प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन—चौदहवां
दिनांक 09 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार:
1—क्या मेरे सूखे हृदय में भी उस परम प्यारे की
अभीप्सा का जन्म होगा?
2—आप वर्षों से बोल रहे हैं। फिर भी आप जो कहते
हैं वह सदा नया लगता है।
इसका राज क्या है?
3—मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं। मैं इस
महत कार्य को प्रारंभ कैसे करूं?
सज्दों से अब तिश्नगी नहीं बुझती
4—जज्ब हो जाऊं रजनीश तेरे आस्ताने में।
पहला प्रश्न: क्या मेरे सूखे हृदय में भी उस परम
प्यारे की अभीप्सा का जन्म होगा?
कृष्णतीर्थ भारती! हृदय और सूखा? यह असंभव है। हृदय तो स्वरूपतः आर्द्र है, गीला है।
हृदय का अर्थ ही है, गंगोत्री, जहां से
प्रेम की गंगा का उदगम होता है। गंगोत्री और सूखी? हृदय कभी
सूखा नहीं होता। और मस्तिष्क कभी भीगा नहीं होता।
तुम मस्तिष्क को ही हृदय समझ रहे हो। इससे प्रश्न उठ आया है। तुम
विचार को भाव समझ रहे हो, इससे भ्रांति हो रही है। अधिक हैं जो इस भ्रांति में
पड़े हैं। क्योंकि समाज में इस भ्रांति की प्रतिष्ठा है। समाज तुम्हें सिखाता है
हृदय से बचना। समाज तुम्हें इस भ्रांति निर्मित करता है, संस्कारित
करता है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा हृदय को किनारे छोड़ कर सीधी मस्तिष्क में प्रविष्ट
हो जाए। यह सबसे बड़ा षडयंत्र है जो मनुष्य के साथ खेला जा रहा है, खेला जाता रहा है, सदियों-सदियों से।
इसके पीछे बड़े निहित स्वार्थ हैं।
और मनुष्य भी इस षडयंत्र में सम्मिलित हो जाता है; क्योंकि बुद्धि का उपयोग है, हृदय का उपयोग क्या?
बाजार में, दुकान में, व्यवसाय
में, व्यवहार में विचार की जरूरत पड़ेगी, गणित चाहिए होगा, तर्क चाहिए होगा। प्रेम का तो कोई
उपयोग नहीं है। प्रेम तो गुलाब का फूल है। सौंदर्य तो उसमें बहुत है, उपयोगिता कोई भी नहीं। प्रेम तो पूर्णिमा का चांद है, गीत गाओ, नाचो, उत्सव मनाओ,
पर बाजार में बेच थोड़े ही सकोगे! तिजोरी थोड़े ही भर सकोगे उससे!
समाज का सारा शिक्षण मस्तिष्क का है। और मस्तिष्क हृदय से ठीक उलटा
छोर है। और जो लोग मस्तिष्क में ही अटके रह जाते हैं, उनके जीवन में निश्चय ही उस परम प्यारे की कोई झलक नहीं आती। उनके जीवन
में परमात्मा की कोई छाया भी नहीं पड़ती। वे पड़ने ही नहीं दे सकते छाया। परमात्मा
का होना ही उनके लिए अप्रामाणिक होगा। परमात्मा बुद्धि के लिए है ही नहीं। लाख
प्रमाण जुटाओ, बुद्धि सब प्रमाणों का खंडन कर सकेगी।
परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है, अनुभव है। जिनको
अनुभव है, वे प्रमाण नहीं देंगे। राह सुझाएंगे, हाथ हाथ में ले लेंगे, कहेंगे--चल पड़ो हमारे साथ।
लेकिन बुद्धि कहती है: पहले रुको! पहले प्रमाणित हो बात, पहले
मुझे भरोसा आ जाए, तब मैं कदम बढ़ाऊं। ऐसी नासमझ नहीं हूं।
मुझे पागल न समझो। अंधी नहीं हूं। नगद मेरे हाथ में रखो तो मैं आगे बढूं।
लेकिन परमात्मा कोई वस्तु तो नहीं है कि हाथ में रख दी जाए। और न ही
परमात्मा कोई सिद्धांत है कि जिसे प्रमाणों से सिद्ध किया जाए। यह तो ऐसा ही है
जैसे आंख कहे कि संगीत सुनने तो मैं तभी चलूंगी जब मुझे प्रमाण पहले मिल जाए कि
संगीत होता है।
आंख को कैसे प्रमाण दो कि संगीत होता है? ज्यादा से ज्यादा आंख को तुम वीणा दिखा सकते हो। मगर वीणा थोड़े ही संगीत
है! आंख पूछेगी: संगीत कहां है?
कान को तुम प्रकाश नहीं दिखा सकते। इंद्रधनुष आकाश में छाया हो, कान को तुम उसकी प्रतीति नहीं करा सकते। कमल के फूल खिले हों, उनकी सुवास उड़ती हो, कान से तुम उस सुवास का संबंध
नहीं जुड़वा सकते। और कान अगर जिद्द करके बैठ जाए कि जब तक मेरे पास प्रमाण न हो तब
तक मैं कैसे मानूं कि सुगंध होती है, कि रंग होता है,
कि गंध होती है, कि प्रकाश होता है? तो मुश्किल हो जाएगी।
ऐसी ही मुश्किल हुई है। हृदय अनुभव करता है, बुद्धि प्रमाण मांगती है। हृदय के पास कोई प्रमाण नहीं है, बुद्धि के पास कोई अनुभव नहीं है। इन दो में से तुम किसे चुनोगे?
उपयोगी तो बुद्धि को चुनना है। अगर तिजोरी में धन इकट्ठा करना हो, तो प्रेम से धन पैदा नहीं होता। प्रेम कोई धन को पैदा करने की टकसाल नहीं
है। सच तो यह है कि पास हो तो शायद वह भी चला जाए। क्योंकि प्रेम में बांटने की
क्षमता है। प्रेम में देने का मजा है। प्रेम लुटाना जानता है। प्रेम इतना दीवाना
है कि लुटा सकता है और आनंदित हो सकता है। बुद्धि पकड़ती है, छोड़ती
नहीं; झपटती है, छीनती है, आक्रामक है, सब तरह की चालबाजियां करती है।
येन-केन-प्रकारेण बुद्धि धन इकट्ठा करेगी, पद लाएगी, प्रतिष्ठा लाएगी, महत्वाकांक्षाएं पूरी करेगी। इस
जिंदगी में जिन चीजों को लोग सफलताएं कहते हैं, वे सब बुद्धि
से मिलेंगी। इसलिए जो महत्वाकांक्षी है, वह प्रार्थना से
रिक्त रह जाता है। जो सफलता, इस संसार की सफलता के पीछे दौड़ा
हुआ है, उसका परमात्मा से कोई नाता नहीं जुड़ पाता। उसकी
भांवर उस परम प्यारे से नहीं पड़ती।
कृष्णतीर्थ, तुम पूछते हो: "क्या मेरे सूखे हृदय में भी...'
हृदय तो सूखा होता ही नहीं। यह तो बात ही संभव नहीं है। हृदय तो सदा
ही गीला है। हां, तुम हृदय को बचा कर निकल गए। तर्क सूखा है, तर्क बिलकुल सूखा है, उसमें कोई आर्द्रता नहीं है।
लेकिन तुमने मस्तिष्क को ही हृदय समझ लिया है। लोग तो प्रेम भी करते हैं तो वे
कहते हैं कि मैं विचार करता हूं कि मुझे प्रेम हो गया है। मेरे पास लोग आकर कहते
हैं कि मुझे विचार उठ रहा है कि मुझे प्रेम हो गया है।
विचार और प्रेम! लोग तो अब विचार से भी प्रेम कर रहे हैं। विचार से
कोई रास्ता ही प्रेम की तरफ नहीं जाता। विचार का अतिक्रमण करना होता है। विचार के
कूड़े-करकट को एक तरफ सरका कर रख देना होता है। इसीलिए तो विचार प्रेम को अंधा कहता
है, प्रेम को पागल कहता है।
अगर विचार की सुनोगे, होशियार रहोगे, तो जरूर उस परम प्यारे से चूक जाओगे। यह बात बड़ी विडंबना की है कि इस जगत
में बुद्धि सफल होती है, प्रेम हारता है। उस जगत में प्रेम
सफल होता है, बुद्धि हारती है।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है, खूब सम्हाल कर जितने
गहरे ले जा सको अपने भीतर ले जाना।
जीसस ने कहा है: जो इस जगत में प्रथम हैं, मेरे परमात्मा के राज्य में अंतिम होंगे; और जो यहां
अंतिम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे।
अर्थ समझे? जो यहां सफल हैं, वहां असफल
हैं। जो यहां असफल हैं, वहां सफल हैं। यह बिलकुल अलग ही गणित
है। ये दो अलग दुनियाएं हैं, ये अलग आयाम हैं।
मस्तिष्क से थोड़े नीचे उतरो, कृष्णतीर्थ! सोचो ही
सोचो मत, कुछ भावो भी। विचार ही विचार न करो, कुछ गुनगुनाओ भी। तर्क ही तर्क न बिठाओ, कुछ नाचो
भी। जब आकाश तारों से भर जाए तो नाचो। तारों के साथ नाचो। तारे नाच रहे हैं;
सारा अस्तित्व नाच रहा है। यह अस्तित्व रास है! इस रास में सम्मिलित
हो जाओ। और जब वीणा बजे, तो थिरकने दो पैरों को। और जब फूल
खिलें, तो छोड़ो सब तर्कजाल, थोड़ी देर
फूलों से गुफ्तगू करो, बातचीत करो, वार्तालाप
करो।
बुद्धि तो कहेगी, क्या पागलपन है? फूलों से बातचीत!
लेकिन जो आदमी फूलों से बातचीत नहीं कर सकता, वह परमात्मा से भी बातचीत न कर सकेगा। फूल तो कम से कम प्रकट हैं, फूल तो कम से कम सामने हैं। और जिस आदमी की आंखों में सौंदर्य नहीं भरता
और जिसके कानों में संगीत नहीं गूंजता और जिसके पैर कभी थिरक कर नाचने को आतुर
नहीं हो जाते और जो कभी जगत के अपूर्व रहस्यमय इस विस्तार को देख कर विमुग्ध नहीं
होता, रसलीन नहीं होता, अवाक नहीं होता;
जिसे इस जगत का काव्य नहीं छूता है, वह अभागा
है!
तुम इस जगत के काव्य को तुम्हें छूने दो। परमात्मा कुछ और नहीं है, इस जगत के भीतर छिपे हुए काव्य का ही दूसरा नाम है। परमात्मा कोई व्यक्ति
नहीं है, इस जगत के भीतर पोर-पोर समाए हुए सौंदर्य की
अनुभूति है। परमात्मा मंदिरों और मस्जिदों में नहीं है, चांदत्तारों
में है, सागरों-पहाड़ों में है, लोगों
की आंखों में है, पक्षियों के पंखों में है, फूलों की पंखुरियों में है, उड़ती तितलियों में है।
अगर तुम मंदिर-मस्जिद के परमात्मा की बात कर रहे हो, तो तुम गलत आदमी के पास आ गए! मैं तुम्हें मंदिर-मस्जिद का परमात्मा नहीं
दे सकता। वह तो है ही मस्तिष्क का जाल। वह तो बुद्धि का ही खेल है। वह जो
मंदिर-मंदिर में विराजमान है, वह तो बुद्धि का ही निर्माण
है। और बुद्धि परमात्मा का निर्माण करे, तो परमात्मा झूठा
होगा। परमात्मा तो वह है जिसने हमारा निर्माण किया है। और मजा देखते हो, हम उसका निर्माण कर रहे हैं! बना लिए गणेश जी, निकाल
लिया जुलूस, करने लगे शोरगुल--बना भी लिए, फिर सिरा भी दिए। कैसे-कैसे खेल हैं!
छोटे बच्चे गुड्डे-गुड्डियों का विवाह कराते हैं और तुमने रामलीला रचा
ली। राम-सीता का विवाह हो रहा है, सारा गांव सम्मिलित है। छोटे
बच्चों के खेल में और तुम्हारे खेल में कोई गुणात्मक भेद नहीं है, मात्रा का भला हो। उनके गुड्डे-गुड्डियां छोटे हैं, तुम्हारे
गुड्डे-गुड्डियां बड़े हैं, बस इतना ही फर्क है।
मंदिर-मस्जिद में मत जाना उसे खोजने! हां, तुम्हें वह परमात्मा और सब जगह दिखाई पड़ने लगे, तो
मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि मंदिर-मस्जिद में दिखाई नहीं पड़ेगा। और सब जगह दिखाई
पड़ने लगे, तो मंदिर-मस्जिद में भी दिखाई पड़ेगा। लेकिन इससे
उलटा नहीं होगा कि मंदिर-मस्जिद में पहले दिखाई पड़े और फिर सब जगह दिखाई पड़े।
वृक्ष में जिंदा है! मंदिर की मूर्ति तुम्हारा ही गढ़ा हुआ पत्थर है। वृक्ष में हरा
है, अभी खिल रहा है, फूल बन रहा है।
जीवंत से संपर्क जोड़ो, परमात्मा के सिद्धांत छोड़ो। न गीता
में टटोलो, न कुरान में, न बाइबिल में।
और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि गीता, कुरान और बाइबिल में कुछ
भी नहीं है। बहुत कुछ है! लेकिन पहले जिंदा परमात्मा से संबंधित हो जाओ तो गीता भी
जिंदा हो जाएगी। और तब कुरान भी सिर्फ किताब न रह जाएगी, तुम्हारा
अनुभव कुरान को भी जीवंत कर देगा। मगर तुम्हारा अनुभव प्राथमिक है।
और परमात्मा पर शर्तें मत लगाओ! ऐसा मत कहना कि तू पहले मुझे मिले, तब मैं तुझे अनुभव करूं; तू पहले सामने आए, तो मैं तुझे देखूं। परमात्मा पर शर्तें मत लगाना! परमात्मा की तरफ केवल वे
ही लोग चल सकते हैं जो बेशर्त चल सकते हैं। परमात्मा तो है ही, मौजूद ही है। गैर-मौजूद कब था? गैर-मौजूद हो कैसे
सकता है? जो गैर-मौजूद नहीं हो सकता, उसी
का नाम परमात्मा है। उस पर शर्तें मत बांधो! अपने हृदय को खोलो, बेशर्त खोलो! उघाड़ो अपने को। और तुम चकित हो जाओगे! लेकिन हम शर्तें
बांधते हैं।
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
छवि के, रस के मृदु गीत रचूं!
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
छवि के, रस के मृदु गीत रचूं!
बगिया के सुरभित कुसुमों के,
रस लेते फिरते भ्रमरों के,
घन-पट कजरारे उलट-उलट,
मुस्काती, हंसती चपला के,
सरिता की चंचल लहरों के,
मुख चुंबन करती किरणों के,
सुमनों पर तुहिन-बिंदुओं में,
नर्तन करती सी किरणों के!
नैसर्गिक छवि के गीत रचूं,
चिर-नूतन छवि के गीत रचूं!
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
छवि के, रस के मृदु गीत रचूं!
मानव के, जीवन के, जग के,
मन के, अंतर-व्यापारों के,
गोचर के और अगोचर के,
नश्वर के और अनश्वर के,
वसुधा के नाना रूपों के,
त्रिभुवन के नाना भेदों के,
आगत के, गत के, प्रस्तुत के,
भव के, दुर्दांत पराभव के!
चिर सत्य, तत्व के भेदों के,
बहुरंगी नूतन गीत रचूं!
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
छवि के, रस के मृदु गीत रचूं!
छवि मदिर अगोचर, गोचर जो,
परिव्याप्त चतुर्दिक कण-कण में,
बांधूं शब्दों में, छंदों में,
रूपक, उपमा, उपमानों में!
मैं शब्द रचूं, तुम स्वर भर दो,
जड़ शब्दों में जीवन भर दो,
स्वर में प्राणों का रस भर दो,
तुम मेरे गीत अमर कर दो!
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
नव रस के रसमय गीत रचूं!
यह रूखा-फीका जीवनक्रम,
विश्रांत, क्लांत यह जीवनक्रम,
अविरत चलता रहता यह क्रम,
दुःसाध्य-प्राय इसका व्यतिक्रम!
संगीत, गीत के परिणय से,
शब्दों से स्वर के परिणय से,
हम नूतन छवि-संसार रचें,
नव रसमय रस-संसार रचें!
तुम गाओ, तो मैं गीत रचूं,
छवि के, रस के मृदु गीत रचूं!
ऐसी शर्त बांधी परमात्मा पर, कि तुम पहले गाओ तो
मैं गीत रचूंगा, तो न तो वह कभी गाएगा, न तुम कभी गीत रच सकोगे। तुम तो गीत रचो, वह सदा
गाता है। तुम तो बांसुरी बनो, वह सदा गाता है। तुम तो हृदय
की वीणा को सामने रखो और उसकी अंगुलियां तुम्हारे तारों को छेड़ जाएंगी--छेड़ ही
जाती रही हैं, यह उसका सदा का नियम है।
मत कहो कि क्या मेरे सूखे हृदय में उस परम प्यारे की अभीप्सा का जन्म
होगा? जन्म हो ही चुका है, इसीलिए
तुमने प्रश्न पूछा है। उसे तुम परम प्यारा कह सक रहे हो, तो
कहीं न कहीं बीज पड़ ही गया है। यह पूछना भी, क्या उसकी
अभीप्सा पैदा होगी, अभीप्सा पैदा होने का लक्षण है। कहीं
प्यास सुगबुगाने लगी है। शायद अचेतन में होगी अभी, भीतर गहरे
में होगी अभी, मन की ऊपरी सतहों तक खबर न आई हो। खबर आने में
समय लगता है। बीज जमीन में पड़ जाता है, टूट जाता है, फूट जाता है, अंकुरित होने लगता है, भूमि के ऊपर आते-आते समय लगता है।
तुम्हारे भीतर, कृष्णतीर्थ, उसे पाने की
आकांक्षा तो पैदा हो ही गई। अन्यथा तुम यहां न होते; अन्यथा
तुम संन्यासी न होते; अन्यथा यह प्रश्न न उठता। लेकिन कहीं
तुम्हारे मन में एक भ्रांति है, वह भ्रांति छोड़ दो, मस्तिष्क हृदय नहीं है। सोच-विचार को ज्यादा महिमा न दो, ज्यादा मूल्य न दो। भाव को! और भाव बड़ी और बात है। सुबह सूरज निकले और तुम
किसी से कहो, अहा! कितनी सुंदर सुबह! कैसा प्यारा सूरज!
पक्षियों के गीत! यह नई-नई सुबह उतरती हुई! ये आकाश में फैले हुए रंग! ये सूरज की
किरणें, वृक्षों के पत्तों पर अटकी शबनम की बूंदों में
चमकती! कैसी सुंदर सुबह है! कैसा प्यारा प्रभात! और अगर कोई कहे: सिद्ध करो,
सौंदर्य क्या है? सौंदर्य की परिभाषा क्या है?
तुम्हारा सुंदर कहने से प्रयोजन क्या है? तब
तुम क्या करोगे? तुम एकदम हारे-हारे रह जाओगे।
ऐसे ही तो संत हारे-हारे रह गए हैं। जानते हैं, देखते हैं, पहचानते हैं, अनुभव
करते हैं, पीते हैं, मगर गूंगे का गुड़!
कह नहीं पाते। और तुम जो प्रश्न पूछते हो, बड़े सार्थक मालूम
पड़ते हैं। सौंदर्य क्या? प्रश्न तो सार्थक मालूम पड़ता है,
सार्थक है नहीं। अब तक कोई उत्तर नहीं दे सका कि सौंदर्य क्या?
सौंदर्य का अनुभव किया, अनंत-अनंत लोगों ने
किया। सौंदर्य के अनुभव को लोगों ने तूलिका उठा कर चित्र बनाए; सौंदर्य के अनुभव से लोगों ने शब्द जमाए, गीत उठाए;
सौंदर्य के अनुभव से लोगों ने मृदंग बजाई, नाचे;
मगर कह तो कोई भी न सका कि सौंदर्य की परिभाषा क्या है!
जब सौंदर्य की ही परिभाषा नहीं होती, तो उस परम सौंदर्य की
क्या परिभाषा होगी?
तुम किसी युवती के प्रेम में पड़ गए, कि किसी पुरुष के
प्रेम में पड़ गए। और कोई पूछे कि प्रेम क्या? तुम्हारा हृदय
तो झर-झर बहा जा रहा है, तुम्हारे रोएं-रोएं में पुलक है,
तुम्हारी आंखों में चमक है, तुम्हारे चेहरे पर
भाव कुछ और, जो कभी भी न था; तुम
नहाए-नहाए, एकदम ताजे हो; तुम्हारे
जीवन में पहली दफा त्वरा है, गति है, आनंद
है, उत्सव है। मगर कोई पूछता है: प्रेम क्या? और तुम ठिठक जाओगे, और उत्तर न दे पाओगे।
जब प्रेम की ही परिभाषा नहीं होती तो उस परम प्रेम की कैसे परिभाषा
होगी? और जब साधारण प्रेमियों के संबंध में हम कुछ नहीं कह
पाते...तुमने जिस स्त्री को चाहा है, अगर कोई उसके संबंध में
प्रश्न उठाने लगे, तुम कोई उत्तर न दे पाओगे। तुम लाख समझाओ
कि सुंदर है, लेकिन अगर कोई कहे: नहीं, तो तुम क्या करोगे?
मजनू को उसके गांव के राजा ने बुला भेजा था। दया आ गई होगी; रोता फिरता था गली-कूचे। गली-कूचे, दिन और रात
चिल्लाता रहता था: लैला! लैला! सारा गांव दया करने लगा था कि यह भी खूब पागल हुआ!
राजा ने उसे बुला भेजा और कहा, तुझ पर मुझे दया आती है। और
तेरा लैला का यह गुणगान सुनते-सुनते मेरे मन तक में वासना जगी कि देखूं, यह लैला जरूर सुंदर होगी, बहुत सुंदर होगी, तभी तो तू इतना पागल हुआ है! तो कल मैं तेरी लैला को देखने भी गया। और तू
बिलकुल पागल है, उस स्त्री में कुछ भी नहीं। साधारण सी औरत
है। तुझ पर मुझे दया आती है, तेरे आंसुओं पर दया आती है। तो
मैंने अपने राजमहल की बारह सुंदरियां बुलवाई हैं, इनमें से
तू कोई भी चुन ले। और राजमहल में निश्चित ही उस देश की सबसे बड़ी सुंदरियां थीं।
कतार लगवा दी उसने, बारह सुंदरतम स्त्रियां खड़ी करवा दीं और
मजनू से कहा, चुन ले।
मजनू एक-एक के पास गया और इनकार करता गया। और जब बारह को ही इनकार कर
दिया, तो उस राजा ने कहा, तू होश में
है? इनसे सुंदर स्त्रियां तूने कहीं देखी हैं? और लैला में क्या रखा है इनके सामने?
मजनू हंसने लगा। उसने कहा, मालिक, आप न समझोगे। लैला को देखना हो, तो मेरी आंख चाहिए।
मेरी बिना आंख के आप लैला को न देख सकोगे। और इनमें कोई भी लैला नहीं है। लैला तो
दूर, लैला के चरणों की धूल भी कोई नहीं है।
मजनू सिद्ध नहीं कर सकता। इतना ही कह सकता है कि मेरी आंख से देखो।
मगर दूसरे की आंख से देखा कैसे जा सकता है? मैं अपनी आंख तुम्हें नहीं दे सकता। दे भी दूं तो तुम तक पहुंचते-पहुंचते
वे आंखें देखने में असमर्थ हो जाएंगी। तुम्हें बुला कर अपनी आंख से दिखला भी नहीं
सकता। रोज तुम्हें बुलाता तो हूं कि मेरी आंख से देखो! यह जो तुमसे बोल रहा हूं,
और क्या कर रहा हूं--कि मेरी आंख से देखो। मगर कोई उपाय नहीं।
हां, मेरे बोलने से इतना ही हो सकता है कि शायद तुम्हें
मेरी तड़प समझ में आ जाए; शायद तुम्हें इतनी बात समझ में आ
जाए कि यह आदमी रोज बोले जाता, रोज बोले जाता, कुछ न कुछ होगा, कुछ न कुछ बात होगी, कहीं न कहीं, कोई न कोई अनुभव होगा; चलूं, मैं भी तलाशूं! और जाना कहीं और नहीं है,
जाना अपने हृदय में है। उतरो सिर से और जहां हृदय की धड़कन है,
वहां आओ; वहां तुम्हारे जीवन का वास्तविक
केंद्र है।
आज भी जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है, तो तुम हृदय पर हाथ रखते हो, सिर पर हाथ नहीं रखते।
अगर कोई आदमी कहे कि मेरा फलां से प्रेम हो गया है और सिर पर हाथ रखे, तो तुम कहोगे: प्रेम टूट गया या हो गया? मामला क्या
है? सिर पर तो लोग हाथ तब रखते हैं जब टूट जाता है। प्रेम जब
हो जाता है तो तुम हृदय पर हाथ रखते हो। और वह भी हृदय पर एक खास जगह हाथ रखते हो।
वही जगह है जहां जीवन का केंद्र छिपा है, जहां प्राणों का
प्राण स्पंदित हो रहा है। वहां गंगोत्री है। कितनी ही चट्टानों में दबी हो,
चट्टानें हटाई जा सकती हैं। चट्टानें मस्तिष्क की हैं।
हटाओ चट्टानों को! परमात्मा पर शर्तें मत लगाओ! प्रमाण मत मांगो! उसका
कोई प्रमाण नहीं है। यद्यपि वही मौजूद है। आंख खोलो, थोड़े भावप्रवण होओ,
थोड़ी भावुकता लाओ, थोड़ी संवेदना जगाओ, वृक्षों को गले मिलो, फूलों को चूमो, तारों के साथ आंखें जोड़ो, आंखें मिलाओ--और धीरे-धीरे
जीवन का काव्य तुम्हारे हृदय को तरंगित करेगा। और एक बार तुम्हारा हृदय तरंगित
होना शुरू हो जाए, तो तुम जानोगे कि परमात्मा है और केवल
परमात्मा है, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।
दूसरा प्रश्न: आप वर्षों से बोल रहे हैं। रोज
बोलते हैं। सुबह बोलते हैं, सांझ बोलते हैं। फिर
भी आप जो कहते हैं वह सदा नया लगता है। इसका राज क्या है?
मैं तो एक ही बात बोल रहा हूं। सुबह भी वही, सांझ भी वही। कल भी वही बोला था, आज भी वही बोल रहा
हूं, कल भी वही बोलूंगा। लेकिन जो मैं बोल रहा हूं, वह मेरा निज अनुभव है, वह मेरी प्रतीति है, वह मेरी अनुभूति है। इसलिए लाख बार बोलूं तो भी बासी नहीं पड़ेगी। उसमें
मेरी सांसें होंगी, उसमें मेरे हृदय की धड़कन होगी। और जो भी
राजी हैं सुनने को, उन्हें उसमें रोज-रोज ताजगी मिलेगी। कल
भी यही सूरज निकला था, और परसों भी यही सूरज निकला था,
और आज भी यही सूरज निकला है। लेकिन जरा सुबह उठ कर देखा था--कितना
ताजा था! कल भी यही वृक्ष थे, आज भी यही वृक्ष हैं, कल भी यही वृक्ष होंगे--कितने ताजे हैं! इनकी ताजगी का राज क्या है?
इनके नयेपन का राज क्या है? इनके नयेपन का एक
ही राज है कि ये जिंदा हैं।
तुम कुरान को रोज बैठ कर पढ़ोगे, आज नहीं कल बासी हो
जाएगी। तुम्हारा अनुभव नहीं है। शब्द तोतों जैसे रट जाएंगे। एक आदमी बैठा राम-राम,
राम-राम जपता रहता है, भीतर हजार विचार चलते
रहते हैं। राम-राम यांत्रिक हो गया है। तुम उसका राम-राम, राम-राम
सुनोगे तो नींद आएगी, ऊब आएगी, जम्हाई
आएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने एक दिन पूछा कि नसरुद्दीन, तुम जम्हाई बड़ी गजब की लेते हो! बहुत जम्हाई लेने वाले देखे, मगर अगर कोई ओलंपिक हो जम्हाई का, तो तुम जीतोगे। यह
तुमने कहां सीखी? उसने कहा, आप जानते
हैं मेरी चार पत्नियां हैं, मैं मुसलमान हूं। मुंह खोलने का
और कोई मौका ही नहीं मिलता। तो बस जम्हाई ही एक स्वतंत्रता बची।
तुम देखोगे, मंदिरों में, मस्जिदों में लोग
सो रहे हैं, लोग नींद ले रहे हैं। न मालूम कितने चिकित्सक
हैं जो अपने मरीजों को, जिनको नींद नहीं आती, उनको कहते हैं, धर्मसभाओं में जाओ, वहां आ जाएगी। वहां न आए तो फिर कोई शामक दवा काम नहीं कर सकती।
जहां-जहां तोतों की तरह, यंत्रवत कुछ बातें
दोहराई जाएंगी, वहां ताजगी नहीं हो सकती। लेकिन जहां अनुभव
सहज बह रहा हो, वहां ताजगी होगी। तुम गंगा की एक तस्वीर अपने
घर में टांग लो, वह ताजी नहीं होगी; वह
बासी होने लगी, रोज-रोज बासी होने लगेगी। लेकिन गंगा,
जिसकी तुमने तस्वीर उतारी है, वह कभी बासी
नहीं होती। गंगा रोज नई है। रोज नये ढंग, रोज नये भाव,
रोज नई भंगिमा। तुम गंगा के किनारे रोज जाओ और तुम चकित होओगे--वही
गंगा, फिर भी वही नहीं!
हेराक्लतु ने कहा है: एक ही नदी में दुबारा न उतर सकोगे। क्योंकि नदी
रोज भागी जा रही है। और मैं तो तुमसे कहता हूं: एक ही नदी में एक बार भी उतरना
मुश्किल है। क्योंकि जितनी देर में तुम उतरे, उतनी देर में नदी
भागी जा रही है। तुमने नदी में पैर डाला, पानी को पैर ने छुआ,
तब नदी भागी जा रही है। जिस पानी को तुम्हारे पैर ने छुआ था,
वह भाग गया, वह जा चुका सागर की तरफ। तुम्हारा
पैर पानी में डूबा, दूसरा पानी भी भागा जा रहा है। और जरा
नीचे डूबा, वह भी भागा जा रहा है। जब तक तुम नदी की तलहटी
में पैर को टिकाओगे, तब तक कितना जल बह गया! प्रतिपल नई है।
तस्वीरें नई नहीं होती।
मोहम्मद जब बोलते होंगे तो हर रोज ताजा रहा होगा। कुरान ताजा नहीं हो
सकता। कुरान तस्वीर है। कृष्ण ने जब बोला होगा अर्जुन से तो एक-एक शब्द ताजा रहा
होगा, सुबह की ओस जैसा ताजा रहा होगा, रात के तारों जैसा ताजा रहा होगा। लेकिन गीता ताजी नहीं हो सकती। गीता तो
तस्वीर है। तस्वीरें ताजी नहीं होतीं, तस्वीरें तो मुर्दा
हैं। तस्वीरों में कहां जिंदगी? जिंदगी तो बढ़ती जाती है,
बदलती जाती है। तस्वीरें वही की वही रह जाती हैं।
एक मां अपने बेटे को परिवार का एलबम दिखा रही थी। एक सुंदर जवान, सुंदर सूट-बूट, टाई, जुल्फें
सम्हाले हुए तस्वीर में दिखाई पड़ा। उस बेटे ने पूछा, यह कौन
है? उसकी मां ने कहा, अरे, पहचानते नहीं? ये तुम्हारे पापा हैं। उस बेटे ने कहा,
ये मेरे पापा हैं? तो अपने घर में जो गंजा
आदमी रहता है, वह कौन है?
तस्वीरें तो रुक जाती हैं, एक जगह ठहर जाती हैं।
तस्वीरें गंजी नहीं होंगी। तस्वीरें जहां हैं वहां हैं। जिंदगी नहीं रुकती। जिंदगी
बहती चली जाती हैं। जिंदगी गंगा है। जिंदगी गंगा की तस्वीर नहीं है।
मुझे पता नहीं मैंने तुमसे कल क्या कहा था और परसों क्या कहा था। मुझे
तो बस उतना ही पता है जो मैं तुमसे अभी कह रहा हूं। हालांकि वह एक ही होगा, क्योंकि मैं एक के ही गीत गा रहा हूं। अनेक की तो बात ही नहीं हो रही है।
शायद नये पहलू होंगे, शायद नये कोण होंगे, शायद नये शब्द होंगे। मगर जो मैं कह रहा हूं, संदेश
तो एक ही है।
तुम पूछते हो: "आप वर्षों से बोल रहे हैं। रोज बोलते हैं। सुबह
बोलते हैं, सांझ बोलते हैं। फिर भी आप जो कहते हैं वह सदा नया
लगता है। इसका राज क्या है?'
राज कुछ भी नहीं है। सीधी-सादी बात है। मैं वही बोलता हूं जो मेरी
प्रतीति है। मैं कोई पंडित नहीं हूं। पंडित तो पोपट होते हैं। पंडित तो तोते होते
हैं। मैं कोई पंडित नहीं हूं। मैं तो सीधा-सादा उतना ही कह रहा हूं जितना मुझे
दिखाई पड़ता है। उसे कितना ही कहूं, कह नहीं पाता हूं,
इसीलिए रोज-रोज कहना पड़ता है। और जब तक जीऊंगा, कहता रहूंगा। कहना पड़ेगा। चुप भी रहूंगा तो भी उसी की तरफ इशारा होगा मेरी
चुप्पी में। बोलूंगा तो उसी की तरफ इशारा होगा। ऐसा कहूं कि वैसा कहूं, अनेक विरोधाभास तुम्हें मेरे वक्तव्यों में मिलेंगे, लेकिन सब तरफ से मैं उसी तरफ इशारा कर रहा हूं। कभी उत्तर से, कभी पूरब से, कभी पश्चिम से, लेकिन
मेरी अंगुली एक ही चांद की तरफ उठी हुई है।
राज कुछ भी नहीं! मैं कोई वक्ता नहीं हूं। मुझे बोलने की कोई कला नहीं
आती। यह कोई बोलने की शैली नहीं है। यह भी कोई ढंग है बोलने का जैसा मैं बोलता
हूं! बोलने का ढंग होता है राजनेताओं का।
सत्यप्रिया ने एक छोटा सा लतीफा भेजा है।
एक बार एक नये-नये नेता बुधसिंह जी चुनाव में खड़े हुए। उन्हें भाषणों
का अनुभव नहीं था। जब व्याख्यानों का दौर चला तो उनके हमनुमा, उनके साथी नेता ने कहा कि आप भी कुछ बोलें, जो भी
हृदय में उठे। उन्होंने कहा, भाई, बोलना
तो मुझे आता नहीं; कोई अनुभव नहीं है पुराना। मित्र बोले,
नेता का बोलना तो बहुत सरल है। बस बात में से बात निकालते जाना है।
तो वे नये नेता जो बोले, वह यह है--
भाइयो और बहनो, न तो मैं स्पीकर हूं, न
लाउडस्पीकर। स्पीकर हमारे मोहल्ले के कल्लन मियां हुआ करते थे, जो कि आजकल कब्र में हैं। उनकी कब्र पर दो तरह के फूल चढ़ाए गए। एक तो
गेंदे का और एक गुलाब का। और जैसा कि आप जानते हैं, गुलाब से
गुलकंद बनता है। और गुलकंद ही सारी बीमारियों की जड़ है। और आपको यह मालूम ही होगा
कि जड़ों में सबसे अधिक लंबी जड़ें खरबूजे की होती हैं। और यह भी सभी को मालूम है कि
एक खरबूजे को देख कर दूसरा खरबूजा रंग बदलता है। और रंग जर्मनी के बहुत प्रसिद्ध
हैं। और जर्मनी में ही हिटलर हुआ था, जिसने सेकेंड
वर्ल्ड-वार लड़ा था। और वार कई तरह के होते हैं, जैसे सोमवार,
मंगलवार, बुधवार। और मैं बुधसिंह हूं। अतः वोट
मुझे ही दें।
यह बात में से बात निकालने की कला!
वक्ता तो राजनेता होते हैं। राज तो उनके होते हैं बोलने के। मैं कोई
वक्ता नहीं हूं, कोई राज नहीं है बोलने का। एक गीत जन्मा है भीतर,
जो फैल जाना चाहता है। वैसे ही अपरिहार्य ढंग से जैसे तुम शांत झील
में एक कंकड़ फेंक दो--और लहर उठे, और लहरें उठें, और चलें दूर-दूर किनारों को छूने के लिए, अपरिहार्य।
वैसे ही जैसे पक्षी सुबह गीत गाते हैं, क्योंकि सूरज
ऊगा--उसके स्वागत का गान करना होता है। तुम उनसे राज पूछो, तो
पक्षी बड़े चौंकेंगे। वैसे ही जैसे फूल खिलते हैं। और तुम उनसे राज पूछो कि खिलने
का राज क्या है? तो फूल भी बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे, उत्तर न दे सकेंगे।
मेरा भी कोई राज नहीं है। न बोलने में मेरे कोई ढंग है, न कोई तुक है, न कोई शैली है। लेकिन जो मेरे हृदय
में है, वह उंडेल देता हूं। और जो भी अपने हृदय में उसे
झेलने को राजी हैं, वे उससे आंदोलित होंगे। उन्हें आंदोलित
होना ही पड़ेगा। हां, जो बिलकुल बंद बैठे हैं, दीवालें, लोहे की दीवालों के पीछे छिपे बैठे हैं--और
तर्कों की दीवालें लोहे की दीवालों से भी ज्यादा मजबूत हैं। और जो अपने मस्तिष्क
के कठघरे में बंद हैं, और जो अपनी धारणाओं को जरा सी देर के
लिए भी हटा कर नहीं रख सकते, जो खिड़की खोल कर नहीं देख सकते कि
सुबह हो गई या नहीं, जो पर्दा नहीं हटा सकते कि चांद निकल
आया या नहीं, वे मेरी बात को समझ ही न सकेंगे, सुन ही न सकेंगे। कान उनके सुन लेंगे, लेकिन हृदय तक
बात नहीं पहुंची तो सुनी नहीं गई। सुनता हृदय है। जब कान हृदय से जुड़ता है,
तो श्रावक का जन्म होता है, सुनने वाले का
जन्म होता है। और सम्यक श्रवण हो, तो मेरी बात तुम्हें रोज
ताजी लगेगी। यद्यपि वह उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन यह जगत। मैं वही कह रहा
हूं जो वेद के ऋषियों ने कहा था। वही जो बाइबिल में है, और
वही जो कुरान में है, और गीता में, और
धम्मपद में। मेरी बात उतनी ही पुरानी है जितना यह अस्तित्व। और मेरी बात उतनी ही
नई है जितनी आज की सुबह की ओस। यही परमात्मा का विरोधाभास है--सनातन और चिरनूतन!
लेकिन समझ तुम मेरी बात को तभी सकोगे जब समझ को एक तरफ रख दोगे। एक
समझ है जो समझ नहीं। और एक ऐसी नासमझी है जो समझ है।
पश्चिम के एक बहुत बड़े अदभुत फकीर तर्तूलियन का प्रसिद्ध वचन है कि
दुनिया में एक ज्ञान है जो अज्ञान से बदतर। दुनिया में ऐसा ज्ञान है जो जानता ही
नहीं, जान ही नहीं सकता। उसको ही मैं पंडित का ज्ञान कहता
हूं। और तर्तूलियन ने यह भी कहा है, दुनिया में एक ऐसा अज्ञान
भी है जो जानता है। एक ऐसा अज्ञान, जो सारे ज्ञानों से ऊपर
है।
जब मैं हृदय की बात कह रहा हूं तो उसी अज्ञान की बात कह रहा हूं। जैसे
छोटे बच्चे अज्ञानी होते हैं--निर्दोष, सरल, दर्पण की भांति कोरे; अभी कोई धूल नहीं जमी। ऐसे तुम
मुझे समझोगे तो समझते-समझते ही रूपांतरित हो जाओगे, सुनते-सुनते
ही क्रांति हो जाएगी। यहां मेरे पास बैठते-बैठते-बैठते तुम एक दिन अचानक पाओगे:
तुम रंग गए हो किसी और ही रंग में, जिसकी तुमने कभी कल्पना
भी नहीं की थी और जिसका तुमने कभी सपना भी नहीं देखा था।
लेकिन अगर तुम अपनी धारणाएं लेकर आते हो--अपनी समझदारियां, अपनी चालाकियां, अपने तर्क, अपने
सिद्धांत, अपने शास्त्र--तो फिर बड़ा मुश्किल है! मैं तुम तक
पहुंच ही नहीं पाता। लाख उपाय करता हूं, टटोलता हूं तुम्हारे
हृदय तक जाने के लिए, मगर द्वार नहीं मिलता, मार्ग नहीं मिलता। फिर मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ
समझोगे। और तुम जो समझोगे, जाकर बाहर प्रचार करोगे कि मैंने
कहा है। वह तुम्हारी समझ है!
पति ने पत्नी को
पास बुलाया
प्यार करते हुए
प्यार का अर्थ समझाया--
"यूं तो प्यार
एक शोला है
आग है
धुआं है
चिंगारी है,
फिर भी प्यार की तड़प
कितनी मीठी है,
कितनी प्यारी है।'
पत्नी बोली--
"सीधी तरह क्यों नहीं कहते
प्यार एक अंगीठी है।'
पति होंगे कवि। तो कवि कह रहा है--
पति ने पत्नी को
पास बुलाया
प्यार करते हुए
प्यार का अर्थ समझाया--
"यूं तो प्यार
एक शोला है
आग है
धुआं है
चिंगारी है,
फिर भी प्यार की तड़प
कितनी मीठी है।'
पत्नी बोली--
"सीधी तरह क्यों नहीं कहते
प्यार एक अंगीठी है।'
पत्नी की अपनी समझ है। जहां आग, शोला, धुआं, चिनगारी की बात चल रही हो, नाहक इतना लंबा बढ़ाना बात को, अंगीठी कह दो, बात खतम हो गई! तुम अगर अपनी ही धारणाओं से समझोगे, तो
मैं कहूंगा शोला, मैं कहूंगा चिंगारी, मैं
कहूंगा आग, तुम समझोगे अंगीठी। प्यार अंगीठी नहीं है। शोला
जरूर है, चिंगारी भी है, धुआं भी है,
लपट है, ज्वाला है, मगर
अंगीठी नहीं है।
मैं जो कहता हूं, अगर तुम वही समझो, तो उसे तुम चिरातन, पुरातन, सदा
से चला आया, शाश्वत, ऐसा भी पाओगे और
ऐसा भी कि अभी-अभी जन्मा, नया-नया, ताजा,
सद्यःस्नात। लेकिन तुमने अगर अपनी धारणाओं से सुना, तो कठिनाई हो जाएगी। तब तुम अपनी धारणाओं का या तो समर्थन पाओगे या विरोध
पाओगे। दोनों हालत में चूक हो जाएगी। कुछ लोग सोचते हैं, मैंने
जो कहा उससे उनकी धारणाओं का समर्थन हुआ। कभी-कभी हो जाता होगा। वे प्रसन्न जाते
हैं, उनके अहंकार को तृप्ति मिली--कि हम जैसा मानते थे,
वह ठीक है। ठीक तो उन्हें मालूम ही है। उन्होंने मेरा और सहारा ले
लिया। उन्हें और थोड़े प्रमाण मिल गए अपने ठीक होने के। कुछ हैं, जिनको मेरी बात से चोट लग जाएगी, क्योंकि उनकी धारणा
टूटेगी। वे नाराज जाएंगे। वे कहेंगे कि मैं गलत हूं। वे तो ठीक हैं ही। इसलिए अगर
उनसे मैं मेल नहीं खाता तो मैं गलत हूं।
जो यह सोच कर गया कि मैं मेल खाया, इसलिए ठीक है,
जो यह सोच कर गया कि मैं मेल नहीं खाया, इसलिए
मैं गलत हूं, वे दोनों ही चूक गए। मेरे साथ गलत और ठीक का
तालमेल बिठाओ ही मत। इतनी जल्दी क्या है? संगीत सुनते हो तब
तुम यह थोड़े ही सोचते हो कि ठीक या गलत? अपने शास्त्र के
अनुसार या नहीं? संगीत सुनते हो तो आनंदित होते हो; लयबद्ध हो जाते हो, डोलने लगते हो। मुझे ऐसे सुनो
जैसे संगीत सुना जाता है--डोलो! उसी डोलने में मेरा हृदय और तुम्हारा हृदय एक सेतु
में बंध जाएंगे। एक पतला सा प्रीति का धागा मेरे हृदय को और तुम्हारे हृदय को बांध
देगा। मेरा शून्य और तुम्हारा शून्य करीब-करीब आ जाएगा। दो शून्यों के करीब आ जाने
का नाम सत्संग है। और जहां सत्संग है, वहां प्रतिदिन लगेगा
कि नया सूरज निकला, नये फूल खिले, नया
वसंत आया। ऐसा जैसा कि कभी नहीं आया था। और ऐसा जैसा कि अब फिर कभी नहीं आएगा।
सत्संग सौभाग्य है।
लेकिन ऐसा सौभाग्य इस पृथ्वी पर रोज-रोज कम होता चला गया है। लोग
सुनते हैं, श्रोता की तरह। सत्संग जरा और करीब आने की बात है।
मस्तिष्क से सुना, श्रोता; हृदय से
गुना, सत्संग। और मस्तिष्क में बड़ी दीवारें हैं--कोई हिंदू
है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई जैन है, कोई बौद्ध है, कोई कम्युनिस्ट है; कोई नास्तिक है, कोई आस्तिक है; कोई ऐसा मानता है, कोई वैसा मानता है। जानते तुम कुछ भी नहीं हो। जानते हो तो फिर मुझे कोई
अड़चन नहीं है। तुम अगर जान ही लिए हो तो फिर कोई चिंता की बात नहीं। फिर मुझे
सुनने की जरूरत भी नहीं है। फिर किसी को क्या सुनना है? जिसने
जान लिया, जान लिया। बात समाप्त हो गई। वह अपने घर आ गया;
यात्रा पूरी हो गई। तुम अगर जानते हो, तब तो
कोई अड़चन ही नहीं है। मगर जानते नहीं हो और मानते हो कि जानते हो, तो दीवाल खड़ी है।
दीवारें
आगे
पीछे
दाएं
बाएं
दीवारें
दीवारों के पीछे दीवारें
दीवारों के पीछे, पीछे, पीछे...
और, और, और...
दीवारें, दीवारें, दीवारें...
किसे पुकारें?
कब तक पुकारें??
बहुत बार ऐसा लगता है किसी व्यक्ति को देख कर--किसे पुकारें? कब तक पुकारें? और मैं तुम्हारी दीवालें नहीं हटा
सकता। तुमने बनाई हैं, तुम्हीं को हटाना होंगी। तुम उनके
मालिक हो। कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता। और तुम्हारी दीवालों को मैं तोड़ने वाला कौन?
और तुम्हारी दीवालें अगर तुम्हें प्यारी हैं, तो
मुबारक हों।
मगर दीवालों के भीतर तुम कैदी हो गए हो; तड़प रहे हो, निकलना चाहते हो, फड़फड़ा रहे हो; फिर भी निकलते नहीं, क्योंकि दीवालें तुमने बड़ी
मेहनत से बनाई हैं, जन्मों-जन्मों में बनाई हैं। कई बार रास्ते
पर आते-आते चूक जाते हो। कई बार चौराहे पर खड़े हो जाते हो और सोचते ही रहते हो कि
कहां जाऊं? अवसर बीत जाता है यही सोचते-सोचते!
जिंदगी का आईना
चटख गया है,
आस्था का उजाला
भटक गया है!
जगूं, उठूं, चलूं, बढूं
दिल का तकाजा है,
आशा पूछती है निराशा से
अब किधर का इरादा है?
बस इरादे ही पूछे जाते रहते हैं--अब कहां चले? कहां जाना है? क्यों जाना है? इस
दिशा को ही क्यों चुन रहे हो? और जो ऐसे ही सोच-विचार में
पड़ा रहा, पड़ा रहा, वह जन्मों-जन्मों तक
सोचता-विचारता रहेगा, इंच भर बढ़ेगा नहीं, इंच भर बदलेगा नहीं। ऐसे ही तो बहुत से लोग पत्थर की तरह पड़े रह गए हैं।
जो गुलाब के फूल हो सकते थे वे पत्थर की तरह पड़े रह गए हैं। जरा चौंको, जरा होश सम्हालो, जरा गौर से देखो--तुमने कहीं अपने
हृदय को पत्थर की तरह ही तो छोड़ नहीं दिया है? इसमें बड़ी
संभावनाएं हैं। इसमें परम संभावना है। इसमें परमात्मा प्रकट हो सकता है।
तीसरा प्रश्न: मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता
हूं। और आपने कहा भी है कि यही आपका संदेश है। मैं इस महत कार्य का प्रारंभ कैसे
करूं?
जगदीश! रोशनी तुम्हें
मिल गई? रोशन तुम हो गए?
अगर रोशन तुम हो गए, तो यह प्रश्न नहीं पूछोगे।
क्योंकि जो रोशन हो जाता है, उसे पूछना नहीं पड़ता कि रोशनी
कैसे दिखाऊं। उससे रोशनी झरने लगती है। दीया जल जाए तो दीया यह थोड़े ही पूछता है
कि अब कमरे में रोशनी कैसे करूं? दीया जल गया कि रोशनी हो
गई। दीया जल गया कि रोशनी पड़ने लगी लोगों के रास्तों पर। दीया जल गया कि दूर
अंधेरों में भटके हुए लोगों की आंखों में भी दिखाई पड़ने लगेगा। दूर जंगल में जो
भटक गया है, उसको भी किसी के झोपड़े का दीया दिखाई पड़ जाता
है।
दीया जल गया तो रोशनी तो स्वभावतः झरती है। तुम यह पूछते ही नहीं।
दीया तो तुम्हारा जला नहीं है। हां, रोशनी दिखाने का मजा
तुम लेना चाहते हो! और इस तरह की भ्रांति इसलिए पैदा होती है, क्योंकि तुम्हारे तथाकथित साधु-संत तुम्हें यही समझाते रहे हैं: सेवा करो!
लोगों का कल्याण करो! परोपकार करो! और इतनी बार ये बातें कही गई हैं कि तुम यह भूल
ही गए कि अभी अपना ही उपकार नहीं हो सका तो परोपकार कैसे होगा? अभी अपनी ही सेवा नहीं हो सकी तो किसकी सेवा करोगे? अभी
खुद का दीया बुझा है, कैसे किसी दूसरे का दीया जलाओगे?
मगर लोग तुम्हें यही समझाते रहे हैं।
मैं तुमसे यह नहीं कहता। मैं तुम्हें परम स्वार्थ सिखाता हूं।
स्वार्थ शब्द मुझे बहुत प्यारा है! उसकी व्युत्पत्ति भी बड़ी अदभुत है।
स्वार्थ बनता है: स्व अर्थ से। जो स्वयं के अर्थ को साध ले। जो स्वयं के अभिप्राय
को पा ले। महावीर स्वार्थी हैं, बुद्ध स्वार्थी हैं, कृष्ण स्वार्थी हैं। और तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा तुम्हें बता रहे
हैं कि परोपकारी हो जाओ! परार्थी हो जाओ! हां, बुद्ध से
परार्थ हुआ, लेकिन वह गौण है बात। किया नहीं, हुआ। स्वार्थ साधा और परार्थ हुआ। अपना दीया जलाया, उससे
दूसरों को रोशनी मिली।
जगदीश, जैसा तुमने मुझसे पूछा है, ऐसे
ही एक दिन एक आदमी ने जाकर बुद्ध से भी पूछा था। बहुत बड़ा धनी था, करोड़पति था। कहते हैं इतना उसके पास धन था, अकूत,
कि बुद्ध को जिस बगीचे में उसने ठहराया था...बुद्ध को पसंद आ गया और
उन्होंने कहा कि इस बगीचे को तो विहार बना दो! कि जब भी भिक्षु यहां से गुजरें तो
ठहरें। तो उस धनपति ने कहा, लेकिन यह बगीचा मेरे एक मित्र का
है; खरीदना पड़ेगा। मित्र से पूछा। मित्र भी जिद्दी था;
बुद्ध-विरोधी था। दूसरे, उसने कहा कि अगर
खरीदना ही है तो मुंहमांगे दाम देने होंगे। धनपति बुद्ध के चरणों में चढ़ाना चाहता
था बगीचे को, तो उसने कहा कि मुंहमांगे दाम दूंगा; कितने दाम मांगते हो? जो दाम उसने मांगे, शायद किसी ने कभी नहीं मांगे होंगे। उसने कहा, स्वर्ण-अशर्फियों
से जमीन को पाट दो। जितनी जमीन पट जाएगी, उतनी तुम्हारी।
स्वर्ण-अशर्फियां बिछा दो, यह कीमत है। बड़ा बगीचा था। होगा
कोई तीन-चार सौ एकड़ का बगीचा। लेकिन उस धनपति ने वह तीन-चार सौ एकड़ वाला बगीचा
अशर्फियां बिछा कर खरीद लिया था। बुद्ध को दान दिया था। खूब था उसके पास, अकूत था उसके पास। बेटा भी नहीं, बच्चे भी नहीं।
उसने बुद्ध से पूछा कि मेरे पास धन बहुत है, मैं जगत के कल्याण में लगाऊं। क्या कल्याण करूं, आप
आज्ञा दें। और कहते हैं, बुद्ध की आंखें गीली हो गईं और वे
नीचे देखने लगे। उस आदमी ने पूछा कि आप उदास क्यों हो गए? और
आपकी आंखों में आंसू क्यों देखता हूं? बुद्ध की आंखों में
आंसू! और बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे लिए हैं ये आंसू। क्योंकि अभी तुम अपना ही कोई
कल्याण नहीं कर पाए, अपना ही कोई मंगल नहीं कर पाए, तुम कैसे किसी और का मंगल करोगे? तुम जाओगे दीया
जलाने, डर यही है कि किसी का जला हुआ दीया बुझा न देना।
और यही अक्सर मिशनरियों से हो जाता है। जले दीये बुझ जाते हैं।
चले!...
मेरे पास कभी-कभी मिशनरी आ जाते हैं ईसाई मिलने, कि हम लोगों को ईसा के रास्ते पर लगाने आए हैं।
मैं उनसे पूछता हूं, तुम लगे हो ईसा के रास्ते पर?
छाती पर हाथ रख कर, ईसा की कसम खा कर कहो!
डरते हैं, ईसा की कसम खा भी नहीं सकते। झूठी कसम खाएं, फिर ईसा पीछे कयामत के दिन...वह डर भी बैठा हुआ है, किताब
में पढ़ा हुआ है कि कयामत के दिन ईसा छांटेंगे--अपनी भेड़ें एक तरफ कर लेंगे और जो
अपनी भेड़े नहीं हैं, उनको डाल देंगे नरक में। तो कहीं झंझट न
हो! मैं कह देता उनको, कयामत का याद रखना कि अगर ईसा की झूठी
कसम खाई तो मुश्किल में पड़ोगे। और मैं भी मौजूद रहूंगा कयामत के दिन, गवाह रहूंगा कि यह आदमी कसम खाया था! तो वे कहते हैं कि नहीं, मुझे तो अभी अनुभव नहीं हुआ है। और तुम दूसरों को अनुभव कराने चले!
मैं बहुत वर्षों तक जबलपुर रहा। वहां भारत का एक बहुत विख्यात ईसाइयों
का विद्यापीठ है, जहां वे मिशनरी तैयार करते हैं।
मिशनरी भी तैयार किए जा सकते हैं? इनका भी कोई स्कूल हो
सकता है?
लेकिन हैं। ईसाइयों के स्कूल हैं सारी दुनिया में। यह जो जबलपुर में
है, लियोनर्ड थियोलॉजिकल कालेज, सारे भारत से ईसाई वहां
शिक्षा लेने आते हैं। छह वर्ष की शिक्षा के बाद वे योग्य हो जाते हैं कि अब दूसरों
को ईसाई बनाएं! उस कालेज के प्रिंसिपल मुझे कालेज दिखाने ले गए। मैं देखा तो दंग
हुआ। वहां हर चीज सिखाई जाती है। एक क्लास में सिखाया जा रहा था कि जब तुम बाइबिल
का पाठ करो और लोगों को समझाओ, तो किस शब्द पर हाथ ऊपर उठाना,
किस शब्द पर ठहर जाना, किस शब्द को जोर से
कहना, किस शब्द को धीमे कहना; किस तरह
की भावभंगिमा हो, आंखें कैसी हों, चेहरा
कैसा हो।
मैंने उस कालेज के प्रिंसिपल को लौटते वक्त कहा कि आपको मैं एक लतीफा
सुनाऊं?
उन्होंने कहा, लतीफा! क्यों?
मैंने कहा, आप सुनेंगे तो समझेंगे।
एक थियोलॉजिकल कालेज में अध्यापक समझा रहा था विद्यार्थियों को, जो कि सब मिशनरी हो जाने वाले थे जल्दी ही। उनका दीक्षांत समारोह करीब आ
रहा था। उनको समझा रहा था, आखिरी कुंजियां दे रहा था। तो
उसने कहा कि देखो, जहां-जहां जीसस कहते हैं: ईश्वर का राज्य,
वहां तुम्हारे चेहरे पर एकदम प्रसन्नता का भाव आ जाना चाहिए,
आंखें एकदम ज्योति से भर जानी चाहिए, ओंठ
मुस्कुराहट से; चेहरा एकदम फूल की तरह खिल जाए। ईश्वर का
राज्य! तो उसकी झलक तुम्हारे चेहरे पर होनी चाहिए। एक विद्यार्थी ने खड़े होकर पूछा,
और जब जीसस नरक की बात करते हैं, तब? तब उस पादरी ने कहा, तब तुम्हारा साधारण चेहरा ही
काम दे जाएगा। कुछ करने की जरूरत नहीं।
साधारण चेहरा तो नरक की खबर दे रहा है। और वह जो स्वर्ग की झलक देगा, वह झूठा होगा, अभिनय होगा।
ये तुम अभिनेता बना रहे हो, मैंने उनसे कहा। ये
लोगों को ईसाइयत में दीक्षित करेंगे? ये खुद झूठे हैं,
ये दूसरों को और बड़े झूठ के गर्त में ले जाएंगे। इनके जीवन में
ईश्वर का कोई अनुभव करवाओ! ये थोथी बातें सिखा कर तुम कागजी फूल पैदा कर रहे हो,
इनसे खुशबू नहीं आएगी। और ये कागजी फूल और कागजी फूल पैदा करेंगे,
वे और भी गए-बीते होंगे। और ऐसा सिलसिला चलता है झूठों का।
बुद्ध ने ठीक उस आदमी से कहा कि मुझे बहुत दया आती है। धन तेरे पास
बहुत है, मगर ध्यान कितना? और बिना ध्यान
के तू धन दे तो देगा, बांट तो देगा, लेकिन
तेरा अहंकार मजबूत होगा। तू कहेगा कि देख, हूं मैं भी कोई एक,
हजारों में एक, लाखों में एक! है कोई ऐसा
दानी!
बुद्ध ने कहा, मुझे भलीभांति याद है जब तूने यह बगीचा खरीदा था और
तूने इस पर स्वर्ण-मुद्राएं बिछाई थीं; और उसके बाद तू आया
था और तूने मेरे चरणों में इसे भेंट किया था। तब तेरे भीतर जो मैंने अहंकार देखा
था, जो भयंकर अहंकार की लपट देखी थी--कि है कोई और जो
स्वर्ण-अशर्फियां बिछा कर जमीन खरीदे! उस क्षण मुझे लगा था कि मैंने गलती की जो
तुझसे कहा कि यह बगीचा विहार बना दे! भूल हो गई। मैंने तेरा हित नहीं किया,
अहित किया। तेरा अहंकार बहुत प्रज्वलित हो गया था। अब तू दुनिया की
सेवा करना चाहता है। तू जानता है कि मौत आएगी, धन छिन जाएगा।
बच्चे हैं नहीं तेरे। चलो, सेवा ही कर लो! यह धन तो छिन
जाएगा, पुण्य का सिक्का साथ में लेकर जाएगा तो तू ईश्वर के
सामने भी अकड़ कर खड़ा होगा।
नहीं, मैं तुझसे यह न कह सकूंगा, बुद्ध
ने कहा, कि तू सेवा कर। पहले तो मैं तुझसे कहूंगा, ध्यान कर। पहले तू अपने भीतर की ज्योति जला!
यही मैं तुमसे भी कहता हूं, जगदीश!
तुम कहते हो: "मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं!'
क्यों? संसार ने कुछ तुम्हारा बिगाड़ा? अगर
लोग अपने अंधेरे में मजे से बैठे हैं, तो तुम क्यों रोशनी
दिखाओगे? अगर लोग अपने अंधेरे में मस्त हैं, तो किसी की मस्ती खराब करनी है? तुम लोगों को शांति से
अंधेरे में भी नहीं बैठने दोगे? अपना-अपना अंधेरा, अपनी-अपनी मौज। अगर कोई अंधेरे में रहना चाहता है, तो
यह उसका हक है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह उसकी स्वतंत्रता है। तुम कौन हो
रोशनी दिखाने वाले? यह तो ऐसा ही हुआ कि दो प्रेमी अंधेरे
में बैठे हैं और तुम पहुंच गए टार्च लेकर, कि हम रोशनी दिखा
रहे हैं! ऐसा मत करना। तुम कोई पुलिसवाले तो नहीं हो? कि
कहीं भी कोई दिखा कि पहुंचे टार्च लेकर।
तुम अपनी रोशनी जगाने की आकांक्षा से नहीं भरते!
अक्सर ऐसा हो जाता है। मुझे सुनते हैं लोग। मैं उनको कहता हूं, बहुत-बहुत कहता हूं ध्यान के गीत, ध्यान की महिमा।
तो उनके मन में ऐसा नहीं होता कि हम ध्यान करें; वे मेरे पास
आ जाते हैं और कहते हैं कि हम ध्यान का प्रचार कैसे करें?
यह तो ऐसी बात हुई कि एक दिन ऐसा हुआ कि एक गांव में एक महाकंजूस था।
उसने कभी किसी को दान नहीं दिया। कभी नहीं। किसी भिखमंगे को एक रोटी नहीं दी। वह
इतना प्रसिद्ध था कि अगर कोई भिखमंगा उसके द्वार पर भीख मांगता, तो दूसरे भिखमंगे समझ जाते कि यह भिखमंगा नया मालूम होता है, किसी दूसरे गांव से आया है। उसके दरवाजे को तो लोग छोड़ कर ही निकल जाते
थे। उससे तो कुछ मिल ही नहीं सकता था। लेकिन गांव में बाढ़ आ गई थी, कई मकान डूब गए थे, गरीबों के घर बनाने थे, तो जो लोग चंदा इकट्ठा कर रहे थे, उन्होंने कहा,
एक कोशिश करके देख ली जाए, शायद दया आ जाए!
कष्ट भी बड़ा है, लोगों के घर बह गए, किसी
की पत्नी बह गई, किसी का जानवर बह गया, किसी का पति, किसी के बच्चे बह गए, और घर बैठ गए हैं--शायद दया आ जाए! कठोर भी है, पिघल
जाए। पाषाण भी पिघल सकता है। चलो एक कोशिश कर लें, हर्ज क्या
है, बहुत से बहुत इनकार करेगा।
तो वे गए तैयारी करके, कि कैसे समझाएं उसको।
उन्होंने दान की बड़ी महिमा गाई। और वे धीरे-धीरे बड़े प्रसन्न भी हुए, क्योंकि सेठ उनकी महिमा को सुन-सुन कर बड़ा उत्सुक हो रहा था, बड़ा आतुर हो रहा था, प्रफुल्लित हो रहा था। उनको आशा
बंधी कि अब कुछ मिलने ही वाला है। उसके चेहरे को देख कर आशा बंधी। और जब वे पूरी
प्रशंसा का गीत गा चुके, तो वह सेठ उठ कर खड़ा हो गया और उसने
कहा कि बात मुझे भी जंचती है। बिलकुल ठीक है यह बात, दान की
बड़ी महिमा है। तो उन्होंने कहा, फिर कुछ मिल जाए। उसने कहा,
मिलने की क्या बात है? मैं तुम्हारे साथ चलता
हूं, मैं भी दान मांगूंगा जैसे तुम दान मांगते हो। दान की
महिमा मुझे जंच गई! मैं तुम्हारे साथ। तुम मुझे अपना समझो, अपने
वाला समझो। जैसे तुम मांग रहे हो, वैसे मैं भी मांगूंगा। दान
की महिमा इतनी बड़ी है कि मैं तैयार हूं; लोगों को समझाएंगे,
लोगों से दान दिलवाएंगे।
जरा सोचते हो उन दान लेने वालों की क्या हालत हुई होगी? हवाइयां उड़ गई होंगी कि यह क्या हुआ! आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास। तो हम दान की महिमा इसलिए गा रहे थे कि यह दान दे और यह दान
की महिमा से यह समझा कि हम भी दान मांगेंगे अब आज से! अगर दान इतनी बड़ी चीज है तो
लोगों से दान करवाएंगे।
तुम ध्यान की बात सुन-सुन कर ध्यान करोगे? या औरों को ध्यान करवाओगे?
जरूर चाहता हूं कि तुम प्रकाशित हो जाओ। मगर तुम पहले! मगर मजा इसमें
कम है, खुद प्रकाशित होने में। मजा इसमें ज्यादा आता है कि
दूसरे को प्रकाशित कर दें। क्यों? क्योंकि दूसरे को सुधारने
में एक तरह की हिंसा का रस है। इसे तुम समझना। यह थोड़ा सूक्ष्म है। दूसरे को
सुधारने में तुम मालिक हो जाते हो, उसकी गर्दन तुम्हारे हाथ
में है। इसीलिए तो लोग इतनी सलाहें देते हैं--जो मांगो तो, न
मांगो तो। बिना मांगे सलाह देने वाले लोग घूम रहे हैं। सलाह ऐसी चीज है दुनिया में,
सबसे ज्यादा दी जाती है और सबसे कम ली जाती है। मगर फिर भी लोग दिए
जाते हैं। कौन लेता है सलाह किसकी? तुमने अपने पिता की ली थी?
पिता मर गए सलाह दे-दे कर, तुमने ली कभी?
और वही सलाहें तुम अपने बेटे को दे रहे हो और भलीभांति जानते हो कि
वह भी नहीं लेगा--अपने बेटे को देगा! ये चीजें ली नहीं जातीं, ये सिर्फ दी जाती हैं। तुम भी भलीभांति जानते हो, न
तुमने सुनी है, न तुम्हारा बेटा सुनेगा। लेकिन फिर भी दिए जा
रहे हो। सलाह देने का एक मजा होता है।
क्या मजा होता है?
सलाह देने में तुम ऊपर और लेने वाला नीचे हो जाता है। तुम ज्ञानी और
लेने वाला अज्ञानी। तुम समझदार, दूसरा नासमझ।
अब तुम कहते हो: "मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं।'
इसमें एक बात तो मान ही ली तुमने कि तुम्हें रोशनी हो गई; कि तुम्हारा दीया जल गया। वह तो तुमने मान ही लिया।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं, अगर तुम्हारा दीया जल
जाए, तो तुम यह प्रश्न पूछोगे ही नहीं। रोशनी मिलने ही
लगेगी। जैसे फूल खिलता है, गंध उड़ने ही लगती है। बादल आते
हैं, वर्षा हो ही जाती है। अब बादल आ-आ कर पूछते थोड़े ही
हैं--कि बरसें? बरस जाएं? कि कर दें
तृप्त किसी के सूखे खेत को? कि पड़ी है प्यासी धरती, प्रतीक्षा कर रही है, इसको कर दें आनंदमग्न? बादल पूछते नहीं, बरस जाते हैं। दीया पूछता नहीं है
कि राहगीर भटक गया है, रोशनी दे दूं? रोशनी
पड़ती है राह पर, कोई भटक गया हो तो राह देख लेता है। भटका
हुआ आदमी दूर से दीये को देख कर चला आता है।
लेकिन अगर मैं तुमसे कह दूं, लोगों को रोशनी दिखाओ,
तो खतरा है। तुम लोगों को तलाशने लगोगे। कोई फंस जाएगा तुम्हारे जाल
में, तो तुम उसको उपदेश पिलाओगे। तुम उसको ज्ञान की
बातें...वह लेना चाहे कि न लेना चाहे!
और तुम इस तरह के लोगों से भलीभांति परिचित हो, कि रास्ते पर मिल जाते हैं तो तुम्हारी छाती धड़कने लगती है कि अब मरे! अब
फंसे! यह ज्ञानी चला आ रहा है! अब कहां से निकलें, कहां से
भागें? पास में कोई गली वगैरह हो तो निकल भागते हो। मगर
ज्ञानी भी इतनी आसानी से नहीं छोड़ते। वे भी पीछा करेंगे, वे
भी दौड़ कर पकड़ेंगे। क्योंकि अज्ञानियों को ऐसे छोड़ते जाओ तो बस, संसार अज्ञान में ही रह जाएगा।
ज्ञानी पीछा करते हैं। पकड़-पकड़ कर लोगों को समझाते हैं। मजा है एक
समझाने का, दूसरे को जगाने का। मगर तुम कब जागोगे? अपने से शुरू करो!
गम के साए क्यों फैले हैं दाएं-बाएं, तुम ही बोलो?
जीवन को क्या लौ देंगी धुंधली आशाएं, तुम ही बोलो?
गए पुराने, नये मसीहा भी वैसी बातें करते हैं,
हम फिर से इतिहास दुखों का क्या दुहराएं, तुम ही बोलो?
अपनी-अपनी पीड़ाओं से चीख रहे हैं बस्ती वाले,
किसके घर की दीवारों से सिर टकराएं, तुम ही बोलो?
भीड़ भरे बाजार छोड़ कर खामोशी को अपनाया था,
खामोशी के डसे हुए किसको अपनाएं, तुम ही बोलो?
तब भी समता की बातें थीं, अब भी समता की चर्चा
है,
समता के आश्वासन कब तक गले लगाएं, तुम ही बोलो?
हम समझे थे हाथ तुम्हारे बिक कर तुम संग रह पाएंगे,
गली-गली बिकने की गाथा किसे सुनाएं, तुम ही बोलो?
वही बातें चल रही हैं सदियों से।
तब भी समता की बातें थीं, अब भी समता की चर्चा
है,
समता के आश्वासन कब तक गले लगाएं, तुम ही बोलो?
कितनी सदियों-सदियों से लोग एक-दूसरे को जगा रहे हैं, कोई जागता नहीं! सोए सोयों को जगाएं तो कोई जागे तो कैसे जागे? जागा सोए को जगा सकता है, सोया सोए को नहीं जगा
सकता। सोया कैसे सोए को जगाएगा? हां, सपना
देख सकता है कि मैं सोयों को जगा रहा हूं। मगर उसके सपने में जो सोए हैं, वह तो उसका ही सपना है। वस्तुतः जो सोए हैं, उसका तो
उसे पता भी नहीं हो सकता। उसे तो अभी यह भी पता नहीं है कि मैं सोया हूं।
इस जगत में सबसे बड़ी भ्रांति यही है कि हमें पता नहीं कि हम सोए हुए
हैं, कि हम सपना देख रहे हैं, कि
हमें कुछ भी पता नहीं है। मैं कौन हूं, इस सीधे से प्रश्न का
उत्तर हमारे पास नहीं है और हम हर प्रश्न का उत्तर देने को तैयार हैं।
कोई तुमसे पूछे: संसार को किसने बनाया? और तुम तैयार हो
उत्तर देने को। जरा सोचो भी तो! जरा कुछ ईमान का भी तो स्मरण करो! परमात्मा के नाम
पर भी झूठ बोले जा रहे हैं। हजारों लोगों का परमात्मा तो सिर्फ झूठ है, और कुछ भी नहीं। तुम्हें पता है ईश्वर ने दुनिया बनाई?
तुम्हारा छोटा सा बच्चा जब तुमसे पूछता है कि पिताजी, दुनिया किसने बनाई? अगर तुम में जरा भी ईमान हो,
अगर तुम में जरा भी धार्मिकता हो, जरा भी
श्रद्धा हो, अगर तुम में जरा भी सदभाव हो, तो तुम उससे कहोगे: मुझे पता नहीं। मैं भी तलाशता हूं, तू भी तलाश। और अगर तुझे पहले पता चल जाए, तो मुझे
बता देना। अगर मुझे पहले पता चला, तो तुझे निवेदन कर दूंगा।
लेकिन अभी मुझे पता नहीं है कि दुनिया किसने बनाई। बनाई भी किसी ने या नहीं। हो
सकता है बिना बनाई हो। कभी न बनाई गई हो। मगर मुझे कुछ पता नहीं है। ये सब अनुमान
हैं, जो मैंने सुने हैं। जो लोग कहते हैं वह मैं तुझे बताता
हूं, लेकिन मेरा कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि
मैं मौजूद नहीं था। मुझे अपना होश अभी नहीं है, तो
सदियों-सदियों पहले कब दुनिया बनी होगी, तब का मुझे होश कहां?
मुझे कल की तो याद भूल गई, दस साल पहले क्या
हुआ वह तो मुझे विस्मरण हो गया, पिछले जन्म में मैं था कि
नहीं, यह भी मुझे याद नहीं है, तो
दुनिया किसने बनाई, मैं कैसे कहूं!
काश, तुम अपने बच्चों से ईमानदारी के उत्तर दे सको,
तो उनकी श्रद्धा कभी नष्ट न हो।
लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि बच्चों की श्रद्धा नष्ट क्यों हो रही
है? मां-बाप के प्रति बच्चों का सम्मान क्यों कम हो रहा है?
तुम कारण हो। क्योंकि बच्चे आज नहीं कल, यह बात पता उनको चल
ही जाएगी। कब तक धोखा दोगे? कि तुम्हें पता नहीं है और फिर
भी तुम दावा करते रहे कि तुम्हें पता है! उनकी श्रद्धा न टूटेगी तो क्या होगा?
तुम्हारी बेईमानी तुम्हारी श्रद्धा को तुड़वा देती है!
जो बाप, जो मां, जो शिक्षक अपने बच्चों
से ईमान से उतना ही कहेगा जितना जानता है, उसके प्रति
श्रद्धा बच्चों की रोज-रोज बढ़ती जाएगी। बच्चे जब बड़े होंगे तो उनकी श्रद्धा का अंत
नहीं होगा। क्योंकि वे समझेंगे कि किसी ईमानदार आदमी के साथ संग मिला, हम सौभाग्यशाली हैं!
लेकिन तुम कितने झूठ बोल रहे हो! ईश्वर ने दुनिया बनाई। नरक जाना
पड़ेगा, बच्चों को कह रहे हो। तुम्हें नरक का कोई पता नहीं
है। ऐसा करोगे तो स्वर्ग मिलेगा। तुम्हें स्वर्ग का कुछ पता नहीं है। बुरा करने
वाले को बुरा ही फल मिलता है, अच्छा करने वाले को अच्छा ही
मिलता है--ऐसा तुम कहते तो हो, लेकिन तुम्हारा कोई निश्चित
अनुभव नहीं है। अनुभव तुम्हारा उलटा है।
अनुभव तुम्हारा यह है कि यहां जितना बुरा करने वाले लोग हैं, वे मजा लूट रहे हैं; और जितना भला करने वाले लोग हैं,
भूखों मर रहे हैं। यहां बुरा करने वाले लोग छाती पर बैठ जाते हैं।
यहां भला करने वाले लोग--कौन पूछता है उनको? नैतिकता से जीकर
देखो, और अड़चनें ही अड़चनें हैं। अनैतिकता से जीओ, और सुविधाएं ही सुविधाएं हैं।
फिर कौन जानता है कि जो लोग यहां चालबाजी करके आगे निकल जाते हैं, वे स्वर्ग में भी चालबाजी नहीं करेंगे? जो यहां
दिल्ली पहुंच जाते हैं, वे कुछ न कुछ दांव-पेंच स्वर्ग में
भी लगा लेंगे, फिर क्या करोगे? और
दांव-पेंच लगते ही होंगे। क्योंकि पहरेदार वहां भी होते होंगे, रिश्वत वहां भी चलती होगी। पहले न भी चलती रही हो, अब
तो चलती ही होगी, क्योंकि इतने रिश्वत खाने वाले स्वर्गीय हो
रहे हैं! दिल्ली में जो भी मरते हैं, सभी स्वर्गीय हो जाते
हैं। इतने राजनेता पहुंच चुके हैं वहां, तुमसे पहले, उन्होंने अड्डे जमा लिए होंगे। बहुत संभावना तो यह है कि अगर तुम भले आदमी
हो तो नरक में पड़ोगे। भले को घुसने कौन देगा स्वर्ग में? जरा
भला आदमी दिल्ली में घुसने की कोशिश तो करे! तब उसे पता चलेगा कि यह असंभव है।
तुम्हारे जीवन का अनुभव कुछ और है, तुम कहते कुछ और हो।
जानते कुछ और हो, बताते कुछ और हो। तुम्हारे बच्चों की
श्रद्धा न टूटेगी तो क्या होगा?
अगर धर्म पर लोगों की श्रद्धा उखड़ रही है--उखड़ गई है--तो उसका कुल
कारण इतना है कि धर्म ऐसे लोग प्रचारित कर रहे हैं जिनके जीवन में धर्म की कोई आभा
नहीं, कोई छाया भी नहीं; कोई दूर-दूर
का भी नाता नहीं।
नहीं, जगदीश, ऐसा मत पूछो कि मैं
संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं! तो मैं इस महत कार्य को कैसे प्रारंभ करूं?
सबकी बिगड़ी को बनाने निकले।
यार हमत्तुम भी दीवाने निकले।
धूल है, रेत है, सेहरा है यहां,
हम कहां प्यास बुझाने निकले।
इतनी रौनक है कि दिल डूबता है,
शहर में खाक उड़ाने निकले।
हर तरफ शोरे-कयामत है बर्पा,
और हम गीत सुनाने निकले।
इन अंधेरों में किरन जब ढूंढ़ी,
सबके हंसने के बहाने निकले।
चांद को रात में मौत आई थी,
लाश हम दिन को उठाने निकले।
उम्र बरबाद यूं ही कर दी "हसन'
ख्वाब भी कितने सुहाने निकले।
उम्र को ऐसे ही सुंदर-सुंदर सपनों में खराब मत कर लेना।
एक बात महत्वपूर्ण है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण:
तुम जागो! तुम इस प्रश्न के उत्तर को खोजो कि मैं कौन हूं? और
जब तक यह उत्तर तुम्हें न मिल जाए तब तक कोई और उत्तर तुम्हारा सही नहीं हो सकता।
तब तक तुम ताश के घर मत बनाओ! हवा के झोंके गिरा देंगे। मैं कौन हूं, इसका उत्तर मिल जाए तो तुमने बुनियाद रखी पत्थरों की--अब मंदिर उठ सकता
है। उस मंदिर में फिर जिसको भी प्यास लगी होगी, आएगा। जिसको
अभीप्सा जगेगी, आएगा।
सच तो यह है, जागे हुए व्यक्ति को कहीं भी जाना नहीं पड़ता। लाओत्सु
ने कहा है, वह अपने घर की दीवालों के बाहर भी नहीं जाता।
लेकिन उसकी सुगंध मिलने लगती है दूर-दूर तक और लोग दूर-दूर से आने लगते हैं। उसकी
खबर पहुंचने लगती है, जिनको भी प्यास है उन तक। तुम्हें कहीं
जाना न पड़ेगा। तुम्हारा दीया जले, पास-पड़ोस के लोग, जिन्हें अपने दीये जलाने हैं, तुम्हारे पास आने
लगेंगे। कहेंगे, हमारा दीया भी जला लेने दो।
लेकिन यह कोई महत कार्य का प्रारंभ नहीं करना है। महत कार्य के
प्रारंभ का मतलब होता है, अहंकार मजा लेना चाहता है। नेता मत बन जाना। अगर सच
में ही संन्यासी बनना हो, तो रास्ता बिलकुल उलटा है। नेता
बनने का रास्ता बिलकुल उलटा है। नेता को जो पता नहीं, उनके
उत्तर देता है। जो हो नहीं सकता, उनके आश्वासन देता है। नेता
झूठ पर जीता है। झूठ उसका भोजन है।
लेकिन संन्यासी तो प्रथम चरण ही सत्य की तरफ उठाता है।
सब लोग पूछते हैं वे वादे कहां गए?
आकाश नापते से इरादे कहां गए?
जिनकी हरेक चाल पर मुद्दत से नाज था,
घोड़े कहां गए, वे पियादे कहां गए?
कहते थे फेंक देंगे इन्हें भी उतार कर,
बूढ़ी सियासतों के लबादे कहां गए?
ले-दे के एक आग थी जिस पर यकीन था,
वे रोशनी पसंद तगादे कहां गए?
जो लेके इंकलाब चले थे हवा के साथ,
कोई करीब आके बता दे, कहां गए?
राजनेता बड़ी ऊंची बातें करता है--महत कार्यों की बातें करता है।
छोटे-मोटे हेर-फेर को क्रांतियां कहने लगता है, महाक्रांतियां कहने
लगता है। राजनेता जीता है बड़े-बड़े नारों पर। किसी मोहल्ले में सम्मेलन होता है,
वह अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन होता है। जहां दो-चार आदमियों की सभा हुई,
उसको महासभा कहते हैं। नेता बड़े-बड़े शब्दों के गुब्बारे बनाता है।
ले-दे के एक आग थी जिस पर यकीन था,
वे रोशनी पसंद तगादे कहां गए?
जो लेके इंकलाब चले थे हवा के साथ,
कोई करीब आके बता दे, कहां गए?
रोज खो जाते हैं इस तरह के नेता। बड़े महत कार्यों की बातें करते हैं
और क्षुद्र कार्य भी नहीं हो पाते। आसमान बदल देना चाहते हैं, जमीन की हालत रोज बिगड़ती चली जाती है। बड़े-बड़े सपने देते हैं तुम्हें,
बड़ी-बड़ी कल्पनाएं। और उन कल्पनाओं के जाल में तुम्हारी जंजीरें ढाली
जाती हैं।
जगदीश, तुम्हें राजनेता बनना हो, तो इस
महत कार्य कार्य में लगो जगत को रोशनी दिखाने के। अगर तुम्हें संन्यासी बनना है,
तो खुद रोशन हो जाओ, इतना काफी है। शेष फिर
अपने से होगा, तुम्हें करना नहीं पड़ेगा। तुम्हारी मौजूदगी
करने लगेगी। तुम जहां उठोगे, जहां बैठोगे, वहां मंदिर बन जाएंगे। तुम जहां चलोगे वहां तीर्थ हो जाएंगे। तुम जिसे
छुओगे वह सोना हो जाएगा। यह करना नहीं पड़ेगा, यह होगा। और जब
होता है अपने से तो उसका मजा और, उसका सौंदर्य और!
कत्ल हों, और सलीबों को सजा कर देखें।
कुछ चराग अपने लहू से भी जला कर देखें।
शायद इस तरह कोई हादसा याद आ जाए,
उस गली से कोई पत्थर ही उठा कर देखें।
लोग कहते हैं कि ढूंढ़ो तो खुदा मिलता है,
आज हम भी किसी दरवाजे पे जाकर देखें।
जिस्म में कितनी ही किरचें सी चुभी जाती हैं,
आज सोचा था कि आईना उठा कर देखें।
अक्स उस शोख का महफूज तो अब भी होगा,
गर्द आईने के चेहरे से हटा कर देखें।
अपना घर खाक हुआ, अपनी गली राख हुई,
आओ, अब और कहीं आग लगा कर देखें।
लेकिन पहले अपना घर खाक हो जाने दो।
लोग कहते हैं कि ढूंढ़ो तो खुदा मिलता है,
आज हम भी किसी दरवाजे पे जाकर देखें।
अपना घर खाक हुआ, अपनी गली राख हुई,
आओ, अब और कहीं आग लगा कर देखें।
कबीर ने कहा है:
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर बारै आपना, चलै हमारे साथ।
लेकिन कबीर अपना घर जला कर खड़े हैं। जो अपने मन और अपने अहंकार को जला
लेता है, उसके भीतर रोशनी हो जाती है। अहंकार की बाती बनाओ,
अपनी आसक्तियों का तेल बनाओ, ध्यान की ज्योति
जलाओ, तुम्हारा दीया जले। इस दीये के जलने में, इस ध्यान के जलने में अहंकार जल जाएगा। मोह, ममता,
माया जल जाएगी। एक दिन रोशनी ही रोशनी रह जाएगी। फिर तुम अपने आप ही
औरों के काम आ जाओगे। सेवा की नहीं जाती। और जो सेवा की जाती है, वह सिर्फ उपद्रव लाती है। सेवा होती है। वह जागे हुए व्यक्ति की सहज
परिणति है। जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चलती है, ऐसे
ही ध्यान के पीछे करुणा चलती है, सेवा चलती है।
जागो! पहले स्वयं जागो!
आखिरी प्रश्न:
सज्दों से अब तिश्नगी नहीं बुझती,
जज्ब हो जाऊं रजनीश तेरे आस्ताने में।
दिनेश भारती! कोई रोकता तो
नहीं! जज्ब हो जाने में बाधा कौन डाल रहा है? सिवाय तुम्हारे और
कोई बाधा नहीं डाल रहा है। मैं तो चाहता हूं कि तुम्हारी प्यास बुझे। मैं तो
उंडेलने को तैयार हूं, अमृत-घट हाथ में लिए बैठा हूं। मगर
तुम अंजुलि तक नहीं बनाते। अंजुलि बनानी तो दूर, तुम पीठ किए
खड़े हो।
तुम कहते तो हो: सज्दों से अब तिश्नगी नहीं बुझती,
किसकी कब बुझी? तुम्हारी कैसे बुझेगी? पैर छूने
से कहीं प्यास बुझी है? पीओगे तो बुझेगी। हां, पैर छूना पीने की तरफ पहला प्रयास हो सकता है, मगर
पैर छूना ही पीना नहीं है। पैर छूना पीने के लिए अनिवार्य चरण हो सकता है, अपरिहार्य हो सकता है, लेकिन पैर छू लेना ही प्यास
का बुझ जाना नहीं हो सकता। मुझे पीओगे तो प्यास बुझेगी।
तुम ठीक कहते हो:
सज्दों से अब तिश्नगी नहीं बुझती,
जज्ब हो जाऊं रजनीश तेरे आस्ताने में।
रोकता कौन है? द्वार खुले हैं। मैंने तुम्हें पुकार दी ही हुई है।
और दिनेश को बहुत बार आश्रम में जगह भी दे दी। मगर अपनी ही करतूतों से
भाग जाते हैं! बहुत बार तुम्हें अपने पास ले लिया, बार-बार तुम्हारी
गलतियों को क्षमा भी किया। क्योंकि गलतियों को मैं बहुत मूल्य नहीं देता। गलतियां
स्वाभाविक हैं। मनुष्य है तो भूलें होंगी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वही-वही
भूलें बार-बार करो। एक भूल एक बार काफी। रोज नई भूल करो तो मैं क्षमा करने को
तैयार हूं। कम से कम विकास तो होगा--नई भूल होगी! मगर भूल तक भी नई नहीं करते,
ऐसे जड़ हो गए हो कि भूलें भी वही-वही दोहराते हो।
तुम्हीं अपने को रोक रहे, दिनेश! मैं यहां
तुम्हें रोक नहीं रहा हूं; न कोई और तुम्हें रोक रहा है।
इस दरवाजे से जो खाली जाएगा, वह ध्यान रखे,
उत्तरदायित्व उसका है। वह सरोवर के पास आया, झुका
नहीं; अंजुलि न बनाई। सरोवर छलांग लगा कर तुम्हारे कंठ में
तो न उतर जाएगा! और सरोवर तुम्हारी स्वतंत्रता का इस तरह हनन करेगा भी नहीं।
मैं जबरदस्ती तो तुम्हें पकड़ कर दवा न पिला दूं! यह कोई जबरदस्ती
पिलाई जाने वाली दवा भी नहीं है। यह तो तुम स्वेच्छा से, स्वतंत्रता से, अहोभाव से पीओगे...
और तुम्हारी पीने की आकांक्षा भी है, तुम पीना भी चाहते हो,
मगर तुम्हारी पुरानी आदतें दिक्कतें दे रही हैं। तुम कुछ ऐसा करना
चाहते हो कि जो यहां उपलब्ध है वह भी मिल जाए और जो तुम पकड़े रहे हो अब तक वह भी न
छोड़ना पड़े। तुम दो नावों में सवार हो, यह तुम्हारी अड़चन है।
एक नाव में सवार होना पड़ेगा। क्योंकि ये दोनों नावें दो अलग दिशाओं में जा रही
हैं। तुम्हारी नाव और मेरी नाव विपरीत दिशाओं में यात्राएं कर रही हैं। तुम इन दोनों
पर सवार होओगे तो बड़ी अड़चन में पड़ जाओगे, टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, तुम्हारे भीतर बड़ा द्वंद्व हो
जाएगा।
या तो तुम अपनी ही नाव पर सवार हो जाओ। अभी अपनी नाव को ही भोग लो! डर
कुछ भी नहीं है। क्योंकि तुम्हारी नाव को तुम अगर भोग लो, तो तुम्हें मेरी नाव में आना ही होगा। लेकिन वह भी तुम आधा-आधा कर रहे हो,
डर के मारे, क्योंकि मेरी नाव में भी एक पैर
रखना है।
तुम शराब पीओ, तुम गांजा पीओ और मैं ध्यान करवाऊं! ये दोनों बातें
साथ कैसे चल पाएं? क्योंकि गांजा और शराब तो बेहोश करे और
ध्यान होश में जगाए। और चूंकि तुम जगना चाहते हो, इसलिए नशा
भी ठीक से नहीं कर पाते। डरे-डरे करते हो, आधा-आधा करते हो।
और चूंकि तुम नशा भी किए जाते हो, तुम जाग भी नहीं सकते,
तुम होश में आ भी नहीं सकते। तुमने अड़चन अपने लिए खुद खड़ी कर ली है।
तुम्हें निर्णय करना होगा।
अगर पुरानी आदतें प्रीतिकर हैं, तो मैं आखिरी आदमी
हूं जो तुम्हें उन आदतों को छोड़ने के लिए कहूं। मेरे मन में कोई निंदा नहीं है।
मैं नहीं कहता कि तुम पापी हो। पुरानी आदतें पूरी कर लो। जाओ उनमें पूरे, मुझे भूल जाओ, मेरा विस्मरण कर दो, मैं हूं ही नहीं। क्योंकि मेरे कारण तुम्हें अड़चन होगी। और मेरी याद आएगी
तो तुम पूरे-पूरे न डूब पाओगे। तुम जो भी करना चाहते हो, पूरा
कर लो।
मैं इतने भरोसे से क्यों कहता हूं कि तुम जो भी करना चाहते हो, पूरा कर लो? कोई साधु-संत इस तरह की बात तुमसे नहीं
कहेगा। मैं इसलिए भरोसे से कहता हूं कि तुम कितनी ही शराब पीओ, कितना ही गांजा पीओ, कितना ही जुआ खेलो, कितना ही कुछ करो, आज नहीं कल उससे ऊब जाओगे,
क्योंकि वह व्यर्थ है। उसकी व्यर्थता मेरे लिए इतनी प्रमाणित है,
इसलिए इतने आश्वासन से कहता हूं: जो भी करना हो, करो! पूरा कर लो। ऊबोगे। और जितने जल्दी पूरा कर लोगे, उतने जल्दी ऊब जाओगे। और ऊब जाओ तो फिर मैं हूं। तो फिर मेरी नाव में सवार
हो सकोगे। तब पीछे की तरफ लौट कर नहीं देखोगे।
अभी तुम अड़चन में पड़े हो। अभी तुम दोनों सम्हाल लेना चाहते हो। और इस
दोनों के सम्हालने में बड़ी कठिनाई है। दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम!
चंद खंडहर ही हैं अब दिल की राजधानी में,
तुम कहां जुड़ गए आकर मेरी कहानी में!
यहां ठहर न मुसाफिर! यहां से दूर ही चल,
मिला हुआ है जहर इस शहर के पानी में!
उम्र इंसान की मत नापिए तारीखों में,
इक लम्हा प्यार का काफी है जिंदगानी में!
सारे अलफाज भी उतना न बयां कर सकते,
बयान जितने हैं नजरों की बेबयानी में!
उम्र भर चैन से इक रात भी हम सो न सके,
भूल कुछ हो गई ऐसी भरी जवानी में!
आखिरी वक्त में क्या खाक होंगे संजीदा
जिंदगी काट दी जब सारी लनतरानी में।
लोग जिंदगी भर गलत आदतों को निर्मित करते हैं। और फिर अंत में चाहते
हैं कि उनसे एकदम छुटकारा हो जाए। वह नहीं हो सकेगा।
लेकिन तुम सौभाग्यशाली हो, दिनेश, अभी युवा हो और मेरे पास आ गए। अभी ऊर्जा है, शक्ति
है, संकल्प है। अभी गलत कर सकते हो तो ठीक भी कर सकते हो।
अभी अगर कांटों को बीन सकते हो तो फूल भी बीन सकते हो। मगर ये दोनों काम एक साथ न
चलेंगे।
मैं नहीं रोक रहा हूं, तुम्हारी आदतें
तुम्हें बाधा बन रही हैं। तुम निर्णय कर लो एक। एक निश्चय पर तुम्हें आना ही होगा!
अगर पुरानी आदतें ऐसी हैं कि उनमें रस अभी शेष है, तो मुझे
दो-चार साल के लिए भूल ही जाओ! मैं प्रतीक्षा करूंगा! दो-चार साल पूरी तरह डूब जाओ
उनमें। मैं जानता हूं तुम निकल आओगे बाहर। मुझे तुम्हारी बुद्धि पर भरोसा है,
तुम्हारी समझदारी पर भरोसा है। मैं जानता हूं तुम्हारी क्षमता बड़ी
है; तुम इन्हीं छोटे कामों को करके नष्ट नहीं हो जाओगे।
तुम्हारा भविष्य मुझे दिखाई पड़ता है। तुम्हारा कल बहुत सुंदर है। मगर आज तुम्हारा
बीते कल से दबा हुआ है।
तो या तो यह निर्णय करो कि पुराना जो करना है, वह कर लें। आधा-आधा न हो। आधा-आधा जो भी करोगे, उससे
छुटकारा नहीं होता।
मेरे हिसाब में, जिस अनुभव को भी हम पूरा कर लें,
उससे मुक्ति हो जाती है। इसलिए अगर किसी को कामवासना अधूरी रह गई है
तो मुक्ति नहीं हो पाएगी। कामवासना पूरी कर लो तो मुक्त हो जाओगे। कामवासना की
पूर्णता पर ब्रह्मचर्य का फूल खिलता है। अगर धन की दौड़ अधूरी मन में रह गई है,
तो उसे पूरी कर लो। धन की दौड़ पूरे होने पर ही पता चलता है कि धन से
निर्धनता मिटती नहीं। धन से और निर्धनता प्रगाढ़ हो जाती है, प्रकट
हो जाती है। धन की पृष्ठभूमि में निर्धनता भीतर बहुत खलने लगती है। और जब निर्धनता
इतनी खलती है, इतनी कचोटती है, और धन
उसे भरता नहीं, तब ध्यान की याद आती है। उसके पहले ध्यान की
याद आ भी नहीं सकती।
नशा करना है, नशा कर लो। नशा आदमी करना क्यों चाहता है? इसीलिए कि जिंदगी दुख भरी है, भुलाना चाहता है। मगर
कितनी ही बार भुलाओ, दुख लौट-लौट कर आ जाएगा, और घना होकर आ जाएगा। दुख भुलाने से मिटता नहीं है। भुलाना कोई मिटाने का
उपाय नहीं है। धीरे-धीरे एक बात समझ में आ जाएगी: भुला-भुला कर तुम बढ़ा रहे हो,
मिटा नहीं रहे हो।
मिटाने के रास्ते कुछ और हैं। मिटाने का रास्ता आत्म-विस्मरण नहीं है, मिटाने का रास्ता आत्म-स्मरण है, सेल्फ-रिमेंबरिंग
है।
बुद्ध ने कहा: सम्मासति; महावीर ने कहा: विवेक;
कृष्णमूर्ति जिसको कहते हैं: अवेयरनेस; या गुरजिएफ
जिसको कहता था: सेल्फ-रिमेंबरिंग; कबीर और नानक ने जिसको कहा
है: सुरति; आत्मस्मरण। मैं कौन हूं, इसका
बोध ऐसा प्रगाढ़ हो जाए कि जैसे ज्योति जल रही हो तुम्हारे भीतर--निष्कंप, तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई दुख न रह जाएगा। और न रहेगा दुख, न भुलाने की कोई बात होगी। न रहेगा बांस, न बजेगी
बांसुरी।
यह जीवन एक अपूर्व अवसर है--व्यर्थ को पहचानने का, सार्थक को जीने का; असार को असार की भांति देखने का,
ताकि सार को सार की भांति जाना जा सके।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
जलन के त्योहार सी यह
जिंदगी मुझको मिली है,
दहकते अंगार पर ही
प्राण की कलिका खिली है,
रुद्र के आग्नेय दृग में स्वप्न सा मैं पल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
मृत्तिका जड़ खंड होता
मैं पड़ा रहता अगोचर,
ज्योति कण की चेतना से
मैं हजारों में उजागर,
दीप्त लघु अस्तित्व मेरा आंधियों को खल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
ऊर्ध्व लौ निष्कंप मेरी
आज रह-रह कांपती है,
शक्ति प्राणों की थकी सी
लड़खड़ाती, हांफती है,
छिपा ले ओट में मुझको ढूंढ वह अंचल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
गा रहे मधु गीत तारे
हाय, पत्थर तो नहीं मैं,
मधु निशा के वक्ष पर धर
शीश सो जाऊं कहीं मैं,
किंतु सोना मौत है रे! कह स्वयं को छल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
चूम कर मेरी जलन को
जल मरी थी शलभ-बाला,
व्यर्थ उस उन्मादिनी ने
इस जलन से मोह पाला,
याद में उसकी अभागा दीप तिल-तिल गल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
क्यों न मैं वरदान मानूं
ज्योति के इस शाप को ही?
तन-जलन की मंद लौ में
जा रहा बढ़ता बटोही,
और कितने पंथियों का मैं सदा संबल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
उस महा-आलोक में लय
हो रही यह रात ढलती,
प्राण, तेरे स्नेह से ही
साधना की जोत जलती,
कालिमा के पंख में भी मैं सदा उज्ज्वल रहा।
ज्योति का अभिशाप लेकर दीप सा मैं जल रहा।
यह जीवन एक अवसर है, जहां चाहो तो अभिशाप ही अभिशाप
मिलें, और जहां चाहो तो वरदान ही वरदान मिलें। वही ऊर्जा
अभिशाप बन जाती है, वही ऊर्जा आशीष बन जाती है। सब तुम पर
निर्भर है।
एक निर्णायक स्थिति, दिनेश, तुम्हें
लानी होगी। यह बात मुझे तुम्हें बहुत पहले कहनी थी, नहीं कही,
ठीक समय की प्रतीक्षा करता रहा हूं। आज कोई दस वर्षों से तुम मुझसे
जुड़े हो। लेकिन इन दस वर्षों में यह बात मैंने तुमसे कभी नहीं कही। तुम जैसे हो
वैसा मैंने तुम्हें स्वीकार किया है। तुम गलत हो, ऐसा भी कभी
नहीं कहा। तुम्हें मौका दिया है कि तुम खुद ही समझो, खुद ही
जानो। मैं तुम्हारे जीवन में जरा भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहता। मैं हूं कौन?
तुम जो निर्णय करो, वही शुभ है। लेकिन अब घड़ी
आ गई है कि कुछ निर्णय करो।
ऐसे आधे-आधे, बंटे-बंटे, तुम कहीं के न रह
जाओगे। धोबी का गधा, घर का न घाट का। वैसी दशा न हो जाए। दस
साल काफी लंबा समय है। तुम बार-बार यहां आते हो। फिर बार-बार जाते हो। न वहां रुक
पाते हो, न यहां रुक पाते हो। वहां रहते हो तो मेरी याद आती
है तुम्हें और यहां आते हो तो तुम्हारी पुरानी आदतें धीरे-धीरे फिर तुम्हें पकड़
लेती हैं।
तलवार की एक चोट से निर्णय करो। दो टुकड़े कर दो। या तो यह या वह। और
मैं दोनों के लिए आशीर्वाद दूंगा। उतना खयाल रखना।
यह मत सोचना कि तुम अगर निर्णय करो मुझसे टूट जाने का और अपनी पुरानी
आदतों में ही जीने का, तो मैं नाराज होऊंगा। नहीं, जरा
भी नहीं। मैं आशीर्वाद दूंगा कि तुम जो भी निर्णय करो, वही
निर्णय तुम्हारे जीवन में शुभ लाए। तुम अगर दूर जाने का निर्णय करो, तो मैं तुम्हें उतने ही आनंद से दूर जाने दूंगा जितने आनंद से तुम्हें पास
बुलाता हूं। क्योंकि मेरी एक निष्ठा है। और वह निष्ठा यह है--वह निष्ठा मौलिक है,
मूलभूत है--कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर परमात्मा ने इतना विवेक दिया
है कि वह ज्यादा दिन भूल में नहीं रह सकता।
अभी वेदांत कुछ दस-पंद्रह दिन पहले ही अमरीका से भारत आए। वहां से बड़ा
पद छोड़ कर आए। सनफ्रांसिस्को में एशिया इंस्टीटयूट के डीन थे। सब सुविधा, बड़ा पद, बड़ी नौकरी, बड़ी
प्रतिष्ठा, शिक्षा जगत में नाम, दोहरी
पीएच.डी. हैं--सब छोड़ कर चले आए कि यहां मेरे पास रहना है। वहां थे तो मेरी ही
मेरी याद आती थी उन्हें। यहां आए तो वहां की याद आने लगी। यहां आए तो सोच-विचार
उठने लगा होगा--इतना सब छोड़ना, पद-प्रतिष्ठा, परिवार, व्यवस्था। और यहां मेरे फक्कड़ों में
सम्मिलित होना, जिनका कोई ठिकाना नहीं, आज यहां, कल वहां चले। क्योंकि सरकार यहां न टिकने
दे तो कहीं और। यह भी पक्का नहीं है कि इसी देश में टिकना पड़ेगा; किसी और देश में टिकना पड़े। कुछ कहा नहीं जा सकता। मेरे साथ तो सब
असुरक्षा है। मेरे साथ जुड़ना खतरे से खाली नहीं है। सोच-विचार में पड़ गए--लौट जाना
या क्या करना?
मुझे लिखा तो मैंने कहा कि बिलकुल लौट जाओ! मेरे आशीर्वाद के साथ लौट
जाओ। उसी खुशी से लौट जाओ जिस खुशी से आए थे।
तो वेदांत को भरोसा नहीं आया कि मैं इतनी जल्दी जाने दूंगा! लक्ष्मी
ने जब उन्हें खबर दी तो उन्हें भरोसा नहीं आया। उन्होंने कहा, ऐसा कहा भगवान ने कि लौट जाओ? बिलकुल कह दिया लौट
जाओ? इतनी जल्दी कह दिया?
वेदांत के मन में कहीं न कहीं भीतर छिपी हुई बात रही होगी कि मैं
कहूंगा कि जाऊं, मगर वे क्या जाने देंगे? कहेंगे
कि नहीं, रुको, कहां जाते हो? पागल हो! समझाएंगे, बुझाएंगे। ऐसी आशा रही होगी
भीतर।
मगर मेरे काम करने के अपने ढंग हैं। अब तो वेदांत रुकना भी चाहें तो
मैं रुकने नहीं दूंगा। एक बार तो उन्हें जाना ही होगा! क्योंकि अगर यह आधा-आधा मन
रहा, तो मेरे पास होने का कोई अर्थ ही न होगा। डुबकी लग ही
न पाएगी। एक बार तो जाना ही होगा अब! और अब दुबारा जब आना चाहेंगे तो इतनी आसानी
से आने भी नहीं दूंगा, जितनी आसानी से इस बार आ जाने दिया था।
अब तो साफ उन्हें मैंने संदेश दे दिया है कि सौ प्रतिशत आ सको तो ही आना। क्योंकि
यह रास्ता दीवानों का है। हिसाब-किताब का नहीं है। कल का कोई पक्का नहीं है,
कल का कुछ भरोसा नहीं है। मैं कोई सुरक्षा दे नहीं सकता। मेरे
संन्यासी रहते बादशाहों की तरह हैं--क्योंकि जब रह ही रहे हैं तो बादशाहों की तरह
ही रहना चाहिए! मगर सुरक्षा कुछ भी नहीं है, कल का कुछ पक्का
नहीं है। आज है तो बादशाहत, कल फकीरी हो सकती है। आज है तो
महल, कल सड़कों पर निवास हो सकता है।
जिसकी इतनी तैयारी है, और सौ प्रतिशत,
रत्ती भर कम नहीं, वही मेरे साथ जुड़ेगा तो
रूपांतरित हो सकेगा।
दिनेश, वही मैं तुमसे कहता हूं। या तो चले जाओ पूरे, भूल-भाल जाओ मुझे। मैं भी कहां तुम्हारी जिंदगी में आ गया! कहां तुम्हारी
जिंदगी में अड़चन आ गई! समझ कर कि एक भूल-चूक थी, मुझे क्षमा
करना; जैसा तुम्हें जो करना हो करो। और मेरे पूरे आशीर्वाद
तुम्हारे साथ हैं। क्योंकि मेरी निष्ठा प्रत्येक मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी
बुद्धिमत्ता में है। प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर बीज लेकर पैदा हुआ है परम संबोधि
का। इसलिए आज नहीं कल, देर-अबेर हो सकती है, मगर होश आएगा। और जब होश आएगा, तभी मुझसे जुड़ सकोगे।
तुम कहते हो:
सज्दों से अब तिश्नगी नहीं बुझती,
जज्ब हो जाऊं रजनीश तेरे आस्ताने में।
मेरा द्वार खुला है। मगर जज्ब होने की हिम्मत! बूंद जब सागर में गिरती
है तो उसकी हिम्मत समझते हो? मिटने की हिम्मत, न हो जाने की हिम्मत, शून्य होने का साहस ही
संन्यासी की आधारशिला है। शून्य होने का साहस ही संन्यास है।
आज इतना ही।
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