कितनी छोटी
नाव जीवन की, कितनी
लम्बी झील।
कितने सपनों को खोल रही, उलझी जीवन की रील।।
ज़र-ज़र मिट्टी की काया
है, पीछे
रेगिस्तान।
कोने-कातर से लटक रहे है, फटे पुराने
प्राणा।
क्या कर लू और क्या न कर लूं, दो दिन का मेहमान।
छिटक रहा नित-नित प्याला,
अब खाली इसको जान।
कितना चला जब पीछे
देखा, कोस, फरलांग, या मील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील...
जीवन तपिश की धूप में, मिली नहीं कहीं
छांव।
घर अपना था जिस जगह, दिखा नहीं वो गांव।
शूल, धूल
और भूल डगर पे, नंगे
मेरे पांव।
आँख खोल कर
देखा जग को, पाती नहीं हे थाँव।
थोथे दंभ, और अहंकार है, झूठी जीवन की शील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील....
सूखे पत्ते, और टूटी डंडी, ये कैसा
मधुमास।
रात धुएँ की छांव ढूँढ़ती, कोई
दूर नहीं पास।
अपने अपनों को ही छलते, किसकी करे अब आस।
ऐसे खेतों को कहां ढ़ूढ़ें,
बोए जहां विश्वास ।
अपनी छवि को तरस गई, सूखी जीवन की झील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील.......
--स्वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें