सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
प्रेम एक इंद्रधनुष है—प्रवचन-पांचवां
दिनांक 25 जनवरी, सन्
1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
प्रेम क्या है? और क्या प्रेम कभी नष्ट भी हो सकता है या नहीं?
राम
किशोर,
प्रेम एक इंद्रधनुष है। उसमें सभी रंग हैं--निम्नतम से लेकर श्रेष्ठतम
तक, काम से लेकर राम तक। प्रेम कोई एक-आयामी घटना नहीं है, बहु-आयामी है। मूलतः तीन आयाम समझ लेने जरूरी हैं।
पहला आयाम तो शरीर का है। शरीर का प्रेम नाममात्र को प्रेम है। प्रेम
की भ्रांति ज्यादा प्रेम का अस्तित्व कम। एक प्रतिशत प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत रसायनशास्त्र। एक प्रतिशत तुम, निन्यानबे
प्रतिशत अचेतन प्रकृति। उसी तल पर पशु जीते हैं। उसी तल पर अधिकतम मनुष्य भी जीते
हैं। और जिन्होंने प्रेम का पहला तल ही जाना, वे स्वभावतः
प्रेम के दुश्मन हो जाएंगे। उस तरह के दुश्मनों ने ही धर्म को विकृत किया है।
प्रेम की ऊंचाइयां जानी नहीं, प्रेम की क्षुद्रताओं को ही
जाना--और तब प्रेम के विपरीत हो गए। और तब प्रेम से दुश्मनी कर ली। और तब प्रेम की
तरफ पीठ करके भाग चले।
धर्म के नाम पर इतना पलायनवाद घटा है। धर्म के नाम पर जीवन का विरोध, जीवन की निंदा, जीवन का तिरस्कार, ऐसा घनीभूत मनुष्य के मन पर छा गया है कि लोग क्या कहते हैं, क्या करते हैं, क्या सोचते हैं, इस संबंध में कोई संगति भी नहीं रह गई।
कल ही मुझे एक पत्र मिला। एक संन्यासी ने, पुराने ढंग के, पुराने ढर्रे के संन्यासी ने लिखा है
कि काम तो पवित्र है, उसको खिलवाड़ की तरह लेना ठीक नहीं। और
उसी पत्र के अंत में लिखा है कि काम तो घृणित है, पाप है। एक
ही आदमी, एक ही पत्र में पहले हिस्से में लिखता है काम
पवित्र है और दूसरे हिस्से में लिखता है कि काम पाप है। इस आदमी को पता भी नहीं है
यह क्या कह रहा है। अगर काम पवित्र है तो पाप कैसे हो जाएगा? और काम अगर पाप है तो फिर पवित्र कैसे हो जाएगा?
मगर ऐसी ही दुविधाओं से मनुष्य का मन भर गया है। और कारण यह है कि
मनुष्य को पूरा प्रेम जीने का अवसर नहीं मिला। तो जो अवरुद्ध प्रेम की ऊर्जा रह गई
है उसके भीतर, वह सड़ती है। ऊर्जा का नियम है: या तो अभिव्यक्त करो
या सड़ेगी। नदी बहे तो ठीक, रुक जाए तो गंदगी पैदा होगी। बहाव
उसे स्वच्छ रखता है, प्रवाह उसे निर्मल रखता है--रुकी कि
गंदी तलैया बनी।
जिन्होंने प्रेम को शरीर के तल पर ही जाना, पशु के तल पर जाना, उन्होंने प्रेम में छिपीर् ईष्या
देखी, जलन देखी, वैमनस्य देखा, घृणा देखी, कलह देखी; उन्होंने
प्रेम के नाम पर चल रहा स्त्री-पुरुषों का शोषण देखा; स्वभावतः
घबड़ा गए। घबड़ाहट में भाग खड़े हुए। यूं भाग कर भी कुछ पाया नहीं जा सकता। भाग कर
कभी कुछ नहीं पाया जा सकता। युद्ध के मैदान से भाग गए लोगों को तो हम कहते हैं
भीरु, कायर, भगोड़े; और जीवन के मैदान से भाग गए लोगों को हम कहते हैं साधु, संत, महात्मा!
यह जीवन का युद्ध असली युद्ध है। बाकी सब युद्ध तो कुछ भी नहीं हैं।
जीवन के युद्ध में ही निर्णय होना है कि कौन विजेता है। इससे जो भागा, वह परमात्मा से चूका। जिसने जीवन के प्रति पीठ कर ली, जो जीवन से विमुख हो गया, वह याद रखे कि परमात्मा से
कभी सन्मुख न हो सकेगा। लेकिन उसके विमुख हो जाने का कारण क्या था? कारण यही था कि हमने प्रेम को शरीर के तल पर ही ठहरा दिया है।
एक फायदा है प्रेम को शरीर के तल पर ठहरा देने में। वह फायदा यह है कि
प्रेम में थोड़ा स्थायित्व आ जाता है। शरीर मन से ज्यादा थिर है। बदलता है; लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता बदलता है। वैज्ञानिक कहते हैं, सात वर्ष लगते हैं तब कहीं शरीर बदल पाता है। सत्तर साल आदमी जीएगा तो दस
बार शरीर बदल जाता है। मगर आहिस्ता-आहिस्ता; और इतना छोटा-सा
हिस्सा रोज बदलता है कि अधिकांश हिस्सा तो पुराना रहता है; इसलिए
पुराने की प्रतीति बनी रहती है।
इसीलिए विवाह ईजाद किया गया कि प्रेम मन के तल तक न पहुंच पाए, शरीर के तल पर ही रह जाए। शरीर के तल पर रह जाने में एक तरह का स्थायित्व
है। इसलिए विवाह में हम फिकर करते हैं और सब बातों की, सिर्फ
प्रेम की नहीं। ज्योतिषी से पूछते हैं, जन्म-कुंडलियां
मिलाते हैं, हस्तरेखाओं की जांच करते हैं; वर के माता-पिता, प्रियजन, वृद्धजन,
वधू के माता-पिता, प्रियजन, वृद्धजन, सब तरह का गणित बिठाते हैं, हिसाब लगाते हैं; सब खाता-बही जमाते हैं--धन कितना
है, पद कैसा है, प्रतिष्ठा कैसी है,
कुल कैसा है, भविष्य क्या है! एक बात भर बाद
कर दी जाती है: न तो पूछते हैं जिसका विवाह हो रहा है उससे, न
पूछते हैं उससे जिसके साथ विवाह हो रहा है। उन दोनों को बाद कर देते हैं। वह बात
गौण है। वह व्यर्थ है। उसे बीच में लाना उचित नहीं। उसे बीच में लाने में खतरा है।
क्योंकि मन बहुत जल्दी रूपांतरित होता है, क्षण-क्षण में
बदलता है। तो शरीर पर हमने प्रेम को ठहरा दिया। उसका नाम हमने विवाह रख दिया है।
और विवाह को हम पवित्र कहते हैं।
विवाह अपवित्र है। इसी कारण अपवित्र है कि वह शरीर पर ही रुका हुआ
है--गंदा है। और विवाह की सड़ांध फिर लोगों को भगोड़ा बनाती है। ये जो लोग घर-द्वार
छोड़ कर भाग गए हैं, इन्हें कोई संसार से विरक्ति नहीं हो गई है। संसार को
तो जाना कहां, पहचाना कहां! वृक्षों से विरक्ति हो गई है,
कि फूलों से, कि पहाड़ों से, कि नदियों से, कि चांदत्तारों से? विरक्ति हो गई है विवाह नाम की संस्था से, उसकी
सड़ांध से। परेशान हो गए, भाग खड़े हुए। और ये ही भगोड़े
महात्मा बन गए हैं, साधु बन गए हैं। फिर ये भगोड़े दूसरों को
भगोड़ापन सिखा रहे हैं।
और बड़ा मजा है कि ये ही साधु-महात्मा विवाह को पवित्र कहते हैं, ये ही साधु-महात्मा विवाह के लिए आशीर्वाद देने आ जाते हैं। खूब साजिश है!
लोगों को विवाह में बांधो, फिर वे परेशान हों, पीड़ित हों, दुखी हों, तो फिर
उनको मार्ग बताओ संसार-त्याग का।
ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह तुम्हारा पुराना विवाह और यह
तुम्हारा पुराना संन्यास एक ही रोग के दो अंग हैं। और इसलिए साधु-महात्मा नहीं
चाहेंगे कि विवाह दुनिया से विदा हो जाए। क्योंकि विवाह जिस दिन विदा होगा उसी दिन
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी भी विदा हो जाएंगे। क्योंकि इनको फिर संसार से
विरक्त करने वाली चीज कौन-सी बचेगी? संसार से इन्हें कौन
घबड़ा देता है?
यह तुम देखो, पुरुष भागे हैं, स्त्रियां नहीं
भागीं। उसका कारण है। स्त्री की क्षमता और सहनशीलता पुरुष से बहुत ज्यादा है। और
कोई कारण नहीं है। मुझसे लोग पूछते हैं कि क्यों स्त्रियां बुद्ध नहीं हुईं,
महावीर नहीं हुईं, कृष्ण नहीं हुईं, राम नहीं हुईं? उनकी सहनशीलता पुरुष से ज्यादा है।
यह गौरव की बात है। इसमें कुछ अगौरव नहीं है। उनमें एक धैर्य है, अपार धैर्य है, जो पुरुषों में नहीं है। वैज्ञानिक
भी इस बात से सहमत हैं। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं पुरुषों की बजाय। पुरुष
दोगुने बीमार होते हैं स्त्रियों की बजाय। स्त्रियां कम पागल होती हैं पुरुषों की
बजाय, पुरुष दोगुने पागल होते हैं स्त्रियों की बजाय।
स्त्रियां कम आत्मघात करती हैं, पुरुष ज्यादा आत्मघात करते
हैं--दोगुने। यह दोगुने का अनुपात हर दिशा में लागू है।
स्त्री में एक तरह की समतुलता है; एक तरह का धैर्य है;
एक तरह का प्रसाद है। जरूरी था। क्योंकि उसे नौ महीने बच्चे को पेट
में रखना है। कौन पुरुष नौ महीने बच्चे को पेट में रखने को राजी होगा! फिर नौ
महीने पर ही बात खतम नहीं होती, फिर बच्चे को बड़ा करना है।
रात में दस-पंद्रह बार जगाएगा, तो भी मां जग आती है, फिर सो जाती है। पुरुष को दस-पंद्रह बार जगाओ, संसार
से विरक्ति हो जाएगी। पुरुष को नौ महीने गर्भ रखने दो पेट में, कि फिर तत्क्षण भाग खड़ा होगा। यह कष्ट पुरुष न सह सकेगा। स्त्रियां
पुरुषों से ज्यादा जीती हैं--पांच साल ज्यादा। दस-बारह-पंद्रह बच्चों को जन्म देने
के बाद, बड़ा करने के बाद भी पांच साल ज्यादा जीती हैं। घर का
सारा उपद्रव झेलने के बाद, घर-गृहस्थी की सारी झंझटें झेलने
के बाद, फिर भी पांच साल ज्यादा जीती हैं। पुरुषों से ज्यादा
देर में वृद्ध होती हैं। ज्यादा समय तक युवा रहती हैं। ज्यादा समय तक सुंदर रहती
हैं। सारी असुविधाओं के बीच में! कारण है: प्रकृति ने उन्हें सहने की क्षमता दी
है।
और इसलिए स्त्रियां भागीं नहीं, जिंदगी से विमुख न
हुईं। स्वभावतः स्त्रियों में उस तरह के महात्मा और साधु पैदा न हो सके जिस तरह के
पुरुषों में हुए। लेकिन मैं इसे गौरव की बात मानता हूं, अगौरव
की नहीं। यह पुरुषों के संबंध में अगौरव है कि इनमें भगोड़े ज्यादा पैदा हुए। और ये
पुरुष, ये महात्मा, ये साधु-संत,
इनके वक्तव्य देखो क्या हैं! इनके सारे वक्तव्य स्त्री-विरोधी हैं।
शास्त्रों में सिवाय स्त्री की निंदा के और कुछ भी नहीं है। तो उससे एक बात तो
जाहिर होती है कि ये सारे लोग स्त्री से पीड़ित रहे हैं, स्त्री
से घबड़ाए रहे हैं। ये स्त्री को ही छोड़ कर भागे हैं, इतना तय
है।
शंकराचार्य का यह वचन है--
तत्वं किमेकं? शिवमद्वितीयं,
किमुत्तमं?
सच्चरितं यदस्ति।
त्याज्यं सुखं किम्? स्त्रियमेव,
सम्यक देयं
परमं किम्? त्वभयं सदैव।।
"एक तत्व क्या है? अद्वितीय
शिव तत्व। सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र। कौन सुख छोड़ना
चाहिए? सब प्रकार से स्त्री-सुख ही। परम दान क्या है?
सर्वदा अभय ही।'
शंकराचार्य कहते हैं: "कौन सुख छोड़ना चाहिए?'
त्याज्यं सुखं किम्? स्त्रियमेव।
"सब प्रकार से स्त्री का सुख ही।'
जैसे सारा सुख शंकराचार्य के मन में स्त्री का सुख ही होकर रह गया है।
और स्त्री में क्या सुख है, यह भी तो पूछो! यह वचन विचारणीय है। एक तरफ यही
महात्मागण कहते हैं कि स्त्री में क्या रखा है--हड्डी-मांस-मज्जा, लहू-मवाद...! जैसे इनमें सोना-चांदी भरा हो, हीरे-जवाहरात
भरे हों!
और दूसरी तरफ यह भी कहते हैं: "कौन सुख छोड़ना चाहिए?'
इनको सुख भी कहां दिखाई पड़ रहा है? वहीं, हड्डी-मांस-मज्जा-रक्त-मवाद, वहीं सुख भी दिखाई पड़
रहा है।
"सब प्रकार से स्त्री का सुख ही!'
मन कहां अटका है, इस सूत्र में जाहिर है। और यह
सूत्र अकेला नहीं है, तुम्हारे शास्त्र इसी तरह के सूत्रों
से भरे हैं। ये जिन लोगों ने भी लिखे होंगे, ये स्त्री से
भाग कर लिखे गए सूत्र हैं; स्त्री को जान कर नहीं, पहचान कर नहीं। स्त्रियों को इतनी गालियां दी हैं, ये
गालियां इस बात का सबूत हैं कि अभी भी कांटा चुभता है; अभी
भी मन मुक्त नहीं हुआ है, कहीं अटका हुआ है; अभी भी सुख स्त्री में ही दिखाई पड़ता है।
तो पहले तल का प्रेम तो शरीर का है। वह पाशविक है। जो उस पर ही रुकेगा, उसे आज नहीं कल इन भगोड़े साधु-संन्यासियों से राजी होना पड़ेगा।
दूसरा तल मन का है। थोड़े-से लोग मन के तल पर प्रवेश करते हैं। मन के
तल पर खतरा है। मन क्षणभंगुर है। अभी प्रेम, अभी सब फूल खिले और
अभी पंखुड़ियां झर गईं। अभी सुबह और अभी सांझ हो गई। मन का कोई भरोसा नहीं। मन यूं
है जैसे पानी पर कोई लकीरें खींचे।
लेकिन मन का प्रेम शरीर के प्रेम से ज्यादा ऊंचाई का है। वही फर्क है
जो गुलाब के फूल में और उसके ही पास पड़ी हुई चट्टान में है। चट्टान सुबह भी वही है, सांझ भी वही है, कल भी वही होगी। गुलाब का फूल सुबह
खिला था, दिन हवाओं में नाचा, सूरज से
थोड़ी गुफ्तगू की, किरणों में थोड़ा गीत गाया, गुनगुनाया, और सांझ पंखुड़ियां गिर गईं। और सांझ फूल
विदा हो गया। माना कि पत्थर जो गुलाब की झाड़ी के नीचे ही पड़ा है, ज्यादा थिर है, ज्यादा स्थायी है। लेकिन क्या इससे
तुम पत्थर होना चाहोगे या गुलाब के फूल होना चाहोगे?
भारतीय मन में यह भाव स्थायित्व का बहुत गहरा बैठा हुआ है--चीजें थिर
होनी चाहिए! जितनी थिर हों उतनी अच्छी। फिर चाहे थिर होने में जड़ ही क्यों न हो
जाएं!
इसलिए भारतीय मन बहुत निंदा करता है उन देशों की जहां विवाह के ऊपर
प्रेम छा गया है। क्योंकि जहां प्रेम मन का होगा वहां तलाक भी होंगे। वहां कुछ
भरोसा नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि शरीर के तल से मन का प्रेम ज्यादा
ऊंचाई का प्रेम है। उसमें कुछ फूलों की गंध है। शरीर के तल पर सपाट है मामला। जैसे
कोलतार की सीधी-सपाट सड़क। न कोई मोड़ आते, न कोई ऊंचाइयां आतीं,
न कोई नीचाइयां आतीं। ज्यादा व्यावहारिक है--स्थूल भी। लेकिन मन का
प्रेम यूं है जैसे पहाड़ों के शिखर, जैसे गौरीशंकर की
ऊंचाइयां। लेकिन जहां गौरीशंकर की ऊंचाइयां होंगी वहीं पास में गहरी खाइयां भी
होंगी। बिना खाइयों के ऊंचाइयां नहीं हो सकतीं। और बिना ऊंचाइयों के खाइयां नहीं
हो सकतीं।
तो जो लोग मन के प्रेम के तल पर उठेंगे, उनको स्थायित्व का मोह
छोड़ना पड़ेगा। तो उनके जीवन में प्रेम के गहरे अनुभव भी होंगे, प्रेम के शिखर भी उठेंगे और उन्हें प्रेम का विषाद भी झेलना पड़ेगा। विवाह
में न प्रेम का कोई गहरा अनुभव है, न कोई विषाद है; एक कामचलाऊ दुनिया है, एक दुकानदारी है। विवाह में
और वेश्या में मैं कुछ भेद नहीं करता हूं। वेश्या यूं समझो कि जैसे कुछ देर के लिए
किया गया विवाह है; जैसे टैक्सी में सवार हुए। और विवाह यूं
है जैसे अपने घर में ही कार रखी। प्राइवेट नंबर और टैक्सी का नंबर! मगर दोनों ही
पैसे की बात है। दोनों में कुछ बुनियादी भेद नहीं है।
इसलिए जिन देशों में विवाह-प्रथा है उन देशों में वेश्या की प्रथा भी
रहेगी। अब यह हमारा देश जो सदियों से विवाह में जी रहा है और साथ ही वेश्याएं पल
रही हैं। और धर्म के नाम पर भी पल रही हैं! भारत के मंदिरों में देवदासियां होती
रहीं--अब भी हैं। वेश्याओं का नाम ही देवदासी है। वेश्याओं के लिए अच्छा दिया नाम
है। हम नाम देने में कुशल हैं। हम सुंदर शब्दों की आड़ में भद्दी असलियतों को
छिपाने में बड़े कारीगर हैं। देवदासियां मंदिर में रही वेश्याएं थीं। ये मंदिर के
पुजारियों के काम आतीं और मंदिर में जो ग्राहक पूजा करने आते उनके काम आतीं।
न मालूम सदियों तक भारत के अनेक हिस्सों में यह प्रथा थी कि जब पहले
दिन विवाह करके कोई युवक घर लौटे तो उसकी पत्नी पहली रात सुहागरात मंदिर के देवता
के साथ बिताए। देवता बेचारे क्या करेंगे, वे पत्थर के देवता
हैं, देवता के नाम पर मंदिर का पुजारी उसे भोगेगा। वह तो
बेचारा एजेंट है। वह तो मंदिर के देवता का उपकरण मात्र है, निमित्त
मात्र है। उसके माध्यम से देवता ही भोगते हैं। क्या जालसाजियां! क्या बेईमानियां!
और कितने अच्छे-अच्छे नामों की आड़--मंदिर, देवदासी, पुजारी, देवता! और खेल सब चल रहा है वही क्षुद्रता
का।
जिन देशों में प्रेम ने विवाह का स्थान ले लिया है वहां तलाक अनिवार्य
हो गया। और जैसे-जैसे प्रेम और तलाक गहन होते जाएंगे वैसे-वैसे वेश्या विदा हो
जाएगी। वेश्या विवाह का अंग है, अनुषंग है। वेश्या का अर्थ यह है
कि अपनी पत्नी से छुटकारे का तो कोई उपाय नहीं, अपने पति से
तो छुटकारे का कोई उपाय नहीं, जब कोई उपाय नहीं है तो फिर
पीछे का कोई दरवाजा खोजो।
तो पुरुषों ने अपने लिए दरवाजा खोज लिया था। वेश्या खड़ी कर ली। और
स्त्रियों के लिए तो कोई सवाल ही नहीं उठता, उनको तो सब तरफ से
कारागृह में डाल दिया है। लेकिन जिन देशों में स्त्रियां मुक्त होने लगी हैं,
जैसे अमरीका में, इंग्लैंड में, वहां--जान कर तुम्हें हैरानी होगी--वहां पुरुष वेश्याएं भी उपलब्ध हो गई
हैं। जैसे स्त्री वेश्याएं होती हैं वैसे पुरुष वेश्याएं। कहना चाहिए: वैश्य।
वैश्य भी उपलब्ध हैं जैसे वेश्याएं उपलब्ध हैं। क्योंकि स्त्री भी वही मांग करती
है जो पुरुष करता है--समान अधिकार। तो स्वभावतः उसका यही परिणाम होगा।
प्रेम बढ़ेगा तो विषाद भी बढ़ेगा। लेकिन भारतीय साधु-संत पश्चिम में
बढ़ते हुए प्रेम और तलाक की खूब निंदा करते हैं कि देखो, प्रेम का क्या परिणाम हो रहा है! इससे तो हमारे ऋषि-मुनि जो विवाह की
व्यवस्था दे गए वही अच्छी थी। अच्छी थी इस अर्थों में कि स्थायी थी; अच्छी थी इस अर्थों में कि व्यावसायिक थी, सपाट थी;
खतरे नहीं थे, सुरक्षित थी। लेकिन जीवन जितना
सुरक्षित हो जाता है उतना ही मुर्दा हो जाता है।
तुम पूछते हो, राम किशोर, कि प्रेम क्या है?
तो एक तो प्रेम है शरीर के तल का, जो कि पाशविक है,
पशुओं जैसा है। और विवाह के नाम पर जो चल रहा है वह वही प्रेम है।
और दूसरा प्रेम है मन का, जो ज्यादा काव्यात्मक है, ज्यादा मानवीय है।
लेकिन फिर तुम दूसरी बात भी पूछते हो कि क्या कभी प्रेम नष्ट भी होता
है या नहीं?
शरीर के तल पर जो प्रेम है, उसमें तो नष्ट होने
का कोई सवाल उठता नहीं। वहां प्रेम ही नहीं है तो नष्ट क्या खाक होगा! पहले फूल तो
खिलने चाहिए, तब तो मुरझाएंगे। कागज के फूल होंगे तो
मुरझाएंगे क्यों? और प्लास्टिक के फूल हुए तब तो मुरझाने का
कोई सवाल ही नहीं उठता। विवाह प्लास्टिक का फूल है। रोज धो लो, नयात्ताजा। धूल झाड़ दो, फिर नया, फिर ताजा। वही रंग, वही ढंग, हालांकि
गंध नहीं होती, खिलता नहीं। और सिर्फ आदमियों को धोखा दे
सकता है, किसी मधुमक्खी को धोखा न दे सकेगा। कोई तितली धोखा
न खाएगी। आदमी भर मूढ़ है कि धोखा खा सकता है।
दूसरा प्रेम तो क्षणभंगुर होगा। मगर उसकी क्षणभंगुरता भी पहले प्रेम
की स्थायित्व से ज्यादा मूल्यवान है। क्योंकि उस क्षणभंगुरता से तुम्हें स्वाद
मिलेगा तीसरे प्रेम का, जो कि वस्तुतः समग्र प्रेम है। उसको मैं कहता: आत्मा
का प्रेम। जो दूसरे तक नहीं पहुंचा है, तीसरे पर नहीं
पहुंचेगा। दूसरा सोपान पार करना जरूरी है। जो पहले पर ही अटका रह गया उसका धर्म
भगोड़ापन होगा, पलायनवाद होगा। और जो दूसरे से गुजर गया,
उसके जीवन में प्रेम की क्षणभंगुरता को देख कर, प्रेम के विषाद को देख कर--और प्रेम का आनंद भी जान कर...। पहले ने तो
आनंद जाना ही नहीं सिर्फ विषाद जाना, सपाट थोथापन जाना,
तो भाग खड़ा हुआ। दूसरे ने दोनों जाने हैं, क्योंकि
दूसरा मध्य में है, शरीर और आत्मा के ठीक मध्य में है,
दूसरे ने दोनों जाने हैं--विषाद भी जाना और आनंद भी जाना। विषाद के
कारण वह दूसरे से मुक्त होना चाहेगा और आनंद के कारण दूसरे में जो छिपा हुआ राज है,
उसको और ऊंचाई तक ले जाना चाहेगा। इसलिए उसके जीवन में खोज शुरू
होगी कि क्या कोई आत्मिक प्रेम भी हो सकता है?
और वही खोज धार्मिक खोज है। वही प्रेम प्रार्थना बन जाता है। वही
प्रेम परमात्मा की तलाश है। क्योंकि वह प्रेम फिर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच नहीं
होता, वह प्रेम तो फिर व्यक्ति और अव्यक्ति के बीच होता है।
वह प्रेम तो फिर अंश के और समग्र के बीच होता है; बूंद के और
सागर के बीच होता है। दो बूंदों का प्रेम तो देख लिया, वह
टूट-टूट जाता है, बिखर-बिखर जाता है, उसकी
सीमाएं हैं। इसलिए अब ऐसा प्रेम देखने की आकांक्षा, अभीप्सा
पैदा होती है, जिसकी कोई सीमा नहीं। असीम के साथ प्रेम का
भाव उठता है। वही भाव मेरी दृष्टि में असली संन्यास है। लेकिन मेरा संन्यास तो
कष्टपूर्ण मालूम पड़ेगा।
एक मित्र ने पूछा है--नाम है मित्र का, पंडित लज्जाशंकर
झा--पूछा है: "कल आपके आश्रम को देख कर मन को बड़ी पीड़ा हुई। यह कैसा आश्रम?
न कोई मंदिर, न कोई पूजा-पाठ, न कहीं चिंतन-मनन, न कहीं यज्ञ-हवन। सुबह हरिकथा के
स्थान पर साधु-संतों, शास्त्रों-पुराणों की खोटी निंदा और हास्य-व्यंग्य।
ध्यान के नाम पर हो-हल्ला, नाचना-गाना। लगता है नए के नाम पर
सब चलता है; चलती का नाम गाड़ी। क्या ऐसे आश्रम को आश्रम,
ऐसे ध्यानों को ध्यान कहा जा सकता है?'
पंडित लज्जाशंकर झा, जब तक मन है तब तक पीड़ा होगी।
तुम कहते हो: "कल आपके आश्रम को देख कर मन को बड़ी पीड़ा हुई।'
मन लेकर जो यहां आएगा, पीड़ा ही लेकर जाएगा।
मन तो दरवाजे के बाहर ही रख आना चाहिए। और आश्रम तो सिर्फ मजाक में कह दिया,
यूं यह मयकदा है, मधुशाला है। लेकिन आप जैसे
पंडितों को फंसाने के लिए नाम रख दिया है: आश्रम। वहीं सामने मधुशाला लिखी हो तो आप
लज्जा के मारे भीतर आते ही नहीं। लज्जावश आना भी चाहते तो आ न सकते। पंडित और फिर
लज्जाशंकर! आते-आते रुक गए होते, आगे बढ़ गए होते, कहीं और चले गए होते। आश्रम तो नाम इसलिए रख दिया है कि कुछ बुद्धू सिर्फ
आश्रम के कारण ही आते हैं।
अब मन को पीड़ा तो होगी। क्योंकि तुम जो अपेक्षाएं लेकर आए होओगे, वे यहां कोई भी पूरी नहीं होंगी। तुम्हारी अपेक्षा रही होगी कि मंदिर होगा
यहां कोई। मंदिर है यहां, मगर तुम्हारी अपेक्षा का मंदिर
नहीं है। और मैंने कोई ठेका लिया है तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने का? न तुम मेरी अपेक्षा पूरी कर सकते हो, तो मैं क्यों
तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने चलूं! न मैं किसी से कोई अपेक्षा रखता हूं और न किसी
की अपेक्षाएं पूरी करने का मैंने कोई जिम्मा लिया है। मैं अपने ढंग से जीता हूं।
तुम अपनी लज्जा में डूबो, मरो; मुझे
अपने गीत-गान में मस्त रहने दो! तुम्हारी लज्जा तुम्हें मुबारक! तुम अपना घूंघट
डाल लो। बुर्के में जीओ, कि कहीं ऐसी गलत-सलत चीजें दिखाई न
पड़ जाएं।
तुम्हें कोई मंदिर न दिखाई पड़ा। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। मंदिर
देखने के लिए यहां जरा सूक्ष्म आंखें चाहिए। तुम सोच रहे होओगे कि घंटा इत्यादि बज
रहा होगा, मूर्ति वगैरह रखी होगी, हनुमान
जी बैठे होंगे। तो तुम एकदम साष्टांग दंडवत करते; एकदम
हनुमान-चालीसा बकने लगते। लेकिन ऐसा कोई मंदिर तुम्हें दिखाई पड़ा नहीं कि बैठे हैं
गणेश जी, चूहा के ऊपर सवार! न शंकर जी दिखाई पड़े। तुम्हें
कुछ भी दिखाई न पड़ा; न कोई पूजा, न कोई
पाठ।
यहां पूजा-पाठ ही चल रहा है, सतत, चौबीस घंटे, अहर्निश। लेकिन यहां की अपनी पूजा है,
अपना पाठ है। यहां की अपनी शैली है, अपना रंग
है, अपनी भाषा है, अपना ढंग है। तुम
अपनी अपेक्षाएं लेकर आए इसलिए पीड़ा लेकर जाओगे। इसमें मेरी मजबूरी है। मैं क्या कर
सकता हूं? अपेक्षाएं लेकर आओ ही मत। निष्पक्ष आकर
पक्षपातरहित होकर अगर देखो तो पूजा भी मिलेगी, पाठ भी मिलेगा,
मंदिर भी मिलेगा।
और कहते हो, "न कहीं चिंतन, न मनन।'
यहां चिंतन और मनन से ही तो मुक्त होने की चेष्टा की जा रही है। मनन
से ही तो मन बनता है, वही तो पीड़ा दे रहा है, पंडित
लज्जाशंकर झा! और अभी भी मनन करना है? यहां मनन से मुक्त
होना है। मनन से मुक्ति का नाम ही तो ध्यान है। चिंतन-मनन ध्यान तो नहीं है। ध्यान
का अर्थ है: अमनी अवस्था--जहां न मनन रहा, न चिंतन रहा,
न विचार रहा, न विकल्प रहे, न कोई धारणाएं रहीं। वहीं तो ध्यान का नया लोक, नया
आकाश आविर्भूत होता है।
और कहते हो, "न कहीं यज्ञ-हवन।'
यहां कोई पागल इकट्ठे हुए हैं कि यज्ञ-हवन करें! आग जला कर क्या लेना
है? ऐसे ही भूखा मर रहा है देश, अब और आग में घी जलाना
है? गेहूं फेंकने हैं? चावल छिड़कने हैं?
मूर्खताएं काफी नहीं हो चुकीं? तुम अपनी
मूर्खता में मुझे भी सम्मिलित करना चाहते हो? मुझे बख्शो!
अपने घर यज्ञ-हवन जो तुम्हें करना हो, करो।
और तुम कहते हो, "सुबह हरिकथा के स्थान पर
साधु-संतों, शास्त्रों-पुराणों की खोटी निंदा और
हास्य-व्यंग्य।'
साधु-संतों की निंदा नहीं हो रही है, लफंगों की निंदा हो
रही है। तुम उनको साधु-संत कहते हो, मगर मैं मानूं तब न!
तुम्हारे साधु-संत मेरी दृष्टि में साधु-संत नहीं हैं। अगर मेरे संन्यासी तुम्हारी
दृष्टि में संन्यासी नहीं हैं, तो क्यों अपेक्षा रखते हो कि
मेरी दृष्टि में तुम्हारे साधु-संत साधु-संत हों? तुम्हारे
साधु-संतों में मैं कुछ साधुता नहीं देखता, कोई संतत्व नहीं
देखता। सब तरह का दंभ देखता हूं, अहंकार देखता हूं, थोथापन देखता हूं, पोंगापंथी देखता हूं, तोतारटंत बकवास देखता हूं। तो कैसे उनकी प्रशंसा करूं? किस कारण से उनकी प्रशंसा करूं? प्रशंसा करने योग्य
जब भी कुछ होता है तो जरूर मैं प्रशंसा करता हूं; फिर वह
किसी ने भी कहा हो। फिर मैं कोई संकोच नहीं करता कि किसने कहा है। लेकिन सिर्फ तुम
साधु-संत मानते हो, इससे कुछ हल हो जाएगा?
जैनों ने तुम्हारे कृष्ण को नर्क में डाला हुआ है, क्योंकि उन्हें वे साधु-संत नहीं मालूम पड़े। बराबर नर्क में डालने के
हकदार हैं! किताबें उनकी हैं! जिस आदमी ने महाभारत का युद्ध करवा दिया, इतनी भयंकर हिंसा करवाई, लहू की नदियां बहवा दीं,
और जिस आदमी के कारण फिर भारत कभी खड़ा नहीं हो सकता है, रीढ़ ही टूट गई--उस महाभारत के बाद भारत दीन और दुर्बल होता चला गया--अगर
जैनों ने कृष्ण को नरक में डाल दिया तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। वे जैनों को साधु
नहीं मालूम पड़े। जो आदमी सोलह हजार स्त्रियों को भगा लाया--दूसरों की विवाहित
स्त्रियों को--जोर-जबरदस्ती से ले आया, वह अगर जैनों को साधु
नहीं मालूम पड़े तो क्या आश्चर्य है?
कौन साधु है? किसको साधु कहते हो? साधु की तो
व्याख्या करनी होगी न! कि बस साधु-संत कह दिया, मामला हल हो
गया!
महावीर हिंदुओं को साधु नहीं मालूम होते। किसी हिंदू शास्त्र ने
महावीर की साधुता की चर्चा नहीं की। बौद्धों को महावीर साधु नहीं मालूम होते।
बौद्धों ने महावीर का खूब मजाक उड़ाया है, अपने शास्त्रों में
खूब व्यंग्य कसे हैं। उनकी अपनी परिभाषा है साधु की। जैन कहते हैं कि महावीर
त्रिकालज्ञ हैं; उन्हें तीनों कालों का ज्ञान है। और बौद्ध
शास्त्र कहते हैं: खूब त्रिकालज्ञ हैं! हमने उन्हें ऐसे घर के सामने भीख मांगते
खड़ा देखा है जिस घर में कोई वर्षों से नहीं रहता! जब उनको बताया जाता है तब पता
चलता है कि घर में कोई है ही नहीं। और ये त्रिकालज्ञ हैं! अतीत भी जानते हैं,
वर्तमान भी जानते हैं, भविष्य भी जानते हैं।
ये कैसे त्रिकालज्ञ हैं, इनको यह भी पता नहीं चल रहा है कि
घर में कोई नहीं है! बौद्ध ग्रंथ कहते हैं कि हमने महावीर को सुबह के अंधेरे में
कुत्ते की पूंछ पर पैर रखते देखा है। जब कुत्ता भौंका तब उनको पता चला कि अरे
कुत्ता है! ये त्रिकालज्ञ हैं?
तो बौद्ध तो महावीर को साधु नहीं मानते। और न जैन बुद्ध को साधु मानते
हैं। क्योंकि जैन तो तभी किसी को साधु मानें जब वह समस्त परिग्रह छोड़ दे। और समस्त
परिग्रह में वस्त्र भी आ जाते हैं। और बुद्ध तो वस्त्र पहनते रहे; तीन वस्त्र रखते थे। वह बहुत परिग्रह हो गया। काफी जंजाल हो गया। पूरा
संसार हो गया। तीन वस्त्र जो आदमी रखे है, वह अभी कहां साधु!
तो जैनों ने बुद्ध को कोई साधु नहीं माना। तुम सोचते हो, जैन तुम्हारे राम को अवतार मान सकते हैं? या परशुराम
को अवतार मान सकते हैं? परशुराम, जिसने
पृथ्वी को अठारह दफे क्षत्रियों से खाली कर दिया! हत्या करता रहा, हत्या करता रहा! ये चंगेजखां और तैमूरलंग और नादिरशाह सब बचकाने मालूम
पड़ते हैं। परशुराम ने जितनी हत्या की, शायद किसी आदमी ने कभी
नहीं की। इसको जैन, जो अहिंसा को परम धर्म मानते हैं,
कैसे साधु मानें? और तुम तो उन्हें अवतार
मानते हो, साधु ही नहीं--ईश्वर का अवतार!
सवाल यह है: कौन साधु है? क्या साधु की
व्याख्या?
मोहम्मद की नौ पत्नियां थीं। क्या तुम सोचते हो जैन और बौद्ध मोहम्मद
को साधु मान सकते हैं? नौ पत्नियां! और जिंदगी भर तलवार हाथ में! किस प्रकार
के साधु?
कौन निर्णायक है परिभाषा का? बस, तुमने तो कह दिया कि सुबह हरिकथा के स्थान पर साधु-संतों, शास्त्रों-पुराणों की खोटी निंदा! मेरी अपनी साधु की व्याख्या है। जो
समाधिस्थ है, वह साधु है। न तो वस्त्रों से मैं तय करता,
न तलवारों से तय करता, न सूलियों से तय करता,
न उपवासों से तय करता, मेरी तो एक कसौटी
है--जो समाधिस्थ, वह साधु। और समाधिस्थ जो बोले, वह शास्त्र।
अब तुम कहते हो कि शास्त्रों-पुराणों की खोटी निंदा! बुद्ध तो वेद को
शास्त्र नहीं मानते हैं। क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत तो तुम्हारे वेद में कचरा है, इसको शास्त्र वे मानें भी कैसे? जैन तो तुम्हारे वेद
को शास्त्र नहीं मानते। मुसलमान तो तुम्हारी गीता को शास्त्र नहीं मानते। और न ही
हिंदू कुरान को शास्त्र मानेंगे; न बाइबिल को शास्त्र
मानेंगे। इस दुनिया में तीन सौ धर्म हैं, किसके शास्त्र को
शास्त्र मानें? और किसके शास्त्र को शास्त्र न मानें?
मैं तो शास्त्र उसको मानता हूं जो समाधिस्थ व्यक्ति ने बोला हो। और जो
समाधिस्थ व्यक्ति का बोला हुआ नहीं मालूम पड़ता, उसकी जोर से आलोचना
करूंगा। उसको टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। यही हरिकथा है। हरिकथा का अर्थ यह है कि समाधि
को उभारना है, उघाड़ना है। जिस चीज से भी ढकी हो समाधि,
उसको अलग करना है। यह कूड़ा-करकट अलग करना होगा।
तुमको लगती होगी निंदा, क्योंकि तुम्हारे
अनुकूल कोई बात न पड़ती होगी। लेकिन तब सोच-विचार करो। तुम यहां चिंतन-मनन देखने आए
हो, खुद तो थोड़ा चिंतन-मनन करो! मैं जो भी कह रहा हूं उसके
पीछे कुछ बल है। मेरे अपने अनुभव का बल है! सोचो, समझो,
प्रयोग करो। और अगर हिम्मत हो तो ध्यान करो। और तभी तुम्हारे पास
कसौटी होगी जांचने की कि जो मैंने कहा वह सार्थक था या नहीं। इतनी जल्दी लजाओ न।
इतनी जल्दी मन को पीड़ा न दो। इतनी जल्दबाजी में कुछ हल न होगा।
तुम्हारे शास्त्र-पुराण।...हां, कभी-कभी उन
शास्त्रों-पुराणों में कोई हीरा मिल जाता है, तो मैं उसे सिर
पर उठा लेता हूं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एक हीरे के कारण पूरा कूड़ा-करकट
से भरा हुआ ट्रक भी ढोता फिरूं। हीरे को उठा लेंगे, कूड़े-करकट
को तो आग लगा देंगे! पारखी की नजर चाहिए।
अब तुम्हारे पुराणों में क्या है? कपोल-कल्पनाएं! झूठी
कथाएं! व्यर्थ की बातें! बचकानी! ओछी! उनको कैसे हरिकथा कहें? लेकिन तुम्हें कठिनाई हो रही है कि ध्यान के नाम पर हो-हल्ला। स्वभावतः
जिसको संगीत समझ में न आता हो, उसे संगीत में हो-हल्ला मालूम
होगा। और जिसको मस्ती न आती हो, उसको नाचना-गाना ध्यान नहीं
मालूम होगा।
लेकिन यहां ध्यान और मस्ती का समागम हो रहा है। यहां जो नाच रहे हैं
वे सिर्फ नाच नहीं रहे हैं, भीतर स्वयं को साध भी रहे हैं। बाहर नृत्य है और भीतर
मौन है, सन्नाटा है, शून्य है। बाहर
गीत है और भीतर गहन शून्य है, गहन प्रशांति है। मगर यह तो
तुम संयुक्त होओगे तब। यह तो तुम बाहर से ही देख कर चले! यह तुम्हारा तो मन पीड़ा
से भर गया है, अब क्या तुम सम्मिलित हो सकोगे!
तुम्हें लगता है कि नए के नाम पर सब चलता है। इस देश में तो तुम गलत
ही बात कह रहे हो! यहां तो पुराने के नाम पर सब चलता है। और चलती का नाम गाड़ी, मगर पुराने के नाम पर सब चलता है। यहां नए के नाम पर कुछ तो चला कर देखो।
छाती चाहिए नए के नाम पर कुछ चलाने को। पुराने के नाम पर कुछ दिक्कत नहीं है।
पुराने के नाम पर सब चलता है। बस पुराने का उल्लेख भर कर दो कि सब चल जाता है।
अब एक मित्र ने पूछा है: "भगवान, आप कहते हैं कि भगवत्ता
है, भगवान नहीं। फिर आप तुलसीदास से सहमत क्यों नहीं हैं?
वे भी तो कहते हैं, सियाराम मय सब जग जानी।
उनका भी तो वही अर्थ है जो आपका। क्या उनका यह पद भगवत्ता की धारणा को सिद्ध नहीं
करता?'
रामप्रवेश सिंह चौहान, तुलसीदास और मेरी बात
में कोई तालमेल कहीं भी नहीं, दूर का भी नाता-रिश्ता नहीं
है। तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया, यूं तो
लिखते हैं कि सियाराम मय सब जग जानी, लेकिन जब उन्हें कृष्ण
के मंदिर में ले जाया गया तो वे कृष्ण की मूर्ति को झुके नहीं। उन्होंने कहा,
मैं तो राम का भक्त हूं। जब तक धनुष-बाण हाथ में नहीं लोगे, मैं सिर न झुकाऊंगा। ये सब जग में सियाराम को देखते हैं! ये कृष्ण में भी
सियाराम को नहीं देख पा रहे हैं। अच्छी-अच्छी बातें करना एक बात--सियाराम मय सब जग
जानी! तो फिर यह कृष्ण भर को छोड़ दिया जगत के बाहर! क्यों कृष्ण के सामने सिर
झुकाने में अड़चन आ रही है? अब कृष्ण कोई मोहम्मद भी तो नहीं,
कृष्ण कोई जीसस भी तो नहीं, कोई मूसा भी तो
नहीं, कोई महावीर भी तो नहीं, कोई
जरथुस्त्र भी तो नहीं; उन्हीं हिंदुओं के अवतार हैं जिनके
राम अवतार हैं। कृष्ण के सामने, सिर झुकाने में क्या अड़चन आ
रही है? यही अड़चन आ रही है कि वे तो धनुष-बाण वाले राम के
भक्त हैं और जब तक धनुष-बाण हाथ नहीं लेओगे, तुलसी झुके न
माथ! यह तुलसी का माथा भी शर्त के साथ झुकता है!
और अगर सारे जगत में सिया और राम का ही प्रवेश है, तो फिर ये ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी, ये तुलसीदास क्या अफीम खा गए थे जब बोले? जब सब
सियाराम मय ही है, तो ढोल, गंवार--ये
भी सियाराम! शूद्र पशु नारी--ये भी सियाराम। और ये सब ताड़न के अधिकारी! रामचंद्र
जी की पिटाई करोगे? ताड़ोगे, सताओगे?
रामप्रवेश सिंह चौहान, थोड़ी बुद्धि का उपयोग
करो। मैं जिस भगवत्ता की बात कर रहा हूं, बेचारे तुलसीदास
क्या करेंगे उस भगवत्ता की बात! ये तो लकीर के फकीर। मगर पुराने का नाम यहां चलता
है, पुराने की साख यहां चलती है, नए की
नहीं। नए को तो बड़ी अड़चन है।
और प्रेम को--तुमने पूछा है--कि क्या कभी नष्ट होता या नहीं?
शरीर का स्थिर होता है, क्योंकि होता ही
नहीं। मन का नष्ट होता है, क्योंकि मन क्षणभंगुर है। लेकिन
आत्मा का शाश्वत है, क्योंकि आत्मा शाश्वत है। जिस तल पर
प्रेम होगा उस तल का ही होगा। शरीर के तल पर काम, मन के तल
पर प्रेम और आत्मा के तल पर प्रार्थना। प्रार्थना शाश्वत है। तुम जिस प्रेम को अभी
समझते हो, वह तो टिकने वाला नहीं।
कोई है
कोई भी तो नहीं
न हवा न रंग
न गुल न बू
अहसास--सिर्फ एक अहसास
धूप भी भूल गई हो रास्ता जैसे मेरे घर का
जम्मे गफीर
यह खोखली सी भीड़,
हर लम्हा मुंजमिद
हर घड़ी साकित
न सुबह न शाम
न दिन न रात
अहसास--सिर्फ एक अहसास
मेरे जिस्म में चुभ रहा है
अजनबीपन हर नजर का
एक आवाज कोई तो दे दे
हाय एक दस्तक कोई तो दे दे
यह प्रेम तो जल्दी ही चला जाता है, कोई दस्तक देने वाला
भी नहीं मिलता।
खयालो-शेर की दुनिया में जान थी जिन से
फिजाए-फिक्रो-अमल अरगवान थी जिन से
वो जिनके नूर से शादाब थे महो-अंजुम
जुनूने-इश्क की हिम्मत जवान थी जिन से
वो आरजूएं कहां सो गई हैं मेरे नदीम!
वो नासबूर निगाहें, वो मुंतजिर राहें
वो पासे-जब्त से दिल में दबी हुई आहें
वो इंतजार की रातें, तवील, तीरह-वत्तार
वो नीम-ख्वाब शबिस्तां, वो मखमली बांहें
कहानियां थीं, कहीं खो गई हैं मेरे नदीम!
मचल रहा है रगे-जिंदगी में खूने-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमों से रूह के तार
चलो, कि चल के चिरागां करें दियारे-हबीब
हैं इंतजार में अगली मोहब्बतों के मजार
मोहब्बतें जो फना हो गई हैं मेरे नदीम!
मेरे दोस्त, मेरे साथी! कहां खो गए वे दिन?
खयालो-शेर की दुनिया में जान थी जिनसे
कविताओं में प्राण थे जिनसे!
फिजाए-फिक्रो-अमल अरगवान थी जिनसे
वो जिनके नूर
से शादाब थे
महो-अंजुम
जिनकी रोशनी से चांदत्तारे चमकदार थे।
जुनूने-इश्क की हिम्मत
जवान थी जिनसे
प्रेम का पागलपन, प्रेम की मस्ती जिनके कारण जवान
थी।
वो आरजूएं कहां
सो गई हैं
मेरे नदीम!
मेरे मित्र, मेरे साथी, मेरे संगी! वे
आकांक्षाएं कहां सो गईं, कहां खो गईं?
वो नासबूर निगाहें...
वे बेचैन निगाहें!
...वो मुंतजिर राहें
वो पासे-जब्त से दिल में दबी हुई आहें
वो इंतजार की रातें, तवील, तीरह-वत्तार
वो नीम-ख्वाब शबिस्तां, वो मखमली बांहें
कहानियां थीं, कहीं खो
गई हैं मेरे
नदीम!
मन के जगत में तो सब कहानियां हैं, सब खो जाएंगी।
मचल रहा है रगे-जिंदगी में खूने-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमों से रूह के तार
चलो, कि चल के चिरागां करें दियारे-हबीब
हैं इंतजार में
अगली मोहब्बतों के
मजार
सब मजार बन जाते हैं, सब कब्रें हो जाती हैं
मोहब्बतें!
मोहब्बतें जो फना
हो गई हैं
मेरे नदीम!
सब मोहब्बतें मर जाती हैं, सब प्रेम मर जाते हैं।
जो जन्मता है वह मर जाता है। लेकिन एक ऐसा प्रेम भी है, जो
जन्मता ही नहीं, जो तुम्हारे भीतर ही छिपा पड़ा है; जिस दिन तुम उसका आविष्कार कर लोगे, वही तुम्हारी
आत्मा है, वही तुम्हारा परमात्मा है। तुम हो मंदिर! और
तुम्हारे भीतर छिपा है प्रेम का एक सागर।
लेकिन उसके लिए गहरी डुबकी मारनी होगी ध्यान की। विचार से नहीं होगा, चिंतन-मनन से नहीं होगा, शास्त्र से नहीं होगा,
साधु-संतों से नहीं होगा, मंदिर-मस्जिदों में
घड़ियाल, अजानें देने से नहीं होगा, यज्ञ-हवन
करने से नहीं होगा। सिर्फ एक ही कला है उस प्रेम को उघाड़ लेने की--जो अजन्मा है और
अमृत है--और वह कला है: ध्यान।
निर्विचार हो रहो, निर्विकल्प हो रहो। ऐसे शांत हो
जाओ कि भीतर कोई चहलकदमी न रहे, कोई शोरगुल न रहे, कोई तरंग भी न उठे, निस्तरंग हो जाओ। अकंप जले
तुम्हारी चेतना की लौ; जैसे दीया जले ऐसे घर में जहां हवा का
कोई झोंका भी न आता हो। तब तुम खोज पाओगे अपने भीतर के शाश्वत स्वर को, शाश्वत संगीत को। वह प्रेम कभी नहीं मिटता है। उसकी ही तलाश है। और जब तक
उसे हमने नहीं पा लिया है तब तक हमने कुछ भी नहीं पाया है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
बुल्लेशाह की सत्य के संबंध में एक काफी है--
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
सच कहां ता भांबड़ मचदा ए, झूठ आखां ता कुझ न बचदा ए।
दिल दोहां गलां तो मचदा ए, जच-जच के जीभा कहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
जिस भेद पाया कलंदर दा, राह खोजिया अपने अंदर दा।
ओह वासी है उस मंदर दा, जिथे चढ़दी है न लहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
ए शाह अकल तू आया कर, सानूं अदब अदाब सखाया कर।
मैं झूठी नूं समझाया कर, जो मूरख मांह नू कहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
एथे दुनिया विच हनेरा है, अते तिलकनबाजी वेहड़ा है।
अंदर वड़ के देखो केहड़ा है, बाहर खुफतान पई ढूढेंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
इक लाजम गल अदल दी है, सानूं बात मालूमी सभ दी है।
हर हर विच सूरत रब दी है, कहुं जाहर कहुं छपेंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
एथे लेखा पाओ पसारा है, इसदा वखरा भेद निआरा है।
इक सूरत दा चमकारा है, ज्यों चिंग दारू विच पैंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
जदों जाहर होए नूर होरीं, जल गए पहाड़ कोहतूर होरीं।
तदों दार चढ़े मनसूर होरीं, ओथे शेखी की मैं डी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
जे जाहर करां तकसार ताईं, सभ भुल जावन इकरार ताईं।
फिर मारन बुल्ले यार ताईं, एथे मुकदी गल सुहेंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
असां पढ़िया इलम हकीकी है, उथे इक हरफ तहकीकी है।
होर झगड़ा सभ वधीकी है, ऐवें रौला पा पा बहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
बुलिया शौह असां थीं वख नहीं, बिना शौह थीं दूजा कख नहीं।
पर देखन वाली अख नहीं, ताहीं जान पई दुखड़े सहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
भगवान, निवेदन है कि
बुल्लेशाह की इस काफी पर कुछ कहें।
चैतन्य
कीर्ति,
यह काफी तो सच में ही प्यारी है। एक-एक सूत्र को समझने की कोशिश करो।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
सच कहां ता भांबड़ मचदा ए, झूठ आखां ता कुझ न
बचदा ए।
दिल दोहां गलां तो मचदा ए, जच-जच के जीभा कहिंदी
ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
"अर्थात मुंह आई बात रुकती नहीं। सच कहूं तो तूफान
खड़ा होता है, झूठ कहूं तो कुछ बचता नहीं। दिल को दोनों बातों
से आग लगती है, इसलिए जबान सम्हाल-सम्हाल कर कहती है। फिर भी,
मुंह आई बात रुकती नहीं।'
सत्य को जिसने जाना है, उसे कहना ही पड़ा है,
कहना ही पड़ेगा। फूल खिलेगा तो गंध उड़ेगी ही। दीया जलेगा तो रोशनी
फैलेगी ही। सूरज उगेगा तो सुबह होगी ही।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
जब सत्य भीतर आता है तो रोका नहीं जा सकता; कोई उपाय नहीं। बहेगा, दूसरों तक पहुंचेगा; हालांकि खतरे हैं। और तुम जो यहां मेरे पास हो, खतरों
को देख रहे हो।
"सच कहूं तो तूफान खड़ा होता है।'
सच कहां ता भांबड़ मचदा ए।
भांबड़ तूफान से भी प्यारा शब्द है। कैसा भांबड़ मचा हुआ है! अब ये
पंडित लज्जाशंकर झा आ गए, क्या भांबड़ मचा रहे हैं! कहां भूले-भटके आ गए! कहीं
यज्ञ-हवन करते, यहां कहां दीवानों की बस्ती में आ गए! लेकिन
सारे देश में मुझे गालियां दी जा रही हैं। देश में ही नहीं, परदेश
में भी।
सच कहां ता भांबड़ मचदा ए, झूठ आखां ता कुझ न
बचदा ए।
और अगर झूठ कहूं तो भीतर की गवाही नहीं, आंख गवाही नहीं देती।
जो दिखाई पड़ता है वही कहूंगा। जो दिखाई ही नहीं पड़ता वह कैसे कहूं? और सच कहूं तो मुसीबत खड़ी होती है, झगड़ा खड़ा होता है,
तूफान उठता है, आंधी उठती है। और अगर झूठ कहूं
तो कैसे कहूं? झूठ कहूं तो सच का कुछ उसमें बचता नहीं,
आंखों की कोई गवाही नहीं रह जाती।
दिल दोहां गलां तो मचदा ए।
"और दिल है कि हर हाल में दुखता है। अगर सच कहूं
तो चारों तरफ तूफान उठता है। नाहक लोग दुखी होने लगते हैं।'
अभी पंडित लज्जाशंकर झा के मन को बड़ी पीड़ा हो गई। सच कहो तो मुसीबत
है। सच जीओ तो मुसीबत है।
दिल दोहां गलां तो मचदा ए, जच-जच के जीभा कहिंदी
ए।
"तो कोशिश करता हूं,' बुल्लेशाह
कहते हैं, "कोशिश करता हूं सम्हल-सम्हल कर कहूं।'
मगर कितना ही सम्हल-सम्हल कर कहो, अरे सम्हल-सम्हल कर
ही किसी की गर्दन काटो, फिर भी तो चीखेगा-चिल्लाएगा तो ही!
सम्हल-सम्हल कर ही किसी के शास्त्रों में आग लगाओ, सम्हल-सम्हल
कर ही किसी के हनुमान जी छुड़ाओ, किसी के गणेश जी को हटाओ,
झंझट तो होने वाली है।
जिस भेद पाया कलंदर दा।
कहते हैं, "जिसने उस प्रभु का राज पा लिया, जिसने अपने भीतर की राह खोज ली उसने पा लिया। वह उस मंदिर का वासी है जहां
कोई उतार-चढ़ाव नहीं। मुंह आई बात रोकी नहीं जा सकती।'
पंडित लज्जाशंकर झा कहते हैं कि यहां न कोई मंदिर, न कोई पूजा। और बुल्लेशाह कह रहे हैं, जिस भेद पाया
कलंदर दा--जिसने उस प्रभु का राज पा लिया--राह खोजिया अपने अंदर दा! अब वह क्या
खाक मंदिरों की तलाश करे! उसे मंदिर मिल गया, अपने भीतर मिल
गया। वह स्वयं मंदिर है। जहां बुद्धपुरुष बैठते हैं वहां मंदिर; जहां चलते हैं वहां तीर्थ; जहां ठहर जाते हैं क्षण
भर को वहां काबा बन जाते हैं और काशी बन जाते हैं। काबा और काशी तो पागल जाते हैं;
बुद्ध पुरुष अपने भीतर जाते हैं।
राह खोजिया अपने अंदर दा, ओह वासी है उस मंदर
दा।
क्योंकि वहीं तो मालिक बसा हुआ है। क्या तुम मिट्टी-पत्थर के मकानों
में उसे खोज रहे हो! कहां मंदिरों और मस्जिदों में खोज रहे हो!
ओह वासी है उस मंदर दा, जिथे चढ़दी है न
लहिंदी ए।
वहां न कोई उतार है न कोई चढ़ाव है। वहां कोई परिवर्तन नहीं, वहां शाश्वतता है। वहां न कोई जन्म है न मृत्यु है।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
क्या करूं--बुल्लेशाह कहते हैं--मुंह में बात आई जा रही है, आई जा रही है, कहनी ही पड़ेगी। अब मंदिरों के मानने
वाले नाराज हो जाएं और मस्जिदों के मानने वाले नाराज हो जाएं तो हो जाएं, किया क्या जा सकता है! सम्हल-सम्हल कर कह रहा हूं।
अब मैं भी कितने सम्हल-सम्हल कर कह रहा हूं! मगर कुछ भी करो, कितने ही सम्हल कर कहो, जिनके पक्षपात हैं उनको चोट
तो पहुंचेगी ही।
ए शाह अकल तू आया कर, सानूं अदब अदाब सखाया कर।
कहते हैं कि ऐ बुल्लेशाह, तू जरा अकल से काम
ले। ये मस्ती की बातें, ये दीवानगी की बातें, ये पागलपन की बातें यूं ही मत कह दे। बहुत भांबड़ मचेगा! ऐ बुल्लेशाह,
जरा अकल को बुला! यह अकल कहां खो गई?
असल में अकल के पार कोई जब जाता है, तभी तो उसे पाता है;
यह मुसीबत है। अकल के जो पार गए उन्होंने उसे पाया। और जब उसको पाया
तो बेचारे खोजते हैं अकल को कि किसी तरह मिल जाए तो जरा सम्हल-सम्हल कर कह सकें।
तू आ और अदब-आदाब समझा। अरे, जरा आ और जरा ढंग की बातें
कहलवा! अदब-आदाब! शिष्टाचार!
अब मैं भी लाख कोशिश करता हूं कि शिष्टाचार बरतूं, मगर क्या करूं! लफंगों को कैसे महात्मा कहूं? भांबड़
मचे तो मचे! बुल्लेशाह तो भले आदमी रहे होंगे; बेचारे कहते
हैं कि बुलाता हूं अकल को, ऐ अकल आ और मुझे अदब-आदाब समझा।
हालांकि मुझे पता है कि अकल आई नहीं, गई तो गई, फिर क्या आएगी! खुद ही तो राख कर आए, अब कहां से
लाओगे? मगर भले आदमी हैं। मैं उतना भला आदमी नहीं। मैं
अकल-वकल को बुलाता नहीं।
मेरे पिता के पिता, मेरे बाबा हमेशा पूछा करते थे,
हरेक से पूछा करते थे, मगर मैंने उनका प्रश्न
सदा के लिए समाप्त कर दिया। मोहल्ले भर के बच्चों से वे पूछा करते थे, अकल बड़ी कि भैंस? स्वभावतः सभी कहते, अकल बड़ी। वे कहते, ठीक कहता है!
मुझसे पूछा उन्होंने, अकल बड़ी कि भैंस?
मैंने कहा, भैंस।
उन्होंने कहा, क्या कहा तूने--भैंस!
मैंने कहा, निश्चित। क्योंकि अकल तो आपकी खोपड़ी के भीतर है,
भैंस को रख सकते हैं अपनी खोपड़ी के भीतर? अगर
भैंस को रख कर बता दो, तो मैं मान लूं कि अकल बड़ी कि भैंस,
साफ हो जाएगा।
फिर मैंने कहा, तुम पूछते हो अकल बड़ी कि भैंस, कोई
भैंस नहीं पूछती। पूछती ही नहीं। जानती ही है कि कौन बड़ा, पूछना
क्या है! अरे, प्रश्न वह पूछे जिसको पता नहीं। अकल को पता
होता तो पूछती क्यों? भैंस को पता है, इसलिए
चुप है।
फिर उन्होंने नहीं पूछा। फिर मैं उनसे कई बार कहता, आजकल पूछते नहीं कि अकल बड़ी कि भैंस! वे कहते, चुप
रह! बेकार की बातें न छेड़! कम से कम मेरे सामने उन्होंने फिर किसी से नहीं पूछा कि
अकल बड़ी कि भैंस। क्योंकि वह उनको दिक्कत खड़ी हो गई कि भैंस को सिद्ध करना पड़ेगा;
इतनी छोटी-सी खोपड़ी में अकल!
तो मैं नहीं बुलाता अकल को। बुल्लेशाह कहते हैं, "अकल तू आ, अदब-आदाब समझा। इस झूठी मैं को समझा जो
मुझे मूरख कहती है।'
वे यह कह रहे हैं कि यह मेरा अहंकार ही मुझे मूरख कहता है; कहता है कि क्यों इतना भांबड़ मचवा रहा है। अरे, चुप
हो! लोग सम्मान करेंगे, चरणों में फूल चढ़ाएंगे, क्यों पत्थर खाने चला है? तो अकल को कहते हैं कि तू
आ जा, कुछ मेरे इस अहंकार को भी समझा। यह पागल मुझसे कह रहा
है कि अगर सम्मान पाना हो तो सत्य की बात न कह।
असल में अंधों की इस दुनिया में अगर आदर पाना हो तो कभी आंख की बात न
करना। अंधों की दुनिया में महाअंधे पूजे जाते हैं। मुझे अनेक पत्र आए हैं कि मैंने
मदर टेरेसा की आलोचना की। उन सभी पत्रों ने एक बात बार-बार दोहराई है कि मदर
टेरेसा को सारी दुनिया में सम्मान मिला, एक अकेले आप हैं जो
उसकी आलोचना कर रहे हैं। जो जगत-सम्मानित है, नोबल पुरस्कार
विजेता है, भारत-रत्न की उपाधि जिसे मिली, जिसे हर देश में होड़ लगी हुई है कि हर देश जिसको सम्मान दे, उसके आप अकेले आलोचक!
इस दुनिया में महाअंधे हों कोई, तो अंधों की भीड़ उनको
नोबल प्राइज भी देगी, भारत-रत्न भी देगी, जगह-जगह उनको सम्मान भी मिलेगा, पुरस्कार भी
मिलेंगे। मैं इन पत्र लिखने वालों से पूछता हूं: क्या तुम सोचते हो जीसस को नोबल
पुरस्कार मिल सकता था? तो फिर सूली क्यों मिली? जीसस को भारत-रत्न की उपाधि मिल सकती थी? असंभव!
जीसस को पत्थर मिले। बड़ी भांबड़ मची! और मदर टेरेसा को पुरस्कार मिल रहे हैं! और
मदर टेरेसा को लोग समझते हैं कि जीसस की अनुयायी है। भांबड़ मेरे पास मच रही है,
तो जीसस का संगी-साथी कौन है, मैं हूं या मदर
टेरेसा? सूली लगे तो मुझे लगेगी, मदर
टेरेसा को नहीं लग सकती।
मंसूर को सूली लगी, सरमद को सूली लगी। लेकिन किसी
पंडित-पुरोहित को थोड़े ही लगती है; उसको सम्मान मिलता है;
उसको पुरस्कार मिलते हैं, आदर मिलता है।
बुल्लेशाह ठीक कहते हैं, "इस दुनिया में
अंधकार है, इसका आंगन फिसलन भरा है। भीतर प्रवेश करके देखो
कौन है। बाहर व्यर्थ ढूंढ रहे हो। अब मुंह में बात आ गई है तो रुकती नहीं।'
वे कहते हैं कि कहना ही पड़ेगी। इस दुनिया में अंधकार है और तुम अंधे
हो। इसका आंगन फिसलन भरा है। भीतर प्रवेश करके देखो कौन है! बाहर क्यों व्यर्थ
ढूंढ रहे हो? ये मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे और गिरजे तो सब
बाहर हैं। ये काबा और काशी और गिरनार, ये तो सब बाहर हैं। ये
कृष्ण, ये महावीर, ये बुद्ध, ये सब तो बाहर हैं। अपने भीतर आओ, तो शायद तुम उसको
पा सको जो पाने योग्य है।
"प्रत्येक चेहरे में परमात्मा की छवि है--कहीं
छिपी है, कहीं प्रकट।'
बस इतना ही फर्क है। यह मैं तुमसे बार-बार कहा हूं। कहीं परमात्मा
सोया है, कहीं जगा है; बस इतना ही फर्क
है। बुद्ध में और तुममें कोई फर्क नहीं; इतना ही फर्क है कि
बुद्ध ने आंखें खोल दीं और तुम आंखें बंद किए बैठे हो; कि
बुद्ध ने अपने दरवाजे खोल दिए और तुम अपने दरवाजे अटकाए बैठे हो; बस इतना ही फर्क है, जरा-सा फर्क है।
"प्रत्येक चेहरे में परमात्मा की छवि है--कहीं
छिपी है, कहीं प्रकट। सबके संबंध में हमें यह पता है और यह
बात हर बुद्धिमान को भी मालूम है। मुंह में बात आ गई तो रुकती नहीं।'
ये बुद्धिमान, जिनको यह बात मालूम है, निश्चित
ही स्वयं के अनुभव से मालूम नहीं है--उधार है। अब ये पंडित लज्जाशंकर झा आ गए हैं।
ये बुद्धिमान आदमी मालूम होते हैं, पंडित हैं। अब इनको फिक्र
पड़ी है कि यहां हरिकथा तो हो ही नहीं रही है। यहां तो कुछ और ही हो रहा है। यहां
शास्त्रों के सत्कार और सम्मान में तो कुछ कहा नहीं जा रहा, यहां
तो शास्त्रों की आलोचना हो रही है।
लेकिन बुल्लेशाह के सम्मान में मैं राजी हूं। बुल्लेशाह शाहों के शाह
हैं। क्या तुम्हारे सड़े-सड़ाए पुराणों की मैं चर्चा करूं! अगर तुम खुद ही उनको उठा
कर देखोगे तो हैरान होओगे कि क्या-क्या गंदगी उनमें भरी है और कैसी-कैसी
मूर्खतापूर्ण बातों का आडंबर!
जहां भी कोई बात सार्थक है, मेरा समर्थन है। मगर
मेरा समर्थन तभी है जब मेरे सत्य से वह अनुकूल पड़ती हो, और
किसी कारण से मैं समर्थन नहीं देता। फिर किसी ने भी कही हो, कृष्ण
ने कही हो, कि बुद्ध ने, कि महावीर ने,
कि राम ने, कि मोहम्मद ने, अगर मैं उसके लिए अपने अनुभव में नहीं पाता हूं तो मैं राजी नहीं हो सकता।
मेरी जिम्मेवारी, मेरा उत्तरदायित्व मेरी चेतना के प्रति है,
किसी और के प्रति नहीं।
इक लाजम गल अदल दी है, सानूं बात मालूमी सभ
दी है।
हर हर विच सूरत रब दी है, कहुं जाहर कहुं
छपेंदी ए।।
कहीं छिपी, कहीं जाहिर। और यह बात सबको मालूम है। जिनको
बुद्धिमान कहते हैं, उनको तो बहुत मालूम है। मगर बुद्धिमानों
से ज्यादा बुद्धू इस दुनिया में कोई भी नहीं। क्योंकि असली बुद्धिमत्ता तो बुद्धि
के पार जाने में है। बुद्धि तो कचरा इकट्ठा करने में लगी रहती है। पंडित तो तोते
होते हैं।
"यहां सब उसी का विस्तार है। इसका अपना अनूठा
रहस्य है। यहां उसी एक की सूरत की चमक है। जैसे जंगल में चिनगारी लग जाए। मुंह आई
बात रुकती नहीं।'
एथे लेखा पाओ पसारा है, इसदा वखरा भेद निआरा
है।
इक सूरत दा चमकारा है, ज्यों चिंग दारू विच
पैंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
जरा-सी चिनगारी जैसे सारे जंगल को आग लगा देती है, ऐसे एक व्यक्ति के भीतर भी परमात्मा का अनुभव जग जाता है तो आग लगनी शुरू
हो जाती है, आग फैलनी शुरू हो जाती है। भांबड़ तो मचेगा! आग
लगेगी तो भांबड़ तो मचेगा। अरे, बाहर की आग लगती है तो इतना
भांबड़ मच जाता है; भीतर की आग लगेगी तो भांबड़ तो बहुत मचेगा!
अरे, झूठा ही चिल्ला दो कि आग लग गई तो भांबड़ मच जाता है। आज
ही रात जाकर किसी टाकीज में बैठ जाना और बीच में एकदम चिल्ला देना: आग-आग! और
देखना कैसा भांबड़ मचता है! शब्द ही भांबड़ मचा देगा।
और भीतर की आग तो निश्चित ही अहंकार को जलाएगी, ज्ञान को जलाएगी, तुम्हारे सब संस्कारों को जलाएगी,
तो पीड़ा तो होगी। भीतर की आग तुम्हें मारेगी और नया जन्म देगी।
तुम्हारा पुराना रूप तो जाएगा और तुम्हारा नया रूप प्रकट होगा। यह इतनी बड़ी
क्रांति है कि तूफान तो मचेगा।
"जब नूर प्रकट हुआ तो कोहतूर पर्वत जल उठा। तब
मंसूर सूली चढ़ गए। मैं की अकड़ क्या? मुंह आई बात रुकती नहीं।'
बुल्लेशाह कहते हैं कि जब नूर प्रकट हुआ तो कोहतूर पर्वत जल उठा।
कोहतूर पर्वत पर, तूर के पर्वत पर जीसस को परमात्मा के दर्शन हुए। सारा
पर्वत ऐसा लगा कि जैसे आग लग गई है। जब परमात्मा का नूर प्रकट होता है तो आग तो
लगती है, पर्वत तक जल उठते हैं। लेकिन कुछ लोगों की हालत तो
पर्वतों से भी बिगड़ी है। उनके हृदय में तो पत्थर ही पत्थर हैं; पत्थर भी जल जाते हैं, मगर वे नहीं जलते। जल जाएं तो
जीवंत हो जाएं।
कहते हैं कोहतूर पर्वत जल उठा! लेकिन जब किसी के भीतर यह पर्वत जलता
है और किसी के भीतर यह नूर प्रकट होता है तो उपद्रव होने वाला है। मंसूर को सूली
इसीलिए तो लगी, भीतर नूर प्रकट हुआ। अंधों को बात जंची नहीं। अंधों
को बहुत कठिनाई हो गई। मंसूर ने एक ही तो बात कही थी, बेचारे
का कसूर क्या था! इतना ही तो कसूर था कि उसने घोषणा की अनलहक, कि मैं ईश्वर हूं, कि मैं सत्य हूं! बस इतनी ही उसके
संबंध में शिकायत है कि उसने अपने भगवान होने की घोषणा कर दी, अहं ब्रह्मास्मि का उदघोष कर दिया। बस पर्याप्त कठिनाई शुरू हो गई।
मैंने जिस दिन से घोषणा की भगवत्ता की उस दिन से कठिनाई शुरू हो गई।
उसके पहले सब ठीक था। मैं यही बातें तब भी कह रहा था, जरा सम्हल-सम्हल कर कह रहा था। फिर मैंने देखा कि क्या फायदा सम्हल-सम्हल
कर कहने में, क्योंकि सम्हल-सम्हल कर कहने में लोगों की नींद
ही नहीं खुलती। वे घुर्राते ही रहते हैं, घुर्राते ही रहते
हैं। वे अपनी नींद में अल्ल-बल्ल बकते ही रहते हैं। तो मैंने फिर उनके ऊपर ठंडा
पानी फेंकना शुरू कर दिया, झकझोर कर उनको उठाना शुरू कर दिया,
उनके कंबल-दुलाइयां छीननी शुरू कर दीं। उस काम की शुरुआत मैंने इस
बात की घोषणा से की जो मंसूर ने की थी--अनलहक! बस कोहराम मच गया, भांबड़ मच गया।
अब मुझे लोग लिखते हैं, कल ही एक पत्र मुझे
आया कि अगर आप भगवान हैं तो फिर अकाल क्यों पड़ता है? फिर
गरीबी क्यों? फिर नदियों में बाढ़ क्यों आती है?
तो मैं इनसे पूछता हूं कि यही सवाल तुम राम से पूछते हो कि नहीं, कि सिर्फ मुझ से ही पूछते हो? यही सवाल कृष्ण से
पूछते हो कि नहीं, कि मुझसे पूछते हो? यही
सवाल बुद्ध से भी पूछो, महावीर से भी पूछो। यही सवाल जीसस से
भी पूछो और यही सवाल मोहम्मद से भी पूछो। अगर ये सब इस सवाल का जवाब देने को राजी
हों तो मैं तुमसे कहता हूं कि रोक दूंगा अकाल, रोक दूंगा
गरीबी, रोक दूंगा तूफान! मगर इन्होंने किसी ने नहीं रोका तो
मैं ही क्यों इस झंझट में पडूं? जब कोई इस झंझट में नहीं पड़ा
और कोई इनसे नहीं पूछता...।
मुझसे लोग पत्र लिख-लिख कर पूछते हैं कि अगर आप भगवान हैं तो आप
गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते, अस्पताल क्यों नहीं खोलते,
स्कूल क्यों नहीं खोलते?
महावीर ने कितने स्कूल खोले? बुद्ध ने कितने
अस्पताल चलाए? मोहम्मद ने कितने विधवाश्रम और कितने अनाथालय
चलाए? मुझसे ही ये सवाल क्या पूछने! भगवत्ता से इसका क्या
लेना-देना है? लेकिन लोग बड़े अजीब हैं। ये सवाल वे बुद्ध से
भी पूछते थे। ये सवाल वे महावीर से भी पूछते थे। अब नहीं पूछते; अब चुपचाप पूजा करते हैं। मुर्दों की पूजा की जाती है, जिंदों के साथ झंझट खड़ी हो जाती है। और केवल जिंदा व्यक्ति ही तुम्हारे
जीवन में चिनगारी दे सकता है; मुर्दे तो क्या चिनगारी देंगे,
वे तो खुद ही राख हो चुके! अभी जिस तूर पर्वत पर आग लगी हो उससे कुछ
आग ले लो। मगर अभी तो भांबड़ में उलझे रहोगे।
"जब नूर प्रकट हुआ तो कोहतूर पर्वत जल उठा। तब
मंसूर सूली चढ़ गए। मैं की अकड़ क्या? मुंह आई बात रुकती नहीं।'
यह मैं तो जल जाएगा। अरे, मंसूर सूली चढ़ गए जब
नूर प्रकट हुआ, यह तुम्हारा अहंकार तो राख हो जाएगा। मगर इसी
अहंकार को बचाने की कोशिश में लगा रहता है, हर आदमी इसी
कोशिश में लगा हुआ है।
"यदि मैं इसे साफ अभिव्यक्ति दूं, सब लोग अपने इकरार भूल जाते हैं। फिर वे बुल्ले को मारने दौड़ते हैं। यहां
मरे हुए की बात की शोभा है। मुंह आई बात रुकती नहीं।'
जे जाहर करां तकसार ताईं, सभ भुल जावन इकरार
ताईं।
फिर मारन बुल्ले यार ताईं, एथे मुकदी गल सुहेंदी
ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
बुल्ले कहते हैं: "यह बड़ी अजीब दुनिया है, यदि मैं साफ-साफ बात कहूं तो लोग भूल ही जाते हैं, शिष्टाचार
भी भूल जाते हैं; एकदम गालियां देने को, मारने को उतारू हो जाते हैं। सामान्य जीवन-व्यवहार के नियम भी भूल जाते
हैं, वे बुल्ले को मारने दौड़ते हैं। यहां मरे हुए की बात की
शोभा है।'
क्या प्यारी बात कही कि यहां मरे हुओं की बात की शोभा है! यहां बुद्ध
की बात की शोभा है। यहां महावीर की बात की शोभा है। यहां कृष्ण की बात की शोभा है।
यहां जीसस की बात की शोभा है। तब नहीं थी जब वे जिंदा थे। तब महावीर पर लोगों ने
पत्थर मारे, पागल कुत्ते छोड़े, कानों में
खीले ठोंक दिए। जिंदा आदमी के साथ तुम कैसा सदव्यवहार करते हो!
इसलिए जब मुझे गालियां पड़ती हैं--और निरंतर पड़ती हैं, सब तरह की गालियां पड़ती हैं--तो मैं सोचता हूं कि अच्छे लक्षण हैं। मेरा
सौभाग्य है। क्योंकि मेरे साथ ये वही व्यवहार कर रहे हैं जो इन्होंने बुद्ध के साथ
किया, कृष्ण के साथ किया, महावीर के
साथ किया, जीसस के साथ किया। मैं तो इसे ही पुरस्कार मानता
हूं। नोबल पुरस्कार तो मुझे मिले तो मैं लेने से इनकार कर दूंगा, क्योंकि वह तो अपमान होगा। क्योंकि जीसस को मिला नहीं ऐसा कोई पुरस्कार,
महावीर को मिला नहीं, बुद्ध को मिला नहीं।
वैसे पुरस्कार को लेकर मैं क्या करूंगा? वह तो मैं अपनी जात
से ही बाहर निकल जाऊंगा, कुजात हो जाऊंगा।
"हमने इल्म हकीकी पढ़ लिया है। वहां बस उस एक अक्षर
की तहकीक है। बाकी सब झगड़े फालतू हैं। व्यर्थ ही यह मैं, यह
अहंकार झगड़ा खड़ा करता है। मुंह आई बात रुकती नहीं।'
असां पढ़िया इलम हकीकी है, उथे इक हरफ तहकीकी
है।
बस एक अक्षर की बात है। अक्षर की! जो कभी क्षय न हो, जो कभी क्षर न हो, जो कभी मरे नहीं, मिटे नहीं--उस एक अमृत को जान लेने की बात है।
होर झगड़ा सभ वधीकी है।
और सारा झगड़ा व्यर्थ है।
ऐवें रौला पा पा बहिंदी ए, मुंह आई बात न रहिंदी
ए।
ये व्यर्थ अहंकार के झगड़े हैं। ये हिंदू के और मुसलमान के और ईसाई के
और सिक्ख के--ये सारे झगड़े व्यर्थ हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं: "परमात्मा, शौहर हमसे अलग नहीं।
बिना परमात्मा के यहां कुछ भी नहीं। पर देखने वाली आंख नहीं है, इसलिए प्राण दुख देख रहे हैं, दुख पा रहे हैं। मुंह
आई बात रुकती नहीं।'
पंडित लज्जाशंकर झा को याद दिला दूं। बुल्लेशाह कहते हैं:
बुलिया शौह असां थीं वख नहीं, बिना शौह थीं दूजा कख
नहीं।
पर देखन वाली अख नहीं, ताहीं जान पई दुखड़े
सहिंदी ए।।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
पंडित लज्जाशंकर झा कहते हैं कि यहां आकर मन को बड़ी पीड़ा पहुंची।
पहुंचेगी ही, क्योंकि देखने वाली आंख नहीं है, इसलिए प्राणों को पीड़ा पहुंचती है। परमात्मा एक है, किसी
से अलग नहीं है। हम उसके अंग हैं; वह हमारा अंग है। हम उसमें
हैं; वह हममें है। उसके सिवाय यहां कुछ भी नहीं है, पर देखने वाली आंख नहीं है; इसलिए प्राण दुख पा रहे
हैं।
"मुंह आई बात रुकती नहीं है।'
कहनी ही पड़ेगी। मचे भांबड़, मचे तूफान, उठें आंधियां! सूली लगनी हो सूली लगे, लेकिन वह बात
तो कहनी ही पड़ेगी।
हम परवरिशे-लौहो-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है, रकम करते रहेंगे
असबाबे-गमे-इश्क वहम करते रहेंगे
वीरानीए-दौरां पे करम करते रहेंगे
हां, तल्खी-ए-अय्याम अभी और बढ़ेगी
हां, अहले-सितम मश्के-सितम करते रहेंगे
मंजूर ये तल्खी, ये सितम हमको गवारा
दम है तो मुदावा-ए-अलम करते रहेंगे
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंगे-लबो-रुख्सारे-सनम करते रहेंगे
इक तर्जेत्तगाफुल है सो वो उनको मुबारक
इक अर्जेत्तमन्ना है सो हम करते रहेंगे
जो भीतर जागा है वह तो प्रकट होगा ही होगा।
हम परवरिशे-लौहो-कलम करते
रहेंगे
हम तो गीत गाते रहेंगे। हम तो गुनगुनाएंगे।
जो दिल पे
गुजरती है, रकम करते
रहेंगे
और जो भीतर घटती है उसे अभिव्यक्ति देते रहेंगे।
असबाबे-गमे-इश्क वहम करते
रहेंगे
यह जो हमारा प्रेम है, इस प्रेम को प्रकट
करने के लिए हम साधन जुटाते रहेंगे।
वीरानीए-दौरां पे करम
करते रहेंगे
यह संसार की जो वीरानी है, इस पर जितनी कृपा हो
सकेगी, करेंगे।
हां, तल्खी-ए-अय्याम अभी
और बढ़ेगी
हमें मालूम है कि अभी जीवन की कटुता और बढ़ेगी, अभी अंधेरा और बढ़ेगा।
हां, तल्खी-ए-अय्याम
अभी
और बढ़ेगी
हां, अहले-सितम मश्के-सितम करते रहेंगे
यह भी हमें मालूम है कि अत्याचारी अत्याचार करेंगे, दुष्ट दुष्टता करेंगे।
हां, अहले-सितम मश्के-सितम करते रहेंगे
मंजूर ये तल्खी...
हमें यह कटुता स्वीकार है। हमें यह पत्थर स्वीकार है। यह पत्थर
पुरस्कार है।
मंजूर ये तल्खी, ये सितम
हमको गवारा
हमें ये अत्याचार भी स्वीकार हैं।
दम है तो
मुदावा-ए-अलम करते रहेंगे
जो हम से बन सकेगा उतना इलाज करते रहेंगे।
मंजूर ये तल्खी, ये सितम हमको गवारा
दम है तो मुदावा-ए-अलम करते रहेंगे
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
एक आंसू भी बचा रहेगा तो उससे भी हम जो किया जाना चाहिए वही करेंगे।
रंगे-लबो-रुख्सारे-सनम
करते रहेंगे
तो उस प्यारे के ओंठों पर, कपोलों पर, उस एक बचे हुए आंसू से भी रंग भरते रहेंगे।
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंगे-लबो-रुख्सारे-सनम करते रहेंगे
इक तर्जेत्तगाफुल है सो वो उनको मुबारक
एक उपेक्षा का ढंग है। यह संसार करे उपेक्षा...।
इक तर्जेत्तगाफुल है सो वो उनको मुबारक
इक अर्जेत्तमन्ना है
सो हम करते
रहेंगे
और एक हमारा प्रेम का निवेदन है, वह हम करते रहेंगे।
इक तर्जेत्तगाफुल है सो वो उनको मुबारक
इक अर्जेत्तमन्ना है
सो हम करते
रहेंगे
आज इतना ही।
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