गुरुवार, 3 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्राण के ओ दीप मेरे-(प्रवचन-तीसरा)
दिनांक 03 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान, परमात्मा जिनका अनुभव नहीं बना है, उनकी प्रार्थना क्या हो? उनका भजन क्या हो?

     भगवान, चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा को क्यों नष्ट किया गया?
      चार्वाक के बारे में आपके क्या विचार हैं?

     भगवान, आप ऐसी भाषा में क्यों नहीं बोलते जो मेरी समझ में आ सके?
      आपको सुनता हूं, रोता हूं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आता है।

     भगवान, आपको सुनता हूं तो परमात्मा के लिए बहुत तड़फ उठती है,
      विरह का अनुभव होता है। रोता हूं, बहुत रोता हूं।
      अब आगे क्या होगा?

     भगवान, पत्नी संन्यास लेने से रोकती है,
      उसे दुख भी नहीं देना चाहता हूं और संन्यास भी लेना ही है।
      अब आपने ही उलझाया, आप ही सुलझावें।


पहला प्रश्न: भगवान, परमात्मा जिनका अनुभव नहीं बना है, उनकी प्रार्थना क्या हो? उनका भजन क्या हो?

आनंद मैत्रेय, परमात्मा अनुभव नहीं तो प्रार्थना संभव नहीं। जिसके पास आंख नहीं उसके पास प्रकाश की क्या धारणा होगी? वह प्रकाश के गीत भी गाना चाहे तो कैसे गाएगा? और जो गाएगा भी तो झूठ होंगे। और जो गाएगा भी तो प्रकाश के नहीं होंगे। यह तो असंभव है।
परमात्मा का अनुभव ही तुम्हारे पोर-पोर में प्रार्थना बन कर उठता है। प्रार्थना परमात्मा को पाने की विधि नहीं है, प्रार्थना परमात्मा को पा लिए गए व्यक्ति की अभिव्यक्ति है। परमात्मा सुवास है। तुम्हारे नासापुट जब उससे भर जाएंगे तो तुम मगन होकर नाचोगे; वह मगनता प्रार्थना है।
परमात्मा ऐसे है जैसे आषाढ़ में मेघ घिर गए और मोर नाचे। परमात्मा के मेघ घिरेंगे तुम्हारे चित्ताकाश में, तो तुम्हारे प्राणों के मोर नाचेंगे; वह नृत्य प्रार्थना है। वही नृत्य भजन है।
इसलिए यह तो संभव नहीं है, किसी तरह संभव नहीं है कि तुम परमात्मा के अनुभव के बिना प्रार्थना कर सको, भजन कर सको।
तुम्हें बहुत हैरानी भी होगी, तुम्हें बहुत चिंता भी होगी कि फिर परमात्मा का अनुभव कैसे होगा?
जब तक परमात्मा का अनुभव नहीं है तब तक ध्यान संभव है, प्रार्थना नहीं। ध्यान विधि है, प्रार्थना परिणाम है। ध्यान से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। इसलिए जिन धर्मों ने ध्यान को केंद्र माना उन्होंने परमात्मा की बात ही नहीं उठाई। जैन धर्म, बौद्ध धर्म; इनमें परमात्मा की कोई जगह नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिनों ने परमात्मा को नहीं जाना, कि बुद्धों ने परमात्मा को नहीं जाना। जाना, जरूर जाना, मगर उसकी बात उठाने की जरूरत नहीं आई। उनका मार्ग तो ध्यान का था।
ध्यान का संबंध तुमसे है, परमात्मा का संबंध तुमसे अभी नहीं है, तो प्रार्थना का भी तुमसे कोई संबंध नहीं हो सकता। प्रार्थना का संबंध परमात्मा से है, ध्यान का संबंध स्वयं से है। ध्यान का अर्थ है अपने को निखारो। ध्यान का अर्थ है अपने को निर्विचार करो। ध्यान का अर्थ है अपने को शून्य में ले चलो। ध्यान का अर्थ है अपने को मिटाओ, गलाओ, बह जाने दो। ध्यान का अर्थ है तुम न रह जाओ। और जब तुम न रह जाओगे तो परमात्मा की प्रतीति होगी। उस शून्य में ही पूर्ण का अवतरण होता है।
और आया परमात्मा कि प्रार्थना भी आएगी, जरूर आएगी। प्रार्थना उसकी छाया की तरह आती है। प्रार्थना उसके पैरों की पगध्वनि है। और अगर तुमने अभी प्रार्थना की तो प्रार्थना झूठी होगी। और झूठ से कोई सत्य तक कैसे पहुंचेगा? झूठ से तो और बड़े झूठ ही निष्पन्न होते हैं।
अभी तुमने प्रार्थना की तो विश्वास होगा, श्रद्धा नहीं; मान्यता होगी, प्रतीति नहीं। मान्यता से तुम कैसे जानने तक पहुंचोगे? मान्यता की सीढ़ियां जानने के मंदिर तक जाती ही नहीं। मानने की सीढ़ियां तो और-और अंधविश्वासों में ले जाएंगी। अगर आज तुमने एक बात मानी तो कल तुम्हें और भी बड़ी बात माननी पड़ेगी, परसों और बड़ी बात माननी पड़ेगी।
एक झूठ को सम्हालने के लिए दस झूठ बोलने पड़ते हैं। और एक झूठ को पकड़ रखने के लिए दस झूठों की बैसाखियां इकट्ठी करनी पड़ती हैं, टेकें इकट्ठी करनी पड़ती हैं। परमात्मा अनुभव नहीं तो प्रार्थना तो झूठ होगी। मुंह से दोहरा सकोगे। लेकिन मुंह से दोहराई गई प्रार्थना का क्या मूल्य है? प्राणों से कैसे उठेगी? अंतरात्मा में कैसे जगेगी? तुम्हारा रोआं-रोआं कैसे पुलकित होगा?
यह तो ऐसे ही होगा जैसे कि कोई बिना शराब पीए और डगमगा कर चले। चल सकता है डगमगा कर। अभिनेता चलते हैं, हाथ में खाली बोतल ले लेते हैं, या पानी भरी बोतल, लेबल भर शराब का होता है। लड़खड़ाने लगते हैं, मुंह से लार टपकाने लगते हैं, गिर-गिर पड़ते हैं। मगर तुम जानते हो कि सब झूठ! न बोतल में सच्ची शराब है, न शराबी शराब के नशे में है। गिरता है तो भी सम्हल कर गिरता है--कि कहीं चोट न खाए। फिर एक शराबी का गिरना है, वह बात और।
लाओत्सु ने कहा है: एक बार मैं एक गाड़ी में यात्रा करता था। चार जन थे; तीन तो ठीक-ठाक थे, एक पीए बैठा था, डट कर पी थी। गाड़ी उलट गई। तीन ने तो बड़ी चोट खाईं, मगर उस एक को पता ही नहीं चला। तीनों की तो हड्डी-पसली चकनाचूर हो गई और जब वह चौथा होश में आया तो उसने कहा कि मामला क्या है! लाओत्सु ने कहा, उसे चोट भी नहीं लगी। कारण?
तो लाओत्सु ने एक बहुत अदभुत सिद्धांत उस अनुभव से निकाला। वह सिद्धांत समझने जैसा है। शराबी को चोट नहीं लगी, क्योंकि चोट गिरने से नहीं लगती, लाओत्सु ने कहा। अगर गिरने से लगती होती तो उसको भी लगती। चोट तो बचने के प्रयास से लगती है। जब तुम गिरने लगते हो तो तुम बचने का महत प्रयास करते हो कि गिर न जाओ! अकड़ जाते हो, तनावग्रस्त हो जाते हो; तुम्हारा शरीर विश्राम की दशा भूल जाता है, कड़ा हो जाता है। बचने के लिए तुम लोहे जैसे हो जाते हो। और जब लोहे जैसी चीज जमीन पर गिरेगी तो टूटेगी। और शराबी तो ऐसे गिर जाता है जैसे भुस भरा हुआ थैला गिर गया हो। इसीलिए तो छोटे बच्चे रोज गिरते हैं और हड्डी चकनाचूर नहीं होती। तुम जरा गिर कर देखो।
तो लाओत्सु ने कहा, शराबी को चोट नहीं लगी, इससे एक बात तय हुई कि चोट गिरने से नहीं लगती, चोट बचने की चेष्टा से लगती है।
यह बहुत महत्वपूर्ण बात उसने खोज निकाली। जिनके पास देखने की दृष्टि है वे हर अनुभव में से कुछ निचोड़ निकाल लेते हैं।
तुम शराबी की तरह बन कर चल सकते हो। और ऐसे ही लोग तुम्हें मंदिरों और मस्जिदों, गिरजों-गुरुद्वारों में मिलेंगे, जो बिना पीए डोल रहे हैं। जिनके डोलना झूठ है, क्योंकि भीतर मस्ती नहीं है। जो डोल रहे हैं--दिखावा है, प्रदर्शन है, तमाशा है। भीतर? भीतर कोई नहीं डोल रहा है। शराब ही नहीं पी अभी।
परमात्मा शराब है। हां, शराब जब पी लोगे तो तुम्हारे जीवन में जो अलमस्ती होगी, प्रार्थना उसी अलमस्ती का एक रंग है। नृत्य होगा, गीत होगा; वे सब उसी अलमस्ती से निकलेंगे। वे उसी अलमस्ती की धाराएं हैं। अलमस्ती की गंगोत्री से प्रार्थना की गंगा पैदा होती है।
मीरा को हुई। लोग सोचते हैं, मीरा ने गा-गा कर परमात्मा को पा लिया। गलत सोचते हैं, बिलकुल गलत सोचते हैं! उन्हें जीवन का गणित आता ही नहीं। मीरा ने परमात्मा को पाया, इसलिए गाया। गा सकी--इसलिए नहीं कि परमात्मा को गा-गा कर पाया जा सकता है; लेकिन परमात्मा को पा लो तो बिना गाए नहीं रहा जा सकता। अगर गाने से परमात्मा मिलता हो तो लता मंगेशकर को मीरा से पहले मिल जाए। लता मंगेशकर को पीएच.डी. की उपाधि मिल सकती है, परमात्मा नहीं। यह गीत कंठ तक है। कंठ जिनके सुमधुर हैं, उनको कोकिल-कंठी कहो ठीक। और मीरा का हो सकता है गीत इतना सुमधुर न भी रहा हो, होश कहां! मात्रा-छंद की भूल होती हो, होश कहां!
मीरा ने कहा ही है: सब लोक लाज खोई! मीरा सड़कों पर नाचने लगी; राजघराने की महिला थी, रानी थी। प्रियजन-परिजन चिंतित हुए, बदनामी हो रही थी। जहर भेजा। कहानी कहती है कि मीरा जहर पी गई और मरी नहीं। अगर यह बात सच हो कि मीरा जहर पीकर मरी नहीं तो वैसे ही समझ लेना जैसा लाओत्सु का शराबी गाड़ी से गिरा और चोट नहीं खाया। बस वही बात है। पी गई होगी शराब, पी गई होगी जहर, जो भी भेजा होगा पी गई होगी; लेकिन उसे खयाल ही नहीं होगा, बचाव ही नहीं होगा। बचने वाला तो जा ही चुका; वह अहंकार तो कभी का विदा हो चुका है। अब तो परमात्मा था। और परमात्मा जहर पीए तो मरे? अब तो प्रार्थना थी। और प्रार्थना से तो जहर भी जुड़े तो अमृत हो जाए। और प्रार्थना के साथ तो अंधेरे का भी संग-साथ हो जाए तो रोशन हो जाए।
नहीं, मैं ऐसा कहता हूं कि मीरा ने परमात्मा को पाया, इसलिए गा सकी।
प्रार्थना आत्यंतिक फूल है। पहले वृक्ष तो लगने दो परमात्मा के अनुभव का।
इसलिए आनंद मैत्रेय, तुम पूछते हो: "परमात्मा जिनका अनुभव नहीं बना, उनकी प्रार्थना क्या हो? उनका भजन क्या हो?'
उनकी न तो प्रार्थना हो सकती है, न भजन हो सकता है, न होना चाहिए। और चूंकि वही हो रहा है इसलिए पृथ्वी परमात्मा से रिक्त की रिक्त पड़ी है, खाली की खाली पड़ी है। जहां परमात्मा की हरियाली हो सकती थी वहां थोथे पांडित्य, थोथे मंदिर-मस्जिदों, कोरी बकवास का रेगिस्तान फैला हुआ है।
और कारण? सबसे बड़ा कारण यही है कि हमने प्रार्थना को पहले रख लिया है और परमात्मा को पीछे। हम छाया को पहले रख लिए हैं और मूल को पीछे। और छाया को पकड़ने चले हैं और मूल पकड़ में आता नहीं।
स्वामी राम ने एक संस्मरण लिखा कि मैं भीख मांगता एक द्वार के सामने जाकर खड़ा हुआ था। इसके पहले कि मैं भीख मांगूं, सुबह थी सर्द, धूप में घर का बच्चा खेल रहा था और अपनी छाया को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। झपट्टा मारता था अपनी छाया पर और छाया पकड़ में नहीं आती थी तो रोता था, चिल्लाता था, फिर झपट्टा मारता था। उसकी मां उसे बहुत समझा रही थी कि बेटा, छाया पकड़ में नहीं आती! मगर वह मानता नहीं था। छाया सामने दिखाई पड़ रही, पकड़ में क्यों नहीं आएगी! यह रही हाथ भर की दूरी पर। तो फिर सरकता, फिर पकड़ने की कोशिश करता। लेकिन तुम जितने सरकोगे, छाया भी सरक जाती।
राम हंसने लगे। राम ने उस स्त्री को कहा, यह तेरे वश की बात नहीं, यह हमारा धंधा है। यह तू न समझा सकेगी। क्या मैं अंदर आ सकता हूं? क्या मैं समझा सकता हूं इस बच्चे को? यही हमारा धंधा है, बच्चों को समझाना ही हमारा धंधा है। और यही हमारा काम है और यही हमारा प्रश्न है।
मां तो थक गई थी। उसने कहा, जरूर आइए, भीतर आइए, स्वागत है! इसको समझाइए, रो रहा है, परेशान हो रहा है। सुबह से मुझे भी परेशान किए है, काम भी नहीं करने देता। छाया पकड़ना चाहता है! छाया कहीं पकड़ी जाती है?
राम ने कहा, पकड़ी जाती है, पकड़ने का ढंग होता है। बच्चे का हाथ लिया और खुद बच्चे के सिर पर रख दिया। इधर बच्चे का हाथ सिर पर गया उधर छाया भी हाथ की पकड़ में आ गई। बच्चा खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा कि मुझे पता था, जरूर कोई तरकीब होगी।
अपने को पकड़ने से छाया पकड़ में आ गई। मूल को पकड़ा तो छाया पकड़ में आ गई।
राम ने ठीक कहा: यही मेरा धंधा है। यही मैं तुमसे कहता हूं: यही मेरा धंधा है। तुम ध्यान करो। ध्यान से स्वयं पकड़ में आ जाओगे। और जिसने स्वयं को पकड़ लिया उसके लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। फिर परमात्मा सहज ही अनुभव बनता है।
परमात्मा है क्या? तुम्हारी निर-अहंकार भाव की दशा का नाम! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। परमात्मा कोई आकाश में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान जगत का शासक नहीं। परमात्मा है तुम्हारी वह परम अनुभूति, जब अहंकार की जरा सी भी मात्रा शेष नहीं रह जाती, होमियोपैथिक मात्रा भी शेष नहीं रह जाती; जब अहंकार की लकीर भी शेष नहीं रह जाती; जब अहंकार कहीं भी मौजूद नहीं रह जाता।
तुमने देखा, शुद्ध कांच हो तो उसकी छाया नहीं बनती। सारी दुनिया के पुराणों में ऐसी कहानियां हैं कि आकाश में देवता चलते हैं तो उनकी छाया नहीं बनती। वे कहानियां बड़ी प्रीतिकर हैं, अर्थपूर्ण हैं। नहीं कि कहीं कोई स्वर्ग है और कहीं कोई देवता चलते हैं; बल्कि पुराण तो कहानियों के माध्यम से सत्यों को कहते हैं। देवता वह, जो इतना शुद्ध हो गया है, जिसका अहंकार इतना गल गया है कि जिसके भीतर जरा भी खोट नहीं रह गई मैं की। वही देवता। वही भगवत्ता को उपलब्ध। उसकी छाया नहीं बनती। शुद्धि की छाया नहीं बनती। किरणें आर-पार हो जाती हैं, बीच में कोई रुकावट ही नहीं पड़ती।
जिस दिन तुम्हारे आर-पार परमात्मा ऐसे बहने लगता है जैसे वृक्षों में से हवा बहती है और पहाड़ों में से गंगा बहती है; जिस दिन तुम्हारे भीतर कोई अवरोध नहीं रहता, कोई चट्टान नहीं रहती, तुम परमात्मा को आर-पार जाने देते हो, आने देते हो; जिस दिन जीवन-ऊर्जा तुम्हारे भीतर लहरें लेती है और तुम्हारी तरफ से कोई रुकावट, कोई व्यवधान नहीं होता--उस परम अनुभूति का नाम परमात्मा है। कहो निर्वाण, कहो मोक्ष, कैवल्य, जो तुम्हारी मर्जी हो कहो। परमात्मा शब्द में मत उलझ जाना। परमात्मा शब्द से ऐसी भ्रांति होती है कि कोई व्यक्ति। लेकिन तुम जरा शब्द पर गौर करो। परमात्मा का अर्थ व्यक्ति नहीं है--परम आत्मा। तुम्हारी आत्मा की परम शुद्ध अवस्था।
कैसे तुम्हारी आत्मा शुद्ध हो, यह पूछो। प्रार्थना कैसे हो, यह मत पूछो। यह मत पूछो कि फूल कैसे उगें; यह पूछो कि बीज कैसे बोए जाएं। यह मत पूछो कि फूलों में सुगंध कैसे आएगी; यह पूछो कि पौधे कैसे सम्हाले जाएं। तुम बीज बोओ, तुम खाद डालो, तुम पौधे सम्हालो, तुम बागुड़ लगाओ--फूल तो जब आने हैं समय पर आ जाएंगे, तुम उनकी चिंता ही छोड़ दो। कलियां तो जब खिलनी हैं खिल जाएंगी; तुम जबरदस्ती कलियों को खोलने की कोशिश मत करना। कहीं असमय में कलियां खोल लीं तो फूल तो खुल जाएगा मगर सुगंध उपलब्ध न होगी। सुगंध को पकने के लिए समय चाहिए।
प्रार्थना तो तुम्हारे प्राणों की पकी हुई सुगंध है। जब तुम्हारे प्राणों का कमल खुलता है सहजता से तो प्रार्थना उठती है। प्रार्थना परिपूर्णता है। प्रार्थना घर लौट आई आत्मा का आनंद है, अहोभाव है।
इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता कि प्रार्थना सीखो। मैं तुमसे कहता हूं, ध्यान सीखो। और ध्यान की दिशा बिलकुल अलग है।
ऐसा समझो, तुम चिकित्सक के पास जाते हो, तुम बीमार हो। तुम उससे यह नहीं कहते कि मुझे स्वास्थ्य की टिकियाएं दे दें, मुझे ऐसी दवा दे दें कि जिससे मैं तत्क्षण स्वस्थ हो जाऊं। क्योंकि स्वास्थ्य की कोई दवा होती ही नहीं। तुम उससे कहते हो कि मेरी बीमारी का निदान करें, पहचानें कि मैं किस बीमारी से परेशान हूं और मुझे ऐसी दवा दें कि बीमारी कट जाए। हालांकि जब बीमारी कट जाती है तो जो शेष रह जाता है उसका नाम स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य की कोई दवा नहीं होती, दवा बीमारी की होती है।
अहंकार बीमारी है; ध्यान उसकी दवा है, औषधि है। ध्यान से अहंकार कट जाएगा, फिर जो शेष रह जाता है वह परमात्मा है, वह प्रार्थना है। फिर जरूर तुम गाओगे। जरूर तुम्हारे कंठ से कोयल फूटेगी, पपीहा बोलेगा। जरूर तुम्हारे प्राणों से उपनिषद जगेंगे, कुरान अवतरित होगी। मगर यह सब अपने से होता है। ध्यान मनुष्य के हाथ के भीतर है; प्रार्थना प्रसाद है। ध्यान प्रयास है; प्रार्थना प्रसाद है।
प्राण के ओ दीप मेरे!
ज्योति है कर्तव्य तेरा;
स्नेह है अधिकार तेरा।
पर, असंयत स्नेह-भिक्षा
तू न घर-घर मांगने जा!
स्नेह पाता पात्र
अपनी परिधि में चुपचाप,
अपने आप।
भिक्षा मत मांगो। प्रार्थना के लिए झोली मत फैलाओ। मंदिरों-मस्जिदों में चढ़ौती मत चढ़ाओ।
प्राण के ओ दीप मेरे!
ज्योति है कर्तव्य तेरा;
स्नेह है अधिकार तेरा।
पर, असंयत स्नेह-भिक्षा
तू न घर-घर मांगने जा!
स्नेह पाता पात्र
अपनी परिधि में चुपचाप,
अपने आप।
मौन से, एकांत में जो शांत,
अविचलित, अविभक्त
चिरविश्वास का फल,
प्राप्य संयमसाधना से,
स्नेह वह है।
है बंधा वह पाश में दायित्व के;
है सजग प्रत्येक मर्यादा चतुर्दिक!
स्नेह सीमित है, इसी से शेष है।
बिखर कर वह नष्ट हो जाए,
बंटे हर ओर यदि।
किंतु, सीमा का न बंधन
मानता या जानता जो,
वह प्रकाश; अबाध वह तो।
फैलना, बंटना, बिखरना
और वितरित हुए जाना
दूर तक प्रत्येक कण में
ज्योति के उत्सर्ग-जीवन की सफलता
और सार्थकता ज्वलित अस्तित्व की!
स्नेह से परिपूर्ण है तू, सत्य है, दीप मेरे!
किंतु, जीवन-रात्रि लंबी है बहुत।
एक क्षण का यह नहीं उन्माद है।
भभक कर पल में नहीं निःशेष होना,
स्नेह सब उत्तेजना में नहीं खोना!
साधना है ज्योति देना,
स्नेह संबल साधना का,
एक को यदि है लुटाना,
दूसरे को है बचाना।
स्नेह जीवित है तभी तक,
है नियंत्रण मधुर उस पर
आत्मसंयम का निरंतर।
और, झंझावात भी आते बुझाने।
किंतु, अपने साथ लाते
शक्ति भी वह,
प्राप्त होती प्राण को संघर्ष से जो।
सिर्फ जलना ही नहीं है, जूझना भी,
जूझ कर भी पवन से है शेष रहना
और फिर जलना, निरंतर जले जाना।
यदि नहीं साहस रहा,
यदि धैर्य छूटा,
बीच ही में ध्रुव
किसी क्षण ज्योति बुझना!
यत्न से तू स्नेह को अपने संजोकर,
वर्तिका की नोक से उत्सर्ग करके
ज्योति-किरणों का, भले लघु हों, निरंतर
तिमिर पर आघात कर, कर साधना यह।
जो अथक हो, साधना है नाम उसका।
पूर्णता ही साधना का अंत है।
पूर्णता वह मुक्तिका होगी जगत की,
ज्योति-प्लावन में दिवाकर के सभी जब
डूब जाएगा तिमिर का, रात का।
फिर भले ही छोड़कर
पतवार अपनी साधना की,
प्राप्त कर निर्वाण, तू भी डूब जाना
दिवस के उस ज्योति पारावार में।
नयन सब तब कर उठेंगे वंदनाएं
भुवनभास्कर के महत्तम तेज की;
एक भी लोचन न तेरी ओर होगा।
पूर्णता, कृतकृत्य, सार्थक विनय लेकर
और निज अस्तित्व की ले मौन लघुता,
मग्न विस्मृति में, उपेक्षा में जगत की,
शांति से सोना, सफल होकर, सवेरे!
प्राण के ओ दीप मेरे!
दीया तुम्हारे भीतर है, उसे खोजो। मत टटोलो कहीं और। दीया तुम्हारे भीतर है। परदे हटाओ। विचारों के परदे हैं, स्मृतियों के परदे हैं, कल्पनाओं-कामनाओं के परदे हैं। परदे हटाओ! परदों में छिपी है ज्योति। और एक बार ये सारे परदे हट जाएं, तो इन सारे परदों के इकट्ठे होने का नाम अहंकार है, ये परदे गए तो अहंकार गया।
और चिंता न करो, अगर छोटी-छोटी किरण भी फूटती हो शुरू में तो घबड़ाना मत और साहस मत खो देना।
यत्न से तू स्नेह को अपने संजोकर,
वर्तिका की नोक से उत्सर्ग करके
ज्योति-किरणों का, भले लघु हों, निरंतर
तिमिर पर आघात कर, कर साधना यह।
अभी तो ध्यान साधो। प्रार्थना आएगी समय पर। जब वसंत आएगा, प्रार्थना आएगी, फूल खिलेंगे। अभी तो अपने को जगाओ।
पूर्णता वह मुक्तिका होगी जगत की,
ज्योति-प्लावन में दिवाकर के सभी जब
डूब जाएगा तिमिर का, रात का।
फिर भले ही छोड़कर
पतवार अपनी साधना की,
प्राप्त कर निर्वाण, तू भी डूब जाना
दिवस के उस ज्योति पारावार में।
तब तक संघर्ष करो। तब तक साधना करो। तब तक ध्यान को प्रज्वलित करो। जब ध्यान का दीया जल जाए तो छोड़ देना उसे भी ज्योति के उस असीम पारावार में।
प्राप्त कर निर्वाण, तू भी डूब जाना
ज्योति के उस पारावार में
नयन सब तब कर उठेंगे वंदनाएं
भुवनभास्कर के महत्तम तेज की!
यह समझना। तब तुम्हारा दीया डूबने लगेगा उस महाज्योति में, तो जो भी देख सकेंगे, जो भी अनुभव कर सकेंगे...
नयन सब तब कर उठेंगे वंदनाएं
भुवनभास्कर के महत्तम तेज की;
एक भी लोचन न तेरी ओर होगा।
तुम तो होओगे ही नहीं। तुम्हारा अहंकार तो पहले ही गया। तुम्हारी तरफ तो एक भी आंख न उठेगी।
इसीलिए तो हमने बुद्धों को भगवान कहा। बुद्ध तो मिट गए, अब उनकी तरफ तो आंख भी नहीं उठती। कांच इतना शुद्ध हो गया कि अब छाया भी नहीं बनती। अब तो उनमें जो भी देखने जाएगा, भगवान को ही पाएगा। उस क्षण भुवनभास्कर के महत्तम तेज की प्रशंसाएं होंगी, वंदनाएं होंगी।
पूर्णता, कृतकृत्य, सार्थक विनय लेकर
और निज अस्तित्व की ले मौन लघुता,
मग्न विस्मृति में, उपेक्षा में जगत की,
शांति से सोना, सफल होकर, सवेरे!
प्राण के ओ दीप मेरे!
ज्योति है कर्तव्य तेरा;
स्नेह है अधिकार तेरा।
पर, असंयत स्नेह-भिक्षा
तू न घर-घर मांगने जा!
स्नेह पाता पात्र
अपनी परिधि में चुपचाप
अपने आप।


दूसरा प्रश्न: भगवान, चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा को क्यों नष्ट किया गया? चार्वाक के बारे में आपके क्या विचार हैं?

वैराले, चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा खतरनाक थी पंडित-पुरोहितों के लिए। उनकी मृत्यु थी उसमें छिपी। अपने को बचाने के लिए उसे नष्ट करना पड़ा।
चार्वाक ग्रंथ-संपदा नास्तिकता की आत्यंतिक अभिव्यक्ति थी। और नास्तिकता की आत्यंतिक अभिव्यक्ति को परम आस्तिक ही आलिंगन कर सकता है, छोटे-मोटे, झूठे-मूठे आस्तिक नहीं। झूठे-मूठे आस्तिक तो घबड़ा जाएंगे, उनके तो पैर के नीचे की जमीन खिसक जाएगी।
ये झूठे आस्तिकों के ग्रंथ तुमसे कहते हैं कि अगर कोई ईश्वर के खिलाफ बोले तो कानों में अंगुली डाल लेना। कहीं ईश्वर के विपरीत कोई वचन सुनना मत।
क्यों? क्योंकि तुम्हारा ईश्वर बड़ा कच्चा। तुम्हारी मान्यता बड़ी थोथी। तुम्हें डर है कि कहीं ईश्वर के विपरीत कोई कुछ बोले और मेरा संदेह न जग जाए! संदेह तो है ही तुम्हारे भीतर, कोई उकसा न दे।
लेकिन कोई उकसाए या न उकसाए, अगर संदेह भीतर है तो भीतर है। अच्छा तो यही होगा कि कोई उकसा दे, ताकि तुम्हें पता चल जाए। तुम धन्यवाद करना उसका कि उसने तुम्हारे संदेह को तुम्हारे सामने ला दिया। दुश्मन सामने हो तो शुभ, दुश्मन पीछे छिपा हो तो खतरनाक, ज्यादा खतरनाक!
फिर नास्तिकता आस्तिकता की सीढ़ी है। बिना नास्तिक हुए इस दुनिया में कोई ठीक-ठीक आस्तिक न कभी हुआ है, न हो सकता है। यह तो नास्तिक की ही सामर्थ्य है कि एक दिन आस्तिक हो। जिसने नहीं कहने की कला ही नहीं सीखी, उसे हां कहने का राज कभी समझ में न आएगा। जो कांटों से परिचित नहीं है, फूल से उसकी पहचान नहीं होगी। और जिसने रात नहीं देखी, सुबह का क्या स्वागत करेगा?
लेकिन पंडित और पुरोहित झूठी आस्तिकता पर जी रहे हैं। उनका सारा व्यवसाय झूठी आस्तिकता पर ठहरा हुआ है। झूठी आस्तिकता से मेरा अर्थ है--मानी हुई आस्तिकता। तुम्हें पता तो नहीं है, लोग कहते हैं, सुना है, तो मान लिया है। मां-बाप कहते हैं, परिवार कहता है, समाज कहता है, शिक्षक कहते हैं, भीड़-भाड़ कहती है। सदियों से बात कही जा रही है सो मान लिया है। जो लोग कहते हैं वही तुम माने बैठे हो। तुमने स्वयं तो कुछ जाना नहीं है। तुम्हारा अपना तो कोई अनुभव नहीं है।
मजे की बात तो यह है, तुम्हारा संदेह स्वाभाविक है और तुम्हारी श्रद्धा उधार। हर छोटा बच्चा संदेह लेकर पैदा होता है। इसलिए छोटे बच्चे इतने प्रश्न पूछते हैं कि तुम्हें बेचैन कर देते हैं। प्रश्नों से प्रश्न उठाए जाते हैं। तुम लाख उनको कहो कि बड़े होकर सब समझ में आ जाएगा, मगर वे फिर-फिर प्रश्न उठाते हैं। जो चीज दिखाई पड़ती है उसी से प्रश्न उठाते हैं। छोटे बच्चे ऐसे प्रश्न उठाते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान उनका उत्तर न दे सकें।
संदेह प्रत्येक बच्चे के प्राण में जन्म के साथ आता है। परमात्मा ने संदेह की संपदा दी है। जरूर इसमें कुछ राज होगा। संदेह बीज है, इसी में छिपा हुआ गूदा है श्रद्धा का। संदेह खोल है, यह गल जाए भूमि में तो इसी में से अंकुर निकले, अंकुरण होगा। इसी में से विकास होगा श्रद्धा का। संदेह श्रद्धा का दुश्मन नहीं है। लेकिन साधारणतया लोग समझते हैं संदेह श्रद्धा का दुश्मन है; इसलिए संदेह मत करो, श्रद्धा करो।
तो तुम्हारी श्रद्धा नपुंसक होगी। जिसने संदेह नहीं किया और श्रद्धा कर ली, उसकी श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, लीपापोती है। जैसे चेहरे पर कोई रंग लगा लिया। ऐसे ही जैसे किसी नीग्रो के ऊपर तुम सफेद पेंट कर दो, तो वे गोरे हो गए! या किसी गोरे के ऊपर कालिख पोत दो, कोलतार पोत दो, तो वे काले हो गए! बस ऐसी तुम्हारी श्रद्धा है: भीतर संदेह, ऊपर एक मुखौटा लगा लिया--हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए, ईसाई हो गए--और बड़े अकड़ कर चलने लगे! पांच दफे नमाज पढ़ने लगे, कि कुरान कंठस्थ कर लिया, कि गीता याद कर ली, कि दोहराने लगे गायत्री, नमोकार, हो गए तोते और सोचने लगे कि पा ली श्रद्धा। ऐसे नहीं मिलेगी श्रद्धा। यह लंगड़ी है श्रद्धा। इसमें कोई प्राण नहीं; इसमें श्वास नहीं चलती; इसमें हृदय नहीं धड़कता।
श्रद्धा मंहगा सौदा है। संदेह की लंबी यात्राओं से उपलब्ध होती है। संदेह इतना करता है जो कि संदेह पर सब दांव पर लगा देता है, उसको श्रद्धा उपलब्ध होती है। संदेह करते-करते एक क्षण ऐसा आता है कि संदेह स्वयं पर ही संदेह बन जाता है; वह संदेह की पराकाष्ठा है--संदेह पर संदेह। और जब संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है तो आत्महत्या हो जाती है। संदेह आत्मघात कर लेता है, फांसी लगा लेता है। और जहां संदेह तिरोहित हो जाता है आत्मघात करके, अपने पर ही संदेह करके जहां संदेह मिट जाता है, वहां जो शेष रह जाता है, वह निरभ्र आकाश, वह तारों से मंडित ज्योतिर्मय आकाश, वही श्रद्धा है!
तुम पूछते हो वैराले: "चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा को क्यों नष्ट किया गया?'
पंडित-पुरोहित न करते तो क्या करते! क्योंकि पंडित-पुरोहितों का तो पूरा व्यवसाय झूठी आस्तिकता पर है। और अगर चार्वाक सही है तो झूठी आस्तिकता तो खंड-खंड हो जाएगी। इसकी तो जड़ें कट जाएंगी। इन मंदिरों में कौन जाए? मस्जिदों में कौन जाए? ये यज्ञ-हवन कौन करवाए? ये करोड़ों रुपये कौन मूढ़ता से फूंके यज्ञों में? ये हवनकुंड कौन खुदवाए? ये थोथे पंडित-पुजारियों की लंबी जमात को कौन पाले, कौन पोसे? ये लाखों आवारा तथाकथित संन्यासी, साधु, मुनि, इनका बोझ कौन ढोए? चार्वाक ग्रंथ-संपदा को नष्ट करके ही यह धंधा बचाया जा सकता था।
हम कहते हैं कि यह देश बड़ा उदार है। इतना उदार नहीं जितना हम कहते हैं। इसकी उदारता भी बड़ी थोथी और ऊपरी है; भीतर बहुत अनुदार है। यूनान में एपिक्युरस के ग्रंथ नष्ट नहीं किए गए। एपिक्युरस यूनान का चार्वाक है। उसकी ग्रंथ-संपदा बचाई गई। यूनानियों ने ज्यादा सम्मान दिया। लेकिन इस देश ने तो बहुत सा कुछ नष्ट किया है। और फिर भी हम अकड़ कर बैठे रहते हैं इस भाव से कि हम बड़े उदार हैं, बड़े सहिष्णु हैं! अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! यह कहते रहते हैं और छुरी पर धार रखते रहते हैं। और जरा ही मौका आ जाए तो अल्लाह-ईश्वर को ऐसा लड़वाते हैं! फिर चाहे वे अलीगढ़ में लड़ें, चाहे हैदराबाद में--जहां लड़वाओ, अल्लाह-ईश्वर लड़ने को तैयार हैं।
इस देश में जितना पाखंड है शायद पृथ्वी के किसी और देश में नहीं है। और कारण है, क्योंकि इस देश में जितनी पंडित-पुरोहितों की लंबी परंपरा है उतनी दुनिया में कहीं और नहीं।
चार्वाक ने कहा क्या? पहली तो बात खयाल रखना, चार्वाक कोई व्यक्ति का नाम नहीं है, चार्वाक पूरी दर्शन-परंपरा का नाम है--नास्तिकता का। यह शब्द बड़ा प्यारा है। हालांकि पंडितों ने इसके भी बड़े गलत अर्थ किए। चार्वाक बनता है चारु-वाक से। चार्वाक का अर्थ होता है--मधुर वचन वाले लोग, जिनके वचन बड़े मधुर थे। और चार्वाकों ने बड़ी मधुर बात कही थी। चार्वाकों ने कहा था: यही पृथ्वी सब कुछ है, कहीं कोई और स्वर्ग नहीं। यही जीवन सब कुछ है, कहीं कोई और जीवन नहीं। इसे भोगो! इसे आनंद-उत्सव बनाओ! नाचो, गाओ! इसके पार कुछ भी नहीं है। और कोई परमात्मा नहीं है, यही जीवन सब कुछ है।
बड़ी मीठी बात कही थी। चारु-वाक का अर्थ होता है--मधुर, मिष्ठ संदेश देने वाले लोग। दूसरा नाम इस दर्शन का है--लोकायत। लोकायत का भी अर्थ होता है--जो लोक को पसंद पड़ा; जो अनंत-अनंत लोगों की समझ में आया।
घबड़ा गए होंगे पंडित-पुरोहित कि अगर लोगों की बात यह समझ में आ जाए कि कोई परलोक नहीं है। तो पंडित तो परलोक के आधार से जीता है। पंडित तुम्हारा शोषण करता है परलोक के आधार पर। वह कहता है, यहां तुम मुझे दो, वहां परमात्मा तुम्हें देगा। वह कहता है, यहां तुम एक दोगे, स्वर्ग में करोड़ गुना पाओगे। और यहां किसको दो? ब्राह्मण को दो! यहां पंडित को दो। यहां ब्राह्मण की पूजा करो। यहां उसके चरणों में सिर रखो। क्योंकि उसका सीधा संबंध है परमात्मा से, सिफारिश कर देगा। वह तुम्हारा नाम पहुंचवा देगा कि इनका जरा खयाल रखना--वी.वी.आई.पी.। बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं ये जो आ रहे हैं, इन्होंने करोड़ों रुपये लगवा कर यज्ञ करवाया था।
और कैसी-कैसी मूढ़ताएं पंडित ने करवाईं! अश्वमेध करवाए जिनमें घोड़े मारे जाते। और आज जो पंडित और पुजारी गऊ-हत्या रोकने के लिए शोरगुल मचा रहे हैं, आचार्य विनोबा भावे, जो गऊ-हत्या के लिए रुकावट हो जाए इसके लिए आमरण अनशन पर उतर गए थे, इन सब से कोई पूछे कि तुम्हारी परंपरा कुछ और ही कहती है, यहां गऊमेध यज्ञ भी होते थे! यहां गऊएं भी यज्ञ में मारी जाती थीं। और इतना ही नहीं, यहां नरमेध यज्ञों की भी चर्चा है, जहां मनुष्य भी मारे जाते थे।
पंडितों ने, पुरोहितों ने मनुष्य से क्या-क्या नहीं करवा लिया है! सब करवा लिए, सब पाप--इस आशा में कि परलोक में पुण्य मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, स्वर्ग की अप्सराएं मिलेंगी। कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर फिर आनंद ही आनंद है।
तो एक तो पंडित-पुरोहित ने शोषण किया। चार्वाक की बात अगर फैलती तो यह शोषण बंद हो जाता। दूसरे, पंडित-पुरोहित ने एक और बड़ा काम किया। उसने इस जगत में जो शोषण चलता है, उसको सुरक्षा दी। उसने कहा, यह तुम्हारे कर्मों का फल है। तुम अगर गरीब हो तो इसलिए नहीं कि अमीर तुम्हें चूस रहे हैं; तुम अगर गरीब हो तो इसलिए कि पिछले जन्म में तुमने पाप किए थे। और अमीर इसलिए अमीर नहीं है कि वह शोषण कर रहा है, बल्कि इसलिए अमीर है कि उसने पिछले जन्मों में पुण्य किए थे। तो पंडित-पुरोहित अमीरों का रक्षक हो गया, गरीबों का भक्षक हो गया। इस देश में क्रांति नहीं होने दी उसने। यह अकेला देश है जहां पांच हजार साल में कोई क्रांति नहीं हुई! कौन रोक सका क्रांति को इस देश में? इतने गरीब देश में, इतने दीन देश में कौन इन दरिद्रों को रोक सका? कैसी इनको अफीम पिलाई गई? बड़े-बड़े सिद्धांतों के जाल--पिछला जन्म!
अब यह जरा मजा देखना। अगला जन्म लोभ के लिए कि तुम्हें बांधे रखा जाए, तुम्हारी लार टपकती रहे। और पिछला जन्म तुम्हारे यहां संतुष्ट रहने के लिए कि जो भी है हालत संतुष्ट रहो। इसमें जरा भी बेचैनी जाहिर करोगे, अगला जन्म भी बिगड़ जाएगा। यह तो बिगड़ ही गया, इसके तो सुधरने का अब कोई उपाय है नहीं; अब अगर शांति रखी, शोरगुल न मचाया, बगावत न की, विरोध न किया, तो अगला सुधर जाएगा। अगले की आशा में इसको भी सह लो। और पीछे पाप किए थे इसलिए दुख भोग रहे हो। कोई तुम्हें दुख दे नहीं रहा है, तुम्हारे ही पापों का दुख भोग रहे हो। और धनी, शक्तिशाली, राजे-महाराजे, वे पिछले जन्मों का पुण्य भोग रहे हैं।
तो यह बात न्यस्त स्वार्थों के भी पक्ष में थी। चार्वाक दोनों ही स्थितियों को तोड़ देने को तैयार हो गया था--न कोई पिछला जन्म है, न कोई अगला जन्म। यह तो बड़ी खतरनाक बात थी। अगर पिछला जन्म नहीं है तो फिर क्रांति होकर रहेगी। फिर तुम गरीब को कैसे जहर पिला कर सुलाओगे? कैसे उसे अफीम खिलाओगे? फिर कैसे तुम उसे सांत्वना दोगे? फिर तुम उसके दुख की क्या व्याख्या करोगे? अगर पिछला कोई जन्म नहीं है तो बात खत्म हो गई, फिर दुख है तो यहां है और सुख है तो यहां है। और अगला भी कोई जन्म नहीं है। तो पंडित-पुजारी किस आधार पर शोषण करेगा!
इसलिए पंडितों-पुजारियों, धनियों, राजाओं-महाराजाओं सब के बीच एक सांठ-गांठ हो गई, एक षडयंत्र हो गया। उस षडयंत्र ने मिल कर चार्वाक-दर्शन की सारी ग्रंथ-संपदा को नष्ट कर दिया।
यह भारत का एक अति दुर्भाग्यपूर्ण क्षण था। क्योंकि अगर चार्वाक की ग्रंथ-संपदा शेष रहती तो जो विज्ञान पश्चिम में पैदा हुआ वह भारत में पैदा होता। उसे पश्चिम में पैदा होने की कोई जरूरत नहीं थी। क्योंकि हम पश्चिम से बहुत पहले भौतिकवादी दृष्टि को समझने में समर्थ हो गए थे। चार्वाक ने द्वार खोल दिए थे प्रकृति के। परलोक समाप्त होता है तो प्रकृति के द्वार खुलते हैं। हमने आइंस्टीन पैदा किए होते, हमने डार्विन पैदा किए होते।
और हम केवल कचरा-कूड़ा पैदा कर पाए। हम न डार्विन पैदा कर पाए, न कैपलर, न गैलीलियो, न आइंस्टीन। हम ये महत्वपूर्ण व्यक्ति पैदा नहीं कर पाए। अगर चार्वाक की छाया थोड़ी बनी रहती तो उस छाया में ये सारे पौधे पनपते, ये बड़े होते। हमने बहुत पहले आइंस्टीन पैदा कर लिया होता, क्योंकि आइंस्टीन ने जिस सापेक्षवाद का सिद्धांत दिया वह महावीर ने ढाई हजार साल पहले इस देश को दिया था। लेकिन उसके लिए भूमिका नहीं थी, परिप्रेक्ष्य नहीं था, ठीक संदर्भ नहीं था। वह ठीक संदर्भ तो चार्वाक से मिल सकता था, पदार्थवादी दृष्टिकोण से मिल सकता था।
और मैं तुमसे यह भी कह दूं कि अगर चार्वाक की ग्रंथ-संपदा शेष रही होती और चार्वाक का विचार फैल सका होता, तो यह देश न तो दीन होता, न दरिद्र होता; यह समृद्ध होता। यह इस पृथ्वी की सोने की चिड़िया आज भी होता। क्योंकि इस देश के पास इतनी संपदा पड़ी है, इतनी संपदा, प्राकृतिक इतनी सुविधा होने के बाद भी दीन, भिखमंगों की तरह हम दुनिया में हैं आज। उसका सबसे बड़ा कारण हमारे पंडित-पुरोहित हैं। उसका सबसे बड़ा कारण चार्वाक की दर्शन-संपदा का नष्ट करना है।
और अगर यह देश समृद्ध होता, धनी होता, तो धार्मिक भी होता। यह मेरी अपनी प्रस्तावना है कि सिर्फ धार्मिक समाज तभी संभव हो सकता है जब उसके पहले समृद्धि की एक भूमिका पैदा हो गई हो। गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता, समृद्ध समाज ही धार्मिक हो सकता है। अगर चार्वाक की नास्तिकता फैलने दी गई होती तो हम अब तक आस्तिक हो गए होते।
यह तुम्हें बड़ी उलटी बात लगेगी। मेरी बातें इसीलिए उलटी लगती हैं लोगों को, क्योंकि लोग एक धारणा से बंध गए हैं और उस धारणा के ऊपर उठ कर सोचने की उनकी क्षमता भी खो गई है। लोगों में सोचने के संबंध में बड़ी नपुंसकता पैदा हो गई है। यह बात उलटी नहीं है! अगर हमने ठीक-ठीक नास्तिकता को अंगीकार किया होता तो उसी नास्तिकता से आस्तिकता का जन्म होता। क्योंकि आस्तिकता के बिना जिज्ञासा शांत ही नहीं होती। नास्तिकता शुरू करती है यात्रा, अंत नहीं कर सकती। चार्वाक से शुरू करो, बुद्ध पर पूर्णता है। जो बीच में अटक जाएगा वह तड़पेगा।
तुम आज देखते नहीं हो यह बात इतने प्रत्यक्ष रूप से, कि पश्चिम में आज धर्म के संबंध में जितनी जिज्ञासा है उतनी पूरब में नहीं है! तुम देखते नहीं हो, यहां मेरे पास सारी दुनिया से, कम से कम तीस देशों से लोग आते हैं, भारतीय को इतनी उत्सुकता नहीं मालूम होती! उसे तो खयाल है उसे पता ही है कि धर्म क्या है। यह सारी दुनिया में धर्म के प्रति इतनी तीव्र जिज्ञासा क्यों पैदा हो रही है? क्योंकि सारी दुनिया समृद्धि की ऊंचाइयों पर उठने लगी है और सारी दुनिया में नास्तिकता फैल गई है। पश्चिम नास्तिक है। और नास्तिकता में तृप्ति नहीं है; नास्तिकता में तृप्ति हो ही नहीं सकती। नहीं से कोई तृप्त हो सकता है? नहीं से कहीं पेट भर सकता है? नहीं से कहीं रक्त बन सकता है? नहीं से कहीं प्यास बुझ सकती है? नहीं से तो कुछ भी नहीं हो सकता। नकार में जीना संभव ही नहीं है। जीना तो होता है विधेय में।
आस्तिकता का अर्थ है विधेय; नास्तिकता का अर्थ है नकार। आस्तिकता का अर्थ है: जगत को हां कहने की क्षमता। नास्तिकता का अर्थ है: डर, भय, नहीं, संकोच, इनकार।
पश्चिम नास्तिक हुआ है तीन सौ सालों में और उसका परिणाम अब यह हो रहा है कि पश्चिम आस्तिकता की तरफ मुड़ रहा है। पश्चिम के सबसे बड़े विचारशील लोग आज आस्तिकता की बड़ी तलाश में लगे हैं। आइंस्टीन ने मरते समय कहा कि मेरे जीवन भर की निष्पत्ति यह है कि जितना मैंने विज्ञान को समझा, उतना ही मुझे लगा कि जीवन एक अपरिसीम रहस्य है। और इस रहस्य को हम कभी हल न कर पाएंगे।
यह रहस्य ही तो परमात्मा है। जीवन की रहस्यमयता का अनुभव ही परमात्मा है।
एडिंग्टन ने भी अपने संस्मरणों में लिखा कि पहले मैं सोचता था जगत केवल वस्तुओं का जोड़ है। लेकिन जितनी मेरी समझ बढ़ी वस्तुओं के संबंध में, मैं जितना पदार्थवाद की गहराइयों में उतरा, उतना ही मैंने अनुभव किया कि जगत वस्तुओं का जोड़ नहीं, चैतन्य का संघट है।
चैतन्य का संघट! यह तो परमात्मा का ही दूसरा नाम हो गया। चैतन्य का सागर! और परमात्मा के लिए बेहतर व्याख्या क्या होगी? पश्चिम नास्तिक हुआ, भौतिक हुआ, समृद्ध हुआ। और समृद्धि, नास्तिकता, भौतिकता इस सबका अंतिम परिणाम तुम देख रहे हो, क्या हुआ! पश्चिम का मंदिर बन गया है, अब कलश चढ़ने की देर है--स्वर्ण-कलश आस्तिकता का।
काश, हमने चार्वाक की दर्शन-संपदा को बचाया होता तो पंडित तो गए होते, पुजारी तो गए होते, ब्राह्मण की जो ताकत है वह तो गई होती, राजनेता और धनियों का जो बल है इस देश में वह तो गया होता, लेकिन एक सूर्योदय होता। हम पृथ्वी पर सबसे पहले लोग होते जो समृद्ध होते, सबसे पहले लोग होते जो वैज्ञानिक होते और सबसे पहले लोग होते जो प्रभु के मंदिर पर कलश चढ़ाने का सौभाग्य पाते। वह हम चूक गए। और वह हम अभी भी चूके चले जाएंगे, क्योंकि अभी भी पंडितों का शिकंजा हमारी गर्दन पर बहुत गहरा है। अभी भी यज्ञ हो रहे हैं! अभी भी करोड़ों रुपये का घी और अन्न अग्नि में फेंका जा रहा है! अभी भी घर-घर में सत्यनारायण की कथा हो रही है, जिस कथा में न तो सत्य है कुछ और न नारायण है कुछ। अभी भी लोग बैठे हैं, मालाएं फेर रहे हैं--मुर्दों की भांति, यंत्रवत।
तुमने पूछा वैराले: "चार्वाक के बारे में आपके क्या विचार हैं?'
चार्वाक वैसे ही है जैसे मंदिर की बुनियाद। बुनियाद में मजबूत पत्थर रखने होते हैं। बुनियाद पदार्थवादी होनी चाहिए। किसी भी सुसंयत समाज की बुनियाद पदार्थवादी होनी चाहिए। हां, शिखर चढ़ेगा मंदिर का, कलश चढ़ेगा, स्वर्ण का बनाएंगे, मोतियों से सजाएंगे, हीरे-जवाहरात जड़ेंगे, मगर हीरे-जवाहरात कोई बुनियाद में नहीं भरने पड़ते। बुनियाद बन सके ऐसी क्षमता चार्वाक की है। और चार्वाक ने भौतिकवाद के सारे सूत्र खोज लिए थे, जो पश्चिम में एपिक्युरस, दिदरो, माक्र्स, एंजिल्स और दूसरे लोगों ने खोजे। और हजारों साल बाद खोजे। चार्वाक ने सारे भौतिकता के सूत्र खोज लिए थे।
चार्वाक, फिर याद दिला दूं, किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, बहुत से व्यक्तियों की धारा का नाम है। जो पहला व्यक्ति हुआ, जिसने नास्तिकता की इस देश में चर्चा की, उसका नाम है बृहस्पति। बृहस्पति की गिनती मैं देश के महानतम ऋषियों में करता हूं, क्योंकि उस आदमी ने बुनियाद रखने की चेष्टा की थी। बुनियादें तो छिप जाती हैं जमीन के भीतर, उनका पता नहीं चलता। मगर उनके बिना कोई मंदिर खड़े नहीं होते।
मैं आज फिर वही कोशिश कर रहा हूं। मुझे दोहरा काम करना है। इसलिए मैं सबको दुश्मन बना लूंगा। मुझे चार्वाक का उपयोग करना है मंदिर की बुनियाद के लिए, इसलिए मैं धार्मिक को विरोधी कर लूंगा, दुश्मन कर लूंगा। क्योंकि वह कहेगा, चार्वाक! तो यह आदमी तो नास्तिक है, अनीश्वरवादी है, भौतिकवादी है। और मैं चार्वाकवादियों को भी नाराज कर रहा हूं। कम्युनिस्ट हैं, सोशलिस्ट हैं, वे भी मुझसे नाराज हैं। वे नाराज हैं, क्योंकि वे कहते हैं, यह आदमी लोगों को ध्यान सिखा रहा है, जब कि सवाल है कि लोग तलवारों पर धार रखें। जब कि सवाल है कि लोग झंडों पर परचम चढ?ा लें लाल रंग के; और यह आदमी लोगों को लाल कपड़े पहना रहा है। लाल झंडा चाहिए! कम्युनिस्ट पार्टी मेरे खिलाफ है, पुरी के शंकराचार्य मेरे खिलाफ हैं; यह बड़े मजे की बात है। पुरी के शंकराचार्य और कम्युनिस्ट पार्टी में क्या संबंध! ये दुश्मन दोनों एक साथ मेरे खिलाफ क्यों हैं? करपात्री महाराज मेरे खिलाफ हैं, आचार्य तुलसी मेरे खिलाफ हैं, आचार्य श्रीराम शर्मा मेरे खिलाफ हैं, कानजी स्वामी मेरे खिलाफ हैं, सारे जगतगुरु मेरे खिलाफ हैं, कम्युनिस्ट पार्टी भी मेरे खिलाफ है; तब तो बड़े आश्चर्य की बात है!
कारण साफ है: मैं एक ऐसे समन्वय की बात कर रहा हूं जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की। मैं भौतिकता और धर्म के बीच समन्वय का सेतु बना रहा हूं। मैं चाहता हूं, यह देश समृद्ध भी हो और शांत भी। मैं चाहता हूं, यह देश धनी भी हो और ध्यानी भी। मैं चाहता हूं, यह देश पदार्थ का भी मालिक हो और परमात्मा को भी आमंत्रण दे। क्यों न हम दोनों को सम्हालें! ये दोनों दुनियाएं उसकी हैं, क्यों न ये दोनों दुनियाएं हमारी भी हों! आखिर हम भी उसके हैं। हम आधा क्यों करें?
और जब भी हम आधा करते हैं तब मुसीबत खड़ी होती है। नास्तिक कहता है सिर्फ शरीर, और आत्मा की उपेक्षा कर जाता है। और आस्तिक कहता है सिर्फ आत्मा, और शरीर की उपेक्षा कर जाता है। और तुम दोनों हो। और तुमने एक की भी उपेक्षा की तो तुम अधूरे रह जाओगे, अपंग रह जाओगे, लंगड़े-लूले हो जाओगे, तुम्हारे जीवन में कभी पूर्णता नहीं होगी। और जहां पूर्णता नहीं है वहां पूर्ण ब्रह्म को कैसे जगह बन सकेगी! पूर्ण होना होगा, पूर्ण को पुकारना है तो।
तो मैं एक अभिनव बात कह रहा हूं जो सदियों पहले कही जानी चाहिए थी, नहीं कही गई; मजबूरी में मुझे कहनी पड़ रही है। मैं चार्वाक और बुद्ध के बीच सेतु बना रहा हूं। मेरा संन्यासी चार्वाकवादी होगा और मेरा संन्यासी बुद्धवादी होगा। मेरा संन्यासी शरीर का सम्मान करेगा, इसीलिए सम्मान करेगा कि यह शरीर के भीतर आत्मा विराजमान है। मेरा संन्यासी जगत को प्रतिष्ठा देगा, क्योंकि जगत परमात्मा का है और परमात्मा जगत के कण-कण में व्याप्त है।


तीसरा प्रश्न: भगवान, आप ऐसी भाषा में क्यों नहीं बोलते जो मेरी समझ में आ सके? आपको सुनता हूं, रोता हूं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आता है!

समझ और समझ--दो तरह की समझें हैं। एक समझ है बुद्धि की, शब्दों की, विचार की, तर्क की। और एक समझ है हृदय की। तुम आनंदित होते हो, तुम रोते हो, आनंद-अश्रु बहते हैं; यह ज्यादा गहरी समझ है। क्या करोगे बुद्धि की समझ का?
और तुम कहते हो: "आप ऐसी भाषा में क्यों नहीं बोलते जो मेरी समझ में आ सके?'
भाषा और सरल हो सकती है? मैं तो बोलचाल की भाषा में बोल रहा हूं। यह कठिनाई भाषा की नहीं है। यह कठिनाई मेरे उस महत समन्वय की है जो तुम्हारी पकड़ में नहीं आ पाता। यह कठिनाई भाषा की नहीं है। भाषा तो बिलकुल सीधी-साफ है। और क्या सीधी-साफ भाषा हो सकती है! संस्कृत मैं जानता नहीं, पाली-प्राकृत मैं जानता नहीं; हिंदी भी टूटी-फूटी, बस काम चल जाए इतनी। भाषा की कठिनाई नहीं है। कठिनाई है, मैं जो जीवन-दर्शन दे रहा हूं, उसकी। क्योंकि तुम्हारे पास बंधी हुई धारणाएं हैं।
तुमने कभी सुना ही नहीं कि चार्वाक और बुद्ध साथ-साथ खड़े हो सकते हैं। और यहां मैं दोनों साथ-साथ हूं। अगर मैं नंगा सड़क पर खड़ा हो जाऊं, तुम्हें मेरी भाषा एकदम समझ में आ जाएगी--यही भाषा, जो मैं बोल रहा हूं, बिलकुल समझ में आ जाएगी। तुम कहोगे, यह है त्याग! त्याग की भाषा से तुम परिचित हो। या मैं ध्यान की, प्रार्थना की, परमात्मा की बात बंद कर दूं और शुद्ध भोग की बात लोगों को समझाने लगूं, तो भी तुम्हारी बात समझ में आ जाएगी। तुम कहोगे कि ठीक है, यह आदमी नास्तिक है, चार्वाकवादी, बात खत्म हो गई।
तुम्हारी अड़चन यह है कि मैं तुम्हें निष्कर्ष नहीं लेने देता, मैं तुम्हारी दुविधा नहीं मिटने देता। मैं सड़क पर नग्न खड़ा नहीं होता, उपवास नहीं करता, धूप-धाप में खड़ा नहीं होता। तुम्हें बड़ी अड़चन रहती है। ध्यानियों से तुम यह अपेक्षा करते हो। ध्यानियों से तुम्हारी अपेक्षा मैं पूरी नहीं करता। इसलिए तुम कैसे मुझे ध्यानी मानो! कैसे तुम मुझे वीतराग मानो!
किसी मित्र ने पूछा है कि कानजी स्वामी और उनके शिष्य यही कहते हैं कि सम्यक-दृष्टि व्यक्ति राग-रंग में कैसे रह सकता है? आपके खिलाफ बोलते हैं।
और मैं कहता हूं, सम्यक-दृष्टि व्यक्ति ही जानता है कि राग क्या है और रंग क्या है। बाकी अंधे क्या राग जानेंगे, क्या रंग जानेंगे! जिसके पास सम्यक-दृष्टि है वही जानता है: जीवन महोत्सव है!
सम्यक-दृष्टि की लेकिन बंधी हुई धारणा है जैनों के पास। कानजी स्वामी के पास जो सुनने जाते होंगे वे जैन होंगे। उनकी बंधी धारणा है कि सम्यक-दृष्टि को कैसे होना चाहिए। उसको एक बार भोजन लेना चाहिए; खड़े होकर भोजन लेना चाहिए, बैठ कर भी नहीं, उतना आराम भी नहीं। नग्न रहना चाहिए। गांव-गांव भटकना चाहिए, पैदल चलना चाहिए, जूता भी नहीं पहनना चाहिए। और शरीर को गलाए, सुखाए, शरीर का दमन करे, तो सम्यक-दृष्टि!
और जिसको वे सम्यक-दृष्टि कहते हैं उसको मैं कहता हूं स्व-दुखवादी, मैसोचिस्ट। मैं उसको कहता हूं मानसिक रूप से बीमार। नहीं तो कोई क्यों अपने को सताए! कोई क्यों भूखा मरे! भूख प्राकृतिक है। न ज्यादा खाओ, न कम। कम खाओ तो अप्रकृति होती है, ज्यादा खाओ तो अप्रकृति होती है। मैं संतुलन सिखाता हूं। और सम्यक-दृष्टि का अर्थ अगर ठीक-ठीक करो तो संतुलन होता है। सम्यक का अर्थ होता है संतुलित। जब धूप पड़ रही हो तब धूप में खड़े होना असम्यक-दृष्टि है, तब छाया में बैठना चाहिए। और जब ठंड लग रही हो तब छाया में बैठे रहना असम्यक-दृष्टि है, तब धूप में बैठना चाहिए।
सम्यक जिसकी दृष्टि है वह तो स्वाभाविक होता है, वह स्वभाव के अनुकूल जीता है। मैं तो अपने स्वभाव के अनुकूल जी रहा हूं। महावीर की महावीर जानें। अगर उनको नग्न होना स्वभाव के अनुकूल था, उनकी मौज। अगर उन्हें पैदल चलना स्वभाव के अनुकूल था, उनकी मौज। मैं कुछ एतराज नहीं करता। व्यक्तियों को इतनी स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए। कोई भी व्यक्ति दूसरे की कार्बन-कापी नहीं है। न मैं चाहता हूं कि मैं उनकी कार्बन-कापी होऊं, न मैं चाहता हूं कि वे मेरी कार्बन-कापी हों। मैं मैं हूं, वे वे हैं।
तो कानजी स्वामी के शिष्यों को तकलीफ होती होगी कि सम्यक-दृष्टि और राग-रंग की बात करे, यह तो हो ही नहीं सकता; उसको तो वैराग्य की बात करनी चाहिए। और मैं मानता हूं कि वैराग्य की बात तो सिर्फ मूढ़ करते हैं। असली राग तो ध्यानी ही जानता है। असली राग में वैराग्य छिपा है।
असली राग का क्या अर्थ है? प्रेम, प्रीति, करुणा, अहिंसा। असली राग का क्या अर्थ है? कि जीवन को शिकायत की तरह न लेना, एक अनुग्रह की तरह लेना। असली राग का अर्थ है: प्रभु के प्रति धन्यवाद से भरे होना, कि तूने इतना दिया, इतना दिया, जिसकी मुझे पात्रता भी न थी!
मेरी भाषा तो सीधी-साफ है। लेकिन मेरा जो दृष्टिकोण है, मेरी तरफ से तो वह भी सीधा-साफ है, लेकिन तुम्हारी बंधी हुई धारणाओं के कारण मुश्किल है। मेरे पास कम्युनिस्ट आते थे। तो वे कहते थे, आपकी बातें ठीक लगती हैं कि समृद्धि होनी चाहिए, टेक्नॉलॉजी बढ़नी चाहिए, उद्योग बढ़ने चाहिए; यह चरखा और यह तकली और ये बेवकूफियां बंद होनी चाहिए। आपकी बात बिलकुल ठीक है। गांधीवाद से छुटकारा होना चाहिए। मगर आप यह ध्यान क्यों जोड़ देते हो? वहां हमें संदेह पैदा हो जाता है।
उसको भी मेरी भाषा कठिन नहीं मालूम हो रही, उसको भी अड़चन यह हो रही है कि उसकी अपेक्षा के मैं अनुकूल नहीं पड़ रहा हूं।
मैं किसी की अपेक्षा के अनुकूल नहीं पड़ रहा हूं और पडूंगा भी नहीं। मैं यहां तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने को नहीं हूं। मैं किसी का गुलाम नहीं हूं। मैं अपने ढंग से जीऊंगा। मेरे जीने से तुम कुछ सीखना हो तो सीख लेना, नहीं सीखना हो मत सीखना। सीख लोगे, तुम्हारा भाग्य; नहीं सीखोगे, तुम्हारा दुर्भाग्य। उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन यह प्रश्न भाषा का नहीं है। और मैं भाषा भी बदल दूं तो क्या फर्क पड़ता है? मैं कहूंगा तो यही, चाहे पाली में बोलूं, चाहे संस्कृत में, चाहे प्राकृत में, चाहे हिंदी में, चाहे उर्दू में, चाहे अंग्रेजी में, चाहे मराठी में। कहूंगा तो यही: संभोगातून समाधि कड़े! कहूंगा तो मैं यही। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।
एक लड़के ने अपने गणित के मास्टर से कहा, मास्टर जी, यहां अंग्रेजी के अध्यापक अंग्रेजी में, हिंदी के अध्यापक हिंदी में और संस्कृत के अध्यापक संस्कृत में पढ़ाते हैं। फिर आप गणित के अध्यापक होकर गणित की भाषा में क्यों नहीं पढ़ाते?
अध्यापक ने कहा, अबे साले, चार सौ बीस! ज्यादा तीन-पांच तो मत कर, जल्दी नौ दो ग्यारह हो जा यहां से।
गणित की भाषा हो गई। मगर भाषा से क्या फर्क पड़ेगा?
भाषा तो मेरी बिलकुल सीधी-साफ है। अड़चन कहीं और है। राधाकृष्ण, यह भाषा का प्रश्न नहीं। और तुम्हें भी समझ में आना शुरू हुआ है, नहीं तो आंसू न बहते। आंसू कह रहे हैं कि चाहे बुद्धि न पकड़ पाती हो, मगर हृदय आंदोलित हुआ है। चाहे बुद्धि इनकार करती हो, मगर हृदय तक आवाज पहुंचने लगी है। और वही असली बात है। बुद्धि तो तरकीबें निकाल लेती है। समझ भी ले तो भी न समझने की तरकीबें निकाल लेती है। बुद्धि तो इतनी चालबाज है कि जिसका हिसाब नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा आध्यात्मिक विषयों की चर्चा करता है, गूढ़ तथ्यों की व्याख्या--कुंडलिनी का जागरण, सप्तचक्र, इत्यादि-इत्यादि; और जीवन तथा मृत्यु के रहस्य, भूत-प्रेत, स्वर्ग-नरक...। मुल्ला नसरुद्दीन की प्रेयसी उससे बहुत परेशान थी, कि प्रेम की तो बात का मौका ही न आए, यह गूढ़ चर्चा में ही सारी बात चली जाए, सारी रात चली जाए। एक दिन दोनों नदी के किनारे बैठे थे, सुहावना मौसम, सूरज ढल चुका और पूर्णिमा का चांद निकल रहा! ऐसा मौका मुल्ला चूक जाए! छेड़ी उसने आध्यात्मिक चर्चा। प्रेयसी ऊब चुकी थी बहुत। और पूर्णिमा की रात भी फिर वही अध्यात्म!
आखिर उसने कहा, नसरुद्दीन, आज तो बकवास बंद करो! मगर नसरुद्दीन ने न सुना, वह तो अपनी दार्शनिक चर्चा में मशगूल था सो मशगूल रहा। वह तो अपना व्याख्यान देता ही रहा। प्रेयसी ने कई बार कोशिश की, मगर हर बार हारी। अंततः मामला झगड़े की सीमा तक पहुंच गया। प्रेयसी के बार-बार बाधा डालने पर नसरुद्दीन ने उत्तेजित होकर कहा, जो मैं कह रहा हूं, क्या वह बकवास है? क्या तुम मुझे पहले नंबर का गधा समझती हो?
गधा तो नहीं समझती--प्रेयसी ने कहा--मगर भगवान के वास्ते अब यह रेंकना बंद करो।
बुद्धि बहुत चालबाज है। एक दरवाजा बंद करोगे, दूसरा खोल लेगी। भेद नहीं पड़ेगा।
समझ--असली समझ--हार्दिक होती है, बौद्धिक नहीं होती। असली समझ प्रेम की होती है। और वह घट रही है। राधाकृष्ण, तुम न भाषा की फिकर करो, न अपनी बुद्धि की। आंसू आ रहे हैं, इन्हें रोकना मत, इन्हें बहने दो, इन्हें बरसने दो। ये तुम्हें हलका करेंगे। ये तुम्हें स्वच्छ करेंगे। ये तुम्हारे दर्पण को साफ करेंगे। और धीरे-धीरे, मैं क्या कह रहा हूं, वही नहीं; मैं क्या हूं, वह तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। और वही मूल्यवान है। मैं क्या कह रहा हूं, इसकी फिकर छोड़ो। मैं क्या हूं, इसकी चिंता लो। और इसकी चिंता तो हृदय से ही हो सकती है।
लेकिन तुम्हारे मस्तिष्क में भरी होंगी बहुत सी धारणाएं, शास्त्र, सीखी हुई बातें। तुम उनसे तालमेल बिठालने की कोशिश कर रहे होओगे। तालमेल नहीं बैठ रहा होगा और तुम जरा बिगूचन में पड़ गए होओगे।
मेरे पास आए सभी लोगों को प्राथमिक रूप से ऐसी ही किंकर्तव्यविमूढ़ की दशा पैदा होती है। एक तरह की जीवन-दृष्टि लेकर वे आते हैं और मैं यहां ठीक कुछ और ही कह रहा हूं, कुछ और ही प्रयोग करवा रहा हूं। सब अस्तव्यस्त हो जाता है।
एक जेबकतरे ने अपने हमपेशा मित्र से पूछा, तुम हमेशा ये फैशन वाली पत्रिकाएं ही क्यों पढ़ते रहते हो? दूसरे जेबकतरे ने तपाक से उत्तर दिया, अरे अगर इन्हें नहीं पढूंगा तो पता कैसे चलेगा कि लोग किस मौसम में जेब कहां लगवा रहे हैं?
तो अपनी-अपनी दुनिया है। तुम जिन पंडित-पुरोहितों की बातें सुन कर आए हो उनकी अपनी दुनिया है। यह किसी पंडित की चर्चा नहीं है। यह किसी पुरोहित का मंदिर नहीं है। यह मधुशाला है--दीवानों की, मस्तों की। यहां चार्वाक और यहां बुद्ध की जीवन-ऊर्जा का मिलन हो रहा है। यहां चार्वाक प्रबुद्ध हो रहे हैं, यहां बुद्ध चार्वाक हो रहे हैं। ऐसा कभी पृथ्वी पर अनूठा प्रयोग नहीं हुआ है, इसलिए इसके लिए कोई बंधी-बंधाई भाषा उपलब्ध नहीं है।
मुझे जो कहना है वह तो कहना है, उसके लिए भाषा भी धीरे-धीरे निर्मित करनी है। कह-कह कर उसके लिए भाषा निर्मित कर रहा हूं। तुम अपनी पुरानी धारणाओं को अगर छोड़ने को राजी हो जाओ तो देर न लगेगी समझने में। लेकिन धारणाएं आदमी छोड़ता नहीं।
मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि सुना, कल आपने अपने बच्चे पिंटू की बहुत पिटाई की। भला ऐसी क्या गलती हो गई थी बेचारे से?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि बात दरअसल यह है कि पिंटू का रिजल्ट चार दिन बाद आने वाला है और मैं आज ही एक महीने के लिए बंबई जा रहा हूं।
पहले से ही माने बैठे हैं कि पिंटू फेल तो होंगे ही, सो पिटाई तो कर ही लो।
मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में और एक प्रसिद्ध घटना है। पढ़ाता था स्कूल में, एक छोटा सा मदरसा गांव का। एक बच्चे को कहा, गर्मी के दिन, कि ले जा यह मटकी और कुएं से पानी भर ला। और जैसे ही उसने मटकी उठाई, उसको पास बुला कर उसके कान खींचे और दो चपत उसको लगाए। वह बच्चा आंसू टपकाता हुआ, मटकी लेकर चला गया। एक आदमी यह सब देख रहा था। उसने कहा, यह तो हद हो गई! न उसने कोई कसूर किया, न कोई भूल की, न कोई चूक की, और तुमने उसको दो चांटे मारे और कान भी खींचे और बेचारे को पानी लेने भी भेजा मटकी भर कर!
मुल्ला ने कहा कि मैं उसको ज्यादा समझता हूं तुम्हारी बजाय। मैं अपने बच्चों को ज्यादा समझता हूं तुम्हारी बजाय। तुम बीच में न पड़ो! मटकी फोड़ लाए, फिर मारने में फायदा क्या! पहले ही ठिकाने लगा दिया मैंने उसको। होश से भी जाएगा और अब अगर मटकी फोड़ भी लाए तो भी मैंने सावधान कर दिया था। और फिर पीछे मारने से फायदा भी क्या है! फिर तो व्यर्थ है सब बात।
कुछ लोग पहले से ही निर्णय लिए बैठे हैं। कुछ लोग क्यों, अधिक लोग। तुम जब यहां आते हो तो तुम खाली तो नहीं आते, तुम्हारे सिर में न मालूम कितनी बातों के बवंडर उठते रहते हैं! उन्हीं बवंडरों के बीच तुम मेरी बातें सुनते हो। अगर वे तुम्हारे अनुकूल पड़ जाएं तब तो ठीक। मगर वे अनुकूल पड़ नहीं सकतीं। और एकाध पड़ जाए अनुकूल तो दूसरी प्रतिकूल पड़ जाती है। तुम खींचातानी में आ जाते हो।
यह भाषा की अड़चन नहीं है। राधाकृष्ण, चित्त को खाली करो। चित्त को कूड़े-कर्कट से मुक्त करो। यहां जो हम बगीचा लगा रहे हैं, इसमें हृदय के फूल खिलाने हैं। यहां कोई बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े शास्त्री और वेदज्ञ पैदा नहीं करने हैं। बहुत हो चुके पैदा वेद के जानने वाले और देश उनसे काफी पीड़ित हो चुका।
एक सज्जन मुझे पत्र लिखते थे। वे त्रिवेदी थे। भूल से मैंने पत्र में उत्तर उनको जो लिखा तो पते में द्विवेदी लिख दिया। नाराज हो गए। त्रिवेदी और द्विवेदी कर दो, तो स्वभावतः उनको बड़ा धक्का लगा। पत्र मुझे लिखा कि मैं त्रिवेदी हूं, आपने मुझे द्विवेदी लिखा। तो मैंने उनको चतुर्वेदी लिख दिया। उनका पत्र आया कि आप भी हद के आदमी हैं! आप ठीक कभी लिखेंगे ही नहीं। मैंने कहा, भई मैं पुरानी भूल के लिए, एक चूक हो गई थी उसको पूरा करने के लिए पश्चात्ताप की दृष्टि से चतुर्वेदी लिख दिया। दोनों को मिला कर अब तुम त्रिवेदी हो गए।
वेदों को जानने वाले भरे पड़े हैं। उन वेदों के जानने वालों के कारण ही यह देश मरा, मर रहा है, सड़ रहा है। मैं तुम्हें यहां कुछ और सिखा रहा हूं। मैं सिखा रहा हूं तुम्हारा अंतर-वेद। तुम्हारी अंतरात्मा को जगाने की चेष्टा चल रही है। मैं तुम्हें वेद पढ़ना नहीं सिखाना चाहता, मैं चाहता हूं तुम्हारा वेद पैदा हो। मैं तुम्हें ऋषि बनाना चाहता हूं, पंडित नहीं। तुम्हारा उदघोष उठे! और निश्चित ही यह कठिन काम है। यह वैसा ही कठिन है जैसे कोई मूर्तिकार छैनी और हथौड़ी लेकर पत्थर को तोड़ता है वर्षों तक, तब कहीं प्रतिमा उभर आती है। जो राजी हैं टूटने को, छैनी और हथौड़े को झेलने को, वे ही केवल मेरे पास टिक सकते हैं।
राधाकृष्ण, तुम्हारा हृदय तो राजी हो रहा है। तुम्हारे आंसू उसकी खबर दे रहे हैं। अपनी बुद्धि की सुन कर भाग मत जाना। बुद्धि बहुत कायर है, खयाल रखना। हृदय साहसी है, दुस्साहसी है। बुद्धि तो शूद्र है, हृदय ब्राह्मण है। सुनो भीतर की! ब्राह्मण कहता हूं हृदय को, क्योंकि वहीं ब्रह्म का वास है।
कबीर ने कहा है: वही हमारे साथ चल सकता है जो सिर काट कर रख दे।
क्या कबीर कह रहे हैं कि यह तुम्हारा सिर सच में ही काट कर रख दो? सिर काटने से मतलब है: बुद्धि को हटाओ, तो हमारे साथ चल सकते हो।
कबीर ने कहा है: जो घर बारे आपना, चलै हमारे साथ।
क्या वे यह कह रहे हैं कि तुम अपने घर में आग लगा दो और बच्चे-पत्नी को भून डालो? नहीं, वे यह कह रहे हैं कि तुमने अब तक जो अपनी सुरक्षा का घर बनाया है--सिद्धांतों का, शास्त्रों का--उसे आग लगा दो। आओ हमारे साथ! हम तुम्हें एक नये घर की खबर दें, एक नये घर का द्वार खोलें!
और नये घर में थोड़ी तो देर अड़चन होगी--पुराने घर की याद। पुराने दरवाजे से निकलना चाहोगे, नये घर में वहां दीवाल होगी। तो कभी-कभी अड़चन होगी, कभी-कभी भूल-चूक होगी।
मैंने सुना है, एक स्त्री ने मनोवैज्ञानिक से पूछा--अपने मनोवैज्ञानिक से, जिससे वह चिकित्सा ले रही थी--कि मैं क्या करूं? मेरे पति और मेरी बनती ही नहीं। बनाने के लाख उपाय करती हूं, टूट-टूट जाती है बात, बिगड़-बिगड़ जाती है, बनते-बनते बिगड़ जाती है। रोज कलह, रोज मार-पीट की नौबत। और पति भी पीकर आते हैं और पिटाई करते हैं। और कसूर मेरा नहीं है, ऐसा भी नहीं। क्योंकि मैं भी चुप नहीं रह सकती और मैं भी कुछ-कुछ कहती हूं, अंट-संट बोलती हूं, बस बात बिगड़ जाती है।
मनोवैज्ञानिक ने कहा, आज प्रयोग के लिए, सिर्फ प्रयोग के लिए, सारा व्यवहार बदल दो। जब पति द्वार पर आए तो मत पूछना कहां से आ रहे, जैसा तू रोज पूछती है। एकदम गले लग जाना। फूलमाला पहनाना। जूते उतारना, पैर धोना, पति को बिस्तर पर लिटाना, कपड़े बदलना, भोजन ले आना बिस्तर पर ही, भोजन करवाना, हाथ-पैर दबाना।
पत्नी ने कहा, होगा तो बहुत मुश्किल। मगर एक ही दिन अगर करना है तो ठीक है, कर लेंगे। एक साधना समझ कर कर लेंगे। होगा तो बहुत मुश्किल। उस दुष्ट के पैर धोऊं, फूलमाला पहनाऊं, जिसने सिवाय जूतियों के मुझे कभी और किसी चीज से पीटा नहीं! पैर दबाऊं उसके, बिस्तर पर लिटा कर भोजन करवाऊं हाथ से! जहर खिला देने की तबियत होती है उसको! मगर अब आप कहते हैं तो आज तो करके देखूंगी, शायद कुछ हो जाए।
उसने वही किया। खूब सजी-धजी, साड़ी पहनी, नहाया-धोया; नहीं तो स्त्रियां घर में तो महाचंडी का रूप रखे रहती हैं। घर के बाहर जब जाती हैं तब जरा बाल-वाल ढंग के लगा-लगू कर, काजल इत्यादि करके, गहने इत्यादि बांध कर दूसरों को भरमाने चलीं! और पति जानता है उनका असली रूप कि अगर असली देखना हो उनको तो घर में देखो, जहां वे महाचंडी के रूप में प्रकट होती हैं। तो उस दिन उसने अपना महाचंडी का रूप छोड़ा, सजी-बजी, अच्छे से अच्छे कपड़े पहने, इंटीमेट परफ्यूम! गुलाब के फूलों की माला बनाई, द्वार पर बंदनवार बांधा!
पति आया। पीए था, पीए बिना घर आ ही नहीं सकता था, क्योंकि पीए बिना इस पत्नी को सहना ही मुश्किल था। पीकर ही किसी तरह गुजारा चल रहा था। बंदनवार देखा, कुछ समझ में नहीं आया। शक हुआ। फिर जब पत्नी ने दरवाजा खोला तो और हैरान हुआ--इंटीमेट की सुगंध! और पत्नी ने जब गले में उसके गुलाब की माला डाली तो उसने कहा, अरे, मर-मरा तो नहीं गया! स्वर्ग में तो नहीं आ गया! यह हो क्या रहा है! आंखें फाड़-फाड़ कर देखा कि कहीं उर्वशी तो नहीं है। बिस्तर सजा था। उसने कहा कि हद हो गई, शराब ने बहुत-बहुत चमत्कार दिखलाए हैं, मगर ऐसा चमत्कार! यह दुकानदार दिखता है अब तक ठर्रा पिलाता रहा, आज असली चीज दी है। पत्नी एकदम पैर धोने लगी। उसने कभी राम-राम नहीं जपा था, उसने कहा, हे राम! सोचा नहीं था कभी ऐसा सौभाग्य अपने ऊपर भी आएगा। पत्नी ने लिटाया, भोजन कराने लगी। उसने कहा कि गजब! चौंक-चौंक कर देख रहा है सब। भोजन करा कर पत्नी सिर दबाने लगी।
पत्नी ने पूछा, कैसे लग रहा है? तो उसने कहा, बहुत अच्छा लग रहा है। जितनी देर चल जाए उतना अच्छा, फिर घर जाकर तो नरक भोगना ही है।
वह यह तो मान ही नहीं सकता कि यह घर है। घर जाकर तो नरक भोगना ही है! महाचंडी राह देख रही होगी। और रोज से भी आज ज्यादा देर हुई जा रही है। अब जो घर होगा होगा, अभी तो जितनी देर सुख मिल रहा है ले लो।
तुम जब नये जीवन-आयाम में प्रवेश करोगे तब भी पुरानी आदतें, पुराने संस्कार, पुरानी धारणाएं एकदम नहीं छूट जाते; घिसटते रहते हैं पीछे, चिपक गए हैं तुमसे, तुम्हारे मांस-मज्जा के हिस्से हो गए हैं। उनके कारण तुम्हें मेरी बातें समझने में अड़चन होती होगी।
यह भाषा का प्रश्न नहीं है। भाषा इससे ज्यादा सरल हो ही नहीं सकती। बिलकुल बोलचाल की भाषा बोल रहा हूं। मैं कोई वक्ता थोड़े ही हूं; सिर्फ बोलचाल की भाषा बोल रहा हूं। जो मेरे हृदय में है वह तुमसे सीधा-सीधा निवेदन कर रहा हूं। मगर जो कह रहा हूं वह हृदय से आ रहा है और तुम भी हृदय से ही लोगे तो समझ पाओगे। यह हृदय और हृदय के बीच की घटना है; बुद्धि अगर अड़ंगा डाली तो समझना असंभव है।
मगर तुम्हारे आंसू बड़ा शुभ लक्षण है, सौभाग्य है। उन आंसुओं को बहने दो। उन आंसुओं को साथ दो, सहयोग दो। विचार से नहीं होगी यह यात्रा, आंसुओं से होगी--प्रीति के, आनंद के, अनुग्रह के।


चौथा प्रश्न: भगवान, आपको सुनता हूं तो परमात्मा के लिए बहुत तड़फ उठती है, विरह का अनुभव होता है। रोता हूं, बहुत रोता हूं! अब आगे क्या होगा?

आगे की इतनी चिंता न करो। आगे की चिंता मन का फैलाव है। आगे का विचार वर्तमान में व्याघात है। न तो पीछे की सोचो, न आगे की। अभी, इस क्षण जो हो रहा है, उसमें आत्मलीन हो जाओ।
तुम कहते हो: "आपको सुनता हूं तो परमात्मा के लिए तड़फ उठती है।'
तड़फ बन जाओ! एक प्रज्वलित अभीप्सा! एक पतंगे बन जाओ कि परमात्मा की ज्योति पर जल मरना है।
अभी की सोचो, आगे की मत पूछो। क्योंकि मन की ये चालबाजियां हैं। मन कहता है, आगे की तो सोचो, आगे क्या होगा? और आगे की सोचने में तुम चूक जाओगे। क्योंकि जो है अभी है, जो है वर्तमान है। परमात्मा अभी है, कल नहीं। न कल था, न कल होगा। परमात्मा हमेशा आज है। उसका एक ही समय है--आज, अभी। उसका एक ही ढंग है होने का।
परमात्मा के जगत में कोई कल नहीं होता। यह तो हमारी संकीर्ण दृष्टि है, जिसके कारण हमने दो कलों के बीच में आज कर लिया है। दोनों कल झूठे! और दो कलों के बीच में सच्चा आज कैसे हो सकता है? दो कलों के बीच में हमारा आज भी झूठा। दो कलों की पाटों के बीच में हमारा आज पिसा जा रहा है, वर्तमान का छोटा सा क्षण मरा जा रहा है। और वही क्षण सब कुछ है--संपदाओं की संपदा, स्वर्गों का स्वर्ग!
तुम आगे की मत पूछो, नारायण। आगे जो होगा होगा। अभी इतना आनंद हो रहा है तो इसी आनंद में से आगे भी और आनंद होगा। अभी इतनी तड़फ हो रही है तो आगे और तड़फ होगी। अभी इतने आंसू आ रहे तो आगे और वर्षा घनी होगी। आने वाला क्षण इसी क्षण से निकलेगा न! आने वाला कल आज की ही संतति होगी न! आने वाला कल आज का ही सिलसिला है।
मगर मन कहता है, पहले सोच लो आगे की। मन कई बार बहुत आगे की सोचने लगता है। तुमने शेखचिल्लियों की कहानियां सुनी हैं न, वे सब मन की प्रतीक हैं। एक शेखचिल्ली जा रहा है बाजार दूध बेचने। सिर पर मटकी है। रास्ते में खयाल आने लगे। तुमको भी आते हैं, सबको आते हैं। जब तक मन है तब तक शेखचिल्ली है। मन का नाम शेखचिल्ली है। सोचने लगा, आज दूध बेच कर चार आने मिलेंगे, दो आने तो खर्च करूंगा और एक बार आज उपवास कर जाऊंगा, एक बार भोजन न करूंगा। एकादशी समझो। दो आने बचा लूंगा। ऐसे दो-चार-छह दिन पैसे बचा कर मुर्गी खरीद लूंगा। मुर्गी खरीदी कि अंडे ही अंडे। और अंडे और बिक्री, देर न लगेगी गाय खरीदने में। और फिर भैंस आने में कितनी देर लगती है! और फिर अपना ही खेत होगा, खेतीबाड़ी होगी, धन-धान्य होगा। तभी खयाल आया कि खेतीबाड़ी और धन-धान्य होगा तो बड़ा इंतजाम करना पड़ेगा, आजकल चोरी बहुत हो रही है। लोग खेतों में घुस जाते हैं, फसलें काट ले जाते हैं। तो कहा, अरे, देख लेंगे, कौन मेरी फसलें काट सकता है! लट्ठ लेकर खड़ा रहूंगा खेत के बीच में और चिल्लाता रहूंगा--जागरूक! सावधान!
जो जोर से कहा सावधान हाथ उठा कर, मटकी छूट गई! मटकी गिरी; मटकी क्या गिरी, सारा संसार गिर गया, सब चकनाचूर हो गया!
मन शेखचिल्ली है। मन जल्दी आगे सरक जाता है। वह कहता है, कल की सोच लो, कल की तय कर लो।
कल जब आएगा तब हम होंगे तो कल को कल देखेंगे। कल जब आएगा तब जागरूकता से कल का साक्षात्कार करेंगे। नारायण, अभी न पूछो। "आपको सुनता हूं, परमात्मा के लिए बहुत तड़फ उठती है।' उठने दो! तड़फ ही रह जाओ। "विरह का अनुभव होता है।' विरह ही बन जाओ! "रोता हूं, बहुत रोता हूं।' रुदन ही हो जाओ! "अब आगे क्या होगा?' अब आगे शुभ ही शुभ होगा। लेकिन आगे की तुम सोचो मत।
रात हुई, प्रियतम नहीं आए, बदरा गारी दे।
सोने सी अलसाईं आंखें,
सुधि में भीग गईं रस पांखें,
झरे कुसुम मन की अंजलि से
सूख  गईं  सरगम  की  शाखें,
राख रमा धुनि गड़ी राह पर चिंता तारी दे।
मधु के मीत सौत घर वासी,
केवल देते आए फांसी,
उनकी हंसी गिराती बिजली
जीवन  भर  को  सत्यानाशी।
मैं विश्वासी गुनती रहती गम की मारी रे।
रात हुई, प्रियतम नहीं आए, बदरा गारी दे।
अभी तो पुकारो प्यारे को! अभी तो विरह को प्रज्वलित होने दो। अगर विरह पैदा हो रहा है तो प्रार्थना बहुत दूर नहीं।
आनंद मैत्रेय ने पूछा है: "परमात्मा का साक्षात्कार न हो, अनुभव न हो, तो कैसे प्रार्थना?'
नारायण, तुम्हारे लिए वह बात लागू नहीं होगी। तुम्हारे भीतर विरह पैदा हो रहा है। विरह का अर्थ होता है कहीं आस-पास परमात्मा की मौजूदगी अनुभव होने लगी। वह है, तब तो उसे पाने की आकांक्षा पैदा होती है। स्पष्ट नहीं है, धुंधला-धुंधला है, अभी भोर है, सूरज नहीं निकला है, धुंधलका छाया है। मगर धुंधलके में कुछ-कुछ झलक आने लगी। प्राची लाली होने लगी।
आनंद मैत्रेय का जो प्रश्न है वह तुम्हारा प्रश्न नहीं है। तुम्हें ध्यान की जरूरत नहीं है। तुम तो विरह में उतरो। तुम तो रोओ, जी भर कर रोओ। जल्दी ही तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर परमात्मा के स्पर्श उतरने लगे, प्रार्थना उठने लगी, जगने लगी। विरह से घबड़ाना मत, क्योंकि विरह पीड़ा देगा। वह पीड़ा कीमत है जो प्रार्थना पाने के लिए चुकानी पड़ती है। रोने से डरना मत। रोओगे तो ऐसा लगेगा: क्या पागल हो रहा हूं? दूसरे भी कहेंगे कि क्या पागल हुए जा रहे हो? मगर एक ऐसा पागलपन भी है जो बुद्धिमानी से भी ज्यादा बुद्धिमान। एक ऐसा पागलपन भी है परमात्मा के मार्ग में, परमात्मा की राह में, जिसके सामने सब बुद्धिमानियां फीकी हो जाती हैं।
रामकृष्ण जैसे पागल होना ज्यादा बेहतर है, तथाकथित बुद्धिमानों जैसे बुद्धिमान होने से। चैतन्य जैसे पागल होना बेहतर है, तथाकथित बुद्धिमानों जैसे बुद्धिमान होने से। एक पागलपन की भी गरिमा है। परमात्मा के साथ पागलपन भी जुड़ जाता है तो अमृत है। और जगत के साथ, क्षुद्र के साथ, बड़ी बुद्धिमत्ता भी जोड़ दो तो दो कौड़ी की है, उसका कोई मूल्य नहीं है।


आखिरी प्रश्न: भगवान, पत्नी संन्यास लेने से रोकती है। उसे दुख भी नहीं देना चाहता हूं और संन्यास भी लेना ही है। अब आपने ही उलझाया, आप ही सुलझावें।

कृष्णदत्त, जल्दी न करो। पत्नी रोकती है, उसका भी कारण है। पत्नी ने पुराने संन्यास के संबंध में ही जाना और सुना है। और पुराना संन्यास बहुत हिंसक संन्यास था, हत्यारा संन्यास था। पुराना संन्यास मृत्युवादी था। पुराना संन्यास बहुत पत्थर जैसा था। पुराने संन्यास ने बहुत पत्नियों को विधवा कर दिया। और पुराने संन्यास ने बहुत बच्चों को अनाथ कर दिया। और पुराने संन्यास ने बहुत घर बरबाद किए हैं। पुराने संन्यास के नाम पर काफी कलंक है।
इसलिए पत्नी अगर डर जाती हो तो आश्चर्य नहीं है, भय खाती हो तो आश्चर्य नहीं है। उसे मेरे संन्यास का पता ही नहीं होगा। पुराना संन्यास भगोड़ा था, पलायनवादी था। मैं एक नये ही संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं। यह भगोड़ा नहीं है, पलायनवादी नहीं है।
मेरा संन्यास प्रेम में विश्वास करता है। मेरा संन्यास गार्हस्थ्य के विपरीत नहीं है। मेरा संन्यास गार्हस्थ्य में ही खिलता है। मेरा संन्यास कीचड़ में कमल की तरह है। भागना कहां है? जाना कहां है? और भागना हमेशा आसान है। कायर भी कर सकते हैं, बुद्धू भी कर सकते हैं। भागने के लिए न तो बुद्धिमत्ता चाहिए, न साहस चाहिए।
चंदूलाल अपने मित्र को छत पर खड़े होकर बता रहे थे रास्ते पर कि देखते हो, वे सज्जन कौन हैं? वे ढब्बू जी हैं! कल उनकी पत्नी घर छोड़ कर चली गई, भाग ही गई, उसका पता ही नहीं चल रहा है। और आज वे भी घर छोड़ कर निकल भागे।
मित्र ने पूछा, क्यों? जब पत्नी ही चली गई तो अब निकल कर भागने की जरूरत क्या?
तो चंदूलाल ने कहा, इस डर से कि कहीं पत्नी वापस न लौट आए!
जिम्मेवारियों से भाग जाना कौन नहीं चाहेगा! पत्नी जिम्मेवारी है, बच्चे जिम्मेवारी हैं। चिंताएं हैं, हजार उपद्रव हैं, समस्याएं हैं। कौन नहीं भाग जाना चाहेगा! लगा ली धूनी, पहुंच गए कंबली वाले बाबा के आश्रम में। मिल गया एक कंबल, एक दफा रोटी भी मिल गई। और अगर थोड़ी-बहुत ब्रह्मचर्चा करनी आती हो...जो किसको नहीं आती! पान की दुकान जो करता है वह भी ब्रह्मचर्चा करता है, रिक्शा वाला भी ब्रह्मज्ञान जानता है। यहां ब्रह्मज्ञान किसको नहीं आता! इस देश में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसको ब्रह्मज्ञान न आता हो। थोड़ा अगर ब्रह्मज्ञान की चर्चा आ गई तो फिर तो कहना ही क्या, दो-चार शिष्य भी इकट्ठे हो जाएंगे, चिलम भी भर लाएंगे, पैर भी दबाएंगे, धूनी भी सम्हालेंगे, मजा ही मजा है। झंझट मिटी!
यही अब तक संन्यास समझा जाता रहा है। ऐसे संन्यास के दिन लद गए। ऐसे संन्यास का अब कोई भविष्य नहीं है। तुम्हारी पत्नी को मैं गलत नहीं कह सकता हूं; सदियों का अनुभव स्त्रियों के हृदय को बहुत कंपा गया है।
मैं तुमसे यही कहूंगा कृष्णदत्त, उसे यहां लाओ। जल्दी मत करो। अभी संन्यास लेने की इतनी कोई जल्दी मत करो। उसे यहां लाओ। उसे मुझे सुनने दो, समझने दो। वह स्वयं ही संन्यासिनी बनेगी, घबड़ाते क्यों हो! पहले उसे संन्यासिनी बना लेंगे, फिर तुम्हें बना लेंगे। और वही ज्यादा ठीक रास्ता है।
विवाह करते हैं न तो पति को पहले चलाते हैं, भांवर जब डालते हैं, पत्नी पीछे चलती है। यह मामला उलटा है, यह संन्यास का है। यहां पत्नी को पहले चला देते हैं, पति को पीछे चलाते हैं। तब भांवर खुलती है। खोलना हो तो उलटा ही चलना पड़ेगा।
तुम जरा रुको। तुम पत्नी को यहां ले आओ। इतना ही कर सको तो पर्याप्त है। तुमने अगर जल्दी की तो तुम अपने को भी नुकसान पहुंचाओगे, पत्नी को भी नुकसान पहुंचाओगे, परिवार को भी नुकसान पहुंचाओगे। और तुम जो संन्यास लोगे वह मेरा संन्यास नहीं होगा।
तुम कहते: "पत्नी संन्यास लेने से रोकती है। उसे दुख भी नहीं देना चाहता हूं।'
यह तो बात अच्छी है। दुख तो किसी को भी नहीं देना। पत्नी को तो देना ही नहीं। उसे ऐसे ही तुमने पत्नी बना कर बहुत दुख दे दिया है, अब और क्या दुख देना! पत्नी बना कर उसे तुमने कारागृह में ऐसे ही डाल दिया है, अब और उसे क्या सताना! उसकी सारी स्वतंत्रता छीन ली, उसके पंख काट दिए, उसको आर्थिक रूप से पंगु कर दिया। और हर साल बच्चे देते गए होओगे उसको। सो जवानी आई ही नहीं होगी, बुढ़ापा आ गया होगा। और अब बच्चों की गिचड़-पिचड़ में तुमने उसे डाल दिया और अब चले तुम संन्यास लेने!
नहीं, ऐसा नहीं! ले आओ उसे। उसे राजी कर लेंगे। संन्यास नाराजगी से नहीं होना चाहिए, राजी से होना चाहिए, तो उसमें सुगंध होती है, सौंदर्य होता है।
अब मेरी सौगंध तुम्हें है
देखो,  मत  पतवार  सम्हालो!
यह आंधी है, ये लहरें हैं,
दुर्दिन बेला, नभ में घन हैं,
साध उठी है जरा देख लूं
कितना प्राणवान यह मन है;
छोड़ मुझे दो तिमिर चक्र में
देखो, तुम घर-बार सम्हालो।
दांव-पेंच से अगर नियति के
बच पाया यदि मैं हंस जीता,
तो नर का इतिहास बनेगा
नया, लिखूंगा जीवन गीता;
आमंत्रण  है  महाकाल  का
नव अक्षत से थाल सजा लो!
मैं न चाहता तुम्हें छू सके
मेरे रहते तम की छाया,
मैंने तुमसे भी पाई है,
श्री, सुहाग ने जीवन पाया;
आऊंगा  घबरा  मत  जाना
जाता  हूं  उठ  हृदय  लगा  लो।
अब तक संन्यासी ऐसा पत्नियों से कहता रहा है कि स्वागत करो। जाता हूं तो भी स्वागत करो। जाता हूं तो भी मेरे चरणों पर फूल चढ़ाओ। और पत्नियां रोती रही हैं हृदय में और बाहर फूल चढ़ाती रही हैं। और पत्नियां जार-जार होती रहीं, भीतर टूटती रहीं, खंड-खंड होती रहीं, और फिर भी पति का सम्मान करती रहीं, क्योंकि पति संन्यासी हो रहे हैं, त्यागी हो रहे हैं, मुनि हो रहे हैं।
नहीं, मैं तुमसे ऐसा नहीं कहूंगा। कहीं जाना नहीं है। तुम जहां हो वहीं संन्यास घटित हो सकता है। तुम जहां हो वहीं परमात्मा अवतरित हो सकता है। क्योंकि परमात्मा सब जगह है। उसके अतिरिक्त कोई और नहीं है। ऐसी कोई जगह नहीं जहां वह न हो।
तो कहां खोजने जाते हो? तुम्हारी पत्नी में भी वही विराजमान है। तुम्हारी पत्नी अगर रोक रही है तो वही रोक रहा है।
तुमसे मेरी सिर्फ इतनी ही प्रार्थना है, कृष्णदत्त, पत्नी को यहां ले आओ। और तुम अगर संन्यास लोगे तो फिर पत्नी यहां कभी न आ सकेगी। तुम्हारा संन्यास मेरे और उसके बीच दीवाल बन जाएगा। तुम जरा रुको। तुम पत्नी और मेरे बीच दीवाल न बनो।
और मैं तुम्हें एक बात साफ कह दूं, स्त्रियां मेरी भाषा जल्दी समझ लेती हैं पुरुषों की बजाय। और ऐसा आज ही नहीं है, ऐसा सदा से है। महावीर के संन्यासियों में तीस हजार भिक्षुणियां थीं और दस हजार भिक्षु। और यही अनुपात बुद्ध का था--तीन स्त्रियां और एक पुरुष। और यही अनुपात मेरे संन्यासियों का है। यह अनुपात शाश्वत है। और उसका कारण है, क्योंकि स्त्री हृदय की भाषा समझ लेती है। और स्त्री एक अर्थ में धन्यभागी है, क्योंकि पंडितों ने उसके सिर को खराब नहीं किया है--न द्विवेदी, न त्रिवेदी, न चतुर्वेदी। स्त्री का मस्तिष्क स्वच्छ है और उसका हृदय ज्यादा उन्मुक्त है। वह भाव को पकड़ लेती है। वह डाल-डाल पात-पात नहीं जाती, वह जड़ को पकड़ लेती है। उसकी समझ बौद्धिक नहीं है, उसकी समझ हार्दिक है, आत्मिक है।

आज इतना ही।


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