अध्याय——आठवां (खरगोश का खाना)
पापा और मम्मी जी को मैं मेहनत करते देखता तो मुझे
लगता की इंसान कितनी मेहनत कर सकता है। आप को ये सब कुछ जान कर अजीब लगा होगा, कि मैं मनुष्य की तरह पापा मम्मी बोलता हूं। अब मैं भी
क्या करू जब सब बच्चे उन्हें इसी तरह से बुलाते है तब मैं कैसे उन्हें किस नाम
से पुकार सकता हूं। मम्मी पापा जी ने कभी मुझे अपने बच्चों से अलग नहीं समझा। और
सच कहुं तो मुझे मेरी मां की याद तो कही अंधेरे कोने में दबी से दिखाई देती
है। हाँ तो मैं कह रहा था कि मानव कितना
मेहनती है ताकत वर है।
आदमी सुबह से उठ कर सार दिन काम करता ही रहता है। ये
सब बातें में पूरी मनुष्य जाति के लिए नहीं कहा रहा हूं। केवल जिन लोगों के
संग—साथ मैं रहा हूं और जिन्हें मैंने जाना है। रम हमारा तो सो लेना ही पूरा नहीं होता। जब देखो
हमारी जाती को कोई सोने की बीमारी है। दिन—रात केवल सोना। दुकान पर दुध लाने से
लेकर बेचना, फिर घर पर आकर कोन सा
आराम कर लेते थे। पहले नहाते, मम्मी इतनी देर में खाना बना
लेती थी। शायद आधे घंटे में फिर मम्मी जी नहाती। और दोनों ध्यान के कमरे में चले
जाते। ये उनका रोज का नियम था। जो मेरे अचेतन में बस गया था। मैं आँख बंद कर भी
आपको बता सकता था कि मम्मी पापा अब क्या कर रहे होगें।
कभी—कभी में
भी पापा जी के साथ उस कमरे में चला जाता था। क्योंकि वो सारा दिन बंद रहता था। उस
में केवल ध्यान ही होता था। या रात को पापा जी उस में सोते थे। हम सब तो नीचे साल
(बड़ा कमरा) में सोते थे। पर पापा जी कभी हमारे साथ नहीं सोते थे। और जिस दिन बच्चों
की छुटटी होती तो वो भी ध्यान करते थे। इस लिए मुझे भी वहां जाना बहुत अच्छा लगता
था। अब ध्यान के बारे में तो में नहीं जानता था। हमारा तो सोना ही ध्यान है।
परन्तु एक बात तो तय है कि उस कमरे की शांति देखते ही बनती थी। आप उस में गए नहीं
की आप एक नई उर्जा से सराबोर पाओगें। मानों आप कुछ नये हो गये आप के शरीर को पंख
लग गये आप का शरीर नीर भार सा हो जायेगा। कितना
हल्का हो जाता है। जब आनंद में होता है हमारा शरीर।
पर पापा जी
को तो अभी स्कूल जा वरूण भैया को भी लाना होता था। करीब दस मील तो स्कूल होगा
ही। फिर आते ही दुकान पर चले जाते थे। इसके अलावा खाली समय निकाल कर पेड़ पौधों
में पानी आदि देते, हमें घुमाने ले जाते।
मेरा तो सर चकरा रहा ये सब सोच कर ही। आदमी ने भी अपनी जान के लिए कितनी आफत लगा
रखी है। हम तीन ही ऐसे थे जो कोई काम नहीं करते थे। मैं टोनी ओर दादा जी। दादी जी
का थोड़ा परिचय दे दूँ, दादा जी अंग्रेजों के जमाने के
सिपाही साला हार थे। अब रिटायर्ड हो गये थे। अब भला सरकार के ही किसी काम के नहीं
रहे तो समाज में क्या काम करते। सो हम तीनों बेकार थे। नहीं बेकाम थे।
मम्मी—पापा
इतनी मेहनत—मशक्कत करने के बाद भी कैसे तरो—ताजा रहते थे। उनके जीवन में कोई तनाव
नहीं। कोई थकावट नहीं। शायद इस का राज कहीं—न—कहीं ध्यान में जरूर छुपा होगा।
वरना तो में पड़ोस के लोगों का जीवन उनकी ऊंची आवाज में रात शराब पी शोर मचाना,अपने पड़ोसियों को गालियां बकना या अपनी बीबी बच्चो को
मारना। ये सब हम जब सुनते तो मैं बहुत जोर से भौंकने लग जाते थे। मुझे लगता ये
कितने खराब आदमी है। मेरी इन हरकतों देख
कर पापा जी खूब हंसते और मुझे प्यार से डाटते भी कि तुम्हारी वकालत से क्या वो
मान जाएगा। पर हमारी आदत हम रह नहीं सकते....किसी को गली में शोर करते हुए जाते
हुए या हाथा पाई करते हुए या कंधे पर कोई थैला लटका कर जाते हुए देखकर।
हमें लगता ये कोई चोर या डाकू है ये शायद हमारी खराब
से खराब आदतों में से एक है। पर अब तो लाचारी बन गई है। और एक बात जब कोई साधु
महात्मा आ जाता तो लगता ये तो हमारे घर से सब ले जाएगा फिर हमें खाने को क्या
मिलेगा। इस लिए मेरा जहां तक सवाल है मैं पुलिस के सिपाही, चौकीदार, जो एक सी पोशाक में हो।
हमसे बिना भौके रहा ही नहीं जाता। इसका क्या कारण हो सकता है? ये गहरा मनोविज्ञान का विषय है, जो शायद मनुष्य की
समझ में कभी आ सके।
कही ये हमारे
अचेतन से आया भय तो नहीं? जब फौज हमला करती, मार काट करती, या खून खराब करती। शायद ये हमारे
पूर्वजों ने वो सब देखा ओर जिया होगा, जो हमारे अचेतन में
समा कर पढ़ी दर पीढी हमे विरासत में मिल रहा है। आज जो हम जानते है उसमे से 90%बातें तो हमें बिना किसी कारण के ही पता चल जाती है। हम हर एक वस्तु के
विषय में मनुष्य कि तरह समझाया नहीं जानते।
फिर शायद हमारी समझेगा भी कौन, ये फौजी—सिपाही तक तो बात ठीक है,
पर साधु संन्यासियों के विषय में तर्क दूँ ये मेरी समझ के बहार की बात है। पर शायद में अपने अंदाज से या समझ से कहूं
तो आप हंसना मत, लगता है, वो हमारे
हिस्से का खाना मांग कर ले जायेगे। हम उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझते है।
इसीलिए हम उन्हें भौंक—भौंक कर भगाना चाहते है। एक म्यान में भला दो तलवारें रह
सकती है कभी?
फिर एक दिन राम रतन मित्र अपने साथ में एक
बाबा को लिए हुए सुबह ही सुबह घर आ गये। उसके सर पर एक तसला फावड़ा और हाथ में एक
लोहै की जाली थी। वे लोग अमरूद की क्यारी के पास आ कर खड़े हो इशारा कर कुछ बात
चीत करेने लगे। पापा जी भी आ कर उन्हें कुछ समझाने लगे। मैं और टोनी दोनों खेल
रहे थे। इतने अंगतुक अचानक घर पर आ जाये तो हम अपना खेल तो भूल गये और अपना
पुश्तैनी कार्य करने के लिए ललाईत हो गये। चौकीदार, मैं और टोनी भोंकते हुए उनकी और भागे।
पर हमे यह देख कर कुछ बुरा जरूर लगा की हमारा भोंकना
उतना असर नहीं दे रहा। वो तो हमारे भौंकने से जरा भी डरे नहीं। और एक टोनी की इस
आदत से मैं बहुत दुःखी था, वह तो कुछ समझने की कोशिश
ही नही करता था। मैं तो उसे मोटे दिमाग का ही कहता था। वह एक या दो बार ही भोंकता
था फिर उसके बाद वह तो पूछ हिलाता हुआ लोगों के इतना पास चला जाता और तो और वह उन
पर अपने दोनों पंजों के बल से सीधा खड़ हो उन्हें पूछ हिला—हिला कर चाटनें लग
जाता। मानों साल बाद किसी मेहमान से मिल रहा था। भला ये भी कोई तरिका हुआ। मैं
हमेशा अंजान आदमी से थोड़ी दूरी बनाये ही रखना पसंद करता था। पर इससे एक बात में
टोनी मेरे से बाजी मार ही लेता था।
घर
के आँगन में जो पेड़—पौधों की क्यारी थी, अमरूद और आडू के
पेड़ के ठीक बीच में जो खाली जगह थी उस में उन लोगों सारा दिन काम करके एक सुंदर
सा घर बनाया, उस में सामने एक बड़ी सी जाली लगा दी। और बराबर
में एक छोटा सा गेट भी लगा दिया। मैं और टोना सारा दिन उसे कुतूहल से देखते रहे और
मन ही मन खुश हो रहे थे कि शायद हमारे लिए नया घर बन रहा हो। पर किस का ‘’टोना’’ का या मेरा या उस ‘’हानि’’ का। क्योंकि हम तीनों तो उस में आ नहीं सकते थे। और में सच यहीं समझ
बैठा के ये मेरा ही घर बन रहा है।
क्योंकि
हर प्राणी अपने को ही महान समझता है। पर मुझे कुछ अजीब सा लग रहा था। क्या जरूरी
है हमें इस कैद खाने में रहने की जब सारा घर ही हमारा है। मैं समझ गया कि ये लोग
मुझे मुर्ख बना रहे है। श्याम को मैंने और टोनी न उस में घुस कर भी देखा। अंदर से
वो कच्चा था। लेकिन मिटटी थोड़ी मुलायम थी। पर उस में उमस बहुत थी। हम ज्यादा देर
नहीं रह सके अंदर और बहार निकल आये।
परन्तु अगले दिन श्याम होते न होते हमारे मुंगेरी लाल के सपने धरे के
धरे ही रह गये। पाप जी अपने साथ एक गत्ते की डिब्बा में चार खरगोश ले कर आये। दो
तो एक दम झक्क सफेद थे, एक काला और एक बदामी। वो देखने में
बड़े सुंदर लग रहे। उस के चमक दार बाल, उनकी लाल—लाल माणिक
की तरह आंखे, लम्बे लटकते कान। छोटी सी पूछ, वह अपने पिछले पैरों पर उछल—उछल कर दौड़
लगा रहे है। उनके आगे के दो दाँत कैसे दिखाई देते उनके भोलेपन को दर्श रहे
थे। सच उन दांतों को देख कर मुझे हंसी भी आती थी। पर अचानक मेरे मन में न जाने क्या
आया मैं उन्हें देख कर उन पर झपट पडा। पर पास ही वरूण भैया थे।
उन्होंने
मुझे पकड़ लिया नहीं तो मैं उस सफेद खरगोश की गरदन पकड़ लेता, मैंने वरूण भैया को भी काटना चाहा की मुझे छोड़ दो वरण में तुम्हें भी
काट लूगा। पर इतनी देर में पापा जी ने मुझे जोर से डाटा ‘’पोनी’’ और मैं डर गया। और डर कर कान बोच लिए और पूछ
हिलाने लगा। पर शायद मेरे विकराल रूप को पाप जी देख कर समझ गये में नालायक जरूर
कुछ कर सकता हूं। इस लिए सारे खरगोश बाड़े के अंदर कर दिये और दरवाजा बंद कर दिया।
जब मुझे पता चला कि ये घर किसका है। और इस में दरवाजा क्यों लगाया जा रहा है।
मैं हर चीज को गोर से देखता था। उसका चलने का ढंग बैठने का ढंग। ये सब
बातें पापा जी नोट करते रहते थे। शायद उन्हें अच्छा भी लगता था। और कहते भी थे
कि देखो पौनी हर चीज को समझने—बुझने की कोशिश करता है। इतना सम्मान पा कर मैं
फूला नहीं समता था और अपने चारों और नजर घूमा कर देखता था की कोन—कौन सून रहे है
ये बातें। पर अंदर मुझे दूःख भी होता था की में तो केवल इशारे मात्र का अंदाजा लगा
लेता हूं ये बातें मेरी समझ में कुछ नहीं आती।
कितना
मुश्किल है हमारी जाती को मनुष्य के संग रहना। लोग तो सोचते है हम मजे उड़ाते है, गाड़ियों में घूमते है, वातानुकूलित कमरे में सोते
है। पर आप समझे हम उस जाती के बीच रह रहे है। जो पृथ्वी पर श्रेष्ठ है, आप ऐसा समझे की मनुष्य किसी ऐसे लोक में चला जाये जो बहुत विकसित है, श्रेष्ठ है, जिसकी भाषा मनुष्य की समझ के परे है।
दोनों के तलों में दिन—रात का अंतर है। उस सुख सुविधा तो सब मिलेगी पर उसकी समझ
बुझ उनके सामने जीरो है।
हम
मनुष्य के साथ तो रहते है पर हमारा मस्तिष्क तो मनुष्य की तरह काम नहीं करता।
फिर भी कोई हमें रहते देख कर ऐसा महसूस नहीं कर सकता। आप खुद ही सोचिए हम शेर, चीते, भेड़िये की जाते के प्राणी होने पर भी हम क्यों
मनुष्य के संग रहे। या यूं कह लिए कि क्यों मनुष्य ने हम पर विश्वास किया।
प्रेम किया और अपने साथ संग रखा। हममें कोई तो ऐसा गुण गौरव होना चाहिए। एक तो
हममें अपनी दूसरी जाती के प्राणियों के बनस्पत, हिंसा कम है, दूसरा हम मास हार और शाका हार के बीच में खड़ हो गये। जिस भी हालात में
जीना पड़े हम जिये। और सबसे बड़ी बात है, विश्वास, हमनें मनुष्य पर भरोसा किया, उसे समरपर्ण किया। और
सही मायने में हमने मनुष्य हो ह्रदय से श्रेष्ठ माना। शायद दूसरे प्राणी खास कर
मांसाहारी ऐसा नहीं कर पाये। वो कही अपने को असुरक्षित मानते है।
मनुष्य
के संग रहने में। पर मैंने जहां तक जाना शाकाहारी प्राणी कहीं ज्यादा भरोसा या
प्रेम कर सकता है मांसाहार की बजाएं। और आप देखिए मनुष्य के आस पास वही प्राणी
है। जो शाकाहारी है। इनमें शायद में विरोध हूं। पर आज शायद मनुष्य के जीतने करीब
मेरी जाती है। बेड रूम से ले कर किचन तक। मेरे लिए कोई बंधन नहीं है। जहां मनुष्य
जाता है खाता है। रहता है वहां तक की में
केवल उसके घर में प्रवेश नहीं कर गया मैने उसके ह्रदय में भी अपना स्थान पक्का कर
लिया है। शायद इस समय पूरी पशु जाति में मेरे अलावा और कोई नहीं है मनुष्य के
इतने संग साथ। मेरा आन जाना कहीं भी व्रजित नहीं है मैं कही भी जाऊँ मुझे कोई नहीं
रोकता। ये सब घमंड की बातें नहीं है।
ये
सब सच्चाई है। इतना करीब आने में हमारे पूर्वजों
का साहस और विश्वास भी हमारे साथ। कोई अचानक किसी के इतना करीब नही आ सकता।
आप इस बात को भली भाति जानते है। कबीले के नजदीक आये होगें, मारे भी गये होंगे। धीरे—धीरे लाखों सालों में ये सब हुआ होगा। खेर आप
कहेंगे। अपने मुहँ मिया मिट्ठू बन रहा हूं। जब पापा जी मुझे बैठ कर देखते तो में
अंदर से कितना खुला महसूस करता था। और जब
प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते तो मेरी अनायास ही आंखें बंद हो जाती थी। प्यार
का ऐसा तूफान आता था उन हाथों से होकर की में उस में बह जाना चाहता था। और छोड़
देता था अपने को आस्तित्व के सहारे। वो क्षण कितने आनंद दाई होता था।
खरगोशों
के घर नीचे की जमीन कच्ची थी। क्यों वह पेड़ो की क्यारी के बीच बनाया गया था।
ताकि खरगोश अपने घर आदी खोद कर स्वभाविक तोर पर रह सके। खरगोशों ने तो उस घर के
अंदर भी अपना नया घर बनाना शुरू कर दिया। अब उनके घर के अंदर जहां भी देखो वहीं
मिटटी के पहाड़ लगे होते। उनके घर के बीच में ही पानी का एक मिटटी बरतन भी रखा था।
जिस में वह अपना लाल मुलायम मुहँ से चूस कर कैसे पानी पीते थे। पानी पीने के लिए
जरा भी जीब का इस्तेमाल नहीं करते थे। नहीं दौड़ते भागते हुए ही हमारी तरह से जीभ
को बहार निकाल कर सांस लेने की कोशिश करते थे।
वह
केवल नाक से ही या खुले मुहँ से सांस ले कर जीते थे। कितनी अजीब बात है। पानी के
आस पास कुछ घास के पेड़ और कुछ और पौधे भी लगा दिये थे। ताकि शायद देखने मे उन्हें
कुदरती माहोल लगे। कितना सुंदर घर था। कैसे मनुष्य ये सब जान लेता है की किस
प्राणी को कैसे रखा जाये। तोता, चिड़िया,
खरगोश, और हम भिन्न—भिन्न तरह के प्राणी थे, पर मनुष्य को हमें समझने में कोई तकलीफ नहीं हुई थी।
कुछ ही महीनों में उनके उस घर के अंदर से दो नन्हें—नन्हें
बच्चे भी बहार गर्दन निकाल कर देखने लगे। धीरे—धीरे वह भी बहार आ कर धूप में
खेलने लगे। उनका घर ज्यादा बड़ा नहीं होने पर भी इतना बड़ा था की वे खूब उसमें
भाग दौड़ कर सकते थे। टोनी खाना बहुत खाता था। इस लिए वह बहुत मोटा हो गया था। इस
लिए उससे भागा भी कम जाता था। वह मेरे साथ खेलने में बहुत जल्दी थक था। हिमांशु
भैया से तो अब वह उठता भी नहीं था। सब उसे मोटू कह कर चिड़ाते थे। सच वह बहुत सुस्त
हो गया था। अब मैं उसकी गर्दन पकड़ता तो वह झट से झटका मार कर छुड़वा लेता था।
सही
बात कहूं तो मुझे अंदर से उससे डर लगने लगा। था क्योंकि मैं देख रहा था वह दिन ब
दिन ताकतवर होता जा रहा था। उसका मुंह
बहुत बड़ा होता जा रहा था। कपड़े धोने की थपकी, या वरूण भैया का
क्रिकेट खेलने का बैट वह कितने आराम से मुंह में दबा कर दौड़ पड़ता था। पर इतना हो
ने पर भी वह गुस्सैल नहीं था। मैं सोचता था इतनी ताकत मुझ में आ जाये तो में किसी
भी प्राणी से नहीं डरता, शायद पापा जी से भी नहीं। पर वह कभी
क्रोध नहीं करता था। अगर उसे संत स्वभाव का कुत्ता कहूं तो इस में अतिशयोक्ति
नहीं होगी। उसकी सहन शीलता को देख कर मुझे भी उसके वे गुण प्रभावित करने लगे थे।
फिर अचानक एक दिन एक खरगोश मर गया। पता नहीं उसे
कोई बीमारी थी या शायद खरगोश की आयु ही इतनी होती है। अभी तो उसे आये तीन महीने भी
नहीं हुए थे। पापा जी ने बस यहीं एक गलती कर दी की उसे गड्ढा खोद कर वहीं पास ही
दबा दिया। अपनी तरफ से तो उन्होंने काफी सुरक्षित कर के दबाया था। दबाने के बाद
उस पर दो बड़े—बड़े पत्थर रख दिये थे। शायद वे हमारे स्वभाव को जानते होगें। ये
सब होते हुए हम सब देख रहे थे। दिन गुजरा रात आई, रात के समय हम
निशाचर प्राणियों में एक विशेष प्रकार को उत्साह आ जाता है। दिन के समय हम उतने
चपल नहीं रहते थोड़े सुस्त हो जाते है।
आधी
रात गुजर जाने के बाद जब सब सो गये तब मैं उठा और पास सोते टोनी को भी उठाया। पर
वह तो हील ही नहीं रहा था। हम जंगल और इस शहरी कुत्तों की जीवन शेली में दिन रात
को फर्क है। ये केवल चौकीदार कर भौके सकते है। इन्हें पेट भरनी की ज्यादा चिंता
नहीं होती। और आदमी के संग रह कर इन्हें जो भी मिल जाये वह सब खाने की आदत सी हो
गई है। पर हमारे पूर्वज आज भी स्वयं ही मेहनत कर के जीवित है, शिकार करने की प्रवर्ती आज भी हम में विद्यमान है। जब टोनी नहीं उठा तो
में खुद ही बहार गया। जहां खरगोश को दिन में दबाया जा रहा था।
वहां
कितना ही मिटटी को दबा दिया हो फिर भी उतनी ठोस नहीं हो सकती। मैंने इधर उधर देख
और लगा खोदने, जहां पर पत्थर रखें थे मैं उस
से थोड़ा पीछे से ही खोदने लगा। ताकी पत्थर मेरे उपर न आ जाये। मेरे नये निकलते
नाखुन छोटे थे पार वह पैने खूब थे। मैं लगा खोदने। थोड़ी ही देर में मैं आधा उस
गड्ढे में आ जाऊँ इतना जब मैने खोद लिये तब कहीं टोनी आ कर मुझे देखने लगा। वह
मुझे कुछ अचरज भरी निगाह से देख रहा था की मैं क्या कर रहा हूं।
इस तरह से उसे अपनी और देखते हुए उस के बुद्धूपन
पर बड़ा अचरज आ रहा था। मनुष्य के संग रह कर ये सुस्त हो काम चोर हो गया है। अगर
ये जंगल मैं होता तो कैसे शिकार करता। इसका मोटा होता शरीर कैसे इतनी तेज दौड़
पाता। प्रकृति तो इसे बिलकुल ही पसंद नहीं करती और शायद इसे जीने भी नही देती। जब
मैं थक गया तो थोड़ा सुस्ताने के लिहाज से बहार मुहँ मो निकाल कर गहरी सांस लेने
लगा। टोनी बड़े मस्त अंदाज से बैठा ये सब देखता रहा। उसे अन्दर मेरे बिना अच्छा
नहीं लगा होगा।
इस
लिए वह मेरे पास आ कर बैठ गया। पर मेरे काम में उसे कोई रस नहीं था। वैसे तो मेरा
भी टोनी के बीन मन नहीं लगता था। अगर मुझे यहां पर टोनी नहीं मिला होता तब शायद
इतना अच्छा बचपन गुजरता। कुछ खाली पन अवश्य रह जाता। भैया हर के साथ खेलता, दौड़ता, पर मनुष्य में कुछ ऐसी ख़ूबियाँ थी जो
हमारी कल्पना के बहार की बातें है। हम पैरो का इस्तेमाल केवल दौड़ने या ज्यादा
से ज्यादा पंजा मारने के लिए इस्तेमाल कर सकते है। पर मनुष्य को तो देखिये पहले
तो अपने पैरो पर सीधा खड़ा होना। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विपरीत। कितना कठिन
कार्य है। फिर अगले पैरो की अगुलियां के साथ अंगूठे का भिन्न तरह से इस्तेमाल
करना।
उसकी
सबसे मौलिक और क्रांतिकारी अविष्कार है। क्योंकि मनुष्य के हाथ का अंगूठा उसके
जीवन को विविधता देने में महत्व पूर्ण रंग लाया है। कुछ लोग मनुष्य को बुद्धि
जीवी कहते है। परन्तु मेरा मानना उनसे थोड़ा भिन्न है। एक ही अंगूठा कितने भिन्न—भिन्न
तरह से कार्य कर सकता है। क्या कोई और प्राणी है पृथ्वी पर ऐसा जो ऐसा कर सके।
गाड़ी चलना, खेलना,
लिखना, तीर चलना खेती करना क्या इन्ही उंगलियों और अंगूठे
के मिलन से घटी घटना नहीं है।
खोदते—खोदते रात काफी गुजर गई। शायद मम्मी पाप
के उठने का भी टाईम हो रहा था। क्यों मैंने इतना गहरा गढ़ा खोद दिया फिर भी अभी
तक वह खरगोश दिखाई नहीं दिया। इतनी देर में टोनी भी कुछ हरकत में आया। सही में मैं
थक गया था। टोनी मोटा जरूर था पर उसके पंजे मुझ से दो गुणा मोटे थे। उसके नाखुन भी
मुझ से बड़ थे। उसने तो बस पाँच मिनट में ही मिटटी को ढेर लगया दिया। शायद अंदर और
नरम मिटटी आ गई थी। मैने देखा अब खरगोश की टाँग नजर आई। ये सब देख कर मैं तो सारी
थकावट भूल गया। और टोनी को बहार निकाल कर खुद अंदर घूस गया। क्योंकि मेरा शरीर
पतला था। मैंने थोड़ा और खोद कर मिटटी हटाई ओर उस खरगोश की टाँग पकड़ कर धीरे से
खींचा।
वह
अपनी जगह से सरक गय। फिर एक और झटका मारा तब उस की टाँग को मुहँ में पकड़ बहार आ
गया। टोनी ने ये सब देखा तो उसे भी कुछ उम्मीद की किरण दिखाई दी और पंजों से खोद
कर मिटटी हटा कर मेरा सहयोग किया और खरगोश की दुसरी टांग पकड़ कर खींचने लगा। अबस
हम दो थे। कहते है दो तो चून( आटे ) के भी बुरे होते है। बस खरगोश तो बहार निकल
आय। हमने किला जीत लिया। में उसे खींच कर एक कोने में ले गया। हमारा भाग्य ही
समझे की जो पत्थर खरगोश के उपर रखे थे वह टस से मस नहीं हुए। वरना तो खरगोश के
साथ हमारी भी वही कब्र बन जाती।
मैं आपने अन्दर एक परिर्वतन देख रहा था। अभी तो
मैंने खरगोश को खाया भी नहीं था। केवल मुहँ से पकड़ा भर था। पर मेरी हिंसक प्रवृति
एक दम से जाग गई थी। मेरे अंदर का शिकारी पन खड़ा हो गया था। मैं अपने आप को बहुत
हिंसक महसूस कर रहा था। क्योंकि टोनी जब मेरे नजदीक आया तो वह मेरे गुर्राने के
ढंग का देख कर डर गया। मैंने लाल आंखे कर के बड़े—बड़े दाँत निकाल कर जब उसे घूरा
तो कांपने लगा। शायद ऐसा गुर्राना उसने इससे पहले मेरा नहीं देखा था। टोनी तो डर
कर दूर जा कर बैठ गया। पर हमारे घर में एक बूढ़ा कुत्ता भी था जिसका नाम हानि था।
हम इतना सर्कस करते रहे तब तक तो वह बड़े मजे से सोता रहा। जब हमनें मेहनत मशक्कत
कर के खरगोश को निकाल लिया तब वह भी आया खरगोश पर अपना हक जमाने।
बह अपनी ताकत और बड़े होने के कारण शायद यह समझ
गया की मैं तो जब चाहूं खरगोश को छिन सकता हूं। जब वह पास आया तब मेरे अंदर इतना
क्रोध भर गया कि बस आपको क्या बताऊ, मैने अपने सर से
लेकर पूछ तक के बाल मारे क्रोध के खड़े कर लिये और इस अंदाज में अकड़ कर खड़ा हो
गया की अगर उसने एक कदम भी आगे बढ़ाया तो मैं उसकी गर्दन पर चिपट जाऊँगा। मेरे
तन—मन में उस समय किसी का भय नहीं रह गया था। जब आप अंदर से पूर्ण रूप से निर्भय
होते है, आपके अंदर जरा सा भय का कतरा भी नहीं होता।
तब
आप एक पूर्णता महसूस करते है। तब आप पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता। हम हारते
तो अपने भय के कारण है, जो हमारी पूर्णता में छेद कर
देता है। अचानक मेरा ऐसा व्यवहार देख कर वह घबरा गया। शायद इस घटना की उसने कल्पना
भी नहीं की थी। डर कर वह दो कदम पीछे हो गया। और हमसे दूर जाकर बैठ गया।
मैं खुद अपने अंदर के इस जंगली पन को देख कर डर
गया। काश वो अपना रूप मैंने न देखा होता। में तो अब तक आपने को बड़ा आदर्श कुत्ता
समझता था। मैंने दांतों से उसे पकड़ कर अपने पैरो के बीच में रख लिया। और एक बाद
अपनी विजय और सतर्कता के लिया फिर एक बार चारों और देखा। और फिर बड़े चाव से मैं
उस खरगोश को खाने लगा। उसका स्वाद कैसा था, इसकी तुलना का
पैमाना भी मेरे पास नहीं था।
क्योंकि
इससे पहले तो मैंने कभी मांस को छुआ भी नहीं था। पर कोई चीज अंदर से ही मुझे उसे
खाने के लिए प्रेरित कर रही थी। पर उसका स्वाद मुझे कुछ रुचिकर नहीं लग रहा था।
मैंने सोचा पहली बार खाने की वजह से ऐसा लग रहा था। पर मैं ज्यादा नहीं खा सका, अगर एक ग्रास ओर खा लेता तो मेरे भीतर का सब बहार आ जाता। मेरे बाद टोनी ने भी दावत उड़ाई। और बचा हुआ
सारा का हानि खा गया।
शायद ये इस जन्म में मेरा पहला और अंतिम मासा
हार था। मेरे मन में उसके खोने से एक विचित्र तरह की घिन्नी सी भर गई था। उस की
कल्पना मात्र से में अंदर तक सिहर जाता था। इतने घण्टे मेहनत करने के बाद ये बे
स्वाद सी चीज खाने को मिली जो और शरीर मेरे शरीर को भी बिमारी भर गयी। मुझे लगा उस के खाने में क्या
सार और इस घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं जो मैं उस बकवास चीज को खाऊ। खाना है
तो पनीर, जलेबी,
दूध, पलाव, न्यू डल.....ओर ने जाने क्या—क्या
इनायत है।
सो मैंने मन मे धारणा कर ली आज
के बाद ये सब नहीं खाऊंगा। आदमी का बनाया भोजन कितना सुस्वाद होता है। क्या
चटपटी, लजीज सब्जी बनता है। और मीठे का
तो क्या कहना। खाने से पहले ही मुहँ से पानी टपकने लग जाता था। और कितने प्रकार
के व्यंजन आदमी ने इस पृथ्वी पर ईजाद कर लिए ये एक चमत्कार ही है। हर उस वस्तु
को खाने का साधन बन लिया और ये ही नहीं उस से अनेक प्रकार के सुस्वाद व्यंजन बना
लिये। ये तो इस इंसान की महानता और गौरव है।
भू.....भू......भू.....आज
के लिए बस।
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