टोनी के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था। एक बात और, टोनी को देख कर पहले मुझे जितना बुरा लगा, वा इतना बुरा नहीं था, वो मेरी भूल या जलन कह लो वह
तो बहुत ही अच्छा था। सच कहुँ तो मुझे वह बहुत अच्छा लगने लगा था, उसके संग साथ चिपट के सोना, कैसे नरम मुलायम बाल थे
उसके जब शेम्पो से धोएं होते तो केसी मधुर—मन मोहक महक आती थी। जब दोनों को खेल
मैं बहुत मस्ती चढ़ जाती आपस मैं खेलते हुये जो भी पास मैं सुविधा जनक चीज़ पकड़ मैं
आ जाती उसी से हम दोनों छीना झपट कर खेलना शुरू कर देते थे। अब हमारे लिए विशेष
खिलौनों की आवश्यकता नहीं थी, फिर लाता भी कौन हिमांशु भैया
के पास तो खिलौनों की पुरी दुकान थी। वो तो स्कूल गया होता था, मैं और टोनी उन्हे निकाल कर खूब मुहँ से पकड़ के नोचते, खिंचते, फ्फेड़ते और खूब भागते थे।
परन्तु कभी—कभी हम खेल की मस्ती मैं ऐसी चीजों से भी
खेलने लग जाते थे जिसके पीछे हमे डाँट क्या एक आध चपत भी खाना पड़ता जाता था। जैसे
दाँत साफ करने की बुरुश, पेस्ट, कंघी या चप्पल ऐसे ही कोई भी सामान पड़ा मिल जाता फिर उसकी खेर नहीं समझो।
नये—नये निकलते सुई की तरह नुकीले दाँतों मै ने जाने क्यो इतनी खुजली होती थी। उन
दाँतों को जिस वस्तु मैं भी गड़ाते, उसके टुकडे—छित्तरे कर
के ही छोड़ ते थे। फिर अगर कोई चमड़े की चप्पल आदि पकड़ मैं आ गई तो उसमें से निकलती
गंध तो मानों मन मस्तिष्क को तरो ताज़ा कर जाती थी।
मांसाहारी और
शाकाहारी दोनो पे समान रूप से भी खड़े कुछ पाणी है, जो समय, स्थान, और स्थिति के
अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं। कुछ अपनी सीमा के किनारे खड़े वो प्रकृति के विभाजन
मै हस्तक्षेप नहीं करते या उसमें परिपूर्णता से आनन्द पूर्व जीते हैं। इसमें जल,
थल, नभ तीनों जाति के प्राणी यों का है।
परन्तु मनुष्य इस धूरी की कील समझो वो समय, स्थान ही नहीं
जीभ और मन के परबस होकर जीता सा लगता है। वो आधुनिकता के फैली भौतिकता की सुविधा
से इतना ग्रस्त हो गया है, की वो अपनी इन्द्रियों का
इस्तेमाल ही नहीं करता या फिर उसे भूल गया है। वो कंद, मुल,
फल पर ही नहीं रुका जीवित प्राणियों का भक्षण किये जा रहा है।
फिर चाहे उसके शारीर की रचना उसके अनुरूप है या नहीं, इसमें आप ऐसा ना समझे की मैं जिस थाली मैं खाता हुँ उसी
मै छेद कर रही हुं। फिर इसमें विरोध भी है, जो प्रकृति के इस
रहस्य, को जान गया, वो मानव नहीं महा
मानव बन जाता हैं। श्रेष्ठता के उस छोर को केवल मनुष्य ही छू सकता हैं। इन्द्रियों
की संवेदना खौ कर भी अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ किया हैं, अब
कुछ पाने के लिए मुट्ठी खाली करनी पड़ेगी ही, तभी वो भरी जा
सकती हैं। ये वो हमसे अधिक जानता है, दीपक, सुर्य को प्रकाश दिखा ये उसकी मूर्खता ही नहीं धूर्तता ही समझो ये गलती तो
अब हो गई, इस पर केवल पछताया जा सकता हैं। अब मैं पछता रहा
हुँ, परन्तु ज्ञान बांटने की ये बिमारी भी तो मनुष्य के
संग—साथ रह कर ही तो लगी है, वरन हमारे पास कहाँ ज्ञान लड़ने
झगड़ने से फुर्सत मिले तब तो सोचे।
जितने दिन
जंगल मै रहा, केवल माँ का दुध पिया था।
यहाँ आने के बाद तो मतलब ही नहीं उठता कि अंडा तक मिल जाये, यहाँ
तो प्याज लहसुन तक नहीं खाया जाता, फिर मांसाहार के तो सपने
देखना भी दूर की बात हैं। फिर एक दिन दरवाजा खुला देख मैं बहार गली मे भाग गया। आप
सोचते होगें हम कैदी थे, छोटे पेड पौधों के चारो तरफ़ जो
सुरक्षा का घेरा लगाया गया हो, उसे वो अपनी कैद समझे फिर तो
उसके बचने की सम्भावना बहुत कम हैं। वो नियम हमारी सुरक्षा के लिहाज से भी ठीक था,कोई छोटा बच्चा ही उठ कर नो, दो, ग्यारह हो जाये फिर ढूँढ़ते रहो घण्टों।
पापा, ममी जी हमारी आदत को भी जानते होगें की हम बहार निकले नहीं और मुहँ मारा
कूड़े के ढेर मै। मैने भी वही किया उठा लाया मुहँ एक हड्डी का टुकड़े, अन्दर आकर पेड़ो की क्यारी मै बैठ कर लगा चबाने। घर का आंगन काफी बड़ा था,
दीवार के साथ—साथ आडू, अमरूद,पपीता और भेल पत्र के पेड़ उगाये हुए थे। काले, सफेद
अंगूरों की बैल के लिये आधे आँगन मैं लोहै के पाईपों से एक जाल बनवा रखा था। जिस
पर फैली अंगूरों की बेल आँगन को छाव ही नहीं देती, अपितु
उसका सौन्दर्य भी बढ़ाती थी। जाल के उपर पत्तों का फेलाव और नीचे लटकते काले,
सफ़ेद अंगूरों के गुच्छे आपको घर मै घुसते ही अपनी और अकृष्ट करने
के लिये काफी थे। आडू के उस पेड की शोभा मैं आपको शब्दों में बता नहीं पाएगा,
लाल—पीले आडू से पेड़ की डाल झुक कर दीवार पर टिक जाती थी।
उन्ही दिनों आँगन पक्षियों द्वारा गिराये गये फलों से
भरा रहता था। फलो से लद्दे पेड़ को देखना कितना अच्छा लगता फिर वो अमरूद,भेल पत्र हो ये पहली बार जाना। राह जाते मुसाफिर भी चलना
भूल कर मंत्र मुग्ध देखते रहे जाते थे। बच्चे को तो एक खेल मिल गया, मारते गली से पत्थर, चाहे आडू पे लगे या किसी के सर
पर ये उन्हें समझ ही नहीं आता था। शायद आडू को देख वो अपनी शुद्ध—बुद्धः खो देते
होगें, नहीं तो क्या इतना भी ज्ञान नहीं रहता कि भले आदमी
तुमने पत्थर मार कर आडू गिरा भी दिया तो गिरे गा तो वो घर के अन्दर फिर इससे आप को
क्या हासिल होगा।
आप उस आडू को कैसे उठा पाओगे। पर ये सोचने विचार ने
का समय उनके पास कहां होगा। अगले साल आडू की एक डाल सुख गई, सब कहने लगे लोगो की नज़र लग गई, परन्तु
पापा जी केवल हस भर देते, वो जानते थे यहाँ दीमक बहुत है,
लाख दवाई डाली पेड़ बचा नहीं। इसका दुख पूरे गाँव का हुआ, पाने से ही नहीं है तृप्ति, देखने से भी मिल जाती
हैं।
बात हड्डी की छोड़ कर मैं कहाँ पहुँच गया, हमारे छोटे दांत भी कितने मजबूत होते हैं। मनुष्य की तरह
हमारे दुध के दांत टूटते भी नहीं, वहीं छोटे महीन दांत शारीर
के साथ कैसे बढ़ कर खतरनाक और ताकत वर हो जाते हैं। ये राज जीवन भर मेरी समझ मैं
नहीं आया। प्रकृति का रहस्य भी अछूता और रहस्यमय है, आप
जितना उसे खोजने निकलोगे पर्त दर पर्त रहस्य बढ़ते चले जायेंगे फिर भी आप उस रहस्य
का चीवर उतार नहीं पाओगे। आपके सामने और चार रहस्य मुहँ बायें खड़े होगें। यहीं
है कुदरत,परमात्मा, लीला जो स्वछन्द
बिखरी पड़ी है कण—कण मैं, आप प्रत्येक वस्तु को क्रिया शील
पाओगे, अनबुझे—अनछुए रहस्य की तरह,जो
लय बद तो है ही, और एक अडिग नियम की तरह संतुलित भी।
भलाई इसी मैं है हम इस ज्ञान को भूल, विज्ञान की सुविधा का सुख भोग ले फिर चाहे वो आपके विनाश
की नींव हो जिस पर तुम महल बना रहे हो। इस कल के विषय मैं जो सोचे वो दुर दृष्टा
ये विरले तो आटे मै नमक के बराबर ही समझो। वही केवल इस जीवन के रहस्य को जानना
चाहे, मनुष्य को छोड़ दे तो बाकी प्राणी तो चहा कर भी ऐसा
नहीं कर पायेंगे वो चेतना का आयाम ही नहीं है किसी पशु के पास।
पर मनुष्य का रंग संग रहने से जरूर मन के कुछ अभेद्य
से हलचल जरूर पैदा कर देता है। संग साथ का सच ही रंग चढ़ जाता है। हम कौन है, कहाँ से आये है, ना से होना और होने
से ना होना के बीच मैं होना ही दिखाई देता है। इसी लिए वो उसे ही सत्य मान लेता है,
कृति से भी परे है पर, जो अदृष्य है, वहीं हैं एक मात्र चमत्कार बाकी सब चमत्कार उसके आगे बोने हैं। कैसे हम
परबस और लाचार प्रकृति बस मैं आंखों पर पट्टी बांधे चलते चले जा रहे है, एक नींद, मदहोशी की चादर कैसे जड़—चेतन पर हलका सा
कुहासा सा लिए फैली हुई है, एक आदत या संस्कार का रूप धरे
हुए।
हड्डी मुहँ
मैं आते ही कैसे लार के साथ रस भी बहने लगा, छोटे—छोटे दांतों से महीन—महीन टुकड़े के साथ खून का स्वाद मुहँ मै घुल रहा
था। अपना खून अपने मुहँ मै स्वाद भर रहा है, ये कैसी
विडम्बना हैं। टोनी पास आकर सूँघने लगा, मैं एक दम चौकन्ना
हो गया और लगा दांत निकाल कर गुर्राने। मेरी पीठ के सारे बाल खड़े होकर मानो कह
रहे हो सावधान रहना मैं बहुत खतरनाक हुँ। कितनी देर अपने मुहँ से खून निकाल कर
पीता रहा जब की सारा मुंह लहू लूहान ने हो गया। ह तक दांतों के पास भी जख्म हो
गये। पर इस सब की परवाह कौन करता है। आखिर थक हार कर मैने उसे छोड़ दिया पास
इन्तजार करते टोनी की बारी थी। वो भी लगा रहा घण्टों उस मूढ़ता भरे इस कार्य मैं।
श्याम के समय
पापा जी के साथ दीदी और वरूण भैया स्कूटर पर रख कर एक बहुत बड़ा पिंजरा ले कर आये।
जिसमे कम से कम 30—40 बहुत छोटी—छोटी ,खूबसूरत चिड़ियाएं थी। दीदी गोद अपनी गोद पिंजरा रख कर बैठी थी, वरूण भैया स्कूटर पर आगे खड़े हुए थे। उन्होंने पिंजरा उतार कर मेरे
सामने रख दिया, सारी चिड़िया डर के मारे पिंजरे के एक तरफ़
चिपक गयी। मैने सोचा मेरी शकल क्या इतनी डरावनी है, अभी तक
नन्हे—नन्हे घुंघरू की तरह चहक रही थी डर के मारे चुप चाप हो गई। अब आपको क्या
बताउं परन्तु अब आप से क्या छिपाना, मैने अपनी सुरत कभी देखी
ही नहीं या यूँ कह लीजिए सीसा सामने रख दो जब भी दिखाई ही नहीं देती थी। हाँ मैने
सुना था मुझसे पहले यहाँ पर जो कुत्ता था, क्या भला सा नाम
लेते थे।
उसका हेनी मेरे नाम से तो मिलता झूलता नाम हैं, पोनी—हानी इसी से तो मुझे याद रहा,क्योंकि
हम शब्द थोडे ही पहचान पाते है, हम ध्वनि को पहचानते हैं। वो
पामेरियन और देशी मिश्रण से पैदा हुआ था,
टी० वी० मैं समाचार पढ़ने वाली को देख कर भोक्ता था। अब मैने
तो लाख सर फोड़ा हमे तो उस ईड़ियटबोक्स मै कुछ नजर नहीं आया। अब हमारी जाती के इतने
महान भी होते हैं, मानने मैं हमारा सम्मान ही तो है।
फिर अभी एक दिन जब मै 14 वर्ष पार कर चुका तब दीदी के
साथ फोटो स्टूडियो के अन्दर चला गया, उसमे चारो तरफ़ शीशे ही शीशे लगे थे। अचानक मेरी निगाह एक शीशे पर पड़ी जिस
मैं मेरी ही परछाई थी, न जाने उम्र के हिसाब से या मष्तिक
थोड़ा विकसित हुआ इस लिये मुझे अपनी परछाई नजर आ गई थी। फिर क्या था मैं लगा डर के
मारे भौंकने, पुरी दुकान सर पर उठ ली, बडी
मुश्किल से धक्के मार कर दुकान से बहार निकालना पड़ा था।
इतनी सारी
चिडि़याऔ को देख कर मेरे साथ टोनी भी आकर खड़ा हो गया, मैने उस को देख कर पूछ हिलाई, उसने
मेरा मुहँ चाट कर गर्दन हिलाई अब मजा आयेगा। दानों भाई मिल बाट कर खायेंगे। अब दो
तो से तान के खाला होते है। मुझे टोनी का संग हिम्मत दे गया जो मैं अकेला शायद
नहीं कर सकता था। मैंने टोनी की और शरारत भरी नजर से देखा। और कहा देखा क्या माल
लटक रहा है। चले करे कुछ जतन इन चिडि़याऔ को पकड़ने कि ये कितनी नरम मुलायम, और नरम है और मजे कि बात है ये इस पिंजरे में कैद है उड़ भी नहीं सकती
है।
मुहँ के अन्दर आते ही कैसे फड़फड़ा कर उडने की कोशिश
करेगी । हम दोनो के मन मै लडडू फुट रहे थे। अब ये बात किसने हमे बताई, क्या मनुष्य भी ऐसा ही सोचता होगा इन्ही चिडि़याऔ के बारे
मै, नहीं इसे हम केवल खाने की वस्तु समझते है, वहीं मनुष्य के लिये बहता जीवन, मैं सब मनुष्यों की
बात नहीं कह रही केवल जिन्हे मैने नजदीक से जाना हैं। वहीं इन्ही चिडि़याऔ के लिये
एक परिवार, एक प्रेम, एक सम्बंध,
एक रिश्तों भरे जीवन की मधुरता लिए हैं। अलग—अलग शरीर मै दिमाग़ भी
अलग प्रकार की सोच को जन्म देता हैं। शायद बुद्धि के भी तल होगें प्राणी यो मै,
यही आयाम हमारी चेतना को छू के
हमारे जीवन के विकास क्रम को गति देते होगें। उन्हे अंगूर की बैल के जाल पर
लटका दिया, वो हमारी पकड़ के बहुत दूर थे।
अब चिड़िया फिर निर्भय होकर उस पिंजरे मै चहकने लगी, कुछ झूलों पर, कुछ छत्त के तारों को
पकड़ कर उलटी लटक कर खेलने लगी। भूल गई सब भय तकलीफ़देह कैद भरे जीवन को और लोट आई
फिर वही लय बदता आ गई। मैं नीचे बैठ कर उन्हे निहारता रहा, सब
मुझे देख कर हंसे और चले गये, मैने उनकी हँसी की तरफ़ कोई
ध्यान नहीं दिया था। मैं उपर मुहँ पिंजरे को आस भरी निगाहों से देख रह था,पिंजरे के पास लटका अंगूर का गुच्छा, वहीं दर्श्य
लोमड़ी वाला अंगूर खट्टे हैं।
ये पिंजरे पूरी रात मेरे लिए जी का जंजाल बना
रहा, क्यो इसे आसमान मैं टंग
दिया, फिर इसे लाये क्यो थे। मैं रात का सोया क्या जब भी
आंखे बन्द करता, चिड़िया ये सामने घूमने लगती थी। इतने
धीरे—धीरे मानों आंखों के सामने बूइयां की
तरह उड़ रही थी, अभी
हाथ बढ़ाया और जब चाहों उसे धीरे से तो
पकड़ लो। पुरी रात मैं हाथ—पेर मरता रहा दौड़ता रहा। सच कई बार जिसे हम पा लेते है
तो उस में इतना रस नहीं होता जितना उसे सपनों में जब तक वो मिल नहीं जाती।
मिलनी तो कहा थी पर मैं पुरी रात चिड़ियाऔ के पीछे
दौड़ ता रहा,शेख़चिल्ली के सपने बुनता
रहा। नींद क्या खाक आनी थी। सुबह जब वरूण भैया ने मुझे नींद से उठाया तब भी मैं
चिड़ियाऔ के ही पीछे दौड़ लगा रहा पेर इतनी तेज से चला रहा था, परन्तु एक दम सामने होते हुये भी मैं पकड नहीं पा रहा था। आंखे खोल कर देख
तो मैं बिस्तरे पर ही पड़ा पेर पीट रहा हुँ। सब तैयार हो गये थे जंगल जाने के लिये
मैं आज कैसा कुंभ करणी नींद सोया,फटा—फटा खड़े हुआ चलने के
लिये, दीदी ने मेरे सामने दुध की कटोरी रखी,मैने चाव मैं दुध भी नहीं पीया और सब को देखने लग जंगल जाने के नाम पर
भैया,दीदी, टोनी भी कितना खुश इधर—उधर
दौड़ फिर रहा था।
बीच जंगल मैं जहाँ गहरी खाई थी, वहाँ पेड़, पौधों का घना झुरमुट था।
वहाँ भरी दोपहरी मैं भी धूप पत्तों और टहानीयों पर ही अटक कर रह जाती थी। नीचे
पहुँचती थी केवल धूप की शीतलता, उस के पास पिंजरा जमीन पर रख
दिया, सब कुतूहल पूर्वक देखने लगे अब क्या होगा। मैं भी आगे
आने की जीद्द करने लगा, परन्तु मुझे हिमांशु भैया ने पकड़ रख
था। पापा जी ने पिंजरे का धीरे से मुहँ खोला, तीन—चार चिड़िया
निकली और
फु...उ.....र...... से उड़ कर सामने सेमल के पेड की टहानी पर जाकर बैठ गई, एक क्षण के लिए तो उन्हे भी यकीन नहीं आया होगा की हम
आजाद हैं,इतनी बडी उडान भर कर हम पेड पर आकर बैठ गई हैं। फिर
वो खुशी के मारे चहकने लगी, बडी मीठी धवनि मैं वो बोली,
उनकी गीत मुक्ति का उत्सव था। जो रात की कैद की गुनगुनाहट से भिन्न
था। उनकी प्रसन्नता अछूती नहीं रही वो दुसरी चिड़ियाऔ को भी छू गई, और वो भी एक—एक करके पिंजरे से निकल कर उडने लगी, कुछ
ही देर मैं सारा पिंजरा खाली हरे गया। मैं हिमांशु भैया की गोद मै छटपटाता रहा था।
चिडि़याऔ को उड़ता देख कर मैरा मन कर रहा था, किसी तरह एक
बार छुट जांऊ मैने छूटने के लिये पुरी ताकत लगाई, जैसी थोड़ी
पकड़ ढीली होते ही मैं छुट कर भागा था।
परन्तु कहाँ उनकी उड़ान और कहाँ मेरी दौड़, तीस—चालिस कदम दौड़ कर ही मैं समझ गया की ये मेरी पकड़ के
बहार की बात हैं। अपने आप को ठगा सा खड़ा पाया अपने को पिंजरे और चिडि़याऔ के बीच
मैं, दोनो पैरो से मै मिटटी खोदने लगा क्रोध के मारे। दुर
कहीं हँसी की आवाज आई, दुसरी तरफ़ चिडि़याऔ का कलरव, मैं पूछ हिलाता, कान बौंच कर धीरे लोट आया। टोनी
मस्त दीदी की गोद मै बैठा ये सब देख रहा था। मुझे वो बुद्धू लगा, या शायद मैं ही थोड़ा सा पागल होऊं या थोड़ा सा खपती, अब जो चाहे आप समझ सकते है।
भू.....भू......भू....आज केवल इतना।
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