साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रार्थना या ध्यान?—चौथा प्रवचन
१४ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
तमसो मा ज्योतिर्गमय
असतो मा सदगमय
मृत्योर्माऽमृतं गमय
उपनिषद की इस प्रार्थना में मनुष्य की विकसित
चेतना के अनुरूप क्या कुछ जोड़ा जा सकता है?
नरेंद्र बोधिसत्व, यह प्रार्थना
अपूर्व है! पृथ्वी के किसी शास्त्र में, किसी समय में,
किसी काल में इतनी अपूर्व प्रार्थना को जन्म नहीं मिला। इसमें पूरब
की पूरी मनीषा सन्निहित है। जैसे हजारों गुलाब से बूंद भर इत्र निकले, ऐसी यह प्रार्थना है। प्रार्थना ही नहीं है,समस्त
उपनिषदों का सार है। इसमें कुछ भी जोड़ना कठिन है। लेकिन फिर भी मनुष्य निरंतर
गतिमान है, यह अजस्र धारा है मनुष्य की चेतना की, जिसका कोई पारावार नहीं है। यह रोज नित नये आयाम छूती है, नित नये आकाश। बहुत बार ऐसा लगता है, आ गया पड़ाव और
फिर आगे और भी उज्ज्वलत्तर शिखर दिखायी पड़ने लगते हैं। लगता है ऐसे कि आ गयी मंजिल,
लेकिन हर मंजिल बस सराय ही सिद्ध होती है। और यह शुभ भी है। नहीं तो
मनुष्य जीए ही कैसे? विकास है तो जीवन है। निरंतर विकास है
तो निरंतर गति है। गत्यात्मकता जीवन है। इस लिए इस प्रार्थना में यूं तो कुछ जोड़ा
नहीं जा सकता, ऐसे बिलकुल भरी-पूरी है, और फिर भी कुछ जोड़ा जा सकता है।
नानक के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि वे अपनी अनंत यात्राओं में--बहुत
यात्राएं कीं उन्होंने। भारत में तो कीं ही, भारत के बाहर भी कीं।
काबा और मक्का तक भी गये।--वे एक ऐसे गांव के पास पहुंचे जो फकीरों की ही बस्ती
थी। सूफियों का गांव था। और उन सूफी दरवेशों का जो प्रमुख था, उसे खबर मिली कि भारत से एक फकीर आया है, पहुंचा हुआ
सिद्ध है, गांव के बाहर ठहरा हुआ है--गांव के बाहर ही सरहद
पर, एक कुएं के पास, एक वृक्ष की छाया
में।
रात नानक ने और उनके शिष्य मरदाना ने विश्राम किया था।
नानक चलते थे तो मरदाना सदा उनके साथ चलता था। मरदाना उनका एक मात्र
संगी-साथी था। नानक गाते गीत,मरदाना धुन बजाता। नानक गुनगुनाते,
मरदाना ताल देता। नानक प्रभु के गुणों के गीत उतारते, मरदाना स्वर साधता। मरदाना के बिना नानक अधूरे से थे। गीत तो उनके पास थे,
मरदाना जैसे उनकी बांसुरी था।
सुबह-सुबह नानक गा रहे थे, सूरज उग रहा था और
मरदाना ताल दे रहा था, तभी उस फकीर का संदेशवाहक आया। उस
फकीर ने सांकेतिक रूप से--सूफियों का ढंग, अलमस्तों का ढंग,
अल्हड़ों का ढंग--एक स्वर्ण पात्र में दूध भरकर भेज दिया था। इतना भर
दिया था दूध कि एक बूंद भी उसमें अब और न समा सके। जो लेकिन आया था पात्र, उसे भी बड़ा संभालकर लाना पड़ा थी। क्योंकि अब छलका तब छलका। इतना भरा था।
ऐसा लबालब था।
पात्र लाकर उसने नानक को भेंट दिया और कहा, मेरे सदगुरु ने भेजा है; भेंट भेजी है। नानक ने एक
क्षण पात्र को देखा, मरदाना सुबह-सुबह ही नानक के चरणों पर
लाकर कुछ फूल चढ़ाया था, उन्होंने एक फूल उठाया और दूध से भरे
पात्र में तैरा दिया। अब फूल का कोई वजन ही न था, वह वैर गया
दूध पर। एक बूंद दूध भी बाहर न गिरा। और कहा नानक ने, ले जाओ
वापिस, मैंने भेंट में कुछ जोड़ दिया; तुम
न समझ सकोगे, तुम्हारा गुरु समझ लेगा।
और गुरु समझा।
भागा हुआ आया, नानक के चरणों में गिरा और कहा कि आप मेहमान बनें।
मैंने पात्र भेजा था भर कर यह कहने कि अब और फकीरों की इस बस्ती में जरूरत नहीं।
यह बस्ती फकीरों से लबालब है। यह मस्तों की बस्ती है, अब आप
यहां किसलिए आए हैं। लेकिन आपने गजब कर दिया। आने एक फूल तैरा दिया। यह तो मैंने
सोचा भी न था, इसकी तो कल्पना भी न की थी, कि फूल तैर सकता है। क्योंकि फूल कुछ डूबेगा नहीं--ऊपर ऊपर ही रहा। रहा
होगा हलका-फूलका फूल। टेसू का फूल। कि चांदनी का फूल। डूबा ही नहीं तो पात्र से
दूध गिरने का सवाल ही न उठा! समझ गया आपका संदेश कि आप आए हैं बस्ती में, फूल की तरह समा जाएंगे। आएं, स्वागत हैं! बस्ती में
कितने ही फकीर हों, आपके लिए जगह है। फूल ने खबर दे दी।
यह सूत्र यूं तो लबालब है, यह पात्र यूं तो दूध
से भरा है, इसमें एक बूंद जोड़ने की गुंजाइश नहीं, लेकिन फूल तैराया जा सकता है। और जरूर तैराना चाहिए। तैराते ही रहना
चाहिए। उपनिषद मरने नहीं चाहिए। तब तो उपनिषद पर उपनिषद लिखे गये। अन्यथा एक
उपनिषद से बात पूरी हो गयी थी। एक छांदोग्य उपनिषद में सब आ जाता। एक कठोपनिषद में
क्या बचता है और, सब आ गया! एक छोटे से उपनिषद ईशावास्य में,
जिसको कि पोस्टकार्ड पर छापा जा सकता है, सब आ
गया; सब उपनिषद आ गये, सब वेद आ गये,
सब पुराण आ गये। लेकिन उपनिषद पर उपनिषद लिखे जाते रहे। तैराने वाले
फूल पर फूल तैराते चले गये।
यूं ही जीवन गतिमान रहता है। नहीं तो ठहर जो, सड़ जाए। जहां पानी रुका, वहां गंदा हुआ। जहां बहता
रहा, वहां निर्मल रहा।
बहता रहे यह पानी भी, इसलिए तुमसे कहता हूं--
इस सूत्र का पहला चरण है:"तमसो मा ज्योतिर्गमय। हे प्रभु,'...प्रभु को सीधा-सीधा उल्लेख नहीं किया। वह प्यारी बात है। क्योंकि शब्द में
जो आ जाए, वह तो परमात्मा नहीं है। उसे अनकहा छोड़ दिया है।
उसे समझो, उसे कहो मत। इसलिए सीधा-सीधा प्रभु का कोई उल्लेख
नहीं। मगर उसकी उपस्थिति का एहसास है। क्योंकि यह प्रार्थना है। जहां प्रार्थना है,
वहां प्रभु की उपस्थिति है। सच्ची प्रार्थना में प्रभु को कहना नहीं
होता, प्रार्थना काफी होती है। प्रार्थना का
धुआं--धूप--प्रार्थना की ज्योतिम जिस तरफ उठने लगती है, जिस
आकाश की तरफ, जो ऊर्ध्वगमन करने लगती है वही इशारा है उसका।
इशारा भार होता है। इसलिए तुम कोष्ठक में समझना: "हे प्रभु!' प्रत्यक्ष नहीं है, प्रगट नहीं है, कहा नहीं है, मगर समझना जरूर क्योंकि बिना उसके बात
बनेगी नहीं। सूत्र अधूरा है बिना उसके।
सूफियों ने ईश्वर के, फकीरों के, अलमस्तों को ईश्वर के नामों की गणना पढ़ागे तो बहुत चौंकोगे। ऊपर तो लिखा
होता है: परमात्म के सौ नाम--और अगर तुमने गिनती नहीं की तो तुम्हें पता ही नहीं
चलेगा, क्योंकि निन्यानबे हैं कि सौ, कैसे
पता चलेगा?--गिनोगे तो बहुत चौंकोगे; गिनोगे
तो निन्यानबे पाओगे, सौ कभी-नहीं।
निन्यानबे कहे हैं, सौवां असली है; जो कहा, वह तो सिर्फ इशारा है, जो नहीं कहा, वही असली है। निन्यानबे से उसी की तरफ
इशारा किया है, सौवें की तरफ। मगर अनकहे को भी गिनती में है;
सौ। ऊपर तो लिखा होता है: सौ नाम परमात्मा के, पाओगे निन्यानबे।
ऐसा ही कहा नहीं है, छिपा है।
सत्य को पंक्तियों के बीच में पढ़ना होता है, जहां पृष्ठ खाली होता है, लकीरों में नहीं।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
"हे प्रभु,'...कोष्ठक लगा
लेना..."मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।' मगर किससे
कहा? किसी से तो कहना ही होगा। नहीं तो सूत्र बेमानी हो
जाएगा। इसका कुछ अर्थ न रह जाएगा। मुझे ले चल अंधकार से आलोक की ओर। मगर कौन ले
चले? इसलिए प्रार्थना में प्रभु हैं; उसकी
उपस्थिति है, अभिव्यक्ति नहीं है।
असतो मा सदगमय
दूसरा चरण: कि, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल। और तीसरा चरण
है--मृत्योर्माऽमृतं गमय
"मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।'
तीनों सूत्र अलग-अलग नहीं हैं। एक-दूसरे से गुंथे हैं। एक ही सत्य के
तीन पहलू हैं। यूं समझो: त्रिमूर्ति। परमात्मा जैसे तीन रूप, ऐसे तीन सूत्र। जैसे तीनों रूपों की प्रार्थना कर ली। इसमें फूल तैराया जा
सकता है। और जरूर तैराना चाहिए; ताकि उपनिषद जिंदा रहे;
उपनिषद मर न जाए; उपनिषद बढ़ता रहे, बहता रहे। गंगा चलती रहे, सागर बनती रहे। सागर उड़ता
रहे, बादल बनता रहे। बादल बरसता रहे, गंगा
बनता रहे। यह बहाव ही जीवन है।
इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं कि इस प्रार्थना से थोड़े और ऊपर उठा जा
सकता है। फूल तैराना होगा तो थोड़े ऊपर उठना होगा। क्योंकि पात्र तो लबालब है, भरपूर है, एक बूंद जगह नहीं है। थोड़ा ऊपर उठोगे तो
ही बात बनेगी।
अंधकार तो होता ही नहीं। अंधकार का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसलिए
यह प्रार्थना कि हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल, अंधकार से ही भरी हुई हो गयी। अंधकार तो होता ही नहीं। अंधकार तो केवल
अभाव है। अंधकार की कोई स्थिति नहीं है। अंधकार की कोई सत्ता नहीं है। इसलिए तो
तुम अगर अंधकार के साथ सीधा-सीधा कुछ करना चाहो तो न कर पाओगे। तुम्हारे कमरे में
अंधकार भरा हो और मैं कहूं निकाल बाहर कर दो, तो तुम लाख
चिल्लाओ, धक्के मारो, तलवार निकाल लो
म्यान से, कि बंदूकें चलाओ, कुछ भी न
होगा। कितने ही बड़े पहलवान क्यों न होओ और कितने ही दांव-पेंच क्यों न लगाओ,
लेकिन हारोगे, अंधकार को बाहर न निकाल सकोगे;
टूटोगे, खुद ही गिरोगे थक कर। और जब गिरोगे थक
कर तो तुम्हारा तर्क कहेगा कि शायद अंधकार मुझसे ज्यादा बलवान है। यही तो तर्क की
भ्रांति है।
तर्क बड़े भ्रांत निष्कर्ष दे देता है। लड़े और हारे तो जाहिर है कि
जिससे हारे, वह शक्तिशाली होना चाहिए। मगर यह भी हो सकता है--यह
तर्क को कभी नहीं सूझता--कि वह हो ही न इसलिए तुम हारे। अब जो है ही नहीं, उससे लड़ोगे तो जीतोगे कैसे? जीतना असंभव है। अंधकार
से घूंसेबाजी करोगे तो खुद ही थक जाओगे, थक कर गिरोगे।
अंधकार का क्या बिगाड़ लोगे? अंधकार होता तो जरूर कुछ बिगाड़ा
जा सकता था। धक्का-मुक्की करके बाहर निकाल सकते थे। शोरगुल मचा सकते थे। हमला बोल
सकते थे। लेकिन तुम अंधकार का कुछ भी न कर सकोगे, क्योंकि
अंधकार है ही नहीं। तलवार चल जाएगी, काटेगा नहीं। बंदूक चल जाएगी,
मरेगा नहीं। जहां का तहां रहेगा--क्योंकि है ही नहीं। होता तो कुछ न
कुछ कर लेते।
न तो अंधकार को हटा सकते हो। अगर तुम हटा सकते होते तो बड़ी दिक्कतें
होती। भारत की सड़कों पर चलना मुश्किल हो जाता। हर आदमी अपने घर का अंधकार सड़कों पर
डाल देता। जैसे कचरा डाल देते हो।
और यहां तो हर आदमी दार्शनिक है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा था कि एक औरत ने पूरी की पूरी
टोकनी कचरा-कबाड़ से भरी ऊपर से उंडेल दी। छज्जे के नीचे झांक कर भी न देखा। उस
टेकरी में से एक टीन का डिब्बा नसरुद्दीन के सिर पर लगा। बड़े जार से वह चिल्लाया
कि अंधी है तू, तुझे दिखायी नहीं पड़ता? अरे,
स्त्री ने कहा कि यही कहो कि एक ही डिब्बा लगा; इसमें ईंट भी थी, पत्थर भी था। सौभाग्य मानो अपना,
बड़े मियां! धन्यवाद दो परमात्मा का यह खाली टीन का डिब्बा बजा,
इसमें क्या बिगड़ गया?
इस देश में ज्ञानी तो सभी हैं। क्या बात उसने भी पते की कहीं कि यह
क्यों नहीं सोचते, आशावादी बनो, क्या निराशावादी
बनते हो, यह क्यों नहीं सोचते कि ईंट भी लग सकती थी! सिर खुल
जाता, अभी अस्पताल में होते! सिर्फ टीन का डिब्बा लगा,
धन्यवाद तो देते नहीं, उलटे मुझ आंखवाली को
अंधा कहते हो!
और मैं भी क्या करूं? अभी नयी-नयी शादी होकर आयी है,
पहले दिन मेरे पति ने कहा कि नीचे देख-दाखकर फेंकना। सो मैं आधा
घंटे खड़ी रही, जब आदमी निकला एक तब मैंने फेंका। सो वह आदमी
लड़ने आ गया। और मैंने पति से कहा, तुमने ही तो कहा था कि
नीचे देख लेना कि आदमी है या नहीं, तब फेंकना। तो उसने अपना
सिर पीट लिया मेरे पति ने और उसने कहा कि तू अब बिना ही देखे फेंका कर। तो आप
झगड़ने को खड़े हो गये! आखिर आदमी कुछ करे कि न करे?
अंधेरा अगर फेंका जा सकता होता तो सड़कों पर ढेर लग जाते, निकलना मुश्किल हो जाता। तैरना पड़ता अंधेरे में से। नावें खेनी पड़ती। बड़ी
मुश्किल हो जाता। तैरना पड़ता अंधेरे में से। नावें खेनी पड़ती। बड़ी मुश्किल हे
जाती। मगर अच्छा है कि अंधेरे को कोई बाहर नहीं फेंक सकता। न अंधेरे को तुम बाहर
फेंक सकते हो और न अंधेरे को भीतर ला सकते हो। जैसे दोपहर में तुम्हें सोना है और
तुम चाहो कि अंधेरा भीतर ले आएं ताकि अच्छी नींद आए, तो तुम
अंधेरे का बटोरकर भीतर भी नहीं ले आ सकते। अंधेरे के साथ कुछ करना हो तो प्रकाश के
साथ कुछ करना पड़ता है। अंधेरा हटाना है तो प्रकाश जलाओ। अंधेरा लाना है तो प्रकाश
बुझाओ। प्रकाश की सत्ता है, अंधकार की काई सत्ता नहीं।
यह प्रार्थना कहती है: हे प्रभु, मुझे अंधकार से आलोक
की तरफ ले चलो। अंधकार तो है ही नहीं, क्यों परमात्मा को
कष्ट देते हो? इतना जान लो कि अंधकार नहीं है, इतने जान लेने में ही प्रकाश हो जाता है। इस बोध में ही प्रकाश हो जाता
है।
इसलिए उपनिषदों से आगे कदम बढ़े। बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की।
परमात्मा को बीच में नहीं लाए। क्यों उस बिचारे को परेशान करना! बोध से ही बात हल
हो जाती है तो प्रार्थना क्यों करनी? जब अपने से ही बात हल
हो जाती हो तो क्यों द्वार पर दस्तक देनी? हो तो ठीक,
न हो तो ठीक।
परमात्मा है या नहीं, इसकी भी चर्चा बुद्ध ने नहीं की।
कोई पूछता था तो हंसकर टल जाते थे। कह देते थे, अव्याख्य है,
मत पूछो। न पूछो तो अच्छा। कुछ भी कहना उचित नहीं है। हो तो ठीक,
न हो तो ठीक, लेना-देना क्या है? काम की बात तो कुछ और है। अंधकार नहीं है, इस सत्य
की प्रतीति चाहिए। इसलिए मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखाता, मैं तुम्हें ध्यान सिखाता हूं, भेद इतना ही है।
प्रार्थना और ध्यान में इतना ही भेद है: प्रार्थना सिर्फ हाथ जोड़ कर
निवेदन करती है, हे प्रभु, ऐसा करो। फिर वह
कितनी ही ऊंची प्रार्थना क्यों न हो, यह उपनिषद की ही प्रार्थना
क्यों न हो, यह अदभुत, अपूर्व
प्रार्थना ही क्यों न हो। प्रार्थना में मांग होती है। तू कुछ कर! और ध्यान में
स्वयं करने का बल होता है; स्वयं करने का भाव होता है।
जब भी कोई समाज प्रार्थनाओं से भर जाता है, तो आलसी हो जाता है। हो ही जाएगा। क्योंकि वह हर चीज के लिए प्रार्थना
करने लगता है। जब परम अनुभूतियों के लिए प्रार्थना की जा सकती है तो फिर छोटी-मोटी
चीजों के लिए क्यों नहीं कर लेनी! जब परमात्मा अंधकार को मिटाकर और प्रकाश दे सकता
है, असत्य को हटाकर और सत्य दे सकता है, मृत्यु को हटाकर अमृत दे सकता है, तो क्या गरीबी
मिटाकर अमीरी नहीं दे सकेगा? बेकारी मिटाकर कारबार नहीं दे
सकेगा? जरूर दे सकेगा। ये तो छोटी-मोटी बातें हैं। ये तो
परमात्मा के नौकर-चाकर देवी-देवता कर देंगे। यह तो काली माई और दुर्गा माई और
संतोषी मइय्या और ढांढन सती--यह तो कोई भी कर देगा। यह तो नौकर-चाकर, नौकर-चाकरों के नौकर-चाकर कर देंगे। ये छोटे-मोटे काम! और भी छोटे-मोटे
करने हों, बुरे काम करवाने हों, तो
भूत-प्रेत हैं, वे कर देंगे। किसी की जेब कटवानी है, किसी को जहर दिलवाना, किसी की गर्दन कटवानी है। मगर
कोई कर देगा! हमें नहीं करना है।
प्रार्थना में एक बुनियादी भूल है कि यह टालती है दूसरे पर। और इसका
स्वभाविक परिणाम आलस्य होता है।
मौसम था बरसात का, भादौं आधी रात,
आश्रम श्रम से दूर था, सुनो वहां की बात।
सुनो वहां की बात, जलेबी-दूध-परांठे,
खा-पी करके गुरु ले रे थे खर्राटे
आंख खुली तो चेले को आवाज लगाई,
क्यों रे छोरे! बिजली अब तक नहीं बुझाई?
चेला अड़ियल आलसी, गुरु अजगरानन्द,
कहने लगा कि मान्यवर, आंखें कर लो बंद।
आंखें कर लो बंद, समस्या स्वयं सुलझेगी,
मुंह ढंक कर सो जाओ, समझ लो बत्ती बुझेगी।
बोले गुरु, यह तो बतला आलस के
चरखा,
बंद हो गयी है या अभी हो रही बरखा?
"गुरु जी, बाहर से आई है
अपनी बिल्ली
हाथ फेर कर देखो,सुखी
है या गिल्ली?
गिल्ली है तो जानिए, चालू है बरसात,
सूखी है तो बंद है, खत्म हो गयी बात।'
"खत्म हो गई बात? न आती
तुझको लज्जा
टाल रहा हर काम, बंद कर दे दरवज्जा।',
"दो मैंने कर दिये कार्य अब सोने दीजे,
काम तीसरा भगवान आप स्वयं कर लीजे।'
यह होने वाला है। यह स्वाभाविक है। जहां प्रार्थना प्रमुख हो जाएगी
वहां अंतिम परिणाम आलस्य होगा। लोग भिखमंगे हो जाएंगे। भारत की पूरी मनोदशा
भिखमंगे की हो गयी है। जब मांगने से मिल जाए, तो करना क्यूं?
इसलिए मंदिरों में सिर पटको, कब्रों पर
मनौतियां मनाओ, पीरों की प्रार्थना करो। और आशा रखो कि सब हो
जाएगा। जब उसकी मर्जी होगी तब होगा। अपने किये तो कुछ होता नहीं। उसकी मर्जी के
बिना तो पत्ता नहीं हिलता, यह प्रार्थना करने वाले लोग समझते
रहे, समझाते रहे। सो ये पत्ता भी नहीं हिलाते। ये खुद ही
नहीं हिलते।
इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि सारा देश गहन आलस्य में, निद्रा में, तंद्रा में डूब गया। इसका परिणाम हुआ:
गरीबी, दरिद्रता, दीनता। फिर हम गरीबी,
दरिद्रता और दीनता के लिए नये-नये तर्काभास खोजने लगे। पहले हमने
तर्काभास खोजा कि गरीब वे ही लोग हैं,
जिन्होंने पिछले जन्मों में दुष्कर्म किये थे। अमीर वे लोग हैं,
जिन्होंने पिछले जन्मों में पुण्यकर्म किये थे। यूं अपने को समझाने
लगे, सांत्वना देने लगे।
फिर महात्मा गांधी आए और उन्होंने कहा कि गरीब? कोई छोटी-मोटी बात नहीं। यह तो दरिद्रनारायण है। तो दरिद्रनारायण की तो
पूजा करनी चाहिए। उसके तो पैर धोने चाहिए। तो वर्ष में एक दिन महात्मा गांधी किसी
दरिद्र के पैर धो देते थे--औपचारिक, वर्ष में एक दिन। जैसे
वृक्षारोपण समारोह होता है! आज लग जाते हैं वृक्ष, कल नदारद
हे जाते हैं। आज यहां लग जाते हैं वही वृक्ष, कल दूसरी जगह
वृक्षारोपण उन्हीं का हो जाता है। तीसरे दिन तीसरी जगह हो जाता है--वही वृक्ष
जगह-जगह रोपित होते रहते हैं। कहीं वृक्ष ऊगते दिखायी पड़ते नहीं। करोड़ों वृक्ष
रोपित हो गये इन तीस सालों में, पूरा देश हरियाली से भर गया
होता; हरियाली कहीं दिखायी नहीं पड़ती! सब वैसे ही का वैसा
है। कहां जाते हैं ये वृक्ष, पता नहीं। ये वृक्ष भी क्या
करें, इनको रोपित ही नहीं होने दिया जाता। आज यहां, कल वहां परसों वहां-- ये तो यात्रा ही करते रहते हैं बेचारे। जैसे नेता को
रोज-रोज उदघाटन करना पड़ता है, वृक्षों को रोज-रोज रोपित होना
पड़ता है।
तो एक दिन प्रतीकात्मक रूप से दरिद्रनारायण की सेवा कर ली। किसी कोढ़ी
के पैर दबा दिये। फिर दरिद्र को इज्जत देना शुरू कर दी हमने। कि जैसे दरिद्र होने
में बड़ी खूबी है! जैसे दरिद्र होने में बड़ी गुणवत्ता है, बड़ी महत्ता है।
पुराना तर्क था लक्ष्मीनारायण का। नया तर्क बना दरिद्रनारायण का। और
मजा यह कि महात्मा गांधी सेठ जमनालाल बजाज के धन से चलते, उठते बैठते थे। जमनालाल ने मंदिर बनवाया वर्धा में: लक्ष्मीनारायण का
मंदिर उस मंदिर का नाम है! मैंने जमनालाल की पत्नी जानकी देवी बजाज को पूछा,
वे मुझे मिलने आयी थीं वर्धा में, मैंने कहा
कि गांधीजी के भक्त थे जमनालाल, कम-से-कम इस मंदिर का नाम
दरिद्रनारायण का तो रखना था; लक्ष्मीनारायण रखा! उन्होंने
कहा, यह कैसे हो सकता है, हम परम
वैष्णव! नाम मंदिर का तो लक्ष्मीनारायण ही होगा।
नाम तो मंदिर का लक्ष्मीनारायण हुआ--पुराना तर्क चलता रहा। वह पुरानी
सांत्वना थी कि जिसके पास धन है, वह प्रभु का प्यारा है, सबूत है, नहीं तो धन क्यों होगा उसके पास। गांधी ने
तर्क को बदला लेकिन सांत्वना वही है। अब जो दरिद्र है, वह
प्रभु का प्यारा है। दरिद्र इसीलिए तो बनाया उसको। जरूर दरिद्र उसको ज्यादा प्यारे
है, तभी तो दरिद्र ज्यादा लोग बनाता है। और अमीर तो कभी-कभी
कोई बनाता है। इक्के-दुक्के, यहां-वहां। जिनको ज्यादा बनाता
है, साफ है, जाहिर है बात कि उसको वे
लोग ज्यादा पसंद हैं जिनको ज्यादा बनाता है। नहीं तो क्यों ज्यादा बनाए?
ये सारे तर्काभास आदमी खोजता है। मगर इनके भीतर छिपी हुई जड़ को नहीं
देखता। ये हमारी मांगने की वृत्ति का परिणाम है। ये हमारे आलस्य का फल है। सारी
दुनिया धनी होती चली गयी, हम गरीब होते चले गये।
मेरा जोर प्रार्थना पर नहीं है। मेरा जोर ध्यान पर है। फर्क समझ लेना!
प्रार्थना कहती है:ऐसा कर दो, प्रभु! ध्यान अपने
भीतर खोजता है कि कैसा है। और ध्यानी पाता है कि अंधकार तो है ही नहीं, प्रार्थना क्या करनी है! जाओ भीतर और देखो, आलोक ही
आलोक है। क्या प्रार्थना में समय गंवा रहे हो! तमसो मा ज्योतिर्गमय! किस तमस से और
किस ज्योति की तरफ जाने की बात कर रहे हो! नहीं भीतर गये, मालूम
होता। नहीं तो तुमने अंधकार पाया ही नहीं होता। ज्योति ही ज्योति है। फिर अगर
ज्योति के बाद ही तुम्हारे भीतर से धन्यवाद का रूप दूसरा होता। वह रूप यह
होता--अगर धन्यवाद ही देना होता और प्रार्थना की ही भाषा का उपयोग करना होता,
तो वह रूप ऐसा होता कि हे प्रभु, मुझे प्रकाश
से और प्रकाश की तरफ ले चल! यूं फूल तैराया जा सकता है। अंधकार की बात ही क्यों
छेड़नी! असत्य से सत्य की तरफ ले चल, ये बात क्यों छेड़नी,
सत्य से और बड़े सत्य की तरफ ले चल! मृत्यु से अमृत की तरफ ले चल,
ये बात क्यों छेड़नी, मृत्यु है ही नहीं,
मृत्यु झूठ है। जिसको लगता है कि मृत्यु है। न तुम कभी जन्में,
न तुम कभी मरे। ध्यान में यही तो उदघाटन होता है। असत्य है ही नहीं,
सत्य ही सत्य है।
फिर भी अगर प्रार्थना में ही बांधना हो इस अनुभव को, अगर तुम्हें प्रार्थना का स्वर ही प्यारा हो, तो फिर
यूं प्रार्थना करो: कि प्रकाश से और प्रकाश की तरफ ले चल। सत्य से और सत्य की तरफ
ले चल। अमृत से और अमृत की तरफ ले चल। पूर्ण से और पूर्णतर की तरफ, पूर्णतर से पूर्णतम की तरफ।
लेकिन यह जोड़ तभी संभव है जब ध्यान घटे।
उपनिषद प्रार्थना के शास्त्र हैं। उनमें अदभुत काव्य है। लेकिन मेरी
रुझान प्रार्थना की तरफ नहीं है। क्योंकि प्रार्थना में एक बुनियादी बात मानकर
चलनी पड़ती है कि परमात्मा है। और मैं नहीं चाहता कि तुम कुछ भी मानकर चलो। क्योंकि
मानकर चलने का अर्थ हुआ कि तुमने बिना जाने कोई बात मान ली। तुम अंधविश्वासी हो
गये। और अंधविश्वासी कैसे सत्य को जान सकेगा? उसने तो निष्कर्ष ले
ही लिया।
निष्कर्ष किस आधार पर लिया? किस बुनियाद पर लिया?
दूसरों से सुनकर ले लिया। औरों ने कहा, इसलिए ले लिया। अब और
ठीक कहते थे या गलत, यह क्या पता। और और तो हजार तरह की
बातें कहते हैं। हिंदू एक बात कहते हैं, मुसलमान दूसरी बात
कहते हैं, जैन तीसरी बात कहते हैं, बौद्ध
चौथी कहते हैं, किसकी मानो, किसकी न
मानो। तो संयोगवशात लोग निष्कर्ष लेते हैं।
संयोग का अर्थ हुआ: जिस घर में जन्म हो गया। अगर तुम भारत में पैदा
हुए,तो धार्मिक होते, नास्तिक होते।
हिंदू बच्चे को मुसलमान घर में पालो, कभी मंदिर नहीं जाएगा
बड़ा होकर। कोई खून में थोड़े ही हिंदू धर्म होता है; न
मुसलमान धर्म होता है। हड्डियों में थोड़े ही काई मुसलमान और हिंदू होता है। कोई
डाक्टर परीक्षा करके तो बता दे हड्डियों की कि यह आदमी ईसाई था, कि जैन था, कि पारसी था! ये तो केवल बाहर से डाले
गये संस्कार। जो सिखा दिया, वही बच्चा सीख लेता है। जो सिखा
दिया, उसी का मानकर जीने लगता है।
एक आदमी पागल हो गया--दर्जी था--मगर भगवान चतुर्भुज का भक्त था-- कोई
अजनबी आदमी उससे कमीज सिलवाने गया--गांव के लोग तो उसके पास जाना बंद ही कर दिये
थे। क्योंकि सिलवाओ कमीज, बना दे पजामा। बटनें आगे की न लगाकर पीछे लगा दे।
बनवाओ पजामा, गले में बांधने की सुथनी बना दे। उलटा-सीधा कर
दे--पागल आदमी! यह अजनबी था, आदमी बाहर का था, यह चला गया बनवाने। जब इसकी कमीज बनकर तैयार हुई और लेने गया तो देखकर बड़ा
हैरान हुआ कि उसमें चार बांहें थी। उससे पूछा कि भइय्या ये चार बांहें क्यों बनायी?
उसने कहा, मुझे तो...मैं चतुर्भुज भगवान का
भक्त हूं, मुझे तो सभी जगह चतुर्भुज के ही दर्शन होते हैं।
तुम्हारी चार बांहें नहीं हैं। तुम्हारी चार बांहें नहीं हैं? मुझे तो चार ही दिखायी पड़ रही हैं। तो तुम पहले ही कह देते कि तुम्हारी
कितनी बांहें हैं, उतनी बना देता। तुम बोले क्यों नहीं?
तो मुझे जैसा दिखायी पड़ता है वैसा मैंने बना दिया।
अब कोई चतुर्भुज भगवान को माननेवाला है। कोई अर्धनारीश्वर को
माननेवाला है कि आधे भगवान नारी, आधे नर। कोई नरसिंह भगवान को
माननेवाला है कि आधे पुरुष और आधे सिंह। फिर क्या-क्या मान्यताएं हैं! क्या-क्या
धारणाएं है ! जो जिसका समझा दिया। दूसरे हंसेंगे। क्योंकि दूसरों की धारणाएं और
हैं। तुम उनकी धारणाओं पर हंसोगे। ईसाई हिंदुओं पर हंसते हैं, हिंदू ईसाइयों पर हंसते हैं, मुसलमान जैनियों पर
हंसते हैं, जैनी बौद्धों पर हंसते हैं--सारी दुनिया एक-दूसरे
पर हंसती है। समझदार अपने पर हंसता है। वह यह देखता है कि मेरी धारणाएं भी तो इतनी
ही बचकानी हैं।
प्रार्थना में एक बुनियादी भूल है कि तुम्हें परमात्मा मानकर चलना होगा।
नहीं तो प्रार्थना किससे करोगे? कैसे करोगे, प्रार्थना शुरू कैसे होगी? प्रार्थना की आधारशिला
अंधविश्वास है। इसलिए मैं प्रार्थना का पक्षपाती नहीं हूं।
ध्यान कह एक खूबी है, उसकी एक वैज्ञानिकता है। ध्यान
कहता है, कुछ भी मानने की आवश्यकता नहीं है। नास्तिक भी
ध्यान कर सकता है, यह उसकी गरिमा है। नास्तिक को भी ध्यान यह
नहीं कहता कि तुम आस्तिक हो जाओ, फिर ध्यान करना। मेरे मास
नास्तिक आते हैं, वे कहते हैं, हम
ध्यान कर सकते हैं? हम नास्तिक हैं! मैं कहते हूं, ध्यान पूछता ही नहीं कि तुम आस्तिक हो कि नास्तिक हो। ध्यान तो एक
वैज्ञानिक विधि है, शांत होने की। अब नास्तिक को शांत होना
है तो नास्तिक शांत हो सकता है। मौन होने की कला है ध्यान। अब नास्तिक को मौन होना
है तो नास्तिक मौन हो सकता है।
आस्तिक और नास्तिक में फर्क क्या है? इसके भीतर आस्तिक
बकवास चल रही है, उसके भीतर नास्तिक बकवास चल रही है। ध्यान
कहता है, कोई बकवास नहीं चलनी चाहिए। ध्यान कहता है, भीतर कोई विचार नहीं चलना चाहिए, न आस्तिक, न नास्तिक। हिंदू करे, मुसलमान करे, ईसाई करे, पारसी करे, कोई भी
ध्यान करे। ध्यान की एक अदभुत महिमा है। और वह यह कि न संप्रदायों की काई जरूरत है,
न विश्वासों की कोई जरूरत , न मान्यताओं की
काई जरूरत है,न संस्कारों की कोई जरूरत है; एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो कोई भी पूर्वापेक्षा
नहीं करता कि पहले तुम्हें यह मानना पड़ेगा। जो कहता है, तुम
जैसे हो, बस ऐसे ही शांत हो सकते हो। और शांत होने के बाद
जानने का उदघाटन होता है, पर्दे उठते हैं। जो शांत हुआ उसने
जाना, जो मौन हुआ उसने पहचाना।
जरूर परमात्मा जाना जाता है, लेकिन मानो क्यों?
जो जाना जा सकता है,उसे कभी मानना ही मत।
क्योंकि मान लिया तो फिर जान न सकोगे। माननेवाला अभागा है। सौभाग्यशाली तो
जाननेवाला है। मुक्ति तो जानने से होगी।
इसलिए मैं तो कहूंगा: जानो! और जानोगे, जागोगे अपने भीतर तो
पाओगे अंधकार नहीं है, असत्य नहीं है, मृत्यु
नहीं है। यह प्रार्थना करने की गुंजाइश ही गयी। सत्य ही है, आलोक
ही है, अमृत ही है। फिर तुम्हारी मौज में आए और गाना हो गीत,
गुनगुनाना हो तो मैं मना नहीं करता। मैं कौन हूं किसी को मना करूं!
तुम्हें नाचना हो जानने के बाद, गीत गाना हो तो गाना,
मगर तब तुम्हारे गीत का का यह भाव नहीं हो सकता कि मुझे अंधकार से
आलोक की तरफ ले चल। तब यही भाव हो सकता है कि आलोक तो है ही, हे मेरे प्रभु, मुझे और आलोक की तरफ ले चल! कौन जाने,
इतना आलोक है तो और भी आलोक हो! तब तुम्हारी प्रार्थना में भी एक
सत्य होगा, एक अंधी धारणा नहीं। एक अनुभव होगा, एक प्रतीति होगी। इतना-सा फूल अगर आज्ञा दो तो तुम्हारे दूध से भरे पात्र
में तैराना चाहता हूं।
तुम्हारा पात्र दूध से भरा है, यानी प्रार्थना से।
मैं ध्यान का फूल उसमें तैरा देना चाहता हूं। यह फूल तैर जाए तो तुम्हारे जीवन में
चार चांद जुड़ सकते हैं।
लेकिन मेरी बात को समझने की कोशिश करना, नरेंद्र बोधिसत्व।
अक्सर खतरा हे जाता है, मेरी बात को समझने में अक्सर चूक हो
जाती है। क्योंकि जो मैं तुमसे कहता हूं, वह तो मेरा अनुभव
है, तुम्हारा नहीं। तुम सुनते हो उसे अपनी जगह से, अपनी धारणाओं में डूबे हुए। तुम्हारी धारणाओं को चोट लग सकती है। मेरी
मजबूरी है। में असहाय हूं। चोट करना नहीं चाहता, तुम्हें दुख
देना नहीं चाहता, लेकिन दुख हो सकता है। दुख इसलिए हो सकता
है कि तुम एक गलत जीवनदृष्टि को पकड़कर अगर चल रहे हो, तो
तिलमिलाओगे; तो तुम्हें बेचैनी हो जाएगी; तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
मैं उपनिषद के विरोध में नहीं बोल रहा हूं। उपनिषद से मुझे प्रेम हैं।
लेकिन उपनिषद के भी पार और जगत है। और भी आसमान हैं, और भी उड़ानें हैं। और
मैं चाहता हूं कि जब उड़ने ही निकले हो, तो किसी सीमा को मत
बांधना। न उपनिषद की, न वेद की, न
कुरान की, न बाइबिल की। मानना ही मत सीमाओं को। जब उड़ने ही
चले हो, तो पंखों को पूरी स्वतंत्रता देना।
दिल्ली की घटना है। एक आदमी रिक्शेवाले से बोला, "क्यों भाई, लाल किले का क्या लोगे?'
रिक्शेवाला बोला,"लाल किला क्या मेरे बाप का
है?'
क्या कहो और लोग क्या समझ लें!
दो अफीमची बैठे थे। पीनक में थे।...और यहां कौन पीनक में नहीं है। तरह
तरह की अफीमें हैं। कार्ल माक्र्स ने तो कहा ही है कि तुम्हारा तथाकथित धर्म अफीम
का नशा है। और मैं उससे निन्यानबे प्रतिशत राजी हूं। निन्यानबे प्रतिशत ही लेकिन।
जहां तक भीड़ के धर्म का संबंध है, वह तो अफीम का नशा है ही। वह
तुम्हें सुलाए रखता है। लेकिन कार्ल माक्र्स की बात सौ प्रतिशत सत्य नहीं है।
क्योंकि उसे बुद्धों के धर्म का कोई पता नहीं है। नहीं तो वह बात बेशर्त नहीं कह
सकता था। उसने बेशर्त घोषणा कर दी। उसने तो यूं कह दिया कि सभी धर्म अफीम के नशे
हैं। धर्म मात्र अफीम का नशा है। वैसा मैं नहीं कहूंगा। धर्म है तो अफीम का नशा,
लेकिन तुम्हारा धर्म, मेरा नहीं।
वे दो अफीमची बैठे थे, पूरे चांद की रात,
एक अफीमची ने कहा, "अहह, क्या प्यारा चांद है! दिल होता है खरीद ही लूं। आज अगर कोई लाख रुपये भी
मांगे तो देने को राजी हूं। है कोई बेचनहार!'--दी उसने जोर
से आवाज।
दूसरा अफीमची खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा,"अरे, बकवास बंद कर, अपनी
हैसियत का ख्याल कर। तेरी क्या तेरे बाप की भी हैसियत नहीं कि चांद खरीद ले!'
उसने कहा,"क्या कहा? जरा संभलकर
बोलना। आज सब दांव पर लगा दूंगा।'
"अरे,' दूसरे ने कहा,"तू कितना भी दांव पर लगा दे, हमें बेचना ही नहीं! तू
सारी दुनिया दांव पर लगा दे मगर जब बेचना ही नहीं हमें तो कोई खरीदेगा कैसे?
तुम्हारी मान्यताओं का लोग तुम्हारी कल्पनाओं का लोग है। पीनक की
बातें हैं। तुम्हें अपना पता नहीं और तुम ईश्वर की बातें करते हो! तुम्हें अपना
पता नहीं, अपना ठिकाना नहीं तुम्हें, तुम
कौन हो, इसका उत्तर नहीं दे सकते और तुम मोक्ष और निर्वाण और
परलोक की बातें करते हो! और तुम्हें शर्म भी नहीं आती, संकोच
भी नहीं लगता? तो फिर मेरी बातें सुन कर तुम्हें चोट लग सकती
है।
कहां पांव धरें हम,
किसे याद करें हम,
यह अपनी डगर है,
अजनबी-सा शहर है
सभी ओर अंधेरे के
उभरते हुए चेहरे,
इधर सांप की फुफकार
उधर भूत के पहरे
यहां रात के तहखानों में
मुर्दों का सफर है
अजनबी-सा शहर है
यहां शक्लें सभी बर्फ की
परतों में जमी-सी,
कमरों के पिरामिड में
बंद देह ममी-सी
आंखों में बंद नींद की
टिकिया है, जहर है
अजनबी-सा शहर है
सभी ओर घूमती हैं
कबंधों की जमातें,
जिंदों को घेर करके
प्रेत जश्न मनाते
इधर जिंदगी की चीख
उधर मौत का घर है
अजनबी-सा शहर है
यहां सर्द कैदखाने-सी
हर बंद गली है
सड़कें लहूलुहान हैं
दीवारें जली हैं
हर बात यहां एक
हादसे की खबर है
अजनबी-सा शहर है
अपना पता नहीं, औरों का पता नहीं, सब अजनबी-सा
है सब अपरिचित है और तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो--
भीड़ में, धक्कमधुक्की में, एक-दूसरे की
नकल करते हुए। तुम्हारे पिता ने तुमसे कह दिया ईश्वर है, उनके
पिता उनसे कह गये कि ईश्वर है और उनके पिता उनसे कह गये। इनमें से शायद किसी को भी
पता नहीं। शायद हजारों साल पीछे किसी को पता रहा हो तो रहा हो। वह भी कुछ पक्का
नहीं है, बात बिलकुल सुनी हो सकती है। यहां तो चिंदी के सांप
बन जाते हैं। यहां तो खबरों को पंख लग जाते हैं। यहां तो बात फैलती ही चली जाती है,
बड़ी होती चली जाती है। और फिर लोग उस पर जी-जान से लड़ने को तैयार हो
जाते हैं। नकल से मत जीना। प्रार्थना में वही खतरा है। उसमें नकल है। ध्यान में
खतरा नहीं है। उसमें नकल नहीं है। ध्यान में तुम्हें अपने भीतर जाना है, प्रार्थना में किसी के पीछे जाना है। और नकल से कभी काम होता नहीं। सिखाये
पूत दरवाजे चढ़ते नहीं, दीवारें लांघते नहीं।
मैंने सुना है, दो आदमी एक जेलखाने में बंद थे। एक था मारवाड़ी
चंदूलाल...आ गा था गिरफ्त में! की होगी तस्करी वगैरह!...और दूसरे थे सरदार
विचित्तर सिंह। दोनों सोचते-विचारते, कैसे निकल भागें?
एक रात मौका हाथ लग गया। होली की रात थी, पहरेदार
डटकर भांग छान गया था, सो उन्होंने कहा आज मौका है, आज निकल भागें, आज पहरेदार नशे में है।
पहले चंदूलाल निकले। जब चंदूलाल सरक कर दरवाजे के पास से निकलने लगे, तो यूं तो पहरेदार भंग के नशे में था मगर जिंदगी भर की पहरेदारी की आदत,
सो नशे में भी बोला: कौन है? चंदूलाल तो पक्के
मारवाड़ी, होशियार आदमी, बोले: म्याउं,
म्याउं। पहरेदार ने कहा, भाड़ में जा! अपनी
मस्ती में बैठा थी, कहां की बिल्ली आ गयी और!
सरदार विचित्तर सिंह ने सुना, उन्होंने कहा,
वाह, गजब का चंदूलाल है! निकल गया पट्ठा!
सरदार विचित्तर सिंह भी निकले। फिर उस पहरेदार ने पूछा: कौन है? सरदार विचित्तर सिंह ने कहा: अरे, अभी वह मारवाड़ी
बिल्ली गयी मैं पंजाबी बिल्ला हूं। नाम सरदार विचित्तर सिंह।
पकड़े गये। फौरन पकड़े गये।
जब मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम यह क्या बकवास कर रहे थे, उन्होंने कहा, वह चंदूलाल भाग गया और उस हरामजादे ने
भी सिर्फ म्याउं-म्याउं कहा था! और मैंने तो पूरा-पेरा उत्तर दिया था कि मैं
पंजाबी बिल्ला हूं, सरदार विचित्तर सिंह मेरा नाम है और फिर
भी पकड़ा गया। मेरी तो राज समझ में नहीं आता!
नकल में अक्सर यह भूल होनेवाली है। कुछ का कुछ हो जाएगा।
तोतों की तरह लोग दोहरा रहे हैं। यह उपनिषद की प्रार्थना कितनी दोहराई
जाती है। मगर जो दोहराते हैं, उनका अंधकार मिटते दिखता है?
कहीं दिये जलते दिखते हैं? कहीं दीपावली होती
दिखती है उनके जीवन में? वही अंधकार। वही का वही अंधकार।
एक हिंदू संन्यासी, स्वामी दिव्यानंद, मैं जब छोटा बच्चा था तो मेरे घर मेहमान हुए थे। मेरे पिता से उनकी काफी
बनती थी, तो कई बार आकर रुकते थे। वे इस प्रार्थना का रोज
करते थे। सो जब भी आते--साल में एक-दो बार जरूर आते और महीने-पंद्रह दिन
रुकते--रोज नियम से वे इस प्रार्थना को करते। और मेरे जिम्मे यह काम था कि उनको
सुबह से घुमाने ले जाऊं। सो वे रास्ते भर इस प्रार्थना को करते रहते थे। एक साल
मैंने सुना, दूसरी साल मैंने सुना, तीसरी
साल मैंने सुना, जब चौथी साल वे फिर आए और फिर यही प्रार्थना
करने लगे तो मैंने कहा कि मामला कब तक चलेगा? अभी तक आलोक
हुआ नहीं? उसने सुनी नहीं? अभी भी वही
बकवास जारी है? आखिर तीन साल से तो मैं सुन रहा हूं और कम से
कम तीस साल से आप पहले से कर रहे होंगे। कब तक यह करते रहोगे प्रार्थना कि ले चल
अंधकार से प्रकाश की ओर? न वह सुनता है, न आपकी अकल में यह आता है कि तीस साल निकल गये अभी तक सुना नहीं, अब क्या खाक सुनेगा! या तो बज्र बहरा है, जैसा कि
कबीर ने कहा कि क्या बहरा हुआ खुदाय? अरे, यूं चिल्ला रहा है, इतने जोर से चिल्ला रहा है!
चिल्लाता है न मुल्ला, अजान देता है सुबह से। पकड़ लिया होगा
किसी मुल्ले को और कहा होगा कि क्यूं चिल्लाता है इतने जोर से, क्या तेरा खुदा बहरा है? और इतने जोर से भी
चिल्लाएगा तो भी क्या खुदा सुन लेगा?
मैंने कहा, तीस साल हो गये, कब तुम्हें समझ
आएगी? अपना दिया खुद क्यों नहीं जलाते? तुम्हारी हालत तो यूं है कि लालटेन लिए बैठे हैं और बस प्रार्थना कर रहे
हैं, कि हे प्रभु, जला दे। तीस साल हो
गये, अब तक नहीं जलाई, जाहिर है कि उसे
तुम्हारी लालटेन जलाने में कोई रस नहीं है। उन्होंने कहा, देखो
जी, तुम मेरी प्रार्थना में गड़बड़ नहीं कर सकते। मैंने कहा,
मैं, तीन साल हो गये सुनते, जब मैं घबड़ा गया तो परमात्मा की तो सोचो! तीस साल से तुम्हारी सुन रहा है
और तीन हजार साल से भारतीयों की सुन रहा है, उसकी खोपड़ी
भनभना गयी होगी। और तुम क्या करोगे? जब वह तुम्हारी लालटेन
जलाएगा! तुम भी कुछ करोगे कि नहीं?
फिर मैंने कहा, लालटेन कहां है, यह भी तो
देखूं!
वे तो मेरे पिता से कहे कि मैं इसको साथ नहीं ले जा सकता, यह मेरी प्रार्थना में दखलंदाजी करता है। मैं तो सुबह-सुबह जाता हूं कि
एकांत में, मौन से, शांति से, सुबह के ब्रह्ममुहूर्त में अपनी प्रार्थना दोहराऊं। ये ऐसे उलटे-सीधे सवाल
करने लगा। ये मुझसे कहता है कि आपकी लालटेन कहां है जिसको आप जलवाना चाहते हैं?
कि मैं जला दूं, यह मुझसे कह रहा था। अब नहीं
जलाता परमात्म तो छोड़ो मैं जला देता हूं।
और तुम को अभी भरोसा है कि तुम मरोगे, जो तुम अमृत की
प्रार्थना कर रहे हे? फिर क्या खाक जाना! फिर क्या खाक जाना!
फिर जरा-सी भी पहचान नहीं, जरा-सा भी स्वाद नहीं चखा आने
जीवन का, नहीं तो कहीं कोई जन्मता है या मरता है! न जन्में
हो, न मरोगे। इस देह के पहले भी तुम थे, इस देह के बाद भी तुम रहोगे। तुम शाश्वत हो।
उन्होंने मुझे ले जाना बंद कर दिया मगर प्रार्थना उन्होंने जारी रखी।
वे किसी और को ले जाने लगे। मैंने उससे पूछा कि भई, तुम्हें ले जाने लगे
हैं, प्रार्थना कौन-सी करते हैं? अगर
वही प्रार्थना करते हों तो तुम दखलंदाजी दे देगा अगर बचना हो। नहीं जो रोज ले जाना
पड़ेगा। तीन साल से मैं परेशान रहा। मैंने दखलंदाजी की कि छुट्टी मिली।
प्रार्थना से नहीं कुछ हो सकता है। प्रार्थना पर खड़ी हुई धर्म की पूरी
धारणा ही बचकानी है। मांगने की बात नहीं, जीने की बात है। जीओ
तो पा सकोगे। खोजो तो पा सकोगे। यूं आलस्य से न चलेगा।
ये शब्द तो प्यारे हैं। मगर शब्द कितने ही प्यारे हों, शब्दों से क्या हो सकता है? इनमें अनुभव का अर्थ
चाहिए। और अनुभव का अर्थ कौन डालेगा? वह तुम ही डाल सकते हो।
उपनिषद मुर्दा हैं, जब तक तुम उनमें प्राण न फूंको। तुम
प्राण फूंको तो तुम्हारे भीतर का उपनिषद बोलने लगता है। और जब तुम्हारे भीतर की
कोयल कुहू-कुहू करती है, और तुम्हारे भीतर का पपीहा
पिया-पिया पुकारता है, तब मजा है, तब
रस है; रसो वै सः, तब तुम्हें अनुभव
होगा कि परमात्मा का क्या स्वरूप है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मैं माया के जाल से मुक्त होना चाहता हूं। यह संसार तो सपना है, इसे कैसे काटूं, मार्ग बताइये।
मातादीन शुक्ल! एक ओर तो कहते
हो कि माया के जाल से मुक्त होना चाहता हूं। तो ऐसा लगता है जैसे तू जान गये कि ये
सब माया है। एक ओर तो कहते हो कि यह संसार तो सपना है। तो साफ लगता है कि तुम
पहचान गये कि यह संसार सपना है। और दूसरी ओर पूछते हो,इससे
कैसे मुक्त होऊं, इसे कैसे काटूं? इन
दोनों बातों में तो विरोधाभास है। या तो तुमने जाना नहीं कि यह माया है, यह सपना है, और जान लिया तो काटने को क्या बचा,
बात खत्म हो गयी! सुबह जागकर किसी ने कभी कहा है कि मैंने रात जो
सपने देखे, इनको कैसे काटूं? कहां है
वह कैंची जिससे रात के सपने काट डालूं? कि कहां है-वह आग कि
जिसमें रात के सपने डाल दूं? किसी ने सुबह जागकर यह कहा है?
जब कोई जागता है तो जानता है कि सपना सपना था। सपने में तो कोई
जानता ही नहीं कि सपना सपना है। अगर सपने में तुम जान लो कि सपना सपना है, सपना तत्क्षण टूट जाता है। यह सपने का सीधा-सा विज्ञान है।
जार्ज गुर्जिएफ अपने शिष्यों को समझाता थी कि तुम अगर एक बात जान लो
कि सपने में तुम पहचान सको कि यह सपना है, तो बस सपना टूट गया।
और उसी दिन बड़ा सपना भी टूट जाएगा। मगर यह बड़ा कठिन काम सपने में जानना कि यह सपना
है। इसके लिए वर्षों ध्यान की एक विशिष्ट प्रक्रिया गुर्जिएफ अपने शिष्यों को देता
था कि इसको साधो। वर्षों की प्रक्रिया के बाद कहीं यह घटना घटती थी और वह भी कभी
किसी के जीवन में--सभी के जीवन में नहीं--कि कोई सपने को सपने में जान जाता। और तब
गुर्जिएफ का सत्य प्रगट हो जाता था। जैसे ही तुमने जाना कि यह सपना है कि सपना
तिरोहित हुआ। क्योंकि तुम जाग गये।
लेकिन तुम, मातादीन शुक्ल, पिटी-पिटायी
बातें कर रहे हो। यह बकवास तुमने सुन ली है। यह पंडित-पुरोहितों से तुमने तोतों की
तरह ये सुंदर-सुंदर शब्द कंठस्थ कर लिये हैं। यहां तो हर कोई दोहरा रहा है: यह सब
माया-मोह है! यहां तो ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है जिसको ब्रह्मज्ञान न हो। मुझे तो
नहीं मिला अभी तक आदमी जिसको ब्रह्मज्ञान न हो! यहां तो सभी ब्रह्मज्ञानी हैं! यह
देश तो अदभुत देश है। तभी तो यहां देवता भी पैदा होने को तरसते हैं। यहां जो देखो
वही ब्रह्मज्ञानी है। हर एक आदमी ब्रह्म की चर्चा कर रहा है। और यूं कर रहा है
जैसे उसे पता हो। और जिंदगी देखो तो भ्रमों से भरी हुई है, ब्रह्म
का कहीं नाम-निशान नहीं।
बातचीत अच्छी सीख ली है। जैसे तोते राम-राम, राम-राम, राम-राम, राम-राम जप
रहे हैं।
शंकराचार्य जब मंडन मिश्र से विवाद करने मंडला गये तो उन्होंने गांव
के बाहर कुएं पर पानी भरनेवाली युवतियों से पूछा, कि देवियों, मैं मंडन मिश्र से विवाद करने आया हूं, उनके घर का
मुझे पता दे सकती हो? मंडन मिश्र के नाम पर ही मंडला का नाम
मंडला पड़ा। मंडन मिश्र उस समय के अदभुत विद्वान पंडित थे। वे स्त्रियां हंसने लगी।
और उन्होंने कहा, आप चिंता न करें, आप
गांव में प्रवेश करें, आपको पता चल ही जाएगा कि कौन-सा मकान
मंडन मिश्र का है। असंभव है बचकर निकलना उनके मकान से। उनके मकान के पास तोते भी
वेदमंत्र पढ़ते हैं। दूर से पूजा चल जाता है कि मंडन मिश्र का मकान आ गया।
और शंकराचार्य चकित हुए थे। सच में ही वृक्षों पर बैठे तोते वेदों का
उच्चार कर रहे थे। नीचे शिष्यगण बैठे थे वृक्षों के, वे वेद का उच्चार कर
रहे थे। तोते तो नकलची होते हैं, ये बकवास सुनते-सुनते
शिष्यों की वे भी बकने लगे होंगे। तोतों को क्या? वेश्याओं
के घर में रहते हैं तो वेश्याओं की भाषा बोलने लगते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक तोता खरीद लायी। तोता बेचनेवाले ने बहुत
इंकार किया कि बाई, न ले जा! मान, न ले जा! नहीं
मानी, क्योंकि तोता बड़ा सुंदर था और बड़ी लफ्फाजी बातें कर
रहा था। नहीं मानी तो उसने कहा, तेरी मर्जी, लेकिन मैं एक बात जता दूं, फिर कल लौटकर मुझे शिकायत
मत करना। यह तोता जरा अच्छी जगह नहीं रहा। जरा गलत संग-साथ में रहा है। तो कभी-कभी
उलटी-सीधी बातें कह देता है। तो फिर मुझसे मत कहना। ले जाती हो ले जा।
उसने कहा कि लेकिन यह इतनी अच्छी बातें कह रहा है। दुकानदार ने कहा कि
नहीं, अच्छी बातें भी कहता है; बड़े
गजब की शायरी करता है; कभी-कभी भजन भी गाता है;...अब वेश्या तो क्या नहीं करती! कभी भजन भी गाना पड़ता है। क्योंकि कभी-कभी
ब्रह्मज्ञानी पहुंच जाते हैं। तो भजन भी गाना पड़ता है। कभी-कभी लुच्चे लफंगे भी आ
जाते हैं। तो उनके लिए कव्वाली भी सुनानी पड़ती है। शेरों-शायरी भी करनी पड़ती है।
अब वेश्या को तो तरहत्तरह का माल रखना पड़ता है। जैसा खरीददार, और जैसे दाम दे, उस हिसाब का माल बेचा जाता है। और
वेश्या का ही घर है, वहां शराबी भी पहुंच जाते हैं, गाली-गलोज भी होती है, मार-पीट भी होती है, दंगा-फसाद भी होता है--सभी कुछ होता है।...तो यह सभी कुछ जानता है।
साफ कर देता हूं, मैं वापिस नहीं लूंगा। मगर उसे
उसकी बातें ऐसी जंच रही थी, क्योंकि वह ऐसी शिष्टाचार की
बातें कर रहा था-- बिलकुल लखनवी मालूम हो रहा था। वह वेश्या लखनवी रही होगी। बड़ी
लच्छेदार उसकी बातें थी। बड़ी लज्जत की; बड़ा जायका था उनमें।
ले गयी नसरुद्दीन की पत्नी।
घर देखते ही से तोता बोला, आह! प्यारा घर है।
नया घर! पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई कि देखो देखते ही से घर को क्या मंगलवचन बोला!
फिर उसकी लड़कियां कालेज से पढ़कर लौटी, तो उसने कहा, अरे, सुंदर-सुंदर बेटियां, सुंदर-सुंदर
लड़कियां! बड़ा प्यारा घर है, बड़ा प्यारा परिवार है! लड़कियां
भी बड़ी खुश हुईं।
और आखिर में सांझ को मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर से वापिस लौटा। उसने
देखकर ही बोला, कि अरे हरामजादे, तू यहां भी आ
गया। नयी मालकिन, नयी छोकरियां, नया
मकान, मगर ग्राहक वही! हेलो, नसरुद्दीन!!
तब नसरुद्दीन की पत्नी को पता चला। नहीं तो अब तक वह यही समझती थी कि
नसरुद्दीन तो बड़े भोले-भाले आदमी हैं, सुबह ही से कुरान का
पाठ करते हैं।
और बड़ी माला वगैरह फेरते हैं। और ज्ञान चर्चा छेड़ते हैं।
मातादीन शुक्ल! तुम कह रहे हो, मैं माया के जाल से
मुक्त होना चाहता हूं। अगर जान गये कि माया का जाल है, तो
क्या मुक्त होना; किससे मुक्त होना? माया
का अर्थ होता है, जो नहीं है, जो झूठ
हैं। तुमने कभी किसी से जाकर कहा कि माफी मांगो उस गाली के लिए जो तुमने दी नहीं?
तो वह भी क्या कहेगा कि क्या बात कर रहे आज! क्या गजब की बात कर रहे
हो! क्या पहुंची हुई बात कर रहे हो! क्या सिद्धों की भाषा बोल रहे हो! जो गाली
मैंने दी ही नहीं, उसके लिए माफी मांगूं? तो फिर दी हुई गालियों के लिए क्या करूंगा? उनके लिए
तो कुछ बचेगा ही नहीं। माया का अर्थ ही क्या होता है: जो नहीं है। उससे मुक्त होने
का सवाल कैसा!
इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि तुम संसार को छोड़कर जाओ, क्योंकि संसार माया है। अगर ताया है तो छोड़कर जाओ क्यूं? छोड़कर जाओगे क्या? और जो माया को छोड़कर गये हैं और
सोच रहे हैं कि तपस्वी हैं, वे भी गजब की बातें कर रहे हैं!
जो थी ही नहीं चीज,उसको छोड़कर आ गये। और अकड़ रहे हैं। मूंछों
पर ताव दे रहे हैं, कि देखो, क्या
त्याग किया! लात मार दी माया को!
माया जो थी ही नहीं, उसको लात मारकर आ गये। दुश्मन जो
थी ही नहीं, उसको हरा आए, चारों खाने
चित कर दिया। और अब लंगोट फहरा रहे हैं। दिग्विजय करके आ गये हैं! छोड़ना क्या है
जब संसार माया है? माया है तो बात खत्म हो गयी। और अगर माया
नहीं, तो फिर क्यों छोड़ना? मेरा हिसाब
साफ है। अगर माया है, तो क्या खाक छोड़ना! और अगर माया नहीं
है, तो क्यों छोड़ना?
दोनों हालत में छोड़ना नहीं। जम कर रहो! जमकर जीओ! जी भर कर जीओ!
भगोड़ेपन की बातें नहीं।
कह रहे हो, यह संसार तो सपना है। बातें तो बड़ी ऊंची कर रहे हो।
ऊंची बातों में तो भारतीयों का कोई मुकाबला ही नहीं। और फिर मातादीन शुक्ल!
ब्राह्मण हो। फिर तो कहना ही क्या! फिर तो बातों के धनी हो--मगर इन्हीं बातों के
जाल में उलझे रहोगे और जिंदगी खराब हो जाएगी।
न तो कुछ छोड़ना है, न कुछ पकड़ना है। यहां न कुछ
पकड़ने को है, न कुछ छोड़ने को है। जागो! पकड़ने-छोड़ने की भाषा
से भागना शुरू होता है।
दो तरह के भागने वाले लोग हैं। एक धन की तरफ भागते हैं और एक धन की
तरफ पीठ करके भागते हैं-- मगर दोनों भगोड़े हैं। इनमें कोई फर्क नहीं है। दोनों धन
से ही आच्छादित हैं। दोनों ही धन को मानते हैं। दोनों की श्रद्धा धन में है। जो धन
की तरफ जा रहा है, उसकी श्रद्धा भी धन में है और जो धन से भाग रहा,
उसकी भी श्रद्धा धन में है। भागना क्या है!! धन हो तो उछालो। और न
हो तो दिल भरकर नहाओ--नंगा नहाए निचोड़े क्या; निचोड़ने तक का
झंझट नहीं। चादर हो तो ओढ़ो और न हो तो बिना ओढ़े घोड़े बेचकर सोओ, क्या फिकिर! जैसी अवस्था हो--झोपड़ा हो तो महल और महल हो तो झोपड़ा। लेकिन
मौज में बाधा न पड़े। मस्ती में बाधा न पड़े। मस्ती बहती रहे। इस मस्त होने का नाम
संन्यास है।
लेकिन लोग कहते एक बात हैं, करते दूसरी हैं। करनी
ही पड़ेगी। क्योंकि जो कहते, कभी गौर से उन्होंने सोचा भी
नहीं कि क्या कहते हैं। हम इतनी भी ईमानदारी खो दिये हैं। हमारी इतनी भी
प्रामाणिकता नहीं रह गयी है कि हम जो कहें, कम-से-कम एक बार
सोच तो लें कि जो हम कह रहे हैं, यह क्या कह रहे हैं?
एक नेताजी भाषण देकर घर लौटे तो पत्नी से बोले, आज के सभी श्रोता बेवकूफ व गधे थे। पत्नी ने कहा, तभी
तो आप बार-बार उन्हें मेरे प्यारे भाइयों के नाम से संबोधित कर रहे थे।
अगर गधे ही थे, तो काहे के लिए मेरे प्यारे भाइयों इनसे कह रहे थे!
मगर इस तरह का ही दोहरा ढंग...
दो अफीमची अदालत में पकड़कर लाए जाते हैं। जज पहले से पूछता है: तुम
कहां रहते हो, जी?
पहला बोला, साहब, मेरा कोई घर नहीं। बेघर
हूं। आवारा हूं। तो जज ने दूसरे से पूछा: और तुम कहां रहते हो,जी?
दूसरा बोला, ली मैं इसका पड़ोसी हूं।
तुम कभी सोचो तो तुम क्या कह रहे हो! तुम कभी पुनर्विचार तो कर लिया
करो प्रश्न पूछो उसके पहले!
एक जेबकट ने किसी की जेब में रखा सुंदर सोने की निब वाला फाउन्टेन पेन
जेब काटकर चुरा लिया और बाजार में बेचने के लिए गया। जब वह वापिस लौटा तो उसके
दूसरे जेबकट मित्र ने पूछा, क्यों भाई कितने बिक गया?
पहला बोला, जितने में खरीदा था।
दूसरा बोला, क्या मतलब?
पहला बोला, किसी ने मेरी जेब काटकर उसे चुरा लिया है। यह कहीं
जेबकट भर ज्यादा समझदारी की बात कर रहा है। सीधी बात कर रहा है, कि जितने में खरीदा उतने में गया। जैसा आया वैसा गया। न हमने खरीदा था,
न हमने बेचा।
मगर तुम कहते हो, मैं माया के जाल से मुक्त होना
चाहता हूं। कोई माया के जाल से मुक्त नहीं होता। हां, ध्यान
से पता चल जाता है कि माया है ही नहीं, कोई जाल है ही नहीं,
तुम बंधे ही नहीं हो, बंधन भ्रम मात्र है।
माना है तो बंधन है। न मानो तो बंधन छुट गया। मानने में ही बंधन है। और तुम बिना
जाने अगर भागने की कोशिश करोगे तो बंधन और मजबूत हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारा भागना
ही उसको बल देगा, ऊर्जा देगा, पोषण
देगा। तुम्हारा भागना ही बता रहा है कि तुम्हें घबड़ाहट है। और डरते तुम किससे हो?
मैं छोटा था, मेरे एक शिक्षक थे--हेडमास्टर थे स्कूल में--उनका बड़ा
तहलका, बड़ा दबदबा था। उनको देखकर ही लोग थरथर कांपते थे,
बच्चे तो बिलकुल ही होश-हवास खो देते थे। वे थे भी देखने में बड़े
भयंकर। नाम तो उनका मुझे भूल ही गया, नाम उनका किसी को भी
याद नहीं था, कंटर मास्टर लोग उनको कहते थे। क्योंकि उनकी एक
ही
आंख थी। उसी तरह वे जाने जाते थे।
एक ही आंख, भारी शरीर, कोई साढ़े छः फीट
ऊंचे और बड़े तगड़े कि किसी को एक धौल भी जमा दें, प्रेम में
भी जमा दें, तो चारों खाने चित हो जाए। उनके संबंध में ऐसी
कहानियां प्रचलित थी कि उन्होंने उन्नीस सौ सोलह में नुमाइश में लखनऊ की गामा
पहलवान को हरा दिया था। पता नहीं कहां तक सच थी, मगर उनको
देखकर लगता था कि हराया होगा। देखकर ही हार गया होगा। चेहरा उनका बड़ा कुरूप और
भयानक था। पहलवानी उनको करनी ही नहीं पड़ी होगी, देखकर ही
उसने कहा होगा, कंटर मास्टर, हम हार
गये।
उनसे मास्टर भी डरते थे। वे पढ़ाते-लिखाते तो थे ही नहीं, वे क्लास वगैरह नहीं लेते थे, उनकी कोई रिपोर्ट भी
नहीं कर सकता थी म्युनिसिपल कमेटी में कि ये पढ़ाते-करते नहीं हैं। वे सिर्फ
हेडमास्टरी करते थे। हालांकि जरूरत थी उनको भी एक कक्षा लेने की, मगर वे लेते-करते नहीं थे। और सब मास्टर--दूसरे मास्टर उनकी कक्षा पढ़ाते
थे। उनका काम था यूं घूमना। इसको धौल लगाना, उसको चांटा लगा
देना, बेंत लिये रहना, दिन में सजा
देना--उनके संबंध में कहा जाता था कि मौका-बेमौका वे शिक्षकों को भी पीटते थे।
लड़कों की तो बिसात क्या!
तो जब मैं चौथी हिंदी में पहुंचा, जिसके कि नियमानुसार
से अध्यापक थे--मगर पढ़ाते-करते नहीं थे, बस आते थे दिन में
एक-दो दफा मारपीट करने। इधर देखा, उधर देखा, इसको पकड़ा, उसको पकड़ा दो-चार झपट्टे लगाए, किसी के बाल खींचे--और एक से एक तरकीबें थीं, उनको
पुलिस में होना चाहिए था। अंगुलियों में पेंसिलें अटका देते और फिर अंगुलियां
दबाते। छोटे-छोटे बच्चे, चीखें निकल जाती बाल पकड़कर
उठाते--और मेरे बाल बहुत बड़े थे, तो उन्हें बड़ा ही मजा आता।
वे मुझे छोड़ते ही नहीं थे, कोई न कोई बहाने वे मेरे बाल
पकड़कर उठाते।
रोज रात को वे मेरे घर के सामने से गुजरते थे। पत्नी-बच्चे तो उनके थे
नहीं, तो एक होटल में खाना खाकर वे कोई नौ-साढ़े नौ बजे मेरे
घर के सामने से गुजरते थे।
इसके आगे उनका घर था। जब मेरी भी बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो बाजार में एक दिन मैंने देखा कि एक आदमी सांप बेच रहा है। रबर के सांप।
तो मैं एक सांप खरीद लाया। उसमें काला धागा बांधा और रास्ते के दूसरी तरफ एक नाली
में उस सांप को डाल आया और धागा बांधकर रास्ते पर फैलाकर इस तरफ--गर्मी के दिन थे;
तो गर्मी के दिन में गांव में लोग बाहर ही सोते हैं; तो मैं अपने पलंग पर लेट रहा, धागा अपने हाथ में
रखा। जब वे साढ़े नौ बजे के करीब वहां से निकले, तो मैंने
धीरे-धीरे धागा खींचा। अंधेरे में उन्होंने जब सांप को नाली में से निकलते देखा,
तो सब होश-हवास खो गये। यूं हाथ में लकड़ी लिये थे, लकड़ी छूटकर गिर गयी, और जो भागे कि धोती फंस गयी,
सो चारों खाने चित गिरे। और मैंने चार-छः लड़के और छिपा रखे थे घर
में, जल्दी से हम लालटेनें लेकिन पहुंच गये, ताकि उनको पता चल जाए कि हमने देख लिया, हालात उनके
बुरे हो चुके हैं। खड़े हो गये, कहने लगे, नहीं-नहीं, कुछ नहीं, कोई
सांप-वांप नहीं। आप किस सांप की बातें कर रहे हैं? कहने लगे,
है ही नहीं काई सांप। मैंने कहा, आप बात ही
किस सांप की कर रहे हैं? हम लोगों को तो कोई दिखायी नहीं पड़ा
सांप वगैरह, आपको दिखायी पड़ा क्या? उन्होंने
कहा, वही जरा भ्रांति मुझे हुई। मैंने कहा अगर भ्रांति थी
आपको तो भागे क्यों? और आपकी लकड़ी उतने दूर पड़ी है। मैंने
कहा अगर धोती खुल गयी! आप अपनी कांच तो लगा लो! एक लड़के ने जल्दी से उनकी कांच
लगाई। चश्मा गिर गया थी, वह फूट गया। मैंने कहा, जब सांप थी ही नहीं, तो आप भागे, लकड़ी छूट गयी, चश्मा टूट गया! धोती खुल गई! वह तो हम
लोग अभी न आए होते तो आपका हार्ट फेल हो जाता या क्या होता!
मैंने उनसे कहा कि आप इतना ही ख्याल रखना कि अब मेरे बाल पकड़ कर आप न
उठाना।
वे भी समझ गये। उस दिन से उन्होंने मेरे बाल नहीं पकड़े। समझ गये कि यह
लड़का खतरनाक है। अगर आज यह नकली सांप से इसने डरवा दिया, कल क्या उपद्रव खड़ा कर दे--और रोज इसकी गली में से निकलना है रात साढ़े नौ
बजे; कोई मेरे गांव में सांप जैसा एक जानवर होता है: सीता की
लट।...पता नहीं यहां होता कि नहीं!...लगता बिलकुल सांप जैसा है। मगर सांप नहीं
होता। मगर किसी को भी भ्रांति दे सकता है सांप की। और जब मुझे पता चल गया कि यह
सांप है नहीं, काटता-करता है नहीं,...सीता
की लट उसको कहते हैं, पता नहीं राम जी डर गये या क्या हुआ?
उसको पकड़ने से तत्क्षण पहचान आ जाती है कि क्या सीता की लट और क्या
सांप? सांप मुड़ सकता है और मुड़कर एकदम से पकड़ लेता है। इसलिए
खतरा है। सांप को अगर पूंछ की तरफ से पकड़ो तो खतरा है। सांप को पकड़ना हो तो मुंह
की तरफ से पकड़ना होता है। अगर मुंह सांप का पकड़ लिया तो फिर कोई खतरा नहीं है।
सांप को पकड़ने वाले उसका मुंह पकड़ते हैं। मुंह पकड़ में आ गया फिर कोई खतरा नहीं है,
सांप कुछ नहीं कर सकता। लेकिन अगर पूंछ पकड़ी तो मारे गये! क्योंकि
वह लिपट जाएगा और काटेगा।
सीता की लट लौट नहीं सकती। बस, उसकी जरा-सी पूंछ
दबाकर देखने से पता चल जाता है। वह लौट नहीं सकती तो सीता की लट है, नहीं तो बिलकुल सांप जैसी दिखायी पड़ती है।
तो सीता की लट लेकिन हम स्कूल पहुंचने लगे। बस, वह मुझे देख लेते सीता की लट लिए हुए कि उनको याद आ जाती; वह रात को पूरा दृश्य! वह कहते: छोड़, छोड़! और क्यों
मुझे याद दिलवाता है? मैं कहूं, किस
चीज की याद? तो वे कुछ आगे बात बढ़ाते भी नहीं, क्योंकि वह आगे बात बढ़ाएं तो औरों को पता चल जाए।
हालांकि मैंने सबको बता दिया था। सबको पता था। अध्यापकों को पता था, चपरासी को पता था, एक-एक बच्चे को पता था। पूरे गांव
में खबर फैला दी थी कि नेमाजी की क्या हालत हो गयी? कंटर जी
कैसे गिरे?
सीता की लट उनको याद दिलाने के लिए मैं लिए फिरता था। कहीं भी, बाजार में भी मिल जाएं तो खीसे में से सीता की लट निकालकर उनको, बता दूं, बस वह उतना,...। सारा
गांव जानता था, कंटर जी अगर किसी से डरते हैं तो इस छोकरे से
डरते हैं। पता नहीं क्या मामला है? एकदम कहते: बस-बस,
रहने दे, याद मत दिला! अब जो हो गया सो हो
गया। बीती ताहि बिसार दे।
क्या तुम बात कर रहे हो कि मैं माया के जाल से मुक्त होना चाहता हूं!
हो जाओ मुक्त! जो है ही नहीं, उससे मुक्त हो ही। "यह
संसार सपना है, इसे कैसे काटूं?' असली
कांटा लगा हो तो असली कांटे से निकाला जा सकता है। अब सपना काटना चाहोगे, तो कुछ झूठे ही उपाय करने पड़ेंगे फिर। फिर ताबीज बांधो, गंडा बांधो--वे भी सब झूठे उपाय हैं। झूठी औषधियां काम लानी पड़ती हैं। और
इसलिए दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और इनके तीन हजार संप्रदाय हैं। सच्ची औषधि तो
एक है,ध्यान, झूठी औषधियां करोड़ हैं।
सत्य तो एक है, असत्य अनंत हो सकते हैं।
मैं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ध्यान में डुबकी लो; बकवास छोड़ो:माया, सपना; यह
फिजूल अच्छे-अच्छे शब्द दोहराने से कुछ सार नहीं है। सिर्फ निर्विचार होने की
साधना करो। साक्षी बनो अपने विचार के। जैसे-जैसे साक्षी बनोगे, जैसे-जैसे विचार को देखोगे, वैसे-वैसे एक अपूर्व
अनुभव होगा कि विचार देखने से मर जाते हैं, समाप्त हो जाते
हैं। विचार मरे कि स्मृति गयी, क्योंकि स्मृति विचार का ही
संग्रह है। विचार गये कि कल्पना गयी, क्योंकि कल्पना भी
विचार की एक तरंग है। विचार के जाते ही विचार के सब रूप चले जाते हैं, सब पत्ते झर जाते हैं, पैसे पतझड़ आ गयी। और जब मन के
सब पत्ते झर जाते हैं और मन बिलकुल निर्वस्त्र, पत्रहीन जैसे
पतझड़ में वृक्ष खड़ा हो जाता है ऐसा खड़ा हो जाता है, तब तुम
देख पाओगे: न कुछ बांधा है तुम्हें, न कभी तुम बंध सकते हो;
तुम्हारे भीतर जो विराजमान है, सदा मुक्त है।
नित्य मुक्त है। और उसकी प्रतीति यहीं मोक्ष है, यहीं
निर्वाण है।
आग के समंदर में
कागज की नांव
अपना यह गांव।
दीवारें ढोती हैं
धुएं की कथा।
चेहरों पर पुती हुई
जलन की व्यथा।
बस्ती भर नाच रहा,
नंगा आतंक।
यहां जिंदगी जैसे,
बिच्छू का डंक।
जलती दोपहरी में
कोढ़ी के पांव।
अपना यह गांव।
लपटों में घिरा रहा
आखिरी मकान।
आश्वासन देने में,
व्यस्त आसमान।
कभी-कभी सुनते हैं
बादलों का शोर।
अब तक न टूट सका,
अग्निकांड--दौर
अंगारों पर लेटी
बरगद की छांव।
अपना यह गांव।
आग के संमदर में
कागज की नांव
आना यह गांव।
कागज की नावों में बैठे हो और सोचते हो कैसे पार हो जाएं! विचार क्या
है? कागज की नाव है। कागज की नाव भी कुछ है, विचार तो
उतना भी नहीं है। सिर्फ तरंग है पानी की, हवा की लहर है। और
तुम विचारों में ही जी रहे हो। संसार में कुछ उपद्रव नहीं है, विचार में उपद्रव है। संसार से मुक्त नहीं होना हैं, विचार से मुक्त होना है। लेकिन तुम्हें सदियों से कहा गया है: संसार से
मुक्त हो जाओ। सो तुम संसार से तो मुक्त होने की कोशिश करते हो, विचार से मुक्त होने की कोशिश नहीं करते।
मैं ऐसे जैन मुनियों को जानता हूं, हिंदू संन्यासियों को
जानता हूं, जिन्होंने वर्षों तपश्चर्या की है, व्रत-उपवास किये हैं, मगर कहीं पहुंचे नहीं। संसार
छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दिये, बच्चे छोड़
दिये, घर-द्वार छोड़ दिया, मगर वह जो
खोपड़ी में कचरा थी, वह वहीं का वहीं भरा है, उसको नहीं छोड़ते। और वही असली उपद्रव है। खोपड़ी को गोबर से खाली करो। यह
गऊमाता का ही सही, गोबर गोबर है, इसको
बाहर करो। यह खोपड़ी को कोई गोबर गैस प्लांट थोड़े ही बनाना है! इसमें से गैस ही
निकल रही है। और फिर चारों तरफ बदबू उड़ेगी।
ढब्बू जी एक जटाजूटधारी स्वामीजी का सत्संग करने गये थे। स्वामीजी ने
दान की महिमा बहुत समझायी।...स्वामी लोगों का खास काम यही है। दान की महिमा समझाते
हैं! और दान भी किसको करो, वह भी बता देते हैं वे। और इस ढंग से बता देते हैं
दान की पात्रता कि करीब-करीब उनके सिवाय और कोई पात्र बचता नहीं। अगर तुम बौद्ध
शास्त्र पढ़ो, तो उसमें जो पात्रता बतायी गयी है कि किसको दान
देना चाहिए, उसमें बौद्ध भिक्षु ही आता है सिर्फ। अगर
जैनशास्त्र पढ़ो,उसमें जो पात्रता बतायी गयी है किसको दान
देना, उसमें जैन मुनि ही आता है केवल। बाकी तो सब कुगुरु,
कुशास्त्र, कुदेव। इनको तो देना ही मत। इनको
तो देने से पाप होता है। देना तो सदगुरु को। और सदगुरु कौन? उसमें
भी अगर तुम दिगंबर शास्त्र पढ़ो तो वही, जो नग्न। और अगर
श्वेतांबर शास्त्र पढ़ो तो नग्न की चर्चा ही नहीं। वह जो श्वेत वस्त्रधारी, मुंह पर पट्टी बांधे हुए। मुंह पर पट्टी भी न हो तो बात खत्म हो गयी।
ब्राह्मणों से पूछो कि दान किसको देना? तो ब्राह्मण को।
जटाजूटधारी संन्यासी ने बहुत समझाया दान की महिमा। यह बड़े मजे की बात
है, खूब समझाया।...जैसे मातादीन शुक्ल मिल जाएं जटाजूटधारी संन्यासी को और
कहें कि मायाजाल से मुक्त होना है, तो सबकी झंझटें लेने को
तैयार हैं। हमको दो, तुम क्यों कष्ट झेल रहे हो? हम तो तपस्वी हैं, हम झेल लेंगे। तुम्हें सपने छोड़ने
हैं, लाओ हमें दे दो।
यह बड़े मजे की बात है कि साधु-संन्यासी लागों को समझाते हैं कि क्या
धन के माया-मोह में पड़े हो? और फिर यह भी समझाते हैं कि दान करो। और दान किसका?
वही धन का। और करो किसको? उन्हीं को। क्या जाल
है! क्या प्यारा जाल है! और कैसे बुद्धुओं की जमात है कि इस प्यारे जाल में फंसती
चली जाती है!
मगर ढब्बूजी भी पहुंचे हुए हैं--तभी तो वे ढब्बूजी भी पहुंचे हुए
हैं--तभी तो वे ढब्बूजी! और उन्होंने लाख समझाये जटाजूटधारी संन्यासी ने, मगर ढब्बूजी टस से मस न हुए। सिर हिलाएं; कहें: हें
जी हें जी! मगर एक पैसा न निकालें। आखिर जटाजूटधारी का भी धैर्य टूट गया, वह भी गुस्से में आ गया कि ढब्बूजी के बच्चे, लाख
समझाया, तेरी कुछ समझ में नहीं जाता, तेरे
सिर में गोबर भरा है। ढब्बूजी ने कहा, जरूर भरा होगा,
महाराज, नहीं तो अप घंटे भर से चाटते क्यों?
मगर एक बात समझ में न आयी। जटाजूटधारी साधु ने पूछा, क्या बात समझ में नहीं आयी? यह बात समझ में न आयी कि
मेरी खोपड़ी तो आप देखते हैं, यूं है जैसे ताजात्ताजा बनाया
हुआ सीमेंट का रोड। बिलकुल सफाचट है। बाल ऊगते ही नहीं। और आपके बाल, ऐसी जटाएं, घने जटाजूट!
स्वामी ने कहा, मैं समझा नहीं, तुम्हारा मतलब
क्या है, प्रश्न का प्रयोजन क्या है?
उसने कहा, प्रश्न का प्रयोजन यह है कि महराज, मैंने सुना है जिस जमीन में गोबर ज्यादा भरी होती है, उसमें घास ज्यादा ऊगता है। तो यही संदेह मन में उठ रहा है कि गोबर किसकी
खोपड़ी में ज्यादा भरी है? मेरी या आपकी? क्योंकि घास-पात आपकी खोपड़ी में ज्यादा ऊगा है। मेरा तो बिलकुल झर ही गया
है घास-पात, न-मालूम कब का झर गया! अगर गोबर भरी होती तो
घास-पात ऊगता। और वर्षा के दिन, अभी तो ऊगता कम-से-कम!
संसार बाहर नहीं है, तुम्हारी खोपड़ी का नाम है। और
खोपड़ी में कचरा है। कचरा यानी विचार, वासनाएं, इच्छाएं, एषणाएं, योजनाएं,
महत्वाकांक्षाएं। यह हो जाऊं, वह हो जाऊं,
यह जा लूं, वह पा लूं। अब यह भी तुम जो पूछ
रहे हो कि संसार के कैसे मुक्त हो जाऊं, यह बताइए; सपने से कैसे मुक्त हो जाऊं, बताइए, यह भी तुम सोच रहे हो कि कोई सच में ज्ञान की जिज्ञासा है? नहीं, जरा भी नहीं। इसके पीछे भी लोभ है। इसके पीछे
भी यह ख्याल है कि बैकुंठ कैसे मिले। कि कैसे स्वर्ग में प्रवेश हो जाए। और तुम
स्वर्ग में भी प्रवेश करके क्या करोगे? अगर यही खोपड़ी रही,
वहां भी पहुंच गये तो कुछ बहुत होने वाला नहीं है।
चंदूलाल मरे, स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे, दरवाजा
खटखटाया। द्वारपाल ने दरवाजे से झांककर पूछा कि कौन हो भाई? उन्होंने
कहा, मैं हूं चंदूलाल। कहा कि कोई चंदूलाल के आने की हमें
कोई खबर नहीं, कोई सूचना नहीं। समय के पहले आ गये या क्या
मामला है? किस डाक्टर से इलाज करवा रहे थे? कि ऐसीत्तैसी हो इन डाक्टरों की कि समय के पहले लोगों को भिजवा दे रहे
हैं! जिनको मरना नहीं, वे मर जाते हैं। और जिनको मरना है,
वे जिए चले जाते हैं। सब गड़बड़झाला हो गया है। तो मुझे देखना पड़ेगा
जाकर, दफ्तर में; आधी रात को अब तू आ
गया और नींद खोल दी; पूरा पता-ठिकाना दे। तेरा पूरा नाम क्या
है? तो उसने कहा, चंदूलाल लोहावाला। लोहावाला
क्यों? यह भी कोई जाति है? नहीं,
कोई जाति नहीं है, मैं लोहा-लंगड़ का काम करता,
कबाड़ी की मेरी दुकान है, पुराना लोहा खरीदना
और बेचना यही मेरा धंधा है, इसलिए मेरा नाम: लोहावाल।...बंबई में रहते चंदूलाल। बंबई में ऐसे-ऐसे नाम होते हैं। चंदूलाल लोहावाला,
कि फलाना बाटलीवाला। बंबई में तो जो भी नाम न हों गजब।
गया रात देवदूत। आधी रात, किसी तरह पना उलटता
रहा होगा, चंदूलाल का पता ही न मिले, कोई
घंटे-डेढ़ घंटे मेहनत करके वापिस आया खबर देने कि भई, काई पता
नहीं, इधर देखा तो चंदूलाल नदारद! चंदूलाल ही नदारद नहीं,
वह बैकुंठ का लोहे का दरवाजा भी नदारद!!
चंदूलाल ऐसा मौका चूक सकते? उन्होंने देखा,
घंटा-डेढ़ घंटा हो गया, अब लगे हाथ दरवाजा तो
लेते ही चलो!
तब से, मैं तुम्हें बता दूं यह खबर, कि
बैकुंठ पर दरवाजा नहीं है। वह चंदूलाल लोहावाला ने बंबई में बेच दिया। अब कोई
बैकुंठ पर तुम्हें दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं, सीधे घुस
जाओ। माया-मोह छोड़ो या न छोड़ो, कोई फिक्र नहीं, कहीं मातादीन शुक्ल, रात के वक्त निकल जाना। और कोई
गड़बड़ करे तो कहना, म्याउं! लोभ ही पीछे जान खा रहा है।
स्वर्ग जाना है, बैकुंठ में निवास करना है। कि जैसे उर्वशी
इत्यादि, मेनका इत्यादि तुम्हारी ही राह देख रही हैं,
कि कब आएं मातादीन और कब हम नाचें!
जीवन को जीओ! यहीं इसी क्षण बैकुंठ है। कुंठा से जो मुक्त होकर जिए, वह बैकुंठ में जीता है। कुंठा गयी कि बैकुंठ जाया। कुंठाएं छोड़ो! और
भारतीय मन इतनी कुंठाओं से भरा है जिसका हिसाब नहीं। और ये सब तुम्हारे प्रश्न
तुम्हारी कुंठाओं को बढ़ाते हैं। यह माया, यह मोह, यह बुरा, यह पाप, यह ऐसा,
वह वैसा, इसको छोड़ो, उसको
छोड़ो। तुम कुंठित ही होते चले जाते हो। तुम्हारा जीवन सिकुड़ता है, फैलता नहीं।
भारतीय मानस फैलना भूल गया है, सिकुड़ना सीख गया है,
संकोच में जी रहा है। ब्रह्म की बातें करते हो, जीते संकोच में हो। और ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है: फैलना। फैलता जाए जो,
विस्तीर्ण होता जाए जो। ब्रह्म को वही जान पाता है जो विस्तीर्ण
होने की कला जानता है।
फैलो, संकीर्ण मत बनो!
फिर चिरागों से धुआं उठने लगा कुछ कीजिए
अब तो इस घर में भी दम घुटने लगा कुछ कीजिए
आज अपनी खिड़कियां खोलें तो खोलें किस तरह इन उजालो का भरम खुलने लगा
कुछ कीजिए
रात का आलम अगर होता तो कोई बात थी
दिन निकलते आदमी लुटने लगा कुछ कीजिए
दोस्तो फिर इस शहर पर गिद्ध मंडराने लगे मौत का सामान फिर जुटने लगा
कुछ कीजिए
एक जंगल फिर कहीं तारी न हो इस दौर में
जिंदगी का हरापन बुझने लगा कुछ कीजिए
मगर यहां तो इस देश की जिंदगी का हरापन बहुत सदियों पहले बुझ गया।
यहां तो हम बिलकुल ठूंठ होकर जी रहे हैं। हम तो किस तरह लुटे जिसका हिसाब नहीं! यह
कारवां किस तरह लुटा जिसका हिसाब नहीं! और इसको लूटनेवाले अच्छे-अच्छे लोग! बुरे
लोग भी लूटते तो भी कहने को एक बात थी। जिनको हम भले कहते हैं, जिनको हम साधु-संत महात्मा कहते हैं, उनके कारण हम
बरबाद हुए हैं। उन्होंने हमें जीवन जीने की कला नहीं सिखाई, जीवन
का भय सिखाया। घबड़ा दिया हमें! हर चीज में पाप का लेकिन लगा दिया। और पुण्य करने
की जबर्दस्ती हम पर थोप दी। पुण्य जबर्दस्ती से किया जाए तो मजा नहीं। और पाप
जबर्दस्ती से छोड़ा जाए तो छूटता नहीं। भीतर-भीतर रिसता है।
तो मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि यह माया है संसार। संसार माया नहीं है।
ये वृक्ष माया नहीं हैं। ये पहाड़, ये चांदत्तारे माया नहीं हैं।
अगर माया है कहीं तो तुम्हारी कल्पनाओं में, वासना में,
तुम्हारी इच्छा में। तुम इच्छाओं को छोड़ दो, वासनाओं
को एक तरफ हटाकर रखो--और तुम्हारी वासना में स्वर्ग की वासना से मुक्त होने की
वासना भी वासना ही है, इसे विस्मरण मत कर देना-- ये सारी
वासनाएं एक तरफ हटाकर रखो और जिंदगी को सरलता से जीओ, मौज से
जीओ,परमात्मा ने तुम्हें जो दिया है उसे अनुग्रह के भाव से
जीओ और यहीं बैकुंठ है, इसी क्षण। तत्क्षण द्वार खुल जाते
हैं स्वर्ग के। अमृत की वर्षा हो जाती है
स्वर्ग तुम्हारे भीतर है और तुम कहां-कहां टटोलते फिरते; कहां-कहां; किन-किन द्वार-दरवाजों पर सिर-माथा टेकते
हो! कहां-कहां तुमने सिज्दे न किये! किस-किस से तुमने प्रार्थना नहीं की! किस-किस
से नहीं पूछते फिरे!अब तो जागो! अब तो अपने भीतर की ज्योति पहचानो।
उस ज्योति को पहचानते ही न कोई सपना है, न कोई माया है।
परमात्मा है और केवल परमात्मा है। बाहर भी वही है, भीतर भी
वही है; तुममें भी वही है, औरों में भी
वही है; एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है।
तत्वमसि। तुम वही हो।
आज इतना ही।
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