समय की गति मंथर जरूर थी,
पर मधुर थी। दीपावली के गुजर जाने के बाद हवा में थोड़ी ठंडक बढ़ गई थी। दिन के
समय तो तेज धूप शरीर को तपा रही थी। उस में अभी भी लेटने के समय बहुत सुकून महसूस
तो होता ही था साथ में एक अजीब तृप्ति और मधुरता को एहसास भी होती था। जो मेरी
थकावट के दर्द को भी कम करती थी। वैसे अब उसमें ताप कम होता जा रहा था। पहले जिस
में थोड़ी ही देर लोट पाता था अब में उसमें घंटो लेटा रहता था। इस लिए हमारी जाती के प्रत्येक प्राणी को आप
जून के महीने में भी घुप में लेटा हुआ देख सकते है। वैसे तो और बहुत प्राणी जो
शीतल खून के होते है। जैसे मगरमच्छ या छिपकली उन्हें भी घंटा आध घंटा धूप में रहना
ही होता है। पर हमारा शरीर तो वैसे ही प्रकृति ने बालों रूपी कंबल से ढका है। और
भारतीय जाती के हमारे भाई बहन तो कम और छोटे बाल ही लिए होते है। परंतु यूरोप के
उन कुत्तों को आप देखे जहां पर बहुत बर्फ पड़ती है। उनके बाल कितने बड़े और घने
होते है।
कुदरत भी अपने प्राणियों
को वो सब अपहार रूप में दे देती है। जो उसके जीवन के लिए बहुत जरूरी होता है। कैसा
चमत्कार है। पर वो विदेशी हमारे भाई जब यहां गर्म परदेश में आ जाते है। तो उन्हें
कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है। और हम तो वहां पर चले जाये तो वहां की ठंडक
को हम सहन करने से पहले ही राम नाम सत्य हो जायेगा। खेर। दिल्ली का मौसम भी बहुत
विचित्र है। हर दो माह में अपना मिज़ाज बदल लेता है। शायद दिल्ली में जितनी ऋतुऐ
आती है। इतनी पूरी पृथ्वी पर कहीं भी नहीं देखी जाती। कभी राजस्थान के रेगिस्तान
ने धक्के मारे तो दिल्ली तपन लग जाती है।
कभी बंगाल की खाड़ी से
बादलों का तूफान उठा तो सब जल थल हो जाता है। और कभी हिमालय महाराज की स्वेत धवल
बर्फ को छूकर हवा दिल्ली की हड्डियाँ तक को जमा जाती है। और इन सब के मध्य में
एक पूर्णता होती है। जो आती ठंड और जाती गर्मी, या जाती ठंड और आती गर्मी के कारण
कभी बसंत बन जाता है। और कभी सावन।
टोनी के बिछुड़ने के बाद मुझे बहुत अकेलापन
कभी भी अचानक आकर घेर लेता था। इस का कोई समय या नियम नहीं था। जब भी मैं अकेला
होता, टोनी की याद बहुत आती। शायद जाती प्रेम या अपने जैसा कोई दूसरा प्राणी आस
पास न होने के कारण। पहले तो मुझे वो अपना दुश्मन दिखाई देता था। वो भी किस लिए की
ये सब मेरे हिस्से का भोजन कर जायेगा। अगर ये न होता तो मुझे और कितना खाने को
मिलता। लेकिन अब तो खाना पडा रहता है। और मुझे अंदर से मन मार कर खाना पड़ता है।
ये बात मेरी समझ में नही आई की उस समय मुझे इतनी भूख क्यों लगती थी। और इसी सब के
कारण में टोनी को अपना दुश्मन समझता था। और आज पेट भरा है तो उसकी कमी खलती है।
स्थितियाँ भी हमारे चित को कैसे परिवर्तित कर देती है। ये मुझे आज एक नया अनुभव
हुआ। ये नियम शायद सभी प्राणियों पर लागू होता होगा। इसमें मनुष्य को भी अपवाद
नहीं समझना चाहिए।
अब में टोनी के साथ की भरपाई, कभी सो कर या
कभी वरूण भैया के साथ खेल कर पूरी करने की कोशिश करता था। श्याम के समय मैं और
वरूण भैया खुब मस्ती करते दौड़ते भागते वह कभी दौड़ कर पलंग पर चढ़ जाता और अब तो
मैं एक ही छलांग में उस पर चढ़ जाता। में कभी भागकर उसका हाथा अपने मुहँ से पकड़
लेता और कभी टाँग और गुस्से का दिखाव कर उसे डराने कि कोशिश करता। कभी—कभी मेरी
पकड़ थोड़ी तेज हो जाती। ये सब शायद मेरे
दाँत जो अब बहुत बड़े और मजबूत हो गये थे।
उस समय थोड़े नये और तीखे
थे। कभी
तो मेरी पकड़ से वरूण भैया इतना डर जाता की मम्मी को आवाज देता। तब में
समझ जाता की कुछ गलत हुआ है। ये सब मैं चाह कर रही नहीं कर रहा था। फिर कभी में
उसका कपड़ा पकड़ता और मुझे क्रोध आ जाता। और वह उसे छुड़ाने की भरपूर कोशिश करता
पर मेरी पकड़ के आगे लाचार हो जाता। और कभी—कभी कपड़ा फट भी जाता। पर ये सब हमारे
खेल का हिस्सा होता। और मैं देख रहा था की कल तक जो वरूण भैया मुझ को डरा देते थे
अब में उस पर हावी होने लगा था। अपने साथ खेलते हुए में साफ देख रहा था कि मैं
बड़ा हो रहा हूं। और वरूण भैया मुझसे पीछे रह रहे है। पर इस सब का कारण मेरी समझ
के परे था। पर ये भी था एक आश्चर्य कि में जो पहले इतना छोटा था। जो कभी पापा जी
के हाथ पर खड़ा हो जाता था।
वरूण भैया के स्कूल बैग
में छुप कर सौ जाता था। पानी की उस टबरी में नहाते हुए पूरा का पूरा डूब जाता था।
और आज में उसमे समाता भी नहीं। जब कि घर के दूसरे प्राणियों को देख रहा था वो लगभग
उतने ही है। तब में समझने की कोशिश करता ये रहस्य क्या है? पर उस समय ये सब मेरी समझ से परे था। और सच मानों में इसे समझना भी नहीं चाहता था जो
कुछ मेरे साथ ही हो रहा था। पर इस सब का
एहसास मुझ जीवन के अंतिम समय के दिनों में समझ में आया जब मैं बूढ़ा और लाचार हो
गया था। और चारों और सब को देख रहा था। वह आज भी उतने ही जवान है। और जो बच्चें
थे वो भी जवान हो रहे है। शायद समय की गति जो हमारे और मनुष्य के शरीर की भिन्न
थी। जो शरीर जिस गति से विकास करता है। वह उतनी जल्दी मिट भी जाता है।
और हंसांशु भैया के पास एक छोटी सी साईकिल
थी। जिस पर में जब छोटा था बिठा दिया जाता और डर के मारे में कूद पड़ता था। कभी
जल्दी बाजी या भय के कारण जब मैं कूदता तो मेरी थूथन जमीन पर लगती और मैं प्यांऊ
कर के भाग जाता। सच उस साईकिल रूपी दानव की तो शकल भी मुझे नहीं भाती थी। उसे तो
में देख कर ही डर जाता था। पर अब तो मैं उस पर दोनो पैर रख कर खड़ा हो जाता हूं।
और भैया चाह कर भी उस पर मुझे उस पर बिठा नहीं पाते क्योंकि में बहुत बड़ा और
तगड़ा हो गया था।
अब भैया अपनी साईकिल पर
बैठ कर मेरे साथ दौड़ लगाते पर ये सब दौड़ जितना तो मेरे दायें हाथा का खेल बन कर
रह गया था। वो चूँ....चूँ साईकिल अब कहां मुझे पकड़ सकती थी। इस बात का पता तो
जंगल में जाकर लगा। जब एक दिन मेरी दौड़ वरूण भैया के साथ—साथ पापा जी के साथ भी
हुई। और चमत्कार मैने सब को पीछे छोड़ दिया। उस दिन मुझे अपने पर कितना गर्व महसूस
हुआ। और सब लोगो ने मेरी कितनी तारीफ की और मेरे मुलायम बालों पर हाथ फेर कर मुझे
प्यार किया। तब फूली सांसों और फटे मुख से मैं जोर—जोर से ठंडी साँसे ले कर अपने
बदन की गर्मी कम करने की कोशिश कर रहा था।
मेरी जीब से लार टपक रही
थी। पर एक जीत की खुशी थी। जिसे मेंने पहली बार महसूस किया था। कि मैं किसी एक काम
में तो मनुष्य से महान हूं, और मेरे अंदर एक उमंग और उत्साह जोर मारने लगा। यही
छोटी—छोटी घटनायें मुझे बता रही थी कि मैं जवान और ताकत वर हो रहा हूं। पहले में
घर का नाजुम और छोड़ा प्राणी था जो बढ़ कर अपना स्थान और रुतबा बढ़ा रहा था।
फिर अचानक एक दिन वरूण भैया के लिए बड़ी
साईकिल आ गई। मैं उसके रंग और आकर को देख कर बहुत प्रसन्न हो रहा था। और सही
मायने में वह प्रसन्नता का कारण भी थी। क्योंकि इतनी बड़ी साईकिल को घर में चलाया
नहीं जा सकता। और कही बहार चलाने जायेगे तो मैं भी साथ जा सकता था। और मजे से दौड़
सकता था। एक प्रकार का जंगली पन मुझे घर रहने नहीं दे रहा था। यहां किसी बात की
कोई कम नहीं थी। न ही कोई बंधन ही था। पर एक आवारा पन जो मेरे खून में था। बो धक्के
मार रहा था। जब भी कहीं बहार जाने की बात या घूमने की बात चलती तो मेरी खुशी का
ठीकाना नहीं रहता।
श्याम को सबने साईकिल
चलाने का प्रोग्राम बनाया। साईकिल किसी को चलानी नहीं आती थी। सो बड़ी मुसीबत थी।
पर ये सब मेरी मुसीबत नहीं थी। मुझे तो देरी के कारण बेचैनी होती थी। की ये लोग
जल्दी क्यों नहीं करते। दीदी को साईकिल पैदल चलाने के लिए दे दी गई। और पापा जी
ने मुझे चेन से बाँध कर आपने साथ चल पड़े। हिमांशु बार—बार जिद कर रहा था कि मैं
साईकिल पर बैठूंगा। पर दीदी ने उसे मना कर दिया। गांव को पास कर के जंगल का कच्चा
रस्ता आ गया। अब मुझे गाड़ी और सड़क से कोई खतरा नहीं था सो मुझे खोल दिया गया।
और पापा जी ने साई को अपने हाथ में ले लिए।
फिर भी समस्या वहीं की वहीं थी। हम चार और
साईकिल एक। फिर सब तो बैठ नहीं सकते थे। सो पापा जी ने पहले हिमांशु भैया को उसके
हैंडल पकड़ कर सम्हालने को कहा। और पीछे से खुद पकड़े रहे और हिमांशु भैया बड़े
गर्व से साईकिल का हैंडल सम्हालते रहे। और साईकिल चल रही थी। अब ये सब दीदी—और वरूण भैया देख कर सोच रहे थे
कि हमसे पहले तो हिमांशु साईकिल चलाना सिख गया है। पर ये उनका भ्रम था। क्योंकि
पापा जी पीछे से साईकिल को खुद सम्हाल हुए थे। जंगल परा कर के अचानक एक बहुत
पुरानी सड़क आ गई शायद यह अँग्रेजों की बनवाई हुई थी। इस पर आज कोई गाड़ी घोड़ा
नहीं आता था।
लेकिन
किसी समय दिल्ली छावनी जाने के लिए अंग्रेज इसी सड़क का उपयोग करते थे। अब तो उस
पर जहां तहां जंगली पेड़—पौधों ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया था। अब वरूण भैया
बार—बार जिद कर रहे थे की अब मेरी बारी। आखिर हिमांशु भैया को उतार कर वरूण भैया
को साईकिल का सिंहासन सोप दिया गया। देखें वो कितना बड़ा पाईलेट बनता है। पापा जी
ने साईकिल को पीछे से पकड़ रखा था, हां एक बात थी जिन पैडल तक हिमांशु भैया के पैर
नहीं पहुंच पा रहे थे।
वहां
पर वरूण भैया के पैर पहुंच रहे थे। इसे से वह खुद ही साईकिल को पैडल मार कर चला
रहा था। ये सब देख कर मुझे अचरज हो रहा था। कि मनुष्य के विकास क्रम ये उनके परस्पर
देन का भी हाथ है। उनके पूर्वजों जो विकास किया है या जो जान है वो आने वाली पीढ़ी
को उपहार स्वरूप दे जाते है। और हम पशुऔ को क ख गा से प्रत्येक जन्म में शुरू
करना होता है। जो कुछ भी जीना समझा है आपकी अपनी पूंजी है। चाहे वह सड़क पार करना
हो या किसी से लड़ना झगड़ना या तो आप जीते या ये अनुभव ले कर मर गये। परंतु मनुष्य
ने जो भी खोजा वह उसने आने वाली पीढ़ी को दिया। फिर भी मनुष्य इस बात को भूल जाता
है। की आज न जाने कितने छोटे बड़ काम हो जो मेरे पूर्वजों मेहनत और जीवन देखकर उसे
खोजा वह हमे अनायास ही मिल गये। इस लिए इस की मनुष्य कभी कदर नहीं करता। जो बिना
मेहनत के मिले उसका कोई मुल्य नहीं चाहे वह जीवन ही क्यों न हो।
साईकिल
बार—बार इधर से उधर डोल रही थी। लग रहा था अभी गीरी की तभी गिरी। पर इसे पापा जी
सम्हाले हुऐ थे। इस लिए वह गिर नहीं पा रही थी। वरूण भैया पैर से पैडल को दबाते
और साईकिल उधर ही झक जाती। फिर दूसरे पैर से पैडल को दबाते तो साईकिल इधर झुक
जाती। काफी दूर तक ऐसे ही चलता रहा। मुझे ये सब ठीक नहीं लग रहा था। भैया इस तरह
तो कभी भी गिर सकते है। और ये भी क्या साईकिल चलाना पापा जी तो नाहक परेशान हो
रहे है।
परन्तु
जो मैने देखा वो अचरज था एक चमत्कार था। पाप जी ने वरूण भैया को नीचे उतार दिया
और खुद साइकिल पर बैठ गये। उनके कद और काठी के हिसाब से वह साईकिल छोटी थी। हम सब
पापा जी को घेर कर खड़े हो गये। और पापा जी सब को समझाया की देखो जिधर साईकिल
गिरती है, हम डर के मारे अगले हैण्ड़ल को दूरी तरफ कर देती है। जब की हमे उसी तरफ
करना चाहिए। और पापा जी ने खड़ी साईकिल को कितनी ही देर तक गिरने नहीं दिया और न
ही चलाया। इस घटना को सब को बच्चों के साथ मैं भी देख रहा था। पर इस सब का मैं
फायदा नहीं उठा सकता था। पर बच्चों को ये बात पहली बार समझ में आ गई। जो की साईकिल
चलाने को गुढ़ मंत्र था। साईकिल के विषय में तब बात मेरी समझ में आई की वह गिरती
क्यों नहीं। अब पापा जी ने उसे चला कर भी दिखाया। और में पापा जी के साथ दौड़ने
लगा। पापा जी ने साईकिल तेज कर दी बच्चे तो पीछे रह गये पर मैं साथ दौड़ता रहा।
पापा जी और तेज करते रहे और मैं थकता गया और पापा जी मुझे बहुत दूर निकल गये। सब
बच्चे भी पीछे अकेले रह गये थे, इस बात
का भी मुझे फिकर था कुछ इस लिए भी में चाह कर भी पापा जी के साथ दौड़ नहीं सका। पर
साईकिल की गति के आगे तो में मात खा ही गया। कुछ दिन पहले जो मेरे मन में जीत की
खुशी थी वह आज काफूर हो गई। और कुछ दुर और जा कर पापा जी ने साईकिल को मोड़ कर
हमारी तरफ वापस आ गये तब हम सब ने खुशी के मारे ताली बजा कर पापा जी का स्वगत
किया।
हम
सब इस खेल से बहुत खुश थे। हां ये खेल ही था इसी कारण सब बच्चे और में उस में
आनंद ले रहे थे। अगर साईकिल चलाना भी कोई काम होता तो हम कब के थक चूके होते। इस
के बाद तो वरूण भैया साईकिल पा बैठे कुछ दूर तो पापा जी साथ चले पर अब बात बन गई
थी। और वह देखते ही देखते खूद ही साईकिल चलाने लगा। पर अभी उसे चलानी और संभालनी
भर आई थी। अभी कैसे उसे रोकना ओर उस से उतरना। ये काम बाकी थे। क्योंकि वरूण भैया
के पैर अभी जमीन तक नहीं जाते थे। वरूण भैया को इस तरह से साईकिल चलाते देख कर अब
दीदी को भी लगा कि वह भी साईकिल चला सकती है। और ऐसा ही हुआ। दोनों बच्चों ने इस
मुश्किल काम को कुछ ही देर में सीख लिया। ये सब पापा जी की समझबूझ और प्रेम के
कारण हुआ था।
हम
साईकिल चलाते हुए वार सिमैट्री के पास पहुंच गये। कोटा पत्थर की बनी करीब तीस फिट
ऊंचे आठ पाओ पर एक ताज की तरह से बना उसका दरवाजा कला का अद्भुत नमूना था। मुझे
ऐसा लगा माना पार्लियामेंट के बचे पाये ही यहां पर इस्तेमाल हुए है। या उन्हीं
कलाकारों के हाथों ने ये जादू किया है। चारों तरफ फैली हरियाली, तरतीब से उगाये
हुए गुलमोहर के पेड़ सामने वो विशाल पहाड़ जो देखने में ऐसा प्रतीत हो रही थी।
मानों इस अद्भुत दृश्य को देख थिर हो कर रह गई थी। दूर उसके पीछे कही रेलवे लाईन
थी।
जहां
से रेल गाड़ी के जाने की धड़—धड़ की आवाज बीच में रह—रह कर आती रहती थी। उस उँची
पहाड़ी को देख कर मेरा मन कर रहा था की मैं भाग उस पर चढ़ जाऊं। दीदी और वरूण भैया
बारी—बारी से साईकिल चलाना सिखते रहे और मैं और हिमांशु भैया बोर होते रहे।
हिमांशु भैया अभी छोटे थे चाह कर भी साईकिल चलाना नहीं सिख सकते थे। और मेरे तो
हाथ पेर ही इस लायक नहीं बने थे। पर हम दोनों खोजियों को कुछ तो करना था। सो हम उस
वार सिमैट्री के अंदर चले गये। वहां क्या देखते है। पत्थरों की कतारे ही कतारे
बहुत तरतीब से लगी थी।
एक
फौज के डीसिपिलन में मानों मरने के बाद भी वो मुक्त नहीं हुए। ये वार सिमैट्री
असल में 1942—1945 के बीच मेरे उन सैनिकों की याद में बनी थी जो रंगून में शहीद हो
गये थे। एक बार तो मैं देख कर डर गया। क्योंकि ऐसा दृश्य मैने पहली बार देखा था।
पर वहां की मुलायम और हरी घास मखमल की तरह से पैरों में गुदगुदाहट कर रही थी। इस
पर मैं और हिमांशु भैया तो सब कुछ भूल कर दौड़ने और खेलने लगे। अचानक एक पत्थर के
सामने कुछ फूल उगे थे। जिस देख कर हिमांशु भैया कुछ देर के लिए रुके और उन्हें
तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक पीछे से पापा जी आवाज आई नहीं फूल को
नहीं तोड़ना, पापा जी पेड़—पौधों को बहुत प्यार करते थे। और हमारे पास आकर कहने
लगे कि देखो ये फूल इस टहनी पर लगे कितने खुश है।
क्योंकि
ये अपनी मां के साथ है। जब इस हम तोड़ लेते है। तो ये उससे अलग हो जाते है। और कुछ
ही देर में उदास हो कर मुरझा जाते है। और मर जाते है। ये यहां पर कितने जीवित है,
कितने प्रसन्न है। ये मिलना बिछुड़ने कि पीड़ा को मैं भी झेल चुका था। इस लिए ये
बात मेरी भी समझ में आई और शायद हिमांशु भैया ने भी अपना हाथ रोक लिया। और उस दिन
के बाद मैने कभी भी हिमांशु भैया को किसी पेड़—पौधे से फूल तो क्या किसी पत्ते को
भी तोड़ते नहीं देखा।
कुछ
देर में हम बहार वार सिमैट्री की सीढ़ियों पर बैठ कर डूबते हुए सूरज को देख रहे
थे। दीदी और वरूण भैया बारी—बारी से उस खुले मैदान में अब साईकिल चला रहे थे। वह
एक दूसरे की मदद कर के उतरना चढ़ना सिखा रहे थे। वार सिमैट्री के सामने जो पहाड़ी
थी वह देखने में अति सुंदर लग रही थी। मेरा मन कर रहा था इस डूबते हुए सूरज को क्या
न उस पर चढ़ कर देखू। और अचानक मेरे विचार पापा जी पढ़ लिए और हम तीनों उस पहाड़ी
पर चढ़ने लगे। रास्ते कुछ उबड़ खाबड़ थे।
कहीं—कहीं
तो पत्थर के एक दम किनारे से गुजरना पड़ रहा था। उस समय फिसल कर गिरने का डर लग
जाता था। हिमांशु भैया की उँगली को पापा जी पकड़ा हुआ था। उपर चढ़ कर उस उतंग चोटी
से मैने देखा तो देखता ही रह गया। नीचे वार सिमैट्री कितनी छोटी से लग रही थी।
मुझे यह देख कर बड़ा अचरज हुआ। कि यह इतनी छोटी कैसे हो गई। जैसे कोई खिलौना है।
और भैया—दीदी तो इतने छोटे लग रह थे जैसे कोई चींटी रेंग रही हो। हिमांशु भैया ने
जोर से आवाज मार कर दीदी को बुलाया। पर शायद उसकी आवाज उनके कानों तक नहीं गई उसके
बाद पापा जी ने आवाज दी, तब भी नहीं देखा हमे दीदी—भैया ने अब मेरी बारी थी।
मेरी
भारी भरकम आवाज दूर वार सिमैट्री से टकरा कर मुझे खुद ही सुनाई दे रही थी। लग रहा
था कोई दूसरा कुत्ता भोंक कर मुझे चिढ़ा रहा था। पर इसी बीच दीदी ने हमे देख कर
हाथ हिलाया। मैने खुशी के मारे पूछ हिलाई। पापा जी मुझे शाबाशी दी। पर आवाज का भी
अपना घनत्व होता है। मनुष्य की आवाज इतनी भारी नहीं होती की जमीन की और जा सके।
उसकी ध्वनि उपर की तरफ गति करती है। और हम पशुऔ की जमीन से छू कर गति करती है। इस
रहस्य को मैने आज जाना।
दूर
आसमान में सूर्य अपने घर जाने की तैयारी कर रहा था। दूर तक जहां भी नजर जाती वहां
हरियाली फैली थी। पर मेरी आंखे इतनी दूर तक देख और समझ नहीं पा रही थी। यहीं मनुष्य
के शरीर और हमारे शरीर में भेद है। मुझे यह देख कर बड़ा अचरज होता था। ये मनुष्य
इतनी दूर का देख और समझ कैसे सकता है। दूर आसमान में सूर्य को बादलों ने ढक लिया
था। आसमान में कहीं भी कोई बादल नहीं था अभी तक न जाने क्यों डूबते सुर्य को देख
कर उसे चारो और से घेर लेते है ये बादल। फिर भी उसकी नारंगी रोशनी बादलों को भेदती
हुई चारों और बिखर रही थी।
परंतु
अचानक पापा ने कुछ देखा और हम नीचे की और उतरने लगे। चढ़ने से कही अधिक डर उतने
में मुझे लग रहा था। क्योंकि उतरती दफ़ा सर नीचे की और होता है। जिससे शरीर को
संभालना थोड़ा कठिन होता है। पर एक बात जरूर है। चढ़ने में जितनी देर लगी थी उससे
आधे समय में हम नीचे उतर जाते है। और थकावट भी बहुत कम होती है। हम जैसे ही नीचे
उतरे दीदी—भैया हमारे पास आ गये। पापा जी कुछ कहां और हम वार सिमैट्री की सीढ़ीयों
की और चल दिये। उस समय मुझे चैन से बाँध दिया गया। ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था।
इस बार पापा जी और हिमांशु भैया उस साईकिल को लेकर कहीं जा रहे थे।
कहां
ये मेरी समझ के बाहर की बात थी। पर मैं रो कर साथ जाना चाहता था। दीदी और वरूण
भैया मुझे समझा रहे थे। हिमांशु भैया गर्व से साईकिल पर बैठ कर मुझे देख रहे थे।
और में उसे भोंक रहा था, इस बात का पता तो
कुछ देर में चला जब पापा जी और हिमांशु भैया आइसक्रीम लेकर आये। वहां से कुछ ही
फरलांग की दूरी पर रेलवे फाटक है। वहीं पर खाने का सामान बेचने वाले खड़े रहते हे।
जब में उनके हाथ में आइसक्रीम देखी तो मारे खुशी के मैं पागल हो गया। पापा के कहने
से मुझे खोल दिया गया। सब बच्चों के साथ पापा जी मेरे लिए भी एक आइसक्रीम का कप
ले कर आये। चाहे में मनुष्य की तरह नहीं था। पर इस बात का मुझे उस घर में कभी भी
एहसास नहीं होने दिया गया। मेरा मन होता में जहां भी बैठ सकता था। पर में अकसर
अपनी सीमा को पहचानता था। कभी खेल—खेल में जरूर में सोने के पलंग पर चढ़ जाता था।
वरना जो मेरा सोने का बिस्तरा था उसे पर मैं सोता था। हां सोफा आदी पर में अपना
अधिकार समझता था।
कई
घंटे से हम खेल और दौड़ रहे थे। कुछ थकावट तो महसूस हो ही रही थी। मेरा कप पापा जी
ने मेरे सामने रख दिया। मैने खुशी के मारे अपनी पूछ हिलाई और पापा जी को धन्यवाद
दिया। ये ठंडी और मीठी अजीब सी चीज थी। ये आदमी भी क्या चमत्कार है इस ने खाने
के लिए क्या—क्या ने इरज़ाद कर लिया। शायद हमारी वफा दारी और गुलामी का एक कारण
हमारी जीभ भी है। इस लिए आपने एक कहावत जरूर सूनी होगी ‘’खाने का कुत्ता’’ खेर
लोग कुछ भी सोचे पर मनुष्य के लिए हमारा मन एक दम से साफ है। हम उसे प्यार भी
करते है और विश्वास भी। और घर आती बार मुझे दीदी ने पकड़ रखा था। मैं चेन से बांधा हुआ दीदी के साथ खुश—खुश चल रहा था। वैसे तो
वहां पर पक्का तारकोल का रोड़ बना था। पर वहां पर गाड़ियों की आवा—जाही बहुत कम
थी। क्योंकि वह इलाका दिल्ली छावनी के आधीन था। इस लिए वहां दौड़ना साईकिल चलाना
सुरक्षित था। पर इस समय रात घिरनें लगी थी।
दूर
रह कर गीदड़ों के रोने की आवाज आ रही थी। जिस सुन कर कम से कम मैं तो थोड़ा डर
जाता था। पर अपने को किसी मनुष्य के हाथों में सुरक्षित बना हुआ जान कर मुझे अच्छा
लग रहा था। घर आते—आते काफी रात हो गई थी। पर पापा के साथ होने के कारण किसी को भी
कोई भय नहीं था। घर आकर मैं इतना थक जाता था कि कुछ खाता भी नहीं था। और रात भर एक
दम मस्त निंद आती थी।
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