उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
आनंद स्वभाव है-(प्रवचन-छटवां)
दिनांक 06 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प भगवान, कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन इतना स्वाभाविकता से, आनंदपूर्ण
जीया जा
सकता है!
शाम को गायन-समूह में इतनी नृत्यपूर्ण हो जाती हूं! जिस जीवन की खोज थी मुझे,
वह मिलता
जा रहा है। कहां थी--और कहां ले जा रहे हैं आप!
जितना
अनुग्रह मानूं उतना कम है। ऐसा प्यार बहा रहे हो भगवान, चरणों
में झुकी जाती हूं मैं!
प भगवान, आप अमृत दे रहे हैं और अंधे लोग आपको जहर पिलाने पर आमादा हैं।
यह कैसा
अन्याय है?
प भगवान, कोकिल की कुहू-कुहू और आपका प्रवचन, दोनों इकट्ठे
चलते हैं।
किस पर
ध्यान करें? कृपया बताएं।
प भगवान, सत्य कहां है?
प भगवान, आत्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अपने जीवन में परम आनंद पाता है और यह बात
यथार्थ
मालूम होती है। लेकिन मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति की आत्मा अस्तित्व में खो जाती है,
जैसे नमक
का पुतला सागर में खो जाता है। फिर यह प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में
मुक्ति का
यह प्रयत्न क्या अर्थ रखता है? आत्मा की अनुपस्थिति में
मुक्ति का यह अनुभव कौन करेगा?
कृपया स्पष्ट करने की कृपा करें।
प भगवान, मैंने अनेक बार आपके साक्षात दर्शन अपने घर अमृतसर में किए
और अनेकों
संघर्षों में आपको अपने ऊपर बरसते पाया, देखा, अनुभव किया।
जब मैं
संघर्ष से छटपटा जाता हूं और जब कोई भी रास्ता नजर नहीं आता,
तो आप
साक्षात मेरे सामने आकर खड़े हो जाते हैं। इसमें न कोई स्वप्न की अवस्था, न कोई
निद्रा की
अवस्था ही होती है। आप आकर खड़े होकर मुझे कहते हैं कि तुम खामख्वाह क्यों चिंता लेते हो? मैं जो हूं! सब
छोड़ दो मुझ पर! तो तत्क्षण निर्भार हो जाता हूं।
और आप मेरे
जीवन में ऐसी-ऐसी उलझनों में रक्षा करते हैं, जिसका वर्णण
मैं अपनी जुबान से नहीं कर सकता। और भी
अनेक प्रमाण मेरे अनुभव में हैं, क्या बताऊं आपको!
आप सब कुछ
जानते ही हैं। कोई बात भी आपसे छिपी हुई नहीं है।
इतना कुछ
होते हुए भी कई बार मैं आपका विरोध करता हूं।
भगवान,
इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करें!
पहला प्रश्न: भगवान, कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन इतना स्वाभाविकता से, आनंदपूर्ण
जीया जा सकता है। शाम को गायन-समूह में इतनी नृत्यपूर्ण हो जाती हूं। जिस जीवन की
खोज थी मुझे, वह मिलता जा रहा है। कहां थी--और कहां ले जा
रहे हैं आप! जितना अनुग्रह मानूं, उतना कम है। ऐसा प्यार बहा
रहे हो भगवान, चरणों में झुकी जाती हूं मैं!
रंजन भारती, मनुष्य का यही
सौभाग्य है, यही दुर्भाग्य भी। सौभाग्य कि उसे शाश्वत आनंद
उपलब्ध हो सकता है। उसके भीतर बीज हैं अमृत के। और दुर्भाग्य कि जो उपलब्ध हो सकता
है वह उपलब्ध होता नहीं।
मनुष्य परमात्मा होने को पैदा हुआ है, लेकिन मनुष्य भी नहीं
हो पाता है, परमात्मा होना तो बहुत दूर। मनुष्य के भीतर संभव
है कि आनंद के हजार-हजार कमल खिलें, लेकिन उन कमलों की तो
कोई खबर ही नहीं मिलती, वे तो बीजों में ही छिपे पड़े रह जाते
हैं, वे तो कीचड़ में ही खोए रहते हैं। और जो ऊर्जा कमल बन
सकती थी वही ऊर्जा कांटे बन जाती है। सौभाग्य यही कि मनुष्य आकाश जैसा विराट हो
सकता है और दुर्भाग्य यही कि छोटे-छोटे आंगन में सीमित हो गया है।
ये दोनों बातें एक साथ इसलिए संभव हैं कि मनुष्य स्वतंत्र है। मनुष्य
अकेला प्राणी है अस्तित्व में जो स्वतंत्र है, जो अपने को चुनता है;
शेष सारे प्राणी जैसे हैं वैसे पैदा होते हैं। आम का बीज बोओगे तो
आम का वृक्ष होगा और नीम के बीज बोओगे तो नीम का वृक्ष होगा; कोई स्वतंत्रता नहीं है। कार्य-कारण का अपरिहार्य नियम काम करता है। ऐसा
संभव ही नहीं है कि नीम के बीज से और आम पैदा हो। नीम को कोई स्वतंत्रता नहीं है।
उसे नीम होना ही पड़ेगा। निरपवाद रूप से नीम के बीज नीम होने को बाध्य हैं। कुत्ता
कुत्ता होगा, सिंह सिंह होगा, चूहा
चूहा, बिल्ली बिल्ली, वृक्ष वृक्ष।
अकेला मनुष्य है, जो केवल अवसर की भांति पैदा होता
है--एक संभावना मात्र। सुनिश्चित कुछ भी नहीं। उसे स्वयं ही निर्णय लेना होगा। उसे
एक-एक कदम चल कर स्वयं अपने को निर्मित करना होगा। उसका प्रत्येक निर्णय उसकी
मूर्ति को गढ़ेगा। यह बड़ा गौरव है कि हम स्वतंत्र हैं, लेकिन
यह बड़ा बोझ भी। नीम झंझट के बाहर है; नीम होना निश्चित ही
है। नीम का भाग्य है; विधि ने सब लिख दिया है। नीम के बीज
में सारे सूत्र छिपे हैं।
मनुष्य पैदा होता है कोरी स्लेट की भांति; उस पर गालियां लिखो तो लिख सकते हो, गीत लिखो तो लिख
सकते हो। उपनिषद बन सकते हैं तुम्हारे भीतर। और हो सकता है कि तुम कौड़ियां ही
गिनते रहो। यह महान स्वतंत्रता महान दायित्व भी है। स्वतंत्रता हमेशा दायित्व लाती
है। और चूंकि मनुष्य की स्वतंत्रता अपरिसीम है, उसका दायित्व
भी अपरिसीम है।
चारों तरफ दुखी लोगों की भीड़ है। इसी भीड़ में एक नये बच्चे का आगमन
होता है। रंजन, इसी भीड़ में एक दिन तू आई। चारों तरफ दुखी लोग हैं।
इन्हीं दुखी लोगों को देख कर हर बच्चे को लगता है कि यही जीवन है--बस यही जीवन है!
ये चिंतित, बोझग्रस्त लोग, जिनके जीवन
में नृत्य की कोई झलक नहीं, जिनके ओंठों को बांसुरी कभी छुई
नहीं, जिनके प्राणों में कोई पुलक नहीं, न उत्सव है, न आनंद है; बस बोझ
है एक जीवन कि खींचे चले जाना है; दुख है एक जीवन कि झेल
लेना है; कि जिस तरह बन सके, किसी तरह,
चार दिन की बात है गुजार लेनी है; फिर तो मौत
आएगी और राहत दे देगी। लोग मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सिगमंड फ्रायड ने अपने जीवन के प्राथमिक वर्षों में पहली खोज की थी, वह थी लिबिडो की, जीवेषणा की, कि
मनुष्य जीने को अपार रूप से आतुर है; कि मनुष्य जीवन चाहता
है, जीना चाहता है, जीते ही रहना चाहता
है; कि मनुष्य के भीतर जीवन की अदम्य आकांक्षा है। लेकिन
जीवन के अंतिम वर्षों में फ्रायड को समझ में आया कि वह बात अधूरी थी। लिबिडो,
जीवेषणा आधा सिद्धांत है। तब उसने दूसरा सिद्धांत खोजा, जिसको उसने थानाटोस कहा। जैसे जीवन की आकांक्षा है, ऐसे
ही मृत्यु की भी आकांक्षा है।
फ्रायड बहुत चौंका था, उसे भरोसा न आया था
कि ये विपरीत आकांक्षाएं आदमी में कैसे हो सकती हैं! लेकिन मजबूरी थी; जितना आदमी के भीतर झांका उतना ही पाया कि मनुष्य एक सीमा के बाद मरने को
आतुर हो जाता है, जीने को नहीं। बच्चे जीने को आतुर होते हैं,
शायद जवान भी अभी जीने से आशा रखते हैं; लेकिन
जैसे-जैसे जवानी हाथ से बाहर जाने लगती है, पैर कंपने लगते
हैं, बुढ़ापा उतरने लगता है, कि गहरे
में, कहीं गहरे में एक आकांक्षा उठती है कि अब तो मौत आए,
कि अब तो मौत आ ही जाए, कि अब तो मौत विश्राम
दे!
रंजन, चारों तरफ तुम्हारे लोग हैं जो दुखी हैं; जिन्होंने जीवन को वस्तुतः जाना ही नहीं; जो पैदा तो
हुए लेकिन जन्मे नहीं; जो पैदा तो हुए लेकिन द्विज न बने;
जिनका दूसरा जन्म न हुआ; जिनकी आत्मा पैदा न
हुई। देह की तरह तो वे हैं, मगर उनकी देह ऐसी है जैसे खाली
मंदिर, जिसमें किसी देवता का निवास नहीं। उनकी देह ऐसी है
जैसे खाली घर, जिसमें वर्षों से कोई रहा नहीं। धूल-धवांस जम
गई है, मकड़ियों ने जाले बुन लिए हैं, सांप-बिच्छुओं
का आवास हो गया है।
ऐसी मनुष्य की दशा है। और बच्चा इन्हीं से सीखता है--मां-बाप से, परिवार से, पड़ोस से, शिक्षकों
से, पंडित-पुरोहितों से--चारों तरफ जो भीड़ है लोगों की,
इन्हीं से सीखता है। और इनसे एक शिक्षा अनिवार्यरूपेण मिल जाती
है--अचेतन को मिलती है, चुपचाप उसके अचेतन में यह बात
धीरे-धीरे गहन होती जाती है--कि जीवन दुख है, कि जीवन बस दुख
है। और फिर साधु-संत हैं जो समझाने को बैठे हैं कि जीवन दुख है, कि आवागमन दुख है। पंडित-पुरोहित हैं, मंदिर-मस्जिद
हैं, जहां यही शिक्षा दी जा रही है कि जीवन तुम्हारे पापों
का दंड है, कि तुमने किए थे पाप पिछले जन्मों में इसलिए जीवन
मिला है। यह एक कारागृह है जीवन, जहां तुम अपना दंड भुगत रहे
हो। और यह बात समझ में भी आती है, ठीक भी लगती है, क्योंकि चारों तरफ इसके लिए प्रमाण मिलते हैं।
हंसते हुए अगर तुम किसी को देखो, नाचते हुए तुम अगर
किसी को देखो, मस्त-अलमस्त अगर तुम किसी को देखो, तो तुम्हें लगता है कि शायद पागल होगा! क्योंकि समझदार लोग तो ऐसे नहीं
करते। समझदार लोग तो ऐसे कोई तानपूरा लेकर नाचते नहीं। समझदार लोग तो मृदंग बजा कर
गीत नहीं गाते। हां, कभी होली-दीवाली, छुट्टी
के दिन, वह बात और है। उस दिन हम क्षमा कर देते हैं। बाकी वह
जीवन का अंग नहीं है, निकास है। जिंदगी में साल भर दुख ही
दुख, एक दिन रंग उड़ा लेते हैं, गुलाल
उड़ा लेते हैं।
होना तो यह चाहिए था कि रंग रोज उड़ता, गुलाल रोज उड़ती,
होली रोज होती और दीवाली रोज होती। मनुष्य की क्षमता तो यही है कि
होली रोज, दीवाली रोज। मगर मनुष्य बन गया है नरक और उसके
पीछे कारण है। कारण है सर्वाधिक महत्वपूर्ण कि जिनके हाथ में सत्ता है वे नहीं
चाहते कि तुम आनंदित होओ। वे फिर कोई भी हों--राजनेता हों, पंडित
हों, पुरोहित हों, धनपति हों--जिनके
हाथ में सत्ता है वे नहीं चाहते कि आदमी आनंदित हो। क्यों? क्योंकि
दुखी आदमी को गुलाम बनाना आसान है, आनंदित आदमी को गुलाम
बनाना बहुत मुश्किल है। दुखी आदमी गुलाम बनने को आतुर होता है। दुखी आदमी तलाश
करता है उसकी जो उसे गुलाम बना ले, क्योंकि गुलाम होकर वह
सारे उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है। सारे बोझ से मुक्त हो जाता है।
आनंदित व्यक्ति में व्यक्तित्व होता है; दुखी व्यक्ति में कोई
व्यक्तित्व नहीं होता। दुखी व्यक्ति भीड़ का हिस्सा होता है; आनंदित
व्यक्ति व्यक्ति होता है, उसमें एक निजता होती है। और आनंदित
व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को किसी भी मूल्य पर खोने को राजी नहीं हो सकता, क्योंकि वह जानता है उसका आनंद भी उसी क्षण खो जाएगा जिस क्षण स्वतंत्रता
खोएगी। दुखी आदमी को स्वतंत्रता खोने में अड़चन क्या है? स्वतंत्रता
है ही नहीं, कभी रही ही नहीं, खोती हो
तो खो जाए; उसका कुछ लुटता नहीं, उसका
कुछ जाता नहीं, उसे कोई अड़चन नहीं है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर में एक रात चोर घुसे। दरवाजा
खुला था, चोर बड़े हैरान हुए! लोग दरवाजे बंद करके सोते हैं।
अमावस की अंधेरी रात, वर्षा के दिन, लोग
ऐसे दरवाजा खुला छोड़ कर नहीं सोते। लेकिन हो सकता है, भूल-चूक!
भीतर गए। मुल्ला बिस्तर पर लेटा था। सोचा कि सोया है। घर में खोजने लगे। जब वे घर
में अंधेरे में खोज रहे थे तभी उन्होंने पीछे देखा कि कोई आया, बहुत घबड़ा गए। मुल्ला पीछे खड़ा था। मुल्ला ने कहा, घबड़ाओ
मत, मैं दीया जला लाऊं। तीस साल से इस घर में मैं खोज रहा
हूं, मुझे कुछ नहीं मिला। तुम अंधेरे में खोज रहे हो,
मैं रोशनी में खोजता रहा हूं। घबड़ाओ मत जरा भी, मैं दीया जला लेता हूं। दीया जला कर हम दोनों खोजें। मेरे भाग्य में तो
कुछ मिला नहीं, शायद तुम्हारे भाग्य से कुछ मिल जाए तो
आधा-आधा कर लेंगे।
तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी न हो तो तुम दरवाजे भी बंद करके क्यों
सोओ! आएं चोर तो आ जाएं।
एक और कहानी मैंने सुनी है। चोर मुल्ला नसरुद्दीन के घर में घुसे। जो
कुछ टूटा-फूटा, बर्तन इत्यादि थे, वे इकट्ठे कर
रहे थे। मुल्ला कंबल ओढ़ कर सोया था, सर्दी की रातें थीं। जब
वे सब टूटे-फूटे बर्तन इत्यादि इकट्ठे करके लौटे, जो कि कुछ
भी नहीं था, लेकिन अब आ गए थे तो कुछ जो भी हाथ लगे ले जाना
ठीक था। तो बहुत हैरान हुए कि मुल्ला उघाड़ा सो रहा है और उसने कंबल जमीन पर बिछा
दिया है। ऐसे भी कुछ खोने का डर नहीं था, कुछ मिला ही नहीं
था। चोरों ने कहा कि नसरुद्दीन, यह कंबल तो तुम्हारे शरीर पर
था, इसे तो तुम बचा सकते थे।
नसरुद्दीन ने कहा कि भाई, जो भी तुम सामान
इकट्ठा कर लिए हो, ले कैसे जाओगे? तो
कंबल बिछा दिया, इसमें बांध लो और ले जाओ। मेरी झंझट मिटी।
इस कंबल में भी इतने छेद हैं कि किसी काम का नहीं, सर्दी
रुकती नहीं, धोखा ही बना रहता है।
चोर तो बड़े घबड़ाए। ऐसा तो कभी हुआ नहीं था कि किसी के घर चोरी करने
जाओ, सामान इकट्ठा करो, और वह कंबल
भी बिछा दे कि बांध लो! जल्दी से बांधा और भागे। जब भागने लगे रास्ते पर तो मुल्ला
भी उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था। रुक कर उन्होंने कहा कि भई, तुम क्यों पीछे आ रहे हो? मुल्ला ने कहा, मैं घर बदलने की बहुत दिन से सोच रहा था। चलो तुम ढोए लिए चल रहे हो सामान,
अब मुझे कहां छोड़े जाते हो, मुझे भी साथ में
ले लो। और सब तो ले ही आए, अब पीछे कुछ बचा भी नहीं है। अब
इतना ले आए हो तो मुझे भी सम्हालो। जहां तुम रहोगे वहीं हम भी रहेंगे। अरे दो
रूखी-सूखी तुम खाओगे तो हम भी खाएंगे। छप्पर के नीचे तो सोते होओगे तो वहीं हम भी
सोएंगे।
जिसके पास कुछ भी नहीं है उसे गुलाम बनाया जा सकता है, उसे लूटा जा सकता है। लेकिन जिनके जीवन में आनंद की थोड़ी किरण है उन्हें
तुम लूट न सकोगे, उन्हें तुम गुलाम न बना सकोगे। वे अपनी
आनंद की किरण के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने को तत्पर हो जाएंगे।
रंजन के जीवन में ऐसा ही हुआ है। रंजन वर्षों बाद भारत लौटी है। पति
तो अमेरिका में हैं, मुझे पत्र लिखते हैं कि रंजन को वापस भेज दें। रंजन
वापस जाना नहीं चाहती। पहली बार आनंद की किरण उतरी। पहली बार उत्सव जगा है। पहली
बार अनुभव हुआ है कि जीवन क्या है। पहला संस्पर्श--सुबह की ताजी हवा का, सुबह की पहली किरण का! और फूल खिले हैं! और पहली बार पक्षियों के गीत
सुनाई पड़ने शुरू हुए हैं।
ये नहीं चाहते पंडित-पुरोहित, राजनेता, कि लोग आनंदित हों। आनंदित होते ही लोग बगावती हो जाते हैं। तू ही देख,
रंजन, तू ही बगावती हो गई। दुखी रहती तो जिस
कारागृह में थी उससे कभी छूट नहीं सकती थी। आनंद बरसा तो अब कोई कारागृह तुझे समा
नहीं सकता। सब कारागृहों को तोड़ कर तू बह जाएगी।
और ध्यान रखना, यहां आश्रम में रंजन को क्या है? वहां पीछे सब छोड़ कर आई है--घर-द्वार, संपत्ति,
व्यवस्था, सुविधा। पति खूब कमाते हैं, सम्मानित हैं। वहां सब, जिसे हम बाहर की सुविधा कहें,
है। यहां आश्रम में क्या है? इस छोटी सी छह
एकड़ की जमीन पर चार सौ लोग तो निवास कर रहे हैं! और जो निवास कर रहे हैं वे तो ठीक
ही हैं, चार सौ लोग शायद छह एकड़ जमीन पर रहना भी मुश्किल,
और कम से कम तीन हजार लोग निरंतर आते-जाते हैं। सुविधा क्या है?
लेकिन सारी सुविधाएं छोड़ कर तू आ सकी, क्योंकि जिसके जीवन
में आनंद की थोड़ी सी भी अनुभूति शुरू हो जाए उसके जीवन में पहली बार त्याग करने की
क्षमता आती है।
उपनिषद कहते हैं: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः! इस अदभुत वचन के दो अर्थ हो
सकते हैं। एक अर्थ, जो किया जाता रहा है, जो सदियों
से दोहराया गया है, और जो गलत है--वह अर्थ है कि त्यागो,
छोड़ो भोग को, तो ही उपलब्धि है। मैं कुछ और
अर्थ करता हूं। मैं अर्थ करता हूं: त्यागो तो ही भोग है। उन्होंने ही भोगा
जिन्होंने त्यागा। लेकिन वे त्याग क्यों सके? वे त्याग इसलिए
सके कि भोग सके। भोग पहले उतरा, भोग की किरण पहले आई,
फिर त्याग आसान हो गया। पुरानी व्याख्या थी कि पहले त्यागो, छोड़ो, तब जीवन में आनंद उपलब्ध होगा। मेरी व्याख्या
है कि जीवन में आनंद उपलब्ध हो तो त्याग अपने आप चला आता है छाया की भांति। छोड़ना
नहीं पड़ता, छोड़ना हो जाता है।
रंजन, तू कहती है: "कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन इतना
स्वाभाविकता से, आनंदपूर्ण जीया जा सकता है।'
ऐसी ही दशा है अनंत-अनंत लोगों की। उन्होंने सोचा ही नहीं कि जीवन का
और भी रंग हो सकता है, और भी ढंग, और भी शैली हो सकती
है। उन्होंने सोचा ही नहीं कि जीवन में छिपी एक वीणा है जिसके तार छेड़ने हैं।
उन्हें स्वप्न में भी पता नहीं है कि वे किस संपदा को लेकर आए थे और भिखमंगे बने
बैठे हैं; कि उनकी झोली भरी है हीरे-जवाहरातों से और वे
कंकड़-पत्थर बीन रहे हैं; कि उनके प्राणों में परमात्मा का
राज्य है और वे ठीकरे इकट्ठे कर रहे हैं।
मैं खुश हूं रंजन। मेरे आशीष तेरे लिए! यह नृत्य बढ़ता जाएगा। यह नृत्य
रोज गहरा होता जाएगा। इसी नृत्य में डूबते-डूबते एक दिन परमात्मा में लीन हो
जाएगी।
दूसरा प्रश्न: भगवान, आप अमृत दे रहे हैं और अंधे लोग आपको जहर पिलाने पर आमादा हैं। यह कैसा
अन्याय है?
सुधीर, अन्याय इसमें
कुछ भी नहीं; बस लोगों की पुरानी आदत, सदियों-सदियों
का आग्रहपूर्ण चित्त, परंपराओं से बंधे हुए मस्तिष्क,
पक्षपातों से घिरे हुए लोग। उन्हें लगता है कि मैं उनकी संस्कृति
नष्ट कर रहा हूं, उनका धर्म नष्ट कर रहा हूं। स्वभावतः वे
नाराज होते हैं। उन्हें समझ में भी नहीं आता कि मैं वही कह रहा हूं जो उपनिषदों ने
कहा था, वही जो कृष्ण ने, वही जो बुद्ध
ने।
लेकिन बुद्ध और उनके बीच ढाई हजार साल का फासला है। और ढाई हजार साल
में पंडितों ने शब्दों के साथ इस तरह का खिलवाड़ किया है कि बुद्ध ने क्या कहा, यह तो आज तय करना ही मुश्किल है। बुद्ध भी लौट आएं तो उन्हें भी तय करना
मुश्किल हो जाएगा कि क्या मैंने कहा था और क्या पंडितों ने जोड़ा है पच्चीस सौ
वर्षों में।
कृष्ण भी लौट आएं तो सिर ठोंक लेंगे अपना। क्योंकि उनकी समझ में ही न
आएगा कि गीता पर इतनी टीकाएं! मैंने तो सीधी-सादी बात कही थी अर्जुन को। और अर्जुन
कोई दार्शनिक नहीं था कि उससे उलझी बातें की जाएं; योद्धा था, क्षत्रिय था। सीधी-सीधी बातें ही उससे की जा सकती थीं।
और गीता बिलकुल सीधी-साफ है। मगर गीता रहे सीधी-साफ, लोग इरछे-तिरछे हैं। और पंडित तो बहुत ही तिरछा-तिरछा होता है। उसकी तो
चाल ही तिरछी-तिरछी होती है। वह तो शब्दों में से ऐसे अर्थ निकालने में कुशल होता
है जिनकी कि तुम कल्पना भी न कर सको। वह तो बाल की खाल निकालने में कुशल होता है।
उसका सारा जीवन ही बस शब्दों के खिलवाड़ में, शब्दों की शतरंज
जमाने में बीतता है। उसने गीता में से ऐसे-ऐसे अर्थ निकाल लिए जिनकी कृष्ण ने कभी
कल्पना भी न की होगी। अर्जुन की तो बात ही छोड़ दो। अर्जुन को तो कभी सोच में भी न
आया होगा। सब निकाल लिया गीता में से। जिसको जो दिल में आता है वही गीता में से
निकाल लेते हैं लोग। तुम्हें जो निकालना हो वही निकाल सकते हो। गीता बिलकुल असमर्थ
है। मालिक तुम हो--शब्दों को तोड़ो-मरोड़ो, नये अर्थ दो,
व्याख्याएं ऐसी आरोपित करो जो तुम्हारी अपनी हैं।
तो लोगों को लगता है कि मैं उनके धर्म को नष्ट कर रहा हूं। लोगों को
लगता है कि मैं उनकी संस्कृति के आधार छीन रहा हूं। और एक अर्थ में उन्हें ठीक ही
लगता है। उनकी जो संस्कृति है, उसको तो मैं निश्चित ही नष्ट
करना चाहता हूं। हां, बुद्धों की संस्कृति को बचाना चाहता
हूं। कृष्ण की और महावीर की संस्कृति को निश्चित बचाना चाहता हूं। मगर वह तो बात
कुछ और है। उसे तो जानना हो तो अपने भीतर जाना पड़े। उसे जानने के लिए शास्त्रों
में जाने की जरूरत नहीं है। उसे जानने के लिए आत्मा में जाने की जरूरत है। क्योंकि
बुद्ध ने अपने भीतर जाकर जाना था। बुद्ध ने क्या कहा, इसकी
फिकर छोड़ो; तुम अपने भीतर जाओ, तुम्हारे
भीतर भी वही मूल स्रोत मौजूद है जो बुद्ध के भीतर मौजूद था।
लेकिन लोगों की धारणाओं के विपरीत, मेरा काम उन्हें कष्ट
दे रहा है। वे जहर पिलाने पर अगर आमादा हैं तो बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ
आश्चर्य नहीं। सुधीर, इससे परेशान न होओ। यह उन्होंने सदा
किया है। उन्होंने कब बुद्धों को जहर नहीं पिलाया या पिलाने की कोशिश नहीं की है?
अगर वे मुझे जहर पिलाने को आमादा न हों तो चमत्कार होगा! तो उसका
अर्थ होगा कि मनुष्य-जाति रूपांतरित हो गई, क्रांति हो गई।
अगर वे मुझे जहर पिलाने को आमादा न हों तो इसका अर्थ हुआ कि जो उन्होंने जीसस के
साथ किया और सुकरात के और मंसूर के और बुद्ध और महावीर के, मेरे
साथ नहीं करेंगे।
ऐसा सौभाग्य का क्षण अभी नहीं आया है और शायद कभी नहीं आएगा। भीड़ शायद
कभी भी इतने बोध को उपलब्ध नहीं हो सकेगी। यह तो बहुत थोड़े से गिने-चुने लोगों की
क्षमता है कि वे पहाड़ों के शिखरों पर चढ़ें और वहां से सूर्य के दर्शन
करें--बदलियों के पार उठें! इतनी ऊंचाई तक उठना सभी के वश की बात नहीं। और वश की
भी हो तो सभी उठना नहीं चाहते।
रामकृष्ण कहते थे, चील बहुत ऊपर उड़ती है, फिर भी उसकी नजर नीचे घूरे पर पड़े हुए मरे चूहे में लगी होती है। चील आखिर
चील; ऊपर भी उड़ेगी तो क्या खाक ऊपर उड़ेगी! चांदत्तारे उसे
दिखाई नहीं पड़ेंगे; उसे दिखाई पड़ेगा चूहा, जो कचरेघर में मरा हुआ पड़ा है। वहीं उसके प्राण अटके हैं।
पंडित अगर ऊंची-ऊंची बातें भी करें तो कुछ खयाल मत देना। पुरोहित अगर
बहुत बड़े-बड़े दार्शनिक लच्छेदार सिद्धांतों की विवेचना में भी उतरें तो उसको कोई
मूल्य मत देना। उनकी नजर घूरे पर पड़े किसी मरे चूहे में लगी होगी। और चूंकि मैं
चाहता हूं तुम्हारी आंखें मरे चूहों से मुक्त हों, घूरों से मुक्त हों,
तुम्हारी आंखें चांदत्तारों से भरें, क्योंकि
वही तुम्हारा असली अधिकार है--निश्चित ही वे मुझसे नाराज होंगे, वे मुझसे परेशान होंगे।
एक अच्छी बात कम से कम हो रही है। मेरे कारण हिंदू पुरोहित, मुसलमान मौलवी, जैन मुनि, कम
से कम मेरे कारण सब एक बात पर सहमत हैं, कम से कम एक बात में
उनमें एकता हो रही है। इतना ही क्या कम है! उनमें एकता किसी बात पर नहीं होती,
मगर मेरे विरोध में कम से कम वे एक हैं। कानजी स्वामी से लेकर
आचार्य तुलसी तक, करपात्री से लेकर पुरी के शंकराचार्य तक एक
बात में राजी हैं--मेरे विरोध में। चलो यही अच्छा। चलो कोई बात तो उनमें एकता ला
रही है।
मगर यह बात बड़ी विचारणीय है कि एक व्यक्ति के संबंध में ये सारे लोग
विरोध में हैं, तो जरूर कुछ बात होगी। नहीं तो इतने लोगों को विरोध
में होने का कोई कारण नहीं था। वे मेरी उपेक्षा नहीं कर पा रहे हैं। चाहे मेरे कोई
पक्ष में हो, चाहे मेरे कोई विपक्ष में हो, उपेक्षा कोई नहीं कर पा रहा है। और यह अच्छा लक्षण है। मैं चाहता हूं इस
देश में प्रत्येक व्यक्ति को मैं मजबूर कर ही दूंगा, मेरे
संबंध में उसे निर्णय लेना ही होगा--या तो पक्ष या विपक्ष। मैं बीच में किसी को
छोडूंगा नहीं; कोई यह नहीं कह सकेगा कि हम तटस्थ।
दागे-दिल देख लिया, गैर ही समझा फिर भी,
हमको तुमसे नहीं, अपने से है शिकवा फिर भी।
जख्म पर जख्म उठाने का मजा देख चुके,
जी में जीने का बदस्तूर है सौदा फिर भी।
हम सराबों में रहे, तुम भी सराबों में रहे,
क्यों रहे? सोच तो लें, सोचना अच्छा फिर
भी।
मुझको नादान समझ के वो हंसे, खूब हंसे,
जख्म उनका नहीं अपना ही कुरेदा फिर भी।
हौसला हार के जो बैठ गए, बैठ गए,
काफिला चलता रहा, चलता रहेगा फिर भी।
सूरज इक और भी पूरब में उगा है, देखो!
दूर होता नहीं जेहनों से कुहासा फिर भी।
शोरोगुल शगल बना, शगल से मन बहला लो,
अपने इस देश में सन्नाटा रहेगा फिर भी।
दोस्तो, मान लिया रीत भी अब रीत नहीं,
सरफरोशी की कसम भूल न जाना फिर भी।
जहर शिव ने नहीं, हमने भी पिया है रहबर,
यह तसलसल तो तसलसल ही रहेगा फिर भी।
यह कोई शिव ने ही जहर पिया था, ऐसा नहीं है; जब भी कोई शिवता को उपलब्ध होगा उसे जहर पीना ही पड़ेगा, उसे नीलकंठ होना ही पड़ेगा!
जहर शिव ने नहीं, हमने भी पिया है रहबर,
यह तसलसल तो तसलसल ही रहेगा फिर भी।
यह सिलसिला तो पुराना है और यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।
शोरोगुल शगल बना, शगल से मन बहला लो,
अपने इस देश
में सन्नाटा रहेगा
फिर भी।
यह देश सदियों-सदियों से मर गया है। हम एक मुर्दा कौम की भांति जी रहे
हैं। चलो यही अच्छा, अगर मेरे कारण थोड़ा सन्नाटा भी टूटे। चलो लोग अगर
मेरे विरोध में भी शोरगुल करें तो भी मैं खुश होऊंगा कि जिंदगी के कुछ लक्षण तो
दिखाई पड़े। न आए फूल, कांटे तो आए! कांटे आए तो फूल भी आते
होंगे। चलो कुछ मुर्दे में हलचल तो हुई।
लोग बिलकुल मर गए हैं। लोगों की जिंदगी में किसी भी चीज पर दांव लगाने
की हिम्मत नहीं रह गई है, जोखिम उठाने का अभियान खो गया है। और जोखिम उठाना
जिंदगी है।
सूरज इक और भी पूरब में उगा है, देखो!
दूर होता नहीं
जेहनों से कुहासा
फिर भी।
लोग ऐसे अंधेरे के राजी हो गए हैं कि एक सूरज क्या दो सूरज उग आएं, तो भी उनके जेहन से, उनकी आत्मा से कुहासा दूर नहीं
होगा।
लेकिन कुछ लोग, जिनमें जीवन की थोड़ी सी धारा अभी भी बहती है, आकर्षित होने लगे हैं। वे जहर देने वाले लोग भी इसीलिए तो उत्सुक हो रहे
हैं, क्योंकि किन्हीं को अमृत के दर्शन होने लगे हैं। नहीं
तो वे जहर देने को भी उत्सुक नहीं होते। उनकी उत्सुकता अकारण नहीं है। जैसे-जैसे
मेरे प्रति कुछ लोगों का प्रेम बढ़ेगा, जैसे-जैसे मेरे पास
दीवानों का, मस्तों का समूह इकट्ठा होगा, वैसे-वैसे जहर देने वाले भी जहर देने की तैयारी में लग जाएंगे।
हम सराबों में रहे, तुम भी सराबों में रहे,
क्यों रहे? सोच तो लें, सोचना अच्छा फिर
भी।
लोग मृगतृष्णा में जीए हैं, मृगतृष्णा में जी रहे
हैं; सोचना भी भूल गए हैं। मैं उनसे इतना ही कह रहा हूं कि
एक बार जरा सोच लें, फिर से पुनर्विचार कर लें। मैं समस्याओं
को फिर से जगा रहा हूं। लोग इससे नाराज होते हैं, क्योंकि वे
मानते थे समस्या हल हो चुकी। वे मानते थे हमने समाधान पा लिया, अब क्या करना है? अब तो तानो चादर और सोओ। समाधान
हमें मिल गया है। उपनिषद में मिल गया, वेद में मिल गया,
गीता में, धम्मपद में। समाधान हमें मिल चुका
है, अब करना क्या है?
लेकिन धर्म का समाधान ऐसा समाधान नहीं है जैसे विज्ञान के समाधान होते
हैं। इस भेद को खूब समझ लेना। विज्ञान में अगर एक बात एक बार खोज ली जाती है तो हर
व्यक्ति को उसे बार-बार नहीं खोजना पड़ता। क्योंकि विज्ञान बाहर है और बाहर से उसकी
शिक्षा दी जा सकती है। जैसे अलबर्ट आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का सिद्धांत खोज लिया
तो बात खत्म हो गई; अब हर विद्यार्थी को, जो भौतिकी
पढ़ने गया है विश्वविद्यालय में, उसे सापेक्षवाद के सिद्धांत
को फिर-फिर नहीं खोजना पड़ेगा। बिजली एक बार खोज ली गई, खोज
ली गई; अब ऐसा नहीं है कि हर एक को बिजली खोजना पड़े। जिसने
बिजली खोजी उसे जीवन भर लग गया खोजते-खोजते; और तुम्हें
बिजली के संबंध में सीखना हो तो दिनों में यह काम हो जाएगा, वर्षों
का सवाल नहीं; क्योंकि खोज तो हो गई है। जिसने रेडियो बनाया
उसे तो बहुत समय लगा। लेकिन अब? अब तुम्हें रेडियो बनाने में
क्या अड़चन है? जरा से सीखने की बात है। मूल आधार तो जान लिया
गया है, अब तो सिर्फ तकनीक सीखने की बात है। विज्ञान तो
निर्धारित हो गया।
इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा
नहीं हो सकती। क्योंकि धर्म अंतस-जगत का अनुभव है। बुद्ध ने जाना अपने अंतरतम को
और खूब हमसे कहा भी। लेकिन फिर भी जब हमें जानना होगा तो हमें ही जानना होगा;
हम बुद्ध की बातों को मान कर नहीं बैठे रह सकते। हमें स्वयं ही
बुद्ध होना होगा। हमें फिर उसी रास्ते से गुजरना होगा जिससे बुद्ध गुजरे। उसी
ध्यान, उसी समाधि की हमें तलाश करनी होगी।
धर्म को प्रत्येक व्यक्ति को फिर-फिर खोजना होता है। यह धर्म और
विज्ञान का भेद है। विज्ञान की परंपरा होती है, धर्म की कोई परंपरा
नहीं होती। और हालतें बड़ी उलटी हैं: हमने धर्म की परंपरा बना ली। धर्म की परंपरा
होती ही नहीं। सत्य की कोई परंपरा नहीं होती। परंपरा का अर्थ होता है: जो बाप
तुम्हें दे दे, पुरानी पीढ़ी तुम्हें दे जाए।
निश्चित ही, जब तुम्हारे पिता विदा होंगे तो तुम्हें धन दे जाएंगे,
मकान दे जाएंगे, जमीन दे जाएंगे, जिंदगी भर उन्होंने जो चोरी-चपाटी की थी उसका अनुभव भी शायद दे जाएं।
लेकिन अगर उन्होंने परमात्मा को जाना था, तो बस गूंगे का
गुड़! वह अनुभव तुम्हें नहीं दे जाएंगे। इतना ही काफी है कि वे तुमसे कह जाएं कि
यही जिंदगी सब कुछ नहीं है, और भी ज्यादा है; मैंने जाना है, तू भी खोजना। तुम्हें खोज की अभीप्सा
दी जा सकती है, लेकिन खोज का निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता।
और मैं उसी अभीप्सा को फिर जगाने की कोशिश कर रहा हूं। इससे बहुत लोग, जो मानते थे कि समाधान मिल गया, बेचैन होंगे।
स्वभावतः, उनके समाधान छीन रहा हूं मैं। फिर से उन्हें
समस्या पकड़ा रहा हूं। मेरे पास जो आता है उससे मैं समाधान छीन लेता हूं, उसका शास्त्र छीन लेता हूं, उसके सिद्धांत छीन लेता
हूं; उसे फिर से नये प्रश्न देता हूं। फिर उसे लंबी यात्रा
करनी होगी। जो उसने मुफ्त और सस्ते में मान लिया था, वह उसे
जानना होगा। और जानना जोखिम भरा काम है।
इसलिए लोग अगर नाराज हों, सुधीर, तो इसमें अन्याय कुछ भी नहीं, स्वाभाविक है। मैं
उनके जीवन को प्रश्नों से भर रहा हूं। मैं उनकी सारी सांत्वना को खंडित किए दे रहा
हूं। उन्होंने किसी तरह अपने को समझा-बुझा कर संतोष मान रखा था, मैं उनका संतोष तोड़े डाल रहा हूं। मैं उन्हें फिर असंतुष्ट कर रहा हूं।
क्योंकि मेरे देखे, जब तक परमात्मा को जानने की गहन अभीप्सा
पैदा न हो--ऐसी प्यास, ऐसी प्यास, जैसी
कि रेगिस्तान में भटके किसी आदमी को लगती है--तब तक कोई परमात्मा को जान नहीं
पाता। अभीप्सा कीमत है परमात्मा को जानने की। तिल-तिल जलना होगा। रोआं-रोआं प्यासा
होगा। धड़कन-धड़कन पुकारेगी उसे। श्वास-श्वास बस उसी की याद से भर जाएगी, तब मिलन होगा।
तो स्वभावतः बहुत लोग नाराज होंगे। उन्हें नाराज होने दो, तुम उन पर नाराज मत होना। तुम यह भी मत सोचना कि वे अन्याय कर रहे हैं।
तुम उन पर दया करना, उन पर करुणा रखना। मुझे गालियां पड़ें,
मुझ पर जहर फेंका जाए, तुम चिंता न लेना। यह
बिलकुल स्वाभाविक है। तुम तो अपनी मस्ती में मस्त रहना। तुम्हारी मस्ती ही मेरी
सुरक्षा है। तुम्हारी करुणा ही, तुम्हारा प्रेम ही मेरी
सुरक्षा है। तुम अगर करुणा से भरे रहे तो मुझ तक कोई जहर नहीं पहुंच
पाएगा--तुम्हारी करुणा से गुजरते-गुजरते अमृत हो जाएगा।
लेकिन तुम्हारा मन भी जल्दी से नाराज हो जाता है। कोई मुझे गाली दे तो
मेरे संन्यासी को क्रोध आना स्वाभाविक लगता है। मैं उसकी गाली को माफ कर सकता हूं, तुम्हारे क्रोध को माफ नहीं कर सकूंगा। तुम अक्षम्य हो अगर तुमने क्रोध
किया। उसने तो ठीक ही किया, मैंने उसके घाव छू दिए।
और तुम अगर गीत गाते ही रहो, उसकी गालियां
तुम्हारे गीत में बाधा न बनें, और तुम्हारी बीन बजती ही रहे,
तो आज नहीं कल उसे समझना होगा। आज नहीं कल उसे खोजना होगा कि बात
क्या है? मेरी गालियां व्यर्थ हुई जा रही हैं! मेरा जहर काम
नहीं कर रहा है! बस वही बात उसे भी शायद मेरे पास ले आए। वही बात शायद उसे भी,
जैसे तुम मुझमें डूब गए हो, डुबाने का कारण बन
जाए। और कुछ उसे मेरे पास नहीं ला सकता। तुम्हारे विवाद से यह नहीं होगा। तुम तर्क
से उसे न समझा सकोगे। तर्क काम नहीं पड़ेगा। तुम्हारा प्रेम ही काम पड़ सकता है।
और प्रेम से बड़ा कोई तर्क है भी नहीं। प्रेम अंतिम तर्क है। जो प्रेम
से नहीं हो सकता वह हो ही नहीं सकता है। और तर्क से किसी को आज समझा लो, कल वह बड़ा तर्क खोज लेगा। तर्क से ज्यादा से ज्यादा लोगों के मुंह बंद किए
जा सकते हैं, किन्हीं की आत्माएं रूपांतरित नहीं होतीं। तर्क
रूपांतरकारी नहीं है। तर्क की वह क्षमता नहीं है।
प्रेम करो! जितनी गालियां मुझ पर बरसें, उतना प्रेम करो।
जितना जहर मेरी तरफ फेंका जाए, उतना तुम अमृत दो। नाचो!
तुम्हारी मस्ती को फैलने दो! तुम्हारी अलमस्ती चारों तरफ फैलती जाए। एक बात
तुम्हें सिद्ध कर देनी है कि मेरा संन्यासी आनंदित है। बस तुम्हारा आनंद ही प्रमाण
होगा कि मैं जो कह रहा हूं वह सत्य है।
तीसरा प्रश्न: भगवान, कोकिल की कुहू-कुहू और आपका प्रवचन, दोनों इकट्ठे
चलते हैं। किस पर ध्यान करें? कृपया बताएं!
शांति स्वरूप, चुनो
ही क्यों? दोनों को साथ-साथ चलने दो। कोयल की कुहू-कुहू मेरे
प्रवचन में बाधा नहीं है, पृष्ठभूमि है। कोयल की कुहू-कुहू,
मैं जो कह रहा हूं उसी को समर्थन है; मैं जिस
मस्ती का पाठ पढ़ा रहा हूं उसी मस्ती के लिए आधार है।
लेकिन हमें साधारणतः एक बात सिखाई गई है--एकाग्रता। और एकाग्रता और
ध्यान में हम भेद नहीं कर पाते। किताबों में लिखा है: ध्यान यानी एकाग्रता।
इससे गलत कोई और बात नहीं हो सकती। ध्यान और एकाग्रता बिलकुल भिन्न
बातें हैं। एकाग्रता का अर्थ होता है: सब तरफ से ध्यान को खींच लो और एक जगह लगा
दो। एकाग्रता का अर्थ होता है: चित्त को संकीर्ण कर लो। ध्यान का अर्थ होता है:
चित्त को विस्तीर्ण करो! ध्यान का अर्थ होता है: सब द्वार-दरवाजे खोल दो। कोयल ने
गीत गाया है, वह भी आए; और यह ट्रेन की आवाज,
वह भी समाहित हो; और मैं जो बोल रहा हूं,
वह भी। इन सब में विरोध करने की कोई जरूरत नहीं है। ये सब एक साथ
आत्मसात कर लेने हैं।
और तुम चकित होओगे, बहुत चकित होओगे। एकाग्रता से
तनाव होता है, तनाव में जल्दी ही थक जाओगे। एकाग्रता
जबरदस्ती है, प्रयास है। ध्यान अप्रयास है। ध्यान विश्राम है,
एकाग्रता श्रम है।
तुम मुझे ध्यान से सुनो, एकाग्रता से नहीं। और
ध्यान से सुनने का यह अर्थ नहीं है कि बस बिलकुल अकड़ कर, सब
तरफ से द्वार-दरवाजे बंद करके, टकटकी मुझ पर बांध दो। तब तो
तुम बहुत कुछ चूक जाओगे। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वही कोयल कह रही है। कोयल अपनी
भाषा में कह रही है। और निश्चित ही उसकी भाषा बहुत प्रीतिकर है। उसे वंचित न करो।
शांत, सब तरफ से खुले हुए मेरे पास बैठो। और तुम हैरान होओगे,
बाधा नहीं पड़ेगी।
तुम्हारी धारणा यह है कि अगर तुमने कोयल को सुना तो डिस्ट्रैक्शन होगा, विघ्न हो जाएगा। कोयल को सुनोगे तो मुझको कैसे सुनोगे? मुझको सुनोगे तो कोयल को सुनना बंद करना होगा।
तुमने कभी प्रयोग नहीं किया। यह तुम्हारी धारणा आमूल रूप से गलत है।
तुम दोनों को सुनो। और देखो, कोई विघ्न नहीं पड़ेगा। कोयल
क्यों विघ्न डालेगी? कोयल पृष्ठभूमि बन जाएगी। और कोयल की
पृष्ठभूमि में मेरे वचन ज्यादा सार्थक होंगे, कम सार्थक
नहीं। मेरे वचनों में ज्यादा संगीत भर जाएगा। जो मैं नहीं कर सकता वह कोयल कर सकती
है।
और एक बार तुम यह प्रयोग करोगे तो तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा अनुभव से
कि विघ्न किसी चीज से नहीं पड़ता, विघ्न पड़ता है एकाग्र होने की
चेष्टा से। चूंकि तुम एकाग्र होना चाहते हो, इसलिए कोयल से
बाधा पड़ती है, क्योंकि कोयल की आवाज तुम्हें एकाग्र नहीं
होने देती। और अगर तुम एकाग्र होना ही नहीं चाहते, फिर कौन
विघ्न डाल सकता है? और जहां विघ्न नहीं है वहीं ध्यान है।
फिर क्या फर्क पड़ता है कि कोयल की आवाज और मेरी आवाज दोनों मिल गईं?
तुम्हें डर है कि कहीं कोई एकाध शब्द मेरा चूक न जाए! कहीं ऐसा न हो
कि कोयल की आवाज में एकाध शब्द मेरा सुनाई न पड़े!
चलेगा! शब्दों में बात है भी नहीं। शब्द सुन भी लिए तो कुछ मिलने वाला
नहीं है। शब्द न भी सुन पाए तो कुछ खो नहीं जाएगा। शब्द से भी ज्यादा महत्वपूर्ण
कुछ यहां घटित हो रहा है। मेरीत्तुम्हारी सन्निधि, मेरात्तुम्हारा
पास-पास होना घटित हो रहा है। यह सामीप्य, यह सत्संग,
यह महत्वपूर्ण है। शब्द तो सिर्फ बहाना है। शब्द तो सिर्फ एक बहाना
है। अन्यथा निःशब्द घटित हो रहा है। और जब तक तुम्हें मेरा निःशब्द समझ में न आएगा
तब तक तुम मुझे न समझ पाओगे। मेरी बातें मेरी बातों में नहीं हैं। मेरी बातें मेरे
शून्य में हैं।
कोयल को भी सुनो। ये जो और पक्षी गीत गाते हैं, इनको भी सुनो। यह वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं की आवाज, यह ट्रेन, यह हवाई जहाज, यह
रास्ते पर शोरगुल, यह सब--सब परमात्मा है! इसलिए किसी को
छोड़ो मत। किसी को काटो मत। किसी तरफ अपने द्वार-दरवाजे बंद मत करो। आने दो इस सब
को। तुम इस सब को अंगीकार करो, आलिंगन करो। और तब देखो,
उस आलिंगन में कैसा आनंद है!
चौथा प्रश्न: भगवान, सत्य कहां है?
धीरेन्द्र, सत्य यहां है! कहां की
क्यों पूछते हो? कहां यानी कहीं और--काबा में, काशी में? कहां यानी कहीं और--गिरनार में, शिखर जी में? कहां यानी कहीं और--हिमालय पर, तिब्बत में?
नहीं-नहीं, यहां! और यहां में सब सम्मिलित है--काशी भी, काबा भी, कैलाश भी। क्योंकि काशी भी यहां के बाहर
नहीं है। और कैलाश भी यहां के बाहर नहीं है।
यह सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यहां खंड-खंड नहीं हैं, टुकड़े-टुकड़े नहीं हैं। एक ही सागर है। एक ही समय है। एक ही आकाश है।
तो ऐसा मत पूछो कि सत्य कहां है, क्योंकि प्रश्न ही
तुम गलत पूछ रहे हो। तुम पूछ रहे हो: कहां जाऊं? कहां खोजूं?
कहीं जाना नहीं है। जाना बंद करो, खोजना छोड़ो,
और सत्य मिलेगा। खोजा कि चूके। खोजने का अर्थ ही है कि बाहर खोजना।
और जिसने बाहर खोजा वह चूका।
मैं कहता हूं, खोजो मत। इस सन्नाटे में, इस
क्षण में--जहां मैं खो गया हूं, जहां तुम खो गए हो, जहां अस्तित्व अपनी शुद्धता में हमें घेरे हुए है--इस परिपूर्णता में,
इस आह्लाद में, इस ठहरे हुए समय में, इस क्षण की शाश्वतता में, बस यहीं है सत्य। तुम काश
सारी आकांक्षाएं, इच्छाएं, वासनाएं,
सत्य को खोजने की आपाधापी, दौड़, सब छोड़ कर चुप हो जाओ, तो मिल गया!
लेकिन सदियों-सदियों से हमें सिखाया गया है। पूछो, सत्य कहां है? तो कोई कहेगा, सातवें
आसमान पर। बात जंचती है, उससे एक राहत मिलती है। तो फिर ठीक
है, इसीलिए मुझे नहीं मिला सत्य क्योंकि सातवें आसमान पर है
और मैं जमीन पर हूं। मिले तो कैसे मिले? जब सातवें आसमान पर
पहुंचूंगा तब मिलेगा। इससे राहत भी मिल गई, भविष्य के लिए
आशा भी मिल गई, और तुम जैसे थे वैसे के वैसे रहे, क्रांति से भी बच गए।
मैं तुमसे कहता हूं: यहां! मैं तुम्हें बेचैन कर दूंगा। सातवें आसमान
पर नहीं। जो सातवें आसमान पर है वह अगर मुझसे पूछेगा तो उससे भी कहूंगा: यहां! अगर
मैं काबा में होता तो भी यही कहता: यहां! और काशी में होता तो भी कहता: यहां! मेरा
शब्द वही होता, मेरा उत्तर वही होता।
लेकिन सदियों से कहा गया है कि सत्य धरती पर कहां, आकाश में है, स्वर्ग में है! तुम्हें धरती के खिलाफ
बहुत शिक्षा दी गई है। और मजा यह है कि रहना धरती पर, जीना
धरती पर। प्रेम यहां, मैत्री यहां, करुणा
यहां, पुण्य यहां, पाप यहां! श्वास
यहां लेनी और सत्य आकाश में, सातवें आकाश पर! तो तुम्हारा
जीवन अगर थोथा न हो जाए तो क्या हो?
चांद दूज का
पूजा करते सभी
पर छा जाते हैं बादल भी कभी-कभी
और कभी आंखों के अंधड़
कभी धूल की छाया
तथा कभी मिट्टी की माया
या काया पानी की
जिसको जग आंसू कहता है
हर लेती है किरण नयन की
खो जाती अभिलाषा
बीहड़ वन की चौड़ी लंबी हरियाली में
जैसे पगडंडी जीवन की
या कि प्रेम में भाषा।
हर पखवारे
मगर चांद पर
फूल चढ़ाने
चारण बन कर
गीत सुनाने
आ जाते हैं अनगिन प्यासे
स्नेह लुटाने
दीप जलाने।
पारस का चुंबन
नित कदंब का फूल है
जिसकी शोभा शूल है
मूल छिपा है यहीं धूल में
सत्य छिपा है कहीं भूल में
ज्यों धारा को
ठांव ठिकाना
मिलता है बस कूल से।
पांव न धरती पर जम पाया
पर उड़ते आकाश में
सुमन शून्य के
मन के बुल्ले
फलते बिना बतास के
आस निगोड़िन
गोड़ा करती
खेत हरे विश्वास के
पर मानव कितना भोला है
सहता आया कोटि-कोटि वर्षों से
सुनता आया बड़ा झमेला है
युग युग से
पर जीवन का सदा
उपासक रहा
सिंधु का पानी उस पर दहा
मगर फिर भी जो नहीं ढहा
धर्म धरती का
विश्वासों का मेला है।
हम अपनी आशाओं में, विश्वासों के खेतों को पानी
सींचते रहते हैं।
पांव न धरती पर जम पाया
पर उड़ते आकाश में
ऐसी हमारी दशा है। पैर जमीन पर नहीं जम पाए और बातें आकाश की। जमीन पर
चलना नहीं आया और आकाश में उड़ने की बातें। हम ऐसे वृक्ष हैं जिसने जड़ें तो फैलाईं
नहीं जमीन में और बदलियों से ऊपर उठने की आतुरता पैदा हो गई।
पांव न धरती पर जम पाया
पर उड़ते आकाश में
सुमन शून्य के
मन के बुल्ले
फलते बिना बतास के
आस निगोड़िन
गोड़ा करती
खेत हरे विश्वास के
पर मानव कितना भोला है
सहता आया कोटि-कोटि वर्षों से
सुनता आया बड़ा झमेला है
युग-युग से
पर जीवन का सदा
उपासक रहा
सिंधु का पानी उस पर दहा
मगर फिर भी जो नहीं ढहा
धर्म धरती का
विश्वासों का मेला है।
यहां हमने कितने विश्वास बना लिए हैं! पृथ्वी पर तीन सौ धर्म हैं और
तीन सौ धर्मों के कम से कम तीन हजार संप्रदाय होंगे। इस छोटी सी पृथ्वी पर इतने
धर्म, इतने संप्रदाय, इतने विश्वास,
इतनी मान्यताएं! निश्चित ही कहीं कुछ चूक हो गई है, कहीं कुछ भूल हो गई है। कहीं कोई बहुत बुनियादी भूल हो गई है।
मूल छिपा है यहीं धूल में
सत्य छिपा है कहीं भूल में
बस इसे न जानने से ही बड़ी भूल हो गई है। हमारे इस जीवन में ही, जैसे हम हैं, इसमें ही कहीं सत्य छिपा है। इस पृथ्वी
में ही, इस मृण्मय में ही कहीं चिन्मय का आवास है। इस मिट्टी
की देह में ही कहीं परमात्मा विराजमान है। इस प्रेम में ही, इस
पार्थिव प्रेम में ही प्रार्थना का फूल खिलेगा, परमात्मा का
मंदिर बनेगा।
मत पूछो सत्य कहां है! सत्य यहां है, अभी है! कहां की बात
पूछ कर तुम अपने को समझा लेना चाहते हो कि बहुत दूर हो तो अच्छा, जितना दूर हो उतना अच्छा, मृत्यु के पार हो तो बहुत
अच्छा, तो जिंदगी हमें जैसे जीनी है वैसे जी लें और फिर
देखेंगे, जब समय आएगा तब देखेंगे।
एक बौद्ध भिक्षु श्रीलंका में अपने मरण के करीब आया। उसने सुबह-सुबह
घोषणा कर दी कि आज सांझ सूरज के डूबते मैं समाप्त हो जाऊंगा। उसके हजारों शिष्य थे, वे सब इकट्ठे हुए। सांझ होते-होते बड़ी भीड़ हो गई। कोई अस्सी वर्ष का वृद्ध
भिक्षु था और कोई पचास वर्ष से लोगों को समझा रहा था--निर्वाण, निर्वाण, निर्वाण! शिष्य सोच रहे थे कि मरते वक्त
देखें वह क्या कहता है! अधिक को तो आशा थी वह फिर निर्वाण की ही कुछ बात करेगा।
पचास साल से सुनते-सुनते उनके कान भी पक गए थे।
और वही हुआ। मरने के ठीक पहले उसने आंख खोली और कहा कि एक बात पूछ लूं? तुम्हें मैंने पचास वर्ष तक समझाया कि मुक्त होने का रास्ता क्या है,
मार्ग क्या है, निर्वाण पाने की विधि क्या है;
मगर तुमने न सुना, न तुम समझे; तुम टालते रहे कल पर। अब कोई कल नहीं होगा, मैं जा
रहा हूं। तो मैं पूछता हूं, अगर किसी को निर्वाण पाना हो तो
खड़ा हो जाए। तो मैं साथ ही उसे ले चलूं।
वहां हजारों लोग इकट्ठे थे, एक-दूसरे की तरफ
देखने लगे। देखने लगे होंगे एक-दूसरे की तरफ कि भाई उठो, हमें
तो और भी पच्चीस काम हैं, तुम क्या कर रहे हो बैठे-बैठे?
लेकिन कोई उठा नहीं। एक आदमी ने सिर्फ हाथ उठाया।
फकीर ने कहा, सिर्फ हाथ उठाते हो, मैंने कहा
उठ कर खड़े हो जाओ!
उसने कहा, हाथ सिर्फ पूछने के लिए उठा रहा हूं कि क्या बता सकते
हैं कि निर्वाण को पाने की विधि क्या है?
उसने कहा, नासमझ, विधि का सवाल ही नहीं,
मैं ले जाने को तैयार हूं। अब तू विधि का क्या करेगा?
उसने कहा, विधि इसलिए कि अभी मैं जाने को तैयार नहीं हूं। विधि
बता जाएं, जब जाना होगा तो विधि का उपाय कर लेंगे। कहां है
निर्वाण, इसके कुछ इशारे कर जाएं, कुछ
इंगित कर जाएं, कोई नक्शा दे जाएं। अभी मुझे जाना नहीं है,
आपसे साफ कह दूं। मेरे उठे हाथ को देख कर कुछ गलती न समझ लेना।
इसीलिए मैं उठ कर खड़ा भी नहीं हुआ।
और भी अनेक हाथ उठ गए। उन्होंने कहा कि हम भी जानना चाहते हैं। अब आप
जा ही रहे हैं तो जाते वक्त कम से कम विधि बता दें।
तुम सोचते हो यह दयनीय दशा! वह भिक्षु हंसा और बिना कुछ बताए विदा हो
गया। उसने आखिरी मजाक किया। पचास साल से विधियां सुन रहे हैं और नहीं समझे, और अभी भी विधि पूछ रहे हैं!
विधि पूछना चालबाज मन की तरकीब है। मन कहता है: कभी करेंगे! और जब भी
तुम किसी सदगुरु के पास पहुंचोगे तो वह कहेगा--अभी! कभी की बात मत उठाओ। समय को
बीच में मत लाओ।
तुम पूछते हो धीरेन्द्र: "सत्य कहां है?'
मैं कहता हूं: यहां! अभी! तुम्हारे भीतर! तुम्हारे अंतरतम में! तुम
सत्य हो! तत्वमसि! शांत होकर, मौन होकर, डुबकी
मारो, भीतर डुबकी मारो।
पांचवां प्रश्न: भगवान, आत्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अपने जीवन में परम आनंद पाता है और यह बात
यथार्थ मालूम होती है। लेकिन मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति की आत्मा अस्तित्व में खो
जाती है, जैसे नमक का पुतला सागर में खो जाता है। फिर यह
प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में मुक्ति का यह प्रयत्न क्या अर्थ रखता है?
आत्मा की अनुपस्थिति में मुक्ति का यह अनुभव कौन करेगा? कृपया स्पष्ट करने की कृपा करें!
हिम्मत भाई भूता, अनुभव करना है? गलना है नमक के पुतले की भांति सागर
में? या कि सिर्फ काल्पनिक प्रश्न उठाने हैं? यह प्रश्न काल्पनिक है कि यदि ऐसा होता है तो फिर आदमी क्यों प्रयत्न करे?
तुमने एक ही बात देखी कि नमक का पुतला सागर में गल गया; तुमने यह नहीं देखा कि नमक का पुतला सागर हो गया। तुमने एक ही बात देखी कि
आत्मा अस्तित्व में लीन हो गई; तुमने यह नहीं देखा कि
अस्तित्व आत्मा में लीन हो गया।
कबीर कहते हैं: हेरत-हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराई, बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाई। कि हे सखी, खोजते-खोजते
कबीर तो खो गया, बूंद सागर में चली गई, अब उसे वापस निकालने का कोई उपाय नहीं। और फिर दूसरा पद भी लिखा तत्क्षण
कि हेरत-हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराई, समुंद समाना बुंद में
सो कत हेरी जाई। कि हे सखी, कबीर तो खो गया खोजते-खोजते और
समुद्र बूंद में समा गया है, अब उसे निकालने का क्या उपाय?
ये दोनों बातें सच हैं। जब बूंद सागर में समाती है तो सागर भी बूंद
में समाता है। यह एकतरफा नहीं हो सकता। जब आत्मा अस्तित्व में लीन होती है--तो तुम
एकतरफा सोच रहे हो--अस्तित्व भी आत्मा में लीन हो जाता है। आत्मा मिटती नहीं, विराट होती है। बूंद सागर होती है। और विराट होने में आनंद है, क्षुद्र होने में दुख है।
तुम जब तक हो तब तक दुखी रहोगे। तुम्हारा अनुभव दुख के पार नहीं जा
सकता। लेकिन हिम्मत भाई की इच्छा यह है कि खुद बचें और आनंद का अनुभव करें। यह
असंभव है। मैं बचा तो आनंद का अनुभव हो ही नहीं सकता। आनंद का अनुभव ही मैं के खो
जाने पर होता है। लेकिन मैं के खो जाने से घबड़ा मत जाना एकदम कि जब मैं खो ही गया
तो अनुभव किसको होगा! अनुभव परमात्मा को होगा। परमात्मा सदा आनंद का अनुभव कर रहा
है। इसलिए हमने परमात्मा की व्याख्या की--सच्चिदानंद! वह सत्य है, चैतन्य है, आनंद है। आनंद पराकाष्ठा है। तुम हो,
यही दुख है।
लेकिन यह प्रश्न बहुतों के मन में उठता है कि जब खो ही जाना है तो यह
भी अजीब बात है, खोने के लिए क्यों मेहनत करें? बचने
के लिए मेहनत करना समझ में आती है। कोई ऐसी तरकीब बताइए कि बच जाएं। आप तरकीब
बताते हैं खोने की, तो खोने के लिए मेहनत क्या करनी?
लेकिन तुम जरा अपने ऊपर पुनर्विचार करो। तुम हो क्या सिवाय दुख की एक
गांठ के? तुम हो क्या एक अंधेरी रात के सिवाय? तुम्हारा होना सत्य नहीं है, झूठ है। इसलिए जो
मिटेगा वह झूठ मिटेगा। सत्य तो कभी मिटता नहीं।
तुम्हारी अवस्था वैसी है जैसा अमरीका में एक बार हुआ। लिंकन की
शताब्दी मनाई जा रही थी। सारे अमरीका में खोज की गई कि कोई आदमी लिंकन की
शक्ल-सूरत का मिल जाए। एक आदमी मिल गया। उस आदमी को लिंकन का पार्ट दिया गया। और
सारे अमरीका में वह नाटक-मंडली घूमी। एक साल लगा। गांव-गांव, नगर-नगर, शहर-शहर नाटक किया गया। और वह आदमी एक साल
तक अब्राहम लिंकन का पार्ट करता रहा। वैसे ही चलता; लिंकन
कुछ थोड़ा सा लंगड़ाता था, तो वैसे ही लंगड़ाता। और लिंकन कुछ
थोड़ा सा बोलते समय तुतलाता था, तो वैसा ही तुतलाता। लिंकन
जिस ढंग से बोलता था वैसे ही बोलता; वैसे ही चलता; वही ढंग, वही कपड़े, सब वही साल
भर तक। साल भर के बाद जब नाटक-मंडली समाप्त हुई, वह आदमी घर
आया, तो वह लिंकन के ही कपड़े पहने हुए है, लिंकन की ही लिंकन-छाप छड़ी, वैसे ही लंगड़ाता। और जब
पत्नी से आकर तुतला कर बोला तो पत्नी ने समझा कि मजाक कर रहा है। घर के लोग हंसे,
उन्होंने कहा कि अब छोड़ो, अब खत्म हो गया
नाटक।
मगर वह आदमी मजाक नहीं कर रहा था। उसे तो साल भर में यह भरोसा आ गया
था कि वह लिंकन है। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई, वह माने ही नहीं। वह
वैसे ही चले, वैसे ही उठे, उसी ढंग से
बोले। गांव भर में मजाक फैलने लगी। जो आए वही समझाए कि भई, नाटक
अब खतम हो गया। मगर वह आदमी कहे: कैसा नाटक! आप किस नाटक की बात कर रहे हैं?
मैं अब्राहम लिंकन हूं!
अब्राहम लिंकन को तो मारा गया, हत्या की गई। गांव
में यह खबर फैल गई कि जब तक इसको मारा नहीं जाएगा तब तक अक्ल नहीं आएगी। यह मरेगा
तभी समझ में इसको आएगा। मगर तब फायदा क्या समझ में आने का! समझाने वाले थक गए,
बड़े बुद्धिमान थक गए। आखिर उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया।
मनोवैज्ञानिक ने भी बहुत उपाय किए, कोई उपाय काम न करे। वह
आदमी माने ही नहीं। वह कहे: हद हो गई! जब मैं अब्राहम लिंकन हूं तो मैं कैसे कहूं
कि मैं नहीं हूं!
तभीत्तभी एक नयी मशीन ईजाद की गई थी अमरीका में। अब तो उसका अदालतों
में उपयोग होता है। वह मशीन झूठ को पकड़ने की मशीन है। आदमी को खड़ा कर दिया जाता है, उसे पता भी नहीं होता कि जिस स्थान पर वह खड़ा है, नीचे
मशीन छिपी है। वह मशीन हृदय की धड़कनों को उसी तरह ग्राफ बनाती है जैसे
कॉर्डियोग्राम ग्राफ बनाता है। और तुमने भी अनुभव किया होगा कि जब तुम झूठ बोलते
हो तो हृदय को एक धक्का लगता है। क्योंकि जानते तो तुम हो कि सच क्या है, मगर सच को दबाते हो और झूठ बोलते हो, तो हृदय एक
झटका खा जाता है। वह झटका ग्राफ पर आ जाता है।
तो तरकीब यह है कि पहले ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिसमें आदमी झूठ बोल
ही न सके। मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि घड़ी में देखो कितने बजे हैं? उस आदमी ने कहा, नौ बज कर बीस मिनट। ग्राफ बन रहा
है। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि मेरे हाथ में क्या है? उस आदमी
ने कहा, किताब। कौन सी किताब? उसने कहा,
बाइबिल। ग्राफ बन रहा है। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा कि दरवाजा खुला है
या बंद? उसने कहा, खुला है। ग्राफ बन
रहा है। ऐसी बहुत सी बातें जिसमें वह झूठ बोल ही न सके।
और तब उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि तुम कौन हो? वह आदमी थक गया था, कब तक विवाद करता रहे लोगों से!
तो उसने उस दिन सोचा कि झंझट खत्म ही कर दो, साफ कह दो कि
मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। एक दफा इस बात को खत्म करो। अपने दिल में तो जानता ही
हूं कि हूं, मगर अब लोगों से कब तक सिर-माथापच्ची करो! इसमें
ही जिंदगी बीत जाएगी। क्या तुम अब्राहम लिंकन हो?
उसने कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं! और
मशीन ने नीचे बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। इतनी गहरी बात बैठ गई हृदय में!
नाटक इतना वास्तविक हो गया!
क्या तुम सोचते हो, अगर इस आदमी को यह कहा जाए कि
अब्राहम लिंकन तुम न रह जाओगे तो अच्छा होगा, तुम स्वस्थ हो
जाओगे। वह कहेगा, स्वस्थ कौन होगा फिर? जब अब्राहम लिंकन ही न रहा तो स्वस्थ कौन होगा? इस
आदमी को अगर हम कहें कि अगर तुम अब्राहम लिंकन होने का खयाल छोड़ दो तो तुम्हारा यह
मानसिक रोग चला जाएगा। मगर वह कहेगा, फिर फायदा ही क्या?
जब रहे ही न और मानसिक रोग भी न रहा, तो न रहा
बांस न बजेगी बांसुरी, वह तो ठीक ही है; मगर जब रहे ही नहीं तो फायदा क्या?
यही, हिम्मत भाई, आपका प्रश्न है। आप
कहते हैं, जब मैं ही न रहूंगा तो अनुभव किसको होगा? अनुभव उसको होगा जो तुम वस्तुतः हो। और तुम जो अभी अपने को समझे बैठे हो
वह सिर्फ नाटक है।
समझो, जब तुम पैदा हुए थे तो तुम्हारा नाम हिम्मत भाई भूता
तो नहीं था। बिना नाम के आए थे। लेकिन अब तुम्हारा नाम हिम्मत भाई हो गया। अब
रास्ते पर कोई मिल जाए और कह दे कि ऐ उल्लू के पट्ठे, कहां
जा रहे? तो झगड़ा हो जाए। तुम फौरन पूछोगे, तुमने हिम्मत भाई भूता को तो नहीं कहा? अगर किसी और
को कहा तो तुम्हारी मर्जी। मगर याद रखना, हिम्मत भाई भूता से
इस तरह की बात की तो मुझसे बुरा कोई नहीं! अब हिम्मत भाई भूता को कोई गाली दे दे
तो झगड़ा हो जाएगा; हालांकि जब तुम पैदा हुए थे, तुम्हारा कोई नाम नहीं था। जब तुम पैदा हुए थे, हिम्मत
भाई भूता को कोई कितनी ही गालियां देता, तुम मजे से अपना
अंगूठा चूसते रहते, बिलकुल फिकर न करते--कि भाड़ में जाएं
हिम्मत भाई और भाड़ में जाएं गाली देने वाले, अपने को क्या
लेना-देना! अपना क्या नाता!
जब तुम पैदा हुए थे तब तुम हिंदू नहीं थे, मुसलमान नहीं थे, ईसाई नहीं थे। अगर कोई बाइबिल को
जलाता तो क्या तुम उचक कर खड़े हो जाते कि जान चली जाए मगर बाइबिल न जलने दूंगा?
झंडा ऊंचा रहे हमारा! जान जाए पर आन न जाए! या कोई अगर गणेशजी की
मूर्ति लुढ़का देता तो क्या तुम नाराज हो जाते कि मैं गणेश भक्त हूं?
नहीं; तुम पड़े-पड़े देखते रहते, शायद
हंसते, खिलखिलाते कि वाह क्या रही! लुढ़काने ही योग्य मालूम
होते थे ये गणेशजी, ठीक किया जो लुढ़का दिए! तुम शायद प्रसन्न
ही होते।
लेकिन फिर धीरे-धीरे धारणाएं जमाई गईं कि तुम हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि यह रहा तुम्हारा नाम, यह तुम्हारी जाति, यह तुम्हारा गोत्र। और धीरे-धीरे
यह धारणा मजबूत होती चली गई।
यह नाटक ही है। उस आदमी ने एक साल में भूल की थी, तुमने पचास साल में भूल की; मगर सालों से तो फर्क
नहीं पड़ता।
जब ज्ञानी कहते हैं कि तुम मिट जाओगे तो वे इस तुम के मिटने की बात कर
रहे हैं जो कि झूठा है, कृत्रिम है, बनाया गया है। उस
तुम के मिटने की बात नहीं कर रहे हैं जो तुम वस्तुतः हो। वह तो कैसे मिटेगा?
जो है, है; उसके मिटने
का कोई उपाय नहीं। सत्य न मिटता है, न मिट सकता है। झूठ बनता
है और मिटता है। झूठ पानी का बुलबुला है।
तुम पूछते हो, आनंद किसको होगा?
निश्चित ही हिम्मत भाई भूता को नहीं, इतना तो मैं पक्का कह
देता हूं। लेकिन हिम्मत भाई भूता से तुम ज्यादा हो, बहुत
ज्यादा हो। हिम्मत भाई भूता तो कुछ नहीं, सिर्फ एक लेबल।
भीतर विराट छिपा है, जिसका न कोई नाम है, न कोई धाम है, न कोई जाति है, न
कोई गोत्र है, न कोई धर्म है, न कोई
वर्ण है।
निश्चित ही यह जो नमक का पुतला है, समाप्त हो जाएगा--मगर
जो तुम हो, जन्म के पहले जो तुम थे, वह
तुम मृत्यु के बाद भी रहोगे। तुम शाश्वत हो!
स्वयं को मिटाने के लिए प्रयास--तुम पूछते हो--हम करें क्यों?
और तुम्हारी बात तर्कयुक्त है। लेकिन बस तर्क पर ही जीए तो जीवन में
जो महत्वपूर्ण है उसे जानने से वंचित रह जाओगे। जीवन तर्क ही नहीं है, जीवन तर्कातीत है। थोड़ा-थोड़ा मिट कर देखो। एकदम से नहीं कहता कि एकदम नमक
का पुतला डुबा ही दो, क्योंकि एकदम से डुबाओ और फिर समझ में
आए कि अरे यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई, अब आनंदित कौन हो! तो थोड़ा-थोड़ा
डुबाओ, कभी-कभी डुबाओ, चौबीस घंटे में
एक घंटा डुबा कर देखो। उस एक घंटे को मैं ध्यान कहता हूं। एक घंटा डुबा दो। एक
घंटा भूल जाओ कि मैं हूं। एक घंटा न हो जाओ। और फिर देखो क्या होता है!
एकदम आनंद की झड़ी लग जाती है। और तब तुम बड़े चकित होओगे कि हिम्मत भाई
भूता तो हैं ही नहीं और आनंद की झड़ी लगी! तब तुम्हें यह भी समझ में आएगा कि जैसे
ही हिम्मत भाई भूता वापस लौटे कि झड़ी बंद हो जाती है। जैसे ही मैं-भाव आया, आनंद गया। मैं-भाव नरक है। और जैसे ही मैं-भाव गया, आनंद
आया।
कभी-कभी आकस्मिक रूप से भी हो जाता है। सुबह-सुबह उठ गए हो, ताजी हवा है, पक्षी गीत गा रहे हैं, वृक्षों में फूल खिले हैं, झील में कमल नाच रहे हैं,
सूरज निकला है, आकाश में बगुलों की कतार उड़ गई
है--और एक क्षण को तुम भूल गए कि मैं हूं! फूल रहे, आकाश रहा,
बगुले रहे, सूरज रहा, सुबह
की ताजी हवा रही--तुम न रहे! एक क्षण को भूल ही गए! एक क्षण को बिलकुल लीन हो गए!
और उसी लीनता में आनंद है। फिर तुम बार-बार कहोगे, आज सुबह
बड़ा आनंद मिला!
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि तुम यह भूल ही जाओगे कि आनंद जब मिला
था तब तुम नहीं थे। और अब जब तुम कह रहे हो कि आज सुबह बहुत आनंद मिला, तब तुम हो। अब तुम सिर्फ स्मृति की बात कर रहे हो। जब तुम बिलकुल मिट गए
थे, तब भी तुम्हारा मस्तिष्क टेपरिकार्डर की भांति सब चीजों
को रिकार्ड कर रहा था। वह तो यंत्र है। उसने रिकार्ड कर ली यह घड़ी भी। बाद में यह
रिकार्ड दुहराया जाएगा, अहंकार लौट आएगा, रिकार्ड का मालिक हो जाएगा और कहेगा कि आज सुबह मैंने बड़ा आनंद पाया!
मगर यह बात झूठ है। मैं तो था ही नहीं जब आनंद हुआ। आनंद और मैं का एक
साथ अस्तित्व न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि मैं झूठ है। ब्रह्म सत्य,
अहं मिथ्या! लोग कहते हैं, जगत मिथ्या,
ब्रह्म सत्य। मैं कहता हूं, ब्रह्म सत्य,
अहं मिथ्या। जगत से क्या लेना-देना है? अहंकार
ही जगत है।
मगर यह अनुभव की बात। पहले से ही तुम तय करोगे तो बहुत मुश्किल होगी।
थोड़ा-थोड़ा रसमग्न होना शुरू करो। कभी संगीत में डूब जाओ, कभी नृत्य में डूब जाओ, कभी प्रकृति के सौंदर्य में।
और जब यह डुबकी लगे तभी देखना कि मैं कहां है? मैं नहीं
पाओगे और आनंद का अनुभव होगा। तब तुम्हारे जीवन में एक बात स्पष्ट हो जाएगी कि
आनंद हो सकता है बिना मैं के। होता ही है बिना मैं के।
लेकिन यह प्रश्न तो हाइपोथेटिकल है, परिकल्पित है--कि यदि
ऐसा होगा तो।
यह ऐसा ही है जैसे एक अंधा आदमी पूछे कि अगर मेरी आंख खुल जाएगी तो
फिर मैं जिस लकड़ी को टेक-टेक कर चलता हूं, इसका क्या होगा?
तो हम उससे कहेंगे, तू इसकी फिकर मत कर,
आंख तो खुलने दे। फिर तू ही तय कर लेना कि लकड़ी को रखना कि नहीं
रखना। वह कहेगा, यह मैं पहले तय कर लेना चाहता हूं, अगर मेरी लकड़ी खो गई तो मैं चलूंगा कैसे?
अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में जो भी प्रश्न उठाएगा, अपने संबंध में जो भी प्रश्न उठाएगा, वे गलत ही
होंगे। उसे कोई अनुभव नहीं है प्रकाश का।
बुद्ध के पास एक अंधे आदमी को लाया गया था। गांव भर थक गया था समझा-समझा
कर, मगर वह मानता ही नहीं था। वह कोई साधारण अंधा नहीं था, दार्शनिक था। और साधारण अंधा तो मान भी जाए, दार्शनिक
अंधा तो बड़ा मुश्किल हो जाता है मामला। वह बड़ी ज्ञान की बातें करे! वह कहे कि अगर
है प्रकाश तो लाओ मेरी मुट्ठी में रखो, मैं जरा टटोल कर
देखूं। अब प्रकाश को मुट्ठी पर कैसे रखो! और ऐसा नहीं है कि प्रकाश मुट्ठी पर नहीं
रखा जाता। तुम सूरज के नीचे हाथ खोल दो, तुम्हारे हाथ पर
प्रकाश ही प्रकाश है; मगर स्पर्श का पता तो नहीं चलता। तुम
मुट्ठी नहीं बांध सकते।
वह कहता, चलो अगर नहीं मुट्ठी में बंधता, मेरी जबान पर रख दो, मैं जरा स्वाद ले लूं। जरा सा
एक टुकड़ा, जैसे कि शक्कर की डली कोई रख दे, ऐसा मेरे मुंह पर रख दो। चलो यह भी नहीं होता, जरा
प्रकाश को बजाओ, ठोंको, तो मैं आवाज
सुन लूं। जरा मेरे नासापुटों के पास ले आओ तो मैं सुगंध ले लूं, कोई तो गंध होगी न!
प्रकाश की गंध क्या है? प्रकाश का स्वाद क्या
है? प्रकाश का रूप क्या है? प्रकाश की
ध्वनि क्या है? कुछ भी नहीं।
गांव थक गया। बुद्ध गांव में आए, लोगों ने कहा कि चल
तुझे बुद्ध के पास ले चलते हैं। हम तो साधारण प्रकाश जानते हैं, वे महाप्रकाश जानते हैं, शायद वे तुझे समझाने में
समर्थ हो जाएं। बुद्ध ने उस अंधे आदमी को देखा और जो मित्र उसे ले आए थे उनसे कहा
कि भाइयो, इस आदमी की कोई गलती नहीं, यह
ठीक कहता है। गलती तुम्हारी है। तुम इसे समझाते हो? समझाने
में समय गंवाते हो? अरे इसे किसी चिकित्सक के पास ले जाओ,
जो इसकी आंख का इलाज कर दे। इसकी आंख पर जाली है, वह कट जाए, तो फिर समझाना नहीं पड़ेगा।
उस अंधे को चिकित्सकों के पास ले जाया गया। किसी चिकित्सक ने उसका
इलाज किया। छह महीने में उसकी आंख की जाली कट गई।
बुद्ध तो बहुत दूर निकल गए थे छह महीने में, दूसरे-दूसरे गांव में यात्रा कर गए थे। वह बुद्ध को खोजता हुआ दूसरे गांव
पहुंचा, बुद्ध के चरणों में गिरा। और उसने कहा, अगर आप न मिले होते तो मेरे गांव के लोग तर्क कर-कर के मुझे सदा अंधा ही
रखते, क्योंकि उनका हर तर्क मैं खंडित कर रहा था। और हर तर्क
जब उनका खंडित होता था तो मुझे लगता था कि मैं सही और ये गलत। और ये किस तरह के
आंख वाले हैं जो गलत! और ये किस तरह के आंख वाले हैं जो प्रकाश को सिद्ध नहीं कर
सकते! इनसे तो मैं अंधा बेहतर। फिर तो मुझे धीरे-धीरे शक होने लगा था कि ये सब
अंधे हैं, मेरे ही जैसे अंधे हैं, सिर्फ
प्रकाश का सपना देख रहे हैं। या यह भी हो सकता है कि प्रकाश की बातें करते हैं
मुझे अंधा सिद्ध करने को। आपने बड़ी कृपा की जो मुझे चिकित्सक के पास भेजा!
बुद्ध ने कहा, मैंने तुझे चिकित्सक के पास भेजा, क्योंकि मैं खुद भी चिकित्सक हूं। मेरा भरोसा चिकित्सा में है।
हिम्मत भाई, मेरा भरोसा भी चिकित्सा में है। उपदेश में नहीं,
उपचार में। आओ यहां। यहां धीरे-धीरे नमक के पुतले को डुबाओ। यह
संन्यास कुछ और नहीं है, यह नमक के पुतले को डुबाने की तरकीब
है, एक उपाय है। ये ध्यान की बहुत सी प्रक्रियाएं जो यहां चल
रही हैं, और कुछ नहीं हैं, अलग-अलग
घाट! क्योंकि नमक के पुतलों की भी बड़ी जिद होती है। कोई कहते हैं, हम इस घाट से उतरेंगे; हमारे बाप-दादे इसी घाट से
उतरते रहे, हम किसी और के घाट से क्यों उतरें? तो हम कहते हैं, चलो यहीं! मरो तो, किसी घाट से उतरो! डूबो तो! घाट तो सब हैं। घाट बहुतेरे। लेकिन जहां डूबना
है वह तो एक ही है।
तो कोई कहता है, हम तो विपस्सना करेंगे, क्योंकि हम बौद्ध परिवार से आते हैं। हम कहते हैं, चलो
विपस्सना घाट चलेगा। इससे ही डूबो, इससे ही मरो। कोई कहता है
कि मैं तो मुसलमान हूं, मैं तो सूफी हूं। तो हम कहते हैं,
ठीक, सूफियों के लिए अलग घाट बना दिया है। कोई
जैन आ जाता है, उसके लिए भी घाट बना दिए हैं। जितने लोग हैं,
यहां इरादा यही है कि एक ऐसा तीर्थ बने, जहां
सब घाट हों। जिस घाट से मौज हो वहां से छलांग लगाओ। गिरोगे एक ही सागर में। और
मिटोगे तो जानोगे कि आनंद क्या है! और तब कभी भूल कर न पूछोगे ऐसा प्रश्न कि अगर
हम ही मिट जाएंगे तो आनंद किसको होगा।
आनंद किसी को नहीं होता, आनंद तुम्हारा स्वभाव
है। मैं में आच्छादित होने के कारण आनंद का स्वभाव प्रकट नहीं हो पा रहा है। मैं
का आच्छादन टूट जाए, आनंद प्रकट हो जाएगा। आनंद अनुभव नहीं
है, स्वभाव है।
छठवां प्रश्न: भगवान, मैंने अनेक बार आपके साक्षात दर्शन अपने घर अमृतसर में किए और अनेकों
संघर्षों में आपको अपने ऊपर बरसते पाया, देखा, अनुभव किया। जब मैं संघर्ष से छटपटा जाता हूं और जब कोई भी रास्ता नजर
नहीं आता, तो आप साक्षात मेरे सामने आकर खड़े हो जाते हैं।
इसमें न कोई स्वप्न की अवस्था, न कोई निद्रा की अवस्था ही
होती है। आप आकर खड़े होकर मुझे कहते हैं कि तुम खामख्वाह क्यों चिंता लेते हो?
मैं जो हूं! सब छोड़ दो मुझ पर! तो तत्क्षण निर्भार हो जाता हूं। और
आप मेरे जीवन में ऐसी-ऐसी उलझनों में रक्षा करते हैं, जिसका
वर्णन मैं अपनी जुबान से नहीं कर सकता। और भी अनेक प्रमाण मेरे अनुभव में हैं,
क्या बताऊं आपको! आप सब कुछ जानते ही हैं। कोई बात भी आपसे छिपी हुई
नहीं है। इतना कुछ होते हुए भी कई बार मैं आपका विरोध करता हूं। भगवान, इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करें!
असंग, अमृतसर से हो, यही काफी है। तुम लाख कहो कि तुम निद्रा में नहीं होते, तुम स्वप्न में नहीं होते, मुझे राजी न कर सकोगे। यह
सब तुम्हारी निद्रा ही है, तुम्हारे स्वप्न ही हैं। ये
तुम्हारी कल्पनाएं ही हैं। सुंदर कल्पनाएं! और इन कल्पनाओं से तुम्हें राहत भी
मिलती होगी, सांत्वना भी मिलती होगी, चित्त
निर्भार भी हो जाता होगा।
मगर मैं तुमसे अपनी तरफ से कहे देता हूं कि अमृतसर मैं जाता ही नहीं।
सालों से नहीं गया। मगर अमृतसर में जो न हो सो थोड़ा।
मैंने सुना है, अमृतसर के एक मालिक ने अपने नौकर को समझाते हुए कहा,
देखो चरणसिंह, तुम जिस दुकान पर सामान खरीदने
जाते हो वह दुकानदार बड़ा ही काइयां है, बड़ा मक्कार है। ऐसे
तो ऊपर से जपुजी पढ़ता रहता है, लेकिन भीतर छंटा हुआ बदमाश
है। तुम जरा सम्हल कर रहना। जब वह कोई सामान तौलता है तो वह देखते ही देखते सामने
वालों की आंखों में धूल झोंक देता है। तो मैं तुम्हें सावधान करता हूं। उसकी दाढ़ी,
उसका जपुजी, उसका ऊपर से सरदार का रूप,
इन सबके धोखे में मत पड़ना।
चरणसिंह ने कहा, मालिक, मैं
भी सरदार हूं। और अगर वह अमृतसर का है तो मैं कोई बाहर का? अगर
वह काइयां है तो मैं भी कुछ कम नहीं। जपुजी मैं भी पढ़ता हूं। मुझे तो यह पहले से
ही पता था, मालिक, कि वह ग्राहकों की
आंख में धूल झोंक देता है। तो जब भी वह कोई सामान तौलता है तो मैं अपनी आंखें बंद
ही रखता हूं। कोई उससे कम थोड़े ही हूं! अरे मैं भी सरदार हूं, मेरी आंखों में धूल झोंकना इतना आसान नहीं है!
तुम कह रहे हो कि न सपना, न मूर्च्छा। मगर ये
सब मन की ही कल्पनाएं हैं। आंख खुली हो तब भी मन की कल्पनाओं को तुम देख सकते हो।
और तुम कहते हो: जब मैं संकट में होता हूं, दुविधा में होता
हूं, विवादग्रस्त होता हूं, कुछ राह
नहीं सूझती, तब आप दिखाई पड़ते हैं।
उस समय तुम चाहते हो कि मैं दिखाई पडूं। उसी समय तुम चाहते हो। जब तुम
सुविधा में होते हो तब? तब मैं दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि
तब तुम्हें कोई जरूरत ही नहीं होती। जब सब ठीक चल रहा होता है तब तुम्हें याद ही
नहीं आती होगी। वह तो जब सब गलत चल रहा होता है, सब गड़बड़ चल
रहा होता है, जब तुम अपने हाथ से कोई रास्ता नहीं निकाल पाते,
तब मजबूरी में तुम मुझे याद करते होओगे, असहाय
अवस्था में!
और निश्चित ही, अगर तुम किसी को भी याद करोगे असहाय अवस्था में,
तो एक बात से तो राहत मिलती है कि तुम अकेले नहीं हो। और अगर याद
बहुत तीव्रता से की तो इस तरह के अनुभव हो सकते हैं। मगर ये सब अनुभव स्वप्नवत
हैं। और यह मैं खुद ही कह रहा हूं। इसलिए खूब सोच लेना। तुम्हारा मन तो कह रहा
होगा कि नहीं-नहीं, मेरे अनुभव और स्वप्नवत?
अभी तुम सोए ही हुए हो, इसलिए तुम जो भी
अनुभव करोगे वे सभी स्वप्नवत होंगे।
बुद्ध ने कहा है: अगर कभी मैं तुम्हारे मार्ग में आ जाऊं तो तलवार उठा
कर मेरी गर्दन काट देना।
किस अर्थ में कहा है? इसी अर्थ में कहा है। क्योंकि जो
भी बुद्ध तुम देखोगे अपने मार्ग पर, वह तुम्हारी ही कल्पना
होगी। मैं तुम्हें अपने पर निर्भर नहीं करना चाहता। और तुम निर्भर होओगे तो फिर
दूसरा कष्ट पैदा होगा।
तुम पूछते हो कि फिर भी कभी-कभी मैं आपका विरोध क्यों करता हूं?
वह इसीलिए विरोध करते हो। ऐसे व्यक्ति को हम क्षमा कर ही नहीं सकते
जिस पर हमें निर्भर होना पड़े। तुम मुझे माफ नहीं कर पाते। तुम्हें धीरे-धीरे अनुभव
होने लगा कि तुम्हारी मुसीबत मेरी मौजूदगी में कम हो जाती है। तुम्हें धीरे-धीरे
यह प्रतीति होने लगी कि तुम्हारी समस्याएं मेरी मौजूदगी से हल हो जाती हैं। तुम
मुझे माफ कैसे करोगे? तुम मुझसे नाराज रहोगे। इतना निर्भर कोई किसी पर होना
नहीं चाहता। मैं भी चाहता नहीं कि तुम मुझ पर निर्भर होओ, क्योंकि
मैं जानता हूं, जो लोग निर्भर होंगे वे नाराज भी होंगे। मैं
तो चाहता हूं कि तुम बिलकुल मुझसे मुक्त रहो। फिर विरोध भी खो जाएगा।
जीवन के बड़े अनूठे गणित हैं। हम उस आदमी को कभी माफ नहीं कर पाते जिस
पर हमें निर्भर होना पड़ता है। इसलिए बच्चे अपने मां-बाप को माफ नहीं कर पाते।
इसलिए बच्चे, जब मां-बाप बूढ़े हो जाते हैं, तो
उनसे बदला लेते हैं। कैसे माफ करें? इतनी निर्भरता! बचपन में
इतनी निर्भरता जानी है मां-बाप के ऊपर कि उनके ही इशारों पर जीए हैं; उन्होंने ही बचाया है तो बचे हैं; उन्होंने ही
सम्हाला है तो सम्हले हैं। आज अहंकार को चोट लगती है। बड़े होकर अहंकार को अड़चन
होती है।
बच्चे अनेक-अनेक ढंग से मां-बाप से बदला लेने लगते हैं। वह बदला
बिलकुल अचेतन है बड़ा, लेकिन है उसके पीछे बड़ी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि। और
उससे भी बड़ी घटना घटती है गुरु और शिष्य के बीच। अगर शिष्य निर्भर हो जाए गुरु पर
तो वह बदला लेगा। क्योंकि निर्भरता गुलामी है। और गुलामी कौन पसंद करता है!
असंग, तुम यह निर्भरता छोड़ दो। जब मुसीबत हो, जब असहाय अनुभव करो, हल न होता हो, मुझे याद न करो, ध्यान करो। उस समय शांत बैठो,
मौन बैठो। तुम्हारी बुद्धि का ऊहापोह अगर रास्ता नहीं खोज पा रहा है,
तो बुद्धि को एक तरफ रख दो, हृदय में डुबकी
लगा जाओ, वहां से रास्ता मिलेगा।
और वहीं से रास्ता मिल रहा है अभी भी। तुम नाहक मुझे धन्यवाद दे रहे
हो। रास्ता वहीं से मिल रहा है। रास्ता सदा वहीं से मिलता है। तुम मुझे धन्यवाद न
दो, क्योंकि तुम्हारा धन्यवाद मंहगा है। तुम धन्यवाद दोगे आज तो कल तुम नाराज
होओगे। फिर विरोध होगा। फिर तुम कोई छोटा-मोटा बहाना निकाल कर विरोध करोगे। विरोध
करके तुम अपने भीतर एक समतुलता पैदा करोगे।
और तुम मेरी पक्की मानो, अमृतसर जाना मैंने
बिलकुल बंद कर दिया है। इतनी बड़ी दुनिया पड़ी है जाने को, अमृतसर
तो समझो आखिरी। जब कहीं जाने को न बचे तो अमृतसर।
अमृतसर के स्टेशन पर जब टिकट चेकर आया तो सरदार जी ने देखा कि उनके
बगल में बैठे सज्जन ने कह दिया कि मैं तो नेताजी हूं, और टिकट चेकर आगे बढ़ गया। इसी तरह स्टेशन के गेट पर भी वे बाहर निकल गए,
कुली को भी उन्होंने पैसे नहीं दिए। सरदार जी यह देख कर अत्यंत
प्रसन्न हुए। उन्होंने भी यह तरकीब अपनाने की सोची। अगली बार जब वे कहीं जा रहे थे
तो उन्होंने भी टिकट नहीं खरीदी। टिकट चेकर ने पूछा, टिकट
दिखाइए!
अरे भाई, टिकट मांगते शर्म नहीं आती? मैं
इस देश का नेता हूं?
माफ करिए--टिकट चेकर बोला--आपका शुभ नाम क्या है?
सरदार जी ने इसका कोई उत्तर तो सोचा नहीं था। सो वे घबड़ा गए और घबड़ाहट
में बोले, अरे मुझे जानते नहीं, मैं
इंदिरा गांधी हूं!
टिकट चेकर भी सरदार था, पैर छूकर बोला,
भैया, बड़े दिनों से दर्शन की अभिलाषा थी,
आज पूर्ण हुई।
अमृतसर से तो जितना बचो उतना अच्छा। मुसीबतें जरूर तुम पर आती होंगी, क्योंकि अमृतसर में मुसीबतें न आएं यह हो ही नहीं सकता। बड़ी झंझटें आती
होंगी, जिनको तुम जुबान से कह भी नहीं सकते। चारों तरफ झंझटी
लोग हैं।
मैं अमृतसर जाता था। फिर झंझटें बहुत बढ़ने लगीं, फिर अमृतसर में काम करना ही असंभव हो गया। स्टेशन से ही झंझटें शुरू हो
जाती थीं। स्टेशन पर दो सौ आदमी विरोध में काले झंडे लिए दिखा रहे हैं, आवाज लगा रहे हैं। दो सौ आदमी पक्ष में खड़े हैं। मार-पीट की नौबत है। एक
बार तो विरोधी डंडे लेकर आ गए। तो जो पक्षपाती थे वे भी कुछ पीछे थोड़े ही रह सकते
थे। सरदार तो सरदार, वे गए और स्वर्ण-मंदिर से नंगी तलवारें
धारण करने वाले कुछ सेवादार ले आए। मैंने तमाशा देखा। मैंने कहा कि भई, अगर यह सब होना है, एक तरफ डंडे लिए लोग खड़े हैं,
और दूसरी तरफ तलवारें, नंगी तलवारें! मुझे
लेकर स्टेशन के बाहर चले तो तीन आदमी नंगी तलवारें लिए आगे चल रहे, तीन पीछे चल रहे। मैंने कहा कि...बस मैंने कहा, यह
अब आखिरी है, अब दुबारा इस उपद्रव में पड़ने से कोई मतलब नहीं
है।
जहां सभा हो उसके सामने ही विरोधी माइक लगा कर बैठ जाएं। चलो कुछ नहीं, रामधुन ही कर रहे हैं! ऐसी कोई सभा मुश्किल जहां उपद्रव और झगड़ा न हो,
जहां मार-पीट की नौबत न आ जाए।
तो अमृतसर तो एक चमत्कार है। यह भी तुम काफी समझो कि मैं तुम्हारे
सपनों में आ जाता हूं, ऐसे मैं सपनों में भी नहीं आना चाहता। तुम बख्शो
मुझे।
ये सब मन की कल्पनाएं हैं। इन मन की कल्पनाओं को त्यागो। मैं तुम्हें
मुक्त करने को हूं, किसी तरह के बंधन में डालने को नहीं हूं। मैं चाहता
हूं तुम अपने भीतर जाओ, मेरे पीछे नहीं। अपनी आत्मा को जगाओ।
तुम्हारा समाधान मुझमें नहीं है, तुम्हारा समाधान तुम्हारी
समाधि में है।
असंग, समय खराब न करो। सारी ऊर्जा, सारी
शक्ति उसी समाधि के लिए लगा दो। फिर न तो तुम मुझ पर नाराज होओगे और न मुझे
धन्यवाद दोगे। फिर यह राग और घृणा का नाता टूट जाएगा। और जब शिष्य और गुरु के बीच
राग और घृणा का नाता टूट जाता है तो पहली बार प्रेम की घटना घटती है, अभूतपूर्व घटना घटती है। उस प्रेम में फिर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उस प्रेम में कोई निर्भरता नहीं है, स्वतंत्रता
है। उस प्रेम में फिर कभी कोई वैमनस्य नहीं है, क्योंकि उस
प्रेम में तुम किसी के अंग नहीं बन रहे हो, किसी के जीवन का
अनुकरण नहीं कर रहे हो। वह प्रेम मोक्ष लाता है, मुक्तिदायी
है।
असंग, मेरा प्रत्येक संन्यासी इस सूत्र को ठीक से ध्यान में
रखे। जैसा मैं तुमसे कह रहा हूं, ऐसा सबसे कह रहा हूं। मुझ
पर निर्भर मत होना, अन्यथा तुम मुझे माफ न कर सकोगे। मुझसे
मुक्त रहना। मुझे समझो, मुझे पीओ, मगर
मेरे अनुकरण करने की कोई जरूरत नहीं है।
और ये सब छोटी बातें हैं कि तुम्हारी समस्याएं मैं सुलझाने आऊं; कि तुम इनकम टैक्स में उलझ गए तो तुम मुझे बुलाओ; कि
तुम चोरी में फंस गए तो मैं तुम्हें बचाऊं। यह सब बकवास छोड़ो। इन सबसे मेरा कोई
लेना-देना नहीं है।
मैं तो तुम्हें सूत्र दिए दे रहा हूं--सारी झंझटों के पार हो जाने का
सूत्र! उसको ही मैं ध्यान कहता हूं; उसकी ही पूर्णाहुति
समाधि है।
आज इतना ही।
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