रविवार, 28 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

युवा होने की कला—(सातवां प्रवचन)
दिनांक १७ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आपने अक्सर भारत के बुढ़ापे की और उससे पैदा हुई उसकी जड़ता की चर्चा की है। कृपया बताएं कि क्या यह जाति फिर से युवा हो सकती है? और कैसे?
2—जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं ख्वाब दम-बदम!

पहला प्रश्न: भगवान,
आपने अक्सर भारत के बुढ़ापे की और उससे पैदा हुई उसकी जड़ता की चर्चा की है। कृपया बताएं कि क्या यह जाति फिर से युवा हो सकती है? और कैसे?

आनंद मैत्रेय,

जीवन को सतत ताजा रखने की प्रक्रिया एक ही है--फिर चाहे वह व्यक्ति का सवाल हो, जाति का या राष्ट्र का, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। जीवंत रहने की कला का आधारभूत सूत्र है: अतीत के प्रति मर जाना। अतीत के प्रति रोज-रोज मरते जाना। प्रतिपल मरते जाना। अतीत को संगृहीत न करना। अतीत को संगृहीत करने से ही जड़ता पैदा होती है। जितना अतीत हमारे सिर पर लद जाता है उतने ही हम बोझ से दब जाते हैं; उतने ही हमारे पैर, नृत्य तो दूर, चलने में भी असमर्थ हो जाते हैं।
और जीवन नृत्य है। जीवन अहर्निश नृत्य है। हमने ऐसे ही परमात्मा की नटराज की तरह कल्पना नहीं की; बहुत सोच कर की। द्रष्टाओं की अनुभूति का सार उसमें छिपा है। पृथ्वी के किसी भी और हिस्से में परमात्मा को नर्तक की तरह नहीं देखा गया। परमात्मा की यह भाव-भंगिमा हमारा दान है जगत को। क्योंकि नृत्य की कुछ खूबियां हैं, जो किसी और कृत्य में नहीं होतीं। पहली खूबी, कि नृत्य और नर्तक को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। परमात्मा को चित्रकार कहो तो चित्रकार चित्र से अलग हो जाता है, द्वैत पैदा हो जाता है। चित्रकार मर भी जाए तो भी चित्र बना रहेगा। चित्र बेचा जा सकता है। चित्रकार और चित्र अलग-अलग हैं। परमात्मा को मूर्तिकार कहो, मूर्ति मूर्तिकार से अलग हो जाती है। मूर्तिकार मूर्ति में समा नहीं पाता। मूर्ति मूर्तिकार से आविष्ट नहीं होती। मूर्तिकार मूर्ति की आत्मा नहीं बन पाता; बाहर-बाहर रह जाता है।
नृत्य अनूठी बात है। नर्तक नृत्य की आत्मा है। वह उसके भीतर है, बाहर नहीं। चित्रकार बाहर से तूलिका उठाता है, चित्र बनाता है। मूर्तिकार छैनी उठाता है, हथौड़ी उठाता है, पत्थर को खोदता है--लेकिन बाहर से। नर्तक भीतर से, अंतर्तम से--नृत्य को जन्माता है। नृत्य के भीतर होता है, केंद्र पर होता है। मूर्तिकार परिधि पर होता है, नर्तक केंद्र पर होता है। और नर्तक और नृत्य एक हैं। उन्हें अलग करने का कोई उपाय नहीं है। वे अद्वैत की जितनी ठीक-ठीक अभिव्यक्ति करते हैं, कोई और दूसरी चीज नहीं करती।
परमात्मा नर्तक है, अस्तित्व उसका नृत्य है। और जिस दिन आदमी बोझिल हो जाता है, उस दिन परमात्मा से टूट जाता है। और भारत की बोझिलता बहुत पुरानी है। हम पुराने में रस लेते हैं। हम अपने को पुराने से पुराना सिद्ध करने में बड़ा श्रम उठाते हैं। हमारी सारी चेष्टा यह है कि हम सिद्ध कर दें कि दुनिया में हमसे ज्यादा पुराना कोई भी नहीं। इसका अर्थ होता है कि हम सिद्ध कर रहे हैं कि हमसे ज्यादा मुर्दा और कोई भी नहीं। हमारा बोझ भारी है। हिमालय की तरह हमारे सिर पर बोझ है। हम इंच भर सरक नहीं पा रहे हैं, सदियों से नहीं सरक पा रहे हैं। हम जहां के तहां रह गए हैं। यह हमारी जड़ता है। इस बोझ को उतारना होगा।
भारत युवा हो सकता है--होना चाहिए। युवा हुए बिना भारत का कोई भविष्य भी नहीं है। मेरा सारा प्रयास यहां यही है कि तुम्हें युवा होने की कला का अनुभव होने लगे। फिर बूढ़ा से बूढ़ा आदमी भी युवा हो सकता है। क्योंकि युवा से युवा आदमी भी बूढ़ा हो सकता है। यह सब निर्भर करता है इस बात पर कि कितना बोझ तुम्हारे सिर पर है। अगर युवा आदमी के सिर पर बहुत बोझ हो तो वह बूढ़ा हो गया; वह नाच न सकेगा, चल न सकेगा। उसका भविष्य अंधकारमय हो गया। उसका भविष्य बचा ही नहीं। उसका वर्तमान सिर्फ एक दुख है--एक दुख-स्वप्न। उसके लिए अगर कोई सुख है तो एक ही है कि स्मृतियों में, अतीत की याददाश्तों में थोड़ा सा अपने मन को समझा ले बुझा ले; याद कर ले राम के युग की; याद कर ले वेद की, उपनिषदों की; सोच ले मन में, कि कैसा स्वर्णऱ्युग था, कैसा सतयुग था और किसी तरह आज को झेल ले। आज तो कलियुग है। पीछे था सतयुग।
यह बूढ़े होने का लक्षण है। युवा होने का लक्षण है: आज है सतयुग। क्योंकि आज ही सत्य है। और जो सत्य है वही सतयुग हो सकता है। कल तो झूठ हो चुका। कल कैसे सतयुग हो सकता है। सतयुग शब्द का अर्थ तो समझो। कल है कहां? कहीं कोई रेखा भी नहीं छूट गई है। सिर्फ तुम्हारी स्मृति में है। तुम जो गठरी बांधे हो अपने सिर पर कूड़े-करकट की, उसमें है। कल तो जा चुका। कुछ बचा नहीं। आने वाला कल अभी आया नहीं।
सतयुग न तो पीछे हो सकता है, न आगे हो सकता है। और दुनिया में दो ही तरह के पागल हैं, कि कुछ का सतयुग पीछे होता है और कुछ का सतयुग आगे होता है। जो पुराने ढंग के पागल हैं उनका सतयुग पीछे है; भारत उन्हीं में है। और जो नये ढंग के पागल हैं--जैसे कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, रूस, चीन--उनका सतयुग आगे है, भविष्य में है।
सतयुग का अर्थ ही यह होता है--जो सत्य है। सत्य क्या है? न तो अतीत न भविष्य; वर्तमान सत्य है। सतयुग अभी है, यहां है। लेकिन इसके लिए जरूरी होगा कि हम अतीत का पूरा बोझ उतार दें। अतीत की हम सारी स्मृतियों को हटा कर रख दें। हम अपनी आंखों को साफ करें, अपने चश्मे को पोंछ लें। बहुत धूल जम चुकी है उस पर।
एक बुढ़िया, सुबह-सुबह उठकर, खिड़की तो बंद थी, लेकिन खिड़की के कांच से झांक कर बाहर देख रही थी। उसका छोटा पोता भी पास ही खड़ा था। उस बुढ़िया ने कहा, बड़ा धुंधलका है आज। वह छोटा सा बच्चा हंसने लगा, उसने कहा कि नहीं, धुंधलका नहीं है दादी। खिड़की का कांच धूल से भरा है। खिड़की का कांच धूल से लदा है। धुंधलका नहीं है। मैं बाहर होकर आया हूं। सब साफ-सुथरा है, बिलकुल ताजा है।
वह जो कांच पर जमी हुई धूल है, वृद्धा की आंखों में खयाल में नहीं आ रही। कांच धुंधला है और धुंधले कांच से वह जगत को देख रही है, तो सारा जगत धुंधला दिखाई पड़ रहा है।
तुम्हारा चश्मा धुंधला है। तुम्हारे देखने की दृष्टि धुंधली हो गई है। पर्त पर पर्त धूल की जमती चली गई है। और हम हटाते नहीं धूल को। हम तो धूल को और बढ़ाते हैं। हम तो धूल को ऐसे पकड़ते हैं जैसे स्वर्ण है, कहीं छूट न जाए। कहीं शास्त्र हम से खो न जाएं! हम तो अतीत का गुणगान करने में लवलीन रहते हैं।
भारत युवा हो सकता है। लेकिन हिम्मत जुटानी पड़ेगी। युवा होना हिम्मत का काम है, साहस का काम है। वर्तमान की चुनौती अंगीकार करनी होगी।
वर्तमान की चुनौतियां क्या हैं?
वर्तमान की पहली चुनौती तो यह है कि हम एक पाठ सीखें, कि हमने अब तक जो किया है उसमें कहीं कुछ भूल थी। जब तक तुम अतीत को सिर पर रखे रहते हो, तब तक तुम उसका विश्लेषण भी नहीं कर सकते। विश्लेषण करने के लिए दूरी चाहिए, फासला चाहिए, थोड़ी तटस्थ चाहिए। हमने कुछ भूलें की हैं, लेकिन हम उन भूलों को स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि उन भूलों को स्वीकार करने का अर्थ होता है हमारे अहंकार को चोट लगती है। हम उन भूलों के साथ अपना तादात्म्य किए बैठे हैं। कोई अगर हमें हमारी भूलें सुझाए तो दुश्मन मालूम पड़ता है। उसकी बात हमें जहर लगती है! हम तो उनकी बातें सुनना चाहते हैं जो हमारा गुणगान करें, हमारा गौरव गाएं।
इसलिए तुम हमेशा उन महात्माओं के वचनों को सुन कर खूब गदगद होते हो, जो तुम्हारी प्रशंसा किए चले जाते हैं कि तुम दुनिया के सबसे ज्यादा धार्मिक लोग हो, तुम पुण्यवान हो! तुमने अतीत जन्मों में कई बार न मालूम कितने पुण्य किए होंगे, तब इस पवित्र भूमि में तुम्हारा जन्म हुआ है! सुन कर तुम्हारा चित्त गदगद होता है कि अहा! और तो कुछ तुम्हारे पास है ही नहीं; बस इसी तरह की बातें हैं जिनमें अपने को उलझाए रखते हो। भूलें तुम अपनी देखोगे कैसे?
अगर युवा होना है तो बोझ को सामने रखो उतार कर, उसका विश्लेषण करो। इस गठरी में बहुत भूलें हैं। भूलें ज्यादा है। हीरे-जवाहरात तो बहुत कम है, कंकड़-पत्थर ज्यादा हैं। उन्हीं कंकड़-पत्थरों में हम दबे जा रहे हैं, मरे जा रहे हैं।
भारत ने जो भूल की है, वह भूल थी कि हमने भीतर के जगत को बाहर के जगत से बहुत ज्यादा मूल्य दे दिया। जैसा आज पश्चिम में भूल हो रही है--उलटे छोर पर--कि बाहर के जगत को भीतर के जगत से बहुत मूल्य दिया जा रहा है। ये दोनों भूलें एक जैसी हैं। इन भूलों की बुनियाद एक है, सूत्र एक है।
कार्ल माक्र्स कहता है कि आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। है तो पदार्थ; आत्मा-परमात्मा तो आभास मात्र हैं। और हमारे तथाकथित धर्मगुरु कहते हैं कि परमात्मा और आत्मा सत्य हैं; जगत मिथ्या है, आभास मात्र है, माया है। ये दोनों एक बात पर राजी हैं कि दो में से एक माया है और एक सत्य है।
पश्चिम भी एक भूल कर रहा है कि बाहर जो है वही सत्य है और भीतर कुछ भी नहीं। इसलिए पश्चिम बाहर से समृद्ध होता जा रहा है और भीतर से दरिद्र, दीनऱ्हीन। बाहर महल खड़े होते जा रहे हैं, अंबार लगते जा रहे हैं--धन के, वैभव के। और भीतर? भीतर अंधकार घना होता जा रहा है; अमावस, जहां एक तारा भी नहीं दिखाई पड़ता। तारे तो दूर, एक मिट्टी का दीया भी नहीं जलता।
और भारत ने यही भूल की--दूसरे छोर से। कहा: बस भीतर सब ठीक है, बाहर सब झूठ है। तो हम भीतर की तो थोड़ी-बहुत खोज-बीन कर पाए, कुछ हीरे-जवाहरात हम लाए, डुबकी मारी, हम गहरे बैठे हैं। लेकिन बाहर हमारा एकदम दरिद्र हो गया, दीन हो गया, रुग्ण हो गया, उदास हो गया।
दोनों पंगु हैं।
मेरे देखे, बाहर उतना ही सत्य है जितना भीतर। बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। परमात्मा और उसका संसार दो नहीं हैं। इसलिए कोई भी असत्य नहीं है। न जगत असत्य है, न ब्रह्म असत्य है। दोनों सत्य हैं और समान रूप से सत्य हैं। क्योंकि संबंध नर्तक और नृत्य का है। अगर नर्तक सत्य है तो उसका नृत्य भी सत्य है। अगर नृत्य सत्य नहीं होगा तो नर्तक को नर्तक भी कैसे कहोगे? और अगर नृत्य सत्य है तो नर्तक के बिना सत्य हुए कैसे सत्य हो सकता है? या तो दोनों सत्य हैं, या दोनों असत्य हैं। मगर दोनों समान हैं। दोनों में जरा भी मूल-भेद किया, तराजू में जरा भी तुमने बेईमानी की और डांडी मारी, कि एक पलवा नीचे और एक ऊपर, कि तुम्हारे जीवन में संतुलन खो जाएगा। और जहां संतुलन खो जाता है, वहीं जीवन उदास हो जाता है, रुग्ण हो जाता है।
पंचतंत्र की पुरानी कथा है: एक जंगल में आग लगी। उस जंगल में दो भिखारी रहते थे--एक अंधा और एक लंगड़ा। दोनों बचना चाहते थे। दोनों में दुश्मनी थी। भिखमंगे थे दोनों। एक ही धंधे में थे। एक ही धंधे में तो लोग दुश्मन होते ही हैं। एक-दूसरे से गलाघोंट प्रतियोगिता थी, भारी प्रतियोगिता थी। लेकिन दोनों जल्दी ही समझ गए कि खतरा भारी है; अभी धंधे का सवाल नहीं है, अभी सब झगड़े मिटा कर संग-साथ अगर न हो लिए तो दोनों मरेंगे। अभी जीवन और मृत्यु का सवाल है। न तो अंधा बच सकता था; हालांकि उसके पास पैर थे, भाग सकता था, लेकिन कहां भागे? उसे दिखाई नहीं पड़ता था। जंगल में चारों तरफ आग बढ़ती जा रही थी। कहीं लपटों में घुस जाए, कहीं लपटों से टकरा जाए, गिर पड़े किसी खाई-खड्ड में जहां आग लगी हो! पैर उठाना खतरे से खाली नहीं था। अब यह कोई ऐसा समय नहीं था सुविधा का कि टटोल-टटोल कर निकल जाए। टटोलने में ही खतरा था। और आग बढ़ती जा रही थी, उत्ताप बढ़ता जा रहा था। लपटें करीब आती मालूम हो रही थीं। लंगड़ा देख सकता था कि अभी भी बचने का उपाय है, लेकिन भाग नहीं सकता था क्योंकि पैर ही न थे।
दोनों ने समझ का काम किया। दोनों ने कहा, छोड़ें पुराना झगड़ा, हम संगी-साथी हो जाएं, हम सहयोग करें, हम साझीदार हो जाएं। लंगड़े ने कहा कि मुझे तुम अपने कंधों पर उठा लो, मैं तुम्हारी आंखें बन जाऊं, तुम मेरे पैर बन जाओ, तो हम दोनों बच जाएं। और दोनों बच गए। अंधे ने लंगड़े को कंधे पर उठा लिया। आंख और पैर दोनों हो गए साथ।
आज दुनिया की यही पीड़ा है। पश्चिम अतिशय जवान है। जवानी की अपनी भूलें होती हैं। जवानी अंधी होती है। जवानी जीने की क्षमता तो रखती है, लेकिन बुद्धिमत्ता नहीं रखती। पूरब बूढ़ा है। बुढ़ापे की अपनी झंझटें हैं। बुढ़ापे के पास बुद्धिमत्ता तो होती है, जीने की कला का तो उसे बोध होता है, लेकिन जीने की क्षमता खो गई होती है, ऊर्जा खो गई होती है। जरूरत है कि पूरब और पश्चिम दोनों मिल जाएं। जंगल में आग लगी है। अगर ये अंधे और लंगड़े नहीं मिले तो खतरा भारी है।
अब भारत चाहे कि हम अकेले बच जाएं तो गलती में है और अमेरिका चाहे कि हम अकेले बच जाएं तो गलती में है। न तो भौतिकवादी अकेला बच सकता है, न अध्यात्मवादी अकेला बच सकता है। इसलिए मैं एक नई जीवन दृष्टि तुम्हें दे रहा हूं, जो भौतिकवाद और अध्यात्म का समन्वय है। इस समन्वय में ही सारी मनुष्यता का बचाव है।
भारत को युवा होना होगा और अमेरिका को थोड़ी वृद्धावस्था की समझ, थोड़े पके बालों की समझ, थोड़ा अनुभव...। पूरब को थोड़ी ऊर्जा, पश्चिम को थोड़ा अनुभव। पूरब को थोड़ा विज्ञान, पश्चिम को थोड़ा अध्यात्म। और काश यह मेल बैठ सके तो पृथ्वी पर एक नये ढंग का सूर्योदय हो सकता है। और यह मेल बैठ सकता है। यहां कोई चालीस-पचास देशों के लोग मौजूद हैं। यह मेल बैठ रहा है। यहां कोई पूछता ही नहीं कि कौन किस देश से है। महीनों बीत जाते हैं, पता नहीं चलता कि कौन किस देश से है, कौन किस जाति का है। कभी आकस्मिक पता चल जाए तो चल जाए, नहीं तो पता ही नहीं चलता। कोई किसी से पूछता ही नहीं। यह बात पूछने की है ही नहीं। कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन ईसाई है, कौन यहूदी है, कौन पारसी है--किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। एक नई मनुष्यता, जहां मनुष्य होना काफी है!
मेरे संन्यास का विरोध पूरब में भी होगा और पश्चिम में भी होगा--हो रहा है। पूरब में विरोध हो रहा है, क्योंकि पूरब के लोग समझते हैं कि मैं संन्यास को सांसारिक बना रहा हूं। उनकी बात में थोड़ी सचाई है। निश्चय ही मैं संन्यास को सांसारिक बना रहा हूं। और पश्चिम के देशों में मेरी आलोचना चलती है। इटली में, जर्मनी में सैकड़ों लेख निकले हैं। हालैंड में, अब इंग्लैंड में भी शुरुआत हुई है। खासकर इटली के अखबारों में जो लेख निकले हैं, उनमें यह बात विशेष रूप से कही जा रही है कि मैं इटली के युवकों को भौतिकवादी दृष्टि से--जो कि सच्ची दृष्टि है, क्योंकि इटली के युवक कम्युनिज्म के बड़े प्रभाव में हैं--मैं इटली के युवकों को...। और इटली के युवकों और युवतियों की बड़ी संख्या है यहां। मेरे संन्यासियों में इटली का नंबर करीब-करीब तीसरा है: पहला अमेरिका, दूसरा जर्मनी, तीसरा इटली। और इटली के बहुत से युवक और युवतियां वहां के कम्युनिस्ट आंदोलन से ही आए हैं। तो वहां बड़ी बेचैनी है कि मैं कम्युनिस्टों को भ्रष्ट कर रहा हूं। मैं उनको अध्यात्म की शराब पिला रहा हूं, क्योंकि माक्र्स ने कहा है कि अध्यात्म अफीम का नशा है। मैं भौतिकवादियों को दिग्भ्रमित कर रहा हूं। मैं क्रांतिकारियों को धर्म का नशा पिला कर उनकी क्रांति नष्ट कर रहा हूं।
यहां पूरब के लोग कहते हैं कि मैं धार्मिक व्यक्तियों को सांसारिक बना रहा हूं। उनसे कहता हूं: त्यागो मत, भागो मत, जहां हो जीओ। और मौज से जीओ! और जीवन में दुख को अंगीकार करना कोई धर्म नहीं है। भीतर भी आनंद हो, बाहर भी आनंद हो। अधूरा क्यों? आधा-आधा क्यों? जहां पूरा चांद हमारा हो सकता है, वहां आधे चांद से क्यों राजी हों?
दोनों की आलोचना में थोड़ी सचाई है। सचाई इस बात की है कि यही मैं कर रहा हूं। पूरब को जरूरत है कि थोड़ा भौतिकवाद...नहीं तो पूरब के पैर उखड़ गए हैं। भारत को भौतिकवाद चाहिए, विज्ञान चाहिए, टेक्नॉलॉजी चाहिए, उद्योग चाहिए। पश्चिम को धर्म चाहिए, अध्यात्म चाहिए, ध्यान चाहिए, योग चाहिए, तंत्र चाहिए। और तब एक संतुलन होगा।
आनंद मैत्रेय, भारत युवा हो सकता है, लेकिन अतीत से हमें अपने मोह छोड़ने पड़ेंगे। अतीत से हम बुरी तरह बंधे हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, अतीत के आधार से कर रहे हैं। हम आज नहीं जीते। हम उधार जी रहे हैं। हमारे उत्तर कल के हैं, बीते कल के हैं। और परिस्थिति बिलकुल बदल गई है। न तो कृष्ण का उत्तर काम का है आज, न बुद्ध का उत्तर काम का है आज, न महावीर का उत्तर काम का है आज। हां, उसमें से सार ले लो, सुगंध ले लो। उससे बोध ले लो। लेकिन लकीर के फकीर नहीं। नहीं तो मुश्किल में पड़ोगे।
जैसे कृष्ण ने कहा अर्जुन को कि कर युद्ध! आज यह बात नहीं कही जा सकती। अगर कृष्ण आज फिर पैदा हों तो आज के अर्जुन से यह बात नहीं कह सकते। जैसे जिमी कार्टर से कहो कि कर युद्ध! कृष्ण इस तरह की भूल नहीं करेंगे। उस दिन ठीक था; तीर-कमान का युद्ध हो रहा था, क्या बनता-बिगड़ता था! कुछ लोग मरेंगे कि कुछ लोग बचेंगे, बहुत फर्क नहीं पड़ता था। खेल था, लीला थी। अब मामला खेल का और लीला का नहीं है। अब तो चुकता ही विनाश हो जाएगा। अब तो समग्र विनाश हो जाएगा। अब यह कोई तीर-धनुष की बात नहीं कि गांडीव गिर गया हाथ से अर्जुन के। एटम बम गिर जाए, हाइड्रोजन बम गिर जाए, तो गीता पैदा ही न हो; न कृष्ण बचें न अर्जुन। इसके पहले कि कृष्ण अर्जुन को विराट रूप दिखाएं, एटम बम दोनों को विराट रूप दिखा दे। आज नहीं यह बात कही जा सकती। आज की परिस्थितियों में, आज की बदली हुई परिस्थितियों में यह संदेश सार्थक नहीं हो सकता।
मगर यहां मुर्दा गीता ही पढ़े जा रहे हैं। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा हो जाता है, वह एक ही काम करता है, कि बस गीता पढ़ता है। अभी मोरारजी देसाई अचानक गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए हैं। मर क्या गए, मर्मज्ञ हो गए! अब और तो कोई पूछता नहीं। वेदांत-सत्संग-मंडल! वहां गीता पर प्रवचन करते हैं। कुछ बूढ़े-ठूढ़े सुनते हैं।
उत्तर बहुत पुराने हो गए हैं। और मैं यह नहीं कहता कि गीता में सार नहीं है। लेकिन लकीर के फकीर अब नहीं हुआ जा सकता। महावीर ने छोड़ा, घर-द्वार छोड़ो। बुद्ध ने घर-द्वार छोड़ा। उन परिस्थितियों में यह बात ठीक रही होगी, क्योंकि दोनों शोषक घरों में पैदा हुए थे। उनके पास जो भी था, सब चूसा हुआ था। उनके पास जो भी था, सब खून में सना हुआ था। इस सत्य को कोई खयाल नहीं करता। बुद्ध और महावीर ने जो छोड़ा, वह शोषण था, जबरदस्ती थी, लूट-खसोट थी। लेकिन अगर आज सभी लोग छोड़ने को ही तत्पर रहें, तो यह जीवन समृद्ध कैसे हो? और ये सभी भगोड़ों को कौन पाले, कौन पोसे? ये बुद्ध और महावीर भी इसीलिए जिंदा रह सके कि और सबने नहीं छोड़ दिया था। और सब काम में लगे हुए थे। बुद्ध और महावीर को भी भिक्षा तो मांगनी ही पड़ेगी। बुद्ध और महावीर को भी कपड़े तो मांगने ही पड़ेंगे, कहीं छत्रछाया तो मांगनी ही पड़ेगी। औषधि भी मांगनी पड़ेगी, जरूरत पड़ेगी। बीमार भी होंगे, वृद्धावस्था भी आएगी। अगर और सब भी छोड़ कर भाग गए होते, तो कौन भोजन कराने वाला होता?
मगर यह मूढ़तापूर्ण उत्तर अगर दोहराया जाए आज की परिस्थिति में तो खतरनाक साबित होता है।
जैन मुनि चलता है...तो जैन मुनि सिर्फ जैनों के घर से ही भोजन ले सकता है। अब कई गांव हैं जहां जैन घर होते ही नहीं, क्योंकि जैनों की संख्या ही कितनी है? कोई तीस-पैंतीस लाख, सत्तर करोड़ के मुल्क में! सैकड़ों गांव हैं, जहां कोई जैन नहीं होते। और जैन मुनि को तीर्थयात्रा करनी पड़ती है, तीर्थों तक जाना पड़ता है, बीच में अनेक गांव पड़ते हैं जहां जैन नहीं होते। और वह जैनों के अतिरिक्त और कहीं भोजन ले नहीं सकता। वह सिर्फ जैनों के घर ही भोजन ले सकता है। तो साथ में चौके चलते हैं। अब मजा देखना। यह आदमी ने घर छोड़ दिया, घर में एक ही चौका काफी था, एक ही चूल्हा काफी था। लेकिन जैन मुनि का नियम यह है--महावीर चूंकि भिक्षा मांगते थे--एक ही घर से भिक्षा न मांगी जाए। ठीक थी बात, क्योंकि एक ही घर पर बोझ ज्यादा न पड़े। यह बात समझ में आती है। महावीर की बात में बल है। चार-छह घर से मांग लेना। कहीं से रोटी मांग ली, कहीं से दाल मांग ली, कहीं से चावल मांग लिया। किसी पर बोझ भी दे सके। किसी को विशेष रूप से भोजन निर्माण भी न करना पड़े, यह भी महावीर की आयोजना थी। क्योंकि मेरे लिए ही विशेष रूप से भोजन तैयार हो, तो फिर मेरे छोड़ने का क्या अर्थ हुआ? इसलिए अचानक किसी के भी द्वार पर खड़े हो जाएंगे। और जब अचानक खड़े हो जाएंगे तो तैयारी हो न हो, लेकिन जिस घर में चार-छह आदमी रहते हैं, वहां इतना भोजन तो बनेगा ही कि एक मुट्ठी भर किसी को भी दिया जा सके। एक मुट्ठी देने में कोई अड़चन न आ जाएगी। इतना तो फिंक ही जाएगा। इतना तो वैसे ही बच जाएगा। इसलिए चार-छह घर से मांग लिया। यह बात समझ में आती है।
लेकिन अब यह जैन मुनि चार-छह घर से मांगेगा, यह नियम हो गया। देखते हैं लकीर के फकीर किस तरह लोग पैदा हो जाते हैं! तो इसके साथ एक मौका नहीं चलता, इसके साथ दस-पंद्रह चौके चलते हैं। सो दस-पंद्रह परिवार...और जहां यह ठहरेगा वहां दस-पंद्रह परिवार अलग-अलग तंबू बांध कर रोज भोजन बनाएंगे। एक आदमी के लिए पंद्रह परिवार भोजन बनाएंगे, क्योंकि यह पुराने नियम का पालन करेगा। फिर यह मांगने जाएगा भिक्षा। इसके लिए ही इंतजाम हो रहा है। सब इसके साथ चल रहे हैं। इसको भी पता है, उनको भी पता है। मगर क्या धोखा! कैसा धोखा! फिर यह मुट्ठी-मुट्ठी लेगा। एक जगह से नहीं लेगा, क्योंकि किसी पर भार न पड़े। अब यह उचित होगा कि एक जगह से ले ले, कम भार पड़ेगा; क्योंकि पंद्रह जगह भोजन बनेगा, सब फिंकेगा। और यह मुट्ठी-मुट्ठी लेगा। और पंद्रह चूल्हे जलेंगे, पंद्रह जगह ईंधन लगेगा, पंद्रह जगह लकड़ी जलेगी। यह सब हिंसा होगी। और पंद्रह परिवारों का चलना...तो लश्कर चलेगा पूरा का पूरा। एक नंगे आदमी को भोजन कराने के लिए लश्कर चलेगा। एक पूरा नगर जहां जाएगा वहीं एक उपद्रव...!
लकीर के फकीर होने से खतरा पैदा हो जाता है। तो मैं यह नहीं कहता कि अतीत से हम सीखें न। अतीत से सीखना जरूरी है। लेकिन अतीत को हम दोहराएं न। अतीत से बोध लो। उन सब फूलों की गंध ले लो। मगर उन सड़े-गले फूलों को मत ढोए फिरो। गंध पहचान लो और जो भूलें की हों वे पहचान लो।
बड़ी एक भूल की है हमने इस देश में कि हमने बाहर को मिथ्या कहा, झूठा कहा, असत्य कहा। जब तुम बाहर को मिथ्या कह दोगे तो फिर हमने बाहर की कोई खोज न की।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि गणित की सबसे पहले खोज हमने की। मगर आइंस्टीन फिर हमारे यहां क्यों पैदा नहीं हुआ? हम कभी का आइंस्टीन पैदा कर सकते थे। गणित की पहली खोज हमने की थी। इसलिए गणित के जो अंक हैं, वे भारतीय हैं सारी दुनिया में। अंग्रेजी में भी एक, दो, तीन, चार, पांच...जो तुम लिखते हो वे सब भारतीय ही अंकों के अलग रूप हैं। अंग्रेजी में भी एक, दो, तीन, चार के लिए जो शब्द हैं वे भी भारतीय रूपी हैं। त्रि के लिए थ्री। अष्ट के लिए एट। नौ के लिए नाइन। दो के लिए इटेलियन में तो दो ही है; अंग्रेजी में दो टू हो गया। चलते-चलते...यात्रा होती है शब्दों की। दो से द्व हुआ, द्व से ट्व हुआ, ट्व से टू हो गया, लेकिन वह दो का ही रूप।
सबसे पहले गणित की खोज भारत ने की। फिर हम पिछड़ क्यों गए? हम पिछड़ इसलिए गए कि बाहर तो सब मिथ्या है। इस मिथ्यावाद की धारणा ने, इस मायावाद की धारणा ने हमारे प्राण के लिए। नहीं तो हम आज दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध कौम होते। क्योंकि सबसे पहले हमने शुरुआत की थी, हम होते पहले जो चांद पर पहुंचते। मगर हम चांद पर पहुंचें कैसे, बाहर तो सब मिथ्या है! हमारे महात्मागण एक ही बात समझाते रहे: मिथ्या, मिथ्या! माया, माया! यहां जो देखो वही कह रहा है कि माया-ममता में न उलझो। बाहर क्या रखा है! जीओगे बाहर, श्वास बाहर से लोगे--और बाहर सब माया है! पानी बाहर का पियोगे, नहीं तो मर जाओगे। भोजन बाहर से ले जाओगे भीतर, नहीं तो खात्मा। और बाहर मिथ्या है! मिथ्या भोजन कर रहे हो रोज! और महात्मा भी कर रहे मिथ्या भोजन रोज!
मैं रायपुर में रहता था। एक महात्मा द्वार पर आकर भिक्षा मांगने खड़े हो गए। मैंने कहा कि जरूर भिक्षा दूंगा, आपका बाहर के संबंध में क्या खयाल है? उन्होंने कहा, सब मिथ्या है। तो मैंने कहा कि मिथ्या काम मुझसे करवाइएगा! और भोजन की जरूरत क्या है? मिथ्या भोजन...जब मिथ्या ही भोजन करना है तो यह रही थाली, यह डाल दिया मैंने भोजन, तुम करो और मजा करो। न भोजन डालने की जरूरत है, न थाली लगाने की जरूरत है। और जब मिथ्या ही है तो सिर्फ कल्पना ही कर लो। बैठ गए अपने, कल्पना कर ली, भोजन कर लिया, खतम हो गई बात। प्यास लगी, कल्पना कर ली, पी लिया, तृप्त हो गए। जब बाहर सब माया ही है तो क्या भीख मंगानी, क्या भोजन करना, क्या...!
लेकिन बाहर मिथ्या नहीं है। तुम्हारे महात्मा भी भलीभांति जानते हैं कि बाहर मिथ्या नहीं है। किसी महात्मा को एकाध चपत लगा कर देखो, फौरन डंडा उठा लेगा। और तुम फिर कितना ही कहो कि बाहर तो सब मिथ्या है, चपत का क्या, अरे कैसी चपत, किसने मारी, सब सपना है! सपने में चपत लगी है, आप नाहक डंडा उठा रहे हैं, नाहक शोरगुल मचा रहे हैं! इतना क्या शोरगुल?
शंकराचार्य कहते हैं बाहर माया है। वे माया के सबसे बड़े प्रचारक। और एक शूद्र ने उनको छू लिया और एकदम नाराज हो गए, एकदम क्रुद्ध हो गए। ब्राह्मण की तो नाक पर ही क्रोध रखा रहता है। एकदम शाप देने को ही थे कि उस शूद्र ने कहा कि ठहरिए, आप तो कहते हैं बाहर सब मिथ्या है। तो मैं भी मिथ्या। कौन शूद्र, कौन ब्राह्मण! आप क्यों इतने नाराज हो रहे हैं?
लेकिन उस नाराजगी में उनको याद भी न रहा अपना वेदांत, दर्शन और मायावाद। उन्होंने कहा कि मैं नहा कर अभी गंगा से लौटा, तूने सब गड़बड़ कर दिया। उसने कहा, गंगा! नहाना! सब मिथ्या, सब माया। कहां की गंगा, किसने नहाया, किसने धोया! आप भी क्या बातें कर रहे हैं!
शंकराचार्य को तब थोड़ा होश आया कि वह बात तो ठीक कह रहा है। और जो बात बड़े-बड़े पंडित शंकराचार्य को नहीं समझा सके थे, वह उस शूद्र ने समझा दी। झुक कर उसे नमस्कार किया और कहा कि मुझे क्षमा करना। ठीक ही तो कहते हो, कौन शूद्र, कौन ब्राह्मण! क्या पवित्रता, क्या अपवित्रता!
मगर इससे कुछ भेद नहीं पड़ गया। यह सब समझने के बाद वे फिर गंगा गए। क्योंकि शूद्र ने छू लिया तो फिर नहाना पड़ेगा न। यह सब समझ जैसे काम नहीं करती! फिर गंगा में नहाया कि शूद्र ने छू दिया तो सब छुटकारा-सफाई तो हो जाए। फिर मंदिर की पूजा करनी है।
तुम्हारे महात्मा भी मानते तो सत्य ही हैं, कहते रहते हैं माया। क्योंकि सत्य है; तुम्हारे कहने से असत्य हो जाएगा? इस देश की बड़ी से बड़ी भूल हो गई: मायावाद। हमें मायावाद से छुटकारा पाना होगा और हमें जीवन के सत्य को स्वीकार करना होगा, अंगीकार करना होगा, स्वागत-अभिनंदन करना होगा। आत्मा सत्य है, देह भी सत्य है! अंतर का जगत सत्य है, बहिर्जगत भी सत्य है। दोनों परमात्मा के रूप हैं। यह संसार परमात्मा की काया और इसमें छिपी हुई जो चेतना है वह परमात्मा की आत्मा है। यह उसका नृत्य हो रहा है। वह नर्तक है।
तो भारत अभी जवान हो सकता है। और भारत जवान हो जाए तो भारत के ही हित में न हो, सारी मनुष्य-जाति के हित में हो। क्योंकि भारत का मतलब होता है दुनिया का कम से कम एक बटा छह हिस्सा। इतना बड़ा हिस्सा अगर जड़ रहे, मुर्दा रहे...तुम्हारे शरीर का एक बटा छह हिस्सा अगर मुर्दा हो जाए तो तुम्हें मुश्किल हो जाएगी। एक बटा छह हिस्से को समझ लो कि लकवा लग गया तो तुम लंगड़ाओगे, चल न पाओगे, उठोगे तो मुश्किल होगी। भारत बड़ा देश है! करीब-करीब एक महाद्वीप है। इसकी पंगुता सारी पृथ्वी को पंगु किए हुए है। इसे इसकी पंगुता से छुटकारा दिलाना ही है।
तो पहली बात: माया से छुटकारा। दूसरी बात: चूंकि हमने माया पर जोर दिया, इसलिए त्याग पर जोर दिया, क्योंकि जो-जो माया है उसको छोड़ो। और छोड़ने की हमने बड़ी महिमा गाई। इसका परिणाम यह हुआ कि सृजनात्मकता हमारी खो गई। त्याग मूल्यवान हो गया, सृजन मूल्यहीन हो गया। और सृजन ही मूल्यवान होना चाहिए।
अगर तुमसे कोई पूछे कि तुम महात्मा जी के पास जाते हो, क्या खूबी है? तो तुम क्या बताओगे? यही बताओगे कि वे सिर्फ एक बार भोजन करते हैं, कि सिर्फ लंगोटी लगाते हैं, कि सर्दी में भी उघाड़े रहते हैं, कि कांटों पर सोते हैं। कि शरीर तो देखो उन्होंने कैसे सुखा कर बिलकुल हड्डी कर लिया है! कि कैसा त्याग, कैसा तप! मगर इसका क्या मूल्य है? सृजनात्मकता क्या है? इस आदमी ने दिया क्या दुनिया को? इसने दुनिया के सौंदर्य को बढ़ाया? इसने दुनिया में थोड़ा काव्य बढ़ाया, थोड़े गीत जन्माए? इसने दुनिया को थोड़ा प्रेम दिया, आनंद दिया? यह थोड़ी मस्ती लाया? इसने दुनिया को जैसा पाया था, उसको थोड़ा रंग दिया, थोड़ा ढंग दिया? यह कह सकेगा जाते वक्त कि मैं दुनिया को थोड़ी बेहतर करके छोड़ जा रहा हूं जैसा मैंने पाया था थोड़ा साफ-सुथरा किया है उसे? थोड़ा सौरभ दिया है, सुगंध दी है? यह कुछ भी नहीं कह सकेगा।
तुम अपने महात्मा की प्रशंसा इसलिए नहीं करते कि वह सुंदर वीणा बजाता है। और अगर कोई महात्मा की प्रशंसा इस तरह करे कि वह बहुत सुंदर वीणा बजाता है, तो तुम कहोगे: इससे महात्मा होने का क्या संबंध? वीणावादक होगा, लेकिन महात्मा होने का क्या संबंध? कि सुंदर मूर्ति बनाता है, तो तुम कहोगे: होगा मूर्तिकार, लेकिन महात्मा होने का क्या संबंध? कि उसका जीवन तो देखो, कितना प्रसादपूर्ण है, कितना लालित्यपूर्ण है। तो तुम कहोगे: होगा संस्कारी, मगर महात्मा? महात्मा तो त्याग से होता है कोई!
तो माया के सिद्धांत का एक परिणाम यह हुआ कि जो छोड़े। अब माया को सुधारना क्या है, छोड़ना ही है। झूठ छोड़ा ही जा सकता है, झूठ को सुधारोगे क्या? जो है ही नहीं, उसको सुंदर कैसे बनाओगे? पागल है जो अनस्तित्व को सुंदर बनाने की कोशिश करे।
तो हमने एक तरह की असृजनात्मक परंपरा पैदा की। उसका परिणाम होने वाला था। हमारे प्रतिभाशाली सारे लोग इसी उपद्रव में उलझ गए। कोई उपवास कर रहा है, कोई सिर के बल खड़ा है; कोई शरीर को गला रहा है, सड़ा रहा है। और हम सब इनको आदर दे रहे हैं। ये ही सारे लोग आइंस्टीन बन सकते थे। ये ही सारे लोग निजिंस्की बन सकते थे। ये ही सारे लोग बड़े कवि होते, बड़े मूर्तिकार होते, बड़े वैज्ञानिक होते।...तो हमने सारी प्रतिभा को गलत दिशा दे दी--एक असृजनात्मक दिशा में संलग्न कर दिया।
हमारे देश में जो भी प्रतिभाशाली व्यक्ति है वह छोड़-छाड़ कर संन्यासी हो जाता है। प्रतिभा का यहां एक ही उपयोग है कि भागो, छोड़ो। छोड़ने से मिलेगा क्या जगत को? तुम और कुरूप कर देते हो जगत को। वैसे ही जगत काफी कुरूप है, तुम और एक गङ्ढे बन जाते हो गंदगी के। मगर हम गंदगी को भी बड़ा सम्मान देते हैं, गंदगी में अध्यात्म मानते हैं। अगर कोई आदमी जहां पाखाना करे वहीं बैठ कर भोजन भी करे, तो हम कहते हैं--परमहंस है! हम भी अदभुत लोग हैं, कि देखो कैसा अद्वैतवाद है, इसको भेद ही नहीं है! इसको मल-मूत्र में और भोजन में कोई भेद ही नहीं है? यह निपट बुद्धू हो सकता है, मूढ़ हो सकता है, लेकिन परमहंस होने का इससे क्या संबंध है? हम इसको खूब आदर देते हैं। हम कहते हैं कि यह देखो, अद्वैत को उपलब्ध हो गया। यह भी अभी इतने अद्वैत को उपलब्ध नहीं हुआ कि मल ही भोजन करने लगे। भेद तो इसको भी होगा, क्योंकि करता भोजन ही है। हां, मल-मूत्र पास पड़ा रहता है, तो इसमें कुछ अड़चन नहीं है बहुत। यह तो सिर्फ अभ्यास की बात है। यह तो भंगी जो रोज पाखाना ढोते रहते हैं, उनको पाखाने में कोई बदबू नहीं आती, उनको तुम परमहंस कहोगे? सिर पर रखे मस्त, फिल्मी गाना गाते हुए चले जा रहे हैं--इनको परमहंस नहीं कहते तुम! और क्या परमहंस अवस्था होगी, कि सिर पर मल-मूत्र ढो रहे हैं और फिल्मी गाना गा रहे हैं! कोई भेद-भाव ही नहीं है कि यह गाना गाने का वक्त नहीं है। नाक-भौंह भी नहीं सिकोड़ रहे हैं। यह सिर्फ अभ्यास है।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था, वहां किसी ने मुझे कहा कि हमारे गांव में एक परमहंस हैं। मैंने कहा, क्या खूबी है? कहा, उनकी खूबी बड़ी अजीब है। वे जिस पत्तल में खाते हैं उसमें कुत्ते भी खाते हैं। यह उनकी खूबी है। मैं निकलता था रास्ते से तो एक झाड़ के नीचे चल रहा था यह महाकार्य कि वे भी भोजन कर रहे थे और कुत्ते भी भोजन कर रहे थे। उनको देख कर ही मुझे लगा कि यह आदमी अपरिपक्व मालूम होता है। यह बुद्धि से विकसित नहीं मालूम होता। उसके मुंह से लार टपक रही थी। उसके चेहरे ही से लग रहा था कि यह मंदबुद्धि है। तो मैंने उनसे कहा कि भैया, कुत्तों का आदर करो, कि कुत्ते क्यों इसके साथ भोजन कर रहे हैं! ये कुत्ते परमहंस हैं। कोई ढंग का खानदानी कुत्ता हो तो इसके साथ भोजन नहीं कर सकता। साफ इनकार कर देगा। ये कुत्ते आवारा हैं।
उन्होंने कहा, आप भी क्या बात करते हैं! अरे आपको मालूम नहीं है कि ये परमहंस...उनका बड़ा प्रताप है। वे दिन भर चाय पीते रहते थे और आधा कप ली लें, उसमें उनकी लार टपक रही है और वे किसी को पकड़ा दें। वह प्रसाद। जो उसको पी ले वह श्रद्धावान! निश्चित ही श्रद्धावान ही पी सकता है! और लोग कहते कि जिसने भी पी ली उनकी चाय, उसको लाभ ही लाभ है। तो लोग बैठ रहते उनके पास, पी जाते! लाभ क्या है? कोई मुकदमा लड़ रहा है, कोई चुनाव लड़ रहा है। चुनाव लड़ने के वक्त नेतागण पहुंच जाते हैं कि अगर बाबा की चाय मिल जाए...! आदमी क्या-क्या करने को राजी नहीं हो जाता! और अब सौ लोग बाबा की चाय पीएंगे, उसमें से कुछ तो मुकदमा जीतेंगे ही। न पीते तो भी जीतते। आखिर कोई तो मुकदमा जीतेगा। दो आदमी लड़ेंगे तो एक तो जीतने ही वाला है। तो पचास प्रतिशत तो संयोगवशात होने ही वाले हैं। जो नहीं जीतेंगे, जो नहीं चुनाव में जीतेंगे, उनको बाबा के भक्त समझाने वाले होते थे कि तुम्हारे पीने में पूरी श्रद्धा नहीं रही। और यह बात भी उनको जंचती, क्योंकि श्रद्धा किसको पूरी हो सकती है! आदमी किसी तरह गटक जाए, लार टपकती देख रहा है सामने, तो भीतर तो प्राण सकपका रहे हैं, संदेह उठ रहा है। तो किसी तरह पी रहा है, क्योंकि लोभ में पड़ा है। जानता तो है ही कि अगर अपना वश चले तो इसी वक्त फेंक दूं। मगर मुकदमा जीतना है, चुनाव लड़ना है, तो पीए ले रहा है। तो बाबा के भक्त कहते हैं कि तुमने श्रद्धा से नहीं पिया। और यह बात उनको माननी पड़ेगी कि श्रद्धा में कमी रह गई। और जो जीत गया, उसने श्रद्धा से पिया। सो वह अपनी कमी खुद भी भूल जाता है, दूसरे भी भूल गए, जब जीत गए तो जीत गए। अब क्या? सवाल ही नहीं उठता। और जो जीत गया वह खबरें फैलाता है, वह प्रचार करता है कि भई अदभुत है, चमत्कार है! और जो हार गया वह चुप रहता है, क्योंकि इससे और अपनी बदनामी होगी कि श्रद्धा की कमी थी। इस तरह इस दुनिया में बड़े खेल चलते हैं और इनको तुम सम्मान देते हो।
सृजनात्मकता को सम्मान दो। उस आदमी को सम्मान दो जो कुछ निर्माण कर रहा हो।
मैं अपने संन्यासियों को चाहता हूं, वे सृजनात्मक हों, जीवन को कुछ दें। लेकिन हमारी संन्यास की धारणा अजीब है। यहां पुराने ढब के संन्यासी आ जाते हैं, वे कहते हैं, यह क्या मामला है कि संन्यासी फर्नीचर बना रहे हैं, कि संन्यासी जूते बना रहे हैं, कि संन्यासी कपड़े बुन रहे हैं, कि संन्यासी मकान बना रहे हैं? संन्यासी काम में लगे हैं! काम में लगने की बात ही संन्यास नहीं है। संन्यासी को तो निकम्मा होना चाहिए। उसको तो एक झाड़ के नीचे बैठा रहना चाहिए। संन्यासी का तो एक ही काम है कि दूसरों को सेवा करने दे। यही महान कार्य कर रहा है वह संसार में कि तुमको सेवा करने दे रहा है, क्योंकि सेवा से मेवा मिलता है। करोगे सेवा तो पाओगे मेवा! और उस बेचारे का त्याग तो देखो कि खुद सेवा छोड़ कर तुम्हें सेवा करने दे रहा है! खुद मेवा छोड़ रहा है, तुम को मेवा पाने का मौका दे रहा है, और क्या, इससे बड़ा और क्या त्याग होगा?
लेकिन मेरा संन्यासी सेवा नहीं लेना चाहता है। किसी की सेवा की कोई जरूरत नहीं है। सृजनात्मक होना चाहिए।
लेकिन हमारी धारणाएं बड़ी पुरानी हो गई हैं, जड़ हो गई हैं। उन जड़ धारणाओं के कारण हम नये को स्वीकार नहीं कर पाते। चूंकि मेरे संन्यासी चीजें पैदा करते हैं, चीजें बनाते हैं--और किस श्रम से बनाते हैं, और किस सौंदर्य से बनाते हैं! कितने प्राण उसमें डालते हैं!--तो इनकमटैक्स अधिकारियों को अड़चन है। वे कहते हैं, यह कैसा आश्रम! वे इसको चैरिटेबल ट्रस्ट मानने को राजी नहीं हैं, क्योंकि चैरिटेबल ट्रस्ट का मतलब यह होता है कि दान पर जियो। और मैं तो दान नहीं मांगता। मेरी तो चेष्टा यह है कि जल्दी हम दान देना शुरू करेंगे। चैरिटेबल ट्रस्ट का मेरे लिए तो यही मतलब होता है कि जो दान दे। लेकिन इनकमटैक्स वाले मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी बुद्धि में नहीं समाती बात। आज सालों से मुकदमा चल रहा है। मैं वकीलों को समझा-बुझा कर भेजता हूं। पहले तो उनकी समझ में नहीं आती। किसी तरह उनकी समझ में आती है तो वहां आफिसर्स सिर पीटते हैं। वे कहते हैं कि अभी तक ऐसा कोई चैरिटेबल ट्रस्ट नहीं है, क्योंकि इसकी कमाई होती है। तो मैं उनको कहता हूं कि होनी ही चाहिए कमाई। जहां इतने लोग श्रम करेंगे, वहां कमाई होनी चाहिए। लेकिन कमाई हमारा लक्ष्य नहीं है। तो उनके प्राण पर बड़ा संकट है। वे कहते हैं, दान पर जीओ, दान मांग कर जीओ। नहीं तो टैक्स चुकाओ। जैसे कि स्वावलंबी होना अपराध है!
धारणाएं सदियों-सदियों में बन जाती हैं और फिर हम उनसे जरा भी सरकने को राजी नहीं होते, इंच भर सरकने को राजी नहीं होते। यही भारत की जड़ता है।
संन्यास को नया ढंग देना है, नया रंग देना है, नया रूप देना है। धर्म को नई परिभाषा देनी है।
और जीओ! भगोड़ेपन में नहीं भारत का भविष्य है। जीओ, सघनता से जीओ! त्वरा से जीओ! परिपूर्णता से जीओ! जो भी कर रहे हो, उसे परमात्मा की सेवा समझो। जो भी कर रहे हो, उसे समझो कि वही उपासना है, वही प्रार्थना है, वही पूजा है। तो बहुत फूल खिल सकते हैं इस बगिया में। इस बगिया की बड़ी क्षमता है। जहां बुद्ध हुए, जहां कृष्ण हुए, जहां कबीर हुए, जहां नानक हुए, जहां फरीद हुए, जहां बुल्लाशाह हुआ, जहां अदभुत लोग हुए हैं--उन सब के बीज हैं इस भूमि में, उन सबकी वसीयत है हमारे पास। हमारे पास उन जैसे ही होने की क्षमता है। लेकिन एक बात खयाल रखना: उनका वक्त गया, उनका समय गया। इसलिए तुम उनकी नकल नहीं हो सकते हो। तुम्हें होना पड़ेगा नये ढंग से! नई परिस्थिति में, नई चुनौती में तुम्हें नया उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा।
मेरा संन्यासी नई हवा, नई परिस्थिति का सामना करने की तैयारी कर रहा है। और उसका सामना करने में ही व्यक्ति युवा रहता है। और परिस्थिति रोज बदल जाती है, खयाल रखना। और उत्तर पुराने मत ढोते रहना। इसलिए मैं तुम्हें उत्तर नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें दृष्टि देना चाहता हूं। दृष्टि मिलती है ध्यान से। मैं तुम्हें इतनी दृष्टि देना चाहता हूं कि हर परिस्थिति में तुम अपना उत्तर खोज सको। पुरानी प्रक्रिया यह थी कि तुम्हें बंधे-बंधाए उतर दे दिए जाएं। बस तुम दोहराने लगो उत्तर। रट लो उत्तर।
जिंदगी कुछ ऐसा नहीं है कि यहां दो और दो चार, बस ऐसे उत्तर से काम चल जाएगा। यहां कभी दो और दो पांच भी हो जाते हैं, कभी दो और दो तीन भी रह जाते हैं। जिंदगी का गणित कोई सीधे सपाट रास्तों की तरह नहीं है; बड़ी उलझी पगडंडियों की तरह है। यहां चीजें थिर नहीं हैं, प्रतिपल बदल रही हैं। यहां इतनी जागरूकता चाहिए कि तुम देख सको कि चीजें बदल गई हैं। चीजें बदल गई हैं तो उत्तर बदलेगा। चीजें बदल गई हैं तो तुम्हें नये उत्तर खोजने पड़ेंगे। परिस्थितियां बदल गई हैं तो तुम्हें सोचना पड़ेगा फिर से।
पुराने संन्यासी को आज्ञा थी कि वह पैदल चले। चूंकि बैलगाड़ी पर बैठना, बैलों को सताना था। घोड़े पर बैठना घोड़े को सताना था। पशुओं के साथ अत्याचार था। वह अब कार में भी नहीं बैठता। अब कार में तुम किसको सता रहे हो! अब पैदल चलने का मतलब अपने को सताना है। घोड़े-गधे को तो छोड़ा और खुद को सता रहे हो! यह देह भी तो आखिर उसी परमात्मा की है। जिसकी गधे और जिसकी घोड़े की देह है, उसी की देह यह भी है। अब तुम इसको सता रहे हो! कार में तो कोई अड़चन नहीं है, कोई घोड़े नहीं जुते हैं। हालांकि पुरानी आदतवश हम अब भी कहते हैं कि इतने हॉर्स-पावर की गाड़ी है। हॉर्स वगैरह कुछ नहीं है अब वहां। कहां का घोड़ा!...वे रेलगाड़ी में भी नहीं बैठ सकते। रेलगाड़ी तो बिलकुल ही अहिंसात्मक है। कार में तो समझ लो कि रास्ते पर चलती है, कीड़े-मकोड़े दब जाते होंगे। रेलगाड़ी तो पटरी पर चलती है, वहां कहां कीड़े-मकोड़े! तो उसी पटरी पर इतनी रेलगाड़ियां दौड़ती हैं कि कभी के मर चुके होंगे, कोई जैन मुनियों के लिए थोड़े ही बैठे रहेंगे कि आओ महाराज, हम मरें और तुम नरक जाओ, कि तुम्हें नरक भेज कर ही रहेंगे। रेलगाड़ी की पटरी देखते हो, कैसी चांदी की तरह चमकती है! इससे तो पैदल चलने में ज्यादा मर जाएंगे। तो जैन मुनियों को तो पैरों की जगह पहिए लगा लेने चाहिए। और पटरियां और चले जा रहे हैं पटरियों पर--जिसमें कोई अहिंसा-हिंसा का सवाल ही नहीं उठता।
परिस्थितियां और थीं, तब यह बात समझ में आती है कि घोड़े पर बैठना और घोड़े को मारना या बैलों पर कोड़े चलाना--हिंसा थी। मगर अब? अब तो कोई अड़चन की बात नहीं है। मगर अगर कोई महात्मा साइकिल पर बैठा मिल जाए तो भ्रष्ट हो गया! साइकिल पर बैठा है! कभी कोई महात्मा साइकिल पर बैठता है! कि कलियुग आ गया! देख कर ही महात्मा को, कहा कि कलियुग आ गया, देखो महात्मा जी साइकिल पर बैठे हैं! और यह परिस्थिति अब रोज-रोज तीव्रता से बदलेगी। चलो छोड़ो, तुम्हें जमीन पर, रेलगाड़ी में दिक्कत है, हवाई जहाज में तो कोई दिक्कत नहीं है, वहां तो पटरी भी नहीं है। वहां तो कीड़े-मकोड़े कहां बैठेंगे? हवाई जहाज में बैठो। उसमें भी नहीं बैठ सकते! पाप लग जाएगा!
उत्तर सब पुराने पड़ गए हैं और स्थिति सब नई हो गई है। उनका कहीं तालमेल नहीं हो रहा है। इससे बुढ़ापा है, इससे जड़ता है।
आनंद मैत्रेय, यह जड़ता मिट सकती है, एक नये जन्म की जरूरत है। लेकिन पुराने को छोड़ना मुश्किल तो होता है, कठिन तो होता है, पर छोड़ा जा सकता है। और समय आ गया है कि छोड़ना पड़ेगा। नहीं छोड़ोगे तो मरोगे। छोड़ोगे तो नया जीवन हो सकता है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
जाएंगे कहां, सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं ख्वाब दम-बदम।

राम सरस्वती,
जाना कहीं है ही नहीं। जाने की बात ही अहंकार की बात है। कुछ पाना है, कुछ होना है--ये सब आकांक्षाएं, ये सब वासनाएं, अहंकार की यात्राएं हैं।
संन्यासी को न कहीं जाना है, न कुछ होना है। जो है, पर्याप्त है। जैसा है, वैसा आनंदित है।
संन्यास का अर्थ होता है: परम संतोष। अपने होने में गहरी तृप्ति।
तुम पूछते हो: "जाएंगे कहां, सूझता नहीं।'
जाना कहीं है नहीं। तुम वहीं हो जहां जाना है। तुम परमात्मा में ही हो, अब और कहां जाना है? जैसे मछली सागर में है, अब और कहां जाना है? जाने की झंझट में पड़ी तो किसी दिन पहुंच जाएगी किनारे पर, फिर तड़फेगी। जाने वाले सब इसी तरह किनारों पर पहुंच जाते हैं। कोई धन के किनारे पर पहुंच जाता है, फिर तड़फता है, कि अरे जिंदगी हाथ से गई, यह क्या मैंने कर लिया! और कोई पद के किनारे पर पहुंच जाता है और फिर तड़फता है, फिर भुनता है तप्त रेत में। मगर अब किसी को कह भी नहीं सकता, क्योंकि कितनी मेहनत करके तो मछली ने छलांग लगाई! कितनी तो मछलियों ने खींचातानी की। दूसरी मछलियां भी कोशिश कर रही थीं। कोई पीछे से खींच रहा था, कोई आगे से धक्का मार रहा था। बड़ी प्रतियोगिता थी। फिर कोई मछली एकदम चढ़ गई किनारे पर और राष्ट्रपति हो गई। फिर तड़फ रही है। अब प्राण सकपका रहे हैं। मगर अब करें क्या! अब संकोचवश...वापस जाते भी नहीं बनता। आखिर थूका, उसको फिर चाटते भी नहीं बनता। अब एक दफा भूल कर ली, अब बार-बार भूल करते भी नहीं बनता।
मुल्ला नसरुद्दीन को तनख्वाह मिली। सौ रुपये ज्यादा मिल गए। दो सौ के नोट चिपके हुए चले आए। मिलने थे सात सौ, ले आया आठ सौ। रास्ते में गिने, बड़ा प्रसन्न हुआ। जब शाम को खजांची ने गिनती की तो उसे समझ में तो आ गया कि सौ-सौ के नोट उसने सिर्फ मुल्ला को दिए हैं और एक नोट ज्यादा चला गया है। सौ रुपये कम हो रहे हैं। वह भी चुप रहा, देखा कि कल लौटता है, कल लाता है कि नहीं। वह काहे को लाए! इतना नासमझ है कोई अपने देश में? उसने तो परमात्मा को धन्यवाद दिया होगा कि हे प्रभु, सुन ली प्रार्थना! अरे देर है अंधेर नहीं! और जब देता है तो बिलकुल छप्पर फाड़ कर देता है। सौ का एकदम दिया!
दूसरे महीने खजांची ने सात सौ की जगह छह सौ रुपये ही दिए, सौ रुपये काट लिए। मुल्ला लेकर भागा, कि सोचा शायद फिर...बाहर आकर जल्दी से गिने, छह ही थे। लौटा, कहा कि गलती है गिनती में। कुल छह ही नोट दिए हैं। खजांची ने कहा, और पिछले महीने? मुल्ला ने कहा, सुनो जी, एक दफे गलती हो, हम छोड़ देते हैं। मगर बार-बार गलती हम बरदाश्त नहीं कर सकते।
अब एक गलती कर ली कि छलांग लगा गए, अब दूसरी गलती करके क्या और बदनामी करवानी है कि वापस कूदो पानी में, तो लोग कहेंगे, अरे भैया पहले ही कहा था! और लोग ऐसे हैं कि वे हमेशा ही यह कहते हैं कि भैया, पहले ही कहा था। कुछ भी करो तुम, वे कहते हैं, भैया पहले ही कहा था। हारो तो वे कहते हैं, पहले कहा था। जीतो तो वे कहते हैं, पहले कहा था। कि हम तो पहले ही कह रहे थे कि ऐसा होकर रहेगा। किसी को लाज-शरम ही नहीं आती इसी बात को कहने में। सभी को पता रहता है। भविष्य के तो सभी जानकार हैं। सभी ज्योतिषी हैं। कि हमने पहले ही कहा था।
पहले कोई नहीं कहता, सब बाद में बताते हैं कि हमने पहले कहा था! कि बन गए न बुद्धू! आना पड़ा न वापस! हमें भले। इसलिए तो हम कहीं न गए न हमने जाने की कोशिश की। हालांकि इन ने भी कोशिश की थी और इन ने भी बड़े हाथ-पैर मारे थे, मगर पहुंच न पाए थे। जब नहीं पहुंच पाते लोग तो कहते हैं: अंगूर खट्टे हैं। जो नहीं पहुंच पाते, वे अंगूरों को गालियां देने लगते हैं कि खट्टे हैं, हमें पहुंचना ही नहीं, हमें जाना ही नहीं, रखा ही क्या है! हारे हुए लोग कहने लगते हैं: अरे क्या सार है? और जरा इनकी आंखों में देखो, रुपया देखते से ही चमकने लगती हैं और कहते हैं, क्या सार है! अगर इनके जीवन की जांच-पड़ताल करो तो लगेगा कि वही आकांक्षाएं इनकी हैं। लेकिन स्वीकार नहीं करना चाहते कि हम हार गए, कि हम थक गए, कि हम न जीत पाए।
संन्यासी को तो, राम सरस्वती, कहीं जाना नहीं है। वह तो परमात्मा में है।
संन्यास अभीप्सा नहीं है, आकांक्षा नहीं है--संन्यास उत्सव है। हम जहां हैं वहीं आनंदित होने की कला है। परमात्मा में ही मौजूद हो, गाओ, गुनगुनाओ, नाचो! यह क्या पूछते हो--जाएंगे कहां, सूझता नहीं! अच्छा ही है कि नहीं सूझता। अगर सूझा, कि गए गड़बड़, कि कहीं उलटे-सीधे कुछ कर गुजरोगे। जिनको सूझता है, उनको तो देखो। कहते हैं लोग: अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! अंधों को अंधेरे में सूझती है और बड़ी दूर की सूझती है। आंख वालों को जरूरत ही नहीं सूझने की। अपने घर में बैठे हैं, कहीं जाना क्यों? मंजिल पर ही हो तुम। अगर ठहर जाओ तो मंजिल पर ही हो। और न ठहरो तो बहुत रास्ते हैं और रास्ता मिलेगा नहीं, और मंजिल कहां मिलेगी? रास्ते ही रास्ते हैं। और बड़ी बिगूचन होगी, बड़ी विडंबना होगी। यह पकडूं वह पकडूं, यह करूं वह करूं, क्या हो जाऊं क्या न हो जाऊं, कितने प्रलोभन हैं, कितने विकल्प खड़े हैं--सब बुलाते हैं, आओ! धन बुलाता है, पद बुलाता है; भोग बुलाता है त्याग बुलाता है; ज्ञान बुलाता है--सब बुलाते हैं--आओ। और सब बड़े प्रलोभन देते हैं, सब बड़े विज्ञापन करते हैं, कि मजा है तो यहां है, सुख है तो यहां है, स्वर्ग है तो यहां है। तुम किसकी सुनो, किसकी मानो! सो तुम आपाधापी में पड़ जाते हो। एक कदम इधर, एक कदम उधर रखते हो। कई नावों पर सवार हो जाते हो। फिर चारों खाने चित्त गिरोगे नहीं तो क्या होगा! फिर खंड-खंड न हो जाओगे तो क्या होगा! फिर पारे की तरह बिखर जाओगे। फिर इकट्ठा होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही हर आदमी बिखर गया है।
नहीं, कहीं नहीं जाना है। हम तो उसके राज्य में हैं ही। न स्वर्ग पाना है न मोक्ष। मेरी उदघोषणा यही है कि हम जहां हैं, अगर हम वहीं ठहर जाएं और थोड़ा विश्राम को उपलब्ध हों, थोड़े शांत हों, थोड़ा तन्मय हों, थोड़ा जुड़ें अस्तित्व से...भाग-दौड़ के कारण जुड़ नहीं पाते, फुरसत नहीं मिलती। और भाग-दौड़ जुड़ने भी नहीं दे सकती, क्योंकि संसार कहीं नहीं जा रहा है। अस्तित्व कहीं नहीं जा रहा है। अस्तित्व जहां का तहां है। अगर तुम थोड़े विश्राम को उपलब्ध हो जाओ...और विश्राम को ही मैं ध्यान कहता हूं। परम विश्राम को समाधि कहता हूं।...तुम अगर बैठ रहो थोड़ी देर को और सब शून्य हो जाए, सब मौन हो जाए, तो तत्क्षण तुम्हें अनुभव होगा, कि अरे, मैं क्यों भागा जाता था, किसके लिए भागा जाता था! वह तो मेरे भीतर विराजमान है। और तब जीवन में एक नई विधा और एक नया आयाम खुलता है, एक नया द्वार। फिर भी तुम बहुत कुछ करोगे, लेकिन अब करने का कारण और होता है। पहले तुम करते थे तो कुछ पाने के लिए करते थे; अब इसलिए करते हो कि कुछ पा लिया। और जब कुछ पा लिया, उस आनंद से कोई करना है, तो वह मिट्टी छुए तो सोना हो जाती है। वह जिस शब्द को छू ले उसमें काव्य आ जाता है। वह पत्तों को छू ले तो पत्ते फूलों में बदल जाते हैं। उसके हाथ में जादू हो जाता है। भिखमंगे की तरह नहीं होता वह आदमी; सम्राट की तरह होता है। उसके भीतर इतना आनंद होता है कि उसके ऊपर से बहा जाता है। उसके पास जो बैठ जाता है वह भी सरोबोर हो जाता है; वह भी भीग-भीग जाता है; वह भी रसमग्न हो जाता है। उसके पास बैठना जैसे शराब पी ली। उसके पास बैठे कि पियक्कड़ हुए। उसके पास बैठे कि मधुशाला में बैठे। उसका होना एक मयखाना है।
बेला महके सारी रात
किसके लिए?
मनवा बहके सारी रात
किसके लिए?

प्यास है ज्यों नशे में नहाई हुई,
सांस अपनी कि जैसे परायी हुई।
अश्रु की बूंद जैसे खरीदी हुई

है हंसी बन गई ज्यों चुराई हुई।
कांपते कंठ में
दीप-लौ की तरह
गीत लहके सारी रात
किसके लिए?

आंख की नींद आई-गई हो गई
उम्र बेचैनियों की नई हो गई।
बर्फ-सी चमचमाती हुई चांदनी
याद की बांह में सुरमई हो गई।
एक कंदील-सा
आसमां में टंगा
चांद दहके सारी रात
किसके लिए?

बेसुधी की नदी में डुबाया हुआ,
चेतना की लहर में बहाया हुआ।
प्राण में कौंधती बिजलियों की तरह
आ गया फिर वही बिन बुलाया हुआ।
झलमलाता हुआ
स्वप्न की झील में
रूप टहके सारी रात
किसके लिए?

बात जानी हुई भी अजानी हुई,
एक गुजरी हुई सी कहानी हुई,
जो अबोली चुभन थी कसकती हुई
अब गमकती हुई रातरानी हुई।
प्यार की कसमसाती
हुई रात में
दर्द डहके सारी रात
किसके लिए?
ये इतने फूल खिले, किसके लिए? इतने पक्षी गीत गा रहे, किसके लिए? ये चांद, ये तारे--किसके लिए? यह अस्तित्व अपने में मग्न है--किसी के लिए नहीं। इसका कोई गंतव्य नहीं है। यह अस्तित्व साधना नहीं है किसी साध्य का। यह अस्तित्व स्वयं साध्य है।
और ऐसी प्रतीति को ही मैं धर्म का अनुभव कहता हूं, चाहो तुम निर्वाण कहो, मोक्ष कहो, कैवल्य कहो, प्रभु-साक्षात कहो--जो शब्द तुम्हें प्यारा हो। लेकिन इस अनुभव को कि अस्तित्व किसी और चीज का साध्य नहीं है, न किसी और चीज का साधन है; बस अपना ही साध्य है, अपना ही साधन है। कहीं जाना नहीं, कुछ होना नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ खोना नहीं। हम जैसे हैं ऐसे ही अपने को पहचान लेना काफी है। बस, उसी पहचान में परमात्मा भी पहचान लिया जाता है। जिसने स्वयं को जाना उसने सब जान लिया।
राम सरस्वती, तुम कहते हो: "जाएंगे कहां, सूझता नहीं। चल पड़े मगर रास्ता नहीं।'
चल पड़े तो रास्ता है ही नहीं। फिर तो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। जो चल पड़े मुश्किल में पड़े। रुको।
पूछते हो: "क्या तलाश है, कुछ पता नहीं।'
है ही नहीं तलाश तो पता भी कैसे हो? यहां खोज है ही नहीं कुछ। जिसको तुम खोज रहे हो, वही तो तुम हो। खोज क्या होगी और? खोज करने वाले में ही, खोजी में ही तो वह छिपा है जिसकी तुम खोज करने की बातें कर रहे हो, सोच-विचार कर रहे हो।
कहते हो: "बुन रहे हैं अब ख्वाब दमबदम।'
बस अपने ही बुन सकते हो। और कुछ है भी नहीं पास।
सपनों से जागो! बहुत बुन चुके। पाया क्या? सपने ही बुनते रहते हैं लोग। शेखचिल्ली हैं। सपनों के जाल बनाते रहते हैं। यह हो जाए, वह हो जाए; यह पा लें वह पा लें। तुम ही नहीं, जिनको तुम बड़े-बड़े योगी कहते हो, बड़े साधु कहते हो, महंत, संत, वे भी सपने बुनते हैं। वे भी बैठे-बैठे सपने देख रहे हैं। कोई सोच रहा है कुंडलिनी जग जाएगी और भीतर रोशनी ही रोशनी हो जाएगी। और कोई सोच रहा है कि भीतर खजाना मिल जाएगा, हीरे-जवाहरात मिल जाएंगे। और कोई सोच रहा है कि चमत्कार और सिद्धियां और हाथ से राख निकाल दूंगा। सो क्या हो जाएगा? राख वैसे ही कुछ कम है दुनिया में? और तुम निकालोगे!
क्या-क्या लोग सपने बुन रहे हैं! और सब सपने व्यर्थ हैं। सपनों से जागना सार्थक है।
ऐसी है तुम्हारी हालत, जैसे रात सपने में कोई जंगल में भटक गया और रोता फिरता है, पूछता है: रास्ता कहां है, घर कैसे जाऊं? पड़ा है अपने घर में, कहीं गया नहीं, अपने बिस्तर पर; मगर सपने में भटक गया है जंगल में। और जंगल तो जंगल है, भेड़िया मिल जाए, चीता मिल जाए, अब भागे जान छोड़ कर। और भेड़िया लगा पीछे और उसकी सांस बिलकुल तुम्हें पीठ पर गरम-गरम मालूम पड़ती है और जान निकली जा रही है। पसीना-पसीना हुए जा रहे हो, और छाती धड़क रही है। लगता है कि अब हार्ट-फेल हुआ, अब हुआ। उसी घबड़ाहट में नींद खुल गई। न कोई भेड़िया है, न कोई जंगल है--तुम्हारी पत्नी है। तुम्हारी पीठ पर सांस ले रही है। उसकी गरम-गरम सांसें और उसका हाथ तुम्हारी पीठ पर रखा है। क्योंकि पत्नियां रात को भी खयाल रखती हैं, कहीं खिसक न जाओ!
एक फिल्म अभिनेत्री ने अपने जन्मदिन पर पार्टी दी तो सारी फिल्म अभिनेत्रियों को--खास-खास को गैर-खास को, एक्सट्रा को, सबको निमंत्रित किया। उसकी एक सहेली ने पूछा कि पार्टियां हमने बहुत देखीं, लेकिन खास-खास को लोग बुलाते हैं, अपने मित्रों को बुलाते हैं। परिचित-अपरिचित, जाने-अनजाने, एक्सट्रा जिनको कोई जानता नहीं, इन सबको किसलिए बुलाया? तो उसने कहा, इसलिए, ताकि मेरे पति महाराज भी आज पार्टी में उपस्थित रहें। उनको कहीं और जाने का कोई उपाय ही नहीं छोड़ा। सब द्वार-दरवाजे बंद, अब देखें बच्चू कहां जाते हैं! रहना ही पड़ेगा।
पत्नियां भी बहुत हिसाब रखती हैं।
एक पहलवान डाक्टर के पास इलाज के लिए आया। उसका सिर फूट गया था और एक आंख सूजी हुई थी। डाक्टर ने पूछा, क्या अखाड़े में चोट खा गए? अखाड़े में भला मुझे कोई पछाड़ सकता है? पहलवान ने बुरा मानते हुए कहा। तब क्या चोरों ने...डाक्टर ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया। पहलवान ने गरज कर उलटे ही प्रश्न किया, चोरों में है इतनी हिम्मत? हार का डाक्टर ने पूछा कि तब यह नौबत कैसे पहुंची? उसने कहा, क्या बताऊं, डाक्टर साहब, कल हमारी बीबी ने आखिर साबित कर ही दिया कि उसके कंगन की चांदी खराब है, इसलिए उसे अब सोने के कंगन चाहिए।
एक ज्योतिषी ने एक युवक से कहा कि तुम्हें अत्यंत सुंदर धनी पिता की इकलौती लड़की पत्नी के रूप में मिलेगी। युवक ने कहा, वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात है। पर यह तो बताइए कि मेरी पत्नी और तीन बच्चों का क्या होगा?
एक स्त्री अपनी सहेली से कह रही थी, मेरे पति ने मेरी किसी भी आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं किया। अच्छा तो फिर वे कल तीसरी मंजिल से कूद कर आत्महत्या क्यों कर रहे थे? सहेली ने कहा। यही तो मैंने भी उनसे कहा कि तुम्हें तीसरी मंजिल से कूद कर आत्महत्या का प्रयास करते हुए शरम नहीं आई? वह महिला बोली। तब क्या हुआ? सहेली का अगला प्रश्न था। होगा क्या! एक घंटे बाद उन्होंने सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली। महिला ने लापरवाही से उत्तर दिया।
समझे? पत्नी की आज्ञा मान कर तीसरे से नहीं की उन्होंने फिर आत्महत्या, सातवें से की। क्योंकि पत्नी ने कहा कि शरम नहीं आती तीसरे से कूदते हुए!
रात नींद में कहां, जंगल, भेड़िए...मगर कहीं नहीं, वहीं पड़े हो जहां थे। ऐसे ही सपने देख रहे हो। और सपनों के भीतर सपने हैं। यह पत्नी भी एक सपना है। नहीं कि पत्नी झूठ है, मगर यह पत्नी का नाता एक सपना है। पत्नी उतनी ही सत्य है जितने तुम। लेकिन यह नाता, यह एक झूठ है, एक सपना है। यह एक बनाई हुई बात है। यह एक सामाजिक ईजाद है। और ईजाद है, इसलिए बड़ी महंगी पड़ी है और खूब कष्ट लोगों को दिया है। और अब तक पंडितों ने, पुरोहितों ने इसका विरोध नहीं किया। कारण था, कि सारा धर्म इसी संस्था के दुख पर निर्भर है। जिस दिन विवाह समाप्त हुआ, उस दिन पंडित-पुरोहित गए। इनको कौन पूछेगा! वे तो दुखी पत्नियां जाती हैं कि चलो बाबा जी का सत्संग करें। दुखी पति हैं, वे जाते हैं कि चलो महात्मा जी की बातें सुनें, शायद कुछ राहत मिले, कुछ सांत्वना मिले।
इस विवाह ने धर्म का धंधा चलाया। यह विवाह लोगों को इतने कष्ट देता है कि सभी को त्याग की बात जंचती है। विवाहित आदमी को त्याग की बात न जंचे, यह बहुत मुश्किल है। इसलिए तो मेरी बात समझ में भी आ जाती है, फिर भी जंचती नहीं। मैं कहता हूं: छोड़ना नहीं है। यहां आ जाते हैं लोग, मुझे पत्र लिखते हैं कि हम तो आए ही इसीलिए हैं कि थक गए बहुत और आप कहते हैं छोड़ना नहीं है, अब क्या फिर जाएं वहीं? किसी तरह तो निकल पाए हैं और आप फिर भेज रहे हो! क्यों हमारी दुर्गति करवाते हो? जिंदगी तो नष्ट हो गई।
स्त्रियां आ जाती हैं, वे कहती हैं कि हमें तो आश्रम में ही रहना है। हमें जाना ही नहीं है घर। मैं कहता हूं: मेरी तो शिक्षा ही यह है कि अपने घर को आश्रम जैसा सौंदर्य दो। इस आश्रम को तो एक प्रतीक समझो। यहां से सीखो, मगर अपने घर को आश्रम बनाओ।
वे कहती हैं कि और कहीं भी बना लेंगे आश्रम, उस घर में नहीं बनने वाला। बस पति को देखते ही बात बिगड़ जाती है। सब शांति, ध्यान, सब भूल जाता है। ऐसा दुष्ट-संग हो गया है!
धर्मगुरु इसीलिए तो आशीर्वाद देते हैं। जब भी विवाह होता है, धर्मगुरु आशीर्वाद देते हैं। यह षडयंत्र है पूरा का पूरा। वे आशीर्वाद देते हैं कि ठीक है भैया, अब फंसे।
एक धर्मगुरु ने आशीर्वाद दिया नव-विवाहित एक जोड़े को, कि मेरा आशीर्वाद, जुग-जुग जीओ। अब तुम्हारे दुखों का अंत आ गया।
तीन महीने बाद यह युवक आया कि महाराज, जुग-जुग हमें जीना नहीं! अपना आशीर्वाद वापस लो! यह भी तुमने क्या कह दिया कि जुग-जुग जीओ! अब तो आशीर्वाद दो कि किसी तरह इस जीवन से छुटकारा मिले। और एक बात और पूछनी है कि तुमने जो कहा था कि अब दुखों का अंत आ गया, उसका क्या अर्थ? क्योंकि मैं उसके पहले दुखी था ही नहीं।
तो उस पुरोहित ने कहा कि बच्चा, मैंने यह तो नहीं कहा था कि कौन सा अंत। दुखों को दो अंत होते हैं। एक जहां से दुख शुरू होता है, वह भी एक अंत है और एक जहां दुख की समाप्ति होती है, वह भी एक अंत। दो छोर। मैंने यह कहा ही नहीं था कि कौन सा अंत आ गया है। अब तुम समझ गए कि कौन सा अंत आ गया था?
और उस पुरोहित ने कहा कि घबड़ाओ मत, कितने ही जल्दी मरो, अगर तुमको लगेगा ऐसे ही जैसे जुग-जुग जीए।
विवाहित आदमी को खूब जिंदगी लंबी मालूम पड़ती है। कटते ही नहीं कटती। काटे नहीं कटती। कितने उपाय करते हैं विवाहित आदमी जिंदगी काटने के--ताश खेल रहे, आल्हा-ऊदल पढ़ रहे! जैसे इस दुनिया में करने को कुछ नहीं बचा! आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया, जिनसे हार गई तलवार! बैठे हैं, घोट रहे हैं! शतरंज बिछाए बैठे हैं। लकड़ी के हाथी-घोड़ा चला रहे हैं! पूछो, क्या कर रहे हो? समय काट रहे हैं! समय जैसी बहुमूल्य चीज काटे नहीं कट रही! काटने की क्या-क्या तरकीबें निकाल रहे हैं! ताश खेल रहे हैं, सिनेमा देख रहे हैं। देर-देर तक बैठे हैं होटलों में, कि जितनी देर हो जाए उतना ही अच्छा!
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात तीन बजे घर की तरफ चला आ रहा है लड़खड़ाता हुआ। पुलिस वाले ने पूछा, कहां जा रहे हो? उसने कहा कि प्रवचन सुनने। तीन बजे रात को! तीन बजे रात कौन सा प्रवचन होता है? नसरुद्दीन ने कहा कि तुम्हें मेरी स्त्री का पता नहीं है, जाग रही होगी! और जब तक प्रवचन नहीं देगी, न खुद सोएगी न मुझको सोने देगी। अक्सर तो सुबह हो जाती है, प्रवचन चलता ही रहता है।
तो तुम्हारे नाते-रिश्ते हैं, वे सपने हैं। तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा है, नामऱ्यश है, वह सपना है। सपनों के भीतर सपने हैं। डब्बों के भीतर डब्बे हैं। और उन डब्बों के भीतर डब्बे, डब्बों के भीतर डब्बे, फिर कहीं तुम हो। और तुम इन डब्बों को बनाए जाते हो, सजाए जाते हो, नये-नये बनाए जाते हो। इन सब डब्बों के बाहर आना है। और इनके बाहर आने का उपाय तुम चकित होओगे जान कर: अपने भीतर जाना है। इस सारे जाल के बाहर आने का एक ही उपाय है: स्वयं के भीतर जाना।
एक अधेड़ अवस्था की अत्यंत बदशक्ल स्त्री ने पुलिस वाले से एक व्यक्ति की और इशारा करते हुए कहा कि इसे पकड़ लीजिए, क्योंकि यह मेरे कान में कह रहा था कि मैं संसार में सबसे खूबसूरत स्त्री हूं। पुलिस वाले ने उस स्त्री को देखा, फिर बड़े दया भाव से उस आदमी की तरफ देखा, फिर दोबारा स्त्री की तरफ देखा और कहा कि बाई, इस पार क्या इल्जाम लगाएं? झूठ बोलने का या पागलपन का?
तुम बनाए जाते हो नये-नये उपद्रव। झूठ बोल कर फंस जाते हो। और पागलपन का अंत नहीं है। जब तक तुम शांत न हो जाओ, पागल ही हो, विक्षिप्त ही हो। इस विक्षिप्तता में, राम सरस्वती, रास्ता खोजोगे? पहले इस विक्षिप्तता को विदा करो। इस विक्षिप्तता में रास्ता मिलेगा भी कैसे? मिल भी जाए तो गलत होगा, कल्पित होगा। होगा ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ेगा। कुछ का कुछ कर बैठोगे। जब आदमी बेहोश हो तो सबसे पहला काम उसे करने योग्य यह है कि बिलकुल ठहर जाए, हिले भी नहीं; क्योंकि कुछ भी करेगा, गलत होगा। बेहोशी में तो बिलकुल थिर हो जाना उचित है। जरा भी हिलो-डुलो नहीं। कुछ न कुछ भूल-चूक हो जाएगी, कदम गलत जगह पड़ जाएंगे। ठीक जगह कैसे पड़ सकते हैं?
और आदमी डर के कारण कि कहीं गलत रास्ते पर कदम न पड़ जाएं, चलता भी है, डरता भी है, घबड़ाया भी रहता है, तो ठीक से चल भी नहीं पाता। तो अधूरा-अधूरा। सब जगह अधूरा-अधूरा। सब जगह आंशिक। आधा इधर जाता, आधा उधर जाता; कुछ पश्चिम, कुछ पूरब; कुछ दक्षिण, कुछ उत्तर। खंड-खंड में बंटा रहता है। और डर के मारे।
तुम तलाश रहे हो, इसलिए नहीं कि तलाश कोई स्वाभाविक बात है। वह भी तुम्हारे पंडितों-पुरोहितों ने तुम्हें समझा रखा है कि तलाशो। बचपन से ही तुम्हें सिखा रहे हैं कि खोजो। परमात्मा को खोजो, मोक्ष को खोजो, सत्य को खोजो। और खोजने का मतलब स्वाभाविक होता है कि जाओ कहीं, रास्ता पकड़ो। और रास्ता पूछोगे किससे? उन्हीं से पूछोगे। पहले समझाते हैं खोजो। चैन से बैठने न देंगे। धकाए रहेंगे कि खोजो, क्या बैठे हो? खोज नहीं करनी? खोज करने निकलोगे तो पूछोगे किससे कि रास्ता कहां है, विधि कहां, मार्ग कहां है, जंतर-मंतर? तो उन्हीं के पास जाओगे। फिर वे जंतर-मंतर देंगे।
धर्म का धंधा बहुत अजीब धंधा है। पहले मांग पैदा करनी पड़ती है, फिर पूर्ति करनी पड़ती है। यह सब मांग पैदा करवाई गई है, अन्यथा कहीं खोजने की कोई जरूरत नहीं है। तुम हो और तुम्हारे होने का अर्थ है कि परमात्मा तुम्हारे भीतर है। उसके बिना तो तुम हो नहीं सकते। वह तो होना है। वही तो होना है। वही तो श्वास ले रहा है तुम में। वही तो तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है। जाना कहां है? खोजना क्या है?
मगर खूब डर लगवा दिया है पंडितों ने कि अगर नहीं खोजा, नरक में पड़ोगे। अगर खोजा तो स्वर्ग पाओगे। तो लोभ पकड़े हुए है कि मिल जाए स्वर्ग। और भय पकड़े हुए है कि किसी तरह नरक से बच जाएं।
एक मियां जी बड़े रईस थे, बड़े प्रसिद्ध थे, बड़े कला-पारखी भी थे। उनका नाम था सुभान। वे गांव के बाहर एक बेर के पेड़ के नीचे बैठ मल-मूत्र त्याग कर रहे थे। आस-पास कोई था भी नहीं। साथ-साथ पके-पके बेर भी गिर रहे थे। सो उनसे न रहा गया। परमहंस भाव उठा! सो बेर उठा कर खाते भी जाते। उधर से एक वेश्या निकल आई। उसे उस रात उस गांव में नाच करना था। रात में वेश्या का नाच शुरू हुआ। सुभान मियां भी नाच देखने गए। मियां जी गांव के बड़े आदमियों में से थे। वे आगे बिठाए गए। वेश्या ने गाना शुरू किया: सुभान, तेरी बतियां जान गई राम। सुभान मियां वेश्या का गीत सुन कर भयभीत हो गए और सोचने लगे कि यह वेश्या की जाति भरे समाज में हमारी भद्द करने पर उतारू है। यह दुष्ट कहीं बता न दे कि हम क्या कर रहे थे सुबह! वह परमहंस भाव प्रकट न कर दे सब जनता के सामने! वह बेर खाने वाली बात बता न दे, नहीं तो नाहक बदनामी होगी, प्रतिष्ठा की हानि होगी। अतएव वे वेश्या को खुश करने के लिए अपना ढाई सौ रुपये का शाल उतार कर उसे दे दिए। वेश्या बहुत खुश हुई और थिरक कर नाचते हुए आलाप करके गाने लगी: सुभान तेरी बतियां कह दूंगी राम।
पहले तो उसने कहा था: सुभान, तेरी बतियां जान गई राम। अब बोली कि सुभान तेरी बतियां कह दूंगी राम। और जोश में आ गई। सुभान ने सोचा: पहले कहती थी--जान गई राम, अब कहती है--कह दूंगी राम। यह वेश्या तो बड़ी दुष्ट है, इसे जरा शर्म-लाज नहीं। यह वेश्या की जाति ही ऐसी है। मैं भी कहां से यहां आ गया!
सुभान मियां ने एक कीमती अंगूठी पहन रखी थी, उन्होंने वह अंगूठी उतार कर वेश्या को दे दी कि जिससे हरामजादी खुश हो जाए और हमारी बात सभा में न कहे। वेश्या ने अंगूठी पाई तो और खुश हो गई। पहले गीत में उसने देखा कि इतना ईनाम उसे कभी भी नहीं मिला था। वह खुश होकर आखिर कड़ी गाने लगी: सुभान, तेरी बतियां कह रही हूं राम। अब सुभान मियां से नहीं रहा गया। पांच-छह सौ रुपये की चीज भी गई और ये बदतमीजी। वे उठ कर खड़े हो गए...और वेश्या को ललकारते हुए कहा: कह रही हूं राम, कह रही हूं राम, क्या कह रही है राम? अरे कह दे, कहने में रखा क्या है! यही न कि सुभान मियां सुबह टट्टी फिरते जाते थे और बेर भी उठा कर खाते जाते थे! कह दे, कह दे!
वे अपने भय में ही मरे जा रहे हैं!
मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में जो लोग हैं, आधे भय के कारण इकट्ठे हैं कि नरक में न जाना पड़े। क्योंकि उन्हें मालूम है क्या-क्या कर रहे हैं। सब चोरी-चपाटी। और परमात्मा देख रहा है। परमात्मा भी गजब का है! बस वह देख रहा है, उसकी हजार आंखें हैं! खोपड़ी में जैसे और कोई जगह ही नहीं बची होगी, आंखें ही आंखें! सब तरफ देखने के लिए, कि कोई बच न जाए। जांच-पड़ताल कर रहा है कि कौन क्या कर रहा है! अब आदमी आदमी है, थोड़ी-बहुत भूल सभी से हो जाती है। तो डर लगता है कि कहीं देख तो ली होगी, लिख गई होगी किताब में। अब मारे गए। अब चलो मंदिर, अब चलो मस्जिद, अब कर लो पूजा-पाठ। अब किसी तरह समझाओ-बुझाओ कि भैया जो भूल हो गई हो गई, अब दुबारा न करेंगे। कसम खाते हैं। तोबा करते हैं।
तो नरक के डर के कारण कुछ लोग इकट्ठे हैं; कुछ लोभ के कारण, कि पूजा करेंगे, पाठ करेंगे, तो स्वर्ग मिलेगा। नहीं तो तलाश क्या है? मंदिर-मस्जिदों में कोई खोजी जाते हैं? जिसको खोजना है, उसे कहीं नहीं जाना है, उसे सिर्फ अपने भीतर जाना है। ये तो भयभीत, भीरु और लोभियों की जमातें हैं, जो मंदिरों-मस्जिदों में इकट्ठी हैं। ये धार्मिक लोग नहीं हैं। धार्मिक व्यक्ति को तो अपने भीतर ठहरना है। और वहां सब पा लिया जाता है। पाया ही हुआ है, बस इतनी पहचान आ जाती है।
बुद्ध को जब परमज्ञान हुआ तो उन्होंने कहा कि मैं भी कैसा पागल था, उसे खोज रहा था जो मेरा स्वभाव है, जो मैं सदा से हूं, जिसे मैंने कभी खोया ही नहीं था।
राम सरस्वती, सपने छोड़ो। सब खोज सपने ही पैदा करवाती है। घर आओ, लौटो, अपने भीतर बैठो। अपने भीतर झांको। डरो मत। कोई परमात्मा खुफिया पुलिस की तरह तुम्हारे पीछे नहीं लगा हुआ है। और न लोभ भरो। कोई स्वर्ग कहीं और नहीं है। जो अपने भीतर थिर है, स्वर्ग में है। जो अपने बाहर दौड़ रहा है, नरक में है।

आज इतना ही।


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