बुधवार, 31 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-14



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

तथाता और विद्रोह—(चौदहवां प्रवचन)
दिनांक २४ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आप कहते हैं कि धर्म स्वीकार है, तथाता है और आप यह भी कहते हैं कि धर्म विद्रोह है। धर्म एक साथ तथाता और विद्रोह दोनों कैसे है?
2—मीरा के इस वचन पीवत मीरा हांसी रे से कई गुना अदभुत वचन तो यह है कि म्हारो देश मारवाड़ जिसके कारण मेरे हृदय में अन्य जाग्रत व्यक्तियों की अपेक्षा मीरा का अधिक सम्मान है। आप क्या कहते हैं?
3—आज तक जाने गए बुद्धपुरुषों को किसी पशु ने मारा हो ऐसा उल्लेख नहीं है और शास्त्रों में कई ऐसे भी उल्लेख हैं कि नाग या शेर या सिंह जैसे पशु भी बुद्धपुरुषों के पास आकर बैठते थे। भगवान, इसका राज क्या है?
4आपने मुझे नाम दिया है: योगानंद। इसका रहस्य समझाएं?
5—जब भी मैं आपकी बातें सुनता हूं तो मेरा शादी करने का पक्का इरादा चकनाचूर हो जाता है। लेकिन जब भी मैं अपनी ओर से सोचता हूं तो मुश्किल में पड़ जाता हूं कि शादी करूं या न करूं। आपने पिछले दो दिन में बताया कि समझदार आदमी को शादी करनी ही नहीं चाहिए। अब बताएं भगवान, मैं क्या करूं? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। कृपया मुझे मार्ग दिखावें!


पहला प्रश्न: भगवान,
आप कहते हैं कि धर्म स्वीकार है, तथाता है। और आप यह भी कहते हैं कि धर्म विद्रोह है।
धर्म एक साथ तथाता और विद्रोह दोनों कैसे है?

आनंद मैत्रेय,
धर्म स्वीकार है--स्वभाव का; और विद्रोह है--उस सबसे, जो स्वभाव पर जबरदस्ती आरोपित किया गया है।
धर्म है तथाता--अपनी निजता की; और विद्रोह है--उस सबसे, जो दूसरों ने तुम्हारे ऊपर थोप दिया है।
धर्म है तथाता--चैतन्य के संबंध में; और विद्रोह है--समाज से, परंपरा से, रूढ़ि से, संस्कारों से।
जैसे ही बच्चा पैदा होता है, समाज उसे अपने रंग-ढंग में ढालना शुरू कर देता है; कोई चिंता नहीं करता उसके स्वभाव की; किसी को फिक्र नहीं है कि वह जुही होने को है, कि गुलाब, कि चंपा, कि कमल। किसी को फिक्र नहीं है--वह प्रार्थना से परमात्मा को जान सकेगा या ध्यान से? कृष्ण उसे भाएंगे कि बुद्ध? सूफियों का रास्ता उसके मन को आनंद देगा कि झेन का रास्ता? योग उकसे अनुकूल होगा या प्रतिकूल? किसी को चिंता नहीं है उसके स्वरूप की। चिंता है इस बात की कि मैं जो मानता हूं, चाहे मेरे मानने से मुझे भी कुछ न हुआ हो, मगर वही इस छोटे से नये आए हुए जगत में सुकुमार स्वरूप पर आरोपित कर दूं, थोप दूं। तो हिंदू घर में पैदा होगा तो उसे हिंदू होना ही पड़ेगा और जैन घर में पैदा होगा तो जैन होना ही पड़ेगा। यह इस जगत में चल रही सबसे बड़ी ज्यादती है।
धर्म जन्म से नहीं मिलता। धर्म की तो प्रत्येक व्यक्ति को जिज्ञासा करनी होती है; खोजना होता है धर्म। दुनिया से धर्म खो गया है, क्योंकि हम खोजने ही नहीं देते किसी को। हम नकली धर्म पहले ही पकड़ा देते हैं। और नकली मैं उसको कहता हूं, जिसको दूसरे तुम्हें पकड़ा दें; जिसे तुमने न चाहा हो; जो तुम्हारी अभीप्सा न हो; जिसके कारण तुम्हारा हृदय न नाचा हो; जिसकी सुगंध से तुम आनंदमग्न न हो गए हो। वह धर्म थोथा है, झूठा है; किसी और के लिए सच्चा रहा होगा, तुम्हारे लिए सच्चा नहीं है।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जिनके लिए भक्ति रास आएगी, मगर संयोगवशात वे ऐसे घरों में पैदा हुए जहां भक्ति की कोई संभावना नहीं है। जैन घर में पैदा हुआ कोई, वहां भक्ति का कोई उपाय नहीं है। वहां भक्ति का कोई अर्थ ही नहीं है। वह शुद्ध ज्ञान का मार्ग है। और मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्हें ज्ञान का मार्ग ही पहुंचा सकता है। मगर वे किसी भक्त संप्रदाय में पैदा हुए हैं--वल्लभ संप्रदाय में पैदा हुए हैं या रामानुज संप्रदाय में पैदा हुए हैं। तो वे जीवन भर करते रहेंगे पूजा-पाठ, तालमेल उनका बैठेगा नहीं; प्राण उनके दूर-दूर रहेंगे, अछूत रह जाएंगे। पूजा भी चलती रहेगी और पूजा कभी होगी भी नहीं, क्योंकि पूजा ऐसे थोड़े ही होती है। तुम्हारे अंतर्जगत से आविर्भूत होनी चाहिए।
जैसे हम पुराने समय में--और अब भी इस देश में--बाल-विवाह कर देते थे, मां-बाप तय कर देते थे कि किसी लड़की से तुम्हारा विवाह हो, किस लड़के से तुम्हारा विवाह हो। न तो लड़की से पूछा जाता, न लड़के से। जिनको जीना है साथ-साथ, उनको छोड़ कर और सबसे पूछा जाता--पंडित से, पुरोहित से, ज्योतिषी से। और सब बातों की चिंता ली जाती कि जिस परिवार की लड़की है, वह कुलीन है या नहीं? उस परिवार की प्रतिष्ठा है या नहीं? उस परिवार के पास धन है या नहीं? और सब बातें देखी जातीं, एक बात भर छोड़ दी जाती कि ये दो व्यक्ति जिनको हम साथ-साथ बांधे दे रहे हैं, एक-दूसरे के लिए बने भी हैं या नहीं? यह कौन तय करे? यह कैसे तय हो? इसीलिए बाल-विवाह कर देते थे, क्योंकि अगर ये युवक हो गए तो विद्रोह करेंगे। ये कहेंगे, यह लड़की तो मुझे रास आती नहीं; यह लड़का तो मुझे जमता नहीं। फिर अड़चन होगी। इसलिए बाल-विवाह कर दो।
जैसा बाल-विवाह था, ऐसे ही तुम्हारा धर्म के संबंध में बाल-विवाह किया गया है।
मेरी दृष्टि में, जब तक तुम वयस्क न हो जाओ...राजनीति में भी वोट देना हो तो इक्कीस वर्ष की उम्र चाहिए। राजनीति जैसी मूढ़तापूर्ण दुनिया में भी इक्कीस वर्ष का अनुभवी व्यक्ति चाहिए, तो धर्म के जगत में तो कम से कम बयालीस साल! तो मुक्ति से खोजने दो। मेरे हिसाब से बयालीस साल की उम्र तक आते-आते व्यक्ति इस योग्य होता है कि तय कर पाए। जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव, भूल-चूकें, भटकना, फिर लौटना, प्रयोग, बहुत से प्रयोग--ऐसे धीरे-धीरे निचोड़ पाता है सारे को कि अब मैं कहां जाऊं। कौन मंदिर मेरा मंदिर है? कौन सा मंदिर मेरी मधुशाला बनेगा? कहां मैं मस्त हो जाऊंगा? कहां उठेगी महक मेरे जीवन में?
जब तक कोई व्यक्ति स्वयं नहीं खोजता, तब तक उस पर हम जो भी थोप दें...और हम बड़ी अच्छी भावना से ही थोपते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मां-बाप की कोई बुरी भावना होती है। मगर अच्छी भावनाओं से नरक का रास्ता पटा हुआ है। अच्छी भावनाओं से क्या होता है? दृष्टि ही नहीं है। अंधे हो, अच्छी भावना क्या करेगी? तुम्हारे मां-बाप तुम पर थोप गए, उनके मां-बाप उन पर थोप गए थे। तुम अपने बच्चों पर थोप जाओगे, वे अपने बच्चों पर थोप देंगे। कोई इसकी चिंता नहीं करेगा कि तुम्हारे मां-बाप के जीवन में धर्म की कोई बात थी, धर्म का कोई संगीत था, धर्म का कोई उत्सव था। जब उनके जीवन में न था तो तुम्हारे ऊपर वे थोप गए; जिंदगी भर वे ढोते रहे बोझ, अब तुम ढोओ बोझ। और जब तुम थक जाओ तो अपने, बच्चों की छाती पर चढ़ा जाना इस बोझ को और ढोते रहना, क्योंकि मां-बाप ढोते रहे।
धर्म पैदाइश से नहीं मिलता, इसलिए बगावत की जरूरत पड़ती है। रूढ़ि से बगावत करनी होगी, परंपरा से बगावत करनी होगी--तभी तुम धर्म को पा सकोगे। सोचो कि बुद्ध अगर हिंदू ही रह गए होते--पैदा तो हिंदू घर में हुए थे--तो दुनिया वंचित हो जाती--एक महत संपदा से वंचित हो जाती! सोचो कि जीसस अगर यहूदी ही रह गए होते--मां-बाप तो यहूदी थे--तो दुनिया, जीसस ने जो दान दिया जगत को, उसकी कल्पना करो, दुनिया कितनी दरिद्र रह गई होती! मोहम्मद तो मूर्ति-पूजक घर में पैदा हुए थे, लेकिन इस्लाम ने जो निराकार की तरफ हाथ उठाए, वे कभी न उठते। अगर मोहम्मद अपने मां-बाप से राजी हो गए होते...।
इस जगत में जो भी श्रेष्ठ पैदा हुआ है वह बगावत से पैदा हुआ है। बगावत किससे? बगावत उस सबसे जो तुम पर थोपा गया है। वह कितना ही सुंदर लगता हो, वह कितना ही रंगीन हो, मगर जो थोपा गया है वह मिथ्या है। तुम्हें अपने स्वरूप की खोज करनी होगी। तुम्हें अपने भीतर उतरना ही होगा, खोदना ही होगा। तुम्हें अपने जलस्रोत तलाशने ही होंगे।
यह जरा दुस्तर कार्य है। इसलिए बहुत थोड़े से लोग इस यात्रा पर निकलते हैं। कौन झंझट करे! मान लेते हैं जो दूसरे कहते हैं, वही मान लेते हैं। इस मान लेने में धर्म नहीं है। इस मान लेने में धर्म से बचने का उपाय है। इतने लोग आस्तिक हैं जितने लोग मंदिर, मस्जिदों, गिरजों और गुरुद्वारों में जाते हैं? अगर इतने लोग आस्तिक होते तो पृथ्वी की यह दशा होती? इतनी आस्तिकता और पृथ्वी ऐसा नरक होती? इतने मंदिर, इतने मस्जिद, इतने गिरजे, इतने गुरुद्वारे, इतने दीप, इतने नैवेद्य, इतने आराधन, इतने पंडित, इतने पुजारी, इतने पुरोहित--परिणाम क्या है? जरूर कहीं कुछ गलत हो रहा है, कहीं मौलिक रूप से गलत हो रहा है, कहीं जड़-मूल से क्रांति की जरूरत है।
मेरे देखे जो सबसे बुनियादी भूल हो रही है, वह भूल है: हम धर्म को थोप रहे हैं। और सभी धर्मगुरु बड़े उत्सुक होते हैं कि बच्चों को जल्दी से जल्दी थोप दो, यहूदी बना लो, ईसाई बना लो, हिंदू बना लो। कहीं ऐसा न हो कि बच्चे में समझ आ जाए! खुद सोचने लगे, इसके पहले उसकी खोपड़ी में भर दो जो तुम्हें भरना है। सोचने के पहले, विचारने के पहले। उसे मौका मत दो, क्योंकि कौन जाने सोच-विचार करे तो कहां जाए, क्या करे! फिर मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जल्दी से पैरों में जंजीर बांध दो, हाथों में हथकड़ियां पहना दो। हां, हथकड़ियों को कहना आभूषण हैं। जंजीरों को कहना, कितनी प्यारी हैं! वेद की ऋचाएं लिख देना जंजीरों पर। कुरान की आयतें खोद देना जंजीरों पर। सोने से मढ़ देना। हीरे-जवाहरात जड़ देना। खूब बहुमूल्य बना देना जंजीरों को, ताकि खुद भी छोड़ना चाहे तो न छोड़ सके। घबड़ाए, डरे--इतनी बहुमूल्य चीजें छोड़ी जाती हैं कहीं! और फिर बाप-दादे मानते रहे सदियों-सदियों से, जरूर सच होगा, जरूर कुछ सच होगा। इतने लोग, इतने दिन तक क्या झूठ को मानते रह सकते हैं?
और मैं नहीं कहता कि झूठ है; किसी के लिए सच रहा होगा। इस मौलिक सत्य को स्मरण रखो: जो कसी के लिए सत्य है, जरूरी नहीं तुम्हारे लिए सत्य हो। मेरा सत्य जरूरी नहीं तुम्हारे लिए सत्य हो। जो मेरे लिए अमृत है, तुम्हारे लिए जहर हो सकता है। जो तुम्हारे लिए अमृत है, मेरे लिए जहर हो सकता है। जो औषधि एक मरीज के काम की है, वह सभी के काम की नहीं है। हरेक की बीमारी अलग है। हरेक को औषधि भी अलग चाहिए। लेकिन हम रामबाण औषधियों में भरोसा करते हैं कि बस एक ही औषधि सब में काम कर जाएगी। कोई औषधि नहीं है ऐसी पृथ्वी पर, जो सभी बीमारियों में काम कर जाए। और कोई जीवन-सूत्र ऐसा नहीं है जो सभी के काम आ जाए। भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। दुनिया में बड़ा वैविध्य है। और वैविध्य है, इसलिए दुनिया इतनी सुंदर है। वैविध्य है, इतना दुनिया में रस है। इतने फूल खिले हैं बगिया में, जरा सोचो तो गुलाब ही गुलाब होते तो क्या करते? भैंसों को चराते। करते क्या गुलाब ही गुलाब होते? गुलाब की कोई कीमत होती? नहीं, बहुत ढंग के फूल हैं। इसलिए जगत रंगीन है, सतरंगा है, इंद्रधनुष है।
ऐसे ही मनुष्य भी भिन्न-भिन्न हैं। दो मनुष्य एक जैसे मिले तुम्हें कभी? दो जुड़वां भाई भी एक जैसे नहीं होते, उनमें भी थोड़ा फर्क होता है। शायद अजनबियों को न पहचान में आता हे, लेकिन मां तो पहचानती है। घर के लोग जानते हैं कि कौन कौन है। लाख एक जैसे हों, फिर भी बिलकुल एक जैसे नहीं होते। थोड़ा न बहुत फासला होता है। दो व्यक्ति एक जैसे होते ही नहीं। बुद्धि-भेद होगा। प्रतिभा का भेद होगा। जब दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते तो दो व्यक्तियों को एक जैसी जीवन-व्यवस्था नहीं दी जा सकती।
फिर क्या किया जाए? अगर सम्यक रूपेण समाज को हम नियोजित करना चाहते हों तो हमें व्यवस्था न देनी चाहिए, होश देना चाहिए, सोच-विचार की क्षमता देनी चाहिए। विश्वास नहीं देना चाहिए, विवेक देना चाहिए। अभी तक हम विश्वास देते रहे। हम बच्चों से कहते हैं: मानो। भरोसा करो। हम कहते हैं, इसलिए मानो। मैं तुम्हारा पिता हूं, इसलिए मानो। पिता होने से थोड़े ही कुछ प्रयोजन है। तुम पिता हो, इससे यह अर्थ नहीं होता कि तुम्हें यह अधिकार है कि तुम अपने बच्चे पर अपनी धारणाओं को थोप दो। फिर तो कल कम्युनिस्ट बाप कहेगा कि तू कम्युनिस्ट हो, क्योंकि मैं पिता हूं; कांग्रेसी बाप कहेगा, तू कांग्रेसी हो, क्योंकि मैं पिता हूं। फिर तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। फिर तो बड़ी अड़चन खड़ी हो जाएगी। अपनी धारणाएं तुम बच्चों पर थोपोगे?
नहीं, बच्चों को अगर तुम सच में प्रेम करते हो तो उनको इस योग्य बनाओ, उनको इतनी क्षमता दो सोच की, विचार की; विवेक दो, इतना बोध दो, इतना चैतन्य दो, इतनी जागरूकता दो कि वे अपने जीवन में मार्ग खोज सकें। खोज सकें--किस घाट से मुझे उतरना है? खोज सकें--किस नाव में मुझे यात्रा करनी है? उनको इतना सबल बनाओ कि अगर वे समझें कि नाव से जाना नहीं, तैरना है, तो तैर कर भी जा सकें।
लेकिन हम विश्वास देते हैं। विश्वास कचरा है। विश्वास का अर्थ होता है: विवेक की हत्या, बोध का विनाश। बोध को अंकुरित नहीं होने देना चाहते। और छोटा बच्चा असहाय होता है, तुम पर निर्भर होता है। तुम जो मनवाओगे, मानेगा। तुम जो करवाओगे, वही करेगा। जानता है कि तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम इस मौके का दुरुपयोग कर रहे हो। तुम बच्चे के साथ ज्यादती कर रहे हो। तुम शोषण कर रहे हो उसकी असहाय अवस्था का। इसलिए बगावत।
आनंद मैत्रेय, तुम पूछते हो कि आप कहते हैं धर्म स्वीकार है, तथाता है और यह भी कहते हैं कि धर्म विद्रोह है। हां, दोनों है। तथाता है--अपने स्वभाव के प्रति और विद्रोह है--उस सबके प्रति, जो स्वभाव नहीं है तुम्हारा, लेकिन दूसरे तुम पर थोप गए हैं। वे कोई भी हों, माता हों, पिता हों, परिवार-जन हों, शिक्षक हों, अध्यापक हों, पुरोहित हों, पंडित हों, धर्मगुरु हों, वे कोई भी हों। जो तुम पर थोप गए हैं उस सब कचरे को हटा देना जरूरी है। उसको तुम हटा सको तो ही तुम्हारी आंख शुद्ध हो, तुममें देखने की क्षमता आए। तुम मुक्त भाव से विचार कर सको, तलाश कर सको।
परमात्मा को खोजना होता है, मानना नहीं होता। मानने वाले कभी उसे पाते नहीं। जिसने माना उसने गंवाया। अगर पाना हो तो मानना मत। मानना नपुंसकता का लक्षण है। मानने का मतलब यह है कि कौन झंझट करे, हम तो ऐसे ही मान लेते हैं। और चीजें तुम ऐसे ही नहीं मान लेते। तुम अगर भिखमंगे हो और मैं कहूं कि नहीं तुम भिखमंगे नहीं हो, तुम तो सम्राट हो, मान लो--तुम नहीं मानते। तुम कहते हो: ऐसे कैसे मान लें? बैठे हैं सड़क पर, हाथ में भिक्षापात्र लिए, वह भी टूटा-फूटा, भीख मांग रहे हैं। भीख तो आप देते नहीं, उलटा कहते हो तुम सम्राट हो, मान लो। ऐसे कैसे मान लें? और मैं मान लूंगा तो क्या होता है? अभी भोजन मुझे खरीदना है, दुकान वाला तो नहीं मानेगा। वह कहेगा पैसे लाओ।
लेकिन जिसको ईश्वर का कोई पता नहीं है, उन भिखमंगों को तुमने समझा दिया है, मनवा दिया है कि ईश्वर है, मान लो। जिनको आत्मा का कुछ पता नहीं है, उनको पिला दिया है; मां के दूध के साथ घोंट-घोंट कर पिला दिए हैं शास्त्र, कि मान लो आत्मा है।
और यही बात नास्तिक देशों में की जा रही है। कोई भेद नहीं है। रूस में, चीन में अब यह समझाया जा रहा है कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है। तुम जो बच्चों को पिला दो, अब यह पिलाया जा रहा है। बच्चे इसी को पी रहे हैं। बच्चे तो मुसीबत में हैं। जो पिलाओगे, वही पीएंगे। बच्चे कर भी क्या सकते हैं? बच्चों को धोखा देने के लिए देखा, माताएं बाजार से रबर के धोखे खरीद लाती हैं--चुसनी। अब गरीब बेटा, उसको कुछ पता नहीं, वह झूले में पड़ा है। उसको भूख लगी, वह रोता है, उसके मुंह में चुसनी थमा दी। वह गरीब रबर को ही चूसता रहता है।
तुम्हारे विश्वास चुसनी हैं, इनमें से कुछ निकलेगा नहीं। चूसो कितना ही, थक जाओगे, और कुछ भी नहीं होगा। मगर छोड़ते भी न बनेगा, क्योंकि जो पकड़ा गए उनके प्रति अनादर होता मालूम होता है। जो पकड़ा गए, उनका तुम पर इतना प्रेम था कि गलत कैसे पकड़ा जाएंगे! वह तो यही बड़ी अच्छी बात है कि बच्चे बड़े होकर चुसनियां छोड़ देते हैं, नहीं तो कहें कि हमारे बाप-दादे दे गए, ऐसे छोड़ सकते हैं? तो तुम जगह-जगह लोगों को देखोगे चुसनियां लगाए चले जा रहे हैं! मगर चुसनियों की आदत पड़ जाती है, वह नहीं छूटती। तो कोई पान चबा रहा है, कोई तंबाकू चबा रहा है, कोई सिगरेट पी रहा है। ये सब चुसनियों के परिपूरक हैं।
तुम मनोवैज्ञानिकों से पूछो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब तक हम बच्चों को चुसनियां पकड़ाते रहेंगे, तब तक दुनिया से तंबाकू और पान और सिगरेट इस तरह की चीजें मिटाई नहीं जा सकतीं। कुछ न कुछ मुंह में चाहिए बच्चे को। चुसनी तो दबा नहीं सकता, क्योंकि लोग क्या कहेंगे! तो बड़ों के लिए हमने जरा और तरह की चुसनियां बना ली हैं, जो और घातक हैं। चुसनी तो बिलकुल निर्दोष है। कुछ मिलेगा नहीं, यह ठीक है; मगर कम से कम जहर तो नहीं फैलेगा शरीर में। लेकिन तंबाकू चबा रहे हैं! तंबाकू भी कोई चबाने जैसी चीज है? लेकिन अभ्यास तो तुम जिस चीज का कर लो। लोग धुआं पी रहे हैं। जैसे शुद्ध हवा पीते-पीते बिलकुल थक गए हैं! क्या प्राणायाम की तरकीब निकाली है तुमने! ये सब चुसनियां हैं।
मेरे पास अगर कोई आकर पूछता है कि मैं सिगरेट कैसे छोडूं, तो उसको मैं कहता हूं कि छोड़ने का एक ही उपाय है। और मैंने बहुत लोगों की सिगरेट छुड़वाई है। सिगरेट छुड़वाने में मेरी कोई आकांक्षा नहीं कि कोई छोड़े, क्योंकि मैं यह नहीं मानता कि सिगरेट पीने वाला नरक जाएगा। सिगरेट पीने में कोई पाप मुझे नहीं दिखाई पड़ता। बुद्धूपन तो है, मगर पाप बिलकुल नहीं है! अब बुद्धू तो यहीं नरक बहुत भोग रहे हैं, अब इनको और क्या नरक भेजना! ये तो वैसे ही काफी तकलीफ पा रहे हैं, अब इनको और क्या तकलीफ देनी! मारों को क्या मारना! तो मेरा तो मानना है कि सब बुद्धू स्वर्ग जाएंगे, क्योंकि काफी कष्ट वे यहीं उठा ले रहे हैं, अपने हाथ से उठा ले रहे हैं, इनके लिए और शैतान वगैरह का इंतजाम करने की क्या जरूरत है? ये तो यहीं अपने को जलाए ले रहे हैं, खाक किए ले रहे हैं अपने सीने को। अब इनके लिए और नरक में चूल्हा जलाओ और उसके ऊपर कढ़ाई चढ़ाओ! तेल की वैसे ही कमी है, उसमें फिर इनको पकाओ पकोड़ों की तरह! ये तो खुद ही अपने को पका रहे हैं, क्या इन बेचारों को कष्ट देना! ये तो शैतान का काम खुद किए दे रहे हैं। ये तो अपने दुश्मन खुद हैं।
मैंने तो सुना है यह कि जो भी आदमी मरते हैं, अगर वे नरक पहुंचते हैं, तो पहला सवाल यह पूछा जाता है: कहां से आ रहे? अगर वे कहते हैं पृथ्वी से, तो वे कहते हैं: स्वर्ग जाओ। नरक तुम भोग चुके, अब यहां किसलिए आए हो? तुमने देख लिया नरक, अब और क्या देखने को बचा है?
मूढ़ता तो है, पाप नहीं। इसलिए अगर कोई मुझसे पूछता है तो ही मैं सलाह देता हूं, अन्यथा मैं नहीं कहता कि सिगरेट छोड़ो। अभी जिंदगी में और बड़ी-बड़ी चीजें हैं जो तुम पकड़े हुए हो, वे छुड़ाने की हैं। सिगरेट-विगरेट छुड़ाने से क्या होगा? और सिगरेट छोड़ दोगे तो क्या फर्क पड़ता है, कुछ और पकड़ लोगे। क्योंकि अगर मूल जड़ कहीं और है, तो बीमारी इधर से बदल कर दूसरी तरफ से प्रकट होनी शुरू हो जाएगी।
स्त्रियां--कम से कम भारत में--सिगरेट नहीं पीतीं। अशोभन माना जाएगा--स्त्री की लज्जा! पुरुष ही समझाते रहे उनको, खुद तो मजा लेते रहे जिस-जिस चीज का लेना है, स्त्रियों को समझाते रहे कि तुम सती हो, सीता हो, सावित्री हो! अब सीता मैया सिगरेट पीएं, जंचेगा? मर्द बच्चों की बात और है। यह पुरुष ही समझाते रहे और स्त्रियां समझती रहीं। न उनको पढ़ने दिया, न लिखने दिया, न सोचने दिया, न समझने दिया। तो जो समझाया वह उन्होंने मान लिया। मगर वे भी बदला लेती हैं। बदला लेती हैं, वे भी फिर जान के पीछे पड़ी रहती हैं पुरुषों के, कि सिगरेट बंद करो। यह क्या लगा रखा है? पीना सिगरेट का, मुंह से बास आती है। वे भी जान खाती हैं। खाएंगी ही, क्योंकि तुमने उनकी स्वतंत्रता छीनी, उसका बदला वे भी लेंगी परोक्षरूपेण। वे भी तुम्हें सताएंगी।
स्त्रियां सिगरेट नहीं पीतीं तो वे बकवास करती हैं। मुंह चलाना तो पड़ेगा ही न!
मैंने सुना, एक बस शराबघर के सामने रुकी। बड़ी लंबी बस! ड्राइवर उतरा और उसने आकर शराबघर के मालिक को कहा कि तुम्हें थोड़ी अड़चन तो होगी। ये बस में साठ लोग हैं, ये सब बहरे हैं और गूंगे हैं। ये बहरे-गूंगों के आश्रम के निवासी हैं। इनको हम नगर घुमाने आए थे। ये सब कह रहे हैं कि थोड़ी शराब चख लें। इन बेचारों को मौका भी कभी मिला नहीं। एक अवसर मिल गया है बाहर आने का, तो थोड़ी-थोड़ी सबको पिला दो। मगर ये बोल नहीं सकते, सुन भी नहीं सकते, तो तुम इनके इशारे समझ लो। अगर कोई बायां हाथ उठा कर कहे तो समझना कि वह व्हिस्की मांग रहा है, अगर दायां हाथ उठा कर कहे तो समझना कि वह बियर मांग रहा है।
इस तरह उसने सब प्रतीक बता दिए। साठ आदमियों को छोड़ना, इतना बड़ा नुकसान उठाने के लिए मालिक भी राजी नहीं था। और फिर दया भी आई उसे। उसने कहा कि नहीं, ले आओ, कोई हर्जा नहीं। सब ठीक-ठाक चला। सबके इशारे उसने समझ कर सबकी सेवा की जितनी बन सकी। फिर पांच-सात उनमें से उठ कर आकर बिलकुल उसके काउंटर के पास खड़े हो गए और एकदम मुंह खोलें और बंद करें। तो वह थोड़ा घबड़ाया कि यह क्या कह रहे हैं, क्योंकि यह तो उस ड्राइवर ने बताया नहीं था--मुंह खोलना और बंद करना! और थोड़ी उसे बेचैनी भी होने लगी कि ये बेचारे कह क्या रहे हैं--मुंह खोलना, बंद करना! मगर यह प्रतीक उसे मालूम भी नहीं था, तो वह जरा टाला भी कि कौन बकवास करे, अब फिर जाकर ड्राइवर से पूछो! मगर थोड़ी देर में देखा कि पांच सात और आ गए। और वे तो खड़े ही हैं। अब चौदह-पंद्रह हो गए। तो उसे और जरा घबराहट होने लगी। फिर तो उसने देखा कि वे साठ के साठ खड़े हो गए घेर कर काउंटर और सब मुंह खोलें और मुंह बंद करें। वह भागा, उसने ड्राइवर से पूछा कि भई यह तुमने बताया ही नहीं कि जब मुंह खोलें और बंद करें, तो क्या करना, इनका मतलब क्या है?
ड्राइवर ने सिर पीट लिया। उसने कहा, अब मुश्किल हो गई। वे गाना गा रहे हैं! और अब उनको घर ले जाना बहुत मुश्किल है। तुमने ज्यादा पिला दी। उल्लू के पट्ठे, इतनी पिलानी थी? अब बहुत मुश्किल मामला है। अब उन साठ को बस में भरना बहुत मुश्किल है। अब तो वे गाना पूरा करेंगे; कितनी देर में पूरा करेंगे कहा नहीं जा सकता। अब तो वे मस्ती में आ गए हैं। जो धार्मिक हैं वे भजन कर रहे होंगे। जो गैर-धार्मिक हैं वे फिल्मी गाना गा रहे हैं। मुंह खोल रहे हैं, बंद कर रहे हैं!
स्त्रियां सिगरेट पी नहीं सकतीं, तो अब क्या करें? वे मुंह खोलती हैं, बंद करती हैं। वे एकदम लगी ही रहती हैं चर्चा में। उनकी चर्चा का अंत ही नहीं आता। बात में से बात निकालती रहती हैं, बेबात की बात निकालती रहती हैं।
ये सब चुसनियां हैं, जो बचपन में दी गई थीं, फिर तुमने छोड़ दीं, मगर वह आदत नहीं छूटी। वह आदत अभी भी पकड़ी हुई है। वह आदत बहुत गहरी हो गई।
तुम्हारे विश्वास भी सब चुसनियां हैं। तुम्हें पकड़ा दिए हैं। थोथे हैं। हनुमान जी के मंदिर के सामने से निकले, एकदम झुक कर नमस्कार! न तुमने कभी सोचा कि यह पत्थर जिसको कुछ लोगों ने पोत-पात कर खड़ा कर दिया, ये कैसे हनुमान जी! क्या कर रहे हो तुम? कहां सिर झुका रहे हो, किसलिए सिर झुका रहे हो? नहीं, मगर सिर झुक ही जाता है एकदम से। बचपन से ही झुकता रहा। मां-बाप पकड़-पकड़ कर झुका गए; बिठा गए भाव; डर बिठा गए कि अगर सिर नहीं झुकाया तो मुश्किल हो जाएगी।
एक गांधीवादी सज्जन का पत्र आया है, फोन भी आया कि आप इंदिरा को कहें कि इस भारत पुण्य-भूमि में ऐसा कार्य नहीं होना चाहिए। सुना है कि अब फिर बंदर अमेरिका भेजे जा रहे हैं। और बंदर तो बजरंगबली के प्रतीक हैं, हनुमान जी के प्रतीक हैं। बंदरों को अमेरिका बेचना ठीक नहीं है। यह तो बड़ी अधार्मिक बात हो रही है।
मैंने उनको खबर भिजवाई कि तुम्हें भी जाना है? तो बड़ी कृपा होगी! और बाकी गांधीवादियों को भी ले जाओ। और जितने बजरंगबली के भक्त हों उनको भी ले जाओ। छुटकारा करो यहां से। और बजरंगबलियों को भी लेते जाओ, जगह-जगह बहुत हैं। उनको भी ले जाओ। सब भक्तों को जिनको भी ले जाना है, ले जाओ। छुटकारा करो, पिंड छोड़ो।
अब बंदर ही न चले जाएं!
लखनऊ में एक बंदर पिछली दफा पागल हो गया, तो उसको पुलिस पकड़ न सके, क्योंकि हिंदू खिलाफ। उसको पकड़ो तो मतलब हनुमान जी को पकड़ रहे हो! और बंदर पक्का लफंगा था वह। वह लोगों को सताए, खासकर रिक्शेवालों के खिलाफ था वह। पता नहीं क्यों, शायद रिक्शेवाले बिठालते न हों बंदरों को! अब कौन रिक्शेवाला बंदरों को बिठालेगा? और फिर पैसा किससे लोगे? तो वह रिक्शावालों पर हमला करे। उत्तर प्रदेश की विधान सभा में तक सवाल खड़ा हुआ कि अब क्या करना है! इस तरह की मूढ़ता सिर्फ इस पुण्यभूमि में ही हो सकती है कि विधान सभाओं में इस पर विचार-विमर्श हो कि अब करना क्या है। मतलब बंदर को पकड़ा जा नहीं सकता, गोली मारी नहीं जा सकती। अरे बंदर कोई कुत्ता थोड़े ही है कि गोली मार दो! वह तो तुम कुत्तों को गोली मार देते हो, म्युनिसिपल कमेटी के लोग पकड़ कर ले जाते हैं, तो बड़ा अच्छा है कि कुत्तों की कोई धार्मिक परंपरा नहीं है, नहीं तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती।
वह तो क्यों लोग चूहों को भी मारने दे रहे हैं, यह भी हैरानी की बात है; वह गणेश का वाहन है। और तभी तो गणेश जी प्रसन्न नहीं हैं तुम पर, लिखो लाख तुम श्री गणेशाय नमः, वे बिलकुल नाराज रहते हैं। उनके चूहे मारे जा रहे हैं। अरे किसी की सवारी छीनोगे तो कोई नाराज नहीं होगा? पता नहीं, अभी तक क्यों खयाल नहीं आया धार्मिक पुरुषों को, महात्माओं को, शंकराचार्यों को, विनोबा भावे को, अभी तक क्यों खयाल नहीं आया! गौ माता और बंदरों की तो रक्षा होती है, चूहों की क्यों नहीं?
मूढ़तापूर्ण बातें जो भी हमें पकड़ा दी जाएं, वे फिर हम जिंदगी भर पकड़े बैठे रहते हैं। इसलिए विद्रोह उस सबसे, जो हमारे ऊपर थोप दिया गया है। और स्वीकार उस सबका जो हमारे भीतर हमारे बोध में जन्मे, जगे।
इसलिए मेरे वक्तव्य में कोई विरोधाभास नहीं है। स्वीकार--स्वयं का, और विद्रोह, जो भी उस स्वयं की सत्ता के विपरीत जाता हो, उस सब से विद्रोह। फिर चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े, कीमत चुकाने जैसी है। ऐसे ही व्यक्ति की आत्मा पैदा होती है। इन्हीं चुनौतियों में व्यक्ति की आत्मा पैदा होती है।
कायरों के पास आत्मा नहीं होती; सिर्फ उनके पास आत्मा होती है जो चुनौती स्वीकार करते हैं। जो संघर्ष स्वीकार करते हैं, जो आग से गुजरने को तैयार होते हैं, उनका ही सोना शुद्ध होकर कुंदन बनता है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
मीरा के इस वचन पीवत मीरा हांसी रे, से कई गुना अदभुत वचन तो यह है--म्हारो देश मारवाड़--जिसके कारण मेरे हृदय में अन्य जाग्रत व्यक्तियों की अपेक्षा मीरा का अधिक सम्मान है। आप क्या कहते हैं?

प्रफुल्ल भारती,
जरूर मीरा ने कहा होगा: म्हारो देश मारवाड़! देख कर मारवाड़ की हालत, देख कर मारवाड़ियों की हालत कि धन्य रे देश मारवाड़! चकित हुई होगी मीरा, चौंकी होगी, कि ऐसे देश में भी और मैं पैदा हो गई! यह चमत्कार ही है। यह प्रभु की कृपा ही समझो। मारवाड़ और मीरा पैदा हो जाए! मारवाड़ में तो और ही तरह के लोग पैदा होते हैं। मारवाड़ का मीरा से क्या लेना-देना? और कहीं होती तो चलती। मारवाड़ में पैदा हो गई! चौंक कर कहा होगा: म्हारो देश मारवाड़!
प्रफुल्ल भारती, तुम क्या मारवाड़ी हो, जो तुम्हें यह बात हृदय को बहुत प्रसन्न करती है?
एक कवि महोदय साहित्य-प्रेमी मारवाड़ी सेठ धनीराम जी के घर पहुंचे। काव्य-संग्रह अंदर भिजवा कर वे परिणाम की प्रतीक्षा करने लगे। धनीराम जी ने कुछ पृष्ठ पढ़े और नौकर को हुक्म दिया, मुनीम जी से कहो, तुरंत पचास रुपये कविजी को दे दें। नौकर अभी कुछ कदम बढ़ा ही था कि धनीराम जी ने फिर आवाज दी, रुको, सौ रुपये देना। फिर कुछ और पृष्ठ पढ़ कर चिल्लाए, पूरे डेढ़ सौ देना। पर आगे के पृष्ठ पढ़ कर वे अपना धैर्य खो बैठे। दूसरे नौकर को उन्होंने हुक्म दिया, इस कवि को धक्के मार कर भगा दो। अगर मैं इसकी कविता पढ़ता गया तो कंगाल हो जाऊंगा।
मारवाड़ी के सोचने के ढंग अपने ही तरह के होते हैं। उसकी पकड़ अपने तरह की होती है। मारवाड़ी की पकड़ होती है धन पर। और मीरा की पकड़ है प्रेम पर। और धन और प्रेम दुश्मन हैं। इसलिए कहा होगा: म्हारो देश मारवाड़! कि वाह रे वाह, हे परमात्मा, तूने भी कैसा चमत्कार किया--म्हारो देश मारवाड़!
प्रेम और धन विपरीत हैं। क्यों? क्योंकि अगर कोई प्रेमी हो तो धन को इकट्ठा करना बहुत मुश्किल हो जाए। प्रेम बांटता है। प्रेम बांटना जानता है। प्रेम का अर्थ ही बांटना होता है। तुम जिसको प्रेम करते हो, उसको तुम सब दे डालना चाहोगे, कुछ बचाओगे न, कुछ संकोच न करोगे देने में। प्रेम कंजूस नहीं होता, कृपण नहीं होता। कृपण भी कहीं प्रेम होता है!
और जो धन को पकड़ता है, एक बात पक्की है, उसको अपने प्रेम को मार डालना पड़ता है। उसके भीतर से प्रेम हट जाना चाहिए। अगर प्रेम जरा भी बचा तो धन को इकट्ठा करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए कृपण व्यक्ति में तुम प्रेम का अभाव पाओगे, प्रेम हो ही नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ चलानी बहुत मुश्किल हैं, असंभव हैं। असल में, जो लोग प्रेम के जीवन में विकास नहीं कर पाते, वे ही लोग कृपण हो जाते हैं। जिनके लिए प्रेम का आनंद नहीं मिला, वे सोचते हैं: जो प्रेम से नहीं मिला, शायद धन से मिल जाए। जिन्होंने प्रेम को जाना है, उन्होंने तो अमृत को पा लिया। अब उन्हें चिंता नहीं है। हो धन तो ठीक, न हो धन तो ठीक। जिन्होंने प्रेम को जान लिया वे मृत्यु के पार हो गए।
धन को आदमी क्यों पकड़ता है? इतनी जोर से क्यों पकड़ता है? क्यों इतने जोर से इकट्ठा करता है? इसी डर से कि कल बुढ़ापा होगा, परसों मौत आएगी, कब जरूरत पड़ जाए! और कौन है इस जगत में संगी-साथी? सिवाय धन के और कोई संगी-साथी दिखाई नहीं पड़ता। धन तो साथ देगा, अपनी तिजोड़ी में बंद है। अपना और तो कोई भी नहीं है। किसका भरोसा करो? जो किसी का भरोसा नहीं कर सकता, वह धन का भरोसा करता है। जो किसी का भरोसा कर सकता है, वह धन की चिंता नहीं करता। वह कहता है: इतना प्रेम दिया है, कोई न कोई फिक्र कर लेगा। और जिसने प्रेम दिया है, वह जानता है कि प्रेम लौटेगा। प्रेम लौटता है, अनंत गुना होकर लौटता है।
मीरा तो प्रेम-दीवानी है, इसलिए कहा होगा कि म्हारो देश मारवाड़? यह प्रश्नवाचक विचार उठा होगा कि कैसे यह घटना घटी। मगर परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है, वह तो कुछ भी कर सकता है। मीरा को भी मारवाड़ में पैदा कर सकता है! सर्वशक्तिमान को क्या अड़चन है? लंगड़ों को पहाड़ चढ़ा दे, अंधों को दर्शन करा दे। अरे जीसस को पानी पर चला दिया! मूसा के लिए समुद्र में राह बना दी, समुद्र कट कर खड़ा हो गया। मगर यह चमत्कार कुछ भी नहीं, इससे बड़ा चमत्कार यह है कि मारवाड़ में मीरा को पैदा कर दिया।
चंदूलाल ने एक मारवाड़ी सेठ को राह चलते हाथ पकड़ कर रोक लिया और बोला, सुनिए जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।
क्या?
क्या मैं आपसे कुछ मांग सकता हूं?
सेठजी बोले, घबड़ाओ मत ऐ नौजवान, मैं जानता हूं तुम क्या मांगोगे। बड़ी खुशी से मांगो। तुम यही चाहते हो न कि मैं अपनी सुंदर बेटी का विवाह तुम्हारे साथ कर दूं?
चंदूलाल ने डरते-डरते कहा, नहीं, जी नहीं। मैं तो केवल पांच रुपये उधार चाहता हूं।
क्या कहा? पांच रुपये उधार चाहिए! मारवाड़ी ने अपनी पगड़ी सम्हालते हुए आश्चर्य से कहा। वह मैं तुम्हें कैसे दे सकता हूं? अरे मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं।
लड़की देने को राजी था, पांच रुपये उधार देने को राजी नहीं है। लड़की तो देने को खुशी से राजी था कि चलो झंझट मिटी, खुद ही आ गया अपने-आप। तलाश भी न करनी पड़ी। परमात्मा ने भेज दिया मालूम होता है। एकदम दिल बाग-बाग हो गया होगा। लेकिन जब पांच रुपये मांगे तो उसने पगड़ी सम्हाल ली--यह बेईमान तो गलत बातें कर रहा है! कभी पहले देखा भी नहीं, जान-पहचान भी नहीं, जात-पांत का भी पता नहीं, घर-ठिकाने का भी कुछ हिसाब नहीं--और एकदम चला पांच रुपये मांगने! एकदम पांच रुपये!

सम्मेलन के मंच पर काका किया किलेष,
कुश्ती लड़ने लग गए, रूपक, उपमा, श्लेष।
रूपक, उपमा, श्लेष, लगा कर तुम में धक्के,
छंद छोड़ छह-छह लाइन के मारे छक्के।
अनुप्रास, कल्पना, कवित्व, कमाल देखिए,
यह तो मेरी दुलकी है, रोहाल देखिए।

लट्टू हम पर हो गए सेठ हुलासी राव,
अति सुंदर है आपकी कविता काका शाब!
कविता काकाशाब, हाश्यरश म्हाने भायो,
पण कविता को भाव शमझ में कोन्नी आयो।
सेठानी ने कहा--भाव के पूछो वान्ने।
छै पांती की कविता के दे दो छै आन्ने।

मारवाड़ी की दुनिया है--पैसा। हर चीज का भाव पैदा। हर चीज कीमत में तौली जाती है। धन से बड़ी और कोई चीज नहीं है।
इसलिए प्रफुल्ल, मीरा ठीक ही कहती है: म्हारो देश मारवाड़!
और मारवाड़ ने मीरा के साथ क्या किया? कौन सा सदव्यवहार किया? सब तरह का दर्ुव्यवहार किया। सब तरह से बेइज्जत किया। सब रह से बदनाम किया। मारवाड़ छोड़ने को बाध्य किया। मीरा के साथ सदव्यवहार तो नहीं किया। हम तो सोचते थे कि खैर मंसूर, जीसस, सुकरात, पुरुष थे, लोगों ने अगर दर्ुव्यवहार किया तो चलेगा। लेकिन मीरा तो स्त्री थी, स्त्री के साथ भी सज्जनता न बरत सके; उसके साथ भी जितनी दुष्टता बरत सकते थे, बरती।
लेकिन मीरा एक और ही जगत की वासिनी है--प्रेम के जगत की। उसके हृदय में तो सिर्फ प्रेम के ही फूल खिल रहे हैं, प्रेम के ही दीये जल रहे हैं। इसलिए लात मार दी धन-दौलत पर, लात मार दी राजपाट पर, लात मार दी महलों पर। फिरने लगी गांव-गांव। हो गई भिखारिन। सब लोक-लाज छोड़ दी।
प्रेम चिंता ही नहीं करता किसी लोक-लाज की। प्रेम अभय है। और प्रेम परमात्मा से अपने को इतना निकट पाता है, इतना अपने को परमात्मा के हाथों में पाता है, कि न कोई चिंता न कोई फिक्र।
मीरा अनूठी स्त्री है। पृथ्वी पर बहुत कम स्त्रियां हुईं, जो इस कोटि में आती हों। सूफियों में एक स्त्री हुई--राबिया। और कश्मीर में एक स्त्री हुई--लल्ला। और मीरा। ये तीन नाम हैं। ये तीन नाम ऐसे हैं स्त्रियों में, जैसे बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट पुरुषों में। उसी कोटि के! उसी महिमा के।

तीसरा प्रश्न: भगवान,
आज तक जाने गए बुद्धपुरुषों को किसी पशु ने मारा हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। और शास्त्रों में कई ऐसे भी उल्लेख हैं कि नाग या शेर या सिंह जैसे पशु भी बुद्धपुरुषों के पास आकर बैठते थे। भगवान, इसका राज क्या है?

कैलाश गोस्वामी,
मनुष्य की एक खूबी है: वह गिरे तो पशुओं से नीचे गिर सकता है, उठे तो देवताओं से ऊपर उठ सकता है। वह सिर्फ मनुष्य की खूबी है। वह मनुष्य की ही गरिमा है। बात तुम्हारे हाथ है।
मनुष्य एक सीढ़ी है--जिसका एक छोर पशुओं से नीचे चला गया है और दूसरा छोर बादलों के पार। तुम चाहो तो इसी सीढ़ी पर ऊपर चढ़ो और तुम चाहो तो इसी सीढ़ी पर नीचे उतरो। सीढ़ी एक ही है। कोई पशु मनुष्य से नीचे नहीं गिर सकता। अगर मनुष्य गिरने की तय कर ले तो सभी पशुओं को मात कर देगा। चंगेजखान, तैमूरलंग, नादिरशाह, इनका कौन मुकाबला कर सकेगा, कौन पशु? लाखों लोग काट डाले। खैर यह तो अतीत इतिहास हो गए; अभी-अभी अडोल्फ हिटलर ने, जोसेफ स्टैलिन ने लाखों लोग काट डाले। किस पशु ने इतने लोग काटे?
और एक बड़े मजे की बात है, कोई पशु अपनी जाति के पशुओं को नहीं मारता। कोई सिंह किसी दूसरे सिंह को नहीं मारता। कोई कुत्ता किसी दूसरे कुत्ते को नहीं मारता। सिर्फ आदमी अकेला है, जो आदमियों को मारता है। और अकारण भी मारता है। जैसे मारने की एक धुन सवार है आदमी को! पशु अगर मारते भी हैं, एक तो अपनी जाति के पशुओं को कभी नहीं मारते, इतनी सज्जनता तो बरतते हैं। इतना तो पहचान उनको है। सिंह दूसरे सिंह पर हमला नहीं करता, कितना ही भूखा हो। लेकिन दूसरी जाति के पशुओं को भी तभी मारते हैं जब भूखे होते हैं।
मैंने सुना है, एक सिंह और एक खरगोश एक होटल में प्रविष्ट हुए। दोनों बैठ गए। मैनेजर थर-थर कांपने लगा। वेटरों की तो हिम्मत ही टूट गई, पैर थर्रा गए, जहां खड़े थे वहीं बैठ गए। आखिर मैनेजर ने हिम्मत की। अब ग्राहक आ ही गए हैं तो जाकर खड़ा हुआ और कहा कि क्या सेवा कर सकता हूं? खरगोश ने आर्डर दिया कि अंडे ले आओ, काफी ले आओ, यह ले आओ, वह ले आओ।
उसने कहा, और आपके मित्र के लिए?
खरगोश ने कहा कि मित्र को अगर भूख लगी होती, तुम सोचते हो मैं यहां बैठा होता? या तो मित्र के भीतर होता या नदारद हो गए होता। मित्र को भूख नहीं है। इसलिए तो साथ चल रहे हैं।
जब तक भूख न लगी हो तब तक कोई जानवर किसी जानवर पर हमला नहीं करता है। शिकार के लिए तो जानवर हमला करते ही नहीं। शिकार भी अजीब बात है! खेल खेल में मारना! और बड़ा मजा है, तुम मारो तो शिकार और सिंह तुम्हें मार दे तो दुर्घटना। और तुम मारो तो मचान बांध कर, बंदूक ले कर। न सिंह के पास मचान है, न बंदूक है। और तुम मारो तो सौ-पचास लोग मशालें लेकर सिंह को खदेड़ें, तुम्हारे पास ले आएं। और तुम मारो तो नीचे बांध रखा है गाय का बछड़ा, सिंह उसे खाने में लग जाए, तब तुम गोली मार दो। और तब भी पक्का नहीं है कि तुम्हारी गोली लगे।
मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा हांकता रहता था काफी हाउस में बैठ कर, कि ऐसा शिकार किया वैसा शिकार किया! आखिर एक आदमी से न रहा गया, उसने कहा कि चलो जी, चलें ही, सामने कर के दिखाओ। मैं भी शिकारी हूं। तुम्हारी बातों से मुझे जंचता नहीं कि तुमने कभी शिकार किया हो।
मुल्ला ने कहा, क्या बात करते हो! कल ही चलेंगे। दोनों की पत्नियां भी साथ हो लीं कि हम भी देखेंगे मचान पर बैठ कर कि क्या शिकार करते हो। दोनों की पत्नियां एक मचान पर बैठीं, दोनों दूसरे मचान पर बैठे। और जब सिंह आया, नसरुद्दीन के हाथ कंपने लगे। गोली तो चली; रोक नहीं सका सो चली, लेकिन लगी मित्र की पत्नी को। वह धड़ाम से नीचे गिरी। मित्र ने कहा, यह क्या करते हो जी? यह कोई शिकार है? शर्म नहीं आती स्त्री जाति पर हमला करते हुए?
अरे--मुल्ला ने कहा--इतने क्या नाराज होना! अरे तुम मेरी पत्नी को मार दो, और क्या! दोनों की झंझट मिटी, अपने घर चलेंगे। इससे बेहतर शिकार और क्या! अब जो भूल हमसे हो गई हो गई, बदले में तुम हमारी पत्नी को मार लो। और वह कुछ कर सकती है नहीं, अभी मचान पर चढ़ी है। अगर नीचे उतर आई तो मुसीबत खड़ी कर देगी। निपटारा करो जल्दी।
आदमी मारे शिकार, खेल; और सिंह मारे तो शिकार नहीं।
आदमी नीचे गिरता है तो पशुओं से नीचे चला जाता है।
ये कहानियां सिर्फ इसी बात के सबूत हैं। ये कहानियां हुई होंगी, ऐसा मैं नहीं मानता। ऐसा मैं नहीं मानता कि कोई बुद्ध के पास सिंह आकर बैठ गए हों। हां, भूखे न रहे हों, जैसे खरगोश के पास बैठे थे, ऐसे बैठ गए हों तो बात अलग। पेट भरा रहा हो, सोचा कि चलो जरा सत्संग करें! पेट भरे होने पर सत्संग का खयाल आता है कि चलो बुद्ध महाराज बैठे हैं झाड़ के नीचे, चलो थोड़ा सत्संग हो जाए। बैठे ठाले और कोई काम भी नहीं है। फुरसत का समय भी है।
सिंह एक ही बार भोजन करता है चौबीस घंटे में। कर लिया भोजन, फिर चौबीस घंट के लिए कोई उससे भय का कारण नहीं है। मैं यह नहीं मानता कि कोई चमत्कार इसमें हुआ होगा। या हो सकता है कोई नकली सिंह, सर्कसी सिंह रह हों।
अभी मैंने सुना कि जब जनता पार्टी हार गई और जनता पार्टी के नेता सब बेकार हो गए और हालत उनकी खस्ता हो गई--गए सब पद, गए सब बंगले, गई सब कारें, लूट-खसोट के सब अवसर भी गए--तो जगह-जगह तलाश करने लगे काम की। और राजनेताओं को कौन काम दे! लोग वोट दे देते हैं कि लो भई वोट ले लो, सार्वजनिक संपत्ति को लूटो, मगर काम पर अपने घर में कौन रखे! राजनेता को कोई अपने घर में रखेगा काम पर, क्या हरकत करे क्या पता! कोई काम देने को राजी नहीं। तो एक राजनेता, सरकस आई थी, उसमें चला गया। सरकस के मैनेजर से कहा कि अब तो बहुत हालत हो रही है, कड़की की हालत हो गई है। कोई न कोई काम चाहिए।
उसने कहा, भाई और तो कोई काम नहीं है, हमारा सिंह मर गया है, तो उसकी खाल निकाल कर रख ली है, तुम उसमें प्रवेश कर जाओ। और तुम्हारे साथ में हम टेप-रिकार्डर दे देते हैं, सो अंदर से ही समय-समय पर टेप-रिकार्डर, अपने आप, आटोमेटिक है हुंकार भरेगा। इसमें रेकार्ड की हुई है सिंह की हुंकार। सो यह जब हुंकार भरे, तुम मुंह बा देना। दहाड़ जाएगा। एकदम सारे सरकस में आए लोगों की छाती बदल जाएगी। और बाकी तुम्हारा कोई काम नहीं है। और चक्कर काटते रहना कटघरे में।
उसने कहा, यह भी अच्छा है।
यह फुरसत का काम भी है। और कोई खास नहीं, विश्राम है, बाकी दिन आराम है। शाम को भर जब सरकस देखने लोग आएं, तब टहलने लगना और बीच-बीच में दहाड़ देते वक्त खयाल रखना कि मुंह खोल देना। इतना ही तुम्हारा काम है।
नेता राजी हो गया। टेप-रिकार्डर लेकर शेर की खाल में घुस गया, जाकर अंदर आया, दहाड़ मारी। एकदम तहलका मच गया। बच्चे रोने लगे, स्त्रियां बेहोश होने लगीं। कोई असली सिंह भी क्या ऐसा दहाड़ेगा, क्योंकि टेप-रिकार्डर की हुई आवाज थी, उसको खूब बढ़ा कर तैयार किया गया था। प्रसन्न हुआ कि यह काम भी अच्छा है, मजा भी आएगा। कई खादीधारी उसने देखे कंप रहे हैं। कई जनता पार्टी के लोग भी डर रहे हैं। उसने कहा, यह भी अच्छा रहा। तभी उसने देखा कि दरवाजा खुला कटघरे का और दूसरा सिंह दहाड़ मारता अंदर आया। वह तो भूल ही गया। चिल्लाया एकदम कि बचाओ! बचाओ! मारे गए!
जनता तो हैरान हो गई कि सिंह यह क्या कह रहा है! सरकस तो बहुत देखे थे, मगर सिंह साफ हिंदी में बोल रहा है--बचाओ, बचाओ! मारे गए! वह भूल ही गया। यह तो झंझट हो गई, यह कभी बताया ही नहीं था मैनेजर ने कि दूसरा सिंह भी अंदर आएगा। वह तो सोच रहा था, अकेले ही टहलना है। दूसरे सिंह ने कहा, अबे उल्लू के पट्ठे, चुप रह! तू क्या समझता है कि तू ही चुनाव हारा है? तब राज खुला कि वे दूसरे नेता हैं। मगर तभी तक पहले सिंह का जीवन-जल बह गया था। फिर उस दूसरे सिंह ने कहा कि कम से कम इसको सम्हाल! अगर हमारे नेता मोरारजी देसाई को पता चल गया तो वे बहुत नाराज होंगे, क्योंकि यह बड़ी बहुमूल्य चीज है! इसको ऐसे नष्ट नहीं करते भैया!
अभी मैंने सुना कि दिल्ली में जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक हुई, छह घंटे तक चली। सब नेता उठ-उठ कर बाथरूम गए, सिर्फ मोरारजी नहीं गए। पत्रकार भी चिंतित हुए--जो बाहर बैठे थे इस आशा में कि कुछ खुसुर-पुसुर नेता करते हुए निकलते हैं, तो उनसे कुछ खबरें मिल जाएंगी। वे भी चिंतित हुए। सब गए, मगर सिर्फ मोरारजी नहीं गए। तो किसी से पूछा उन्होंने कि सब बाथरूम गए, कोई दो दफा गया, कोई तीन दफे, छह घंटे का लंबा वक्त, मोरारजी नहीं गए! तो जिससे पूछा, उसने कहा कि मेरा नाम भर मत छापना। इतनी बहुमूल्य चीज को वे सम्हाल कर रखते हैं! ऐसा हर जगह बरबाद नहीं करते फिरते।
तो या तो नकली सिंह रहे होंगे, जिनकी तुम बात कर रहे कि बुद्धपुरुषों के पास...नाग या शेर या सिंह जैसे पशु भी...बुद्धपुरुषों के पास आकर बैठते थे। और या फिर खाए-पीए रहे होंगे। वैसे नागों में सत्तानबे प्रतिशत में जहर होता नहीं, तीन ही प्रतिशत में होता है। वे बहुत मुश्किल से मिलते हैं जहरीले। लोग मर जाते हैं, वे इसलिए मर जाते हैं कि सांप ने काटा। कोई जहर से कम ही लोग मरते हैं। इसलिए सांप झाड़ने वाले सफल हो जाते हैं। सत्तानबे प्रतिशत सांप झाड़ने वाला सफल हो जाता है, क्योंकि सांप जहरीला होता ही नहीं सत्तानबे प्रतिशत मौकों पर। मगर यह घबराहट कि सांप काट गया, मारे गए--पर्याप्त है मारने को।
इन कहानियों से तुम यह अर्थ मत ले लेना कि ऐसे सांप और बिच्छू और शेर और सिंह बुद्ध पुरुषों को पहचान गए और उनके पास बैठ कर सत्संग करने लगेंगे। इस भ्रांति में मत पड़ना। आदमी नहीं पहचान पाता तो ये बेचारे गरीब जानवर क्या पहचानेंगे! मगर कहानियां यह कह रही हैं कि गरीब जानवर भी पहले पहचान लेंगे और आदमी नहीं पहचान पाएगा। कहानियां यह कह रही हैं कि धिक्कार है आदमी तुझ पर! कि ये पशु भी पहचान लें शायद, मगर तू नहीं पहचान पाता। कहानियां तो सिर्फ तुम्हें सूचना दे रही हैं तुम्हारी मूर्च्छा की।
ये प्रतीक-कथाएं हैं। इनमें चमत्कार मत समझ लेना। हम इनकी जो व्याख्या कर लेते हैं, हमारे पंडित-पुरोहित जो व्याख्या कर लेते हैं, वह चमत्कार की होती है। और हम चमत्कार की जब व्याख्या कर लेते हैं, हम कहानियों का सारा अर्थ नष्ट कर देते हैं। महावीर को सांप ने काटा था, तो दूध निकला। बस जैन पंडित-पुरोहित लगे हैं सदियों से व्याख्या करने में, कि महावीर इतने अदभुत व्यक्ति थे कि उनके शरीर में खून नहीं, दूध ही दूध भरा था। एक जैन मुनि से मैंने पूछा कि तुम थोड़ा सोचो तो कि अगर दूध ही दूध भरा हो, तो कब का दही जम गया होता! और महावीर से ऐसी दही कि गंध उठती कि पहली तो बात सांप पास आता ही नहीं, काटना तो दूर रहा।
एक जैन मुनि चित्रभानु और मैं एक ही साथ एक बार एक सभा में बोले। वे मुझसे पहले बोले। उन्होंने कहा कि यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध की जा सकती है कि पैर से दूध निकला। आखिर स्त्रियों के स्तन से दूध निकलता है कि नहीं? वह भी तो शरीर ही है। ऐसे ही पैर से निकला।
मैं उनके पीछे बोला। जनता ने तो ताली बजा दी। जैनियों की भीड़ थी। वे ही थे। उन्होंने कहा, वाह, क्या वैज्ञानिक व्याख्या की! मैं उनके पीछे बोला। मैंने कहा कि मुझे भी बहुत आनंद आया। इसका तो मतलब यह हुआ कि महावीर के शरीर पर जगह-जगह स्तन थे, क्या मामला है! क्योंकि स्त्री के और किसी अंग से नहीं निकलता दूध। तो या तो सब जगह स्तन रहे हों, क्योंकि स्तन के बिना दूध पैदा नहीं हो सकता। स्तन में पूरी रासायनिक प्रक्रिया होती है; वह तो यंत्र है जिससे कि पूरी रासायनिक प्रक्रिया से गुजर कर खून छंट कर दूध बनता है। ऐसे ही थोड़े कोई दूध बन जाता है। तो पैर में या तो स्तन रहा होगा, जो कि ज्यादा बड़ा चमत्कार है, कि पहले से ही स्तन लगाए बैठे थे कि आए सांप और काट! और सांप भी गजब का है कि ठीक जगह काटा! और या फिर पूरे शरीर पर स्तन ही स्तन रहे होंगे। यह तो बड़ा उपद्रव हो जाएगा। और नंग-धड़ंग घूमना और स्तन ही स्तन! जनता पी जाती कभी का! जहां जाते वहीं लोग लग जाते और पीने लगते कि महावीर स्वामी को क्या छोड़ना! अरे ऐसा प्रसाद, दुग्धाहार! मारे गए होते बेचारे कभी के। सांप से तो बच भी जाते, मगर आदमियों से? अगर आदमी न भी पीते, जो भी जाता कम से कम धक्का-मुक्की करता ही। और एक अजीब दृश्य उपस्थित हो जाता। और कोई सज्जन होते तो जल्दी से कंबल ओढ़ा देते कि ये स्तन ही स्तन! कोई देख-दाख न ले! उनको नंगे लोग रहने भी नहीं देते, कि भैया तुम तो कपड़े पहनो ही!
क्या-क्या बेवकूफी की बातें लोग करते रहते हैं! और कैसी बेवकूफी की बातों पर अंधे भक्त अंधे विश्वासी तालियां बजाते रहते हैं।
ये प्रतीक-कथाएं हैं सारे धर्मों में। इन प्रतीक कथाओं का इतना ही अर्थ है कि आदमी ने अब तक जैसा व्यवहार किया है अपने बुद्ध पुरुषों के साथ, वह इतना बदतर है कि हम पशुओं से भी ऐसी आशा नहीं करते। बस इतना ही समझना। इससे ज्यादा नहीं। पशु भी ऐसा नहीं कर सकते हैं। एक दफा उनको भी दया आ जाती। एक दफा उनको भी होश आ जाता। एक दफा सांप भी काटते-काटते रुक जाता, सिंह भी हमला करते-करते ठहर जाता, पागल हाथी भी झुक जाता। मगर आदमी पागल हाथियों से ज्यादा पागल है, सिंहों से ज्यादा खूंखार हैं, सांपों से ज्यादा जहरीला है। इस बात की खबर देने के लिए ये कहानियां हैं। इन कहानियों को तुम प्रतीक समझो। इन कहानियों को कोई ऐतिहासिक तथ्य मत समझ लेना। मगर इन कहानियों की इसी तरह व्याख्या की जाती है जैसे ये ऐतिहासिक तथ्य हैं। इनके ऐतिहासिक तथ्य बनाने की कोशिश में हम सिर्फ अपने महापुरुषों को हंसी का पात्र बना देते हैं।
इसलिए कैलाश गोस्वामी, राज वगैरह कुछ भी नहीं है; कुछ बातों को सरल ढंग से कहने की प्रक्रिया है यह। कथानक के ढंग से कहने की प्रक्रिया है। कम से कम समझ का आदमी भी समझ सके, इस तरह कहानियों में बड़े-बड़े सत्य छिपा दिए गए हैं। ईसप की कहानियां हैं, वे सब जानवरों की कहानियां हैं। इसका मतलब यह नहीं कि जानवर बोलते हैं। ईसप की कहानियों में बोलते हैं।
एक छोटा सा भेड़ का बच्चा, मेमना, पानी पी रहा है--एक झरने पर, एक छोटे से झरने पर। उसी झरने पर ऊपर एक सिंह पानी पी रहा है। सिंह की लार टपक गई। देखा कि सुंदर मेमना, ताजा, कोमल! सुबह-सुबह का वक्त, अच्छा नाश्ता हो जाएगा। मगर कोई बहाना तो चाहिए, एकदम से हमला भी तो नहीं कर सकते। जानवर भी पहले बहाना खोजते हैं, फिर हमला करते हैं। उसने कहा, क्यों रे मेमने, तू कल मुझे गाली दे रहा था।
उस मेमने ने कहा, कल मैं यहां था ही नहीं महाराज। मैं दूसरे जंगल से आज ही आया हूं।
सिंह तो और गुस्सा हो गया। उसने कहा कि तो तू न होगा, तेरी मां होगी। मगर तेरी शक्ल मुझे पहचानी लगती है। या तेरा बाप होगा। मगर गाली तेरे बाप ने या तेरी मां ने दी थी।
उस मेमने ने कहा, महाराज, मेरे मां-बाप को मरे काफी दिन हो गए। आप ही जैसे सिंहों की कृपा से वे कभी के समाप्त हो चुके। वे क्या गाली देने आएंगे, स्वर्गीय हो गए।
सिंह ने देखा कि यह तो बात बिगड़ती जा रही है। उसने कहा कि और तू हरामजादे, मैं पानी पी रहा हूं, पानी को गंदा कर रहा है।
उस मेमने ने कहा, महाराज, आप ऊपर हैं, झरना मेरी तरफ आपकी तरफ से बह रहा है। गंदा आप कर रहे हैं। मैं कैसे गंदा कर सकता हूं? मेरे से झरना आपकी तरफ नहीं जा रहा है मेरी तरफ से। मैं नीचे खड़ा हूं, आप ऊपर खड़े हैं। और ऐसी अपराध की बात मैं कभी कर सकता हूं कि आपके ऊपर खड़ा हो जाऊं? अरे आपके रहते! कभी नहीं, कभी नहीं!
सिंह ने देखा, यह तो छिटका ही जा रहा है हाथ से। नाश्ते का मौका ही निकला जा रहा है। उसने एक झपट्टा मारा और उसने कहा कि छोटा होकर बड़ों से मुंह लड़ाते शर्म नहीं आती? अब क्या जवाब दो! वह तो खा गया, गप्प कर गया कि छोटे होकर बड़ों से मुंह लड़ाते शर्म नहीं आती!
मगर यह कहानी कुछ होती नहीं, मगर कहानी महत्वपूर्ण है। यह दुनिया में चल रहा है। आदमियों में चल रहा है, राष्ट्रों में चल रहा है, जातियों में चल रहा है। सब बहाने खोजते हैं एक-दूसरे को हड़प जाने के। यह कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। बाप अपने बेटे से कहता है: छोटे होकर बड़ों से मुंह लड़ाते शर्म नहीं आती? मुंह बंद कर! तुम क्या कह रहे हो? तुम सिर्फ इतना कह रहे हो कि हम तुमसे शक्तिवान हैं, एक दो झापड़ रसीद कर देंगे, सही-गलत का कहां सवाल है! और हो सकता है बच्चा सही ही कह रहा हो। बच्चे अक्सर सही कहते हैं। बच्चे झूठ नहीं बोलते। झूठ बोलना सीखने के लिए समय लगता है। झूठ बोलना लंबे अभ्यास से आता है। बच्चे तो सच-सच कह देते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे से किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन घर पर हैं कि नहीं? सने कहा कि तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। हैं तो घर पर ही, पर उन्होंने कहा है कि कोई पूछे तो कह देना कि घर पर नहीं हैं। उसने सच्ची बात कह दी। अब मुल्ला सुन रहा है भीतर से। बुला कर एक चपत रसीद की उसको, कि मैंने तुझसे कहा था कि कहना कि घर पर नहीं हैं। उसने कहा कि मैंने यही कहा कि हैं तो घर पर ही, मगर कह रहे हैं कि घर पर नहीं हैं।
अब ऐसे बेटे से झंझट...। एक दिन उसको भेजा कुएं पर पानी भरने। मटकी हाथ में दी, रस्सी हाथ में दी। और जब जाने लगा तो बुला कर दो चपतें लगा दीं उसको। और कहा, जा, सम्हाल कर पानी लाना। एक आदमी पास बैठा था, उसने कहा, हद हो गई! अभी गया भी नहीं बेचारा, कोई मटकी फोड़ी भी नहीं और तुमने दो चपतें लगा दीं!
नसरुद्दीन ने कहा, बाद में चपत लगाने से फायदा ही क्या! अरे फोड़ कर ही आ जाए, फिर चपत लगाने से फायदा ही क्या! सो पहले ही से सीख देना ठीक है। अब ऐसे बाप का बेटा हो तो धीरे सीख ही जाएगा।
एक दिन बेटा चढ़ा है सीढ़ी पर और नसरुद्दीन ने कहा, कूद जा, बेटा कूद जा! मैं तुझे ले लूंगा। देख मैं हाथ फैलाए हूं।
बेटा डरा, उसने कहा कि मुझे नहीं कूदना, कि नहीं पापा, मुझे नहीं कूदना।
अरे, उसने कहा, तू डरता है? भरोसा नहीं करता अपने बाप पर? अपने सगे बाप पर भरोसा नहीं करता? कूद जा!
बेटा कूद गया और मुल्ला हट कर खड़ा हो गया, वह धड़ाम से नीचे गिरा। घुटने छिल गए। बेटा रोने लगा। उसने कहा कि मैं पहले ही से मना कर रहा था कि मुझे नहीं कूदना। पर बाप ने कहा कि तुझे पाठ पढ़ाना था। बेटा, अपने सगे बाप का भी कभी भरोसा मत करना। यह दुनिया बड़ी बुरी है। अब सीखे बच्चू! उसने कहा कि अब सीखे! अब मैं भी कहूं कि कूद जा, कूद जा, हाथ फैलाऊं, कुछ भी कहूं, तू कूदना ही मत। दुनिया बहुत बुरी है।
समय लगता है मगर यह सीखने में कि दुनिया बहुत बुरी है। बच्चे तो सच बोल देते हैं।
पशुओं के मुंह से ईसप ने सच्ची-सच्ची बातें कहला दी हैं। आखिर पशु भी नाराज हो गए होंगे। मैंने यह कहानी सुनी है कि एक सिंह ने एक दिन ईसप को पकड़ लिया और उसे गप्प करने के पहले कहा कि अब बच्चू, अब लिखो कहानी! अब इसकी भी कहानी लिख जाना! और उसको हड़प कर गया। कर ही जाएंगे, आखिर जानवरों के संबंध में ईसप ने इतनी कहानियां लिखी हैं, उनकी काफी भद्द उड़ाई, काफी मजाक की। सिंह अगर नाराज हो गए हो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं? मगर ऐसा लगता है कि ईसप इसको भी लिख ही गया है, लिखवा गया है किसी तरकीब से। आखिर यह कहानी है कि ईसप को सिंह खा गया और खाते वक्त सिंह ने कहा कि अब बच्चू, लिखो कहानी इसके संबंध में! मगर इतना कम से कम ईसप इंतजाम कर गया। रहा होगा कोई स्टेनो आस-पास कि लिख ले भाई, इतना तो लिख ही ले कम से कम यह आखिरी घटना, उपसंहार!
ये कहानियां प्रीतिपूर्ण हैं, मगर तुम इनको खराब कर देते हो। इनमें बड़ा सौंदर्य छिपा है। तुम नष्ट कर देते हो। तुम इनका रस ही विरस कर देते हो। ये तथ्य नहीं हैं, ये सत्य हैं और बड़े बहुमूल्य सत्य हैं। इतना ही कहा गया है कि बुद्धों और महावीरों के पास पशुओं को भी बोध आ गया, मगर मनुष्यों को न आया। इससे चेतो। ऐसी भूल तुमसे न हो, इसका स्मरण रखो कैलाश गोस्वामी।

पांचवां प्रश्न: भगवान,
आपने मुझे नाम दिया है--योगानंद। इसका रहस्य समझाएं।
योगानंद,
रहस्य कुछ भी नहीं है। जब तुम्हें देखा, तुम ऐसे अकड़ कर बैठे थे, तो मुझे लगा कि योगी मालूम होते हो। बिलकुल एकदम आसन मार कर बैठ गए। और तुम्हारी नाक पर बड़ा अहंकार। और ढंग तुम्हारा ऐसा जैसा कोई बहुत महान कार्य कर रहे हो! संन्यास क्या ले रहे हो, संसार का बड़ा उपकार कर रहे हो, उद्धार कर रहे हो। सो मैंने तुम्हें नाम दे दिया--योगानंद। अब तुम न पूछते तो मैं कभी बताता भी नहीं, क्योंकि ये बातें बताने की नहीं। ये तो मैं अपने भीतर छिपा कर रखता हूं। अब तुमने खुद ही अपने हाथ से झंझट करवा ली।
नामों में क्या रखा है योगानंद? कुछ न कुछ लेबल चाहिए। मगर कुछ लोग हर चीज में राज खोजने में लगे रहते हैं। जैसे किसी चीज को साधारणतया स्वीकार कर ही नहीं सकते, राज होना ही होना चाहिए! चीजें बस हैं।
पिकासो से एक आलोचक ने कहा कि तुम्हारे चित्र का अर्थ क्या है? पिकासो ने कहा, अर्थ! यह खिड़की के बाहर झांक कर देखो, गुलाब का फूल खिला है, इसका क्या अर्थ है? और अगर गुलाब का फूल खिल सकता है मस्ती से, बिना अर्थ में, तो मेरी पेंटिंग में भी अर्थ होने की क्या जरूरत है? कोई मैंने ठेका लिया है अर्थ का? यह भी मौज है, वह भी मौज है।
मगर मैं नहीं सोचता कि आलोचक इससे राजी हुआ हो। आलोचक को तो अर्थ चाहिए ही। वह तो हर चीज में अर्थ होना ही चाहिए, अर्थ न हो तो बस उसकी सब नौका डगमगा जाती है।
तुम अनाम पैदा हुए हो, अनाम ही जाओगे, अनाम ही तुम हो। मगर काम चलाने के लिए नाम रखना पड़ा। नहीं तो यहां तीन हजार संन्यासी हैं, अब तुम्हें बुलाना हो तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए। या तो तुम्हारा वर्णन करना पड़े विस्तार से, कि ऐसी नाक, ऐसे कान, ऐसे बाल और उसमें बड़ी झंझटें हो जाएं।
ऐसा मैंने सुना है कि एक दफा एक आदमी पिकासो के घर चोरी कर गया। पूछा पिकासो से पुलिस वालों ने कि कुछ उस आदमी की हुलिया बताओ। पिकासो ने कहा, अब हुलिया क्या बताऊं? एक चित्र बना देता हूं उसकी हुलिया का। पेंटर था, उसने चित्र बना दिया। कहते हैं, पुलिस ने पकड़े, सात आदमी पकड़े--एक लेटर बाक्स पकड़ा, एक रेफ्रिजरेटर पकड़ा! क्योंकि वह जो उसने चित्र बनाया था, उससे ये सब तो निकलीं। पिकासो के पास जब यह पूरी कतार ले कर वे आए तो पिकासो ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा, हद हो गई! और पिकासो ने कहा कि क्षमा करो, किसी की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो चीज मैं सोचता था चोरी गई है, वह चोरी गई ही नहीं है। वह चोर आया जरूर था, मगर ले जा कुछ भी नहीं सका, इसलिए फिक्र छोड़ो।
उन्होंने कहा, अब कैसे छोड़ सकते हैं? इन सातों ने तो स्वीकार भी कर लिया है! अब पुलिस स्वीकार किसी से भी करवा ले। मारो डंडे! जिसने चोरी नहीं की वह भी कहता है कि हां की है। वही ज्यादा सार है कि हां की है।
अब योगानंद को अगर मुझे खोजना हो तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अब कहो कि लाल रंग के कपड़े पहने हुए हैं, कोई लेटर बाक्स निकाल कर ले आए। लेटर बाक्स तो पुराने संन्यासी हैं। कोई मील का पत्थर उखाड़ लाए; वे भी पुते खड़े हैं बिलकुल संन्यासी रंग में। कौन-कौन सी झंझटें हो जाएं, क्या कहा जा सकता है! इसलिए नाम की जरूरत है, वैसे नामों में क्या रखा है!
नाम रूप के भेद पर कभी किया है गौर
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए एंचकताने।
कहं काका कवि, दयाराम जी मारें मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।

मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप,
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में--
ज्ञानचंद छै बार फैल हो गए टैंथ में।
कहं काका ज्वालाप्रसाद जी बिलकुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।

देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,
धनीरामजी हमने प्रायः निर्धन देखे।
कहं काका कवि दूल्हेराम मर गए क्वांरे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी--
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरधारी।
कहं काका कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।

दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले।
कहं काका कविराय, आकंड़े बिलकुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।

चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध।
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते।
कहं काका बलवीरसिंह जी लुटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।

खटे-खारी-खुरखुरे मृदुला जी के बैन,
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा से नैन।
चिलगोजा से नैन, शांता करतीं दंगा,
नल पर नहातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।
कहं काका कवि लज्जावती दहाड़ रही हैं,
दर्शनदेवी लंबा घूंघट काढ़ रही हैं।

कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।
बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।
काका लक्ष्मीनारायण की पत्नी रीता,
कृष्णचंद्र की वाइफ बन कर आईं सीता।

अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।
रक्खा दशरथ नाम, मेल खूब क्या मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।
काका कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा--
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा।

योगानंद, कोई राज वगैरह नहीं है। योग से तुम्हारा क्या नाता? न आनंद से कोई संबंध। बस एक लेबल चिपका दिया। कामचलाऊ हैं सब नाम। लेकिन हर चीज में रहस्य खोजन की आदत गलत आदत है। जीवन को सरलता से स्वीकार करो, जैसा है वैसा स्वीकार करो। हर चीज में रहस्य खोजने के कारण न मालूम कितने मूरख तुम्हारा शोषण करते हैं, क्योंकि वे तुम्हें रहस्य में रहस्य बताते रहते हैं। चले हाथ की रेखाएं बताने, कोई बुद्धू मिल जाएगा लूटने। हाथ की रेखाओं में कोई रहस्य होना ही चाहिए! तुम पांव की रेखाएं क्यों नहीं बतलाते? उनमें भी कुछ रहस्य होना चाहिए। और कौन सी रेखा में कौन सा रहस्य है? और जो तुम्हारे हाथ की
लेकिन मनुष्य के भीतर एक विक्षिप्तता है--हर चीज में रहस्य खोजने की। इस कारण दुनिया में बहुत तरह के रहस्यवाद चलते रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है। अगर है तो जीवन परम रहस्य है और जीवन की हर चीज रहस्य है। लेकिन उस रहस्य की कोई थाह नहीं है। कोई उसे माप नहीं पाया, कोई उसे माप भी नहीं सकता है। तुम भी रहस्य हो, मगर तुम्हारे नाम में क्या रखा है? तुम हो रहस्य! तुम्हारे होने में रहस्य है। मगर वह ऐसा रहस्य है कि जितने डूबोगे उतना ही पाओगे--और-और शेष है। जितना जानोगे, उतना पाओगे--और जानने को शेष है।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
जब भी मैं आपकी बातें सुनता हूं तो मेरा शादी करने का पक्का इरादा चकनाचूर हो जाता है। लेकिन जब भी मैं अपनी ओर से सोचता हूं तो मुश्किल में पड़ जाता हूं कि शादी करूं या न करूं। आपने पिछले दो दिन में बताया कि समझदार आदमी को शादी करनी ही नहीं चाहिए। अब बताएं भगवान, मैं क्या करूं? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। कृपया मुझे मार्ग दिखावें!

रमेश सत्यार्थी,
अपनी ही सूझ-समझ से चलो। मेरी बातें सुन कर उलझोगे तो झंझट में पड़ोगे। झंझट में इसलिए पड़ोगे कि तुम्हारा मन तो तड़प रहा है शादी करने को और मेरी बातें सुन लीं तुमने और तय कर लिया कि नहीं करेंगे, तुम्हारे भीतर द्वंद्व हो जाएगा और जितना तुम चेष्टा करोगे कि शादी नहीं करनी, उतना ही शादी में आकर्षण बढ़ता जाएगा।
शादी का एक लाभ है: करते से ही आदमी को विराग पैदा होता है। जब तक नहीं किया, राग पैदा होता है। यह शादी का आध्यात्मिक मूल्य है कि जिसने किया वही सोचने लगता है कि नहीं है कुछ सार संसार में, सब बेकार है। महात्मागण ठीक कह गए हैं।
तुम कहते हो कि मैं कहता हूं कि समझदार आदमी को शादी नहीं करनी चाहिए। नहीं, मैंने ऐसा नहीं कहा, तुम गलत समझ गए। समझदार आदमी नहीं करता, मगर समझ कहां से लाओगे? शादी करोगे, तभी तो समझ आएगी न! पहले शादी करो, उससे समझ आएगी, फिर अगर समझ को कायम रख सको तो बहुत। फिर उस समझ में टिकना। अनुभव के बिना कोई समझ नहीं है।
मेरी समझ तुम्हारी समझ नहीं बन सकती। यही तो मैं कह रहा हूं। तुम्हारे पिता कह जाएं, तुम्हारे दादा कह जाएं, उससे क्या होगा? तुम्हारी समझ ही तुम्हारे काम आने वाली है।
शादी एक अनुभव है--कड़वा-मीठा, सुख-दुख भरा; कांटे भी हैं, फूल भी; रात भी, दिन भी। उस अनुभव से गुजरना जरूरी है, उपयोगी है। हां, अगर तुम्हारे भीतर दूसरों को ही देख कर इतनी समझ हो कि तुम चौंक जाओ और तुम्हारे भीतर से ही भाव तिरोहित हो जाए, तो बात अलग। नहीं तो समझ कहां से लाओगे? अभी तो तुम्हारे पास नहीं है।
तुम कहते हो: "मेरी कुछ समझ में नहीं आता।'
शादी करो, आएगा समझ में! अरे अच्छों-अच्छों की समझ में आ गया, तुम्हारी क्यों नहीं आएगा? एक से एक बलशाली देखे, समझ में आ गया।

रद्दी में रद्दी डाल, बाबू मुसद्दीलाल
दफ्तर से आए,
पर घर के दरवाजे पर कदम रखने से पहले
ऐसे घबराए--
जैसे, चौखट के अंदर मीलों तक फैला
कोई दहकता रेगिस्तान हो
और वो प्यासे हों।
या फिर प्रेतों का अड्डा
कोई भूतिया मसान हो
और सिर पर गंडासे हों।
घर घर न हो कोई चिड़ियाघर हो
जिसमें खूंखार जानवर आबाद हों,
सबके सब भूखे हों और आजाद हों।

न जाने उनके ऊपर किस
दुर्वासा के शाप थे
कि वो एक नहीं, दो नहीं
कि पांच लड़कियों के बाप थे।
किस्मत की मारी थीं, बेचारी थीं
पीली पड़ रही थीं, हाथ
पीले नहीं हुए थे लेकिन, क्वांरी थीं।

पहली लड़की, लाल स्याही से
अपने नाखून रचा रही थी,
दूसरी भी चाहती थी, ललचा रही थी
पर शर्म से अचकचा रही थी,
तीसरी, कल की चटनी को
कल के लिए बचा रही थी,
चौथी, हाथ में सूखी रोटी लिए
उस चटनी के लिए शोर मचा रही थी,
पांच बरस की पांचवीं, जाने क्यों
रो-रो कर अपनी हड्डियां नचा रही थी।

पत्नी चलती-फिरती जिंदा लाश थी
शायद यमराज को इसी की तलाश थी।
रोगों का सिलसिला शरीर को खा गया था,
लेकिन सारा बल जीभ में आ गया था।
रह-रह कर अपना दिल मसोसती थी,
मुसद्दी को डांटती थी, लड़ती थी, कोसती थी।

इसीलिए घर--
मुसद्दी के लिए सबसे बड़ा डर था
घर में घुसते वक्त
उनका माथा पसीने से तर था।
तो बिना किसी प्राणी या पदार्थ पर नजरें टिकाए
वे सीधे चारपाई तक आए और लेट गए।
सुबह दफ्तर थोड़ा सा लेट गए थे
तो साहब ने डांटा था
यहां पूरे ही लेट गए, तो
पत्नी क्यों न डांटे,
पड़ने लगे तड़ातड़ शब्दों के चांटे--

आते ही मधेसा से पड़ गए हो,
घर से बिलकुल ही उखड़ गए हो!
सब्जी आज भी नहीं लाए,
चटनी से कोई कब तक खाए!
न खा रहे हैं, न पी रहे हैं,
राम जाने कैसे जी रहे हैं!
चाय के लिए गुड़ भी निबट गया है
और मेरा फटा हुआ ब्लाऊज
और फट गया है!
सड़ गई है पर तीन बरस से यही
साड़ी चला रही हूं,
मेरी छोड़ो किसी भी तरह
गाड़ी चला रही हूं,
पर इन नासपीटियों की नर तो भरो,
इनके लिए तो कुछ करो।
आफत सी खड़ी हो गई है,
बड़ी, जरूरत से ज्यादा बड़ी हो गई है,
दुछत्ती पर घंटों गुमसुम बैठी
कबूतरों को दाना डालती है
और हर आने-जाने वाले को ताकती है।
मंझली की फीस अभी तक नहीं गई है
और हाय
मेरे दांतों की टीस अभी तक नहीं गई है।
दवाई लाए?
अजी सुनते हो, दवाई लाए?

मुसद्दी बिचारा क्या बताए
जैसेत्तैसे कुछ शब्द उसके होंठों तक आए--
दांत के दर्द की क्या कहती है?
सारे दर्द दांत बन गए हैं,
पूरे जिस्म में गड़ गए हैं--
कर्ज के दांत
मर्ज के दांत
किराए के दांत
फीस के दांत
राशन के दांत
टीस के दांत
मंहगाई के दांत
पढ़ाई के दांत
सब काट रहे हैं।

क्या बकबक कर रहे हो, भूल गई
पंसारी लाला ने बुलाया था,
मकान-मालिक भी दो बार आया था।
अबके किराया मिल जाएगा जरूर, मैंने कहा था,
मुआ नासपीटा बड़ी को घूर रहा था।
और करम की लागी कैसी बरबादी है
कि अगली एकादशी को ही
भांजी की शादी है।
भात का क्या सोचा है?

भात खाने को नहीं है, देने की बात करती है,
क्यों मेरे कलेजे पे घात करती है,
तू तो यमराज को भी मात करती है।
अरी मर रहा हूं,
मौत से नहीं तुझसे डर रहा हूं।

इस तरह दोस्तो,
जिस समय हमारे देश के नेता
सोफों में धंसे हुए क्लासिक म्यूजिक
सुन रहे होते हैं,
इनके यहां क्लासीकल म्यूजिक चलता है,
सब अभ्यस्त हैं, किसी को नहीं खलता है।
क्लासीकल सुर जब क्लाइमेक्स पर आते हैं
तो मुसीबत के मारे मुसद्दीलाल मर जाते हैं।

इसके पहले कि भैया मरो, समझ लो तो अच्छा; जाग जाओ तो अच्छा। क्योंकि शादी तो सिर्फ शुरुआत है, फिर और-और बरबादी है। फिर बच्चे कच्चे हैं, फिर उनका भी अनुभव आएगा। अभी जैसे शादी करने को मन ललचा रहा है, फिर बच्चे पैदा करने को मन ललचाएगा। अभी पति बनने को मन ललचा रहा है, फिर पिता बनने को मन ललचाएगा। और बात कहीं रुकती है! फिर दादा बनने को मन ललचाता है, परदादा तक बनना चाहते हैं लोग! लोग चाहते हैं कि अपने ही सामने नाती-पोतों को भी देख लें, उनका भी विवाह रचा लें। यह खेल चलता ही चला जाता है।
समझ आ सकती हो तो जल्दी करो। अभी आ जाए तो बहुत अच्छा।

ओ घोड़ी पर बैठे दूल्हे, क्या हंसता है?
देख सामने तेरा आगत
मुंह लटकाए खड़ा हुआ है
अब हंसता है फिर रोएगा
शहनाई के स्वर में जब बच्चे चीखेंगे
चिंताओं का मुकुट शीश पर धरा रहेगा
खर्चों की घोड़ियां कहेंगी
आ अब चढ़ ले
तब तुझको यह पता चलेगा
उस मंगनी का क्या मतलब था?
उस शादी का क्या सुयोग था?

ओ उतावले!
किसी विवाहित से तो तूने पूछा होता
वह तुझको यह समझा देता
ब्याह-वल्लरी के फूलों का फल कैसा है?
किसी पिता से पूछ, तुझे वह बतला देगा
भारत में बापत्व कर्म
कितना भीषण है?

ओ रे बकरे!
भाग सके तो भाग
सामने बलि-वेदी है
दुष्ट बराती नाच-कूदकर
तुझे सजा कर धूमधाम से
दुल्हिनरूपी चामुंडा की
भेंट चढ़ाने ले जाते हैं

मंडप नीचे बैठे ओ मिट्टी के माधो।
हवन नहीं यह भवसागर
का बड़वानल है
मंत्र नहीं लहरों का गर्जन
पंडित नहीं ज्वारभाटा है
भांवर नहीं भंवर है पगले
दुल्हिन नहीं व्हेल मछली है
तू गठबंधन जिसे समझता
भाग अरे यम का फंदा है।

ओ रे पगले!
ओ अबोध, अनजान अभागे!
तोड़ सके तो तोड़ अभी हैं कच्चे धागे
पक जाने पर जीवन-भर
यह रस्साकसी भोगनी होगी

अरे निरक्षर!
बी.ए.बी.टी. होकर भी तू
पाणिग्रहण का अर्थ
समझने में असफल है
ग्रहण-ग्रहण सब एक, अभागे
सूर्य-ग्रहण हो!
चंद्र-ग्रहण हो!
पाणि-ग्रहण हो!

रमेश सत्यार्थी, फिर जैसी मर्जी!

आज इतना ही।


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