नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-तैहरवां
दिनांक 06 जून सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
शरीर--एक मंदिर
यही ध्यानी का भाव होगा। शत्रुता गिरेगी, मित्रता
घनी होगी, और हर तरफ से अनुग्रह प्रतीत होने लगेगा। उसका ही
प्रसाद सब रूपों में है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, शरीर
मंदिर है।
प्रश्न:
भगवान! आपका ही वचन है, किसी भी दिशा में प्रकृति
के प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं है।
फिर प्रकृति के सागर में हम बहें या तैरें, उसके साथ
मैत्री में जीएं या शत्रुता में,
प्रकृति का उल्लंघन कहां होता है!
लेकिन आप यह भी समझाते हैं कि प्रकृति के अनुकूल चलो, उसकी नदी
में तैरो मत, बहो।
भगवान, इस संदर्भ में, नहिं राम
बिन ठांव की कीमिया क्या होगी, कृपया हमें समझाएं।
प्रकृति
के प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि प्रकृति के प्रतिकूल कुछ
है ही नहीं। जो भी है प्रकृति है। प्रकृति से लड़ने का कोई मार्ग नहीं, क्योंकि लड़ेगा कौन? प्रकृति से अन्य कोई भी नहीं है।
लेकिन प्रकृति से लड़ रहा हूं, ऐसा भाव, ऐसा विचार, ऐसी दृष्टि बना ली, बनाई जा सकती है।
जब
तुम तैरते हो नदी में,
तब भी तुम प्रकृति के प्रतिकूल नहीं हो, क्योंकि
तैरना भी प्राकृतिक है। नदी से जब तुम लड़ते हो, तब भी नदी
तुमसे नहीं लड़ रही है। इसलिए प्रकृति से दुश्मनी का कोई उपाय नहीं है। लेकिन
तुम्हारे मन में यह धारणा बन सकती है कि मैं लड़ रहा हूं और तुम हारने और जीतने के
पागलपन में पड़ सकते हो। उससे तुम कष्ट पाओगे। उससे भी प्रकृति कोई कष्ट नहीं पा
रही है। और प्रकृति कोई बाधा भी नहीं डालेगी कि तुम बदलो। प्रकृति अनंत तक ऐसी ही
चलती रहेगी। एक क्षण को रुककर भी तुमसे न कहेगी कि यह तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारी लड़ाई का, तुम्हारे संघर्ष का प्रकृति को
कोई पता भी नहीं है। तुम कभी लड़े भी, यह भी उसे पता नहीं है।
लेकिन
तुम्हारे मन में यह धारणा बन जाए कि मैं लड़ रहा हूं, जीतना है, हार न जाऊं, तो तुम अकारण परेशान होओगे। यह परेशानी
भी प्राकृतिक है। यह भी तुम्हारा स्वभाव है कि तुम लड़ोगे, हारोगे,
जीतोगे, सोचोगे, दुखी
होओगे, यह भी स्वभाव है।
इस
जगत में सभी कुछ स्वभाव है--दुख भी, सुख भी और परम आनंद भी। तुम्हारे
हाथ में है कि अगर तुम भ्रांत धारणाएं पकड़ लो, तो तुम दुखी
हो जाओगे। अगर तुम सीधी, सहज धारणाएं पकड़ लो, तो तुम सुखी हो जाओगे। अगर तुम सभी धारणाएं छोड़ दो, तो
तुम आनंदित हो जाओगे। यह सब तुम्हारे भीतर घट रहा है।
ध्यान
रहे, जब पैर में कांटा चुभता है और पीड़ा होती है, तो पीड़ा
भी प्राकृतिक है, कांटा भी प्राकृतिक है, तुम्हारा शरीर भी प्राकृतिक है। फिर तुम जब हाथ से खींचकर कांटे को निकाल
देते हो, तो जो हाथ निकाल रहा है, वह
भी प्राकृतिक है। कांटे के निकल जाने पर जो सुख की प्रतीति होती है, दुख मिट गया, वह भी प्राकृतिक है। अप्राकृतिक तो कुछ
है ही नहीं। हो ही नहीं सकता। प्राकृतिक का मतलब है, जो हो
सकता है, जो हो रहा है। मनुष्य का भटकना भी प्राकृतिक है,
अज्ञान में पड़ना भी प्राकृतिक है।
इसलिए
सवाल अप्राकृतिक और प्राकृतिक के बीच में चुनने का नहीं है, सभी कुछ
प्राकृतिक है। लेकिन प्रकृति में दुख भी है, सुख भी है,
आनंद भी है। तुम दुखी हो, इसलिए तुमसे कहता
हूं कि सुखी होने का उपाय है--तैरो मत, बहो। और आनंदित होने
का भी उपाय है--न तैरो, न बहो, नदी के
साथ एक हो जाओ। और तीनों प्राकृतिक हैं।
इसे
ऐसा समझो कि जब तुम स्वस्थ होते हो, तब प्राकृतिक होते हो; और जब तुम बीमार होते हो, तब? तुम
सोचते हो, बीमारी प्राकृतिक नहीं है? अन्यथा
बीमारी आएगी कहां से? बीमारी प्रकृति का हिस्सा है, वैसे ही जैसे स्वास्थ्य। लेकिन बीमारी में तुम दुख पाते हो; स्वास्थ्य में सुख पाते हो।
तो
अब निर्णय तुम्हें करना है कि किस प्रकृति की यात्रा में तुम चलो--दुख की, सुख की या
आनंद की। और तीनों द्वार सदा खुले हैं। और प्रकृति की तरफ से न कोई तुम पर बोझ है,
न कोई वजन है, न कोई आग्रह है, न तुम्हें दंड दिया जाएगा, न तुम पुरस्कृत किए
जाओगे। प्रकृति इस संबंध में बिलकुल निरपेक्ष है, तटस्थ है।
वह तुम्हें धकाती नहीं। तुम्हारी जैसी मर्जी।
इसलिए
मैं कहता हूं,
जब तुम दुख पाते हो तो अपनी ही मर्जी से पाते हो। और अगर दुख पाने
में तुम्हें रस आ रहा हो, तो कोई तुमसे नहीं कह रहा है कि
दुख मत पाओ। खूब मजे से पाओ, जितना ज्यादा पा सको, उतना पाओ। कठिनाई यह है कि दुख पाने में तुम्हें दुख भी हो रहा है और तुम
सजग भी नहीं हो कि यह तुम अपने ही कारण पा रहे हो।
तो
पहली बात तो समझ लें कि प्रकृति एक निरपेक्ष प्रवाह है, उसका कोई
पक्षपात नहीं है। लेकिन अगर तुम दुख पाना चाहो, तो तुम्हें
एक ढंग का जीवन जीना पड़ेगा। वह जीवन है संघर्ष का, लड़ने का,
जीतने की आकांक्षा का। और जो भी जीतने की आकांक्षा करेगा, वह हारेगा। क्योंकि अंग, एक छोटा-सा अंश, पूर्ण से कैसे विजय पा सकता है? एक बूंद सागर से
लड़ेगी, तो जीत की कोई भी तो संभावना नहीं है। उसके बूंद होने
में ही हार लिख गई। क्या उपाय हो सकता है कि बूंद सागर से जीत जाए? तुम्हारा हाथ तुम्हारे खिलाफ लड़े, कोई रास्ता है
जीतने का? तुम्हारा हाथ तुम्हारे खिलाफ लड़ेगा, तो भी तुम्हारी ही शक्ति की उसको जरूरत पड़ेगी।
यह
ऐसे ही है, जैसे बाप अपने छोटे बच्चे से कुश्ती लड़ रहा हो। और बाप की मौज है, तो जिता दे, कि गिर पड़े, सीधा
लेट जाए, बेटे को छाती पर बिठा ले। लेकिन यह भी बाप को ही
करना पड़ेगा। और बेटे को भ्रांति हो सकती है कि मैं जीत रहा हूं, लेकिन बाप भलीभांति जानता है, उसके जीतने का कोई
उपाय नहीं है।
जब
तुम जीतते हो,
तब परमात्मा तुम्हारे साथ खेल रहा है, जैसे
बाप बेटे के साथ खेल रहा हो। तुम्हारी जीत हो नहीं सकती। यह जीत असंभव है। असंभव
इसलिए है कि अंश कैसे अंशी से जीतेगा? हिस्सा कैसे पूर्ण से
जीतेगा? नहीं कोई उपाय है।
लेकिन
कभी-कभी जीत तुम्हें लगती है कि हो रही है, वह बाप बेटे से हार रहा है। यह
उसका खेल है। और इस खेल में तुम उलझ गए, तो बड़े दुखी होओगे,
क्योंकि यह खेल सदा नहीं चलेगा। अनेक बार तुम्हें हारना पड़ेगा। और
जिस दिन तुम यह जान लोगे कि हार तो अनिवार्य है, उसी दिन तुम
जीतने का उपाय छोड़ दोगे।
जीतने
की आकांक्षा का त्याग संन्यास है। और जीतने की आकांक्षा का जिसने त्याग कर दिया, वही जानता
है, नहिं राम बिन ठांव। उसी ने पहचाना कि राम ही आखिरी
विश्राम है। उससे लड़कर जाने का कहीं कोई मार्ग नहीं है। वह जैसा रावण राम से हार
जाता है। बीच में कई जीतें हैं। बीच के पड़ाव पर कई बार रावण जीतता हुआ मालूम पड़ता
है। रावण को भी लगता है कि मैं जीत रहा हूं कई बार। और उससे आशा बंधती है कि अंतिम
जीत भी मेरी हो जाएगी। लेकिन अंतिम जीत कभी भी नहीं हो सकती। यह खेल कितना ही लंबा
चले, अंतिम जीत राम की होगी। रावण बहुत बार जीतेगा, राम एक ही बार जीतेंगे, लेकिन वह अंतिम होगा।
अंश
बहुत बार जीत सकता है छोटे-मोटे खेलों में, लेकिन आखिरी निर्णायक खेल में हार
हो जाएगी। जिसने ऐसा समझ लिया, जान लिया, पहचान लिया, अपने को अंश की भांति देख लिया, वह लड़ना छोड़ देता है। और मजा यह है कि लड़ना छोड़ते ही जीत घटित हो जाती है।
क्योंकि जैसे ही तुमने लड़ना छोड़ा, तुम न रहे, राम ही बचा। लड़-लड़कर ही तो तुम अपने अहंकार को बचाते हो। जब तुम लड़ते ही
नहीं और मान लेते हो कि हार स्वीकार है, तुम गए। बूंद खो गई,
सागर हो गया। अब राम की जीत तुम्हारी ही जीत है। अब तुम हार नहीं
सकते, अब तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। पहले तुम जीत नहीं सकते
थे, जीतना असंभव था, अब हारना असंभव
है। क्योंकि अब तुम अंशी के साथ एक हो, पूर्ण के साथ एक हो।
अब तुम लहर नहीं हो, अब तुम सागर हो। अब तुम्हें कौन हराएगा?
लाओत्से
ने कहा है कि जो जीतने चला है, वह हारेगा; और जो हार गया,
उसके हारने का कोई उपाय नहीं। लाओत्से बार-बार कहता है कि मुझे तुम
हरा न सकोगे, क्योंकि मैं पहले से हारा हुआ हूं। लड़ने का ही
उपाय नहीं है, तो हराओगे कैसे? मैं
हारा ही हुआ हूं।
जो
हारा ही हुआ है,
वही संन्यासी है। और इस हारे हुए संन्यासी को हमने विजेता कहा है।
महावीर और बुद्ध के नामों में एक नाम जिन है। जिन का अर्थ है: जो जीत गया। जिन के
ही आधार पर महावीर के मानने वाले जैन कहलाते हैं--जो जीत गया।
लेकिन
कब महावीर जीतते हैं?
किस घड़ी में जीत घटित होती है? जिस घड़ी में
महावीर नहीं होते, उसी घड़ी में जीत घटित होती है। जब तक तुम
हो, हार होगी। तुम हार का आधार और सूत्र हो। जब तुम नहीं हो,
जीत हो गई। तुम्हारे साथ ही हार जा चुकी। अब जो बचा है, वह सदा जीता हुआ है।
इसलिए
महावीर का नाम हमने बदल दिया। नाम तो उनका वर्द्धमान था। यह नाम भी बड़ी प्रीतिकर
है, विचारणीय है। वर्द्धमान का अर्थ है, जो सदा बढ़ता ही
जाए, जीतता ही जाए। लेकिन जब तक वे वर्द्धमान थे, तब तक हारे। वर्द्धमान हमारी आकांक्षाओं का नाम है--बढ़ती ही जाएं, जिनका कोई अंत नहीं है। कहीं भी पहुंच जाओ, तो और
आगे, और आगे। और वासना बढ़ती जाती है, क्षितिज
की तरह फैलती चली जाती है।
तो
वर्द्धमान तो नाम था उनका जन्म से, बाप ने दिया। और बाप बेटे को
महत्वाकांक्षा ही देता है। यही आकांक्षा होती है कि सब बढ़े, फले,
फूले। तो वर्द्धमान नाम रखा था। जब तक वर्द्धमान रहे तब तक हार होती
रही। फिर जिस दिन वर्द्धमान मिटा, भीतर का अहंकार गया,
उस दिन महावीर हुए। महावीर का अर्थ है कि अब इनको कोई हरा नहीं
सकता। अब वीरता उस अंतिम चोटी पर पहुंच गई, जहां कोई हरा
नहीं सकता। लेकिन इस वीर का जन्म तब हुआ, जब वर्द्धमान हट
गया, बीच से चला गया।
वर्द्धमान
जब मिटते हैं तो महावीर का जन्म होता है। इस वक्तव्य के साथ में एक बार बहुत मजा
हुआ। कई वर्ष पहले,
एक महावीर के मंदिर में पहुंचा। एक जैन मुनि के बोलने के बाद जब
मैंने कहा, वर्द्धमान और महावीर दो अलग-अलग व्यक्ति हैं,
और जब मैंने कहा कि वर्द्धमान की मृत्यु पर महावीर का जन्म हुआ,
और जब मैंने कहा कि जब तक वर्द्धमान है, तब तक
महावीर के होने का कोई उपाय नहीं, और जिनका नाम वर्द्धमान है,
वह महावीर नहीं और वर्द्धमान के जीवन को जिसने महावीर का जीवन समझ
रखा है, वह बड़ी भ्रांति में है--वह जैन-मुनि बड़े व्यथित और
परेशान हो गए। उन्होंने समझा कि कोई जो जैन-शास्त्र को जानता नहीं, बोलने आ गया है।
वह
इतने बेचैन हो गए कि बीच में खड़े हो गए। और उन्होंने कहा कि यह, जो आप कह
रहे हैं, सरासर गलत है। वर्द्धमान और महावीर एक ही व्यक्ति
के नाम हैं। और आपको जैन-शास्त्रों का कुछ पता नहीं, ऐसा
मालूम होता है। मैंने यह कहा कि जैन-शास्त्र का पता मुझे हो न हो, जिनत्व का मुझे पता है। और जहां तक जिनत्व का संबंध है महावीर और
वर्द्धमान दो व्यक्ति हैं। किताब में क्या लिखा है, वह आप
समझ लें। और वर्द्धमान का जीवन महावीर का जीवन नहीं है। वर्द्धमान को मिटाने के
लिए ही तो महावीर जंगल में गए। और जिस दिन वर्द्धमान गिर जाता है, जिस दिन बीच की खोल झड़ जाती है, उस दिन महावीर के
पौधे का जन्म होता है।
उनकी
समझ में फिर भी नहीं आ सका! धारणाओं से भरी समझ समझने में असमर्थ हो जाती है। फिर
वह इतने क्रोधित हो आए कि मैं ऐसी उलटी-सीधी बात कह रहा हूं कि उन्हें होश भी न
रहा। समझने के लिए थोड़ा होश तो चाहिए ही। फिर शास्त्र का जिन्हें बहुत ज्ञान
हो...अक्सर शास्त्र आंखों पर धूल की तरह जम जाता है और जीवन को देखना कठिन हो जाता
है।
यह
तो मैं भी जानता हूं कि महावीर और वर्द्धमान एक ही व्यक्ति के नाम हैं। लेकिन यह
एक ही व्यक्ति का नाम तो बहुत ऊपर की बात है, भीतर से एक डिसकंटीन्यूटी है। ऊपर
से तो यह आदमी वही है। जो वर्द्धमान की तरह पैदा हुआ था, वही
महावीर की तरह मरेगा। ऊपर से तो एक सातत्य है। लेकिन भीतर? भीतर
एक शृंखला समाप्त हो गई और दूसरी शृंखला का जन्म हो गया। भीतर जो पैदा हुआ था,
वह समाप्त हो गया; और जो कभी न पैदा होता है
और न कभी समाप्त होगा, उसकी स्मृति, उसका
अनुभव आ गया, वही महावीर है।
इसे
समझ लें। जब तक आप हैं,
तब तक पराजय आपका भाग्य होगा, क्योंकि लड़ने का
खयाल ही मूढ़तापूर्ण है। जैसे कोई अपने से ही लड़ रहा हो, हारेगा
ही। जैसे कोई छाया से लड़ रहा हो, हारेगा ही। जिस दिन यह
स्मृति आती है कि लड़ना किससे है, मेरे अतिरिक्त कोई और है
नहीं, मैं ही हूं फैला हुआ! और तू में मैं ही है समाया हुआ!
मैं और तू कहीं कटते और अलग नहीं होते--उसी दिन पराजय समाप्त हो गई, लेकिन उसी दिन आप भी समाप्त हो गए।
चिकित्सकों
के संबंध में एक बात अक्सर कही जाती है उनके खिलाफ, किसी चिकित्सक के खिलाफ लोग
होते हैं तो वे कहते हैं कि मरीज भला मर जाए, यह बीमारी उससे
खत्म होने वाली नहीं है। लेकिन धर्म के संबंध में यही स्थिति सत्य है। यहां बीमार
जब तक नहीं मरेगा, तब तक बीमारी समाप्त होने वाली नहीं है।
क्योंकि यहां बीमार और बीमारी एक ही घटना के दो नाम हैं। तुम मिटोगे तो ही बीमारी
मिटेगी, क्योंकि तुम ही बीमारी हो।
सारे
धर्म की खोज,
समस्त धर्मों की खोज, कितनी ही विस्तार में
भिन्न-भिन्न हो, लेकिन सार एक है। और वह यह है कि कैसे
व्यक्ति मिट जाए और समष्टि आ जाए। फिर परम आनंद है। जब तुम ही नहीं हो, तो दुख हो कैसे सकेगा? जितने मजबूत तुम होते हो,
उतना ही गहरा तुम्हारा दुख होता है।
इसे
ठीक से खयाल में ले लें: सभी कुछ प्रकृति है, दुख, सुख,
आनंद। यदि तुम लड़ते हो तो दुख प्रकृति से मिलता है। प्रकृति तुम्हें
दुख देती है, ऐसा नहीं है। तुम लड़ते हो, इसलिए दुख पाते हो। वह तुम्हारे लड़ने की छाया है। जैसे जमीन में
गुरुत्वाकर्षण है, ग्रेवीटेशन है। तुम चलते हो, तुम्हें पता भी नहीं चलता कि ग्रेवीटेशन है। तुम आड़े-तिरछे चलो, शराब पीकर चलो, तुम गिर पड़ोगे, पैर टूट जाएगा। वह पैर भी पृथ्वी के ग्रेवीटेशन की वजह से टूट रहा है।
जमीन खींच रही है। तुम आड़े हो गए, तब भी खींच रही है। तुम
सीधे खड़े हो, तब भी खींच रही है। जमीन का खींचना तो चल ही
रहा है, तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। तुम आड़े हुए तो पैर तोड़ लोगे।
पैर टूटा तो तुम दुख पाओगे। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि ग्रेवीटेशन ने तुम्हारा पैर
तोड़ दिया। ग्रेवीटेशन को तुम्हारा कुछ पता ही नहीं है। ग्रेवीटेशन तो एक नियम है।
ऐसे
ही जैसे दीवार से तुमने निकलने की कोशिश की और सिर में चोट लगी, तो क्या
तुम यह कहोगे कि दीवार ने सिर फोड़ दिया? अक्सर लोग कहते हैं।
तुमने सिर फोड़ लिया! और दीवाल तो खड़ी थी, तुम बचकर निकलते तो
दीवाल हटकर तुम्हारा सिर तोड़ने नहीं आती। दरवाजे से निकले, सिर
नहीं टूटा। दीवार से निकले, सिर टूटा।
प्रकृति
से लड़ने का जो खयाल लेगा,
वह सिर तोड़ लेगा और दुख पाएगा। प्रकृति से जो नहीं लड़ेगा, समर्पित हो जाएगा, वह दरवाजे से निकल रहा है,
उसका सिर नहीं टूटेगा। और वह यह बात ही भूल जाएगा कि मैं हूं।
संघर्ष भी नहीं, समर्पण भी नहीं, क्योंकि
समर्पण में भी लगता है, मैं हूं। न संकल्प, न समर्पण। न मैं लड़ता हूं, न संघर्ष करता हूं,
न छोड़ता हूं। क्योंकि छोड़ने वाला कौन? जब मैं
हूं ही नहीं, तब कैसा संघर्ष? कैसा
समर्पण?
इससे
परम आनंद घटित होता है। वह अभी भी बरस रहा है। दरवाजा अभी भी खुला है, लेकिन तुम
दीवार से टकरा रहे हो। और लोग करीब-करीब इसी नियम को मानकर चलते हैं।
कभी
तुमने देखा है कि खिड़की से कोई पक्षी तुम्हारे कमरे में घुस आता है। फिर वह सब तरह
की कोशिश करता है,
सब दीवालों से जाकर टकराता है, लेकिन उस खिड़की
पर नहीं जाता जिससे भीतर आया है। यह बड़े मजे का मामला है कि क्या तर्क होगा इस
पक्षी का?
एक
बात तो पक्की है कि यह भीतर आया तो बाहर जाने का रास्ता वही है, जिससे
भीतर आया है। और कोई रास्ता होने वाला नहीं है। एक बात पक्की है कि भीतर आ गए हो,
तो बाहर भी जा सकोगे। नहीं तो भीतर ही कैसे आते? लेकिन यह इस खिड़की को छोड़कर सब जगह फड़फड़ाता है, चोंच
मारता है, पंख मारता है। और जितना मारता है दीवालों में
टक्कर, उतना घबड़ाता है। उस घबड़ाहट में फिर खिड़की दिखाई पड़नी
बंद ही हो जाती है। और अगर तुमने इसकी सहायता करने की कोशिश की, तो जान ले लोगे। अक्सर ऐसा मन होता है कि सहायता करो और खिड़की से निकाल
दो। तुमने अगर कोशिश की खिड़की से निकालने की, तो यह खिड़की पर
जाएगा ही नहीं।
अनेक
गुरुओं के हाथ शिष्यों की यही गति हो जाती है। गुरु उनको धक्का देता है कि खिड़की
से निकल जाओ। धक्का देने के कारण वे दीवाल से और बुरी तरह टकराते हैं।
परम
गुरु तुम्हें धक्के नहीं देगा। परम गुरु का काम यही है कि वह कमरे में ऐसे हो
जाएगा, जैसे है नहीं। उसकी गैर-मौजूदगी में ही तुम हल्के हो पाओगे।
दूसरे
की मौजूदगी से और घबड़ाहट बढ़ती है। और नहीं निकल पा रहे हैं, मूढ़तापूर्ण
कृत्य कर रहे हैं, इससे और चिंता बड़ी होती है। उस चिंता में
आंखें और धुंधली हो जाती हैं। उस बुखार में, तेजी में,
फिर कुछ भी नहीं सूझता। आदमी अंधे की तरह हो जाता है।
फिर
यह पक्षी जिस खिड़की से अंदर आया, उसी से बाहर क्यों नहीं चला जाता, तर्क सीधा-साफ है। लेकिन हम भी वही कर रहे हैं। जरूर कहीं बुनियाद में
हममें और पक्षी में तर्क एक ही है।
वह
तर्क यह है कि जहां से भीतर आए, वहां से बाहर कैसे जाएंगे? क्योंकि भीतर और बाहर विपरीत बातें मालूम पड़ती हैं। यह भीतर कहां और बाहर?
उलटा है बिलकुल। इसलिए जिस जगह से भीतर आए, वहां
से बाहर कैसे जाना होगा? बाहर जाने का रास्ता कोई और होगा।
भीतर
और बाहर दो चीजें नहीं हैं। भीतर और बाहर एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। जो समझेगा
वह पाएगा कि जहां से तुम भीतर आए हो, वहीं से बाहर जाओगे। और कोई रास्ता
हो ही नहीं सकता। जिस रास्ते से आप यहां तक आए हैं, अपने घर
को छोड़कर मेरे पास, उसी रास्ते से आप वापस जाएंगे, वही रास्ता है। हालांकि बुद्धि कह सकती है कि जिस रास्ते से तुम घर से दूर
गए हो, उसी रास्ते से तुम घर के पास कैसे आओगे?
थोड़ा-सा
फर्क खयाल में ले लेना जरूरी है। मेरी तरफ आते समय तुम्हारा चेहरा मेरी तरफ था, पीठ घर की
तरफ। जाते समय पीठ मेरी तरफ होगी, चेहरा घर की तरफ। इतना ही
फर्क होगा। तुम वही, घर वही, रास्ता
वही। जहां से मनुष्य प्रवेश करता है अस्तित्व में, वहीं से
वापस जाता है।
कल
तुमने पूछा था कामवासना के संबंध में। इस संबंध में उसे भी समझ लेना उपयोगी है।
बच्चा जब मां के पेट में होता है, तो रति शून्य होता है, कामवासना
शून्य होता है। अ-रति की अवस्था होता है, नो-सेक्स की अवस्था
होती है। उसे कुछ पता ही नहीं होता। अपना ही पता नहीं होता, तो
भोग का खयाल कैसे होगा? अहंकार हो, तो
भोग चाहता है। अहंकार हो, भोग न मिले, तो
दुखी होता है। अभी भोग का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि बच्चा
अभी अलग नहीं है। अभी मां के गर्भ में बच्चा मां के साथ एक है।
गर्भ
की जो दशा है,
वही मोक्ष की दशा है। गर्भ छोटा-सा आनंद-रूप है मोक्ष का।
बच्चा
मां के साथ एक है,
अपने मूल-स्रोत के साथ एक है। मां श्वास लेती है, तो वही बच्चे की श्वास है। मां का खून चलता है, तो
वही बच्चे के खून की गति है। मां का हृदय धड़कता है, तो वही
बच्चे की धड़कन है। मां अभी मर जाए, तो बच्चा मरेगा। अभी मां
का जीवन बच्चे का जीवन है। अभी पृथकता पैदा नहीं हुई। अभी अहंकार नहीं जन्मा। यह
मोक्ष का आनंद-रूप है।
फिर
परम संतत्व की अवस्था में भी यही घटना घटती है। तब यह पूरा अस्तित्व मां का गर्भ
हो जाता है। इसलिए जहां हम मंदिर में परमात्मा की मूर्ति रखते हैं, उसको कहते
हैं गर्भगृह। जिस दिन यह सारा जगत मंदिर की तरह हो जाता है, उस
दिन गर्भगृह में तुम पुनः प्रवेश कर जाते हो। फिर तुम्हारा अस्तित्व नहीं रह जाता,
फिर सर्व है, तुम नहीं हो।
इसलिए
जिन लोगों ने परमात्मा की कल्पना पुरुष की जगह स्त्री के रूप में की है, उन लोगों
ने ज्यादा कुशलता दिखाई है। परमात्मा की धारणा पुरुष के रूप में ठीक नहीं है।
क्योंकि वह गर्भ कैसे बनेगा? इसलिए परमात्मा की धारणा स्त्री
के रूप में ज्यादा योग्य है। लेकिन पुरुष के अहंकार के कारण हम आमतौर से परमात्मा
को पुरुष बनाए हुए हैं। अहंकार को छोड़कर अगर तथ्य को समझने की कोशिश करें, तो परमात्मा स्त्रैण ही होना चाहिए, क्योंकि उसमें
जगह चाहिए। मोक्ष, उसमें जगह है, गर्भ
की संभावना। हम उसमें वापस लौट सकें।
तो
काली, जगदंबा की जो धारणा है, वह ज्यादा सत्य के निकट है।
पुरुष में तो जगह ही नहीं है, उसमें जाइएगा कहां? पुरुष में कोई स्थान नहीं है। परमात्मा गर्भ बन जाता है पुनः संत को।
बच्चा
जब पैदा होता है तो पहली अवस्था है अ-रति, नो-सेक्स। इसके विकास को ठीक से
समझें, क्योंकि यही वापसी में संत की यात्रा होगी। दूसरा चरण
है आत्म-रति, आटो-इरोटिक। बच्चा खुद ही को प्रेम करता है।
अपने ही हाथ-पैर से खेलता है। ऐसे ही प्रसन्न होता है अकारण। कोई साथी-संगी नहीं,
खुद ही पड़ा-पड़ा मजा लेता है। मुस्कुराता है। माताएं समझती हैं शायद
पिछले जन्म की याद वगैरह करके प्रसन्न हो रहा है। वह आत्म-रति में लीन है, अभी आटो-इरोटिक है। खुद ही प्रेमी है, खुद ही
प्रेम-पात्र है।
फिर
तीसरा चरण आता है,
तब बच्चा होमो-सेक्सुअल हो जाता है। समलिंगीयऱ्यौन पैदा होती है।
इसलिए लड़कों की उत्सुकता लड़कों में, लड़कियों की लड़कियों में
होती है।
एक
उम्र है बच्चों की जब लड़के लड़कों के साथ मेल करते हैं, लड़कियां
लड़कियों के साथ। लड़के लड़कों के प्रेम में पड़ जाते हैं, लड़कियां
लड़कियों के।
इसलिए
बचपन में जैसी दोस्ती बनती है, फिर कभी नहीं बनती। फिर जिंदगीभर वैसी दोस्ती
का स्वाद नहीं आता। बच्चे जैसी दोस्ती एक-दूसरे से कर लेते हैं, वह प्रेमियों जैसी दोस्ती है, वह जीवनभर टिकती है।
फिर बहुत लोगों से मिलना होगा, अच्छे लोगों से मिलना होगा,
संबंध बनेंगे, लेकिन परिचय रहेगा, दोस्ती नहीं हो पाएगी। क्योंकि वह जो होमो-सेक्सुअल, समलिंगीय-प्रेम की अवस्था थी, फिर दुबारा नहीं आएगी।
अनेक लोग होमो-सेक्सुअल रह जाते हैं, उसका अर्थ है, उनका ठीक विकास नहीं हुआ।
पश्चिम
में इस समय बहुत बड़ा रोग है। अनेक पुरुष पुरुषों से ही प्रेम कर पाते हैं और अनेक
स्त्रियां स्त्रियों से ही। उनके बड़े संगठन हैं, पत्रिकाएं हैं, पुस्तकें हैं, सरकारों से उनका संघर्ष चल रहा है कि
हमको भी वैधानिक हक होना चाहिए। और कुछ मुल्कों ने--डेनमार्क ने, स्वीडन ने--विवाह की भी आज्ञा दे दी है। एक पुरुष एक पुरुष से विवाह करना
चाहे, कर सकता है।
यह
जो अवस्था है,
बचपन में तो स्वाभाविक है। लेकिन यह टिक जाए, रह
जाए, तो इसका अर्थ हुआ, रिटार्डेशन हो
गया। कोई विकास की सीढ़ी पर आप रुक गए, आगे नहीं जा पाए।
तीसरा
चरण होमो-सेक्सुएलिटी है। चौथा चरण हेट्रो-सेक्सुएलिटी है, विभिन्न
लिंग से प्रेम। स्त्री का पुरुष से, पुरुष का स्त्री से। ये
चार चरण।
अब
इसमें दो उपाय हैं: एक उपाय यह है कि सारी यौन की यात्रा से संघर्ष करके कोई
व्यक्ति जंगल में भाग जाए,
लड़े, अपने को रोक ले, जिसको
हम संयमी कहते हैं, तपस्वी कहते हैं। तो वह वापस नहीं लौट
रहा, वर्तुल पूरा नहीं हो रहा। तो फिर एक तरह की विरति पैदा
होगी, जिसको हम आमतौर से साधु-संन्यासी में देखते हैं। लेकिन
इस विरति को मैं पंगु कहता हूं, पैरालाइज्ड कहता हूं,
यह वास्तविक विरति नहीं है। क्योंकि यात्रा में तुम आगे ही आए हो,
लौटे नहीं। वर्तुल पूरा नहीं हुआ। और जब तक वर्तुल पूरा न हो,
तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई।
जगत
में सभी चीजें वर्तुलाकार घूम रही हैं--चांद, तारे, सूरज,
पृथ्वी, जीवन, सब चीजें
वर्तुलाकार हैं। अस्तित्व सीधी रेखा को मानता ही नहीं, अस्तित्व
तो वर्तुल को मानता है। सब चीजें वापस उसी बिंदु पर आ जानी चाहिए, जहां से शुरू हुई थीं।
यहीं
तंत्र की अनूठी खोज और महिमा है। तंत्र कहता है, विरति तो पानी है, लेकिन वह विरति वापस लौटकर पानी है।
तो
चौथी अवस्था है,
हेट्रो-सेक्सुअल, अपने से भिन्न लिंग के साथ
प्रेम-काम की दशा। पुरुष का स्त्री, स्त्री से पुरुष--विपरीत
से प्रेम।
इससे
वापस लौटना है। तो इसके पीछे का चरण है होमो-सेक्सुअल।
इसलिए
दुनिया में सभी धर्मों ने,
जिनको भी मनोवैज्ञानिक सूझ है, इस चरण का उपाय
किया है। बौद्धों का संघ है बौद्ध भिक्षुओं का, तो
भिक्षुणियों का संघ अलग है, भिक्षुओं का अलग है। ताकि विपरीत
सेक्स से संबंध क्षीण हो जाए। भिक्षु इकट्ठे रहेंगे, भिक्षुणियां
इकट्ठी रहेंगी। ईसाइयों की कैथालिक मोनेस्ट्रीज हैं, जहां
पुरुष अलग, स्त्रियां अलग--मांक्स, नन्स
अलग।
कुछ
तो मोनेस्ट्रीज ऐसी हैं कैथालिक ईसाइयों की कि जिनमें एक व्यक्ति प्रवेश करता है
तो फिर कभी बाहर नहीं आता। वह द्वार सिर्फ भीतर जाने के लिए खुलता है, फिर बाहर
आने के लिए नहीं खुलता। तो उसने विपरीत सेक्स का जगत छोड़ दिया। अब वह पुरुषों के
साथ ही रहेगा। उसकी मैत्री होगी वैसी ही, जैसी एक बार बचपन
में हुई थी। यह वापस लौट रहा है।
फिर
इससे भी पीछे लौटना है और उस छोटे बच्चे की भांति हो जाना है, जब आप
अपने को ही प्रेम करते हैं। पुरुष भी खो गया, स्त्री भी खो
गई। संन्यासी अपनी गुहा में बैठा हुआ अपने में ही रत है। ध्यान की यह दशा आत्म-रति
है। यह ठीक वैसे ही है, जैसा बच्चा अपने झूले में पड़ा है और
आनंदित हो रहा है। किसी दूसरे की जरूरत नहीं है आनंद के लिए। उसका खुद का होना ही
काफी आनंद है। ध्यान की यह अवस्था है।
फिर
इससे भी पीछे लौटना है--अपना भी खयाल न रह जाए। वह गर्भ में वापस लौट गया। इस
अवस्था का नाम समाधि है। तब बच्चा, जैसे पूरा अस्तित्व गर्भ हो गया और
अब उसे अपना बोध ही न रहा, वह अबोध हो गया। इस सारे अस्तित्व
के साथ एक हो गया। यह वर्तुल पूरा हुआ। फिर अ-रति पैदा हुई। इस अंतिम अवस्था को
मैं ब्रह्मचर्य कहता हूं।
और
अगर आप सीधे ही चलते गए और चौथे चरण के बाद ब्रह्मचारी हो गए पांचवें चरण में, तो वह
ब्रह्मचर्य दमन होगा। और विकृत होगा और उसमें सौंदर्य नहीं हो सकता। उसमें वह
महिमा प्रगट नहीं होगी, जो एक बच्चे में प्रगट होगी मां के गर्भ
में वापस लौटकर।
अ-रति, फिर
आत्म-रति, फिर स्वलिंगीय-रति, फिर
पर-रति, और फिर वापस है यात्रा। और जिस दिन आपका वर्तुल पूरा
होगा, उस दिन परम शांति आप पर प्रगट होगी। आशीर्वाद सब तरफ
से बरसने लगेंगे। यह आदमी घर आ गया। झेन फकीर कहते हैं, कमिंग
बैक टू होम। जहां से चला था, वहीं वापस आ गया। मूल-स्रोत को
उपलब्ध हो गया।
प्रकृति
से लड़ेंगे, तो भी प्राकृतिक; समर्पण करेंगे, तो भी प्राकृतिक। छोड़ देंगे अपने को, बिलकुल भूल
जाएंगे, न संघर्ष, न समर्पण, तो भी प्राकृतिक है। सभी कुछ प्राकृतिक है, क्योंकि
अप्राकृतिक हो ही कैसे सकता है? इसलिए सवाल प्रकृति और
अप्रकृति के बीच चुनने का नहीं है, सवाल सुख, दुख और आनंद के बीच चुनने का है। तीनों द्वार खुले हैं। जिस तरफ भी जाना
हो, होशपूर्वक जाना।
अगर
दुख पाना हो,
तो होशपूर्वक पाना। कोई रोक नहीं रहा है। परतंत्रता बिलकुल नहीं है।
जिसको दुख पाना है, उसे पूरे उपाय हैं, वह दुख पाए। लेकिन ध्यान रखना, तुम्हीं अपने ही
हाथों आयोजन कर रहे हो, किसी और को दोष मत देना। सुख पाना हो,
सुख पाना। और आनंद की तैयारी हो गई हो, तो
आनंद पाना। लेकिन न तो यहां कोई दोषी है तुम्हारे सुख-दुख के लिए, और न किसी के प्रति धन्यवाद का कोई उपाय है। तुम अकेले ही जी रहे हो।
इस
धारणा को ही हमने कर्म का सिद्धांत कहा है। कर्म के सिद्धांत का कुल इतना ही अर्थ
है कि जो तुम पाते हो,
वह तुम्हारा किया हुआ है। न तो प्रकृति कुछ देती है, न परमात्मा कुछ देता है। तुम ही अपना जीवन अर्जित करते हो। और जो बीज तुम
बोते हो, उन्हीं की तुम फसल काट लेते हो। यही तुम करते रहे
हो।
देख
लेने की बात कुल इतनी ही है कि तुम्हारा करना तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ देता है, तो उसका
अर्थ है कि तुम प्रकृति के विपरीत चल रहे हो। तुम्हारा करना तुम्हें सुख-स्वास्थ्य
से भरता है, तो उसका अर्थ है कि तुम अनुकूल चल रहे हो।
प्रतिकूल दुख है, अनुकूल सुख है। लेकिन अगर तुम आनंदित हो
उठते हो, तो न तुम प्रतिकूल हो, न
अनुकूल, तुम एक हो गए।
एकात्म
आनंद है।
प्रश्न:
भगवान श्री, जब तक शरीर से तादात्म्य होता है,
तब तक तो हम शरीर की कोई फिक्र नहीं करते।
उसे अपना अहंकार तुष्ट करने का साधन ही बनाते हैं।
लेकिन यह तादात्म्य जैसे-जैसे कम होता जाता है,
वैसे-वैसे शरीर के प्रति एक नई पहचान, एक नए
मैत्री-भाव का उदय होता है।
ऐसा विरोधाभास क्यों है?
जैसे-जैसे
कोई व्यक्ति शांत होगा,
वैसे-वैसे शत्रुता का भाव गिरने लगता है। यह सवाल नहीं है, किसके प्रति? शत्रुता का भाव भीतर से गिरना शुरू हो
जाता है। आनंदित व्यक्ति केवल मैत्री का ही भाव कर सकता है। जैसे तुम्हारा ध्यान
गहरा होगा, वैसे ही तुम्हें लगेगा, सबसे
तुम्हारी मैत्री हो गई। जो अपने थे, वे अपने रहे; जो पराए थे, वे भी अपने हो गए।
शरीर, अज्ञानी
कितना ही तादात्म्य रखता हो, उसे पराया मानता है। और अज्ञानी
कितना ही शरीर में जीता हो, शरीर की शत्रुता से जीता है। तुम
भला कितना ही शरीर को सजाते हो, लेकिन भीतर तुम्हारे शरीर के
साथ एक दुश्मनी बनी है। वह तुम्हें पहचान में न आती हो, लेकिन
तुम शरीर के शत्रु हो। और शत्रुता दो तरह से पूरी की जा सकती है।
एक
तो शत्रुता पूरा करने का उपाय है कि तुम शरीर को भोग का एक माध्यम बना लो। तब तुम
शरीर को नष्ट ही करोगे। और शरीर में अनेक तरह के दुख और व्याधियों का जन्म होगा।
तो
शरीर के साथ दुश्मनी भंजाने का एक रास्ता भोगी का है। वह भी सड़ता है। एक दूसरा
रास्ता त्यागी का है। वह भोगकर शरीर को नहीं सड़ाता, वह शरीर को सताता है।
कांटों पर सुलाता है, भूखा रखता है, कोड़े
मारता है, वह शरीर को सीधा सताता है। भोगी परोक्ष रास्ते से
सताता है। लेकिन दोनों शरीर को सताते हैं और दोनों दुश्मन हैं। मित्र उनमें से कोई
भी नहीं।
बुद्ध
का एक संन्यासी हुआ,
श्रोण। वह राजकुमार था। उसने घर छोड़ दिया, महल
त्याग कर दिया। परम भोगी था। उसने अपने महल में सारे भोग के आयोजन कर रखे थे। कभी
जमीन पर पैदल नहीं चला था। सीढ़ियां भी अपने महल की चढ़ता था, तो
नग्न स्त्रियां उसने किनारे पर खड़ी कर रखी थीं, जिनके कंधे
पर हाथ रखकर वह ऊपर जाता था। साज, संगीत, नाच, नृत्य, बस यही जीवन था।
दिनभर सोता, रातभर शराब पीता, नाच-गान
में व्यतीत करता।
अचानक
बुद्ध गांव में आए और श्रोण संन्यासी हो गया। बुद्ध के साथी-संगी चकित हुए। और
उन्होंने पूछा कि हम सोच भी नहीं सकते कल्पना में कि श्रोण कभी संन्यासी होगा। यह
तो आपने चमत्कार कर दिया। बुद्ध ने कहा, इसमें मेरा चमत्कार जरा भी नहीं
है। श्रोण को संन्यासी होना ही पड़ेगा। क्योंकि मन एक अति से दूसरी अति पर चला जाता
है। और अब तुम देखना इस श्रोण का व्यवहार, तुम कुछ भी नहीं
हो।
और
लोगों ने जल्दी ही देखा कि श्रोण तपश्चर्या में सबसे आगे है। भिक्षु दिन में एक
बार भोजन करते थे बुद्ध के,
तो श्रोण दो दिन में एक बार भोजन करता। भिक्षु रास्ते से चलते,
तो श्रोण जंगल कंटीले मार्गों से चलता। भिक्षु एक चीवर रखते थे अपने
पास, श्रोण नंगा रहता। भिक्षु दोपहर में छाया में विश्राम
करते, श्रोण धूप में खड़ा रहता।
बुद्ध
ने कहा, देखो, पहले भी सता रहा था शरीर को, और अब भी सता रहा है। पहले सता रहा था भोग की तरह, अब
सता रहा है योग की तरह, लेकिन सताना जारी है। दुश्मनी कायम
है।
छः
महीने में श्रोण की सुंदर काया सूख गई, काला पड़ गया, पैर में घाव और छाले आ गए। आंखें अंदर धंस गईं। कोई पहचान भी नहीं सकता था
कि यह वही राजकुमार श्रोण है।
बुद्ध
एक रात उसका झोपड़े पर गए और उससे कहा कि मैंने सुना है श्रोण कि जब तू राजकुमार था, तो तू
वीणा बजाने में कुशल था। एक बात पूछने आया हूं। अगर वीणा के तार बहुत कसे हों,
तो संगीत पैदा होगा कि नहीं? श्रोण ने कहा,
होगा, लेकिन कर्कश होगा। और अगर बहुत ही
ज्यादा कसे हों, तो तार टूट जाएंगे, संगीत
पैदा नहीं होगा। और बुद्ध ने कहा, तार अगर बिलकुल ढीले हों,
तो? तो श्रोण ने कहा, तब
भी संगीत पैदा नहीं होगा, या पैदा होगा, तो मरा-मरा पैदा होगा, उसमें कोई प्राण न होंगे,
उसमें कोई गति न होगी। एक, अगर तार बहुत ढीले
हुए, तो पैदा ही नहीं होगा। तो बुद्ध ने कहा कि फिर संगीत
पैदा होने का नियम क्या है? श्रोण ने कहा, तार मध्य में हों। न तो बहुत कसे, न बहुत ढीले।
तारों
की एक ऐसी भी दशा है जब न तो आप कह सकते हैं कि वे कसे हैं और न कह सकते हैं, ढीले हैं।
वही मध्य-बिंदु खोजना संगीतज्ञ की कुशलता है। वीणा तो कई लोग बजा लेते हैं,
लेकिन मध्य-बिंदु खोजना बड़े संगीतज्ञ की कुशलता है। जब संगीतज्ञ
अपनी वीणा पर काम शुरू करता है, तो घंटों तो उसे संवारने में
लग जाते हैं, बिठाने में--ठोंकता है, पीटता
है, बिठाता है। वह मध्य में ला रहा है। तारों को उस जगह ला
रहा है, जहां श्रोण ने कहा, न तो कसे,
न ढीले, तब संगीत का जन्म होता है।
बुद्ध
उठ खड़े हुए और बुद्ध ने कहा, श्रोण, यही कहने आया था
कि जो संगीत का नियम है, वही जीवन का नियम भी है। जीवन में
भी तभी समाधि का संगीत पैदा होगा, जब ठीक मध्य में तार
होंगे। अतियों से बच! भोग से त्याग पर चला जाना आसान है। भोग और त्याग के मध्य में
रुक जा, वहीं संतुलन है।
तो
जैसे-जैसे ध्यान बढ़ेगा,
तो मन मध्य में आना शुरू होगा। सब शत्रुताएं गिरेंगी, दोनों तरफ की शत्रुताएं गिरेंगी और एक मैत्री-भाव पैदा होगा। और यह
मैत्री-भाव किसी के प्रति नहीं है, यह तुम्हारे भीतर
आविर्भूत होगा। इसलिए जहां भी तुम देखोगे, मैत्री मालूम
पड़ेगी। वृक्षों को देखोगे, पक्षियों को देखोगे, मित्रों को देखोगे, सब तरफ एक मैत्री दिखाई पड़ेगी,
जैसे सब तुम्हारे साथी हैं; जैसे तुम्हारे
विरोध में कोई भी नहीं। है भी नहीं।
तुम
थे विरोध में,
तो सब तुम्हारे विरोध में थे। अगर कोई तुम्हारा विरोध भी करेगा,
तो तुम्हारे ध्यान के कारण तुम देख पाओगे कि यह विरोध भी तुम्हारे
सहयोग के लिए है।
तो
कबीर कहते हैं,
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। वह जो तुम्हारी निंदा करता हो,
उसको बुलाकर अपने बगल में ही ठहरा लो। आंगन बनाकर, कुटी छवाकर उसको वहीं अतिथि बना लो। क्योंकि उसकी निंदा से तुम्हें सहारा
मिलेगा। अब वह निंदक में भी मित्रता दिखाई पड़ती है।
इस
शरीर में भी तुम्हें मैत्री दिखाई पड़ेगी और तब तुम शरीर के प्रति भी धन्यवाद कर
पाओगे। और वही है संन्यासी,
जो अपने शरीर को भी धन्यवाद दे सके। क्योंकि शरीर ने तुम्हारा कुछ
भी बिगाड़ा नहीं, सिवाय साथ देने के। तुम अगर वेश्या के घर
जाना चाहते थे, तो वहां ले गया--तुम जाना चाहते थे।
लेकिन
हम बड़े अदभुत लोग हैं। हम कहते हैं, यह शरीर शत्रु है, यह वेश्या के घर ले गया। तुम मंदिर जाने लगे, तो
शरीर मंदिर ले गया। शरीर ने सदा छाया की तरह तुम्हारा पीछा किया। तुमने जो चाहा,
शरीर ने पूरा किया, फिर भी तुम गाली उसे देते
हो। अगर तुम पाप करते हो, तो कहते हो, शरीर
पाप करवा रहा है। अगर तुम क्रोध करते हो, तो कहते हो,
शरीर क्रोध करवा रहा है। अगर कामवासना तुम्हें झकझोरती है, तो तुम कहते हो, यह शरीर कामवासना में ले जा रहा है।
यह
दूसरे को दोष देने की हमारी आदत इतनी पुरानी है कि जब कहीं कुछ और उपाय नहीं मिलता
दोष देने का,
तो हम शरीर पर ही थोप देते हैं। इसलिए जो संन्यासी-साधु शरीर की
निंदा कर रहा हो, समझना उसे अभी संन्यास की सुगंध नहीं मिली।
नहीं
तो शरीर तो मंदिर है,
शरीर तो एक अनूठी अनुकंपा है प्रकृति की। इतना कुछ शरीर में तुम्हें
दिया है प्रकृति ने। काश, तुम उसका उपयोग कर सको! वहां कोई
कामवासना ही नहीं छिपी है, वहां कामवासना से ऊपर के चक्र हैं,
जिनमें और आयाम छिपे हैं। तुम्हारे शरीर में वह परम सहस्रार भी है,
जहां से द्वार समाधि का खुलेगा।
तुम्हारा
निम्नतम चक्र संभोग का है,
जहां से द्वार प्रकृति का खुलता है। तुम्हारा सातवां चक्र ध्यान का
है, जहां से द्वार परमात्मा का खुलता है। शरीर में सब छिपा
है। इसलिए शरीर को दोष मत देना। तुम जिस द्वार को खटखटाते हो, शरीर उसी द्वार को खोल देता है।
लेकिन
हमारी आदतें हैं कि दोष कभी हम अपने को नहीं देना चाहते। कोई न कोई चाहिए, जो दोषी
है। जब कोई भी नहीं मिलता है, तो निरीह शरीर तुम्हें मिल
जाता है। और तथाकथित धर्मों ने बहुत दुष्टता सिखाई है और शरीर का तुम्हें दुश्मन
बनाया है और तुम्हें यह खयाल दिया है कि शरीर को सताओ, तो ही
तुम आत्मवान हो सकोगे।
इससे
ज्यादा मूढ़ता की और कोई बात नहीं हो सकती। आत्मवान पुरुष तो किसी को भी नहीं
सताएगा, शरीर को सताने का सवाल ही नहीं है। और सताने वाला कैसे आत्मवान बनेगा?
सताना तो हिंसा है, दुष्टता है, कठोरता है। और सताना तो रुग्ण चित्त का स्वभाव है।
सताओ
मत। इस शरीर को पहचानो।
इसलिए
जैसे तुम्हारा ध्यान आएगा,
वैसे ही इस शरीर की नई प्रत्यभिज्ञा, नई पहचान
होगी। तुम पहली दफा देखोगे कि शरीर तो अनूठा है, बड़ा
रहस्यपूर्ण है। इसके कितने द्वार हैं! इसमें कितने अनूठे रहस्य का जगत छिपा है!
तुमने खोजा ही नहीं खजाना। तुमने जो खोजा, वह तुम्हें मिल
गया है।
तुम
उस पागल की तरह हो,
जिसे महल किसी ने भेंट किया हो और वह बाहर सीढ़ियों पर बैठा जीवन
गुजार रहा है। और गाली दे रहा है कि धूप आती है, वर्षा आती है
और किस तरह का मकान है यह, कि बस यहां बैठे रहो सीढ़ियों पर,
कष्ट पाओ। सड़क से निकलती धूल उड़ती है, लोग
गाली देते हुए जाते हैं।
अब
वह दरवाजे पर सीढ़ियों पर बैठा है। उसने दरवाजा भी नहीं खोला है। उसने भीतर के कक्ष
नहीं देखे, उसने महल का विश्राम नहीं जाना, उसने महल के खजाने
नहीं खोजे। बस, वह दरवाजे पर बैठा गालियां दे रहा है। वह पीठ
किए है महल की तरफ। और जितनी गालियां देगा, उतना ही मुंह
करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जिसको हम गाली देते हैं, उसकी
तरफ हमारी पीठ मजबूत हो जाती है। तुम्हारा दुश्मन आ जाए, तो
तुम उसको देख नहीं सकते, तुम आंख बचा लोगे। तुम पीठ करके बैठ
जाओगे। दुश्मन की तरफ पीठ के सिवाय और कुछ होगा भी नहीं। शरीर दुश्मन है, तो तुम पीठ किए महल की तरफ बैठे रहोगे।
माना, इसी शरीर
से लोग नर्क जाते हैं। मगर इसी शरीर से लोग स्वर्ग भी जाते हैं। एक ही सीढ़ी को तुम
नर्क की तरफ लगा सकते हो, उसी सीढ़ी को स्वर्ग की तरफ लगा
सकते हो। सीढ़ी कुछ भी नहीं कहती कि नीचे की तरफ जाओ कि ऊपर की तरफ जाओ। वह जाने
वाले पर निर्भर है।
ध्यान
की थोड़ी सी भी झलक आनी शुरू हो, तो तुम्हें बड़ा मैत्री-भाव शरीर के प्रति पैदा
होगा, क्योंकि तुम पाओगे कि यह ध्यान भी शरीर के कारण ही
संभव हो पा रहा है। और जिस दिन समाधि घटेगी उस दिन भी तुम पाओगे कि यह समाधि भी
शरीर के कारण ही संभव हो पाई है। मुक्त व्यक्ति मरते क्षण में शरीर के प्रति बड़े
अनुग्रह और धन्यवाद के भाव से मरता है।
संत
फ्रांसिस की मृत्यु हुई,
तो आखिरी क्षण में उसने आंख खोलीं और कहा, बहुत-बहुत
धन्यवाद। तूने मेरा बड़ा साथ दिया। कोई मेरा इस तरह साथ न देता। तू सदा मेरा साथी
रहा। चाहे मैं नर्कों में गया और चाहे मैं स्वर्गों में, चाहे
मैंने अच्छा किया और चाहे बुरा, लेकिन तू सदा मेरे साथ था,
तेरी अनुकंपा बड़ी है। और अब सदा के लिए तुझे छोड़ रहा हूं, तो मेरे आखिरी धन्यवाद!
पास
जो शिष्य थे,
वे समझे नहीं कि यह बात किससे हो रही है। उनमें से एक ने पूछा कि
आपका मस्तिष्क कुछ डांवाडोल तो नहीं हो गया है मृत्यु के कारण? आप किससे बात कर रहे हैं? क्योंकि हममें से किसी की
तरफ आपकी आंख नहीं है। और आपने हममें से किसी को संबोधित नहीं किया। और हममें से
कोई भी सदा आपके साथ भी नहीं रहा, इसलिए संबोधन का कोई अर्थ
भी नहीं है। आप किससे बात कर रहे हैं? शून्य में बोल रहे हैं?
संत
फ्रांसिस ने कहा,
मैं अपने शरीर से बोल रहा हूं। कई बार मैंने इसकी निंदा की और इसे
गालियां दीं, वह मेरा अज्ञान था। आज मैं इसे धन्यवाद दे रहा
हूं, क्योंकि फिर दुबारा मुझे कोई मौका भी नहीं मिलेगा।
धन्यवाद देने की यह आखिरी घड़ी है, फिर मैं सदा के लिए छूट
जाऊंगा। इस शरीर ने मेरे लिए बहुत कष्ट उठाए।
यही
ध्यानी का भाव होगा। शत्रुता गिरेगी, मित्रता घनी होगी, और हर तरफ से अनुग्रह प्रतीत होने लगेगा। उसका ही प्रसाद सब रूपों में है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, शरीर मंदिर है। अज्ञानियों ने
कहा है कि शरीर दुश्मन है। चाहे अज्ञानियों ने शास्त्र लिखे हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ज्ञानियों ने सदा कहा है, शरीर
परमात्मा का प्रसाद है, उसकी भेंट है। अज्ञानियों ने सदा
शरीर और परमात्मा को विरोध में खड़ा किया है, कि जैसे जब तक
तुम शरीर को नष्ट न करोगे, तब तक परमात्मा को न पा सकोगे।
अगर
परमात्मा को शरीर ही नष्ट करना होता, तो शरीर की जरूरत ही न थी। और
परमात्मा भी बिना शरीर के नहीं है। यह सारी प्रकृति उसका शरीर है।
यह
सारी प्रकृति उसका शरीर है। इसलिए तुम्हारे शरीर में भी प्रकृति के पांच तत्व
सूक्ष्म रूप में इकट्ठे हैं। तुम्हारा शरीर प्रकृति का एक मिनिएचर रूप, एक छोटा
सा रूप है। इस छोटे से रूप में तुम्हारी आत्मा, परमात्मा का
छोटा सा रूप है। उधर एक सूरज जल रहा है विराट, पृथ्वी से कोई
साठ हजार गुना बड़ा और उसमें विराट ज्वाला है। तुम्हारे घर में एक छोटा सा दीया जल
रहा है, बड़ा क्षुद्र, सूरज से तुलना भी
न की जा सके, पर उसमें भी एक ज्योति जल रही है। उस ज्योति
में भी वही सूरज है, वही किरण है, वही
प्रकाश है।
तुम
एक दीया हो--दीए का आकार तुम्हारा शरीर है। तुम एक ज्योति हो--परमात्मा परम-ज्योति
है। यह प्रकृति उसका दीया है। इसलिए जब तुम मरोगे, तुम्हारी ज्योति परम-ज्योति
में लीन होगी, तुम्हारा दीया परम-प्रकृति में लीन हो जाएगा।
यह
खेल अनूठा है। और यह लीला बड़ी रसपूर्ण है। इसमें दुश्मनी के भाव से मत चलो। इसमें
जो दुश्मन बना,
वह भटकेगा। इसमें जो मित्र बना, जल्दी ही
प्रकृति अपने सब रहस्य उसके सामने लुटा देती है। मित्र की तरह ही तुम जान पाओगे,
पहचान पाओगे कि क्या तुम्हारे पास है। तुम्हारी आंखें दरवाजे की तरफ
होंगी, तुम दरवाजा खोलोगे, भीतर महल
में तुम प्रवेश कर जाओगे।
प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध निरंतर चालीस वर्ष तक प्रवचन और
उपदेश करते रहे,
और कहा गया कि वे एक शब्द भी नहीं बोले।
वैसे ही आप भी बीस वर्षों से निरंतर बोल रहे हैं, उपदेश कर
रहे हैं,
और कहा जा सकता है कि आप एक शब्द भी नहीं बोलते।
क्या यह सच है?
विरोधाभासी
दिखता है, फिर भी सच है। और शब्द सदा विरोधाभासी होते हैं, इसे
स्मरण रखना। बोलना बहुत प्रकार का हो सकता है। बोलने का एक प्रकार तो वह है,
जिसमें सुनने वाले से कोई संबंध ही नहीं होता। बोलना तुम्हारी
बीमारी होती है, क्योंकि तुम बिना बोले नहीं रह सकते।
क्योंकि तुम्हारे भीतर खोपड़ी में बहुत जाल और उपद्रव चल रहा है। बोलकर तुम हल्के
हो जाते हो। तो बोलना रेचन है, कैथार्सिस है।
हम
सभी इसी तरह बोल रहे हैं,
क्योंकि बिना बोले बेचैनी मालूम पड़ती है। बोलने में बेचैनी निकल
जाती है। इसलिए जब तुम काफी गप-शप कर लेते हो, तो हल्के हो
जाते हो, घर जाकर शांति से सो जाते हो। जिस दिन तुम्हें
बोलने न मिले, उस दिन तुम सो न पाओगे ठीक से। क्योंकि जिस
दिन तुम दूसरे से न बोल पाओगे, उस दिन तुम्हें अपने से ही
बोलना पड़ेगा। तो रात बिस्तर पर पड़े तुम खुद से ही बात करोगे। बात करना तुम्हारे
लिए एक रोग है, एक बीमारी है।
फिर
इस बोलने में तुम्हें कोई भी प्रयोजन नहीं है कि तुम क्या बोल रहे हो। उस बोलने से
किसी का हित होगा,
अहित होगा, यह भी कोई सवाल नहीं है। तुम बोलने
से नहीं रुक सकते हो, इसलिए बोल रहे हो। कभी लोगों की बातचीत
सुनो, चुपचाप दूर खड़े होकर। वे क्या बात कर रहे हैं? इस बात करने का क्या सार है?
नहीं, बात करने
के सार का सवाल भी नहीं है। वे बात में से बात, बात में से
बात निकालते चले जाते हैं। इससे भीतर हल्कापन आता है। बेचैनी है भीतर, वह बेचैनी बोलकर निकल रही है। अगर न निकलेगी, तो फिर
विचारों में घूमेगी, सपने बन जाएगी। और अगर बिलकुल न निकलने
दी जाए, तो तुम पागल हो जाओगे।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि तीन महीने एक आदमी को बिलकुल ही सब तरह के बोलने से रोक दिया जाए, वह
विक्षिप्त हो जाएगा।
विक्षिप्त
कर क्या रहा है?
विक्षिप्त में, तुममें फर्क क्या है? बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। जरा-सा मात्रा का ही फर्क है--इंच इधर, इंच उधर, सब गड़बड़ हो सकता है। विक्षिप्त में और
तुममें फर्क क्या है? कभी पागलखाने में जाकर देखो। अकेला
बैठा बातें कर रहा है। तुम अकेले बात नहीं करते, बस इतना ही
फर्क है। मगर सच में तुम अकेले बात नहीं करते हो? जोर से
नहीं करते, धीरे-धीरे करते हो, उतना ही
फर्क है। अकेले तो तुम भी बातचीत करते हो। रास्ते पर चलते, हाथ
हिलाते हो, मुद्रा बनाते हो, ओंठ भी
चलते हैं। कभी कोई मौजूद न हो, तो जोर से भी बोल लेते हो।
बाथरूम में, स्नानगृह में, कोई नहीं
सुनने वाला है, तुम आईने के सामने खड़े होकर बात भी कर लेते
हो, मुंह भी बिचका लेते हो। इसलिए तुम्हें स्नानागार में
जैसी स्वतंत्रता अनुभव होती है, कहीं भी अनुभव नहीं होती।
पागल
में और तुममें फर्क क्या है? तुम्हें अभी दूसरों का खयाल है कि लोग क्या
कहेंगे! पागल ने यह खयाल भी छोड़ दिया। अब वह चिंता ही नहीं करता। वह दोनों तरफ से
जवाब देता है। वह जो मौजूद नहीं है आदमी, वह भी उसके बगल में
बैठा है, वह बात कर रहा है उससे, जवाब
भी दे रहा है। तुम्हारे भीतर भी तुम दो में अपने को बांट लेते हो और जवाब-सवाल
करते हो।
तुम्हारे
लिए बातचीत, बोलना, एक तरह का रेचन है, जिसमें
तुम्हारी विक्षिप्तता निकल जाती है। जैसे केतली का ढक्कन हम उठा लेते हैं और भाप
निकल जाती है, वैसा तुम बोलकर अपना ढक्कन उठा लेते हो मन का
और भाप निकल जाती है। तुम हल्के हो जाते हो।
बुद्ध
इस भांति नहीं बोल रहे हैं। बुद्ध के लिए बोलना कोई रेचन नहीं है। इसलिए अगर
तुम्हारा बोलना बोलना है,
तो बुद्ध का बोलना बोलना नहीं है। क्योंकि दोनों की प्रकृति अलग है।
बुद्ध इसलिए नहीं बोल रहे हैं कि बिना बोले न रह सकेंगे। बुद्ध के लिए बिना बोले
रहना ही सुगम है, बोलना बड़ा कष्टपूर्ण है। तुम्हारे लिए मौन
रहना कठिन है और बोलना एकदम आसान है। बुद्ध के लिए मौन रहना स्वभाव है और बोलना
अति कठिन है। बुद्ध को बोलना चेष्टा करके करना पड़ रहा है। और जब तुम नहीं होते,
तो बुद्ध अकेले में अपने से नहीं बोल रहे हैं। वह चुप हैं, वहां पूर्ण सन्नाटा है, वहां कोई भी नहीं है।
तो
एक तो इस अर्थ में बुद्ध चालीस वर्ष बोले, फिर भी नहीं बोले, क्योंकि बुद्ध का बोलना तुम्हारे बोलने जैसा रोग नहीं है। दोनों में फर्क
करना जरूरी है।
दूसरी
बात, जो बोलना शून्य से निकलता हो और जो बोलना भीतर की भीड़-उपद्रव से निकलता हो,
इनका गुण-धर्म अलग है। शून्य से जब शब्द निकलते हैं, तो उनका स्वभाव निःशब्द का होता है। शून्य से जब शब्द निकलता है, तो उस शब्द में जो धुन, जो संगीत है, वह निःशब्द का और मौन का होता है।
इसलिए
बुद्ध को अगर तुम गौर से सुनो, तो तुम मौन हो जाओगे। अगर तुम बुद्ध को गौर से
सुनते रहो, तो तुम ध्यान में चले जाओगे। क्योंकि बुद्ध क्या
कह रहे हैं, वह सवाल नहीं है; उस कहने
का जो गुण-धर्म है, वह शून्य है। उस शब्द के साथ वह शून्य भी
तुम्हारे हृदय में जा रहा है। इसलिए बुद्ध को सुनते-सुनते तुम्हें ध्यान लग जाएगा।
लेकिन
साधारण आदमी को सुनो,
तो तुम बेचैन हो जाओगे। जितना तुम सुनोगे, उतनी
बेचैनी बढ़ेगी। और साधारण आदमी बोलता ही चला जाएगा, तो तुम
उससे बचना चाहोगे, भागना चाहोगे। तुम कहोगे कि यह आदमी बोर
कर रहा है, उबा रहा है। कैसे इससे छूटें!
तुम
जानते हो कि किस तरह तुम लोगों से छूटकर भागते हो, कि बताते हो कि जरा बाजार
जरूरी काम है, अभी क्षमा करें। और ध्यान रखना, तुमसे भी लोग इसी तरह छूटते हैं। और जब भी तुम कहते हो कि फलां आदमी बहुत
बोर करता है, उबाता है, तो उसका कुल
मतलब इतना ही है कि वह तुमसे मजबूत है, तुम उसे नहीं उबा
पाते और वह कब्जा कर लेता है। तुमसे भी कमजोर लोग हैं, तुम
उनको सता रहे हो।
अगर
तुम लोगों की साधारणतः बातचीत को सुनोगे, तो उनके शब्दों के साथ उनकी
दुर्गंध भी तुममें आएगी। आना जरूरी है, क्योंकि शब्द पार्थिव
हैं। शब्द उस व्यक्ति की तरंगें, उसकी गंध, दुर्गंध, उसका स्वभाव अपने चारों तरफ लपेटे हुए
तुम्हारे पास आते हैं।
इसलिए
अगर तुम समझदार हो,
तो तुम गलत लोगों को सुनने नहीं जाओगे। अगर तुम समझदार हो, तो तुम उन पागलों का सत्संग न करोगे। क्योंकि यह खतरनाक दोस्ती है। वे
पागल खुद पागल नहीं हैं, वे अपना पागलपन तुम्हारे भीतर फेंक
रहे हैं।
ऐसा
हुआ है एक बार। अरब में एक सम्राट विक्षिप्त हो गया। शतरंज का शौकीन था और चौबीस
घंटे शतरंज उसके सिर पर सवार रहती। और उसी शतरंज-शतरंज में पागल हुआ। घोड़ेऱ्हाथी, घोड़ेऱ्हाथी,
वह बिलकुल गड़बड़ हो गया। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों ने कहा,
इसको ठीक करने का एक ही उपाय है कि कोई इससे भी बड़ा शतरंज का खिलाड़ी
इसके साथ शतरंज सालभर तक खेले।
सम्राट
था, कोई पैसे की तो कमी न थी। दुनिया का सबसे बड़ा शतरंज का खिलाड़ी, उस समय का जो बाबी फिशर होगा, उसको बुला लिया। उसको
लगा दिया गया। अब वह तो राजा का मामला था, उसमें मना भी नहीं
कर सकता। और पागल के साथ शतरंज खेलो भी क्या! क्योंकि पागल पागल है, उसमें न चालों का हिसाब है, वह न नियम माने, न कुछ। कभी भी उलटा दे तख्ता, आधी रात बैठ जाए
फैलाकर।
सालभर
बाद राजा ठीक हो गया,
शतरंज का खिलाड़ी पागल हो गया। होने ही वाला था।
कभी
तुम जाओ पागलखाने में,
तो पागलखाने का डाक्टर तुम्हें ज्यादा पागल मालूम पड़ेगा, बजाय पागलखाने के लोगों के। क्योंकि वे तो निश्चिंत पागल हैं, यह बेचारा न मालूम कितने लोगों का पागलपन झेल रहा है। मनोवैज्ञानिक
चिकित्सा करते-करते पागलों की, खुद मरीज की अवस्था में पहुंच
जाते हैं।
गुण-धर्म
शब्दों से भी यात्रा करते हैं। इसलिए जो बुद्धिमत्तापूर्ण व्यक्ति है, वह उन्हीं
शब्दों को सुनेगा, जो शून्य से आते हों, जो शांति से आते हों, जिनका जन्म अंतर की गहराई से
होता हो। जो भीतर के रोग से आते हों, तुम कान बंद कर लेना।
बहरा होना अच्छा है। उससे बचाव होगा। गलत को देखना मत, क्योंकि
देखकर वह तुम्हारे भीतर जा रहा है। व्यर्थ को छूना मत, क्योंकि
छूने से उसके स्पर्श तुम्हें प्रभावित करेंगे। पर यह हमें होश नहीं है।
बुद्ध
के वचन निर्वचन जैसे हैं,
क्योंकि वे शून्य से आते हैं। इसलिए ठीक कहते हैं लोग कि चालीस वर्ष
बोलकर भी बुद्ध बोले नहीं।
और
एक आखिरी बात और खयाल ले लेनी चाहिए कि बुद्ध बोल-बोलकर भी निरंतर यही कहते हैं कि
जो बोलना चाहता हूं,
वह बोल नहीं पाता हूं। इसीलिए तो चालीस साल बोलना पड़ा। यह सतत
चेष्टा है। जैसे कोई चित्रकार एक चित्र बनाना चाहता हो, वह न
बनता हो। फिर बनाता हो, फिर चूक जाता हो, फिर बनाता हो। और बनाता रहे आखिरी क्षण तक, और आखिरी
क्षण तक तृप्त न हो। क्योंकि लगे कि जो बनाना चाहता था, वह
नहीं बन पाया। वह रूप अंकित नहीं होता। या वह अरूप है और पकड़ में नहीं आता। या वह
निराकार है और आकार देते ही खो जाता है। आकाश की तरह है, मुट्ठी
बांधते हैं और मुट्ठी के बाहर हो जाता है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
बोलता हूं, फिर भी उसे बोल नहीं पाता। जो कहना
चाहता था, वह तो कह ही नहीं पाया। और जो भी मैंने कहा है,
उसे तुम पकड़ मत लेना, क्योंकि वह सत्य नहीं
है। सत्य कहा नहीं जा सकता है। इस अर्थ में भी बुद्ध का बोलना, न बोलने जैसा है। यह जितनी रेखाएं उन्होंने कागज पर खींचीं, सब फाड़कर फेंक दीं खुद ही।
पश्चिम
में एक बहुत बड़ा ईसाई चिंतक-दार्शनिक हुआ, थामस एक्वेनस। उसने ईसाइयों का
अनूठा ग्रंथ लिखा, सम्मा थियोलाजिया। बड़ा ग्रंथ है, विश्वकोश है। ईसाइयों के पास ऐसी दूसरी किताब नहीं है, जिसमें ईसाई-चिंतन-साधना का सब समझा दिया है। मर रहा था एक्वेनस तो उसने
अपने शिष्यों को कहा कि आखिरी बात कि यह जो सम्मा थियोलाजिया के ग्रंथ हैं,
कोई पचास वाल्यूम, ये सब बेकार हैं। क्योंकि
जो मैं कहना चाहता था, वह मैं कह नहीं पाया। इसलिए इनका तुम
भरोसा मत करना। नहीं तो तुम इनको पकड़कर बैठ जाओ। और सत्य इनमें आ नहीं पाया है।
सत्य तो मेरे साथ जा रहा है। शब्द पीछे रह गए हैं।
एक्वेनस
के शब्द बड़े कीमती हैं,
एक-एक शब्द कीमती है, एक-एक शब्द हीरा है।
लेकिन एक्वेनस खुद मरते वक्त कह गया है कि सब कचरा है।
बुद्ध
रोज कहते हैं कि जो भी मैं कह रहा हूं, बेकार है। चूंकि सत्य कहा नहीं जा
सकता, निर्गुण प्रगट नहीं किया जा सकता, आकाश को मुट्ठी में बांधने का कोई उपाय नहीं है। स्वतंत्रता, शब्द में समाते ही, परतंत्रता जैसी हो जाती है। शब्द
कारागृह बन जाते हैं।
फिर
भी बुद्ध बोल रहे हैं। और बोल रहे हैं इसलिए, ताकि तुम्हारा बोलने वाला मन तृप्त
हो सके। और तुम्हारा बोलने वाला मन सुन-सुनकर शांत हो जाए। सत्य नहीं मिलेगा,
लेकिन बुद्ध की सन्निधि मिलेगी, सत्संग
मिलेगा। बुद्ध के बोलने से सत्य तो तुम्हारे पास नहीं आएगा, लेकिन
बुद्ध अगर मौन बैठे हों, तो तुम बुद्ध के पास ही नहीं जाओगे।
बुद्ध बोलते हैं, इसलिए तुम जाते हो।
तो
बोलना तुम्हारे लिए सिर्फ एक निमंत्रण है। क्योंकि वह तुम्हारी समझ में आता है।
लेकिन बुद्ध एक ऐसा निमंत्रण दे रहे हैं, जिसमें तुम्हारा कारण उनके पास
जाने का अलग, और बुद्ध का कारण तुम्हें बुलाने का अलग है।
बुद्ध
बोलकर तुम्हें आकर्षित कर लेते हैं, लेकिन प्रयोजन बिलकुल अलग है। फूल
देखे हैं, फूल सुगंध फैलाते हैं। लेकिन सुगंध फैलाने का कारण
तुम्हें पता है? वनस्पतिशास्त्री कहते हैं कि फूल सुगंध
फैलाते हैं तितलियों को आकर्षित करने को। तितलियां सुगंध के आकर्षण में चली आती
हैं, फूल पर बैठ जाती हैं। और तब तितलियों के पैरों में और
पंखों में फूल के जो जीवाणु हैं, वे लग जाते हैं। और उन
जीवाणुओं को वे लेकर उड़ जाती हैं, दूसरे फूल पर जाकर बैठती
हैं। पौधे में भी नर और मादा हैं। तो नर बुलाता है सुगंध से। फिर उस गंध के वश में
बंधी हुई, वीर्याणुओं को लेकर तितलियां मादाओं पर बैठ जाती
हैं। और तब बीज का जन्म हो जाता है।
फूल
की सुगंध भेजने में कोई तुम्हें सुगंध देने का प्रयोजन नहीं है। वे जो वीर्याणु
हैं, वे भेजना हैं। बुद्ध तुम्हें बोलकर अपने पास बुलाते हैं। वह बोलना सिर्फ
सुगंध है फूल की। लेकिन तुम उनके पास जाओगे, तो तुम्हारे
पैरों में, पंखों में बुद्धत्व लग जाएगा। उससे तुम न बच
सकोगे। और एक बार तुम्हें स्वाद लग गया बुद्धत्व का, तब तुम
सब शब्दों को फेंक दोगे। तुम खुद ही एक दिन कहोगे, बुद्ध
बिलकुल नहीं बोले, बड़ा धोखा था।
और
ठीक यही हालत मेरी है। तुमसे मैं बोल रहा हूं, और बिलकुल नहीं बोल रहा हूं। शब्द
का उपयोग कर रहा हूं, फिर भी शब्द से कोई मेरा संबंध नहीं
है। पर तुम आ फंसे हो, तो तुम्हारे पैरों में, पंखों में बुद्धत्व लग जाएगा। तुम्हारे अनजाने। तुम किसी और कारण से आए
हो। शायद तुम सुनने आए हो, शायद तुम्हें मेरे शब्द मनोरंजन
देते होंगे, शायद तुम्हारी बुद्धि को तृप्ति होती होगी,
शायद तुम्हारा तर्क राजी होता होगा, शायद
तुम्हारा संग्रह सूचनाओं का बढ़ जाता है, तुम्हारे अहंकार को
मजा आता होगा। शायद तुम और बड़े पंडित बनने मेरे पास आए हो।
वह
तुम्हारा प्रयोजन हो,
मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं। मेरा षडयंत्र दूसरा है, मेरा प्रयोजन अलग है। तुम किसलिए आए हो, वह तुम
जानो। मुझसे पूछना चाहो, तो मैं तुम्हें कुछ ऐसे जीवन का
स्वाद लगा देना चाहता हूं, जिसे वाणी में कहने का तो कोई
उपाय ही नहीं, लेकिन साथ होने के क्षण में कभी-कभी उसकी गंध
पकड़ में आ जाती है।
इसलिए
यह कोई प्रवचन नहीं है,
यह सत्संग है। यहां मैं बोल नहीं रहा हूं, यहां
मैं हूं। और मेरे होने से तुम जुड़ जाओ--थोड़ी देर को, एक क्षण
को भी--फिर तुम दुबारा वही नहीं हो सकोगे, जो तुम पहले थे।
तुम्हारा जीवन फिर पीछे नहीं लौट सकता। फिर एक नए जगत का जन्म हुआ और एक नए मनुष्य
की शुरुआत हुई।
वर्द्धमान
मर सकता है, महावीर पैदा हो सकते हैं--मैं तुम्हें इसीलिए बुलाया हूं। यह बोलने का जाल
इसलिए है कि तुम इसके बिना नहीं आ सकोगे। लेकिन यह प्रयोजन नहीं है। और यही बात
सबके संबंध में सच है--चाहे जीसस, चाहे क्राइस्ट, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर।
महावीर
के संबंध में बड़ी मीठी कथा है। जैन तो जड़ता से पकड़ लिए, इसलिए
उसका सार नहीं निकाल पाए। कथा यह है कि महावीर बोले ही नहीं, फिर भी लोगों ने सुना। अब यह बड़ा मुश्किल मामला है। महावीर बोले नहीं,
लोगों ने सुना। महावीर ऐसी किसी वाणी से नहीं बोले, जो कान सुन लें। तो महावीर की जो वाणी है, जैन कहते
हैं, निःशब्द है। उसमें कोई शब्द नहीं है। फिर भी लोगों ने
सुना--जो सुन सकते थे। अगर वे भी निःशब्द हो गए, महावीर के
पास जाकर बैठ गए, तो उन्होंने सुना।
इसलिए
महावीर के जीवन में एक और कथा है, जो महत्वपूर्ण है, और वह
यह कि महावीर को जंगली जानवरों ने भी सुना, आकाश के देवता भी
सुनने आए, पशु-पक्षी भी सुनने आए, भूत-प्रेत
भी मौजूद हुए।
जैनों
को बड़ी मुश्किल होती है समझाने में कि पशु-पक्षी कैसे सुनेंगे। निश्चित ही, अगर
महावीर भाषा बोलते हों, तो पशु-पक्षी तो दूर, सारे मनुष्य भी नहीं समझ सकते। अब अगर मैं हिंदी बोल रहा हूं, तो जो हिंदी समझता है, वही समझ सकता है। जमीन पर
हजारों भाषाएं हैं, वे लोग नहीं समझ सकते। पशु-पक्षी तो
समझेंगे कैसे, उनकी कोई भाषा ही नहीं है।
लेकिन
अगर महावीर मौन में बोले,
तो बात समझ में आ गई। फिर क्या फर्क है? फिर
तुम हो कि पौधा है, कि तुम हो कि एक प्रेत खड़ा है, कि तुम हो कि आकाश का देवता, कि एक कुत्ता आकर बैठ
गया है, कोई फर्क नहीं पड़ता। मौन तो सारे जगत की भाषा है।
फिर
भी मैं मानता हूं,
महावीर बोले। नहीं तो तुम उनके पास जाकर चुप भी बैठने को राजी नहीं
होते।
तुम्हें
ऐसा नशा लगा है शब्दों का कि जहां भी शब्द तुम्हें सुनाई पड़ते हैं, तुम भागे
पहुंच जाते हो। और निश्चित ही, महावीर जैसे व्यक्ति के शब्द
होते हैं, तो उनमें बड़ा माधुर्य होता है। उनसे लगता है जैसे
तुम भोजन कर रहे हो, तृप्त हो रहे हो। कोई खाली जगह तुम्हारे
भीतर भर रही है। बस, तुम उस आकर्षण में पहुंच जाते हो।
लेकिन
उनके पास जाकर तुम्हारे कान, तुम्हारा मन तो उनके शब्दों में उलझ जाएगा,
तुम्हारी आत्मा उनके सत्संग में लग जाएगी। और तुम्हारे पैरों,
पंखों में जिनत्व लग जाए, बुद्धत्व लग जाए,
तो क्रांति घटित हो गई। वही क्रांति प्रयोजन है।
आज इतना ही।
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