रविवार, 9 जुलाई 2017

04--चाहे कोई साथ चलें न.....(कविता)



04--चाहे कोई साथ चलें न.....(कविता)


चाहें हमदम साथ चलें न,
      हम तो चले उन राहों पे।
जिन राहों पर राहे खुद ही,

      भर  लेती है बाँहों  में।

आनंद बरसे, धरती तरसे,
      फिर भी अंबर  शांत रहे।
पंख लगा कर भी क्‍या उड़ना,
      दूर क्षितिज जब जान रहे।
अपना होना था अपने मैं,
      कैसे  हम  अंजान  रहे।
सब बहता है, पल छलता है,
      थिर जिसको हम मान रहे।
अंबर घटिका बुला रही है, दूर गगन की छांव में।
जिन राहों पर राहें खुद ही भर लेती है बांहों में।।



कल छलता है, पल खोता है,
      यही राज नहीं जाना था।
सुन सूरज की पद चापौ को,
      कहां अँधेरा  पाना  था।
कहां जानता था मंजिल को,
      नहीं तुमको जब जाना था।
चलने से मंजिल नहीं मिलती,
      बैठ ठोर इक  जाना  था।
आना जाना  भ्रम जाल था, नाहक भटके राहों में।
जिन राहों पर राहें खुद ही भर  लेती है बाँहों में।।
स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’

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