लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
नौवां प्रवचन-(योग ही आनंद है)
दिनांक 28 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
भगवान, आप सदा आनंदमग्न हैं, इसका
राज क्या है? मैं कब इस मस्ती को पा सकूंगा?
योगानंद, मैं तुम्हें नाम दिया हूं योगानंद
का, उसमें ही सारा राज है।
मनुष्य
दो ढंग से जी सकता है। या तो अस्तित्व से अलग-थलग, या अस्तित्व के साथ एकरस।
अलग-थलग जो जीएगा, दुख में जीएगा--चिंता में, संताप में। यह स्वाभाविक है। क्योंकि अस्तित्व से भिन्न होकर जीने का अर्थ
है: जैसे कोई वृक्ष पृथ्वी से अपनी जड़ों को अलग कर ले और जीने की चेष्टा करे।
मुरझा जाएगा, पत्ते कुम्हला जाएंगे, फूल
खिलने बंद हो जाएंगे। वसंत तो आएगा, आता रहेगा, मगर वह वृक्ष कभी दुल्हन न बनेगा, दूल्हा न बनेगा।
उसके लिए वसंत नहीं आएगा।
जिसकी जड़ें ही पृथ्वी से उखड़ गई हों, उसके लिए मधुमास का क्या उपाय रहा! फिर कहां आनंद, कहां
मस्ती! फिर सुबह नहीं है, फिर तो अंधेरी रात है, अमावस की रात है--और ऐसी रात कि जिसकी कोई सुबह नहीं होती। इस तरह के जीवन
का नाम ही अहंकार है।
और
जो वृक्ष पृथ्वी के साथ योग साध रहा है, पृथ्वी में जड़ें फैला रहा है,
आकाश में शाखाएं, बदलियों से बतकही, चांदत्तारों से संबंध जोड़ रहा है, वह आनंदित न होगा
तो क्या होगा! हवाएं आएंगी तो नाचेगा, गुनगुनाएगा। हवाएं
गुजरेंगी तो गीत गाएंगी। पक्षी उस पर बसेरा करेंगे। सूर्य की किरणें उसके फूलों पर
अठखेलियां करेंगी। ऐसे जीवन का नाम ही संन्यास है।
संन्यास
अर्थात निरहंकारिता। संसार अर्थात अहंकार। संसार अर्थात मैं हूं अलग, भिन्न।
और
जहां यह खयाल उठा कि मैं अलग हूं, भिन्न हूं, वहीं इसका
स्वाभाविक तार्किक परिणाम यह होता है कि मुझे संघर्ष करना है, लड़ना है, विजय-पताका फहरानी है। और छोटा-सा आदमी,
बूंद जैसा, सागर से लड़ने चल पड़ेगा तो कितनी न
चिंताओं से भर जाएगा? कितने न संताप उसे घेर लेंगे? कितने भय और कितनी असुरक्षाएं? उसके चारों तरफ मेला
भर जाएगा चिंताओं ही चिंताओं का।
हम
अलग नहीं हैं,
इस सत्य को जानने की प्रक्रिया का नाम है: योग। योग अर्थात हम
इकट्ठे हैं, जुड़े हैं, संयुक्त हैं।
योग का अर्थ होता है: जोड़। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मैं जुड़ा हूं, फिर न तो कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। जैसे ही
जाना कि मैं जुड़ा हूं अस्तित्व से, तत्क्षण हम शाश्वत हो गए।
अस्तित्व जब से है, हम हैं; और
अस्तित्व जब तक रहेगा, हम रहेंगे। और अस्तित्व तो सदा है।
ऐसा कभी न था कि न हो। ऐसा भी कभी न होगा कि न हो जाए। तो फिर जन्म और मृत्यु तो
छुद्र घटनाएं हैं। जीवन की प्रक्रिया जन्म और मृत्यु के पार है। देह आती है,
जाती है, बनती है, मिटती
है, हम नहीं।
लेकिन
यह प्रतीति तभी संभव है जब अहंकार को हम बीच से हटा लें। जैसे ही अहंकार आया कि
दीवार आई। हम टूटे। अलग हुए। और जैसे ही अहंकार गया कि दीवार हटी। सेतु बना। हम
संयुक्त हुए। युक्त हुए। योग को उपलब्ध हुए।
योगानंद, तुम्हारे
नाम में कुंजी छिपी है। योग ही आनंद है। और तब अमावस भी पूर्णिमा हो जाती है। देर
नहीं लगती, एक क्षण में हो जाती है।
हम
पर तुम्हारी चाह का इल्जाम ही तो है
दुश्नाम
तो नहीं है ये,
इकराम ही तो है
करते
हैं जिस पर ताम कोई जुर्म तो नहीं
शौके-फिजूल-ओ-उल्फते-नाकाम
ही तो है
दिल
नाम ही तो नहीं नाकाम ही तो है
लंबी
है गम की शाम मगर शाम ही तो है
दस्ते-फलक
में गर्दिशेत्तकदीर तो नहीं
दस्ते-फलक
में गर्दिशे-अय्याम ही तो है
आखिर
तो इक रोज करेगी नजर वफा
वो
यारे खुशफिसाल सरे-बाम भी तो है
अभी
भी है रात,
"फैज' गजल इब्तदा करो
वक्ते-सरोद
दर्द का मदाम भी तो है
जैसे
ही तुमने जुड़ने की थोड़ी-सी पहल की, अनुभव में आने लगता है--
लंबी
है गम की शाम मगर शाम ही तो है
आखिर तो
इक रोज करेगी
नजर वफा
वह
घड़ी दूर नहीं है जब अस्तित्व तुम पर आनंद की वर्षा कर देगा, जब
अस्तित्व तुम्हारे लिए प्रसाद हो जाएगा। तुम योग साधो, अस्तित्व
प्रसाद है। तुम योग साधो, फिर कोई दुश्मनी नहीं है अस्तित्व
से, फिर हम उसके अंग हैं--अपरिहार्य अंग। लहर सोच ले कि मैं
सागर से अलग हूं तो मुश्किल में पड़ जाएगी। और लाख सोचे कि मैं सागर से अलग हूं,
अलग है तो नहीं। हो भी नहीं सकती। और जब तुम असत्यों में जीने लगते
हो तो दुख। और जैसे सत्य के करीब आए कि सुख। और जैसे सत्य के साथ एक हो गए कि
आनंद।
पूछा
है तुमने योगानंद: "आप सदा आनंदमग्न हैं, इसका राज क्या है? मैं कब इस मस्ती को पा सकूंगा?'
कभी
भी पा सकते हो। अभी ही पा सकते हो। यह बात बहुत पाने की नहीं है। तुम्हारे भीतर
आनंद तो मौजूद है। इसे पाना कम, आविष्कृत ज्यादा करना है। उघाड़ना है। मौजूद है,
ढका है।
उपनिषदों
के ऋषियों ने प्रार्थना की है: हे प्रभु, मेरे इस स्वर्ण से ढके हुए पात्र
को उघाड़ दे!
यह
प्रार्थना प्यारी है। स्वर्ण के ढक्कनों में ही तो तुम्हारा आनंद ढक गया है।
स्वर्ण में आ गया सब--तुम्हारी आशाओं-वासनाओं का जाल, पद-प्रतिष्ठा,
धन की दौड़--स्वर्ण में सब आ गया। स्वर्ण तो प्रतीक है। कुछ पा लूं।
कुछ मूल्यवान बाहर मिल जाए। कोई सिंहासन!
उपनिषद
का ऋषि कहता है: हे प्रभु,
इस स्वर्ण के ढकने को अलग कर ले तू, ताकि मैं
अपने को जान लूं।
अपने
को जानने में आनंद है। मगर इतना तो कम से कम करना ही पड़े। इतनी प्रार्थना तो कम से
कम करनी ही पड़े।
कहता
है कौन ख्वाब की ताबीर चाहिए
आंखों
के सामने तेरी तस्वीर चाहिए
कहता
है कौन ख्वाब की ताबीर चाहिए
वो
आए मुझको ढूंढने को और मैं मिलूं नहीं
ऐसी
भी जिंदगानी से तकदीर चाहिए
कहता
है कौन ख्वाब की ताबीर चाहिए
ऐसे
तो चांदत्तारे न टूटेंगे अपने आप
हर
दो कदम पै अपनी भी तदबीर चाहिए
आंखों
के सामने तेरी तस्वीर चाहिए
कहता
है कौन ख्वाब की ताबीर चाहिए
ये
पूछते हो क्या कि है गुरबत का क्या इलाज
तारीकियों
के सामने तन्वीर चाहिए
आंखों
के सामने तेरी तस्वीर चाहिए
कहता
है कौन ख्वाब की ताबीर चाहिए
बस, स्मरण बना
रहे--आंखों के सामने तेरी तस्वीर चाहिए--याद बनी रहे कि अभी मैं पहुंचा नहीं हूं
वहां, अभी मैं आया नहीं उस स्थल पर जहां जीवन सौभाग्य हो
जाता है, जहां जीवन का कमल खिलता है, जहां
दीवाली होती है, जहां दीए ही दीए जल उठते हैं--कतारों के
अंदर कतारें, दीए ही दीए जल उठते हैं और ऐसे दीए जो कभी
बुझते नहीं हैं। लेकिन थोड़ी-सी तो तदबीर चाहिए। उतना ही योग है।
ऐसे
तो चांदत्तारे न टूटेंगे अपने आप
हर
दो कदम पै अपनी भी तदबीर चाहिए
आंखों के
सामने तेरी तस्वीर
चाहिए
याद
बनी रहे और थोड़ा-सा श्रम।
कृष्ण
ने गीता में बहुत मूल्य की बात कही है कि परमात्मा को पाने के लिए बहुत थोड़ा-सा
श्रम चाहिए। थोड़ी-सी तदबीर,
थोड़ा-सा यत्न। उतना ही जितना कि आंख में अगर धूल का एक कण पड़ जाता
है तो सामने खड़ा हुआ विशाल हिमालय भी छिप जाता है। बात जरा-सी! जरा-सी धूल आंख में
पड़ गई है और विशाल हिमालय को छिपा लिया। जरा-सी धूल ने ऐसी ओट कर दी, इतनी बड़ी ओट कर दी! कहां हिमालय और कहां धूल का छोटा-सा कण! मगर छोटा-सा
कण भी आंख में हो तो हिमालय ओझल हो जाता है। आंख से धूल का कण निकाल लो, बस इतनी तदबीर चाहिए।
इतना
श्रम, इतना प्रयत्न, इतना ध्यान, इतना
योग, इतना धर्म। धूल के कण के हटते ही सारा हिमालय प्रकट हो
जाता है। हिमालय तो था ही, धूल ने तुम्हारी आंख को खुलने से
रोक दिया था। तुम्हारे आंख के बंद होने से हिमालय विदा नहीं हो जाता। आनंद तो
तुम्हारे भीतर मौजूद है, मगर भीतर की आंख पर कंकड़ी पड़ी है।
और आंख पर भीतर इसीलिए इतनी धूल जम गई है कि भीतर तुम कभी देखते ही नहीं।
मैंने
सुना है, इंग्लैंड के चिकित्सा शास्त्र के इतिहास में एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना
उल्लिखित है, कि एक महिला चालीस साल तक बिस्तर पर लेटी रही।
फ्लू हुआ था उसे। डाक्टर देखने आया था, दो-चार दिन में फ्लू
ठीक हो जाने को था, लेकिन डाक्टर ने जाते वक्त कहा: जब तक
मैं न कहूं, उठना मत, विश्राम करना।
फ्लू ही था, कोई बड़ी बीमारी न थी। सो डाक्टर उस महिला के
संबंध में भूल-भाल गया। रही होगी सिद्धांत की पक्की महिला! वह नहीं उठी बिस्तर से।
अरे, जब तक डाक्टर न कहे! फ्लू ठीक हो गया, उसको भी लगे कि फ्लू ठीक हो गया, सब ठीक हो गया,
मगर डाक्टर कहे तभी उठे न! वह लेटी ही रही।
फिर
लेटे-लेटे मजा भी आने लगा। काम-धाम से भी छुटकारा मिल गया। जब तक उसकी मां जिंदा
रही--बूढ़ी मां उसकी फिकर करती रही। जब मां मर गई तो उसके बेटे-बेटियां, बहुएं
उसकी फिकर करते रहे। वह खूब जीयी, क्योंकि बिस्तर पर ही
जीयी। बेटा भी मर गया, बहू भी मर गई, बेटी
भी मर गई, तो उसके रिश्तेदार और मोहल्ले के लोग उसकी देखभाल
करने लगे। मगर नहीं उठी बिस्तर से--चालीस साल!
संयोग
से डाक्टर उस मोहल्ले से निकलता था, उसे खयाल आया कि इस परिवार में मैं
हमेशा पहले आता था वर्षों पूर्व, बहुत दिन से न कोई बीमार
पड़ा न मुझे बुलाया गया, बात क्या है? और
घर बेरौनक भी मालूम होता है! बिलकुल उजड़ गया। तो उसने दरवाजे पर दस्तक दी। भीतर से
आवाज आई: आप चले आइए, मैं बिस्तर से उठ नहीं सकती हूं।
दरवाजा अटका है, खोल लीजिए। दरवाजा खोल कर भीतर गया, वह महिला बिस्तर पर लेटी थी। मोटी भी बहुत हो गई थी। उसने पूछा कि क्या
तकलीफ है? क्यों लेटी हो? उसने कहा,
तकलीफ? अरे आप ही कह गए थे चालीस साल पहले कि
जब तक मैं न कहूं उठना मत।
दो
साल मेहनत करनी पड़ी डाक्टर को तब वह महिला खड़ी हो सकी। क्योंकि चालीस साल लेटी रही, शरीर ही
भूल गया खड़ा होना। हड्डियां सख्त हो गईं। कमर ने झुकना बंद कर दिया। दो साल सतत
श्रम करके डाक्टर उसको फिर खड़ा कर पाया। और कहते हैं वह पांच साल और जिंदा रही,
और मजे से जिंदा रही और सक्रिय रही। मगर चालीस साल बिस्तर से लगी
रही।
बस, ऐसी ही
हमारी हालत है। भीतर कुछ भी रुग्ण नहीं है, भीतर सब स्वस्थ
है, भीतर सब आनंद है। मगर हम बाहर देखने के आदी हो गए हैं,
हम भीतर देखना भूल गए हैं। चूंकि हम भीतर देखते ही नहीं, इसलिए भीतर देखने की क्षमता हमारी सिकुड़ गई है। हमारी आंखों ने भीतर मुड़ना
बंद कर दिया है।
और
बाहर क्या देखोगे?
बाहर आनंद नहीं है। बहुत से बहुत क्षणभंगुर सुख मिल सकता है। मगर
क्षणभंगुर सुख बड़ा महंगा सौदा है। क्षण भर को मिलता है सुख और पीछे आता है लंबा
दुख। वह क्षण भर की झलक, एक किरण की ललक, और फिर गहन अंधेरी रात। तो जितना सुख मिलता है उससे बहुत दुख, बहुत गुना दुख भोगना पड़ता है। फिर इसी आशा में आदमी उसको भोग लेता है कि
फिर मिलेगा सुख, फिर मिलेगा, अब मिलेगा,
अब मिलेगा। फिर मिलता है; लेकिन फिर वही
परिणाम है; फिर पीछे दुख है, विषाद है।
बाहर
शाश्वत नहीं मिल सकता। बाहर क्षणभंगुरता ही प्रकृति है। वही नियम है बाहर का। भीतर
शाश्वतता नियम है और बाहर क्षणभंगुरता। यूं समझ लो, बाहर का अर्थ होता है
क्षणभंगुर और भीतर का अर्थ होता है शाश्वत। और जब तक शाश्वत न मिल जाए तब तक
संतुष्टि नहीं हो सकती।
अरे, जो मिले
और खो जाए, उसे पाकर भी क्या करोगे? और
कितनी धोखाधड़ी करनी पड़ती है, कितनी बेईमानी, तब मुश्किल से मिलता है। और छूट यूं चला जाता है। पानी पर खींची लकीरें
हैं। बना भी नहीं पाते और मिट जाती हैं। फिर पत्थर पर भी लकीरें खींचो, वे भी मिट जाती हैं। बाहर सब मिट जाता है। बाहर जो भी बनाया, वह मिटने को आबद्ध है। और क्या-क्या आदमी नहीं करता है! चार पैसे जुटा
लेने को आदमी क्या-क्या नहीं करता है!
एक
महिला ने एक भिखारी को चार पैसे दिए और भिखारी से कहा कि भोजन के लायक, वस्त्रों
के लायक मिल जाता है न? क्योंकि तुम लंगड़े हो सिर्फ। लंगड़ों
को आजकल कौन देता है? मेरे मोहल्ले में एक भिखारी है,
वह अंधा है, उसे काफी लोग देते हैं। अंधे पर
बहुत दया आती है। लंगड़ा तो कुछ कर भी ले, अंधा बेचारा क्या
करे? उस भिखारी ने कहा, रहने दे बाई,
अपनी समझ अपने पास रख। पहले मैं अंधा हुआ करता था; मगर लोग झूठे सिक्के पकड़ा देते थे। अब मैं देख रहा हूं कि झूठा सिक्का है,
मगर बोल नहीं सकता था। क्योंकि अंधा जो! तब से मैंने वह काम बंद कर
दिया। वह धंधा ही बंद कर दिया। तब से मैं लंगड़ा हो गया हूं। अब कम से कम सिक्के तो
देख सकता हूं।
क्या-क्या
नहीं आदमी को करना पड़ता! अंधे बनो, लंगड़े बनो, क्या-क्या
बेईमानियां नहीं करनी पड़तीं।
मैंने
सुना है, चंदूलाल एक पुल के पास से गुजरते थे कि एक अंधे ने आवाज दी कि सेठ,
मिल जाए कुछ। अरे, दान से बड़ा कुछ लाभ नहीं
है। दान से बड़ा कोई धर्म नहीं है। यहां दोगे एक, वहां पाओगे
करोड़ गुना। चंदूलाल ने कहा, मेरे भाई, तू
पहले तो यह बता कि कैसे पहचाना कि मैं सेठ हूं? तू तो अंधा
है। उतनी दूर से कैसे पहचान लिया कि सेठ हूं?
उस
अंधे ने कहा,
अब आपसे क्या छिपाना? असल में मैं अंधा नहीं
हूं; यहां तो मेरा एक अंधा मित्र भिखारी है वह बैठा करता है,
वह आज सिनेमा देखने गया है। मैं तो लंगड़ा हूं जो पुल के उस तरफ
बैठता हूं। मगर मुझे कह गया है कि भई, मेरी जगह बैठना,
कोई दूसरा न जम जाए, सो इधर मैं बैठा हुआ हूं।
अपनी जगह अपने लड़के को बैठा आया हूं। अंधे का कोई और नहीं है बाल-बच्चा, अकेला ही है।
अंधा
सिनेमा देखने गया है! अंधे की जगह परिपूरक का काम लंगड़ा कर रहा है। खूब खेल हैं।
और ये सारे खेल हर एक को करने पड़ रहे हैं। खूब धोखे हैं। खूब प्रवंचनाएं हैं।
प्रवंचनाओं पर प्रवंचनाएं हैं। तुम जाल के ऊपर जाल खड़े करते जाते हो और उलझते चले
जाते हो अपने हाथों से। और बाहर का कोई अंत नहीं है। चलते रहो, चलते रहो
जन्मों-जन्मों तक, न हाथ कुछ लगता है, न
प्राण भरते हैं, न कोई तृप्ति, न कोई
जीवन में सुगंध, न कोई रोशनी, मगर
तलाश! जिस दिशा को पकड़ लिया है, चले जा रहे हो, चले जा रहे हो।
लौटो
भीतर की तरफ,
योगानंद। अपने को देखो। अपने को देखते ही हैरान होओगे, वहां आनंद ही आनंद है। वहां आनंद कतारबद्ध खड़े हैं। वहां एक आनंद नहीं है,
एक आनंद के बाद दूसरा, दूसरे के बाद
तीसरा--शिखरों से शिखर, और एक से एक बड़ा शिखर है।
क्या
इल्म इन्होंने सीख लिए,
जो बिन लेखे को बांचे हैं।
और
बात नहीं मुंह से निकले,
बिन ओंठ हिलाए जांचे हैं।।
दिल
उनके तार सितारों के,
तन उनके तबल तमांचे हैं।
मुंह
चंग जबा दिल सारंगी,
पा घुंघरू हाथ कमांचे हैं।।
हैं
राग उन्हीं के रंग-भरे,
और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो
बे-गत बे-सुरताल हुए,
बिन ताल पखावज नाचे हैं।।
जब
हाथ को धोया हाथों से,
जब हाथ लगे थिरकाने को।
और
पांव को खींचा पांवों से,
और पांव लगे गत पाने को।।
जब
आंख उठाई हस्ती से,
जब नयन लगे मटकाने को।
सब
काछ कछे, सब नाच नचे, उस रसिया छैल रिझाने को।।
हैं
राग उन्हीं के रंग-भरे,
और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो
बे-गत बे-सुरताल हुए,
बिन ताल पखावज नाचे हैं।।
था
जिसके खातिर नाच किया,
जब मूरत उसकी आय गई।
कहीं
आप कहा, कहीं नाच कहा, औ तान कहीं लहराय गई।।
जब
छैल-छबीले सुंदर की,
छबि नैनों भीतर छाय गई।
एक
मुरछा-गति-सी आय गई,
और जोत में जोत समाय गई।।
हैं
राग उन्हीं के रंग भरे,
और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो
बे-गत बे-सुरताल हुए,
बिन ताल पखावज नाचे हैं।।
एक
नृत्य है जो अंतरतम में घटित होता है। उस नृत्य को आनंद कहो, स्वर्ग
कहो, मोक्ष कहो। जो भी नाम देना हो दो। समाधि कहो, संबोधि कहो, निर्वाण कहो। लेकिन जो भी खजानों का
खजाना है, तुम्हारे भीतर है। बाहर मत खोजो!
मुझसे
पूछते हो: "राज क्या है?'
राज
सीधा और साफ है। छिपी हुई कोई बात नहीं है। कोई कुंजियां नहीं हैं। इसीलिए तो धर्म
की कोई पाठशाला नहीं हो सकती, कोई विद्यालय नहीं हो सकता, कोई किताब नहीं हो सकती, कोई शास्त्र नहीं हो सकता,
क्योंकि धर्म कोई ज्ञान नहीं है।
सत्य
प्रिया ने मुझे लिखा है--छोटी-सी संन्यासिनी है, बहुत प्यारी बात उसने लिखी
है--कि भगवान, एक बड़ी उलझन खड़ी हो गई। मेरे पिताजी, अद्वैत बोधिसत्व, संस्कृत नहीं जानते, मैं भी संस्कृत नहीं जानती, आप भी संस्कृत नहीं
जानते। मेरे पिताजी मुझे कुंजी के द्वारा संस्कृत पढ़ा रहे हैं। हम तीनों को
संस्कृत नहीं आती, अब क्या होगा!
कोई
अड़चन नहीं है। अगर कुंजी से संस्कृत पढ़ी जा सकती है, तो सत्य प्रिया, पहले कुंजी से संस्कृत तू पढ़ ले, फिर तू पिताजी को
पढ़ा देना, फिर पिताजी मुझे पढ़ा देंगे।
कुंजी
से जो मामला हल हो सकता है उसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन कुछ मामले हैं जो कुंजी
से हल नहीं होते। इसलिए कोई किसी को सत्य नहीं दे सकता, इसकी कोई
कुंजी नहीं होती। सिर्फ इशारे दे सकता है, इंगित कर सकता है,
अपनी मौजूदगी तुम्हारे सामने उघाड़ कर रख सकता है, अपने हृदय के द्वार तुम्हारे लिए खोल सकता है। वही मैं कर रहा हूं,
योगानंद! अगर तुम यहां इस सत्संग में डूब सको, अगर तुम अपनी बुद्धि को और अपने अहंकार को द्वार पर ही छोड़ आओ, तो बात बहुत सीधी-साफ है--राज कुछ भी नहीं है--बहुत खुली है, दो और दो चार जैसी स्पष्ट है।
है
आशिक और माशूक जहां,
वां शाह वजीरी है बाबा।
नै
रोना है, नै धोना है, नै दर्द असीरी है बाबा।।
दिन-रात
बहारें-चोहलें हैं,
औ ऐसे सफीरी है बाबा।
जो
आशिक हुए सो जाने हैं,
यह भेद फकीरी है बाबा।।
हर
आन हंसी, हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब
आशिक मस्त फकीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।।
कुछ
जुल्म नहीं, कुछ जोर नहीं, कुछ दाद नहीं, फरियाद
नहीं।
कुछ
कैद नहीं, कुछ बंद नहीं, कुछ जब्र नहीं, आजाद
नहीं।।
शागिर्द
नहीं, उस्ताद नहीं, वीरान नहीं, आबाद
नहीं।
हैं
जितनी बातें दुनिया की,
सब भूल गए, कुछ याद नहीं।।
हर
आन हंसी, हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब
आशिक मस्त फकीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।।
जिस
सिम्त नजर कर देखे हैं,
उस दिलबर की फुलवारी है।
कहीं
सब्जी की हरियाली है,
कहीं फूलों की गुलक्यारी है।।
दिन-रात
मगन खुश बैठे हैं,
और आस उसी की भारी है।
बस
आप ही वो दातारी है,
और आप ही वो भंडारी है।।
हर
आन हंसी, हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब
आशिक मस्त फकीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।।
हम
चाकर जिसके हुस्न के हैं,
वह दिलबर सबसे आला है।
उसने
ही हमको जी बकसा,
उसने ही हमको पाला है।।
दिल
अपना भोला-भाला है,
और इश्क बड़ा मतवाला है।
क्या
कहिए और "नजीर'
आगे, अब कौन समझने वाला है।।
हर
आन हंसी, हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब
आशिक मस्त फकीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।।
योगानंद, मस्ती का
कोई बहुत बड़ा राज नहीं है। हम जन्मते ही हैं स्वभाव से मस्ती में। आनंद के झरने
हमारे भीतर वैसे ही बह रहे हैं जैसे जमीन के भीतर पानी के झरने बह रहे हैं। जरा-सी
खुदाई करनी है, और कुआं बन गया। जरा-सी मिट्टी की पर्तें
उखाड़ कर फेंक देनी हैं, और झरने प्रकट हो गए। जरा अपने भीतर
खुदाई करनी है, और प्रभु का साम्राज्य तुम्हारा है। और जो
करना है वह ना-कुछ है, और जो मिलना है वह बहुत कुछ है,
सब कुछ है।
इसलिए
मिलने को ध्यान में रखो तो यह छोटा-मोटा श्रम जो ध्यान के लिए करना होता है, कोई श्रम
नहीं है। यह सौदा सस्ता है। नासमझ हैं वे लोग जो इस सौदे से वंचित हैं। जरा-सा
श्रम, और विराट उपलब्धि।
तुम
पूछते हो: "आप सदा आनंदमग्न हैं, इसका राज क्या है?'
अपने
को पहचाना, अपने को जाना, बस, सारे
शास्त्रों का सार उपलब्ध हो गया। यूं तो दौड़ो तुम दूर-दूर पृथ्वी पर और कुछ भी न
पा सकोगे; और रुक जाओ भीतर और सब पा लो। और मत यह पूछो कि
मैं कब इस मस्ती को पा सकूंगा? कब की बात ही क्यों उठानी?
जब अब और अभी हो सकता हो तब कब की बात ही क्यों उठानी? कल पर टालना ही क्यों? स्थगित ही क्यों करना?
यह तो बात ही मत पूछो कि कब? मुझसे तो जब भी
पूछना हो तो अब के बाहर मत जाओ। कल का कोई अस्तित्व नहीं है। यह क्षण हमारे हाथ
में जो है, इसके पार और किसी चीज का भरोसा न करना। कल आए न
आए। कल आया कब? और तुम कल पर टाल दो और यह आज यूं ही खो जाए,
तो बड़ी भूल हो जाएगी। और ऐसे ही लोग आज को खो रहे हैं। कल की चिंता
कर रहे हैं, आज को गंवा रहे हैं। कल पर सब दांव लगा रहे हैं,
आज को बलिदान चढ़ा रहे हैं। और आज है। कल कहां है? जिंदगी आज है, अभी है।
और
मैं तुमसे कहता हूं कि अभी उतर जाओ अपने में। कोई रोक नहीं रहा। घर तुम्हारा, द्वार
तुम्हारा, जाना तुम्हें, जाना अपने में,
कोई अड़चन नहीं डाल सकता! हाथों पर जंजीरें हो सकती हैं, पैरों में बेड़ियां हो सकती हैं, चारों तरफ कारागृह
की दीवारें हो सकती हैं, बंदूक लिए द्वार पर खड़ा संतरी हो
सकता है, दरवाजे पर बड़े ताले लटके हो सकते हैं, मगर तुम्हें अपने भीतर जाने से कोई भी नहीं रोक सकता। न वहां पहरा कोई लगा
सकता है, न कोई जंजीरें डाल सकता है। जिस व्यक्ति को भीतर
जाना आ गया, वह कारागृह में भी मुक्त है। और जिसको भीतर जाना
न आया, वह मुक्त होकर भी क्या खाक मुक्त है! उसकी स्वतंत्रता
दो कौड़ी की है। उसकी स्वतंत्रता राजनैतिक है, ऊपरी है,
सतही है।
स्वतंत्रता
का असली आयाम आध्यात्मिक है। और वह आयाम अभी खुलता है, उसे कल पर
भूल कर भी मत छोड़ना।
लेकिन
लोग इसी गणित से जी रहे हैं। हमेशा टालते चले जाते हैं। हमेशा हटाए जाते हैं। जो
सार्थक है, वह कल करेंगे; और जो व्यर्थ है, वह अभी करेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन को उसके मनोवैज्ञानिक ने एक सलाह दी--क्योंकि नसरुद्दीन ने उससे कहा कि
मेरा दफ्तर बरबाद हुआ जा रहा है। कोई काम ही नहीं करता! लोग पैर पसारे बैठे रहते
हैं। मैं जाता हूं तो बस फाइलें पलटने लगते हैं, मैं हटा कि फाइलें अपनी जगह
और उनके पैर टेबलों पर फैल जाते हैं। कोई काम ही नहीं हो रहा है, बरबाद हुआ जा रहा हूं! कुछ राह बताओ! मनोवैज्ञानिक ने कहा कि ऐसा करो,
यह पुराना सूत्र है, बड़े सयानों ने कहा है--और
सयाने कुछ ऐसे ही नहीं कह जाते--इसे हर एक दफ्तर में अपने, हर
कमरे में, हर टेबल पर लटका दो। यह लोगों के ध्यान में रहेगा
तो कुछ अकल आएगी।
पुराना
सूत्र--तुम्हारा जाना हुआ सूत्र। लटका दिया नसरुद्दीन ने वह सूत्र सब पर सुंदर
अक्षरों में,
हर टेबल के सामने, कि हर क्लर्क, हर चपरासी की नजर उस पर पड़ती रहे; मैनेजर की,
सेल्समैनों की, सबकी नजर में आता रहे। दफ्तर
उसी से सजा दिया।
काल
करै सो आज कर,
आज करै सो अब्ब।
पल
में परलय होएगी,
बहुरि करौगे कब्ब।।
सीधी
बात, साफ बात, कि जो कल करना हो वह आज कर ले; और जो आज करना हो वह अभी कर ले; क्योंकि पल भर का
भरोसा नहीं। कब प्रलय हो जाएगी, कब मौत आ जाएगी, कब यह रेत की दीवार ढह जाएगी, एक क्षण का भी भरोसा
मत कर! कल की बात आज, आज की अभी कर ले। ताकि जो करना है वह
हो जाए।
पांच-सात
दिन बाद मनोवैज्ञानिक को पता चला कि नसरुद्दीन अस्पताल में भर्ती है। फ्रैक्चर हो
गया है। एक नहीं कई फ्रैक्चर हो गए हैं। हाथ-पैर-गर्दन, सब टूट गए
हैं। देखने गया बेचारा। पूछा कि हुआ क्या? कोई दस-बारह मंजिल
ऊपर से गिर पड़े या क्या हुआ? इतने फ्रैक्चर! पैर भी टूट गया,
हाथ भी टूट गया, गर्दन भी टूट गई--पूरे शरीर
पर पट्टियां बंधी हैं; आंखें दिखाई पड़ती हैं, मुंह दिखाई पड़ता है, बाकी सब...खोपड़ी भी खुल गई है!
नसरुद्दीन
ने कहा, भैया, तुमने जो सिद्धांत दिया था उसका ही परिणाम है।
मनोवैज्ञानिक ने कहा, मैंने कौन-सा सिद्धांत तुम्हें ऐसा
दिया था जिसमें तुम्हारा सारा शरीर क्षत-विक्षत हो जाए? नसरुद्दीन
ने कहा, वही सिद्धांत जो तुमने दिया था, वही तख्तियां जो मैंने खर्च करवा कर जगह-जगह टंगवाईं, उसका यह फल भोग रहा हूं।
काल
करै सो आज कर,
आज करै सो अब्ब।
पल
में परलय होएगी,
बहुरि करौगे कब्ब।।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, उसका इससे क्या संबंध? कोई सोच भी नहीं सकता कि
हड्डियों का टूट जाना उस सिद्धांत से संबंध रखता है। अरे, नसरुद्दीन
ने कहा, पहले पूरी बात सुनो! मेरा जो कोषाध्यक्ष है, वह तिजोड़ी लेकर भाग गया। और लिख गया चिट्ठी कि काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब; और पल में परलय होएगी, बहुरि करौगे कब्ब। लिख गया चिट्ठी कि मैं बहुत दिन से सोच रहा था कि
तिजोड़ी लेकर भाग जाऊं, लेकिन सोचता था--भाग जाऊंगा, जल्दी क्या पड़ी है! अरे कल कर लूंगा, परसों कर
लूंगा। मगर आपने भी क्या सिद्धांत लटका दिया कि मैंने भी सोचा कि बात तो सच्ची है,
बात तो पते की है। सो मैं तो जा रहा हूं तिजोड़ी लेकर! और मेरा
मैनेजर मेरी टाइपिस्ट लड़की को भगा कर ले गया। और वह भी लिख कर रख गया। तख्ती जो
मैंने उसकी टेबल पर टांगी थी, उसी तख्ती पर नोट लिख गया है
कि आपने जो सिद्धांत दिया, उसके लिए बहुत धन्यवाद! भागने की
तो बहुत दिन से सोच रहा था। और नसरुद्दीन ने कहा कि वह टाइपिस्ट ही नहीं थी मेरी,
मेरी प्रेयसी भी थी। दुष्ट ले गया! और यह सब तो ठीक है, मेरा जो चपरासी है वह एकदम भीतर घुस आया और लगा मुझे पीटने। मैंने पूछा,
तू क्या करता है? उसने कहा कि जिंदगी से मैं
यही सोच रहा था कि कभी मौका मिल जाए तो हड्डी-पसली तोड़ दूं इस दुष्ट की!...कौन
नौकर अपने मालिक को क्षमा कर पाता है! करना भी चाहे तो कैसे कर सकता है!...और जब
आपने तख्ती लटकाई तो मैंने कहा, अब मत चूको! मत चूक चौहान!
फिर मैं तत्क्षण घुस आया।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, मैं बहुत दुखी हूं कि उन दुष्टों ने क्या अर्थ निकाला। बहुत दर्द होता
होगा? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं, बहुत दर्द तो नहीं होता, जब हंसता हूं तब होता है।
मनोवैज्ञानिक ने कहा, हंसते काहे के लिए हो?
उसने
कहा, हंसता इसलिए हूं कि सयाने भी क्या पते की बातें कह गए हैं! एक ही बात मानी
और क्या फल भोग रहा हूं! हंसी कभी-कभी आ जाती है! कि वाह री दुनिया, कैसे-कैसे सिद्धांत बना गए लोग! और कैसे-कैसे मानने वाले लोग, समझने वाले लोग! क्या प्यारी कहावत थी और क्या अर्थ निकला और क्या फल
भोगा! इसलिए कभी-कभी हंसी आ जाती है। हंसी आ जाती है तो बहुत दर्द होता है! क्योंकि
सब हड्डियां टूट गई हैं। जैसे ही हंसी आती है तो खड़खड़-खड़खड़ होने लगती है। मगर हंसी
रुकती भी नहीं है, रह-रह कर कभी न कभी आ जाती है। सब बरबाद
हो गया एक तख्ती लटकाने से! और बात ऐसी पते की थी कि जंची थी मुझको भी! तुम्हारा
ही कसूर नहीं है, कसूर मेरा भी है। मगर भैया, किसी और को ऐसी सलाह आगे से मत देना! जो मुझ पर गुजरी, वह मेरे दुश्मनों पर भी न गुजरे! और तुम अपनी ऐसी सलाहें बहुत सोच-समझ कर
दिया करो! और अगर देना ही हो तो पहले खुद अपने दफ्तर में प्रयोग किया करो, ताकि अनुभव के द्वारा दे सको!
लोग
टालते हैं। और बड़ा मजा यह है कि गलत को नहीं टालते। अगर कोई तुम्हें गाली दे तो
तुम यह नहीं कहोगे कि अच्छा, ठीक है, सोचेंगे, विचारेंगे, पूछताछ करेंगे, चार
जनों से मशविरा करेंगे, फिर जो उचित होगा वह जब समय आएगा तब
करेंगे। जब कोई गाली देता है तो फिर न तुम समय देखते न घड़ी--लगन महूरत झूठ सब,
और बिगाड़ैं काम--वह तो तुम उसी वक्त ठीक करते हो उसको! तत्क्षण। एक
क्षण की देरी नहीं होती। उधर गाली निकली कि इधर तुम तैयार हुए, कि तुमने ताल ठोंकी, कि तुमने और दुगने वजन की गाली
निकाली! हां, अगर दान करना हो तो तुम कहते हो, सोचेंगे, विचारेंगे। संन्यास को लोग सोचते हैं
वर्षों।
एक
महिला ने पूछा है कि मैं आपकी चाहक हूं, आपके विचारों से प्रेम है, लेकिन संन्यास नहीं ले सकती हूं। तो क्या मुझे आपका आशीर्वाद न मिलेगा?
मेरा
आशीर्वाद तो मिल सकता है,
मगर तुम तक पहुंचेगा नहीं। क्योंकि चाहक होना पर्याप्त नहीं है,
उसके लिए कुछ चुकाना भी तो चाहिए। कुछ थोड़ा साहस भी करना चाहिए।
थोड़ा कुछ दांव पर भी लगाना चाहिए। मैं तो आशीर्वाद दे रहा हूं, सवाल मेरे देने का नहीं है, सवाल तुम्हारे लेने का
है। और इससे बड़ा आशीर्वाद तुम्हें क्या दूं कि संन्यास फलित हो जाए। और इससे बड़ा
क्या आशीर्वाद होगा? मुझसे आशीर्वाद मांगो तो पहला तो यही
आशीर्वाद होगा कि हो जाओ संन्यासी! वहीं से मुश्किल शुरू हो जाएगी।
तुम
क्या सोचती हो कि मैं आशीर्वाद दूंगा कि पुत्रवती हो जाओ, कि किसी
चुनाव में जीत जाओ, कि खूब रास्ते के किनारे धन से भरा हुआ
घड़ा मिल जाए, कि छप्पर फूटे और एकदम नोटों की वर्षा हो
जाए--क्या मैं तुम्हें ऐसा आशीर्वाद दूंगा?--कि गोद भरी-पूरी
हो जाए। ऐसा आशीर्वाद तो मैं नहीं दे सकता। मैं तो आशीर्वाद दूंगा तो पहला तो
आशीर्वाद संन्यास ही होगा। क्योंकि उससे बड़ा कोई सत्य नहीं है।
इस
संसार में यूं जीना कि संसार तुम्हें छू न पाए, संन्यास है। संसार में रहना और
संसार तुम में न रहे, बस इतनी ही तो संन्यास की परिभाषा है।
गुजर जाना इस काली कोठरी से, मगर कालिख तुम्हें छू न पाए।
कबीर जैसा कहते हैं: ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया; खूब
जतन से ओढ़ी रे चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। बस
संन्यास का इतना ही अर्थ है कि चादर को वैसा का वैसा रख देना, दाग न लगे।
लेकिन
लोग अनेक हैं ऐसे--इस महिला ने पूछा ऐसा ही नहीं, और भी मेरे पास रोज प्रश्न
और पत्र आते हैं--कि आपसे मिलना है, आपका आशीर्वाद चाहिए,
लेकिन संन्यास लेने की हिम्मत नहीं है।
जरा-सी
हिम्मत नहीं है! मरने की हिम्मत है? जीने की हिम्मत है? संन्यास लेने की हिम्मत नहीं है! जन्म तक लेने की हिम्मत कर ली तुमने,
एक बार न सोचा कि किस संसार में जन्म ले रहे हैं! और भारत में जन्म
गए। न संकोच आया, न लाज-शरम लगी। और नंग-धड़ंग कूद पड़े! यह भी
नहीं कि एक लंगोटी पहन कर आते, कि कम से कम एक घूंघट ही ओढ़
लेते, नंग-धड़ंग एकदम कूद पड़े! यह भी न देखा कि कहां कूद रहे
हैं, वैसे ही बहुत लोग उपद्रव कर रहे हैं, चारों तरफ भीड़-भाड़ मची है--कोई फिकर नहीं, कोई चिंता
नहीं।
जन्म
लेते समय तुमने सोचा नहीं,
मरते समय भी तुम सोचोगे नहीं--यूं जन्म हो गया, यूं मौत हो जाएगी। एक संन्यास ही है जो तुम सोच सकते हो, बाकी तो कुछ और सोचने का है नहीं। दुनिया में तीन ही तो बड़ी चीजें हैं। एक
जन्म, एक मृत्यु और एक संन्यास। जन्म और मृत्यु तुम्हारे हाथ
में नहीं, मजबूरियां हैं। संन्यास तुम्हारी स्वतंत्रता है।
उसमें ही संकोच है। तो स्वतंत्रता से वंचित जो अपने को कर रहा है, वह आशीर्वादों को लेना भी चाहे तो ले न पाएगा।
मेरा
आशीर्वाद तो एक ही हो सकता है कि तुम इस संसार से अछूते गुजर जाओ! जल में कमलवत!
और तुम्हारी तकलीफ यह है कि संन्यास तुम ले नहीं सकते--और वही मेरा आशीर्वाद है!
योगानंद, इतना ही
करो कि जो व्यर्थ है, उसको कल पर टाल देना। कोई गाली दे तो
कहना, चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दूंगा। और कोई प्रेम मांगे तो
अभी देना। फिर एक पल की देर न करना।
और
बाहर देखने योग्य क्या है?
और सब देख तो चुके! काफी तो देख चुके! सुख भी देखे, दुख भी देखे; सफलता भी देखी, असफलता
भी देखी; धन भी देखा, निर्धनता भी देखी;
सब तो देख चुके, अब देखने को बाहर बचा क्या
है! अब भीतर और देख लो। इसके पहले कि मौत आए और पर्दा गिर जाए, भीतर और देख लो। और भीतर देख कर ही तुम पाओगे कि अब न कोई मौत है, न कोई जन्म है। अब पर्दा कोई गिराना भी चाहे तो नहीं गिर सकता।
मगर
हम मूर्च्छा में जी रहे हैं। हमारी मूर्च्छा बड़ी अपूर्व है।
पंजाब
केसरी में कल मैं--एक अखबार है जालंधर का--उसमें यह खबर देख रहा था। खबर है कि
राजधानी में रामलीला चल रही थी। दृश्य था शूर्पणखा की नाक काटने का। जब वह राम के
पास आई तो पास के ही होटल में रिकार्ड पर गीत बजा--
आप
जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए तो बात बन जाए
और
शूर्पणखा इस धुन पर नाचने लगी। जनता भी चकित हुई होगी। जो सो गए थे वे भी जग गए
होंगे। इधर उसकी नाक कटी उधर फिर गाना बजा--
शीशा
हो या दिल हो आखिर टूट जाता है
और
शूर्पणखा फिर मटक-मटक कर नाचने लगी।
ऐसी
बेहोशी है! इस बेहोशी को तोड़ो। ये बाहर के रिकार्ड होटलों में बज रहे हैं, इनको
सुन-सुन कर कब तक नाचते रहोगे? भीतर भी एक धुन बज रही
है--शून्य की--एक बांसुरी बज रही है, अनाहत का नाद बज रहा है,
सुरति जग रही है, उसे सुनो।
पहले
दिन के खेल के बाद दोनों टीमों ने डिनर के साथ छक कर जाम तोड़े। खुमारी अगली सुबह
तक बाकी थी। अगले दिन खेल की शुरुआत पर पहली ही बाल पर रन लेना शुरू हो गया। क्रीज
के दोनों खिलाड़ी बेतहाशा दौड़ रहे थे। तभी बालर ने उचक कर धीरे से एंपायर के कान
में कहा: "दौड़ने दो निगोड़ों को, अभी मैंने गेंद फेंकी ही नहीं,
यह रही मेरी मुट्ठी में!' होश किसको है!
निगोड़े दौड़ रहे हैं, भागे जा रहे हैं--और गेंद अभी फेंकी ही
नहीं गई है!
मैंने
मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि मुल्ला, आपके कुर्ते के कोने पर यह गांठ
कैसी बंधी है? नसरुद्दीन कहने लगा: "मेरी पत्नी का पत्र
पोस्ट में डालने की याद बनी रहे, इसलिए।' तो मैंने पूछा: "फिर आपने वह पत्र पोस्ट कर दिया न?' नसरुद्दीन ने कहा: "नहीं जी, पत्नी वह पत्र
मुझे देना ही भूल गई!'
आदमी
करीब-करीब बेहोशी में जी रहा है--भयंकर बेहोशी में जी रहा है! और जब तक बेहोशी है
तब तक दुख है। और बेहोशी अर्थात बाहर दौड़ना। और होश अर्थात भीतर ठहरना।
योगानंद, भीतर ठहर
जाओ। जैसे कोई ज्योति ठहरी हो, जहां हवा का कोई झोंका भी न
आता हो। ऐसी जब तुम्हारी चेतना भी एक ज्योति की तरह ठहर जाएगी, तो तुम पाओगे: आनंद उतर आया। उतर आया कहना ठीक नहीं, था ही, लेकिन ज्योति के ठहरते ही पता चल गया है। अब
तक पता न था; अब पहचान हो गई।
आनंद
हमारा स्वभाव है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि बच्चे सदा प्रतिभाशाली होते हैं
लेकिन समाज उनकी प्रतिभा को नष्ट कर देता है। यह बात मेरी समझ में नहीं आती!
कन्हैयालाल गोरक्षक, आएगी भी नहीं! बीसवीं सदी में कम से कम यह गोरक्षक
होना तो छोड़ो। कन्हैयालाल काफी हो। उतने से ही पता चल जाता है: जय हो कन्हैयालाल
की! और गोरक्षक और!
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने गधे पर से गिर गया; तो मैं उसे देखने गया। पता चला
उसकी पत्नी से मुझे कि गधे ने बड़ा गजब का काम कर दिया। मुल्ला तो गिर गया गधे से
गङ्ढे में, उठ न सके, गधा भागा गया और
डाक्टर को लिवा लाया। नसरुद्दीन बिस्तर पर ही पड़ा-पड़ा बोला कि अरे, गधा ही है बिलकुल! क्या खाक डाक्टर को बुला लाया! अरे, पशु-चिकित्सक को बुला लाया दुष्ट!
अब
पता नहीं तुम्हीं को न बुला लाया हो, कन्हैयालाल गोरक्षक! क्योंकि
तुम्हारे नाम से ही लगता है कि पशु-चिकित्सक हो या क्या मामला है? समझ तो तुम खुद ही गंवा बैठे हो। अब तुमको क्या समझ में आए--पहले समझ तो
होनी चाहिए तो कुछ समझ में आए! यही तो मैं कह रहा हूं कि बच्चे तो प्रतिभाशाली
पैदा होते हैं--न तो तुम कन्हैयालाल पैदा हुए थे, न गोरक्षक;
जब पैदा हुए थे तो कोरी किताब थे; लोगों ने
लिख दिया: कन्हैयालाल गोरक्षक! तब से तुम कन्हैयालाल गोरक्षक हो गए। लोग जो लिख
दें! कोई लिख देगा--हिंदू, कोई लिख देगा--मुसलमान, कोई लिख देगा--ईसाई, वही तुम हो जाओगे।
बच्चे
तो कोरे कागज की तरह पैदा होते हैं, फिर लिखावटें हम लिख देते हैं,
गंदा हम कर देते हैं। फिर लिखावटों पर लिखावटें लिख दी जाती हैं। और
धीरे-धीरे कोरा कागज छिप जाता है, कालिख ही कालिख हो जाती
है।
राजस्थान
में प्यारी महिला थी भूरबाई। मैंने जब पहला शिविर लिया, तब से ही
वह शिविरों में आती थी। पहले शिविर में भी आई थी। उसके भक्त भी आए थे। राजस्थान
में उसकी प्रतिष्ठा थी। प्यारी महिला थी। अत्यंत सरल थी। जिसको साधु कहें, वैसी साधु थी। तुम्हारे महात्माओं जैसी नहीं, सच में
ही साधु थी। उसके भक्तों ने मुझसे कहा कि आपकी यह मानती है। आपके सिवाय यह किसी की
मानती नहीं। आप इतना कह दो इससे--हमारी प्रार्थना है--कि अब उम्र बहुत हो गई,
सत्तर पार कर गई, अब ज्यादा दिन जीएगी भी नहीं;
तो अपना अनुभव लिख दे। खुद तो लिख नहीं सकती, मगर
हम लिख लेंगे--लिखवा दे।
कालीदास
भाटिया, एडवोकेट थे हाईकोर्ट के, उन्होंने वकालत छोड़ दी थी
और भूरबाई के कपड़े धोते थे। उन्होंने ही मुझसे यह कहा कि आपसे प्रार्थना है इतनी।
इसके पास रह कर बीस साल में मैंने जाना है कि बहुत हीरे-जवाहरात हैं। मगर न
लिखवाती है, न लिखने देती है।
मैंने
भूरबाई को कहा कि ये बेचारे इतने परेशान हैं, तो लिखवा दे! उसकी उम्र तो सत्तर
साल थी, लेकिन वह मुझसे कहती थी: बापजी! उसने कहा, बापजी, आप कहें तो ठीक। लिखवा दूंगी। यह दुष्ट
कालीदास मेरे पीछे पड़ा ही है बहुत दिन से, इसने यह तरकीब
अच्छी निकाली कि आपको भी बीच में ले लिया, अब आप कहते हैं तो
लिखवा दूंगी। दुबारा जब आएंगे, तो जरूर कालीदास जो कहता है,
यह काम पूरा हो जाएगा।
दुबारा
जब मैं गया तो सारे भक्त एक बड़ी सुंदर लकड़ी की मंजूषा में ताला लगाए हुए उठा कर
सिर पर--कालीदास भाटिया ही उसे सिर पर रखे हुए थे--एक सुंदर मंजूषा को लेकर आए।
भूरबाई भी आई और हंस रही थी बहुत। और कालीदास ने कहा, आप उदघाटन
कर दें। भूरबाई ने किताब लिखी है--हमको तो लिखने नहीं दी इसने। और हम तो यह जानते
ही नहीं थे कि यह लिखना भी जानती है! मगर यह बिलकुल ताला लगा कर चुपचाप लिखती थी।
कहती थी कि बापजी आएंगे, उनसे उदघाटन करवा दूंगी। सो हमें तो
पता ही नहीं इसने क्या लिखा है, हम बड़े उत्सुक हो रहे हैं
देखने को कौन-सी किताब लिखी है, क्या लिखा है। अब यह चाबी
भूरबाई के पास है, वह आपको चाबी देगी, यह
पेटी आप खोल दें और किताब निकाल कर सबके सामने रख दें।
मैंने
पेटी खोली। किताब क्या थी,
एक छोटी-सी किताब, दस-बारह पन्ने। होगी एक-दो
इंच की लंबाई और कोई एक-डेढ़ इंच की चौड़ाई और दस-बारह पन्ने। और मैंने किताब खोल कर
देखी, वह बिलकुल काली है। उसमें कुछ लिखा ही नहीं! और सफेद
पन्ने भी नहीं, बिलकुल काले। और भूरबाई खिलखिला कर हंसने
लगी।
मैंने
कहा कि ठीक, यह उदघाटन हो गया। यह भूरबाई ने अच्छा शास्त्र लिख दिया। अरे, दूसरों ने लिखे हैं तो वे थोड़ा-बहुत काला करते हैं, इसने
इतना लिखा है कि बिलकुल काला कर दिया। लिखती गई, लिखती
गई...।
भूरबाई
ने कहा कि मैंने पहले ही कहा था कि बापजी पहचान जाएंगे। अरे, मैंने भी
कहा कि जब लिखना ही है तो क्या कंजूसी करना, दिल खोल कर ही
लिख दो! एक दफा तो लिखनी है जिंदगी में, सो लिख ही दो। यह
कालीदास भी तृप्त हो जाए। और कालीदास है यह। सो इसके ही नाम से मुझे याद आया कि
काला ही कर दूं, यही दुष्ट पीछे पड़ा है! तो यह रहा ग्रंथ!
उदघाटन
हो गया। भक्तगण तो बड़े निराश हुए कि यह तो बड़ा पागलपन हो गया। हम तो मंजूषा इतना
बैंड-बाजा बजा कर लाए,
क्या पता था कि ऐसी मजाक हो जाएगी! मगर बात उसने ठीक कही कि अब क्या
कंजूसी करनी। जब लिखना ही है तो पूरा ही लिख दिया।
और
तुम भी कंजूसी नहीं करते हो, बच्चों के साथ वही हो रहा है। मां-बाप लिख रहे
हैं, पड़ोसी लिख रहे हैं, मोहल्ले वाले
लिख रहे हैं, स्कूल में शिक्षक लिख रहे हैं, अध्यापक लिख रहे हैं, प्रोफेसर लिख रहे हैं--लिखे ही
जा रहे हैं लोग--नेता और समाज-सुधारक और जो मिल जाए, वही लिख
रहा है। अरे, बच्चों को कौन सलाह नहीं देता? बिन मांगी सलाहें लोग दे रहे हैं। जिन सलाहों पर खुद कभी नहीं चले,
उन पर बच्चों को चलाने की कोशिश कर रहे हैं। गूद डालते हैं बिलकुल,
काला कर देते हैं बच्चों को। उनकी प्रतिभा नष्ट हो जाती है।
अब
जो हिंदू है,
मुसलमान है, ईसाई है, उसमें
क्या खाक प्रतिभा होगी! प्रतिभा हो, तो हिंदू नहीं हो सकता।
तो उसे हिंदू शास्त्रों में जो कचरा है निन्यानबे प्रतिशत, वह
दिखाई पड़ेगा। तो कैसे हिंदू होगा? अगर वह प्रतिभाशाली हो,
तो जैन नहीं हो सकता, बौद्ध नहीं हो सकता,
मुसलमान नहीं हो सकता। बुद्ध हो सकता है, कृष्ण
हो सकता है--होगा--जीसस हो सकता है, मोहम्मद हो सकता
है--होगा--लेकिन मुसलमान नहीं हो सकता, ईसाई नहीं हो सकता।
खयाल
रहे, ईसा ईसाई नहीं थे और न बुद्ध बौद्ध थे और न कृष्ण हिंदू थे। कृष्ण ने
हिंदू शब्द भी नहीं सुना था। कभी सोचा भी न होगा कि यह शब्द भी कभी इस जाति की
खोपड़ी पर लिख जाएगा। ये जो लोग लिख गए, वे दूसरे थे। यह
हिंदुओं का अपना शब्द भी नहीं है, यह भी उधार है--ऐसी उधारी
है कि कुछ भी अपना नहीं है, सब उधारी है, शब्द भी उधार है।
पहली
दफा इस देश में जो लोग आए--हूण और बबर--उनकी भाषा में स के लिए ह का उच्चारण होता
है, तो सिंधु नदी को हिंदु नदी कहते थे। और सिंधु नदी के आस-पास जो रहते थे वे
हिंदू। असल में हिंदू का अर्थ होता है: सिंधु। हिंदी का अर्थ होता है: सिंधी।
सिर्फ सिंधी को हक है यह कहने का कि मैं हिंदू हूं। बाकी किसी को नहीं। सो सिंधी
तो और आगे चले गए हैं, वे कहां हिंदू वगैरह! उल्लासनगर में
उन्होंने एक फैक्ट्री खोल रखी है। उल्लासनगर में जो चीज न बनती हो वह समझो दुनिया
में कहीं नहीं बनती।
मैंने
सुना है कि एक प्रतियोगिता हुई कि दुनिया में सबसे ज्यादा कारीगरी कहां होती है।
तो एक तार पर--इतना बारीक तार अमरीका में बना कि उतना बारीक तार कोई न बना सके।
खाली आंख से दिखाई न दे। बाल से भी पतला। जब तक उसको तुम विशेष यंत्रों से न देखो, दिखाई न
पड़े। उस तार को लेकर वे लोग जर्मनी गए। जर्मनी के कारीगरों ने उस तार में एक छेद
कर दिया। दंग रह गए वे! हद कर दी कि तार में छेद कर दिया! फिर वे जापान गए।
जापानियों ने उस तार पर बाइबिल का एक वचन लिख दिया। हैरान हो गए! अब उन्होंने कहा,
अब इसके आगे कौन कारीगरी कर सकेगा! मगर उन्होंने कहा कि उल्लासनगर
जाओ। अभी एक जगह और बाकी है--उल्लासनगर। कहा, उल्लासनगर कहां
है?
पता
लगा कर उल्लासनगर आए। उल्लासनगर में एक सिंधी कारीगर ने उस पर लिख दिया: मेड इन
यू.एस.ए.। बड़ी कारीगरी से लिखा। लेकिन पूछा उन्होंने कि हद कर दी, रहते
हिंदुस्तान में हो, उल्लासनगर हिंदुस्तान में है, मेड इन यू.एस.ए. क्यों लिखते हो? अरे, मेड इन इंडिया क्यों नहीं? उन्होंने कहा, यू.एस.ए. क्या तुम्हारे बाप का है? सिंधियों का है।
अरे मेड इन यू.एस.ए. का मतलब होता है: मेड इन उल्लासनगर सिंधी एसोसिएशन। यू.एस.ए.
यानी उल्लासनगर सिंधी एसोसिएशन।
वे
तो कहां हिंदुस्तान वगैरह को मानते हैं, वे तो बहुत आगे निकल चुके हैं। हर
चीज मेड इन यू.एस.ए. बना देते हैं। बनती उल्लासनगर में है।
सिर्फ
सिंधी को हिंदू अगर कहो तो चल सकता है। बाकी तो किसी को हिंदू कहने की कोई जरूरत
नहीं है। मगर उसी हिंदू शब्द से सारे शब्द बने हैं।
फिर
जब ग्रीक भारत आए--यूनानी--तो उनकी भाषा में और फर्क हो गया। वे हिंदू को, सिंधु को,
सिंधस कहते थे; या हिंदस। यूनान तक
पहुंचते-पहुंचते सिकंदर के साथ यह शब्द इंदस हो गया, और इंदस
से इंडिया।
इंडिया
और हिंदू, दोनों सिंधु शब्द से ही पैदा हुए हैं; और दोनों
विजातियों ने दिए हैं, तुम्हारा दिया हुआ शब्द भी नहीं है।
प्रतिभा की कहां बात करते हो! कोई प्रतिभाशाली होगा जो हिंदू है, कि मुसलमान है, कि ईसाई है! प्रतिभाशाली व्यक्ति
केवल मनुष्य होता है। और छोटे बच्चे मनुष्य की तरह पैदा होते हैं। और तुम्हें उनकी
प्रतिभा हर जगह दिखाई पड़ सकती है।
भतीजा:
"चाचा जी,
आप मेरे जन्म-दिवस पर जो एक नन्हा-सा खिलौना लाए थे, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!'
चाचा
ने कहा: "बेटे,
इसमें धन्यवाद की क्या बात है?'
भतीजे
ने कहा: "वैसे मेरी भी यही राय है। लेकिन मम्मी ने कहा कि फिर भी धन्यवाद तो
देना ही चाहिए।'
प्रतिभा!
छोटा
बच्चा अपने बाप से पूछ रहा है: "आप कहां पैदा हुए थे, पापा?'
पापा
ने कहा: "बंबई में।'
"और मम्मी?'
"मम्मी पैदा हुई थी मद्रास में।'
"और मैं कहां पैदा हुआ था?'
बाप
ने कहा: "कलकत्ते में।'
तो
बच्चे ने पूछा: "पापा,
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि हम तीनों एक साथ मिल कैसे गए?'
कहां
बंबई, कहां मद्रास, कहां कलकत्ता! क्या गजब हो गया!
एक
महिला ने सड़क के किनारे किसी बच्चे को सिगरेट पीते देखा, तो वह
बोली: "क्या तुम्हारे पिता को मालूम है कि तुम सिगरेट पीते हो?'
बच्चा
बोला: "नहीं। परंतु क्या आपके पति को मालूम है कि आप बाजार में, सरे बाजार
में रुक-रुक कर अजनबी लोगों से बातें करती हैं?'
बच्चे
प्रतिभाशाली हैं। जरा उनको देखो, उनकी बातें समझो। तुम उन्हें बड़े लोगों से
ज्यादा बुद्धिमान पाओगे।
आज इतना ही।
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