शनिवार, 24 जून 2017

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-08



रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

स्वानुभव ही मुक्ति का द्वार है—आठवां प्रवचन
दिनांक ६ अप्रैल; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आप अतीत-विरोधी हैं। क्या इससे युवकों में अराजकता पैदा होने का डर नहीं है?

2—रहिमन बिआह व्याधि है, सकहु तो लेहु बचाय।
पांयन बेड़ी परत है, ढोल बजाया-बजाय।।
रहीम के इस दोहे से क्या आप सहमत हैं?



पहला प्रश्न: आप अतीत-विरोधी हैं। क्या इससे युवकों में अराजकता पैदा होने का डर नहीं है?

महेश! मैं अतीत-विरोधी नहीं हूं, न ही अतीत का पक्षपाती हूं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
अतीत का अतिक्रमण होना चाहिए, यह मेरी देशना है। जो जा चुका, जा चुका। उसके विरोध में भी कुछ अर्थ नहीं है। उसका विरोध भी उससे बंधे होने का ही एक रूप है। जिसका हम विरोध करते हैं, उससे भी हमारा नाता हो जाता है। मित्र से ही नाता नहीं होता, शत्रु से भी नाता होता है। और कभी-कभी तो मित्र से भी ज्यदा गहरा नाता शत्रु से होता है। मित्र के बिना तो शायद तुम जी भी लो, शत्रु के बिना तुम जी भी न सकोगे। शत्रुओं में तुम्हारा बड़ा न्यस्त स्वार्थ होता है।
जरा सोचो, तुम्हारे सब शत्रु मर जाएं, तुम्हें करने को कुछ न बचेगा--न अदालत, न मुकदमा, न झगड़ा, न झांसा। तुम्हारे सब शत्रु मर जाएं तो आत्मघात के अतिरिक्त और करने को क्या बचेगा?
मैंने सुना है, मोहम्मद अली जिन्ना के जीवन में, उसके बहुत से मित्र संसार से विदा हुए, लेकिन सर्वाधिक दुखी हुआ वह महात्मा गांधी की मृत्यु से। और जब उसे खबर मिली कि महात्मा गांधी की मृत्यु हो गई, वह अपने बगीचे में बैठा था, एकदम उदास हो गया। उसकी आंखें गीली हो आईं। वह उठ कर भवन के भीतर चला गया। उसके सेक्रेटरी ने पूछा भी कि आपको इतना दुखी होने का क्या कारण है? आपकी तो शत्रुता थी। आप तो प्रसन्न होते तो ज्यादा तर्कसंगत होता।
लेकिन जीवन तर्क थोड़े ही है। जीवन गणित थोड़े ही है। जीवन बड़ी पहेली है। काश, जीवन तर्क और गणित ही होता तो सब समस्याएं कभी की हल हो गई होतीं! जीवन के उलझाव तर्क और गणित से बहुत गहरे जाते हैं। तर्क और गणित तो आदमी की ईजाद हैं, जीवन नहीं है। तर्क और गणित तो जीवन की ही सतह पर उठी हुई थोड़ी सी तरंगें हैं। जीवन की गहराइयों को कहां तर्क छूता! कहां गणित छूता!
तर्कयुक्त तो यही है कि जिन्ना को नाच उठना था, आह्लादित हो जाना था, प्रसाद बांटना था। लेकिन वह दुखी हो गया। और उस दिन के बाद जिन्ना प्रसन्न नहीं रहा और ज्यादा दिन जीया भी नहीं। जैसे कुछ जड़ कट गई। महात्मा गांधी के साथ उसके संघर्ष में ही उसके प्राण थे; उस चुनौती में ही, उस तनाव में ही उसका बल था।
जैसे ऋण और धन विद्युत साथ-साथ हों तो ही बिजली पैदा होती है, वैसे ही मित्र और शत्रु के बीच एक तनाव होता है, जो तनाव उन दोनों के लिए जरूरी है।
मैं अतीत का दुश्मन नहीं हूं, अतीत-विरोधी नहीं हूं, अतीत-मुक्त हूं! अतीत का जो विरोधी होता है, वह अनिवार्यरूपेण भविशय का पक्षपाती हो जाता है। यह दूसरा सत्य खयाल में लेना। कम्युनिस्ट अतीत-विरोधी हैं। वे कहते हैं: राम-राज्य पीछे नहीं हुआ, आगे होगा; स्वर्ण-युग पीछे नहीं हुआ, पीछे तो सब अंधेरे युग थे, पाशविक। स्वर्ण-युग आगे है। सतयुग पीछे नहीं था, सतयुग आगे है। वे अतीत-विरोधी हैं और भविशय के प्रेमी हैं।
मैं न तो अतीत-विरोधी हूं और न भविशय का प्रेमी हूं। मेरी शिक्षा तो बहुत छोटी सी है, सरल है, सीधी है। वर्तमान का ही अस्तित्व है केवल। अतीत वह, जो जा चुका। भविशय वह, जो अभी हुआ नहीं। दोनों ही, अनस्तित्व हैं। इसलिए अतीत का प्रेमी और भविशय का प्रेमी, इनमें मैं भेद नहीं मानता; ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही जो नहीं है, उसके लगाव में पड़े हैं। और यही तो मन की जालसाजी है, मन का षडयंत्र है। तुम्हें उससे उलझा रखता है, जो नहीं है। तुम उलझे रहते हो उससे जो नहीं है और वह बीत जाता है जो है।
मेरा कहना है: न तो अतीत से उलझो, न भविशय से । जो जा चुका, जा चुका। जो नहीं आया, अभी आया नहीं। जो है, उसमें जीओ।
परमात्मा का न तो कोई अतीत है और न कोई भविशय। परमात्मा का तो केवल वर्तमान है। तुम परमात्मा के संबंध में अतीत और भविशय का प्रयोग नहीं कर सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि परमात्मा था; तुम यह भी नहीं कह सकते कि परमात्मा होगा। तुम यही कह सकते हो केवल कि परमात्मा है। असल में है का ही दूसरा नाम परमात्मा है। जो है, वही परमात्मा है। इस क्षण जो है, उसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। यही तीर्थ है: यह क्षण। और इस क्षण में समग्र रूप से लीन हो जाना ध्यान है, समाधि है। इस क्षण को पूर्णरूपेण जी लेना प्रभु-साक्षात है, आत्मबोध है, बुद्धत्व है, निर्वाण है।
इसलिए महेश, तुम्हारी यह धारणा कि मैं अतीत-विरोधी हूं, गलत है। न मैं अतीत-विरोधी हूं, न भविशय का पक्षपाती हूं। न अतीत का पक्षपाती हूं, न भविशय का विरोधी हूं। सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं तुमसे कि जो बीत गया, क्यों उसके साथ समय खराब कर रहे हो? कब तक रामायण देखते रहोगे? और कब तक? और खतरा यह है कि जिस दिन रामायण से मुक्त होओगे, उस दिन कार्ल माक्र्स की दास कैपिटल तुम्हारे हाथ में पकड़ में आ जाएगी।
चीन अतीतवादी था; लाओत्सु, कन९ब०यूशियस, बुद्ध, इनमें उलझा था। और अब? अब माक्र्स, लेनिन, एंजिल्स, इनमें उलझा है। पहले सोचता था: बीत गए स्वर्णकाल। अब सोचता है: आने वाले हैं।
रूस भी अतीत-उन्मुख देश था। बहुत धार्मिक देश था, जैसे तुम हो। मगर वह धार्मिकता कहां गई? जरा में बदल गई। अब रूस की आंखें भविशय पर टिकी हैं।
एक अति से दूसरी अति पर मन बड़ी आसानी से चला जाता है; जैसे घड़ी का पेंडुलम दाएं से बाएं, बाएं से दाएं घूमता रहता है। मनुशय के मन का स्वभाव है: अतियों में जीना। जो अति में जीएगा, वह मन में उलझा रहेगा। अति यानी मन। अति भोग से त्याग पर चली जाती है। तो या तो मन कहता है; खूब भोगो! और या मन कहता है: खूब त्यागो! मगर सम्यक कभी नहीं होने देता। मध्य में कभी नहीं होने देता। समतुलता नहीं आने देता। समता नहीं आने देता। सम्यकत्व पैदा नहीं होने देता। मन कहता है: या तो स्त्रियों के पीछे भागो या स्त्रियों से भागो, मगर भागो। ठहरना मत! मन कहता है: या तो धन पकड़ो; या कहता है: धन को गालियां दो। छूना मत। छूने में पाप हो जाएगा!
यह मन का तुम मजा देखते हो? धन में न तो कुछ ऐसा महत्वपूर्ण है कि उसी को छाती से लगाए बैठे रहो, न इतना कुछ महत्वपूर्ण है कि छूने से डरो। यह मेरी समझ के बाहर है। एक है दीवाना, जिसके हाथ में नोट आ जाए तो उसे ऐसा लगता है जैसे सब मिल गया। वह नोट को ऐसे छूता है जैसे क्या कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को छूता होगा! क्या कोई कवि किसी गुलाब के फूल को देख कर प्रफुल्लित होता होगा! क्या किसी सौंदर्य के पारखी ने पूर्णिमा के चांद में देखा होगा, जो उसे सौ के नोट में दिखाई पड़ता है! और फिर यही आदमी एक दिन नोटों का विरोधी हो जाता है--यही आदमी हो सकता है विरोधी। क्योंकि थकेगा; आज नहीं कल इसे दिखाई पड़ेगा--यह मैं क्या कर रहा हूं! यह क्या पागलपन है! तब दूसरा पागलपन करेगा। तब छूने से डरेगा। तब नोट छू जाएगा तो हाथ धोएगा। मल-मल कर हाथ धोएगा। घबड़ाएगा कि कहीं नोट पड़ा न मिल जाए! बचेगा नोटों से। दूर-दूर चलेगा। ऐसी जगह छिपेगा जहां नोटों का कोई आवागमन न हो। हिमालय की गुफाएं खोजेगा।
नोट में इतना डरने जैसा भी नहीं है कुछ। नोट की एक उपयोगिता है। न तो इधर पागल होने की जरूरत है, न उधर पागल होने की। उपादेयता है। न तो नोट में कुछ ऐसा रस है कि उसे छाती से लगा कर बैठे रहो, और न कुछ इतने विरस होने की जरूरत है। जिसमें रस ही नहीं है, उससे विरस क्या होना?
संसार में न तो उलझने की कोई बहुत आवश्यकता है, न भगोड़ेपन की कोई जरूरत है। मेरी शिक्षा सदा मध्य की है, क्योंकि मध्य में ही मन मरता है। अतियों में मन जीता है। तुम जहां भी मध्य में आ जाओगे, वहीं मन मर जाएगा।
कभी तुमने घड़ी के पेंडुलम को मध्य में रोक कर देखा? घड़ी बंद हो जाएगी। टिक-टिक समाप्त! ऐसे ही जैसे तुमने अति छोड़ी कि मन गया। और मन के साथ ही समय भी गया, भीतर की घड़ी भी बंद हो जाएगी। तुम कालातीत हो जाओगे।
मेरी शिक्षा है कालातीत होने की। मैं चाहता हूं कि तुम समझो कि अतीत अब नहीं है। क्यों पिटी हुई लकीरों को और पीट रहे हो? क्यों समय गंवा रहे हो? सांप जा चुका, अब तो केवल रेत पर पड़ा हुआ चिह्न रह गया है; तुम उसी की पिटाई कर रहे हो! क्यों समय खराब कर रहे हो? या जो सांप अभी आए नहीं, उनसे बचने के उपाय कर रहे हो! वे कभी आएंगे भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है।
तुमने जितनी चीजें सोची थीं अपने जीवन में, वे हुईं? क्या हुआ? कितना हुआ? सौ बातें सोचो, एक भी तो नहीं होती। होता कुछ और है। जीवन विराट है। इतना विराट है कि तुम्हारी पकड़ में कुछ आता तो नहीं। मगर लोग भविशय को पकड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं; हाथ की रेखाएं दिखाते हैं कि भविशय में क्या होने वाला है!
मेरे पास एक बड़े ज्योतिषी को लाया गया। उनकी फीस ही एक हजार रुपया थी। उन्होंने कहा कि मेरी फीस एक हजार रुपया है, इससे कम में मैं हाथ नहीं देखता। मैंने कहा: एक हजार एक! इससे कम मैं देता नहीं। उन्होंने जरा चौंक कर मुझे देखा। मेरे आस-पास जो लोग बैठे थे, उनको देख कर उन्हें भरोसा आ गया कि मिल जाएगा एक हजार एक, कोई चिंता की बात नहीं। मेरा हाथ देखा। और ज्योतिषियों के पास तो कुछ सुनिश्चित बातें हैं कहने की, जो सभी के लिए लागू होती हैं। वही तो कला है सारी ज्योतिष की। वही बातें उन्होंने कहीं। फिर वे राह देखने लगे उनकी फीस की। मैंने कहा: अब आप जाइए। उन्होंने कहा: और मेरी फीस? मैंने कहा: यह तो आपको घर से अपना हाथ देख कर चलना था कि आज फीस नहीं मिलेगी। और मेरा हाथ देख कर आपको समझ में नहीं आया कि यह आदमी फीस देने वाला नहीं है? तुम अपना हाथ तो देख लिया करो! अपनी जन्म-कुंडली तो ठीक से देख कर चला करो! तुम्हें जब अपने ही हाथ का कोई पक्का नहीं है, हाथ की अपनी ही रेखाओं को तुम नहीं पढ़ पाते, तुम मेरे हाथ की रेखाएं क्या खाक पढ़ोगे! मैं तो जब तुम मेरा हाथ देख रहे थे, तभी तुम्हारा हाथ देखा, तो मैंने कहा कि नहीं, इसको मिलने वाली नहीं है फीस। यह बात इतनी साफ हो गई कि मैं तुम्हारी हाथ की रेखाओं के खिलाफ जा नहीं सकता, तुम लाख सिर पटको, मैं तुम्हें फीस देने वाला नहीं हूं। वे बहुत गिड़गिड़ाए। हजार से पांच सौ पर आ गए, दो सौ पर आ गए, सौ पर आ गए। मैंने कहा: मैं एक रुपया देने वाला नहीं। इसलिए तो इतनी मौज से मैंने कह दिया था तुम्हारा हाथ देख कर कि एक हजार एक दूंगा। देना ही होता तो पहले ही मोलत्तोल होता। देना ही नहीं था तो मोलत्तोल की जरूरत क्या थी! कोई मेरी तुमसे इतनी मैत्री भी नहीं है, परिचय भी नहीं है।
उन्होंने कहा: आपका मतलब?
मैंने कहा कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दरजी के यहां कोट बनवाने गया था और उससे ठहराव कर रहा था। वह कह रहा था कि पचास रुपये लगेंगे। वह कह रहा था कि पच्चीस से ज्यादा नहीं दूंगा। बड़ी खींचतान हुई--तीस, पैंतीस...पैंतीस पर जाकर बात ठहरने के करीब हुई। चंदूलाल भी उसके साथ थे। उन्होंने नसरुद्दीन को कान में कहा कि नसरुद्दीन, मुझे मालूम है कि तुम जिसका लिए, कभी नहीं दिए। और तुम इस दरजी को भी एक पैसा देने वाले नहीं हो।
उसने कहा: वह तो मुझे भी मालूम हो।
चंदूलाल ने कहा: फिर इतना मोलत्तोल किसलिए?
तो उसने कहा कि यह अपना जाना-पहचाना परिचित है, इसको ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। पचास पर राजी होऊंगा तो बहुत दुखी होगा। पैंतीस ही गए, पं(ह तो बचाए। अरे मित्र के साथ इतना तो करना ही चाहिए! अपना वाला है, परिचित है। जितना दुख कम कर सकूं, उतना कम मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। और यह मूरख अपना दुख बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है! मैं तो बीस से शुरू किया था।
तो मैंने उनसे कहा कि मेरा कोई तुमसे परिचय भी नहीं है कि तुम्हें कम दुख दूं। तुमने हजार कहा, मैंने एक हजार एक कहा। तुम दो हजार कहते, मैं दो हजार एक कहता। तुम जितना कहते, मैं राजी होता, क्योंकि मैंने तुम्हारा हाथ जो देखा, मैंने समझ ही लिया कि इस आदमी को कुछ मिलने वाला है नहीं आज। आज तुम फोकट मेहनत कर रहे हो, घर जाकर सो रहो।
लेकिन लोग क्यों ज्योतिषियों के पास जा रहे हैं? क्या कारण है?
चाहते हैं कि भविशय पर कुछ कब्जा हो जाए। भविशय के संबंध में कुछ योजना बना लें। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने अतीत गंवाया और अब वर्तमान गंवा रहे हैं। और क्या तुम्हें पता है भविशय कभी आता नहीं? जब आता है तब वर्तमान आता है। और वर्तमान के संबंध में कोई ज्योतिषी कुछ नहीं कह सकता। वर्तमान की कोई बात ही नहीं है ज्योतिष में। आज तो आता ही नहीं ज्योतिष में। ज्योतिषी या तो बीते कल की बात करते हैं या आने वाले कल की; दोनों ही नहीं हैं। आज की तो बात ही नहीं होती।
आज की बात ही धर्म है। इसलिए ज्योतिष धर्म नहीं है। ज्योतिष धर्म से बचने का उपाय है। ज्योतिष परमात्मा से बचने का उपाय है। यह तुम्हारे अहंकार की तलाश है। कल तो गया, एक तो चूक गए तुम; अब आने वाले कल में कुछ इंतजाम कर लो। वह भी चूकोगे।
तुमने देखा नहीं दुकानों पर तषती लगी रहती है: आज नगद, कल उधार! उस तषती का मतलब समझे? कल तो कभी आता नहीं। वह तषती बड़ी गूढ़ार्थ वाली है, वेद-वचन है वह। आज नगद, कल उधार! तुम यह सोच कर मत चले आना कि ठीक है, तो कल आएंगे। कल तो कभी आएगा नहीं; जब भी तुम आओगे तब यह तषती कहेगी: आज नगद, कल उधार। यह तषती बड़ी काम की है।
कल के सोचने में आज को मत गंवाओ।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन चंदूलाल को बताया कि मैं पिछले पचास वर्षों से दुनिया का एटलस खरीदने का विचार कर रहा हूं।
चंदूलाल ने पूछा: फिर इतनी देर क्यों? पचास वर्ष! पूरी जिंदगी सोचते रहे एटलस खरीदना है दुनिया का! तो कब खरीदोगे? मर कर खरीदोगे? सत्तर साल तुम्हारी उम्र हो गई, अब खरीद ही क्यों नहीं लेते? कम से कम एक इच्छा तो पूरी हो जाए।
नसरुद्दीन ने कहा: बात यह है कि दरअसल मैं सोचता हूं कि दुनिया में थोड़ा-बहुत सुधार हो जाए, फिर खरीदूंगा। अरे संसार का कोई भरोसा है, बदल-बदल जाता है। पहले बर्मा भारत में था; अगर तब खरीद लिया होता तो खराब हो जाता एटलस। फिर पाकिस्तान भारत में था, तब खरीद लिया होता--मु९ब०त गया! फिर अभी-अभी पांच साल पहले बंगलादेश पैदा हो गया। सब निपट जाए एक दफा, तो मैं एटलस खरीदूं।
यह आदमी कभी एटलस खरीद नहीं पाएगा, यह खुद ही निपट जाएगा। यह बड़ा होशियार आदमी है। यह तुम जैसा आदमी है। तुम भी यही कर रहे हो।
तुम मुझसे पूछ रहे हो: "आप अतीत-विरोधी हैं। क्या इससे युवकों में अराजकता पैदा होने का डर नहीं है?'
पहली तो बात: क्या तुम सोचते हो दुनिया में जो है आज, वह अराजकता नहीं है? और अराजकता कैसी होती है? इससे ज्यादा और अराजकता क्या होगी? इससे भी बदतर हालतों का इरादा रखते हो? सब तो टूटा-फूटा है। सब तो विकृत है, कुरूप है। सब तो गंदा है, दुर्गंधयुक्त है। सब तो सड़ रहा है। तुम्हारी राजनीति सड़ी हुई है, जिसके कें( पर सब घूमता है। तुम्हारी राजनीति में सिवाय बेईमानों के, लुटेरों के, किन्हीं और की कोई गति नहीं है। वे तुम्हारे मार्गदर्शक हैं। राहजन रहबर बने हुए हैं। जो तुम्हारी जेबें काटेंगे, गर्दनें काटेंगे, वही तुम्हारे रक्षक हैं। भक्षक रक्षक बने हुए हैं। तुम किस अराजकता की बात कर रहे हो? तुम्हारी राजधानियां पागलखानों में बदल गई हैं। तुम्हारी संसदों में क्या होता है? जूते फेंके जाते हैं, गालियां बकी जाती हैं, कुश्तमकुश्ती हो जाती है। संसद--जो तुम्हारी संस्कृति का आधार है; जो कि तुम्हारी सभ्यता का शिखर है। सभ्यता शब्द का अर्थ समझते हो? सभ्यता का अर्थ होता है: सभा में बैठने की योग्यता। सभ्य उसको कहते हैं जिसमें सभा में बैठने की योग्यता हो। तुम यहां बैठे हो, यह सभ्यता है। लेकिन संसद में जो घटता है, वह तो असभ्यता है, निपट असभ्यता है! संसद में तो बिलकुल ही, जो घट रहा है, असांसदिक है; उसमें बिलकुल ही संस्कृति नहीं है, न सभ्यता है। एकदम अराजकता है। हरेक हर दूसरे की टांग खींचने में लगा हुआ है, उठा-पटक मची हुई है। दंगल जारी रहता है--अखंड दंगल चलता रहता है! कौन ऊपर है, कौन नीचे है, कुछ पक्का पता भी नहीं चलता। किसकी टांग किसके हाथ में है, कुछ पता नहीं चलता। कौन किसके पक्ष में है, कुछ पता नहीं चलता।। सुबह कुछ, सांझ कुछ। अराजकता और किसको कहते हो?
तुम्हारे विश्वविद्यालय, जहां तुम सोचते हो शिक्षा मिल रही है, वहां सिवाय उप(व के और क्या पल रहा है? वहां आगजनी, गुंडागर्दी, इसके सिवाय और किस चीज का जन्म हो रहा है? और तुम भयभीत हो कि मेरी बात से कहीं अराजकता पैदा न हो जाए! यह अराजकता इसलिए पैदा हुई है कि हमने आदमी को वर्तमान में जीना नहीं सिखाया। हम उसे अतीत-उन्मुख बनाए हुए हैं या भविशय-उन्मुख। और वर्तमान में जीना उसे आता ही नहीं। और वही एकमात्र है समय जीने का; और तो कोई समय जीने का होता नहीं। तो जीने की कला ही आदमी को नहीं आती।
शिक्षा महत्वाकांक्षा सिखाती है--भविशय! यब बनो! वह बनो! शिक्षा सिखाती है दौड़ महत्वाकांक्षा की--ज्वरग्रस्त दौड़! फिर चाहे किसी भी कीमत पर हो, फिर शुभ-अशुभ का भी सवाल नहीं। जिंदगी छोटी है, शुभ-अशुभ का विचार करते रहे तो पिछड़ ही जाओगे। यहां तो धक्कमधुक्की करो। यहां तो शोरगुल मचाओ। जितनी गुंडागर्दी कर सकते हो, करो, उतने आगे निकल जाओगे। सभ्य तो रास्ते के किनारे खड़े हो जाते हैं, निकल जाने देते हैं उप(वियों को पहले। शोरगुल मचाने वाले, नारेबाजी लगाने वाले, घेराव-हड़ताल, मोर्चा निकालने वाले नेता हो जाते हैं। प्रधानमंत्री बनो! राशट्रपति बनो! शिक्षा महत्वाकांक्षा देती है: खूब धन अर्जित करो! शिक्षा अहंकार को पोषित करती है। और अहंकार जहां है वहां अराजकता होगी। अहंकार अराजकता का आधार है, उसकी आत्मा है। और मैं सिखा रहा हूं निर-अहंकारिता और तुम कहते हो कि मेरी बातों से अराजकता पैदा हो जाएगी!
अराजकता, जो बातें चल रही हैं, उनसे पैदा हो गई है। रोज बढ़ती जा रही है। तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गए हैं, और क्या अराजकता चाहते हो? युद्ध ही युद्ध! सारी दुनिया की सत्तर प्रतिशत ऊर्जा, शक्ति युद्ध की तैयारी में लगती है। आदमी जैसे पागल है! जैसे कुछ और करने को है नहीं, बस मारना है और मरना है। बातें हम करते हैं कि जीओ और जीने दो! और तैयारी करते हैं कि मारो और मरो! गरीब से गरीब देश भी आतुर है--अणुबम बना ले, हाइड्रोजन बम बना ले। भूखे मर रहे हैं, पेट भरे हुए नहीं हैं, कपड़े तन पर नहीं हैं, भयंकर भुखमरी काली छाया की तरह डोल रही है, आधे आदमी अधनंगे हैं, आधे से ज्यादा भूखे हैं! बच्चे पैदा होते से ही भिखमंगे हैं, अनाथ हैं। लेकिन अणुबम बनाना है! एटम बम बनाना है! हाइड्रोजन बम बनाना है! युद्ध की तैयारी करनी है, क्योंकि पाकिस्तान युद्ध की तैयारी कर रहा है। और पाकिस्तान को युद्ध की तैयारी करनी है, क्योंकि तुम युद्ध की तैयारी कर रहे हो। यह बड़े मजे का खेल है। चीन को युद्ध की तैयारी करनी है, क्योंकि भारत कर रहा है; और भारत को करनी है, क्योंकि चीन कर रहा है। यह बड़ी मुश्किल का मामला है।
तुम देख लेते हो कि पड़ोसी दंड-बैठक लगा रहा है, तुम लगाने लगे। और पड़ोसी इसलिए लगा रहा है कि उसने देखा कि तुम लंगोट खरीद कर बाजार से लाए हो। उसने पहले से ही तैयारी शुरू कर दी। और तुम लंगोट इसलिए खरीद लाए कि तुमने दुखा कि पड़ोसी तेल की मालिश करवा रहा था। कहां से बातें शुरू हो रही हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा! और पड़ोसी इसलिए तेल की मालिश करवा रहा था कि तुम बैठे-बैठे सुबह मूंछें मरोड़ रहे थे। बस एक-दूसरे की देखा-देखी बात बढ़ती जाती है, बात चलती जाती है कि तुमने मूंछ क्यों मरोड़ी! तुम मूंछ पर ताव दे रहे हो, कुछ मतलब है। तैयारी करो!
घर में खाने को न हो, चूहे दंड पेलते हों--तुम भी पेलो! मगर दंड-बैठक लगाओ! लड़ना तो पड़ेगा ही!
सदियों ने तुम्हें यही सिखाया है कि मरने में बड़ी कला है। कि मरो--देश के लिए; मरो--जाति के लिए; मरो--धर्म के लिए!
कल ही किसी ने मुझसे एक प्रश्न पूछा था कि आप देश-भक्ति के संबंध में क्यों कुछ नहीं कहते?
भैया, और कुछ कहने को बाकी है? इसी तरह की मूर्खतापूर्ण बातों ने तो तुम्हारी यह गति कर दी है। देश-भक्ति! जमीन कहीं बंटी है? किस चीज को देश कहते हो? उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले अगर लाहौर पर बम गिरता तो तुम मरने को राजी होते--देश-भक्ति के लिए! और अब गिरे तो तुम फुलझड़ी-फटाके छोड़ोगे कि अच्छा हुआ। और देश! अब क्या हुआ देश? वही देश है। कुछ फर्क पड़ गया? लाहौर जहां था वहीं का वहीं है। जैसे लोग लाहौर में रह रहे थे, वैसे ही लोग लाहौर में रह रहे हैं। अब भी वहां बच्चे, अब भी वहां प९ति०नयां, अब भी वहां पति, अब भी वहां बूढ़े मां और बाप, अब भी सब वैसा का वैसा है। मगर एक रेखा खींच दी गई नक्शे पर; जमीन पर तो कोई रेखाएं खींची नहीं जा सकतीं। जमीन तो अविभाज्य है। नक्शे पर एक रेखा खींच दी गई। अब पाकिस्तान हो गया। अब वह मिट जाए दुनिया से, तो तुम राजी। अब तुम्हारे भीतर कोई देश-भक्ति पैदा नहीं होती लाहौर के लिए।
पहले लाहौर और कराची और ढाका, ये सब पुण्यभूमि भारत हुआ करते थे, अब नहीं। पुण्यभूमि भी खूब बदलती है! पहले वहां भी देवता पैदा होने को तरसते थे। अब? अब लाहौर में देवता पैदा होने को नहीं तरसते? अब नहीं तरसते। देवताओं को भी पता चल गया कि यह पाकिस्तान है।
अरे पाकिस्तान है तो और भी तरसना चाहिए--पाकिस्तान यानी पवित्र भूमि! तुम अगर कहते हो कि भारत पुण्यभूमि है, तो वे कोई पीछे रहने वाले हैं! वे भी भारतीय ही हैं; उन्होंने नाम ही रख लिया: पाकिस्तान। तुमको तो कहना पड़ता है कि भारत पुण्यभूमि है; वह तो पाकिस्तान शब्द में ही डाल दिया उन्होंने--पुण्यभूमि। अलग से कहने की कोई जरूरत नहीं; जब भी पाकिस्तान नाम लो, तुम पुण्यभूमि ही दोहरा रहे हो। पवित्र भूमि!
और देवता भी कम पड़ गए होंगे, क्योंकि जब भारत की आबादी दो करोड़ थी, बुद्ध के जमाने में, तब तैंतीस करोड़ देवता थे, वे तरसते थे भारत में पैदा होने को। अब मैं जरा मुश्किल में पड़ा हुआ हूं कि अगर कोई किसी दिन भूल-चूक से मुझसे यह प्रश्न पूछ ले तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा, क्या जवाब दूंगा! तैंतीस करोड़ कुल देवता हैं, सत्तर करोड़ तो पैदा ही हो चुके! अब ये और देवता कहां से आ रहे हैं? एक तो तैंतीस में से सत्तर कैसे हो गए, यह भी एक चमत्कार है! कि देवता भी खंड-खंड में पैदा हो रहे हैं, क्या मामला है! कि कहीं देवता की टांग पैदा हो गई, कहीं हाथ पैदा हो गया, कहीं सिर पैदा हो गया। और चले ही आ रहे हैं! और अभी भी तरस ही रहे हैं! अब पाकिस्तान में पैदा होने को नहीं तरसते!
ये देश-भक्ति की बातें सिखाई गई हैं तुम्हें, कि मर जाओ देश के लिए। तुम्हें धर्म की बातें सिखाई गई हैं, कि धर्म के लिए मर जाओ। इस्लाम खतरे में है, तो मुसलमान मरने को तैयार है। हिंदू धर्म खतरे में है, तो हिंदू मरने को तैयार है। रहने दो, खतरे में है तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है? हिंदू धर्म खतरे में है, इस्लाम धर्म खतरे में है--रहने दो। देखें, कैसे दिन और कितने दिन खतरे में गुजारता है! मगर नहीं; न इस्लाम खतरे में है, न हिंदू धर्म खतरे में है--तुम खतरे में पड़ जाते हो। ये नारे सब राजनीति के हैं। ये सब नारे उप(व के हैं।
और तुम्हें हर चीज पर मरना सिखाया जाता है। कोई तुमसे यह तो कहता ही नहीं कि जीओ। मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि हम तैयार हैं संन्यास के लिए। अगर आप हम से मरने को भी कहें तो हम तैयार हैं।
मैं उनसे कहता हूं: मैं मरने को कहता ही नहीं। मैं कहता हूं कि जीओ!
यह सुन कर उनका मुंह उदास हो जाता है, क्योंकि जीना जरा कठिन मामला है। मरना तो सरल बात है। चले गए नदी पर, कूद गए, कुएं में कूद गए, रस्सी में गला लटका लिया, जहर खा लिया, ट्रेन के नीचे लेट गए--मरने के तो हजार उपाय हैं। और एक क्षण में बात हो जाती है, कोई ज्यादा देर लगती नहीं। जीना लंबा सिलसिला है। हजार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
मैं उनसे कहता हूं: संन्यास इसलिए लो कि तुम्हें एक नये ढंग का जीवन जीना है। मरने की क्या बात है? मौत तो आएगी, अपने आप आ जाएगी, तुम्हें इतनी क्या जल्दी पड़ी है?
लेकिन लोगों का जीवन इतना दुखपूर्ण है कि वे किसी भी बहाने मरने को राजी हैं। और अच्छा सा कोई बहाना मिल जाए तो फिर कहना ही क्या--देश-भक्ति! धर्म-भक्ति! अच्छा सा कोई बहाना मिल जाए। और फिर यह भी उसमें भीतर तृप्ति होती है कि शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! यह भी भीतर लगा रहता है कि अहा, एक दफे ही मरना है, फिर तो हजारों वर्ष तक मेले ही जुड़ते रहेंगे। अपनी कब्र में लेटे-लेटे मजा लेंगे मेलों का।
जिंदगी में तो कोई मेला जुड़ता नहीं और तुम सोचते हो मरने पर तुम्हारे मेला जुड़ जाएगा! कितने शहीदों की चिताओं पर मेले जुड़ रहे हैं? और ऐसे शहीदों की चिताओं पर मेले जुड़ने लगें तो जिंदगी में और काम करने को ही न बचे। इतने शहीद हो चुके हैं कि सुबह से शाम तक मेले ही मेले जोड़ने पड़ें।
शहीदों वगैरह की चिताओं पर मेले नहीं जुड़ते। हां, चिताओं पर मेले जुड़ते हैं--उन लोगों की, जो चालबाज हैं, बेईमान हैं, धूर्त हैं, पाखंडी हैं; जो जिंदगी भर भी तुम्हें सताते हैं और मर कर भी पीछा नहीं छोड़ते--उनकी चिताओं पर मेले जुड़ते हैं। शहीदों वगैरह के नाम पर कहां चिताओं पर मेले! शहीदों के नाम पर तो एक चिता बना देते हैं--अज्ञात शहीद की स्मृति में। अज्ञात शहीद की स्मृति में! अलग-अलग कहां बनानी! और एक दिन मना लेते हैं: शहीद दिवस। सब शहीदों के लिए निपटा दिया एक दिन में। और जुड़ते भी रहे मेले समझ लो, तो भी क्या होगा? तुम्हारी कब्र पर लोग फूल भी चढ़ाते रहे तो क्या होगा? जिंदगी में तो कोई गंध न मिली, कोई संगीत न मिला।
नहीं, मैं इस तरह की आत्मघाती प्रवृत्तियों को कोई बल नहीं देना चाहता। तुम्हारा अतीत आत्मघाती प्रवृत्तियों से भरा हुआ रहा है। मुसलमानों को समझाया गया कि तुम अगर मर जाओगे धर्म के युद्ध में तो स्वर्ग निश्चित है। इसलिए जेहाद परम पुण्य है। फिर तुमने कितने ही पाप किए हों, सब क्षमा। पापी से पापी व्यक्ति अगर धर्मयुद्ध में मरेगा तो वह सीधा स्वर्ग जाता है। उसे नरक वगैरह नहीं जाना पड़ता। स्वभावतः, भोले-भाले लोग राजी हो गए। लेकिन अब मजा यह है कि धर्मयुद्ध हिंदू और मुसलमान लड़ रहे हैं, इसमें कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है? हिंदू कह रहे हैं कि जो धर्मयुद्ध में मरेगा वह स्वर्ग जाएगा; मुसलमान कह रहे हैं कि जो धर्मयुद्ध में मरेगा वह स्वर्ग जाएगा। कौन धार्मिक है? कैसे तय होगा? कौन निर्णय करेगा?
अक्सर तो निर्णय बड़े अजीब ढंग से होता है: जो जीत जाता है, वह निर्णायक हो जाता है। तुम कहते तो हो--सत्यमेव जयते! तुमने इस देश का महामंत्र बना लिया है--सत्यमेव जयते। कि सत्य की सदा विजय होती है। मगर मामला कुछ उलटा ही है। जिसकी विजय हो जाती है, लोग उसी को सत्य मानते हैं। जो हार जाता है, वह असत्य हो जाता है। अगर कौरव जीत गए होते, तो तुम सोचते हो कि इतिहास यही होता जैसा अब है? तब कौरवों के चापलूसों ने इतिहास लिखा होता। अभी पांडवों के चापलूसों ने इतिहास लिखा है। जो जीतेगा, उसके चमचे इतिहास लिखेंगे। जो हार ही गया, उसका तो इतिहास कौन लिखेगा! और अपनी पिटाई करवाएगा? मुर्दों का, हारों का कौन साथ देता है? कौरव हार गए तो वे अधार्मिक हो गए, दुशट हो गए। और पांडव जीत गए तो वे धार्मिक हो गए, वे पुण्यवान हो गए। वे धर्म के लिए लड़ रहे थे।
मगर कौन निर्णय करे? कैसे निर्णय करे? किस तरह का धर्म है? युधिशिठर जुआ खेलते हैं--और धर्मराज हैं! और जुआ ही नहीं खेलते, अपनी पत्नी को दांव पर लगा देते हैं--और धर्मराज हैं! तुम तो जरा अपनी पत्नी को दांव पर लगा कर आओ, तब तुम्हें कोई धर्मराज कहे! फौरन पुलिस थाने में पहुंचाए जाओगे। कौन अपनी पत्नी को दांव पर लगा सकता है? पत्नी कोई वस्तु है? लेकिन उन दिनों धर्मराज भी यही सोचते थे कि स्त्री भी संपदा है। अभी भी हमारे पास ये शब्द, गंदे शब्द बचे हैं: स्त्री-संपदा। अब भी बाप अपनी बेटी का विवाह करता है तो कहता है: कन्यादान!
जीवंत व्यक्तियों का दान कर रहे हो? गऊ-दान करते-करते कन्यादान करने लगे? एक तो गऊ का भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि गऊ को माता कहते हो, माता का दान कर रहे हो, कुछ शर्म नहीं आती? कुछ संकोच नहीं होता? दान चीजों का होता है।
पत्नी को दांव पर लगा दिया! और पत्नी को पांचों भाइयों ने बांट लिया था। मगर जो जीत गया, उसकी पताका है। तो द्रौपदी का नाम महासतियों में है; साधारण सती नहीं है द्रौपदी, महासती! प्रातः-स्मरणीय! और पांच पति थे। और पतियों ने बांट लिया था सिर्फ इसलिए कि द्रौपदी इतनी सुंदर थी कि पांचों में कलह होने का डर था। उस कलह को बचाने के लिए यही एक उपाय दिखा, यही एक समझौता दिखाई पड़ा कि दिन बांट लो। स्त्री तो वस्तु थी, बांटी जा सकती है; आज तुम उपयोग कर लो, कल तुम उपयोग कर लेना। जैसे कोई साइकिल हुई कि कार हुई, कि दिन बांट लिए! और ये धर्मराज हैं!
लेकिन जीत गए तो उनके चापलूसों ने, उनके खुशामदियों ने इतिहास लिखा। जो जीत जाए उसका इतिहास लिखा जाता है।
तुम जरा सोचो, दूसरे महायुद्ध में अगर हिटलर जीत गया होता तो चर्चिल, रूजवेल्ट, स्टैलिन, ये सब राक्षस-पुरुष सिद्ध किए जाते। मुकदमे चलते अंग्रेज जनरलों पर, अमरीकन जनरलों पर। और दुनिया में प्रतिशठा होती अडोल्फ हिटलर की, मुसोलिनी की, तोजो की। जापान, इटली और जर्मनी, इन तीन की उदघोषणा होती कि ये हैं धर्मराज्य! स्वभावतः, जो जीतेगा उसकी स्तुति करने वाले लोग मिल जाएंगे। कौन निर्णायक है?
पंडित-पुरोहित निर्णय कर रहे हैं और तुम उनके निर्णयों के अनुसार अब तक जीते रहे हो। तुम अपने निर्णायक कब बनोगे? मेरा इतना ही निवेदन है: अपने निर्णायक बनो। अपने जीवन पर पुनर्विचार करो। अतीत की बंधी हुई धारणाओं से मत जीओ। काफी जी लिए, पाया क्या? गंवाया बहुत। चुनौतियां तो आएंगी--अगर तुम लकीरों को अतीत की छोड़ोगे, रूढ़ियों को छोड़ोगे, बंधी-बंधाई लीकों को छोड़ोगे। चुनौतियां आएंगी, चुनौतियां शुभ हैं। क्योंकि चुनौतियों का सामना करने से ही विकास होता है, आत्मबल पैदा होता है, संकल्प का जागरण होता है। मैं इसको अराजकता नहीं कहता, इसे चुनौती कहता हूं।

अस्त होते सूरज को
पश्चिम क्षितिज पर
रोक रखने का
करो मत यत्न-साहस,
रुक न पाएगा,
तुम्हारा जोर, हठ, संघर्ष सारा
व्यर्थ जाएगा।
मोह, पूर्व प्रकाश का
मैं समझता हूं
भय, चली आती निशा के
अंधकार-प्रसार का,
जिसमें दिशाएं डूब जाएंगी
न देंगी काम आंखें,
और फैले हाथ की फैली अंगुलियां
यह तिमिर का सिंधु
कितना थाह पाएंगी।
और सबसे बड़ी,
मैं हूं जानता, चिंता तुम्हारी
नई उम्रों के लिए
जिनको उजाला चाहिए
वे हंसें-खेलें,
बढ़ें, विकसें!
आंख ऊपर तो उठाओ
और कुछ समझो
सितारों के इशारे,
समय का यह चक्र चलता जा रहा है
जो गया, फिर आ रहा है।
पूर्व-मुख हो
ध्यान से उनको
सुनाई पड़ रही हैं
पायलें नूतन उषा किरणावली की,
और अब टापें तुरंगों की
नया रथ नये रवि का खींचते जो
सतत बढ़ते आ रहे हैं
उधर देखो,
रात के खेमे उखड़ते जा रहे हैं।
ज्योति केवल चाहते
यह ताप का गोला उठा सा
मैं समझता हूं
नये से जो पुरानों की निराशा
विगत सूरजों की विगत गाथा संजोए
रहो मत खोए हुए से
आग से जो काम चलता है
नहीं होगा धुएं से।
नई उम्रों को न रोको
नई ज्वाला से
अभय हो खेलने दो,
जूझने दो।
आग ने उनको बुझाई है पहेली जो
उन्हीं को बूझने दो!

इतना क्या घबड़ाना? इतनी क्या नपुंसकता कि कहीं युवकों के जीवन में अराजकता न फैल जाए? युवकों को जूझने दो, जीवन की समस्याओं को सुलझाने दो। तुम बंधे-बंधाए समाधान मत पकड़ाओ। तुम्हारे समाधानों का समय गया। कभी सही रहे होंगे। और कौन जाने कभी सही थे भी कि नहीं! मगर रहे भी हों कभी सही तो आज तो सही नहीं हैं। कल के गणित आज व्यर्थ हो गए हैं। और तुम उन्हीं को पीटे चले जा रहे हो। और तुम कहते हो: यह तो बाप-दादाओं की परंपरा है! यह तो हमारे बाप-दादों ने भी ऐसा किया था, वैसा ही हम करेंगे। हम उनकी लीक कैसे छोड़ दें? अराजकता न हो जाए! तो तुम मुर्दे ही ढोते रहोगे?
जब तुम्हारे पिता मर जाते हैं या तुम्हारी मां चल बसती है, माना कि तुमने उन्हें प्रेम किया था और तुम्हारी आंखें गीली हैं, फिर भी तो तुम उन्हें मरघट पहुंचा आते हो, फिर भी तो तुम उन्हें चिता पर जला देते हो। कोई लाश को घर में तो नहीं रख लेते। अगर लोग लाशों को घरों में रखने लगें तो जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। एक-एक घर में कितने लोग मर चुके हैं! अगर इतनी लाशें घर में सड़ी हुई पड़ी हों, तो जिंदों का क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? वे तो जी ही न सकेंगे। वे तो सड़ जाएंगे। वे तो दुर्गंध में दब जाएंगे और मर जाएंगे। लाशों में कीड़े पड़ जाएंगे। और लाशों को खाते-खाते कीड़े, जो जिंदा हैं, उनको खाने लगेंगे।
और यही हुआ है विचार के तल पर। मरी-मराई लाशों को तुम ढो रहे हो। पिटी-पिटाई धारणाओं को तुम ढो रहे हो। और तुम डरते हो कि कहीं इनको छोड़ा तो कहीं मार्गच्युत न हो जाएं!
उनको पकड़े हो इसलिए मार्गच्युत हो। उनको छोड़ो तो तुम्हारी आंखें धुएं से मुक्त हों। तुम साफ-साफ देखो। तुम्हें भी जीवन दिया है परमात्मा ने। तुम्हें भी चेतना दी है। तुम्हें भी बोध दिया, बुद्धि दी है। तुम समस्याओं से जूझो। अपनी बुद्धि की तलवार को समस्याओं की शिला पर धार दो। अपने चैतन्य को चमकाओ समस्याओं से जूझ कर। उलझो तूफानों से। क्योंकि उसी उलझने में, तूफानों से लड़ने में ही, तुम्हारे जीवन में जो छिपे हुए बीज पड़े हैं, वे फूटेंगे। तुम्हारी जो संभावना है, वह वास्तविक बनेगी।
डरो मत। भयातुर मत जीओ। हम बड़े भयभीत लोग हैं। हम बहुत कायर हो गए हैं। हम तो बस जहां हैं, जैसे हैं, किसी तरह गुजार लें, सीमा के बाहर न जाएं। लषमण-रेखाएं खींची हुई हैं! चारों तरफ लषमण-रेखाएं, लषमण-रेखाएं हैं। इस रेखा के पार मत जाना, उस रेखा के पार मत जाना--उससे ही हम मारे गए, बुरी तरह मारे गए!
सदियों तक इस देश को समझाया गया: समु(ो को मत लांघना, समु(ो को लांघने में पाप है। सो इस देश ने समु( न लांघे। हालांकि सबसे पहले नावें हमने बनाईं, लेकिन हम समु( न लांघे। क्योंकि कौन जाए परदेश! परदेश जो जाए वह भ्रशट हो जाए। म्लेच्छों से मिले कौन! म्लेच्छों के देश जाओगे, उनका भोजन करोगे, उनके साथ रहोगे, उनकी भाषा सीखोगे, म्लेच्छ हो जाओगे। तो यह पुण्यभूमि को छोड़ कर जाए कौन! तो हम कहीं न गए। हम यहीं सड़ते रहे। सारी दुनिया ने यात्राएं कीं। स्वभावतः वे जूझे संघर्षों से, तूफानों से। वे मालिक बने और हम गुलाम बने। जब कि सबसे पहले हमने नावें खोजीं; सबसे पहले जहाज हमने बनाए थे; सबसे पहले गणित हमने खोजा। हम इस जमीन की सबसे पुरानी जाति हैं और सबसे दीन-हीन! यह बड़ी हैरानी की बात है। यह किस तरह की दुकान हम कर रहे हैं, जहां घाटा ही घाटा लगता है, जब देखो तब दिवाला! दीवाली कभी होती ही नहीं। दीये कभी जलते नहीं। कुछ भी करो, दिवाला।
कुछ मौलिक भूलें हो रही हैं। हम लकीर के फकीर हो गए हैं। जो लोग इस तरह लकीर के फकीर होकर जीएंगे, उनका संबंध अस्तित्व से टूट जाता है। अस्तित्व से संबंध बनाए रखना हो तो तुम्हें रोज-रोज अतीत के प्रति मरना ही होगा। अगर जिंदा रहना है तो अतीत के प्रति मरो, ताकि वर्तमान में जी सको। रोज-रोज अतीत को छोड़ते चलो। रोज-रोज अतीत की धूल को झाड़ते चलो। जैसे रोज स्नान कर लेते हो न, ताकि धूल न जम जाए, ऐसे ही रोज-रोज अपनी प्रतिभा को भी स्नान करा लेना चाहिए, ताकि उस पर भी धूल न जमे, ताकि तुम ताजे रहो दर्पण की तरह। और जो तुम्हारे सामने मौजूद है, उसका प्रतिफलन तुम्हारे भीतर बने। और तुम उसके साथ जो है, कुछ करने में समर्थ हो पाओ।
इस देश ने बहुत कुछ खोजा, लेकिन हमारी परंपरागत, रूढ़िगत चेतना के कारण हम गंवाते आए। हमने बुद्ध को खोजा, लेकिन बुद्ध को गंवा दिया। क्योंकि बुद्ध ने जो बातें कहीं, वे हमारी रूढ़ि के अनुकूल नहीं पड़ती थीं। सारा एशिया बुद्ध से आंदोलित हो उठा, सिर्फ भारत ने बुद्ध को गंवाया। यह जरा हैरानी की बात है! हमने बुद्ध को जन्माया। बुद्ध हमारी चेतना के शिखर थे, हमारे बीच खिले सबसे बड़े कमल थे। जिस सहस्रदल-कमल की हम बात करते हैं, समाधि की, उसको पाने वाला सबसे बड़ा व्यक्ति हमारे भीतर पैदा हुआ। सारे एशिया ने रस लूटा। और हम प्यासे के प्यासे बैठे रहे। क्योंकि बुद्ध ने एक बात कह दी, जो हमें अखर गई। बुद्ध ने कहा: वेदों से मुक्त हो जाओ। और वेद तो हमारा अतीत हैं, उनसे हम मुक्त नहीं हो सकते। हमने बुद्ध को छोड़ दिया, हम वेदों से मुक्त न हुए। बुद्ध ने कहा: परंपरा से मत जीओ। बुद्ध ने तो यह भी कहा कि मुझे भी परंपरा मत बना लेना। अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो। कुछ मैं कहूं, वैसा ही मत जीओ। खुद खोजो जीना। जीवन तुम्हारा है, जीना तुम्हें है, हारना तुम्हें है, जीतना तुम्हें है, गंवाना तुम्हें है, पाना तुम्हें है--कोई दूसरा तुम्हारा निर्णायक कैसे हो सकता है?
लेकिन हम तोतों की तरह हो गए हैं। हम दोहरा रहे हैं। बुद्ध ने हम से कहा: तोता होना छोड़ो। हम नाराज हो गए। हमने बुद्ध की जड़ें उखाड़ कर फेंक दीं।
भारत से बुद्ध धर्म विलुप्त हो गया। सारे एशिया ने सुगंध पाई। सारे एशिया ने प्रकाश पाया। न मालूम कितने दीये जले! लेकिन हम अमावस की रात में ही घिरे रहे। जो हमने बुद्ध के साथ किया, वही हम औरों के साथ भी करते रहे हैं।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अतीत के दुश्मन हो जाओ। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं--एक तथ्य--कि जो जा चुका, जा चुका। बीती ताहि बिसार दे! उससे अटके मत रहो। आज जीना है, अभी जीना है। इसलिए धूल नहीं होनी चाहिए चित्त पर। फिर धूल चाहे स्वर्ण-धूल क्यों न हो, कितनी ही कीमती क्यों न हो, उसे हटाना ही होगा। और तभी तुम योग्य बन सकोगे इस पृथ्वी पर रहने के।
और जगत इतने जोर से बदल रहा है, क्रांति इतनी त्वरा से हो रही है, नई-नई जीवन-दृशिटयां इतनी तीव्रता से पैदा हो रही हैं कि अगर तुम उन सबका स्वीकार न कर सको, उन्हें अंगीकार न कर सको, तो तुम पिछड़ जाओगे। किसी और की हानि नहीं है, सिर्फ तुम पिछड़े रह जाओगे।
भारत में बहुत कम लोग हैं, जो समसामयिक हैं। और इसलिए हमें सड़ी-गली बातें बहुत जमती हैं। महात्मा गांधी रेलगाड़ी के विरोध में थे, टेलीग्राफ के विरोध में थे, बिजली के विरोध में थे, रेडियो के विरोध में थे। हमें खूब जमे! हमने कहा: महात्मा हैं! महात्मा ऐसा होना चाहिए! हमें बात जमी, क्योंकि पुराने से मेल खाई। पुराने से तालमेल पड़ा हमारा। ऋषि-मुनि भी कहीं रेलगाड़ी में चलते थे! महावीर स्वामी पैदल चलते थे। साइकिल तक पर नहीं चलते थे, रेलगाड़ी की तो बात दूसरी। ऋषि-मुनियों की संतान क्यों रेलगाड़ी में चले? अरे अपने बाप-दादों की कुछ प्रतिशठा रखो! तो हमें महात्मा गांधी की बात जमी।
लेकिन यह बात अत्यंत घातक है। इससे तुम पिछड़ जाओगे। इससे तुम बिछुड़ जाओगे जगत के विकास से। इससे तुम घसिट जाओगे पीछे, घसिट ही रहे हो।
नये का स्वागत करने की सामर्थ्य जुटाओ। नये ऊगते सूरज को नमस्कार करो, क्योंकि उसी से होगा जीवन का वर्षण; उसी से फूल खिलेंगे, पक्षी गीत गाएंगे; उसी से वृक्ष हरे होंगे, उसी से जीवन चलेगा। तुम अटके हो, तस्वीरें लिए बैठे हो--अतीत के सूरजों की तस्वीरें! उनकी पूजा कर रहे हो। और असली सूरज द्वार पर खड़ा है; उसकी पूजा नहीं, उसका स्वीकार नहीं; उसके प्रति आंख बंद किए हो। कैसा मजा है!
और तुम पूछते हो महेश कि मेरी बातों से कहीं अराजकता तो न फैल जाएगी?
अगर फैलती हो अराजकता तो फैल ही जाए। एक बार यह भी अच्छा होगा। एक बार अराजकता ही हो जाए। एक बार सब टूट-फूट ही जाए। ये खंडहर गिर ही जाएं। यह इतने गिर जाएं, ताकि तुम इनमें बिलकुल न रह सको। क्योंकि जब तक ये बिलकुल भूमिसात न हो जाएंगे, तब तक तुम इन्हीं में किसी न किसी तरह के टेके लगाते रहोगे।
आदमी बड़ी मुश्किल से पुराने को छोड़ता है। छाती फटती है।
मैंने सुना, एक चर्च था एक गांव में--बहुत पुराना, बहुत जीर्ण-शीर्ण। इतना जीर्ण-शीर्ण, कि उसके भीतर कोई जाकर प्रार्थना करने से डरता था। कब गिर जाए, पता नहीं! हवा जोर से चलती थी, वह कंपता था। बादल गरजते थे तो गांव के लोग समझते थे, अब गिरा, तब गिरा। औरों की तो बात छोड़ दो, उस चर्च का जो पादरी था, वह भी बाहर से ही नमस्कार करके लौट जाता था। आखिर पादरी और चर्च के संस्थापक मंडल की बैठक हुई! वह बैठक भी बाहर ही हुई, कि अब कुछ करना होगा। इस चर्च में कोई आता नहीं। तो उन्होंने कहा कि करना तो जरूर होगा, लेकिन चर्च प्राचीन है, बहुत प्राचीन है, अति प्राचीन है। बाप-दादों की वसीयत है। इसे सम्हाल कर रखना चाहिए। वह तो ठीक है, मगर अब कौन सम्हालेगा, कैसे सम्हालोगे! अब तो कोई आता भी नहीं। अब तो किसी से कहो तो वह कहता है, हमें मरना है क्या? तुम जाओ तुम्हें मरना हो तो। हां, कभी-कभी किसी को आत्महत्या करनी होती है तो वह आकर भीतर बैठ जाता है कि शायद गिर जाए मौके पर तो अच्छा, और तो कोई कभी नहीं आता।
मजबूरी में उन्हें निर्णय लेना पड़ा कि इसे गिराएंगे। तो उन्होंने प्रस्ताव पास किए। पहला प्रस्ताव, कि हम अत्यंत दुखी हृदय से, बोझिल हृदय से, छाती फटती है, मगर फिर भी यह निर्णय लेते हैं कि पुराने चर्च को गिराएंगे। दूसरा प्रस्ताव किया: लेकिन नया चर्च हम बिलकुल पुराने जैसा ही बनाएंगे; उसी जगह पर जहां पुराना चर्च है। इसी तरह की दीवालें, यही नक्शा, यही द्वार, यही दरवाजे। तीसरा प्रस्ताव किया कि नये चर्च में कोई भी नई चीज नहीं लगाई जाएगी, पुराने चर्च की ही चीजों का उपयोग करेंगे--यही ईंटें फिर से जोड़ेंगे, और यही खिड़कियां, यही दरवाजे, यही पत्थर, यही सीढ़ियां, यही छप्पर फिर से चढ़ाएंगे। एक दफा उतार कर साफ-सुथरा करके फिर से मजबूती देकर इसको खड़ा करेंगे। और चौथा अंतिम प्रस्ताव उन्होंने पास किया कि जब तक नया बन कर तैयार न हो जाए, तब तक पुराने को गिराएंगे नहीं।
तो मैं कहता हूं, एक दफा अराजकता हो ही जाए। तुमसे तो गिरेगा नहीं पुराना, तुम तो गिरा न सकोगे, यह अपने से ही गिर जाए। मगर मैं कोई अराजकतावादी नहीं हूं। सच पूछो तो मैं जीवन को एक गहरा अनुशासन देना चाहता हूं। लेकिन वह अनुशासन ऊपर से आरोपित नहीं होना चाहिए; वह अनुशासन भीतर के बोध से आविर्भूत होना चाहिए। वह अतीत से संचालित नहीं होना चाहिए; वर्तमान से स्फूर्त होना चाहिए। वह कणाद, कपिल, पतंजलि--इनसे नियामित नहीं होना चाहिए। वह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी चैतन्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। जब अनुशासन तुम्हारे भीतर से, तुम्हारे बोध से पैदा होता है, तो उस अनुशासन में एक सौंदर्य होता है, एक सत्य होता है, एक प्रामाणिकता होती है। वह अनुशासन तुम्हें पाखंडी नहीं बनाता।
अभी तो तुम्हारा जो अनुशासन है, वह पाखंड है। मंदिर में तुम कुछ और, मंदिर के बाहर तुम कुछ और। दुकान पर तुम कुछ और, घर में तुम कुछ और। तुम्हारे कितने चेहरे हैं! तुम्हारे इतने चेहरे हैं कि शायद तुम्हें भी ठीक-ठीक पता नहीं कि कौन सा असली है और कौन सा नकली है। तुम गिरगिट हो गए हो। तुम रंग बदल लेते हो। मंदिर गए तो एक रंग बदल लिया। मंदिर जाते हैं लोग तो कैसे बिलकुल भक्तिभाव से चले जाते हैं! टीका-तिलक लगा लिया, राम-राम जपने लगे, हाथ में माला ले ली। उनको देखो जरा, तो ऐसे लगते हैं कि अहा, कैसे पावन! कैसे पवित्र! मगर बस यह मंदिर जाते समय चेहरा होता है उनका। इन्हीं सज्जन को दुकान पर मिलो, तो तुम बिलकुल और ही आदमी पाओगे। शायद चंदन वगैरह अब भी लगा हो, मगर सूख चुका होगा। माला शायद अब भी हाथ में लिए हों, मगर वह औपचारिक होगी। चेहरे पर अब तुम कोई वह भाव न पाओगे।
एक धार्मिक आदमी के पास मुल्ला नसरुद्दीन चंदा मांगने गया--सोच कर कि धार्मिक आदमी है और काम ऐसा शुभ है कि जरूर चंदा देगा। रोज-रोज देखता था इसे मंदिर जाते--सिर्फ अंगोछा लगाए, गंगा मैया में नहा कर, तिलक-चंदन लगाए, माला हाथ में लिए, राम-राम जपता हुआ। मुल्ला बहुत प्रभावित हुआ था। एक विधवा स्त्री मर रही थी, उसके लिए दवा-दारू की जरूरत थी। सोचा कि किसके पास जाएं? इसी धार्मिक आदमी की याद आई। पहुंचा उस आदमी के द९ब०तर में। वहां तो रंग-ढंग और थे। आदमी तो वही था, मगर वही नहीं भी था। चेहरे में वह बात ही नहीं थी। वह भक्ति-भाव बिलकुल नहीं था। अचानक जैसे, सुबह जो फूल खिलते थे चेहरे पर, वे नहीं खिल रहे थे, बिलकुल मरुस्थल था, चेहरा बिलकुल सूखा हुआ था। नसरुद्दीन पहले तो डरा भी कि इससे कुछ कहना कि नहीं! फिर उसने पूछा कि आप वही हैं न जो रोज सुबह गंगा मैया में स्नान करके आते हैं?
उसने कहा: हां, मैं वही हूं। क्या चाहते हो?
उसने ऐसी कड़की से पूछा कि मुल्ला की हैसियत कुछ थोड़ी-बहुत बची थी, वह भी खो गई। मुल्ला ने कहा कि अब तो मेरी कहने तक की हिम्मत नहीं हो रही, लेकिन आ गया हूं सो कहे देता हूं। मगर क्षमा करें, मैं तो उसी सुबह के भबके में आ गया।
उस आदमी ने कहा: सुबह के भबके में कई आ जाते हैं। और मैं देख कर ही समझ गया कि तुम चंदा मांगने आए हो। चंदा मांगने वालों की शक्लों से मैं परिचित हूं। वह तो अच्छा हुआ कि बाहर ही तुम्हें धक्के देकर नहीं निकाल दिया, नहीं तो चंदा मांगने वालों को हम बाहर ही निकलवा देते हैं। तुम पहली दफा आए हो, इसलिए मेरे चपरासी को पता नहीं कि किसलिए आए हो। बोलो क्या है?
तो मुल्ला ने कहा कि एक विधवा स्त्री मर रही है, उसकी हालत बिलकुल खराब है, दवा-दारू की जरूरत है।
उस आदमी ने कहा कि खैर तुम आ गए, तो एक पहेली बुझाओ। अगर बुझा दोगे तो दवा-दारू का खर्चा मैं उठा लूंगा। मेरी दो आंखों में एक आंख नकली है। कौर सी नकली है और कौन सी असली है, यह बताओ।
मुल्ला ने एक क्षण गौर से देखा और कहा कि आपकी बाईं आंख नकली है।
वह आदमी तो बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा: तुमने कैसे पहचाना?
मुल्ला ने कहा: बात साफ है। आपकी बाईं आंख नकली ही होनी चाहिए। उसमें थोड़ा दया-भाव मालूम पड़ता है। आपकी असली आंख देख कर तो मेरे प्राण सूखे जा रहे हैं। और भूल हो गई। अब कभी न आऊंगा। कोई मुझे अपनी पत्नी को थोड़े ही विधवा करवाना है। अब कभी नहीं। जो गलती हो गई, क्षमा करना।
दुकानों पर और चेहरे हैं लोगों के, बाजार में और चेहरे हैं, मंदिरों में और चेहरे हैं। चेहरे ही चेहरे हैं। और तुम कितने चेहरे दिन में बदलते हो, कहना मुश्किल है।
जार्ज गुरजिएफ, पश्चिम का एक बहुत अदभुत सदगुरु हुआ। वह अक्सर अपने शिशयों को यह समझाने के लिए कि आदमी के पास कितने चेहरे हैं, एक प्रयोग किया करता था। दो शिशय बैठे हों--एक बाएं, एक दाएं; वह एक की तरफ इस तरह देखेगा जैसे मार ही डालेगा और दूसरे की तरफ ऐसे देखेगा जैसे अमृत की वर्षा कर रहा है! दोनों में बाद में कलह हो जाएगी। एक कहेगा कि बहुत दुशट आदमी है, इसके पास अब तो मैं जाने से भी डरूंगा। दूसरा कहेगा कि तुम कह क्या रहे हो! इससे ज्यादा प्यारा आदमी मैंने नहीं देखा। उसकी आंखें देखते थे, कैसी अमृत बरसा रही थीं!
उनका विवाद हल न होता तो वे गुरजिएफ के पास आते। गुरजिएफ कहते: तुम दोनों ठीक कह रहे हो। मैं अलग-अलग चेहरे दिखा रहा था। एक चेहरा इसको दिखला रहा था, एक तुमको। मैं तुमसे यह कह रहा था कि यही हालत तुम्हारी है, लेकिन तुम होशपूर्वक नहीं कर रहे हो, मैं होशपूर्वक कर रहा हूं।
पत्नी के पास तुम्हारा एक चेहरा होता है, प्रेयसी के पास तुम्हारा दूसरा चेहरा होता है। प्रेयसी के पास तुम कैसे गदगद दिखाई पड़ते हो! पत्नी के पास तुम कैसे उजड़े-उजड़े मालूम होते हो, उखड़े-उखड़े, भागे-भागे!
दो आदमी बैठे देर तक शराबखाने में शराब पीते रहे। पहले ने दूसरे से पूछा कि भाईजान, आप इतनी देर-देर तक यहां क्यों बैठे रहते हैं?
उसने कहा कि जाऊं तो कहां जाऊं? घर में कोई है ही नहीं। अविवाहित हूं।
पहले को तो नशा चढ़ रहा था, एकदम उतर गया। उसने कहा: कहते क्या हो! अविवाहित होकर और आधी-आधी रात तक यहां बैठते हो! अरे मैं तो यहां इसलिए बैठा हूं कि जाऊं तो कहां जाऊं, घर में पत्नी है! जब बिलकुल नशे से भर जाता हूं, जब ऐसी हालत आ जाती है कि अगर सिंहनी की मांद में भी मुझे जाना पड़े तो भी जा सकता हूं, क्योंकि होश ही नहीं रहता--तब घर जाता हूं। फिर मुझे पता नहीं क्या गुजरती है।
पाखंड पैदा हुआ है तुम्हारे अनुशासन से, तुम्हारे धर्म से। इस पाखंड का मैं निश्चित विरोधी हूं। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहता हूं कि लोग अराजक हो जाएं, स्वच्छंद हो जाएं। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि मैं चाहता हूं लोग स्वतंत्र हो जाएं।
स्वच्छंद शब्द भी हमने खराब कर लिया है, नहीं तो बहुत प्यारा है। उसका अर्थ उच्छृंखल कर लिया, करना नहीं चाहिए। स्वच्छंद का अर्थ होता है: स्वयं के छंद में आबद्ध। एक भीतरी संगीत में लयबद्ध। स्वच्छंद बड़ा प्यारा शब्द है। स्वतंत्र से भी प्यारा शब्द है। स्वतंत्र में भी थोड़ी सी तांत्रिकता रहती है, थोड़ी यांत्रिकता रहती है, थोड़ी औपचारिकता रहती है। स्वच्छंदता में तो सिर्फ एक गीतमयता है, एक लयबद्धता है--स्वयं के छंद में जो आबद्ध है।
बुद्ध स्वच्छंद हैं। और ऐसे ही व्यक्ति वस्तुतः अनुशासित भी; लेकिन अनुशासन भीतर से आता है। यह ऊपर से थोपा गया आचरण नहीं है। मैं आचरण-विरोधी हूं, अंतस का पक्षपाती हूं। अंतस से आचरण आए तो शुभ। और जबरदस्ती तुम ऊपर से थाप लो--क्योंकि लोग कहते हैं, क्योंकि परिवार कहता है, क्योंकि परंपरा कहती है--तो तुम दो हिस्सों में बंट जाओगे। भीतर तुम कुछ और, बाहर तुम कुछ और। तुम्हारी जिंदगी में तब दो दरवाजे हो जाएंगे--एक तो बैठकखाना, जहां तुम मिलते हो एक ढंग से; और एक भीतर का दरवाजा, पीछे का दरवाजा, जहां तुम्हारी असली शक्लें देखी जाती हैं। बाहर तो तुम मुस्कुराते हुए मिलते हो। वह मुस्कुराहट कूटनीतिक है, राजनैतिक है। राजनेता तो मुस्कुराते ही रहते हैं। कहीं कोई उनके हृदय में मुस्कुराहट नहीं होती। और जब चुनाव आता है, तब तो मुस्कुराहट का एकदम मौसम आता है! जो देखो वही मुस्कुरा रहा है। जैसे वसंत में फूल खिलते हैं न, ऐसे चुनाव में मुस्कुराहटें खिलती हैं। जिनकी शक्ल पर मुस्कुराहट जैसी चीज बिलकुल ही असंभव मालूम हो--जैसे मोरारजी देसाई, जिनकी शक्ल और मुस्कुराहट में कोई संबंध नहीं मालूम होता--वहां भी मुस्कुराहट आ जाती है! पद पर पहुंचते ही मुस्कुराहट खो जाती है। क्या जरूरत रही! वह तो खुशामद थी लोगों की।
तुम देखते हो, कार्टर जब चुनाव लड़ा, तब उसके बत्तीसों दांत गिन सकते थे। अब कितने गिन सकते हो? धीरे-धीरे कम होते गए दांत। अब तो दांत वगैरह दिखाई नहीं पड़ते। अब तो कार्टर वेदांती हो गए हैं। अब गई वह बत्तीसा-मुसकान। अब तो भूल-भाल गए, चौकड़ी भूल गई। मगर अभी चुनाव फिर आ रहा है, फिर मुस्कुराहट आ जाएगी। वसंत आ रहा है फिर, फिर मुस्कुराहटें लगेंगी।
लेकिन तुम भी छोटे-मोटे तल पर यही कर रहे हो। जब किसी से काम होता है तो तुम मुस्कुराहट से मिलते हो; और जब किसी से काम नहीं होता तो तुम यूं गुजर जाते हो जैसे पहचानते भी नहीं। अपने भी अजनबी हो जाते हैं जब काम नहीं। और जब काम होता है तो अजनबी भी अपने हो जाते हैं। इसको मैं आचरण नहीं कहता। इसको मैं कोई व्यवस्था नहीं कहता। यह तो थोथा पाखंड है।
महेश, इस पाखंड से मुक्त होना आवश्यक है, तभी कोई व्यक्ति जीवन में वस्तुतः धार्मिक हो पाता है। धार्मिक होना एक क्रांति है। और धार्मिक होने के लिए निश्चित एक तरह की अराजकता से गुजरना पड़ता है। क्योंकि सब पुराना कूड़ा-कर्कट निकाल कर बाहर करना होता है। पुराने खंडहर गिराने पड़ते हैं, तभी नये भवन खड़े हो सकते हैं।

दूसरा प्रश्न: रहिमन बिआह व्याधि है, सकहु तो लेहु बचाय।
पांयन बेड़ी परत है, ढोल बजाय-बजाय।।
रहीम के इस दोहे से क्या आप सहमत हैं?

चैतन्य कीर्ति! रहीम जैसे व्यक्ति बात तो सदा पते की कहते हैं, अनुभव की कहते हैं। रहीम कोई बुद्धपुरुष नहीं हैं, लेकिन बड़े अनुभवी व्यक्ति हैं। जीवन को जीया है, उसके मीठे-कड़वे अनुभव लिए हैं। सार की बात कह रहे हैं। ठीक कह रहे हैं: रहिमन बिआह व्याधि है! एक बीमारी है।
विवाह का क्या अर्थ? जब तक तुम्हें दूसरे की आवश्यकता है, तब तक तुम बीमार हो। जब तक तुम स्वयं होने में समर्थ नहीं हो, तब तक तुम बीमार हो। जब तक तुम अपने एकांत में आनंदित नहीं हो सकते, तब तक तुम बीमार हो। ये दो शब्द याद रखो--व्याधि और समाधि। व्याधि का अर्थ है: हम अपने भीतर रुग्ण हैं, सो दूसरे में अपने को भुलाते हैं, भटकाते हैं, भरमाते हैं। तरहत्तरह के भरम खाते हैं। जानते हुए खाते हैं, न खाएं तो क्या करें! क्योंकि अपने भीतर झांकते हैं तो अंधकार ही अंधकार। अपने भीतर देखते हैं तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं। अपने भीतर देखते हैं तो व्यर्थता ही व्यर्थता मालूम होती है, असार ही असार, रेगिस्तान दूर-दूर तक--जहां न कोई फूल खिलता दिखाई पड़ता, न कोई फल लगते दिखाई पड़ते; जहां कहीं दूर भी एक मरूद्यान के दर्शन नहीं होते। डर कर बाहर निकल आते हैं। मगर बाहर क्या करें? कोई उलझाव चाहिए, कोई भरमाव चाहिए, किसी चीज के साथ अटकाव चाहिए। और सबसे ज्यादा भरमाने वाली बात विवाह है।
विवाह का अर्थ है: पुरुष के लिए स्त्री, स्त्री के लिए पुरुष। वह प्राकृतिक व्यवस्था है--भटकने की, भरमने की। आशाएं बंध जाती हैं, सपने सज जाते हैं। लगता है बस अब आ गई सुख की घड़ी। आती कभी नहीं; बस लगती ही है कि आ गई, आ गई, आ गई। इस शब्द "आ गई' को ठीक से समझना। तुम इसको इकट्ठा करके पढ़ते हो आ गई। आ को और गई को तोड़ कर पढ़ना हमेशा--आ गई! आई ही नहीं और गई। यह बड़ा प्यारा शब्द है। इस शब्द में बड़ा राज है। इसमें हाइफन लगा कर पढ़ना। कभी इसको इकट्ठा मत करना; इकट्ठा करने में--पांयन बेड़ी परत है। आता-करता कुछ नहीं, आता हुआ बस मालूम पड़ता है। आएगा भी कैसे? वह स्त्री जो तुम्हारे प्रेम में पड़ी है, वह भी अपने से भागी है; तुम उसके प्रेम में पड़े हो, तुम भी अपने से भागे हो। दो भिखारी एक-दूसरे से आशा रख रहे हैं, भिक्षापात्र फैलाए हुए हैं कि हे देवी, कि हे देवता! वह भी आशा में कह रही है कि तुम राज-राजेश्वर हो। और तुम भी आशा में कह रहे हो, आशाएं बांधे हो, कि नहीं तुझ जैसा कोई और! तू तो हृदय की रानी है! हृदय-साम्राज्ञी है! ये सब आशाएं हैं। वह भी सिर हिला रही है, तुम भी सिर हिला रहे हो; दोनों को अपनी असलियत पता है, मगर दोनों सोच रहे हैं कि शायद दूसरा भर दे मेरे भीतर की खाली जगह।
मगर यह भ्रम कितनी देर रहेगा? जब तक चौपाटी पर मिलते रहोगे, जब तक चौपट नहीं हो जाओगे, तब तक रहेगा। चौपाटी भी लोगों ने नाम गजब का रखा है! यह चौपट होने के पहले मिलने का स्थान है। हालांकि जिन्होंने रखा है...किसी ऋषि-मुनि ने रखा होगा...कि भैया सावधान, चौपाटी है! मगर फिर भी नहीं लोग चौंकते। चले चौपाटी! कहां जा रहे? चौपाटी जा रहे हैं! जब तक होश आता है, तब तक बहुत देर हो जाती है। विवाह के बाद ही पता चलता है कि हम दोनों भ्रांति में थे। तब कलह शुरू होती है।
इसलिए हर विवाह कलह में ले जाता है। कलह किस बात की? कलह इस बात की है कि प्रत्येक सोचता है मुझे धोखा दिया गया, हालांकि किसी ने किसी को धोखा नहीं दिया है। प्रत्येक ने धोखा खाया है जरूर, दिया किसी ने भी नहीं है। इसलिए पुरुष निंदा करते रहते स्त्रियों की, कि स्त्री नरक का द्वार है! साधु-महात्मा चिल्लाते फिरते हैं--स्त्री नरक का द्वार है! एक बात समझ लेना, ये सब चौपाटी को याद कर रहे हैं। ये अभी भी दोष स्त्री को दे रहे हैं, जरा खयाल करना। इस भ्रांति पर खयाल करना। पहले सोचते थे कि स्त्री साम्राज्ञी है; आ जाएगी मेरे हृदय में तो जल जाएंगे बुझे दीये, खिल जाएंगे कुम्हलाए फूल, हो जाएगी बरखा अमृत की! पहले भी भरोसा था स्त्री पर; अब भी भरोसा है कि नरक भेजेगी। अभी भी भरोसा नहीं गया। मगर स्त्री बलशाली है! पहले स्वर्ग देती थी; अब नरक भेज रही है।
तुम्हारे महात्माओं में मैं कोई क्रांति नहीं देखता--वही की वही भ्रांति है। पहले स्त्री को जिम्मेवार सोचते थे--स्वर्ग की सीढ़ी की तरह; अब सोचते हैं--नरक की सीढ़ी की तरह। सीढ़ियां तो सीढ़ियां हैं। सीढ़ियों का तुम दोनों तरह से उपयोग कर सकते हो; ऊपर चाहो ऊपर चले जाओ, नीचे चाहो नीचे चले जाओ। सीढ़ी तो निशपक्ष होती है। सीढ़ी कोई यह थोड़े ही कहती है कि ऊपर ही जाओ, नीचे जाना मना है, कि नीचे जाना मना है, ऊपर ही जाओ। सीढ़ी पर कोई तषती नहीं लगी होती। सीढ़ी दोनों दिशाओं में जाती है। लेकिन पुरुष गालियां देते हैं फिर स्त्रियों को। जिंदगी भर! और अगर भोगी देते हों गालियां, तो भी ठीक है; जिनको तुम त्यागी कहते हो, वे और भी ज्यादा गालियां देते हैं।
स्त्रियां इतनी मुंहफट नहीं हैं, इसलिए स्त्रियों में महात्मा नहीं हो सके। महात्मा होने के लिए पहले मुंहफट होना जरूरी है। महात्मा होने के लिए पहले असंस्कृत, असभ्य होना जरूरी है। महात्मा होने के लिए पहले दूसरे को दोषी ठहराना जरूरी है। स्त्रियां इतना नहीं कर सकीं कभी। स्त्रियां जल्दी धोखे में भी नहीं आतीं, सच बात यह है। तुम लाख स्त्रियों से कहो, लेकिन वे काफी सोच-विचार करती हैं। कोई स्त्री कभी अपनी तरफ से नहीं कहती कि मुझे तुमसे प्रेम है; तुम्हीं से कहलवाती हैं हजार दफा। कोई स्त्री कभी तुम्हारे आसपास पूंछ नहीं हिलाती; तुम्हीं से हिलवाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी एक दिन सुबह ही सुबह विवाद कर रहे थे, जो कि हर घर का रिवाज है। जिस घर में सुबह से विवाद न हो, उस घर में विवाह हुआ ही नहीं। इसलिए मैं तो कहता हूं फलां का विवाह हो रहा है, मतलब फलां का अब विवाद शुरू हो रहा है। विवाह अर्थात विवाद--पर्यायवाची हैं।
चाय की टेबल पर बकवास शुरू हो गई। मुल्ला की पत्नी ने कहा कि सुनो जी, कोई मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी, तुम्हीं पूंछ हिलाते फिरते थे। तुम्हीं चिट्ठियां लिखते थे कि मैं मर जाऊंगा, कि हाय मैं मरा, कि अगर तुम न मिलीं तो मैं मर जाऊंगा, कि तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता। कोई मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी।
मुल्ला ने कहा: यह बात सच है, इसे मैं स्वीकार करूंगा ही। यह मेरी गलत आदत है। यह मैं हर स्त्री को लिखता रहा। यह मेरी पुरानी आदत है। यह मेरी अभी भी नहीं छूटी। तू है, तेरा अनुभव है; मगर फिर भी, अभी भी मौका मिल जाता है तो मैं लिख देता हूं, कह देता हूं इस तरह की बातें। मूढ़ हूं, मतिमंद हूं! और यह बात सच है कि मैं ही तेरे पीछे फिरता रहा, कोई तू मेरे पीछे फिरी नहीं। और हो भी क्यों न! कोई चूहेदानी चूहे के पीछे नहीं फिरती, चूहा खुद ही मूरख चूहेदानी में चला जाता है!
इसलिए चूहेदानियां कभी महात्मा नहीं होतीं, चूहे महात्मा हो जाते हैं। और स्वभावतः, जब चूहे महात्मा होंगे तो चूहेदानी को गाली देंगे, और किसको गाली देंगे? कि यह नरक का द्वार है, सावधान!
मगर तुम लाख करो सावधान, लोग अपने अनुभव से ही नहीं सीखते तो दूसरे के अनुभव से क्या खाक सीखेंगे! अभी महात्मा को भी मौका मिल जाए फिर से, जरा चूहेदानी ढंग की मिल जाए, जरा रंग-ढंग और हो, न हो लोहे की, हो सोने-चांदी की, हीरे-जवाहरात जड़े हों--तो महात्मा भी सोचेंगे कि एक प्रयोग और कर लेना ठीक है। अरे कौन जाने, एक स्त्री गलत हुई, सभी स्त्रियां थोड़े ही गलत होंगी! एक स्त्री के कारण सारी स्त्रियों को गलत मान लेना ठीक भी तो नहीं मालूम होता, तर्कयुक्त भी मालूम नहीं होता।
रहीम तो पते की कह रहे हैं, मगर चैतन्य कीर्ति, तुम रहीम की मान कर मत रुक जाना। अपना अनुभव भैया! कोई न कोई चूहादानी का अनुभव चाहिए ही। फंसो! ऐसे रहीम वगैरह की मान कर रह गए तो बहुत पछताओगे।
और अक्सर ऐसा हो जाता है कि जवानी में तो आदमी अपने को रोक लेता है। जवानी में ताकत होती है रोकने की। जवानी में ताकत होती है, जो भी उपयोग करना हो। अगर जवान चूहा हो और जिद कर ले कि नहीं घुसेंगे चूहेदानी में, तो नहीं घुसे। लेकिन जैसे-जैसे जवानी जाएगी और बुढ़ापा करीब आएगा, वैसे-वैसे मन की ताकत कम होने लगेगी, संकल्प टूटने लगेगा और मन डांवाडोल होने लगेगा, चूहेदानी के तुम चक्कर लगाने लगोगे।
एक सज्जन मुझे मिले। चालीस वर्ष उनकी उम्र थी। बालब्रह्मचारी थे। उन्होंने मुझसे कहा कि चालीस वर्ष तो मैंने गुजार दिए, अब क्या डर है? मैंने कहा: तुम ठहरो, अभी असली डर आ रहा है।
उन्होंने कहा: मतलब?
मैंने कहा कि तुम पैंतालीस साल के बाद फिर मुझे मिलना।
उन्होंने कहा: मैं समझा नहीं आपकी बात।
मैंने कहा: ऐसे तुम समझोगे भी नहीं। समय समझा देगा। पैंतालीस साल के बाद मुझे मिलना।
मगर वे थोड़े डर गए, शाम को ही आ गए। कहने लगे कि नहीं, मैं दिन भर आज बेचैन रहा। आपका मतलब क्या है?
मैंने कहा: मतलब यह है कि जब आदमी जवान होता है तो कुछ भी करने की ऊर्जा होती है। जैसे-जैसे तुम पैंतालीस के करीब पहुंचोगे और जवानी खिसकनी शुरू होने लगेगी, वैसे-वैसे मन में संदेह उठने शुरू होंगे--कि कहीं दुनिया सच में ही मजा न लूट रही हो! आखिर महात्मा कितने हैं? इने-गिने, जो कहते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। और ये कहते रहे हैं कि स्त्री नरक का द्वार है, फिर भी कौन इनकी सुनता है? और इन्हें भी मौका मिल जाए तो ये अपनी ही कहां सुनते हैं? तो कुछ न कुछ राज तो होगा। और जब जिंदगी हाथ से जाने लगेगी, तब तुम घबड़ाओगे।
उन्होंने नहीं मानी मेरी बात। पैंतालीस साल बाद वे मुझे मिले और उनकी आंखों में आंसू थे, उन्होंने कहा: आप ठीक कहते थे। सच में मैं डगमगाने लगा। अब घबड़ाहट मेरी शुरू हुई है। अब जिंदगी हाथ से जा रही है। अब यह आखिरी समय है। अगर दो-चार-पांच साल और मैं गुजार देता हूं तो मैं गया काम से, फिर पता नहीं, पता नहीं स्त्री का अनुभव कैसा था! मैंने तो लिया नहीं। अब मेरे मन में बस एक ही धुन चलती है--न कोई राम, न कोई कृशण, कोई नहीं--बस एकदम गोपिएं ही गोपिएं दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी जाता हूं...राम के भक्त हैं...मगर सीता मैया दिखाई पड़ती हैं, रामचं( जी नहीं दिखाई पड़ते। आंखें अटकी रहती हैं सीता मैया पर।
स्वाभाविक है।
चैतन्य कीर्ति, रहीम तो ठीक कहते हैं कि विवाह व्याधि है। मगर रहीम अनुभव से कहते हैं। रहीम कोई महात्मा नहीं हैं। रहीम तो एक महाकवि हैं। जीवन को जीए हैं। और जीने से जो सार निकाला है, इस पद में रख दिया है। कहते हैं: "सकहु तो लेहु बचाय!'
बचा सको तो बचा लो। मगर कैसे बचाओगे? अनुभव के बिना कोई नहीं बचा सकता। अनुभव के बिना कोई भी बचाएगा तो बहुत झंझट में पड़ेगा। इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि सकहु तो लेहु बचाय। मैं तो कहूंगा: बचा भी सको तो भी बचाना मत! इस अनुभव से गुजर जाना जरूरी है--इससे मुक्त होने के लिए।
"पांयन बेड़ी परत है...'
यह तो सच है कि बेड़ी पड़ जाती है। और इसलिए तो ढोल बजाते हैं।
"...ढोल बजाय-बजाय।'
इसलिए तुम्हें घोड़े पर बिठालते हैं। दूल्हाराजा बनाते हैं। क्योंकि फिर जिंदगी भर के लिए बन रहे हो जोरू के गुलाम। अब एक दिन तो बना लें दूल्हाराजा, कि बेटा फिर तुम जानो तुम्हारा काम। तलवार वगैरह लटका देते हैं। देखते हो मजा! जिन्हें तलवार पकड़ना भी न आता हो; तलवार दूर, जिन्होंने कभी छुरी भी न पकड़ी हो; सब्जी काटने की छुरी से भी हाथ काट लें--उनको तलवार लटका दी। वह भी उधार! मांग लाए किसी की। हर गांव में ऐसी तलवारें होती हैं, जिनका कुल काम इतना है कि जब कोई दूल्हाराजा बनता है, तब वे तलवारें आ जाती हैं और लटका दी जाती हैं। और हर गांव में घोड़े होते हैं, घोड़ियां होती हैं, उनका काम ही यही है कि जब कोई दूल्हाराजा बने, उनको बिठा दिया। अनुभव में गधे पर भी नहीं बैठे हैं। अभी गधा भी इनको ऐसा पटके कि छठी का दूध याद आ जाए। गधा भी ऐसी दुलत्ती मारे! मगर बैठे हैं अकड़ कर घोड़े पर। और चारों तरफ बराती चल रहे हैं और बैंड-बाजे बज रहे हैं। यह भ्रम पैदा किया जा रहा है--कि कुछ गजब का काम हो रहा है! कुछ महान कार्य हो रहा है!
यह एक दिन का राजपाट है। यह एक दिन का स्वागत-सत्कार है। फिर जिंदगी भर फल भोगो।
कहते तो ठीक हैं: "पांयन बेड़ी परत है, ढोल बजाय-बजाय।'
ढोल बजा-बजा कर लोग बेड़ी पहना देते हैं। क्योंकि तुम ढोल में उलझे रहते हो तो तुम्हें खयाल ही नहीं रहता कि पैरों की क्या गति हो रही है। इधर ढोल में तुम उलझे हो, तुम सुन रहे हो शहनाई, उधर पैर में बेड़ियां डाली जा रही हैं। मंतरत्तंतर पढ़े जा रहे हैं। पंडित-पुजारी चक्कर लगवा रहे हैं वेदी के, सात फेरे डाले जा रहे हैं।
एक राजनेता को एक विवाह में निमंत्रित किया गया। राजनेता थे। राजनेता और शराब न पीएं, यह जरा मुश्किल है। हां जीवन-जल पीने लगें तो बात दूसरी। उससे शराब ही बेहतर है, कम से कम अंगूर का जल है। गए थे विवाह में, ज्यादा पीकर पहुंच गए। कुछ ठीक-ठाक समझ में आ नहीं रहा था कि हो क्या रहा है। वे तो अपनी पुरानी धुन में थे। दूल्हा-दुल्हन यज्ञ-कुंड का चक्कर लगा रहे थे, सात फेरे लगाए जा रहे थे। उन्होंने आव देखा न ताव, जल्दी से पहुंचे, कैंची खीसे से निकाली और काट दिया। वे समझे कि उदघाटन कर रहे हैं।
मगर दूसरों के काटे से बात कटती नहीं। अरे, लोगों ने कहा, यह क्या करते हो? जल्दी से फिर लोगों ने दूसरी गांठ बांध दी। एक गांठ की जगह दो गांठें हो गईं और। और नेता को पकड़ कर लोगों ने बिठाया कि भैया, तुम्हें यह क्या हो गया? वे समझे कि उदघाटन करने आए हैं, वह तो कैंची से कहीं भी फीता लटका हो तो काटना उनका कुल काम था। यह फीता लटका देखा उन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच, कि मामला क्या है!
दूसरों के काटे नहीं कटेगी यह बेड़ी। यह तो काटेगा कोई दूसरा तो बंध जाएगी दोहरी।
चचा, चचा, चचा,
चचा में अब कुछ नहीं बचा;
झुके हुए सलाम हैं, चची के गुलाम हैं।
इसलिए बेचारे कहते हैं रहीम: बचा सको तो कुछ बचा लो। चचा! मैं उनसे सहमत हूं। बात तो सच्ची कहते हैं, पते की कहते हैं। लेकिन उन्होंने भी अनुभव से सीखी और तुम भी अनुभव से ही सीखोगे। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि तुम मान कर और रुक जाना, नहीं तो जीवन भर पछताओगे। अनुभव से गुजर जाओ। अनुभव से गुजरना ही अनुभव से मुक्त होने की एकमात्र व्यवस्था है।
कठिनाई तो है अनुभव से गुजरने में, मुश्किल तो है।
डाक्टर साहब, मेरी पत्नी के मुंह से आवाज ही नहीं निकलती। चंदूलाल ने अपने निजी डाक्टर से जाकर कहा। कोई दवा दे दीजिए।
डाक्टर ने पूछा: आप घर कब पहुंचते हैं द९ब०तर से?
चंदूलाल ने कहा: घर! ठीक पांच बजे।
डाक्टर ने कहा: तो कल साढ़े दस बजे रात घर पहुंचना। पत्नी के मुंह से आवाज निकलेगी! दवा वगैरह की कोई जरूरत नहीं है। अरे मुर्दा पत्नी हो तो बोलेगी! कितना ही गला लगा हो, ऐसी आवाज निकलेगी कि तुम भी याद रखोगे। और फिर कभी दवा मांगने नहीं आओगे। फिर तो तुम यही प्रार्थना करोगे कि हे प्रभु, वही बीमारी हो जाए।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन बहुत उदास बैठा था। मैंने पूछा: क्या हुआ? बड़े मियां, बात क्या है? इतने उदास क्यों हो?
उन्होंने कहा: मेरी पत्नी ने तीस दिन बोलचाल बंद कर दिया है।
तो मैंने कहा: यह तो खुश होने की बात है।
उन्होंने कहा: हां, खुश होने की बात है! आज तीस दिन खत्म हो रहे हैं, खाक खुश होने की बात है! आज फिर बोलचाल शुरू होगा। अब देखें क्या होता है! घर पहुंचें तो पता चले।
अनुभव से गुजरो।
गुलजान एक दिन डाक्टर के पास पहुंची और बोली कि डाक्टर साहब, मेरे पति नसरुद्दीन को न जाने क्या हो गया है, रात भर बड़बड़ाते रहते हैं! अच्छा हो आप कुछ गोलियां वगैरह दें।
डाक्टर ने कुछ गोलियां उसे देते हुए कहा: यह लीजिए, इन गोलियों से उनका बड़बड़ाना बिलकुल बंद हो जाएगा।
गुलजान गुस्से से बोली: लेकिन डाक्टर साहब, बड़बड़ाना बंद किसे करवाना है! अरे कुछ ऐसी गोलियां दीजिए, ताकि साफ-साफ सुनाई दे कि वे कह क्या रहे हैं। कमला, विमला इत्यादि नाम समझ में आते हैं, मगर साफ समझ में नहीं आते कि मामला क्या है। किससे लाग-लगाव चल रहा है। ये कौन हैं रांडें--कमला, विमला! रात-रात भर बैठ कर सुनती हूं। मगर अनर्गल बकवास में सब गड़बड़ हो जाता है।
यह तो तुम जरा अनुभव, चैतन्य कीर्ति, करो इन सबके। एक ही पत्नी काफी है। दो हैं तो फिर क्या कहना! और मोहम्मद ने इसीलिए तो कहा कि चार प९ति०नयां। चार जिसकी प९ति०नयां हों, उसका मोक्ष निश्चित है। अगर उसका मोक्ष न हो तो वह महामूढ़ है। फिर उसके लिए कोई उपाय नहीं। फिर उसका कोई उद्धार नहीं हो सकता। चार प९ति०नयां जिसका उद्धार न कर सकें, उसका मोक्ष असंभव है।
पड़ोसिन के यहां जाकर मुल्ला नसरुद्दीन की बीबी गुलजान बोली: बहन, तुम तो बड़ी परोपकारी स्त्री हो। क्या मेरा एक जरा सा काम करोगी?
पड़ोसिन बोली: हां-हां, क्यों नहीं! बोलो, क्या काम आ पड़ा? बहन, अपना ही घर है। मैं तुम्हारी हूं, बोलो।
गुलजान ने शर्माते हुए बताया: बात यह है कि मुझे तुम्हारे पतिदेव से एक घंटे लड़ देने दो। मेरे पति आज चार दिन से बाहर गए हुए हैं।
एक कब्र पर लगे संगमरमर के पत्थर पर यह लिखा है--इस कब्र के अंदर एक ईमानदार, सत्यवादी, एक पतिव्रता और सदा पड़ोसियों की भलाई करने वाली समाज-सेविका श्रीमती गुलाबोरानी चिर-नि(ा में शयन कर सही हैं। वे आजीवन अपने पति श्रीमान ढब्बूजी को सुखी करने के कठोर प्रयत्न करती रहीं और अंततः स्वर्गवासी होकर सफल हुईं।
तो या तो तुम स्वर्गवासी हो जाओगे, या पत्नी स्वर्गवासी हो जाएगी। हर हाल में लड्डू ही लड्डू हैं।
बच्चन की एक कविता है: चेकोस्लोवाकिया की भूलभुलैया--

प्राहा में है एक पहाड़ी
जिस पर लोहे का टॉवर है--
पेरिस के आइफल टॉवर का छोटा भाई--
उसके नीचे
भूलभुलैया बनी हुई है;
उसके सब दर-दीवारों पर
शीशे-शीशे जड़े हुए हैं;
उसके अंदर घुस जाने पर
बड़ी देर तक
लोग नहीं बाहर आ पाते,
शीशों से फिर-फिर टकराते।
यूनोवा, मेरी दुभाषिया, मुझसे बोली,
अंदर जाएं
और निकल कर बाहर आएं
तो मैं जानूं।
मैं बाहर के दरवाजे पर
इंतजार में खड़ी मिलूंगी!
अंदर पैठा,
मैंने नजरें नीचे रखीं;
राहों का हर मोड़
नोट करता
मैं केवल तीन मिनट में बाहर आया!
यूनोवा को हुआ अचंभा, बोली,
कैसे?
आंखें नीची किए चला मैं, बोला
ऐसे!
यूनोवा ने कहा
आपकी बुद्धि भारती मान गई मैं,
मगर आपने अटक-भटक का मजा गंवाया!
मैं बोला,
वह तो जीवन में मैंने अब तक बहुत उठाया।

अटक-भटक का थोड़ा मजा लो! विवाह से बड़ी कोई भूलभुलैया नहीं है। थोड़े अटको-भटको।
चैतन्य कीर्ति, जल्दी न करना। रहीम का दोहा लिख कर रख लो जेब में, कभी-कभी निकाल कर पढ़ लेना, राहत मिलेगी कि कह तो गए सत्य, फिर रख लेना जेब में--जब तक कि यह तुम्हारा ही अनुभव न बन जाए। और एक दिन निश्चित तुम्हारा अनुभव बन जाएगा।
जीवन में केवल एक ही उपाय है सीखने का: स्वानुभव। और वही मुक्ति का द्वार है।

आज इतना ही।



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