पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक: 19 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-नौवा-(जिन डूबे तिन ऊबरे)
पहला प्रश्न: भगवान,
इधर आप भगवान की जगह भगवत्ता और धर्म की जगह
धार्मिकता की बात कर रहे हैं। हमें भगवत्ता और धार्मिकता को विशद रूप से समझाने की
कृपा करें।
पूर्णानंद,
भगवत्ता एक सत्य है; भगवान एक कल्पना। भगवत्ता एक
अनुभव है; भगवान, एक प्रतीक, एक प्रतिमा। जैसे तुमने भारत माता की तस्वीरें देखी हों। कोई चाहे तो
प्रेम की तस्वीर बना ले। लोगों ने प्रभात की तस्वीरें बनाई हैं, रात्रि की तस्वीरें बनाई हैं। प्रकृति को भी रूपायित करने की चेष्टा की
है। काव्य की तरह वह सब ठीक, लेकिन सत्य की तरह उसका कोई
मूल्य नहीं।
जीवन, अस्तित्व संज्ञाओं से नहीं बनता, क्रियाओं से बनता है। और हमारी भाषा संज्ञाओं पर जोर देती है। जैसे सच
पूछो तो जब हम कहते हैं वृक्ष है, तो गलत कहते हैं।
कहना
चाहिए--वृक्ष हो रहा है। वृक्ष एक क्रिया है, जीवंतता है।
वृक्ष कोई ऐसी चीज नहीं जो ठहरी है; गतिमान है, गत्यात्मक है, प्रवाहमान है। वृक्ष की तो छोड़ ही दो,
हम तो यह भी कहते हैं कि नदी है।
यूनान के रहस्यवादी हेराक्लाइटस ने कहा है: एक ही नदी में दुबारा
उतरना संभव नहीं है। और मैं तो कहता हूं: एक ही नदी में एक बार भी उतरना संभव
नहीं। क्योंकि जब तुम्हारा पैर नदी के ऊपरी तल को छूता है तब नदी भागी जा रही है।
जब तुम्हारा पैर थोड़ा पानी में भीतर धंसता है तब तक ऊपर का पानी भागा जा रहा है।
जब तक तुम अपने पैर से नदी के तल को छू पाते हो तब तक कितना पानी बह चुका! एक ही
नदी में एक बार भी उतरना संभव नहीं है। नदी प्रवाह है। लेकिन हम नदी को एक ठहरी
हुई संज्ञा बना लेते हैं। काश, हम भाषा को क्रियाओं में बदल दें
तो हम सत्य के ज्यादा करीब पहुंच जाएंगे। और वही मेरी चेष्टा है।
इसलिए भगवान पर जोर नहीं देता हूं, भगवत्ता पर जोर देता
हूं। भगवत्ता का अर्थ हुआ: अनुभूति, प्रवाहमान अनुभूति।
भगवत्ता का अर्थ हुआ: नहीं कोई पूजा करनी है, नहीं कोई
प्रार्थना, नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने हैं,
न पूजा के थाल सजाने हैं, न अर्चना, न विधि-विधान, यज्ञ-हवन, वरन
अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है उस धारा का अनुभव करना है। वह जो चेतना है,
चैतन्य है, वह जो प्रकाश है, स्वयं के भीतर जो बोध की छिपी हुई दुनिया है, वह जो
बोध का रहस्यमय संसार है, उसका साक्षात्कार करना है। उसके
साक्षात्कार से जीवन सुगंध से भर जाता है। ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं। उस
सुगंध का नाम भगवत्ता है।
भगवान की तरह तुम किसी व्यक्ति को कभी न मिल सकोगे। तुम अगर सोचते होओ
कि कभी मुलाकात होगी, कभी दो बातें होंगी, कि कभी
जीवन का दुखड़ा रोएंगे, कथा-व्यथा कहेंगे, तो तुम गलती में हो। ऐसा भगवान न कहीं है, न कभी था।
इसलिए तुम जिन प्रतिमाओं के सामने सिर झुका रहे हो वे प्रतिमाएं तुम्हारी ही ईजाद
हैं। काव्य की तरह मैं उन्हें स्वीकार करता हूं, सुंदर हो
सकती हैं, लेकिन तथ्य की भांति उनमें कुछ भी नहीं है। अपनी
ही बनाई हुई चीजों के सामने झुकने से ज्यादा और नासमझी क्या होगी?
मैं मूर्तिभंजक हूं। और पत्थर की मूर्तियां नहीं तोड़नी हैं। पत्थर की
मूर्तियां तोड़ने से क्या होगा? वे तो कलाकृतियां हैं। लेकिन
तुम्हारे चित्त से जो मूर्ति की धारणा है वह जरूर खंडित करनी है।
लोग अक्सर सवाल उठाते हैं। जैसे कि जैनों ने सवाल उठाया है कि हम कैसे
कृष्ण को भगवान कहें? या हिंदुओं ने सवाल उठाया है कि हम कैसे महावीर को
भगवान कहें, कैसे बुद्ध को भगवान कहें? या बौद्धों ने सवाल उठाया है कि हम कैसे महावीर को भगवान कहें? क्योंकि व्यक्ति की तो सीमाएं हैं--जन्म है और मृत्यु है; बीमारी है, बुढ़ापा है; आज
व्यक्ति है, कल नहीं हो जाएगा। और उनकी बात तर्कयुक्त मालूम
होती है।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि व्यक्तियों को चाहो तो भगवान कह
सकते हो--इस अर्थ में कि जिन्होंने भगवत्ता को पहचान लिया, जिन्होंने अपने भीतर की भगवत्ता को पी लिया, आकंठ जो
उसमें डूब गए, उनको तुम भगवान कह सकते हो, फिर वे जीसस हों कि मोहम्मद हों, मंसूर हों कि
महावीर हों, कि कबीर हो कि नानक हों--कुछ फर्क नहीं पड़ता
कौन। जिसने प्रेम को जाना, वह प्रेमी और जिसने भगवत्ता को
जाना, वह भगवान। लेकिन भगवत्ता असली बात है। जिसने उसे पीया,
जो तृप्त हुआ, वह भगवान। ऐसा कोई भगवान नहीं
है जिसने जगत को बनाया हो। ऐसा कोई भगवान नहीं है जो स्रष्टा हो। जरूर यह पूरी
प्रकृति ओतप्रोत है एक अनिर्वचनीय रहस्य से; एक अपरिभाष्य,
एक असीम इस पूरी प्रकृति में समाविष्ट है। वह इसके बाहर बनाने वाला
नहीं है, इसके रोएं-रोएं में, इसके
कण-कण में ओतप्रोत है। वही है।
भगवान से स्रष्टा की भ्रांति पैदा होती है। और भगवत्ता से सृजनात्मकता
का बोध पैदा होता है।
और ऐसे ही मैं धर्म की जगह धार्मिकता की बात करता हूं। क्योंकि धर्म
से अर्थ होता है: बंधी-बंधाई धारणाएं। धर्म से अर्थ होता है: मान्यताएं, विश्वास। और धार्मिकता से अर्थ होता है: चैतन्य की उज्ज्वल स्थिति;
भीतर का ज्योतिर्मय हो जाना, आलोकित हो जाना।
भीतर अंधेरा है अभी, यह अधर्म। या ज्यादा ठीक हो:
अधार्मिकता। और भीतर चेतना का प्रकाश फैल जाए, ध्यान जगे,
ध्यान की लपट उठे, तो धार्मिकता।
धार्मिकता कोई सिद्धांत नहीं है, जैसे भगवत्ता कोई
व्यक्ति नहीं है। सिद्धांत तो दो कौड़ी की चीजें हैं। जैसा चाहो बना लो, जैसा चाहो मिटा लो। सिद्धांत तो तर्कों का जाल है। और तर्क का मालिक आदमी
है। वही तर्क सिद्ध कर सकता है, वही तर्क असिद्ध कर सकता है।
तर्क का कोई भरोसा नहीं। और ऐसा कौन सा सिद्धांत है जिसका खंडन न किया जा सके?
और ऐसा कौन सा विचार है जिसका समर्थन न किया जा सके? तर्क तो वेश्या है। किसी के भी साथ खड़ा कर दो। या कहो कि तर्क वकील है।
वकील और वेश्याओं में बहुत भेद नहीं। वकील तो किसी के भी साथ खड़े हो जाने को तैयार
है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक वकील के पास गया था। वकील ने उससे पूरा मामला
सुना और सुनकर कहा कि बिलकुल घबड़ाओ मत, हजार रुपया फीस लगेगी
लेकिन मुकदमा तुम निश्चित जीतोगे। तुम्हारी जीत सुनिश्चित है। तुम्हारा मामला
बिलकुल साफ है। इसमें हार की कोई संभावना नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन उठकर खड़ा हो गया।
वकील ने पूछा, कहां जाते हो?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि जब जीत साफ ही है और हार का कोई उपाय ही
नहीं, तो क्या फायदा लड़ने से?
वकील ने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। तो क्या हारने के लिए लड़ना चाहते
हो?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब तुम से क्या
छिपाना? यह मैंने अपने विरोधी की तरफ से जो मामला है वह कहा
था। जब जीत की बिलकुल निश्चय ही है और हार हो ही नहीं सकती तो अब लड़ना क्या?
यह मैंने विरोधी की तरफ से जो-जो दलीलें थीं वे तुम्हारे सामने
रखीं। और तुम कहते हो जीत बिलकुल सुनिश्चित है। सो विरोधी जीतेगा। अब ये हजार रुपए
और किसलिए खराब करने।
वकील तो सभी को कहता है कि जीतोगे। इसने अगर अपना मामला बताया होता तो
भी यही कहता। इसने किसी और का मामला बताया तो भी यही कहा। वकील का तो धंधा यही है।
तर्क का भी धंधा है। ईश्वर को सिद्ध कर सकते हो तर्क से, असिद्ध कर सकते हो। इसीलिए तो नास्तिक और आस्तिक सदियों से उलझते रहे,
जूझते रहे, कोई निर्णय न हुआ।
मैं धर्म को सिद्धांत की बात नहीं मानता। सिद्धांत तो बदल जाते हैं।
नए तथ्य निकल आते हैं तो सिद्धांतों में रूपांतरण करना होता है। विज्ञान
सिद्धांतों की बात है। इसलिए विज्ञान में रोज सिद्धांत बदलते हैं। न्यूटन के समय
में एक सिद्धांत था, एडीसन के समय में दूसरा हुआ, आइंस्टीन
के समय में तीसरा हुआ, अब आइंस्टीन के भी आगे बात जा रही है।
नए तथ्य प्रकट हो रहे हैं। यह रोज बदलाहट होती रहेगी।
धर्म सिद्धांत नहीं है।
धर्म फिर क्या है? धर्म ध्यान है, बोध है, बुद्धत्व है। इसलिए मैं धार्मिकता की बात
करता हूं। चूंकि धर्म को सिद्धांत समझा गया है, इसलिए ईसाई
पैदा हो गए, हिंदू पैदा हो गए, मुसलमान
पैदा हो गए। अगर धर्म की जगह धार्मिकता की बात फैले तो फिर ये भेद अपने आप गिर
जाएंगे। धार्मिकता कहीं हिंदू होती है कि मुसलमान होती है कि ईसाई होती है!
धार्मिकता तो बस धार्मिकता होती है। स्वास्थ्य हिंदू होता है कि मुसलमान कि ईसाई?
प्रेम जैन होता है, बौद्ध होता है कि सिक्ख?
जीवन, अस्तित्व इन संकीर्ण धारणाओं में नहीं बंधता। जीवन
सभी संकीर्ण धारणाओं का अतिक्रमण करता है। इनके पार जाता है।
धार्मिकता धर्मों के पार है। और भगवत्ता तुम्हारे तथाकथित भगवान की
धारणाओं के पार है। भगवानों की तो बहुत धारणाएं हैं। हिंदुओं का भगवान है, उसके तीन चेहरे हैं, हजार हाथ हैं। फिर ईसाइयों का
भगवान है, फिर मुसलमानों का भगवान है। भगवान की तो धारणाएं
जितने लोग हैं उतनी हो सकती हैं। लेकिन भगवत्ता कोई धारणा नहीं है। इसलिए भगवत्ता
का कोई रूप न बन सकेगा। सौंदर्य का तुम क्या रूप बनाओगे? सुंदर
सुबह की तस्वीर हो सकती है, सुंदर फूल की तस्वीर हो सकती है,
सुंदर चेहरे की तस्वीर हो सकती है, लेकिन
सौंदर्य की क्या तस्वीर होगी? सौंदर्य का तो सिर्फ अनुभव हो
सकता है। भगवत्ता सौंदर्य है।
भगवत्ता और धार्मिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर भगवान को
मानोगे तो धर्म को मानोगे। भगवान आया तो सिद्धांत आए, शास्त्र आए। भगवत्ता आई तो सिद्धांत गए, शास्त्र गए,
धार्मिकता आई।
इसलिए पूर्णानंद, मैं निश्चित जोर दे रहा हूं
भगवत्ता पर, धार्मिकता पर। काश, तुम
व्यक्ति से, सिद्धांत से, शास्त्र से,
शब्द से मुक्त हो सको तो तुम्हारा अपने भीतर आगमन संभव हो जाए। और
जिस क्षण तुम अपने भीतर आओगे उसी क्षण पाओगे--वह महत संपदा, जो
दबी पड़ी है। जिसकी तुम खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर
मौजूद है और जिसकी तुम पूजा कर रहे हो, वह पूजा करने वाले
में बैठा हुआ है। किसकी तुम बाहर पूजा करते हो?
लोग फिर मंदिर बदल लेते हैं। एक मंदिर से थक जाते हैं तो दूसरे मंदिर
जाने लगते हैं। मंदिरों से थक गए तो मस्जिद जाने लगते हैं, मस्जिदों से थक गए तो गिरजे जाने लगते हैं, गिरजों
से थक गए तो गुरुद्वारा जाने लगते हैं।
लेकिन इन सारी बदलाहटों से कुछ भी न होगा। बाहर से थको तो कोई क्रांति
घट सकती है। बाहर से थको और भीतर आओ--अपने पर आओ। वहीं मुकाम है। वहीं अंतिम पड़ाव
है। वहीं विराम है। वहीं विश्राम है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
समय कब बदलेगा?
हम नारियों की स्थिति कब सुधरेगी?
रामप्यारी अग्रवाल,
बदलेगा बाई, जरूर बदलेगा। बदल ही रहा है। ठहरा कब था? जो बदलता है उसी का नाम तो समय है। और जोर से बदल रहा है। थोड़ा सब्र,
थोड़ा सा धीरज और। यूं भी अनादि काल से धीरज रखा है। थोड़ा सा धीरज और
ऐसा बदलने वाला है--समय बदलता जा रहा है--कि सदियों का बदला इकट्ठा ले लेना।
चंद रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीराज से माजूर हैं हम
जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरें हैं
फिक्र महबूस है, गुफ्तार पे ताजीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब जुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में,
हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गिरांबार सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दोरोजा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज और
मेरी जान फकत
चंद ही रोज
बस, थोड़ा ही सा सब्र। पुरुष का बनाया हुआ घर गिरा जा रहा
है। खंडहर ही रह गए हैं। यूं भी पुरुष बाहर ही बाहर मालिक रहा है। कहने को ही
मालिक रहा है। दिखाने को ही मालिक रहा है। लाख उसने उपाय किए हैं मालकियत के,
मगर जीता कब? जीत उसकी हुई कब? घर में घुसते ही पूंछ दबा लेता है।
और स्त्रियां होशियार हैं। कहती हैं, बाजार में चलो अकड़कर
चलो, छाती फैलाकर चलो, ताल ठोंककर चलो,
कोई फिक्र नहीं। बस, घर में आए कि ढंग से रहो
कि ढंग से उठो, ढंग से बैठो। और बैठता है ढंग से; ढंग से उठता है।
मगर इतने से भी, रामप्यारी बाई, तू राजी नहीं है, कुछ और चाहिए! वह कुछ और भी हो
जाएगा। जल्दी ही वक्त आ जाएगा कि मर्दों को डोली में बैठकर जाना पड़े। घर का कामकाज
तो करने ही लगे हैं, डोली में ही बैठना रह गया है, घूंघट ही डालना रह गया है। वह भी होगा। आखिर इतने दिन स्त्रियां डोलियों
में बैठीं और घूंघट डाले, तो उसकी प्रतिक्रिया तो होने ही
वाली है।
एक दिन जब म्हारी मां दफ्तर से घर आई तो बापू बोल्यो: ऐजी, थाने दीखे कोई न छोरो जवान होरियो है। कोई अच्छो सो घर देखके याको हाथ
पीलो कर दो। कालने कोई ऊंच-नीच हो जावेगी तो खानदान की नाक ही कट जावेगी।
बापू जब म्हारी मां से म्हारे ब्याह की बात कर रियो थो तो मैं केंवाड़
के छेंक में से सारी बात सुन रियो थो। सुणता ही म्हारो चेहरो शरम से लाल हो रियो
थो। पंण कई छोरिया आवें और म्हाणे रिजेक्ट करके चली जावें। पंण एक दिन तन की सूखी, मन की रूखी, दहेज की भूखी एक छोरी म्हाणे देखवाने
आई। मैं सर पर पल्यौ, आंखां नीची करके उनकी तरफ पान की
तश्तरी बढ़ाई। पंण वा छोरी थी खेल खिलाई। पान लेता वा मोरौ आंगली दबाई। मैं दूसरा
कमरा में बापू ने ले जाके सारी बात बताई। तो बापू बोल्यो: तेरी तो तबियत यहीं
घबराई। तेरी मां भी म्हारी आंगली यांई दबाई।
पंण वा छोरी मां ने पास करी और एक दिन वो भी आयौ जब म्हारे मन में
बाजोड़ी शहनाई। म्हारे घर में भी बाजी। फिर आवै पुत्रदान के बाद जब विदा को नम्बर
आयौ तो बापी बोला, बेटा क्यूं रोवै है? मैं भी कैं
करा, बेटो परायो धन होवै है। मैं डोली में बैठो-बैठो,
रोतो-रोतो गारियो था--
कि मैं अबला मरदन की बस यही कहानी,
कि मुंह पर
मूंछ और आंखों
में पानी।
ससुराल में जब म्हारा कमरा में प्राणेश्वरी आई तो मैं ऊंके चरणों में
धोक लगाई। पंण ऊंसे पहले ही वो म्हारो घूंघट उठायो और मुंह दिखाई में जिल्लट को
शेविंग सेट थंभायो। इम्पोर्टेड थो। एक दिन मैं प्राणनाथिनी ने शिकायत करी--जी, थारी चाची नी नीयत म्हाणे खराब नजर आवे है। वह बिना खांसा ही म्हार कमरा
में घुस आवे है। कालने मैं आइयां-वाइवां बैठे होऊं तो के होवैगो? मैं मर्दां की तो एक इज्जत ही है, यांई लुट जावैगी
तो कैने मुंह दिखावैगो?
मत घबड़ा, रामप्यारी बाई, समय बदल रहा है,
जोर से बदल रहा है। सदियों-सदियों की तकलीफ है, बस जरा सब्र और। बाई, जरा सब्र और! फकत चंद रोज। फकत
चंद ही रोज।
तीसरा सवाल: भगवान,
झूम बराबर झूम शराबी
झूम बराबर झूम
काली घटा है, मस्त फिजा है
जाम उठाकर चूम, चूम, चूम,
झूम बराबर झूम शराबी
क्या यही है आपका संदेश?
हिना भारती
पीवत रामरस लगी खुमारी--संदेश तो यही है। लेकिन कुछ और भी जोड़ना पड़े।
शराब में ध्यान भी हो, मस्ती में होश भी हो, तो यही
संदेश है। झूमो जरूर, मगर झूमना बेहोशी का भी हो सकता है,
मस्ती का भी हो सकता है। झूमना मूर्च्छा भी हो सकती है, और परम बुद्धत्व भी हो सकता है। झूमना तो जरूर है पर आनंद से झूमना है।
शराब तो जरूर पीनी है मगर बाहर की नहीं। बाहर की पी तो उतर जाती है। पीनी है तो
फिर भीतर की पीनी। अंगूरों की ढली शराब पी तो कितनी देर काम आती है! आत्मा की ढली
पीनी है। अपने भीतर ढालनी है।
ध्यान दोनों ही घटनाएं एक साथ घटा देता है। शराब जैसी मस्ती और साथ ही
साथ समाधि की सजगता, जागरूकता। जिसको बुद्ध ने सम्मासती कहा था, या कबीर ने और नानक ने सुरति कहा। अगर बोध भी हो और मस्ती भी हो तो काम
पूरा हो गया। खुमारी का वही अर्थ है।
खुमारी बड़ा प्यारा शब्द है। खुमारी से मतलब बेहोशी नहीं है, सिर्फ बेहोशी नहीं है: बेहोशी+होश। खुमारी बड़ा बेबूझ शब्द है। खुमारी का
मतलब है: डोल भी रहे हैं, मगर होश खोया भी नहीं है। नाच भी
रहे हैं, मगर भीतर अडिग, अकंप ध्यान का
दीया भी जल रहा है। पैरों में घूंघर भी बांधे हैं, लेकिन
किसी मूर्च्छा में नहीं, किसी आनंद-अतिरेक में। ऐसी अवस्था
का नाम ही खुमारी है। पीवत रामरस लगी खुमारी!
हिना, जरूर पीओ! लेकिन मेरी बात गलत भी समझी जा सकती है।
इसी कारण तो उमर खय्याम की बात गलत समझी गई। क्योंकि उसने शराब के प्रतीक का उपयोग
किया है। सूफियों का पुराना उपयोग है। सूफी शराब से वही अर्थ लेते हैं जो खुमारी
का कबीर ने लिया है।
उमर खय्याम एक सूफी फकीर है। कोई साधारण पियक्कड़ नहीं। जो भगवत्ता को पी
बैठा है, ऐसा पियक्कड़ है। कोई साधारण मद्यप नहीं, किसी बाहर के मयखाने से, किसी मयकदे से नहीं पी है,
अपने ही भीतर के अजस्र स्रोत में डुबकी मारी है। अपने ही भीतर मयकदे
की खोज कर ली है। लेकिन जब उमर खय्याम का अनुवाद फिट्जराल्ड ने अंग्रेजी में किया,
और फिर अंग्रेजी के अनुवाद से दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुए, तो बड़ी भ्रांति हो गई। शराब को लोगों ने शराब ही समझा। खुद फिट्जराल्ड भी
गलत समझा। फिट्जराल्ड सुंदरतम अनुवाद किया है: जहां तक काव्य का संबंध है। उमर
खय्याम में उसने कुछ जोड़ दिया, घटाया नहीं; बहुत कम ऐसे अनुवाद हुए हैं जिनमें अनुवादक ने कुछ जोड़ दिया हो, घटाया न हो, मगर उमर खय्याम की बात का अर्थ खो गया।
अर्थ का अनर्थ हो गया।
सूफियों के लिए साकी परमात्मा का प्रतीक है। वह जो शराब पिलाए, वह परमात्मा। जो तुम्हारी प्याली में भरता ही चला जाए; तुम पी भी न पाओ और प्याली भरती चली जाए, भरती चली
जाए, भरती चली जाए; तुम लाख पीओ और
प्याली खाली न हो। साकी परमात्मा का प्रतीक है; और शराब
धार्मिकता का।
हिना, उस अर्थों में पिए तो तो बात ठीक। लेकिन जैसे उमर
खय्याम को गलत समझा गया, मुझको भी गलत समझा जा सकता है।
गुलों के साथ अजल के पयाम भी आए
बहार आई तो गुलशन में दाम भी आए
हमीं न कर सके तजदीदे-आरजू वरना
हजार बार किसी के पयाम भी आए
चला न काम अगर्चे बजोमे-राहबरी
जनाबे खिज्र अलह इस्लाम भी आए
जो तश्नाकामे-अजल थे वो तश्नाकाम रहे
हजार दौर में मीना और जाम भी आए
बड़े-बड़ों के कदम डगमगा गए "ताबां'
राहे-हयात में ऐसे
मुकाम भी आए
जीवन के इस मार्ग में ऐसे पड़ाव भी आते हैं जहां बड़े-बड़ों के पांव भी
डगमगा जाते हैं। जहां भूल हो जाती है, जहां चूक हो जाती है।
जहां कुछ का कुछ समझ लिया जाता है।
जो तश्नाकामे-अजल थे वो तश्नाकाम रहे
और कुछ ऐसे पागल हैं जो प्रारंभ से ही प्यासे हैं और अभी भी प्यासे
हैं।
जो तश्नाकामे-अजल थे वो तश्नाकाम रहे
हजार दौर में
मीना और जाम
भी आए
और ऐसा नहीं है कि मीना और जाम न आए हों। आखिर बुद्ध क्या लाए? आखिर महावीर क्या लाए? आखिर कृष्ण क्या लाए? आखिर जीसस की क्या देन है? सरमदों की और मंसूरों की
क्या भेंट है?
हजार दौर में
मीना और जाम
भी आए
बहुत बार मदिरालय खुले और बहुत बार शराब तुम्हारे सामने पेश भी की गई, जाम भी भर दिए गए, सुराहियां भी उलटा दी गईं,
मगर फिर भी कुछ नासमझी है:
जो तश्नाकामे-अजल थे वो तश्नाकाम रहे
हजार दौर में
मीना और जाम
भी आए
या तो तुम समझे ही नहीं या गलत समझे। या तो तुमने सुना ही नहीं या कुछ
का कुछ सुन लिया। भूल की पूरी संभावना है।
मैं तो यही संदेश दे रहा हूं:
हमीं न कर सके तजदीदे-आरजू वरना
हजार बार किसी
के पयाम भी आए
मैं तो संदेश दे रहा हूं, रोज दे रहा हूं,
लेकिन तुम्हीं अपने प्याले को आगे नहीं बढ़ा पाते हो। तुम्हीं हिम्मत
नहीं जुटा पाते हो। न मालूम कैसी-कैसी कमजोरियों में मन को उलझाए हुए हो। न मालूम
कैसी-कैसी पुरानी धारणाओं में मन को अटकाए हुए हो।
छटे गुबार नजर बामेत्तूर आ जाए
पिओ शराब कि चेहरे पे नूर आ जाए
उठाओ जाम बनामे-हयात बादाकशो
नजारे झूमें नजर को सुरूर आ जाए
शराबखाने में कौसर का जिक्र क्या कहिए
किसी की अक्ल में जैसे फितूर आ जाए
मुकामे-दार से गुजरो तो जिंदगी पाओ
पिओ जो जहरे-हलाहल सुरूर आ जाए
निगाह तेज, नफस गर्म, आरजू बेबाक
जिसे हो नाज हमारे हुजूर आ जाए
ये कारोबारे-मशीयत भी खूब है "ताबां'
किसी पे बर्क
गिरे जद पे
तूर आ जाए
यह दुनिया बहुत अदभुत है। यहां कभी-कभी यूं हो जाता है कि बिजली तो
किसी और पर गिरती है, निशाना कोई और हो जाता है।
ये कारोबारे-मशीयत भी खूब है "ताबां'
ये ईश्वरीय लीला भी खूब है--
किसी पे बर्क
गिरे जद पे
तूर आ जाए
कभी किसी से तो मैं कहता हूं, और कोई और समझ लेता
है। जिसने पूछा ही नहीं था उसको उत्तर मिल जाता है और जिसने पूछा था वह खाली का
खाली रह जाता है।
शराब की ही बात कर रहा हूं, हिना!
छटे गुबार नजर
बामेत्तूर आ जाए
बस जरा सा आंखों से धूलों का हट जाना जरूरी है। जरा आंखों से
सिद्धांतों और शास्त्रों का जाल कट जाना जरूरी है, कि जैसे तूर पर्वत पर
ईश्वर का प्रकाश प्रगट हुआ था ऐसा ही तुम्हारे जीवन में भी घट सकता है। वह तूर
पर्वत कहीं बाहर नहीं है, वह तुम्हारी ही समाधि का शिखर है।
छटे गुबार नजर
बामेत्तूर आ जाए
जरा धूल को छांट दो, जरा दर्पण को निखार लो, साफ कर लो तो तुम्हारे भीतर ही तूर पर्वत प्रगट हो जाए।
पिओ शराब कि
चेहरे पे नूर
आ जाए
और फिर पीओ, लेकिन शराब भीतर की।
उठाओ जाम बनामे-हयात
बादाकशो
जीवन के नाम पर, ऐ पियक्कड़ो--
उठाओ जाम बनामे-हयात बादाकशो
नजारे झूमें नजर
को सुरूर आ जाए
सुरूर के दो अर्थ हैं--आनंद भी और नशा भी। बाहर की शराब पीओगे तो नशा
तो आता है, आनंद नहीं आता। हां, नशा आता है
तो दुख भूल जाता है। और दुख का भूल जाना आनंद नहीं है। दुख का भूल जाना तो सिर्फ
दुख का छिप जाना है। फिर प्रगट हो जाएगा--नशा उतरेगा और दुख फिर जाहिर हो जाएगा।
दुख को भुलाना नहीं है, आनंद को पाना है।
उठाओ जाम बनामे-हयात बादाकशो
नजारे झूमें नजर को सुरूर आ जाए
मुकामे-दार से गुजरो
तो जिंदगी पाओ
सूली से गुजरो तो सिंहासन मिले।
मुकामे-दार से गुजरो
तो जिंदगी पाओ
मिटने की हिम्मत हो तो शाश्वत जीवन तुम्हारा है। गल सको तो सागर
तुम्हारा है। अहंकार को विसर्जित कर सको तो यह अनंत, यह शाश्वत, सब तुम्हारा है। यह सारा आकाश तुम्हारा है, ये
चांदत्तारे तुम्हारे हैं।
मुकामे-दार से गुजरो तो जिंदगी पाओ
पिओ जो जहरे-हलाहल सुरूर आ जाए
और फिर अगर तुम जहर भी पी लो तो भी आनंद आए। तो भी जीवन ही मिले।
क्योंकि फिर कोई मौत नहीं है। मौत सिर्फ अहंकार की होती है। जो अहंकार से मुक्त
हुआ, उसकी फिर कोई मौत नहीं, फिर कोई
मौत की संभावना नहीं।
निगाह तेज, नफस गर्म, आरजू बेबाक
इतना ही तो सिखा रहा हूं कि जरा निगाह तेज करो कि और तेज करो कि और
धार रखो। कि निगाह क्या, तलवार हो जाए।
निगाह तेज, नफस गर्म...
और जीओ तो थोड़ा गर्मी से जीओ। थोड़ी त्वरा से जीओ। श्वास गर्म हो, ठंडी हो गई है। इतनी ठंडी हो गई है कि भीतर जैसे सब जम गया है। बर्फ हो
गया है, आत्मा नहीं बची है।
निगाह तेज, नफस गर्म, आरजू बेबाक
जिसे हो नाज
हमारे हुजूर आ जाए
और जिसे तैयारी हो, वह हमारे सामने आ जाए। जिसे
तैयारी हो पीने की, हमारे हुजूर आ जाए।
ये कारोबारे-मशीयत भी खूब है "ताबां'
किसी पे बर्क
गिरे जद पे
तूर आ जाए
कोई पूछता है, किसी को उत्तर मिल जाता है। कोई सुनता है, सुनता ही रहता है और कोई गुन भी लेता है। कोई बातों में ही उलझा रह जाता
है और कोई यात्रा पर निकल जाता है।
मेरी सहबापरस्ती मूर्दए इलजाम है साकी
खिरद वालों की महफिल में जुनूं बदनाम है साकी
जुनूं में और खिरद में दरहकीकत फर्क इतना है
वो जेरेदार है साकी ये जेरेदाम है साकी
सूए मंजिल बढ़ा जाता हूं मयखाना-ब-मयखाना
मजाके-जुस्तजू तश्नालबी का नाम है साकी
कभी दो-चार कतरे भी सलीके से न पी पाए
वो रिन्देखाम है साकी वो नंगेजाम है साकी
नहीं है आज भी साइस्ताए-आदाबे-मयनोशी
वो इक रिन्दे बलाकश जिसका "ताबां' नाम है साकी
मेरी सहबापरस्ती...
जिन्होंने जाना है उन सभी ने शराब की पूजा की है। जिन्होंने जाना है
उन सभी ने खुमारी की बात कही है।
मेरी सहबापरस्ती मूर्दए
इलजाम है साकी
लेकिन जो नहीं जानते वे इस पर आरोप भी लगाएंगे। वे इसका विरोध भी
करेंगे, निंदा भी करेंगे।
खिरद वालों की महफिल में जुनूं बदनाम है साकी
और तथाकथित जो बुद्धिमान बने बैठे हैं, पंडित बने बैठे हैं,
उनकी महफिल में मस्तों की मस्तानगी, दीवानों
का दीवानापन--
खिरद वालों की महफिल में जुनूं बदनाम है साकी
ये पागलपन, ये परवानों का पागलपन, ये
उन्माद--बदनाम है साकी!
और ध्यान रखना, साकी से अर्थ हमेशा परमात्मा का है।
मेरी सहबापरस्ती मूर्दए इलजाम है साकी
खिरद वालों की महफिल में जुनूं बदनाम है साकी
सूए मंजिल बढ़ा जाता हूं...
सूली की तरफ बढ़ा जाता हूं--
सूए मंजिल बढ़ा जाता हूं मयखाना-ब-मयखाना
एक मयखाने से दूसरा मयखाना, दूसरे से तीसरा
मयखाना, यूं धीरे-धीरे सूली की तरफ बढ़ा जाता हूं।
सूए मंजिल बढ़ा जाता हूं मयखाना-ब-मयखाना
मजाके-जुस्तजू तश्नालबी का
नाम है साकी
यह जो तलाश की अभीप्सा है, यही तो प्यास है। यही
तो तश्नालबी है। यह अभीप्सा, सत्य के खोजने की यह अभीप्सा,
यह आकांक्षा, यही तो दीवानगी है।
समझदार धन इकट्ठा करने में लगे हैं। समझदार शास्त्रों में सत्य खोज
रहे हैं। समझदार पद खोज रहे हैं, प्रतिष्ठा खोज रहे हैं, अहंकार के लिए नए-नए शृंगार खोज रहे हैं। थोड़े से पागल हैं इस दुनिया में,
जो सत्य खोज रहे हैं, जो स्वयं को खोज रहे
हैं। और उन थोड़े से पागलों के कारण ही इस जमीन में थोड़ा नमक है, थोड़ा स्वाद है, नहीं तो सब बेस्वाद हो जाए।
सूए मंजिल बढ़ा जाता हूं मयखाना-ब-मयखाना
मजाके-जुस्तजू तश्नालबी का नाम है साकी
कभी दो-चार कतरे
भी सलीके से
न पी पाए
और ऐसे अभागे भी हैं कि जो कभी दो-चार कतरे भी सलीके से न पी पाए।
वो रिन्देखाम हैं साकी...
वे अनाड़ी हैं।
वो रिन्देखाम हैं
साकी वो नंगेजाम
हैं साकी
अनाड़ी ही नहीं, वे इस पूरी मधुशाला के लिए कलंक हैं; इस मस्ती से भरे हुए अस्तित्व के लिए कलंक हैं।
नहीं है आज
भी साइस्ताए-आदाबे-मयनोशी
अभी भी शराब पीने की कला नहीं आई। शराब है, साकी है, सुराही है, जाम है,
मगर फिर भी कुछ लोग पीठ किए बैठे हैं।
नहीं है आज भी साइस्ताए-आदाबे-मयनोशी
वो इक रिन्दे बलाकश जिसका "ताबां' नाम है साकी
और यह दुनिया ऐसे अंधों से भरी हुई है।
मेरे पास जो मित्र इकट्ठे हुए हैं उन्हें तो खयाल रख ही लेना चाहिए कि
यह कोई मंदिर नहीं है, यह मयकदा है। जब भी कोई मंदिर जिंदा होता है तो मयकदा
होता है और जब कोई मयकदा मर जाता है तो मंदिर बनता है। मंदिर मयकदों की लाशें हैं,
कब्रें हैं।
बुद्ध जब जिंदा हैं तो मयकदा है, जीसस जब जिंदा हैं तो
मयकदा है और जब मर गए तो फिर चर्च हैं, मंदिर हैं, मस्जिदें हैं, गुरुद्वारे हैं। ये सब लाशें हैं। फिर
ढोते रहो इन लाशों को! कुछ ऐसे पागल हैं कि खाली बोतलों को ही ढोते रहते हैं। कभी
उन बोतलों में शराब थी, पीने वाले पी गए, बोतलें पड़ी रह गईं। पीने वालों को बोतलों से क्या लेना-देना है।
शास्त्र और क्या हैं सिवाय बोतलों के? शब्द और क्या हैं
सिवाय बोतलों के? जिनके भीतर का सार तो कोई पी गया, मधु तो कोई पी गया, मधुपात्र पड़े रह गए हैं। और कुछ
उन्हीं की पूजा कर रहे हैं! चरणचिह्न रह गए हैं रेत पर समय की और लोग उन्हीं पर
फूल चढ़ा रहे हैं।
मुर्दों से सावधान! और काफी मुर्दे हैं। और मुर्दों की पूजा सस्ती भी
है, आसान भी है। लेकिन मुर्दों की जो पूजा करेगा, वह खुद
भी मुर्दा रह जाता है।
हिना, तू ठीक कहती है। यही है मेरा संदेश:
झूम बराबर झूम शराबी
झूम बराबर झूम
काली घटा है, मस्त फिजा है
जाम उठाकर चूम, चूम, चूम
झूम बराबर झूम शराबी
बस झूमने में ध्यान भी रहे, बोध भी रहे, भीतर प्रकाश का दीया भी जलता रहे। नहीं तो भूल हो जाएगी। वैसी भूलें इतनी
हो चुकी हैं--और जिन्होंने की हैं बड़े समझदार लोग हैं, बड़े
विचारशील लोग हैं--कि आश्चर्य होता है कि इतने विचारशील लोग ऐसी भूलें कैसे कर
जाते हैं! मगर मेरी समझ में विचारशील लोग भूलें इसलिए कर जाते हैं कि उन्हें यह
भ्रांति है कि वे विचारशील हैं; जबकि केवल उधार विचारों से
भरे हुए हैं। और उधार विचारों से कोई विचारशील नहीं होता।
डाक्टर पोपटमल, पीएच.डी. जब खाना खाकर अध्ययन करने के लिए अपने निजी
पुस्तकालय में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उनका चश्मा टेबल पर नहीं है। इससे
उन्हें बहुत चिंता हुई कि आखिर चश्मा गया कहां? वे उदास होकर
कुर्सी पर बैठ गए और सामने रखी टेबल पर दोनों कोहनियां टिकाकर हथेलियों पर सिर
रखकर चश्मे के संबंध में मनन करने लगे।
डाक्टर पोपटमल ने सोचा कि हो न हो कोई चश्मा उठाकर ले गया है। अब यह
सवाल उठता है कि जिसने चश्मा उठाया या तो उसे स्वयं कम दिखाई पड़ता है अथवा उसे ठीक
दिखाई पड़ता है। यदि उसकी आंखें कमजोर हैं तो वह मेरे चश्मे को कैसे उठाकर ले जा
सकता है, क्योंकि उसके पास स्वयं की ऐनक होनी ही चाहिए। और यदि
किसी ठीक आंख वाले ने चश्मा उठाया होगा, तो वह उसका करेगा
क्या? इससे सिद्ध होता है कि किसी ने मेरा चश्मा नहीं उठाया।
बगल की ही टेबल पर बैठे पोपटमल के दोस्त पंडित तोताराम शास्त्री ने
पूछा क्या बात है, डाक्टर? इतने परेशान क्यों लग
रहे हो, यार? मुझे कहो, शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।
पोपटमल बोले, भाई शास्त्री, मेरा चश्मा न
जाने कहां चला गया। चूंकि चश्मा अपने आप कहीं जा नहीं सकता, इससे
सिद्ध होता है कि कोई न कोई उसे जरूर उठा ले गया है। चूंकि स्वस्थ आंखों वाला कोई
व्यक्ति तो उसे उठा सकता नहीं, और न ही कमजोर आंखों वाला उसे
उठाकर ले जा सकता है, क्योंकि उसके पास उसका खुद का चश्मा
होगा। आप ही इस समस्या को सुलझाइए।
पंडित तोताराम शास्त्री ने दो मिनट सोचने के बाद कहा, यह भी तो हो सकता है कि कोई आपके चश्मे को बेचने के खयाल से चुरा ले गया
हो।
पोपटमल बोले, ऐसा संभव नहीं। क्योंकि चोर जिसे वह चश्मा बेचेगा
उसकी आंखें निश्चित ही कमजोर होंगी। और जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि उसके
पास पहले से ही स्वयं का चश्मा होगा।
इस पर तोताराम शास्त्री बोले, मगर हो सकता है कि
किसी कमजोर आंख वाले व्यक्ति का चश्मा टूट-फूट गया हो और उसे नए चश्मे की जरूरत
हो। तो या तो वह स्वयं चश्मा उठाकर ले गया, या फिर कोई उसे
चश्मा बेचने के खयाल से चुरा ले गया।
डाक्टर पोपटमल ने तुरंत फोन पर शहर के एकमात्र नेत्र-विशेषज्ञ से बात
की और पता लगाया कि जिस नंबर का चश्मा वे लगाते हैं, उस नंबर का चश्मा शहर
में किसी और आदमी का भी है या नहीं? नेत्र-विशेषज्ञ ने बताया
कि उस नंबर का चश्मा शहर में किसी दूसरे आदमी को नहीं लगता।
विशेषज्ञ के इस उत्तर से शास्त्री जी की परिकल्पना गलत साबित हो गई।
करीब आधा घंटे तक दोनों दार्शनिक गंभीर मुद्रा बनाए चिंतन करते रहे। तब अचानक
पंडित तोताराम शास्त्री ने उछलकर अलमारी से एक किताब निकाली और उसमें से पढ़कर
बताया कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लोग चश्मे को भोजन करते वक्त या किसी से बातें
करते समय माथे पर ऊपर चढ़ा लेते हैं और फिर भूल जाते हैं।
डाक्टर पोपटमल के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई, उन्होंने कहा, हे राम, यह बात
तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं। हो न हो ऐसा ही हुआ होगा। अब सवाल यह उठता है कि इस
कमरे में हम सिर्फ दो ही आदमी हैं, कोई और इस कमरे में आया
नहीं है, तो या तो चश्मा मेरे माथे पर चढ़ा होगा या फिर
शास्त्री जी आपके माथे पर। चूंकि मुझे आपके माथे पर कोई चश्मा दिखाई नहीं देता,
इससे साफ प्रमाणित होता है कि चश्मा मेरे ही माथे पर होना चाहिए।
वैसे तो सत्य का पता लगाने के लिए तार्किक निष्कर्ष ही अकेले काफी हैं, किंतु कुछ विद्वानों का मत है कि लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात,
इसलिए तार्किक निष्पत्ति के अलावा मैं आंखों देखा प्रमाण ही प्राप्त
करूंगा। ऐसा कहते हुए पोपटमल उठे और आईने के सामने जा पहुंचे। और अपने माथे पर चढ़े
हुए चश्मे की प्रतिछवि आईने में देखकर खुशी में चिल्ला उठे मिल गया, मिल गया! यूरेका, यूरेका!!
चश्मा मिलने की खुशी में वे इतने जोर से उछले कि चश्मा खिसककर नीचे
गिरा और चकनाचूर हो गया।
पंडितों से ज्यादा मूढ़ इस जगत में कोई और नहीं है। पंडितों ने अनर्थ
कर डाला है।
मेरे पास उनकी ही जरूरत है जो पांडित्य की धूल झाड़ सकते हों। जिनमें
इतनी हिम्मत हो कि फिर से बच्चों की तरह भोले हो जाएं, सरल हो जाएं। उतारकर रख दें सारा बोझ--सिद्धांतों का, शास्त्रों का, शिक्षाओं का। और तब तुम्हारे पास वैसी
तीखी नजर, वैसी पैनी नजर आ जाती है जो जीवन के सारे रहस्यों
को देखने में समर्थ है। तभी आदमी भूल से बच सकता है। तब तुम खुमारी का अर्थ
ठीक-ठीक समझोगे। नहीं तो डर है।
खुमारी का मतलब यह मत समझ लेना कि शराब पीनी है। और कहीं शराब पीने से
बचने के लिए ऐसा न करना कि बिलकुल अकड़कर रह जाओ, सूखकर रह जाओ,
डरे-डरे हो जाओ कि कहीं कुछ भूल-चूक न हो जाए। तब भी खुमारी चूक
जाएगी।
पीनी तो है--भीतर की पीनी है। और पीनी तो है--मगर होश से पीनी है। होश
भी रहे और बेहोशी भी रहे, दोनों में एक संतुलन हो, एक
सामंजस्य हो, एक तालमेल हो, एक छंदोबद्धता
हो, तब व्यक्तित्व में अदभुत फूल लगते हैं। तब बुद्ध नाचते
हैं और मीरा मौन होती है। और जहां बुद्ध और मीरा साथ-साथ होते हैं वहां जीवन अपनी
परिपूर्णता में खिलता है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
मैं बहुत देर से आपकी शरण में आया, फिर भी मन इस तरह से हर समय गुनगुनाता है कि:
कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि तुमको बनाया गया है मेरे लिए
तुम अब से पहले सितारों में बस रहे थे कहीं
तुझे जमीं पर उतारा गया है मेरे लिए
इसे मन की कौन सी दशा कही जाए?
सूरज प्रकाश भारती,
इसी को तो मैं दीवानापन कह रहा हूं। यही तो पागलपन है। ऐसे ही दीवानों
के लिए तो निमंत्रण है। और ऐसे ही दीवानों का मुझसे कुछ नाता बन सकता है। यह नाता
प्रेम का नाता है। यहां कोई गुरु नहीं, यहां कोई शिष्य नहीं;
यह प्रेमियों की जमात है।
और इसकी चिंता मत लो कि मैं बहुत देर बाद आपकी शरण में आया। सुबह का
भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं। जब भी आ गए तभी जल्दी है। आ गए यही बहुत। आ
गए, यह सौभाग्य है! मगर आकर भी लोग चूक गए हैं। आ-आकर भी लोग चूक गए हैं। आ
जाना ही काफी नहीं। उतने से ही तृप्त न हो जाना। अब डूबो भी!
प्रेम की पुकार तुमने सुनी--और तुम्हारे हृदय में प्रेम की झंकार भी
पैदा हो रही है; उससे डर भी लगेगा। बुद्धि विरोध भी करेगी, एतराज भी उठाएगी, आक्षेप भी करेगी, हजार तरह के तर्क भी खड़े करेगी। लेकिन तुम बुद्धि की सुनना ही मत। हृदय की
सुनना और हृदय की गुनना। तो ही इस महफिल में जुड़ पाओगे। नहीं तो कटे-कटे रह जाओगे।
आ गए और फिर चूक गए तो और भी बड़ा दुर्भाग्य है।
तू चाहे चंचलता कह ले
तू चाहे निर्बलता कह ले
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा
मैं चातक हूं तू बादल है
मैं लोचन हूं तू काजल है
मैं आंसू हूं तू आंचल है
मैं प्यासा हूं तू गंगाजल है
तू चाहे नादानी कह ले
तू चाहे मनमानी कह ले
जिसने भी मेरा परिचय पूछा
मैं तेरा नाम बता बैठा
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा
सारा मदिरालय घूम गया
प्याले-प्याले को चूम गया
पर जब तूने घूंघट खोला
मैं बिन पीए ही झूम गया
तू चाहे पागलपन कह ले
तू चाहे तो पूजन कह ले
मंदिर में जब घड़ियाल बजा
मैं तुझको सीस झुका बैठा
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा
मैं अब तक जान न पाया हूं
क्यूं तुझसे मिलने आया हूं
तू मेरे दिल की धड़कन है
मैं तेरे दर्पण की छाया हूं
तू चाहे तो सपना कह ले
या अनहोनी घटना कह ले
मैं जिस पथ से भी चल निकला
मैं तेरे दर पर आ बैठा
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा
ये प्यार दीए का तेल नहीं
दो-चार घड़ी का मेल नहीं
यह तो युगऱ्युग का बंधन है
कोई गुड़ियों का खेल नहीं
तू चाहे दीवाना कह ले
या अल्हड़ मस्ताना कह ले
मैंने जो भी रेखा खींची
तेरी तस्वीर बना बैठा
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा
उर की पीड़ा मैं सह न सकूं
कुछ कहना चाहूं कह न सकूं
ज्वाला बनकर भी रह न सकूं
आंसू बनकर भी बह न सकूं
तू चाहे तो रोगी कह ले
या मस्ताना जोगी कह ले
मैं तुझे याद करते-करते
अपना भी होश गंवा बैठा
मैं तुझसे प्रीत
लगा बैठा
प्रेम तो हुआ, यात्रा का पहला कदम तो उठा, मगर
बहुत यात्रा बाकी है। इस प्रेम में मरना जरूरी है, मिटना
जरूरी है। जो मरेगा, वही पुनरुज्जीवन पा सकेगा। देर-अबेर आए,
अब इसकी फिक्र न करो। आ गए, अपने को धन्यवाद
दो, अपने को धन्यभागी मानो। मगर किनारे पर खड़े न रह जाना।
कबीर ने कहा है:
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई रही किनारे बैठ।।
कभी-कभी यूं हो जाता है कि लोग किनारों पर आ जाते हैं और बैठकर रह
जाते हैं।
मैं बौरी खोजन गई...
मैं पागल खोजने भी गई, नदी तक पहुंच भी गई,
लेकिन किनारे पर बैठ रही।
अब डुबकी मारो! और डुबकी में फिर बचाना मत कुछ। डुबकी फिर पूरी ही
होनी चाहिए, समग्र ही होनी चाहिए। होशियारी न करना। होशियारी सबसे
खतरनाक बात है।
भारत-पाक युद्ध के समय लोगों को जबर्दस्ती सेना में भर्ती करके युद्ध
के लिए भेजा जा रहा था। सरकारी अफसर नव ब्रह्मचारी श्री मिट्ठूलाल ज्ञानी के पास
आए और उनसे सेना में भर्ती होने की विनती करने लगे।
ब्रह्मचारी मिट्ठूलाल ज्ञानी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए जवाब दिया, ना बाबा ना, राम कहो राम, मैं
कभी सेना में न जाऊंगा। अरे, मैं ठहरा बालब्रह्मचारी,
भला मैं लड़ाई पर कैसे जा सकता हूं?
अफसरों ने कहा, मगर ज्ञानी जी, लड़ाई से
ब्रह्मचर्य थोड़े ही नष्ट होता है। और अगर आप जैसे हृष्ट-पुष्ट ब्रह्मचारी लोग ही
युद्ध पर न जाएंगे तो फिर कौन जाएगा भारत माता की लाज बचाने!
ब्रह्मचारी मिट्ठूलाल बोले, खतरा है। इसलिए मैं
युद्ध पर जाने में आनाकानी कर रहा हूं। यदि आपको विश्वास न हो तो मैं सिद्ध किए
देता हूं।
अधिकारियों ने कुछ समय सोचने-विचारने के बाद कहा कि यदि आप सिद्ध कर
दें कि युद्ध में जाने से आपका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा तो हम आपको युद्ध पर नहीं
भेजेंगे।
अधिकारियों ने सोचा कि युद्ध में स्त्रियां तो जा नहीं रही हैं, फिर ब्रह्मचर्य भंग होने का सवाल ही कहां उठता है!
ब्रह्मचारी मिट्ठूलाल ज्ञानी अपनी बात शुरू करते हुए बोले, सुनिए; अगर मैं सेना में भर्ती होता हूं तो या तो
मुझे मिलिटरी के किचन में काम मिलेगा या फिर मुझे लड़ाई पर जाना पड़ेगा। यदि किचन
में काम मिला तब तो ठीक है, परंतु यदि लड़ाई में जाना पड़ा तो
दो बातें हो सकती हैं--या तो मैं मारा जाऊंगा या जिंदा बच जाऊंगा। अगर जिंदा बच
गया तो कोई बात नहीं, मगर खुदा न खास्ता यदि मर गया तो दो
बातें संभव हैं। या तो मैं तोप से मारा जाऊंगा या गोली से। यदि तोप से मेरी
धज्जियां उड़ जाएं तो मुझे कोई गम नहीं। परंतु मान लीजिए कि मैं गोली से मरता हूं
तो दो बातें हो सकती हैं। या तो मैं जलाया जाऊंगा या फिर गड़ाया जाऊंगा। यदि जला
दिया गया तब तो ईश्वर की बड़ी कृपा है, लेकिन यदि गड़ाया गया
तो फिर दो बातों की संभावना है। भविष्य में या तो उस जमीन पर गेहूं, चना, चावल इत्यादि की खेती होगी या फिर तिल, अलसी या मूंगफली की। यदि गेहूं-चने आदि की खेती हुई तो कोई नुकसान नहीं,
लेकिन यदि तिल, अलसी या मूंगफली की खेती की गई
तो उससे निश्चित ही मेरा तेल निकाला जाएगा। यदि उस तेल के अन्य उपयोग किए गए तो
ठीक है, लेकिन यदि उसकी साबुन बनाई गई तो दो बातों की
संभावना है। या तो उससे नहाने की साबुन बनाई जाएगी या कपड़ा धोने की। यदि कपड़ा धोने
की साबुन बनी तब तो सब ठीक-ठाक रहेगा, परंतु यदि नहाने की
साबुन बनी तब मुसीबत हो सकती है। क्योंकि फिर उसके दो उपयोग हो सकते हैं। हो सकता
है कि पुरुष उस साबुन से नहाएं। यदि पुरुष उससे नहाएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं,
परंतु यदि किसी सुंदर नवयौवना ने मुझसे रगड़-रगड़कर नहाना शुरू कर
दिया, तब तो मुझ ब्रह्मचारी पर क्या गुजरेगी जरा आप ही
सोचिए! यह कहकर उन्होंने शर्म से अपना चेहरा अपने हाथों से छिपा लिया।
ज्ञानियों के अपने जाल हैं। फैलते ही चले जाते हैं उनका कोई अंत नहीं।
अमरीका में उन्होंने एक ऐसा कंप्यूटर निर्मित कर लिया है जिसमें
मनुष्यों जैसे गुण हैं--एक अमरीकी पर्यटक ने वार्तालाप के दौरान महामहिम मटकानाथ
ब्रह्मचारी को बताया।
मटकानाथ ने पूछा, बच्चों, उसमें
ऐसी कौन सी खूबियां हैं जो आदमियों से मेल खाती हैं?
जवाब मिला, यदि कंप्यूटर से कोई गलती हो जाती है तो उसकी
जिम्मेदारी वह दूसरे कंप्यूटर पर डाल देता है।
ब्रह्मचारी जी बोले, इसमें खूबी की भला कौन सी बात है,
बच्चा? अरे, हमारे महान
देश भारत के पवित्र वैज्ञानिकों ने एक ऐसा कंप्यूटर ईजाद किया है जो धार्मिक है।
वह मात्र मानवीय ही नहीं, वरन दैवीय गुणों से भरपूर है। उससे
कैसा भी कठिन से कठिन, जटिल से जटिल सवाल पूछो, वह तत्क्षण उसका समाधान कर देता है।
पर्यटक ने चकित होकर दांतों के नीचे अंगुली दबाकर कहा, कैसा भी सवाल?
महामहिम बोले, हांऱ्हां कैसा भी सवाल! बच्चा, कैसा
भी। भूगोल का हो कि चाहे राजनीति का। भौतिकी का हो कि चाहे भूत-प्रेत का। रसायन का
हो कि गणित का। पाकशास्त्र का हो अथवा चिकित्सा-शास्त्र का। इतना ही नहीं, सवाल चाहे आज का हो, चाहे भूतकाल का या भविष्य का,
बस बटन दबाओ और हमारा धार्मिक कंप्यूटर तुरंत समस्या का हल बता देता
है।
अमरीकी ने इस अदभुत मशीन को देखने की इच्छा जाहिर की। महामहिम मटकानाथ
ब्रह्मचारी ने पास ही रखे एक टेपरिकार्डर की ओर इशारा करके कहा, पूछो! बच्चे, कोई भी सवाल पूछो! यह फौरन जवाब देगा।
अमरीकी ने कई प्रश्न किए पर बटन दबाने पर हर बार एक ही उत्तर मिला, वत्स, इस समस्या का समाधान तो स्पष्टरूपेण श्रीमद्
भगवद्गीता में दिया ही हुआ है। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
सवाल खोजने, उत्तरों की तलाश करने की कोई जरूरत ही कहां है,
वह तो सब भगवद्गीता में दिए ही हुए हैं। कहीं से भी पन्ना पलटो,
हर जगह उत्तर ही उत्तर हैं।
उत्तर एक भी नहीं तुम्हारे जीवन में और सब उत्तरों के होने का भ्रम
है।
मेरे पास केवल वे ही लोग सीख पाएंगे जो अपने उत्तरों के भ्रम छोड़ देते
हैं। और यह सब से कठिन बात है इस जगत में। संसार छोड़ना आसान; पत्नी, बच्चे, पति छोड़ना आसान;
धन, पद, प्रतिष्ठा छोड़ना
आसान; सबसे कठिन मामला है झूठा ज्ञान छोड़ना। क्योंकि वह
अहंकार को सर्वाधिक पोषण देता है।
तुम आ गए हो अब, सूरज प्रकाश भारती, और तुम्हारे हृदय में पहली गुनगुन भी उठ आई, वसंत के
पहले फूल भी खिलने लगे, अब इतना ही खयाल करना कि कहीं ज्ञान
बाधा न डाले। खतरा है उसका, इसलिए कि तुम मुझसे पूछ रहे हो:
"इसे मन की कौन सी दशा कही जाए?'
अरे, क्या दशा कहनी है! क्या परिभाषाएं करनी हैं! क्या
होगा उससे! कोई लेबल लगा देंगे कि यह मन की दशा हुई, यह नाम
हुआ फिर ॐ शांतिः शांतिः शांतिः। फिर क्या करोगे? मन की दशा
को जानने से क्या है? मन को गंवाना है। क्या लेबल लगाना है?
यह दशा भी जानी चाहिए। सब दशाएं दुर्दशाएं हैं। उस दशा को पाना है
जहां कोई दशा न रह जाए, न कोई दिशा रह जाए। उस परम मौन को
उपलब्ध होना है, जहां कुछ भी विशेषण न बचे, कोई परिभाषा न रहे, अनिर्वचनीय का अनुभव हो।
देर-अबेर आ गए! अब इस गूंज को बढ़ने दो:
बरसो मेरे अमृत घन
बरसो जीवन आंगन में
तुम रसकण बनकर ढुलको
मेरे उर के मधुवन में
मेरे प्राणों के नभ में
द्युतक्रीड़ा बन कर आओ
आलोकित कर दो अग-जग
सतरंगी छबि बिखराओ
मेरे मानस की शोभा
भावों के कमल खिले हैं
इस उर्मिल आलिंगन में
धरती-आकाश मिले हैं
हृद्-सुमनों में खिल-खिलकर
आनंद सुगंध लुटाओ
मेरे चितवन पथ से आ
प्रभु प्राणों में
बस जाओ
योग प्रीतम का यह गीत प्रीतिकर है।
बरसो मेरे अमृत घन
बरसो जीवन आंगन में
तुम रसकण बनकर ढुलको
मेरे उर के
मधुवन में
अब ज्ञान की, परिभाषा की, सिद्धांत की बात
छोड़ो। अब तो ऐसे डूबो कि अपना भी पता न चले। मैं कौन हूं, क्या
हूं, यह भी विसर्जित हो जाए, विस्मृत
हो जाए। कोरी स्लेट रह जाए, कोरा कागज रह जाए। उस कोरे कागज
में ही जीवन की संपदा है, जीवन का साम्राज्य है। उस शून्य
चित्त में ही, उस निर्विचार और निर्विकार भावदशा में ही अमृत
की वर्षा उतरती है। और ऐसा अमृत जो फिर बरसता ही चला जाता है, जो कभी चुकता नहीं है।
किनारे पर न बैठ रहना। सौ में एकाध आता है। और जो आते हैं उन सौ में
एकाध डूबता है, निन्यानबे किनारों पर बैठे रह जाते हैं। इससे सचेत
करता हूं तुम्हें। देर-अबेर आ गए, उसकी अब चिंता नहीं;
जो बीता सो बीता। बीती ताहि बिसार दे, आगे की
सुधि लेहि। अब आगे की सुध यह है कि आ तो गए, अब छलांग लो। और
छलांग ऐसी कि पीछे लौटकर मत देखना। और छलांग ऐसी कि कुछ बचाना मत। क्योंकि जो
बचाया, वही डुबाएगा। छलांग समग्र होनी चाहिए।
कल ही मुझे कृष्ण प्रेम ने पत्र लिखा। कृष्ण प्रेम गया था एक सप्ताह
के लिए महाबलेश्वर। वहां विजयानंद से एक होटल में मिलना हो गया। विजयानंद ने कृष्ण
प्रेम को कहा कि मैं तो भगवान से बिलकुल ही टूट चुका, अलग हो चुका, अब मेरा कोई संबंध नहीं। लेकिन दो घंटे
तक मेरी ही बात की। तो कृष्ण प्रेम ने कहा कि यह कैसा संबंध टूटा! इतनी बातें तो
जब आप उनसे संबंधित थे तब भी उनकी नहीं करते थे। अब तो ज्यादा ही बातचीत कर रहे
हैं। और फिर भी कह रहे हैं कि मैं सब संबंध तोड़ चुका। यह बात जरा बेबूझ है।
पेंडुलम एक किनारे से दूसरे किनारे चला गया है। एक अति से दूसरी अति हो गई है।
विजयानंद ने अपनी बातचीत में यह भी कहा कि मैं पांच साल तक समग्ररूपेण
समर्पण करके उनके पास रहा, सब समर्पित कर दिया था, फिर भी
बुद्धत्व मुझे उपलब्ध न हुआ। इसलिए मैंने छोड़ दिया। इसलिए मैंने संन्यास भी छोड़
दिया।
अब जरा सोचने जैसा है कि जो व्यक्ति समग्ररूपेण समर्पण किया हो वह लौट
कैसे सकता है? कुछ किनारे पर रख आया होगा। कुछ बाकी रखा होगा। लौटने
योग्य कुछ जगह बचा रखी होगी। लौटने के लिए कोई सेतु कायम रखा होगा। सारे सेतु तोड़
नहीं डाले होंगे। कहीं लौटना पड़े तो लौटने की गुंजाइश रखी होगी। यह समर्पण समग्र
नहीं हो सकता। इस कारण भी समग्र नहीं हो सकता कि लौटना संभव ही नहीं है समग्र
समर्पण के बाद। लौटने को ही कोई नहीं बचता तो लौटेगा कोई कैसे? डूब ही गए, तो लौटना कैसा? और
फिर दूसरा इसलिए भी यह समर्पण समग्र नहीं हो सकता कि अगर इसमें यह अभीप्सा थी भीतर,
यह आकांक्षा थी, यह इच्छा थी, यह वासना थी कि मुझे बुद्धत्व मिलना चाहिए और अभी तक नहीं मिला, अभी तक नहीं मिला, पांच साल हो गए!...पांच साल जैसे
कोई भारी बात हो गई। पांच करोड़ साल से भटक रहे होओगे। चौरासी कोटि योनियों में
भटकने में करोड़ों साल लगे होंगे। चौरासी कोटि योनियां और पांच साल में बुद्धत्व
पाने की इच्छा!
सच तो यह है, बुद्धत्व पाने की इच्छा ही बुद्धत्व को पाने में बाधा
बन जाती है। कोई भी इच्छा बाधा बन जाएगी। पाने की बात ही लोभ की बात है। पाने की
बात ही अहंकार की बात है। मैं भी क्या करूंगा? कोई भी क्या
करेगा? पाना तुम्हें है, और अगर
तुम्हारे भीतर यह वासना का जहर बैठा हुआ है तो कैसे पाओगे? यूं
तो मिल सकता है एक क्षण में भी, मगर डूबना पूरा होना चाहिए।
डूबने में दो बातें अनिवार्य हैं। एक--कि बिना किसी कारण के डूबना।
अगर कारण से डूबे तो डूबे ही नहीं। कोई डूबने के पीछे वासना न हो, कोई लोभ न हो, कोई एषणा न हो, नहीं
तो डूबे ही नहीं। अकारण। प्रेम तो अकारण होता है। और समर्पण प्रेम की परिपूर्णता
है। अकारण ही हो सकता है। जो कारण बता सके अपने समर्पण का, उसका
समर्पण है ही नहीं। वह धोखा खा रहा है। धोखा दे रहा है। खुद को ही धोखा दे रहा है,
किसी और को नहीं।
और बुद्धत्व पाना है! यह तो अहंकार की ही दौड़ हो गई। बुद्धत्व पाया
नहीं जाता, मिलता है। जिसने पाना चाहा, वह
तो चूका। और जो चुपचाप डूबा, उसे मिला। जिन डूबे तिन ऊबरे।
जो डूब गए पूरे-पूरे, वे उबर गए।
यह बात कृष्ण प्रेम को भी समझ में आ सकी--कृष्ण प्रेम ने मुझे पत्र
में लिखा है। उसकी प्रेयसी, वसुमती भी उसके साथ थी। दोनों एक सप्ताह की छुट्टी पर
गए थे। वसुमती और कृष्ण प्र्रेम, दोनों ने लिखा है कि हम
दोनों को बात इतनी साफ दिखाई पड़ी कि यह बुद्धत्व को पाने की इच्छा कैसे बुद्धत्व
को पाने देगी!
और विजयानंद ने उनसे पूछा कि तुम्हें बुद्धत्व मिला अभी? तो उन दोनों ने कहा, हमें फिकर ही नहीं है। करना
क्या है हमको बुद्धत्व का? करेंगे क्या बुद्धत्व का?
तो विजयानंद ने उन्हें कहा, यह बात ठीक नहीं है।
फिर संन्यास का सार ही क्या? फिर तुम वहां कर क्या रहे हो?
उन दोनों ने कहा, हम आनंदित हैं। हम मजे में हैं।
कौन फिकर करता है बुद्धत्व की! क्या लेना है बुद्धत्व को! बुद्धत्व को खाएंगे,
पीएंगे, ओढ़ेंगे या क्या करेंगे? हम मस्त हैं। हमें कोई चिंता नहीं है।
यह विजयानंद के लोभी चित्त को समझ में बात नहीं आई। समझाया उसने इनको
भी कि नहीं, तुम्हें भी चिंता करनी चाहिए बुद्धत्व की। बुद्धत्व
को पाना जरूरी है, बिलकुल जरूरी है।
भारत में यह गहरी वासना है। धन को छोड़ देते हैं लोग, पद को छोड़ देते हैं, लेकिन तब परमात्मा को पाना है,
बुद्धत्व को पाना है, निर्वाण को पाना है! वही
पाने की दौड़, केवल विषय बदल गया। वही विचार, वही लोभ, वही वासना, वही
महत्वाकांक्षा, वही अहंकार--कुछ फर्क नहीं हुआ।
विजयानंद को यह समझ में न आ सका कि वे दोनों हंस रहे हैं और कह रहे
हैं कि हमें कोई लेना-देना नहीं, बुद्धत्व का क्या करना है! हम
मस्त हैं। हम आनंदित हैं। हमारा संन्यास निष्प्रयोजन है।
और जब संन्यास निष्प्रयोजन होता है तो डुबकी पूरी लगती है। फिर लौटने
की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। क्योंकि न कोई आकांक्षा है, न कोई विफलता हो सकती है। न कुछ पाना है, इसलिए
हारने का तो सवाल ही नहीं उठता।
ऐसे डूबो! आए देर से, कोई फिकर नहीं, अटके मत रह जाना।
भारतीय मन के लिए हमेशा मुझे चिंता होती है। भारतीय मन आता भी है तो
वही लोभ मोक्ष का, कैवल्य का, निर्वाण का उसे पकड़े
रहता है। भारतीय मन बड़ा लोभग्रस्त है; भयंकर लोभ से पीड़ित
है। परलोक का लोभ उसे पकड़ा हुआ है। इस लोक को भी बरबाद कर दिया उस लोभ ने। और
परलोक तो मिल ही नहीं सकता लोभ के कारण। इससे तो इसी लोक का लोभ अच्छा है। कम से
कम कुछ तो मिलेगा। ठीकरे ही सही मगर कुछ तो मिलेगा। हाथ कुछ तो लगेगा। सांसारिक
लोभ ठीक है लेकिन आध्यात्मिक लोभ तो बिलकुल ही विक्षिप्तता है। मगर भारतीय मन में
गहरी जड़ें पहुंच गई हैं। भारतीय मन से उन जड़ों को उखाड़े बिना कोई उपाय नहीं है।
इसलिए, सूरज प्रकाश, यहां डूबो! मगर दो
बातें खयाल रखना--पूरे डूबना, किनारे पर कुछ रखकर मत आना कि
अगर लौटना पड़े तो कम से कम कपड़े तो बचा रखो, नहीं तो फिर नंग-धड़ंग
कहां जाओगे।
मेरे पास आओ तो पीछे के सब सेतु तोड़ देना, मेरे पास आओ तो सीढ़ियां गिरा देना, मेरे पास आओ तो
पीछे लौटने के लिए रास्ता न बचे। रास्ते को आग लगा देना--तो ही मेरे पास पूरे आ
सकोगे। और जब मेरे पास आओ तो आगे के लिए कोई आकांक्षा भी न रखना। पीछे के लिए
रास्ता न रखना, आगे के लिए कोई आकांक्षा न रखना। पीछे के लिए
कोई राह न रखना, आगे के लिए कोई चाह न रखना। जहां न राह है,
न चाह है, वहां समग्ररूपेण इसी क्षण डुबकी लग
जाती है। और उसी डूबने में पा लेना है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें