रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
समाधि के फूल—ग्यारहवां
प्रवचन
दिनांक ९ अप्रैल; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद,
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।
मुझको तो नहीं होश तुमको तो खबर हो शायद,
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।।
2—जीवन में तो कुछ मिला नहीं और अब मृत्यु द्वार
पर खड़ी है। क्या मृत्यु में कुछ मिलेगा?
3—क्या परमात्मा तक पहुंचने के लिए दर्शन-शास्त्र
पर्याप्त नहीं है?
4—मैं अपनी पत्नी का भरोसा नहीं कर पाता हूं। वह
मेरी न सुनती है, न मानती है। उसके चरित्र पर भी मुझे संदेह है। इससे
चित्त उद्विग्न रहता है। क्या करूं?
पहला प्रश्न:
इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद,
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।
मुझको तो नहीं होश, तुमको तो खबर हो शायद,
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।
स्वभाव! बीज जब तक मिटे
नहीं, तब तक उसका होना सार्थक ही नहीं है। मिटने में ही
उसकी सार्थकता है। टूट कर बिखर जाने में ही उसका सौभाग्य है। जो बीज अपने को बचा
ले, वह अभागा है। बीज को तो गल जाना चाहिए, मिट्टी में मिल जाना चाहिए खोजे से भी न मिले, ऐसा आत्मसात
हो जाना चाहिए; भूमि के साथ। तभी अंकुरण होता है; तभी जीवन का जन्म है।
हृदय तो बीज है आत्मा का। जो हृदय को बचा लेते हैं, वे आत्मा के जन्म से वंचित रह जाते हैं। और जिन्होंने आत्मा ही न जानी,
उनके लिए परमात्मा तो बहुत दूर की कल्पना है--मात्र कल्पना है,
हवाई कल्पना है, बातचीत है। उसका कोई मूल्य
नहीं। हृदय मिटे तो आत्मा का आविर्भाव होता है। और जिस दिन तुम आत्मा को भी मिटाने
को राजी हो जाते हो, उस दिन परमात्मा का अनुभव होता है। हृदय
यानी तुम्हारी अस्मिता, मैं-भाव। हृदय यानी मैं पृथक हूं
अस्तित्व से। इस पृथकता को तोड़ो।
तो पहले तो ऐसा ही लगेगा कि बरबाद हुए। और दूसरों को तो सदा ही ऐसा
लगेगा कि बरबाद हुए। तो दूसरे तो ठीक कहते हैं कि लोग कहते हैं कि तुमने मुझे
बरबाद किया। उनको तो सिर्फ बरबादी ही दिखेगी। उनको तो तुम्हारे भीतर जो घटित हुआ
है, उसकी कोई खबर भी नहीं हो सकती। वह तो तुम्हीं जानते हो कि तुम्हारे भीतर
नये अंकुर फूटे हैं, नये जीवन का सूत्रपात हुआ है।
इसलिए तुम कह सकते हो: इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद।
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया। दूसरे तो इतना ही कहेंगे सिर्फ कि हो गए
बरबाद। इस आदमी ने तुम्हें डुबाया। और वे ठीक ही कहते हैं। उनका अपना हिसाब है।
अब स्वभाव एक बड़ी फैक्टरी के मालिक...अभी कल ही मैं देखता था कि उनकी
फैक्टरी वेकफील्ड को अंतर्राशट्रीय पुरस्कार मिला है। चित्र छपा था। चित्र देख कर
मुझे लगा कि स्वभाव अगर संन्यासी न होते तो शायद चित्र में होते, पुरस्कार लेते हुए दिखाई पड़ते चित्र में। कोई और ले रहा है। स्वभाव ही
प्राण थे उस संस्थान के। सब छोड़-छाड़ कर मेरे साथ दीवाने हो गए। तो लोग तो कहेंगे
ही कि बरबाद हो गए, कि पागल हो गए। उनका भी कोई कसूर नहीं।
उनके अपने मापदंड हैं।
जैसे कोयला अगर हीरा हो जाए तो दूसरे कोयले तो यही कहेंगे कि हो गए
बरबाद। कोयला ही हीरा होता है, खयाल रखना। कोयले और हीरे में
कोई रासायनिक भेद नहीं है। कोयला ही सदियों तक भूमि के नीचे दबा-दबा हीरे में
रूपांतरित होता है। हीरे और कोयले का रासायनिक सूत्र एक ही है। हीरा कोयले की
अंतिम परिणति है और कोयला हीरे की शुरुआत है। कहो कि कोयला बीज है और हीरा फूल है।
मगर दोनों जुड़े हैं। जब कोई हीरा निर्मित होता होगा कोयले के टुकड़े से, तो और कोयले के टुकड़े क्या कहते होंगे? कि हुआ
बरबाद! गया काम से! अपना न रहा! अपने जैसा न रहा! मगर हीरे पहचानेंगे कि दो कौड़ी
का था, आज बहुमूल्य हो गया।
तो स्वभाव, जो तुम जैसे ही बरबाद हुए हैं, वे
पहचानेंगे। तुम पहचानोगे। क्योंकि इसके पहले तुम जी कहां रहे थे! एक धोखा था,
खींच रहे थे, ढो रहे थे। आज तुम जी रहे हो। एक
उमंग है, एक उत्फुल्लता है, एक आनंद
है। आज तुम रसविभोर हो। गई अस्मिता, गया अहंकार, गई अकड़। आज तुम तरल हो, सरल हो। और यही तरलता,
यही सरलता तुम्हें पात्र बनाएगी उस परम घटना के लिए। उस परम सौभाग्य
का क्षण भी दूर नहीं, जब प्रभु भी तुममें उतर आए, जब वह महारास हो, जब उसकी रसधार बहे। लेकिन लोग तो
तब भी कहते रहेंगे।
मीरा से भी लोगों ने यही कहा कि तू क्या करती है पागल! राजघराने से
है! महलों से है! बाजारों में नाचती फिरती है! सब लोक-लाज खो दी!
बुद्ध से भी लोगों ने यही कहा: सब तुम्हारा था। सुंदर महल थे। सुंदर पत्नी
थी, बेटा था। बड़ी संभावनाएं थीं। जिस पद और प्रतिशठा के लिए लोग जीवन भर दौड़ते
हैं, वह तुम्हें अनायास मिला था। न मालूम कितने-कितने जन्मों
के पुण्यों का फल था! और तुम लात मार कर चले आए! पागल हो तुम!
बुद्ध ने जब अपना घर छोड़ा तो वे राज्य छोड़ कर चले गए, राज्य की सीमा छोड़ दी। क्योंकि वहां रहेंगे तो पिता आदमियों को भेजेंगे,
लोग समझाएंगे, सिर पचाएंगे, तो वे पड़ोसी राज्य में चले गए। लेकिन पिता कुछ इतनी आसानी से तो नहीं छोड़
दे सकते थे। उन्होंने पड़ोसी राजा को खबर की। बिंबिसार पड़ोस का राजा था। वह बुद्ध
के पिता का बचपन का मित्र था, दोनों साथ-साथ पढ़े थे, साथ-साथ ही धनुर्विद हुए थे। पुरानी दोस्ती थी। उन्होंने खबर भेजी कि मेरा
बेटा संन्यस्त हो गया है, वह तुम्हारे राज्य में कहीं है,
जाओ उसे समझाओ।
बिंबिसार गया। बहुत प्रेम से बुद्ध से मिला और बुद्ध से उसने कहा: हो
जाता है कभी। हो गई होगी कोई बात। तुम्हारी और तुम्हारे पिता की नहीं बनती, फिक्र छोड़ो। मैं भी तुम्हारे पिता जैसा हूं। तुम्हारे पिता के मुझ पर बहुत
उपकार हैं। काश तुम्हारे लिए मैं कुछ कर सकूं तो उऋण हो जाऊंगा। तुम आओ, यह महल भी तुम्हारा है और यह राज्य भी तुम्हारा है। मेरी एक ही लड़की है,
मैं उससे तुम्हें विवाहित किए देता हूं। तुम छोड़ो वह राज्य। छोड़ ही
दिया, ठीक है। नहीं जाना, मत जाओ। पिता
से नहीं बनती न, किस बेटे की बनती है! कोई फिक्र न करो। इस
राज्य को सम्हाल लो। वैसे तो वह भी राज्य तुम्हारा है, क्योंकि
अकेले बेटे हो। पिता बूढ़े हैं। तो तुम दोहरे राज्य के मालिक हो जाओगे।
बुद्ध हंसे और उन्होंने कहा: तो मालूम होता है मुझे यह राज्य भी छोड़
कर भागना पड़ेगा। इसीलिए तो छोड़ कर चला आया कि वहां समझाने वाले आएंगे। आप यहां भी
आ गए!
लेकिन बिंबिसार ने कहा कि तुम अभी जवान हो, अभी तुम्हें जीवन का अनुभव नहीं, जल्दबाजी न करो,
अधैर्य न करो। चलो महल। सोचो-विचारो। समय दो। मैं तुमसे कहता
हूं--पछताओगे पीछे।
बुद्ध ने इतना ही पूछा कि क्या तुम अपनी छाती पर हाथ रख कर यह कह सकते
हो कि तुमने जीवन में वह पा लिया जिससे तृप्ति होती है?
बिंबिसार थोड़ा बेचैन हुआ। छाती पर हाथ रख कर तो न कह सका। आदमी
ईमानदार रहा होगा। उसने कहा: यह तो मैं न कह सकूंगा कि मैंने वह पा लिया है, जिससे जीवन तृप्त हो जाता है, जिससे जीवन परिपूर्ण
हो जाता है।
तो बुद्ध ने कहा: फिर मुझे बाधा न डालो। तुम्हारे महल में मैं वही पा
सकूंगा जो तुमने पाया है। उससे तुम्हें तृप्ति नहीं मिली, मुझे कैसे मिलेगी? मेरे पिता को नहीं मिली, मुझे कैसे मिलेगी? किसको कब मिली है? तुम मुझे मेरी राह पर छोड़ दो। तुम मुझे मेरी बरबादी पर छोड़ दो, दया मत करो। क्योंकि मैंने, तुम जो आबाद हो, उनको मैंने बरबाद देखा है। तुम मुझे बरबादी पर छोड़ दो। कौन जाने, शायद यही आबाद होने का रास्ता हो।
और एक दिन बुद्ध आबाद हुए। और एक दिन बिंबिसार उनके चरणों में झुका।
एक दिन बुद्ध के पिता भी बुद्ध के चरणों में झुके।
आज तो, स्वभाव, तुम्हें बहुत लोग
कहेंगे कि अभी भी लौट आओ, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। घर,
परिवार, भाई...और वे सब तुम्हें प्रेम करते
हैं। ऐसा नहीं कि वे तुम्हारे कोई दुश्मन हैं। सब तुम्हारे चाहक हैं। वे सब
चाहेंगे कि तुम लौट आओ। तुम्हारी ही भलाई के लिए चाहेंगे कि तुम लौट आओ। लेकिन
उनकी समझ कितनी है? उनका अनुभव कितना है? धन का होगा, सुख-सुविधा का होगा, ध्यान का तो नहीं, अंतर-आनंद का तो नहीं। वे भी
कहेंगे कि तुम बरबाद हुए, लेकिन उनके कहने में और तुम्हारे
कहने में बहुत फर्क है। मैं भी कहता हूं कि तुम बरबाद हुए। लेकिन मैं कहता हूं कि
यही सौभाग्य है, परम सौभाग्य है कि तुमने हिम्मत जुटा ली और
तुम बरबाद हो सके। अब द्वार खुलते हैं संभावनाओं के। बीज टूटा कि बस निकले नये
कोंपल, निकले नये पत्ते, बनेगा बड़ा
वृक्ष कि जिसके नीचे हजारों लोग छाया में बैठ सकें। उड़ेगी गंध आकाश में कि
गु९ब०तगू होगी चांदत्तारों से।
तुम ठीक कहते हो: इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद। इसका
गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।
लगता है ऐसा ही। जब तुम जानना शुरू करते हो यह बरबादी का मजा, इस बरबादी का रस, जब पीते हो यह जाम, तब ऐसा ही लगता है कि अरे, कितनी देर हो गई, काश यह जरा जल्दी होता! लेकिन कुछ भी समय के पहले नहीं होता है। जब हो
सकता था तभी हुआ है। समय के पहले तुमसे कहता भी तो तुम सुनते नहीं। कितने तो हैं
जिनसे कह रहा हूं, नहीं सुन रहे हैं। वे भी एक दिन कहेंगे कि
बहुत देर में बरबाद किया। बरबादी का रस पी लेंगे, तब कहेंगे
न! अभी तो बरबादी डराती है, घबड़ाती है। अभी तो बचने का उपाय
खोजते हैं। कितने उपाय खोजते हैं!
मेरे विरोध में जो बातें चलती हैं, वे और कुछ भी नहीं
हैं--सिवाय अपने को बचाने के उपाय के। आत्मरक्षा के अतिरिक्त उनका और कोई लषय नहीं
है। मेरे खिलाफ इतना धुआं खड़ा कर लेते हैं अपने चारों तरफ कि एक बात निश्चित हो
जाती है स्वयं के समक्ष, कि नहीं इस आदमी के साथ एक कदम
बढ़ाना। बस उतने के लिए कितनी गालियां उन्हें देनी पड़ती हैं, कितने
झूठ उन्हें गढ़ने पड़ते हैं, वे सब कर लेते हैं। कितना आविशकार
उन्हें करना पड़ता है! सब करने के लिए राजी हैं--सुरक्षा के लिए, आत्म-रक्षा के लिए। हालांकि वे भी एक दिन यही कहेंगे।
स्वभाव ने भी बहुत दिन तक खींचतान की। कोई जल्दी ही मिटने को राजी
नहीं होता? कौन मिटने को जल्दी राजी होता है! धीरे-धीरे ही यह रस
लगता है। यह रस है भी बड़ा महंगा। सौदा बड़ा महंगा है। जो है, वह
तो छूटने लगता है हाथ से; और जो नहीं है, उसका क्या भरोसा? उसे तो लगा देना है दांव पर जो पास
में है--और जो बहुत दूर है, कहीं आकाश में, उसकी आशा में। बड़ा साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए!
स्वभाव भी खूब मुझसे लड़े-झगड़े हैं। खूब रस्साकसी की है। खूब खींचतान
की है। बचने के जितने उपाय कर सकते थे, किए हैं। लेकिन
सौभाग्यशाली हैं कि उनके सब उपाय हार गए। कभी यूं होता है कि हार में ही जीत हो
जाती है और कभी यूं होता है कि जीत में ही हार हो जाती है। अगर किसी जाग्रत
व्यक्ति के पास हार सको तो जीत गए; अगर जीत जाओ तो हार गए।
मगर ध्यान रहे, जब होता है, जिस घड़ी होता है,
वही घड़ी हो सकता था। एक परिपक्वता की घड़ी होती है। एक प्रौढ़ता की
घड़ी होती है। असमय में इस जगत में कुछ भी नहीं घटता है। मैंने लाख उपाय किए हैं
अनेक लोगों के साथ, लेकिन अगर समय नहीं पका था तो बात नहीं
हो सकी। बनते-बनते बिगड़ गई है। और अगर समय पका था तो बिना उपाय किए भी बात बन गई
है। जरा सा इशारा और यात्रा शुरू हो गई। अन्यथा पुकारते रहो, चिल्लाते रहो, बहरे कानों पर बात पड़ती है, कोई सुनता नहीं है।
एक बार एक चौक पर दो बहरे मिले। एक बहरे ने दूसरे बहरे से पूछा: क्यों
भाई, क्या बाजार जा रहे हो?
दूसरे बहरे ने कहा: नहीं-नहीं, जरा बाजार तक जा रहा
हूं।
पहला बहरा बोला: अच्छा-अच्छा, मैंने समझा कि बाजार
जा रहे हो।
बस ऐसा ही होता है। मैं कुछ कहूंगा, अगर समय नहीं पका है,
तुम कुछ समझोगे। न समझो तो भी ठीक। बिलकुल न समझो तो भी ठीक। कुछ का
कुछ समझोगे। अर्थ समझ में न आए, चलेगा; लेकिन अनर्थ समझ में आ जाता है।
एक दार्शनिक को मजबूरी में नौकरी करनी पड़ी। कुछ उलटी-सीधी बातें कहने
के कारण विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। कुछ बगावती बातें कि विश्वविद्यालय
बर्दाश्त न कर सका। तो कुछ और तो वह जानता नहीं था, बस कोई छोटा-मोटा काम
ही कर सकता था। तो एक घर में झाडू-बुहारी लगानी, बर्तन मल
देने, इस तरह के छोटे काम की नौकरी कर ली। दार्शनिक था तो वह
मालिक से पूछे ही न। खुद ही काफी होशियार था। अपनी होशियारी से ही काम करे। मगर
उसकी होशियारी दूसरी दुनिया की थी। दर्शनशास्त्र की होशियारी एक बात, बुहारी लगाने का मामला बिलकुल दूसरी बात। बर्तन मलना बिलकुल दूसरी बात।
तर्कशास्त्र पढ़ना और पढ़ाना बिलकुल दूसरी बात। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है।
मालिक उससे थक गया, घबड़ा गया। आखिर मालिक ने उससे
कहा कि सुनो जी, जब भी तुम कुछ करो, पहले
मुझसे पूछ लिया करो। क्योंकि तुम जो भी करते हो, गलत-सलत
करते हो। तुम जैसा समझदार आदमी, ऐसी आशा न थी कि तुमको मैंने
बाजार सब्जी लेने भेजा तो तुम दिन भर सब्जी लाते रहे। पहले भिंडी खरीद कर लाया,
फिर भाजी खरीद कर लाया, फिर मूली खरीद कर लाया,
फिर चटनी खरीद कर लाया। एक-एक चीज! दिन भर सुबह से शाम तक बाजार आता
रहा, जाता रहा।
मालिक ने कहा: हद हो गई! ये कोई ढंग हैं?
दार्शनिक ने कहा: मैंने तो सोचा कि एक-एक काम को परिपूर्णता से निपटा
लेना चाहिए। ऐसे बहुत से कामों में उलझ जाने से द्वंद्व खड़ा होता है, दुविधा खड़ी होती है, उलझन खड़ी होती है। मैं
साफ-सुथरा और सुलझा हुआ आदमी हूं। फिर आप जैसा कहते हैं...।
एक दिन आया। मालिक किसी से बात कर रहा था तो वह खड़ा हो गया। जब बात
पूरी हो गई तो उसने मालिक से पूछा कि मालिक, मैंने खिड़की में से
देखा कि रसोईघर में बिल्ली दूध पी रही है, अगर आप कहें तो
उसे भगा दूं?
मगर बात अगर यहीं होती तो भी ठीक थी। मालिक बीमार पड़ा। दार्शनिक को
भेजा कि जाकर वैद्य को ले आए। सुबह का गया, सांझ लौटा। और वैद्य
को ही नहीं लाया, कोई दस-पच्चीस लोगों को साथ लेकर आया।
मालिक के तो होश उड़ गए, बीमारी भी उड़ गई साथ में। एकदम उठ कर
बैठ गया, दिन भर से पड़ा था। और कहा कि माजरा क्या है?
यह बारात किसलिए लिए आ रहे हो?
उसने कहा: मालिक, आपने कहा था न कि एक दफे जाना
भिंडी लाए, एक दफे गए फिर मूली लाए, एक
दफे गए फिर सब्जी लाए, फिर भाजी लाए, यह
ठीक नहीं है। एक ही दफे में निपटा देना चाहिए। तो मैं गया, वैद्य
को लाया। फिर हो सकता है वैद्य काम कर सके न कर सके, इसलिए
एक हकीमी को भी लाया। फिर पता नहीं हकीम जमे न जमे, तो एक
एलोपैथ को भी ले आया हूं। और क्या पता एलोपैथी का, एक
नेचरोपैथ को भी ले आया हूं। और नेचरोपैथी में पता नहीं आपको भरोसा हो या न हो,
विश्वास हो या न हो, सो होम्योपैथ को भी ले
आया हूं। सब तरह के डाक्टर ले आया हूं--एकबारगी में!
फिर भी मालिक ने कहा कि इससे भी हल नहीं होता। ये पच्चीस आदमी क्यों?
तो उसने कहा: इनमें से कुछ हैं जो पुलटिस बनाते हैं। क्योंकि कोई
डाक्टर कहे पुलटिस बनाओ, फिर जाओ बाजार।
फिर भी मालिक ने कहा कि इपनमें तो मुझे कुछ गुंडे-लफंगे भी बस्ती के
दिखाई पड़ रहे हैं।
उसने कहा: मैं कुछ ले आया हूं कि हो सकता है डाक्टर सफल हों या न हों, अगर आप मर ही गए तो कब्रिस्तान भी ले जाने के लिए कोई चाहिए कि नहीं?
तो अच्छे मजबूत...इन्हीं को तो ढूंढने में दिन भर लग गया। अरथी का
सामान भी ले आया हूं मालिक, बिलकुल निश्चिंत रहो! बाहर अरथी
तैयार हो रही है, भीतर इलाज चलेगा। एक ही दफा में निपटा दिया
है।
मैं तुमसे क्या कह रहा हूं, अगर तुम उसे न समझो
तो भी ठीक है। लेकिन कठिनाई न समझने की नहीं है। अर्थ पकड़ में न आए, इतना ही नहीं है; अनर्थ पकड़ में आ जाता है। और जब तक
जीवन की वह परम घड़ी नहीं आई, वसंत का क्षण नहीं आया, जब फूल खिलें, उसके पहले कुछ भी नहीं हो सकता,
स्वभाव। तुम्हारी आकांक्षा प्रीतिकर है। लेकिन अनुग्रह मानो परमात्मा
का कि जब भी हुआ, जल्दी हुआ। और भी देर लग सकती थी। यह
शिकायत भी भूल जाओ कि इतनी देर क्यों लगी। यह स्वाभाविक है शिकायत। यह सबको होता
है। यह स्वयं बुद्ध तक को हुआ था।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो उनको पहला सवाल जो उठा वह यही कि इतनी देर
क्यों लगी? यह बात इतनी सरल है। यह कभी की हो जानी चाहिए थी।
इतने-इतने जन्म लग गए इस सरल सी बात के होने में! यह स्वाभाविक अनुभव, यह अपना ही साक्षात्कार, इतना समय क्यों लिया?
बेबूझ लगती है पहेली। लेकिन जीवन पकाता है। जीवन के सब अनुभव पकाते
हैं। सुख और दुख, सब पकाते हैं। दिन और रात, सर्दी
और गर्मी, सब पकाते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति के पकने की
अलग-अलग शैली है। जैसे हर फल के पकने की अलग-अलग शैली होती है और हर वृक्ष के फूल
खिलने का अलग-अलग अवसर होता है, अलग-अलग मौका होता है। कुछ
फूल दिन को खिलते हैं, कुछ फूल रात में खिलते हैं। कुछ फूल
गर्मी में खिलते हैं, कुछ फूल सर्दी में खिलते हैं। कुछ फूल
वर्षा में खिलते हैं। सब अपनी नियति से जीते हैं, स्वभाव से
जीते हैं। और स्वभाव की प्रत्येक की प्रक्रिया निजी है।
तो जो तुम्हें लग रहा है कि इतनी देर में क्यों बरबाद किया, वह यद्यपि स्वाभाविक है, लेकिन उस शिकायत को भी जाने
दो। कहो कि चलो बरबाद तो किया, देर में ही सही! कोई ज्यादा
देर नहीं हो गई। अनंत काल अभी भी शेष है। अनंत काल तक अब यह आनंद झरेगा, बरसेगा। क्या देर हो गई? कुछ देर नहीं हो गई है।
शिकायत की जगह हमेशा अनुग्रह के भाव को गहराओ। इससे लाभ है। अनुग्रह
का भाव मंगलदायी है, क्योंकि अनुग्रह के भाव के अतिरिक्त और कोई प्रार्थना
नहीं है।
दूसरा प्रश्न: जीवन में तो कुछ मिला नहीं और अब
मृत्यु द्वार पर खड़ी है। क्या मृत्यु में कुछ मिलेगा?
कृशणमुरारी! जीवन में नहीं
मिला तो मृत्यु में कैसे मिलेगा? मृत्यु तो जीवन की ही पराकाशठा
है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। स्मरण रखना। दोहराऊं फिर: जीवन मृत्यु में समाप्त
नहीं होता, पूर्ण होता है। मृत्यु जीवन का चरम उत्कर्ष है,
अंतिम शिखर है। तो जो जीवन में नहीं पाया, उसे
मृत्यु में पाने का कोई उपाय नहीं है। जो जीवन में पाया है, वही
निखर कर, निचुड़ कर मृत्यु में पाया जाता है। मृत्यु जीवन भर
का निचोड़ है। जैसे जीवन में फूल ही फूल थे, तो मृत्यु इत्र
है--उन सारे फूलों का इत्र। जैसे एक बूंद में समा गई सारी सुगंध।
मृत्यु में बहुत कुछ मिलता है, लेकिन तभी जब जीवन भर
फूलों की खेती की हो। जीवन भर कांटे बोए, तो यह आशा न रखना
कि मृत्यु में अचानक फूल खिल जाएंगे। जीवन भर कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया, तो मृत्यु के पास ऐसा कोई जादू नहीं है कि उस कूड़ा-कर्कट को
हीरे-जवाहरातों में बदल दे। लेकिन तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें यह धोखा देते
रहे हैं सदियों से। वे जानते हैं कि जीवन तो तुम्हारा खाली जा रहा है, तो तुम्हें आश्वासन देते रहते हैं: घबड़ाओ मत, मरते
वक्त नाम ले लेना परमात्मा का, सब ठीक हो जाएगा। कि चले जाना
काशी, काशी-करवट ले लेना, सब ठीक हो
जाएगा। काशी जिसने करवट ली, वह स्वर्ग गया। कि मरते वक्त
दूसरे तुम्हारे मुंह में गंगाजल डाल देंगे, और तुम स्वर्ग
चले जाओगे। कि मरते वक्त दूसरे तुम्हारे कान में नमोकार मंत्र पढ़ देंगे, गायत्री मंत्र पढ़ देंगे, कुरान की आयतें दोहरा देंगे,
और तुम स्वर्ग चले जाओगे।
ऐसी सस्ती बातों में न पड़ना। इतनी बाजारू बातों में मत पड़ना। इस तरह
के लोगों ने ही धर्म को दो कौड़ी का कर दिया; उसकी गरिमा खो गई;
उसकी महत्ता खो गई; उसकी महिमा खो गई।
मैं यह नहीं कह सकता हूं कि जो तुमने जीवन में नहीं पाया है, वह तुम मृत्यु में पा सकोगे। और अभी कृशणमुरारी, जिंदा
हो। अभी मरे तो नहीं। अभी प्रश्न पूछ सकते हो तो उत्तर भी खोज सकते हो। अभी बहुत
देर नहीं हो गई है। अभी सोच सकते हो, विचार सकते हो, तो निर्विचार भी हो सकते हो। अभी चिंता में पड़ सकते हो तो निश्चिंत भी हो
सकते हो। माना कि मृत्यु द्वार पर दस्तक दे रही है, लेकिन
किसके द्वार पर दस्तक नहीं दे रही है? क्या तुम सोचते हो
बुढ़ापे में ही मृत्यु द्वार पर दस्तक देती है? मृत्यु तो उसी
दिन से दस्तक देना शुरू कर देती है जिस दिन तुम पैदा होते हो। तुम झूले में पड़े कि
मृत्यु ने दस्तक देनी शुरू की। सुनो कि न सुनो, यह और बात
है। लेकिन झूला इधर झूला, उधर मृत्यु ने दस्तक देनी शुरू की।
जिस दिन जन्मे, उसी दिन से मरना शुरू हो गया। एक दिन जीए
मतलब एक दिन मर गए; एक दिन उम्र से कम हुआ।
मृत्यु तो आती ही चली जाती है। कोई ऐसा थोड़े ही है कि एक दिन अचानक
सत्तर वर्ष की उम्र में द्वार पर आकर खड़ी हो जाती है। मृत्यु की यह धारणा छोड़ दो।
मृत्यु कोई आकस्मिक घटना नहीं है, कोई दुर्घटना नहीं है। मृत्यु भी
विकसित होती है तुम्हारे जीवन के साथ-साथ। एक पैर अगर जीवन है, तो दूसरा पैर मृत्यु है। एक पंख अगर जीवन है, तो
दूसरा पंख मृत्यु है; दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। जैसे
तुम्हारी छाया तुम्हारे साथ चल रही है, ऐसे ही मौत तुम्हारे
साथ चल रही है।
लेकिन क्यों नहीं मिला जीवन में कुछ? किस कारण नहीं मिला?
अभी भी सोच लो। अभी भी कुछ गया नहीं। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए
तो उसे भूला नहीं कहते हैं। चलो सांझ ही होने लगी जीवन की, सूर्यास्त
होने लगा, कोई फिक्र नहीं। पक्षी लौटने लगे नीड़ों को,
तुम भी लौट आओ। अभी भी देर नहीं हो गई है। लेकिन मर कर न लौट सकोगे।
सूर्यास्त हो रहा है, लौट आओ। लेकिन अभी भी लगता है लौटने के
इरादे नहीं हैं। अभी भी नई आशा बांधना चाहते हो। सोचते हो कि शायद मृत्यु में कुछ
हो जाएगा।
अपने आप न कभी कुछ हुआ है, न हो सकता है। कुछ
करोगे तो होगा। तुमने जीवन में किया क्या? जीवन को कितने लोग
दोष नहीं देते! कितने लोग नहीं हैं जो कहते हैं कि जीवन व्यर्थ है! और सार्थक
बनाने की चेशटा कभी उन्होंने की नहीं। कहते हैं जीवन कोरा और लिखा कुछ कभी है
नहीं। न लिखना सीखा, न पढ?ना सीखा।
मुल्ला नसरुद्दीन आंख के डाक्टर के पास गया था। डाक्टर ने जांच-पड़ताल
की, चश्मे का नंबर तय किया, चश्मा बना कर तैयार किया।
मुल्ला बार-बार पूछता था कि चश्मा लग जाएगा तो पढ़ने लगूंगा न? डाक्टर कहता था: हां भाई, पढ़ने लगोगे, क्यों नहीं पढ़ने लगोगे! मगर फिर-फिर पूछे वह। डाक्टर चश्मा बिठालने में
लगा है, फ्रेम चढ़ाने में लगा है, वह
बार-बार पूछे कि डाक्टर साहब, एक दफा और कहें, सच कह रहे हैं आप कि चश्मा लगा लूंगा तो पढ़ने लगूंगा?
डाक्टर ने कहा कि क्या कहूं? किस तरह कहूं?
लिखित दे दूं?
कहा: अगर लिखित दे दो तो गजब हो जाए। क्योंकि सच बात यह है कि
पढ़ना-लिखना मैंने कभी सीखा नहीं। सो मैं बड़ा हैरान हो रहा हूं कि चश्मा लगाने से
कैसे पढ़ने लगूंगा!
तब डाक्टर को राज पता चला।...चश्मा भर लगा लेने से नहीं पढ़ने लगोगे।
पढ़ना कभी सीखा भी होना चाहिए। आंख कमजोर हो गई हो, इसलिए नहीं पढ़ पाते
हो, तो चश्मा लगाने से पढ़ लोगे; लेकिन
पढ़ना अगर कभी सीखा ही न हो तो चश्मा लगाने से भी क्या होगा!
जीवन को तुमने अर्थ देना कब चाहा? चेशटा क्या की?
साधना क्या की? अर्थ आता है साधना से। जीवन तो
कोरी किताब है। परमात्मा तो कोरी किताब पकड़ा देता है प्रत्येक व्यक्ति को, फिर चाहो गालियां लिखो, चाहे गीत लिखो; चाहे कांटों की तस्वीरें बनाओ, चाहे फूलों को सजाओ।
सब तुम्हारे हाथ में छोड़ देता है। जीवन की पूरी स्वतंत्रता तुम्हें देता है।
तुम्हारा जीवन तुम्हें दे देता है, क्षमता दे देता है,
ऊर्जा दे देता है, अवसर दे देता है, समय दे देता है। फिर कहता है: अब तुम इस जीवन से जो भी बनाना चाहो,
बना लो। यहीं कोई व्यक्ति बुद्ध हो जाता है और यहीं कोई व्यक्ति
चंगीजखां हो जाता है। यहीं कोई व्यक्ति कृशण हो जाता है और यहीं कोई व्यक्ति
अडोल्फ हिटलर हो जाता है। अवसर दोनों को बराबर थे, जरा भी
भेद न था। और यहीं अधिक लोग ऐसे हैं, कुछ भी नहीं हो पाते;
वे खाली किताब लिए ही घूमते रहते हैं और बार-बार किताब खोल कर देखते
हैं और कहते हैं कि जीवन में कुछ भी नहीं है, निरर्थक है।
कुछ रंग भरो। कुछ जीवन में नृत्य डालो। कुछ जीवन में मधुरस घोलो। अर्थ
ऐसे ही नहीं मिल जाता, अर्थ का सृजन करना होता है। मगर सदियों से हम एक
भ्रांति में जी रहे हैं कि जैसे अर्थ भी हमें बना-बनाया मिलना चाहिए। तुम कब तक
बच्चे रहोगे? बच्चा पैदा होता है तो मां का दूध उसे मिलता
है। दूध में सब पोषण होता है। लेकिन कब तक दूध ही पीते रहोगे? दुधमुंहे बच्चे कब तक बने रहोगे? कभी तो चबाओगे! कभी
तो पचाओगे! कभी तो अपने हाथ से जीना शुरू करोगे या नहीं? लेकिन
बस हम मुंह बाए बैठे हुए हैं कि कोई हमारे मुंह में चबाया हुआ डाल दे। हम से उतना
भी श्रम करते नहीं होता।
संन्यास का मेरे लिए एक ही अर्थ है, कृशणमुरारी: जीवन में
अर्थ डालने की कला। गृहस्थ वह है जो जीवन में अर्थ नहीं डाल रहा है; जो कोरी किताब लिए घूम रहा है। और अगर कभी-कभी किताब का उपयोग भी करता है
तो बस वह बाजार गया तो फेहरिस्त बना ली कि क्या-क्या सामान खरीद कर लाना है,
कितना पैसा कमाया उसका हिसाब-किताब रख लिया। इसी तरह की कुछ फिजूल
बातें लिख लेता है अपनी किताब में। मरते दम तक लोग यही करते रहते हैं।
एक आदमी मरा। जब मर गया तो उसको अस्पताल से एंबुलेंस में घर की तरफ
लाया जा रहा था। दस-बारह आदमी एंबुलेंस को धक्का दे रहे थे। कुछ लोगों ने पूछा कि
भाई, जो चल बसे उनकी आखिरी इच्छा क्या थी? तो एक ने कहा: उनकी आखिरी इच्छा थी कि हर हालत में पेट्रोल बचाया जाए,
सो उसी को पूरा कर रहे हैं। आखिरी इच्छा कि हर हालत में पेट्रोल
बचाया जाए!
अभी कल मैंने अखबार में खबर पढ़ी कि जबलपुर, जहां मैं कोई बीस वर्ष रहा, वहां एक बड़ी झंझट खड़ी हो
गई। विवाह होता है तो दूल्हा कुछ मांगता है विदाई के समय। दूल्हे ने क्या मांगा
मालूम है? सौ लीटर डीजल! स्कूटर वगैरह मांगते थे पहले,
अब स्कूटर नहीं मांगा। कार मांगो, रेडियो
मांगते थे और इस तरह की चीजें मांगते थे--सौ लीटर डीजल मांगा उसने! और मुश्किल में
डाल दिया। सौ लीटर डीजल कहां से लाओ! हाथ-पैर जोड़े। ससुर हाथ जोड़े, पास-पड़ोस के लोग हाथ जोड़ें कि भैया तू माफ कर, इतना
कठिन काम न करवा! कोई सरल सी चीज मांग ले। स्कूटर ले ले। तुझे कार लेनी हो तो कार
भी ले ले। मगर यह सौ लीटर डीजल, यह कहां से लाओ!
मगर वह भी अड़ गया। गजब का आदमी रहा। इसी तरह का आदमी कोई मरा होगा, जिसने कहा कि हर हालत में पेट्रोल बचाया जाए। लोग मरते दम तक भी जिंदगी की
किताब में क्या लिखते हैं? और फिर तुम कहते हो कि अर्थ नहीं
है। जैसे अर्थ कोई और लिखेगा!
तुम्हारे हाथ में है बात। भरो रंग। कितना तो रंग है अस्तित्व में!
कितने तो गीत फूट रहे हैं झरने-झरने में! पत्थर-पत्थर पर तो परमात्मा के आनंद की
छाप है! फूल-फूल में तो उसके ओंठों की मुस्कुराहट है! मगर न देखने वाली आंखें हैं, न खोजने वाली चित्त की शांति है, न मौन है। इसलिए
अड़चन है।
रेत के महल
मोम का किला
बस यही मिला
दीवारें नमक भरी
गत्ते की छत
कौन यहां भेजेगा
प्यार भरा खत
बादल से सूरज से
दोनों से डर
सांस नहीं ली जाती
यह कैसा घर?
अपमानों का
एक सिलसिला
बस यही मिला
शीशे के शहरों में
पाया ठहराव
तिरने को मिली हमें
कागज की नाव
दिशाबोध देता है
बस खालीपन
तन की रखवाली है
केवल सीलन
सोने को है
बर्फ की शिला
बस यही मिला।
रेत के महल
मोम का किला
बस यही मिला।
मगर मिला वही जो तुमने बनाया। मिलता तुम्हें वही है जो तुम बनाते हो।
रेत के महल बनाओगे तो मिलेगा क्या? कागज की नावें बनाओगे
तो मिलेगा क्या?
तुम जरा गौर से एक दफा पुनर्विचार करो अपने जीवन पर। घड़ी भर शांत, मौन रह कर अपने जीवन पर एक दृशिटपात करो। क्या किया तुमने जीवन का?
धन के पीछे दौड़े? तो बस कागज की नावें हैं,
रेत के किले। पद के पीछे दौड़े? तो बस कागज की
नावें हैं, रेत के किले। प्रतिशठा चाही, यश चाहा, नाम चाहा--बस कागज की नावें हैं, रेत के किले। और अब कहते हो कि जीवन में कुछ मिला नहीं और अब मृत्यु द्वार
पर खड़ी है, क्या मृत्यु में कुछ मिलेगा?
कृशणमुरारी, क्षमा करो। मृत्यु में कुछ भी पहीं मिलेगा। वही जीवन
में जो तुमने पाया है, या नहीं पाया है, उसको ही मृत्यु में सघन हुआ देखोगे। अगर तुम्हारा जीवन एक दुख-स्वप्न रहा
है, तो मृत्यु एक महादुख-स्वप्न हो जाएगी। अगर तुम्हारे जीवन
में सब व्यर्थ गया है, तो मृत्यु तुम्हें व्यर्थता के
रेगिस्तान में पटक देगी, जहां दूर-दूर तक कोई हरियाली दिखाई
नहीं पड़ेगी।
लेकिन अभी भी देर नहीं हो गई है। अभी तुम जिंदा हो। और कौन जाने कितनी
देर जिंदा रहो! और सवाल समय का नहीं है, सवाल तीव्रता का है,
त्वरा का है, समग्रता का है, समय का नहीं है। कोई आदमी चाहे तो एक क्षण में भी जीवन में क्रांति ला
सकता है। और कोई चाहे तो जन्मों-जन्मों में ऐसे ही भटकता रहे--कोल्हू का बैल बना।
भटक ही रहे हो। ऐसे ही भटक रहे हो कृशणमुरारी। यह कोई पहला जन्म थोड़े ही है
तुम्हारा, पुराने अनुभवी हो। ऐसे ही और भी बहुत जन्म गंवाए
हैं। गंवाने की ही आदत हो गई है। यह भी गंवा रहे हो।
फिर मुझे पक्का पता भी नहीं कि तुम्हारा क्या प्रयोजन है इस बात के
कहने से कि जीवन में कुछ नहीं मिला। राशट्रपति होना था? प्रधानमंत्री होना था? टाटा, बिड़ला,
क्या होना था? क्योंकि उनको भी मैं रोते देखता
हूं। तुमसे ज्यादा बुरे हाल उनके हैं। उनको क्या मिला?
बस-स्टॉप पर एक बच्चे को रोता देख कर कंडेक्टर ने बस रुकवाई और पूछा:
बेटे, क्या हुआ?
मेरा रुपया, जिससे मैं टिकिट खरीदता, खो
गया।
चलो कोई बात नहीं, मैं तुम्हें फ्री ले चलता हूं।
बस में बैठ कर लड़का फिर रोने लगा तो कंडेक्टर ने पूछा: भैया, अब क्या हुआ?
मेरे सत्तर पैसे कहां हैं जो रुपये में से बचते थे? बच्चे ने सिसकते हुए कहा।
यह दुनिया बड़ी अजीब है! यहां कुछ भी मिल जाए तो भी क्या मिला--सत्तर
पैसे कहां हैं? बच्चा ठीक कह रहा है। जो राशट्रपति है, जो प्रधानमंत्री है, जिसके पास बहुत धन है, उससे पूछो। वह उसकी तो बात ही नहीं करेगा जो उसके पास है; वह उसकी बात करेगा जो उसके पास नहीं है।
एंड्रू कारनेगी मरा--अमरीका का अरबपति। रोता ही मरा। रोता ही जीया।
रोते जीओगे तो रोते मरोगे। दस अरब नगद रुपये छोड़ कर मरा, मगर रोता मरा। उससे पूछा मरने के दो दिन पहले उसके जीवन-कथा के लेखक ने कि
आप क्यों उदास हैं? आप तो सफलतम व्यक्ति हैं! इतिहास में
इतनी सफलता किसको मिली? गरीब घर में पैदा हुए, भिखमंगे घर में पैदा हुए और दस अरब रुपये छोड़ कर जा रहे हैं!
उसने कहा: बकवास बंद कर! मेरे इरादे सौ अरब रुपये कमाने के थे; नब्बे अरब से हारा हूं। यह हार कुछ छोटी हार नहीं है।
तुम सोचते हो इस बच्चे में, जो सत्तर पैसे के लिए
रो रहा है और एंड्रू कारनेगी में, जो नब्बे अरब के लिए रो
रहा है, कुछ भेद है? तर्क तो वही है।
जो मिला, वह दिखाई ही नहीं पड़ता। जो नहीं मिला, वही अखरता है, वही खटकता है।
एक सौंदर्य-प्रतियोगिता हो रही थी। मुल्ला नसरुद्दीन भी उसमें एक
निर्णायक था। अनुभवी है, चार-चार प९ति०नयां हैं, स्त्रियों
का ज्ञाता है। सो उसको भी चुना गया था। एक से एक सुंदर युवतियां मंच पर आईं--नाचती
हुई, करीब-करीब नग्न अवस्था में, बस
बिकनी पहने हुए। और मुल्ला बैठा है बीच में, सबसे बुजुर्ग
निर्णायक वही है। दो निर्णायक इस तरफ बैठे, दो निर्णायक इस
तरफ बैठे। और सुंदरी आए और वह देखे और पास में ही कहे: थू! वे चारों निर्णायक बड़े
हैरान, क्योंकि उनकी तो लार टपकी जाए। और यह भी गजब का
वीतरागी पुरुष है कि ऐसी सुंदर स्त्री कि जिसमें कोई भूल-चूक निकालनी मुश्किल हो,
कमर जितनी पतली होनी उतनी पतली, शरीर का
अनुपात जैसा चाहिए वैसा, रंग जैसा चाहिए वैसा। और यह खूसट
बुङ्ढा एक, दो, तीन, मगर बार-बार वही, बार-बार: आक थू! कहे ही नहीं,
थूके! पांच-सात स्त्रियां जब निकल गईं, तो
नहीं रह गया बाकी निर्णायकों से, उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन,
माजरा क्या है? क्या तुम्हें कोई भी स्त्री
जंच नहीं रही?
अरे--उसने कहा--इन स्त्रियों की बात ही कौन कर रहा है! मैं तो अपनी
स्त्रियों की सोच कर आक थू कर रहा हूं कि जिंदगी बेकार गई। कहां उलझा रहा! और
चार-चार से फंसा हूं, अब तो निकलना भी बहुत मुश्किल है। और दुनिया
क्या-क्या मजा लूट रही है! मैं अपनी स्त्रियों को आक थू कह रहा हूं, इनको नहीं। ये तो परिएं हैं परिएं, अप्सराएं! हूरे
हैं स्वर्ग की!
जो तुम्हारे पास है वह तो दिखाई ही नहीं पड़ता। सुंदरतम स्त्री भी
तुम्हारी पत्नी हो तो सुंदर नहीं रह जाती। सुंदरतम पुरुष भी तुम्हारा पति हो तो
सुंदर नहीं रह जाता। जो मिल गया उसका मूल्य खो गया। मूल्य ही इसमें है, जब तक न मिले। जितनी दूरी हो, जितनी मुश्किल हो पाने
में, उतना ही मूल्य है।
तो पता नहीं कृशणमुरारी, तुम क्या चाहते हो?
क्या पाना चाहते थे जीवन में? मैं तो यह मान
कर चल रहा हूं कि तुम्हें आत्मा नहीं मिली, परमात्मा नहीं
मिला, ध्यान नहीं मिला, समाधि नहीं
मिली। यह मेरी भ्रांति भी हो सकती है। तुम्हें परमात्मा और ध्यान और समाधि से कुछ
लेना-देना भी न हो, तुम किसी अप्सरा के पीछे पड़े होओ और न
मिली हो। तुम किसी धन की दौड़ में रहे होओ और हार गए होओ। तुम चुनाव लड़ते रहे होओ
और जीते न होओ।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जिंदगी भर से चुनाव लड़ रहे हैं। कोई
चुनाव नहीं छोड़ते। जैसे चुनाव लड़ना उनके लिए बिलकुल स्वाभाविक है, जैसे आदमी को श्वास लेना। और हर चुनाव में हारते हैं। मगर वीतरागी पुरुष
हैं। गीता से उन्होंने सीख लिया, सुख-दुख में समभाव रखते हैं;
फिर चुनाव आया, फिर लड़ते हैं। अरे क्या हार,
क्या जीत! सब लीला मान कर चलते हैं।
पता नहीं तुम चुनाव में हार गए, कि धन की दौड़ में हार
गए, कि बाजार में नहीं टिक सके। अगर तुम यही सोच रहे हो,
तो मिल कर भी क्या मिल जाता? जिनको मिल गया है
उनको क्या मिल गया है? तुम्हारी कब्र भी सोने की बन जाए तो
क्या होगा? और तुम्हारी अरथी पर हीरे-जवाहरात भी जड़ दिए जाएं
तो क्या होगा?
जीवन में तो एक ही उपलब्धि है कि हम शाश्वत को जान लें। और अगर तुमने
उसे अभी तक नहीं जाना है तो मृत्यु की प्रतीक्षा मत करो। मृत्यु का क्या भरोसा, कब आए! जितनी देर बची है, उस समय का उपयोग कर लो। और
अगर तुम्हारी अभीप्सा प्रगाढ़ हो तो यह थोड़ा सा समय काफी है। मृत्यु तो कुछ भी नहीं
दे सकेगी, लेकिन अगर इस थोड़े से समय का तुमने सम्यक उपयोग
किया, अगर इसको ध्यान पर नियोजित कर दिया, अगर इसको समर्पित कर दिया समाधि के लिए, अगर परमात्मा
के चरणों में सिर झुका दिया, रख दिया सिर--तो जीवन में ही हो
जाएगा। और जीवन में होगा, तो ही मृत्यु में हो सकता है।
हर सुबह नहीं, हर शाम नहीं
हर रात नहीं
वरन हर पल-अनुपल
तुम मुझे तोड़ते रहते हो
जुही के डंठल की तरह नहीं
सूखी सनाठी की तरह
हर सुबह नहीं, हर शाम नहीं
हर रात नहीं
वरन हर पल-अनुपल
मैं अपने को जोड़ता रहता हूं
सीमेंट जैसे ईंटों को जोड़ता है
वैसे नहीं
कतिहारिन की टूटे धागे की तरह।
हर पल-अनुपल
की यह जोड़त्तोड़
हर पल-अनुपल
की यह आशा-निराशा
हर पल-अनुपल
की यह जीवन-मृत्यु
निरर्थक जिजीविषा है
या सार्थक
कौन समझाएगा
तुम्हें छोड़ कर?
परमात्मा के सिवाय कहीं और कोई शरण नहीं।
कौन समझाएगा
तुम्हें छोड़ कर?
उस परमात्मा को छोड़ कर कहीं और से समझ की किरण नहीं आएगी, कहीं और से बोध का सूरज नहीं ऊगेगा। और तुम्हें जो करना है वह थोड़ी सी बात
है, छोटी सी बात है: तुम्हें अपने को इतना खाली कर लेना है
शोरगुल से, चित्त के व्यर्थ शोरगुल से, कि उसकी आवाज तुम्हें सुनाई पड़ने लगे। तुम्हें इतना मौन हो जाना है कि वह
बोले तो तुम्हें बहरा न पाए। बस इतना ही।
मैं प्रार्थना का यह अर्थ नहीं करता कि तुम परमात्मा से कुछ कहो। वह
तो प्रार्थना का गलत अर्थ है। प्रार्थना का ठीक अर्थ होता है: तुम इतने मौन हो जाओ
कि परमात्मा कुछ कहे तो तुम सुन सको। और उसी क्षण से तुम्हारे जीवन में सार्थकता आ
जाएगी--अपूर्व सार्थकता! क्योंकि उसी क्षण से तुम्हारे जीवन में मृत्यु तिरोहित हो
जाएगी। उसी क्षण से न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है;
जीवन ही जीवन है--शाश्वत जीवन है! जिसका न कोई प्रारंभ, न कोई अंत। और आनंद के ऐसे झरने तुमसे फूट सकते हैं, ऐसे गीत तुमसे निर्मित हो सकते हैं--जैसे गीत उपनिषदों में हैं; जैसे गीत कुरान में हैं; जैसे गीत गुरुग्रंथ साहिब
में हैं। वे सारे गीत ऐसे ही प्रकट हुए हैं। वे समाधि के फूल हैं।
तीसरा प्रश्न: क्या परमात्मा तक पहुंचने के लिए
दर्शनशास्त्र पर्याप्त नहीं है?
अमृत प्रिया! दर्शनशास्त्र
तो केवल बातचीत है, बाल की खाल निकालने की कला है। परमात्मा तक पहुंचने
से दर्शनशास्त्र का कोई संबंध नहीं। दर्शनशास्त्र तो व्यर्थ की बातों का ऊहापोह
है। हवाई किले बनाना है। रेत के किले भी थोड़े सच होते हैं और कागज की नावें भी
थोड़ी सच होती हैं; दर्शनशास्त्र की नावें तो कागज की नावें
भी नहीं हैं, सिर्फ कल्पना की नावें हैं; रेत के किले भी नहीं हैं, सिर्फ हवाई किले हैं।
दर्शनशास्त्र तो ऐसी चीजों के संबंध में विचार करता रहता है, जिनका कोई भी मूल्य नहीं है। परमात्मा ने सृशिट क्यों बनाई--क्या करोगे
जान कर? जान भी लोगे तो क्या होगा? जान
भी कैसे सकोगे? जान भी लोगे तो क्या प्रमाण होगा कि जो जाना
वह सच है? परमात्मा का रंग-रूप क्या है; निर्गुण है कि सगुण; उसके चार मुख हैं, हजार हाथ हैं; ऊंचाई क्या है, लंबाई
क्या है, चौड़ाई क्या है--इन सब व्यर्थ की बातों का प्रयोजन
क्या होगा? हजार भी हाथ हों तो क्या सार? और चार मुंह हों तो दिक्कत में पड़ेगा।
मैंने सुना है, स्वर्ग की एक सुबह की बात है, रावण
टहलता हुआ एक कैफे में प्रविशट हुआ--कैफे दि हैवन। मीनू आया। मीनू पर उसने एक नजर
डाली। सुबह-सुबह थी, सर्द सुबह थी, गरम-गरम
कॉफी की इच्छा जगी। देखा कि पचास पैसे एक कॉफी के लिए। उसने कहा कि कॉफी लाओ। कॉफी
आई, कॉफी पी, बड़ा प्रसन्न हुआ। बिल
बुलाया, बिल आया पांच रुपये का। हैरान हुआ। वेटर से कहा:
पागल तो नहीं हो? मीनू में साफ लिखा है पचास पैसे!
रावण का विकराल रूप देख कर वेटर भी घबड़ाया, उसने कहा: मैनेजर को बुलाता हूं। मैनेजर भागा आया। मैनेजर ने कहा: आप ठीक
कहते हैं, लेकिन जरा गौर से पढ़िए। पचास पैसे कॉफी लिखा है
मीनू में--पर हेड! और आपके दस सिर हैं, इसलिए पांच रुपये।
चार सिर होंगे परमात्मा के तो झंझट में ही पड़ेगा। क्या फायदा होगा? खुद ही तय करना मुश्किल होगा--कहां जा रहे हैं? क्यों
जा रहे हैं? और चार-चार सिर सम्हालना...एक ही सिर तो मुश्किल
से सम्हलता है। एक ही सिर तो कितना गर्माए रखता है! चार सिर में कभी का पागल हो
चुका होगा। और हजार हाथ! दो ही हाथ में तो आदमी कितने उप(व कर लेता है, हजार हाथ होंगे जो कितने उप(व न हो जाएंगे! दो ही हाथ में तो एक हाथ से
बनाता है आदमी, दूसरे से मिटा देता है। हजार होंगे तो पक्का
पता ही नहीं चलेगा कि किसने बनाया, किसने मिटाया, क्या कर रहे थे, क्या नहीं कर रहे थे! अराजकता फैल
जाएगी। मगर दर्शनशास्त्र इसी तरह की व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है।
धर्म का दर्शनशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है दृशिट
से, दर्शन से नहीं। आंख चाहिए--देखने वाली आंख! स्वच्छ आंख, जो देख सके! पारदर्शी आंख, जिस पर धूल न हो!
और तुम दार्शनिकों को तो देखो, इनके जीवन में कहीं
तुम्हें कोई ईश्वर दिखाई पड़ता है? इनके जीवन में तुम्हें
कहीं कोई ध्यान दिखाई पड़ता है? इनके जीवन में तुम्हें कहीं
भी कोई शांति, कोई मौन दिखाई पड़ता है? मैं
तो दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी भी था, फिर प्रोफेसर भी था,
तो सब तरह से दर्शनशास्त्रियों को जानता हूं। इससे ज्यादा विक्षिप्त
और कोई व्यवसाय दुनिया में नहीं है।
मेरे एक प्रोफेसर थे, मुझसे उनका काफी लगाव था।
स्वाभाविक, क्योंकि वे जितनी ऊंची हवाई बातें करें, मैं उनसे ऊंची हवाई बातें करूं। तो काफी पटती थी। वे मुझसे कहने लगे: क्या
तुम हॉस्टल में पड़े हो! और मैं अकेला ही हूं।...बाल-ब्रह्मचारी थे, बूढ़े हो गए थे।...बड़ा बंगला है मेरे पास, तुम वहीं
रहो आकर।
मैंने कहा: जैसी आपकी मर्जी। सुख-दुख समान मानना चाहिए, सो जो भी होगा सुख-दुख, ठीक है।
वे कार लेकर आ गए, मेरा सामान भर कर वे अपने घर ले
गए, मैं उनके घर पहुंच गया। झंझट शुरू हुई। क्योंकि
बाल-ब्रह्मचारी थे, सो उन्हें गिटार बजाने का शौक था।
प९ति०नयां वगैरह हों तो इस तरह के उप(व में नहीं पड़ने देतीं। इलेक्ट्रिक गिटार वे
रात दो बजे तक बजाएं, सो दो बजे तक तो सोने का कोई उपाय
नहीं। पूरा घर उनके इलेक्ट्रिक गिटार से गूंजता रहे। और मैं उठता था दो बजे। मैंने
कहा कि कुछ न कुछ करना पड़ेगा। सो दो बजे उठ कर मैं इतने जोर से पढूं कि उनको सोने
न दूं। दो दिन तो यह बात चली, तीसरे दिन उन्होंने मुझसे कहा
कि भाई सुनो, कुछ अपने को समझौता करना पड़ेगा।
मैंने कहा: करना ही पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि न मैं दो बजे रात तक गिटार बजाऊं, न तुम दो बजे रात से इतने जोर से पढ़ो। तुम क्या पहले भी जोर से पढ़ते थे?
मैंने कहा कि नहीं। मगर समझौते के लिए कुछ पहले इंतजाम कर लेना चाहिए, इसलिए मैं दो दिन से पढ़ रहा हूं जोर से। गला मेरा भी लगा जा रहा है। यह
इलेक्ट्रिक गिटार बंद होना चाहिए रात को, तो ही मेरा पढ़ना
बंद होगा। और नहीं तो मैं आपके दरवाजे पर ही खड़े होकर दो बजे रात से जो पढ़ना शुरू
करूंगा तो ठीक सात बजे सुबह रुकूंगा। न आप सो सकते, न मैं सो
सकता।
वे भी महा अलाल थे और मैं तो अलाल हूं ही! और तो कोई खास काम नहीं था, मगर हमने थोड़े-थोड़े काम बांट लिए थे। तो उन्होंने कहा कि एक काम करो तुम,
कोई और दूसरा काम मैं कर दूंगा, सुबह यह जो
दूध लाने की बात है...। पास में ही एक दूधवाला था, ऐसे तो वह
दूध ले आता था, मगर वह पानी मिला कर लाता था। तो तुम दूध
लगवा कर ले आया करो।
मैंने कहा: अपन ऐसा करें, जो पहले उठे वह दूध
ले आए।
यह बात बिलकुल ठीक है।
अब दूसरे दिन हम दोनों पड़े, न वे उठें, न मैं उठूं। मैं भी आंख खोल कर देख लूं, वे भी आंख
खोल कर देख लें। दस बज गए। आखिर वे घबड़ा कर एकदम उठे, क्योंकि
उनको तो ग्यारह बजे युनिवर्सिटी जाना ही पड़ेगा नौकरी पर। मैं तो विद्यार्थी था,
गए न गए बराबर। एकदम उठे, कहा कि यह तो हद हो
गई! अच्छा भाई, मैं जाता हूं दूध लेने।
मैंने कहा: जाइए। और कल से खयाल रखिए कि चाहे दिन लगे, चाहे दो दिन लगें, चाहे तीन दिन लगें, मैं बिस्तर नहीं छोडूंगा, जब तक आप दूध नहीं ले
आएंगे। जो पहले उठे, वह दूध लाए। और पहले मैं उठने वाला नहीं
हूं।
झक्की थे। बारह महीने ही छाता लिए रहते थे। कोई कारण नहीं। और छाते को
इतना नीचे लगाते थे अपने बिलकुल कि उनकी खोपड़ी को छूता रहता था। उनको कोई देखना भी
चाहे तो नहीं देख सकता था। कोई नमस्कार करना चाहे तो नहीं कर सकता था। मैंने उनसे
पूछा कि छाते को इतने करीब क्यों पकड़े रखते हैं?
कहा: इसका बड़ा फायदा है। अपने को जो सोचना है, सोचते रहो, किसी का ध्यान रखने की जरूरत नहीं। हंसना
है, हंसते रहो। प्रसन्न होना है, प्रसन्न
होते रहो। रोना है, रोते रहो। छाता छिपाए रखता है। और मन में
तो तरंगें उठती रहती हैं एक से एक। और नासमझ क्या समझें, इनको
दर्शनशास्त्र का क्या पता कि हम किस दार्शनिक भावावेश में बहे जा रहे हैं! आ जाएं
बीच में, जयराम जी करके सब खराब कर दें!
तीन साल से उनको कोई विद्यार्थी नहीं मिला था, मैं ही उनका पहला विद्यार्थी था तीन साल में। उन्होंने मुझे देखा नीचे से
ऊपर तक गौर से, उन्होंने कहा कि तुम्हें पता है कि तीन साल
से मुझे कोई विद्यार्थी नहीं मिला! मेरा विषय कोई लेता नहीं।
मैंने कहा: आपको पता है कि मैं भी तीन विश्वविद्यालय से निकाला जा
चुका हूं? मुझे कोई विश्वविद्यालय नहीं लेता। अपनी पटेगी।
ऐसा विवाद चलता था कि पांच-सात महीने बाद उन्होंने मुझसे कहा कि सुनो, तुम्हें परीक्षा देनी है कि नहीं?
मैंने कहा: परीक्षा वगैरह की बात परीक्षा के समय देखी जाएगी, अभी बीच में जब विवाद चल रहा हो तब इस तरह की व्यर्थ की बातें नहीं उठानी।
वे कहने लगे कि यह तो मुश्किल खड़ी कर दी है तुमने। पढ़ाना तो हो ही
नहीं सकता। मैं जो भी बोलूं, तुम उसके विरोध में उठा देते हो
कुछ न कुछ। और फिर तुम मुझे इतना रोष चढ़ा देते हो कि तुम कुछ बोलो तो मैं नहीं रुक
सकता। मैं उसके विरोध में कुछ बोले बिना नहीं रह सकता।
खैर, मेरी तो कोई हानि नहीं है--उन्होंने कहा--कि मैं तो
गुजार लूंगा साल, तुम नुकसान में पड़ जाओगे।
मैंने कहा: इसकी भी आप फिकर छोड़ दो। मुझे कोई परीक्षा पास करने की पड़ी
नहीं है। मुझे जो धंधा करना है जिंदगी में, उसमें कुछ सर्टिफिकेट
की जरूरत पड़ने वाली नहीं है। बदनामी होगी तो तुम्हारी होगी--कि तीन साल में एक
विद्यार्थी मिला और वह भी उत्तीर्ण न हो सका। मेरी कोई बदनामी का सवाल नहीं है।
और यह बात उन्हें जंची। मुझे परीक्षा के पहले वे बुला कर बता देते थे:
ये-ये प्रश्न आ रहे हैं, भैया तू तैयार कर ले! साल तो गया, मगर ये प्रश्न तू देख, कसम खाकर कहता हूं तुझे,
इसमें विवाद खड़ा करने की जरूरत नहीं है। ये बिलकुल आ रहे हैं। इनको
तू तैयार कर ले।
और उनको इतना भी भरोसा नहीं था कि मैं तैयार करूंगा, तो मुझे तैयार करके भी देते थे कि ये-ये तैयार हैं, इनको
तू पढ़ लेना। और सुबह कार लेकर खड़े हो जाते थे कि चलो परीक्षा में! क्योंकि उनको शक
होता कि मैं जाऊं न जाऊं।
दार्शनिक आदमी तो भले होते हैं, मगर झक्की होते हैं।
धर्म का इनसे कोई लेना-देना नहीं। प्यारे लोग होते हैं, लेकिन
जीवन-सत्य की इनकी खोज किसी साधना पर खड़ी नहीं होती। जीवन-सत्य पर इनकी जो चेशटा
है, वह सिर्फ तर्कगत है।
इसलिए अमृत प्रिया, दर्शनशास्त्र जरा भी पर्याप्त
नहीं है। हां, जिज्ञासा अगर मात्र हो तब तो ठीक। मुमुक्षा हो
तो दर्शनशास्त्र पर्याप्त नहीं है।
चंदूलाल आजकल अत्यंत दार्शनिक प्रवृत्ति के हो गए हैं और अक्सर हवाई
समस्याओं को सुलझाने में निमग्न रहते हैं। एक दिन जब वे शाम के समय अपने आंगन में
आरामकुर्सी पर लेटे हुए सामने वाले घर की दीवाल पर चिपके हुए कंडों पर टकटकी लगाए, विचारों में खोए थे, तभी उनकी पत्नी गुलाबो आ पहुंची
और खीझ भरे स्वर में बोली: वहां क्या देख रहे हो आंखें गड़ाए? क्या उसी कलमुंही ढब्बू की पत्नी को?
चंदूलाल बोले: नहीं-नहीं। मैं तो इस समस्या का हल खोजने में लगा हूं
कि आखिर ढब्बूजी की भैंस किस प्रकार दीवाल पर चढ़ कर गोबर करती है!
पत्नी ने आगबबूला होकर कहा: बस तो तुम इन्हीं उलटी-सीधी बेसिर-पैर की
बातों में वक्त गंवाते रहते हो, घर की जरा भी फिक्र नहीं! क्या
तुम्हें खबर है कि अपने छोटे मुन्ना ने एक ह९ब०ते से चलना शुरू कर दिया है?
चंदूलाल ने चौंक कर कहा: अरे, तो तुमने पहले क्यों
नहीं बताया? अब तो न जाने वह कितनी दूर निकल चुका होगा!
एक दार्शनिक पति बहुत दिनों के बाद विश्व-यात्रा से घर वापस लौटे।
स्वभावतः आते ही पति-पत्नी प्रेम-क्रीड़ा में संलग्न हो गए। इतने में ही किसी
व्यक्ति ने बाहर से दरवाजा खटखटाया। पत्नी तो एकदम भय से सिहर उठी और चौंक कर
लड़खड़ाते स्वर में बोली: सुनिए-सुनिए, लगता है मेरे पतिदेव
आ गए।
यह सुनते ही पत्नी को एकदम छाती से दूर हटाते हुए दार्शनिक पति खिड़की
से कूद कर भाग गए, सो आज तक उनका पता नहीं चला।
परमात्मा तक पहुंचने के लिए धर्म के अतिरिक्त न कभी कोई मार्ग था, न कभी हो सकता है।
दुनिया में तीन आयाम हैं। एक--विज्ञान: वह पदार्थ का सत्य जानने का
आयाम है। दूसरा--धर्म: वह चैतन्य का सत्य जानने का आयाम है। और तीसरा--दर्शन: वह
सिर्फ विचार करने का आयाम है। पदार्थ के संबंध में भी विचार करता है, चेतना के संबंध में भी विचार करता है। लेकिन सिर्फ विचार। अब विचार से
किसी का पेट भरता है? तुम लाख विचार करते रहो, भूख है सो भूख रहेगी, भोजन चाहिए। शरीर का भोजन
चाहिए तो विज्ञान से पूछो और आत्मा का भोजन चाहिए तो धर्म से पूछो। दर्शन तो दोनों
के मध्य में है--त्रिशंकु की भांति। न विज्ञान है दर्शन, न
धर्म है दर्शन। सोचता है, बस विचार करता है। अच्छी-अच्छी
बातें सोचता है। मगर सोचने में ही कोई प्रयोजन नहीं है। ईश्वर के संबंध में कितना
ऊहापोह करता है दर्शनशास्त्र! लेकिन उस ऊहापोह का क्या परिणाम है? रात अंधेरी है, कितना ही सोचो, सोचने से दीया न जलेगा। या तो विज्ञान से पूछो, अगर
बाहर का दीया जलाना हो। और या धर्म से पूछो, अगर भीतर का
दीया जलाना हो। अगर दीया जलाना ही न हो, सिर्फ समय काटना हो,
तो दर्शनशास्त्र उपयोगी है। बैठ कर विचार करो--कि प्रकाश क्या है?
अंधकार क्या है? अंधकार है भी या नहीं?
प्रकाश कैसे अंधकार को मिटाता है? मिटा सकता
है या नहीं?
दर्शनशास्त्र एक बहुत ऊंचे ढंग से शेखचिल्लीपन का ही दूसरा नाम है।
एक गांव में चोरी हो गई। इंस्पेक्टर आया, बहुत खोज-बीन की, पता न चले चोर का। आखिर गांव के
लोगों ने कहा कि ऐसे पता नहीं चलेगा। हमारे गांव में एक शेखचिल्ली हैं; ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं जिसका वे उत्तर न दे सकते हों। उनसे ही पूछा जाए।
अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, रात एक हाथी गांव से गुजर
गया। इस गांव में से कभी हाथी नहीं निकला था। सुबह हम सब चिंता में पड़े--इतने-इतने
बड़े पैर के निशान किस जानवर के हो सकते हैं? कोई हल न हो
सका। आखिर शेखचिल्ली को बुलाया, उसने मिनट में हल कर दिया।
उसने कहा: कुछ मामला नहीं है। यह सरल सी बात है, इसमें इतनी
क्या चिंता कर रहे हो? पैर में चक्की बांध कर हरिणा कूदा
होय! उसने कहा: यह सीधी-सीधी बात है कि कोई हिरण पैर में चक्की बांध कर कूदा है।
इंस्पेक्टर को बात जंची तो नहीं कि ऐसे आदमी से पूछना चाहिए, मगर कोई और उपाय न देख कर, कि संभावना नहीं दिखती,
गया। शेखचिल्ली ने पहले तो बहुत आना-कानी की, कि
भाई मैं झंझटों में नहीं पड़ना चाहता। मेरा तो ऊंची दार्शनिक बातों में रस है। ये
कहां की भौतिक बातें--चोरी इत्यादि! अरे कौन चोर, किसकी
चोरी! सबै भूमि गोपाल की! सब उसी का है। कौन चोर, कौन मालिक!
वही एक मालिक है!
इंस्पेक्टर ने बहुत ही कहा कि देखो तुम सुनते हो कि नहीं, नहीं तो तुम्हीं को पकड़ कर ले जाएंगे। जब हालत बिगड़ने लगी तो उसने कहा: हम
बताए देते हैं, मगर एकांत में बताएंगे। दूर चलना पड़ेगा गांव
के बाहर, किसी को पता न चले। हम झंझट-झगड़े में पड़ना नहीं
चाहते।
तब तो जरा इंस्पेक्टर को भरोसा आया कि इसको मालूम होता है मालूम है।
लगता है पता है। ले गया उसको दूर शेखचिल्ली गांव के बाहर। एकदम बिलकुल दूर।
इंस्पेक्टर ने कहा: भाई, अब तो यहां कोई पक्षी भी नहीं, कोई
कुत्ता भी नहीं, अब तो तू बोल दे!
बिलकुल कान में आकर फुसफुसाया कि अब तुम मानते नहीं हो तो बताए देता
हूं। लेकिन खाओ कसम अपने बाप की कि किसी को कहना मत।
उसने कहा: भैया, बाप की कसम, मगर तू कह तो!
उसने कहा कि किसी चोर ने चोरी की है।
बस दर्शनशास्त्र इस तरह की बातों में लगा हुआ है: किसी चोर ने चोरी की
है! तुम पूछो...तुमको समझ में नहीं आती यह बात एकदम से...तुम पूछो कि सृशिट किसने
की? दर्शनशास्त्र कहता है: किसी स्रशटा ने सृशिट की है। मतलब तुम समझे?
वही--किसी चोर ने चोरी की है। मगर जब कहते हैं कि किसी स्रशटा ने
सृशिट की है, तब तुम समझते हो कि बड़ी ऊंची बात हो रही है!
स्रशटा ने तो की ही होगी सृशिट जब सृशिट की है। और चोरी जब की है तो चोर ने ही की
होगी। मगर उत्तर कहां है इसमें?
धर्म के अतिरिक्त परमात्मा को जानने का कोई उपाय नहीं है। धर्म
विज्ञान है अंतर-खोज का।
आखिरी सवाल: मैं अपनी पत्नी का भरोसा नहीं कर
पाता हूं। वह मेरी न सुनती है, न मानती है। उसके
चरित्र पर भी मुझे संदेह है। इससे चित्त उद्विग्न रहता है। क्या करूं?
रामेश्वर! पत्नी कोई परमात्मा
तो है नहीं जो तुम उस पर भरोसा करो। तुमसे कहा किसने कि पत्नी पर भरोसा करो? अरे आस्था करने को तुम्हें कुछ और नहीं मिलता? श्रद्धा
करने को कुछ और नहीं मिलता? गरीब पत्नी मिली! कुछ श्रद्धा के
लिए भी ऊंचाइयां खोजो।
लेकिन सिखाया गया है: प९ति०नयां पतियों पर श्रद्धा करें। पति
प९ति०नयों पर श्रद्धा करें, भरोसा रखें। भरोसा भी रख लोगे तो क्या होगा? और जब भी भरोसे की बात उठती है, उसका मतलब ही यह है
कि संदेह भीतर खड़ा है, नहीं तो भरोसे का सवाल कहां है?
अगर संदेह ही न हो तो भरोसा क्यों? क्यों
समझाया जाता है कि भरोसा करो? इसीलिए कि संदेह है और संदेह
को लीपना है, पोतना है, छिपाना है। और
कैसे तुम भरोसा करोगे? तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है,
पत्नी पर कैसे भरोसा करोगे? सुंदर स्त्री देख
कर तुम्हारे मन में क्या होता है? तो तुम यह कैसे मान सकते
हो कि सुंदर पुरुष को देख कर तुम्हारी पत्नी के मन में कुछ भी न होता होगा?
तुम यह कह कर नहीं बच सकते कि मैं मर्द बच्चा, अरे पुरुष की बात और है! गए वे दिन, लद गए वे दिन।
किसी की बात और नहीं है। तुम अपने को भलीभांति जानते हो कि जब मैं डांवाडोल होता
हूं तो पत्नी भी कभी न कभी डांवाडोल होती होगी। इसलिए संदेह है।
संदेह पत्नी पर कम है, संदेह अपने पर ही
ज्यादा है। पत्नी पर संदेह प्रश्न के ही बाहर है। पहले तो भरोसा करने की आवश्यकता
ही नहीं है। नाहक उद्विग्न हो रहे हो! नाहक परेशान हो रहे हो! मगर बस सिखाई गई हैं
बातें कि पत्नी को पतिव्रता होना चाहिए। एक पति! बस उस पर ही उसको अपनी नजरें टिका
कर रखना चाहिए। फिर वह टिका कर रखती है नजरें तो भी मुसीबत खड़ी होती है। क्योंकि
जब वह पतिव्रता होती है तो वह तुमको भी चाहती है कि तुम भी पत्नीव्रता होओ। फिर
एक-दूसरे के तुम पीछे पड़े हो, जासूसी कर रहे हो। और जिंदगी
नरक हो जाती है।
सरल बनो, सहज बनो। स्वतंत्रता में जीना सीखो। पत्नी के पास
अपना बोध है, तुम्हारे पास अपना बोध है। वह अपने जीवन की
हकदार है, तुम अपने जीवन के हकदार हो। यह और बात कि तुम
दोनों ने साथ रहना तय किया, तो ठीक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम एक-दूसरे के गुलाम हो। मगर सदियों की
गलत शिक्षाओं ने बड़ी झंझट खड़ी कर दी है। एक से एक उप(व खड़े होते जाते हैं! और उप(व
खड़े हो जाते हैं, लेकिन हमें दिखाई भी नहीं पड़ते कि उप(व के
मूल कारण कहां हैं।
अभी परसों अखबारों में खबर थी कि कुछ गुंडे बंबई में एक स्त्री को
उसके पति और बच्चों से छीन कर ले गए और धमकी दे गए कि अगर पुलिस को खबर की तो पत्नी
का खात्मा कर देंगे। रात भर पति परेशान रहा, सो नहीं सका। कैसे
सोएगा? प्रतीक्षा करता रहा! सुबह-सुबह पत्नी आई। इसके पहले
कि पति कुछ बोले, पत्नी ने कहा कि पहले मैं स्नान कर लूं,
फिर पूरी कहानी बताऊं। वह बाथरूम में चली गई। वहां उसने कैरोसिन का
तेल अपने ऊपर डाल कर आग लगा ली और खतम हो गई। अब सब तरफ निंदा हो रही है उन बलात्कारियों
की। निंदा होनी चाहिए।
लेकिन ये लक्षण हैं। ये मूल बीमारियां नहीं हैं। बलात्कारियों की अगर
तुम ठीक-ठीक खोज करोगे तो इनके पीछे महात्मागण मिलेंगे मूल कारण में। और उनकी कोई
फिक्र नहीं करता। वही महात्मागण निंदा कर रहे हैं कि पतन हो गया, कलियुग आ गया, धर्म भ्रशट हो गया। इन्हीं नासमझों ने
यह उप(व खड़ा करवा दिया है। जब तुम काम को इतना दमित करोगे तो बलात्कार होंगे। जितना
काम दमित होगा उतने बलात्कार होंगे। अगर काम को थोड़ी सी स्वतंत्रता दो, अगर काम को तुम जीवन की एक सहज सामान्य साधारण चीज समझो, तो बलात्कार अपने आप बंद हो जाए। क्योंकि न होगा दमन, न होगा बलात्कार।
अब ऐसा समझो कि तुम्हारी पत्नी अगर किसी पुरुष के साथ ताश खेल रही हो, तो कोई पाप तो नहीं हो गया, बलात्कार तो नहीं हो
गया। तुम कोई पुलिस में तो नहीं चले जाओगे एकदम से। और तुमने देख लिया पत्नी को
ताश खेलते हुए किसी के साथ, तो पत्नी कोई कैरोसिन डाल कर आग
जला कर मर थोड़े ही जाएगी। ताश ही खेल रही थी, पाप क्या हो गया?
अगर हम काम-ऊर्जा को भी जीवन की सहज सामान्य चीज समझ लें...उसको इतना
ऊंचा उठा कर रखा है, इतना सिर पर ढो रहे हैं, उसको
इस तरह के ढोंग दे दिए हैं, पवित्रता के और धार्मिकता के ऐसे
आभूषण पहना दिए हैं, कि मुश्किल खड़ी हो गई है। उसकी वजह से
कुछ लोग दमित हैं।
अब ये जो गुंडे इस स्त्री को उठा ले गए, ये स्वभावतः ऐसे लोग
नहीं हो सकते जिन्होंने जीवन में स्त्री का प्रेम जाना हो। ये ऐसे लोग हैं जिनको
स्त्री का प्रेम नहीं मिला। और शायद इनको स्त्री का प्रेम मिलेगा भी नहीं। स्त्री
का प्रेम ये जबर्दस्ती छीन रहे हैं। जबर्दस्ती छीनने को कोई तभी तैयार होता है जब
उसे सहज न मिले। और प्रेम का तो मजा तब है जब वह सहज मिले। जबर्दस्ती लिए गए प्रेम
का कोई मजा ही नहीं होता, कोई अर्थ ही नहीं होता।
तो सहज तो प्रेम के लिए सुविधा नहीं जुटाने देते तुम। और अगर सहज
प्रेम की सुविधा जुटाओ तो कहते हो--समाज भ्रशट हो रहा है। ये समाज भ्रशट हो रहा है
चिल्लाने वाले लोग ही बलात्कारियों को पैदा करते हैं। हर बलात्कारी के पीछे तुम
महात्माओं को छिपा पाओगे। तुम्हारे ऋषि-मुनियों की संतान हैं ये बलात्कारी।
और फिर दूसरी तरफ भी गौर करो। किसी ने भी इस पर गौर नहीं किया। यह
स्त्री घर आई, इसने आग लगा कर अपने को मार डाला, इसकी निंदा किसी ने भी नहीं की। बलात्कारियों की निंदा की। जरूर की जानी
चाहिए। लेकिन इस स्त्री की निंदा किसी ने भी नहीं की। इस स्त्री ने भी मामले को
बहुत भारी समझ लिया। क्योंकि इसको भी समझाया गया है, इसका सब
सतीत्व नशट हो गया। क्या खाक नशट हो गया! सतीत्व आत्मा की बात है, शरीर की बात नहीं। क्या नशट हो गया? जैसे आदमी धूल
से भर जाता है तो स्नान कर लेता है, तो कोई शरीर नशट थोड़े ही
हो गया, कि शरीर गंदा थोड़े ही हो गया।
यह गलत हुआ। मैं इसके समर्थन में नहीं हूं कि ऐसा होना चाहिए। लेकिन
मैं इसके भी विरोध में हूं कि किसी स्त्री को हम इस हालत में खड़ा कर दें कि उसको
आग लगा कर मरना पड़े। इसके लिए हम भी जिम्मेवार हैं। बलात्कारी जिम्मेवार हैं और हम
भी जिम्मेवार हैं। क्योंकि अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती तो इसको जीवन भर लांछन
सहना पड़ता। जो इसको लांछन देते, वे सब इसके पाप में भागीदार हुए।
अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती तो इसका पति भी इसको नीची नजर से देखता, इसके बच्चे भी इसको नीची नजर से देखते, इसके पड़ोसी
भी कहते कि अरे यह क्या है, दो कौड़ी की औरत! हां, अब वे सब कह रहे हैं कि सती हो गई! बड़ा गजब का काम किया! बड़ा महान कार्य
किया! अब सती का चौरा बना देंगे। चलो एक और ढांढन सती हो गई! अब इनकी झांकी
सजाएंगे। वही मूढ़ता।
तुम सब जिम्मेवार हो इस हत्या में। बलात्कार करवाने में जिम्मेवार हो।
इस स्त्री की हत्या में जिम्मेवार हो। इस स्त्री की भी निंदा होनी चाहिए। इसमें
ऐसा क्या मामला हो गया? इसका कोई कसूर न था। यह कोई स्वेच्छा से उनके साथ गई
नहीं थी। इस पर जबरदस्ती की गई थी। अगर कोई जबरदस्ती तुम्हारे बाल काट ले रास्ते
में, तो क्या तुम आग लगा कर अपने को मार डालोगे? कि हमारा सब भ्रशट हो गया! हमारा मामला ही खतम हो गया!
मगर ऐसे जमाने थे कि अगर रास्ते में कोई मिल जाता और तुम्हारी मूंछ
काट लेता--मर गए! इज्जत चली गई! मूंछ कट गई, बात खत्म हो गई!
अब मूंछ ही कट गई, आजकल तुम खुद ही जाकर रोज सफा
करवा रहे हो। और ऐसा नहीं कि कोई नाई की गर्दन काट दो एकदम से कि तूने मेरी मूंछ
क्यों काटी! उलटे पैसा देते हो। और नाई न मिले तो खुद ही सुबह से उठ कर रेजर से
सफाई करते हो। मगर यह मूंछ कभी बड़ी ऊंची चीज थी। इसकी बड़ी पूछ थी। लोग इस पर ताव
दिया करते थे। और जिसकी मूंछ नीची हो गई, उसका सब गया। मूंछ
पर ताव देकर लोग चलते थे। अकड़ का हिस्सा थी, अहंकार का
हिस्सा थी।
यह सतीत्व की धारणा बचकानी है, थोथी है। यह जीवन की
सहजता के अनुकूल नहीं है। पहले तो हमें, लोगों के काम-जीवन
को जितनी मुक्ति दी जा सके, देनी चाहिए। जहां तक बन सके,
काम-ऊर्जा को खेल से ज्यादा मत समझो। उसे खेल से ज्यादा गंभीर मत
समझो। एक जैविक खेल, लीला; इससे ज्यादा
नहीं। तो क्रांति होगी।
मगर तुम बहुत गंभीरता से ले रहे हो। तुम कह रहे हो: पत्नी पर मुझे
संदेह उठता है, उसके चरित्र पर संदेह उठता है।
तुम हो कौन जिसे पत्नी के चरित्र पर संदेह उठे? तुम्हें फिक्र करनी है, अपने चरित्र की करो। पत्नी
के चरित्र के तुम मालिक हो? पत्नी की आत्मा के तुम मालिक हो?
पत्नी ने कोई तुम्हारे हाथ अपने को बेचा है?
नहीं रामेश्वर, संदेह करने को और बड़ी चीजें हैं; अपने पर संदेह करो। और श्रद्धा करने को भी और बड़ी चीजें हैं, उन पर श्रद्धा करो। कहां छोटी चीजों में उलझते हो! और फिर इन्हीं में
दबे-दबे मर जाओगे, तो फिर एक दिन कहोगे कि जिंदगी यूं ही
गुजर गई, कुछ अर्थ न पाया, कोई
सार्थकता न पाई। पाओगे भी कहां से?
मनुशय-जाति बहुत सी भ्रांतियों के नीचे दबी जा रही है, मरी जा रही है, सड़ी जा रही है। मगर वे भ्रांतियां
इतनी पुरानी हैं और हम उनको इतना सम्मान देते रहे हैं, कि
हमें खयाल में भी नहीं आता कि वे भ्रांतियां हैं। सतियों की अभी भी पूजा चल रही
है। गांव-गांव सतियों के चौरे हैं। क्या पागलपन है! स्त्रियों को जलाया, जलवाया, जलाने के आयोजन किए, हत्याएं
कीं--और सम्मान दे रहे हो!
और अभी भी यही सिखाया जा रहा है। कुंवारेपन की बड़ी कीमत समझी जाती है
कि किसी लड़की का कुंवारा होना एकदम अनिवार्य है विवाह के पूर्व। क्यों? बात बिलकुल अवैज्ञानिक है। क्योंकि जिस युवती ने प्रेम का कोई अनुभव नहीं
लिया, उसको तुम विवाह कर रहे हो। गैर-अनुभवी स्त्री, और अगर दुर्भाग्य से युवक भी भोंदुओं के हाथ में पला हो, तो दोनों गैर-अनुभवी। इन दोनों को बांधे दे रहे हो एक नकेल में। इनकी
जिंदगी को तुमने डाल दिया गङ्ढे में। थोड़े-बहुत अनुभव से गुजर जाना उचित है,
उपयोगी है।
अफ्रीका में इस तरह के कबीले हैं, जो इस बात की फिक्र
करते हैं कि इस लड़की का कितने लोगों से प्रेम-संबंध रहा। जितने ज्यादा लोगों से
प्रेम-संबंध रहा हो, उतनी ही उसकी कीमत बढ़ जाती है। मैं
मानता हूं कि वे ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। आदिम, मगर ज्यादा
कीमती उनका विचार है। क्योंकि जितने लोगों ने इसे प्रेम किया, इसके अर्थ दो हुए। एक कि यह स्त्री चाहने योग्य है; इतने
लोगों ने चाहा तो अकारण नहीं चाहा होगा। दूसरी बात: इतने लोगों ने चाहा तो इसके
जीवन में अनुभव है। उस अनुभव के आधार पर इसने कुछ परिपक्वता पाई होगी। कुंवारी
लड़की को या कुंवारे लड़के को कोई अनुभव नहीं होता। दो कुंवारों को बांध देना ऐसा ही
है जैसे दो सांडों को, जिन्होंने कभी बैलगाड़ी नहीं चलाई,
बांध दिया बैलगाड़ी में। तुम भी गिरोगे, सांड
भी मुश्किल में पड़ेंगे और बैलगाड़ी का तो कचूमर निकल जाएगा। दुर्घटना सुनिश्चित है।
इसलिए प्रत्येक विवाह दुर्घटना हो जाती है। अनुभव से गुजरने दो। और
क्यों इतना आग्रह एकाधिपत्य का? मोनोपोली का? क्यों तुम संदेह करते हो पत्नी पर? यह एकाधिपत्य
क्यों? पत्नी कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम उसके एकमात्र
मालिक हो! अगर पत्नी को रुचिकर लगता हो, किसी और से भी प्रीतिकर
संबंध उसके बनते हों, तो तुम क्यों इतने परेशान हुए जा रहे
हो?
नहीं, लेकिन हमारा पुरुष का दंभ बड़ा चोट खा जाता है,
तिलमिला जाता है, कि मेरे रहते और मेरी पत्नी
किसी और को सुंदर समझे! और तुम कितनी स्त्रियों को सुंदर समझ रहे हो अपनी पत्नी के
रहते? गीता में दबाए बैठे हो हेमामालिनी का चित्र! बातें कर
रहे हो कि गीता पढ़ रहे हैं, देख रहे हैं हेमामालिनी का
चित्र।
खुद पर संदेह करो रामेश्वर। पत्नी को खुद सोचने दो, अपने लिए सोचने दो। उसे अपनी जीवन-धारा स्वयं नियत करने दो। किसी व्यक्ति
की स्वतंत्रता में बाधा न बनो--फिर वह तुम्हारी पत्नी हो या पति हो या बेटा हो या
बेटी हो। धार्मिक व्यक्ति का यह लक्षण होना चाहिए कि वह स्वयं की स्वतंत्रता की
घोषणा करे और औरों की स्वतंत्रता का सम्मान करे। इस पृथ्वी पर जितनी स्वतंत्रता
बढ़े, उतना शुभ है। हम परमात्मा को उतने ही निकट ला सकेंगे।
परमात्मा घट सकता है स्वतंत्रता के एक वातावरण में ही। इस परतंत्रता
में नहीं। इन जंजीरों में नहीं। इन कारागृहों में नहीं। मुक्त होओ और मुक्त करो।
आज इतना ही।
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