रविवार, 28 मई 2017

3—जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार—(कविता)-मनसा आनंद



3—जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार—(कविता)


जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार, तेरी आंखों में नहीं दिखता,
सपनों का अब वो संसार।

सपनों के इस इन्‍द्रधनुष से कितने रंग सजाए है।
तेरे इक रंग के आगे जोगी, सब बैरंग हो जाए है।
एक तरफ टूटे छंद मेरे, एक तरफ आशाएं है।
जिसके पीछे दौड़ा रहा था,  पाई वो छायाएं है।
छाया को तू माया कहता भेद बता जा अब कि बार।
जागी तू क्‍यों आया मेरे द्वार………


दीप सजाये बैठी हूं तुम आकर उसे जलाओगे।
फूलों की बगिया से चुनकर जीवनहार सजाओगे।
होली के निरस रंगों में उत्‍सव रंग भर जाओगे।
काल कली के कोलाहल में, मधुरंग राग बजाओगे।
टूट चुकी है नैया मेरी अब वो होगी कैसे पार।
जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार……,

मिटते-लुटते इस जीवन में, संग नहीं, कोई राह नही
घूलमिल होती छाया का कोई रूप नहीं आकार नहीं,
बिखरे जीवन के तारों में कोई छंद नहीं, कोई राग नहीं।
आकार बनाऊं क्‍या तेरा, अब इतनी मुझमें जाग नहीं।
किन चेहरों मैं खुद को ढूंढू, कोई तो मेरा रूप नहीं।
रूप के पीछे अरूप छुपा है, दर्शन होगा अब की बार।
जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार………

मर-मर कर भी नहीं मरे हम, ये क्‍या मरना होता है।
धुँधली होती इन आंखों से अब कहां देख अब पाता हूं।
रूप-रूप में तूहीं बसा है, पर कहां पकड़ मैं आता है।
छाया की भांति तुम जग में, आगें भागा जाता है।
रोते-रोते थक गई आंखे, दर्शन दैजा अब की बार।
जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वार………

आस लगाती, सेज सजाती, फूल बिछाती हूं रोज—रोज।
इस पथ पर तुम जब आयेगा तभी तो होगी जीवन मोज।
जीवन नैया डूब रही है, नित-नित बढ़ता जाता बोझ।
नहीं थकुंगा नहीं रूकुंगा, नये रूप घर लूगा रोज।
मैं नाचुगां और गाउुंगा, पैरो में बाधूंगा सोज।
एक आस बहती ही रहती, उड़ेगा पंछी अब की बार।
जोगी तू क्‍यों आया मेरे द्वारा.....
तेरी आंखों  में नहीं दिखता सपनों का अब वो संसार।।

स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

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