रविवार, 14 मई 2017

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-16



नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रवचन-सौहलवां 
दिनांक 09 जून सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।

नहिं राम बिन ठांव
राम की शरण जाने का अर्थ है एक मालिक। इसलिए राम से तुम यह मत समझना कि दशरथ के बेटे राम का कोई संबंध है। राम से तुम्हारे भीतर छिपे हुए ब्रह्म का संबंध है। तुम राम हो। तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो।
प्रश्न:
भगवान श्री, आपके वचनों से संकेत मिलता है कि
आने वाले दस वर्ष मनुष्य-जाति के लिए बहुत संकटपूर्ण, सांघातिक और निर्णायक होने वाले हैं।
और आपका आगमन भी शायद इस बात से संबंधित है कि इस आसन्न विपदा से मनुष्य को
कम से कम क्षति हो तथा संस्कृति और धर्म के मूल्यों को अधिक से अधिक बचाया जाए।
इस दिशा में क्या हमारा मार्ग-दर्शन आप करेंगे?

मनुष्य-जाति का इतिहास, मनुष्य की चेतना, कोई सीधी रेखा में यात्रा नहीं करते। पश्चिम में ऐसी ही धारणा है कि एक सीधी रेखा में मनुष्य विकास कर रहा है। डार्विन, माक्र्स और अन्यों की भी वैसी ही धारणा है। लेकिन उस धारणा में बहुत बल नहीं है।
पूरब की धारणा है कि जीवन का विकास रेखा-बद्ध नहीं है, वर्तुलाकार है, सरक्युलर है। हम किसी सीधी रेखा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं, हम एक वर्तुल में घूम रहे हैं। और यह बात ज्यादा उचित भी मालूम पड़ती है।
बच्चा पैदा होता है। जन्म से एक रेखा शुरू होती है और बुढ़ापे में आकर वहीं मृत्यु घटित होती है, जहां जन्म हुआ था, वर्तुल पूरा हो गया। हम बच्चे से बूढ़े तक के विकास में सीधा विकास नहीं देखते, एक ऊंचाई आती है, फिर उतार शुरू होता है।
मौसम बदलते हैं प्रकृति के तो सीधी कोई रेखा नहीं है--गर्मी जाती है, गर्मी फिर आती है; वर्षा जाती है, वर्षा फिर आती है--एक वर्तुलाकार, जैसे कोई चाक गाड़ी का घूमता हो।
सूरज, चांदत्तारे, पृथ्वी, सभी वर्तुलाकार घूमते हैं।
तो वर्तुल जीवन की व्यवस्था मालूम होती है। मनुष्य का इतिहास भी वर्तुलाकार है। ऊंचाइयां आती हैं, नीचाइयां आती हैं; विकास होता है, पतन होता है। और जहां से शुरू होती है यात्रा, वहीं पूरी भी होती है। ऐसी ही घड़ी में, जब जीवन एक छलांग लेता है वर्तुल में, संकट उपस्थित होता है।
ऐसा संकट आज उपस्थित है। इस संकट को समझने के लिए दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। जैसा जीवन वर्तुलाकार है, ऐसा ही जीवन द्वंद्वात्मक भी है, डायलेक्टिकल है। और कोई भी चीज अकेली नहीं है, उसका विपरीत साथ में सदा मौजूद है।
जब पूरब धार्मिक होता है, तो पश्चिम बौद्धिक होता है। जब पश्चिम धार्मिक होता है, तो पूरब बौद्धिक हो जाता है। और ये पूरब और पश्चिम एक पूर्णता को दो हिस्सों में विभाजित करते हैं।
पूरब धार्मिक था अतीत में, आज पूरब बौद्धिक हो रहा है। पश्चिम कल तक बौद्धिक था, आज धार्मिक हो रहा है। पश्चिम में आज सबसे बड़ी जो तलाश है, वह ध्यान की है। पश्चिम से लोग पूरब की तरफ आ रहे हैं ध्यान की खोज के लिए, शांति की खोज के लिए। आत्मा-परमात्मा की क्या कोई प्रतीति संभव है--यह जीवन का जैसे महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण बिंदु हो गया है।
पूरब में लोग हंसते हैं। धन बड़ी चीज है। और अगर पूरब से कोई पश्चिम की तरफ जाता है, तो विज्ञान की खोज में जाता है, धर्म की खोज में नहीं। पूरब से भी पश्चिम की तरफ लोग जा रहे हैं, लेकिन विश्वविद्यालय, विज्ञान, टेक्नालाजी, अणुविज्ञान, इसकी तलाश में जा रहे हैं। पश्चिम से लोग पूरब की तरफ आ रहे हैं आत्मा और परमात्मा की खोज के लिए। यह बड़ी अनूठी घटना है कि पश्चिम पूरब के चरणों में बैठने को राजी है, अगर धर्म मिल सकता हो। और पूरब पश्चिम के चरणों में बैठने को राजी है, अगर धन मिल सकता हो।
एक संकट की घड़ी है, जहां गाड़ी का चाक पूरा का पूरा घूमने को तैयार है। जो ऊपर था, वह नीचे आ जाएगा; और जो नीचे था, वह ऊपर आ जाएगा। मूल्य रूपांतरित हो जाएंगे। गाड़ी के चाक में जो आरा ऊपर है, वह नीचे जा रहा है, जो नीचे है, वह ऊपर आ रहा है। यह संकट की घड़ी है, क्राइसिस है। इसमें सभी पुरानी व्यवस्थाएं अस्तव्यस्त हो जाएंगी, इसमें अराजकता सघन हो जाएगी।
और ऐसी ही अराजकता पैदा हो गई है। इसमें नीति के मापदंड टूट जाएंगे, इसमें पुरानी धारणाएं नष्ट हो जाएंगी। इसमें जो अब तक हमने व्यवस्था जमाई थी, वह सब की सब जैसे एक भूकंप आ जाए और जहां जमीन थी, वहां गङ्ढे हो जाएं; जहां पहाड़ियां थीं, वहां मैदान हो जाए; जहां झीलें थीं, वहां पहाड़ियां आ जाएं--ऐसी अवस्था है। यह जो सदी का अंतिम चरण है, बीसवीं सदी का, इसमें बड़ा भयंकर रूपांतरण होने के करीब है।
खतरा क्या है? खतरा यह है कि पूरब के पास जो बड़ी गहरी संपदा है, पूरब खो सकता है। खो रहा है। आप कितनी ही गीता पढ़ते हों, लेकिन आपके मन में गीता का मूल्य नहीं है। आप गुरु की तलाश में भी जाते हों, लेकिन गुरु के पास भी आप जाते हैं कि कहीं स्वास्थ्य मिल जाए, यश मिल जाए, पद मिल जाए, चुनाव जीत जाएं।
एक मित्र दो दिन पहले मेरे पास आए, कहा कि बड़ा मेरा व्यवसाय था, फिर आंखें कमजोर होकर खत्म हो गईं, अब मुझे दिखाई नहीं पड़ता, तो सब व्यवसाय से हट जाना पड़ा है। कुछ आप करें कि मेरी आंखें ठीक हो जाएं।
साठ के ऊपर उम्र जा चुकी है। मैंने उनसे कहा कि अब भीतर की आंख खोजनी चाहिए। प्रभु की कृपा कि बाहर की आंख बंद हुई, तो अब सारी शक्ति भीतर घूम सकती है। जो आंख बाहर देखती थी, अब भीतर देख सकती है। पर उनको बात जंची नहीं। उनके चेहरे से लगा, उनके भाव से लगा कि यह सुनने को नहीं आए। मैंने उनसे कहा, छोड़ो भी अब, काफी है तुम्हारे पास। उससे तुम्हारा बाहर का काम बड़े मजे से चल रहा है। और ज्यादा कमा कर भी क्या करोगे?
नहीं, उन्होंने कहा, बड़ा धंधा था और सब दूसरों के हाथों में देना पड़ा है।
वे दूसरे लूट भी लेंगे, तो भी कुछ उनको फर्क पड़ने वाला नहीं; काफी है, फिर भी मजे से जीवन चल सकता है। मेरी बात सुन लेते थे, लेकिन उन्होंने एक दफे सिर भी हां में नहीं हिलाया। चलते वक्त फिर बोले, इतना आशीर्वाद दें कि फिर से धंधा कर सकूं। मैंने कहा, क्या करोगे धंधे कर-कर के? जैसे धंधा आत्मा है!
यह पूरे पूरब की स्थिति है। अगर गुरु के पास भी हम जाते हैं, तो कुछ खोजने जा रहे हैं, जिसे खोजने हमें गुरु के पास जाना ही नहीं चाहिए। इसलिए जिन गुरुओं के पास कुछ मदारीगिरी है, वहां लाखों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। किसी के हाथ से भस्म निकलती है, तो लाखों लोग इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि वहां भरोसा मिलता है कि इस आदमी की अगर अपने पर कृपा हो जाए, तो कुछ भी हो सकता है, यह चमत्कारी है। जब चमत्कारी गुरु के पास लोग इकट्ठे होने लगें, तो समझना कि धर्म से लोगों की प्रतिष्ठा-भावना चली गई। चमत्कार से धर्म का क्या संबंध है!
एक झेन फकीर हुआ लिंची। एक दिन बोल रहा था अपने शिष्यों के बीच, एक आदमी बीच में खड़ा हो गया और उस आदमी ने कहा कि बातचीत तो बहुत सुनी है, कोई चमत्कार! मेरे गुरु थे, अब तो वे नहीं रहे, धर्म तो उनके पास था! नदी के एक तरफ मैं खड़ा हो जाता था हाथ में कागज लेकर, नदी के दूसरे किनारे पर वे खड़े हो जाते थे, आधा मील का फासला, और वहां से कलम से लिखते थे और मेरे कागज पर अक्षर आते थे--ऐसा कोई चमत्कार हो तो दिखाओ।
लिंची ने कहा, ऐसा कोई चमत्कार हमारे पास नहीं। हम तो सिर्फ एक छोटा-सा चमत्कार जानते हैं और वह चमत्कार यह है कि हम संतुष्ट हैं। बस, इतना-सा चमत्कार जानते हैं कि हम संतुष्ट हैं। और इतना ही हम दे सकते हैं कि जो हमारे पास आए, वह संतुष्ट हो जाए।
शायद वह आदमी तो समझ ही न पाया होगा। संतोष भी कोई चमत्कार है! लेकिन मैं भी आपसे कहता हूं, संतोष ही चमत्कार है। और पूरब असंतुष्ट है धन पाने को, पद पाने को, प्रतिष्ठा पाने को। भारत ने भी अणु-बम का विस्फोट किया, तो पूरा भारत का मानस बड़ा प्रफुल्लित है, बड़ा प्रसन्न है। जैसे हमने कोई बड़ी उपलब्धि कर ली! हमें यह खयाल भी नहीं आता कि अणु की शक्ति तुम उपलब्ध भी कर लोगे, तो भी तुम दुनिया में थर्ड रेट ताकत ही रहोगे, छठवां ही नंबर रहेगा, कोई अणु की शक्ति में तुम प्रथम कभी भी नहीं हो सकते। तुम पिछलग्गू, पीछे कतार में ही खड़े हुए रहोगे। इसमें कुछ प्रसन्न होने का मामला नहीं है।
 लेकिन जहां तुम प्रथम हो सकते हो, वहां से तुम्हारे पैर डगमगा रहे हैं। जहां दुनिया में तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं कर सकता, लाखों वर्षों की मेहनत के बाद जहां तुम्हें खड़ा कर गई है भारत की परंपरा, वहां से तुम डगमगा रहे हो। और एक क्यू में खड़े हो रहे हो छठवें नंबर, और सोच रहे हो, बड़ी खुशी की बात है।
कोई उपाय है, तुम सोचते हो? कोई उपाय है कि तुम रूस या अमरीका से कभी प्रथम खड़े हो जाओगे भौतिक समृद्धि में? वहां तुम दीन भिखारी ही रहोगे। और वह जो अणु-बम का तुमने विस्फोट भी कर लिया है, वह भी उधार है, वह भी दूसरों की सहायता पर है। उनकी सहायता बंद हो जाएगी, कल तुम वह भी न कर पाओगे। और वह निपट मूढ़तापूर्ण है। वह ऐसा है, जैसा गरीब अपने घर को बेचकर दीवाली मना ले फुलझड़ी-पटाखे चलाकर, और प्रसन्न हो ले। घर में बच्चे भूखे मर रहे हों और बाहर फुलझड़ी-पटाखे चल रहे हों। वह फुलझड़ी-पटाखा है! लेकिन हमारी उस तरफ उत्सुकता है आज।
 धन में, पद में, शक्ति में हमारी उत्सुकता है। और जब पश्चिम से लोग आते हैं धर्म की तलाश में पूरब की तरफ, तो हमको हंसी आती है कि ये पागल हो गए हैं, इनका दिमाग खराब हो गया। और जब पूरब से लोग पश्चिम जाते हैं इंजीनियर बनने, डॉक्टर बनने, अणु-वैज्ञानिक बनने, तो पश्चिम के लोग थोड़े चिंतित होते हैं कि इनकी भी खोज भौतिक ही है! निराश होते हैं। लगता है कि इनके पास जाकर हमें क्या मिलेगा, जो हमसे सहायता मांगने चले आते हैं! जो रोटी-रोटी के लिए मोहताज हैं और जिनका मन पूरे समय भौतिकता के लिए लगा हुआ है।
यह संकट है कि पूरब खो रहा है, जो उसने पाया था; और पश्चिम उसे पाने को उत्सुक हो रहा है, जिसे उसने पिछली सदियों में खोया है। खतरा क्या है? खतरा यह है कि तुम्हारे पास जो तैयार है, वह नष्ट हो जाएगा। और पश्चिम को अ, , स से शुरू करना पड़ेगा, जो कि बड़ा खतरा है। क्योंकि लाखों वर्ष में धर्म प्रतिष्ठित होता है। क्योंकि धर्म कोई साधारण बीज नहीं है।
एक तो बीज होते हैं मौसमी कि तुमने बोए नहीं कि अंकुर आने शुरू हो गए। पंद्रह दिन बाद अंकुरित हो जाएंगे, महीनेभर बाद फूल लग जाएंगे, दो महीने में नष्ट हो जाएंगे। भौतिकता के सभी फूल मौसमी हैं। धर्म कोई मौसमी फूल नहीं है। हजारों साल लगते हैं, उसका बीज अंकुरित होता है। सैकड़ों बुद्ध पैदा होते हैं, तब कहीं उसका बीज अंकुरित होता है। वह कोई एक दिन की बात नहीं है, जिसे तुम आज कर लोगे। लंबा, बड़ा लंबा प्रयोग चेतना को थोड़ा-सा रूपांतरित कर पाता है।
तो अगर थोड़ी-सी धर्म की संभावना है पूरब के पास, तो उसमें महावीर, बुद्ध, कृष्ण, राम के हाथ हैं।
और एक बड़े मजे की बात है कि विज्ञान तो साधारणजन भी पैदा कर लेते हैं, उसके लिए कोई विशिष्ट आत्मा की जरूरत नहीं पड़ती, सिर्फ नोऱ्हाऊ, सिर्फ तकनीकी ज्ञान चाहिए। और तकनीकी ज्ञान के लिए तो आत्मा की भी जरूरत नहीं है, कंप्यूटर भी कर लेगा। भविष्य में आने वाली विज्ञान की खोजों के लिए आइंस्टीन की जरूरत नहीं है, कंप्यूटर को सारा का सारा ज्ञान तुम दे दोगे, फीड कर दोगे, कंप्यूटर नए सिद्धांत निकाल लेगा। भविष्य के लिए तो आइंस्टीन की विज्ञान को जरूरत नहीं पड़ेगी, कंप्यूटर करने लगेगा यह काम, यंत्र ही कर देगा खोजबीन का काम। अभी भी यंत्र ही करता है। अभी भी जो मस्तिष्क खोजबीन करता है विज्ञान की, वह यांत्रिक अंग है तुम्हारा।
और धर्म तुम्हारी चेतना है, उस पर जब तक बुद्ध जैसी शुद्धता न हो, जब तक महावीर जैसा निर्दोष भाव न हो, जब तक कृष्ण जैसा नृत्यपूर्ण, समाधिस्थ चित्त न हो, तब तक उसकी झलक ही नहीं मिलती। विज्ञान तो सीधी-सपाट जमीन पर चलकर भी खोजा जाता है, धर्म के लिए तो गौरीशंकर के शिखर छूने पड़ते हैं, तभी उसकी उपलब्धि होती है। हजारों-हजारों साल लगते हैं, तब कभी धर्म के बीज जमीन में गहरे जाते हैं, उनमें अंकुर आते हैं।
और भारत ने एक प्रयोग किया था, न केवल अंकुर आए थे, बल्कि फूल भी आए। उस फूलों की विराट संपदा को तुम खोने को तैयार हो। और खो दोगे, क्योंकि तुम्हें वहां कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता, तुम पीठ किए खड़े हो। तुम्हें उसमें कुछ सार भी मालूम नहीं पड़ता। और पश्चिम को अ, , स से शुरू करना पड़ेगा। पश्चिम अगर धर्म की यात्रा शुरू करेगा, तो वहां से शुरू करेगा, जो हमने कोई पांच हजार साल पहले, वेद के समय में जहां से शुरू की थी। जहां तक हम पहुंचे, वहां तक पहुंचने में पश्चिम को फिर पांच हजार वर्ष लग जाएंगे। इस बीच आदमी का बचना असंभव हो जाएगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि भारत के हाथ में एक बड़ा नियतिपूर्ण कृत्य है। और वह यह है कि जो हमने खोजा है, जो सूत्र, जो मनुष्य की चेतना में प्रवेश के नियम हमने विकसित किए हैं, अगर तुम उन्हें छोड़ना भी चाहो, तो छोड़ने के पहले किसी को सौंप देना। इतना कम से कम कर जाना।
लेकिन ध्यान रहे, तुम सौंप वही सकते हो, जो तुम्हारे भीतर घटित हुआ हो। हम गीता दे सकते हैं पश्चिम को, गीता कचरा हो जाएगी, क्योंकि गीता में थोड़े ही है। गीता में शब्द हैं, उनका तो अनुवाद पश्चिम की सब भाषाओं में हो गया है, उससे कुछ हल होने वाला नहीं है। लेकिन कृष्ण में जो था, वह हम कैसे देंगे? गीता तो उसकी छाया-मात्र है, प्रतिध्वनि है। कृष्ण में जो घटा था, वह हम कैसे देंगे? वह तो हमारे भीतर कृष्ण पैदा होते रहें, तो ही दिया जा सकता है।
यही मेरा प्रयोजन है कि तुम्हारे भीतर ध्यानी का जन्म हो जाए। अगर भारत दस-पचास ध्यानी भी पैदा कर सके, जिनमें बुद्ध की प्रज्ञा का प्रकाश हो, फिर कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि यह सवाल नहीं है कि भारत में धर्म बचे कि पश्चिम में बचे, यह सवाल नहीं है--बचे। किस जमीन पर उसका मंदिर बनेगा, यह भी कोई बड़ी बात नहीं है, जमीन सब एक-सी हैं।
लेकिन तुम उस मंदिर को खंडहर किए दे रहे हो। पश्चिम के लोग अगर उसे ले भी जाएंगे, तो उनके हाथ में ईंट-गारा लगेगा, खंडहर, टूटे हुए टुकड़े। और पश्चिम अगर उनको सम्हालकर मंदिर बनाएगा भी, तो वह मंदिर म्युजियम में रखने योग्य होगा, जीवन का नहीं होगा। वही हो रहा है। वह मुर्दा होगा। म्युजियम में जाकर लोग उसको देख लेंगे, बाकी और उसका कोई प्रयोजन नहीं। उसमें से जीवन निकल गया होगा।
एक मंदिर तुम्हारे पास है, जो अभी भी गिर नहीं गया है। और जिनके पास आंखें हैं, उन्हें अभी भी वह जीवंत दिखाई पड़ता है। पर वह जल्दी गिर जाएगा, क्योंकि तुम उसे गिराने में लगे हो, तुम उसे मिटाने में लगे हो। तुम उस मंदिर की ईंटें निकालकर अपने घर की सीढ़ियां बना रहे हो। तुम उस मंदिर की मूर्ति को बेचकर तिजोरी भर रहे हो। तुम्हें खयाल भी नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो! उसका कारण है। जैसे मछली सागर में पैदा होती है, तो उसे सागर दिखाई नहीं पड़ता। वह वहीं पैदा होती है, सदा से परिचित होती है, भूल ही जाती है। ऐसे ही तुम एक मंदिर में ही पैदा हुए हो, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, तुम भूल ही गए हो।
मेरी पूरी चेष्टा यह है कि तुम्हें वह जीवंत मंदिर दिखाई पड़ने लगे। या तो तुम उस मंदिर के पुजारी हो जाओ फिर, जो कि सहज है तुम्हारे लिए। अगर यह असंभव ही हो, तो उस मंदिर को जीवंत दशा में उन्हें दे दो, जिनकी उसमें आकांक्षा है, जिनकी उसमें प्यास जग गई है। इसके पहले कि धर्म का मंदिर गिरे, या तो तुम उसे सम्हाल लो या वह मंदिर पश्चिम सम्हाल ले, लेकिन वह खंडहर न हो जाए और म्युजियम की चीज न बन जाए। उसके माध्यम से मनुष्य के बचने की संभावना का द्वार खुलेगा।
क्योंकि धन की दौड़ सिर्फ मिटाती है, महत्वाकांक्षा सिर्फ नष्ट करती है और अंततः पागलपन लाती है। कोई महत्वाकांक्षा से कभी संतुष्ट नहीं हुआ। कितनी ही बड़ी महत्वाकांक्षा सफल हो जाए, हर सफलता और असंतोष लाती है। सिकंदर भी मरता है, तो रोता हुआ ही मरता है, सब पाकर भी कुछ पाने जैसा नहीं मालूम पड़ता। सिर्फ धर्म संतोष लाता है, इसलिए संतोष चमत्कार है। और भिखारी भी संतुष्ट हो सकता है और हम देखते हैं कि सिकंदर भी असंतुष्ट मरता है।
धर्म के पास कोई रहस्यपूर्ण कुंजी है, जिससे हृदय के वे द्वार खुल जाते हैं, जहां से अमृत की वर्षा हो सकती है। उन कुंजियों को ही मैं ध्यान कह रहा हूं। और इस ध्यान से एक ही चमत्कार घटित होगा कि तुम परम संतुष्ट हो जाओगे। पर इससे बड़ी कोई घटना ही जगत में नहीं है। इससे बड़ा कोई रहस्य इस जगत में नहीं है कि एक व्यक्ति संतुष्ट हो जाए।
थोड़ा सोचो, थोड़ा सोचो इस बात को कि तुम संतुष्ट हो गए हो। कैसी वह घड़ी होगी जहां कि एक भी आकांक्षा नहीं उठती; जहां आगे एक क्षण में भी तुम्हारा रस नहीं है; तुम यहां और अभी और पूरे हो, जैसे सब फूल हृदय के खिल गए और तुम सुगंध से भर गए हो। और सुगंध ऐसी है कि एक अहोभाव पैदा हो रहा है, कि तुम परमात्मा को धन्यवाद दे सकते हो। कि तुम कह सकते हो कि एक श्वास भी मिल जाए इस आनंद की, तो बस काफी है, होना सार्थक हुआ। ऐसी परम धन्यता और सार्थकता की स्थिति को तुम सिर्फ सोचो, कल्पना करो, एक क्षण को भी वह मिल जाए, तो तुम्हारी जन्मों-जन्मों की पीड़ा झेलने जैसी थी।
इसलिए लिंची कहता है, एक ही चमत्कार हम जानते हैं। एक ही चमत्कार मैं जानता हूं।
मित्र हैं मेरे पास, जो कहते हैं कि आप कुछ ऐसा क्यों नहीं करते कि हाथ से भस्म पैदा हो जाए? लाखों लोग आ जाएंगे। लेकिन वे गलत होंगे। लाखों आ जाएंगे, लेकिन लाखों ही गलत होंगे। और उन लाखों की भीड़ में जो ठीक थोड़े से मेरे पास हैं, वे भटक जाएंगे, वे खो जाएंगे। क्योंकि जो ठीक मेरे पास हैं, वे उस लाखों की भीड़ में आगे न टिक पाएंगे, वह भीड़ आगे आ जाएगी। क्योंकि वह महत्वाकांक्षियों की भीड़ होगी, वह पागलों की भीड़ होगी। वह जो राख हाथ से गिरती देखकर इकट्ठे होते हैं, वे पागल हैं, उनको पागलखाने में होना चाहिए था। रोगग्रस्त हैं। और एक बार रोगी को बुला लो, तो फिर स्वस्थ को वह वहां नहीं टिकने देगा।
अर्थशास्त्र का सीधा-सा नियम है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। अगर तुम्हारे खीसे में एक नकली रुपया है, तो पहले तुम उसको चलाओगे, असली को दबाकर रखोगे। तो नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं, उनको कोई चलाता नहीं, पहले नकली को चलाता है; वह न चले तो फिर असली को चलाता है। और जहां भी नकली आदमी आ जाए, असली आदमी को पीछे कर देगा। क्योंकि नकली पहले चलना चाहता है।
धर्म का लाखों से कोई संबंध भी नहीं है, धर्म का संबंध तो बहुत थोड़े से लोगों से है। लेकिन ध्यान रहे, एक आदमी भी धार्मिक हो जाए, तो लाखों लोगों के जीवन में शांति की अनजानी किरणें उतरनी शुरू हो जाती हैं। वह आदमी एक सूरज की भांति हो जाता है, जिससे प्रकाश बहने लगता है। एक आदमी भी संतुष्ट हो जाए, तो इस जगत के असंतुष्ट पागलपन में दरार पड़ जाती है। एक शृंखला टूट जाती है। एक आदमी भी बुद्ध हो जाए, तो सभी लोगों की विक्षिप्तता की मात्रा कम हो जाती है। क्योंकि बुद्ध का शांत हो जाना संक्रामक है, बुद्धत्व संक्रामक है।
जैसे रोग फैलते हैं और एक आदमी रोग से भर जाए, तो सारे गांव को रोग से भर देता है। वैसे ही बुद्धत्व संक्रामक है और एक आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाए, तो यह पूरी पृथ्वी और ढंग की होती है। इसकी सारी चाल, इसके जीवन की शैली, सब बदल जाती है। बुद्ध तुम्हारे गांव से भी निकल जाएं, तुम अपने घर में सोए रहो, तो भी तुम वही नहीं होते, जो तुम बुद्ध के निकलने के पहले थे। तुम वही हो नहीं सकते, तुम घर में ही सोए रहो।
आज भारत असंतुष्ट है, बड़ी पीड़ा से भरा हुआ है, लेकिन फिर भी पश्चिम के लोग आकर तुममें भी शांति का अनुभव करते हैं। तुम खुद हैरान होओगे, पश्चिम के यात्री जाकर खबरें लिखते हैं, किताबें लिखते हैं कि अगर शांत देखना हो किसी व्यक्ति को तो भारत में व्यक्ति हैं।
बड़ी हैरानी की बात है। हमको भी चकित होना पड़ता है। क्योंकि तुममें कैसी शांति उन्हें दिखाई पड़ती होगी? तुममें कोई शांति नहीं है। लेकिन फिर भी तुम्हारे बीच से बहुत बुद्ध गुजरे हैं, उनकी छाया तुममें थोड़ी छूट गई है। उसका तुम्हें भी पता नहीं है। तुम्हारी हड्डी में, मांस-मज्जा में, तुम्हारे अनजाने, तुम्हारी बिना चेष्टा के, तुम्हारे विरोध के बावजूद, बुद्धों की छाया पड़ी है। जैसे कोई आदमी अनजाने बगीचे से गुजर जाए और उसके वस्त्रों में फूलों की सुगंध आ जाए, जिसका उसे पता भी न हो। यह भी हो सकता है, जिसकी उसे सुगंध ही न आती हो, क्योंकि उसकी नाक दुर्गंध की आदी हो।
एक आदमी गिर पड़ा है एक रास्ते पर बेहोश होकर। कड़ी धूप थी। भीड़ इकट्ठी हो गई। किसी ने जूता सुंघाया। रास्ता जो था, वह सुगंध का बाजार था। तो एक दुकानदार एक कीमती इत्र लेकर भागा हुआ आया और उसने कहा कि इसे सुंघाने से बेहोशी तत्क्षण दूर हो जाती है। उसने इत्र सुंघाया नहीं कि वह आदमी बेहोश तो था ही, बुरी तरह तड़फने भी लगा, हाथ-पैर फेंकने लगा, जैसे उसके प्राण घुटते हों।
तो भीड़ में खड़े एक आदमी ने कहा कि मार मत डालना उस आदमी को, यह मत करो, उसे मैं जानता हूं। उस आदमी की टोकरी--जो नीचे गिर पड़ा था, उसकी टोकरी--बगल में पड़ी थी। वह एक मछुआ था, मछलीमार, मछली बेचने वाला। उस दूसरे आदमी ने कहा कि मैं जानता हूं उसकी तकलीफ। यह उसकी जो टोकरी है, जिसकी मछलियां यह बेच चुका है, इस पर थोड़ा पानी छिड़को और यही सुगंध उसकी सुगंध है। जैसे ही उसके मुंह पर टोकरी रखी गई, जिससे मछलियों की बदबू आ रही थी, उस आदमी ने गहरी श्वास ली, वह होश में आ गया। उसने कहा कि दुष्ट मुझे मारे डालते थे।
मछली की गंध जिसे सुगंध हो, वह फूलों के बगीचे से ऐसे निकल जाएगा, जैसे दुर्गंध से निकल रहा है।
तुम बुद्धों के पास से ऐसे ही निकल गए हो। मगर फिर भी, तुम्हारे अनजाने, तुम्हारे विरोध के बावजूद भी उनकी सुगंध तुम्हें पकड़ गई है। वह तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा में हो गई। इसलिए पश्चिम के लोग आकर तुममें शांति देख लेते हैं। तुमको खुद शांति दिखाई नहीं पड़ती। उनकी तलाश है। वे बुद्ध की खोज पर निकले हैं। तुममें उन्हें थोड़ी सी भी किरण मिल जाती है, उन्हें लगता है...।
मगर उसमें तुम्हारा कोई गुण-गौरव नहीं है। तुम तो अभागे हो इस अर्थ में कि जहां तुम खुद बुद्ध हो सकते थे, वहां तुम सिर्फ एक छाया लेकर घूम रहे हो। और उस छाया को भी बेचने को तैयार हो। कोई दो रुपए तुम्हें दे दे, तो तुम बुद्धत्व को बेचने को तैयार हो। अगर बुद्ध हमारे पास हों और पश्चिम खरीदना चाहे, तो हम उनको एक एटम बम में दे देंगे। एटम बम ले लेंगे और छोड़ देंगे बुद्ध को। करेंगे भी क्या बुद्ध का? कोई युद्ध लड़ा जाता है उनसे! कि बुद्धत्व से कोई खेती-बाड़ी होती है! कि बुद्धत्व से कोई फैक्टरी बनती है!
यह संकट है कि पूरब के पास बना हुआ मंदिर है, जिसमें हजारों बुद्धों की मेहनत है। पश्चिम के पास वैसा मंदिर नहीं है। पश्चिम की तलाश है और तुम बेहोश हो। तो या तो यह मंदिर जीवंत पश्चिम को दे दो। ध्यान रहे, मंदिर उसी का है, जो प्रार्थना करने को तैयार है। मंदिर की कोई बपौती नहीं होती।
एक चर्च था जबलपुर में। वह बहुत दिन से बंद पड़ा था। उस चर्च के जो पूजक थे, वे जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए, तो वे भी चले गए। थोड़े से ही लोग थे उस पंथ के, वह चर्च बंद ही पड़ा था। उसका प्रधान पुजारी तो लंदन में है। मेरे पास कुछ ईसाई आए, जो उस पंथ को, उस चर्च को नहीं मानते। पर उन्होंने कहा, हमारे पास कोई चर्च नहीं है। आप क्या कहते हैं, अगर हम इसमें पूजा शुरू कर दें? तो मैंने कहा कि चर्च तो उसी का है, जो वहां पूजा करता है। तुम शुरू करो।
मगर पुलिस तो नहीं मानती इस बात को, अदालत भी नहीं मानती। उन्होंने ताला खोलकर पूजा शुरू कर दी, मैं उनके चर्च का उदघाटन भी कर आया। फिर मुझे अदालत में जाना पड़ा। क्योंकि वह लंदन से उन्होंने दावा किया कि यह गैर-कानूनन है और हमने दूसरों की संपत्ति पर कब्जा कर लिया है।
अदालत से मैंने इतना ही कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि मंदिर उनका है, जो पूजा करते हैं। मंदिर की और क्या बपौती हो सकती है? मंदिर कोई जमीन-जायदाद है? जो लंदन में बैठे हैं, वे यहां पूजा तो कर नहीं सकते, ताला डालकर बैठे हैं। तो ताला डला हुआ मंदिर बेहतर है कि ताला खुला हुआ मंदिर, जिसमें कि लोग पूजा कर रहे हों?
मजिस्ट्रेट ने कहा कि इन गंभीर बातों में हम न पड़ेंगे। हमें कानून से मतलब है, यह जमीन-जायदाद किसी और की है। मैंने कहा, तुम्हें होगा कानून से मतलब, मुझे प्रार्थना से मतलब है। अब हम क्या करें?
अगर भारत न सम्हाल सकता हो इस मंदिर को, तो जीवंत उन्हें दे दे, जो इसकी खोज में हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके पास बहुत से विदेशी दिखाई पड़ते हैं, उतने देशी नहीं दिखाई पड़ते!
इसमें मैं क्या करूं? मैं उनको मंदिर सौंप रहा हूं। मंदिर तुम्हारा है, मगर तुमने पूजा बंद कर दी है। और यह मंदिर कोई दिखने वाला नहीं है। दिखाई पड़ने वाला होता, तो अदालत में झंझट खड़ी होती। यह अदृश्य मंदिर है, इसको मैं सौंप दूंगा उनको। जो इसकी पूजा करना चाहते हैं, वे इसको ले जाएंगे। भारत ने जो खोजा है, उसे जीवंत पश्चिम पहुंचाना है। और या फिर भारत को सजग करना है। तो उसे पहुंचाने की कोई जरूरत न रह जाए।
मगर वह बचना चाहिए। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम की जो खोज है, वह बचनी चाहिए--उसे खोकर फिर पांच हजार साल मेहनत करनी पड़ेगी--यही मेरी चेष्टा है।


प्रश्न:
भगवान, एक पखवाड़े तक और अनेक आयामों से आपने हमें समझाया कि नहिं राम बिन ठांव।
और इसके लिए हम आपके अत्यंत आभारी हैं।
अंत में हम एक बार फिर आपसे प्रार्थना करेंगे कि सार और असार के प्रति हमारा विवेक जागे तथा
नहिं राम बिन ठांव की हमारी प्रतीति गहरी और अचल रहे, इसके लिए हमें कुछ और समझाने की कृपा करें।

सार और असार का बोध सबसे बड़ी संपदा है, लेकिन मन इस भेद को कभी कर नहीं पाएगा। मन असार है, यही अड़चन है।
तो मन तुमसे जो भी कहे सार है, उसे तुम समझना कि असार है। मन की मत सुनना। साधक की बड़ी से बड़ी तपश्चर्या यही है कि वह मन की न सुने। और मन सलाह दिए ही चला जाता है, तुम मांगो या न मांगो। तुम सुनो या न सुनो, मन दोहराए ही चला जाता है, जो उसे कहना है। और कठिनाई यह है कि बार-बार दोहराने से तुम सुन लेते हो। तुम इतने होशपूर्ण तो नहीं हो कि बार-बार दोहराई जाए बात, तो तुम उससे चूक जाओ; तुम सुन लेते हो। सलाह कोई देता ही चला जाए, तो वह सलाह तुम्हारी हो जाती है। और मन सलाह देने में बड़ा कुशल है। मन कहता है यह सार है। क्या है सार मन के हिसाब से?
इंद्रियों का भोग सार है, स्वाद सार है, कामवासना सार है, सौंदर्य-रूप सार है। मन का सार इंद्रियों से जुड़ा है। जिस-जिसमें इंद्रिय भोगती है, वहीं सार है। और इंद्रिय के सारे भोग कहीं भी नहीं ले जाते, सिर्फ तुम्हें चुकाते हैं। तुम रिक्त होते हो, खाली होते हो। इंद्रियों के सारे सुख ऐसे हैं, जैसे खाज की खुजलाहट।
जब खाज तुम्हें हुई हो--न हुई हो, तो अनुभव करने जैसी है एक दफा खाज, किसी तरकीब से खाज पैदा करो--तब खुजलाहट में बड़ा रस आता है। और जैसे-जैसे तुम खुजलाते हो, बड़ी मिठास पैदा होती है, एक मधुरिमा फैल जाती है। जैसे कोई एक बड़े सुख की गहन अनुभूति करीब आ रही है। और जितने ज्यादा तुम खुजलाते हो, एक घड़ी आती है कि वह जो मधुरिमा थी, वह जो माधुर्य मालूम हो रहा था, वह सब तिक्त और कड़वा हो जाता है, लहूलुहान हो जाता है। पीड़ा हाथ लगती है।
शुरू में मधुर लगता है इंद्रिय का भोग, पीछे पीड़ा हाथ लगती है। सभी इंद्रिय का भोग खाज की खुजलाहट है। लेकिन तुमने खाज खुजला भी ली हो, कष्ट भी पाया हो, खून भी निकल आया हो, फिर भी दुबारा जब खाज खुजलाएगी, तब फिर तुम्हारे हाथ खुजलाने को तत्पर हो जाएंगे।
मन की एक खूबी है कि वह प्रथम और अंत को जोड़ता नहीं, वह कार्य और कारण को संयुक्त नहीं करता। वह जो पीड़ा पीछे आई, वह शुरू में आने वाली मधुरिमा का फल है, ऐसा मन नहीं निर्णय लेता।
जिस मन ने ऐसा निर्णय ले लिया, वह संन्यस्त हो गया। जिसने देख लिया कि सभी सुख अंत में दुख हो जाते हैं, उसके लिए संसार असार हो गया। यही सूत्र है। सभी सुख, जिनको मन कहता है सुख हैं, अंततः दुख हो जाते हैं। जहां-जहां मन कहता है सुख है, वहां-वहां दुख उत्पन्न होता है। हां, ऊपर से आभास मिलता है। लेकिन जब तुम खोदते हो, तो दुख मिलता है।
अगर मन की तुम सुनते रहे, जैसा कि तुम जन्मों-जन्मों से सुनते रहे हो, जैसा कि तुम सुन रहे हो, मन फिर उन्हीं-उन्हीं सुखों में ले जाता है, जिनको तुमने कल जाना था और तुम दुख भोग चुके हो। लेकिन तुम कभी अंत और प्रथम को जोड़ते नहीं। प्रथम को और अंत को ठीक से जोड़ लेने पर, सभी सुख छिपे हुए दुख मालूम पड़ेंगे।
तब ऐसा लगेगा कि सुख तो सिर्फ निमंत्रण है दुख का। तब ऐसा लगेगा, सुख तो केवल द्वार है सजा हुआ नरक का। लेकिन द्वार की सजावट तुम्हें इतना आकर्षित कर लेती है कि तुम नरक में प्रवेश कर जाते हो और तुम कभी यह नहीं सोच पाते कि द्वार की सजावट ही तुम्हें नरक में ले आई है।
नरक का द्वार सजा हुआ होना ही चाहिए, नहीं तो प्रवेश कौन करेगा? स्वर्ग का द्वार बिलकुल गैर-सजा है। इसलिए अगर तुम सोच रहे हो कि स्वर्ग का द्वार तुम्हें सजा हुआ मिलेगा, तो तुम कभी स्वर्ग न पहुंच पाओगे। स्वर्ग का द्वार बिलकुल गैर-सजा है। वहां कोई सजावट तुम्हें न मिलेगी। वहां कोई तख्ती पर लिखा हुआ भी नहीं होगा कि यह रहा स्वर्ग, आओ, स्वागत है! इतना भी वहां नहीं होगा। इसकी कोई जरूरत नहीं है।
असल में झूठ प्रचार करता है, दुख स्वागत करता है, नरक निमंत्रण देता है।
काशी की एक दुकान पर, एक घी की दुकान पर एक तख्ती लगी है--असली शुद्ध घी की दुकान, और जो नकली सिद्ध करेगा, उसे पांच सौ रुपया तत्क्षण इनाम। फिर नीचे लाल अक्षरों में लिखा है कि ऐसे इनाम यहां कई बार बांटे जा चुके हैं। यानी आप कोई शक न करें, इनाम भी पक्का है, घी भी शुद्ध है।
जितना असत्य हो, उतना आयोजन है। सत्य सीधा-साफ है, असत्य का बड़ा प्रपंच है। नरक में कोई जाएगा ही कैसे अगर वहां सुगंध बुलाती न हो, द्वार पर स्वागत के लिए कोई खड़ा न हो?
मैंने सुना है, एक आदमी मरा, पहुंचा नरक और स्वर्ग के द्वार पर। उसने बीच में पूछताछ की, होशियार आदमी था, एकदम स्वर्ग में प्रवेश करूं कि न करूं, कि नरक में जाऊं। जैसा कि आदमी है, पूछताछ की यात्रियों से, इधर-उधर जाते लोगों से, कि भई कहां! एक दफे चले गए अंदर, तो बाहर आना हो न हो, पहले पक्का करके--अनुभवी आदमी था, संसार जान चुका था, परखकर--कहां जाएं?
तो एक देवता ने कहा कि इसमें तो बहुत मुश्किल पड़ेगी, मैं तुम्हें दोनों दिखा देता हूं, तुम पसंद कर लो। तो उसे स्वर्ग में ले गया। वहां इतनी शांति थी कि उस आदमी को उदासी मालूम पड़ी।
तुम अगर शांति में जाओगे, तुम्हें उदासी मालूम पड़ेगी। क्योंकि तुम इतने बड़े घने पागलपन के बाजार से आ रहे हो, उस बाजार को तुम जीवन समझे हो, तो शांति तुम्हें उदास मालूम पड़ेगी। उस आदमी को लगा, यह स्वर्ग तो मरघट जैसा है। क्योंकि हम सिर्फ मरघट पर ही शांत होते हैं और तो कहीं हम शांत होते ही नहीं। मरघट ही हमारा थोड़ा सा सन्नाटा सम्हाले हुए है, बाकी जिंदगी से तो सब तरफ से हट गया है। मौत में ही थोड़ी सी शांति है, जीवन तो हमने इतना अशांत कर डाला है।
उस आदमी को लगा कि यह सब उदास-उदास है, न कोई रौनक, न कोई राग-रंग, न कोई गीत, न कोई संगीत, कुछ भी नहीं है, एकदम सन्नाटा है। उसने कहा, यह तो कुछ मन को भाता नहीं। पर अभी निर्णय करना ठीक नहीं, पहले नरक देख लेना चाहिए। तो वह देवता के साथ नरक भी गया। वहां स्वर्ग में उसने लोग देखे, न कोई हंस रहा है, न कोई खिलखिला रहा है।
ध्यान रहे, खिलखिलाहट नरक में मिल सकती है, स्वर्ग में नहीं। क्योंकि जहां दुख है, वहां लोग हंसते हैं। हंसना दुख को छिपाने का ढंग है। जहां शांति, सुख परिपूर्ण है, वहां कोई हंसेगा किसलिए? इसलिए जब तुम किसी आदमी को बहुत खिलखिलाते देखो, तो यह मत समझ लेना कि बहुत परम अवस्था को प्राप्त आदमी हो गया। वह खिलखिलाहट पीछे किसी दुख को छिपा रही है, वह तरकीब है, वह अपने को भुला रहा है, वह मनोरंजन कर रहा है।
इसलिए दुनिया में जितना दुख बढ़ता है, उतने मनोरंजन के साधन बढ़ते हैं। फिल्म है, टेलीविजन है, रेडियो है, संगीत है, नाटक है, क्लब है--ये दुखी आदमी की ईजादें हैं। अगर आदमी सुखी हो, तो किसलिए क्लब जाएगा? वह अपने आंगन में बैठकर इतना सुखी होगा कि कहीं जाने का सवाल क्या! वह किसलिए रेडियो का उपद्रव और आवाज शुरू करेगा? क्योंकि वह सारी आवाज, वह संगीत जो उसके पास था, उसे छिन्न-भिन्न कर देगी। वह किसलिए आंखें दुखाएगा टेलीविजन पर? खाली आकाश काफी है, पर्याप्त है, जरूरत से ज्यादा है। नहीं, दुखी आदमी सुख और मनोरंजन की ईजादें करता है।
स्वर्ग में सब सन्नाटा था, लोग बैठे थे, उदास लगते थे। न कोई बातचीत कर रहा था, न कोई गपशप थी। अखबार तक नहीं छपता स्वर्ग में, क्योंकि कोई खबर नहीं। खबर के लिए तो उपद्रवी चाहिए। नरक में घर-घर अखबार छपते हैं। बड़े शानदार! जैसे अखबार वहां पढ़ने को मिलेंगे, कहीं नहीं मिलेंगे। क्योंकि घटनाएं वहां घटती हैं।
वह आदमी ने कहा कि जरा नरक और दिखा दो, फिर मैं तय करूं। नरक गया, तो बैंडबाजा, स्वर्ग दिखाई पड़ा नरक में। द्वार से ही शान, जैसे कोई बारात चल रही हो। और हर आदमी मस्ती में दिखाई पड़ा। खुद शैतान ने आकर स्वागत किया। स्वर्ग गया तो भगवान का तो कोई पता ही न चला। पूछा भी उसने, तो लोगों ने कहा, भई कुछ पता नहीं। होंगे, अपने में होंगे, हमें कुछ पता नहीं कहां हैं। हमें तो बस अपना ही पता है। जिसको अपना पता है, वहीं भगवान हैं। लेकिन स्वर्ग में कोई पता न चला, नरक में स्वागत करने के लिए शैतान द्वार पर खड़ा था अपने सब शागिर्दों के साथ। बड़ा गले लगाया। उस आदमी ने कहा कि जगह तो यह है! बड़ी उलटी हालत है, तख्ती गलत लगी है। जहां स्वर्ग लगा है वहां नरक मालूम पड़ता है, जहां नरक है वहां स्वर्ग मालूम पड़ता है। उसने कहा कि मैं यही चुनता हूं।
देवता बाहर चला गया, दरवाजा बंद हो गया। शैतान ने उसकी गर्दन पकड़ ली।
वह बोला, यह क्या करते हो? उसने कहा कि वह तो सिर्फ अतिथि का आयोजन था, अब असली नरक शुरू होता है। अब तुमने जो शास्त्रों में पढ़ा है नरक, अब वह शुरू होता है। वह तो सिर्फ स्वागत था, वह तो मेहमान के लिए आयोजन था, वह कोई असली नरक थोड़े ही था। यह हिस्सा तो सिर्फ मेहमानों के लिए है, अब आओ असली नरक में। तब उसे दिखाई पड़ीं लपटें, जल रहे कढ़ाए, उबल रही आग, लोग फेंके जा रहे हैं।
यही इंद्रियों की अवस्था है। वहां स्वागत है द्वार पर अतिथि का, फिर नरक है।
सार-असार का भेद अगर करना हो, तो जहां-जहां इंद्रियां कहें सार है, वहां सचेत हो जाना, वहां सावधान हो जाना, यही साधना है। और जहां-जहां इंद्रियां कहें यहां कुछ सार नहीं, वहां से भागना मत, वहां खोदना, वहीं तुम सार को पाओगे।
जब तुम ध्यान करने बैठोगे, तुम्हारा मन, तुम्हारी इंद्रियां सब कहेंगी, क्या कर रहे हो! इसमें कुछ सार नहीं, क्यों समय खराब कर रहे हो? इतनी देर में तो अखबार ही पढ़ लेते, कि रेडियो सुन लेते, कि इतनी देर में मित्र से गपशप कर आते, कि होटल हो आते, क्यों समय खराब कर रहे हो? सारी इंद्रियां कहेंगी कि बेकार बैठे हो, ऐसा बेकार बैठने से कुछ फायदा नहीं है। कुछ करो। ऐसा खाली बैठने से क्या होगा? तुम्हारा मन कहेगा, उठो, चलो, कुछ काम में लगो, इतनी देर को तो तुम धन में बदल ले सकते हो, इतना समय तो सिक्के बन सकता है।
ऐसे लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, समय नहीं है ध्यान करने के लिए। और इन्हीं को मैं सुनता हूं, बैठे बाजार में, ये कहते हैं, गपशप कर रहे हैं। क्या कर रहे हो? पान की दुकान पर पान चबा रहे हैं, सिगरेट पी रहे हैं। क्या कर रहे हो? कहते हैं, समय काट रहे हैं। ये, यही सज्जन समय काट रहे हैं। अगर मैं उनसे कहता हूं, ध्यान करो, वे कहते हैं कि समय नहीं है।
यह समय नहीं है, इनको पता नहीं कि इनकी इंद्रियों ने इनको समझाया है। क्योंकि जहां इंद्रियों को रस है, वहां तो वे कहती हैं काटो समय, क्योंकि समय का उपयोग ही यह है कि काटो। जब ये ध्यान करने बैठते हैं, तब इनका मन, इनकी इंद्रियां इनसे कहती हैं, समय कहां है, क्यों खराब कर रहे हो? न मालूम कितना सुख लूट लेते अभी इतनी देर में तो! और ऐसा बैठे-बैठे तो जड़ हो जाओगे।
जहां तुम्हारी इंद्रियां और मन कहें यहां कुछ भी नहीं, सचेत हो जाना, वहां कुछ है। वहीं खोदना। उस खोदने का नाम ही साधना है। और अगर यह खोदना ही तुम्हारे जीवन की चर्या और शैली हो जाए, तो इसका नाम संन्यास है।
सुख जहां द्वार पर मिले, वहां पीछे दुख मिलता है। दुख को झेलने को जो द्वार पर राजी हो, वह सुख के स्रोत को उपलब्ध हो जाता है। प्रथम जो दुख को झेलने को राजी हो, वह सुख को उपलब्ध हो जाता है। प्रथम जो सुख की मांग करता है, वह दुख को उपलब्ध हो जाता है।
सार का अर्थ है, जहां दुख शायद पहले मिले, सुख पीछे मिलेगा। असार का अर्थ है, जहां सुख पहले मिलता है, मिलता मालूम पड़ता है कम से कम, और पीछे दुख मिलेगा। सार का अर्थ है, द्वार बिलकुल रौनक-विहीन होगा, लेकिन पीछे स्वर्ग छिपा है। असार का अर्थ है, द्वार पर बड़ा स्वागत-समारोह है, दीवाली है, होली है, पीछे नरक है, पीछे दुख और पीड़ा है। कांटे के पीछे छिपा है फूल, फूल के पीछे छिपे हैं कांटे।
और जो अंत में मिलता है, वह साथ रह जाता है। इसलिए अंत को जो ध्यान में रखता है, वह सार को खोज लेता है। जो प्रथम को ध्यान में रखता है, वह असार में भटकता रहता है।
इस असार में भटकने की लंबी यात्रा हमारा संसार है। इस असार से छलांग सार में लगा लेने का नाम मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, राम कहें, जो कहना चाहें। और जिसको यह दिख गया कि इंद्रियां भटकाती हैं, भ्रामक हैं, वह राम की शरण में चला जाता है। वह कहता है, नहिं राम बिन ठांव।
तुम इंद्रियों की शरण में हो।
इसे एक तरफ से और देख लेना चाहिए। इंद्रियां बहुत हैं, कम से कम पांच तो तुम गिनती कर ही लेते हो। और पांच पर ही अंत नहीं है, क्योंकि हर इंद्रिय के अनेक रूप हैं, एक-एक इंद्रिय खुद भी एक भीड़ है। तो जो इंद्रियों की शरण में जाता है, वह खंड-खंड हो जाता है, क्योंकि बहुत मालिक हैं। दो ही मालिक हों, तो मुश्किल हो जाती है; बहुत मालिक हों, तुम्हारी क्या गति होगी?
ईसाइयों की पुरानी कथा है कि परमात्मा जोब की परीक्षा ले रहा था--उसकी श्रद्धा की, आस्था की, समर्पण की--तो उसने सब छीन लिया, सब छीन लिया उसका, लेकिन उसके मन से शिकायत न निकली। सिर्फ उसकी पत्नी छोड़ दी, सब छीन लिया, कोई शिकायत न निकली। इस कथा पर बहुत विचार चलता रहा है, जोब की कथा पर बहुत विचार चलता रहा है कि परमात्मा ने ऐसी परीक्षा क्यों ली? और सब छिन गया और जोब ने शिकायत न की!
लेकिन एक आदमी ने एक हसीद फकीर से पूछा कि और सब तो समझ में आता है, लेकिन परमात्मा ने पत्नी क्यों न छीनी? सभी छीन लिया था तो पत्नी भी छीननी थी, तो परीक्षा पूरी होती, पत्नी क्यों न छीनी? मतलब यह हुआ कि कुछ तो छूट गया था, कुछ बच रहा था उसके पास।
उस हसीद फकीर ने बड़ी अनूठी बात कही। उसने कहा कि तुम्हें पता नहीं, इसके पीछे राज है। और वह राज यह है कि परमात्मा ने सब छीन लिया जोब का और जब पाया कि वह परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया, तो सब चीजें दुगुनी करके लौटाईं--पत्नी इसीलिए नहीं छीनी कि फिर दो पत्नी लौटानी पड़तीं। और एक पत्नी ही सहना इतना मुश्किल है, दो तो जोब के लिए भी मुश्किल हो जातीं, वह जो इतना आस्थावान था। दो पत्नियां, दो हिस्सों में तोड़ देंगी तुम्हें, क्योंकि दो मालिक हो गए।
और इंद्रियां, हर इंद्रिय मालिक है, तुम खंड-खंड हो जाते हो, तुम टुकड़े-टुकड़े हो जाते हो, तुम्हारे सब खंड अलग-अलग चलने लगते हैं। तुम एक ऐसी बैलगाड़ी हो जाते हो, जिसमें सब तरफ बैल जुते हैं। हर बैल अपनी तरफ खींचता है, कभी एक बैल ले भागता है एक गङ्ढे में, कभी दूसरा बैल ले भागता है। रास्ते पर चलना तो असंभव ही है। जिस बैलगाड़ी में सब तरफ बैल जुते हों, उसका रास्ते पर चलना कैसे संभव है? कभी एक ताकतवर पड़ जाता है, कभी दूसरा शिथिल होता है, कभी दूसरा उदास होता है, कभी एक पगला जाता है, चलता रहता है। बैलगाड़ी के अस्थिपंजर ढीले होते जाते हैं, पहुंचते कहीं भी नहीं। वहीं मृत्यु होती है, जहां थे।
सब इंद्रियां तुम्हें अपनी-अपनी तरफ खींच रही हैं। आंख कहती है, आओ, रूप में रस है। कान कहते हैं, सुनो। उस ध्वनि के सिवाय और कोई सुख नहीं। कामवासना बुलाती है, भोजन पुकारता है। रस, गंध, सब खींच रहे हैं। तुम सब तरफ खिंचते हो। इस सबके बीच तुम्हारी जो दशा है, वह संताप की है, एंग्विश। कुछ फल नहीं, सिर्फ हड्डियां ढीली होती हैं। खिंचते हैं, टूटते हैं, नष्ट होते हैं। कहीं पहुंच भी नहीं पाते। कोई किनारा भी दिखाई नहीं पड़ता। यह तुम्हारी इंद्रियों के प्रति शरण की स्थिति है। तुमने इंद्रियों को अपना ठांव बनाया हुआ है। और जिसने बहुत मालिक चुने, वह पागल हो जाएगा।
इसलिए एंद्रिक व्यक्ति की जो आखिरी अवस्था है, वह विक्षिप्तता है। और तुम्हारी आखिरी मंजिल पागलखाना है। न पहुंचो वहां तक, उसका कुल मतलब इतना है कि तुम जो भी कर रहे थे, वह तुमने पूर्णता से न किया। मध्य में अटके रह जाओ, कुनकुने रह जाओ, बात अलग है। बाकी अगर तुम ठीक से चलो इंद्रियों की मानकर, तो तुम पागलखाने पहुंचोगे। वह उसका शुद्ध अंत है।
सांसारिक व्यक्ति अगर पागल न हो, तो उसका कुल मतलब इतना है कि वह सांसारिक भी था और पूरी तरह से सांसारिक नहीं था, तो अधूरे में लटका रह गया। बैल खींच भी रहे थे, लेकिन बैलों को ठीक भोजन नहीं दे रहा था। इसलिए खींचतान भी मची रही, रास्ते पर किसी तरह टिके भी रहे। यात्रा तो नहीं हुई, लेकिन रास्ते पर टिके रहे, गङ्ढे में न गिरे, भटके न। इसी को हम अच्छा आदमी कहते हैं, जो किसी तरह टिका है। बस थोड़ा-थोड़ा देता है भोजन इंद्रियों को, ज्यादा नहीं देता। जितना तुम दोगे, उतनी मात्रा में पागलपन पैदा होगा।
इसलिए हमारे बीच पागलों की जो भीड़ है, उसमें मात्राओं के भेद हैं, कोई बुनियादी भेद नहीं हैं। कोई थोड़ा ज्यादा पागल, कोई थोड़ा कम, कोई पचास डिग्री का, कोई साठ डिग्री का, कोई सत्तर डिग्री का पागल, कोई बिलकुल निन्यानबे डिग्री पर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब पार हो जाएं। बस, डिग्री के फर्क हैं। जहां बहुत मालिक होंगे, वहां विक्षिप्तता परिणाम होगी। विक्षिप्तता का अर्थ है, खंड-खंड, टूटे हुए।
राम की शरण जाने का अर्थ है एक मालिक। इसलिए राम से तुम यह मत समझना कि दशरथ के बेटे राम का कोई संबंध है। राम से तुम्हारे भीतर छिपे हुए ब्रह्म का संबंध है। तुम राम हो। तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो। शरीर हो, तो इंद्रियां तुम्हें विक्षिप्त कर देंगी। अगर अब तुम आत्मा हो, तो इंद्रियां धीरे-धीरे इस आत्मा के प्रति समर्पित हो जाएंगी।
ऐसा नहीं है कि यह जो राम के प्रति समर्पित व्यक्ति है, यह भोजन न करेगा। ऐसा भी नहीं है कि यह आंख खोलकर आकाश के सौंदर्य को नहीं देखेगा। ऐसा भी नहीं है कि इसके कान संगीत को सुनकर आनंदित न होंगे, होंगे। लेकिन एक क्रांतिकारी फर्क हो गया, इसकी इंद्रियां राम के प्रति समर्पित हैं, इसका राम इंद्रियों के प्रति समर्पित नहीं। आत्मा इंद्रियों की गुलाम नहीं है, इंद्रियां आत्मा की सेवक हैं।
और तब एक बुनियादी फर्क पड़ेगा। तुम धीरे-धीरे पाओगे, जब इंद्रियां मालिक होंगी, तो जितना कामोत्तेजक संगीत होगा, उतना तुम्हें अच्छा मालूम पड़ेगा। जब इंद्रियां राम के प्रति शरणागत होती जाएंगी, तो तुम पाओगे, धीरे-धीरे कामोत्तेजक संगीत संगीत नहीं मालूम पड़ता, उपद्रव मालूम पड़ता है, विसंगीत मालूम पड़ता है। उससे बाधा पड़ती है, उससे स्वर सधता नहीं, टूटता है। वह चोट की तरह मालूम होता है। इसलिए पश्चिम का संगीत है, वह चोट की तरह है। ऐसा लगता है कि तुम्हें झकझोरता है, शांत नहीं करता। जैसे-जैसे तुम्हारी इंद्रियां भीतर की तरफ समर्पित होंगी, तुम्हारा संगीत कीर्तन और भजन हो जाएगा, तुम्हारे संगीत में अध्यात्म प्रवेश कर जाएगा। तब तुम्हारा संगीत भी तुम्हें शांत करेगा, तो ही संगीत मालूम पड़ेगाा; अशांत करेगा, तो विसंगीत मालूम पड़ेगा।
और एक घड़ी ऐसी आएगी कि जब सिर्फ शून्य की अवस्था में ही तुम्हें संगीत मालूम पड़ेगा। तभी तुम्हें, जब सब तरफ सन्नाटा होगा, एक स्वर भी नहीं बोलता होगा, तभी तुम पाओगे, परम संगीत हो रहा है। तब परम नाद है। उसको हमने ओंकार कहा है। वह कोई स्वर नहीं है, वह कोई वीणा के तारों पर उठाई गई चोट नहीं है। क्योंकि वह भी चोट है, वीणा के तार पर भी हम चोट ही कर रहे हैं। माना कि चोट इस तरह कर रहे हैं कि दो चोटों के बीच एक लयबद्धता है, पर चोट ही है।
जैसे-जैसे इंद्रियां भीतर की तरफ समर्पित होंगी, शून्य का संगीत अनुभव होगा। जैसे-जैसे इंद्रियां भीतर की तरफ समर्पित होंगी, कामवासना क्षीण होगी, प्रेम सघन होगा। संगीत में स्वर खो जाएंगे, शून्य रह जाएगा। कामवासना में काम खो जाएगा, प्रेम रह जाएगा।
और ऐसा ही सभी इंद्रियों में होगा। आंखें आकार को धीरे-धीरे देखने में रस न लेंगी, निराकार को देखने में रस लेंगी। आंखों के लिए सौंदर्य फिर आकार में नहीं रहेगा, बल्कि आकार के कारण ही सौंदर्य में बाधा पड़ेगी। अगर तुम किसी व्यक्ति को सच में ही देख सको, तो तुम पाओगे, उसका शरीर चाहे कितना ही सुंदर हो, उसके शरीर के कारण ही उसका सौंदर्य कम हो रहा है। क्योंकि शरीर कितना ही सुंदर हो, सुंदर हो नहीं सकता। शरीर के कारण उसके सौंदर्य में बाधा पड़ रही है। सौंदर्य पूर्ण तो तभी होगा, जब शरीर बिलकुल नहीं होगा। तब बाधा डालने वाला कोई भी नहीं होगा।
चीन में फकीर कहते हैं कि जब संगीत पूरा हो जाता है, तो संगीतज्ञ वीणा को तोड़ देता है, क्योंकि अब वीणा से बाधा पड़ती है। जब मूर्तिकार परम निष्णात हो जाता है, तो छैनी को फेंक देता है, क्योंकि अब छैनी से जो भी बनेगा, वह सुंदर नहीं हो सकता। क्योंकि निराकार छैनी से तो नहीं बन सकता, आकार ही बन सकता है। फिर आकार कितना ही सुंदर हो, उसमें कमी रह जाएगी। क्योंकि आकार कभी पूर्ण नहीं हो सकता, उसमें सुधार किया ही जा सकता है। उसमें और सुधार, और सुधार की संभावना है। निराकार पूर्ण है, उसमें कोई सुधार की संभावना नहीं है।
आंखें तुम्हारी फिर भी सौंदर्य को देखेंगी, लेकिन आकार में सौंदर्य नहीं, निराकार में होगा। भोजन में तुम तब भी रस लोगे, लेकिन तब भोजन का पदार्थ अर्थहीन हो जाएगा, भोजन के भीतर जो छिपा प्राण है, वही सार्थक हो जाएगा। उसी अवस्था में उपनिषद के ऋषिओं ने कहा, अन्न ब्रह्म है। तुम सोच भी नहीं सकते कि कैसे अन्न ब्रह्म होगा! रोटी कैसे ब्रह्म होगी! और पंडितों से पूछोगे, तो वे व्यर्थ की बातें बता रहे हैं।
अन्न ब्रह्म है, यह उस स्थिति की अनुभूति है, जब इंद्रियां समर्पित हो गई हैं भीतर की आत्मा के प्रति। तब रोटी में भी राम दिखाई पड़ेगा। तब रोटी तो खोल रह जाएगी, राम उसमें सत्व रह जाएगा। तब रोटी तो शरीर में आएगी और निकल जाएगी, राम भीतर रह जाएगा। तब तुम्हारी सारी इंद्रियां संसार में ब्रह्म को पाने लगेंगी।
अभी तुम जब तक इंद्रियों के प्रति समर्पित हो, तुम्हें ब्रह्म में भी संसार दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुम राम के प्रति समर्पित हो जाओगे, तुम्हें संसार में भी ब्रह्म दिखाई पड़ने लगेगा।
नहिं राम बिन ठांव का अर्थ है, तुम्हारी ठांव तुम्हारे भीतर है, तुम्हारी मंजिल तुम अपने साथ लिए घूम रहे हो। और तुम व्यर्थ यहां-वहां खोज रहे हो। और इंद्रियों की सुनकर तुमने कितनी यात्रा कर डाली, कितनी पृथ्वियां, कितने चांदत्तारे तुम चले, कितने जन्म, कितने ढंग, कितने रूप, कितने आकार तुमने लिए! इंद्रियों ने जो कहा, तुमने वही पूरा किया। पहुंचे तुम कहीं भी नहीं हो, थक गए हो, फिर भी इंद्रियों की सुने जा रहे हो।
मैं रात निरंतर यात्रा करने के कारण कान बंद करके सोता हूं, इयर-प्लग लगा लेता हूं। तो सब आवाजें बंद हो जाती हैं। एअरकंडीशनर आवाज करता रहता है, पर मुझे सुनाई नहीं पड़ती। मुझे अक्सर सर्दी की तकलीफ होती है, तो जब कभी सर्दी की तकलीफ हो जाती है तो मेरी श्वास में आवाज आने लगती है। तब मुझे इयर-प्लग अलग करने पड़ते हैं। क्योंकि इयर-प्लग लगे रहें, तो फिर इयर-प्लग स्टेथोस्कोप का काम करने लगते हैं, फिर मुझे भीतर की आवाज बहुत ज्यादा सुनाई पड़ने लगती है, फिर सोना असंभव हो जाता है। तब इयर-प्लग अलग कर लेता हूं, कंडीशनर की आवाज आने लगती है, सड़क का ट्रैफिक सुनाई पड़ने लगता है, फिर मुझे भीतर की आवाज नहीं सुनाई पड़ती। वह चलती रहती है, मुझे सुनाई नहीं पड़ती।
बस, ऐसी ही अवस्था है। जब तक तुम्हारी इंद्रियां बाहर की सुन रही हैं, तब तक भीतर की आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। और जिस दिन भीतर की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी, इंद्रियां अंतर्मुखी हो जाएंगी, बाहर खो जाएगा।
दो तरह की अवस्थाएं हैं। इंद्रियों में ठांव है, यह एक मनोदशा है। इंद्रियों में ठांव नहीं, पड़ाव भी नहीं है, मंजिल तो दूर, यात्रा भी नहीं है, व्यर्थ है सब, तब राम में ठांव है। राम तुम्हारे भीतर हैं। तुम राम हो। तो जब मैं तुमसे कह रहा हूं, छोड़ दो सब राम पर, तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं, छोड़ दो सब भीतर पर। बाहर को जाने दो भीतर की तरफ, होने दो समर्पित भीतर की तरफ। केंद्र की तरफ परिधि का समर्पण हो--यह अर्थ है नहिं राम बिन ठांव का।
तुम केंद्र को समर्पित कर रहे हो परिधि के लिए। घर को बरबाद कर रहे हो बागुड़ के लिए। महल को मिटा रहे हो ताकि फेंसिंग ठीक बन जाए। शरीर को सम्हाल रहे हो, खुद को खो रहे हो।
जागो! और ध्यान केवल इतना ही करेगा कि थोड़ी देर को बाहर को बंद करेगा, ताकि भीतर के स्वर भी सुनाई पड़ने लगें। एक दफा सुनाई पड़ जाए भीतर का स्वर, फिर तुम पागल की तरह मदमस्त होकर दौड़ने लगोगे।
सुना है तुमने कि कृष्ण की बांसुरी बजती है, तो फिर गोपियां अपने घरों में काम नहीं कर पातीं, उनके हाथ-पैर डगमगा जाते हैं, गगरी छूट जाती है, मथनी भूल जाती है, भागती हैं मदहोश। यह कथा तो केवल प्रतीक है। इंद्रियां प्रतीक हैं गोपियों की। इंद्रियां स्त्रैण हैं। और जिस दिन भीतर की बांसुरी बजने लगती है, सुनाई पड़ने लगती है--बांसुरी तो बज ही रही है, लेकिन जिस दिन तुम थोड़ा सा ध्यान उस तरफ लगाते हो और बांसुरी सुनाई पड़ती है--बस इंद्रियां फिर भूल जाती हैं अपनी मथनी, अपना दूध, अपनी गगरी, अपना काम, मदमस्त होकर भागने लगती हैं। वह अंतिम दशा है, जहां भीतर के कृष्ण की बांसुरी बज रही है, और सारी इंद्रियां उनके आस-पास नाचने लगीं, परिधि नाचने लगी केंद्र के पास। इसको हमने रास कहा है, जो कृष्ण नाच रहे हैं और गोपियां चारों तरफ नाच रही हैं।
तुम्हारी हालत उलटी है, गोपियां भाग रही हैं, तुम उनके पीछे भाग रहे हो। और ध्यान रखें, कोई गोपी उससे राजी नहीं होती, जो उसके पीछे भागता है। तुम भागे गोपी के पीछे कि गोपी गई किसी और के पीछे, कि तुम बेकार हुए। वह तुम्हारा भागना ही बता देता है कि तुम अपने भी मालिक नहीं, दूसरे के मालिक होने का हक कहां से पाओगे! इंद्रियों के पीछे भागता हुआ आदमी, इंद्रियां भी समझ जाती हैं कि कैसे बेकार हो तुम! कुछ भी तुम्हारे पास नहीं! तुम क्षुद्र के लिए भाग रहे हो!
सचेत होओ। ध्यान तुम्हें सचेत करेगा। ध्यान तुम्हारी यात्रा का आयाम बदलेगा। और एक बार तुम्हें भीतर का स्वर सुनाई पड़ने लगे, क्रांति घटित हो गई। इंद्रियां अपनी जगह होंगी और स्वस्थ होंगी। उनका नाच भी चलता रहेगा, क्योंकि उनके नाच से कुछ बाधा नहीं है। लेकिन वे परिधि पर होंगी, अपने स्थान पर होंगी, तुम्हारे साथ चलेंगी, तुम्हारी छाया होंगी। और जिसने भीतर के इस राम को पा लिया, इस भीतर के केंद्र को पा लिया, उसे पाने को फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। तभी संतोष फलित होता है, उसके पहले संतोष नहीं होगा।
इसलिए लिंची ठीक कहता है कि एक ही चमत्कार हम जानते हैं और वह है संतोष। यही मैं तुमसे कहता हूं, एक ही चमत्कार मेरे पास है और वह है संतोष। और जिस दिन तुम भी थोड़े से संतुष्ट होओगे, उसी दिन तुम पाओगे कि बाकी सब चमत्कार मदारी के हैं, सब बचकानी बातें हैं। प्रौढ़ता के लक्षण नहीं। प्रौढ़ता तो एक ही आकांक्षा करती है कि ऐसी तृप्ति हो जाए, जिस तृप्ति में रत्तीभर कमी न हो। तृप्ति ऐसी पूर्ण हो जाए कि उसके पार पाने को कुछ न बचे। तृप्ति इतनी समग्र हो कि तुम्हारे पूरे रोएं-रोएं से धन्यवाद, अहोभाव, परमात्मा के प्रति कृतज्ञता प्रगट हो।
वह हो सकता है, उसके होने का पूरा इंतजाम तुम्हारे भीतर है, सिर्फ थोड़ा आयोजन बदलना है। सब उपकरण मौजूद हैं, सिर्फ थोड़ी सी व्यवस्था बदलनी है। आटा तुम्हारे पास है, पानी तुम्हारे पास है, आग जल रही है। उस आटे को जरा गूंथना है पानी में, रोटियां तैयार करनी हैं, आग पर सेंकनी हैं और भूख मिट जाएगी। लेकिन तुम बैठे हो, आटा रखे, पानी रखे, आग जल रही है, और रो रहे हो। सब तुम्हारे पास है, थोड़ी सी व्यवस्था!
वही व्यवस्था साधना है।

आज इतना ही।




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