बुधवार, 31 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-16



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

हंसो, जी भर कर हंसो—(सोलहवां प्रवचन)
दिनांक २६ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—अजीब लत लगी है रोज सुबह आपके साथ बैठ कर हंसने की!
2—कल किसी प्रश्न के उत्तर में आपने बताया कि क्यों साधारण व्यक्ति की समझ में आपकी बात आती नहीं। मुझे याद आया, आप पहली बार उन्नीस सौ चौंसठ में पूना आए थे, दो दिन आपके प्रवचन सुने थे, आप को स्टेशन पर छोड़ने आया था। तब मैंने आपको पूछा था: आपकी बात साधारण आदमी की समझ में आना मुश्किल लगता है। तब आपने कहा था: माणिक बाबू, कौन व्यक्ति खुद को साधारण समझता है? क्या ज्यादातर व्यक्ति इसी भ्रांति में होते हैं? यह व्यक्ति की असाधारणता की कल्पना नष्ट करने के लिए नव संन्यास उपयुक्त है। असाधारण को साधारण बनाने की आपकी कीमिया अदभुत है! इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
3—ईश्वर को देखे बिना मैं पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं? समझाने की अनुकंपा करें!
4—इतना आनंद शुरू हो गया है कि कुछ समझ में नहीं आता, बस यही लगता है--
आप जो मेरी पेशानी में हाथ लगा देते हैं।
सैकड़ों दीप मुहब्बत के जला देते हैं।।
दिल में आनंद का फूल महक उठता है।
मीरा के गीत जब मुझ को सदा देते हैं।।
हम कलमकार हैं सदाकत के आनंद।
जेरे खंजर भी अनलहक की सदा देते हैं।।
जमाने में रहे हैं वही फनकार जिंदा।
फिक्र को जो एक नई तर्जे अदा देते हैं।।


पहला प्रश्न: भगवान,
अजीब लत लगी है रोज सुबह आपके साथ बैठ कर हंसने की!

रंजन,
धर्म जब जीवित होता है तो हंसना प्रार्थना होती है; धर्म जब मर जाता है तो हंसने का दुश्मन हो जाता है। हंसना जीवन की धड़कन है। जो धर्म हंसना नहीं जानता, वह बहुत समय हुआ तब मर चुका, धड़कन बंद हो चुकी है, श्वास चलती नहीं है, लाश पड़ी है। लाश की पूजा चल रही है।
धर्म पृथ्वी को रूपांतरित नहीं कर पाता है इसीलिए कि धर्म बार-बार हंसने की भाषा भूल जाता है; गीत भूल जाता है; नृत्य भूल जाता है।
यह कोई लत नहीं है। यह तो तुम्हारी रोज की सुबह की प्रार्थना है, उपासना है। हंसो, जी भर कर हंसो! मेरे देखे, अगर कोई समग्ररूपेण हंसना सीख ले, कि जीवन की कोई भी परिस्थिति उससे उसकी हंसी न छीन पाए, उसकी मुस्कुराहट बनी ही रहे--सुख में दुख में, सफलता में असफलता में--तो कुछ और पाने को नहीं बचता। सब पा लिया! वैसी दशा ही समाधि है, मोक्ष है।
और जिसने हंसना आता है, उसके आंसू भी हंसते हैं। और जिसे हंसना नहीं आता, उसकी हंसी भी रोती है--रोती-रोती सी ही होती है। हंसी हंसी में भी तुम भेद देखो। उदास लोग भी हंसते हैं, मगर उनकी हंसी कड़वा स्वाद छोड़ जाती है। मस्त लोग भी हंसते हैं, उनकी हंसी से फूल झरते हैं।
मस्ती से हंसो।
एक हंसी होती है, जो सिर्फ अपने दुख को भुलाने के लिए होती है। उस हंसी का कोई बड़ा उपयोग नहीं है--धोखा है, आत्मवंचना है। एक हंसी है, जो तुम्हारे भीतर उठ रहे आनंद से, तुम्हारे भीतर उठ रहे गीत से झरती है। भीतर कुछ भरा-भरा है, इतना भरा है--जैसे बदली भरी हो वृष्टि के जल से, तो झुकेगी, कहीं बरसेगी; भिगाएगी जमीन को, पहाड़ों को, वृक्षों को नहलाएगी। उसे हलका होना ही होगा। जो हंसी तुम्हें हलका कर जाए, जो हंसी तुम्हारे आनंद का फैलाव हो, जो हंसी बांटती हो कुछ, वह हंसी पुण्य है।

एक मित्र ने पूछा है--सत्य निरंजन ने पूछा है--कि भगवान हाल ही में मैं मराठी साहित्य के एक ख्यातिनाम लेखक आचार्य अत्रे की जीवन-कथा पढ़ता था। उसमें एक जगह वे कहते हैं: इस दुनिया में दुख सहने का हास्य-विनोद ही एक राजपथ है। हास्य-विनोद सब से बड़ा मानव-धर्म है। मनुष्य के कल्याण के लिए आज तक अनेक अवतारी पुरुषों ने भिन्न-भिन्न धर्मों की स्थापना की है। किसी का धर्म दया पर आधारित है तो किसी का समता पर; किसी का सत्य पर तो किसी का अहिंसा पर। लेकिन आज तक ऐसा कोई धर्म-संस्थापक नहीं हुआ कि जिसने विनोद के वेदांत पर आधारित हंसते-खेलते हुए आनंदमय धर्म की स्थापना की हो। काश आज वे जीवित होते तो आपके रूप में ऐसा धर्म अवतरित होते देखने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता। भगवान, हास्य-विनोद की ऐसी क्या खूबी है?

आचार्य अत्रे के अंतिम दिनों में मेरा उनसे मिलना हुआ था। उनकी बेटी शिरीष पै मेरी शिष्या है। उसका बहुत आग्रह था कि इसके पहले कि उसके पिता जीवन छोड़ें, देह छोड़ें, मेरा उनका मिलना हो जाए। उनकी भी बड़ी आकांक्षा थी। तो मैं उन्हें देखने गया था। बिस्तर पर थे, अंतिम घड़ियां थीं। यह बात चली थी, जो बात सत्य निरंजन ने पूछी है। उन्होंने यही मुझसे कहा था कि दुख सहने का हास्य-विनोद एक राजपथ है। और मैंने उनसे कहा था, इस घड़ी में जब आप जीवन और मृत्यु के बीच जूझ रहे हैं, मैं कोई विवाद खड़ा करूं उचित नहीं है; लेकिन इतना जरूर निवेदन करूंगा कि फिर मेरे हास्य-विनोद में और आपके हास्य-विनोद में जमीन-आसमान का अंतर है। आप कहते हैं: हास्य-विनोद दुख सहने का राजपथ है। फिर तो धोखा हुआ। फिर तो अफीम का नशा हुआ। तो कोई अफीम लेकर दुख को भुला देता है, कोई शराब पीकर दुख को भुला देता है, कोई किसी और ढंग से। तो तुमने हंस कर भुला दिया, हास्य-विनोद में भुला दिया। मगर भुलाने से कोई चीज मिटती है? काश, इतना आसान होता कि हम भुला देते किसी बात को और वह मिट जाती! तब तो सभी बुद्ध हो जाते, कभी के बुद्ध हो जाते। बात इतनी आसान नहीं है। हम भुला कर बैठ जाएं थोड़ी देर को, अपने को भरमा लें; लेकिन जिसे हमने भुलाया है वह लौटेगा। भुलाया ही है, मिटा तो नहीं। भीतर पड़ा है। क्षण भर को छिपा लिया है, ओट में हो गया है, परदा डाल दिया है; जैसे किसी ने घाव के ऊपर फूल रख दिया हो। घाव के ऊपर फूल रखने से घाव थोड़े ही मिट जाएगा। हां, फूल रखने से शायद किसी को दिखाई न पड़े। शायद तुम भी थोड़ी देर को धोखा खा जाओ, आत्मवंचना में पड़ जाओ। मगर घाव जब तुम भूले हो, फूल रखकर, तब भी बढ़ रहा है, फैल रहा है। उसमें मवाद इकट्ठी हो रही है। वह नासूर बनेगा। वह कैंसर भी बन सकता है।
मेरे हास्य-विनोद में और आचार्य अत्रे के हास्य-विनोद में बुनियादी भेद है। वे कहते हैं, दुख को भुलाने का, दुख सहने का। और मैं कहता हूं, आनंद को प्रकट करने का, आनंद को अभिव्यक्ति देने का। पहले आनंद चाहिए, तब तुम्हारी हंसी में धर्म की सुगंध होती है; तब तुम्हारे रोने तक में धर्म की सुगंध होती है, हंसने की तो बात छोड़ो। तुम बैठो तो नृत्य होता है। तुम मौन रहो तो उपनिषद झरते हैं। तुम न कहो तो भी परमात्मा तुमसे प्रकट होता है। तुम चलो, उठो और तुम्हारे चलने-उठने में भी अलौकिक प्रसाद होता है; एक सौंदर्य होता है, जो इस पृथ्वी का नहीं है!
फिर हंसने की तो बात ही और। हंसना तो बहुत अदभुत घटना है। सिर्फ मनुष्य को छोड़ कर कोई पशु-पक्षी हंसता नहीं। किसी पशु-पक्षी की क्षमता नहीं है हंसने की। हंसने के लिए विवेक चाहिए, बोध चाहिए। हंसने के लिए समझ चाहिए। जितनी समझ गहरी होगी, उतनी ही गहराई तुम्हारे हंसने में भी आएगी।
इसलिए रंजन, मत ऐसा सोच कि अजीब लत लगी है। लत नहीं है यह। यह उपासना है, सत्संग है।
मैं एक जागते हुए, जीते हुए, हंसते हुए, नाचते धर्म को पृथ्वी पर फैलता हुआ देखना चाहता हूं। ऐसा धर्म, जो जीवन को अंगीकार करे, आलिंगन करे! जो जीवन के प्रति परमात्मा का अनुग्रह प्रकट करे! जो जीवन का त्यागी न हो। जो जीवन का निषेध न करता हो। जिसमें जीवन के प्रति अहोभाव हो। जो धन्यभागी समझे अपने को। जो हलका-फुलका हो, भारी-भरकम नहीं।
पुराने सब धर्म बहुत भारी-भरकम सिद्ध हुए। शुरुआत में तो ऐसे न थे। मगर यही तो दुर्भाग्य है कि आदमी के हाथ में जो चीज पड़ जाती है, वही बिगड़ जाती है। महावीर के साथ तो धर्म हंसता हुआ रहा होगा। बुद्ध के साथ तो हंसता हुआ रहा होगा। जीसस के साथ तो हंसता हुआ रहा होगा। नानक के साथ तो हंसता हुआ रहा होगा। अगर कबीर के साथ न हंसा होगा धर्म, तो फिर किसके साथ हंसेगा? फरीद के साथ न हंसा होगा, तो फिर किसके साथ हंसेगा? लेकिन पीछे जो लोग आते हैं, वे करीब-करीब विपरीत होते हैं। हर धर्म को जन्म देने वाले व्यक्ति के आस-पास पंडितों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है।
मैं बहुत सावधान हूं। इसलिए पंडितों को यहां टिकने ही नहीं देता। पंडितों को प्रवेश ही नहीं है। पंडित आ जाएं तो उन्हें ऐसा झकझोरता हूं, ऐसी उनकी पिटाई होती है कि वे भाग ही जाते हैं। फिर वे लौट कर कभी दोबारा नहीं आते। पंडितों से मैं सावधान हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे पीछे, मैं जो कह रहा हूं, वह पंडितों के हाथ में पड़े। क्योंकि उन्होंने सारे धर्मों को नष्ट किया है। पंडित गुरु-गंभीर होता है। उसे कुछ सत्य का तो पता होता नहीं। उसे कुछ जीवन का अनुभव तो होता नहीं। उसके पास शब्द होते हैं, तर्क जाल होते हैं। और तर्कजाल और शब्दों का वह धनी होता है। वह ऊंची-ऊंची बातें करता है, बड़े गहरे और उलझे सिद्धांतों की चर्चा करता है। उन सिद्धांतों की चर्चा करना और हंसने का मेल नहीं हो सकता। हंसना और ब्रह्मज्ञान की उलझी-उलझी बातें...जान कर उलझाता है, क्योंकि लोगों पर उलझी बातों का प्रभाव पड़ता है। जो बात लोगों की समझ में आ जाए, वे समझते हैं उसमें क्या रखा है! जो बात लोगों की समझ में न आए, लोग समझते हैं होगा कुछ रहस्य। लोग भी बहुत अदभुत हैं!
सत्य तो सीधा-सरल है। झूठ होते हैं इरछे-तिरछे। झूठ होते हैं उलझे हुए, पहेलियों जैसे। सत्य में क्या पहेली है? सत्य तो खुले आकाश जैसा है, कोरी किताब जैसा है। बेपढ़ा-लिखा भी पढ़ ले। कोरी किताब में पढ़े-लिखे होने की क्या जरूरत है? सत्य तो तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए है--बाहर-भीतर। दूर नहीं है। जैसे मछली सागर में है, ऐसे तुम सत्य में हो। लेकिन पंडित सत्य को बहुत दूर बताता है--दूर कहीं, आसमान पर, बहुत दूर, लंबी यात्रा। नक्शे देता है, मार्ग समझाता है।
सब नक्शे व्यर्थ, सब मार्ग झूठे; क्योंकि सत्य वहां है जहां तुम हो। जहां तुम हो वहीं जाग जाओ, बस वहीं जरा होशपूर्वक देख लो, वहीं जरा टटोल कर देख लो और तुम परमात्मा को पा जाओ। न कहीं जाना है--न काशी, न काबा, न कैलाश। न कुरान में, न बाइबिल में, न गीता में। अपने भीतर जाना है। वहीं से उठेगा कुरान। वहीं से उठेगी गीता। वहीं से जगेंगे उपनिषद। वहीं बज रही है बांसुरी कृष्ण की। अभी भी बज रही है। सदा बजती रही है। तुम्हारे भीतर अनाहत नाद हो रहा है।
मगर पंडित अगर दूर की बात न करे तो पंडित की जरूरत क्या! पंडित अगर उलझी बात न करे तो तुम पंडित को मूल्य क्या दोगे! पंडित का धंधा है--उलझाए। सुलझी बातों को जो उलझा दे, उसका नाम पंडित। सीधे-साफ को जो इरछा-तिरछा कर दे, उसका नाम पंडित। जिसके पास जाकर तुम गुरु-गंभीर होकर लौटो, उसका नाम पंडित। गए थे तो शायद कुछ समझ भी थी; लौटो तो वह भी गंवा कर आ जाओ--उसका नाम पंडित। गए थे तो थोड़ा बोध था और बुद्धू होकर लौटो, उसका नाम पंडित। हां, कूड़ा-करकट पकड़ा देगा, सिद्धांतों के जाल पकड़ा देगा--ऐसे जाल जिनसे कुछ हल नहीं होता। जालों में से जाल निकलते आते हैं। ऐसे उत्तर पकड़ा देगा, जिनसे हजार प्रश्न खड़े होते हैं। तुम एक प्रश्न पूछते थे, वह ऐसे उत्तर पकड़ाएगा कि जिनसे हजार प्रश्न खड़े हो जाएंगे। तुम्हारा एक प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा है सो खड़ा ही रहेगा। अब उसके उत्तर तुम्हें दिक्कत में डालेंगे।
ज्ञानी और पंडित में भेद है। ज्ञानी वह है, जिसने जाना। पंडित वह है, जो उधार बातों को दोहरा रहा है।
पंडित के हाथ में धर्म पड़ जाता है कि बस उसकी हंसी खो जाती है, मुस्कुराहट खो जाती है। जिस दिन धर्म की हंसी खो जाती है, उसका नृत्य खो जाता है, पैर में घूंघर नहीं बजते, हाथ में बांसुरी नहीं रह जाती--बस उसके बाद फिर लाश है। फिर पूजो! फिर करते रहो हवनऱ्यज्ञ, हाथ कुछ भी न लगेगा, बस राख ही राख है। फिर राख का ही प्रसाद है। फिर राख को तुम चाहे विभूति कहो, जो तुम्हारी मर्जी। तुम्हारे विभूति कहने से राख कुछ विभूति नहीं हो जाती। मगर कैसे-कैसे लोग हैं, राख को विभूति कह रहे हैं! राख को सिर पर डाल रहे हैं, माथे पर लगा रहे हैं और सोच रहे हैं कि बड़ा पुण्य-कर्म किया होगा पिछले जन्मों में। इससे यह राख माथे पर लगी, सिर पर पड़ी। पुण्य-कर्म से राख बरसती है? न मालूम किन पापों का फल भोग रहे हो! लेकिन कहते हो--विभूति! अच्छे-अच्छे नाम व्यर्थ की बातों को हम दे लेते हैं।
नहीं रंजन, यह कोई लत नहीं है। हंसो, जी भर कर हंसो! और हंसी के संबंध में कंजूसी मत करना। लोग बहुत कंजूस हो गए हैं, हर चीज में कंजूस हो गए हैं। उन चीजों के संबंध में भी कंजूस हो गए हैं, जिनमें तुम्हारा कुछ खोता नहीं। उन चीजों में भी कंजूस हो गए हैं जिनमें कौड़ी नहीं लगती। उन चीजों तक में कंजूस हो गए हैं, जिनको बांटने से वे चीजें बढ़ती हैं, घटती नहीं।
जीवन का एक अदभुत नियम समझो। बाहर को जगत की जितनी चीजें हैं, बांटोगे तो घट जाएंगी। भीतर के जगत की जितनी चीजें हैं, बांटो तो बढ़ जाएंगी। भीतर का अर्थशास्त्र अलग। बाहर ऐसा करोगे तो अनर्थ हो जाएगा। बाहर का अर्थशास्त्र अलग है।
एक भिखमंगे ने मुल्ला नसरुद्दीन से भीख मांगी। उसी दिन उसे लाटरी मिली थी। तो नसरुद्दीन मौज में था। एकदम फिल्मी गाना गाता हुआ चला आ रहा था घर की तरफ, नोट ही नोट तैर रहे थे चारों तरफ--आंखों में नोट, जेबों में नोट, आत्मा में नोट, नोट ही नोट थे! और इसी वक्त इसने मांगा। आज कृपणता न थी। और यह आदमी भला भी लगा, देखने से सुसंस्कृत लगता था, चेहरे से कुलीन लगता था। वस्त्र यद्यपि फटे थे, पुराने थे, मगर कभी शानदार रहे होंगे, कीमती रहे होंगे। सौ रुपये का नोट एकदम मुल्ला ने उसे दिया और पूछा कि मेरे भाई, तुम्हारी भाषा से, तुम्हारे खड़े होने के ढंग से, तुम्हारी आंखों में, तुम्हारे चेहरे से कुलीनता टपकती है। तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?
उसने कहा कि घबड़ाओ मत, अगर ऐसे ही सौ-सौ रुपये देते रहे तो यही हाल तुम्हारा हो जाएगा। इसी तरह मेरा हुआ।
अगर मेरी मानो तो--उसने कहा--जरा सोच-समझ कर देना। मैं अनुभव से कह रहा हूं।
बाहर तो बांटोगे तो कितना ही हो, तो भी बंट जाएगा। एक दिन तुम भिखमंगे हो जाओगे। बाहर कोई खजाना अकूत नहीं होता--कुबेर का भी नहीं। लेकिन भीतर का एक मजा है। भीतर अकूत खजाना है। तुम अगर प्रेम दो तो प्रेम घटता नहीं है, बढ़ता है। तुम अगर गीत गाओ तो गीत घटते नहीं, बढ़ते हैं। तुम जितना गाओ उतनी गाने की क्षमता प्रगाढ़ होती है, उतना तुम्हारा कंठ सुरीला होता है।
तुम हंसो! बांटो हंसी के मोती! और तुम कुछ संकोच न करना कि बांटा तो कहीं हंसी बंट न जाए! कहीं ऐसा न हो कि एक दिन हंसी से हम खाली हो जाएं! नहीं, जितना हंसोगे उतना भरोगे।
और दूसरी बात भी समझ लो कि अगर डर के कारण, कंजूसी के कारण हंसी को रोका तो हंसी मर जाएगी। धीरे-धीरे तुम हंसना भूल ही जाओगे।
लोग बाहर के अर्थशास्त्र को भीतर भी लागू कर देते हैं और तब उनके जीवन से कुछ चीजें खो जाती हैं। प्रेम तक करने में लोग डरते हैं। प्रेम देने में लोग डरते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि बस कोई ले ले और हम खाली के खाली रह जाएं, उत्तर दे न दे! पहले तय कर लेते हैं कि प्रेम का उत्तर भी मिलेगा या नहीं! यही नहीं, यह भी तय कर लेते हैं कि जितना हम देते हैं उससे ज्यादा मिलेगा कि नहीं। क्योंकि वही धंधे का नियम है: जितना हम दें, उससे ज्यादा मिले, तो धंधा। नहीं तो फायदा क्या!
इसी तरह के लोग तुम देखते हो चारों तरफ--जितनी क्षमता थी कि जो प्रेम के आगार बनते; जिनकी क्षमता कि जिनके भीतर से आनंद की फुलझड़ियां फूटतीं; जिनकी क्षमता थी कि जिनके भीतर समाधि का संगीत बजता--वे सब सूने-सूने, खाली-खाली, रिक्त, उदास हैं! कारण? बाहर के अर्थशास्त्र को भीतर लगा रहे हैं। भीतर और बाहर के नियम उलटे होते हैं। जो बाहर सच है वह भीतर बिलकुल सच नहीं होता। और जो भीतर सच है वह बाहर नहीं होता। बाहर के नियम को समझ कर तुम समझ लेना कि उससे ठीक उलटा नियम भीतर लागू होता है: बांटोगे तो बढ़ेगा; बचाओगे, घटेगा। अगर बिलकुल बचा गए, सड़ जाएगा, समाप्त हो जाएगा। तुम भूल ही जाओगे, हंसना ही भूल जाओगे।
ऐसे बहुत लोग हैं, जो हंसना भूल गए हैं। वे अगर मुस्कुराते भी हैं तो तुम देख सकते हो कि सिर्फ ओंठों का अभ्यास कर रहे हैं, व्यायाम। कहीं कोई मुस्कुराहट नहीं। हृदय में कहीं कोई कली नहीं खिलती, कोई गंध नहीं उठती। चिपकाई हुई मुस्कुराहट है। खींच रहे हैं, तान रहे हैं ओंठों को। नेतागण जैसे मुस्कुराते हैं। नेतागणों का तो सभी झूठा है। हंसना झूठा रोना झूठा। राजनीति का धंधा झूठा है। झूठ की संपदा ही वहां चलती है।
एक नेताजी की मगरमच्छ से बातचीत--

यार मगर,
थोड़े आंसू
उधार दे दो अगर
तो हम
देश की दुर्दशा पर
बहा आएं।

सूखी आंखों से
मगर ने कहा--
आपने बड़ी देर कर दी हुजूर,
सारा स्टाक तो
दूसरी पार्टी वाले
ले गए हैं।

कंजूसी न करना, रंजन।
और हम बड़े कृपण हैं। कंजूसों से पृथ्वी भरी हुई है। तरहत्तरह के कंजूस। और मैं पैसे, धन इत्यादि की बात नहीं कर रहा हूं। जो संपदा बांटने से बढ़ती है, उसमें भी कंजूस। कंजूसी ऐसी है कि लोग मरने को राजी हैं, अगर कुछ बचाने का उनको मौका मिले; जीवन देने को राजी हैं, कुछ बचाने का मौका मिले।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक रात एक आदमी ने एकांत में पकड़ लिया। छाती पर पिस्तौल लगा दी और कहा कि रख दो जो भी तुम्हारे पास हो। चाबी भी दे दो। या तो सब दे दो जो है और नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे।
मुल्ला ने कहा कि भई, एक दो मिनट सोचने दो। वह आदमी भी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, मैंने बहुत लोगों को लूटा, मगर जहां जिंदगी और मौत का सवाल हो वहां कोई सोचने की बात नहीं करता।
मगर मुल्ला ने कहा कि बिना सोचे मैं कोई काम नहीं करता। आंख बंद करके सोचा और फिर कहा कि ठीक है, तुम गोली मारो। वह आदमी और चौंका। पहली दफा जिंदगी में उसके हाथ ढीले पड़े कि इस आदमी को मारना कि नहीं मारना! उसने कहा कि भई मुझे भी सोचने दो, तुम आदमी कैसे हो! अरे थोड़े से पैसों के पीछे...!
मुल्ला ने कहा कि सवाल यह है कि पैसे मैंने बचाए हैं बुढ़ापे के लिए, पैसे चले गए तो फिर मैं मुश्किल में पडूंगा। अरे जिंदगी का क्या है, यूं मुफ्त में मिली थी, मुफ्त में जाएगी, एक दिन जानी ही है।
मैं तत्वज्ञानी हूं, मुल्ला ने कहा। मैं कोई छोटा-मोटा ऐसा-वैसा ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे, उनमें मेरी गिनती मत करना। मैं तत्वज्ञानी हूं। ब्रह्मज्ञान जानता हूं। अरे जीवन का क्या, यह तो खेल है, अभिनय है। यह तो लीला है भगवान की। दिया है, फिर मिलेगा। मगर जो मैंने बुढ़ापे के लिए रखा है बचाकर, वह मैं नहीं दे सकता। वह लीला नहीं है, वह खेल नहीं है। वह मामला गंभीर है। और फिर जीवन मुफ्त मिला है, मुफ्त तो जाना ही है। आज नहीं कल खतम होना है। ले ले, तू ही ले ले।
वह आदमी, कहते हैं, भाग गया। ऐसे आदमी को क्या करना! अरे मारे को क्या मारना! मरे-मराए को क्या मारना! यह तो स्वर्गीय है ही!
कंजूसी न करना।

कंजूस बाप को
मरती हुई हालत में देखकर
बेटे ने बुलवा लिया
दो गुना बड़ा कफन
और हुआ प्रसन्न
कि बाप जी ने जीवन-भर
बड़ा कष्ट पाया
न तरीके से पहना, न खाया
मैं आज कम से कम
जी भर
उढ़ा तो सकूंगा कफन
परंतु कान में पड़ते ही
लड़के की बात
बाप जी ने खोली
धीरे से आंख
और बोले
कि बेटे!
ठीक नहीं है तेरी मर्जी
क्यों करता है फिजूल-खर्ची
इस कफन के आधे से
मेरी लाश ढंकना
और आधा
जरा सम्हाल कर रखना
कपड़ा है
रखा रहेगा
बेकार नहीं जाएगा
तू जब मरेगा
तेरे काम आएगा

हंसो, जी भर कर हंसो। मेरा आश्रम हंसता हुआ होना चाहिए। हंसी यहां धर्म है। यह आनंद-उत्सव है। यहां उदास होकर नहीं बैठना है। यह कोई उदासीन साधुओं की जमात नहीं। उदासीनता को मैं रोग मानता हूं, साधुता नहीं--रुग्णता! जो उदासीन हैं, उनकी मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। प्रफुल्लता स्वास्थ्य का लक्षण है! प्रफुल्लित होओ और धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम्हारे जीवन में हंसी की किरणें फैलेंगी, चकित होओगे कि कितना हंसने को है! खुद के जीवन में हंसने को है, औरों के जीवन में हंसने को है! चारों तरफ हंसने ही हंसने की घटनाएं हैं। वह तो हम देखते नहीं, कंजूस हैं, कि कहीं हंसना न पड़े। तो हमने देखना ही बंद कर दिया है। नहीं तो चारों तरफ प्रतिपल क्या-क्या नहीं घट रहा है! हर चीज हंसने की है। कोई ऐसे ही थोड़े कि कभी-कभी कोई केले के छिलके पर फिसल कर गिर पड़ता है, हर आदमी यहां केले के छिलके पर फिसल रहा है! सड़कें केलों के छिलकों से भरी पड़ी हैं। यहां तुम हर आदमी को गिरते देखोगे।
और ऐसा नहीं है कि दूसरे ही गिर रहे हैं! दूसरों के लिए हंसे तो वह हंसी ठीक नहीं, काफी नहीं, पूरी नहीं, सम्यक नहीं। तुम अपने को भी गिरते देखोगे। और हंसी तो तुम्हें तब आएगी कि उन्हीं छिलकों पर गिर रहे हो जो तुम्हीं ने बिछाए थे, कोई और भी नहीं बिछा गया। उन्हीं गङ्ढों में गिर रहे हो, जो तुम्हीं ने बिछाए थे।
मेरे एक संन्यासी हैं, ईरानी हैं--डाक्टर हमीद। दिव्या से उनका प्रेम था। फिर थक गए, ऊब गए। हर चीज उबा देती है। हर चीज थका देती है। मन का यह नियम है। जब तक तुम मन के पार नहीं हो, ऐसी कोई चीज नहीं जो तुम्हें उबा न दे। और ये सब खेल, प्रेम हो कि घृणा हो, सब मन के ही खेल हैं। कभी एक ही सब्जी रोज-रोज खाओगे--भिंडी, भिंडी, भिंडी--एकदम घबड़ा ही जाओगे! एक दिन थाली फेंक कर खड़े हो जाओगे। मन घबड़ाएगा ही। फिर चाहे यह प्रेम हो तुम्हारे मन का और चाहे घृणा हो तुम्हारे मन की, मन जो भी करता है, उसमें जल्दी ही ऊब जाता है। ऊबना मन का स्वभाव है। वह जल्दी ही नये की मांग करने लगता है। वह कहता है, कुछ और। अब कुछ बदलाहट चाहिए। कुछ न कुछ बदलाहट।
डाक्टर ने एक अभिनेत्री को सलाह दी, आपके लिए वातावरण-परिवर्तन बहुत आवश्यक है।
अभिनेत्री ने कहा, वातावरण परिवर्तन! मैं पिछले चार वर्षों में दो पति, चार नौकर, तीन सेक्रेटरी और पांच प्रेमी बदल चुकी हूं, अब और क्या परिवर्तन करना पड़ेगा?
सो हमीद थके, बहुत थके। दिव्या भी थक गई। दोनों थक गए। बार-बार मुझे लिखने लगे कि हम दोनों को अलग करवा दें। जब मैंने देख लिया कि अब थकान बिलकुल सौ डिग्री पर आ गई, तो उन दोनों को अलग करवा दिया। थोड़े ही दिनों में फिर दोनों एक-दूसरे की आकांक्षा करने लगे। मन तो पागल है! फिर मुझे पत्र लिखने लगे कि हमें तो फिर साथ रहना है। महीने दो महीने मैंने टाला। जब फिर देखा कि अब बात सौ डिग्री पर पहुंची जा रही है, अब बिलकुल दीवाने ही हुए जा रहे हैं, तो दोनों को फिर साथ कर दिया।
दूसरे दिन सुबह ही हमीद ने मुझे एक पत्र लिखा और कहा कि सूफियों की एक कहावत जो मैं बचपन से सुनता रहा था, कभी मेरे समझ में न आई; आज आपने अवसर दे दिया कि समझ में आ गई। कहावत यह है कि आदमी ही एकमात्र गधा है, जो एक ही गङ्ढे में दोबारा गिरता है। कोई गधा नहीं गिरता। एक गङ्ढे में एक दफा गिर गया तो उस गङ्ढे में फिर न गिरेगा। तुम गधे को धकाओ तो भी इनकार करेगा, कि अब नहीं! अब गिरना ही है तो किसी और गङ्ढे में गिरेंगे!
यह तुम्हारा जो मन है, इस मन से तो जो भी हो रहा है, वह मूढ़तापूर्ण है। एक ही गङ्ढे में आदमी दोबारा नहीं, हजार बार गिरता है और जानता है कि यह गङ्ढा है और जानता है कि इसमें गिरने से चोट लगती है। और कितनी ही बार तय कर चुका कि अब नहीं गिरेंगे, मगर कुछ बात है। जैसे खाज को कोई खुजलाता है; जानता है, भलीभांति जानता है कि अभी खुजलाएगा, फिर अभी परेशान होगा, जलन उठेगी, लहू निकल जाएगा। मगर जब खुजलाहट उठती है तो ऐसी मिठास पकड़ती है।
तो तुम अपने ही बिछाए केले के पत्तों पर गिरते हो। अगर जिंदगी को जरा गौर से देखो तो यहां हंसने ही हंसने जैसा है। चारों तरफ घटनाएं ही घटनाएं बिखरी पड़ी हैं। चुटकुलों से पटी हुई पड़ी है पृथ्वी--पत्थरों से नहीं, चुटकुलों से। जरा देखो, जरा खोजो।
मुल्ला नसरुद्दीन शिकार को गया। बैठा था बंदूक वगैरह लेकर एक झाड़ के पास, उसका संगी-साथी एक भागा हुआ आया और उसने कहा कि नसरुद्दीन, क्या कर रहे हो! अरे जल्दी आओ! जिस तंबू में तुम ठहरे हो, तुम्हारी पत्नी अकेली है और एक चीता अंदर घुस गया है।
नसरुद्दीन खिलखिला कर हंसा। उसने कहा, अब कमबख्त को पता चलेगा। अब करे अपनी आत्मरक्षा खुद ही! हम क्यों आएं! गया ही क्यों अंदर? हमारी कौन आत्मरक्षा करता है? हम अपने को बचाते हैं। अब बचाए अपने को! चीता हो कि कोई हो। वैसे भी हमें चीतों से कुछ लेना-देना नहीं है। अब बच्चे को छठी का दूध याद आएगा, कि कहां पर घुस गए!
मैंने यह भी सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक बार सरकस आया, उसमें से चीता छूट भाग निकला। पूरे गांव में डुंडी पीटी, पुलिस सतर्क की गई, भोंपू बजाया गया कि सब लोग सावधान रहें। मुल्ला तो जल्दी से सीढ़ी लगा कर अपने छप्पर पर चढ़ गया और सीढ़ी भी खींच ली। उसकी पत्नी मोटी भी बहुत है, ऊंची भी बहुत है। वह चिल्लाई कि अरे, यह क्या करते हो? उसने कहा कि तू चढ़ेगी तो सीढ़ी तोड़ देगी।
और उसने कहा कि और चीता आ गया, फिर?
उसने कहा, तू क्यों घबड़ाती है? अरे चीता कोई क्रेन लेकर थोड़े ही आएगा! तेरा क्या बिगाड़ लेगा? ये भोंपू वगैरह तो हम जैसे गरीबों के लिए बज रहे हैं, तू बेफिक्री से रह। चीता आएगा तो खुद अपना बचाव करेगा।
जिंदगी पटी पड़ी है, अगर तुम गौर से देखो। यहां हंसने को बहुत है। लेकिन चूंकि तुम्हारे भीतर की क्षमता खो गई है, इसलिए बाहर देखने का भी मौका नहीं मिलता; दृष्टि भी खो गई है।
एक मुकदमे में मुल्ला नसरुद्दीन पर भी गवाही देने का काम था। गवाही देते वक्त उसने बार-बार सिद्ध करने का प्रयास किया कि अमुक-अमुक होटल में बदमाशी का अड्डा है। बचाव-पक्ष का वकील बराबर विरोध करता रहा।
उस होटल में बदमाशी का अड्डा है, यह सिद्ध करने के लिए तुमने जो दलीलें पेश की हैं, उनमें दम नहीं है। ऐसी कोई ठोस वजह बता दो जिससे तुम्हारी बात पर विश्वास किया जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मानते नहीं तो फिर मैं बताए देता हूं। फिर मत कहना।
वकील भी थोड़ा डर कि क्या बताएगा! उसने कहा, हां बताओ, क्या डराते हो!
तो उसने कहा कि एक बार मैंने आपको भी वहां बैठे देखा था। और क्या ठोस प्रमाण चाहिए?
रंजन, हंसो, जी भर कर हंसो। हर बहाने हंसो। न बहाने मिलें तो बिन बहाने हंसो।
मुल्ला नसरुद्दीन बैठा था एक स्टेशन पर। ट्रेन लेट थी। जैसा कि नियम है। दो-चार बार उठ कर भी गया, स्टेशन मास्टर को पूछा भी; मगर जब जाए तभी और लेट होती जाए। आखिर उसने कहा कि मामला क्या है, क्या ट्रेन पीछे की तरफ सरक रही है? लेट होना भी समझ में आता है, मगर और-और लेट होता जाना....क्या ट्रेन उस तरफ जा रही है? फिर आएगी कैसे? और जब हर गाड़ी को लेट ही होना है तो टाइम-टेबल किसलिए छापते हो?
उस स्टेशन मास्टर ने कहा, टाइम-टेबल नहीं छापेंगे तो पता कैसे चलेगा कि कौन सी गाड़ी कितने लेट है?
नसरुद्दीन ने कहा, यह बात जंचती है। यह बात पते की कही!
फिर उसने कहा, अब कोई फिक्र नहीं। अब मैं बैठ कर राह देखता हूं।
बैठ कर वह राह देखने लगा। बीच-बीच में हंसे। कभी-कभी ऐसा झिड़क दे कोई चीज हाथ से। कभी-कभी कहे--छिः छिः! वह स्टेशन-मास्टर थोड़ी देर देखता रहा कि यह कर क्या रहा है! बार-बार आता था, वही अच्छा था पूछने, अब यह और उत्सुकता जगा रहा है। किसी चीज को हाथ से सरकाता है, किसी चीज को छिः छिः कहता है, कभी कुछ। और फिर बीच-बीच में हंसता है, ऐसा खिलखिला कर हंसता है! आखिर वह आया, उसने कहा कि भाईजान, बड़े मियां! आप मुझे काम ही नहीं करने दे रहे हैं। मेरा दिल यहीं लगा है। इसमें कुछ गड़बड़ हो जाए, ट्रेन पटरी से उतर जाए कि दूसरी पटरी पर चढ़ जाए, कि दो ट्रेनें टकरा जाएं, जब तक मैं आपसे पूछ न लूं, मुझे चैन नहीं है। या तो आप जरा दूर जाकर बैठो। आप कर क्या रहे हो? आप हंसते क्यों हो बीच-बीच में? कुछ भी तो नहीं हो रहा है यहां। गाड़ी लेट है। सब सन्नाटा छाया हुआ है। रात आधी हो गई है। सब यात्री बैठे-बैठे सो गए हैं। कुली-कबाड़ी भी विश्राम कर रहे हैं। तुम हंसते किसलिए हो बीच-बीच में?
उसने कहा कि अब मैं बैठे-बैठे क्या करूं? अपने को कुछ चुटकुले सुना रहा हूं।
उसने कहा, चलो, यह भी समझ में आ गया कि चुटकुले। ये बीच-बीच में छिः छिः और यह हाथ से हटाना, यह क्या करते हो?
तो उसने कहा कि जो चुटकुले मैं पहले सुन चुका हूं, उन्हें कहता हूं...अरे हटो, रास्ते पर लगो! उनको ऐसा हटा देता हूं। बीच-बीच में घुस आते हैं।
हंसो--बहाने मिलें तो ठीक, न बहाने मिलें तो कुछ खोजो! मगर जिंदगी तुम्हारी एक हंसी का सिलसिला हो। हंसी तुम्हारी सहज अभिव्यक्ति बन जानी चाहिए।
मेरा संन्यासी हर हालत में मस्ती और आनंद को अभिव्यंजन दे। यही मेरी आकांक्षा है।
सुंदर लत है। अगर लत है, तो सुंदर है, प्यारी है, शुभ है। बड़ी धार्मिक लत है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
कल किसी प्रश्न के उत्तर में आपने बताया कि क्यों साधारण व्यक्ति की समझ में आपकी बात आती नहीं। मुझे याद आया, आप पहली बार उन्नीस सौ चौंसठ में पूना आए थे, दो दिन आपके प्रवचन सुने थे, आप को स्टेशन पर छोड़ने आया था। तब मैंने आपको पूछा था: आपकी बात साधारण आदमी की समझ में आना मुश्किल लगता है। तब आपने कहा था: माणिक बाबू, कौन व्यक्ति खुद को साधारण समझता है? क्या ज्यादातर व्यक्ति इसी भ्रांति में होते हैं? यह व्यक्ति की असाधारणता की कल्पना नष्ट करने के लिए नव संन्यास उपयुक्त है। असाधारण को साधारण बनाने की आपकी कीमिया अदभुत है! इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।

योग माणिक, साधारण कोई व्यक्ति अपने को समझता नहीं। जो समझ ले, वह साधारण न रहा; वह असाधारण हो गया। जिसने समझ लिया कि मैं साधारण हूं, इससे बड़ी और कोई असाधारणता नहीं है। जिसने जाना कि मैं अज्ञानी हूं, उसके जीवन में ज्ञान का द्वार खुला। जिसने जाना कि मैं पापी हूं, उसने पुण्य की तरफ पहला कदम उठाया।
लेकिन हमारा अहंकार हमें कुछ और कहलवाता है। हमारा अहंकार कहता है: तुम और साधारण! सारी दुनिया साधारण है, तुम असाधारण हो! कोई माने या न माने, कोई जाने या न जाने। जब लोग जानेंगे तब पछताएंगे। प्रत्येक के भीतर...
अरबी कहावत है कि परमात्मा जब भी आदमी को बनाता है, किसी भी आदमी को, तो वह एक मजाक सबके साथ कर देता है। चलते-चलते, धक्का देते-देते आकाश से जमीन की तरफ वह कान में कह देता है कि भैया सुन, तुझसे ज्यादा असाधारण व्यक्ति मैंने दूसरा कभी नहीं बनाया। मगर किसी से कहना मत, इस बात को गुप्त ही रखना। सो लोग इस बात को गुप्त रखे हैं। दिल ही दिल में छिपाए हुए बैठे हैं। हर आदमी यही सोच रहा है कि मैं असाधारण हूं और दूसरी सारी दुनिया साधारण है। इसी तरह तो अहंकार पलता है, पोषण पाता है।
लाख घटनाएं तुम्हें बताती हैं कि अज्ञानी हो। लाख घटनाएं तुम्हें बताती हैं कि मूर्च्छित हो, बेहोश हो। लाख घटनाएं तुम्हें बताती हैं कि कहां की समझ, जंग खा चुकी है तुम्हारी समझ! लोगों ने तुम्हारी समझ के ऊपर खूब कूड़ा-कचरा थोप दिया है और तुम उसको छाती को लगाए बैठे हो--यह सोच कर कि यह बहुमूल्य है। ज्ञान को पकड़े बैठे हो, जो उधार है। उधार और ज्ञान, होती ही नहीं! ज्ञान या तो अपना होता है या होता ही नहीं। लेकिन गीता कंठस्थ है, कुरान कंठस्थ है। समझ जरा भी नहीं, बोध कणमात्र नहीं। कुरान पूरा दोहरा देते हो। फिर स्वभावतः यह खयाल पैदा होता है कि मुझ जैसा ज्ञानी कौन! पंडित हूं, मौलवी हूं, शास्त्री हूं, शास्त्रज्ञ हूं!
और अहंकार इन्हीं झूठे सहारों पर टिका हुआ जीता है। हालांकि तुम्हारा जीवन कुछ उलटा ही साबित करता है। अगर तुम्हारी जिंदगी को तुम जरा भी साक्षी-भाव से देखो, तो तुम पाओगे कि कुरान कहां काम आती है? गीता रटे बैठे हो, मगर काम कहां आती है? गीता बिलकुल शुद्ध तुम्हें याद है और कोई आदमी एक चपत लगा दे कि आगबबूला हो जाते हो; तब भूल ही जाते हो कि सुख-दुख में समभाव...। उस वक्त अगर कोई याद दिलाए गीता की तो और गुस्सा आता है कि यह कोई वक्त है गीता याद दिलाने का! अरे इस वक्त तो इसको मजा चखाऊंगा, फिर पीछे कर लेंगे गीता का पाठ। कि अर्जुन पूछता है: हे कृष्ण, स्थिति-प्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? समता में जीता, न सफलता न असफलता डिगाती। और तुम्हें किसी ने जरा सी चपत लगा दी, शायद सच में चपत न भी लगाई हो, सिर्फ चपत बता दी दूर से। लगाई भी नहीं, बता दी।
मैं छोटा था, मेरे घर और स्कूल के बीच में एक मिठाई वाले की दुकान थी। बड़े भक्ति-भाव वाले आदमी थे वे। बड़ा लंबा टीका लगाते थे! और चूंकि उनके बाल गिर चुके थे तो उनका टीका बिलकुल चांद तक चला जाता था। लोग उनको चंदुआ कहते थे। चंदुआ कहने से वे चिढ़ते थे। चंदुआ कहो तो झगड़ा हो जाए। तो मैंने एक तरकीब निकाली। मैं उनसे चंदुआ नहीं कहता था, सिर्फ उनकी दुकान के सामने खड़ा हो जाता, ताली बजाता और अपनी चांद पर हाथ रख कर हिला देता। यह देखते ही उनको एकदम आग लग जाती। छोड़-छाड़ कर, तराजू वगैरह नीचे पटक कर वे एकदम मेरे पीछे भागते। मैं उनसे कहता कि कुछ बोला भी नहीं, एक शब्द नहीं बोला; अब ताली तो मेरी है, मैं बजाऊं तो तुम इसमें तो रोक नहीं सकते। चांद भी मेरी है, मैं अपनी चांद पर हाथ रखूं तो तुम्हें इसमें क्या एतराज है?
अब मगर वे अपने दिल का दुख किससे कहें! यह बात फैलती गई। स्कूल से दो हजार विद्यार्थी निकलते थे वहां से, सबमें हवा फैल गई कि ताली बजाने से और चांद पर हाथ रखने से यह आदमी एकदम भनभना जाता है। अब दो हजार लड़कों के पीछे किस-किस के दौड़ोगे! और यह दिन भर सिलसिला लगा रहे, कभी स्कूल जा रहे, कभी स्कूल से आ रहे, कभी दोपहर की छुट्टी, कभी यह कभी वह। यह कतार बंधी ही रहे। और जो निकला वही ताली बजाए। जैसे ही छुट्टी का घंटा बजे स्कूल में, वह जल्दी से भीतर हो जाए अपनी पत्नी को बाहर बिठाल दे।
मैं एक दिन आ रहा था तो उसने देखा मुझे दूर से ही आते, जल्दी भीतर हो गया। पत्नी को दुकान पर बिठाल दिया। मैं भी खड़ा ही रहा और ताली बजाता ही रहा। पत्नी ने मुझे गुर्रा-गुर्रा कर दो-चार बार देखा, पर मैंने कहा कि अब आज जो भी हो, जब तक यह आदमी बाहर नहीं आएगा मैं ताली बजाऊंगा। मैं अपना बस्ता-वस्ता रख कर वहीं बैठ गया। जब मैंने बस्ता वहीं रखा और बैठा, तो उसकी पत्नी ने कहा कि क्यों उस चंदुए के पीछे पड़े हो? वह निकल कर एकदम बाहर आ गया। उसकी पत्नी के उसने बाल पकड़ लिए कि दुष्ट, दूसरे कहें तो ठीक, अरे तुझे शर्म न आई चंदुआ कहते! अपने वाले भी कहने लगे!
फिर उसने देखा, यूं बात न बनेगी, तो उसने मुझे बुलाया। वह मुझे कहे कि भैया मिठाई खाओ, चाकलेट ले जाओ। जब भी निकलो, आओ यहां बैठो।
मैंने कहा कि भई यह बहुत मुश्किल मामला है। रिश्वत मैं लूंगा नहीं। और तुम किस-किस को रिश्वत दोगे, बात बहुत फैल चुकी है। तुम मुझे ही मान लो चाकलेट दे दोगे, मिठाई दे दोगे। मैं नहीं बजाऊंगा ताली, मगर ये दो हजार लड़के, अब इनको कौन रोकेगा? तुम से मैंने पहले ही कहा था कि तुम्हारा क्या बिगड़ता है, ताली मैं अपनी बाजता हूं?
वह मेरे घर भी आया। उसने मेरे पिताजी को भी आकर कहा कि ये आप अपने लड़के को रोकिए। उन्होंने पूछा कि यह करता क्या है? तो वह कहे कि अब आपसे क्या बताएं, क्या करता है! उन्होंने कहा, बताओ तो करता क्या है, मतलब इसका कसूर क्या है?
मैंने भी कहा कि साफ-साफ कहो न, कसूर क्या है? कोई तुम्हारा नुकसान किया है? कोई तुम्हें गाली दी, कोई पत्थर मारा?
अरे, उसने कहा, पत्थर मारो तो ठीक है, गाली दो तो भी ठीक है, उससे भी ज्यादा किया।
तुम बताओ तो क्या?
वह मेरे पिताजी से कहे कि अब बताना क्या है, अब आप समझ लो। मैंने कहा कि ऐसे कैसे समझ लो? तुम मेरी शिकायत लेकर आए हो, मेरी कुटाई-पिटाई हो, उसके पहले साफ-साफ बात होनी चाहिए।
मेरे पिताजी ने भी कहा कि भई, तुम बताते क्यों नहीं बात? यह क्या करता है?
उसने कहा, अब आपसे क्या बताना! यह बात ऐसी कर रहा है कि मैं किसी को भी नहीं बता सकता। ताली बजाता है।
मैंने कहा कि ताली बजाने में आपका क्या बिगड़ता है?
और यह अपने सिर पर हाथ रखता है--बोले।
मैंने कहा, सिर मेरा है और हाथ मेरा है। इसमें मेरे पिताजी भी नहीं रोक सकते, कोई मुझे नहीं रोक सकता। इतनी स्वतंत्रता तो है कि आदमी अपने सिर पर हाथ रख सके। तुम कौन हो?
चपत ही कोई मारे तो तुम्हारा गीता-ज्ञान नष्ट हो जाए, ऐसा नहीं...वैसे वह बड़ा गीता-ज्ञानी था, गीता-पाठी था। उसका तिलक, चंदन देखकर ही तो मुझे यह रस उसमें पैदा हुआ था, नहीं तो होता ही नहीं। धार्मिक आदमियों में मेरा रस पहले ही से रहा। अभी भी है, गया नहीं। कभी जाएगा भी नहीं।
मगर हर मूढ़ भी यही मानता है कि वह ज्ञानी है।

गांव में रहने वाला मोती
साथ में लेकर शीला पत्नी
प्रथम बार दिल्ली में आया
रेलवे स्टेशन पर उतरकर
एक इश्तहार को ही देखकर
हो लिया उलटे पांव
और उसी गाड़ी से
लौट आया गांव।
गांव में आकर
अपने एक मित्र के पास जाकर
उसने बताया--
मैं कभी नहीं जाऊंगा दिल्ली
मेरी उड़ाई गई है खिल्ली।
रेलवे स्टेशन पर ही यार
लगा रखा था इश्तहार
कि--
दिल्ली में पहली बार
जोरू का गुलाम आ रहा है।

अपने को समझदार समझने वाले लोग भी हैं। अब यह अपने को बड़ा समझदार समझ कर लौट आया है। कौन अपने को साधारण समझता है!
इसलिए माणिक, कहा था कि नहीं कोई आदमी अपने को साधारण समझता है। साधारण आदमी खोजना ही मुश्किल है। अगर कहीं मिल जाए तो उसके चरण छूना, क्योंकि वह असाधारण है। जो जानता हो कि मैं साधारण हूं, उसके जीवन में असाधारण की शुरुआत हो गई।
और निश्चित ही संन्यास का यही प्रयोजन है कि मैं तुम्हें बोध दिलाऊं--तुम्हारे वास्तविक जीवन का, तुम्हारी मूर्च्छा कर, तुम्हारे क्रोध का, तुम्हारे मोह का, तुम्हारे लोभ का। इसलिए तुमसे भागने को नहीं कहता, क्योंकि भाग जाओगे तो बोध कैसे होगा? घर-द्वार छोड़ कर जंगल में बैठ जाओगे तो वहां तो शांति मालूम होगी ही। कोई कारण नहीं है अशांत होने का। पत्नी मांग नहीं करती कि आज यह नहीं लाए वह नहीं लाए; नोनत्तेल-लकड़ी का कोई उपद्रव नहीं है; बच्चों की फीस नहीं भरनी, कालेज में भरती नहीं करवाना; लड़की की शादी नहीं करनी; बूढ़ा बाप, बूढ़ी मां सिर नहीं खाते; मुहल्ले-पड़ोस के लोग जोर-जोर से रेडियो नहीं बजाते। कुछ भी तो नहीं हो रहा। सब सन्नाटा है। तुम वृक्ष के नीचे बैठे, तो स्वभावतः लगेगा शांत हो गए। मगर यह कोई शांति नहीं है। यह शांति का धोखा है। छोड़ दिया सब, तब क्या असफलता और क्या सफलता? जंगल में न असफलता होती न सफलता होती। तुम नंग-धड़ंग बैठो तो जंगल के जानवरों को कोई मतलब नहीं; तुम रंग-रोगन लगा कर बैठो तो उन्हें कोई मतलब नहीं। न तुम्हारी प्रशंसा को आएंगे, न निंदा को आएंगे। ध्यान ही नहीं देंगे। वहां तो तुम अकेले हो।
यहां भीड़-भाड़ में धक्का-मुक्की हो रही है; चारों तरफ से धक्के लग रहे हैं, रेलमपेल है! यहां गुस्सा भी आएगा, क्रोध भी आएगा, लोभ भी पकड़ेगा, मोह भी पकड़ेगा। दूसरे आगे बढ़े जा रहे हैं। यहां तो कुछ न कुछ हो ही रहा है।
एक व्यक्ति नदी में कूदने जा ही रहा था कि मुल्ला नसरुद्दीन ने दौड़ कर उसकी कौलिया भर ली। वह व्यक्ति छूटने के लिए जोर मारने लगा और बोला, मैं दुनिया से तंग आया हूं, मुझे छोड़ दो। मैं मरूंगा।
मगर मुल्ला ने कभी कस कर उसको पकड़ा। वह बोला कि हद हो गई, अरे न जीने देते न मरने देते! तेरा मैंने क्या बिगाड़ा भाई? कभी जिंदगी में मिला नहीं, कभी जिंदगी में किसी काम आया नहीं; अब मरने जा रहा हूं तो कूदने क्यों नहीं देता? तू और कहां से आ टपका!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि सुन भैया, अगर तू पानी में छलांग लगाएगा तो तुझे बचाने के लिए मुझे भी कूदना पड़ेगा। डूब तुम सकोगे नहीं। दया के कारण मुझे बचाना ही पड़ेगा। और मेरे सिवाय यहां कोई और है भी नहीं, सो मैं ही फंसूंगा। अब देखते हो, सर्दी कितने जोर की पड़ रही है! पानी बिलकुल बर्फ हो रहा है। और जब तक तुम्हें एंबुलेंस लेने आएगी, हमें यहीं बैठा रहना होगा--गीले कपड़े, ठंडी हवा, बर्फ जैसा पानी। तू तेरी जान, मगर मुझे निमोनिया हो जाए तो फिर कौन जिम्मेवार? तुम तो चले अपनी स्वतंत्रता बताने, आखिर हमें भी जीने का हक है कि नहीं? ऐसा कर भैया कि घर जाकर फांसी लगा ले। मुझे क्यों झंझट में डालता है? या फिर नुक्कड़ वाले डाक्टर से कोई भी दवा लेकर खा लेना, मरने में कठिनाई नहीं होगी। उस डाक्टर के पास जिसको मैंने जाते देखा, उसको मरते देखा। तू क्यों इतना कष्ट करता है? इतने ऊपर से कूदेगा, टांग-वांग टूट गई और बच गया...और मुझे बचाना ही पड़ेगा, यह मैं तेरे से कह दे रहा हूं। आखिर लाज-शरम भी तो है कुछ!
यहां मर भी नहीं सकते, जी भी नहीं सकते। यहां तो कुछ न कुछ रुकावट है, बाधा है। यहां तो हर चीज, जब तक कि तुम ध्यान-मग्न न हो जाओ, तुम्हें अवसर देगी उद्विग्न होने का, विक्षिप्त होने का। यहां बहुत निमंत्रण हैं, चारों तरफ प्रलोभन हैं। इश्तहार पर इश्तहार लगे हैं, जो बुला रहे हैं कि आओ, जिंदगी इसको कहते हैं! लिव्वा लिटिल हाट, सिप्पा गोल्ड-स्पाट! जीओ, कुछ गरम-गरम जीओ! क्या बैठे-बैठे कर रहे हो, गोल्ड-स्पाट पियो! खाली बैठे हो तो भी सामने लगा है इश्तहार, कब तक बैठते देखते रहोगे, एकदम दिल में कुलबुली उठेगी कि एक दफा देखो तो यह गोल्ड-स्पाट क्या है! और अपन यूं ही जिंदगी जीए जा रहे हैं, बिना ही गोल्ड-स्पाट पीए, पता नहीं हो कुछ राज इसमें!
यहां प्रलोभन हैं, आकर्षण हैं, सब तरह के भुलावे हैं, सब तरह के छलावे हैं। भाग गए जंगल में, वहां तो कुछ भी नहीं है। न कोई इश्तहार, न कोई बुलावा, न कोई निमंत्रण, न कोई पार्टी, न कोई जुआघर, न कोई वेश्यालय, कुछ भी नहीं। बैठे रहो, मजबूरी में भजन ही करोगे, करोगे क्या और! मगर मजबूरी का भजन कोई भजन है?
इसलिए मैं नहीं कहता मेरे संन्यासी को कि तुम भागो। मैं तो कहता हूं, जम कर यहीं रहो और यहीं रह कर जीओ और यहीं रह कर जागो! और जागना किस चीज से है? जागना इस बात से कि हमारी मूर्च्छा हमें साधारण बनाए हुए है; हमारा अहंकार हमें साधारण बनाए हुए है। और मजा यह है कि हमारा अहंकार हमें समझाता है कि हम असाधारण हैं, हम विशिष्ट हैं, हम खास हैं, हम अद्वितीय हैं। अहंकार ही के कारण हम अद्वितीय नहीं हो पा रहे हैं। और वही हमें समझा रहा है कि हम अद्वितीय हैं। झूठे सिक्के पकड़े रहोगे तो असली सिक्के कैसे खोजोगे?
संन्यास का अर्थ है झूठे सिक्कों से मुक्त होना, ताकि असली सिक्के पाए जा सकें। असली भी यहीं है, नकली भी यहीं है। जंगल गए तो असली भी नहीं हैं, नकली भी नहीं हैं। जंगल में सिक्के ही नहीं हैं। जंगल में तो तुम खाली अकेले हो। वहां धोखा तुम अपने को आसानी से दे सकते हो। गुफाओं में बैठ कर बड़ी आसानी से सोच सकते हो कि मुक्त हो गए। बाजार में बैठ कर मुक्त हो जाओ तो मुक्ति है।
संन्यास की पूरी प्रक्रिया मेरी यही है। यह एक विधि है--तुम्हें जगाने की, तुम्हें चेताने की।

किसने कहा--वह फूल है!
किसने कहा--वह शूल है!

प्रातः हुई--सब रूप है,
प्रातः हुई--सब रंग है,
दिन का प्रकाश उछाह है,
दिन का प्रकाश उमंग है।

पर मौन सूनी सी अमा,
निज नास्ति की ले कालिमा
निःश्वास भर कर कह उठी--
जो कुछ यहां वह भूल है।

तब चेतना ले, ज्ञान ले
नभ पर यहां मानव चढ़ा,
रवि-शशि बने उसके नयन,
निःसीम को उसने गढ़ा,

पर वह अचानक रुक गया,
पर शीश उसका झुक गया,
ले गोद में उसको धरा
ने कह दिया--तू धूल है!
देह तो धूल है। मन सब बासा और उधार है। देह और मन के भीतर छिपी हुई तुम्हारी आत्मा है। वहां चलना है। जंगल नहीं, गुफा में नहीं, अपने हृदय की गुफा में, अपने हृदय के जंगल में, अपने हृदय के एकांत में प्रवेश करना है। और चमत्कारों का चमत्कार घटित होता है।
निश्चित ही माणिक, यह अदभुत कीमिया है! क्योंकि इससे बड़ा कोई चमत्कार पृथ्वी पर नहीं है। जिस दिन तुम अपने अंतरस्थ केंद्र पर पहुंचते हो, उस दिन तुम जानते हो--तुम परमात्मा हो। परमात्मा ही है, तुम नहीं हो। उस दिन उदघोष होता है: अहं ब्रह्मस्मि! अनलहक!

अपना सिर नीचा कर मानव!

तू, जो कि उठा कौतूहल बन,
जीवन की पुलकित चाह लिए;
तू, जो कि बढ़ा उत्सुकता बन
गति का स्वच्छंद प्रवाह लिए!

तू जो व्यापक, तू जो समर्थ,
तुझमें अक्षय विश्वास भरा,
ओ जल-थल-अंबर के स्वामी
तू अपने ही को देख जरा।

तेरी आंखों में आंसू हैं!
तू है होठों पर आह लिए!

है एक भयानक दाह लिए
तेरे अंदर वाला प्रकाश,
तू एक हाथ में लिए सृजन,
है लिए दूसरे में विनाश।

तू अपने ही से डर मानव,
अपना सिर नीचा कर मानव!

तेरे आगे, तेरे पीछे
हंसता अदृश्य का अंधकार
तू अपनी ही निर्बलता से
टकरा जाता है बार-बार!

तेरे नयनों में प्रेम-ज्योति
उर में है करुणा का सागर,
तू है प्रबुद्ध तू चेतन है,
तू शाश्वत है, तू अजर-अमर!

अस्तित्व असीमित औ अखंड,
नश्वर है तेरा अहंकार!

यह एक इकाई सत्ता की,
बस जन्म-मरण है इसका क्रम,
तू नहीं आज तक जान सका,
क्या सत्य है और क्या है विभ्रम,

जीवन की गति में लय होकर
तू सत्ता का भ्रम हर मानव!
अपना सर नीचा कर मानव!

अहंकार को जाने दो, मिटने दो, गलने दो--और तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर अद्वितीय विराजमान है! तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है! तुम उसके मंदिर हो! प्रत्येक व्यक्ति उसका मंदिर है, प्रत्येक व्यक्ति उसका काबा है।
लेकिन मैं जो कह रहा हूं--अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं ब्रह्म हूं; अनलहक, कि मैं सत्य हूं--इसे तुमने अगर अहंकार से ही पकड़ा तो भूल हो जाएगी, फिर चूक हो जाएगी। अहंकार चुकाने में बड़ा कुशल है। अहंकार कहेगा: बात तो बिलकुल ठीक है, यही तो मैं कहता हूं कि तुम साक्षात ब्रह्म हो! यही तो मैं कहता हूं। लेकिन अहंकार कहे तो यही बात झूठ। और जब निर-अहंकार में यह उदघोष उठे तो यही बात सच। इसलिए कसौटी निर-अहंकारिता है। और तुम्हारे अतिरिक्त कौन जानेगा? तुम्हें ही अपने भीतर जाग कर देखना होगा, कहां से उठ रही है यह बात? नहीं तो भूल-चूक होती रहेगी।
अहंकार चुकाने में बिलकुल कुशल है। वह कुछ का कुछ समझा देता है।
एक फेरी वाला--एक स्त्री को कुछ सामान बेच रहा है। बोला, बीबी जी, क्या आप को बिजली की इस्त्री लेनी है?
गृहस्वामिनी: नहीं, पड़ोसियों को दे दो, क्योंकि उनकी पुरानी इस्त्रियां खराब हो गई हैं, हम तो उन्हीं से मांग कर काम चला लेते हैं।
फेरीवाला: मगर बीबी जी, मैंने तो आपके पतिदेव को यह कहते सुना था कि उनकी पुरानी इस्त्री बहुत ही खराब है और वे अब एक नई इस्त्री चाहते हैं।
गृहस्वामिनी: अच्छा, तो वह हरामजादा अब घर के बाहर भी मेरी बुराई करने लगा।
एक हमारे भीतर तत्व है, एक पर्त है अहंकार की, जो हर चीज को अपना रंग, अपना अर्थ दे देती है। अगर हम उससे सावधान न हुए तो वह हमें नए-नए चक्करों में डालती चली जाएगी। धर्म को भी धोखा देने का उपाय अहंकार कर लेता है। इसलिए तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों में, साधुओं में, महात्माओं में जितना अहंकार होता है, उतना शायद किसी और में हो। उनका तो अहंकार नाक पर चढ़ा बैठा होता है।
मैंने कल योगानंद का तुम्हें अर्थ बताया था न! योगानंद ने पूछा था कि आपने मुझे योगानंद नाम क्यों दिया? तो मैंने उनको कहा कि तुम्हें देखा, अकड़ योगियों जैसी, अहंकार योगियों जैसा, बैठ गए सिद्धासन में जब संन्यास तुम्हें दिया, तो मैंने सोचा कि योगानंद नाम दे दूं।
एक बार एक उपन्यासकार मेरे पास अपना उपन्यास लाया--बड़ा भारी पुथंगा! और उसने कहा कि और सब तो मैंने कर लिया, शीर्षक नहीं मिल रहा है। आप शीर्षक बता दें। मैं तो उसका पुथंगा देख कर ही डर गया। मैंने कहा इतना बड़ा पुथंगा पढूंगा, तब शीर्षक निकाल पाऊंगा! मैंने उससे कहा, तू एक काम कर। तू मुल्ला नसरुद्दीन से मिल; वह बड़ा ज्ञानी है और बड़ी उसकी अंतर्दृष्टि है, वह जल्दी ही कोई काम की बात निकाल लेगा।
भेज दिया उसे। वह तो पांच ही मिनट में लौट कर आ गया। उसने कहा कि आपने ठीक कहा था, बड़े गजब का आदमी है! उसने तो शीर्षक भी दे दिया।
मैं भी थोड़ा चौंका। पांच मिनट में उसने इतना बड़ा पुथंगा कैसे देखा! मैंने कहा, किताब पढ़ गया वह?
उसने कहा, पढ़ने की बात कह रहे, अरे उसने मुझे किताब निकालने भी नहीं दी बस्ते से। उसने तो मुझसे दो प्रश्न पूछे, और दो का उत्तर दिए कि उसने फौरन मुझे शीर्षक बता दिया। पहले उसने पूछा कि इसमें कहीं ढोल का जिक्र है? मैंने कहा, नहीं। उसने कहा, नगाड़े का जिक्र है? मैंने कहा, नहीं। उसने कहा, बस न ढोल न नगाड़ा, यह इसका शीर्षक है।
जब मैंने तुम्हें देखा योगानंद, तो मैंने देखा--न योग, न आनंद--योगानंद! ऐसे मैं नाम खोजता हूं, और क्या करूं? न ढोल न नगाड़ा! तरकीब हाथ लग गई। मैंने कहा, यह तो बिलकुल सुंदर बात है। अब कौन तुम्हारे पुथंगे को खोले पूरा और जांच-पड़ताल करे तुम्हारे जन्मों-जन्मों की और पता लगाए कि तुम्हें क्या शीर्षक ठीक रहेगा! अरे सीधी-सादी बात है, देख लिया कि दो चीजें तुममें नहीं दिखाई पड़तीं।
तुम्हारे महात्माओं में संतत्व तो नहीं दिखाई पड़ता। संत का तो अर्थ ही होता है कि जिसके भीतर सत्य का अवतरण हुआ हो, सत का अवतरण हुआ हो। अहंकार विराजमान है, कहां सत्य का अवतरण? जगह कहां है सत्य के लिए? तुम्हारे महात्मा साधु नहीं हैं। साधु का तो अर्थ होता है--सरलचित्त, निर्दोष। तुम्हारे महात्मा तो बड़े हिसाब-किताब लगाने वाले हैं, बड़ा गणित बिठा रहे हैं, बड़ा तर्क बिठा रहे हैं--कहां निर्दोष, कहां सीधे-सादे! असंभव है। सादगी और तुम्हारे साधुओं में मिल जाए! हां, ऊपर की सादगी उन्होंने आरोपित कर ली है। कोई लंगोटी लगाए बैठा है, इसको अगर तुम सादगी समझते हो तो बात अलग। कोई सिर्फ भिक्षापात्र लिए बैठा है, अगर इसको तुम सादगी समझते हो तो बात अलग। लेकिन जरा चेहरे पर तो देखो, अकड़ ऐसी है कि एक दफा सिकंदर भी फीका मालूम पड़े। एक दफा उनके भीतर तो झांको, अहंकार की प्रज्वलित अग्नि जल रही है। लंगोटी जरूर लगाए बैठे हैं, लेकिन लंगोटी के भीतर अहंकार दंड-बैठकें लगा रहा है।
इसलिए तुम्हारे साधु-महात्मा खुद भी लड़ते हैं, तुम्हें भी लड़वाते हैं। सारी पृथ्वी को उन्होंने एक कलहपूर्ण वातावरण में बदल दिया है।
यह अहंकार तुम्हारे भीतर भी बैठा हुआ है। कोई धन की आड़ में छिपाए बैठा है, कोई पद की आड़ में छिपाए बैठा है, कोई ज्ञान की आड़ में, कोई त्याग की, तपश्चर्या की आड़ में। इस सबसे तुम्हें जागना होगा, तो ही तुम्हारे भीतर से असाधारण ज्योति प्रकट होगी। वह तुम्हारी ज्योति नहीं है, स्मरण रखना;वह परमात्मा की ज्योति है। तुम मिटोगे तो ही प्रकट हो सकती है।
और सावधानी रखी पड़ेगी। यह कोई एक-दो दिन की बात नहीं है कि एक-दो दिन सावधानी रख ली और बात खतम हो गई। यह कुछ मामला ऐसा नहीं है कि जैनों के पर्युषण आए और दस दिन किसी तरह भोजन पर संयम कर लिया और फिर टूट पड़े एकदम दस दिन के बाद ग्यारहवें दिन; जो-जो छोड़ा था उससे दुगुना, तीन गुना पा गए। यह कुछ ऐसा नहीं है कि सुबह उठ कर प्रार्थना कर ली एक-दो मिनट और चुकतारा हुआ, छुटकारा हुआ, फिर दिन भर जो करना है करो। यह तो सतत जागरूकता साधनी होगी।
अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। यह तो जागते, उठते, बैठते, धीरे-धीरे सोते भी जागरूकता रखनी होगी, तो ही किसी दिन वह अपूर्व घटना घटती है कि अहंकार विसर्जित हो जाता है। और उसके साथ ही सारी मूढ़ता, सारी साधारणता, उसी के साथ सारा अहंकार भी क्षीण हो जाता है।
एक यात्री ने अपनी कार पहाड़ के एक ढलान पर रोकी, बहुत घबड़ा कर रोकी। पास में ही बैठे एक देहाती से कहा कि भई यह तो बहुत खतरनाक ढलान है, यहां सावधानी का बोर्ड क्यों नहीं लगाया गया है? यहां से तो कोई गिरे तो सीधा पाताल जाए। नीचे इतना बड़ा गङ्ढा है कि बचना असंभव है। बचना क्या, चिंदी-चिंदी हो जाए आदमी, टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाए। यहां सावधानी का बोर्ड तो होना ही चाहिए।
उस ग्रामीण ने कहा कि जी हां, यह खतरनाक तो जरूर है और यहां सावधान रहने का बोर्ड भी लगाया गया था, लेकिन जब दो साल तक कोई दुर्घटना नहीं हुई तो उसे अनावश्यक समझ कर अलग कर दिया गया है। अब दो साल बहुत हो गए, देख लिया कि यहां कुछ होती ही नहीं दुर्घटना, नाहक बोर्ड लगाया है!
सावधानी तुम्हें जो बरतनी है, वह कुछ ऐसी नहीं है कि थोड़ी-बहुत सम्हाल ली, कि दिन दो दिन सम्हाली ली, कि साल दो साल सम्हाल ली; यह तो तुम्हारी जीवन-चर्या हो जानी चाहिए; यह तो तुम्हारी श्वास-श्वास में व्याप्त हो जानी चाहिए। तो ही तुम जाग कर देख सकोगे कि कितनी मूढ़ताएं तुमसे हो रही हैं, होती रही हैं। आदतन होने लगी हैं, यंत्रवत होने लगी हैं।
चंदूलाल की पत्नी फोन पर लंबी बातें करने की आदत से परेशान थी। कम से कम एक घंटा तो लग ही जाता। ज्यादा भला लग जाए, कम तो नहीं। एक दिन संयोग से पंद्रह मिनट में ही फुरसत पा गई, तो चंदूलाल ने पूछा, आज तो बड़ी जल्दी बात खतम कर दी, क्या तबियत ठीक नहीं है?
श्रीमती जी ने इत्मीनान से जवाब दिया, अजी रांग नंबर लग गया था।
रांग नंबर, फिर भी पंद्रह मिनट बात चली ही!
आदतें जड़ हो जाती हैं। हम उन्हीं-उन्हीं को दोहराते जाते हैं। जागरण ही इन सारी आदतों को तोड़ सकता है। और जागरण आदतों की जड़ को ही तोड़ देता है--अहंकार को। फिर तुम्हारे भीतर प्रतिभा प्रकट होती है, मेधा प्रकट होती है, परमात्मा प्रकट होता है।


तीसरा प्रश्न: भगवान,
ईश्वर को देखे बिना मैं पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं? समझाने की अनुकंपा करें!

जागेश्वर,
जब ईश्वर को देखा ही नहीं तो पूजा करना ही क्यों? क्यों यह प्रश्न उठता है कि पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं? यह तो अजीब बात हुई। यह तो वैसी बात हुई कि नंगा पूछे कि अगर नहाऊं तो फिर कपड़े कहां निचोडूं! और निचोड़ भी लूं तो फिर कपड़े सुखाऊं कहां!
जब तुम्हें ईश्वर का कोई बोध ही नहीं है, तो फिर पूजा कैसे करोगे? ईश्वर का बोध नहीं और आगे चले! यह तो शेखचिल्लीपन हुआ। लेकिन अक्सर शेखचिल्लीपन की बातें तत्वज्ञान मालूम होती हैं। तुमने जब पूछा होगा यह प्रश्न हो सोचा होगा तत्वज्ञान की बात पूछ रहे हो, बड़ी धार्मिक बात पूछ रहे हो! तुम बिलकुल ही व्यर्थ की बात पूछ रहे हो!
यह तो ऐसे ही जैसे कि मकान कभी बना ही नहीं, तो छप्पर पर क्या लगाना है--खपड़े लगाना कि एस्बेस्टस शीट चढ़ानी? और मकान बना ही नहीं, नींव भी रखी नहीं गई--और छप्पर का विचार कर रहे हो!
पूजा तो पीछे आएगी, पहले ईश्वर का बोध आना चाहिए। यह पूछो कि ईश्वर का बोध कैसे हो! अभी पूजा की बात ही क्यों उठाते हो? ईश्वर का बोध हो तो पूजा अपने आप आ जाती है, बच ही नहीं सकते। झुकना ही पड़ेगा।
मेरी उत्सुकता यहां तुम्हें पूजा सिखाने में नहीं है और न मैं कहता हूं--कैसे करो और कहां करो। कहां करोगे? जो भी करोगे, झूठ होगा। मंदिर जाओगे, झूठ; मस्जिद जाओगे, झूठ; गुरुद्वारा जाओगे, झूठ। ईश्वर का बोध पहले होना चाहिए, फिर मंदिर जाओ कि न जाओ, फिर जहां झुक जाओगे वहीं मंदिर है। फिर जहां मौन होकर उस परमात्मा का स्मरण करोगे, गदगद होओगे, भीगोगे--वहीं गुरुद्वारा! नहीं तो अभी तो सब गड़बड़ हो जाएगी।
कल मैं एक कविता पढ़ रहा था। तुमने कबीर का प्रसिद्ध सूत्र तो सुना ही है--गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पांव। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताए। इसको लोग दोहराते हैं। यह लोगों को कंठस्थ हो गया है। सूत्र प्यारा है। मगर यह मौका तुम्हें आता कहां कि गुरु गोविंद दोनों खड़े हों। पहले तो तुम किसी को गुरु ही स्वीकार नहीं करते, तो गोविंद के खड़े होने की तो बात ही दूर। मगर कल मैंने एक कविता पढ़ी, वह मुझे लगा कि ज्यादा समझदारी की है--
पत्नी प्रेयसी दोई खड़े काके लागूं पांव
बलिहारी गुरु आपकी दोइन दिए बताए।
यह मुझे ज्यादा जंचा कि यह बात ठीक है। यह जरा अनुभव की है। यह करीब-करीब सभी के अनुभव की है। कौन होगा अभागा, जिसको ऐसा अनुभव न हो, कि पति-पत्नी...सभी को यह अनुभव है। और फिर कोई मिल गए होंगे गुरुघंटाल, जिन्होंने कहा कि भैया दोनों ही के लग ले, जिसमें सार।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन बहुत उदास बैठा था। मैंने पूछा, मामला क्या है? बड़े मियां, इतने उदास! क्या पत्नी ने फिर नौकरानी के साथ पकड़ लिया?
उसने कहा कि आज हद हो गई, आज बात और उलटी हो गई। मैंने कहा, क्या हुआ, इससे और क्या बुरा हो गया?
उसने कहा, आज नौकरानी ने पत्नी के साथ पकड़ लिया। और पत्नी तो फिर भी थोड़ी सुसंस्कृत है, नौकरानी तो नौकरानी है। उसने तो इतना हंगामा मचाया कि मुहल्ले भर को इकट्ठा कर दिया।
तुम पूछते हो जागेश्वर: "ईश्वर को देखे बिना मैं पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं?'
करो ही मत पूजा। अभी करोगे भी कैसे? और जो भी करोगे झूठी होगी। इस पंचायत में पड़ना क्यों? अभी पूछो कि ईश्वर को कैसे जानो।
इसलिए मेरा जोर ध्यान पर है, पूजा पर नहीं। क्योंकि ध्यान से ईश्वर जाना जाता है। फिर ईश्वर की जरा भी पहचान हो जाए तो पूजा तो अपने आप आती है। आती है। न सीखनी पड़ती है, न सिखानी पड़ती है। जैसे बच्चा पैदा होता है तो जानता है कैसे दूध पीए मां का। कोई सिखाना पड़ता है? अगर छोटे-छोटे बच्चों को मां के पेट से पैदा हुए, पहले उनको सिखाओ कि बेटा ऐसे-ऐसे दूध पीना, ऐसे पीओगे तो ही बच पाओगे--तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए। उनको समझाने में ही महीनों लग जाएं। उस बीच में उनका खात्मा ही हो जाए। वे तो जन्म के साथ ही दूध पीने की कला लेकर पैदा होते हैं। ऐसे ही ईश्वर के बोध के साथ पूजा अपने आप आती है। अनुग्रह का भाव आता है।
पूजा और क्या है? धन्यवाद है। पूजा और क्या है, कि तूने इतना दिया, अब हम और क्या करें! झुकाते हैं तेरे चरणों में सिर। चढ़ाते हैं अपने को।
पूजा का मतलब नारियल चढ़ाना नहीं है। लोग बड़े बेईमान हैं। नारियल को देखते हैं, आदमी के सिर जैसा होता है--बाल भी है, दाढ़ी भी है, मूंछ भी, आंखें भी बनी होती हैं। आदमी ने तरकीब निकाल ली, सिर तो चढ़ाता नहीं, नारियल चढ़ाता है। प्रतीक--क्योंकि आदमी की खोपड़ी जैसा लगता है। नारियल को कहते भी खोपड़ा हैं। खूब धोखाधड़ी की, दिल खोल कर नारियल फोड़ते हैं! और वे भी सड़े नारियल! तुम्हारी खोपड़ी के ही प्रतीक होते हैं, क्योंकि मंदिरों में मैं नहीं समझता कि कोई ठीक नारियल लेकर जाता होगा। सड़े नारियलों की दुकान ही अलग होती हैं, जहां पूजा के लिए नारियल बिकते हैं, अक्सर मंदिरों के सामने ही होती हैं। वहां सदियों से वही के वही नारियल बिक रहे हैं--बड़े प्राचीन नारियल! जितने प्राचीन उतने ही बहुमूल्य। जैसे कि शराब जितनी पुरानी होती है, उतनी ही कीमती होती है--ऐसे ही पूजा के नारियल। जमाने भर में नारियलों के दाम बदल जाते हैं, मगर पूजा के नारियल के दाम बदलते ही नहीं, उतने के ही उतने, क्योंकि उनमें भीतर तो कुछ है ही नहीं, किसी और काम के वे हैं ही नहीं; उनका कुल काम इतना है कि चढ़ाया जाना। दिन भर तुम चढ़ाओ, रात पुजारी वापस दुकानदार को दे देता है। सुबह फिर वे ही नारियल बिकने लगते हैं। नारियल घूमते रहते हैं। संसार का चक्र--दुकान से मंदिर, मंदिर से दुकान; दुकान से मंदिर, मंदिर से दुकान--चलता रहता है! पुजारी में और दुकानदार में सांठ-गांठ, नारियल यहां से वहां होते रहते हैं; जैसे कोई फुटबाल का खेल हो! और तुम ढोते रहते हो--इधर से उधर, इधर से उधर। सड़े नारियल! मगर एक लिहाज से बिलकुल तुम्हारी खोपड़ी के प्रतीक।
चढ़ाना है अपना सिर। चढ़ाना है अपना अहंकार। वही तुम्हारा सिर है। वह तो न चढ़ाओगे। झूठे ईश्वरों के सामने झूठे ही प्रतीक चढ़ाए जाएंगे। फूल तोड़ लोगे वृक्षों से, वे भी दूसरों के! पड़ोस में किसी के फूल तोड़ लोगे। सुबह से लोग निकलते हैं अपनी-अपनी छोटी-छोटी डालियां लेकर, चले पूजा के फूल इकट्ठे करने दूसरों की दीवालों पर से चढ़-पढ़ कर, दूसरों की फेंसिंग पर से चढ़-चढ़ कर पूजा के फूल। तो उनको कुछ कह भी नहीं सकते--पूजा के फूल! धार्मिक आदमी से कौन झंझट ले! धार्मिक आदमी पुराने दिनों से ही खतरनाक होते रहे हैं। दुर्वासा होते हैं ये लोग। एकदम अभिशाप दे दें, कुछ का कुछ कर दें। ले जाने दो! तो लोग अपने फेंसिंग के आस-पास लगाते भी ऐसे पौधे हैं कि ले जाओ तो ले जाओ। चांदनी के फूल लगाते है--न सुगंध न कुछ, देखने भर के फूल। और खूब लगते हैं! कितने ही तोड़ो, कोई फिक्र नहीं। बस चांदनी के फूल लोग लगा देते हैं फेंसिंग के पास। सो पूजा की डालियां लेकर लोग जब आते हैं तो अपनी भर-भर कर डालियां ले जाते हैं। चढ़ा आए। फूल भी उधार। वे भी खुद न उगाए। खुद भी उगाते तो भी उधार होते, क्योंकि वे पौधों के होते, तुम्हारा क्या होता?
अपने जीवन के फूल चढ़ाने हैं। अपने बोध के फूल, अपने प्रेम के फूल, अपने आनंद के फूल, अपने हंसी के फूल, अपने आंसुओं के फूल--इनको चढ़ाना है।
पर अभी बचो, अभी पूजा की बात मत छेड़ो जागेश्वर। अभी जागो। किसने तुम्हें यह प्यारा नाम दे दिया--जागेश्वर! जरा अपने नाम का खयाल तो करो! कुछ अपने नाम की इज्जत भी रखो! अभी जागो। साक्षी बनो। चैतन्य को उभारो। ईश्वर का थोड़ा बोध होने दो। होता है बोध निश्चित। जो जाग गया, उसे बोध होता ही है। अपरिहार्यरूपेण होता है। और जब बोध होता है तो पूजा अपने आप पैदा होती है, करनी नहीं पड़ती। और जब पूजा स्वस्फूर्त होती है, उसका सौंदर्य अनूठा है।


आखिरी प्रश्न: भगवान,
इतना आनंद शुरू हो गया है कि कुछ समझ में नहीं आता, बस यही लगता है--
आप जो मेरी पेशानी में हाथ लगा देते हैं।
सैकड़ों दीप मुहब्बत के जला देते हैं।।
दिल में आनंद का फूल महक उठता है।
मीरा के गीत जब मुझ को सदा देते हैं।।
हम कलमकार हैं सदाकत के आनंद
जेरे खंजर भी अनलहक की सदा देते हैं
जमाने में रहे हैं वही फनकार जिंदा
फिक्र को जो एक नई तर्जे अदा देते हैं।

आनंद मुहम्मद,
देखता हूं तुम्हारी आंखों में, आने लगी उसकी छबि! दर्पण धूल से मुक्त होने लगा। प्रसन्न हूं तुमसे। प्रफुल्लित हूं तुमसे। शुभ हो रहा है। पहली-पहली किरण उतरने लगी।
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहां समाए।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाए।।

आज इतना ही।
(समाप्त)


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