धीरे—धीरे मेरा स्वास्थ
ठीक हो रहा था। अब खाना भी हजम होने के साथ—साथ मुझे भूख भी लगने लगी। इसी लिए
पापा जी मुझे रोज जंगल में घुमाने के लिए ले जाते थे। पर इतवार या किसी छुटटी के
दिन के तो क्या कहने थे। जब पूरा परिवार जंगल में जाने की तैयारी करता तो मेरे सब्र
का बाध टूट जाता। एक—एक पल मुझे युगों की तरह से लगता। पर मनुष्य को हमारी तरह से
नहीं जीना उसे तो न जाने कितने काम होते है। ये सब में देखता पर क्या करू मुझे
खुशी बरदाश्त होती ही नहीं थी।
मेरे साथ बच्चे भी जूते
कपड़े पहन कर तैयार हो जाते। पर मम्मी और मणि दीदी तो कछुवे की चाल से तैयार
होती। मुझे लगता क्या जरूरत है इतना सब करने के लिए। कहीं खाना बनाया जाता। कहीं
गंदे कपड़े साबुन एक बेग में भरे जाते। वरूण भैया अपना खेलने का सामन साथ ले कर
चलते। कई बार तो पापा जी दूकान से भी आ जाते पर हमारी तैयारी पूरी नहीं होती। आखिर
में रो—रो कर थक जाता। मेरे को दूध पीने के लिए कहा जाता पर मारे खुशी के दूध अंदर
जाता ही नहीं था। लगता अभी पंख लग जाये और हम जंगल में पहुंच जाये।
जंगल में जाने के बाद पापा जी तो वरूण और
हिमांशु के साथ क्रिकेट खेलने लग जाते। और दीदी और मम्मी बहते नाले के पानी में
कपड़े धोने लग जाती थी। और रह जाता मैं फिर अकेला बेचारा। पर वहां एक प्रकार की
आजादी थी, चारों और खुला मैदान, वहां मुझे काम की कोई कमी नहीं थी। कही खुदाई की
जा रही होती, की तीतरों के पीछे भाग जाता, कही कानून पेश की जा रह होती, और अपनी सीमा
बनने में तो वहां पर कोई बंधन नहीं था। जहां अपका मन करे वहीं टाँग उठा कर, दो
बूंद, और उस पेड़ तक हो गई अपनी सीमा।
इस बीच कभी—कभी मैं पापा
जी हर के पास भाग कर जाता थोड़ी देर उनके साथ खेलता पर मेरी और किसी का ध्यान ही
नहीं जाता। वह अपने खेल में मस्त रहते। मुझे फिर दीदी—मम्मी की याद आती और मुझे
लगता अरे वह तो अकेले रह गये फिर उनके पास भाग कर चला जाता। कभी उस पानी में धूस
जाता जहां मम्मी—दीदी कपड़े धो रही होती। घर पर तो पानी से मुझे बहुत डर लगता था।
हालाकि वहां पर मुझे गर्म पानी से नहलाया जाता था। और यहां जंगल का पानी तो एक दम
से ठंडा पर यहां पर खेलना अच्छा लगाता था। पानी में बहकर आते पत्तों या फूलों को
देख कर में उन्हे पकड़ने की कोशिश भी करता। छपाके मार—मार कर खुब खेलता। कभी
साबुन का कोई बुलबुला बन कर पानी में बहकर आता देखता तो उसे पकड़ने के लिए छलांग
लगा देता। पर वह मेरे छूने से पहले ही गायब हो जाता।
कभी पानी में भीग कर
मिटटी में जाकर लेट जाता। पूरे शरीर को मिटटी में लोट पोट करने लग जाता। दीदी मुझे
देख कर हंसती। तब में बहुत जोर से भोंक कर उसे डांटने की कोशिश करता। मैं जानता था
मेरे इस भोंकने का कोई बुरा नहीं मानेगा। उलटा और हंसेंगे। फिर जब ठंड लगती तो उपर
नाला पार कर के उस खुले मैदान में पहुंच जाता जहां पर पापा जी वरूण और हिमांशु के
साथ खेल रहे होते। पर उनका वहां खेलना मेरी समझ के बहार की बात थी। मुझे बुलाया भी
जाता पर न तो मुझे बाल ही दिखाई देती इतने बड़े मैदान मे। कभी दिखाई भी दे जाती तो
वह इतनी दूर होती की एक दो बार से ज्यादा ला भी नहीं सकता था, घर पर खेलने और
मैदान में खेलने में फर्क है। वहां एक सीमा है, और हम देख समझ सकते है। पर यहां पर
नहीं,.......
पानी
में कपड़े धोने के बाद मम्मी और दीदी उन्हें उपर धूप में लाकर घास पर सूखने के
लिए डाल रही होती। और उधर खेलते वरूण—हैमान्शु के साथ पापा जी को भी आवाज मार कर
बुलाया जाता। चलो अब खाने का समय हो गया है। बस एक ही आवाज में उनका खेल खत्म।
मेरा मन पापा जी हर के पास जाने को कर रहा था। इसी बीच मैं क्या देखता हूं, जहां दीदी कपड़े सूखा रही था। ठीक उसके पीछे एक गाय
वहां पर घास चर रही थी।
मुझे लगा आज अपनी ताकत की
हैकड़ी दीदी को दिखाई जाये। और उसे भी पता चले की मैं भी कुछ बड़ा हो गया हूं। और
मैं पीछे मुड़ा ओर भोंकता हुआ गाय की और भाग। उस गाय का ध्यान ही नहीं था मेरी और
शायद में घास में कहीं दिखाई भी नहीं दे रहा था। वह डर कर भागी। तब मुझे और मजा आ गया। कि मुझमें भी है कोई बात, देखो गाय
को भी डरा दिया। अब क्या था मैं उसके पीछे जोर लगा कर भगा। सामने बड़ी—बड़ी घास
थी। गाय दस कदम भागी और घास के दूसरी और कूद गई। मुझे पता नहीं था और मैं तो पूरी
ताकत लगा कर उसके पीछे भाग रहा था।
लेकिन दुर्भाग्य की बीच
में छोटा नाला था। जो पानी के कटाव से बन गया था। और आगे जाकर उस बड़े नाले में ही
मिल जाता था। और गाय तो जानती थी पर मैं बेपरवा भाग रह था, जिस का नतीजा यह कि मैं
उस नाले के अंदर। नीचे गिरते ही मेरे मुख से प्यांऊ की आवाज आई, और मैं गहरे
अँधेरा में पडा था। घास न नाले को बिलकुल ढक लिया था। ये बात गाय तो जानती थी। वह
तो शायद रोज ही यहां पर चरने के लिए आती थी। और में मुर्ख अपनी हैकड़ी के कारण इस
में गिर गया। कुछ देर तो मुझे समझ ही नहीं आया की मैं कहा पर आ गया। दूर कहीं दीदी
के हंसने की आवाज आ रही थी। मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था। पर क्या करू। अब कैसे
बहार निकला जाये। इस और तो एक चौड़ा गढ़ा बन गया था। जो एक दम से ऊंचा था।
दूर दीदी ने मुझे पुकारा,
और वह बार—बार आवाज लगा कर मुझे बुला रही थी। मैं और कोई उपाय न देख कर सीधा आगे
की और बढ़ता चला गया। काफी दूर जाने के बाद सूर्य की रोशनी दिखाई दी। वहां पर घास
कम थी। और चारों और से इतने उच्चे—उच्चे, पेड़े की जड़, कि नीचे क्या है वह भी आप को दिखाई ने दे। इस पर
मैं समझ गया की जरूर बड़ा नाला आने वाला है। और ऐसा ही हुआ। आगे एक दम से बड़ा
नाला आ गया। बस फिर क्या था मैं उसी से एक पतली पगडंडी को पकड़ मैं उपर की और
भागा। बहार निकल कर मैने एक विजयी निगाहे इधर उधर दौड़ाई। पर वहां कौन था
देखनेवाला। और दूसरी और दीदी की आवाज सुनाई दी। काफी दूर और मैं उसी दशा में भागा।
काफी देर भागने के बाद
मैं उस मैदान में पहुंच गया जहां पर पापा जी और भैया अभी खोल रह थे। में उनके
पैरों की खुशबु सूँघता हुआ आगे बढ़ा और सामने हिमांशु भैया दिखाई दिये। अब मेरी
जान में जाने आई। मैं और भी जौर से भाग। देखा सामने वरूण भैया अपने हाथ में कुछ
पत्ते पकड़े हुए है। और पापा जी पत्ते तोड़ रहे है। तब में समझ गया की अच्छा ये
खाने के लिए ढाक के पत्ते तोड़ रहे है। मैंने पास जा कर कुं....कुं...कुं...कर के
सब को बताना चाहा की में आ गया हूं।
पत्ते
तोड़ने के बाद हम नाले में उतरे, सबने हाथ मुहँ धोया।
मेरा तो हाथ मुहँ पहले ही धुला हुआ था।
पापा जी ने उन पत्तों को धोया ओर हम मम्मी—दीदी की और चल दिये। वो हमारा
इंतजार कर रही थी। और मुझे देख कर दीदी ने मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरा और पूछने
लगी। गाय कहां है। और हंसने लगी। और फिर गाय वाली बात सब को पता चल गई। जहां मैं
अपनी धाक जमाने वाला था वहीं मेरा मजाक बन गया और सब लोग जोर से मुझ पर हंसने लगे।
और में दूर जा कर जोर—जोर से भौंकने लगा। तब मम्मी जी हंसते हुए मेरे पास आई और
कहने लगी। नहीं पोनी बहुत बहादूर बच्चा है।
देखो कितने गहरे नाले से
अकेला निकल कर आ गया। और मेरे सामने खाना रख दिया। और मैंने प्यार से मम्मी जी
का हाथ चाट लिया। और भौंक—भौंक कर सबको कहने लगा देखा सबसे पहले मुझे खाना मिला।
पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था। में अपना खाना कुछ ही देर में चटकर गया और बैठ गया भिक्षा मंत्री बन कर।
आ गया अपनी औकात पर। खाना खाने के बाद मम्मी पाप विश्राम करने के लिए लेट गये।
परन्तु
हम चारों को कहां चैन था। मम्मी जी जब भी जंगल में आती एक या दो बड़ी ब्रेड जरूर
ले कर आती थी। अब दीदी और वरूण ने वह ब्रेड उठाई और दूर खुले मैदान को पार कर
झाड़ियों के बच एक—एक कर के फैंकने लगे। वहां पर खुब गहरी झाड़ी थी। पर मैं किसी
तरह से उस के अंदर धूस गया। और एक दो ब्रेड के पीस मेंने भी उठा कर खाये। पर मेरी
समझ में नहीं आ रहा था। यहां पर कोई खाने वाला तो दिखाई नहीं देता। फिर ये ब्रेड
किस के लिए डाली जा रही है। मैंने अपने सर को लाख धुना पर कुछ पल्ले नहीं पडा और
मैंने कहां चलो मुझे क्या करना किसी के लिए भी हो।
अब ये लोग जो कर रहे कुछ
सोच कर ही कर रहे होंगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा है ये अलग बात है। हम सब पास की झंडियां में लगे मीठे लाल—लाल बेर
खाने लगे। मैं इधर उधर सुध कर अपनी जिज्ञासा के साथ अपना ज्ञान भी बढ़ा रहा था।
कभी मैं दीदी के पास जा कर खड़ा हो जाता और वह मुझे मीठा बेर तोड़ कर देती। मैं
उसे मुहँ में लेकर चबाता। और मुझे सच वह बहुत स्वादिष्ट लगा। अब तो मैं और भी
ज़िद्द कर के मांगने लगा। पर बार—बार दीदी को याद दिलाना पड़ता था। कि मैं भी तुम्हारे
पास खड़ा हूं। क्योंकि उसका ध्यान तो बेर तोड़ने में लगा होता। अब मैं दुःखी हो
गया। तब मैंने आइडिया लगया क्यों न मैं खुद ही इसे तोड़ कर खा लू। तब मैंने खुद
ही तोड़ने हिम्मत की और मैं कामयाब हो गया।
कितना मुश्किल काम था।
कांटे वाली झाड़ी से बैर को तोड़ना। पर अपनी सफलता से जो बैर मैंने तोड़ा उसका स्वाद
अनूठा था। अपनी मेहनत का फल सच ही मीठा होता है। अब मेरी इस हरकत को सब अचरज से
देख रहे थे। और हिमांशु भैया को चिड़ा रहे थे कि देख पोनी भी खुद बेर तोड़ कर खा
रहा है। और तू कांटों से डर रहा है। बीच—बीच में भाग कर मम्मी—पापा जी के पास भी
चला जाता था। जो धूप में आराम कर रहे होते। वहां की आजादी मुझे इतनी अच्छी लगती
की कह नहीं सकता। इसी तरह से दोपहर हो जाती। कपड़े भी सूख जाते और सब थक भी गये
होते थे। और पापा जी को दूकान भी खोलनी होती थे। हम लोग तीन बजे तक घर पहुंच जाते
थे। पापा जी दूकान पर ही रह जाते थे। हम सब घर आ जाते थे। किसी को सोना होता तो
ठीक था। पर बच्चों को स्कूल का भी काम करना होता था। इस बीच मुझे एक कटोरा दूध
मिल जाता।
फ्रिज का ठंडा दूध पी कर
मजा आ जाता था। और में एक कोने में लेट कर सो जाता था। क्योंकि जंगल में तो मैं
एक मिनट भी आराम नहीं कर सकता था। अब कोई इसे कुछ भी समझे पर मुझे सच में फिकर लगी
ही रहती थी। कही दूर बच्चे अकेले होते और
कहीं दूर पापा मम्मी। इसलिए इतवार का दिन बहुत मस्त होता था। ये बिमारी के बाद
मेरा पहला इतवार था। आज धूम कर थकावट तो हुई पर अच्छा भी बहुत लगा। थकावट का क्या है वह तो एक दो दिन में
ठीक हो जायेगी। पर घूमना कौन सा
रोज—रोज होता है।
धीरे—धीरे मैं लगभग जंगल के सभी रस्तों को जान गया
था। और हम ज्यादा तर एक ही रस्ते से जाते थे। अब आगे जंगल कितना बड़ा ओर गहरा है
इस बात का मुझे अंदाज नहीं था। या मेरे अंदर एक अहंकार आ गया की में सब जान गया
हूं। इस सब ये दुर्धटना घटी। जब सब बच्चे स्कूल चले जाते तो पापा जी और मैं
कभी—कभी जंगल में आते थे। पापा जी को जंगल के एकांत में बैठना, वहां पशु पक्षियों के फोटो खिचना बहुत भाता था। एक
दिन शायद में किसी चीज को सूँघता हुआ काफी आगे निकल गया। और पापा जी दूसरे वाले
नाले को पार करके पेड़ो बीच के एक घने झुंड के बीच बैठ कर ध्यान करने लगे। और में
रास्ते को पार कर काफी दूर निकल गया।
अब जब तक मुझे होश आता।
में जंगल कि दिशा को भूल गया। और न ही अपनी खुशबु को सूँघ कर वापस जा सकता था।
काफी सर पैर मारा। पर कुछ समझ में नहीं आया। वहीं रास्ते जो पापा जी के साथ जाने
पहचाने लगते थे। अब भूल भुलैया दिखाई दे रहे थे। दूर तक किसी आदमी को नामों निशान
दिखाई नहीं दिया। अब में घबरानें लगा। शुक्र इस बात को समझो कि श्याम नहीं थी।
दिन का समय होने से जंगली जानवरों का डर कुछ कम था। पर कहीं डर तो था ही, जो मुझे
मेरे अंदर से दिखाई दे रहा था।
मैं इधर—अधर भागा पर कुछ
नहीं सुझा। जहां तक नजर जाती पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे। पहले इतने ऊंचे पेड़ मैने
कभी नहीं देखे थे। पेड़ तो पहले भी इतने ही ऊंचे थे पर मैं देखने की कोशिश नहीं की
थी। सच मैं बहुत डर गया। काफी देर दौड़ने के बाद मैं बड़ी—बड़ी एक घास में फंस
गया। जहां तक नजर जाती वहां घास ही घास दिखाई देती। मैं डर कर उलटा भागा। और घास
के बहार निकल आया। और वहां खड़ा हो कर
अपनी किस्मत को कोसने लगा। कि क्यों में पापा जी का साथ छोड़ कर अलग हो गया। अब
तक मैं डरा जरूर था पर हिम्मत नहीं हारी थी। मैने खड़ा हो कर एक बार चारों और
देखा। आसमान पर सूर्य चमक रहा था। अब कौन सी बात मुझे मार्ग दिखायें।
यही सोच रहा था। और मन कर
रहा था जौर—जौर से रो कर पापा जी को मदद के लिए बूलाऊं। पर डर इस बात का भी था की
पास ही कोई जंगली जानवर मेरी आवाज सुन कर मुझ पर हमला न कर दे। इस लिए में अपने
कदमों की आहट से भी डर रहा था। वही चलने की आवाज जो पहले सुनाई भी नहीं देती थी।
आज मुझे डरा रही थी। सूर्य की और मुख कर के मैं उस खाली मैदान की और चल दिया। जो
जंगल मेरा अपना जाना पहचान सा था, आज एक दम से अंजान लग रहा था। मैं इतनी बार जंगल
आया था। और मुझे भ्रम हो गया था की में पूरे जंगल से परिचित हो गया हूं।
करीब
आधा घंटा चलने के बाद मुझे लगा की में रास्ते के करीब हूं। कुछ गाय—भैंसों के
चलने ओर उनके गले की घंटी की आवाज सुनाई दी। मैने झाड़ी की ओटा से देखा तो एक
गाय—भैंसों का झुंड रेत उड़ाता चला जा रहा था। उसके पीछे उसका चरवाहा। अपनी लाठी
को अपने कंधे पर रख कर कुछ मुख से आवज निकालता चल रहा था। उसके साथ में दो कुत्ते
भी थे। मैं डर उस झाड़ी के पीछे सांस रोक कर बैठ गया। और भगवान से दुआ करने लगा की
आज मुझे बचा ले फिर जीवन में ऐसी भूल कभी नहीं करूंगा। पर हवा की विपरीत दशा होने
के कारण वह कुत्ते मेरी गंध नहीं ले पाये और धीरे—धीरे आँखो से ओझल हो गये। तब जा
कर मेरी सांस में सांस आई। और मैं सतर्क चाल से उस रास्ते की और चल दिया। रास्ते
पर पहुंच कर मुझे कुछ उम्मीद बंधी की में घर जा सकता हूं।
जिस तरफ अभी गाय—भेस का
झुंड गया था। उस तरफ तो जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। और यही मेरी लिए अच्छा
हुआ। क्योंकि अभी वह झुंड गांव से जंगल की और जा रहा था। और जहां से आयी थी वह
रास्ता गांव की और जाता था। बस फिर क्या था। मैने पूरा ताकत से दौड़ लगाई। और
मैं यह देख कर बहुत खुश हुआ की सामने वही दूसरा नाला था जिसे मैंने कितनी ही बार
पापा जी के साथ पार किया था। प्यास लगी थी। सो मैंने चलते पानी से कुछ प्यास
बुझाई पर वहां की गहराई की शांति के कारण मुझे डर लग रहा था। की कोई मुझे पर अभी
हमला कर सकता है।
मैं डर के मारे फटा—फट
उपर की और भागा। और दूसरे किनारे पर जा कर मैने चैन की सांस ली। नाले की चढ़ाई के
पास ही दो सहमल के वृक्ष थे। जो पूरे जंगल से देखे जा सकते थे। उस वृक्ष पर हमेशा
तोतों, चील, कौवे, और जंगली चिड़ियों की भरमार रहती थी। और मुझे उन की
मधुर आवाज बहुत ही अच्छी लगती थी। मैं उपर गर्दन कर उन्हें बड़े अरमानों से
निहारा था। पर आज भय के कारण मुझे वो सब अच्छा नहीं लग रहा था। जब मन अशांत हो तो
आप तनाव को महसूस करते है। इस बात का अहसास भी मुझे पहली बहार हुआ।
पापा जी भी इन पक्षियों की फोटो खिचते तो मुझे
अच्छा लगाता था। और जब इन्हीं आवजो को में टी. वी पर सुनता ओर देखता तो मुझे
बड़ा अचरज होता। और में बार—बार गर्दन को आड़ी तिरछी करके सुनने की कोशिश करता। तब
मेरी इस हरकत को देख कर सब को बड़ा अचरज होता। की में ऐसा क्यों कर रहा हूं। पर
आज उस आवाज़ को सुन कर भी मैं मंत्र मुग्ध नहीं हो रहा था। पर बार—बार यही सोच
रहा था। काश पापा जी दिखाई दे जाये। कहीं से एक बार में भाग कर उनसे लिपट जाऊँ।
ऐसा पहली बार हुआ है। वरना तो मैं पापा जी जरा भी दूर नहीं जाता था। पापा जी जब ध्यान
करते तो में उनसे सट कर बैठता था।
सच तो यह था की मुझे डर
लगता था। पर पापा जी बैठे है इस आशा में डर कुछ कम हो जाता था। पर उन्हें थिर
बैठे और बंध आंखे किये बैठा देख कर भी हिम्मत बंधी रहती थी। पर आज तो किस मनहूस
घड़ी में खोजी बना और इतनी दूर निकल गया। इस बात का मुझे अचरज भी हुआ। कि में इतना
दूर तो नहीं गया था। पर शायद भटकन और भय के कारण मैं विपरीत दिशा में पापा जी
खोजता अधिक दूर निकल गया।
वहां
पर ज्यादा देर खड़ा होने पर डर भी लग रहा था। सो में रास्ते पर सीधा नाक की
सिद्ध में भागा। और बिना थकावट महसूस किये दूसरे नाले के पास पहुंच गया। ये नाला
बहुत गहरा था। पर मैने कुछ नहीं सोचा और भाग कर इसे पल में पार कर गया। इस बीच डर
कर मैंने एक बार इधर उधर भी देखा। पर वहां पर कोई नजर नहीं आया। न ही कहीं से किसी
के पुकारने की आवाज आ रही थी। मैंने बिना समय बर्बाद किये घर की और चलने का निर्णय
लिया। कुछ दूर चलने पर तारकोल की वह पक्की सड़क आ गई। जिस की पुलियाँ पर हम बैठ
कर आराम करते थे।
आज कहां आराम था, पर एक
उम्मीद थी की में सही मार्ग पर चल रहा हूं। जो खोने का भय था वह खत्म हो गया था
बस भटकने का भय रह गया था। सड़क पार कर में आगे बढ़ा और कुछ दूर चले पर रास्ता
तीन हिस्सों में बट गया। अब मेरे लिए नई उलझन शुरू हुई कि किस रास्ते पर चलू। तीनों
रास्तों पर आठ—दस कदम जा कर सूंघकर मैने समझना चाहा। पर बात बनी नहीं। मैं थक गया
था। और मेरा रोने को मन कर रहा था। कोई चारा ने देख कर में उन रास्तों के बँटवारे
के बीच में बैठ कर सोचने लगा। कि अब क्या किया जा सकता था। दूर से कोई आदमी आता
दिखाई दिया। और मुझे लगा की पापा जी आ गये। और मेरी खुशी का ठीकाना नहीं रहा।
पर जिसे—जैसे वह आदमी
नजदीक आ रहा था। उसका चलना। उसकी उँचाई पापा जैसे नहीं लग रही थी। नहीं पर मन बार
उस पर पापा जी की छवि आरोपित कर रहा था। कि नहीं ये पापा जी है। पर पास आने पर
मेरा भ्रम टुट गय। उस आदमी ने मेरी ओर एक बार देखा और वह अपने मार्ग पर चला गया।
में फिर संभल कर बैठ गया। कितनी देर बैठा रहा कुछ पता नहीं। रास्ता एक दम से
सून—सान था। इतनी देर में न जाने किस दशा से तीन कुत्ते आ गये। और मुझे अकेला
बैठे देख कर मेरी और झपटे।
मैं इस नई मुसीबत के लिए
तैयार नहीं था। पर तैयार भी होता तो उन खुंखार तीन कुत्तों का मैं कर भी क्या
सकता था। पर जब प्राणों पर आन पड़ती है तो मस्तिष्क भले ही काम न करे पर शरीर
अपनी हरकत में आ जाता है। और मैं एक ही झटके में पास की एक झाड़ी का सहार ले कर
बैठ गया। मेरे तीन और उँची झंडियां थी।
और सामने तीन खुंखार कुत्ते बड़े—बड़े दाँत निकाले मुझे खा जाने के लिए तैयार थे।
पर में भी आने पूरे जंगली पन पर आ गया। और
अपने नये और चमकदार दाँत निकाल कर
प्रतिरोध व्यक्ति करने लगा। कुछ देर वह इसी तरह ग़ुर्राते रहे पर मुझ पर हमला करने की किसी की हिम्मत नहीं थी।
शायद इस का कारण मेरे पीछे
झाड़ीया थी। वह तीन थे। और मुझे घेर कर हमला करना आसान था पर सामने से
तो उनके घायल होने का भी खतरा था। क्यों मैं अपने नुकीले और पैने दाँत दिखा
कर उन्हें डरा रहा था। शायद ओर एक दूसरे के भरोसे थे कि कोन पहले हमला करे। मैं अंदर से गुर्रा भी रहा था
और डर के मारे कांप भी रहा था। इतनी देर में मुझ पर आक्रमण न कर सकने के कारण वह,
वहां रूक भी न सके। और चले गये। पर में बहुत
देर उस झाड़ी से नहीं निकला की आस पास खड़े हो मेरे निकलने का
इंतजार तो नहीं कर रहे है। और सोचता रहा हमारी जाति में ये क्या बिमारी है हम अपनों को ही अपना दुश्मन
समझते है। अब मैं उन का क्या नुकसान कर रहा था। या मेरी क्या गलती थी। कि वो मुझ
पर हमला बोल रहे थे। इनकी ही बात
नहीं, आप किसी गली मोहल्ले में चले जाये। आपको और कोई कुछ कहै न कहै पर आपकी ही
जाति के आपके दुशमन बन आपको वहां से खदेड़ देंगे।
मैं
बैठा हुआ यही सोच रहा था। इतने में किसी के पैरो कही आहट आई। जैसे कोई तेज कदमों
से दौड़ता हुआ आ रहा था। मैं झाड़ी से निकल कर रास्ते पर आ कर देखने लगा। एक
परछाई सी दौड़ती हुई मेरी और आ रही थी। मुझे लगा हो न हो ये पापा जी है। और दूसरे
पल डर गया की अगर न हुए तो......ओर मेरी आंखों में आंसू भर आये। जैसे—जैसे वह
परछाई नजदीक आ रही थी मुझे यकीन हो रहा था कि ये पापा जी ही हो सकते है। सामने से
आती सूर्य की चमक मुझे दिग्भ्रमित कर रही थी। पर शायद पापा जी ने मुझे दूर से ही
पहचान लिया। और जौर से चिल्लाये....पोनी....पोनी....उतनी मधुर आवाज आज तक मैने
नहीं सुनी थी।
वो आवाज नहीं थी, मेरे टूटती आस की डोर थी। मेरी बंध होते दिल की
धड़कन थी। मेरे जीने की उमंग थी। पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था। पर में अपने आप को
रोक नहीं पाया और इतना तेज गति से पापा की और भागा। और दूर से ही भौंक—भौंक कर
अपने गुस्से का इजहार करने लगा। देखा मन का मनो विज्ञान जब तक तुम भयभीत हो मिलने
कि दुआ करते हो जब मिल जाता है तो क्रोध कर अपना अधिपत्य जमाना चाहते हो।
पापा जी मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ गये। और में
उछल कर उनका मुख चटाने लगा और रोने लगा। उन्होंने मुझे उठा कर अपने सीने से लगा
लिया। और मुझे बेतहाशा चूमनें लगे। और में देख रहा था उनकी आंखों से पानी बह रहा
है। और मैं मुख के साथ उनकी आंखों के आंसू भी जाट गया। जब इस बात का घर पर पता चला
तो मुझे सब ने प्यार किया और डांटा भी और पापा जी की भी गलती सब ने बताई की आपने
इसे अकेला क्यों छोड़ा। और में मूक बना ये सब देखता रहा की इस में बेचारे पापा जी
की क्या गलती है।
सारी गलती तो मेरी ही है।
और मेरे इस तरह से तीन तरफ बँटते रास्ते पर इंतजार करने की घटना ने उस पर मरहम का
और बुद्धिमानी का काम किया और मेरी चतुराई के क़सीदे पढ़े गये। कि देखो पोनी ने जब
देखा की रास्ता अब तीन और बंट रहा है.....और वह रास्ते की पहचान भूल रहा है, तब
उसने कितनी समझदारी से काम लिया और आगे नहीं बढ़ा.........
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