से एक पहुंचे हुए मूढ़। वहां मूढ़ता चल जाती है, संन्यास में नहीं चलेगी।
तीन भाई किसी मुकदमे के सिलसिले में कोर्ट गए। जज के सामने कुछ पूछने पर पहला बहुत देर तक खड़ा रहा और जवाब ही न दे। इस पर जज ने पूछा, भई, क्या बात है? बोल क्यों नहीं रहे हो? क्या सोच रहे हो?
बहुत झिझकते हुए वह बोला, साहब, अगर आपकी गर्दन कट जाए तो क्या पकड़ कर उठाएंगे, क्योंकि आप तो गंजे हैं! यही समस्या मेरे चित्त को घेरे हुए है। इसका कोई समाधान नहीं मिल रहा।
जज ने तो उसे बहुत डांटा और उसे डांट कर भगा भी दिया कि निकल अदालत के बाहर! ऐसे मूढ़ आदमी से क्या गवाही मिलेगी, कौन सा अदालत में चल रहे मुकदमे में सहारा मिलेगा। तू इसी वक्त बाहर हो जा!
फिर दूसरे भाई को पूछा। दूसरे भाई को पूरी बात बताई कि तुम्हारा पहला भाई किस तरह की बातें करता है, कि अगर जज की गर्दन कट जाए तो क्या पकड़ कर उठाएं!
उस पर दूसरा बोला, साहब, वह तो पागल है। अरे उसकी बातों का खयाल न करो। अगर गर्दन कट जाए तो नाक पकड़ कर उठा लेंगे। इसमें क्या सोचना! यह कौन बड़ी बात है! मगर वह मूरख है। हमसे पूछो। कटने तो दो गर्दन, उठा कर बता देंगे, नाक पकड़ कर।
जज तो बहुत ही भन्नाया। उसने कहा, तू उससे भी पहुंचा हुआ है। निकल बाहर! तुमसे क्या खाक गवाही लेनी! तुम क्या गवाही बनोगे!
फिर तीसरे भाई को बुला कर वही बात कही।
तीसरा बोला, दोनों ही पागल हैं जी। इनकी बातों में पड़ना ही मत। अरे एक डंडा लो, मुंह में घुसेड़ो, और जहां चाहो वहीं ले जाओ। क्या नाक-वाक लगा रखी है! मैं अभी उनको ठीक करता हूं जाकर।
संसार तो एक से एक पहुंचे हुए मूढ़ों से भरा हुआ है। वहां सब तरह की मूढ़ता चलती है, मगर संन्यास में नहीं चलेगी। संन्यास का तो प्रारंभ ही प्रतिभा है, तेजस्विता है।
मेरे कहने से संन्यास मत लेना। औरों को संन्यासी देख कर संन्यास मत लेना। किसी लोभ के कारण संन्यास मत लेना। किसी भय के कारण संन्यास मत लेना--न नर्क का भय, न स्वर्ग का लोभ। अगर संन्यास लेना हो, तो तुम्हारी अंतर्वाणी के कारण ही लेना। इसलिए सुनो अंतर्वाणी को। ध्यान करो, अंतर्वाणी को सुनो। धीरे-धीरे अंतर्वाणी स्पष्ट होती जाएगी। और जब अंतर्वाणी तुम्हें इतने जोर से पकड़ ले कि तुम रुकना भी चाहो तो न रुक सको, तब चले आना। तब आने में सार्थकता होगी। तब आने में मूल्य होगा। तभी तुम आए।
नकलचियों को मैं संन्यास देने में उत्सुक नहीं हूं।


छठवां प्रश्न: भगवान!
आपके प्रवचनों से यह लगता है कि आप ब्रह्मचारियों के विरोध में हैं, नीति-नियमों और आदर्शों के विरोध में हैं। ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की भी आलोचना आप निरंतर करते रहते हैं। शास्त्रों से भी मुक्त होने को आप कहते हैं।
आखिर आपका अभिप्राय क्या है? आपका धर्म क्या है? समाज के लिए क्या कुछ नीति-नियमों का आप विधान करेंगे?

आत्मानंद ब्रह्मचारी!
इस बार ऐसा लगता है पूरा गुरुकुल कांगड़ी यहां आ गया है! ब्रह्मचारियों ने क्यों इस तरफ दृष्टि की है, यही मेरी समझ में नहीं आता। इतना रस ब्रह्मचारियों को यहां क्या! कहां गुरुकुल कांगड़ी और कहां यह मधुशाला! कहां चले आ रहे हो!
मैं ब्रह्मचर्य के विरोध में नहीं हूं, ब्रह्मचारियों के जरूर विरोध में हूं। ब्रह्मचर्य तो वह है जो ध्यान से सहज फलित हो। ध्यान में जैसे ही गहरे उतरोगे, वैसे ही कामवासना का आकर्षण क्षीण होता चला जाएगा। क्योंकि कामवासना जो तुम्हें रस दे सकती है, वह कुछ भी नहीं--बूंद भी नहीं; ध्यान जो देगा, वह पूरा सागर का सागर है--गागर ही नहीं, सागर का सागर! स्वभावतः ध्यान की गहराई के बढ़ते-बढ़ते अपने आप कामवासना क्षीण होने लगती है। आखिर कोई पागल है कि जब उसी ऊर्जा से इतना महान आनंद पाया जा सकता हो, तो उसे गंवाता फिरे--क्षुद्र में, व्यर्थ में! दो कौड़ी में बेचता फिरे, लुटाता फिरे अपने को!
ध्यान से जो सहज घटित होता है उसका नाम ब्रह्मचर्य है। मैं ब्रह्मचर्य शब्द का ठीक शाब्दिक अर्थ करता हूं: ब्रह्म की चर्या, ब्रह्म जैसी चर्या, दिव्य चर्या, ईश्वरीय आचरण।
लेकिन ब्रह्मचारियों के मैं खिलाफ हूं, क्योंकि मैं जिस ब्रह्मचर्य की बात कर रहा हूं, वैसे आदमी को कभी ब्रह्मचारी होने का सवाल ही नहीं उठता। वैसा आदमी तो ध्यान में डूबते-डूबते कामवासना से चुपचाप मुक्त हो जाता है। उसे मुक्त होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती। ब्रह्मचारी को तो चेष्टा करनी पड़ती है। उसे तो दमन करना होता है। उसे तो जबरदस्ती अपने ऊपर थोपना पड़ता है आग्रहपूर्वक एक नियम को, एक विधान को।
और जब तुम ऊपर से थोपोगे, तो भीतर आग जलेगी। और जब तुम ऊपर से जबरदस्ती दबाओगे, तो भीतर उपद्रव हो जाएगा। तुम विकृत हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में स्वाभाविकता तो समाप्त हो जाएगी, तुम्हारी ऊर्जा जगह-जगह से विकृति के अनेक-अनेक रूप ले लेगी। तुमने जो दबाया है, वह फूट-फूट कर बहेगा। छुपे मार्गों से बहेगा, पीछे के दरवाजों से बहेगा।
दुनिया में जितनी कामवासना की विकृतियां हैं, वे तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारियों के कारण पैदा हुई हैं। दुनिया में जितने उपद्रव और जितने मानसिक रोग ब्रह्मचर्य की झूठी शिक्षा के कारण हुए हैं, थोथी शिक्षा के कारण हुए हैं, किसी और चीज के कारण नहीं हुए। न मेरी बात पर भरोसा हो तो तुम मनोवैज्ञानिकों से पूछो। इन पचास सालों का मनोवैज्ञानिकों का अध्ययन अगर कोई एक नतीजे पर पहुंचता है तो वह यह कि दुनिया को, मनुष्य को विकृत करने में, अप्राकृतिक करने में, कृत्रिम करने में तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचर्य की धारणा ने जितना हाथ बंटाया है, किसी और चीज ने नहीं। इसके कारण न मालूम कितने-कितने मानसिक रोग पैदा हुए।
इसलिए मैं ब्रह्मचारियों के विरोध में हूं, ब्रह्मचर्य के विरोध में नहीं। मगर मेरे ब्रह्मचर्य की अपनी अलग धारणा है। मैं नहीं चाहता कि तुम ब्रह्मचर्य साधो। ब्रह्मचर्य तो परिणाम है ध्यान का। तुम ध्यान का वृक्ष लगाओ, ब्रह्मचर्य के फूल लगेंगे। तुम उनकी चिंता ही न करो। तुम तो वृक्ष को पानी दो, खाद दो। वह वृक्ष का नाम ध्यान है। फल लगेंगे, फूल लगेंगे--ब्रह्मचर्य के, आनंद के। उनकी तुम्हें फिक्र करने की आवश्यकता नहीं है।
लेकिन तुमने अगर जबरदस्ती फल और फूल लगाना चाहे, तो तुम्हें फिर बाजार से नकली खरीद कर लाना पड़ेंगे। मिलते हैं बाजार में--कागज के फूल मिल जाते हैं, प्लास्टिक के फूल मिल जाते हैं। उनको तुम लटका लो लाकर अपने घर में। खुद को भ्रांति दे लो, औरों को भ्रांति दे लो।
मगर ऐसी भ्रांतियों के मैं पक्ष में नहीं हूं। इसी तरह के ब्रह्मचर्य से सारे उपद्रव--अशोभन उपद्रव पैदा होते हैं।
अब कल जिन सज्जन ने--वेदालंकार ने--वेश्या को कुत्ती कहा, वे भी ब्रह्मचारी हैं। वेश्या को कुतिया कहने की ब्रह्मचारी को क्या जरूरत? जरूर भीतर कहीं कुत्ता होने की इच्छा होगी। और क्या, इसके सिवा कोई कारण नहीं। भीतर इच्छा होगी कि किसी कुतिया के पीछे सूंघते हुए घूमें। अन्यथा क्यों किसी वेश्या को कुतिया कहोगे? तुम्हारा क्या किसी वेश्या ने बिगाड़ा है? तुमसे क्या लेना-देना है?
मगर नहीं, लेना-देना है। वेश्याएं सबसे पहले धर्म-मंदिरों में पैदा हुईं। नाम अच्छे-अच्छे दिए थे हमने उनको। हम भारत में उनको कहते थे: देव-कन्याएं! देव-कन्या का अर्थ यह होता था कि वे मंदिर में रहती थीं; पुजारियों की वासनाओं का साधन थीं, माध्यम थीं--और मंदिर में आने वाले भक्तों की वासना का भी। वे देव-कन्याएं थीं। तब देव-कन्याएं थीं! अगर मंदिर में वेश्यागिरी चले तो देव-कन्याएं! और फिर वहीं से वेश्यागिरी फैली।
भारत में अंग्रेजों ने जो कुछ चीजें नष्ट कीं, जिनके लिए भारत को सदा उनका ऋणी रहना चाहिए और अनुगृहीत रहना चाहिए, उनमें एक देव-कन्याएं भी हैं। मगर मिटते-मिटते भी बची हैं। अभी भी दक्षिण के कुछ मंदिरों में देव-कन्याएं हैं! और यह भारत में ही नहीं था, यह दुनिया के करीब-करीब सारे देशों में था। हर मंदिर अड्डा था वेश्यागिरी का। लेकिन धर्म के नाम पर चल रही थी वेश्यागिरी। आखिर ब्रह्मचारियों के लिए भी तो कोई निकास चाहिए। पुजारियों के लिए भी तो कोई निकास चाहिए। ये अपनी वासनाओं का क्या करें? ये अपनी वासनाओं को कहां छिपाएं? तो ऊपर से वासनाएं छिपा ली गई हैं, भीतर का रास्ता खोज लिया गया है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि समलैंगिकता--होमोसेक्सुअलिटी--तुम्हारे तथाकथित आश्रमों, मोनेस्ट्रीज, भिक्षु-संघों में पैदा हुई। क्योंकि भिक्षु-संघ हों, कि आश्रम हों, कि तुम्हारी मोनेस्ट्रीज हों--स्त्रियों की अलग थीं और पुरुषों की अलग थीं। जहां पुरुष ही पुरुष रहे, वहां स्वभावतः जब उनकी वासना बल पकड़ेगी, जोर पकड़ेगी, तो वे क्या करेंगे? वे पुरुषों के साथ ही काम-संबंध तय करने लगे। और स्त्रियां स्त्रियों के साथ काम-संबंध तय करने लगीं।
यह मेरा आश्रम पहला आश्रम है इस अर्थों में पृथ्वी पर, जहां कोई विकृति नहीं हो सकती, क्योंकि हम स्वभाव को स्वीकार करते हैं। जहां कोई पाखंड नहीं हो सकता, क्योंकि हम प्रकृति को अंगीकार करते हैं। यहां स्त्री और पुरुषों को अलग-अलग छांट कर रखने की जरूरत नहीं है।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था। मेरे ऊपर जो बहुत से आरोप थे, उनमें एक आरोप यह था कि मैं अपनी कक्षाओं में लड़कियों को और लड़कों को अलग नहीं बैठने देता था। मैंने उनको कह रखा था कि मेरी कक्षा में यह नहीं चलेगा। शिकायतें पहुंचनी शुरू हो गईं। मुझे उपकुलपति ने बुलवाया और कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं?
मैंने कहा कि आप आकर मेरी कक्षा देखें और उन कक्षाओं को देखें जहां लड़कियां और लड़के अलग बैठे हुए हैं, फिर कुछ निर्णय लें। जहां लड़के और लड़कियों को अलग बिठाया गया है--एक तरफ लड़कियां बैठी हैं, एक तरफ लड़के बैठे हैं--वहां न लड़के सुनते हैं कि प्रोफेसर क्या कह रहा है, न लड़कियां सुनती हैं। उनका ध्यान एक-दूसरे में लगा है। चिट्ठियां फेंकी जा रही हैं, कंकड़ फेंके जा रहे हैं, सब कार्यक्रम हो रहे हैं वहां और वह मूरख प्रोफेसर ज्ञान की बकवास लगाए हुए है। किसी को लेना-देना नहीं है। मैंने कहा, मैं इतनी झंझट क्यों करूं?
तो मैं तो पहला काम यह करता था, कक्षा में गया और मैं उनको कहता कि चलो, मिश्रित हो जाओ, इकट्ठे हो जाओ। जिसको जिसके पास बैठना हो, बैठ जाओ। चिट्ठी-पत्री फेंकने की कोई जरूरत नहीं। पास ही पास बैठे हो, चिट्ठी-पत्री क्या लिखोगे? कंकड़-पत्थर क्या फेंकना?
कंकड़-पत्थर दूर से छूने का उपाय है, और क्या है? मगर यह कोई ढंग हुआ! आदमियों जैसा ढंग हुआ--कि किसी को छूना है तो दूर से कंकड़ मार कर छू रहे हैं! अब तुम और तरह से न छूने दोगे तो यूं छुएंगे। कंकड़ एजेंट हुआ। हमने भी छू लिया, तुमने भी छू लिया। यूं चलो माध्यम के द्वारा हो गया, चिट्ठी-पत्री हो गई। अब जब पास में ही लड़की बैठी है तो थोड़ी देर में भूल ही जाओगे, करोगे क्या? दूसरी कक्षाओं में धक्का-मुक्की होगी। कक्षा के शुरू में जब विद्यार्थी अंदर प्रवेश करेंगे तो बाहर खड़े रहेंगे, जब लड़कियां घुसेंगी तभी वे एकदम से घुसेंगे, क्योंकि उसी बीच जो कुछ धक्का-मुक्की हो जाए। फिर जब कक्षा छूटेगी तब भी वे खड़े रहेंगे, जब लड़कियां निकलेंगी तब वे एकदम से निकलेंगे।
मैं उनसे कहता कि ये सब करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पांच मिनट पहले, पांच मिनट बाद--करो धक्का-मुक्की। पहले धक्का-मुक्की कर लो, फिर तुम शांति से एक साथ बैठ जाओ जिसको जहां बैठना हो, इसके बाद मैं अपना काम शुरू करूं।
मैंने उनको कहा कि आप आकर देखिए कि मेरी कक्षा अकेली कक्षा है जहां कोई धक्का-मुक्की नहीं होती। क्या धक्का-मुक्की करोगे? किसके साथ धक्का-मुक्की करोगे? किसलिए करोगे? कोई कंकड़-पत्थर नहीं फेंका जाता। कोई चिट्ठी-पत्री नहीं फेंकी जाती। कोई स्याही नहीं छिड़की जाती। नहीं तो दूर से बैठे लड़के फाउंटेन पेन की स्याही छिड़क रहे हैं। पिचकारियां भर कर लाते हैं रंग की, पिचकारी चला रहे हैं। तो मैंने कहा कि जब यह सब रासलीला वहां चल रही है, तो मैं क्या खाक पढ़ाऊं उनको? मैंने रासलीला खत्म ही कर दी। और मैंने उनको कहा हुआ है कि कोई दरवाजे पर धक्का-मुक्की करने की जरूरत नहीं, धक्का-मुक्की करनी है--पांच मिनट शुरू में पहले कर लो, पांच मिनट बाद में कर लो।
और मैंने लड़कियों से कहा कि तुम धक्के-धक्के ही खाती रहती हो, धक्के मारो भी! कब तक धक्के खाती रहोगी? आखिर यहीऱ्यही लड़के ही लड़के धक्के मारें, यह भी बात शोभा नहीं देती। आखिर ये बेचारे तुम्हारी सेवा करें, तुम भी इनकी सेवा करो। यही शोभाजनक भी है कि उत्तर-प्रत्युत्तर होना चाहिए। तुम भी दो धक्के, दिल खोल कर धक्के दो। डरना क्या है? भय क्या है इनसे?
और जब लड़कियों ने धक्के मारने शुरू किए लड़कों को, तो लड़कों ने मुझसे शिकायत की कि यह मामला क्या है, ये हमें पढ़ने ही नहीं देतीं! एक तो आप इनको पास बिठाल दिए और ये हुद्दा मारती हैं! मैंने कहा, ये मारेंगी। सदियों से तुम हुद्दे मार रहे हो, ये कब तक बरदाश्त करें?
कि हम तो अपनी पढ़ाई में लगे हैं, ये च्योंटियां लेती हैं।
लेंगी! मैंने इनको सब कहा हुआ है कि धक्के मारो, च्योंटियां लो, इनके बाल खींचो। जो तुम्हारे साथ ये व्यवहार करते हैं, तुम करो। अपने आप शांति हो जाएगी।
और जल्दी ही शांति हो जाती थी। दो-चार दिन में सब शांति हो जाती।
मगर मुझ पर यह एक एतराज था। अभिभावकों ने एतराज किया कि हमारी लड़कियों को आज्ञा देते हैं ये कि वे लड़कों के साथ बैठें।
मैंने कहा, मेरी कक्षा में लड़के-लड़की का भेद मैं नहीं चलने दूंगा। यह बीच की दीवाल मैं नहीं चलने दूंगा।
अब यहां तुम देख रहे हो, कोई किसी को धक्का मार रहा है? हां, कभी-कभी कोई ब्रह्मचारी आ जाते हैं, नहीं तो कोई किसी को धक्का नहीं मार रहा। किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। यहां जितनी निश्चिंतता से स्त्रियां बैठ सकती हैं, भारत में किसी जगह नहीं बैठ सकतीं। हां, कुछ शुद्ध भारतीय संस्कृति के पोषक आ जाते हैं तब थोड़ी अड़चन होती है। वे थोड़ा उपद्रव करते हैं। तो उनको तुम देख रहे हो, दूर बिठाया हुआ है, बीच में जगह छोड़ दी है कि ब्रह्मचारियों को दूर, वेदांतियों को दूर, ब्रह्मज्ञानियों को दूर।
मैं ब्रह्मचर्य के विरोध में नहीं हूं। वह तो जीवन की परम उपलब्धि है। वह तो जीवन की सबसे बड़ी धन्यता है। मगर ब्रह्मचारियों के विरोध में हूं।
तुम कहते हो: "आप नीति-नियमों और आदर्शों के विरोध में हैं।'
निश्चित। क्योंकि नीति-नियम दूसरे थोपते हैं। आदर्श दूसरे तय करते हैं। मैं तो जागरण के पक्ष में हूं। मैं चाहता हूं तुम्हारे भीतर बोध जगना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बोध से ही अनुशासित होना चाहिए। तुम किसी के गुलाम नहीं हो। क्यों कोई दूसरा तुम्हारे लिए नीति-नियम आधारित करे? क्या हक है मनु महाराज को कि तीन हजार साल पहले वे नियम बना गए और मैं उनका पालन करूं? मैंने उनके लिए कोई नियम नहीं बनाए, वे मेरे लिए क्यों बनाएं? मेरा उनसे क्या लेना-देना है?
लेकिन मनु महाराज नियम बना गए कि शूद्र वेद न पढ़े। और राम जैसे व्यक्ति ने भी इस नियम का पालन किया! एक शूद्र ने वेद सुन लिया, तो उसके कान में गरम सीसा करवा कर, पिघलवा कर कान में भरवा दिया। उसके कान फूट गए। वह आदमी बचा भी हो, यह भी संदिग्ध है। वह जिंदा भी कैसे रहा होगा! कान में अगर कोई उबलता हुआ सीसा पिघला कर डाल दे...कभी गरम तेल डाल कर देखा है कान में? तो जरा सीसे की कल्पना करो फिर।
और राम मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं तुम्हारे! क्योंकि वे नीति-नियम का पालन कर रहे हैं। और इसलिए भारत का सारा पुरोहित वर्ग राम की गुहार मचाए रखता है, क्योंकि वे बिलकुल अंधे की तरह मनु के पीछे चल रहे हैं।
यह कोई नियम हुआ? यह कोई नीति हुई? यह अमानवीय कृत्य है।
मनु महाराज ने कहा है कि शूद्र को मार डालने में कोई खास पाप नहीं है, अगर वह वेद को सुनता हुआ पकड़ा जाए। सबसे बड़ा पाप है ब्राह्मण को मारने में।
अब ब्राह्मण और शूद्र के जीवन की कीमत तो बराबर है, जरा भी भेद नहीं। जितना ब्राह्मण जीना चाहता है, उतना ही शूद्र भी जीना चाहता है। लेकिन शूद्र को मारने में कोई पाप नहीं है और ब्राह्मण को मारने में महापाप है! गऊ को मारने में भी ज्यादा पाप है शूद्र को मारने की बजाय!
यह कौन तय करेगा? यह कौन तय करने का हकदार है? नीति कौन तय करता है?
मैं चाहता हूं कि तुम्हारी नीति, तुम्हारा जीवन-आचरण तुम्हारे अपने ही बोध के प्रकाश में तय होना चाहिए। मैं व्यक्ति को उसकी निजता देना चाहता हूं। मैं समाज की गुलामी नहीं सिखाता। और तुम्हारे सब समाज गुलामी सिखाते हैं।
फिर इनमें से लोग तरकीबें निकालते हैं। जैनों के पर्युषण आते हैं, दस दिन उनको सब्जी नहीं खानी। साल भर सब्जी खाते हो, दस दिन सब्जी नहीं खाते और समझ लिया कि आचरण पूरा हो गया! और फिर इसमें से तरकीबें निकाल लेते हैं जैनी।
मैं ऐसे जैन घरों में ठहरा तो मैं चौंका। जब मैं श्वेतांबर घरों में पहली दफा ठहरा, तब मैं बहुत ही हैरान हुआ। क्योंकि केला वे खाएंगे, आलू वे खाएंगे। मैंने पूछा कि यह मामला क्या है? उन्होंने कहा कि शास्त्रों में लिखा है कि हरी चीज नहीं खाना।
देखी होशियारी? केला हरा तो है नहीं अंदर और न आलू हरा है, तो यह कोई हरी चीज तो है नहीं, इसको तो खा सकते हैं। सब्जी का अर्थ भी हरा होता है--सब्ज। हरी चीज नहीं खाना, सो रंग का सवाल है। तरकीब निकाल ली।
होशियार आदमी तो नियमों में से तरकीबें निकाल लेंगे। उनके खिलाफ तुम क्या नियम बनाओगे? चालबाज आदमी तो तरकीबें निकाल लेंगे। जब तक कि उनका स्वयं का बोध ही निर्णायक न हो, तब तक वे बेईमानियां करते जाएंगे। एक से एक तरकीबें निकालते चले जाएंगे।
तो मैं कोई ऊपर से नीति-नियम थोपने के पक्ष में नहीं हूं। जरूर, इसका यह अर्थ नहीं कि मैं चाहता हूं व्यक्ति स्वच्छंद हो जाएं। लेकिन जरूर मैं चाहता हूं कि व्यक्ति अपनी निजता के अनुकूल जीएं। तो उनको बोध देना चाहता हूं। नीति-नियम नहीं--बोध। उनको दीया देना चाहता हूं, रोशनी देना चाहता हूं कि वे अपनी रोशनी में देखें--कहां दरवाजा है, कहां दीवाल।
तुम दीये की फिक्र ही नहीं करते। तुम कहते हो कि बाएं दरवाजा है और दाएं दीवाल। फिर चाहे बाएं दरवाजा न मिले उनको, दीवाल भी मिले, तो उसी से सिर टकराते रहते हैं जिंदगी भर, क्योंकि शास्त्रों में लिखा हुआ है, क्योंकि और लोग कह गए। और यह हो सकता है, तब बाएं दरवाजा रहा हो जब शास्त्र लिखे गए थे। तब से सब बदल गया। अब बाएं दरवाजा नहीं है, अब दरवाजा दाएं चला गया है। चीजें बह रही हैं। चीजें परिवर्तित हो रही हैं। कुछ ठहरा हुआ नहीं है यहां; सब प्रवाहमान है। और नीति-नियम थिर हो जाते हैं, जड़ हो जाते हैं।
तुम्हें एक प्रवाहमान चैतन्य चाहिए। उसकी ही मेरी चेष्टा है।
और तुम कहते हो कि आप ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की भी आलोचना करते हैं।
इसीलिए आलोचना करता हूं कि मैं जिसको ऋषि कहता हूं, जब तक वह व्यक्ति ऋषि नहीं है, तब तक आलोचना। रमण महर्षि की आलोचना नहीं करता, लेकिन महर्षि दयानंद की करता हूं, क्योंकि मुझे वे ऋषि दिखाई पड़ते नहीं। रमण मुझे ऋषि दिखाई पड़ते हैं, उनकी मैंने कभी आलोचना नहीं की। जो मुझे साधु मालूम पड़ता है, उसकी मैंने कभी आलोचना नहीं की। लेकिन सौ साधुओं में एकाध साधु होता है, निन्यानबे तो सिर्फ पाखंडी हैं, धोखेबाज हैं, बेईमान हैं। उनकी आलोचना की ही जानी चाहिए। उनकी आलोचना मैं कर ही इसलिए रहा हूं कि मेरे हृदय में सम्मान है ऋषि का, साधु का। अगर तुम मेरी बात समझोगे तो तुम्हें समझ में आएगा कि मैं झूठे गुलाबों की आलोचना कर रहा हूं ताकि तुम्हें सच्चे गुलाब दिखाई पड़ सकें।
मैंने बुद्ध की आलोचना तो कभी की नहीं, लेकिन अगर तुम मुझसे कहो कि मैं दुर्वासा मुनि की प्रशंसा करूं, तो मैं नहीं कर सकता हूं। उनको मैं मुनि ही नहीं मान सकता। दुर्वासा और मुनि! तो फिर अमुनि कौन होगा? दुर्वासा और ऋषि? तो फिर कौन है जो ऋषि नहीं है?
दुर्वासा की मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। बुद्ध को मैं कहता हूं ऋषि, महर्षि--तुम जो भी शब्द देना चाहो दो। लेकिन दुर्वासा को कैसे? जो छोटी-छोटी बात में क्रुद्ध हो जाएं, आगबबूला हो जाएं; और यही जनम न बिगाड़ें, आगे के जनम भी बिगाड़ दें--ऐसी दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति को मैं कैसे मुनि कहूं? इसको क्या मौन अनुभव हुआ होगा? मुनि का अर्थ तो वह जिसने मौन जाना। अब जिसका क्रोध ही नहीं गया, उसको मौन कैसे पता चलेगा? मौन में कहां क्रोध?
ऋषि कौन? जिसकी अंतर्दृष्टि खुली; जिसके भीतर का काव्य जगा; जिसके भीतर संगीत उठा; जिसके भीतर की वीणा बजी। मगर तुम्हारे अधिकतर ऋषि-मुनि इस अर्थों में ऋषि-मुनि नहीं हैं। जरा भी नहीं हैं। उनकी मैं आलोचना न करूं तो क्या करूं?
लेकिन मेरा आलोचना का कारण? मेरा कारण यही है कि मेरा सम्मान बहुत है। तुम आलोचना नहीं करते, क्योंकि तुम्हारे मन में कोई ऋषि-मुनियों का सम्मान नहीं है। तुम तो लेबल के पक्षपाती हो, जिस पर भी लेबल लगा है...शुद्ध घी लिखा होना चाहिए, फिर भीतर चाहे डालडा ही हो। आजकल तो डालडा भी शुद्ध कहां मिलता है! भीतर चाहे कुछ भी भरा हो, बस लेबल शुद्ध घी का होना चाहिए, फिर तुम सब कुछ करने को राजी हो।
मेरी दृष्टि साफ है। मुझे दिखाई पड़ता है कि ऋषि कौन है।
उपनिषदों में कथा है गाड़ीवाले रैक्व की। रैक्व को ऋषि कहा हुआ है। मैं नहीं कह सकता। रैक्व की पत्नियां थीं। मुझे कुछ एतराज नहीं पत्नियों पर। ऋषि की पत्नियां हों, कोई हर्जा नहीं। उप-पत्नियां भी थीं। चलो, पत्नियां चल सकती हैं तो उप-पत्नियां भी चल सकती हैं, कोई हर्जा नहीं।
यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि वधू कहते थे उप-पत्नी को। बाजार से जो खरीद लाते थे औरतें, उनको वधू कहते थे।
तो रैक्व की वधुएं थीं। सभी ऋषियों की, तुम्हारे तथाकथित ऋषियों की पत्नियां ही नहीं थीं, उनके साथ-साथ वधुएं भी थीं, जो उन्होंने बाजार से खरीदी थीं। और बाजार में भारत के, आदमी और स्त्रियां बिकते थे। रामराज्य जिसको तुम कहते हो, उसमें स्त्रियां बाजार में बिकती थीं! कैसे मैं इसको रामराज्य कहूं? किस आधार पर रामराज्य कहूं? आज बेहतर हालत है। सब कुछ बुरा हो रहा हो, लेकिन फिर भी कम से कम स्त्रियां बाजारों में तो नहीं बिक रही हैं। कम से कम दुकानों पर तो नहीं सजी हैं। कम से कम दाम के लेबल तो नहीं लगे हैं कि इतने-इतने दाम में खरीद लो। नीलामी तो नहीं हो रही है।
एक सुंदरी स्त्री बिक रही थी बाजार में। रैक्व भी खरीदने गया। वह हमेशा अपनी एक प्रसिद्ध गाड़ी थी उसकी, उसी गाड़ी में चलता था, इसलिए गाड़ीवाला रैक्व उसका नाम हो गया था। वह भी खरीदने गया, उसने भी दाम लगाए। लेकिन सम्राट भी खरीदने आया था। तो गाड़ीवाला रैक्व, पैसा तो उस पर काफी था, लेकिन सम्राट से कैसे जीतता! दोनों में छिड़ गई।
अब ये ऋषि-मुनि हैं जो नीलामी में खरीदने गए हैं स्त्रियों को! और ऐसी छिड़ गई कि दाम बहुत बढ़ गए। रैक्व को हार जाना पड़ा। सम्राट स्त्री को खरीद कर ले गया।
फिर सम्राट पर कुछ मुसीबत आई, कोई परेशानी आई, कुछ बीमारी आई, कुछ दुश्मन के हमले का खतरा पैदा हुआ। तो लोगों ने कहा कि आपको जाकर गाड़ीवाले रैक्व से क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि वह नाराज है।
ऋषि-मुनि नाराज होते हैं? और नाराजगी का कारण क्या था कि वह औरत सम्राट खरीद ले गया था। वह आपसे नाराज है। आप जाकर धन-संपत्ति चढ़ा कर उसको प्रसन्न करो। अगर वह प्रसन्न नहीं होगा तो आपको हानि होगी।
वह बेचारा गया। कहते हैं रथ भर कर ले गया स्वर्ण से, हीरे-जवाहरातों से। और उसने गाड़ीवाले रैक्व के सामने जाकर हीरे-जवाहरातों से भरा हुआ रथ उलटवा दिया, और कहा कि गुरुदेव, यह आपके चरणों में भेंट है मेरी तरफ से!
गाड़ीवाले रैक्व ने कहा, अरे शूद्र, ले जा! मुझे धन में कोई रस नहीं।
इस कहानी को विनोबा भावे कहना अक्सर पसंद करते हैं, मगर यहीं तक। क्योंकि उसने कहा कि अरे शूद्र, ले जा! मुझे धन में कोई रस नहीं। मगर यह कहानी अधूरी है। अब तुम देखते हो कि कहानी भी अगर पूरी न कही जाए तो झूठ हो सकती है।
विनोबा इसमें से यह अर्थ निकालते हैं कि उसने धन के कारण, धन लाने के कारण सम्राट को शूद्र कहा कि जिसकी धन में श्रद्धा है वह शूद्र। जब वे भूदान यज्ञ के आंदोलन में लगे थे तो इस कहानी को बहुत बार उन्होंने जगह-जगह कहा है। और किसी ने एतराज नहीं उठाया। जब वे जबलपुर आए, मैं जबलपुर में था। मैंने कहा कि यह कहानी अधूरी है। कहानी पूरी कहिए।
उन्होंने कहा, कहानी पूरी? मैं इतनी ही कहानी सदा कहता रहा हूं।
मैंने कहा, आपके कहने से नहीं है सवाल, कहानी पूरी नहीं है यह। और पूरी कहिए तो पूरा अर्थ बदल जाता है। पूरी कहानी मैं कहता हूं आपसे। कि फिर सम्राट ने अपने वजीरों से पूछा कि अब मैं क्या करूं, वह तो धन-संपत्ति लेता नहीं। उसने तो कह दिया--अरे शूद्र, ले जा अपनी धन-संपत्ति! मुझे धन में भरोसा नहीं है। तो उन्होंने कहा कि धन-संपत्ति वह नहीं लेगा। आपको उसी स्त्री को, जो आपने बाजार से खरीदी थी, भेंट चढ़ाना पड़ेगा। फिर सम्राट उसी स्त्री को लेकर गया और जब उसने रैक्व के चरणों में वह स्त्री चढ़ाई तो उसने कहा, हां, अब बोल। वत्स, क्या चाहता है?
मैंने कहा, यह कहानी अब पूरी हुई। अब कहिए, शूद्र कौन था इसमें? वह औरत के पीछे दीवाना था इसलिए धन को गाली दे रहा था। धन को गाली देने में उसको कोई और रस नहीं था। वह यह कह रहा था--तू मुझे धोखा देने आया है धन से? अरे हट सामने से, असली चीज ला! किसी और को धोखा देना।
अब तुम मुझसे कहो कि मैं इनको ऋषि-मुनि कहूं, नहीं कह सकूंगा। मुझे क्षमा करो। और कारण सिर्फ इतना है कि ऋषि शब्द का मेरी दृष्टि में बड़ा मूल्य है। ऋषि का अर्थ होता है: द्रष्टा। ऋषि का अर्थ होता है: कवि--साधारण अर्थों में नहीं, जिसके जीवन में परमात्मा का काव्य उतरा है, अवतरित हुआ है।
निश्चित ही मैं शास्त्रों से भी मुक्त होने को कहता हूं। इसलिए नहीं कि मेरी शास्त्रों से कोई दुश्मनी है, बल्कि इसलिए कि जब तक तुम शास्त्रों में ही भटके रहोगे, तब तक तुम यह जो परम शास्त्र चारों तरफ मौजूद है परमात्मा का, इसको नहीं पढ़ोगे। उलझे रहो शास्त्रों में। शास्त्रों में शब्द हैं। सुंदर होंगे, प्यारे होंगे, मगर शब्द ही हैं। और शब्द सब थोथे हैं। मैं भी जो शब्द बोल रहा हूं, अगर तुम उनमें ही उलझ जाओ तो वे थोथे हैं। इशारा समझ लो और चल पड़ो यात्रा पर, तब तो सार्थक। लेकिन यात्रा पर चलो तो! शब्द को पकड़ लो तो व्यर्थ।
लोग शास्त्रों की पूजा कर रहे हैं! मैं उस पूजा के विरोध में हूं। शास्त्रों से इशारे ले लो। अंगुलियां हैं चांद को दिखाती हुई। चांद को देखो, अंगुलियों को छोड़ो।
और चारों तरफ परमात्मा मौजूद है।
रामायण तो पढ़ते हो--सियाराम मैं सब जग जानी। बाबा तुलसीदास दोहरा रहे हैं, सियाराम मैं सब जग जानी। और तुम भी दोहरा रहे हो। और शूद्र आ जाता है तो फौरन भूल जाते हो कि अब सियाराम कहां गए! अब नहीं सियाराम दिखाई पड़ते। शूद्र के चरण नहीं छूते। उससे यह नहीं कहते कि आओ, रामजी विराजो, सीता मैया कहां है? सीता मैया को भी साथ ले आए होते। अब सियाराम नहीं दिखाई पड़ते सब जग में। मुसलमान आ जाए तो मलेच्छ। अब नहीं दिखाई पड़ते सियाराम। स्वयं तुलसीदास को नहीं दिखाई पड़ते थे, तुमको क्या खाक दिखाई पड़ेंगे!
और शूद्र की तो बात ही छोड़ दो, कहानी यह है, नाभादास ने लिखा है कि तुलसीदास को जब पहली दफा कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया तो वे झुके नहीं। कृष्ण की मूर्ति के सामने वे कैसे झुकें! जो ले गया था, उसने कहा कि आप नमस्कार नहीं करेंगे? उन्होंने कहा कि कभी नहीं। मैं तो केवल धनुर्धारी राम के सामने ही झुकता हूं, हर किसी के सामने नहीं झुक सकता।
ये ही सज्जन कह रहे हैं--सियाराम मैं सब जग जानी! इनको कृष्ण तक में राम नहीं दिखाई पड़ रहे! ये कृष्ण के सामने भी झुकने को राजी नहीं हैं! अब तुम कहो मुझसे कि मैं तुलसीदास को स्वीकार करूं कि ये परम ज्ञानी थे। कैसे झूठ बोलूं? किस वजह से झूठ बोलूं?
नहीं, यह संभव नहीं है। कबीर को इनकार करना असंभव है मेरे लिए, स्वीकार करता हूं। नानक को इनकार करना असंभव है मेरे लिए, स्वीकार करता हूं। फरीद को स्वीकार करता हूं। लेकिन तुलसीदास को स्वीकार नहीं कर सकता। तुलसीदास मेरे लिए उसी कोटि में आते हैं, जहां दयानंद आते हैं। ये सब बातें हैं। इन बातों में कुछ अर्थ नहीं है।
शास्त्रों से जब मैं मुक्त होने को कहता हूं तो मेरा इतना ही अर्थ है कि उलझ मत जाओ शब्दों में, खो मत जाओ शब्दों में।
एक स्कूल में अध्यापक ने कहा, देखा तुमने बच्चो, न्यूटन ने बाग में पेड़ से गिरते हुए सेब को देख कर पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को खोज डाला।
एक छोटे से बच्चे ने कहा, जी बाग में खोज की थी न! यदि स्कूल में बैठा किताबों में अपना सिर खपाता तो शायद कभी भी खोज न पाता। हम कैसे खोजें? हमारी तो खोपड़ी आप खा रहे हो। न बगीचा है, न सेब है। हम तो जाना चाहते हैं बगीचे में, मगर आप जाने नहीं देते।
यह बात बच्चे ने पते की कही।
और तुम्हारे शास्त्रों में है क्या? निन्यानबे प्रतिशत तो झूठ, सरासर झूठ, गपशप, और कुछ भी नहीं है।
एक बार दो शिकारी लंबी हांक रहे थे। एक बोला कि अभी पिछले महीने की ही बात है कि मैं निकला था शिकार पर। भटकता रहा, भटकता रहा, लेकिन कोई भी शेर या चीता न मिला। लेकिन एक दिन जब मैं सबेरे उठ कर हाथ-मुंह धो रहा था कि अचानक सामने से एक शेर आ गया। उस समय न तो मेरे पास बंदूक ही थी, न कोई और हथियार, बस एक बाल्टी भर पानी था। बस जल्दी से मैंने वही उठाया और शेर के ऊपर दे मारा। और शेर ऐसा भागा कि बस कुछ न पूछो।
दूसरा शिकारी बोला, हां यार, बात तो तुम सच कह रहे हो। क्योंकि जब वह शेर मेरे पास से निकला था तो मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेर कर देखा था। पीठ बिलकुल तरबतर हो रही थी पानी से।
इस तरह की बकवास है। तुम चाहे शास्त्र कहो, मगर जरा गौर से देखोगे तो ऐसे-ऐसे झूठ पाओगे कि बड़े से बड़े झूठ बोलने वाले भी छोटे मालूम पड़ने लगें।
एक गप्पी महोदय थे जिन्हें कि शिकार का बड़ा शौक था। वे जबत्तब अपने मित्रों के बीच अपने शिकार के संस्मरण बढ़ा-चढ़ा कर सुनाया करते थे। उनके मित्र चंदूलाल ने उनसे कई दफे कहा कि देखो भाई, तुम गप्प हांको, उससे मुझे कुछ एतराज नहीं, मगर थोड़ी कम हांका करो। तुम तो बिलकुल ऐसी सुनाते हो कि बस।
शिकारी को बात जंची। बोला कि यार बात तो ठीक है। अच्छा ऐसा करो, जब तुम्हें लगे कि मैं कुछ ज्यादा ही हांक रहा हूं, तो तुम थोड़ा खांस-खकार दिया करो।
चंदूलाल ने कहा, यह ठीक रहा।
एक दिन शिकारी महोदय अपने मित्रों के बीच बैठे थे। बोले कि अभी पिछले ही शुक्रवार को मैं शेर के शिकार को गया। अभी मैं चल ही रहा था कि अचानक एक शेर सामने से आ गया, रहा होगा कोई पचास फीट लंबा।
यह सुन चंदूलाल ने जोर से खांसा। गप्पी चौंका। बोला, लेकिन जब तक मैं सम्हलूं, मैंने देखा कि अरे शेर तो सिर्फ चालीस ही फीट लंबा है।
चंदूलाल फिर खांसा। गप्पी उसका इशारा समझ कर बोला, लेकिन आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मैंने निशाना साधा और बंदूक का घोड़ा दबाने जा ही रहा था कि देखा कि अरे, शेर तो कुल तीस ही फीट लंबा है।
चंदूलाल फिर खांसा-खकारा। गप्पी समझ गया। लेकिन जब मैंने उसे गोली मारी और बिलकुल उसके पास पहुंचा तो देखा कि वह तो कुल बीस फीट का ही है।
अब तो चंदूलाल से न रहा गया। वह फिर खांसा-खकारा। गप्पी महोदय बोले, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि जब मैंने उसे टेप से नापा तो वह कुल पंद्रह फीट ही लंबा था।
चंदूलाल और भी जोर से खांसा-खकारा। गप्पी महोदय क्रोध से बोले कि चुप रह बे चंदूलाल के बच्चे! पंद्रह फीट से अब मैं एक इंच भी कम नहीं करने वाला। साला खांसता ही जा रहा है, खांसता ही जा रहा है। आखिर शराफत भी कोई चीज है!
तुम जरा अपने शास्त्रों में देखो तो, किस बात के लिए तुम बात कर रहे हो! है क्या तुम्हारे शास्त्रों में? सौ में से निन्यानबे प्रतिशत तो व्यर्थ की बकवास है। कि हनुमान ने लंका जला दी, कि एक छलांग में समुद्र पार कर गए। क्या-क्या नहीं होता तुम्हारे शास्त्रों में!
साइकिल होती नहीं थी और रामचंद्र जी सीता मैया को पुष्पक विमान में बिठा कर लेकर चले आ रहे हैं! साइकिल का भी कोई उल्लेख नहीं है कि ऋषि-मुनि साइकिल पर चलते हों। रेलगाड़ी का भी कुछ पता नहीं है। हवाई जहाज एकदम से नहीं बनता। साइकिल से शुरू होती है बात। धीरे-धीरे, क्रमशः, हवाई जहाज अंतिम चरण में बनता है। प्राथमिक चरणों का कोई पता ही नहीं है--पुष्पक विमान! सब गप्प-सड़ाका है। इसमें न तो कुछ अध्यात्म है, न कुछ ब्रह्मज्ञान है, न ब्रह्मज्ञान को पाने की कोई इस तरह की चीजों से संभावना है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, मेरा अभिप्राय बहुत सीधा-साफ है। मैं चाहता हूं कि तुम जानो कि सत्य तुम्हारे भीतर है, कहीं और नहीं।
तुम पूछते हो: "आपका धर्म क्या है?'
मैं हिंदू नहीं हूं, मुसलमान नहीं हूं, जैन नहीं हूं, बौद्ध नहीं हूं। मेरा धर्म विशेषण-शून्य है। मैं सिर्फ धार्मिक हूं। मैं इस अस्तित्व को प्रेम करता हूं। इस अस्तित्व में मेरी श्रद्धा है--न किसी मंदिर में, न किसी मस्जिद में, न किसी गिरजे में, न किसी गुरुद्वारे में। शब्दों में मेरा रस नहीं है। बोल रहा हूं तुम्हारे कारण, अन्यथा मौन में मेरा आनंद है। बोल रहा हूं कि तुम्हें भी मौन की तरफ फुसला ले चलूं। और जिन्होंने मुझे सुना है वे मौन की तरफ सरकने शुरू हो गए हैं। जो मुझे समझ रहे हैं वे मौन होते जा रहे हैं। वे जब मुझे सुन रहे हैं तब भी मौन हैं।
और तुम पूछते हो: "समाज के लिए क्या कुछ नीति-नियमों का आप विधान करेंगे?'
नहीं। बहुत हो चुका नीति-नियमों का विधान। समाज कहां पहुंचा उस विधान से? मैं तो व्यक्ति में भरोसा करता हूं, समाज में मेरा भरोसा नहीं है। मैं व्यक्ति को ज्योति देना चाहता हूं, ध्यान देना चाहता हूं, समाधि देना चाहता हूं। फिर उसी समाधि से जीवन का आचरण निकलना चाहिए। उसी प्रकाश में लोग चलें। उसी प्रकाश को लोग अपने बच्चों को सिखाएं--कैसे पाया जा सकता है। उसी प्रकाश को शिक्षक विद्यार्थियों को समझाएं--कैसे पाया जा सकता है। वही प्रकाश फैले।
लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर से जीने की स्वतंत्रता मिले--यही मेरा अभिप्राय है, यही मेरा धर्म है, यही मेरी क्रांति है।
समाज नहीं--व्यक्ति मेरा लक्ष्य है। व्यक्ति के प्रति मेरी आत्यंतिक श्रद्धा है। समाज तो कोरा शब्द है, एक संज्ञा मात्र। समाज की कोई सत्ता नहीं है। सत्ता है व्यक्ति की। और व्यक्ति के भीतर ही आत्मा का वास है। व्यक्ति है मंदिर परमात्मा का। वहीं खोजना है और वहीं से जीवन के सारे सूत्र पाने हैं।

आज इतना ही।



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