प्रेम ही धर्म है—आठवां प्रवचन
१८ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम पूना
पहला प्रश्न: भगवान, जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद(सह-अस्तित्व) आदि सिद्धांतों का विशेष स्थान है। लेकिन आज एक समाचार-पत्र में आपके संबंध
में एक जैनमुनि, श्री भद्रगुप्त विजय जी का वक्तव्य पढ़ तो
आश्चर्य हुआ। ये मुनिश्री आपके कच्छ-प्रवेश के विरोध में लोगों को सब कुछ बलिदान
कर देने के लिए आह्वान कर रहे हैं, संगठित कर रहे हैं।
अपरिग्रह माननेवालों को कच्छ प्रदेश पर परिग्रह क्यों? और
उनके अनेकांतवाद में आपकी जीवनदृष्टि का विरोध क्यों क्या मुनिश्री का लोगों को इस
तरह भड़काना शोभा देता है?
चैतन्य कीर्ति! जिन-धर्म और जैन
धर्म में बुनियादी भेद है। वैसे ही जैसे बुद्ध-धर्म में और बौद्ध धर्म में। इस
आधारभूत भेद को सबसे पहले समझ लेना जरूरी है।
जिन-धर्म से अर्थ है: महावीर, आदिनाथ, नेमिनाथ, मल्लिनाथ, उनका धर्म
जो जीते हुए थे, जिन्होंने स्वयं को जाना था। उस आत्मबोध से
जो गंगाएं बहीं, आत्मबोध के उन हिमशिखरों से जो सरिताएं उतनी,
वह स्वच्छ बोध: जिन-धर्म। बुद्ध ने जो जाना, जागकर
जो पहचाना, जीया और कहा, वह
बुद्ध-धर्म।
लेकिन जैन धर्म तो पंडितों की ईजाद है। वैसे ही जैसे बौद्ध धर्म
पंडितों की ईजाद है। न तो जान है, न जागे हैं, न जीया है। कोई अपना स्वाद नहीं, अपना अनुभव नहीं।
शब्दों की खाल निकालने में जरूर होशियार हैं।
और इस संदर्भ में यह भी समझ लेना कि जैनों के चौबीस तिर्थंकर क्षत्रिय
थे--चौबीस ही तिर्थंकर क्षत्रिय थे, इनमें एक भी ब्राह्मण
नहीं था। असल में यह पंडितों के विरोध में बगावत थी। यह ब्राह्मणों के प्रति
विद्रोह था। यह वेद के क्रियाकांड, शास्त्रीयता, शाब्दिकता, सिद्धांतों की व्यर्थ की चिंतना, उस सबके प्रति क्रांति थी, तलवार के धनियों की। उनकी
जिन्हें ये शब्द अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ते थे। जो तो अनुभव को ही एकमात्र अर्थ
जानते थे। यह खत्रियों की बगावत थी।
इसलिए चौबीस तीर्थंकर जैनों के क्षत्रिय हैं। मगर मजे की बात यह है कि
महावीर, चौबीसवें तीर्थंकर ने, जिन्होंने
कि जिन-धर्म को ठीक रूपरेखा दी, आधारशिला दी, परिभाषा दी, उनके ग्यारह ही प्रमुख शिष्य--उनके
गणधर--सब ब्राह्मण थे।
क्षत्रियों की बगावत फिर ब्राह्मणों के हाथ में पड़ गयी।
महावीर के मरने के बाद जिन्होंने महावीर के ऊपर शास्त्र रचा, वे सब ब्राह्मण थे, वही कचरा जिसके खिलाफ महावीर
ज्वाला बनकर धधके, फिर लौट आया; पीछे
के द्वार से वापिस आ गया। ये गणधर, जो महावीर के वसीयतदार हो
गये, सब पंडित थे। इन्होंने सब मटियामेट कर दिया। ऐसे जिन
धर्म तो नष्ट हुआ और जैन धर्म स्थापित हुआ।
फिर इन गणधरों ने यह भी व्यवस्था कर दी कि अब कोई पच्चीसवां तीर्थंकर
नहीं होगा। पंडित को हमेशा डर होता है तीर्थंकर से। तीर्थंकर का अर्थ होता है:
जिसके द्वारा तीर्थ निर्माण हो। तीर्थ का अर्थ होता है, जो उस पार जाने के लिए घाट बनाए, नाव छोड़ने के लिए,
जगह बनाए, जहां से अज्ञात और अज्ञेय की तरफ
यात्रा हो सके। वह जो दूर सत्य का लोग है, वह जो मुक्त आकाश
है, बदलियों के पार, उस तक कहां से नाव
छोड़ी जाए, किस जगह से ठीक होगा यात्रा का पहला कदम? क्योंकि पहला कदम गलत हो जाए तो सब कदम गलत हो जाते हैं। पहला कदम ठीक हो
तो आधी यात्रा पूरी हो जाती है। तो ठीक दिशा मग, ठीक
घड़ी-महूरत में, ठीक क्षण में, ठीक जब
वसंत आने का हो, जब परिपक्वता घनीभूत हो रही हो, जब आत्मा राजी हो छलांग लेने का। जबर्दस्ती नहीं, आग्रह
से नहीं; किसी लोभ, किसी भय, किसी और आकांक्षा से नहीं; सत्य के अनुसंधान के लिए;
सत्य की भूख से, सत्य की प्यास से--कब और कैसे
कदम उठाया जाए और कहां से कदम उठाया जाए, नौका कहां से छोड़ी
जाए, उस तीर्थ के निर्माण करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं।
यह शब्द बड़ा प्यारा है। यह अवतार से कहीं ज्यादा प्यारा शब्द है।
क्योंकि अवतार में तो धारणा है: परमात्मा नीचे उतरता है, अवतरित होता है। अवतार यानी अवतरण। उसमें तो परमात्मा को मानना होगा।
विश्वास से शुरू करना होगा। इसलिए पंडित का धर्म हमेशा विश्वास से शुरू होता है।
जैन धर्म विश्वास से शुरू होगा। श्रद्धा, अंधी श्रद्धा,
विवेक नहीं, होश नहीं, जानने
की आतुरता नहीं, मान लेने की जल्दी।
तो पंडित घबड़ाएगा कि कहीं फिर कोई तीर्थंकर न हो जाए, नहीं तो सब अस्त-व्यस्त कर देगा। तो पंडित हमेशा ही अवरोध खड़ा कर देता है।
महावीर के बाद उसने दरवाजे बंद कर दिये कि आखिरी बात हो चुकी, अब इसमें कुछ हेर-फेर करने की जरूरत नहीं है। अब जुम्मा हमारा है इसकी
व्याख्या कैसी करनी, क्या अर्थ देने, कैसे-कैसे
अर्थों की कलमें लगानी। अब यह हम कर लेंगे।
लेकिन यह पंडित कैसे करेगा?! जिसको
आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ है, वह कितना ही लफ्फाजी करे,
कितनी ही लच्छेदार भाषा ओ और तर्क हो, कहीं
बुनियाद में चूक होगी। और वही चूक तुम्हें इस तरह के वक्तव्यों में दिखाई पड़ती है।
इस तरह के आचरण में दिखाई पड़ती है।
ये सब पंडित हैं। इन सबको काई आत्मबोध नहीं हुआ। इन्होंने तो हत्या कर
दी जिन-धर्म की और लाश पर जैन धर्म का मंदिर खड़ा हो गया। इन्होंने तो हत्या कर दी
बुद्ध-धर्म की और लाश पर बौद्ध धर्म खड़ा हो गया। और ये सारे धर्मों के साथ हुआ।
ईसा के साथ हुआ, मुहम्मद के साथ हुआ। यह करीब-करीब अब तक की कथा है,
सारे धर्मों की कथा है।
शैतान का एक शिष्य एक दिन भागा हुआ आया और उसने शैतान से कहा, आप बैठे क्या कर रहे हैं?...शैतान अपने हुक्का
गुड़गुड़ा रहा था। वह हुक्का गुड़गुड़ाता ही रहा। शिष्य तो पसीना-पसीना हुआ जा रहा था।
उसने कहा, आप छोड़ें यह हुक्का। हमारी जीवन की पूरी व्यवस्था
संकट में है। एक आदमी को सत्य मिल गया, फिर मिल गया। जल्दी
हमें कुछ उपाय करना चाहिए। अगर लोगों को सत्य का पता चल गया तो हमारा क्या होगा,
हमारे व्यवसाय का क्या होगा? शैतान तो
मुस्कुराता रहा और हुक्का गुड़गुड़ाता रहा। फिर उसने कहा कि मत इतना घबड़ा, बैठ। हमने इंतजाम कर रखा है। तू अभी नया-नया है, तुझे
पता नहीं है, हमने जगह-जगह पंडित छोड़ रखे हैं। मुझे पता है
किस आदमी का सत्य मिल गया है; उसके पास हमारे पंडित पहुंच
चुके हैं। तुझसे पहले पहुंच चुके हैं। अब पंडित और उसके बीच में सब कुछ
अस्त-व्यस्त हो जाएगा। मत घबड़ा! लोगों तक सच्ची खबर नहीं पहुंच पाएगी। लोगों तक
खबर पहुंचाने वाले पंडित होंगे। वे अपने आदमी हैं। वे अपनी सेवा में हैं। वे सब
विकृत कर देंगे। और यूं कला से विकृत करते हैं वे, इस
होशियारी से कि पता ही नहीं चलता। दोस्त बनकर गला काट जाते हैं। तलवार भी नहीं
चलानी पड़ती और गले भी माट जाते हैं।
दुश्मन बनके जरा कठिन होगा काम, इसलिए हमने बहुत पहले
यह तरकीब सीख ली कि दोस्त बनकर ही काम कर लेना चाहिए। हमने पंडित जगह-जगह छोड़ रखे
हैं। वे जैसे ही खबर मिलती है। किसी को सत्य मिल गया, उसके
पास उनकी चारों तरह दीवाल खड़ी हो जाती है। लोगों के बीच में और उनके बीच में
पंडितों का एक समूह खड़ा हो जाता है। वह कुछ कहेगा, पंडित कुछ
औरों तक पहुंचाएंगे। शब्द वही होंगे इसलिए कोई यह भी न कह सकेगा कि कुछ गड़बड़ की जा
रही है। लेबील वही होंगे, लेकिन भीतर का सारा माल बदल दिया
जाएगा। और तू चिंता न कर! यह सदियों से चल रही बात है।
इस कहानी में मुझे अर्थ मालूम पड़ता है।
अब ये शब्द प्यारे हैं: अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, सह-अस्तित्व, मगर
महावीर के ओठों पर इनका अर्थ और था। जिन-धर्म में इनका अर्थ और और जैन-धर्म में
और।
महावीर का बुनियादी दान जगत को अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का अर्थ
होता है, सत्य के बहुत पहलू हैं, अनंत
पहलू है, अनेक अंत है इसलिए जो भी सत्य के संबंध में कहा
जाता है, वह किसी न किसी अर्थ में सही है। किसी अर्थ में गलत
हो, मगर किसी अर्थ में सही है। इसलिए सत्य के प्रेमी को
आग्रही नहीं होना चाहिए। क्योंकि आग्रह का अर्थ होगा कि सत्य ऐसा ही है, वैसा नहीं। अनेकांत का अर्थ है सत्य ऐसा भी है, वैसा
भी।
लेकिन इस ऊंचाई पर तो कोई महावीर उड़े। ये तुम्हारे तथाकथित जैन मुनि
जमीन पर सरक लें तो बहुत, आकाश में उड़ने की तो बात दूर। ये तो अभी खड़े होना भी
कहां सीखे हैं! अभी तो घुटनों के बल घिसट रहे हैं। इनके पंख अभी कहां! इन्होंने तो
गजब कर दिया, वही थोड़ा समझने जैसा है--
ये तो यह कहने लगे कि अनेकांतवाद ही सही है। शब्द वही रहा, महावीर का अर्थ था अनेकांत से कि सत्य के संबंध में जितनी बातें कही जा
सकती हैं। शब्द वही रहा, महावीर का अर्थ था अनेकांत से कि
सत्य के संबंध में जितनी बातें कही जा सकती हैं, सब सही हैं।
विपरीत दिखाई पड़ने वाली बातें भी सही हैं। महावीर से कुछ पूछा जाता था तो वे एक
उत्तर नहीं देते थे, क्योंकि वे कहते थे, एक उत्तर में पूरा सत्य नहीं समाता। कम-से कम सत्य के सात पहलू तो
निर्णायक रूप से बोलने ही होंगे। इसलिए महावीर ने सप्तभंगी न्याय को जन्म दिया,
स्यातवाद को जन्म दिया।
अलबर्ट आइंस्टीन ने थियरी ऑफ रिलेटिविटी को, सापेक्षवाद को विज्ञान में प्रवेश दिलवाया। पच्चीस सौ साल पहले महावीर ने
वही कार्य धर्म के जगत में किया था। महावीर धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं।
लेकिन जिस तरह अलबर्ट आइंस्टीन के समझना कठिन मामला है--कहा जाता है, आइंस्टीन जब जिंदा था तो स्वयं उसने कहा है कि शायद पृथ्वी पर दस-बारह लोग
हैं, सिर्फ दस-बारह लोग, जो मेरी बात
को ठीक से समझते हैं। बात सापेक्षवाद की थोड़ी दुरूह है, क्योंकि
हमारी सबकी आदतें होती हैं चीजों को साफ-साफ बांट लेने की। कोई तुमसे पूछे,
ईश्वर है? तो तुम सीधा उत्तर चाहोगे देना। या
तुम किसी से पूछो तो सीधा उत्तर चाहोगे लेना। कि या तो कहो हां या कहां नहीं।
महावीर ऐसा न करेंगे। महावीर से अगर तुम पूछो, ईश्वर है?
तो महावीर सात उत्तर देंगे, एक नहीं। तुम्हारी
खोपड़ी घूमने लगेगी। उन सात उत्तरों को पचाने के लिए बड़ा विराट ध्यान का अनुभव
चाहिए। उतनी जगह तुम्हारे भीतर कहां? तुम्हारी बुद्धि में तो
बस सीधी-सीधी बात समा सकती है। दो और दो चार।
महावीर से पूछो, ईश्वर है? तो
महावीर कहते हैं; स्यात है। स्यात के बिना महावीर एक वक्तव्य
नहीं देते। स्यात का अर्थ होता है: हां, यह भी ठीक; ईश्वर है, यह भी ठीक। लेकिन कहीं भूल न हो जाए,
कहीं तुम इसी का जोर से पकड़ न लो कि ईश्वर है इसलिए जो लोग कहते हैं
ईश्वर नहीं है, वे गलत, तो तत्क्षण
महावीर, देर नहीं करते, तत्क्षण,
ताकी कहीं इसी बीच तुम पकड़ ही न लो; इसके पहले
कि तुम पकड़ा, वे झटका दे देते हैं तुम्हें, वे कहते हैं, रुको, स्यात नहीं
है। जो कहते हैं ईश्वर नहीं है, उनकी बात में भी सत्य है,
और उनकी बात में भी सत्य है जो कहते हैं ईश्वर है। अब तुम जरा
मुश्किल में पड़ोगे। यह तुम्हारी संभावनाओं के पार की बात होने लगी। यह तो
विरोधाभासी वक्तव्य एक साथ हो गये। तुम चाहते थे साफ-सुथरा उत्तर।
और महावीर यहीं नहीं रुक जाते। महावीर तुम्हारी विडंबना देख, तुम्हारी बिबूचना देखते हैं, तुम्हारी आंखों में
घबड़ाहट, बेचैनी देखते हैं कि यह क्या उत्तर हुआ, स्यात है, स्यात नहीं है, तो
महावीर तीसरी बात कहते हैं कि स्यात दोनों साथ-साथ है; है भी
और नहीं भी; अलग-अलग मत करो। अलग-अलग करने में तुम्हें अड़चन
होती है। तो यूं समझो कि जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू। दोनों साथ-साथ है।
महावीर तो कोशिश कर रहे हैं कि तुम्हारे सारे द्वार-दरवाजे खुल जाएं, मगर तुम्हारी मुसीबत बढ़ती जाएगी। तुम्हारी मुसीबत बढ़ती देखकर वे चौथा
वक्तव्य देते हैं: शायद अवक्तव्य है, स्यात दोनों है,
ऐसा कहने से अगर तुम उलझन में पड़ गये हो--और तुम आए थे सुलझाने--तो
छोड़ो, जाने दो बात; तो तुमसे मैं एक
पते की बात कह देता हूं कि अवक्तव्य है, उसके संबंध में कुछ
कहा नहीं जा सकता।
तुम्हारी मुश्किल इससे कुछ कम नहीं होती, बढ़ती जाती। और इस तरह महावीर इसको सात वक्तव्यों तक खींचते हैं। जब वे
देखते हैं कि तुम्हारी मुसीबत बढ़ गयी, तुम समझ नहीं पा रहे,
तो वे कहते हैं, ऐसा समझो कि स्यात है और
अवक्तव्य है। है, निश्चिंत रहो, मगर
इतना ख्याल रखना, उसके संबंध में फिर कुछ कहा नहीं जा सकता,
अवक्तव्य है।
मगर हो सकता है तुम नहीं मानने वाले हो, तुम नास्तिक हो,
तो परमात्मा तो इतना विराट होना चाहिए कि नास्तिक का भी आत्मलीन कर
ले, आत्मसात कर ले; नास्तिक होने से
द्वार उसका बंद नहीं हो जाना चाहिए। तो फिर वक्तव्य देते हैं वे, छठवां वक्तव्य देते हैं कि स्यात नहीं है और अवक्तव्य है। अब तुम देखते हो
मुसीबत! नहीं है, मान लो, यह भी सही,
मगर इतना ध्यान रखना, है तो नहीं, मगर फिर भी उसके संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता।
और सातवां वक्तव्य देते
हैं--क्योंकि नहीं देखते सुलझाव आ रहा है, तुम्हें और उलझता
देखते हैं, तुममें और गांठों पर गांठें पड़ती हैं--तो वे कहते
हैं, स्यात है, स्यात नहीं है, स्यात अवक्तव्य है, ये तीनों एक साथ ही मान लो।
इसको महावीर ने सप्तभंगी न्याय कहा। इसके महावीर ने कहा, तर्क के सात पहलू। जैसे सूर्य की
किरण सात रंगों में बंटती है, इन्द्रधनुष बन जाती है,
इसमें एक-एक रंग को पकड़ लेने वाला एक तरह की सुविधा में होता है;
जो कहता है, लाल ही रंग है, उसको झंझट नहीं; जो कहता है, नीला
ही रंग है, उसको झंझट नहीं; जो कहता है,
पीला ही रंग है, उसके झंझट नहीं; महावीर की मजबूरी भी समझो, महावीर कहते हैं: पीला भी,
लाल भी, हरा भी, नीला भी,
सातों रंग रंग हैं और सातों को मिलकर जो बनता है असल में वह सातों
का अतिक्रमण कर जाता है।
सफेद, वह सातों का मेल है।
कभी सोचा भी नहीं कि सफेद रंग सातों रंगों के मेल से बनता है। तुम तो
सोचते होओगे कि सातों रंगों का मेल होगा, तो कम से कम एक बात
तो निश्चित है कि सफेद नहीं बन सकता। सात रंग मिलेंगे और सफेद बनेगा! लेकिन सही है
प्रकाश का पूरा शास्त्र, रंग की पूरी रचना सातों रंगों के
ठीक-ठीक संयोग से सफेद रंग बनता है। सातों का अतिक्रमण हो जाता है मिलन में।
महावीर कहते हैं, यह जो सप्तभंगी न्याय है,
उन सातों वक्तव्यों का मिल सको तुम और इनके पार देख सको तो तुम्हें
सत्य दिखाई पड़ेगा। इसलिए महावीर किसी को भी नहीं कहते कि गलत है--किसी को भी नहीं
कहते गलत है। और मजा, अगर तुम जैन धर्म के मानने वाले से
पूछो, तो वह कहता है: अनेकांतवाद ही सही है।
एक जैन मुनि से मेरी बात हो रही थी। वह कहने लगे, अनेकांतवाद ही सही है। मैंने कहा, कम से कम
अनेकांतवाद पर तो अनेकांतवाद का लगाओ, और किसी पर मत लगाओ!
कहो, स्यात सही है, स्यात सही नहीं है।
उन्होंने कहा कि यह आप क्या कह रहे हैं? अनेकांतवाद का तो
आधार ही यही है कि विपरीत वक्तव्य को भी सम्मिलित कर लेना है, आत्मलीन कर लेना है। मगर इस ऊंचाई पर तो कभी कुछ थोड़े-से प्रबुद्ध पुरुष
पहुंचते हैं। भीड़ जो अनुयायियों की होती है, अंधों की--और
अंधे ही अनुयायी होते हैं। महावीर को जो समझेगा, वह अनुयायी
नहीं होता, मित्र होता है। सहयात्री होता है। वह महावीर के
मानता नहीं, जानता है कि वे ठीक कह रहे हैं। क्योंकि उसका भी
यह अनुभव है; वह गवाह है उनका।
मैं जैन हूं, लेकिन महावीर ठीक हैं, इसके लिए
मैं गवाही देता हूं। महावीर के ठीक होने में जरा भी संदेह नहीं है। क्योंकि मेरा
भी ऐसा अनुभव है। सत्य सब रंगों में प्रगट होता है, सब ढंगों
में प्रगट होता है। और अनाग्रह का अर्थ होता है: मेरा कुछ भी नहीं। लेकिन जैन धर्म
को माननेवाला कहता है: जैन धर्म मेरा।
अपरिग्रह का अर्थ होता है: मेरा कुछ भी नहीं; क्योंकि मैं ही हूं? जहां मैं नहीं, वहां मेरा नहीं। फिर परिग्रह कैसा?
जब चीन ने भारत पर हमला किया तो आचार्य तुलसी ने वक्तव्य दिया कि
हमारे देश पर हमला हुआ है, आक्रमण हुआ है, तो हम सब जैनों
को इस आक्रमण के विरोध में जो कुछ भी करने योग्य हो करना चाहिए। मेरे पास उनके एक
शिष्य मिलने आए थे। मैंने उनसे पूछा कि आचार्य तुलसी का कहना: अपरिग्रही व्यक्ति
को मेरा देश, मेरी जाती, मेरा धर्म,
इस तरह की भाषा नहीं बोलनी चाहिए। और मुनि होकर इतना तो बोध आना
चाहिए कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्या जमीन मेरी? क्या देश
मेरा? यह "झंडा ऊंचा रहे हमारा', यह
बच्चों के लिए बातें शोभा देती हैं; यह स्कूल के छोटे-छोटे
बच्चे ठीक। ये बचकानी बातें हैं। लेकिन पकड़ हम सबकी वही।
फिर हमारा मेरा अगर दूकान से छूटता है तो मंदिर पर टिक जाता है।
"मेरा' बना रहता है। मेरा मंदिर, मेरा
धर्म, मेरा शास्त्र। क्या फर्क पड़ा? मेरा
खाता, मेरी बही, वह चली गयी, अब मेरा शास्त्र, मेरा ग्रंथ, मेरी
मूर्ति, मेरा धर्म। फिर लौट आया "मेरा'। जाना चाहिए मेरा, तो अपरिग्रह।
मगर जैन धर्म भी पूरा "मेरा' नहीं होता मुनियों का,
इसमें भी संप्रदाय हैं, उन-संप्रदाय हैं।
दिगंबर का मंदिर श्वेतांबर का मंदिर नहीं होता, वह दिगंबर का
मंदिर है।
मैं एक यात्रा में था, एक दिगंबर महिला मेरे
साथ यात्रा कर रही थी। उसने कसम ले रखी थी कि जब तक महावीर के दर्शन न कर ले,
जिन-प्रतिमा के दर्शन न कर ले, तब तक भोजन न
करेगी। एक गांव में कोई जैन मंदिर न था, बड़ी मुश्किल खड़ी हो
गयी। मेरे पास एक किताब थी, जिसमें महावीर की फोटो थी,
मैंने कहा, तू इसको ही प्रणाम कर ले! उसने कहा,
यह तो फोटू है! मैंने कहा, फोटू और प्रतिमा
में कुछ फर्क है? वह पत्थर की बनी, यह
कागज की बनी। पत्थर भी बाहर, कागज भी बाहर। कागज भी कल राख
हो जाएगा, पत्थर भी गल राख हो जाएगा, क्या
फिक्र करती है तू! नहीं-नहीं, उसने कहा कि आप मुझे यूं न
भरमाए। मैं एक दिन भूखी रह लूंगी।
वह एक दिन भूखी रही।
दूसरे गांव जाने के पहले मैंने पता करवा लिया कि वहां कोई जैन मंदिर
है या नहीं? क्योंकि कल इसे कम से कम भोजन मिल जाए। नहीं तो यह
हत्या मेरे सिर लगेगी। जिनसे पूछा उन्होंने कहा, वहां जैन
मंदिर है। तो मैं निश्चिंत रहा, मैंने कहा, चलो, कोई बात नहीं, एक दिन के
उपवास में कुछ बिगड़ा नहीं जाता, थोड़ी शरीर की शुद्धि ही
होगी--वैसे ही थुलथुल स्त्री थी। तो मैंने कहा, थोड़ा चलो वजन
ही कम होगा, एक किलो, ठीक है, कोई हर्ज नहीं।
दूसरे गांव गये, उसने स्नान किया, मैंने जिनके घर ठहरा था उनसे कहा कि इसे ले जाओ जैन मंदिर। वे उसे लेकर
गये, वह तो वहां से आ गयी, बड़ी क्रुद्ध
और उसने कहा कि वह तो श्वेतांबर मंदिर है। मैं तो दिगंबर मंदिर में जब तक दर्शन
नहीं करूंगी...।
महावीर की प्रतिमा वहां भी है, मगर वह श्वेतांबर की
है! प्रतिमा भी दिगंबर और श्वेतांबर की अलग-अलग। फिर श्वेतांबरियों में भी फिरके
हैं छोटे-छोटे। कोई तेरापंथी हैं, कोई बीसपंथी हैं। कोई
स्थानकवासी हैं, कोई मंदिरमार्गी हैं। और क्या-क्या नहीं हैं?
तरहत्तरह के छोटे-छोटे फासले। और उन फासलों पर "मेरा' टिकता जाता है।
चैतन्य कीर्ति, तुम ठीक पूछते हो कि ये मुनि भद्रगुप्त को क्या हुआ,
कहते हैं--मेरे कच्छ में प्रवेश नहीं करने दूंगा! इसमें क्या,
जैन का क्या कच्छ! मगर काई फर्क तो नहीं पड़ता, अगर "मेरा भारत' हो सकता है। तो फिर "मेरा
कच्छ' भी हो सकता है। फिर मेरा जिला, मेरी
तहसील, मेरा गांव...। फिर "मेरे घर' में ही क्या तकलीफ है? बात तो वही है। फिर
"मेरी-स्त्री' और "मेरे बच्चे' में इतनी अड़चन आ रही है! जब "मेरा' बचना ही है
तो स्त्री और बच्चों को ऐसा क्या कसूर है कि इनका छोड़कर भाग गये? ऐसा तो नहीं था कि स्त्री कच्छी नहीं थी। स्त्री भी कच्छी रही होगी। और
बच्चे भी कच्छी रहे होंगे। जब दोनों के मेल से ही पैदा हुए थे तो कच्छी ही रहे
होंगे। स्त्री को छोड़कर भाग गये--कच्छी को छोड़ते शर्म न आई! बच्चों को छोड़कर भाग
गये--छोटे-छोटे कच्छी, उनको छोड़कर भाग गये, शर्म न आई! और अभी भी "कच्छ मेरा'?
मगर मैं समझता हूं ये सब अंधों की जमात है। और अंधों को अंधे चला रहे
हैं, अंधा अंधम ठेलिया दोनों कूप पड़ंत। वे गिरते हैं कुएं में, रोज-रोज
कुओं में गिरते हैं। मगर अपना ही कुआं, तो क्यों न गिरें?
मेरा कुआं, गिरेंगे। तुम अपने कुएं में गिरो,
हम अपने कुएं में गिरेंगे!
अपने-अपने छोटे-छोटे घेरे और दायरें हैं, छोटी-छोटी मर्यादाएं हैं, छोटी-छोटी सीमाएं हैं। ये
बेचारे नासमझ क्या महावीर को समझेंगे! इसलिए मैं भेद करता हूं जिन-धर्म में और जैन
धर्म में। जिन-धर्म तो उनका है जो जागे और जैन धर्म उनका है जो सो रहे हैं मगर मान
लिया है। पैदा हो गये हैं एक घर में, तो जो घर की मान्यता थी
वह पकड़ ली है। शब्द ही हैं: अपरिग्रह, अहिंसा, अनेकांतवाद, बस शब्दमात्र है। न अहिंसा का कोई बोध
है,...अब यह हिंसा की भाषा है! संगठन, हिंसा
की भाषा है।
संगठन का क्या अर्थ होता है? साधना अहिंसा की भाषा
हो सकती है, संगठन नहीं। साधना व्यक्ति की होती है, और संगठन तो समूह का होता है, भीड़भाड़ का होता है।
संगठन तो होता ही है किसी के खिलाफ। साधना होती है स्वयं की खोज के लिए, किसी के खिलाफ नहीं। साधना नहीं। साधना किसी के खिलाफ नहीं हो सकती। संगठन
की तो जरूरत ही तब पड़ती है जब किसी के खिलाफ करना हो। और जहां किसी के खिलाफ करने
का भाव है वहां हिंसा है।
अहिंसा का मतलब क्या होता है? बस, पानी छानकर पी लिया तो अहिंसा हो गयी! काश, इतना
आसान होता। तब तो पूरे का पूरे गांव, फिल्टर लगे हैं,
लोग छना हुआ पानी पी रहे हैं, सभी अहिंसक हो
गये। रात्री भोजन नहीं किया तो अहिंसक हो गये! तो अब रात्री बची कहां? दिन से भी ज्यादा रोशनी रात का हो सकती हैं। मक्खी-मच्छड़ के गिरने का ही
डर था न। अंधेरे में कहीं कोई जीव-जंतु की हत्या न हो जाए। तो अब तो इतने प्रकाश
लगा रख सकते हो अपने घर में, फ्लड लाइट लगा सकते हो अपने
भोजन की टेबल पर, कि दिन में भी इतनी रोशनी न हो, सूरज को भी चौंधिया दो, इतनी रोशनी में भोजन कर सकते
हो। अब कहां रात? अब कैसी रात?
मुंह पर पट्टी बांध ली तो समझा कि जैन हो गये। तो सभी डाक्टर
अस्पतालों में बांधे रहते हैं, तो समझते हो जैन हो गये!
इतने सस्ते में बात नहीं हो जाने वाली है। ये दृष्टियां हैं, ये काई छोटे-मोटे कृत्य नहीं हैं। मगर लोक कृत्यों में भटक जाते हैं।
दृष्टि तो चूक ही जाती है। तो एकाध किसी बात को पकड़ लेते हैं और बाकी सारा जीवन वैसा ही चलता जाता है।
अब संगठन की भाषा हिंसा की भाषा है। यह तो किसी के खिलाफ करना होता
है। और इसी भाषा में श्री भद्रगुप्त ने वक्तव्य दिया। संगठित हो जाओ, उन्होंने जैनों से कहा। और बड़े मजे की बात है। कि यूं जैन आपस में ही लड़ते
हैं, मगर मेरे खिलाफ संगठित हो सकते हैं। सातों जैनों के
संप्रदाय इकट्ठे होकर सभी किये, मांडवी मग, जहां श्री भद्रगुप्त ने व्याख्यान दिया वहां सातों जैनों के संप्रदाय
इकट्ठे हो गये। चलो इतना ही भला हुआ कि मेरे कारण, मेरे
बहाने थोड़ी दुश्मनी छूटी। जिनमें बोलचाल भी न रहा होगा, उन्होंने
भी: "मिष्छामि दुक्कड़म'! उन्होंने भी कम से कम एक दूसरे
की क्षमा मांगी। कि अब मौका आ गया है कि इकट्ठे हो जाएं। मेरे कारण हिंदू-मुसलमान
इकट्ठे हो जाते हैं, ईसाई-हिंदू इकट्ठे हो जाते हैं।
नास्तिक-आस्तिक इकट्ठे हो जाते हैं। महाराष्ट्र की कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रस्ताव
पास किया है कि मुझे महाराष्ट्र में नहीं टिकने देना चाहिए। आस्तिक ही नहीं,
नास्तिक और आस्तिक भी इकट्ठे। मैं प्रसन्न होता हूं कि चलो, मेरे कारण इतना भाईचारा फैल रहा है! यह भी क्या कुछ कम बात है! पुण्य ही
पुण्य समझो! दुनिया में भाईचारा फैलाने में ही तो पुण्य है!
और जो भाषा वे बोले, वह भाषा हिंसा की है। उन्होंने
कहा, सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार हो जाओ। सब कुछ आहुति
चढ़ा देना पड़े तो अब पीछे मत हटना मगर इस व्यक्ति का और इस व्यक्ति के गैरिक
संन्यासियों का कच्छ में प्रवेश नहीं होने देंगे।
कैसे मेरा कच्छ में प्रवेश रोकोगे?
यह किसी का प्रवेश रोकने की भाषा, इसमें ही हिंसा भरी
पड़ी है। और सब बलिदान करने के लिए तैयार हो जाओ! जैसे कि कोई जेहाद, कोई धर्मयुद्ध होने वाला है, कोई तलवारें खिंचने
वाली हैं। कि अपने-अपने लट्ठें पर तेल की मालिश कर लो, सब
दंड बैठक लगाओ, अब तैयारी करो! क्या पागलपन की बातें हैं!
मगर चौंकना मत, अपेक्षित है। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! मैंने
कहा, ठीक, कैसा प्यारा नाम है: मुनि
भद्रगुप्त! कैसी भद्रता! कैसी शालीनता! कैसा प्रसाद!
और मुनि हम कहते थे उन लोगों को जो मौन का अनुभव कर लेते थे। और ये
बकवासी लोग! ये राजनैतिक होंगे, ये धार्मिक हैं ही नहीं। ये
सातों जैनियों के संप्रदायों को इकट्ठा करना और व्याख्यान देना कि इकट्ठे हो जाओ,
धर्म संकट में है! जरूर पंडितों को, पुरोहितों
को, साधुओं को बड़ा संकट है मेरे कारण। धर्म संकट में नहीं
है। धर्म तो बहुत आह्लादित है। धर्म में तो नये-नये फूल खिलते मैं देखता हूं।
लेकिन धर्म के नाम पर जिन लोगों ने ठेकेदारियां कर रखी हैं, वे
लोग शंकित हैं परेशान हैं। मुझसे क्या परेशानी होगी इनको! मुझको जब किसी से
परेशानी नहीं है, तो मुझसे इन्हें क्या परेशानी होगी?
मैंने तो इन सज्जन का कभी नाम भी नहीं सुना। न दोस्ती है न कोई
दुश्मनी है। यह पहली दफे नाम सुनने में आया। इनको क्या भय समा रहा है? क्या ऐसी घबड़ाहट है, क्या बेचैनी है? अगर तुम जो कह रहे हो, वह सत्य है; अगर तुम जो कह रहे हो, वह प्रकाश है, तो क्या इतना घबड़ाना! और जो मैं कह रहा हूं अगर गलत है, तो घबड़ाना मुझे चाहिए, बेचैन मुझे होना चाहिए,
परेशान मुझे होना चाहिए। अंधेरा डरेगा प्रकाश के पास लाने में,
प्रकाश क्यों डरेगा?
तुमने कभी प्रकाश को डरते देखा? कि तुम दीया जलाकर
चले अंधेरे में और दीया कहे, न, मैं
नहीं जाता। अंधेरे में बिलकुल जाऊंगा ही नहीं! क्या अपनी जान गंवानी है हाथ से
मुझे! क्या अपनी फांसी लगवानी है! और अंधेरा इतना पुराना है, हजारों साल पुराना और वहां मुझे लिये जा रहे हो नन्हीं-सी ज्योति को,
मार ही डालेगा वह अंधेरा! ज्योति तो कुछ नहीं कहती, ज्योति कहती है कि जहां चलना हो चलो। अंधेरे की छाती कंपती है। वह चाहे
हजारों-लाखों साल पुराना हो तो भी छाती नन्हें-से दीये को देखकर कंपती है। घबड़ाता
है, परेशान होता है; चीख-पुकार मचाता
होगा कि हे भाइयो और बहनो, आओ, इकट्ठे
हो जाओ! हमारा जीवन संकट में है! इनको क्या इतनी बेचैनी है, क्या
इतनी परेशानी है?
जूनागढ़ के मित्र चाहते थे कि मैं क्यों न जूनागढ़ चून लूं, जूनागढ़ आ जाऊं। मैंने कहा, मुझे कोई अड़चन नहीं है।
मैं तो कहीं भी आ जाऊं। वहां जैन मुनियों को खबर लग गयी कि जूनागढ़ के लोगों ने
मुझसे प्रार्थना की है कि जूनागढ़ आ जाऊं। उन्होंने उनको बुलाया और कहा कि यह
भ्रांति की बात मत करो क्योंकि यहां हमारा जैनतीर्थ है। जूनागढ़ के पास की पहाड़ी पर
जैनों का तीर्थ है। दो ही तो जैनों के बड़े तीर्थ हैं: एक शिखर ली और एक गिरनार जी।
जूनागढ़ के पास गिरनार हैं। वहां हजारों जैन मुनि, साधु,साध्वी। उन्होंने कहा कि यहां मत बुलाओ, यहां उपद्रव
हो जाएगा।
मेरे मित्र आए वापिस, उन्होंने कहा कि हमें इसका ख्याल
ही न था। मैंने कहा कि उनसे तुम यह कहना कि मैं अकेला आदमी हूं और तुम्हारे जो
हजारों जैन मुनि, साधुसाध्वी यहां है--और एक दिन से नहीं हैं,
आज हजारों साल से गिरनार तुम्हारा तीर्थक्षेत्र है, तुम क्या घबड़ाते हो! घबड़ाना मुझे चाहिए। तुम्हें क्या डर है? तुम इतने बेचैन क्यों होते हो? मेरे संन्यासी ऐसे भी
तुम्हारे मंदिरों वगैरह में कोई उत्सुकता नहीं लेंगे; कोई
उनका रस नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है, फुर्सत भी नहीं है। न तुम्हारे जैन मुनियों के पास जाएंगे। तुम क्यों इतने
परेशान हो? नहीं, उन्होंने कहा कि यहां
निमंत्रण वापिस ही कर लो, यहां बुलाना ही नहीं है। हमारा
तीर्थक्षेत्र नष्ट हो जाएगा।
ये हालतें ऐसी हैं जैसे बीमार को देखकर और पूरा दवाखाना चिल्लाने लगे
कि बीमार को यहां मत आने देना, सब दवाखाना खराब हो जाएगा,
हमारी सब दवाइयां भ्रष्ट हो जाएगी।
तुम्हारा धर्म है?! जिंदा है, सड़ा है, मुर्दा है, क्या है यह?
इतनी क्या घबड़ाहट है! लेकिन यह तो अभी शुरुआत हैं, अभी दूसरे धर्मों के लोग इकट्ठे होंगे। अभी हिंदू भी इकट्ठे होंगे,
अभी मुसलमान भी इकट्ठे होंगे, अभी सबक
धर्मगुरु जेहाद का डंका बजाएंगे कि मुझे आने से रोकना है।
ये सब हिंसक वृत्तियां हैं। धर्म से इनका कुछ प्रयोजन नहीं है।
मगर मैं आश्चर्य नहीं करता। इसकी अपेक्षा ही है। इससे जो कह रहा हूं, कहता रहा हूं, उसका सत्य प्रतिपादित होता है। ये
झूठे के ऊपर जिंदा हैं। इनको डर लगता है कि मेरी बात आएगी वहां तो इनकी दीवालें
गिरनी शुरू हो जाएंगी। रेत के ऊपर दीवालें खड़ी किये हुए हैं। मैं जो कह रहा हूं,
मेरा अनुभव है, ये जो कह रहे हैं, इनका अनुभव नहीं है, बस वहीं अड़चन है। वहीं इनको भय
है, वहीं इनको घबड़ाहट है। इनकी छाती कंपी जा रही है।
तुम पूछते हो, चैतन्य कीर्ति जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद सह-अस्तित्व आदि सिद्धांतों का
विशेष स्थान हैं। बस, जहां तक सिद्धांतों की बातचीत करनी हो,
तो ये सारे लोग भी इन्हीं सारे सिद्धांतों की बातें करते हैं। मगर
जहां तक इनका जीवन में व्यवहार करना हो, वहां मुश्किल खड़ी हो
जाती है।
अहिंसा तुम्हें यहां दिखाई पड़ेगी, जीवंत। अनेकांत
तुम्हें यहां दिखाई पड़ेगा, जीवंत। यहां सारे धर्मों के लोग
मौजूद हैं, यह है सह-अस्तित्व। यहां सारे देशों के लोग मौजूद
हैं। भूल ही गये हैं कि कौन किस देश का है। भूल ही गये हैं कौन किस जाति का है।
भूल ही गये रंग, भूल ही गये भेद। यहां पता ही नहीं चलता कौन
यहूदी है, कौन ईसाई है, कौन जैन है,
कौन बौद्ध है, कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है--इस तरह लीन हो गये हैं। जैसे सागर में सारी सरिताएं लीन
हो जाती हैं।
सागर जानता है सह-अस्तित्व। और सागर चिल्लाता है कहीं कि यह गंगा आ
रही है, हम नहीं प्रवेश करने देंगे, यह
हमको भ्रष्ट कर देगी। गंगा क्या सागर को भ्रष्ट करेगी! आए गंगा, आए यमुना, आए गोदावरी, आए
नर्मदा, जिसका आना है आए, सागर सबको
आत्मलीन कर लेगा; सबके नमकीन कर देगा। गंगा भी नमकीन हो
जाएगी, यमुना भी नमकीन हो जाएगी, गोदावरी
भी नमकीन हो जाएगी। जो भी आए, सागर में आते ही सागर का रंग
ले लेगा, सागर का ढंग ले लेगा, सागर का
स्वाद ले लेगा।
महावीर ने किसी से नहीं पूछा कि तुम किस जाति के हो, किस धर्म के हो--बगावत ही महावीर की जातियों के विरोध में थी, वर्ण के विरोध में थी। ये जो चार वर्ण थे हिंदुओं के, महावीर का विरोध था वर्णों से। क्या वर्ण! सभी एक जैसी आत्मा और एक जैसी
चेतना को लेकर पैदा होते हैं। तो वर्णों का भेद छोड़ दिया था। मगर जैनियों को है
पक्का भेद। ब्राह्मण आए तो, कहेंगे, आइए
पंडित जी, बैठिए। और हरिजन आ जाए तो दुतकारेंगे। हिंदुओं से
भी ज्यादा दुतकारेंगे। जैन तो हिंदुओं से भी आगे बढ़-चढ़कर अपने को पवित्र मानने लगे
हैं। ब्राह्मणों से भी ज्यादा अपने को ज्यादा शुद्ध मानने लगे हैं। जैन घर में अगर
रसोइये की जगह खाली हो तो सिर्फ ब्राह्मण को ही मिल सकती है। इसमें दोहरे फायदे कर
लिये जैनों ने। एक तो ब्राह्मण का अपमान कर दिया, कि
तुम्हारी हैसियत बता दी, कि तुम्हारी हैसियत बस रसोइये की है
और कुछ भी नहीं; कि भोजन बनाओ, या
बर्तन मलो। और ब्राह्मण के अतिरिक्त दूसरे किसी को--क्षत्रिय को भी--नहीं भोजन
बनाने देंगे। हालांकि चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय थे। अगर इनमें से एक भी किसी जैन
घर में भोजन बनाने के लिए दरख्वास्त देता, इसका रसोइये की
तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता था। निकाल बाहर करते कि बाहर निकलो। कहां के
क्षत्री कहां के खत्री यहां कहां घुसे आ रहे हो! शुद्ध ब्राह्मण चाहिए। मंदिर में
मूर्ति बना लेना एक बात है।
एक जैन परिवार बंबई में मैं जब था तो मेहमान हुआ। उन्होंने पूछा कि यह
आदमी जो भोजन बना रहा है, यह कौन है? मैंने कहा, भई, यह नेपाली है--नेपाली क्षत्रिय। वे कहे, इसका बनाया हुआ भोजन हम नहीं करेंगे। ब्राह्मण होना चाहिए। मैंने कहा,
और तुम चौबीस तीर्थंकरों की पूजा कर रहे हो! सब क्षत्रिय थे। पूजा
करने के पहले, पैर में झुकने के पहले पूछ तो लिया करें कि
महराज, महराज हो कि नहीं? कहां के
क्षत्रियों के पैर पड़ रहे हो!
तो यह जो मेरा रसोइया है, यह शुद्ध क्षत्रिय है। नेपाली क्षत्रिय है। बुद्ध तो नेपाली थे ही। असल
में उनको हिंदुस्तानी कहना चाहिए नहीं। कपिलवस्तु जो थी, वह
नेपाल का हिस्सा थी। ठीक नेपाल और भारत की सीमा पर, वय करना
मुश्किल कि वह भारतीय कि नेपाली? नेपाली होने की ज्यादा
संभावना है। नेपाल में इसीलिए बुद्ध धर्म की अभी भी कुछ छाप रह गयी है। भारत से तो
बिलकुल उड़ गयी है।
क्षत्रिय को नहीं बनाने देंगे भोजन, तो शूद्र को तो बनाने
ही क्या देंगे!
मैंने निरंतर यह कहा है कि जैन धर्म धर्म भले हो, मगर संस्कृति नहीं है। क्योंकि जैन कम से कम एक बस्ती तो बसा कर बता दें।
संस्कृति का तो अर्थ होता है: कि जिसमें सब पहलू जीवन के प्रगट हों। जैन एक बस्ती
तो सिर्फ हैनियों की बसा कर बता दें! मुश्किल खड़ी हो जाएगी? पर-निर्भर
हैं। पानी किससे भरवाओगे? जूते किससे बनवाओगे? पाखाना किससे साफ करवाओगे? अगर सिर्फ जैनियों ही
जैनियों की बस्ती हो, तो काई जैनी तो पाखाना साफ करेगा नहीं,
जूता तो बनाएगा नहीं, सड़क पर बुहारी तो लगाएगा
नहीं, हजामत तो बनाएगा नहीं, ये सब काम
कौन करेगा? जैन कम से कम एक बस्ती तो बसाकर दें। तो मैं
कहूंगा कि सह संस्कृति है, यह समाज है।
यह काहे का समाज है! यह तो परजीवी है। यह तो हिंदुओं की छाती पर बैठा
हुआ है। यह तो शोषक है। जैसे तुमने अमरबेल देखी न, उसकी कोई जड़ नहीं
होती, वह जिस झाड़ पर चढ़ जाती है उसी का खून चूसती है। उसकी
खुद की कोई जड़ें नहीं होती, बस झाड़ों से झाड़ों पर फैलती रहती
है। और नाम उसका अमरबेल है। होने ही वाली है अमरबेल। उसको मारोगे कैसे? उसकी जड़ें ही नहीं हैं। जड़ हो तो काट डालो, मर जाए।
वह बिना जड़ों के जीती है, एक झाड़ से दूसरे झाड़ पर फैलती रहती
है। झाड़ के भीतर झाड़ का रस पीने लगती है--झाड़ सूखने लगेगा। जैन तो अमरबेल जैसे
हैं। यह कोई जाति नहीं, धर्म नहीं, समाज,
संस्कृति, सभ्यता, कुछ
भी क्या हैं, सिर्फ एक छोटी-सी विचारधारा मात्र है। और उसको
भी कहां मानते हैं? बस, बकवास के लिए
है। व्याख्यान इत्यादि देने हों तो ठीक है, नहीं तो काम क्या
पड़ेगी इनके वह। एक बस्ती बसाकर बता दें!
मैं तो जो बोल रहो हूं, वह संस्कृति है,
आनेवाले मनुष्य की संस्कृति है। इसलिए मैं चाहता हूं कि पहला काम
इससे शुरू करूं कि बस्ती बसा कर बता दूं। यहां तुम इस छोटे-से परिवार में देख सकते
हो। कोई पाखाने साफ कर रहे हैं, इसलिए भंगी नहीं हो गये हैं,
इसलिए उनको कोई अनादर नहीं है--कोई पता ही नहीं चलता उनको, किसी को कि कौन क्या कर रहा है! काई पाखाने साफ कर रहा है, कोई रास्ते साफ कर रहा है, कोई लक़डियां चीर रहा है,
कोई भोजन बना रहा है। कोई भेद नहीं है। हमारे ध्यान विद्यापीठ को जो
कुलपति है, वह वेदांत और या बुहारी लगानेवाले सर्जनो कोई भेद
नहीं; कोई अंतर नहीं। कोई ऊंचा नहीं है, कोई नीचा नहीं है, कोई "हाइरेरिकी' नहीं है। कोई श्रृंखला नहीं है। चाहे पहरेदार हो कोई, दरवाजे पर खड़ा हो और चाहे आफिस में कोई सेक्रेटरी हो, कोई अंतर नहीं है। कोई श्रेष्ठ नहीं है, कोई
अश्रेष्ठ नहीं है। यह संस्कृति का लक्षण होना चाहिए।
यह जो दस हजार संन्यासियों की मैं बस्ती बनाना चाहता हूं--और बस्ती से
ही क्यों शुरू करना चाहता हूं? इसलिए बस्ती से शुरू करना चाहता
हूं ताकि यह बात साफ हो सके कि मैं जो कह रहा हूं, वह केवल
परोपजीवी विचारधारा नहीं है। वह कोई अमरबेल नहीं है, जो
दूसरों की छाती पर सवार रहे। वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है, उसकी अपनी जड़ें होगी। हमारे अपने जूते बनानेवाले होंगे, हमारे अपने शिक्षक होंगे, हमारे अपने किसान होंगे,
हमारे अपने बागवान होंगे, हमारे अपने सफाई
करने वाले होंगे, हमारे अपने डाक्टर होंगे।
यह दस हजार संन्यासियों का जो समुदाय होगा, जो कम्यून होगी, यह सिद्ध करना चाहती है सारी दुनिया
के समक्ष कि एक वर्गविहीन समाज, वर्णविहीन समाज, ऊंचनीच के भेद से मुक्त समाज निर्मित हो सकता है, जिसमें
प्रेम ही एकमात्र नाता होगा, जिसको सारा संबंध प्रेम के लिए
होगा। जो धन को कोई मूल्य नहीं देगा, जिसका सारा मूल्य सिर्फ
प्रेम के लिए होगा। ऐसा प्रेम से भरा समाज ही अहिंसक हो सकता है और ऐसे प्रेम से
भरा समाज ही सह-अस्तित्व की घोषणा दे सकता है दुनिया को। और उसमें सब तरह के लोग
होंगे। सब जीवनधाराएं उसमें मिलेंगी। स्वभावतः उसमें अनेकांतवाद होगा।
किसी पर कोई आग्रह नहीं है, किसी पर कोई दबाव
नहीं है, किसी को जबर्दस्ती किसी ढांचे में ढाले जाने की
चेष्टा नहीं है, सबके लिए स्वतंत्रता है। इससे घबड़ाहट फैल
रही है। आखिर यह बस्ती मेरी बस न जाए, इसकी सारी घबड़ाहट क्या
है? इसकी घबड़ाहट यही है कि यह बस्ती सारे जगत के सामने एक
नया उदाहरण होगी। अब तक कोई ऐसी बस्ती बसी नहीं, जो जगत के
सामने एक उदाहरण बन सके। लोग बातचीत करते रहे वर्णविहीनता की, वर्गविहीनता की, मगर बातचीत बातचीत ही रही। रूस में
भी वर्गविहीन समाज निर्मित नहीं हुआ। नये वर्ग बन गये पुराने वर्गों की जगह।
चीन में भी वर्गविहीन समाज निर्मित नहीं हुआ। नये वर्ग आ गये, पुराने वर्ग गये।
यह कम्यून पहले अर्थ में साम्यवादी होगा, बुनियादी अर्थ में साम्यवादी होगा। इससे घबड़ाहट फैलती है। इससे डर लगता
है। इससे हजार बहाने खोजे जाते हैं कि किसी तरह इसे रोका जाए। क्योंकि इसकी
मौजूदगी पृथ्वी के कोने-कोने में अनुभव की जाएगी। इसे देखने सारी दुनिया से लोग
आनेवाले हैं।
जिस दिन कच्छ में यह बस्ती आदि हो जाएगी, यह गैरिक नगर संन्यासियों का, सारी दुनिया से पर्यटक
कच्छ की तरफ आनेवाले हैं। ताजमहल कम लोग जाएंगे--क्योंकि क्या है अब ताजमहल में
देखने को--खजुराहो लोग कम जाएंगे--देख चुके मूर्तियां बहुत--यहां जिंदगी होगी,
जीवन कुछ होगा।
इससे बेचैनी फैल रही है, घबड़ाहट हो रही है कि
ये फीके पड़ जाएंगे--ये भद्रगुप्त इत्यादि, इन सबकी दो कौड़ी
हैसियत रह जानेवाली है। अभी ये बड़े मुनि हैं वहां। फिर इनको बेचैनी हो जाएगी। ऐसे
तो हजारों मुनि हमारी बस्ती में रहनेवाली हैं। और जो वस्तुतः मुनि होंगे। क्योंकि
मौन उनकी साधना होनेवाली है।
और इनके रोके रुकने वाला नहीं है कुछ। ये जितना रोकने की कोशिश करेंगे, उतनी प्रगाढ़ता से यह घटना घटेगी। यह घटना घटने ही वाली है। थोड़ी देर-अबेर
शोरगुल मचाने से हो सकती है, बस, और
कुछ होने वाला नहीं है।
और इन्होंने अगर जिद्द ही की अगर ये इस तरह के संगठन और इस तरह के
रोकने की मूर्खतापूर्ण बातें किये, तो फिर कोई बात नहीं,
इनकी भाषा में ही में इनसे बोल सकता हूं। तो फिर दस हजार संन्यासी
कूच ही करेंगे। जिंदा या मुर्दा कच्छ पहुंच कर रहेंगे। फिर देखें, कौन रोकता है, कैसे रोकता है? सीधे
बात बनी तो सीधे अन्यथा तिरछी अंगुली से भी घी निकाल लेना मुझे आता है। मगर कच्छ
का घी निकालकर रहेंगे। अभी तक मैं शांति से चल रहा हूं,मेरा
कोई अहिंसा और अनेकांत, और सह-अस्तित्व इत्यादि में मेरा काई
भरोसा नहीं है। ये तो उनके सिद्धांत हैं। मैं तो किसी सिद्धांत से बंधा नहीं हूं।
मैं तो क्षण-क्षण जीने का भरोसा रखता हूं। अगर यूं ही जिद्द की, तो यूं ही सही। तो हम इस चुनौती को भी स्वीकार कर लेंगे।
इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें न की जाएं तो अच्छा। नहीं तो पछताएंगे।
बहुत। मैं नहीं चाहता हूं कि किसी तरह की संघर्ष की स्थिति पैदा हो, कोई मेरी उत्सुकता संघर्ष में नहीं, क्योंकि व्यर्थ
क्यों शक्ति जाया करनी, लेकिन अगर बात वहीं आकर रुकनी है,
अगर वही होना है, तो फिर वही हो ले। तो फिर
देख लेंगे। फिर दस हजार लोगों का पैदल कूच कच्छ की तरफ होगा, फिर देखें कौन रोकता है, कैसे रोकता है? कैसे कोई रोक सकता है किसी को।
सारी दुनिया की आंखें फिर इस बात पर अटकेंगी। फिर यह मामला
अंतर्राष्ट्रीय मामला बन जाने वाला है। बेहतर यह हो कि ये नासमझ चुप रहें और शांति
से अपने-अपने मंदिरों में अपने-अपने धर्मशास्त्रों का पाठ करें, व्यर्थ की झंझटों में न पड़ें। नहीं तो मेरा कोई महावीर से बंधन नहीं है।
इनका होगा। मेरा महावीर से प्रेम है, लेकिन मैं तो अपने ढंग
का आदमी हूं। मेरे किसी से काई ऐसे आग्रह नहीं हैं कि कोई मैं महावीर को मारकर
चलता हूं कि बुद्ध को मानकर चलता हूं। मैं तो अपने बोध से जीता हूं। और अगर मुझे
लगा कि यह चुनौती की ही तरह बात होने वाजी है, तो फिर चुनौती
की ही तरह बात होगी।
इसलिए इनका सावधान हो जाना चाहिए कि इस तरह की बकवास न करें! अभी
मैंने कोई, किसी तरह का उपद्रव इस देश में खड़ा नहीं किया--मेरी
तरफ से खड़ा नहीं किया; मेरी तरफ से मैं चुपचाप अपने काम में
लगा हूं। और तब तक लगा रहूंगा जब तक मैं देखूंगा कि चुपचाप काम हो सके तो बेहतर।
क्योंकि मैं अकारण कोई उपद्रव खड़ा करना नहीं चाहता। राजनीति में मेरी उत्सुकता
नहीं है। लेकिन कुछ ऐसा भी नहीं है मामला कि अगर लोग उपद्रव पर उतारू हो आएं तो
मैं उपद्रव का उत्तर उपद्रव से नहीं दे सकता हूं। तो उन्हें पाठ पढ़ा सकता हूं कि
उपद्रव का मजा क्या हो सकता है! फिर यह संगठन वगैरह और ये बलिदान और कुर्बानी सब
देख ली जाएगी! कि कितना बलिदान कर सकते हो, कितना संघर्ष कर
सकते हो, कितनी कुर्बानी कर सकते हो! फिर उन्होंने अभी देखी
नहीं है कुर्बानी क्या होती है! फिर उनको एक दफा पता लच जाएगा कि कुर्बानी क्या
होती है।
ये दस हजार लोग चलेंगे यहां से। अभी तो हम खरीदने की बात कर रहे हैं
जमीन, फिर हम खरीदेंगे नहीं--फिर क्या खरीदना है! फिर तो
कब्जा करने की बात है। फिर तो हम डेरा जमा देंगे। फिर दस हजार लोगों की लाशों पर
से कुछ करना हो तो कर लेना। और यूं भी नहीं है कि कोई हम तलवारें उठानेवाले हैं।
हम तो निहत्थे संन्यासी हैं। चल पड़ेंगे। जिंदा रहेंगे तो पहुंच जाएंगे, जिंदा नहीं रहे तो ठीक। तो वहां ऊपर चलकर वहां बस्ती बसाएंगे!...इससे कुछ
फर्क नहीं पड़ता, बस्ती बसेगी। यहां बसे, वहां बसे! मगर ये बातें जो मुनि और साधु और तथाकथित महात्मागण करते हैं,
ये इतनी निपट गंवारी की हैं और इनके स्वयं के जीवन के इतने विपरीत
हैं, फिर भी इन अंधों का न कुछ दिखाई पड़ता, न इन बहरों को कुछ सुनाई पड़ता। इसमें कई तरह के न्यस्त स्वार्थ जुड़ गये
हैं। पीछे गहरी राजनीति है।
कल एक दूसरे अखबार में खबर थी कि असली कारण मुझे रोकने का यही है कि
मेरी वहां मौजूदगी, दस हजार संन्यासियों की मौजूदगी, इतनी बड़ी बस्ती का आयोजन, मैं कच्छ की राजनीति पर
हावी हो जाऊंगा। मुझे कोई रस नहीं है राजनीति में। आज पच्चीस वर्षों से मैं लोगों
के बीच काम कर रहा हूं, लोग जानते हैं कि मुझे कोई रस नहीं
राजनीति में। मैंने कभी वोट नहीं दिया। मेरे संन्यासियों में किसी का पड़ा नहीं है।
कोई प्रयोजन नहीं है। मगर घबड़ाहटें तो लोगों की अजीव-अजीब हैं। उनका घबड़ाहट यह है
कि मैं कच्छ की राजनीति पर हावी हो जाऊंगा। और दस हजार का बल होगा मेरे साथ तो मैं
कच्छ की राजनीति को बिलकुल अपने कब्जे में कर लूंगा।
तो वहां की जो राजनीतिक चालबाजियां हैं, वे इन सबके पीछे काम
कर रही हैं। ये जैन मुनि इत्यादि तो सब बाहर के मुखौटे हैं दिखाई पड़ रहे हैं,
पीछे राजनीतिक बैठे हुए हैं।
श्री मोरारजी देसाई अभी भी लगे हैं काम में: बंबई के कच्छी
उद्योगपतियों को भड़का रहे हैं, कि तुम कोशिश करो। तो बंबई के
सात उद्योगपतियों ने गुजरात के मुख्यमंत्री को निवेदन किया है कि मुझे रोका जाए
कच्छ आने से। लेकिन यह बात अब रुकने वाली नहीं है। और मोरारजी के भलीभांति पता है,
न मुझे रोका होता, न इस बुरी तरह से गये होते।
उसका फल भोग रहे हैं। अभी और फल भोगना है दिखता है। चारों खाने चित पड़े हो,
चीं बोल चुके, फिर भी होश नहीं आ रहा है। अभी
लगता है और कुछ चोटें खानी हैं। अब पीछे से--सामने से नहीं कर सके, अब पीछे से।
और इन सबकी जालसाजियां देखते हो!
कच्छ में हम चौगुने दाम जमीन के देकर खरीद रहे थे। जिस भूमि को कोई एक
पैसे में खरीदने को तैयार नहीं है,...कच्छी तो सब भाग
गये हैं वहां से। कच्छ की भूमि ऊसर पड़ी है, उजाड़ पड़ी है। उस
भूमि की काई कीमत नहीं है, काई खरीदने को राजी नहीं है। हमसे
मुंह मांगा दाम मांगा जा रहा था, वह हम दे रहे थे। तो हमें
रोकने की कोशिश की गयी, सब तरह से रोकने की कोशिश की गयी।
हजार कानूनी तरकीबें मोरारजी ने लगायी, झूठी, जो सच नहीं थीं। और गांधीवादी होने का बड़ा ठेका लिये बैठे हैं! सब झूठ काम
किया।
झूठी रिपार्टें दिलवाई कि वायुसेना विरोध कर रही है। अब तो हमारे हाथ
में फाइलें आ गयीं। इंदिरा के आने पर मैंने पहला काम यह किया कि वे फाइलें हम देख
लेना चाहते हैं, कि कब वायुसेना ने रोक गलायी? कभी
रोक लगायी ही नहीं। वायुसेना ने कोई रोक नहीं लगायी। लेकिन मोरारजी ने यह झूठा
वक्तव्य कलक्टर से दिलवाया कि वायुसेना ने रोक लगा दी है, कि
यहां दस हजार विदेशी संन्यासियों का इकट्ठा होना खतरे से खाली नहीं है, समुद्र पास है; समुद्रत्तट है, अंतर्राष्ट्रीय सीमा है; पाकिस्तान पास है; और यहां से केवल तीस किलोमीटर की दूरी पर वायुसेना का अड्डा है, इसलिए--और हमारे पास सारे आधुनिकतम साधन हैं--हम खतरनाक सिद्ध हो सकते
हैं। वह तीस किलोमीटर की बात भी झूठ थी। अभी ठीक नाज-जोख करवाने से पता चला पचास
मील दूर है, तीस किलोमीटर नहीं। वह भी कलक्टर को जार दिलवाया
गया कि तुम सच-सच बोलो, तीस किलोमीटर तुमने कैसे लिखा?
तो उसने लिखा कि हम क्या करें, हमसे कहा की
तीस किलोमीटर से ज्यादा मत लिखना। हो कितना ही, तुम तीस
किलोमीटर लिखना। क्योंकि वायुसेना का यह नियम है कि तीस किलोमीटर के भीतर वह
रुकावट डाल सकती है।
मगर न वायुसेना ने रुकावट डाली थी, न वह जगह तीस
किलोमीटर के भीतर है। दोनों बातें झूठ थी। और यह सत्यवादी, अहिंसक,
गांधीवादी मोरारजी देसाई ने यह सारा काम करवाया।
और खुद अपने लिए क्या किया, वह पता है!
अहमदाबाद में--सत्ता से जाने के पहले--कम-से-कम पांच करोड़ से ज्यादा
की कीमत का भवन है: शाही बाग--शाहजहां ने बनवाया था, उसी आदमी ने जिसने
ताजमहल बनवाया--सौ एकड़ जमीन है--अहमदाबाद के बीच में है--महल है पुराना, वह गवर्नर का निवास था, उसको पचास लाख रुपये
में--सिर्फ पचास लाख रुपये में--सरदार वल्लभभाई स्मारक को बेच दिया। सिर्फ जाने के
एक दिन पहले। पांच करोड़ कम-से-कम जिसकी कीमत होनी चाहिए, वह
केवल पचास लाख रुपये में। और वह पचास लाख रुपये भी वल्लभभाई स्मारक निधि के पास
नहीं थे। वे कहां से पचास लाख रुपये लाते? वे लेने को राजी
नहीं थे। कि हम कहां से पचास लाख लाएंगे! और अगर ले भी लिया हमने तो इस पर कम-से-कम
पांच लाख रुपये साल का खर्च है, इसकी व्यवस्था के लिए--वह
कौन खर्च करेगा? तो पचास लाख रुपया गुजरात सरकार से उनको दान
दिलवाया--उसी दिन, एक ही दिन के भीतर; पचास
लाख रुपया दान दिलवाया गुजरात सरकार से ही और उसी दिन पचास लाख रुपये में गुजरात
सरकार के द्वारा ही पांच करोड़ की जमीन बिकवा दी।
और मजा यह है कि वल्लभभाई स्मारक समिति के अध्यक्ष भी बाबूभाई थे और
गुजरात के मुख्यमंत्री बाबूभाई थे। यह एक ही आदमी ने दोनों काम किये। पचास लाख दान
किये वल्लभभाई समिति को, उसके अध्यक्ष वह हैं--देनेवाले भी वह,लेनेवाले भी वह--और फिर उन्होंने वह जमीन भी पचास लाख में खरीद ली।
ये सारे उपद्रवी लोग, सब तरह के चार-उचक्के, इनको घबड़ाहटें हैं, हजार तरह की घबड़ाहटें हैं। इनके
प्राण निकले जा रहे हैं। ये सब तरह के लोगों को उकसाएंगे, भड़काएंगे।
ये जैनिया को भड़काएंगे कि तुम्हारे लिए खतरा है।...जब खरीदने की बात करीब-करीब
पक्की हो गयी थी राजमहल को, तो वहां एक समुद्रतट पर कोई
मुसलमान पीर की मजार,है, जिस पर कभी
कोई नहीं आता था, वर्षों से जिस पर किसी ने दीया नहीं जलाया,
जैसे ही यह बात चली की हम उसे खरीद रहे हैं, उस
पर रोज दिया जलने लगा, सफाई होने लगी, एक
मौलवी आकर उस पर बैठने लगा। पूछताछ की गयी तो महल को नौकरों ने कहा कि आप लोगों के
आने की बात से चलो इतना तो अच्छा हुआ कि इस मजार को कोई साफ करने वाला मिल गया।
पीर की आत्मा बिचारे की आप लोगों को धन्यवाद दे रही होगी। क्योंकि यहां कभी कोई
आता ही नहीं था। अब अड्डा जमाकर बैठ गये हैं वहां, ताकि
उपद्रव खड़ा किया जा सके कि यह हमारी मजार हैं और इस जमीन को हम नहीं देने देंगे,
क्योंकि यह तो मुसलमानों का तीर्थस्थान है। वहां दस-पांच मुसलमान
सुबह आकर बैठने लगे और भजन गाने लगे--और पूजापाठ शुरू हो गया! जहां वर्षों से कोई
कभी नहीं आया।
महाराजा जिस जमीन को बेच रहे थे, उनका भाई जिनकी
महाराजा से दुश्मनी है और कोई संबंध नहीं है, जो कभी उस महल
में नहीं आया, उसमें महाराजा के पिता की भी कब्र है, जिस कब्र पर भी वह भाई कभी नहीं आया, उसने पत्र लिखा
कि अभी मेरी मां जिंदा है, और जब मेरी मां मरे तो उसकी भी
कब्र हम वहीं बनाएंगे, अपने पिता की कब्र की बगल में,
तो यह आप ध्यान में रखें, फिर ही आप इस जमीन
को लेना। क्योंकि कब्र वहीं बनेगी! जहां हमारे पिता की कब्र है, वहीं हमारी मां की कब्र बनेगी।
मां जिंदा है, कोई पूछने जाता नहीं, मां मरेगी
तो उसकी कब्र जब बनानी है, वह इसी जमीन में बनेगी!
इनका भी भड़काया, कि तुम इस तरह का उपद्रव शुरू
करो। मुसलमानों को भड़काया कि तुम इस तरह का उपद्रव शुरू करो। राजा के बेटे को
भड़काया कि हमारे पिता की कब्र चूंकि यहां है, इसलिए हम जब भी
आना जायेंगे आएंगे। जिसको भी आना है, आने देना होगा। हम यहां
उत्सव करेंगे तो हमें रोका नहीं जा सकता। हालांकि आज तक कभी उत्सव किया नहीं क्या।
बाप-बेटे में बनती ही नहीं। बाप लंदन में बैठे रहते हैं। बाप-बे६में बोलचाल भी
नहीं है।
लेकिन इन सबको भड़काने के लिए एक ही आदमी पीछे काम करता रहा--मोरारजी
देसाई। और अब भी वही सज्जन इस सबके पीछे लगे हुए हैं।
लोग कुट-पिट जाते हैं, बिलकुल मर जाते हैं,
मगर आदतें नहीं जाती। पुरानी आदतें पीछा करती रहती हैं। वही
जालसाजियां, वही उपद्रव।
अभी तक मैंने कोई उपद्रव नहीं करना चाहा, और अभी भी कोई आकांक्षा नहीं है। इन आनेवाले तीन-चार महीनों में शांति से
हो सकता है तो ठीक, एक चार महीने और शांति से प्रयास जारी
रहेगा, अगर नहीं शांति से हो सकता तो फिर जैसे होगा वैसे
होगा! अगर इसको उपद्रव ही होना है तो यह उपद्रव ही होकर रहेगा! मगर यह बस्ती तो
कहीं बसेगी। यह बस्ती बिना बसे नहीं रह सकती। और चूंकि उनको लग रहा है कि अब मैं
बसा सकता हूं बस्ती--पहले उनको भय नहीं था, क्योंकि उनको पता
था कि कैसे बसायी जाएगी! यहां तो इस देश के उद्योगपतियों को, धनपतियों को भड़काया जा सकता है कि पैसा एक देना मत। मैंने इस देश में से
एक पैसा लेना बंद ही कर दिया। अब तो मेरे संन्यासी को कोई भड़का नहीं सकता। अब हम
समर्थ हैं कि बस्ती हम बसा सकते हैं।
और सारे कच्छ के भाग्य बदल जाएंगे, इससे भी घबड़ाहट है।
इससे भी डर है कि एक दहा यह अगर कच्छ के भाग्य का परिवर्तन हुआ, तो फिर यही कच्छी इनको गाली देंगे कि तुम रुकावट डाल रहे थे।
पचास करोड़ तो बस्ती के आबाद होने में लगनेवाले हैं। उसका इंतजाम सारी
दुनिया से हुआ जा रहा है। उस सबके आश्वासन हैं। इसलिए उसकी कोई अड़चन नहीं है। पचास
करोड़ तो ये कच्छ को यूं जाएंगे दो साल के भीतर। अभी भी पचास लाख रुपया प्रति माह
पूना को उपलब्ध हो रहा है। छः करोड़ रुपये प्रतिवर्ष। जब कि केवल तीन हजार संन्यासी
यहां हैं। दस हजार संन्यासी जब वहां होंगे तो कम-से-कम बीस-पच्चीस करोड़ प्रतिवर्ष
कच्छ को उपलब्ध होंगे।
मैंने गुजरात के मुख्यमंत्री को पुछवाया कि कच्छ में कितने लोग बेकार
हैं? तो उन्होंने कहा, हमारे पास
पांच हजार लोगों की दरख्वास्तें हैं, पांच हजार श्रमिक बेकार
हैं। मैंने उनको कहा, पांच हजार श्रमिकों को हम काम देने के
लिए तैयार हैं। क्योंकि हमें दस हजार लोगों के लिए मकान बनाने होंगे--तो हम पूरे
पांच हजार श्रमिकों को लेने के लिए तैयार हैं।
मैं देखूंगा कि कौन रोकता है? ये पांच हजार श्रमिक
खड़े होंगे वहां, मरे संन्यासियों के स्वागत के लिए। क्यों
इनको रोटी-रोजी कौन देने वाला है। देखें कौन जैन मुनि इनको रोटी-रोजी देता है?
अब तक क्यों नहीं दी? पांच हजार लोग वहां भूखे
मर रहे हैं, इनको कोई रोटी-रोजी देनेवाला नहीं है। और मैंने
तय किया है कि जो कुछ हम खरीदेंगे, वह कच्छ से खरीदेंगे।
सारा यह जो निर्माण किया जाएगा, इतने भवन बनेंगे--दस हजार
लोगों के लिए--अस्पताल बनेगा, विश्वविद्यालय बनेगा, इस सबके लिए जो स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इस बस्ती को रोकने का अर्थ क्या
होगा कच्छ के लिए। और इस बस्ती के बनने का क्या सौभाग्य हो सकता है कच्छ के लिए।
यह बस्ती एक बार बनी तो पांच
साल के भीतर कच्छ की रौनक बदल जाएगी, रंग बदल जाएगा--उसमें
प्राण आ जाएंगे। एक दस साल के भीतर भारत में कच्छ को देश का सर्वाधिक संपन्न
हिस्सा बनाया जा सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। कच्छ की आबादी ही केवल सात लाख
है। इस पूरी आबादी को संपन्न कर देने में कोई अड़चन नहीं है। इसलिए मेरे लिए एक
प्रयोग भी हो जाएगा। मैं जो कह रहा हूं कि यह आग किस तरह फैलायी जा सकती है और
कैसे हम लोगों को समृद्धि में रहना सिखा सकते हैं, इसकी पूरी
सीख भी हो जाएगी, इसके लिए पूरा एक उदाहरण भी उपस्थित हो
जाएगा कि लोग आकर देख सकें।
इस सबसे घबड़ाहट पैदा हो रही है।
मगर दूसरा पहलू भी, चैतन्य कीर्ति, भूल मत जाना। दूसरा पहलू भी है।
कल मैंने अखबार में पढ़ा कि कच्छ के युवकों के एक संगठन ने, युवक क्रांति दल ने स्वागत के लिए तैयारियां दिखाई हैं। उन्होंने एक बड़ा
आयोजन किया और प्रार्थना की है कि मैं जरूर आऊं और कच्छ के युवक साथ देने को तैयार
हैं। अगर यूं ही हुआ, अगर यह बात विवाद ही बनी, तो कच्छ भी बंटेगा--युवक तो मेरे साथ होंगे और बूढ़े-बूढ़े, मुर्दा, ये हो सकते हज कि ये भद्रगुप्त और इस तरह के
लोगों के साथ हों। होने दो।
कच्छ के घर-घर में दो वर्ग हो जाएंगे। एक वर्ग, जो मेरे साथ होगा। और अभी तो मैंने कुछ किया ही नहीं है। जल्दी ही मैं
अपने संन्यासियों को भेजना शुरू करूंगा कि कच्छ में संपर्क स्थापित करो। बहुत कच्छी
मेरे संन्यासी हैं। उनको कहूंगा जाकर कच्छ में संपर्क स्थापित करो। घर-घर में खबर
पहुंचाओ कि हमारी योजना क्या है, हम कच्छ में करना क्या
चाहते हैं।
मैं लड़ सकता हूं, लड़ने में कोई अड़चन नहीं है, लड़ने की आकांक्षा नहीं
है। क्योंकि उतनी शक्ति व्यर्थ व्यय करनी है। इसलिए चार महीने और कोशिश करूंगा कि
चुपचाप हल हो जाए--जहां तक तो है हल हो जाएगा! कोई कारण नहीं है कि अब रुकावट डाली
जा सके--लेकिन अगर हल नहीं हुआ, तो अब रुकना भी नहीं है।
रुकावट डाली जाएगी तो उसको तोड़कर उसको तोड़कर भी कच्छ पहुंचना है।
भेजेंगे संन्यासियों को, वहां हवा पैदा करो;
वहां संपर्क निर्माण करो; वहां घर-घर में साफ
बात करो कि आने का अर्थ क्या होगा, प्रयोजन क्या होगा।
साहित्य बांटो, फिल्में ले जाओ, टेप ले
जाओ--सुनाओ, फिल्में दिखाओ, आश्रम की
पूरी कल्पना उनको योजना दो।
संघर्ष के लिए तैयारी करनी होगी तो संघर्ष के लिए तैयारी की जाएगी।
मगर मुझे कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि इसकी कोई आवश्यकता पड़ सकती है।
यह ताब यूं ही हल हो जानेवाली है। इस तरह के छोटे-मोटे लोग चिल्ल-पों मचाते रहते
हैं। कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाते हैं। कोई चिंता
लेने की आवश्यकता नहीं है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
ना लगे जाम पर हाथ, ये शर्त है
मैंकदे को जो जाए वह कमजर्फ है
मुझे तोहमत न दो मैं शराबी नहीं
तुम नजर से जिलाओ तो मैं क्या करूं?
इश्क और ईमां में तफरीक है
मगर मेरा तो दोनों में ईमान है
खुदा को मनाने को सजदे करूं
मगर सनम रूठ जाए तो मैं क्या करूं?
मगर मेरा तो दोनों में इमान है
आनंद ऊषा! ऐसी ही शराब तो
यहां पी जा रही है और पिलाई जा रही है। जाम को हाथ नहीं लगता। शराब आठों को भी
नहीं छूती और प्राणों में उतर जाती है।
ना लगे जाम पर हाथ, ये शर्त है
मैकदे को जो जाए वह कमजर्फ है
है ही कमजर्फ जो मधुशाला को जाए, बेशर्म है। उसको पीने
का ढंग ही न आया। उसे असली शराब की पहचान ही न आयी। असली शराब अंगूरों से थोड़े ही
निकलती है, असली शराब तो ध्यान से निचुड़ती है। वह तो भीतर ही
ढलती है, बाहर से उसको कुछ लेना-देना नहीं है। नासमझ ही
मधुशालाओं में जाते हैं। समझदार तो अपने भीतर ही मधुशाला को बना लेते हैं। अपने
भीतर ही उस रस को निचोड़ते हैं। उस रस का ही हमने परमात्मा कहा है। रसो वै सः। उस
परमात्मा की बस एक ही परिभाषा मुझे प्रीतिकर है: रसो वै सः वह रसरूप है। वह रस है।
मुझे तोहमत न दो मैं शराबी नहीं
तुम नजर से जिलाओ तो मैं क्या करूं?
ऐसा ही तो यहां हो रहा, ऊषा! जी भरकर पीओ!
कोई तोहमत नहीं दे रहा। यह कोई मंदिर-मस्जिद नहीं है। यहां तो पीना-पिलाना ही
साधना है। जी भरकर पीओ। पीने में कंजूसी मत करना। प्राणों के सो द्वार-दरवाजे खोल
दो, सूरज भीतर नाचे, हवाएं बहें,
सरिताएं बहें, सारा जीवन तुम्हारे भीतर से
प्रवाहित हो।
इश्क और ईमां में तफरीक है
मगर मेरा तो दोनों में ईमान है
वे नासमझ हैं जो कहते हैं कि प्रेम में और धर्म में विरोध है, फर्क है। जरा भी फर्क नहीं है। प्रेम ही धर्म है। जो कहते हैं, इश्क और ईमां में तफरीक है, वे गलत कहते हैं! कोई
विरोध नहीं है। और जहां इश्क और ईमां में विरोध है, वहां
इश्क भी झूठा है, ईमां भी झूठा है। जहां इश्क सच्चा है,
वहां इश्क ही ईमान बन जाता है। जहां प्रेम की गहराई है, वहीं धर्म का अनुभव है। प्रेम की परिपूर्णता ही तो परमात्मा है। तो तू ठीक
कहती है--
मगर मेरा तो दोनों में ईमान है
दो में भी गिनती की तो भूल हो जाएगी। इतना भी फर्क नहीं है कि दो कह
सका। एक का ही नाम है, जो नहीं जानते वे प्रेम कहते हैं, जो जानते हैं वे धर्म कहते हैं। जो सोए-सोए हैं, वे
प्रेम कहते हैं, जो जाग गये हैं, वे
धर्म कहते हैं। बस यह भाषा का भेद है।
और तुमने जिसे अभी प्रेम की तरह जाना है, अगर तुम उसको ही निखरते चलो, उस पर ही धार रखते चलो,
तो वही धर्म हो जाएगा। प्रेम की ऊर्जा ही धर्म की ऊर्जा में
रूपांतरित हो जाती है। प्रेम यूं समझा अनगढ़ हीरा है और धर्म यूं जो जौहरी के हाथ
लग गया है, और जिसने उस पर पहलू निकाल दिये, जिसने उस पर चमक दे दी, जिसने उसे रूप दे दिया,
रंग दे दिया, आकार दे दिया। जिसके हाथों में
पड़कर उसमें जो व्यर्थ था वह छांट दिया गया और जो सार्थक है वह बचा लिया गया। जो
उसके भीतर अप्रगट था, जिसके हाथों में पड़कर प्रगट हो गया।
उसीको तो हम सदगुरु कहते हैं जो जौहरी है, जिसके हाथ में आदमी पड़ जाए तो सोना हो जाए, मिट्टी
छू दे तो सोना हो जाए। वही काम तो यहां किया जा रहा है। तुम्हारे भीतर की मिट्टी
को सोना बनाना है। तुम्हारे भीतर जो प्रेम है, उसे धर्म
बनाना है। तुम्हारे भीतर अभी जो अंधेरा है, उसको रोशनी में
परिवर्तित करना है। इसी कीमिया में जो दीक्षा है, उसका मैं
संन्यास कहता हूं।
तू कहती है--
खुदा को मनाने को मैं सजदे करूं
मगर सनम रूठ जाए तो मैं क्या करूं?
सजदों की जरूरत ही नहीं है। झूठे खुदाओं के सामने सजदे की जरूरत होती
है। झूठे खुदा के सामने प्रार्थनाएं करनी होती हैं। पत्थरों के सामने प्रार्थनाएं
करनी होती हैं, पत्थरों के सामने सिर झुकाने होते हैं। सच्चे खुदा से
तो प्रेम हो जाता है। सच्चा खुदा तो सनम ही है। और वहां तो रूठना, मनाना, दोनों मजे की बातें हैं। वहां तो रूठने में
भी रस है। वहां तो रूठना भी खेल है। वहां तो रूठने में कोई विरोध नहीं है।
तू पूछती है--
मगर सनम रूठ जाए तो मैं क्या करूं?
तू भी रूठ! प्रेम की दुनिया में रूठना कुछ बुरी बात नहीं है। प्रेम की
दुनिया में रूठना तो कला है।
और ऊषा, स्त्री होकर तू मुझसे पूछती है! यह तो सनम मुझसे
पूछेंगे, तू क्या फिकिर करती है? यह तो
सवाल आदमी के सामने खड़ा होता है। स्त्रियां तो जन्म से ही जानती हैं कि प्रेमी रूठ
जाए तो उसके कैसे मनाना। वे तो एक क्षण में मना लेती हैं। उसमें कुछ मामला ही नहीं
है। स्त्रियों के लिए मनाना पुरुषों को इतनी सुगम बात है जिसका हिसाब नहीं। असली
कठिनाई तब खड़ी होती है जब स्त्री रूठ जाती है। तब पुरुष बिलकुल सूझ-बूझ के बाहर हो
जाता है। लाख सिर पटके, कुछ हल नहीं होता समझ में आता उसे।
पुरुष से मार-पीट करनी हो तो कर सकता है, मगर मनाना उसको आता
नहीं, वह उसके स्वभाव में नहीं। उसकी समझ में ही नहीं आता अब
क्या करूं?
और सभी भक्त, जो परमात्मा को प्रेम में देख जाते हैं, स्त्रैण हे जाते हैं। तुमने संतों की वाणी में कई बार यह अनुभव किया होगा
कि जब भी वे प्रेम की ठीक-ठीक भाषा में गुनगुनाते हैं, तो
अपने को तत्क्षण स्त्रैण भाषा में बोलने लगते हैं। कबीर कहते हैं: मैं तो राम की
दुल्हनिया। भक्ति तो स्त्रैण है। और जो भक्ति में डूबा, उसे
स्त्री की सारी कला आ जाती है। उसे रूठना आ जाता है, उसे
मनाना आ जाता है। परमात्मा खुद उसके पीछे चलता है मनाता उसे। कबीर ने कहा--
हरि लागे पाछे फिरैं, कहत कबीर कबीर।
क्या गजब की बात कही है! कबीर जैसे हिम्मतवर लोग ही ऐसी बात कह सकते
हैं--हरि लागे पाछे फिरैं, कहत कबीर कबीर; और हम सुनते ही
नहीं! कि हम रूठ गये हैं! कि अब मनाओ जी! अब परमात्मा पीछे लगा फिर रहा है
कहते-कहते कि कबीर, कहां जाते? अरे,
सुनो भी, कहां जाते? भक्त
का भगवान का मनाना नहीं पड़ता, भगवान ही भक्त को मनाता है।
भक्ति की ऐसी महिमा है, ऐसी कला है। मगर भक्ति सच्ची होने
चाहिए।
सच्ची भक्ति विश्वास से पैदा नहीं होती, सच्ची भक्ति ध्यान से
पैदा होती है। सच्ची भक्ति विश्वास से पैदा नहीं होती, सच्ची
भक्ति ध्यान से पैदा होती है। सच्ची भक्ति तो जैसे-जैसे तुम शांत होओ, मौन होओ, तब पैदा होती है। जैसे मौन, जैसे शांत, वैसे ही आनंद झरने लगता है। बरखा होने
लगती है अमृत की। और उसी अनुभव में परमात्मा से प्रेम जगता है।
अधिकतर लोग तो या तो भय के कारण परमात्मा की पूजा करते हैं कि कहीं
नरक में न सड़ना पड़े, या लोभ के कारण, कि स्वर्ग में
अप्सराओं का मजा लूटेंगे। बस, ये दो तरह के लोग हैं। भक्त तो
प्रेम में है। वहां कहां भय, कहां लोभ? उसे बैकुंठ नहीं चाहिए, उसे स्वर्ग नहीं चाहिए,
उसे मोक्ष नहीं चाहिए--उसे कुछ भी नहीं चाहिए। उसे तो इतना बहुत है
जो परमात्मा ने दिया है। जरूरत से ज्यादा है; अपनी पात्रता
से ज्यादा है, अपनी योग्यता से ज्यादा है। वह अनुग्रह के बोझ
से दबा जा रहा है। वह सजदा नहीं करता, वह तो अनुग्रह के बोझ
से झुक जाता है, जैसे जब फूल इतने भर जाते हैं डाली पर डाली
झुक जाती है। करे क्या! कोई सजदा थोड़े ही कर रही है डाली, मगर
इतने फूल लद गये, ऐसी बहार आयी, ऐसा
बसंत आया, ऐसे फूल की झाड़ियां झुक गयी कि शाखाएं झुककर जमीन
से लग गयी। वैसा ही भक्त भी सजदा करता है। वह सजदा नहीं है, वह
प्रार्थना नहीं है, अनुग्रह से झुक-झुक जाता है। इतने फूल
खिलते हैं, आनंद के, इतना रस भर जाता
है भीतर, इतना बोझिल हो जाता है रस से, झुकना ही पड़ता है। उस झुकने की बात और है। उस झुकने का मजा और है। वही
सच्ची प्रार्थना है, जो आनंद से उत्पन्न होती है।
जहां मांग है, वहां प्रार्थना नहीं। जहां धन्यवाद है, मात्र धन्यवाद है, वहीं प्रार्थना है।
आज इतना ही।
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