सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
ठहरो, विराम में आओ—प्रवचन-ग्याहरवां
दिनांक 31 जनवरी, सन्
1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह की ते काफी इस प्रकार है--
तंग छिदर नहीं विच तेरे, जिथे कख न इक समांवदा ए।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा ए।
जिवें ख्वाब दा खयाल होवे सुत्तियां नूं, तरहां तरहां दे रूप दिखांवदा ए।
बुल्लाशाह न तुझ थीं कुझ बाहर, तेरा भरम तैनूं भरमांवदा ए।
अर्थात, हे प्यारे, तू इतना तंग है कि तुझमें कोई छिद्र झरोखा नहीं, जिसमें
एक तिनका भी नहीं समा सकता है।
ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है? अनहोना नजर आ रहा है।
जिस प्रकार सोए हुओं को ख्वाब के खयाल होते हैं, ऐसे ही तरहत्तरह के रूप दिख रहे हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं कि तुझसे कुछ भी बाहर नहीं है, किंतु तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।
भगवान, निवेदन है कि
बुल्लेशाह की इस काफी को हमें समझाएं।
ऊषा,
मनुष्य एक अद्वितीय स्थिति है। और ध्यान रखना शब्द--स्थिति। एक जगत है
मनुष्यों के नीचे पशुओं का। वे पूरे ही पैदा होते हैं; उन्हें जो होना है, वैसे ही पैदा होते हैं। और एक
जगत है मनुष्य के ऊपर बुद्धों का। उन्हें जैसा होना है वे हो गए हैं, अब कुछ होने को नहीं बचा। और दोनों के मध्य में मनुष्य की चिंता का लोक
है। उसे जो होना है अभी हुआ नहीं; जो नहीं होना है वह अभी
है। इसलिए तनाव है, खिंचाव है।
पीछे की तरफ खींचता है पशुओं का लोक, पक्षियों का लोक,
वृक्षों का लोक, नदी-पहाड़ों का लोक। आगे की
तरफ खींचता है बुद्धों का लोक, जिनों का लोक, तीर्थंकरों का लोक, अवतारों का लोक। दोनों आकर्षण
प्रबल हैं। पीछे के आकर्षण का बल यह है कि वह हमारा अनुभव है--अचेतन में दबा हुआ।
उन सारी योनियों से हम यात्रा करके आए हैं, वे जानी-मानी हैं,
परिचित हैं; उनमें लौट जाना आसान मालूम होता
है।
इसीलिए शराब और शराब जैसे मादक द्रव्यों का इतना प्रभाव है। शराब की खूबी
यही है कि थोड़ी देर को तुम्हें तुम्हारी आदमियत से नीचे गिरा देती है; तुम्हें फिर वापस पशुओं के जगत का हिस्सा बना देती है--वही शांति, वही सन्नाटा, वही निश्चिंत भाव। सुखद मालूम होता है।
लेकिन वापस तो लौटना ही होगा। थोड़ी-बहुत देर नशे में डूब कर फिर वहीं लौट आओगे
जहां थे--और भी ज्यादा चिंताओं में। क्योंकि जितनी देर तुम बेहोश रहे, चिंताएं बढ़ती रहीं। चिंताएं तुम्हारी बेहोशी की फिक्र नहीं करतीं। फिर
रोज-रोज ज्यादा शराब, ज्यादा मादक द्रव्य लेने होंगे,
क्योंकि तुम उनके अभ्यस्त होने लगोगे। लोग इतने अभ्यस्त हो सकते हैं
कि तुम्हें पता ही न चले कि वे पीए हुए हैं।
मेरे एक मित्र हैं। पुराने पियक्कड़ हैं, गहरे पियक्कड़ हैं।
उनकी शादी हुई। पांच साल बाद उनकी पत्नी को पता चला कि वे शराब पीते हैं, क्योंकि एक दिन घर वे बिना पीए आ गए। जिस दिन बिना पीए आए उस दिन पता चला।
रोज पीकर आते थे तो बिलकुल स्वाभाविक मालूम होते थे। बिना पीए आए तो थोड़े डगमगाते
थे, थोड़े अस्तव्यस्त थे, थोड़े बेचैन
थे। जिस दिन बिना पीए आए उस दिन पत्नी को शक हुआ कि कुछ गड़बड़ है।
मैं उनसे वर्षों से परिचित हूं। कितना ही उन्हें पिला दो, तुम ऊपर से जांच करके बता नहीं सकते कि वे पीए हुए हैं, अभ्यस्त हो गए। शरीर ने इस नए रसायन को सीख लिया।
और फिर, लाख भूल जाओ, भूलने से चिंता
मिटती नहीं। चिंता तो अपनी जगह खड़ी है। और चिंता मनुष्य की दुश्मन भी नहीं है,
उसकी मित्र है। चिंता का कांटा ही तो उसे आगे बढ़ाता है। वही तो उसकी
चुनौती है। ऋग्वेद के सोमरस से लेकर आल्डुअस हक्सले के एल. एस.डी. तक आदमी ने
निरंतर इस बात की खोज की है कि मैं वापस कैसे लौट जाऊं। कवियों के मन में बहुत
आकर्षण होता है पक्षियों जैसे आकाश में उड़ने का--मुक्त गगन! फूलों जैसे सूरज में
खिलने का! वृक्षों की हरियाली, नदियों का कल-कल नाद! सागर
में उठते तूफान और आंधियां! आकाश में गरजते बादल और कड़कती बिजलियां! और कवि आतुर
हो आता है--लौट चले पीछे को! यह आकस्मिक नहीं है कि कवि, चित्रकार,
संगीतज्ञ आमतौर से मादक द्रव्यों में उत्सुक हो जाते हैं। इसके पीछे
कारण है। वे पीछे लौटना चाहते हैं। और पीछे लौटने का एक ही उपाय है: हम कैसे भूल
जाएं उस जगह को जहां कि हम हैं! मगर समय में पीछे लौटा ही नहीं जा सकता।
एक बाप अपने छोटे-से बेटे को समझा रहा था नेपोलियन का प्रसिद्ध वचन कि
इस जगत में कुछ भी असंभव नहीं है। उसके बेटे ने कहा, रुको, एक मिनट रुको, मैं अभी आया। मैं अभी सिद्ध करता हूं
कि एक चीज निश्चित असंभव है। मैं बहुत दिन से करके देख रहा हूं, संभव होती ही नहीं।
वह भागा गया स्नानगृह में और वहां से टुथपेस्ट की डब्बी ले आया।
टुथपेस्ट के टयूब को निकाल कर उसने जोर से पिचका कर टुथपेस्ट बाहर निकाल दिया और
अपने बाप को कहा, अब इसको फिर भीतर करके दिखा दो, तो मैं मान लूंगा कि नेपोलियन ठीक कहता है कि जगत में कुछ भी असंभव नहीं।
मैं तो बहुत कोशिश करके हार चुका। जो बाहर आ गया सो गया, फिर
भीतर नहीं जाता।
इस छोटे-से बच्चे ने अपने ढंग से एक महत्वपूर्ण बात कह दी। छोटे बच्चे
कभी-कभी बड़ी महत्वपूर्ण बात कह देते हैं। इसने यह कह दिया कि कुछ चीजें वापस नहीं
लौटतीं। और समय तो निश्चित ही वापस नहीं लौटता है। कोई उपाय नहीं है समय की यात्रा
में पीछे जाने का। तो आदमी आगे ही जा सकता है, पीछे नहीं। पीछे जाने
की चेष्टा में जितना समय गंवाया, व्यर्थ गंवाया। उतना समय
अगर हम आगे के पड़ाव की तलाश करने में लगाएं तो चिंताओं के पार हो सकते हैं,
चिंताओं का अतिक्रमण हो सकता है।
मनुष्य के भीतर बुद्ध होने की क्षमता है। आया है पशुओं के जगत से, मगर लेकर आया है गीत बुद्धों का। गाना है वही गीत। तभी संताप मिटेगा। तभी
चिंता टूटेगी। तभी यह बिखराव हटेगा। हम इस दुनिया में जरूर हैं, मगर हम इस दुनिया के नहीं हैं। हमें आगे जाना है। हमें पार जाना है। पार
का बुलावा प्रतिपल आ रहा है। दूर का किनारा पातियों पर पातियां भेज रहा है। कब तक
अनसुनी करोगे? कब तक पीठ किए रहोगे?
बुल्लेशाह उसी की याद दिला रहे हैं--उस लोक की, जो हमारा वास्तविक लोक है; जहां पहुंच कर ही हम
तृप्त हो सकते हैं। हम जो हैं वही हो जाएं, जो हमारी नियति
है, जो हमारा अंतरतम स्वभाव है, जो
हमारी प्रकृति है--वही पूरे रूप से खिल उठे तो जीवन आनंद की वर्षा हो जाए। नहीं तो
फिर सब भ्रम-जाल है। फिर सपनों में अपने को भरमाए रहो, भुलाए
रहो; नशों में अपने को डुबाए रहो। मगर जीवन में कोई गति न
होगी, कोई विकास न होगा। और एक दिन बहुत पछताओगे। और अक्सर
यूं होता है: फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गईं खेत!
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल
इस चमन में
अब अपना गुजारा
नहीं
चलना है, कहीं और चलना है!
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल
इस चमन में अब अपना गुजारा नहीं
बात होती गुलों तक तो सह लेते हम
अब तो कांटों पे भी हक हमारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
दी सदा दार पर और कभी तूर पर
किस जगह मैंने तुझको पुकारा नहीं
ठोकरें यूं खिलाने से क्या फायदा
साफ कह दो कि मिलना गवारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
गुलसितां को लहू की जरूरत पड़ी
सबसे पहले ही गर्दन हमारी कटी
फिर भी कहते हैं मुझसे ये अहले-चमन
ये चमन है हमारा तुम्हारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
जालिमो अपनी किस्मत पे नाजां न हो
दौर बदलेगा ये वक्त की बात है
वो यकीनन सुनेगा सदाएं मेरी
क्या तुम्हारा खुदा है हमारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
आज आए हो तुम कल चले जाओगे
ये मोहब्बत को अपनी गवारा नहीं
उम्र भर का सहारा बनो तो बनो
दो घड़ी का सहारा सहारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
अपनी जुल्फों को रुख से हटा लीजिए
मेरा जौके-नजर आजमा लीजिए
आज घर से चला हूं यही सोच कर
या तो नजरें नहीं या नजारा नहीं।
ऐ मेरे हमनशीं...
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल
इस चमन में अब अपना गुजारा नहीं
बात होती गुलों तक तो सह लेते हम
अब तो कांटों पे भी हक हमारा नहीं
जितने जल्दी यह बात समझ में आ जाए उतना शुभ है कि यहां कुछ भी हमारा
नहीं है। यह पड़ाव है, मंजिल नहीं। रात भर विश्राम कर लो, लेकिन सुबह चल पड़ना है। खोजना है, तलाशना है। जीवन
केवल उनका है जिनकी अंतरात्मा में अन्वेषण है। अस्तित्व केवल उनका है जो सत्य की
निरंतर शोध में लगे हैं, जिन्होंने एक क्षण को भी यह बात
भुलाई नहीं है कि हम कहीं से आए हैं और हमें कहीं जाना है।
माना कि हमें पता नहीं है कहां से हम आए हैं और माना यह भी कि हमें
पता नहीं कहां हमें जाना है, लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि एक
दिन था हम यहां नहीं थे और यह भी बात उतनी ही सुनिश्चित है कि एक दिन फिर होगा और
हम यहां नहीं होंगे।
रोज तो तुम नए जन्मते बच्चों को देखते हो और रोज तो तुम बूढ़ों की
अर्थियां उठते देखते हो। कब तुम्हें समझ में आएगा कि जो जन्मा है वह मरेगा! जो बना
है वह मिटेगा! यह बात दो घड़ी की है। यह ताश के पत्तों का घर है; अभी आया हवा का झोंका और अभी बिखर जाएगा। यह नाव कागज की है; चल भी न पाएगी और डूब जाएगी। इसने कभी दूसरा किनारा पाया नहीं है। इसके
पहले कि समय हाथ से व्यतीत हो जाए, इसके पहले कि जीवन का परम
अवसर यूं ही खो जाए कंकड़-पत्थर बीनने में, जाग जाना जरूरी
है।
बुल्लेशाह की यह काफी उसी जगाने की तरफ सुंदर इशारा है--
तंग छिदर नहीं विच तेरे, जिथे कख न इक समांवदा
ए।
तू इतना सूक्ष्म है, ऐ प्यारे, तू
इतना सूक्ष्म है सूक्ष्मातिसूक्ष्म कि तुझ में कोई छिद्र नहीं। कोई करना भी चाहे
छिद्र तो कर नहीं सकेगा।
मैंने सुना है कि एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता हुई, जिसमें अमरीका के कारीगरों ने एक इतना बारीक तार बनाया कि जो खाली नंगी
आंखों से देखा भी न जा सके; जिसे देखने के लिए भी यंत्रों की
जरूरत पड़े; जब तक खुर्दबीन से न देखो, दिखाई
भी न पड़े। और फिर उस तार को दूर-दूर देशों में भेजा कि है कोई कारीगर जो इसमें छेद
कर दे?
अब जो आंख से दिखाई ही न पड़े, उसमें छेद कैसे हो
सके और किस यंत्र से छेद हो सके? यंत्र और भी सूक्ष्म होना
चाहिए। लेकिन कहते हैं, जापान के कारीगरों ने उसमें छेद कर
दिया। चौंके बहुत अमरीकी, भरोसा न हुआ। मगर मानना ही पड़ा।
यंत्र साफ कह रहा था कि तार भी है और तार में छेद भी हो गया।
फिर यात्रा शुरू हुई। अब वे चाहते थे कि कोई अगर और बड़ा कारीगर हो तो
इस छिद्र के चारों तरफ एक वर्तुल बना दे। तार दिखाई पड़ता नहीं, छिद्र दिखाई पड़ता नहीं। न दिखाई पड़ने वाले तार में न दिखाई पड़ने वाला
छिद्र है, उसके चारों तरफ एक घेरा बनाना है, एक रेखा खींच देनी है, एक वर्तुल बनाना है। और
जर्मनी के कारीगरों ने वह भी कर दिया।
अब तो उन्होंने सोचा कि कहीं जाने से कोई प्रयोजन नहीं, लेकिन किसी ने कहा कि भारत में भी कारीगर होते हैं; बड़ा
प्राचीन देश है, शायद कोई कारीगर हो, मौका
एक देना चाहिए। तो वे भारत भी आए। और उल्हासनगर में सिंधी कारीगरों ने...और तो कोई
कारीगर इस देश में है ही नहीं। सिंधी कारीगर हैं। उन्होंने एक चमत्कार और कर दिया।
उन्होंने न दिखाई पड़ने वाले तार में किए गए न दिखाई पड़ने वाले छेद, न दिखाई पड़ने वाले छेद के चारों तरफ न दिखाई पड़ने वाले वर्तुल के चारों ओर
अंग्रेजी में साफ-साफ लिख दिया: मेड इन यू.एस.ए.।
अमरीकियों की आंखें तो फटी की फटी रह गईं। उन्होंने कहा कि यह तो
चमत्कार है ही, मगर तुम्हें यह कैसे पता चला कि यह यू.एस.ए. में बना?
उन्होंने कहा, यू.एस.ए. क्या तुम्हारे बाप का है? अरे यू.एस.ए. का अर्थ होता है, उल्हासनगर सिंधी
एसोसिएशन। किसी ने ठेका लिया है यू.एस.ए. का?
मगर यह जो आदमी है, इसमें सिंधी भी छेद न कर सकेंगे।
और सिंधी हार गया तो सब हार गए!
बुल्लेशाह कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। सिंधियों को
भलीभांति जानते रहे होंगे बुल्लेशाह, कि हे प्यारे, हे साईं, तू इतना तंग है, तू
इतना सूक्ष्मातिसूक्ष्म है कि तुझमें कोई छिद्र नहीं किया जा सकता। तुझमें एक
तिनका भी नहीं समा सकता है। तुझमें कभी कोई प्रविष्ट न हुआ है न हो सकेगा।
लेकिन यूं अगर देखो तो सारी दुनिया तुममें प्रविष्ट हो गई है।
तुम्हारे भीतर बाजार भरे हुए हैं। तुम्हारे भीतर दुकानें खुली हुई हैं। मंदिर हैं, मस्जिद हैं, काबा है, कैलाश है,
गिरनार है। तुम्हारे भीतर क्या नहीं है! और यूं बुल्लेशाह कहते हैं
कि एक तिनका भी न समा सके, तुम इतने सूक्ष्मातिसूक्ष्म हो!
फिर यह सारा संसार जो तुम्हारे भीतर बना हुआ है! कितने विचार कि गिनने चलो तो गिन
न पाओ! और कितनी कल्पनाएं कि तौलना चाहो तो तौल न सको! और कितने सपने, कतारों पर कतार, कतार अंदर कतार! उघाड़ते चलो और कभी
उघाड़ न पाओ। कितनी स्मृतियां, जैसे कोई प्याज के छिलकों को
छीलता चले, छीलता चले! हर स्मृति के भीतर और स्मृति। और
प्याज तो एक दिन चुक भी जाए, एक घड़ी ऐसी आए कि सारी पर्तें
अलग हो जाएं और हाथ में खालीपन बचे, लेकिन स्मृतियों को
उघाड़ते चलो, उघाड़ते चलो, कभी खाली न कर
पाओगे। तुम्हारा स्वरूप इतना सूक्ष्म है कि उसमें एक तिनका भी न समा सके। फिर यह
सारी दुनिया कहां समा गई है?
बुल्लेशाह कहते हैं: यह दुनिया तुममें समाई नहीं है, सिर्फ तुम्हें खयाल है। सिर्फ तुम्हें खयाल है!
एक फकीर हुआ--नागार्जुन। बौद्ध फकीर था। इस पृथ्वी पर जो थोड़े-से
अनूठे लोग हुए हैं, उन थोड़े-से लोगों में नागार्जुन भी एक है। उसके पास
एक आदमी ने आकर कहा कि मुझसे संसार नहीं छूटता है, मैं क्या
करूं?
नागार्जुन ने उसे गौर से देखा और कहा, तूने भी गजब की बात
कही! मैं पकड़ना चाहता हूं और पकड़ नहीं पाता हूं और तू कहता है कि तू छोड़ना चाहता है
और छूटता नहीं! हम तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए। तूने भी कैसा सवाल उठा दिया! मैं लाख
उपाय किया हूं पकड़ने का और पकड़ में नहीं आता और तू कहता है कि छूटता नहीं है। तू
एक काम कर। यह सामने मेरे गुफा है, तू इसमें भीतर बैठ जा और
तीन दिन तक तू एक ही बात की रट लगा...।
बातचीत में नागार्जुन ने पता लगा लिया था कि वह काम क्या करता है।
अहीर था। भैंसों का दूध बेचता था। तो नागार्जुन ने पूछा था, तुझे सबसे ज्यादा प्रेम किससे है? पत्नी से है,
बच्चे से है? उसने कहा, मुझे
किसी से नहीं है, मुझे अपनी भैंस से प्रेम है।
तो नागार्जुन ने कहा, तू एक काम कर। यह सामने की गुफा
में अंदर चला जा, भीतर बैठ जा, तीन दिन
तक खाना-पीना बंद, बस एक ही बात सोच कि मैं भैंस हूं,
मैं भैंस हूं।
उसने कहा, इससे क्या होगा?
तीन दिन के बाद तय करेंगे। तीन दिन में तेरा कुछ बिगड़ा नहीं जा रहा
है। जिंदगी यूं ही चली गई, तीन दिन और समझना मुझे दे दिए।
सीधा-सादा आदमी था। चला गया गुफा में। और सच में ही भैंस से उसे प्रेम
था; वही उसकी जिंदगी थी, वही उसका संसार, वही उसकी धन-दौलत, वही उसकी प्रतिष्ठा। यूं भी भैंस
से बिछड़ गया था तो बड़ी तकलीफ हो रही थी। इस बात से बहुत राहत भी मिली कि मैं भैंस
हूं। दोहराता रहा, दोहराता रहा, तीन
दिन सतत दोहराया। सीधा भोला-भाला आदमी।
तीन दिन बाद नागार्जुन उसके द्वार पर गया और कहा कि बाहर आ! उसने
निकलने की कोशिश की, लेकिन निकल न सका। नागार्जुन ने कहा, क्या अड़चन है? निकलता क्यों नहीं?
उसने कहा, निकलूं कैसे? ये जो मेरे सींग
हैं, गुफा का दरवाजा छोटा, सींग
अटक-अटक जाते हैं।
न कहीं कोई सींग थे, न कुछ अटक रहा था। लेकिन वह आदमी
अटका हुआ था। नागार्जुन भीतर गया, उसे खूब हिलाया, झकझोरा, कहा, आंख खोल! तीन दिन
तक निरंतर दोहराने से कि मैं भैंस हूं, भ्रांति खड़ी हो गई।
गौर से देख! यह आईना रहा, इसमें अपनी तस्वीर देख। कहां सींग
हैं?
उस आदमी ने आईना देखा--न कोई सींग थे, न कोई भैंस थी। हंसने
लगा। नागार्जुन के चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि खतम हुआ। मैं सोचता था, संसार छूटता नहीं। आप ठीक कहते थे, पकड़ना भी चाहो तो
कैसे पकड़ोगे? सींग हैं ही नहीं, सिर्फ
खयाल है, सिर्फ विचार हैं, सिर्फ
कामनाएं हैं, सिर्फ वासनाएं हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं: "ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है, अनहोना नजर आ रहा है।'
आदमी को सींग ऊग गए हैं--भैंस के सींग! अनहोना नजर आ रहा है।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे।
जरा गौर से तो देख, इस सारे संसार का स्रोत कहां है?
यह है भी या नहीं? इसकी जड़ें भी हैं कहीं या
नहीं? या सिर्फ एक कल्पना का वृक्ष है, कल्पवृक्ष है, जो होता नहीं, सिर्फ
मान लिया जाता है। और मान लो तो हो जाता है। हम मान्यता से एक संसार खड़ा कर लेते
हैं।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा
ए।
हुआ नहीं है और दिखाई पड़ रहा है। ढूंढ कर देख कि इस जहान का ठौर कहां
है, अनहोना नजर आ रहा है।
यह वचन तो बड़ा प्यारा है: अनहोना नजर आ रहा है! जो नहीं होना था, जो नहीं हुआ है, जो नहीं हो सकता है, वह लगता है कि हो गया है। किन-किन चीजों का मोह हमें पकड़ लेता है!
कैसे-कैसे पागल मोह हमें पकड़ लेते हैं! हम ऐसी जंजीरों में बंधे हैं जो हैं ही
नहीं। लोहे की तो छोड़ ही दो, फूलों की जंजीरें भी नहीं हैं।
जार्ज गुरजिएफ ने लिखा है कि वह बचपन में एक छोटे-से खानाबदोशों के
कबीले में रहा। उस खानाबदोश कबीले की औरतें एक तरकीब जानती थीं। क्योंकि खानाबदोश
कबीले, जैसे हमारे यहां बलूची आते थे। पाकिस्तान बन गया तो
बलूची आने बंद हो गए। उनके न आने से एक रौनक चली गई। वे नहीं आते हैं तो कुछ कमी
हो गई।
बलूची आवारागर्द थे, घुमक्कड़ थे। उनकी औरतें मजबूत
थीं। घुमक्कड़ होना हो तो औरतों को मजबूत होना ही पड़े। औरतें कमजोर हो गईं घरवाली
हो कर। घर में बंद हो गईं, कमजोर हो गईं। बलूची की औरत
तुम्हारे दो-चार मर्दों को पानी पिला दे। बलूची औरत किसी का हाथ पकड़ ले तो छुड़ाना
मुश्किल हो जाए।
मुझे याद है, जब मैं छोटा था, मेरे गांव में
बलूची आते थे तो लोग डरते थे। अच्छी-अच्छी चीजें बेचने लाते थे, लेकिन उनसे खरीदना मुश्किल था। क्योंकि उनसे अगर खरीद-फरोख्त की...छोटे-से
चक्कू के दस रुपए बताएंगे। अब कोई दस रुपए बताएगा दाम तो तुम बहुत भी हिम्मत करोगे
तो कम से कम दो रुपए तो कहोगे। वह बलूची स्त्री राजी हो जाएगी कि ठीक है, दो रुपए सही। हाथ पकड़ लेगी। हाथ छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। भीड़ इकट्ठी कर
लेगी। दो रुपए निकलवा कर रख लेगी। चाकू मुश्किल से होगा आठ आने का, चार आने का।
बलूची स्त्रियां मजबूत थीं। सभी खानाबदोश कबीलों की औरतें मजबूत होती
हैं। होना ही पड़ेगा। ऐसे हर कोई बलात्कार कर दे तो नहीं चलेगा। रोज चलना है, यात्रा करनी है। और दिन भर काम में लगे रहना है। इस तरह नहीं चलेगा,
जैसा कि घूंघट मार कर बैठ गए।
गुरजिएफ ने लिखा है: मैं एक कबीलों में रहा, जो खानाबदोश था।
खानाबदोश बड़ा प्यारा शब्द है। खानाबदोश का अर्थ होता है, जिसका मकान अपने कंधे पर है। खाना यानी मकान। इसलिए कहते हैं--शराबखाना,
मयखाना, दवाखाना। खाना यानी मकान। और
बदोश...दोश का अर्थ होता है: कंधा। खानाबदोश का अर्थ होता है, जिसका मकान अपने कंधे पर; जो हमेशा चल रहा है;
जो चलता ही रहता है; जो रुकता ही नहीं;
जो कहीं मजबूत मकान नहीं बनाता, तंबू बांधता
है। अभी बांधा और सांझ उखड़ जाएगा। सांझ बांधा और सुबह उखड़ जाएगा। सच पूछो तो हम भी
सब खानाबदोश हैं संसार में। सुबह बांधा तंबू, सांझ उखड़
जाएगा।
गुरजिएफ ने कहा है कि उस कबीले की औरतें एक तरकीब जानती थीं, जो मुझे बहुत हैरान करती थी। वह तरकीब यह थी कि वे अपने बच्चों को--दिन भर
तो उन्हें काम करना है, बाजार में सामान बेचना है, तरहत्तरह के धंधे करने हैं--वे अपने बच्चों को क्या करें? अपने बच्चों को बिठा देतीं, खड़िया मिट्टी से उन
बच्चों के चारों तरफ एक सफेद लकीर खींच देतीं और बच्चों से कह देतीं कि इस लकीर के
बाहर तुम निकल न सकोगे; लाख उपाय करोगे और निकल न सकोगे।
बचपन से ही बच्चों को यह बात सिखाई जाती।
और बच्चों की तो बात और, गुरजिएफ ने लिखा है
कि खानाबदोश औरत अपने पति के चारों तरफ लकीर खींच देती और कह देती कि बस इसके बाहर
नहीं निकल सकोगे। गुरजिएफ तो बड़ा हैरान हुआ। बच्चा समझ लो कि बच्चा है, मान गया। लेकिन जिसने बीस-पच्चीस साल तक यह बात मानी हो, उसके भीतर गहरी बैठ गई। वह अब पति ही सही, मगर भीतर
तो वही बच्चा है; और कहने वाली आज मां न सही, पत्नी है, मगर है तो वही औरत, है
तो वही स्त्री। वही बल, वही धमकी--बाहर निकल न सकोगे! बाहर
निकले कि मुसीबत में पड़ जाओगे, बीमार पड़ जाओगे, लंगड़े हो जाओगे, अंधे हो जाओगे। इस तरह की सारी
धमकियां।
गुरजिएफ ने देखा कि जवान आदमी, बूढ़े आदमी के चारों
तरफ लकीर खींच दें औरतें, वे बाहर न निकल सकें। निकलने की
कोशिश करें तो यूं हो जैसे कि कोई अदृश्य दीवार, कांच की कोई
पारदर्शी दीवार उन्हें रोक लेती है। बस वे लकीर तक आएं, हाथ
से टटोलें, जैसे कोई चीज रोक रही है और वापस लौट जाएं।
गुरजिएफ ने कहा है, वहां मुझे पहली बार समझ में आया
कि आत्म-सम्मोहन क्या है। और वहीं मैंने समझा कि यह संसार का उपद्रव क्या है।
हम सब आत्म-सम्मोहित हैं। जिस चीज को हमें धन बता दिया गया, हमने धन मान लिया। और जिस चीज को हमें पद बता दिया गया, हमने पद मान लिया। जिस चीज को हमसे कहा गया बहुमूल्य है, हमने बहुमूल्य मान लिया। और कंकड़-पत्थरों को हीरों की तरह पूज रहे हैं। दो
कौड़ी की चीजों के पीछे जिंदगी भर दौड़ रहे हैं।
पूछते हैं बुल्लेशाह: ढूंढ वेख--अरे, जरा ढूंढ के तो
देख--जहां दी ठौर किथे।
यह तेरा सारा संसार, इसका स्रोत कहां है? इसका स्रोत आत्म-सम्मोहन में है।
अनहुंदड़ा नजरी आंवदा ए।
जो हुआ ही नहीं है, वह दिखाई पड़ रहा है। एक चमत्कार
हो रहा है। जो नहीं है वह दिखाई पड़ रहा है।
कैदे-औहाम से आजाद हुए फिक्रो-नजर
जल उठे तीरा-ओत्तारीक दिमागों में चिराग
भ्रमों की कैद से विचार और दृष्टि मुक्त हो जाएं तो अभी तुम्हारे भीतर
का चिराग जल जाए।
कैदे-औहाम से आजाद हुए फिक्रो-नजर
जल उठे तीरा-ओत्तारीक दिमागों में चिराग
आखिरशः चांद-सितारों में भटकने वाले
पा गए खाक के जर्रों में ही मंजिल का सुराग
चांदत्तारों में खोजने मत जाओ, कहीं दूर नहीं है
सुराग। राज की बात यहीं है, तुम्हारे आस-पास है।
कैदे-औहाम से आजाद
हुए फिक्रो-नजर
जरा अपने अंधविश्वासों को हटा कर रख दो। आंखों पर चढ़े हुए जालों को
काट दो। ये मकड़ी के जाल जो तुमने अपने चारों तरफ खुद ही बुन लिए हैं, इनको जिस दिन चाहो तोड़ दे सकते हो।
कैदे-औहाम से आजाद हुए फिक्रो-नजर
जल उठे तीरा-ओत्तारीक दिमागों में चिराग
बस फिर अंधेरे से भरे हुए अंतर-कक्ष में चिराग जल उठते हैं।
आखिरशः चांद-सितारों में
भटकने वाले
और दूर मत भटको, कहीं चांदत्तारों पर रोशनी नहीं
है। रोशनी का राज तुम्हारे भीतर है।
आखिरशः चांद-सितारों में भटकने वाले
पा गए खाक के जर्रों में ही मंजिल का सुराग
यहीं, अभी और यहीं मंजिल का रास्ता पाया जा सकता है। और अगर
यहीं नहीं पाया जा सकता है तो फिर कहीं नहीं पाया जा सकता।
एक आदमी ने अपनी कार को रोका एक चौराहे पर। झाड़ के नीचे बैठे एक बूढ़े
से पूछा--जो कि तमाखू फांक रहा था--कि बाबा, स्टेशन की तरफ जाने
वाला रास्ता कौन है? बूढ़ा तो तमाखू मलता ही रहा। और उसके ढंग
से ऐसा लगा--बामुश्किल उसने आंखें खोलीं--कि तमाखू ही नहीं, कुछ
और भी चढ़ाए बैठा हो। अफीमची था, पीनक में था। उसने कहा,
स्टेशन! स्टेशन यानी क्या?
कार का मालिक तो हैरान हुआ कि जिस आदमी को यही पता नहीं कि स्टेशन
यानी क्या, वह क्या खाक रास्ता बताएगा! मगर कोई और दूसरा नजर भी
न आता था, तो समझाना पड़ा कि स्टेशन वह जहां रेलगाड़ी में लोग
बैठते हैं। उसने कहा, हां, ठीक। यहां
से बाएं जाओ, मील भर के बाद दाएं मुड़ जाना। नहीं-नहीं,
इस रास्ते से नहीं पहुंच सकते।
तो उस आदमी ने पूछा कि फिर वही रास्ता बताओ न जिससे पहुंच सकते हैं।
तो उसने कहा, यहां से दाएं तरफ जाओ। एक फर्लांग के बाद फिर एक
चौराहा पड़ेगा, उसमें फिर दाएं तरफ मुड़ जाना। फिर एक चौराहा
पड़ेगा। नहीं-नहीं, इससे भी नहीं जा सकते। यह तीसरा रास्ता
चुनो। और बात फिर वहीं आई कि नहीं-नहीं, इससे भी नहीं जा
सकते। चौथा रास्ता और भी लंबा था। काफी मोड़ आए और काफी मुड़ना पड़ा और आखिर में उसने
कहा कि नहीं-नहीं। और चार ही रास्ते थे।
आखिर घबड़ा गया वह गाड़ी का मालिक। उसने कहा, तो इसका क्या मतलब? स्टेशन पहुंच ही नहीं सकते?
उसने कहा कि अगर तुम मुझसे पूछो तो यहां से तो स्टेशन जाने का कोई
उपाय ही नहीं। नहीं तो मैं खुद ही न चला गया होता। चार ही रास्ते हैं और किसी से
भी जाने का कोई उपाय नहीं।
अगर यहां से वहां जाने का कोई उपाय नहीं है तो फिर कहां से जाओगे? उपाय तो यहीं से होना चाहिए--यहीं से है--पा गए खाक के जर्रों में ही
मंजिल का सुराग।
सवादे-मर्ग में आखिर हयात ढूंढ ही ली
यह मृत्यु की नगरी है--सवादे-मर्ग!
सवादे-मर्ग में आखिर हयात ढूंढ ही ली
गुनाहगारों ने राहे-नजात
ढूंढ ही ली
यह जीवन क्या है? एक मुर्दों की नगरी है। इसको
बस्ती न कहो, इसे मरघट कहो। कोई आज मरा, कोई कल मरा, कोई परसों मरा, कोई
पहले मर चुका, कोई पीछे मर चुका। कतार लगी है मरने वालों की।
जिसका नंबर आया, चला। मुसाफिरखाना है। लेकिन इसी मुर्दों की
नगरी में भी खोजने वालों ने, चाहे वे कितने ही गुनाहगार
क्यों न रहे हों, अगर खोजने वाले थे तो उन्होंने मुक्ति का
मार्ग खोज लिया है।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि पंडित भला चूक जाएं...चूकते हैं, क्योंकि पंडितों को यह भ्रम होता है कि हम तो जानते ही हैं, इसलिए खोजें ही क्यों? पापी अक्सर पहुंच जाते हैं,
पंडित अक्सर चूक जाते हैं। क्योंकि पापी को तो यह पीड़ा होती है कि
कैसे पाऊं, कैसे खोजूं, क्या करूं,
क्या न करूं! कब तक इस दुख में रहूं? कब तक इस
दीनता में जीऊं? कब तक यह गुलामी और? कब
तक यह अंधेरा और?
सवादे-मर्ग में आखिर हयात ढूंढ ही ली
गुनाहगारों ने राहे-नजात
ढूंढ ही ली
यूं तो यह एक मुर्दों की बस्ती है। लेकिन यहां भी जिंदगी को खोजने
वाले लोग हो गए। मुर्दों की इस बस्ती में भी जिंदगी खोज ली। कब्रों में भी, जिन्होंने खिलाने थे, उन्होंने गुलाब के फूल खिला
लिए। और पापियों ने भी मुक्ति का मार्ग खोज लिया है। आखिर जिसने भी मुक्ति पाई है,
वह कभी न कभी पापी तो था ही। बुद्ध बुद्ध नहीं हुए थे तब तक तो पापी
थे ही। और महावीर जब तक महावीर न हुए थे तब तक तो पापी थे ही। पाप तो यूं है जैसे
रात। और बुद्धत्व तो यूं है जैसे सुबह। हर रात की सुबह है और हर सुबह के पीछे रात
है। इसलिए अपने पाप के बोझ से दब मत जाना।
इस दुनिया में अगर कोई चीज है जो रुकावट बन सकती है तो वह पांडित्य
है--थोथा पांडित्य। लेकिन पाप नहीं। पाप में क्या है? तुम पाप भी क्या करोगे? तुम्हारी औकात और हैसियत
कितनी? आदमी कर-कर के भी क्या पाप करेगा? इस चार दिन की जिंदगी में ये छोटे-से चार लमहे! क्या गुनाह कर लोगे?
और अगर गुनाह करोगे भी तो उसका बुनियादी कारण सिर्फ इतना ही है कि
तुम्हें अपना पता नहीं, इसलिए यहां-वहां भटक जाते हो। तुम
कसूरवार नहीं हो।
एक आदमी ने, अकबर की सवारी निकलती थी, अपने
छप्पर पर चढ़ कर अकबर को खूब गालियां दीं। कमबख्त से लेकर हरामजादे तक जो भी कह
सकता था कहा। बीच में और बातें भी कहीं जो नहीं कही जा सकतीं। सम्राट अकबर की
सवारी हाथी पर, शोभा-यात्रा, और यह
आदमी अपने छप्पर पर चढ़ कर गालियां बकने लगा। तत्क्षण पकड़ लिया गया। दूसरे दिन
अदालत में मौजूद किया गया। वह एकदम अकबर के पैरों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे माफ कर दें।
अकबर ने कहा कि यह मामला आसान नहीं। तुम्हारा अपराध संगीन है।
उस आदमी ने कहा, मेरा अपराध? क्या बातें करते हैं आप! क्या अपराध?
अकबर ने कहा, तुमने गालियां बकीं, बेहूदी
गालियां बकीं, हजारों लोगों के सामने बकीं।
वह आदमी कहने लगा, थोड़ा सोचें, मैं शराब पीए हुए था। मैं होश में न था। अब बेहोश आदमी ने जो काम किया है,
क्या होश में आए आदमी को उसकी सजा मिलेगी? गालियां
दी होंगी शराब ने, मैं क्यों देने चला! मैंने नहीं दीं।
अकबर ने सोचा और बात मान ली। अकबर ने कहा, यह बात तो ठीक है। तू तो दूसरा ही आदमी मालूम होता है--इतना विनम्र,
इतना सदाशय, इतना भोला-भाला। वे गालियां जरूर
शराब ने दी थीं।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने अगर अपनी मूर्च्छा में कुछ गुनाह किए हैं
तो तुमने थोड़े ही किए हैं, मूर्च्छा ने किए हैं। और जिस दिन जाग जाओगे, गुनाह समाप्त हो जाएंगे। तुमने न कभी किए थे और अचानक तुम पाओगे कि तुम अब
करना भी चाहो तो नहीं कर सकते हो। सिर्फ जाग जाने की बात है।
बागे-आलम पे हुए कितने खिजां के मलगार
जिंदगानी पे कई मौत ने छापे मारे
कभी यूनां से कभी रोम से तूफान उठे
वादी-ए-नील से उबला कभी खूनी सैलाब
आग भड़की कभी आतिशकदा-ए-फारिस से
जिंदगी शोलों में तपत्तप के निखरती ही गई
जितनी ताराज हुई और संवरती ही गई
घबड़ाओ न। यह तो इस जीवन के निखारने का उपाय है।
जिंदगी शोलों में तपत्तप के निखरती ही गई
जितनी ताराज हुई
और संवरती ही
गई
भूल-चूकों से मत डरना। भूल-चूकों से ही आदमी सीखता है। पापों से मत
घबड़ाना, क्योंकि पापों से ही प्रार्थनाएं उठती हैं। अगर डरना
किसी चीज से तो थोथे पांडित्य से डरना, क्योंकि थोथा
पांडित्य अहंकार उठाता है। और अहंकार ही दीवार बन जाती है। अहंकार से बड़ा आंख पर
कोई परदा नहीं। गुनहगार पहुंच जाएंगे, मगर तुम्हारे पंडित और
पुरोहित नहीं पहुंच सकते।
करना कुल इतना है कि अंधविश्वासों से, जो दूसरों ने तुम्हें
दे दिए हैं सब उधार और बासे, उनसे अपनी आंखों को रिक्त कर
लेना है, खाली कर लेना है।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा
ए।
"जरा ढूंढ कर तो देख कि जहान का ठौर कहां है,
अनहोना नजर आ रहा है।'
जो कभी हुआ ही नहीं, वह होता नजर आ रहा है। जो होना
नहीं चाहिए था, होता नजर आ रहा है। जो हो ही नहीं सकता,
होता नजर आ रहा है।
यह वचन बड़ा प्यारा है: अनहुंदडा नजरी आंवदा ए!
जिवें ख्वाब दा खयाल होवे सुत्तियां नूं
जैसे सोते समय सपने होते हैं।
तरहां तरहां दे रूप दिखांवदा ए।
और कितने तरह के रूप दिखाई नहीं पड़ते!
चीन का एक सम्राट, उसका इकलौता बेटा। बड़ा दुखी था,
क्योंकि बेटा मर रहा था। और चिकित्सकों ने कह दिया था, बचने का कोई उपाय नहीं। आज की रात आखिरी रात है। सुबह नहीं होगी। बूढ़ा बाप
उस रात सो न सका। अपने बेटे के पास ही बैठ कर रात भर उसे देखता रहा। फिर तो यह
चेहरा देखने को मिलेगा भी नहीं। लड़का बेहोश पड़ा है--सुंदर प्यारा राजकुमार! फूलों
पर पाला था उसे। सब तरह से सम्हाला था उसे। सम्राट की तो जैसे आंखों की रोशनी जा रही
है। बेटा नहीं मर रहा है, सम्राट ही मर रहा है। रात भर बैठा
रहा, लेकिन सुबह चार बजे होते-होते, बूढ़ा
आदमी, आंखों से आंसू झरते रहे, रोते-रोते
थक भी गया, झपकी खा गया। झपकी में उसने एक सपना देखा। सपना
देखा कि उसके बारह राजकुमार हैं--एक से एक सुंदर, एक से एक बुद्धिमान,
एक से एक बलशाली। और उसके बहुत-से स्वर्ण-महल हैं। और उसका
साम्राज्य इतना बड़ा है कि उसे खुद भी अपनी सीमाओं का कुछ पता नहीं। यात्रा इतनी
लंबी है कि कौन उन सीमाओं तक जाए!
और तभी उसकी पत्नी छाती पीट कर रोई, क्योंकि लड़के ने सांस
तोड़ दी। सम्राट ने आंख खोली। भौचक्का-सा बैठा रहा। फिर हंसने लगा। पत्नी समझी कि
पागल हो गया। बेटा मरे और कोई हंसे! इकलौता बेटा मरे और कोई हंसे! जिस पर सारी
नजरें थीं जिंदगी भर। क्योंकि वही तो मालिक होने वाला था साम्राज्य का। बाप तो
बूढ़ा हो गया, अब मरा, तब मरा। बेटे पर
ही सारी आकांक्षाएं टिकी थीं। उसकी मृत्यु पर बाप हंसे! पत्नी ने कहा, तुम्हें क्या हो गया है? हिलाया-डुलाया--होश में हो
कि पागल हो गए हो?
सम्राट ने कहा, नहीं, पागल नहीं हुआ। अब मैं यह
सोच रहा हूं कि अभी-अभी मैं जो सपना देख रहा था, बारह सुंदर
राजकुमार थे मेरे, न मालूम कितने सोने के महल थे! उन महलों
की सीढ़ियों पर हीरे-जवाहरात जड़े थे। उन महलों में अंबार लगे थे धन के। मेरा राज्य
इतना बड़ा था कि उसकी सीमाओं का मुझे भी कोई पता नहीं था। और आंख खुली, सारा राज्य खो गया, बारह ही राजकुमार मर गए, सोने के महल कहां खो गए, पता नहीं। वह बड़ा विराट
साम्राज्य यूं पलक मारते विदा हो गया। मैं किसके लिए रोऊं? उन
बारह राजकुमारों के लिए रोऊं या इस एक राजकुमार के लिए रोऊं? क्योंकि जब मेरी आंख बंद थी, यह मुझे भूल गया था। और
अब जब मेरी आंख खुल गई है तो वे मुझे भूल गए हैं। कौन सच है? किसके लिए रोऊं? इसलिए हंस रहा हूं कि वह एक आंख बंद
किए हुए का सपना था, यह आंख खुले हुए का सपना है, लेकिन दोनों सपने हैं। सत्य यहां कुछ भी नहीं है।
"जिस प्रकार सोए हुओं को ख्वाब के खयाल होते हैं,
ऐसे ही तरहत्तरह के रूप दिख रहे हैं।'
तुमने अपने सपने संजो रखे हैं। तुम अपने सपनों को ही देख रहे हो। ये
तुम्हारे प्रक्षेपण हैं।
भूले तो जैसे रब्त कोई दर्मियां न था
इतने बदल भी सकते हो तुम, ये गुमां न था
इस अंजुमन से उठ के भी हम अंजुमन में थे
खलवत वो कौन-सी थी तमाशा जहां न था
तुम क्या बदल गए कि जमाना बदल गया
तुम सर-गिरां न थे तो कोई सर-गिरां न था
हम और शिकवा संजीए अहले जफा कि दिल
कमबख्त बेमजा था अगर खूं-चकां न था
"ताबां' खुलूस अहले-हरम में
भी था मगर
उस अंजुमन में अपना कोई राजदां न था
यह भरा-पूरा संसार है, लेकिन यहां राजदां को
पाना भी बहुत मुश्किल है--कोई जो तुम्हारी जिंदगी के राज को समझ सके, जिसके पास बैठ कर तुम जिंदगी के राज की दो बातें कर सको। जहां ऐसा राजदां
मिल जाए, समझना कि वहीं सदगुरु मिला, वहीं
सत्संग मिला, जिसके पास बैठ कर सत्य की कुछ बात हो सके। नहीं
तो सब झूठ का फैलाव है।
तुम्हारी शिक्षा तुम्हें झूठ सिखा रही है, क्योंकि तुम्हारी शिक्षा तुम्हें सिर्फ एक रोग देती है--महत्वाकांक्षा का
रोग। और महत्वाकांक्षा जड़ है इस संसार की, इस सारे तमाशे का
आधार है। वही ताबीज है, जिससे यह सारा उपद्रव चलता है।
महत्वाकांक्षा का अर्थ है: आगे होना। लेकिन क्यों? किसलिए?
सबसे आगे होना है, लेकिन क्यों? क्या प्रयोजन? इस चार दिन की जिंदगी को आगे होने में
ही बिता देना है? और आगे कौन कब हो पाता है? करीब-करीब लोग वर्तुल में खड़े हैं। जहां भी रहोगे किसी को आगे पाओगे।
नेपोलियन के पास सब कुछ था, लेकिन उसकी ऊंचाई कम
थी। और जब भी वह लंबे आदमी को देखता, उसके प्राणों में जैसे
बिजली कौंध जाए। जैसे कोई छुरी भोंक दे। नेपोलियन के पास सब था, बड़ा साम्राज्य था। लेकिन वह शरीर की ऊंचाई उसके खुद के सिपाहियों से भी कम
थी। उससे उसे बड़ी अड़चन होती थी। वह अड़चन उसे जिंदगी भर रही, मिटी
ही नहीं।
लेनिन ने रूस के विराट साम्राज्य पर कब्जा कर लिया। लेकिन उसके पैर
छोटे थे, ऊपर का हिस्सा शरीर का बड़ा था। वह अपने पैरों को
छिपाए रखता था। वह कुर्सियां बड़ी बनवाता था--इतनी बड़ी कि लोगों को यह खयाल रहे कि
उसके पैर छोटे नहीं हैं। कुर्सियां इतनी बड़ी होती थीं, उसके
पैर जमीन तक पहुंचते ही नहीं थे। और लोगों को पता था। वह अपनी टेबलों पर इतने बड़े
कपड़े लटकाता था कि किसी को उसके लटकते हुए पैर दिखाई न पड़ जाएं। वह जहां भी जाता
उसे एक ही बेचैनी बनी रहती कि उसके पैर छोटे हैं।
क्या करोगे? कुछ न कुछ कमी रहेगी, कोई न कोई
आगे रहेगा। किसी के पास धन होगा तो पद न होगा। और किसी के पास पद होगा तो धन न
होगा। और किसी के पास पद होगा, धन होगा, सौंदर्य न होगा। और किसी के पास पद भी हो, धन भी हो,
सौंदर्य भी हो, बुद्धिमत्ता न हो। और किसी के
पास बुद्धिमत्ता हो, लेकिन सौंदर्य न हो।
हमें अष्टावक्र की कथा तो मालूम ही है। कौन इससे ज्यादा बुद्धिमान
आदमी कभी हुआ होगा? लेकिन शरीर आठ जगह से इरछा-तिरछा था, इसलिए नाम अष्टावक्र। आठ जगह से इरछा-तिरछा शरीर, जरा
सोचो, आदमी नहीं जैसे ऊंट हुआ! अष्टावक्र के पिता गए थे जनक
के दरबार में। देर हो गई थी आने में। तो अष्टावक्र को उसकी मां ने कहा कि जा अपने
पिता को भोजन के लिए बुला ला, भोजन ठंडा हुआ जा रहा है।
अष्टावक्र दरबार में पहुंचा। वहां सारे लोग देख कर उसे हंसने लगे, क्योंकि वह एक तरफ पैर रखे, दूसरी तरफ दूसरा पैर पड़े;
एक तरफ देखे, दूसरी तरफ दिखाई पड़े; एक हाथ इधर जाए, दूसरा हाथ उधर जाए। ऐसा आदमी ही
लोगों ने नहीं देखा था। वे सब हंसने लगे।
उनको हंसता देख कर अष्टावक्र और जोर से खिलखिलाया। जनक चकित हुए। जनक
ने कहा कि वे क्यों हंस रहे हैं वह मुझे मालूम है। लेकिन तू क्यों हंसता है?
उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैंने सोचा था कि जनक के
दरबार में तो कुछ समझदार लोग होंगे, लेकिन यहां सब चमार
इकट्ठे हैं। इनको सिर्फ चमड़ी का ही पता है। हड्डियों का ही ये हिसाब लगा रहे हैं,
ये चमार हैं। इन चमारों को यहां किसलिए घुसने दिया? अरे, ब्राह्मणों को निमंत्रित करो जो ब्रह्म को
जानते हों। और ब्रह्म कहीं तिरछा-इरछा होता है? यह तो मेरा
शरीर है जो तिरछा-इरछा है। इससे क्या फर्क पड़ता है! और ये दरबारी तुम्हारे,
जिनको तुम कहते हो तुम्हारे रत्न हैं, इनको भी
शरीर ही दिखाई पड़ता है।
अष्टावक्र बुद्धिमान तो था बड़ा। अष्टावक्र-गीता का कोई मुकाबला नहीं।
कृष्ण की गीता भी फीकी पड़ जाती है। मैंने तो अष्टावक्र की गीता को महागीता कहा है।
हजार गीताएं उससे निकल सकती हैं, उसका एक-एक सूत्र इतना बहुमूल्य
है! लेकिन बेचारा था तो कुरूप।
महत्वाकांक्षा तुम्हें इस तरह के उपद्रव सिखा देती है कि तुम्हें आगे
होना है। सब चीजों में तुम आगे हो न सकोगे। एक में भी हो जाओ, यह भी आसान नहीं, सब में होना तो असंभव है। लेकिन
शिक्षा यही जहर तुम्हारे भीतर डालती है। मां-बाप भी तुम्हें इसी दौड़ में लगाए रखते
हैं--कुल की लाज रखना। रघुकुल रीत सदा चली आई! अपने वंशजों का, अपने पूर्वजों का सिलसिला जारी रखना। हम प्रतिष्ठित हैं, प्रतिष्ठा को बचाना! अहंकार सिखाया जा रहा है। और अहंकार के बीच से ही
संसार पैदा होता है। फिर न मालूम कितने सपने--धन के, पद के,
प्रतिष्ठा के! और इन्हीं सपनों में हम सब कुछ गंवा बैठते हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं: "तुझसे कुछ भी बाहर नहीं है, किंतु तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।'
कुछ भी बाहर नहीं है, तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।
सब तेरे भीतर है। बाहर खोज ही मत। भीतर जा, आंख बंद कर। अपने
में देख।
वो ख्वाब हूं जिसे ताबीरे-ख्वाब भी समझो
मुझे सवाल भी जानो, जवाब भी समझो
मैं जी रहा हूं किसी मौजेत्तहनशीं की तरह
मिरे सुकून को तुम इज्तिराब भी समझो
गमे-हयात की यूं तो हजार ताबीलें
किसी का लुत्फ भी जानो, इताब भी समझो
मिरे खुलूस को मेरी शिकस्त भी जानो
मिरी वफा को मिरा एहतिसाब भी समझो
तरब का दौर भी कुछ बावकार हो जाए
छलकते जाम को चश्मे-पुरआब भी समझो
मुसाफिरों से भी नाजुक हैं रास्तों के मिजाज
वो पेचो-खम ही सही, पेचोत्ताब भी समझो
मैं कौन हूं, मुझे खुद भी पता नहीं "ताबां'
मिरे वुजूद को मेरा निकाब भी समझो
मेरा अस्तित्व ही मुझे छुपाए है। वही मेरा नकाब है, वही मेरा घूंघट है।
घूंघट के भीतर जाओ। मीरा कहती है: घूंघट के पट खोल! बाहर-बाहर मत भटको, अगर कुछ पाना है तो भीतर आओ। और भीतर तुम वह पा लोगे जिसे पाकर सब पा लिया
जाता है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
कैसे रहूं चुप कि मैंने पी ही क्या है
होश अभी तक है बाकी
और जरा-सी दे दे साकी
और जरा-सी, और...
कृष्णतीर्थ भारती,
और की दौड़ का नाम ही संसार है। और जरा-सी, और...। इस छोटे-से सूत्र में सारा संसार, संसार का
सारा गणित आ जाता है। धन हो तो थोड़ा और। पद हो तो थोड़ा और। ज्ञान हो तो थोड़ा और।
त्याग हो तो थोड़ा और। तपश्चर्या हो तो थोड़ी और। ध्यान हो तो थोड़ा और। और वही। विषय
बदलते हैं, लेकिन और तो वही।
अब तुम कहते हो:
कैसे रहूं चुप कि मैंने पी ही क्या है
होश अभी तक है बाकी
और जरा-सी दे दे साकी
और जरा-सी, और...।
यह और की दौड़ तो कभी खतम होगी नहीं, होती ही नहीं। जितना
मिलेगा उतना ही और की मांग बढ़ती चली जाएगी।
अमरीका का अरबपति एंड्रू कारनेगी मरा। दस अरब रुपए छोड़ कर मरा। पैदा
तो गरीब हुआ था। खुद अपनी ही मेहनत से दस अरब रुपए कमाए। शायद ही किसी आदमी ने
अपनी ही मेहनत से इतने रुपए कमाए। लेकिन मरते वक्त उदास था। उसकी जीवन-कथा के लेखक
ने उससे दो दिन पहले पूछा--मरने के दो दिन पहले--कि आप उदास क्यों हैं? आपको तो आनंदित मरना चाहिए! आप एक सफलतम व्यक्ति हैं। मनुष्य-जाति के
इतिहास में इतने सफल लोग कम ही हुए। दस अरब रुपए आप अकेले अपने हाथों से कमा कर जा
रहे हैं।
एंड्रू कारनेगी ने आंखें खोलीं और क्रोध से अपने कथा-लेखक को देखा और
कहा, बकवास बंद कर! मैं सौ अरब रुपए कमा कर मरना चाहता था।
सिर्फ दस अरब! मुझ जैसा पराजित, हारा हुआ आदमी और कौन होगा?
बुरी मात खाई।
लेकिन क्या तुम सोचते हो, एंड्रू कारनेगी सौ
अरब रुपए कमा लेता तो प्रसन्न मरता? नहीं, तब तक और की मांग और आगे बढ़ जाती। यह और तो यूं समझो जैसे जमीन को छूता
हुआ क्षितिज। तुम जितने आगे बढ़ते हो, क्षितिज भी आगे बढ़ जाता
है। यह और तो एक मृग-मरीचिका है।
कृष्णतीर्थ, इस और को छोड़ दो, और तृप्ति अभी
और यहीं। प्यास तो बुझे अभी और यहीं। लेकिन इस और को छोड़ दो।
खलिश भी आज तो कुछ कम है दर्द भी कम है
चिराग तेज करो हाय रोशनी कम है
उदास-उदास है महफिल, तही हैं पैमाने
शराब कम है
अजीजो कि तश्नगी
कम है
क्या कम है? शराब कम है या प्यास कम है? इसे
ठीक से पूछ लेना चाहिए। क्योंकि शराब बाहर है, प्यास भीतर
है। जो सोचेगा शराब कम है, वह भटकेगा संसार में। और जो
सोचेगा प्यास कम है, उसकी बाहर की दौड़ बंद हुई। अब वह भीतर
डूबेगा। वह अपनी ही प्यास में डुबकी मारेगा। और मैं तुमसे एक उलटबांसी कहूं: शराब
पीकर किसी की प्यास नहीं बुझी; लेकिन जिसने अपनी प्यास में
डुबकी मारी उसकी प्यास सदा को बुझ गई।
खलिश भी आज तो कुछ कम है दर्द भी कम है
चिराग तेज करो हाय रोशनी कम है
उदास-उदास है महफिल, तही हैं पैमाने
शराब कम है अजीजो कि तश्नगी कम है
हमारे साथ चलें आज कू-ए-कातिल तक
वो बुलहवस जो समझते हैं जिंदगी कम है
अभी तो दोश तक आई है जुल्फे-आवारा
अभी जहानेत्तमन्ना में बरहमी कम है
चिरागे-गुल न जले कोई आशियां ही जले
जुनूं की राहगुजारों में रोशनी कम है
बस और क्या कहें अहबाबेत्तंजफर्मा को
शऊर कम है, नजर कम है, आग ही कम है
रहे है मह्व, सनम को खुदा बनाए हुए
सुना है इन दिनों "ताबां' की गुमरही कम है
शराब तो कितनी ही पीओ, बात बनेगी नहीं। सागर
भी मिल जाएं शराब के, तो भी बात बनेगी नहीं। सागर भी छोटे पड़
जाएंगे। लेकिन अगर तुम अपने भीतर की प्यास में डुबकी मार लो--और उसी को मैं ध्यान
कहता हूं--तुम अगर उसकी खोज में निकल जाओ जो खोजने वाला है; तुम
अगर उसको पकड़ लो जो सारी चीजों को पकड़ने निकलता है; तुम
मंजिल की फिक्र छोड़ दो और यात्री के अंतरतम में बैठ जाओ; गंतव्य
नहीं, यह गंता कौन है; मंजिल नहीं,
राह नहीं, यह राही कौन है, मैं कौन हूं--तो जरूर तृप्ति का आकाश अभी टूट पड़े।
लेकिन हम असली सवाल नहीं पूछते। हम नकली सवाल पूछते हैं। फिर नकली
सवालों के नकली जवाब हैं। नकली सवालों के असली जवाब नहीं हो सकते। और फिर नकली
जवाबों को तुम इकट्ठे करते रहते हो। उससे पांडित्य बन जाता है। उससे होशियारी और
चालाकियां पैदा हो जाती हैं। लेकिन तुम्हारी जिंदगी जैसी थी, अंधी, अंधेरी, बस वैसी की
वैसी। सुबह नहीं होती, सूरज नहीं निकलता। सूरज तो दूर,
चांदत्तारों का भी कोई पता नहीं चलता। चांदत्तारे भी बहुत दूर,
जुगनू भी नहीं चमकते।
अश्क वही जो तारा बन कर पलकों पर थर्राता है
दर्द वही जो मीठे-मीठे गीतों में ढल जाता है
रंगे-हया में डूबे आरिज पर यूं जुल्फें बिखरी हैं
शाम की गहरी छांव में जैसे कोई कंवल जल जाता है
कितनी मुद्दत गुजरी उनसे रब्तेत्तमन्ना टूट चुका
सामने अब भी आते हैं जब, धक से जी हो जाता है
मैं तो इक आवारा शायर होशो-खिरद से बेगाना
कोई अहले-होशो-खिरद फिर मेरे मुंह क्यों आता है
खूने-अंजुम में जब शामिल खूनेत्तमन्ना होता है
सुबह का रंगीं दामन जैसे रंगींतर हो जाता है
इक वो लम्हा जिसने "ताबां' जीस्त का धारा मोड़
दिया
मीठे-मीठे सपने बन कर नजरों में लहराता है
कौन-सी चीज है जो जीवन की धार को मोड़ देती है?
इक वो लम्हा जिसने "ताबां' जीस्त का धारा मोड़
दिया
वह क्षण कौन-सा है, जब जीवन की सरिता एक नया मोड़
लेती है--अतृप्ति से तृप्ति की ओर, दुख से आनंद की ओर,
नरक से स्वर्ग की ओर! वह लम्हा वही लम्हा है, वह
क्षण वही क्षण है, जब तुम बाहर की तरफ देखना बंद करके भीतर
की तरफ देखना शुरू करते हो।
सत्य तो तुम्हारे भीतर है। और उसको ही पीओगे तो तृप्ति है। बाहर तो सब
झूठ है, बाहर तो सब दौड़ है, आपा-धापी है,
चिंता-विषाद है। लेकिन आनंद वहां नहीं है।
तो मैं तुमसे कृष्णतीर्थ भारती, यही कहूंगा, अपने में चलो। वहीं तुम पाओगे सोना। बाहर तो मिट्टी के ढेर लगा लोगे। वहीं
तुम पाओगे चिन्मय ज्योति। बाहर अगर इकट्ठे भी किए तो बुझे हुए मिट्टी के दीए ही
इकट्ठे कर पाओगे। वही शास्त्रों में मिलेंगे--मिट्टी के दीए, जिनकी रोशनी न मालूम कब की बुझ गई। लेकिन अगर तुम्हें उस रोशनी को पाना है,
जो जलती है भीतर--बिन बाती बिन तेल--तो फिर मांगो मत। मांग छोड़ो,
कामना न करो, वासना न करो। मत कहो--और! और!
कहो--बस! ठहरो, विराम में आओ! पूर्णविराम लगा दो दौड़ पर। आंख
बंद भीतर करो। भीतर डूबो--और तुम पा लोगे सब राजों का राज!
कंचन कंचन ही सदा, कांच कांच सो कांच।
दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।।
आज इतना ही।
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