प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
नियोजित संतानोत्पत्ति—(बारहवां प्रवचन)
दिनांक २२ मार्च, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण
देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी
प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने
दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की
उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान
का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
2—क्या जीवन-मूल्य समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
3—आप कहते हैं: न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी
जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
4—कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा उससे मेरे मन में भी
चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
5—मेरी विनम्र लघु आशा है
बनूं चरण की दासी
स्वीकृत करो कि न करो
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण
देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी
प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने
दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की
उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान
का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
रामशंकर अग्निहोत्री,
यह
सच है कि महावीर,
बुद्ध, आइंस्टीन, कबीर,
नानक योजनाबद्ध संतानोत्पत्ति से नहीं जन्मे थे। लेकिन कितने महावीर
हुए, कितने बुद्ध हुए? यह तो ऐसे ही
जैसे कोई अंधेरे में तीर चलाए, और लाखों-करोड़ों तीरों में
कोई एक तीर निशान पर लग जाए। इसका यह अर्थ नहीं होता कि अंधेरे में तीर चलाने में
कोई सार्थकता है; क्योंकि एक तीर लग गया निशान पर तो रोशनी
की कोई जरूरत नहीं है। लाखों तीर कोई चलाएगा अंधेरे में तो एकाध तो लग ही जाएगा।
लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का। ये सब अंधेरे के तीर हैं।
माली
अगर लाख बीज बोए और एक बीज अंकुरित हो जाए तो इस आदमी को माली कहोगे? ये तो यूं
ही फेंक दिए होते बीज भूमि पर तो भी एकाध बीज अंकुरित हो जाता। माली तो वह है,
लाख बीज बोए तो लाख बीज अंकुरित हों। चलो दो-चार न हों तो चलेगा।
लेकिन अभी तो उलटा ही होता रहा है। करोड़ों बच्चे पैदा होते हैं, उनमें एकाध बुद्ध होता है। यह संयोगवशात है। इससे तुम यह न कह सकोगे कि
मैंने जो कहा, वह बात सही प्रतीत नहीं होती।
ये
आयोजित समाज-व्यवस्था से पैदा नहीं हुए थे, लेकिन हमारे बावजूद पैदा हुए।
हमारी व्यवस्था से नहीं, हमारी योजना से नहीं, हमारी भूल-चूक से पैदा हुए। इसलिए हमने इनसे बदला भी बहुत लिया। हमने
इन्हें क्षमा भी आसानी से नहीं किया। जीसस को सूली पर लटकाने की क्या जरूरत है?
सुकरात को जहर पिलाने का क्यों आग्रह है? महावीर
को कितना सताया है तुमने? कानों में खीलें ठोंक दिए महावीर
के! गांव-गांव से खदेड़ा, पागल कुत्ते महावीर के पीछे लगा
दिए। बुद्ध को तुमने मार डालने की कितनी कोशिशें कीं, चट्टानें
गिराईं, पागल हाथी छोड़ा! इन्हें तुमने क्षमा भी नहीं किया।
तुम क्षमा इन्हें कर भी न सकते थे। क्योंकि अंधों के समाज में अगर आंख वाला पैदा
हो जाए तो अंधों को अखरती है यह बात। आंख वाला अखरता है, क्योंकि
आंख वाले के कारण उन्हें बार-बार याद आती है कि हम अंधे हैं; आंख वाला याद दिलाता है। आंख वाले की भी आंखें फोड़ देने की उनकी आकांक्षा
पैदा होती है, कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इसलिए
तुमने इन सबके साथ सदव्यवहार नहीं किया। शायद तुम कहोगे: लेकिन हम इनकी पूजा कर
रहे हैं सदियों से। वह पूजा भी इस बात का सबूत है कि तुमने इनके साथ बहु दर्व्यवहार
किया था। उस पश्चात्ताप और अपराध-भाव से तुम पूजा कर रहे हो। जब ये जीवित थे तब
तुमने दर्व्यवहार किया। दर्व्यवहार इतना किया कि सदियां बीत गईं, लेकिन
तुम्हारे भीतर ग्लानि पैदा होती है। उस ग्लानि से तुम पूजा कर रहे हो। पूजा तुम
किसी आनंद से नहीं कर रहे हो, किसी अहोभाव से नहीं कर रहे
हो। क्योंकि अगर तुमने बुद्ध की पूजा अहोभाव से की होती, तो
तुम फिर जीसस को सूली न देते। तब तक समझ आ गई होती। पांच सौ साल बीत चुके थे। और
अगर तुमने जीसस की पूजा अहोभाव से की होती, तो मंसूर को मार
न डालते, क्योंकि तब तक तुम्हें समझ आ गई होती। लेकिन अब भी
रवैया वही है। जरा भी भेद नहीं पड़ा। आदमी अब भी वही कर रहा है। आदमी आगे भी वही
करेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति का पिता मर जाता है या मां मर जाती है, तो तुम जो
रोते हो, चीखते हो, पुकारते हो,
जार-जार टूटे जाते हो--उसका यह कारण नहीं है कि तुम्हारा पिता से
बहुत प्रेम था। जिंदा था, तो तुमने दो कौड़ी को न पूछा था।
जिंदा था, तो तुमने क्या इसके साथ सदव्यवहार किया था?
शायद घर के किसी कोने में पड़ा-पड़ा, सड़ा-सड़ा
मरा होगा। और अब मर गया है, तो छाती पीट रहे हो। यह
पश्चात्ताप है, इसका मृत्यु से कोई संबंध नहीं है। अब
तुम्हारे भीतर धक्का लगा। अब तुम्हें जरा सा होश आया। मौत ने तुम्हें झकझोरा कि
मैंने पिता के साथ क्या किया! और अब क्षमा मांगने को भी कभी यह व्यक्ति मुझे मिल न
सकेगा। अब इसके पैर पकड़ कर क्षमा मांग सकूं, इसकी भी कोई
सुविधा न रही, बात खतम हो गई। अब ये छाया की तरह तुम्हारे
पाप तुम्हारा पीछा करेंगे।
मैंने
सुना है, एक धनपति कभी किसी को दान नहीं दिया। गांव में एक मंदिर बन रहा था। धन की
जरूरत थी। सब कोशिश कर डाली, और कहीं से धन मिलने का उपाय न
था, मजबूरी में उस कंजूस के पास गए। गांव के पांच-सात प्रमुख
व्यक्ति इकट्ठे हुए, आशा तो नहीं थी; मगर
डूबा क्या न करता, तिनके को भी सहारा मान लेता है। सोचा कौन
जाने शायद दया खा जाए! अधूरा मंदिर खड़ा है, रोज वहीं से
गुजरता है, देखता भी है। पहुंचे। उसने बड़े प्रेम से बिठाया।
बड़े प्रेम से बात सुनी। हैरान हुए! कहा कि हम तो सोचते थे यह आदमी बड़ा दुष्ट है!
चाय-नाश्ता भी कराया और कहा कि अच्छा हुआ आए!
जब
उसकी पूरी बात हो गई,
उन मित्रों ने सब दुख कह दिया और उसने सहानुभूति से सुनी, तब वह बोला कि अब मेरी भी सुनो। मेरा बूढ़ा पिता है, वह
हृदय-रोग से बीमार है। मेरी मां अंधी है। मेरा बेटा लंगड़ा है। मेरी पत्नी का पिता
मर गया, तो उसकी मां, उसकी लड़कियां,
उसका परिवार...मेरे सारे रिश्तेदारों में बस एक मैं ही हूं, जिसके पास थोड़ा-बहुत है। जैसा मैं तुम्हें बाहर से दिखाई पड़ता हूं ऐसा
नहीं है; मेरे ऊपर भी बड़े कष्ट हैं, बड़ी
मुसीबतें हैं।
उन
सबने कहा, हमें तो इस बात का कोई पता ही न था कि आप भी इतने कष्ट में हैं, नहीं तो हम कभी न आते।
उस
कंजूस ने कहा,
तुम कभी अब आना भी मत। मैं तुम्हें यह भी बता दूं कि मेरा बूढ़ा बाप
है, जिसको हृदय की बीमारी है, आज मैं
तीन साल से उसे देखने भी नहीं गया। मेरी मां अंधी है, आज सात
साल से मैंने उसके दर्शन भी नहीं किए। मेरी लड़कियां क्वांरी बैठी हैं, मगर दहेज के कारण मैं विवाह नहीं कर रहा। अब जो आदमी अपनों की फिक्र नहीं
कर रहा, वह तुम्हारे आधे मंदिर को पूरा बनवाने के लिए पैसा
देगा? भूल कर भी अब इधर मत आना।
इसकी
पत्नी मरे, इसका पिता मरे, तो यह बहुत दुखी होगा। यह बहुत छाती
पीटेगा, बहुत शोरगुल मचाएगा। इसके भीतर बड़ा कोलाहल मचेगा।
स्वभावतः
एक मनोवैज्ञानिक सत्य है सीधा सा, कि मृत्यु हमें एक ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देती है
कि जहां रूपांतरित होना अब असंभव; अब कुछ भी नहीं किया जा
सकता, माफी भी नहीं मांगी जा सकती। मौत तो एक अध्याय बंद कर
दी--अचानक। और अब तुम्हें कचोटेगी यह बात कि तुमने क्या किया!
इसलिए
सदियों तक तुम पूजा करते हो। पितृपक्ष मनाते हो। बाप की तस्वीर लगाते हो। बाप की
तस्वीर पर कई घरों में मैं फूल चढ़ते देखता हूं। और जिंदा बापों पर कोई फूल नहीं
चढ़ाता। बड़ा मजा है! अभी तक तो मैंने नहीं देखा कि जिंदा बाप के चरणों में कोई रोज
सुबह दो फूल रख देता हो। जिंदा बाप को तो दो रोटी भी दे दे तो बहुत अहसान है।
जिंदा बाप को तो देखना भी नहीं सुहाता लोगों को। जब तक बाप जिंदा होता है तो मन
में यही होता है कि कब इससे छुटकारा हो। हे परमात्मा, इसको उठा!
अब यह कब तक पीछा करता रहेगा! और जैसे ही यह मर जाता है, वैसे
ही फोटो बनवाते हैं लोग, मूर्ति बनवाते हैं लोग।
स्मृति-मंदिर बनवाते हैं लोग, स्मारक बनवाते हैं लोग।
क्या-क्या नहीं करते। यह पश्चात्ताप है, यह भीतर की पीड़ा
है--जिसको ढांकने का उपाय कर रहे हैं। यह बाप के लिए कोई आदर नहीं दिया जा रहा;
यह सिर्फ अपने घावों को फूलों में छिपाया जा रहा है।
बुद्ध
और महावीर के साथ तुमने दर्व्यवहार किया है, इसलिए तुम सदियों तक उनका समादर कर
रहे हो। मुर्दों का समादर, जिंदों के साथ दर्व्यवहार!
और
दर्व्यवहार का कारण था,
क्योंकि वे तुम जैसे नहीं थे। वे तुम्हारी भीड़ में कुछ अजनबी थे। वे
कुछ और ही तरह के लोग थे। उनकी धुन और, उनकी मस्ती और,
उनका गीत और, उनकी चाल और, उनके ढंग और, उनकी जीवन को देखने की दृष्टि और। उनसे
तुम्हारा कहीं तालमेल नहीं होता।
रामशंकर
अग्निहोत्री,
तुम पूछते हो कि इस तरह के प्रतिभाशाली व्यक्ति बिना योजनापूर्ण ढंग
से संतानोत्पत्ति की व्यवस्था किए भी पैदा हो गए! तो सिर्फ योजनापूर्ण ढंग से ही
जब संतान होगी तभी प्रतिभा पैदा होगी, यह बात पूरी सही नहीं
मालूम होती।
यह
बात पूरी सही है। ये तो सिर्फ भूल-चूक से पैदा हुए लोग हैं। ये तो अंधेरे में लग
गए तीर हैं। करोड़ों लोगों में एकाध आदमी, अंगुलियों पर गिने जा सकें इतने
थोड़े से लोग अब तक सुगंध को उपलब्ध हुए। बाकी लोग यूं ही जीते हैं। और मर जाते
हैं। जीते ही नहीं और मर जाते हैं। जब कि प्रत्येक व्यक्ति इसी गरिमा और गौरव को
उपलब्ध हो सकता है--होना चाहिए!
प्रत्येक
बीज की यह क्षमता है कि कि वह फूलों तक पहुंचे; सुगंध उड़ाए। और जब कोई बीज वृक्ष
बनता है, और पक्षी उस पर गीत गाते हैं, और फूल खिलते हैं, और हवाएं नाचती हैं, और चांदत्तारों से वह गुफ्तगू करता है--तो आनंद को उपलब्ध होता है;
तो संतुष्टि को उपलब्ध होता है। उस परिपूर्णता में ही, उस वसंत के क्षण में ही आनंद-उल्लास है। कहो परमात्म-उपलब्धि है। कहो
निर्वाण है, मोक्ष है।
हम
दुखी रहेंगे ही,
क्योंकि हम अपनी पूर्ण नियति को ही नहीं पा सकते। अंधे, लूले, लंगड़े, कोढ़ी, मस्तिष्क से विकारग्रस्त लोग--ये सब बच्चे पैदा कर रहे हैं। फिर उल्लू मर
जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं। फिर औलाद भी अपने बाप-दादों से
पीछे नहीं रहती, वह और औलाद पैदा करती है। धीरे-धीरे खोटे
सिक्कों का चलन बढ़ता चला जाता है। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो श्रेष्ठतम
व्यक्ति हैं, शायद विवाह ही न करें; और
जो निकृष्ट हैं, वे एक नहीं चार-चार करें। जितना निकृष्ट
आदमी हो, उतने ही उपद्रव खड़े करता है।
बुद्ध
ने तो तब भी एक ही बच्चे को जन्म दिया। और महावीर ने भी एक ही लड़की को जन्म दिया।
लेकिन सामान्यजन कतार लगा देते हैं। होड़ में लगे हुए हैं कि कौन कितने पैदा करता
है! जीसस ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया, विवाह नहीं किया। शंकराचार्य ने तो
कोई बच्चा पैदा नहीं किया। रामकृष्ण ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया। रमण ने तो
कोई बच्चा पैदा नहीं किया।
वे
जो श्रेष्ठतम ऊंचाइयां लेते हैं, अक्सर अविवाहित होते हैं। उनमें इतनी क्षमता,
समझ होती ही है कि क्यों व्यर्थ के जाल में पड़ना, क्यों व्यर्थ का जाल खड़ा करना! जीवन छोटा है, और यह
सारी ऊर्जा अगर एक ही दिशा में लगे तो ही शायद कोई उपलब्धि हो सके; इसे खंड-खंड करेंगे तो उपलब्धि नहीं हो सकती। अगर यह सारी ऊर्जा संगठित हो
तो शायद उड़ान बन सके, और परमात्मा तक पहुंचना भी हो जाए।
यात्रा लंबी है, कठिन है, दुस्तर है,
समग्र-रूपेण व्यक्ति को समर्पित होना होगा, तो
ही!
इसलिए
विवाह, परिवार, परिवार की झंझटें, इस
तरह के लोग कम ही लेते हैं। और ऐसा ही नहीं है कि यह सिर्फ धार्मिक व्यक्तियों के
संबंध में सत्य है। दुनिया के बहुत से कवि अविवाहित रहे, और
बहुत से चित्रकार अविवाहित रहे, बहुत से वैज्ञानिक अविवाहित
रहे।
असल
में, एक ही पत्नी काफी होती है, दो पत्नियां मुश्किल हो
जाती हैं। फिर वह पत्नी चाहे काव्य हो, साहित्य हो, धर्म हो, विज्ञान हो, कला
हो--पर्याप्त है; नहीं तो कलह खड़ी होती है।
सुकरात
की पत्नी थी झेनथिप्पे। सुकरात जिंदगी भर परेशानी में रहा। भारत में पैदा हुआ होता, तो शायद
उसने विवाह ही नहीं किया होता। यूनान में अविवाहित होने की कोई हवा न थी; अविवाहित होने की कोई धारणा न थी। यूनान बहुत पार्थिव देश है। सुकरात का
विवाह हो गया या बचपन में विवाह हो गया होगा, जैसा उन दिनों
में होता था। मां-बाप ने कर दिया होगा--बुद्ध का कर दिया था, महावीर का कर दिया था। तब होश ही न रहा होगा कि उनको और विवाह हो गया
होगा। लेकिन पत्नी ने जीवन भर कष्ट दिया। और कष्ट किस बात का दिया? पत्नी कुछ बुरी न थी। कष्ट यही था कि सुकरात दर्शनशास्त्र में ऐसा उलझा
रहता कि पत्नी पर ध्यान न देता।
और
यही पत्नी के बरदाश्त के बाहर हो जाता कि तुम किसी चीज में इतना रस लो जितना कि
तुम पत्नी में नहीं लेते। तो जिस चीज में तुम इतना रस लोगे, पत्नी का
उसी चीज सेर् ईष्या का भाव जन्मता है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसी और
स्त्री में रस ले रहे हो। तुम बागवानी में रस लो, वह
तुम्हारे पौधे उखाड़ देगी। तुम चित्रकारी में रस लो, वह
तुम्हारे चित्रों पर पानी फेर देगी। तुम मूर्तिकला में रस लो, वह तुम्हारी मूर्तियां तोड़ देगी। यह सवाल नहीं है कि तुम किस में रस ले
रहे हो। सवाल यह है कि प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई, प्रतियोगिता
शुरू हो गई। तुम पत्नी के प्रति उपेक्षा करते हुए मालूम पड़ रहे हो।
और
निश्चित ही सुकरात उपेक्षा कर रहा था। जान कर नहीं; उसकी भी मजबूरी थी। उसके
सारे भाव-प्राण एक और ही लोक में उड़े जा रहे थे। वह किसी अंतराकाश में यात्रा कर
रहा था। पत्नी चाहती थी, वह भी साधारणजन जैसा जन हो।
रोटी-रोजी कमाए, अच्छा मकान बनाए; पड़ोसियों
से ज्यादा गहने हों, साड़ी हो। पत्नी की आकांक्षा में कुछ
अस्वाभाविक नहीं है; अस्वाभाविक था तो सुकरात में था। और
सत्संग में लगा हुआ है। जब देखो तब सत्संग--सुबह सत्संग, दोपहर
सत्संग, सांझ, रात...। आखिर पत्नी के
लिए भी कोई समय चाहिए कि नहीं? एक दिन इतने क्रोध में आ गई
कि सत्संग चल रहा था, आई और उबलती हुई केतली पूरी की पूरी
सुकरात के ऊपर डाल दी। उसका मुंह सदा के लिए जल गया। आधा मुंह जला ही रहा जीवन भर,
काला पड़ गया।
लेकिन
सुकरात कुछ बोला नहीं। जिनके साथ बात कर रहा था, वे चीख उठे। लेकिन सुकरात
ने कहा कि नहीं, उसका कोई कसूर नहीं; कसूर
है तो मेरा। वह ध्यान मांगती है, और मैं ध्यान उसे नहीं दे
पाता हूं। यह केवल ध्यान मांगने की एक प्रक्रिया है। ध्यान आकर्षित कर रही है। और
मेरी भी मजबूरी है; मेरा ध्यान कहीं और लगा है। उसकी भी
मजबूरी है; उसे पति नहीं मिला, वह बिना
पति के है। उसका भी कष्ट मैं समझता हूं। सधवा होकर भी विधवा है; मेरा होना न होना बराबर है। उलटे मेरी देख-रेख करो, फिक्र
करो, मेरे लिए खाना बनाओ--और मैं किसी काम का नहीं!
तो
जो श्रेष्ठतम लोग हुए हैं,
उन्होंने तो शायद बच्चे ही पैदा नहीं किए; विवाह
ही नहीं किए। और जो निकृष्ट हैं, उनके पास और कोई धंधा ही
नहीं है। उनके पास एक ही मनोरंजन है--बच्चे पैदा करना। इसलिए जितना गरीब देश हो,
उतने लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, क्योंकि
गरीब देश के पास मनोरंजन का और कोई साधन नहीं होता। न टी.वी. है, न विश्वऱ्यात्रा पर जाने के लिए खर्चा है, न और तरह
के महंगे साधन हैं; बस एक सस्ता साधन है कि बच्चे पैदा करो।
अपने को उलझाए रहो, बाल-गोपालों से घिरे रहो। वे किलकारियां
मारें और तुम उलझे रहो। ऐसे जिंदगी उलझे-उलझे बीत जाए, कम से
कम खालीपन तो न अखरे। कुछ तो कर रहे हो। दुनिया को कुछ तो दे जा रहे हो। कुछ ऐसे
ही नहीं आए और चले, निशान छोड़े जा रहे हो! याद करेंगे लोगे,
याद रखेंगे लोग कि आए थे तुम!
तुम
पूछते हो रामशंकर अग्निहोत्री, कि ये महावीर, आइंस्टीन,
बुद्ध जैसी प्रतिभाएं योजित संतानोत्पत्ति से तो पैदा नहीं हुई थीं।
मैं भी स्वीकार करता हूं। लेकिन काश, योजित संतानोत्पत्ति की
व्यवस्था लागू हो जाए तो बहुत आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं, बहुत
बुद्ध, बहुत महावीर। प्रतिभाओं के अंबार लग सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ अद्वितीय दान इस जगत को दे सकता है। लेकिन सब
कूड़ा-करकट पैदा होता है। उसका कारण है: हम सोच-विचार करते नहीं। पति-पत्नी का भी
तुम तालमेल बिठवाते हो तो किससे बिठवाते हो? ज्योतिषी से!
जरा उसकी घर की हालत तो देखो। खुद की पत्नी से तालमेल बिठा नहीं पाया और न मालूम
कितनों की पत्नियों के पतियों के तालमेल बिठा रहा है! और चवन्नी-अठन्नी में बिठा
देता है!
अभी
विज्ञान पैदा नहीं हुआ पूरा-पूरा, अभी विज्ञान पैदा हो रहा है। अब घड़ी आई है कि
तालमेल बिठाया जा सकता है। अब हमारे हाथ में बहुत से सूत्र हैं, जिनका उपयोग किया जाना चाहिए। न करें, तो हम मूढ़
हैं। महावीर और बुद्ध के समय में तो सूत्र थे भी नहीं, हमारे
हाथ में सूत्र हैं। अब हम जानते हैं कि किस तरह के पुरुष और किस तरह की स्त्री के
मिलन से किस तरह का बच्चा पैदा होगा। उसकी कितनी ऊंचाई होगी, उसकी कितनी उम्र होगी, उसकी कितनी प्रतिभा होगी,
उसका कितना बुद्धि-अंक होगा। अब इस बात को बिलकुल निर्धारित किया जा
सकता है। अब हम जानते हैं कि उसका नाक-नक्श कैसा होगा; उसके
बालों का रंग कैसा होगा; उसकी आंखों का रंग कैसा होगा। यह सब
तय किया जा सकता है। अब हम यह भी जानते हैं कि साधारण संभोग से जो बच्चे पैदा होते
हैं, उनके संबंध में बहुत निश्चित नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि वह अंधेरे में तीर मारना है।
एक
संभोग में एक पुरुष से करीब एक करोड़ जीवाणु स्त्री के गर्भ की ओर दौड़ते हैं। वहीं
से राजनीति शुरू होती है। दिल्ली दूर नहीं! सारी राजनीति का वहीं जन्म है। अब एक
करोड़ जीव-कोष्ठ...संघर्ष शुरू हुआ, जीवन की प्रतियोगिता शुरू हो गई।
वे भाग रहे हैं। उनका दो घंटे का ही जीवन होता है। दो घंटे में अगर नहीं पहुंच पाए
स्त्री के अंडे तक, तो मर जाएंगे।
और
तुम्हें लगेगा कि कोई मार्ग बहुत लंबा नहीं है, मगर उनके लिए बहुत लंबा है। आंख से
दिखाई भी नहीं पड़ते, इतने छोटे हैं। मीलों लंबा मार्ग है! और
कठिन संघर्ष है; एक करोड़ से प्रतियोगिता है। इस भाग-दौड़ में
जो सबसे पहले पहुंच जाएगा स्त्री के अंडे तक, वह प्रवेश कर जाएगा।
स्त्री
के अंडे की खूबी है कि जो भी जीव-कोष्ठ, पुरुष का स्पर्म सबसे पहले अंडे को
छुएगा, अंडा उसे अपने भीतर ले लेता है और इसके बाद अंडा बंद
हो जाता है। इसलिए कभी-कभी दो बच्चे पैदा हो जाते हैं, कभी
तीन बच्चे, कभी चार, क्योंकि कभी-कभी
संयोगवशात दो स्पर्म एक साथ पहुंच जाते हैं। जब दरवाजा खुला होता है, तब एक साथ पहुंच जाते हैं, तो दोनों ही भीतर हो जाते
हैं। अगर बिलकुल एक साथ जितने भी पहुंच जाएंगे, उतने भीतर हो
जाएंगे। एक दफा कोई भी भीतर हो गया, फिर अंडा बंद हो जाता है,
सख्त हो जाता है, फिर उसमें प्रवेश नहीं हो
सकता, फिर बाकी मारे गए।
तो
करोड़ में से एक पहुंच पाएगा। भयंकर प्रतियोगिता शुरू हुई। जीवन-मरण का प्रश्न है।
जो बचेगा वह जीएगा। जो बचेगा वह सत्तर साल जीएगा। जो बचेगा वह जिंदगी देखेगा; सूरज,
चांद तारे देखेगा; न मालूम क्या-क्या
करेगा--बुद्ध बनेगा, महावीर बनेगा, अल्बर्ट
आइंस्टीन बनेगा, कि पिकासो बनेगा, कि
माइकल एंजलो बनेगा, कि कालिदास, कि पता
नहीं कौन! बाकी उस एक को छोड़ कर शेष सब दो घंटे के भीतर मर जाएंगे। हार गए वहीं।
उनकी जिंदगी वहीं समाप्त, उनके प्राण वहीं समाप्त हो गए।
अब
यह कौन पहुंचेगा?
यह जरूरी नहीं है कि जो जीवाणु बुद्ध बन सकता है, वही पहुंचे। इस एक करोड़ में सब तरह के लोग हैं। इसमें चालबाज हैं, बदमाश हैं, राजनेता हैं, मोरारजी
देसाई, चरणसिंह--सब तरह के लोग हैं इस में, तरहत्तरह के लोग हैं। हर तरह के दांव-पेंच लगाएंगे। अक्सर इस बात की
संभावना है कि सज्जन पुरुष शायद पीछे ही रह जाएं, कि भई इतनी
भाग-दौड़ में कौन पड़े, इतनी आपाधापी में कौन उलझे! सज्जन
पुरुष यह सोच कर कि विनम्रता ही शोभा देती है, एक कोने में
ही खड़े रह जाएं, कि भैया पहले तुम निकल जाओ फिर देखेंगे।
इसमें दादा लोग होंगे जो धक्कम-धुक्की करेंगे और किसी तरह घुस जाएंगे। सौ-सौ जूते
खाएं तमाशा घुस कर देखें! कुछ भी हो जाए, मगर जिन ने कस्त ही
अगर कर लिया है कि पहुंच कर रहेंगे, धमाचौकड़ी मचा देंगे।
एक-दूसरे के ऊपर से चढ़ जाएंगे।...
तुम्हें
खयाल नहीं है वैज्ञानिक कहते हैं कि इतना उपद्रव मच जाता है...पर इतना सूक्ष्म
उपद्रव कि किसी को पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है! इसमें से चुनाव किया जा सकता
है। अब हमारे पास विधियां हैं। इसमें से जांच-पड़ताल की जा सकती है। इसलिए तो एक ही
मां-बाप के बच्चे भी सब एक जैसे नहीं होते। आखिर महावीर अकेले बेटे थोड़े ही थे
अपने बाप के,
और भी बेटे थे; उनका क्या हुआ? आइंस्टीन कोई अकेला ही बेटा तो नहीं था, और भी बेटे
थे; उनका क्या हुआ? वे सब कहां खो गए?
और उन्हीं मां-बाप से पैदा हुए थे।
एक
ही मां-बाप से पैदा होने वाले भी दस भाई-बहनों में बहुत अंतर होता है, जमीन-आसमान
का अंतर होता है। और अंतर कहां से आता है? अंतर यहां से आता
है कि जो जीव-कोष्ठ दौड़ रहे हैं स्त्री के अंडे की तरफ, वे
सब अलग-अलग हैं; उनकी सबकी प्रतिभाएं अलग-अलग हैं; उनकी क्षमताएं अलग हैं; उनकी संभावनाएं अलग हैं। अब
हमारे पास विधियां हैं कि हम उनकी क्षमताओं को आंक सकते हैं; हम उनके भविष्य में झांक सकते हैं।
इसलिए
जैसे अभी हम अस्पतालों में ब्लड-बैंक बनाते हैं, वैसे पश्चिम के देशों में
स्पर्म-बैंक बनने शुरू हो गए हैं। यह अच्छी शुरुआत है, यह
महत्वपूर्ण शुरुआत है। इस पर भविष्य का बहुत कुछ निर्भर करेगा। इसमें श्रेष्ठतम
व्यक्तियों के स्पर्म इकट्ठे किए जा सकते हैं, और उनमें से
भी जो श्रेष्ठतम हैं वे स्पर्म चुने जा सकते हैं।
फिर
सभी स्त्रियों के अंडे भी श्रेष्ठ नहीं होते। स्त्रियों के अंडे भी भिन्न-भिन्न
होते हैं। उन अंडों को भी चुना जा सकता है। और श्रेष्ठतम अंडा अगर श्रेष्ठतम
स्पर्म से मेल खाए,
तो मैं तुमसे कहता हूं कि वक्त आ सकता है जब हम अतीत को बिलकुल ही
पीका कर दें; बुद्ध और महावीरों को अंगुलियां पर गिनती करने
की जरूरत न रह जाए।
हम
महान प्रतिभाओं को जन्म दे सकते हैं, मगर इसके लिए बड़ी नियोजित व्यवस्था
चाहिए। यह नियोजन के बिना नहीं हो सकता। हां, अभी जो कभी-कभी
इस तरह के लोग पैदा हो गए हैं, ये हमारे बावजूद।
रामशंकर
अग्निहोत्री,
इसे स्मरण रखना, मैंने जो बात कही है उसमें
कहीं भी कोई भूल-चूक नहीं है, बात पूरी सही है। ये तो लग गए
तीर। तुम भी अंधेरे में तीन चला कर देखो, लग जाएगा एकाध,
मगर इससे तुम तीरंदाज न हो जाओगे। तीरंदाज इतनी आसानी से नहीं हो
जाते। कभी-कभी संयोगवशात चीजें हो जाती हैं। यह संयोग की बात थी कि एक श्रेष्ठ
अंडे से एक श्रेष्ठ स्पर्म का मिलन हो गया। यह करोड़ों घटनाओं में एक घटना हो ही
जाएगी।
जीसस
ने कहा है कि तुम बीज फेंको, ऐसे ही फेंक दो; कुछ
रास्ते पर पड़ेंगे, वे कभी पैदा नहीं होंगे, वे रास्ते पर ही मर जाएंगे। रास्ते पर कहीं कोई बीज पैदा हो सकता है,
अंकुरित हो सकता है! और जीसस के जमाने का रास्ता। आजकल का रास्ता तो
जीसस को कुछ पता भी नहीं था। अब सीमेंट के रास्ते पर कोई बीज अंकुरित हो सकता है,
कि कोलतार के रास्ते पर कोई बीज अंकुरित हो सकता है? कुछ रास्ते के किनारे पड़ेंगे; वे शायद अंकुरित हो
जाएं, लेकिन मर जाएंगे। क्योंकि लोग चलते हैं रास्ते के बगल
में भी, पटरियों पर भी; दब जाएंगे। कुछ
हो सकता है खेत की मेड़ पर पड़ जाएं, वे शायद थोड़े और बड़े हो जाएंगे,
मगर वे भी बचेंगे नहीं क्योंकि मेड़ों पर भी लोग, किसान, चरवाहे चलते हैं। जो बिलकुल खेत के मध्य में
पड़ेंगे, ठीक-ठीक भूमि में पड़ेंगे, वे
ही बीज अंकुरित हो पाएंगे। और उनकी भी सुरक्षा चाहिए।
हम
बीजों की जितनी चिंता करते हैं, उतनी मनुष्य के बीजों की नहीं करते। हमारे जैसे
मूढ़ खोजने कठिन हैं! खेत में बागुड़ लगाते हैं, पानी सींचते
हैं; कोई जानवर न घुस जाए, इसका इंतजाम
करते हैं, रखवाला रखते हैं। आदमी के लिए हमने क्या इंतजाम
किया है? खैर अब तक तो हम कर न सकते थे, हमें पता भी न था; अब हम कर सकते हैं। अगर अब हम न करें
तो हम निपट गंवार हैं।
लेकिन
पुरानी धारणाएं हमें कठिनाई दे रही हैं। पुरानी धारणाएं हमें बड़ी मुश्किल दे रही
हैं।
आनंद
मैत्रेय ने पूछा है कि अगर आपकी बात मानी जाए और संतानोत्पत्ति को नियोजित किया
जाए तो व्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा?
और
संबंधों में व्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होता है? कोई आदमी किसी की हत्या
करना चाहे, तब तुम यह नहीं कहते कि इस व्यक्ति की स्वतंत्रता
में बाधा पड़ रही है, करने दो हत्या! जब यह करना चाहता है तो
करने दो! इसकी स्वतंत्रता में बाधा क्यों डाल रहे हो?
किसी
व्यक्ति को किसी के घर में आग लगा कर होली जलानी है। इसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता
में बाधा नहीं पड़ती,
जब तुम इस को रोकते हो, पुलिस पकड़ कर ले जाती
है? किसी को आत्महत्या करनी है, उसको
भी तुम नहीं करने देते! यह तो हद हो गई! दूसरे को न मारने दो, चलो ठीक है भई कि दूसरा भी इसमें सम्मिलित है। एक आदमी अपने को ही मारना
चाहता है, वह भी पकड़ जाए तो सजा काटेगा।
अपने
को भी मारने की स्वतंत्रता नहीं है; और तुम्हें बच्चे पैदा करने की
स्वतंत्रता होनी चाहिए! जो कि मारने से भी खतरनाक काम है। क्योंकि तुम हो सकता है
ऐसा बच्चा पैदा कर जाओ, जो जिंदगी भर दुख भोगे। और फिर वह
बच्चे पैदा करेगा। तुम एक सिलसिला शुरू कर जाओ जिसका शायद कभी अंत न हो सके। और
तुम्हें इसकी स्वतंत्रता चाहिए! एकाध आदमी को मार दो, इस में
कुछ बड़ा खतरा नहीं है। ऐसे आदमियों की भीड़ बहुत है। मगर एक बच्चे को पैदा करना
ज्यादा खतरनाक काम है। उसकी तुम्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहिए कि हम तो जिसे
पैदा करना है करेंगे।
नहीं, यह बात
ठीक नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं होता। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का
यह गलत अर्थ हो गया।
अमेरिका
का एक विचारक हेनरी थारो हुआ। महात्मा गांधी उससे बहुत प्रभावित थे। अमरीकी विधान
में लिखा हुआ है कि व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता है। इसका उसने क्या अर्थ किया, मालूम है?
रेलगाड़ी में बिना टिकट चलना! आवागमन की स्वतंत्रता! कोई रोक नहीं
सकता। प्रत्येक व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता है। जब आवागमन की स्वतंत्रता है
तो रेलगाड़ी में बैठेंगे, हवाई जहाज में चढ़ेंगे! वह कई दफा
पकड़ा गया, सजाएं भी काटीं, मगर वह यह
कहता था कि यह व्यक्ति कि मूलभूत स्वतंत्रता है; फिर-फिर
चलता था बिना टिकट।
गांधी
को असहयोग आंदोलन का खयाल ही उसी पगले से मिला। उसकी ही किताब पढ़ कर--अंटू दिस
लास्ट--गांधी को धारणा मिली कि यह तो बड़े गजब का काम है! असहयोग किया जा सकता है
इस तरह से। गांधी ने उसकी किताब का अनुवाद किया। अंटू दिस लास्ट का उन्होंने जो
नाम दिया, वह सर्वोदय--किताब का। उसी से सर्वोदय शब्द पैदा हुआ।
व्यक्तिगत
स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है? तुम्हें हक है कि तुम किसी भी तरह का बच्चा
पैदा करो? उस बच्चे के संबंध में क्या? तुम कौन हो उस बच्चे का भविष्य बिगाड़ने वाले? अगर वह
बुद्धू होगा, तो तुम जिम्मेवार हो। अगर वह अपाहिज होगा,
तो तुम जिम्मेवार हो। अगर अंधा होगा, तो तुम
जिम्मेवार हो। अगर वह बुद्धिहीन होगा, तो कौन जिम्मेवार है?
अगर वह जीवन भर परेशान होगा, तो कौन जिम्मेवार
है?
हमें
ये सब धारणाएं बदलनी पड़ेंगी। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात मूढ़तापूर्ण है। यही
तो इस मुल्क में हमारे प्राण लिए ले रही है। बुद्ध के जमाने में दो करोड़ आबादी थी
इस देश की; अब इस देश की आबादी सत्तर करोड़ है। और अगर हम पाकिस्तान और बंगला देश को
भी जोड़ लें, तो नब्बे करोड़ के करीब पहुंच रही है।
दो
करोड़ आबादी से नब्बे करोड़! तुम अगर दीन हो, दरिद्र हो तो कौन जिम्मेवार है?
और फिर तुम कहते हो व्यक्तिगत स्वतंत्रता! तो तुम्हें दरिद्र होने
की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। तो तुम्हें भूखे मरने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है।
फिर शोरगुल क्यों मचाते हो? फिर क्यों चिल्लाते हो कि हम
भूखे हैं, कि हम दीन हैं, कि हम दरिद्र
हैं, कि दुनिया हमारी फिक्र करें? बच्चे
तुम पैदा करो और फिक्र दुनिया तुम्हारी करे! सारी दुनिया पर नाराज हो। और नाराजगी
का कारण? जिम्मेवारी तुम्हारी है। कोई और कारण नहीं है।
यह
सब अब आगे नहीं चल सकता। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा बदलनी होगी। व्यक्ति
ही कहां हैं?
जिनमें बोध हो उनको व्यक्ति कहो। इन मशीनों को व्यक्ति कहते हो!
जिनको कुछ बोध नहीं है। क्यों बच्चे पैदा कर रहे हैं? किस
लिए कर रहे हैं? क्या जरूरत है? जरूरत
है भी या नहीं? क्यों पृथ्वी का बोझ बढ़ा रहे हैं? ऐसे ही भीड़-भाड़ बहुत है, अब कृपा करो! मगर वे कहते
हैं कि नहीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बाधा हो जाती है।
मैत्रेय
जी ने पूछा है कि इससे तो अधिनायकवाद आ जाएगा।
हम
तो शब्द पकड़ लेते हैं। जिंदा रहना है तो कुछ सूझ-बूझ से काम लेना होगा। और अगर
जीवन को सुंदर बनाना है तो काफी सूझ-बूझ से काम लेना होगा। यह शब्दों के जाल में
पड़ने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। निर्णय तो अब विशेषज्ञों के हाथ में ही होना
चाहिए कि कौन बच्चे पैदा कर सकता है, किससे बच्चे पैदा कर सकता है?
और
अब हमारे पास सुविधा है। कोई जरूरत नहीं है कि तुम अपनी ही पत्नी से बच्चा पैदा
करो; कि तुम्हारी पत्नी तुमसे ही बच्चा पैदा करे। ये पुरानी मूढ़तापूर्ण धारणाएं
छोड़ो। तुम्हारा बच्चा सुंदर होना चाहिए। तुम्हारा बच्चा मेधावी होना चाहिए।
तुम्हारा बच्चा ऐसा होना चाहिए कि खिल जाए एक कमल। इसकी फिक्र करो। उसकी तो फिक्र
नहीं है, बस केवल फिक्र इसकी है कि वह मेरी औरत से हो,
कि मेरे पति से हो। और अब बहुत सुविधा है। अब तो इंजेक्शन से भी
बच्चा पैदा हो सकता है। अब कोई जरूरत नहीं है।...
और
एक अदभुत बात है,
एक आदमी के शरीर में इतने स्पर्म होते हैं जीवन में कि एक आदमी से
हम पूरी पृथ्वी भर सकते हैं बच्चों से। एक करोड़ एक संभोग में बच्चे पैदा हो सकते
हैं। एक आदमी अपने तीस-चालीस साल के संभोग के जीवन में इतने बच्चे पैदा कर सकता है
कि सारी पृथ्वी को भर दे। अगर हम श्रेष्ठतम स्पर्म का उपयोग करें, तो कोई जरूरत नहीं है कि तुम अपने रद्दी-खद्दी स्पर्म से ही बच्चे पैदा
करने का आग्रह लिए बैठे रहो, कि हम इससे ही बच्चा पैदा
करेंगे--चाहे कैसा ही हो, ऊबड़-खाबड़ हो, कच्चा-पक्का हो, चलेगा, मगर हमारा
तो है! हमारे का इतना ही मतलब होगा कि तुम स्पर्म का इंजेक्शन खरीद कर लाए हो;
तुमने पैसा खर्च किया है, किसी और ने नहीं!
किसी और के बाप का नहीं! तुमने चुनाव किया है। तुम गए थे केमिस्ट की दुकान पर खुद,
नौकर को नहीं भेज दिया था। और वहां तुमने जांच-पड़ताल की, तुमने खोजबीन की; पत्नी को भी ले गए थे। दोनों ने
सोचा-विचारा, विशेषज्ञ से पूछा, फिर
तुमने निर्णय किया कि कैसा बच्चा तुम चाहोगे--कितनी प्रतिभा का, कितनी ऊंचाई का, क्या रंग, क्या
रूप, कैसा नाक-नक्श, कैसी देह, कितना स्वास्थ्य।
नहीं
तो हम बीमारियां देते चले जाते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी बीमारियां उतरती चली जाती हैं।
उन्हीं-उन्हीं बीमारियों को हम बढ़ाते चले जाते हैं।
स्वस्थ
बच्चे हो सकते हैं,
जो कभी बीमार न हों, या हों तो होना बड़ा न्यून
हो जाए। और धीरे-धीरे मनुष्य की नस्ल भी अतिमानव को छू सकती है, सुपरमैन को छू सकती है। नीत्शे की कल्पना कभी पूरी हो सकती है, अब पूरे होने का दिन करीब आया।
तो
मैं तो पुनः दोहराऊंगा कि संतानोत्पत्ति नियोजित होनी चाहिए। और बच्चों का सारा
भार कम्यून पर होना चाहिए,
ताकि कम्यून ही तय करे कि कितने बच्चे हों, किसके
बच्चे हों। और अब अड़चन नहीं है, क्योंकि अब बच्चे और संभोग
का संबंध टूट चुका है। पुराने दिन में यह अड़चन थी कि अगर बच्चे रोकना हों तो
ब्रह्मचर्य जैसी कठिन बात साधनी पड़ती, जो कि शायद कोई एकाध
साध पाए। अब तो बच्चे का और संभोग का संबंध टूट गया।
मनुष्य-जाति
के इतिहास में संतति-निरोध के लिए जो पिल ईजाद हुई है, वह सबसे
बड़ी क्रांतिकारी ईजाद है। इससे बड़ी कोई क्रांतिकारी ईजाद नहीं है; क्योंकि इससे आने वाले भविष्य का सारा का सारा रूप रंग और होगा। इसने एक
बड़ी क्रांति कर दी, इसने संभोग और बच्चों का संबंध तोड़ दिया।
तुम संभोग का सुख ले सकते हो जब तक तुम्हें लेना है। जब तक तुम्हें बुद्धि नहीं
आती संभोग से ऊपर उठने की, तुम संभोग का सुख ले सकते हो और
बच्चों से बच सकते हो। बच्चे अनिवार्य नहीं हैं। बच्चों को अब तुम व्यवस्थित होने
दो।
और
थोड़ी समझ आए तो इसमें अड़चन नहीं होती। यह कोई जबरदस्ती नहीं थोपा जाता। यहां मेरे
कम्यून में तुम देखो,
यहां तीन हजार संन्यासी हैं और केवल ढाई सौ बच्चे हैं। डेढ़ हजार
जोड़ों में ढाई सौ बच्चे। अगर इन डेढ़ हजार जोड़ों को भारतीय शैली सिखा दी जाए तो
यहां जो किलकिल दांती मचे, ऐसा सत्संग हो यहां...। दस-पंद्रह
हजार बच्चे हों, जिनको सम्हालने में ही सारा काम लगे। लेकिन
खुद अपनी समझ से युवकों ने आपरेशन करवा लिए हैं, युवतियों ने
आपरेशन करवा लिए हैं। डाक्टरों ने जिसको सुझाव दिया, आपरेशन
करा लिया।
और
जैसे ही यह कम्यून पूरी तरह निर्मित होती है, वैसे ही जो मैं कह रहा हूं यह सब
प्रयोग होने वाला है। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, मैं हवाई
बात करना पसंद नहीं करता। अगर दुनिया में कहीं पहली दफा कम्यून का ठीक-ठीक प्रयोग
हो सकेगा और बच्चे पूरे-पूरे कम्यून के होंगे...। एक हमने अलग बच्चों के लिए भवन
बना रखा है। वहां बच्चे ही रह रहे हैं। क्योंकि बच्चे मां-बाप की झंझट में नहीं
रहना चाहते और मां-बाप भी क्यों झंझट में रहें! बच्चों का अपना निवास-स्थल है।
उनसे थोड़े बड़े उम्र के बच्चे उस निवास-स्थल को सम्हाल रहे हैं। और बड़े अदभुत ढंग
से सम्हाल रहे हैं! सब व्यवस्थित चल रहा है।
नए
कम्यून में, जैसे ही हमारी पूरी व्यवस्था अपनी हो जाती है, हमारा
अपना पूरा नगर हो जाता है, दस हजार संन्यासी बस जाते हैं,
मैं चाहूंगा कि हम पूरे विशेषज्ञों का उपयोग करें। और बच्चे इस तरह
पैदा हों जिस तरह कि अब विज्ञान चाहता है कि बच्चे पैदा होने चाहिए। हम एक उदाहरण
पेश करना चाहते हैं। हम दिखाना चाहते हैं कि कैसे बच्चे पैदा हो सकते हैं। और
जितने दूर के मां-बाप या जितने दूर के स्त्री और पुरुष के जीव-कोष्ठ मिलें,
उतने ही अदभुत बच्चे पैदा होते हैं; उतने ही
श्रेष्ठ बच्चे पैदा होते हैं, जितना फासला हो।
मेरे
संन्यासियों में कोई पचास देशों के संन्यासी हैं--दूर-दूर देशों के। इन से हम एक
नई मनुष्य-जाति का सूत्रपात कर सकते हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
क्या जीवन-मूल्य भी समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
सत्यानंद,
समय
में जो पैदा होता है वह अनिवार्य रूप से रूपांतरित होता है। जीवन-मूल्य भी समय की
उत्पत्ति है,
उपज हैं। वैदिक ऋषियों के समय में जो सही था, आज
सही नहीं है। आज जो सही है, शायद कल सही नहीं होगा। रोज
जागरूकता से देखते रहना जरूरी है कि समय की धारा जब बदले तो हम भी बदलें। लेकिन हम
कल में जीते हैं और अस्तित्व सदा आज है। हम होते हैं कल में, बीते कल में और अस्तित्व है आज; हमारा तालमेल टूट
जाता है। इस से महादुख पैदा होता है, इस से नरक निर्मित हो
जाता है। क्योंकि हम हमेशा चूकते चले जाते हैं।
वर्तमान
से संबंध न हो पाए तो परमात्मा से भी संबंध हो नहीं सकता, क्योंकि
वर्तमान परमात्मा है और हम रहते हैं अतीत में। हमारी धारणाएं अतीत की, वे कितनी ही मूढ़तापूर्ण हो जाएं, मगर हम उन्हें
दोहराए जाते हैं, हम पीटे चले जाते हैं। हम कहते हैं,
हमारे बाप-दादों के समय से चली आईं। कभी उनकी अर्थवत्ता रही होगी,
जरूर रही होगी। वे पैदा इसलिए हुईं कि समय की मांग रही होगी,
लेकिन अब...अब उनका कोई मूल्य नहीं। जैसे वैदिक ऋषि आशीर्वाद देते
थे नव-दंपतियों को कि तुम्हारे बहुत बच्चे हों! आज अगर कोई यह आशीर्वाद देगा तो
गलत होगा। आज तो आशीर्वाद होना चाहिए: तुम्हारे बच्चे बिलकुल न हों! आज बहुत बच्चे
हों, यह आशीर्वाद नहीं है, यह तो
अभिशाप हो जाएगा।
समय
बदल गया, स्थिति बदल गई। वैदिक ऋषियों के समय में पृथ्वी ज्यादा थी, लोग कम थे। आज पृथ्वी कम है और लोग ज्यादा हैं। लोगों से दबी जा रही है
पृथ्वी, मिटी जा रही है पृथ्वी। तो वही जीवन-मूल्य नहीं रह
सकते।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि संतति-नियमन का उपयोग करना...तो जो आत्माएं रुक जाएंगी, पैदा न हो
पाएंगी, उनका क्या होगा? और क्या
संतति-नियमन करना हिंसात्मक नहीं है? क्योंकि तुमने किसी को
पैदा नहीं होने दिया, उसकी हत्या कर दी! होने के पहले हत्या
कर दी!
जो
आत्मा पैदा नहीं हुई,
वह कोई और द्वार-दरवाजा खटखटाएगी; कोई
तुम्हारा ही द्वार-दरवाजा है? कोई तुम एक ने ही ठेका ले रखा
है? तुम जैसे मूढ़ बहुत हैं। और कोई यह एक ही पृथ्वी है?
वैज्ञानिक कहते हैं, इस तरह की कम से कम पचास
हजार पृथ्वियों पर जीवन है। कम से कम पचास हजार! ज्यादा पर होगा, लेकिन कम से कम पचास हजार पर तो निश्चित है। तो तुम्हें क्या चिंता पड़ी?
तुमने कौन सा ठेका लिया हुआ है, आत्माओं को
जन्माने का? जो चलाता है इस विश्व को, चलाएगा
उनको भी; उसकी जिम्मेवारी, उसकी समस्या
वह समझे। तुम क्या परमात्मा की समस्याएं हल करने बैठे हो? तुम
अपनी सुलझा लो, उतना ही बहुत।
लेकिन
लोग तरहत्तरह के प्रश्न पूछते हैं सिर्फ इसलिए कि पुरानी धारणा किसी तरह बची रहे, किसी तरह
हम पुराने से चिपके रहें। और सब बदल गया है।
मुल्ला
नसरुद्दीन कल मुझसे कह रहा था...
कह
रहा था:
कल
रात
अकस्मात
एक
ब्यूटी गर्ल ने हमें रोका
हम
समझे पहचानने में हो गया धोखा!
हम
कवि-सुलभ लज्जा से
दृष्टि
झुकाए गुजर गए
कन्या
के केश मारे गुस्से के बिखर गए
जोर-जोर
से चीखने लगी--
शहर
के जवां मर्दो,
आओ
इसे
शरीफजादे से मुझको बचाओ
मैं
अलकों में अवध की शाम
होंठों
पे बनारस की सुबह
और
चेहरे पर कश्मीर का पानी रखती हूं
फिर
भी इस लफंगे ने मुझको नहीं छेड़ा
क्या
मैं इसकी मां लगती हूं?
जीवन
रोज बदला जाता है। पुराने मूल्य बह जाते हैं पानी में, नये मूल्य
आ जाते हैं। पुरानी धारणाएं टूट जाती हैं, नई धारणाएं आ जाती
हैं।
सोच
में पड़े हैं सेठ किशोरी रमण
क्योंकि
डाकुओं ने
उनकी
पत्नी का कर लिया अपहरण
अब
आया है पत्र उनके पास
कि
आप एक किलो सोना
गंदे
नाले पर रख दीजिए
जो
कि
हमारे
द्वारा
स्वयं
सहज लिया जाएगा
और
यदि
आपने
ऐसा न किया तो
आपकी
सेठानी को वापस भेज दिया आएगा।
वे
दिन गए जब कि डाकू कहते थे कि अगर रुपया न भेजा तो हम पत्नी को छोड़ेंगे नहीं। वे
दिन गए! अब तो वे कहते हैं,
पत्नी को घर वापस भेज देंगे सकुशल।
तुम
पूछते हो सत्यानंद: "क्या जीवन-मूल्य भी समयानुसार रूपांतरित होते हैं?'
निश्चित
ही सभी चीजें बदलती हैं। बदलनी ही चाहिए। बदलना ही जीवन का क्रम है। और बदलना शुभ
भी है। बदलती हैं,
इसलिए तो जीवन नया रहता है, ताजा रहता है,
प्रफुल्लित रहता है। इस देश में नहीं बदलतीं, यही
हमारी अड़चन है। इस देश में सब सड़ गया है, सब गंदा हो गया है।
इस देश में आज तो है ही नहीं, बस कल ही कल है। रामराज्य हो
चुका, स्वर्णऱ्युग हो चुका, सतयुग हो
चुका--सब हो चुका! अब हम यहां क्या रह रहे हैं? कोई यह पूछता
ही नहीं कि तुम क्या कर रहे हो? जब सब हो ही चुका तो अब तुम
भी हो चुको! अब तुम क्यों नाहक कष्ट उठा रहे हो! अब कुछ होने को तो बचा नहीं। अब
तो कलियुग ही कलियुग है, दुर्दिन ही दुर्दिन हैं, अब तो दुख ही दुख है। अब सार क्या है जीने में?
दो
हिप्पी केलिफोर्निया के रास्ते से गुजर रहे थे। महा हिप्पी! मील भर तक चलते रहे
चुपचाप। अपनी-अपनी धुन में मस्त। आखिर एक ने दूसरे से कहा कि अब बरदाश्त के बाहर
है। क्या तूने अपने पतलून में पाखाना किया है? इतनी भयंकर बदबू आ रही है! और मील
भर से मैं देख रहा हूं, कि अगर यह बदबू कहीं और से आ रही होती
तो छूट गई होती पीछे, मगर यह साथ ही चल रही है।
दूसरे
ने कहा कि नहीं-नहीं,
बिलकुल नहीं। मगर पहला भी ऐसा मानने वाला न था। उसने कहा कि उतार
पतलून। सो उसके मित्र ने पतलून उतारी। पतलून उतारते ही वह दूसरा चिल्लाया कि देख
मैं क्या कहता था और तू कहता है कि नहीं-नहीं। तूने पाखाना किया है! यह क्या रहा?
दूसरे
ने कहा, मैंने समझा भाई तुम पूछ रहे हो, आज की। आज नहीं
किया।
ऐसी
इस देश की दशा है। यहां आज तो कुछ है ही नहीं--कुछ भी नहीं! सब कल हो चुका। बस
उसको ढोते रहे मुर्दा लाशों को। सड़ गई हैं, बास उठ रही है। मगर बड़ी प्यारी
हैं। अपनों की है। और सदियों से पूजी गई हैं। सम्मान-सत्कार होता रहा है। सो सजाए
रहो, संवारे रहो। बाप-दादे भी यही करते रहे, तुम भी यही करते रहो।
हम
कुछ भी बदलना नहीं चाहते। महावीर ने कहा था अपने मुनियों को कि नंगे पैर चलना।
कहने का कारण था,
क्योंकि उस समय जूते बनते थे वे सिर्फ चमड़े के बनते थे। और चमड़ा तो
हिंसा होगी, पशु मारे जाएंगे। तो ठीक था अपने जूतों के लिए
पशुओं को क्या मारना! फिर दूसरे कोई कोलतार के और सीमेंट के रास्ते तो थे नहीं।
खुली मिट्टी थी, मिट्टी के ही रास्ते थे। मिट्टी पर चलने में
कोई अस्वास्थ्य नहीं है। मिट्टी पर चलने में तो स्वास्थ्य है। हम भी तो मिट्टी के
बने हैं। मिट्टी मिट्टी से मिलती है तो जीवन पाती है। तो अगर तुम कभी नंगे पैर
थोड़ी देर मिट्टी पर रोज चलो तो लाभपूर्ण है, स्वास्थ्यप्रद
है। हर्जा नहीं है जरा भी।
मगर
अभी जैन मुनि अभी भी चले जा रहे हैं--कोलतार की सड़क पर, सीमेंट
रोड पर! सोचता ही नहीं कि महावीर को क्या बेचारों को पता कि सड़कें ऐसी भी होंगी।
कोलतार की जलती हुई सड़क, गर्मी के दिन, पैर में फफोले पड़े जा रहे हैं, मगर वह चला जा रहा
है। और अब तो जूते कपड़े के भी बनते हैं, कैनवास के भी बनते हैं,
रबर के भी बनते हैं, अब कोई चमड़े पर ही रुके
हैं हम? अब तो जूते में कोई हिंसा नहीं है। अगर महावीर वापस
लौट आएं तो मैं तुमसे पक्का कहता हूं, और कुछ पहनें कि न
पहनें, जूते जरूर पहनेंगे।
एक
दिन एक आदमी ने और उसकी पत्नी ने मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर दस्तक दी। दरवाजा
खोला नसरुद्दीन ने,
झांक कर देखा। पति-पत्नी खड़े हैं। पति-पत्नी भी बहुत हिचकिचाए,
क्योंकि मुल्ला बिलकुल नंगा था। जूते पहने था और टोप लगाए था! टाई
भी बांध रखी थी! अब एकदम से जा भी नहीं सकते थे। अब आ ही गए। और मुल्ला भी नहीं कह
सकता कि जाओ। पुराने परिचित थे, कहा, आइए-आइए,
विराजिए! बड़े सौभाग्य हैं!
पति
आगे घुसा, पत्नी छिपी-छिपी पीछे। पति तो इधर-उधर देखने लगा, अब
क्या कहे क्या न कहे! कुछ सोच कर भी आया था, जिस काम से,
वह भी एकदम भूल गया। यह नंग-धड़ंग आदमी...और बिलकुल नंगा होता तो भी
ठीक था, यह टोपी लगाए है, जूते भी पहने
है और टाई भी बांधे है! और बाकी सब चीजें नदारद! असली चीजें नदारद! मगर पत्नी से न
रहा गया। पत्नी ने कहा कि मुल्ला जी, क्या मैं पूछ सकती हूं
कि आप नंगे क्यों बैठे हैं?
मुल्ला
ने कहा कि भाई,
इस समय मुझे मिलने कोई आता ही नहीं। यह मेरे फुरसत का समय है,
विश्राम का समय है। सो घर में कोई है ही नहीं तो अकेला अपने मस्त
नग्न बैठता हूं। आराम करता हूं। अब दिन भर कसे-कसे, बेल्ट
बांधे हुए हैं, पैंट बांधे हुए हैं, जैकिट
पहने हुए हैं, कोट चढ़ाए हुए हैं...जान निकल जाती है। तो जरा
आराम कर रहा था। तो उसने कहा, यह भी समझ में आ गया। तो फिर
ये जूते और यह टाई और यह हैट, ये क्यों पहने हुए हो?
तो
मुल्ला ने कहा कि ये इसलिए कि शायद भूले-भटके कोई आ ही जाए। अब तुम ही आ गए। ऐसा
कभी-कभी कोई भूले-भटके आ जाए।
मैं
तुम से पक्का कहता हूं,
महावीर अगर दोबारा हों तो जूते जरूर पहनेंगे। टाई और हैट की तो मैं
नहीं कह सकता। वैसे अच्छा रहेगा चटाई का हैट, धूप-धाप में
बचाव भी करेगा और चटाई में कोई हिंसा भी नहीं है। जापानी ढंग का चटाई का हैट सुंदर
रहेगा।
लेकिन
जैन मुनि लकीर का फकीर है। वह कैसे पहन सकता है! पैर में फफोले पड़ जाते हैं जैन
साध्वियों के,
साधुओं के। कपड़े बांध लेते हैं उन पर। मेरे पास एक दहा जैन
साध्वियां मिलने आईं, उनके पैर में फफोले, घाव, उन पर वह कपड़े बांधे हुए थीं। कपड़े भी उन्होंने
इस तरह से बांधे हुए कि करीब-करीब जूते का काम दे रहे। मैंने कहा, यह मतलब क्या है? फिर जूते में क्या हर्जा है?
इतनी चिंदियां बांधी हैं कि वे करीब-करीब जूते का काम ले रही हैं उन
चिंदियों से। इतनी गंदी चिंदियां ढोने के बजाय कपड़े के जूते में क्या हर्ज है?
उन्होंने
कहा, आप कहते हैं तो हम भी समझते हैं, मगर शास्त्र में
नहीं लिखा है। तो मैंने कहा, शास्त्र में लिखे लो, शास्त्र क्या रोक सकता है? मेरे पास ले आओ, मैं लिख देता हूं। शास्त्र की क्या हैसियत है जो रोके किसी को? अरे शास्त्र अपना है कि हम शास्त्र के हैं?
समय
बदलेगा तो सभी मूल्य बदलेंगे। और वही जाति जीवित होती है जो समय के साथ बदल जाती
है। वही व्यक्ति जीवित होते हैं जो समय के साथ बदल जाते हैं।
यह
देश मुर्दा है,
कब्रिस्तान है। एक मरघट है--बड़ा मरघट, जिस पर
महात्मा धूनी रमाए बैठे हैं। बस धूनी रमाने का काम और कुछ काम बचा नहीं है। सब काम
पहले हो चुका। अब तो निष्काम भाव से मरघट पर बैठो, धूनी रमाओ,
राम-राम जपो। कुछ बचा नहीं जैसे हमारे हाथ में करने को। सारी पृथ्वी
कितने महत कार्यों में संलग्न है! शायद इतने महत कार्य कभी नहीं हुए थे जितने महत
कार्य आज हो रहे हैं; क्योंकि इतना विज्ञान न था, इतनी टेक्नॉलॉजी न थी, इतने हमारे हाथ में साधन न थे,
इतनी समझ न थी। आज सब साधन हैं, सब समझ है। आज
हम इस पृथ्वी को स्वर्ग बना सकते हैं। मगर ये पुराने मूल्य और पुरानी धारणाएं हमें
नरक से बांधे हुए हैं।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आप कहते हैं न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी
जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
स्वदेश,
है
भाई, स्थान का महत्व क्यों नहीं!
चंदूलाल
मुझसे कह रहे थे कि चौपट हो गया, जब से विवाह किया तब से चौपट हो गया। मैंने
उनसे पूछा कि पत्नी से मिले कहां थे। उन्होंने कहा, चौपाटी
पर! मैंने कहा, होगा ही चौपट।
स्थान...अरे
सोच-समझ कर मिला करें। पत्नी से पहली दफे मिले, एक तो वैसे ही खतरा...और वह भी
मिले चौपाटी पर! मगर मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी पत्नी कुछ और ही कहती है। वह तो
कहती फिरती है, जब से मेरा विवाह हुआ है तो चंदूलाल लखपति हो
गए। और तुम कहते चौपट हो गया।
चंदूलाल
ने सिर से हाथ मार लिया,
कहा, वह भी ठीक कहती है। मैंने कहा कि यह तो
बड़ी पहेली हो गई! तुम कहते हो चौपट हो गए हो, और पत्नी कहती
कि लखपति हो गए हो। वह कहने लगे, हां, ठीक
कहती है। पहले मैं करोड़पति था।
अब
तुम पूछते हो स्वदेश,
कि स्थान का कोई मूल्य होता है कि नहीं? कहां
की पागलपन की बातें पूछते हो! सारी पृथ्वी एक है। इसमें क्या काबा और क्या काशी?
जहां झुके परमात्मा के प्रेम में, वहां काबा
वहां काशी। और ऐसे तुम काबा में ही बैठे रहो और न झुको, तो
क्या खाक काबा कर लेगा और क्या खाक काशी कर लेगी? काशी में
कितने तो बैठे हैं मुर्दे, तुम सोचते हो कुछ लाभ हो जाता है?
कबीर
मरते वक्त बोले मैं काशी में नहीं मरूंगा, मुझे काशी से ले चलो। लोगों ने कहा,
पागल हो गए आप! लोग मरने के लिए काशी आते हैं, आखिरी करवट लेने काशी आते हैं। क्योंकि सदा से समझा जाता है कि काशी में
जिसने आखिरी करवट ली वह स्वर्ग गया। और तुम्हारा दिमाग फिर गया! जिंदगी भर काशी
रहे अब मरते वक्त कहते हो काशी नहीं रहेंगे।
कबीर
ने कहा, काशी में मरे और स्वर्ग गए, तो वह काशी का अहसान
होगा। अपना क्या गुण? नहीं, काशी में न
मरेंगे। स्वर्ग जाएंगे तो अपने बल से जाएंगे, काशी के बल से
न जाएंगे।
हट
गए काशी से, नहीं मरे काशी में। इसको कहते हैं हिम्मत के लोग। कबीर सिर्फ इतना ही कह
रहे हैं कि स्थानों का कोई मूल्य होता है! कोई काशी में मरने का सवाल है! सारी
पृथ्वी उसकी है। सारा आकाश उसका है। मरते किस ढंग से हो, इस
पर निर्भर करता है। कहां मरते हो, इससे क्या होने वाला है?
किस आनंद से मृत्यु को अंगीकार करते हो--नाचते, गाते--तो मृत्यु भी फिर परमात्मा का द्वार बन जाती है।
तुम्हें
फिक्र पड़ी है स्थान की! अजीब-अजीब बातें हमारे दिमाग में भरी हुई हैं। किसी को
स्थान की फिक्र है,
किसी को समय की फिक्र है। किसी को दिन की फिक्र है कि कोई दिन शुभ
होता है, कोई अशुभ होता है; कोई स्थान
शुभ, कोई स्थान अशुभ। अपने पर न फिक्र करना, और सब चीजों पर टालना--स्थान, तिथि, दिन। एक बात भर छोड़ रखना: खुद के भीतर मत खोजना।
मैंने
सुना, चार सहेलियां थीं। साथ ही पढ़ीं, साथ ही बड़ी हुईं।
पहली सहेली का विवाह हुआ बजरंगबली पुर में। बच्चा हुआ। विवाह हो और साल भर के भीतर
बच्चा न हो तो लोग अंगुलियां उठाने लगते हैं कि मामला क्या है! सो साल भर के भीतर
बच्चा होना ही चाहिए। पति पहली बार बच्चा हो रहा था तो छाती फुलाए बाहर बैठे थे।
नर्सें आ रहीं जा रहीं। बार-बार उठ कर खड़े हो जाते, कोई भी
नर्स निकलती कि हुआ कि नहीं! एक नर्स ने कहा, हां, हो गया है, ज्यादा न घबड़ाओ, शांत
बैठे रहो। तो पूछने लगे कि लड़की कि लड़का? उसने कहा कि अभी
कुछ पक्का पता नहीं चला। तब और घबड़ाहट हुई कि पक्का पता नहीं चला। छोटी सी बात है,
यह तो पहले ही पता चल जाता है। अरे लड़की कि लड़का...कोई कपड़ा पहन कर
ही थोड़े ही पैदा होते हैं! इसमें पता क्या चलाना है? क्या
कोई खुर्दबीन लगा कर पता लगाओगे?
दूसरी
नर्स भी आई। वह भी घबड़ाई हुई, पसीना-पसीना। पूछा रोक कर कि बच्चा हुआ कि
बच्ची? उसने कहा, भाई बकवास न करो अभी,
अभी कुछ पता नहीं चला। हो गया है।
अब
तो उसकी घबड़ाहट बहुत बढ़ गई। उसको भी पसीना बहने लगा। उसने कहा, यह मामला
क्या है! तब डाक्टर निकला, वह भी बहुत घबड़ाया हुआ। उसने तो
डाक्टर का हाथ पकड़ लिया--बाप ने। उसने कहा, बताना ही पड़ेगा।
उसने कहा, हम भी क्या बताएं! जब से हुआ है, एकदम से छलांग लगा कर शैंडेलियर पर चढ़ गया है। उतरे तो हम देखें कि लड़का
है कि लड़की। वह शैंडेलियर से उतर नहीं रहा है। उसी को उतारने की कोशिश में तो लगे
हैं, पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। और तुम्हें पड़ी है यह कि
लड़का है कि लड़की। अरे क्या खाक करोगे जान कर कि लड़का है कि लड़की, इतना ही जान लो कि शैंडेलियर पर पढ़ गया है।
सो
बाकी सहेलियां बहुत घबड़ा गईं तीनों, कि स्थान का महत्व होता है।
बजरंगबलीपुर! ये बजरंगबली के अवतार पैदा हो गए। दूसरी सहेली ने बहुत सोच-विचार कर
विवाह किया। गांव का पक्का पता लगा लिया और फिक्र ही नहीं की उसने। इसकी फिक्र ही
नहीं की पति देव कैसे हैं, क्या हैं? सारा
ध्यान इसका रखा कि गांव--अद्वैतपुरम! शादी हुई कि पति देव मर गए। अकेली रह
गई--अद्वैतपुरम! बाकी दो सहेलियां तो और घबड़ा गईं। उन्होंने कहा, अब तो बहुत ही सोच-समझ कर कदम रखना जरूरी है, यह तो
बड़ा खतरनाक मामला है। तो वह गांव की खोज-बीन करें, वह भूगोल
पढ़े। खोज-बीन करके द्वैतपुरम खोजा। और भारत में तो क्या नहीं है! तीसरी सहेली ने
द्वैतपुरम में शादी की। सो दो बच्चे एक साथ पैदा हुए। चौथी ने तो सिर पीट लिया। और
तभी उसका एक युवक से प्रेम हो गया। गांव में ही हो गया, उसने
कहा यह अच्छा हो गया। अब कोई झंझट न रही भूगोल में खोजने करने की। प्रेम आगे बढ़ा,
बात में से बात चली, विवाह तक पहुंच गई। जब
बिलकुल सब पक्की बात हो रही थी, तब उसे खयाल आया कि यह तो
पूछ ले कि तुम रहने वाले कहां के हो? उसने पूछा कि आप रहने
वाले कहां के हैं? तो उसने कहा, सहस्रपुर!
उसने कहा, क्षमा करो! खतम करो बात! जब द्वैतपुरम में दो
बच्चे पैदा हुए तो सहस्रपुर में क्या हालत हो जाएगी!
स्वदेश, क्या
फिजूल की बातें में पड़ते हो! स्थानों का कोई मूल्य नहीं है--न काबा का न काशी का,
न गिरनार का न कैलाश का। मूल्य है तुम्हारे जागरण का। जहां जाग जाओ
वहीं तीर्थ है। जहां सो गए वहीं नरक है।
चौथा प्रश्न: भगवान,
कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा, उससे मेरे
मन में भी चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका
क्या कहना है?
कृष्णराज,
हंसनाऱ्हंसाना
अच्छी बात है। सेहत के लिए अच्छी है। तंदुरुस्ती के लिए अच्छी है। हंसनाऱ्हंसाना
शुद्ध व्यायाम है। प्राणायाम है। हंसोऱ्हंसाओ, कुछ हर्ज नहीं है। लेकिन इतना
स्मरण रखो कि हंसने की भी दो विधाएं हैं। एक तो आदमी इसलिए हंसता है कि अपने रोने
को छिपा ले। वह गलत विधा है। वह गलत आयाम है। और या आदमी इसलिए हंसता है कि उसके
भीतर हंसी के फव्वारे फूट रहे हैं। उसके भीतर आनंद जगा है। वह आनंद को बांट रहा
है। तब हंसी में अध्यात्म है। तब हंसी में मुक्ति है। तब हंसी मोक्षदायी है।
दुख
को भुलाने के लिए लोग हंस लेते हैं। तो हंसना फिर एक नींद की दवा है। दुख को कम कर
लेने का एक उपाय है। थोड़े हंस लिए, अपने को भुलावा दे लिया, अपने को छलावा दे लिया। इसलिए हास्य-कवियों की बाढ़ आ गई है। क्योंकि लोग
इतने दुखी हैं, लोग चाहते हैं कि किसी भी बहाने, किसी भी निमित्त हंस लें। चलो थोड़ी देर को तो भूल जाएंगे--जीवन की
समस्याएं, जीवन की उलझनें, जीवन का
विषाद, जीवन का संताप थोड़ी देर तक तो कम से कम स्मरण न
रहेगा।
फ्रेड्रिक
नीत्शे ने कहा है कि मैं हंसता हूं इसलिए ताकि रोने न लगूं। तुम्हारी हास्य की
कविताएं तुम्हारे आंसुओं को छिपाने का ढंग तो नहीं कृष्णराज! अगर ऐसा हो तो मैं
कहूंगा, रोना बेहतर, क्योंकि आंसू प्रामाणिक होंगे, सच्चे होंगे और हलका करेंगे और आंखों की धूल बहा ले जाएंगे। झूठी हंसी
सच्चे रोने से ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकती। झूठ कभी भी मूल्यवान नहीं होता।
सच्चा रोना भी मूल्यवान है; झूठा हंसना भी आखिर झूठ ही है।
मुखौटा
मत लगाओ। हां,
अगर तुम्हारे भीतर रस बहा हो, गीत उठे हों,
तुम्हारे भीतर जीवन का उत्सव प्रकट हुआ हो, तुम्हें
जीवन का रास अनुभव हो रहा हो--फिर हंसो, फिर बांसुरी बजाओ।
फिर तुम जो करोगे वही काव्य होगा। तुम्हारे जीवन के ढंग में, तुम्हारे उठने-बैठने में फूल झरेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन भी हास्य की कविताएं लिखते हैं। कल ही नौकरी के लिए एक दफ्तर में हाजिर
हुए थे। लौट कर मुझे कहने लगे--
कल
जब था मेरा इंटरव्यू
प्रश्न
हुआ--
भूगोल
पढ़ा है?
मैंने
कहा, जी खूब पढ़ा है
अच्छा
तो बतलाओ भाई
वर्षा
जहां अधिक होती
वहां
अधिक क्या पाया जाता?
उत्तर
था--
बरसाती
छाता।
प्रश्न
दूसरा--
तुमने
तो साहित्य पढ़ा है?
जी
हां बिलकुल
बतलाओ
वाद कौन-कौन से प्रिय हैं तुमको
और
कि रस कितने होते हैं?
उत्तर
था--
लिखा
हुआ था
सर, वाद सिर्फ
दो प्रिय हैं मुझको
उखाड़वाद
और पछाड़वाद
और
जहां तक प्रश्न रसों का
पूछ
रहे साहित्य-क्षेत्र में
वह
तो केवल एक बचा है
गन्ने
का रस
शेष
सभी दुनिया यह मुझको
श्रीमन!
नीरस ही लगती है।
प्रश्न
तीसरा--
कुछ
जनरल नालेज भी है?
जी
हां, जी हां
तो
बोलो इस वर्ष पद्मश्री किसे मिली है?
उत्तर
था--
सर, केवल
मुझको
तुमको?
जी
हां,
इसी
वर्ष श्रीमान!
विवाह
हुआ है मेरा
पत्नी
जी जो मुझे मिली हैं
नाम
उन्हीं का पद्मश्री है।
अफसर
गुस्से से झल्लाए
और
प्रश्न अंतिम कर डाला--
क्वालिफिकेशन?
उत्तर
में तब कार्ड दे दिया
लार्ड
गिरगिटानंद
एम.ए.बी.एफ., आई.सी.एस.
अफसर
बोले--
यह
डिगरी कुछ समझ न आती
बोलो
इसका मतलब क्या है?
बड़ी
नम्रता से उत्तर था--
सर, पहले हम
लैंडलार्ड थे
पर
कानून बना है जब से सत्यानाशी
लैंडलार्ड
की लैंड हो गई सरकारी
तब
से बस लार्ड ही रह गए
एम.ए.बी.एफ.
का मतलब है--
मैट्रिक
ऐपियर्ड बट फेल्ड
आई.सी.एस.
का अर्थ यही है--
आइसक्रीम
सेलर सर।
अफसर
गरजे--बड़े गधे हो!
मैंने
कहा--नहीं-नहीं,
श्रीमान!
आप
तो माई-बाप हैं
मैं
छोटा हूं, बड़े आप हैं।
कृष्णराज, करो जी
खोल कर। हास्य-रस की कविताएं करनी हैं, हास्य-रस की कविताएं
करो। हंसोऱ्हंसाओ। इतना ही खयाल रखना कि लोग इस तरह के कवियों से बहुत ऊब गए हैं,
बहुत घबड़ा गए हैं। जिस गांव में कवि-सम्मेलन होता है, उस गांव में सभी सड़े केले, सड़े अंडे एकदम बिक जाते
हैं। टमाटर! चले लोग सब। अब तो हास्य-रस के कवि भी होशियार हो गए हैं। वे पहले से
ही जाकर सब खरीद लेते हैं--सड़े अंडे, सड़े केले, सड़े टमाटर, एकदम खरीद लेते हैं पूरे गांव में से,
नहीं तो जनता फेंकती है ये चीजें। और एक हास्य-रस का कवि पकड़ ले
माइक तो छोड़ता ही नहीं। जनता हूट करे, पैर पटके, शोरगुल मचाए, कोई फिक्र नहीं। लोग जमे ही रहते हैं!
लोग सुना कर ही रहेंगे, कोई सुनने वाला हो या न हो। लोग
सुनने वालों की तलाश में घूमते हैं, कहीं भी कोई मिल जाए।
ऐसे
हास्य-कवि न होना। लोग वैसे ही परेशान हैं, उन्हें और परेशान न करना।
एक
गांव में कवि-सम्मेलन हुआ,
सारे लोग उठ कर चले गए। मगर पहला ही कवि जो जमा था सो जमा ही रहा।
तीन आदमी और बैठे थे। उस कवि ने जब अपनी कविताएं समाप्त कीं, उन तीन से पूछा कि आप लोग बड़े काव्य-मर्मज्ञ मालूम होते हैं। उन्होंने कहा,
खाक काव्य-मर्मज्ञ! हम को भी कविताएं सुनानी हैं। अब तुम बैठो! अभी
तक तुमने हमें मारा, अब हम तुम्हें मारते हैं। छठी का दूध
याद दिला देंगे। यह रात है और हम हैं और तुम हो! हमसे ज्यादा काव्य-मर्मज्ञ तो वह
आदमी है जो वहां दरवाजे पर बैठा हुआ है।
एक
आदमी दरवाजे पर बैठा हुआ था और बड़ा सिर हिला रहा था। उसने कहा कि नहीं, क्षमा
करिए। मैं तो नींद में सिर झपका रहा हूं। और काव्य से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।
मैं तो यहां बैठा हूं कब कवि-सम्मेलन खतम हो तो मैं दरवाजा बंद करूं और घर जाऊं।
मैं यहां का नौकर हूं, यह हाल का दरवाजा बंद करना है। और अगर
आप लोग रात भर यहीं टिकने को हों तो मैं यह चाबी आपके पास छोड़े जाता हूं। सुबह
दरवाजा बंद करके चाबी मेरे घर देते हुए निकल जाना।
आनंद
जगे तुम्हारे भीतर तो ठीक है। नहीं तो क्या?
मैंने
सुना है, एक हास्य-कवि मर गया। उसके एक मित्र चंदा मांगने गए। जो उन्हें अनुभव हुआ,
उन्होंने कविता में लिखा है। लिखा--
एक
हास्य-कवि मर गया
मैं
उसके लिए चंदा करने गया
लोग
बोले--अजीब मसखरा था
जब
कफन के लिए पैसे नहीं थे
तो
क्यूं मरा था?
मैंने
कहा--क्यूं मजाक करते हो?
वे
बोले--और उसने हमारे साथ क्या-क्या किया था!
वह
भी तो हमें बेवकूफ बनाता था
डेढ़
घंटे कविता सुनाता था
उसका
गद्य तो अच्छा था
पर
कविता के मामले में वह बच्चा था
अब
आप भी तो हास्य-रस के हैं
आप
कल मरने का वादा करें
आज
चंदा हाजिर है
बाद
में भी मरें तो बंदा हाजिर है।
मैंने
कहा--भूल गए वे दिन
जब
आप चमचमाती कारों में आते थे
रंग-बिरंगे
कपड़े पहन कर कुर्सियों पर सज जाते थे
और
वह फटेहाल आदमी
अपनी
ऊलजलूल हरकतों से आपको हंसाता था
आपको
मनोरंजन देने के लिए
खुद
हास्यास्पद बन जाता था
आज
जब वह चला गया है
तो
आप आंखें चुरा रहे हैं
पांच
रुपये तक देने में कतरा रहे हैं?
एक
लाला बोले--क्या बताएं
जब
देखो कोई न कोई कलाकार मरता ही रहता है
आप
यहां के सारे कवियों की लिस्ट लाइए
और
नाम सहित उनकी संख्या बताइए
मैंने
कहा, दस।
वे
बोले, दस!
यह
सौ का नोट ले जाइए
और
एक साथ सबको निपटाइए
और
आइंदा मत आइए।
लोग
थक गए हैं। कृष्णराज,
ऐसी कविता मत करना।
मेरी
दृष्टि में: एक तो काव्य होता है जो तुम्हारे भीतर ऐसे उठता है जैसे फूलों से गंध
उठती है। और एक काव्य होता है, तुम खींचतान कर जबरदस्ती बिठा-बिठू कर तैयार कर
लेते हो। क्योंकि लोगों से कुछ और न बने तो इतना तो बन ही जाता है। तुकबंदी बिठा
लेने में तो कोई अड़चन नहीं है। और कुछ ऊलजलूल बातें कह कर लोगों को थोड़ी देर हंसा
भी लिया तो उसका भी कोई प्रयोजन नहीं है।
ध्यान
रहे, मनुष्य जितना दुखी होता जाता है उतना ही मनोरंजन के ज्यादा साधनों की उसे
जरूरत होती है। कारण सिर्फ इतना है कि दुखी आदमी अपने भुलाने के लिए कुछ उपाय
खोजता है। हमें चाहिए कि लोग सुखी हों और सुख में अगर उत्सव मनाएं, गीत गाएं, नाचें, काव्य का रस
लें, संगीत का रस लें, तो और बात है।
लेकिन लोग दुखी हों और सिर्फ मलहम-पट्टी की तरह मनोरंजन का उपयोग करें, तो घातक है। उचित नहीं है। अफीम का नशा है। लोगों को अफीम का नशा मत दो।
लोगों को जागरण दो, सुलाओ मत।
और
हमारी साधारणतः सारी कविताएं सिवाय लोरियों के और कुछ भी नहीं हैं। जैसे छोटे-छोटे
बच्चों को हम लोरियां सुना देते हैं और सुला देते हैं, ऐसे
बड़े-बड़े बच्चों को कविताएं सुनाई जा रही हैं, कहानियां सुनाई
जा रही हैं, पुराण सुनाए जा रहे हैं, शास्त्र
सुनाए जा रहे हैं। सब लोरियां हैं कि किसी तरह सोए रहो।
और
तुम भी लोरियों की तलाश में हो। तुम भी सांत्वना चाहते हो, सत्य नहीं
चाहते। मुश्किल से कभी कोई आदमी मिलता है जो सत्य का खोजी है। लोग सांत्वना खोज
रहे हैं। लोग चाहते हैं किसी तरह राहत मिल जाए। किसी भी तरह हो, जीवन में थोड़ी देर के लिए समस्याओं से छुटकारा मिल जाए। मगर समस्याएं अपनी
जगह खड़ी रहेंगी। ऐसे समस्याएं छूट नहीं सकतीं। समस्याएं तो मिटती हैं समाधि से।
उन्हें मिटाने का और न कभी कोई उपाय था, न आज है, न कभी आगे होगा।
तुम
मन से छूटो तो तुम दुख से छूटो। तुम मन से छूटो तो तुम समस्याओं से छूटो।
और
मैं मन से छूटने की कला ही सिखा रहा हूं। संन्यास का मेरा अर्थ इतना ही है केवल:
मन से छूटो। अ-मनी अवस्था को अनुभव करो। साक्षी बनो इस मन के--जहां दुख हैं, जहां सुख
हैं; जहां हंसी भी है और आंसू भी हैं; जहां
सब तरह के द्वंद्व हैं। इन दोनों के साक्षी बनो। हंसी आए तो उसे भी जाग कर देखना।
रोना आए तो उसे भी जाग कर देखना! और इतना स्मरण रखना निरंतर कि मैं तो वह हूं जो
जागा हुआ देख रहा है--न आंसू हूं न मुस्कुराहट हूं, दोनों का
साक्षी हूं। इस साक्षी-भाव में तुम ठहर जाओ, थिर हो जाओ,
इस साक्षी-भाव में तुम रम जाओ, तो तुम्हारे
जीवन में महा रस है! तो तुम्हारे जीवन में फिर दीवाली ही दीवाली है, फाग ही फाग है! फिर तुम्हारा जीवन सावन का महीना है। फिर डालो झूले,
फिर गाओ गीत। फिर तुम्हारे गीतों का रंग और, ढंग
और, प्रसाद और, सौंदर्य और! मगर उसके
पहले क्या गीत गाओगे? गीत गाने वाली भूमिका कहां है? नाचने वाले पैर कहां हैं, हृदय कहां है, आत्मा कहां है? ऐसे ऊपर से लीपा-पोती करते रहोगे
कृष्णराज, उससे कुछ लाभ होने का नहीं है।
अंतिम प्रश्न: भगवान,
मेरी विनम्र लघु आशा है,
बनूं चरण की दासी।
स्वीकृत करो कि न करो,
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।
वीणा भारती,
संन्यास
देता हूं, उसका अर्थ यही है कि मैंने स्वीकार किया, अंगीकार
किया! कि मैंने तुम्हें अपने हृदय में लिया! कि मैंने तुम्हारा हाथ अपने हाथ में
पकड़ा!
इस
जगत में सारे संबंध ऊपर-ऊपर हैं; सिर्फ एक गुरु और शिष्य का संबंध है, जो ऊपर-ऊपर नहीं है। इस जगत के सारे संबंध शरीर के हैं; सिर्फ गुरु और शिष्य का संबंध है, जो आत्मा का है,
जो देह का नहीं है।
तेरी
आशा तो पूरी हो चुकी है। स्वीकृत तो तू हो चुकी है।
और
क्या बूंद की प्यास! सागर ही पूरा दूंगा, उससे कम क्यों? तू बूंद मांगे तो भी सागर दूंगा। और सागर से ही यह प्यास मिटने वाली है;
बूंद से मिटेगी भी नहीं। बूंद से तो और जगेगी। बूंद से तो और कंठ को
स्वाद लगेगा। प्राणों में और भी अभीप्सा सघन होगी। निश्चित ही पहले बूंदाबांदी
होती है, फिर घनघोर वर्षा होती है। बूंदाबांदी होना तुझ पर
शुरू हो गई, घनघोर वर्षा भी होगी।
तेरी
आंखों में झांकता हूं तो देखता हूं कि चल पड़ी तू। बहुत चल पड़े हैं। चल पड़ा जो, वह आधा
पहुंच ही गया। असली कठिनाई चल पड़ने की है! सबसे बड़ी कठिनाई पहला कदम उठाने की है।
फिर तो सब सुगम हो जाता है, क्योंकि हजारों मील की यात्रा भी
एक-एक कदम उठा कर ही तो पूरी होती है। जिसने एक कदम उठा लिया, अब उसके लिए कोई कदम कठिन न रहा। एक ही कदम तो उठाना है बार-बार। अब
हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाएगी।
और
तूने पहला कदम उठा लिया। जिसने संन्यास लिया उसने पहला कदम उठा लिया।
संन्यास
तो प्रेम-सगाई है परमात्मा से--उस परम सत्य से! यह तो अनंत की खोज है। और संन्यास
वसंत का आगमन है। शुरू-शुरू में वसंत आता है तो एकाध फूल खिलता है; मगर एक
फूल भी खिलता है तो वसंत के आगमन की खबर आ जाती है--आ गया वसंत! अब फूलों पर फूल
खिलेंगे। इतने फूल खिलेंगे कि गिनती भी न कर सकोगी। गिनने का कोई उपाय भी नहीं है।
सब गिनती पीछे छूट जाती है। सब गणना पीछे छूट जाती है। सब तौलत्तराजू पीछे छूट
जाते हैं। सब माप-मापदंड पीछे छूट जाते हैं। सब नाप पीछे छूट जाते हैं। क्योंकि यह
तो अमाप की और असीम की यात्रा है।
वीणा, यात्रा
शुरू हो गई है। धन्यवाद दो परमात्मा को! अनुग्रह मानो कि पहला कदम उठा सकी हो।
पहला कदम ही...लोग बहुत झिझकते हैं, हजार बहाने खोजते हैं।
अहंकार हर तरह की बाधाएं डालता है कि मत उठाओ पहला कदम। किस-किस तरह से समझाता है,
जिसका हिसाब नहीं। अहंकार बड़े तर्क खोज लाता है। सब तर्क बुद्धूपन
के होते हैं, क्योंकि अहंकार मूढ़ता है। इसलिए उसके तर्कों
में कोई बल नहीं होता। मगर दिखलाता होशियारी है। और जब तक हम अहंकार को ही जानते
हैं, तब तक हम सोचते हैं यही होशियारी है।
एक
सिपाही ने एक चोर को रंगे हाथों पकड़ लिया। किसी के घर में घुसा था, सिपाही भी
पीछे हो लिया। भीतर जाकर उसको पकड़ लिया। बाहर ले आया। आकर नोटबुक में नाम वगैरह
लिखने लगा और कहा कि चलो मेरे साथ। उसने कहा कि अभी चलता हूं, जरा भीतर जाकर फोन करके घर अपने खबर कर दूं और अपने वकील को खबर कर दूं।
यह बात पुलिसवाले को जंची। उसने कहा कि ठीक है। वह भीतर गया सो पीछे की खिड़की से
कूद कर भाग गया। घंटे भर तक सिपाही रास्ता देखता रहा, फिर
अंदर गया। वहां तो कोई था ही नहीं। खिड़की खुली पड़ी थी। समझ गया कि धोखा हो गया,
बेईमानी कर गया।
छह
महीने बाद संयोग की बात वही आदमी, वही चोर एक जवाहरात की दुकान में घुसा और उसी
सिपाही ने उसको जवाहरातों सहित पकड़ लिया। उसने कहा कि बच्चू, अब न भाग सकोगे। उसने फिर कहा कि मगर अपने वकील को तो खबर कर दूं फोन
करके। उसने कहा कि अब तुम किसी और को धोखा देना। पकड़ो ये जवाहरात, खड़े रहो तुम यहां, मैं जाकर तुम्हारे वकील को फोन कर
आता हूं।
थे
तो वही के वही बुद्धू! जब तक लौट कर आए, वह जवाहरात लेकर नदारद हो गया।
अहंकार
निपट मूढ़ता है,
क्योंकि झूठ है अहंकार। हम अलग नहीं हैं परमात्मा से, हम उसके हिस्से हैं। और अहंकार हमें यह भ्रांति देता है कि हम अलग हैं। और
यही अहंकार हमें मिलने में बाधा डालता है--हर जगह बाधा डालता है! यह कहेगा,
कपड़े बदलने से क्या होगा? जैसे कि तुम आत्मा
बदलने को तैयार हो! कपड़े बदलने तक की हिम्मत नहीं है।
जरीन
ने संन्यास लिया। कुलीन पारसी घर की महिला है। तो पारसियों में तहलका मच गया। लोग
उससे कहने लगे कि ये कपड़े बदलने से क्या होगा? लेकिन जरीन ने उनसे कहा, तो तुम भी कपड़े बदल कर देखो न! अगर कपड़े बदलने से कुछ नहीं होता तो डरते
क्यों हो? और कपड़े बदलने की हिम्मत भी तुम में नहीं है,
तो और क्या खाक बदलोगे?
कपड़े
बदलने से क्या होगा वे लोग कह रहे हैं जो कपड़े भी नहीं बदल सकते और बात इस तरह की
कर रहे हैं, जैसे आत्मा बदलेंगे! आदमी बड़ा बेईमान है। आदमी अपने को ही धोखा देता जाता
है।
ध्यान
करने से क्या होगा?
लोग पूछते हैं। किया नहीं कभी। प्रश्न उठाते हो! ये बातें स्वाद की
हैं, अनुभव की हैं। करोगे तो ही जानोगे।
संन्यास
से क्या होगा?
ऊपर-ऊपर से तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। यह बात ऊपर की है ही नहीं;
यह तो भीतर-भीतर की बात है। यह तो अंतरतम की बात है। यह तो तुम
डूबोगे, डुबकी मारोगे, तो जानोगे। यह
तो शराब जैसी चीज है, पीओगे, मदमस्त
होओगे, तब जानोगे। यह तो मयखाना है, मधुशाला
है, मयकदा है।
वीणा, तूने
हिम्मत की, पियक्कड़ों में सम्मिलित हो गई। तुझे डोलते देखता
हूं तो प्रसन्न होता हूं। कल रात को ही कितने संन्यासी नाच रहे थे, डोल रहे थे; मगर जो गैर-संन्यासी थे वे डोल भी नहीं
सकते। वे पत्थर की तरह बैठे रहते हैं, हिलते भी नहीं,
कि कहीं हिले-करे और कुछ छींटाछांटी हो जाए, कुछ
बूंदाबांदी लग जाए, कोई नशा पकड़ जाए...हिलो ही मत! अपने को
संयम से रखो! तो मैं कल देख रहा था, थोड़े से गैर-संन्यासी आ
गए थे। मेरी उत्सुकता नहीं है कि गैर-संन्यासी बहुत आएं। इसलिए उन्हें कोई
निमंत्रण देते नहीं हम। लेकिन उत्सुकतावश आ जाते हैं, आ जाते
हैं तो ठीक है। मगर वे हिलते भी नहीं, भागीदार भी नहीं होते।
ताली भी नहीं बजा सकते। ताली बजानी तो दूर, मैं हाथ जोड़ कर
उनको नमस्कार करता हूं तो वे हाथ जोड़ कर नमस्कार का उत्तर भी नहीं दे सकते,
कि पता नहीं कुछ गड़बड़ हो जाए! कोई सम्मोहन हो जाए! पता नहीं हाथ
जोड़ने का क्या राज हो! जोड़े और फिर कहीं जुड़े न रह जाएं! फिर खोलना कहीं मुश्किल न
हो जाए! क्योंकि देखते हैं कई के जुड़े रह गए हैं। सो वे सम्हल कर बैठे रहते हैं।
एक
मित्र ने पूछा है कि आप हमें हाथ जोड़ कर नमस्कार न करें। हमें बहुत दुख होता है कि
आप हमें हाथ जोड़ कर नमस्कार करें। आप तो हमें आशीर्वाद दें!
कहां
की बातें कर रहे हो! नमस्कार तक का लोग उत्तर देते नहीं। नमस्कार तक स्वीकार नहीं
कर सकते, आशीर्वाद कैसे स्वीकार कर सकेंगे? आशीर्वाद के लिए
तो झोली फैलानी पड़ती है। हां, जिनकी झोली फैली है उनके लिए
मेरा नमस्कार भी आशीर्वाद है। मेरे नमस्कार में भी उन्हें आशीर्वाद ही मिल रहा है,
जिनकी झोली फैली है।
लेकिन
लोग इतने कृपण हैं,
ऐसे कंजूस हो गए हैं! और कभी-कभी तो बड़ा आश्चर्य होता है कि इस देश
में जहां हाथ जोड़ कर नमस्कार करना सहज औपचारिकता रही है, वहां
पचास दूसरे देशों के लोग जहां कि हाथ जोड़ कर नमस्कार करने की कोई परंपरा नहीं रही,
उनको देखते हैं कि हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहे हैं और भारतीय मित्र,
गैर-संन्यासी, जकड़े बैठे रहते हैं, हिलते नहीं। हिले-डुले, पता नहीं क्या हो जाए! ऐसे
बैठे रहते हैं कि किसी तरह बच कर अपने घर पहुंच जाएं। जान बची तो लाखों पाए,
लौट कर बुद्धू घर को आए!
वे
जो बुद्धू रात को लौट कर घर पहुंच गए हैं, खाली के खाली, वे बड़े निश्चिंत होंगे कि चलो, अपने घर आ गए,
उलझे नहीं, कोई झंझट में नहीं पड़े, सब देखा, मगर अपने को बचा कर आ गए। उनको पता नहीं
क्या गंवा कर आ गए! काश डोल सकते, काश नाच सकते, काश सम्मिलित हो सकते--तो थोड़ा स्वाद लगता!
वीणा, तुझे तो
स्वाद लगा, तू तो नाच उठी, तू तो
सम्मिलित हो गई है इस महा रास में! अब फिक्र मत कर, अब
जिम्मेवारी मेरी है। जो चल पड़ा मेरे साथ, उसकी जिम्मेवारी
मेरी है। चलो भर तुम, फिर शेष सारी जिम्मेवारी मेरी है।
आज इतना ही।
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