कल बच्चों के साथ जंगल में घूमने के लिए मैं
गया तो मुझे भी उनके साथ बहुत अच्छा लगा। इसी से मुझे लगा की मुझे अगले दिन भी
जंगल में ले जाये मैं मन्नत और ज़िद्द दोनों एक साथ करने लगे। कि मुझे आज भी किसी
तरह जंगल में ले जायेगे। जिस दिन हम जंगल में जाते है उस दिन अक्सर इतवार का दिना
होता है। लेकिन ये भी अजीत बात है उस दिन कोई न कोई व्यक्ति जरूर ध्यान करने के
लिए आ जाता था। उस दिन खास कर मुझे किसी का भी आन फूटी आंखों नहीं सुहाता था। लगता कि न जाने ये लोग क्यों नाहक किसी को भी
घर में आने देते है। और फिर यह देख कर तो और भी बूरा लगता की वह खाना भी खाता है।
मुझे लगता इस को किस तरह से भगा दूँ। मैं भोंकता भी खुब उन्हें गुस्से में, पर
मुझसे वे लोग डरते कम ही थे। शायद मेरे आकर के हिसाब से अभी में बच्चा था।
मुझे ये भी पता था कि अगर
मैंने किसी को काट लिया तो पापा जी गुस्सा करेंगें। पर मैं इस गुस्से को अपने मन
में ही दबा कर रह जाता था। वरना तो मेरे दाँत तो कुलकुलाते थे बस एक बार उनके पैर
में गाड दु। अब देखो हम कुत्तों में ये बीमारी कहां से आई, इतनी वफादारी क्यों? और इस बात को
लेकर कि क्यों लोग हमारे घर में आते है, वह पूरा दिन मेरे इसी तनाव में गुजरता।
एक और बात मैं किसी पर भी भरोसा नहीं करता था, मुझे शक की बिमारी थी। मुझे सब चौर
और उठाईगीरे ही लगते थे, लगता की जरा आँख बची नहीं कि ये कुछ न कुछ उठा कर ले
जायेगे।
इसलिए में आने वाले को
कभी भी अकेले नहीं छोड़ता था। ध्यान के लिए सब अंदर जाते तो मेरा भी बहुत मन करता
पर मुझे बहार निकाल दिया जाता। पूरे ध्यान में मैं दरवाजे के बाहर उनका इंतजार
करता रहा। ध्यान के बाद कुछ लोग जो आस—पास रहते थे वे तो चले जाते। और कुछ जो दूर
से आते थे वह तो खाना आदि खाकर ही जाते। उनके जाने के बाद तब मुझे कहीं चैन मिलता।
उस दिन घर पर बहुत काम हो जाता। मम्मी पाप को एक मिनट का भी आराम नहीं मिल। पापा
जी खाना खाने के बाद ही दूकान पर निकल जाते। मम्मी चाय बनाती या कुछ देर आराम
करती। फिर हम सब को दूध मिलता। और मम्मी पापा जी की चाय ले कर दूकान पर चली
जाती।
पर आज कुछ उलटा हो
गया। मम्मी चाय लेकर गई। और पाप जी को घर
पर आते देख कर मुझे कुछ अहसास हुआ। और मेरा बाँछें खिल गई। लगा की हम जंगल में
घूमने जाने वाले है। और सच में ऐसा ही हुआ। मुझे बहुत ही सुखद लग रहा था। मेरे पैर
जमीन पर नहीं टीक रहे थे। ऐसा लगता था कि सारी दुनियां का सबसे भाग्यशाली में
हूं...क्यों जंगल में जाना अनजाने ही मुझे बहुत अच्छा लगा था। इसका कारण भी मुझे
पता नहीं था।
में नाच—नाच और रौ—रौ कर पागल हो रहा था। कि जल्दी
क्यों नहीं करते इतनी देर क्यों लगा रहे हो, एक—एक मिनट युगों की तरह लग रहा
था...न जाने इस आदमी को तैयार होने में कितनी देर लगती है। लो हम तो तैयार हो गये,
पहानी गले में चेन....कब चलोगे। और बच्चे है कि तैयार ही नहीं हो रहे, कोई पानी
की बोतल उठा रहा है....किसी तरह से आखिर काफिला जंगल की और चल दिया। शायद कल के
बेर खाने के बाद बच्चों ने और बेर खाने की ज़िद्द की होगी। मुझे इस सब क्या
मतलब, मुझे तो जंगल में जाने का बहाना चाहिए। जैसे—जैसे हवा में ठंडक बढ़ती थी
वैसे—वैसे दिन छोटे होने लग जाते थे। अब श्याम से रात होने में ज्यादा देर नहीं
थी।
पर बच्चों ने कहां हम
भाग कर जल्दी से बेर खा कर आ जायेगे। दादा जी भी कहने लगा अब रात जल्दी हो जाती
है। जल्दी आना। मम्मी की भी यही राय थे। सितम्बर—अक्टूबर दिन रात में करीब एक
घंटे का फर्क हो जाता है। हम सब जंगल की और तेज कदमों से चल दिये। सूर्य अभी आसमान
पर ही था। पर इस समय उसकी तेजी कुछ कम हो गई थी। हम सब भाग—भाग कर एक दूसरे को
पीछे छोड़ते धूल उड़ाते हवा से बातें करते कुछ ही देर में जंगल में पहुंच गये। और
बच्चो के साथ आज पापा जी भी बेर खा रहे थे।
मैं पापा जी के पास ही
बैर मांगने गया। क्योंकि मैं जानता था कि पापा जी की गति सब से तेज है बेर तोड़ने
में। अगर कल भी पापा जी हमारे साथ बेर तोड़ने के लिए आ जाते तो सब को इतने बेर
तोड़ कर दे देते की आज किसी को आने का मन ही नही होता। पापा जी ने देखते ही देखते
हिमांशु भैया की दोनों जेब भर दी वह सबसे खुश था। और दिखा रहा था कि देखो मेरे पास
कितने बैर है।
में भी अंदर ही अंदर जलन
महसूस कर रह था। कि पापा जी ने हिमांशु भैया को इतने बैर दे दिये। और हम रह गये।
पर मेरे पास तो न कपड़ थे न जेब ही थी। हालाकि शारदी अधिक होने पर मेरा भी कोट
सिल्वा दिया गया था। और उसे पहन कर में कितने गर्व से घूमता था। पर ये बाद की बात
थी।
आज
नाला भी बहुत जल्दी आ गया। लगा हम हवा से बातें करते हुए आये है। मैं भाग कर जल्दी
से पानी में घूस गया। पानी उस समय घुटनों —घुटनों
ही था। पानी पी कर मैं उसमें खेलने लगा। हवा में ठड़ंक होने पर भी मुझे गर्मी लग
रहा थी। उस समय पानी में जाना बहुत अच्छा लग रहा था। पर सब लोगों को जल्दी से
जल्दी आगे जाना था। अभी तो एक नाला और पार करना पड़ेगा। फिर उसके बाद और झंडियों
शुरू हो जायेगी जहां पर अधिक बेर है। परंतु सूर्य है की हमसे भी तेज गति से अपने
घर जाने के लिए आतुर है। वहां तेजी दूर डूबते सूर्य की तिरछी किरणें पानी में पड़
कर चमक रही थी। जो सीधी आंखों में पड़ने के कारण खुली भी नहीं जा रही थी। दूसरे
नाले में पहुंच कर सब ने पानी पिया। और पापा जी ने हिमांशु को गोद में ले कर नाले
को पार करवाया।
वरूण भैया और दीदी तो
बड़े मजे से कूद गए। मैं तो खुद ही पानी में खेल रहा था। और सब को दिखा रहा था की
है किसी की हिम्मत जो मेरे से मुकाबला करे। अपनी इस एक तरफा विजय पर इतराते हुआ
सबसे आगे भाग रहा था। श्याम होने में अभी काफी देर थी। उचे पेड़ों पर पक्षी आ—आ
कर अपना सोने का स्थान बना रहे थे। उनके मधुर गीत अलग—अलग भाषा में पूरे जंगल में
गुंज रहे थे। बीच—बीच में मोर भी अपनी
दर्द भरी पूकार सूना रहा। कुछ पक्षी
आपस में लड़ झगड़ रहे थे, अपनी जगह खाली करने के लिए, ये एक प्रकार से उनका खेल ही
था।
दूर झाड़ियों अचानक एक
खरगोश निकल कर भाग, एक बार तो मेरी समझ में
नहीं आया पर दूसरे ही पल मुझे खरगोश की याद आई और मैं पूरी ताकत लगा कर उसके पीछे
भागा। पर ये कोई पालतू खरगोश थोड़े ही था। जिसे में पकड़ पाता। वह तो दो ही जंप
में आँखों से ओझल हो गया। और में एक जगह खड़ा हो कर सुस्ता रहा था और समझने की
कोशिश कर रह था की मैं कहां निकल आया। इतनी देर में जंगली मुर्गी एक झाड़ी से निकल
कर कुं....कुं...कुं...कर के र्फू..र..र से उड़ गई। एक बार तो में डर गया कि ये क्या
आ गया। इतनी देर में मुझे पापा और दीदी की आवाज सुनाई दी। जो मेरे अचानक भागने के
कारण मेरे पीछे आ रहे थे। उन्हें खतरे का भान था। की जंगल में कोई जंगली जानवर
मुझ पर हमला कर सकता है। पर मैं इस सब से अंजान था। मैरा तो दौड़ना भागना एक खेल
था।
जैसे—जैसे
हवा मैं ठंडक बढ़ रही थी दिन छोटे हो रहे थे। गर्मी में तो सूर्य अस्त होने पर भी
गर्मी बनी रहती थी। पर अभी सूर्य डूबा भी नहीं
था। कि हवा ठंडी हो गई थी। नाला
पार कर सब झाड़ियों से लाल—लाल बेर तोड़ कर खाने में लग गये। बीच—बीच में अपनी
तोड़—तोड़ कर अपने जेब बो में भी डाल रहे
थे। में भी कभी दीदी के पास कभी पापा जी के पास जा कर बेर मांग—मांग कर खाने लगा।
मैं और हिमांशु भैया ऐसे थे जो बैर नहीं तोड़ पा रहे थे। उन झाड़ियों में बेर कम
थे और कांटे ज्यादा। एक दो बार मैंने कोशिश भी की और कामयाब भी हुआ। और मजा भी
बहुत आया। पर नाक पर कांटों का चुंबन का बहुत दर्द होता था। मैं जब कोई बैर तोड़
लेता तो कभी दीदी को दिखाता कभी हिमांशु भैया को चिड़ाने की कोशिश करता की देखो
मेंने भी एक बेर तोड़ कर खाया। इस बात पर दीदी और वरूण भैया ताली बजा कर मेरा
उत्साह बढ़ाते। और मैं फूल कर कुप्पा हो जाता।
धीरे—धीरे
सूर्य डूब रहा था। उसका लाला गोला कितना बड़ा लग रहा था। उससे आती किरणें अब आंखों
में कम चुब रही थी। पर मैंने देखा है जब सूर्य डूबता है उसके आस पास बादलों का
झुंड जरूर इक्ट्ठा हो जाता है। जैसे—जैसे सूर्य डूब रहा था। हवा की ठंडक के कारण
और कुछ मैं पानी में भीग गया था। मुझे ठंड लग रही थी। और मेरे शरीर से झुरझुरी सी
उठ रही थी। पर इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि सब अपने—अपने बेर तोड़ने
में तल्लीन थे। सब को पता था अभी थोड़ी ही देर में श्याम ढल जायेगी और फिर यहां
से जाना होगा। दिन का समय होता तो शायद बच्चें खेलते भी। पर इस समय तो सब बेर
खाने का मन बना कर आये थे।
अचानक पास की झाड़ी में
कुछ अजीब सी गंध महसूस हुई मेरा ध्यान उधर की और गया। और मेरे देखते ही वहां पर
कुछ सरसराहट हुई। मुझे लगा कुछ गड़बड़ है। और में पापा जी के पास जाकर खड़ा हो कर
उधर देखने लगा। पर पापा जी का ध्यान मेरी और नहीं था। वह बेर तोड़ने में मगन थे।
बीच—बीच में बेर चख कर भी देख लेते थे कि इस झाड़ी के मीठे है या नहीं।
उधर सूर्य डूब गया। और किस धीरे से अंधार ने
अपना आस्तित्व प्रकृति पर फलाना शुरू कर रहा था। पर शायद पापा जी बेर तोड़ने में
समय को भूल गये। और बच्चों को क्या भय होगा जब पापा जी उनके साथ है। तभी दूसरी
बार मुझे झाड़ियों की और से गंध आई और में उस और धीरे—धीरे बढ़ने लगा। बिलकुल पास
जाकर में डर के मारे जोर—जोर से भोंक कर पापा जी की और भाग। मेरे इस तरह से भोंकने
से पापा जी को कुछ खतरे का एहसास हुआ।
क्योंकि हमारा भोंकना
मात्र भोंकना नहीं है। कभी वह किसी को डरा रहा होता है। कभी किसी के रोने से उसकी
और हमदर्दी दिखा रहा होता है। कभी अधिकार का भोंकना होता है। कभी डर और भय का। आप
ध्यान से देखोगें तो आप समझ सकते है कि मेरे भोंकने के प्रकार समय और स्थिति में
भिन्न हो जाते है। मेरे इस तरह भयभीत होकर भौंकने के कारण पापा जी सतर्क हो गये।
और इतनी देर में झाड़ी के अंदर से एक पूछ जो घास के रंग की थी वह जाती हुई दिखाई
दी। उसके साथ ही दूर गीदड़ों की हुंकार
सुनाई दी। शायद वह मनुष्य को आगाह कर रहे थे। कि अब जंगल को तुम छोड़ दो अब निश
होने वाली है और हम अपने खाने के लिए एकांत चाहिए। सो कृपया आप यहां से चले जाओ।
इतने सारे गीदड़ों की आवाज इतने पास से आने के कारण मैं बहुत डर गया और पापा जी के
पास जा कर कुं..कुं....कुं...करके रोने लगा। पापा जी भी शायद खतरे को भांप गये थे।
लेकिन ये बात उन्होंने बच्चों पर जाहिर नहीं होने दी। बच्चों ने भी गीदड़ों की
हुंकार को सुना। और शायद वह भी कुछ समझ गये।
पापा जी ने हिमांशु भैया को गोद में उठा लिया ओर
दीदी को कहने लगे की चलो घर चलते है। मम्मी जी वहां पर हमारा इंतजार कर रही होगी।
और रात भी होने वाली है। देखा गीदड़ भी अब कह रहे है। कि अब तुम घर जाओं अब हमारी
बारी है बैर खाने की। और हम सब तेज कदमों से घने जंगल से घर की ओर चलने लगे। पास
ही झाड़ियों से सरसराहट लगातार हमारा पीछा
कर रही थी। दबे पेर...घास का हिलना, और कुं—कुं की आवाज आ रही थी। हम लोग जल्दी—जल्दी घने
जंगल में से खुले मैदान में पहुंच गये। यहाँ पर झाड़ीया थोड़ी कम थी। चारों और
रोझ—केर के पेड़ थे। परंतु बह कुछ ऊंचे थे उनके अंदर से दूर तक दिखाई दे रहा था।
भाग्य से शायद आज
पूर्णिमा की रात भी थी। सूर्य के अस्त होते ही वह आसमान पर बहुत बड़ा चाँद आ धमका
था। पापा जी ने सब को कहां देखो कितना सुंदर चाँद है...इस पर कुछ देर के लिए सब ने
खड़े हो कर चाँद को निहारा। पर कोई और समय होता तो सब खूब देर बैठ कर उसके दर्शन
करते पर ये समय उचित नहीं था। आस पास गीदड़ों की सुगबुगाहट महसूस हो रही थी।
धीरे—धीरे उनकी दूरी कम—से कम हो रही थी। अब भी हम गांव से 3—4 मील दूर थे। आस पास
कोई ग्वाला भी नजर नहीं आ रहा था। जंगल आज एक दम सुनसान हो गया था। वरना तो
भेड़—बकरीयों चराने वाले, जंगल से लकड़ी काटने
वाले कोई न कोई राहगीर मिल ही जाता था।
चाँद अपने पूरे यौवन पर आ
रहा था, और अपनी रोशनी चारों और फैला रहा था। चाँद की रोशनी में पेड़ कैसे छद्म
सौदर्य लिए दिखाई दे रहे थे। प्रकार की रोशनी उनके गूढ सौदर्य को बलात उघाड़ देती
है। और चाँद उस सौदर्य में एक रहस्य भर देता है। हम सब सूखी घास को चीरते तेज
कदमों से चले जा रहे थे। कभी—कभी मेरे पेर में भांखडी(एक प्रकार का कांटा) चुब
जाता थी। और मैं एक पैर पर कुछ देर चल कर उसे निकाल देता था। पर उसके कांटे का जहर
काफी देर तक दर्द करता था।
घास
खत्म हो रही थे और सामने ही रास्ता चौड़ा नजर आ रहा था। तब मेरी जान में जान आई।
पर खतरा अभी भी कम नहीं हुआ था। रास्ते पर पहुंच कर पापा जी ने कहां चलो भागते है।
पापा जी ने हिमांशु को अपनी गोद में लिया और सब बच्चों का आगे कर पीछे रह कर दौड़
रहे थे। सबसे आगे वरूण भैया थे। और उनके पीछे में मेरे पीछे दीदी। और सबसे बाद में
पापा जी। क्यों पाप जी हिमांशु को अपनी पीठ पा लाद कर दौड़ रहे थे। मुझे भी बहुत
मजा आता था जब पापा जी मुझे अपनी गोद में उठाते थे। पर अब मैं बड़ा हो गया था।
हमने पहला नाला पार किया।
चारों और शांति थी। पक्षी
भी शोर मचा कर चुप सो गये थे। कभी—कभी किसी टटिहरी की कर्ण भेदी आवाज वातावरण को
और रहस्यमय बना जाती थी। पापा जी हमारे पीछे चाक चौबंद चल रहे थे। उनके हाथ में
एक मोटा लकड़ी का सोटा हमेशा साथ रहता था। पीछे से गीदड़ों की आवाज बार—बार आ रही
थी। अब वह एक झुंड में नहीं कई झंडों में बिखर गये थे। कभी आवाज दक्षिण की तरफ से आती और कभी पीछे से कभी उत्तर
की और से। मैं डर भी रहा था और दौड भी रहा था। चाँद की चांदनी में रास्ता दूर तक चमकता साफ दिखाई दे रहा था। पर पास की झाड़ियों
में देख पान मुमकिन नहीं था। पहले नाले को पार करके हम खुले मैदान में आ गये। वहां पर शीशम,बबूल और रोझ के ऊंचे—ऊंचे
वृक्ष थे। दूर एक जंगली गायों का झुंड एक मैदान में आराम कर रह था।
कुछ नवयुवक साँड़ आपस में
अपनी ताकत की आज़माई कर रहे थे। जिसके कारण वहां पर धूल का एक गुब्बार सा खड़ा हो
गया था। कुछ छोटे बछड़े अपने मां के पास सट कर सो रहे थे। मां पास बैठी मजे से
जुगाली कर—करे के झाग के गोले बना रही थी। मैं सोचता था ये ही तो वह दूध है जो मैं
पीता हूं....
भागने के कारण सबकी साँसे फूल रही थी। उसके साथ
पसीना भी आ रहा था। परंतु रूकने को कोई
तैयार नहीं था। पहले नाले और दूसरे नाले तक आने में हमने कम से कम दस मिनट का समय
लगा। अब सामने दूसरा बड़ा नाला दिखाई दे रहा था। उसका रास्ता काफी चौड़ा था। हम जैसे
ही नाले के पास पहुँचे, एक झाड़ी के अंदर से
सांप निकल कर भागने लगा। शायद वह हमारे रास्ते में विश्राम कर रहा था। और हमारे
पैरों की आहट पा कर डर गया। वरूण भैया सबसे आगे थे। मैं उसके पीछे, सांप मेरे और
वरूण भैया के बीच में दौड़ रहा था। पापा जी और दीदी हमारे पीछे। पापा जी ने जैसे
ही सांप को देखा वरूण भैया को आवाज दी की तुम्हारे पीछे सांप है, रूकना मत तेज
दौड़ जितना तेज दौड सकते हो।
वरूण भैया के साथ मैं भी
पूरी ताकत लगा कर भागा। मानों हम जीवन की दौड—दौड रहे है...ओर सच ही वरूण भैया ने
गजब किसा किसी चपलता से भैया दौड़ ये सब में देख कर अचरज से भर गया। मुझे लगता था
मैं सबसे तेज दौड़ता हूं...मैं तो ठगा से देखता ही रह गया। और सांप भी मारे डर के
और तेज से दौड़ रहा था। सब एक दूसरे से डर कर दौड़ रहे थे.....कोई किसी को मार
नहीं रहा था, परंतु अंदर एक सुरक्षा का बचाव का नियम कार कर रहा था। नाले की ढलान
के कारण हमारी गति और तेल हो गई और रेत के कारण सांप की गति कुछ कम हो गई। पापा जी
खतरे को देख रहे थे। और हमे निर्देश दे रहे थे।
मेरी समझ में तो कुछ नहीं
आ रहा था पर शायद वरूण भैया समझ रहे थे। और में उनके पीछे दौड़ रहा था। अब नीचे
उतरने के बाद जैसे ही पानी का नाला दिखाई दिया तब मेरी समझ में नहीं आ रहा था क्या
करना है। पापा जी ने आवाज लगाई वरूण नाले को कूद जाओ और वरूण भैया छपाक से उस
चौड़े नाले को कूद कर पार कर गया। मैंने भी कोशिश की पर में बीच में गीर गया और
फटा—फट दूसरे किनारे निकल गया। लेकिन सांप तो पानी को पार नहीं कर सकता था। वह दाई
और मुड़ गया। वह बेचारा अपनी जाने बचाने
के लिए पास की झाड़ियों में घूस गया। कुछ देर के लिए सबके प्राण अधर में अटक गये
थे।
पानी में भीग जाने के कारण में मिट्टी में सन
गया था। पर खुशी थी की हमने बहादुरी दिखाई। सब नाला पार कर उपर रूक गये। सब की
साँसे तेज चल रही थी। पापा जी ने हिमांशु का नीचे उतारा। और वरूण भैया के सर पर प्यार
से हाथ फेरते हुए कहां कि वरूण तो बहुत तेज फर्राटा मारता है। देखो सांप को भी
पीछे छोड़ दिया। और इस तरह से हमारा भय कम करने लगे। वैसे जंगल में हमे रोज एक या
दो सांप देखने को मिल ही जाते थे। पर इस तरह की दौड़ पहली बार की। सब हंस रहे थे।
और पापा जी ने मेरे को गोद में उठा कर मेरी मिट्टी को झाड़ने साथ—साथ मुझे प्यार
दुलार भी कर रहे थे। मैं भी खुशी के मारे पूंछ हिला रहा था। दीदी जो हममें सबसे
बड़ी थी वह खतरे को समझ रही थी। और बार—बार वरूण भैया का पसीना पोंछने के साथ—साथ
दुलार भी कर रही थी। हिमांशु भैया ने भी पा जा कर वरूण भैया का हाथ अपने हाथ में
लेकर उसे देखता रहा। खतरे में हम एक सुकड़ कर कैसे एक दूसरे के नजदीक आ जाते है।
दूर अब भी गीदड़ों की हंकार आ रही थी। पर अब हम उनकी पकड़ के बहार थे। दोनों नाले
पार करने के बाद गांव की सीमा आ जाती थी।
जहां देर तक लोग दशा
मैदान को आते रहते थे। अब हम घर के नजदीक थे। श्याम अब रात में बदल चुकी थी। पर
चाँद की चाँदनी भूगड़े (सफेद) की तरह खीली इतरा रही थी। हम सब धीरे—धीरे घर की और
चल दिये। पापा जी ने सब को कहा की मम्मी जो को ये सांप वाली बात मत बताना। वरना
नहीं तो फिर हम जंगल में नहीं आने दिया जायेगा। में भी अपनी पूछ हिला रहा था। पर
शायद एक मैं ही ऐसा था जो उस बात पर पक्का अमल कर सकता था। वरना तो किसी न किसी के मुख से कभी ने कभी ये
बात निकल ही आती। इतनी देर में दादाजी की आवाज सुनाई दी।
मनवा...मनवा....दादा जी
दीदी को मनवा कह कर पुकारते थे। जब हमारे इतनी देर तक घर नहीं पहुंचे। तब शायद मम्मी जी ने उन्हें हमे ढूंढने के
लिए दादा जी को भेजा था। पास आ कर दादा जी ने हिमांशु भैया का हाथ पकड़ लिया और
पापा जी को लगे डांटने। कि बच्चों को इतनी रात तक जंगल में घुमाना अच्छी बात
नहीं है। शुक्र है सांप की बात को उन्हें पता नहीं है, वरना तो पापा जी की और
भी शामत आ जाती।
खुशी
के साथ एक रोमांच से भर कर हम घर की और चल दिये। चाँद हमें देख रहा था...ओर हमारा
पीछा कर रहा था। मानों कह रहा है...इस सुंदर एकांत को छोड़ कर तुम क्या जा रहे
हो...परंतु हमें जाना ही था। चाँद का क्या...वह तो आसमान में था, और हम ज़मीं पर,
उसे कौन से सांप और गीदड़ों का भय था......
भू........भू.......आजबस।
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