बुधवार, 9 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
वेणु लो, गूंजे धरा-(प्रवचन-नौवां)
दिनांक 09 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:
     भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?

     भगवान,
            जाने क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें मेरी
            राख के ढेर में न शोला है न चिनगारी।
      जिंदगी में है तो बहुत कुछ, लेकिन जीत कर कुछ भी न मिला, कुछ न रहा।
      जिसकी आस किए बैठी हूं, वह बार-बार क्यों फिसल जाता है?

     भगवान, आपके आश्रम को देख कर दूसरे लोक की अनुभूति हुई।
      यह हमारे भारत देश में कहां तक सार्थक है?

     भगवान, मैं आचार्य तुलसी के जाने-माने श्रावकों के परिवार से हूं।
      कुछ दिनों पहले आपने उनके पंडितराज शिष्य, मुनि नथमल,
      जिनको महाप्राज्ञ युवराज की उपाधि से अभिषेक किया गया है,
      उनको मुनि थोथूमल की उपाधि दी।
      उसके बाद उनका एक लेख अणुव्रत नाम की पत्रिका में देखा
      "कितना सच, कितना झूठ' शीर्षक से,
      जिसमें उन्होंने संभोग से समाधि की चर्चा की है, जो कि उनके अधिकार का विषय नहीं है।
      मेरे देखे, न तो उनको संभोग का कोई अनुभव है, समाधि का अनुभव होने की तो बात ही दूर।
      फिर भी आप जैसे अनुभूतिपूर्ण विवेचन की ऐसी बचकानी चर्चा करते हैं--
      काम के दमन की नहीं, उदात्तीकरण की बात करते हैं।
      बड़ा ही रोष आता है। कई बार मन उनसे जाकर बात करने का होता है।
      क्या करूं भगवान? आप ही मार्ग-निर्देश करें।

पहला प्रश्न: भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?

आनंद, आनंद ही मेरा मूल संदेश है। सदियों-सदियों से धर्म उदासी, दुख, निराशा, हताशा, निषेध और नकार का पर्यायवाची हो गया है; उस कारागृह से धर्म को मुक्त करना है। धर्म पृथ्वी-विरोधी हो गया है। धर्म देह-विरोधी हो गया है। धर्म उस सब के विरोध में हो गया है--जो है। और धर्म ने ऐसे सपने संजोए हैं स्वर्ग के, परलोक के, कि जो मात्र सपने हैं, जो सिर्फ प्रलोभन हैं, जो सरासर झूठ हैं। जो है उसका इनकार और जो नहीं है उसका सत्कार--ऐसी अब तक धर्म की तर्क-सरणी रही है।
मैं उस पूरी तर्क-सरणी को तोड़ देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि धर्म पृथ्वी के प्रेम में पड़े। देह आत्मा-विरोधी नहीं है; देह आत्मा का मंदिर है। सम्मान दो उसे, सत्कार दो उसे; क्योंकि देह के मंदिर में परमात्मा विराजमान है।
और पृथ्वी जीवन का आधार है। जीवन की जड़ें पृथ्वी में गहरी गई हैं, जैसे वृक्षों की जड़ें गहरी गई हैं। और जीवन के जो महत्तम फूल खिले हैं--बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद--उन सब में जो सुगंध है वह पृथ्वी की ही गहराइयों से आई है। वह इस जगत की ही सुगंध है; दूसरा कोई जगत है ही नहीं। यही एकमात्र अस्तित्व है; दूसरा कोई अस्तित्व है ही नहीं।
दूसरे अस्तित्व की ईजाद पंडित-पुरोहितों ने की। और क्यों की, उसके कारण को समझ लेना चाहिए। इस जगत में तो मनुष्य को सुखी वे नहीं कर पाए। इस जगत में तो मनुष्य के जीवन के लिए गौरव और गरिमा न दे पाए। इस जगत में तो मनुष्य के जीवन को अर्थ और काव्य न दे पाए। तो एक ही उपाय था: इस जगत की अंधेरी रात को झेलने के लिए किसी भविष्य के सवेरे की प्रशंसा की जाए। मनुष्य को परलोकवाद दिया जाए।
और जो मर गया वह लौट कर कहता तो नहीं कि क्या हुआ; इसलिए पंडित, पुरोहित सुरक्षित था। मुर्दे लौटते नहीं, खबर देते नहीं। और उसका धंधा, मृत्यु के बाद जो है, उस पर निर्भर है। और उसकी इस साजिश में राजनीतिज्ञ भी सम्मिलित हो गए, क्योंकि यह उनके भी हित में था। मनुष्य को किसी तरह सांत्वना दी जाए। कैसे ही झूठ हों, लेकिन मनुष्य को संतोष दें। क्योंकि मनुष्य जब संतुष्ट हो जाता है तो क्रांति-शून्य हो जाता है। जहां सांत्वना है वहां क्रांति की आग बुझ जाती है। वहां अंगार नहीं रह जाती आत्मा में; वहां राख ही राख रह जाती है।
इसीलिए यह देश, जो सर्वाधिक लंबे अरसे तक धार्मिक रहा है, सबसे बुझा हुआ देश है। इसकी आत्मा में राख ही राख है। सब से मरा हुआ देश है। कारण? सदियों-सदियों तक पंडित ने और राजनेता ने संयुक्त रूप से मनुष्य को जहर पिलाया है।
मेरी चेष्टा है, यह षडयंत्र टूटे, यह रात टूटे, यह अंधेरे का तिलिस्म टूटे। यहीं सुबह तलाशनी है--इसी पृथ्वी पर, इसी जीवन में! और अगर होगा कोई जीवन इसके बाद तो जो इस जीवन में आनंद खोज सकता है वह उस जीवन में भी आनंद खोज सकेगा। क्योंकि आनंद खोजने की कला जिसे आ गई, तुम उसे नरक में भी डाल दो तो वहां भी आनंद खोज सकेगा। और जिसे आनंद खोजने की कला न आई वह स्वर्ग में पहुंच कर भी क्या करेगा?
तुम्हारे तथाकथित महात्मा अगर स्वर्ग में भी पहुंच जाएं तो क्या करेंगे? स्वर्ग भी उन्हें दुख ही देगा। जीवन भर तो उन्होंने दुख का ही अभ्यास किया। जो धूप में खड़े रहे और शरीर को गलाया और सड़ाया, वे कल्पवृक्षों के नीचे बैठेंगे? उनकी जीवन भर जन्मों-जन्मों की आदत उन्हें कल्पवृक्षों के नीचे बैठने देगी? नहीं; वे वहां भी कांटों का बिस्तर बना लेंगे। जिन्होंने कभी गीत नहीं गाए, जो नाचे नहीं, जिन्होंने कभी इकतारा न उठाया, स्वर्ग में अचानक तुम सोचते हो वीणावादक हो जाएंगे वे? बांसुरी बजाने लगेंगे? नृत्य में लीन हो जाएंगे? रास का जन्म होगा?
तो तुम्हें फिर मनुष्य के मन का गणित नहीं आता।
गरीब आदमी को अमीर भी बना दो तो भी वह अमीर नहीं हो पाता, गरीब ही रहता है। उसके सोचने, समझने, विचारने, जीने की शैली गरीब की होती है। इसीलिए तो तुम्हें धनी आदमियों में इतने कंजूस आदमी मिलते हैं। कंजूस का अर्थ क्या होता है? कंजूस का अर्थ होता है: बाहर तो धन है, मगर भीतर गरीबी की आदत है। धन तो है, लेकिन धन पर मुट्ठी बांध ली उसने।
और धन मर जाता है जब उस पर तुम मुट्ठी बांधते हो। धन तो जीवित रहता है अगर चले। इसलिए अंग्रेजी में उसके लिए ठीक शब्द है--करेंसी! करेंसी का अर्थ होता है जो चलता रहे, बहता रहे, धारा बनी रहे जिसकी। सिक्का तो वही है जो चले; जिस पर मुट्ठी बंध गई वह मिट्टी हो गया।
एक कंजूस आदमी ने अपने बगीचे में सोने की ईंटें गड़ा रखी थीं। सोने की ईंटें गड़ाने को नहीं होतीं, लेकिन गरीबी की आदतें कैसे पीछा छोड़ें? अब भी गरीब की तरह ही रहता था; सोने की ईंटें उसके पास थीं, मगर रहता गरीब की तरह था। और अपनी गरीबी को भी आदमी अच्छे-अच्छे तर्कों से ढांक लेता है। वह कहता था, मैं सीधा-सादा आदमी, सादगी पसंद हूं।
सादगी पसंद हो तो सोने की ईंटों को छोड़ो। तुम्हारी सादगी सोने की ईंटें छोड़ने नहीं देती। लेकिन सादगी के नाम पर तुम सोने की ईंटों को भोग भी नहीं पाते।
उसका भोग केवल इतना था कि हर रोज सुबह जाकर खोद कर जमीन को अपनी ईंटों को देख लेता था, आनंदित हो लेता था, फिर ढांक देता था। एक पड़ोसी यह रोज देखता था कि कुछ मामला है। एक रात घुस गया उसके बगीचे में, खोदा तो सोने की ईंटें थीं। उसने ईंटें तो निकाल लीं सोने की, उनकी जगह साधारण मिट्टी की ईंटें रख दीं।
दूसरे दिन जब कंजूस ने खोदा तो वहां सोने की ईंटें नदारद थीं, मिट्टी की ईंटें थीं। वह तो एकदम चिल्लाने लगा कि हाय लुट गया, बचाओ मुझे! पड़ोसी इकट्ठे हो गए, वह पड़ोसी भी आ गया जिसने सोने की ईंटें ली थीं। लोग उसे सलाह देने लगे कि अब घबड़ाओ मत। उस पड़ोसी ने कहा, क्या फर्क पड़ता है तुम्हें? रोज सुबह खोद कर इन्हीं ईंटों को देख लिया करो। ईंटें सोने की हैं या मिट्टी की, तुम्हें फर्क क्या पड़ता है? तुम्हारा काम इतना है कि रोज खोद कर देखना और ढांक देना। मिट्टी की ईंटें भी काम दे देंगी। तुम्हें सोने की ईंटों का कोई उपयोग तो करना नहीं है।
दुनिया में धन पाकर लोग धनी नहीं होते, कृपण हो जाते हैं, कंजूस हो जाते हैं; गरीबी की जकड़ गहरी है। और गरीबी को खूब अच्छा बाना पहनाते हैं, सुंदर बाना पहनाते हैं--सादगी! सरलता!
जो लोग मर कर अगर स्वर्ग में भी पहुंच गए और यहां जिन्होंने केवल दुख का अभ्यास किया था--तुम्हारे साधु-संन्यासी, महात्मा, मुनि--ये अगर भूल-चूक से किसी तरह स्वर्ग में पहुंच भी जाएं! पहुंच तो नहीं सकते, इनके लिए तो स्वर्ग के द्वार निश्चित ही बंद होंगे। और अगर ये स्वर्ग पहुंचते रहे होंगे अब तक तो इतने साधु-महात्मा, इतने उदास, इतने हताश लोग वहां इकट्ठे हो गए होंगे कि स्वर्ग अब नरक से बदतर होगा। ये वहां करेंगे क्या?
उमर खय्याम ठीक कहता है कि तुमने यहां तो शराब पी ही नहीं कभी। स्वर्ग में चश्मे भी बहते हैं शराब के तो क्या फायदा, तुम पहुंच कर पी सकोगे? पीने का भी अभ्यास चाहिए।
उमर खय्याम एक सूफी फकीर है; एक पहुंचा हुआ सिद्ध पुरुष है। उमर खय्याम को लोग बिलकुल गलत समझे हैं। उमर खय्याम के संबंध में बड़ी भ्रांति हो गई। और भ्रांति हो गई अंग्रेजी अनुवाद से। उमर खय्याम की रुबाइयां जब फिटजराल्ड ने अंग्रेजी में अनुवादित कीं तो फिटजराल्ड ने उनका शाब्दिक अर्थ लिया--शराब यानी शराब।
सूफी फकीर शराब का अर्थ करते हैं: परमात्मा का प्रेम। पीओ उसे जितना पी सको। आनंद, उल्लास, मस्ती! उमर खय्याम एक पहुंचा हुआ सूफी फकीर है। उसने ये गीत अंगूर से ढाली जाने वाली शराब के पक्ष में नहीं लिखे हैं; आत्मा में ढाली जाती है जो शराब, उसके पक्ष में लिखे हैं। ये रुबाइयां किसी भीतरी आनंद और नशे का संकेत करती हैं। मगर उसने बड़े मीठे तर्क दिए हैं। उसने कहा कि सुनो मौलवियो! सुनो त्यागीत्तपस्वियो! अगर तुमने यहां शराब पीने का अभ्यास न किया तो जहां स्वर्ग में शराब की नदियां बहती हैं वहां तुम क्या करोगे? किनारों पर बैठे रोओगे! पीएंगे तो हम, क्योंकि हमारा यहां का अभ्यास वहां काम आ जाएगा।
अर्थ समझना! यहां जो आनंदित है वह स्वर्ग में भी आनंदित होगा। यहां जो आनंदित है वह कहीं भी हो तो आनंदित होगा। यह स्कूल है, पाठशाला है, प्रशिक्षण है जीवन।
मेरा संदेश है: आनंद!
मेरा संदेश है: उत्सव!
वेणु लो, गूंजे धरा, मेरे सलोने श्याम।
गूंजते हों गान, गिरते हों अमित अभिमान
तारकों-सी नृत्य ने बारात साधी है।
नष्ट होने दो सखे! संहार के सौ काम
वेणु  लो, गूंजे  धरा, मेरे  सलोने  श्याम।
मेरी तो एक ही प्रार्थना है और तुम्हारी भी यही प्रार्थना होनी चाहिए--
वेणु  लो, गूंजे  धरा, मेरे  सलोने  श्याम।
परमात्मा से कहो: उठाओ बांसुरी और बजाओ! मगर परमात्मा की बांसुरी तभी बजेगी जब तुम बांसुरी बजाओ। शायद उसकी बांसुरी तो बज ही रही है, लेकिन तुम्हारे कान बहरे हैं। शायद उसका आनंद तो बरस ही रहा है, लेकिन तुम्हारे हृदय के द्वार बंद हैं।
इस जगत की कीचड़ को कीचड़ कह कर ही निंदा मत करना; इस कीचड़ में कमल छिपे हैं। और जब इस कीचड़ में कोई कमल खिले तो कीचड़ को मत भूल जाना। कमल की प्रशंसा में ऐसा न हो कहीं कि कीचड़ को भूल जाओ! क्योंकि कमल कीचड़ की ही अभिव्यक्ति है।
बहुत दिन के बाद
व्योम का सुंदर सलोना रूप
झांकता है
बादलों के बीच से!
बहुत दिन के बाद
फिर खिली है
कली नीचे एक--
उठ कर कीच से!
कीचड़ में और कमल में कोई संबंध दिखाई पड़ता नहीं। मगर संबंध है। कीचड़ ही जन्मदात्री है, कीचड़ ही गर्भ है जिसमें कमल पकता है और प्रकट होता है।
यह पृथ्वी माना कि कीचड़ है, मगर दूसरी बात भूल मत जाना कि इसमें कमल के प्रकट होने की संभावना पड़ी है। तुम्हारे साधु-महात्मा कीचड़ कह कर इसकी निंदा करते हैं। और उनकी निंदा इतनी गहन हो गई है कि तुम भूल ही गए कि यहां कमल भी छिपा है।
मैं तुम्हें कमल की याद दिलाना चाहता हूं। कीचड़ की निंदा में मत पड़ो, कमल की तलाश करो। और जिस दिन तुम कीचड़ में कमल को पा लोगे, उस दिन क्या कीचड़ को धन्यवाद न दोगे? उस दिन क्या देह को धन्यवाद न दोगे? उस दिन क्या इस पार्थिव जगत के प्रति अनुग्रह से न भरोगे? जिस पार्थिव जगत में परमात्मा का अनुभव हो सकता है, क्या उस पार्थिव जगत की निंदा की जा सकती है?
मैं तुम्हें संसार के प्रति प्रेम से भरना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे हृदय में संसार के निषेध की जो सदियों-सदियों पुरानी धारणाओं के संस्कार हैं, वे आमूल मिट जाएं, उन्हें पोंछ डाला जाए। वे ही तुम्हें रोक रहे हैं परमात्मा को देखने और जानने से। नाचो, तो तुम पाओगे उसे। नृत्य में वह करीब से करीब होता है। गुनगुनाओ, गाओ, तो वह भी गुनगुनाएगा तुम्हारे भीतर, गाएगा तुम्हारे भीतर।
छेड़ मधु-संगीत के स्वर
शब्दत्तंत्र संवार लो!
ग्रंथि उर के फिर खुलें
शब्द-गति-लयत्ताल झर-झर
निमिष में बन सुधि ढलें!
सरल हास-विलास
दीपक बार लो!
छेड़ मधु-संगीत के स्वर
शब्दत्तंत्र संवार लो!
क्षितिज के उस पार तरणी खोल
कल्पना की थकी पलकें मूंद
गीत-परिमल-सुरभि पल-पल घोल
मधुर-रव में अधर
पुनः पखार लो!
छेड़ मधु-संगीत के स्वर
शब्दत्तंत्र संवार लो!
मैं गीत सिखाता हूं। मैं संगीत सिखाता हूं। मेरा संदेश एक ही है, आनंद: उत्सव, महोत्सव। और उत्सव-महोत्सव को सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता, केवल जीवनचर्या हो सकती है यह। तुम्हारा जीवन ही कह सकेगा। ओंठों से कहोगे, बात थोथी और झूठी हो जाएगी। प्राणों से कहनी होगी। श्वासों से कहनी होगी। और जहां आनंद है वहां प्रेम है; और जहां प्रेम है वहां परमात्मा है।
मैं एक प्रेम का मंदिर बना रहा हूं। तुम धन्यभागी हो, उस मंदिर के बनाने में तुम्हारे हाथों का सहारा है। तुम ईंटें चुन रहे हो उस मंदिर की। तुम द्वार-दरवाजे बन रहे हो उस मंदिर के।
पृथ्वी से आनंद का मंदिर बहुत समय पहले विदा हो गया। हां, कभी कृष्ण ने बांसुरी बजाई थी, तब रहा होगा। फिर न मालूम किस दुर्भाग्य की घड़ी में, न मालूम किस हताशा में, न मालूम किन नपुंसक लोगों के हाथों में हमने अपना जीवन दे दिया। थोथे पंडितों के हाथों में हमारा जीवन पड़ गया। उन्होंने हमारी गर्दन बुरी तरह फांस दी, लटका दिए शास्त्र बड़े-बड़े गर्दन से, कि चलना भी मुश्किल है नाचना तो दूर। और बड़े सिद्धांत हमारे कंठों में भर दिए कि कंठ अवरुद्ध हो गए हैं, गीत गाना संभव कैसे हो?
मैं तुम्हारे सारे शास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत, तुम्हारे संप्रदाय, सब छीन लेना चाहता हूं। मैं चाहता हूं तुम्हें निर्भार करना--ऐसे निर्भार कि तुम पंख खोल कर आकाश में उड़ सको। मैं तुम्हें आकाश देना चाहता हूं। मैं तुम्हें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध नहीं बनाना चाहता--मैं तुम्हें सारा आकाश देना चाहता हूं! और उड़ोगे तुम सूरज की तरफ तो ही तुम जान सकोगे वेदों का रहस्य, उपनिषदों की गरिमा, कुरान की महिमा, बाइबिल के रहस्य। तो ही तुम जान सकोगे कबीर, नानक, फरीद और इनका अदभुत लोक।
लेकिन यह जानना है अस्तित्वगत रूप से। मेरी बात मान नहीं लेनी है। मैं तुम में विश्वास नहीं जगाना चाहता। मैं तुम्हें अनुभव देना चाहता हूं। मैं तो अपनी सुराही से तुम्हारी प्याली में शराब ढालना चाहता हूं। अपनी प्याली साफ करो। अपनी प्याली मेरे सामने करो। डरो मत, मस्त होने से घबड़ाओ मत। निश्चित ही तुम मस्त होओगे तो लोग तुम्हें पागल कहेंगे। क्योंकि लोगों ने केवल पागलों को ही भर मस्त रहने की सुविधा छोड़ी है, और किसी को मस्त रहने की सुविधा ही नहीं छोड़ी। फिक्र न करना। लोग पागल भी समझें तो क्या बिगड़ता है? असली सवाल तो परमात्मा का है कि परमात्मा क्या समझता है। असली जवाब तो वहां देना है, लोगों से क्या लेना-देना है? लोगों ने पागल भी समझा तो ठीक है, अच्छा ही है।
मैंने सुना है, सूफी फकीर बायजीद से उसके एक शिष्य ने पूछा--एक शिष्य ने, जो स्वयं भी सिद्ध हो गया है, जो संबोधि को उपलब्ध हो गया है--उसने पूछा कि मैं क्या करूं? बड़ी मुश्किल हो गई! जब से लोगों को इसका सुराग लग गया कि मुझे ज्ञान हो गया है, बड़ी भीड़-भाड़ होती है। मुझे शांति से बैठने का क्षण भी नहीं मिलता। रात सो भी नहीं पाता, लोग मेरे पैर दबाते रहते हैं। दिन भर मेरे पीछे लगे रहते हैं। मैं क्या करूं?
बायजीद ने कहा, ऐसा कर, तू पागल का ढोंग कर। तू गालियां बकने लग, पत्थर फेंकने लग, लोगों को मारने लग। बस दो दिन में भीड़ छंट जाएगी।
और यही उसने किया और दो दिन में भीड़ छंट गई। भीड़ के पास आंखें थोड़े ही हैं। भीड़ ने समझा कि यह पागल है। वह आया और बायजीद के चरणों में झुका और उसने कहा कि धन्यवाद! नहीं तो ये तो मुझे सता ही डालते। अब कोई नहीं आता। अब तो हालत उलटी है। मैं अगर जाता हूं किसी की तरफ तो वह भाग निकलता है। लोग कहते हैं यह पागल हो गया है। मगर बड़ा अच्छा हुआ। अब मैं बीच बाजार में भी रहूं तो भी अकेला हूं, एकांत में हूं।
लोग पागल ही समझ लेंगे तो क्या हर्ज है? लोग वैसे भी किसी दूसरे को बुद्धिमान थोड़े ही समझते हैं। यहां प्रत्येक अपने को बुद्धिमान समझता है। वैसे भी लोग कहते हों या न कहते हों, दूसरों को तो लोग नासमझ ही समझते हैं। बहुत से बहुत कहने लगेंगे।
मगर आनंद को जीओ, चाहे कोई कीमत चुकानी पड़े। पागल समझे जाओ तो समझे जाओ। आनंद को जीओ! सूली लगे तो लग जाए। आनंदित मनुष्य को सूली भी लगे तो सिंहासन मिल जाता है। और दुखी आदमी सिंहासन पर भी बैठा रहे तो सूली ही रहती है, सिंहासन संभव नहीं है।
मेरा संदेश छोटा सा है: आनंद से जीओ! और जीवन के समस्त रंगों को जीओ, सारे स्वरों को जीओ। कुछ भी निषेध नहीं करना है। जो भी परमात्मा का है, शुभ है। जो भी उसने दिया है, अर्थपूर्ण है। इसमें से किसी भी चीज का इनकार करना, परमात्मा का ही इनकार है, नास्तिकता है।
और तब एक अपूर्व क्रांति घटती है! जब तुम सबको स्वीकार कर लेते हो और आनंद से जीने लगते हो तो तुम्हारे भीतर रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू होती है। तुम्हारे भीतर की रसायन बदलती है--क्रोध करुणा बन जाती है; काम राम बन जाता है। तुम्हारे भीतर कांटे फूलों की तरह खिलने लगते हैं।


दूसरा प्रश्न: भगवान,
जाने  क्या  ढूंढती  रहती  हैं  निगाहें  मेरी
राख के ढेर में न शोला है न चिनगारी।
जिंदगी में है तो बहुत कुछ, लेकिन जीत कर कुछ भी न मिला, कुछ न रहा। जिसकी आस किए बैठी हूं, वह बार-बार क्यों फिसल जाता है?

योग सुधा, जीवन के आधारभूत सूत्रों में एक सूत्र है: यहां भिखमंगों को कुछ भी नहीं मिलता, यहां सम्राटों को कुछ मिलता है। वासना भिखमंगापन है; निर्वासना सम्राट हो जाना है। जितना आकांक्षा करोगी उतना ही हाथ से फिसल-फिसल जाएगा। पारे की तरह हो जाएगी जिंदगी--सब बिखर जाएगा, जोड़ना असंभव हो जाएगा।
मांगो मत। आकांक्षा न करो, वासना न करो। वासना का अर्थ होता है आने वाला कल। वासना का अर्थ होता है भविष्य। वासना समय को पैदा करती है और समय संसार है।
इस क्षण को जीओ--इसकी प्रामाणिकता में, इसकी सघनता में, इसकी पूर्णता में। और तीव्रता से जीओ, त्वरा से जीओ! जीवन मिला है--मांगना क्या है और? इससे बड़ा और क्या मिल सकता है? चांद-सूरज हैं, वृक्ष हैं, फूल हैं, पक्षी हैं, लोग हैं--एक सुंदर अस्तित्व है। असंभव संभव हुआ है। और तुम जीवित हो! और तुम्हारे भीतर चैतन्य है! तुम्हें पता है कि तुम जीवित हो; यही चैतन्य है, यही आत्मा का सबूत है। जीवन का अनुभव, कि मैं जीवित हूं, कि मैं हूं, यही आत्मा का प्रमाण है। आत्मा का अर्थ होता है: चेतना के प्रति चैतन्यता। मैं चेतन हूं, ऐसा बोध आत्मा है। और क्या चाहिए? आत्मा तुम्हारे पास, और यह सारा आकाश, और ये सारे चांदत्तारे!
लेकिन हम कुछ मांग रहे हैं, हम कुछ आस लगाए बैठे हैं। तुम्हारी आशाएं पूरी नहीं होंगी। तुम्हारी आशाएं तुम्हें रोज-रोज दीन करती जाएंगी।
सुधा, तू कहती है: "जाने क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें मेरी।'
सभी की निगाहें कुछ न कुछ ढूंढ रही हैं। और इसीलिए सभी की निगाहें खाली हैं, कुछ भी नहीं मिला। ढूंढना बंद करो, खोजना बंद करो। आंख बंद करो। अपने में बैठो। अपने में ठहरो। खोजने में तो दौड़ जारी रहती है। दौड?ो मत। धन पाना हो तो दौड़ना पड़ता है, पद पाना हो तो दौड़ना पड़ता है; लेकिन अगर परमात्मा पाना हो तो रुकना पड़ता है, दौड़ना नहीं।
तू कहती है: "जाने  क्या  ढूंढती  रहती  हैं  निगाहें  मेरी
      राख के ढेर में न शोला है न चिनगारी।'
सच है यह बात। वह राख का ढेर क्या है? वह तुम्हारी पिछली अतीत की वासनाओं का ही तो ढेर है। उसी में टटोलते रहोगे, खोजते रहोगे।
अब बदलो, दिशा बदलो। अब खोजना बंद करो। अब खोना शुरू हो जाओ। अब आंख बंद करके अपने भीतर डुबकी लगाओ। और वहां जीवन की आग है जो कभी नहीं बुझती। और वहां ऐसी जीवन की चिनगारी है जो कभी राख नहीं होती। उसी चिनगारी का नाम आत्मा है। उसी चिनगारी से संबंध जुड़ गया तो परमात्मा की एक किरण से संबंध जुड़ गया। और एक किरण हाथ में आ गई तो पूरा सूरज हाथ में है; फिर दूर नहीं है सूरज।
मगर भीतर जाना है। तू बाहर तलाश रही है, जैसे सभी लोग बाहर तलाश रहे हैं। और बाहर कुछ भी नहीं है। और एक मजे की बात याद रखना, जिसको भीतर मिल गया, उसे फिर बाहर भी सब कुछ है। क्योंकि जिसको भीतर मिल गया, उसके लिए बाहर और भीतर का भेद गिर जाता है। उसके लिए सभी कुछ भीतर है। चांदत्तारे उसके भीतर घूमते हैं। सूरज उसके भीतर उगता है। फूल उसके भीतर खिलते हैं। पक्षी उसके भीतर गीत गाते हैं। उसके भीतर विराट समा जाता है। जिसने स्वयं को जाना वह सर्व के साथ एक हो जाता है। उसके लिए बाहर और भीतर का फिर कोई भेद नहीं। बाहर और भीतर का भेद उनके लिए है जो बाहर हैं और जिन्होंने स्वयं को नहीं जाना है।
तू कहती है: "जिंदगी में है तो बहुत कुछ, लेकिन जीत कर भी कुछ न मिला।'
जीत कर कभी किसी को कुछ नहीं मिला। जीत रास्ता ही गंवाने का है, पाने का नहीं। जीत हार की सीढ़ियां बनती है। जीवन का गणित बड़ा बेबूझ है, उलटबांसी है। यहां हारो तो जीत, यहां जीतने की चेष्टा करो तो हार। हारे को हरिनाम! यहां जो हार गया, पूरी तरह हार गया, समर्पित हो गया--उसकी ही जीत है, उसकी महा जीत है! ऐसी जीत जो फिर छीनी नहीं जा सकती।
इसीलिए मैं संन्यास का अर्थ करता हूं: समर्पण। संकल्प नहीं, समर्पण। बस संकल्प का एक ही उपयोग है कि समर्पण करा जाए। सारे संकल्प को इकट्ठा करके एक काम कर लो--समर्पित हो जाओ। सारे संकल्प को इकट्ठा करके अहंकार को विसर्जित कर दो। शून्यवत हो जाओ। फिर जीत ही जीत है।
लाओत्सु ने कहा है: मुझे कोई हरा नहीं सकता।
किसी ने सुना कि लाओत्सु कहता है मुझे कोई हरा नहीं सकता, वह थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि लाओत्सु कोई पहलवान नहीं। उसने लाओत्सु को कहा कि तुम्हारी देह को तो मैं देखता हूं तो मैं सोचता हूं कोई भी हरा सकता है और तुम कहते हो तुम्हें कोई हरा नहीं सकता! इसी गांव में बड़े-बड़े पहलवान हैं जिन्हें क्षण न लगेगा और चारों खाने तुम्हें चित्त कर देंगे।
लाओत्सु ने फिर भी कहा कि मैं तुमसे कहता हूं, मुझे कोई नहीं हरा सकता। क्योंकि वे मुझे चित्त करेंगे उसके पहले ही मैं चित्त हो जाऊंगा। मैं खुद ही चित्त लेट जाऊंगा। मुझे हराओगे कैसे? मैं हारा ही हुआ हूं, मुझे हराओगे कैसे? मेरी जीत की कोई आकांक्षा ही नहीं है, मुझे हराओगे कैसे? मैं जीतना चाहता ही नहीं हूं। मैं जीतने की मूढ़ता को समझ चुका हूं। मुझे हराओगे कैसे?
यह बात सुनो, यह बात गुनो। यह बात गहरे उतर जाने दो। अगर तुम स्वयं हार गए, अस्तित्व के समक्ष, परमात्मा के समक्ष, तुम्हें कौन हराएगा? कैसे हराएगा?
लेकिन लोग जीतना चाहते हैं। जीतने वाला ऐसे ही है जैसे कोई नदी में धार के विपरीत बह रहा हो, धार के विपरीत जाने की चेष्टा में लगा हो। गंगा जा रही है समुद्र की तरफ और तुम जा रहे हो गंगोत्री की तरफ। हारोगे, निश्चित हारोगे। शायद दो-चार हाथ मार लो। शायद दो-चार हाथ तुम्हें ऐसा लगे कि अब जीते, अब जीते, मगर तुम्हारी हार निश्चित है।
वर्षा के दिन थे और गांव की नदी में बाढ़ आ गई थी। और लोग भागे हुए आए और मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, यहां बैठे क्या कर रहे हो, तुम्हारी पत्नी नदी में गिर गई! बाढ़ भयंकर है, किसी की हिम्मत हो भी नहीं रही। अब तो तुम्हारी ही अगर इच्छा हो तो कूदो और बचाओ।
मुल्ला एकदम भागा हुआ आया, कपड़े भी नहीं उतारे, एकदम नदी में कूद पड़ा और लगा ऊपर की तरफ तैरने। भीड़ इकट्ठी हो गई थी, भीड़ ने चिल्लाया, नसरुद्दीन, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारी पत्नी को धार नीचे की तरफ बहा ले गई है।
नसरुद्दीन ने कहा कि चुप, मैं अपनी पत्नी को जानता हूं या तुम? दुनिया की कोई और स्त्री हो तो शायद धार उसको नीचे की तरफ ले जाए, मगर मेरी पत्नी सदा धार के विपरीत बहने वाली है। वह ऊपर की तरफ गई होगी। उसे मैं भलीभांति जानता हूं। उसके गणित को जानता हूं, उसकी तर्क-सरणी पहचानता हूं। तुम मुझे मत सिखाओ। मेरी पत्नी के संबंध में मुझे सब मालूम है। अगर मेरी पत्नी गिरी है तो ऊपर की तरफ बही होगी। उसकी खोपड़ी उलटी है।
लेकिन ऊपर की तरफ कितना ही बहो, कितना ही चेष्टा करो, कितनी देर चेष्टा चलेगी? आज नहीं कल पैर उखड़ जाएंगे। और यह अस्तित्व की विराट धारा--और हम सब जीतने के लिए लड़ रहे हैं! गिरते हैं एक दिन, बुरी तरह गिरते हैं। बड़े से बड़े सिकंदर भी गिरते हैं।
तो सुधा, तू भी गिरेगी। जीत का मोह, जीत की वासना छोड़ो।
संन्यासी वह है जिसने घोषणा कर दी कि अब जीतना इत्यादि बच्चों के खेल हैं। अब तो मैं हार गया, अब तो मैं प्रभु से हार गया। अब तो उसकी मर्जी पूरी हो, मेरी कोई मर्जी नहीं। जहां ले जाए जाऊंगा। जहां बहाए बहूंगा। जिस किनारे लगा दे वहां लग जाऊंगा--वही किनारा है! और अगर मझधार में डुबा दे तो मझधार ही किनारा है।
फिर तुम्हें कोई नहीं हरा सकता। फिर तुम्हारी जीत आत्यंतिक है, अंतिम है।
लेकिन हमारे मन में कहीं न कहीं वासना जीत की बनी ही रहती है--कुछ न कुछ पाने की, कुछ न कुछ होने की। यह जो होने की वासना है, यही हमारा रोग है। कुछ लोग धनी होना चाहते हैं, यह उनका रोग है। कुछ लोग पदों पर होना चाहते हैं, यह उनका रोग है। कुछ लोग ध्यानी होना चाहते हैं, कुछ लोग भक्त होना चाहते हैं; ये उनके रोग हैं।
धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने होने की व्यर्थता जान ली और जो कहता है, जो मैं हूं उससे मैं राजी हूं। बस ऐसा ही राजी हूं, मुझे कुछ और होना नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि मेरे मन में भी साधु बनने की इच्छा एक बार बहुत बलवती हो गई थी। किसी ने बताया कि बेलूर मठ में एक साधु रहते हैं जो बिना कुछ खाए-पीए जिंदा हैं। मैं उनके पास बड़ी श्रद्धा से पहुंचा। उन्हें देख कर मुझे बड़ी निराशा हुई। वे खाते-पीते तो बेशक नहीं थे, लेकिन कपड़ों का मोह उन्हें बहुत था। बहुत खूबसूरत कपड़े थे उनके--एकदम दूधिया!
एक और खबर लगी कि अमुक गांव में एक नंग-धड़ंग साधु आए हुए हैं। तो मैं अमुक गांव गया। वे वास्तव में मस्त साधु थे। मैं उनकी सेवा में लग गया। उन्होंने मुझे बांस की खपच्चियां, फूस व सरकंडे एकत्रित करने का काम सौंप दिया। यह किसलिए प्रभु? मैंने पूछा। कुटिया बनाएंगे बच्चा! उन्होंने जवाब दिया। मैं वहां से जान छुड़ा कर भागा।
पर मेरी कामना कम नहीं हुई। उत्तराखंड के बारे में मैंने बहुत कुछ पढ़ा-सुना था, इसलिए एक दिन मैं गंगोत्री जा पहुंचा, जहां इत्तिफाक से एक ऐसा साधु मिला जो कुटिया में नहीं रहता था, खुले में नंग-धड़ंग घूमता था। उसे चेले-चपाटियों का भी मोह नहीं था, पर मैं तो उससे चिपक ही गया, हालांकि उसने मेरी कभी परवाह नहीं की थी। एक दिन वह मुझ पर खामख्वाह प्रसन्न हो उठा, बोला, बच्चा! मांगो जो मांगते हो! पर चेला नहीं बनाऊंगा!
प्रभु! यह बताइए कि आप इतने प्रसन्न कैसे हैं? मैंने पूछा।
उसने कहा, क्योंकि मेरी कोई इच्छा नहीं है, बच्चा! मैं हर पल प्रभु की सेवा में लीन रहता हूं।
प्रभु की सेवा में ही क्यों लीन रहते हैं? मैंने पूछा।
तो उस साधु ने कहा, परमपद पाने को, बच्चा!
उनका जवाब सुन कर मैं वहां से भी बड़ी तेजी से भागा। मुझे वह आदमी इस कदर खतरनाक लगा कि मेरी साधु होने की इच्छा ही मर गई।
कुछ न कुछ पाने को, कुछ न कुछ होने को जरा सा भी अवकाश मिला कि मन खड़ा हो जाता है, कि अहंकार निर्मित होने लगता है। फिर वह इस जगत की संपदा हो या उस जगत की, इससे भेद नहीं पड़ता।
सुधा, मेरे पास अगर कुछ सीखने का राज, कोई रहस्य, अगर मेरे पास समझने की कोई कुंजी, ऐसी कुंजी जिससे सारे ताले खुल जाएं है--तो वह सीधी-सादी है: होने की दौड़ छोड़ो, पाने की दौड़ छोड़ो। जो हो उसमें आनंदित हो जाओ। जैसे हो वैसे ही आनंदित हो जाओ। इसी क्षण! मत लगाओ शर्तें कि तब आनंदित होऊंगा जब इतना धन मेरे पास होगा, या इतना पद मेरे पास होगा, या जब मैं मुनि होऊंगा या जब मैं स्वर्ग पहुंचूंगा; जब तक परमात्मा के दर्शन नहीं होंगे तब तक सुखी नहीं होऊंगा। तो फिर तुम कभी सुखी होने वाले नहीं हो।
बिना शर्त सुखी हो जाओ। कह दो कि मैं सुखी हूं जैसा हूं। परमात्मा तुम्हें खोजता आएगा। परमात्मा भी सुखी लोगों का साथ खोजता है। परमात्मा भी दुखी लोगों से बचता है। दुखी लोगों से कौन नहीं बचता? कहावत है: हंसो, सारी दुनिया हंसती है तुम्हारे साथ; रोओ, और तुम अकेले रोते हो। नाचो, और सारा अस्तित्व नाचता है तुम्हारे साथ; और उदास बैठ जाओ, तो तुम अकेले उदास बैठे हो।
परमात्मा उनके निकट आता है जो मस्त हैं, जो मौज में हैं, जो रसमग्न हैं। मगर रसमग्न अगर होना है तो होने की बात ही छोड़ दो--अभी! ऐसे ही जैसे हो!
सुधा, क्या कमी है तुझ में? जो है सुंदर है। जैसी है सुंदर है। परमात्मा ने ऐसा बनाया।
लेकिन लोग अजीब-अजीब शर्तें लगा देते हैं। नाच तो आता नहीं, कहते हैं आंगन टेढ़ा है। नाच आता हो तो टेढ़े आंगन से क्या फर्क पड़ता है? टेढ़े आंगन में भी नाचा जा सकता है। और नाच न आता हो तो सीधा आंगन भी क्या करेगा?
मुल्ला नसरुद्दीन आंख के डाक्टर के पास गया था। आंखें धूमिल होने लगी थीं। तो डाक्टर ने कहा कि चश्मा लगाना होगा। चश्मा बन गया, मुल्ला चश्मा लेने गया। मुल्ला ने डाक्टर से पूछा कि जब चश्मा आंख पर लग जाएगा तो मैं पढ़ना-लिखना तो कर सकूंगा न?
डाक्टर ने कहा, निश्चित। इसीलिए तो चश्मा बनाया है। बिलकुल पढ़-लिख सकोगे।
मुल्ला ने कहा, यह भी बड़ा चमत्कार है, क्योंकि पढ़ना-लिखना मुझे आता नहीं।
पढ़ना-लिखना न आता हो तो चश्मा लगाने से पढ़-लिख सकोगे? आंगन बिलकुल चौकोर भी हो, हर कोना नब्बे अंश का हो, तो भी क्या होगा नाचना न आता हो? सुंदर से सुंदर वीणा तुम्हारे पास हो और बजानी न आती हो! कृष्ण की ही बांसुरी तुम्हें दे दूं, तो क्या करोगे? कृष्ण का चैतन्य भी तो चाहिए। वह बांसुरी थोड़े ही है जिससे कृष्ण का गीत पैदा हो रहा है, वह कृष्ण का प्राण है। बांसुरी तो वही है, बांस की पोंगरी, जैसी तुम्हारे पास है। बांसुरी में थोड़े ही कुछ खूबी होती है; खूबी गाने वाले में होती है।
सुधा, तू कहती है: "बार-बार वह फिसल क्यों जाता है?'
तेरी पकड़ने की कोशिश में ही फिसल जाता है। पकड़ना छोड़ो, खुली मुट्ठी से जीना सीखो। न कुछ पाने की इच्छा, न कुछ पकड़ने की इच्छा; जैसे हो, जहां हो, प्रतिपल वहीं आनंद को अनुभव करो। सुबह सूरज उगे तो आनंद से भरा नमस्कार--एक दिन और मिला! सांझ सूरज डूबे, आनंद से अलविदा--एक अदभुत दिन और पूर्ण हुआ! ऐसे प्रतिपल जीओ--धन्यवाद में, अनुग्रह में। फिर बिना पकड़े सब पकड़ में आ जाता है और बिना जीते जीत हो जाती है।


तीसरा प्रश्न: भगवान, आपके आश्रम को देख कर दूसरे लोक की अनुभूति हुई। यह हमारे भारत देश में कहां तक सार्थक है?

आनंद जगताप, मैं देशों में विश्वास नहीं करता। देश की धारणा ही अवांछनीय है। मैं देशों की सीमा को पाप मानता हूं। मैं इस पूरी पृथ्वी को एक देखना चाहता हूं। ये भारत और पाकिस्तान और चीन और जापान, ये जाने चाहिए। ये अतीत के खंडहर कब तक हमारी छाती पर सवार रहेंगे? आदमी एक है, और जब तक हमने पृथ्वी को खंड-खंड किया है तब तक आदमी भी खंड-खंड रहेगा।
मैंने सुना है, एक स्कूल में भूगोल का अध्यापक बच्चों को समझाने के लिए एक तरकीब ईजाद किया था। उसने दुनिया के नक्शे को कई टुकड़ों में तोड़ दिया था, और सारे टुकड़े टेबल पर रख दिए थे। और बच्चों को उसने बुला कर कहा कि इन टुकड़ों को जोड़ कर फिर दुनिया का नक्शा बनाओ!
बड़ा कठिन मामला; इतनी बड़ी दुनिया, छोटे-छोटे टुकड़े; जमाना कठिन। समझ में न आए। कहीं कुस्तुनतुनिया टिम्बकटू की जगह पहुंच जाए; कहीं टिम्बकटू पेकिंग के पास पहुंच जाए; कहीं पेकिंग अमरीका में बैठ जाए--बड़ा ही मुश्किल! लेकिन एक बुद्धिमान बच्चा रहा होगा, सूझ-बूझ वाला रहा होगा। उसने उस दुनिया के नक्शे के चकतों को उलटा करके देखा, पीछे की तरफ देखा, और कुंजी उसके हाथ लग गई। पीछे उसने देखा, एक आदमी की तस्वीर है। उसने सारे टुकड़े उलट दिए और आदमी की तस्वीर जमाने में लग गया। आदमी की तस्वीर जम गई। एक तरफ आदमी की तस्वीर जम गई, दूसरी तरफ दुनिया का नक्शा जम गया। वह आदमी की तस्वीर दुनिया के नक्शे को जमाने की कुंजी थी। उसी तरकीब से तो शिक्षक जमाता था, नहीं तो उसको भी याद रखना बहुत मुश्किल; दुनिया बड़ी है।
तुम्हारी दुनिया जब तक खंडित है तब तक आदमी खंडित है। जब तक तुम्हारा आदमी खंडित है तब तक तुम्हारी दुनिया खंडित है। खंडों में मेरा भरोसा नहीं है, मैं अखंड के प्रति श्रद्धालु हूं।
तुमने कहा कि आपके आश्रम को देख कर दूसरे लोक की अनुभूति हुई।
तुम सोच-समझ के व्यक्ति मालूम होते हो। आनंद जगताप, विवेक वार्ता नाम के पत्र के संपादक हैं। संपादक इतने समझदार होते नहीं। पत्रकार कूड़ा-कर्कट बटोरते हैं। मगर तुम पारखी हो। तुम्हारे पास बुद्धिमत्ता का एक अंश है, इसलिए तुम अनुभव कर सके किसी दूसरे लोक का।
निश्चित ही जो यहां घटित हो रहा है वह करीब-करीब असंभव घटित हो रहा है। उसे देखने के लिए बड़ी प्रखर आंखें चाहिए, बड़ी जौहरी की आंखें चाहिए।
लेकिन तुम्हारे मन में सवाल उठा, स्वाभाविक सवाल, कि यह हमारे भारत देश में कहां तक सार्थक है?
पहली तो बात, बुद्धों, कृष्णों, महावीरों के देश में अगर यह सार्थक नहीं है तो कहां सार्थक होगा? अगर कृष्ण के देश में, मैं जो आनंद का उत्सव पैदा कर रहा हूं, उसकी सार्थकता नहीं है, तो कहां इसकी सार्थकता हो सकेगी फिर? इससे शुभ संदर्भ और कहां मिलेगा? बहुत कठिन होगा किसी और भूमि पर, किसी और संस्कृति की धारा में इस गीत को गाना जो मैं गाना चाहता हूं। अगर भगवद्गीता के देश में यह नहीं हो सकता तो फिर कहां होगा?
सदियों में हमने बहुत बुद्ध पुरुष पैदा किए हैं। यद्यपि वे बुद्ध पुरुष अब तक भी हमारी भीड़ को बदल नहीं पाए। मामला ही कठिन है, उनका कोई कसूर नहीं। भीड़ बदलना ही नहीं चाहती। कोई जागना ही न चाहे तो जगाना असंभव है। कोई जाग कर भी आंख बंद करके पड़ा रहे तो क्या करोगे? लेकिन इस देश के पास अमूल्य संपदा है। वह इसी देश की है, ऐसा नहीं कहना; सब की है, सारी दुनिया की है।
तुम पूछते हो: "हमारे इस भारत देश में यह कहां तक सार्थक है?'
तुम तो भारत देश को बस उन्हीं समस्याओं में सीमित देखते हो जो रोज अखबारों में छपती हैं। भारत देश उन्हीं समस्याओं में समाप्त हो जाता है जो रोज अखबारों में छपती हैं--अलीगढ़ का हिंदू-मुस्लिम दंगा, और कहीं हड़ताल, और कहीं पुलिस की बगावत, और कहीं गोलीबारी? तुम भारत को भारत के क्षुद्र राजनीतिज्ञों और उनकी एक-दूसरे की खींचत्तान करने का जो तमाशा दिल्ली में चलता है उसमें सीमित समझते हो? तुम भारत की दरिद्रता, दीनता, इसमें ही भारत को सीमित समझते हो?
तो भारत के समाधिस्थ लोगों को तुम गिनती में नहीं ले रहे; तो तुम भारत के बुद्ध पुरुषों को गिनती में नहीं ले रहे; तो तुम कांटे गिन रहे हो, फूलों को छोड़ रहे हो।
मैं फूलों को गिन रहा हूं, कांटों की मुझे चिंता नहीं है। क्योंकि मेरी दृष्टि यह है कि अगर कांटों पर बहुत ध्यान दो तो फूल भी कांटे हो जाते हैं और अगर फूलों को ध्यान से सींचो तो कांटे भी फूल हो जाते हैं। मैं निराशावादी नहीं हूं, मैं परम आशावादी हूं।
दीनता, दरिद्रता, भारत की समस्याएं, सब मिट सकती हैं; सिर्फ भारत को उन्हें मिटाने की सम्यक दृष्टि देने की जरूरत है। भारत की समस्याएं हमारी अपनी बनाई हुई समस्याएं हैं, इसलिए मिटाना आसान है। आज दुनिया में इतनी यांत्रिक प्रगति हुई है कि अब भारत को गरीब रहने की कोई जरूरत नहीं है। अगर हम गरीब हैं तो शायद हम रहना चाहते हैं इसलिए गरीब हैं, हमारे सोचने-समझने के ढंग मूढ़तापूर्ण हैं इसलिए गरीब हैं। हमारे पास सुंदरतम भूमि है, सुंदरतम आकाश है। हमारे पास प्रतिभाओं की भी कमी नहीं।
लेकिन हम प्रतिभा का सम्मान भूल गए हैं। तो जब भी हमारे यहां कोई प्रतिभा पैदा होती है, उसको भी भारत छोड़ देना पड़ता है। हम जड़बुद्धियों का सम्मान करने में बड़े कुशल हो गए हैं। हमने ऐसे आधार खोज लिए हैं कि जड़बुद्धि ही उसमें आ सकते हैं।
कोई आदमी पांच बजे सुबह उठता है--हमारा सम्मान। कोई आदमी सिगरेट नहीं पीता--हमारा सम्मान। कोई आदमी सिर्फ साग-सब्जी खाता है--हमारा सम्मान। कोई आदमी खादी के कपड़े पहनता है--हमारा सम्मान। कोई आदमी रोज पूजा करता है--हमारा सम्मान।
इससे कहीं प्रतिभा पैदा होगी? पांच बजे सुबह उठने से प्रतिभा पैदा होती है? कि सिगरेट न पीने से प्रतिभा पैदा होती है? कि खादी पहनने से प्रतिभा पैदा होती है?
असल में कोई बुद्धू ही तीन-चार घंटे चरखा चला सकता है। जिंदगी में और भी महत्वपूर्ण काम करने को हैं। तीन-चार घंटे चरखा चला कर अगर तुमने साल भर के लायक कपड़ा-लत्ता पैदा कर लिया तो तुम अपने को बुद्धिमान समझ रहे हो? अगर थोड़ी-बहुत बुद्धि रही भी होगी तो चरखा डुबा लेगा। चलाते रहे चरखा तीन-चार घंटा--रेंचू, रेंचू, रेंचू। बस हो गए ढेंचू, ढेंचू, ढेंचू। खोपड़ी में कुछ थोड़ी ऊर्जा भी रही होगी, वह भी चरखा पी जाएगा।
मगर हमारे सम्मान बड़े अजीब हैं! कोई आदमी एक बार भोजन करता है--हमारा सम्मान! हम बड़ी असृजनात्मक चीजों को सम्मान देते हैं। इसलिए भारत में प्रतिभा तो पैदा होती है, मगर प्रतिभा को भारत छोड़ देना पड़ता है। प्रतिभा का यहां अपमान है। प्रतिभा को सम्मान मिलता है अमरीका में, कि इंग्लैंड में, कि जर्मनी में। यहां तो बाहर से प्रतिभाएं आना चाहें तो हम आने नहीं देना चाहते।
अब मैं एक ऐसी व्यवस्था यहां पैदा कर रहा हूं जिसमें वैज्ञानिक आने को उत्सुक हैं, डाक्टर आने को उत्सुक हैं, प्रोफेसर्स आने को उत्सुक हैं, लेखक, कवि, संगीतज्ञ...। लेकिन भारत सरकार उन्हें आने नहीं देना चाहती। यह पहला मौका है जब हम पश्चिम की प्रतिभा को यहां खींच सकते हैं। लेकिन भारत सरकार जैसी अंधी सरकार शायद ही कहीं हो।
प्रतिभा का सम्मान करना सीखो और प्रतिभा क्या है इसको समझना सीखो। और प्रतिभा की जो तुमने नकारात्मक परिभाषाएं बना रखी हैं, उनसे छुटकारा पाओ। हमारे देश में ही काफी प्रतिभा पैदा होती है, और सारी दुनिया से प्रतिभा आ सकती है। इस देश के प्रति सारी दुनिया के मन में एक सम्मान है। इस देश के प्रति नहीं, बस इस देश में जो अदभुत कुछ लोग पैदा हुए हैं उनके कारण। यह देश फिर सोने की चिड़िया बन सकता है। कोई कारण नहीं है इसके गरीब रहने का, सिवाय तुम्हारे; तुम ही कारण हो।
तो मैं जो एक छोटा सा जगत निर्माण कर रहा हूं वह जरूर संदर्भ के बाहर मालूम होता है। मुझसे लोग आकर कहते हैं कि हम आश्रम के दरवाजे के भीतर आते हैं तो लगता है दूसरी दुनिया, और आश्रम के बाहर गए तो लगता है बिलकुल दूसरी दुनिया! जो संन्यासी एक बार आश्रम में प्रविष्ट हो गए हैं वे बाहर जाना ही नहीं चाहते, वे दरवाजे के बाहर नहीं देखना चाहते। बाहर की पूरी की पूरी स्थिति इतनी दयनीय है, इतनी दुखद है, इतनी अशोभन है, इतनी दया योग्य है कि जिनमें थोड़ी भी संवेदना है वे उसे न देखना ही पसंद करेंगे।
पश्चिम से आए हुए अनेक लोग मुझसे कहते हैं कि इस दीन-दरिद्र, दुखी देश में आपकी बात लोग समझ पाएंगे? आपको पहचान पाएंगे?
कठिन है मामला। लेकिन कठिन है, इसलिए चुनौती है। और चुनौती स्वीकार करने योग्य है। पहले हम एक छोटी सी दुनिया बना लें। एक दृष्टांत होगा वह कि ऐसा भी आदमी जी सकता है, कि ऐसी भी जीवन की चर्या हो सकती है, कि बहुत थोड़े में भी बहुत आनंद हो सकता है। फिर उस दृष्टांत के आधार पर हम सारे देश को निमंत्रित करना शुरू करेंगे कि आओ और देखो। और जो यहां हो सकता है वह कहीं भी हो सकता है। कोई कारण नहीं है रुकावट का। सिर्फ हमारी मानसिक पृष्ठभूमि, हमारे संस्कार बहुत जड़ हैं; उनको तोड़ना आवश्यक है। उसी काम में मैं लगा हुआ हूं।
आज तो जरूर मेरा आश्रम बिलकुल इस देश के संदर्भ में बैठता नहीं।
कल ही मुझे एक किताब मिली; किसी ने मेरे खिलाफ लिखी है। जिस व्यक्ति ने किताब लिखी है उसने किताब की भूमिका में यह भी लिखा है कि वह मुझसे निन्यानबे प्रतिशत सहमत है। हर बात में सहमत है, सिर्फ एक बात को छोड़ कर, कि मैं जो कहता हूं कि कामवासना में ही समाधि की संभावना छिपी है, कि काम-ऊर्जा ही एक दिन समाधि बन जाती है, बस इस बात से मैं असहमत हूं। और बाकी प्रत्येक बात से सहमत हूं।
लेकिन उसकी किताब देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुई! निन्यानबे प्रतिशत मेरी बातों से सहमत है, लेकिन उन निन्यानबे प्रतिशत बातों के पक्ष में उसने किताब नहीं लिखी। एक प्रतिशत से असहमत है, उसके लिए किताब लिखी।
यह नकारात्मक बुद्धि देखते हो! एक झाड़ी में गुलाब ही गुलाब खिले और एक कांटा है। और तुम कांटे के संबंध में किताब लिखते हो, और गुलाबों के संबंध में किताब नहीं! किताब तो दूर, उसने लेख भी कभी नहीं लिखा। लेख तो दूर, उसने कभी मुझे पत्र भी नहीं लिखा। मैंने उसका नाम भी कभी नहीं सुना, पहली दफा जब किताब हाथ में लगी तो नाम पता चला। पूरी किताब लिख डाली! अपने खर्च से छपवाई! अब बंटवा रहा है! और खुद भी मानता है कि निन्यानबे प्रतिशत बातों से कोई विरोध नहीं है।
आज तो निश्चित ही मैं जो कह रहा हूं वह भारत के संदर्भ के बाहर है। क्योंकि सदियों से तुम्हें समझाया गया कामवासना का विरोध; और मैं समझा रहा हूं रूपांतरण। सदियों से तुम्हें समझाया गया--धन की निंदा; और मैं कहता हूं धन का उपयोग, निंदा नहीं। धन की अर्थवत्ता है। धन ही सब कुछ नहीं है, लेकिन मैं यह भी नहीं कह सकता कि धन कुछ भी नहीं है। धन की उपादेयता है, धन एक साधन है और बहुमूल्य साधन है। अगर हजारों साल तुम्हें यही सिखाया गया कि धन निंदा योग्य है तो तुम धन पैदा कैसे करोगे? निंदा योग्य को कौन पैदा करेगा? तो तुम अगर दरिद्र रह गए तो कौन जिम्मेवार है? और अगर आज मैं कह रहा हूं कि धन पैदा किया जा सकता है, धन का सम्मान करो, धन बड़ा बहुमूल्य उपयोगी साधन है, धन से बहुत कुछ संभव है...। सब कुछ संभव है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। धन से प्रेम नहीं खरीद सकते, लेकिन रोटी तो खरीद सकते हो! रोटी के बिना प्रेम मुश्किल है।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: आदमी अकेली रोटी के सहारे नहीं जी सकता।
सच है। लेकिन यह अधूरा वचन है। इसमें आधा वचन और जोड़ देना चाहिए: आदमी बिना रोटी के भी नहीं जी सकता।
धन से प्रेम नहीं मिलता, परमात्मा नहीं मिलता; सच है। लेकिन धन से ऐसी सुविधा मिलती है जिसमें प्रार्थना की जा सके, ध्यान किया जा सके। धन ऐसा अवसर देता है जिसमें परमात्मा की तलाश की जा सके। भूखे भजन न होहिं गोपाला।
अगर आज मैं कह रहा हूं कि धन को सम्मान दो तो लोगों को बेचैनी होती है, क्योंकि मैं उनकी सारी परंपरा का विरोध कर रहा हूं। वे धन की निंदा करते रहे और मैं कहता हूं धन को सम्मान दो। अगर आज मैं कहता हूं कि शरीर को सुविधा दो तो उनको हैरानी होती है; क्योंकि उन्होंने साधुओं से यही सुना है कि शरीर को कष्ट दो, सताओ। भरी दुपहरी में आग बरस रही हो तब भी धूनी लगा कर बैठे रहो। और जब सर्दी हो तब नंगे खड़े हो जाओ बर्फ में। और जब भूख लगे तो भोजन मत करना। और जब नींद आए तो सोना मत। लड़ो, काटो शरीर को सब तरह से; जितनी दुष्टता कर सकते हो शरीर के साथ करो; जितनी हिंसा बने शरीर के साथ करो। और मैं सिखा रहा हूं कि शरीर का सम्मान करो, प्रेम करो। जब भूख लगे तो भोजन, और जब नींद आए तो सोओ, और जब प्यास लगे तो पीयो। हां, उतना जितना जरूरी है। ज्यादा में भी नुकसान है, कम में भी नुकसान है। मैं एक संतुलन की शिक्षा दे रहा हूं, एक सम्यकत्व की।
लेकिन तुम्हारी रूढ़ धारणाओं के विपरीत पड़ता है यह सब। इस कारण जरूर आज मेरा कम्यून, मेरा परिवार इस देश के संदर्भ के बाहर पड़ गया है। इस देश में होकर भी मैं विदेशी हूं, ऐसी स्थिति हो गई है। लेकिन सत्य ज्यादा देर तक दबाया नहीं जा सकता; उभरेगा, फैलेगा, इस सारे देश के प्राणों को पकड़ लेगा। मगर मैं एक उदाहरण तो बना लूं, एक देखने की जगह तो बना लूं, जहां लोगों को निमंत्रित कर सकूं और कहूं कि देखो! संन्यासी उत्पादक हो सकता है। मेरा संन्यासी उत्पादक है। यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि हम भारत में कोई भीख नहीं मांगते, हम किसी के सामने दान के लिए हाथ नहीं फैलाते, और कभी नहीं फैलाएंगे। संन्यासी उत्पादक हो सकता है, सृजनात्मक हो सकता है।
नया कम्यून कोई चार वर्गमील में बनने को है। काम शुरू हुआ। चार वर्गमील में कम से कम दस हजार संन्यासी रहेंगे। सामूहिक खेती करेंगे, सामूहिक कारखाने चलाएंगे, उत्पादन करेंगे। सबको सबकी जरूरत के अनुसार मिलेगा, सुख-सुविधा, लेकिन धन पर किसी की व्यक्तिगत मालकियत नहीं होगी। सारा परिवार जो भी होगा उसको अपना मान कर जीएगा। और हम बहुत तरह के उत्पादक आयाम शुरू करेंगे। फिर हम लोगों को बुला सकेंगे कि मस्तों की इस टोली को भी देखो! किसी की जेब में एक पैसा नहीं है, लेकिन भारत का कोई बड़े से बड़ा रईस भी, बिड़ला और टाटा भी, इस शान और इस मस्ती से नहीं रह सकते हैं। लोग देखेंगे इस नृत्य को, इस उत्सव को, तो हवा फैलेगी।
इसीलिए तो मोरारजी देसाई जैसे लोग हर तरह से, हरचंद कोशिश कर रहे हैं कि कम्यून बन न पाए। हर तरह का अड़ंगा, जितना भी वे डाल सकते हैं, डालने की चेष्टा कर रहे हैं। हर तरह से कोशिश करते हैं कि किसी तरह से मुझे कानूनी जाल में फांस लिया जाए। मगर यह असंभव है। तुम डाल-डाल तो मैं पात-पात! इसके पहले कि तुम कभी सोचो कि कोई कानूनी जाल में मुझे फांस सकते हो, मैं जाल के बिलकुल बाहर खड़ा हूं। कानूनी जाल में फांसना असंभव है, क्योंकि मेरे पास श्रेष्ठतम वकील संन्यासी हैं जो एक-एक इंच सम्हल कर चल रहे हैं, सोच कर चल रहे हैं। श्रेष्ठतम अर्थशास्त्री हैं। एक-एक कदम सम्हल कर रखा जा रहा है। इसलिए थोड़ी देर लग रही है। लेकिन देर शुभ है, क्योंकि एक-एक कदम मजबूत हुआ जा रहा है।
जगताप, दो ही उपाय हैं। या तो मैं अपने आश्रम को जैसे देश के दूसरे आश्रम हैं वैसा बना लूं, तो संदर्भ एक हो जाए। या फिर मैं पूरे देश को अपने आश्रम जैसा बनाना चाहूं, तब संदर्भ एक हो। मेरा चुनाव दूसरा है। इस देश के संदर्भ में तो बहुत आश्रम हैं। वैसे ही दीन-हीन जैसा पूरा देश है, वैसे ही वे आश्रम भी दीन-हीन हैं। जैसे पूरा देश भिखमंगा है वैसे ही वे आश्रम भी भिखमंगे हैं। भीख मांगना भारतीय संस्कृति की आत्मा बन गई। जैसे और लोग रह रहे हैं वैसे ही उन आश्रमों में लोग हैं, और भी मुर्दा। बाजार में तुम्हें शायद थोड़ी रौनक भी मिल जाए, कभी कोई हंसता हुआ आदमी भी मिल जाए; मगर आश्रमों में तो बिलकुल मुर्दा लोग बैठे हैं। मरने के करीब पहुंचते हैं तभी तो वे आश्रम पहुंचते हैं, काशी-करवट लेने पहुंचते हैं। फिर राम-राम जपते रहते हैं, अब कुछ और करने को बचा भी नहीं।
मेरा आश्रम देश के संदर्भ में बिलकुल नहीं है, क्योंकि देश गलत है। मैं अपने आश्रम के संदर्भ में देश को चाहूंगा। यह महत प्रयास है, भगीरथ प्रयास है; मगर करने योग्य है, इसके करने में आनंद है।
फिर मैं तुम्हारे अतीत के संबंध में नहीं सोच रहा हूं; मेरा सारा दृष्टिकोण भविष्योन्मुख है। वह जो आने वाला भविष्य है उसे ध्यान में रख कर प्रत्येक चीज की जा रही है। जो बीत गया, बीत गया; अतीत की मुझे चिंता नहीं है। वह जो आगत है उसकी चिंता है--वह जो अभी आ रहा है! जो बीत गया अब उसकी चिंता क्या करनी है! जो आ रहा है उसके लिए तैयारी करनी है।
और जल्दी ही तुम तुम्हारे राजनेताओं से ऊब जाओगे--ऊब ही गए हो। तीस साल उनकी मूढ़ताएं तुमने देख लीं, भलीभांति देख लीं। और कितनी देर लगेगी? और दस-पांच साल समझो तुम, उनसे ऊब ही जाओगे। उनसे ऊबने के बाद तुम्हारे पास उपाय क्या है फिर? तुम्हारे राजनेताओं से तुम जिस दिन बिलकुल ऊब जाओगे, उस दिन सिवाय मेरी बात के तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मैं अकेला विकल्प हूं। तुम्हें मेरी बात पर ध्यान देना ही होगा। और तब तक मैं उस परिवार को भी खड़ा कर दूंगा जो कि प्रमाण बन जाए। मैं बात ही करने में भरोसा नहीं करता, मैं काम में लगा हूं। लेकिन निश्चित ही ये काम गहरे हैं और समय लेते हैं।
लेकिन एक अभूतपूर्व प्रयोग शुरू हो गया है। और यह प्रयोग रुकने वाला नहीं है। क्योंकि इस प्रयोग के साथ परमात्मा है।


अंतिम प्रश्न: भगवान, मैं आचार्य तुलसी के जाने-माने श्रावकों के परिवार से हूं। कुछ दिनों पहले आपने उनके पंडितराज शिष्य, मुनि नथमल, जिनको महाप्राज्ञ युवराज की उपाधि से अभिषेक किया गया है, उनको मुनि थोथूमल की उपाधि दी। उसके बाद उनका एक लेख अणुव्रत नाम की पत्रिका में देखा--"कितना सच, कितना झूठ' शीर्षक से, जिसमें उन्होंने संभोग से समाधि की चर्चा की है, जो कि उनके अधिकार का विषय नहीं है। मेरे देखे, न तो उनको संभोग का कोई अनुभव है, समाधि का अनुभव होने की तो बात ही दूर। फिर भी आप जैसे अनुभूतिपूर्ण विवेचन की ऐसी बचकानी चर्चा करते हैं--काम के दमन की नहीं, उदात्तीकरण की बात करते हैं। बड़ा ही रोष आता है। कई बार मन उनसे जाकर बात करने का होता है। क्या करूं भगवान, आप ही मार्ग-निर्देश करें।

आनंद वीतराग, मुनि थोथूमल को आचार्य तुलसी ने अपना उत्तराधिकारी चुना है। और तुम देखते हो सामंती ढंग--युवराज! राजा मर गए, मगर युवराज नहीं मरे! उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए!
और मुनि थोथूमल का गुण क्या है? बड़े सिद्ध चमचा हैं! खूब खुशामद करते हैं। आचार्य तुलसी की खुशामद में सब से अग्रणी हैं।
न तो आचार्य तुलसी को समाधि का कोई अनुभव है, न उनके किन्हीं शिष्यों को कोई अनुभव है। मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं। आचार्य तुलसी ने मुझसे पूछा है कि ध्यान कैसे करूं? और आचार्य तुलसी ने मुझसे कहा है कि मैं अपने संन्यासियों को, अपने मुनियों को आपके पास भेजूंगा, इन्हें ध्यान करना सिखाएं। लेकिन उस बात में भी बेईमानी थी। ध्यान में रस नहीं था। उनके मुनि मेरे पास आए भी, ध्यान की प्रक्रिया सीख कर भी गए; मगर उन्होंने कभी खुद ध्यान नहीं किया, वे ध्यान के शिविर लेने लगे। जैसे मेरे ध्यान के शिविर होते हैं, ठीक वैसे आचार्य तुलसी, उन्हीं की नकल में ध्यान के शिविर लेना शुरू कर दिए। तो उसमें भी राजनीति थी। जो सीख कर गए थे ध्यान, वह करने की इच्छा नहीं थी, करवाने की इच्छा थी।
और मुनि थोथूमल तो बिलकुल ही थोथू हैं! मुझसे मिलना हुआ है; थोथेपन को देख कर ऐसा नाम दिया, अकारण नहीं। बिलकुल तोते की तरह हैं। अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन अच्छे शब्दों के उपयोग से क्या होता है! पंडित हैं। लेकिन पांडित्य ज्ञान नहीं है। शास्त्रों के ज्ञाता हैं। लेकिन शास्त्रों के ज्ञाता होने से कोई ज्ञाता नहीं होता, द्रष्टा नहीं होता। इसलिए व्याख्याएं कर सकते हैं। और इस देश में बहुत लोग उन व्याख्याओं से राजी भी होंगे, क्योंकि बहुत लोगों की भी व्याख्या वही है। उदात्तीकरण! अच्छे-अच्छे शब्द!
लेकिन उदात्तीकरण कैसे होता है कामवासना का? कामवासना का उदात्तीकरण तभी हो सकता है जब किसी ने कामवासना में उतर कर देखा हो उसकी व्यर्थता को; और न केवल उसकी व्यर्थता को, बल्कि उसमें छिपी हुई ऊर्जा की संभावना को भी। कामवासना में उतर कर दो चीजें जिसने देखीं--काम की तरह उसकी व्यर्थता और समाधि की तरह उसके भीतर छिपी संभावना, कीचड़ में कमल का बीज--उसके जीवन में उदात्तीकरण हो सकता है।
लेकिन मुनि थोथूमल और उन जैसे और लोग, ये तो भगोड़े हैं। इन्होंने जीवन को कहीं जीया नहीं है। जब मेरे पास जैन मुनि आया करते थे पूछने...। अब तो उनकी हिम्मत भी नहीं होती, अब तो इस द्वार के भीतर प्रवेश करने में भी घबड़ाहट होती है, किसी को पता चल जाए! डर तो तब भी लगता था, लेकिन इतना डर नहीं था, क्योंकि मेरे संन्यासी तब पैदा नहीं हुए थे। मैं अकेला देश में घूम रहा था। तब जगह-जगह जैन मुनि मुझे मिलते थे। और निश्चित रूप से दो ही प्रश्न अधिकतर उनमें से पूछे जाते थे। एक प्रश्न था कि ध्यान कैसे करें?
और मैं उनको कहता कि तुम मुनि हो गए और तुम्हें ध्यान का पता नहीं है! मुनि का तो अर्थ होता है जिसने मौन को अनुभव कर लिया, तुम कैसे मुनि? वस्त्र बदल लिए तो मुनि हो गए? मौन जाना ही नहीं और मुनि होने के बाद अब तुम पूछ रहे हो कि ध्यान कैसे! ध्यान के बिना तो कोई कैसे हो जाएगा मुनि?
और दूसरा प्रश्न उनका जो अनिवार्य रूप से था, विशेषकर मुनियों का, कि कामवासना का क्या करें? यह तो उभर-उभर कर आती है। अगर किसी तरह दिन भर दबा कर बैठे रहते हैं तो रात सपने में आती है, पीछा छोड़ती ही नहीं। मुनि थोथूमल ने भी यही पूछा था: ध्यान और कामवासना। और अब वे मेरी पुस्तक "संभोग से समाधि की ओर', उसके खिलाफ वक्तव्य देते हैं, लेख लिखते हैं।
और बड़े मजे की बात है, एक ऐसा जैन मुनि नहीं है, हिंदू साधु नहीं है, जो "संभोग से समाधि की ओर' न पढ़ता हो। क्या करना है तुम्हें पढ़ कर इस किताब को? करपात्री महाराज ने पूरी किताब लिखी उस किताब के खिलाफ। इतनी मेहनत! क्या प्रयोजन है तुम्हें? दो सौ किताबें हैं मेरे नाम से प्रकाशित, मगर पढ़ी एक ही किताब जाती है--संभोग से समाधि की ओर। कम से कम भारत में तो वही किताब पढ़ी जाती है, उसी की चर्चा है। मुल्ला नसरुद्दीन से लेकर मोरारजी देसाई तक, बस एक ही किताब पढ़ते हैं और उसी की चर्चा करते हैं।
जब मैंने वक्तव्य दिया कि मोरारजी देसाई को चाहिए कि और किताबें भी पढ़ें, तो उनके सेक्रेटरी का पत्र आया कि कृपा करके सारी किताबों के नाम भेजिए, हमें तो नाम ही पता नहीं हैं। तो उनको सारी किताबों के नाम भिजवाए। मगर मैं नहीं समझता कि वे और किताबें पढ़ सकेंगे, या पढ़ भी लेंगे तो समझ सकेंगे।
"संभोग से समाधि की ओर' क्यों भारत में इतनी चर्चित है?
भारत ने बहुत वर्षों तक--सदियों से--कामवासना को दबाया है। भारत की मनःस्थिति अभी भी वैसी है जैसी फ्रायड के पूर्व पश्चिम के लोगों की थी। भारत में अभी भी फ्रायड पैदा नहीं हुआ। इसलिए फ्रायड जो क्रांति पश्चिम को दे गया है वह भारत में अभी भी नहीं घटी। पश्चिम से आने वाले लोगों को मेरी बात तत्क्षण समझ में आ जाती है, क्योंकि फ्रायड ने भूमिका निर्मित कर दी है। लेकिन भारत में फ्रायड नहीं पैदा हुआ। मुझे दोहरे काम करने पड़ रहे हैं--फ्रायड का काम भी करना पड़ रहा है।
मुनि थोथूमल को कुछ अनुभव नहीं है--न संभोग का, न समाधि का। लेकिन दावे किए जाते हैं। इस देश में दावेदारी बड़े मजे की है।
आचार्य तुलसी के ही एक दूसरे मुनि--जो ज्यादा ईमानदार हैं थोथूमल से--चंदन मुनि, एक सभा में मेरे साथ बोले। कोई पंद्रह साल पहले की बात। मेरे साथ बोलना, झंझट की बात। वे मुझसे पहले बोले, उन्होंने आत्मज्ञान की बड़ी-बड़ी ऊंची बातें कीं। मैं उनके पीछे बोला और मैंने कहा कि मुझे शक है कि चंदन मुनि को आत्मज्ञान हुआ नहीं। और मैंने कहा कि छाती पर हाथ रख कर कहो कि आत्मा जानी है? ईमानदार आदमी हैं, सिर झुका कर रह गए। लेकिन मुझसे कहा कि दोपहर समय हो तो आपसे मिलना चाहूंगा। दोपहर को मिलना हुआ। और दस-पचास लोग इकट्ठे हो गए। चंदन मुनि ने कहा कि और लोगों को जाने दें, मैं बिलकुल एकांत में मिलना चाहता हूं।
मैंने कहा, बैठने दें, ये भी सुनेंगे।
नहीं, उन्होंने कहा, इन्हें तो हटा दें। मैं बिलकुल एकांत चाहता हूं।
सो सबको बाहर करके दरवाजा लगा दिया। तब उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिरे और उन्होंने कहा, आपने चोट की, बहुत चोट की! मेरा अहंकार खंड-खंड हो गया। लेकिन मैं स्वीकार करने आया हूं कि मुझे आत्मज्ञान हुआ नहीं है। मुझे कोई समाधि हुई नहीं है।
तो फिर मैंने कहा, वह सारी बकवास किसलिए थी?
तो कहा, वह तो शास्त्रों में सब लिखा हुआ है, वही मैं कह रहा था।
तो फिर मैंने कहा, वहीं क्यों नहीं हिम्मत की? सिर तो झुकाया था, कह देना था साफ कि मुझे आत्मज्ञान नहीं है।
कहा, वह कैसे कर सकता हूं? नहीं तो ये जो लोग मुझे मानते हैं, ये ही मुझे धक्का देकर बाहर निकाल देंगे। इसीलिए तो इनको मैंने कहा कि बाहर भेजो, क्योंकि इनमें बहुत से मेरे मानने वाले आ गए हैं, तेरापंथियों की भीड़ इकट्ठी है, इनको बाहर कर दो। इनके सामने मैं ईमानदारी से अपने हृदय को न खोल सकूंगा।
चंदन मुनि थोथूमल से ज्यादा सार्थक व्यक्ति हैं। चलो इतनी हिम्मत तो की। नहीं कर सके सब के सामने, माना; करते तो और भी बड़ी क्रांति होती। नहीं कह सके सभा-मंच से, माना; पर इतना भी क्या कम है कि आए तो! एकांत में आंसू तो गिराए! कहा तो कि मैं सिर्फ दोहरा रहा था तोते की तरह, मुझे कुछ पता नहीं है। आप मुझे ध्यान के सूत्र दें। आप मुझे कहें कि मैं क्या करूं।
मैंने उन्हें ध्यान के सूत्र दिए। तो कहा, यह तो मैं नहीं कर सकूंगा, क्योंकि तत्क्षण लोग पहचान जाएंगे कि यह तो आपका ध्यान है। और आचार्य तुलसी राजी नहीं होंगे और मेरे श्रावक भी राजी नहीं होंगे। मैं सक्रिय ध्यान तो कर ही नहीं सकता, कुंडलिनी ध्यान भी नहीं कर सकता, सूफी नृत्य भी नहीं कर सकता।
और मैंने कहा, यही जरूरत है। चुपचाप, जब सब लोग चले जाएं, रात एकांत में कर लिया करें।
कहा, बहुत मुश्किल है। हमें अकेले चलने की आज्ञा भी नहीं है, और साधु-संघ साथ चलता है। तो अगर रात को मैं हू-हू करूं तो वे समझेंगे कि पागल हो गए या क्या हो गया! और मैं जवाब क्या दूंगा? आपका नाम तो ले ही नहीं सकता; उसकी तो हमें वर्जना है कि आपका कहीं नाम लिया जाए कि आपसे कुछ भी सीखा है।
और ये सारे लोग देश को जगाते फिरते हैं! ये सोए हुए लोग, ये अंधे लोग अंधों को नेतृत्व दे रहे हैं।
तुम पूछते हो, आनंद वीतराग, कि बड़ा ही रोष आता है। कई बार मन को उनसे जाकर बात करने की इच्छा पैदा होती है। क्या करूं?
जाओ, जरूर जाओ! जरूर डंके की चोट पर सत्य कहो! लेकिन यह मत सोचना कि वे सुन पाएंगे कि समझ पाएंगे।
शिक्षक विद्यार्थियों की हाजिरी ले रहा था, लेकिन गयाराम नामक एक छात्र पीछे की सीट पर बैठा था और लगातार एक चूहे को देख रहा था, जो कि बार-बार अपनी पोल में आ-जा रहा था। जब शिक्षक ने गयाराम का नाम पुकारा तब उसने सुना ही नहीं। शिक्षक ने जोर से चिल्ला कर कहा, क्यों गया? छात्र हड़बड़ा कर बोला, जी नहीं, अभी पूंछ बाकी है।
तुम तो कहोगे मगर वे सुनेंगे नहीं। उनके चित्त तो किन्हीं चूहों में अटके हैं। मगर फिर भी जाओ! हिलाना-डुलाना, धक्के देना, जगाने की कोशिश करना। शायद चोट करने से जाग जाएं। जागने की क्षमता तो प्रत्येक की है--थोथूमल की भी! परमात्मा तो उनमें भी उतना ही सोया हुआ है जितना किसी और में। कौन जाने किसी शुभ घड़ी, किसी शुभ क्षण में...।
मगर अगर तुम जाकर श्रावक की तरह निवेदन करोगे तो कुछ हल नहीं होगा। तुम्हें तो क्रांति का उदघोष करना पड़ेगा तो कुछ होगा। तुम्हें तो जोर से आवाज देनी होगी, कंधे पकड़ कर हिलाना होगा, तब कुछ होगा।
एक गांव में एक धर्मगुरु आए। मुल्ला नसरुद्दीन भी सुनने गया। धर्मगुरु का उपदेश था कि दूसरों के जीवन में व्यवधान डालना हिंसा है। प्रवचन के बाद मुल्ला मंच पर पहुंचा, बोला, मैं आपको एक बढ़िया लतीफा सुनाता हूं, जरा गौर से सुनिए। लतीफा चार खंडों में है।
पहला खंड: एक सरदार जी साइकिल पर अपनी बीबी को बिठा कर कहीं जा रहे थे। रास्ते में गङ्ढा आया, बीबी चिल्लाई, जरा बच कर चलाना! सरदार जी ने साइकिल रोकी और उतर कर बीबी को एक झापड़ मार कर कहा, साइकिल मैं चला रहा हूं कि तू?
धर्मगुरु बोले, सही बात है, किसी के काम में अड़ंगा नहीं डालना चाहिए।
मुल्ला ने आगे कहा, जरा सुनिए दूसरा खंड। सरदार जी घर आए। बीबी चाय बनाने बैठी। गुस्से में तो थी ही, स्टोव में खूब हवा भरने लगी। सरदार जी बोले, देखो, कहीं स्टोव की टंकी न फट जाए! बीबी ने दाढ़ी पकड़ कर सरदार जी को एक चांटा लगाया। बोली, चाय मैं बना रही हूं या तुम?
धर्मगुरु बोले, वाह-वाह, क्या चुटकुला है! किसी के काम में बीच में बोलना ही नहीं चाहिए।
मुल्ला ने कहना आगे जारी रखा। कहा, सुनिए, अब सुनिए चौथा खंड। एक बार सरदार जी...।
धर्मगुरु ने बीच में टोका, अरे भाई, पहले तीसरा तो सुनाओ। दूसरे के बाद यह चौथा खंड कहां से आ गया?
नसरुद्दीन ने आव देखा न ताव, भर ताकत एक घूंसा धर्मगुरु की पीठ पर लगाया और बोला, चुटकुला मैं सुना रहा हूं कि तुम?
ऐसा कुछ कर सको तो आनंद वीतराग, कुछ हो सकता है। नहीं तो गए और तीन बार झुक-झुक कर नमस्कार किया तो थोथूमल सुनने वाले नहीं हैं।
और जाना उचित है, क्योंकि ऐसे लोगों को लोग अगर जा-जा कर कहने लगें तो शायद कभी न कभी बोध आए। बुरे तो नहीं हैं ये लोग, सिर्फ भ्रांत हैं। आकांक्षा तो इनकी शुभ ही है, तभी तो त्याग किया, पलायन किया, घर छोड़ दिया, मुनि हुए। कहीं न कहीं अभीप्सा तो शुभ ही है, यद्यपि दिशा भ्रांत है। जो जिसने पकड़ा दिया पकड़ लिया, मगर खोजने तो सत्य को ही निकले थे। झूठ पकड़ में आ गया, यह दूसरी बात है; झूठ को ही पकड़ कर बैठ गए, यह दूसरी बात है। लेकिन लोग बुरे नहीं हैं।
और मेरे खिलाफ भी जो बोल रहे हैं, वह कुछ जान कर बोल रहे हैं, ऐसा मत सोचना। वह बिलकुल अचेतन है। क्योंकि मैं उनकी आधारशिलाओं पर चोट कर रहा हूं। मैं उनके व्यवसाय की जड़ें काट रहा हूं। अगर मेरी बात चली तो पचास साल के बाद इस देश में जैन मुनि, हिंदू साधु खोजे से नहीं मिलेगा। संन्यासी होंगे बहुत, मगर एक अभिनव साज-सज्जा होगी उनकी, एक अभिनव जीवन-शैली होगी उनकी। वे हिंदू नहीं होंगे, जैन नहीं होंगे, मुसलमान नहीं होंगे। मस्त होंगे, अलमस्त होंगे, अलमस्ती उनका धर्म होगी।
तो जरूर अड़चन तो हो रही है। इसलिए जाओ। उनके भीतर भी कहीं शुभ आकांक्षा पड़ी है, उसे जगाओ। और ज्यादा देर न करो, क्योंकि जैसे-जैसे ये तुम्हारे मुनि बूढ़े होते जाते हैं वैसे-वैसे इनकी क्षमता कम होती जाती है, वैसे-वैसे ये सठियाते जाते हैं और वैसे-वैसे रूपांतरित होने की इनकी हिम्मत भी कम हो जाती है। इसलिए देर न करो। अगर ये जाग सकें, इनका भी भला होगा और बहुत लोग जो इनकी सुनते हैं उनका भी भला होगा।
साधारण किसी एक जन को समझाने की बजाय मुनियों को, महात्माओं को समझाना ज्यादा बेहतर है। क्योंकि वह महात्मा न मालूम कितने लोगों को भरमा रहा होगा! न मालूम कितने लोगों को भटका रहा होगा! उस एक को अगर तुम ठीक रास्ते पर ले आओ तो बहुत लोग उसके पीछे ठीक रास्ते पर आ सकते हैं।
हालांकि मामला कठिन है, क्योंकि थोथूमल अब उत्तराधिकारी होने वाले हैं। और उत्तराधिकार तो तभी मिल सकता है जब तेरापंथ की बिलकुल लकीर के फकीर की तरह चलें, उसमें इंच भर हेर-फेर न करें। सात सौ मुनियों के धर्मगुरु होने का मजा छोड़ना मुश्किल होगा।
मगर फिर भी मैं मानता हूं, आत्यंतिक रूप से मैं मनुष्य की सदभावना में भरोसा करता हूं। तुम्हारे महात्माओं तक के भीतर मैं सदभावना को स्वीकार करता हूं। कहीं न कहीं बीज में तो पड़ी है, शायद अंकुरित हो जाए--कब किस वर्षा में। शायद तुम्हारा ही निमित्त कारण बन जाए। और देर न करो, कल का क्या पता!
भविष्य पुराण में एक कथा है: मुनि थोथूमल मरे। स्वभावतः स्वर्ग पहुंचे। बड़े धर्मगुरु थे, बड़ी त्यागत्तपश्चर्या की थी, सो तत्क्षण बैंड-बाजों से उनका स्वागत किया गया। और तेरापंथियों के स्वर्ग में...।
खयाल रहे, स्वर्ग भी सब बंटे हुए हैं। कोई स्थानकवासियों के स्वर्ग में तेरापंथी नहीं घुसेगा। वह तो नरक से बदतर! और कोई दिगंबरों के स्वर्ग में श्वेतांबरी नहीं जाएगा। ऐसा पाप कभी भूल कर भी नहीं करेगा। और हिंदुओं के स्वर्ग में कोई जैन जाएगा, कदम रखेगा? छाया पड़ जाएगी तो स्नान करेगा। और फिर मुसलमान हैं, और ईसाई हैं, और यहूदी हैं, सबके अपने स्वर्ग। जैसी जमीन उन्होंने यहां बांट रखी है, यही पागल वहां पहुंच गए हैं। वहां भी बांट लिए हैं, दीवालें बना ली हैं। अपनी-अपनी दीवाल में बैठे हैं, अपना-अपना झंडा ऊंचा! और खूब शोरगुल मचाते हैं कि कोई किसी की सुनने में तो आता ही नहीं कि यह क्या हो रहा है! स्वर्ग में जैसी धूम-धाम मची है--कहीं हरि-कीर्तन हो रहा है, कहीं राम-धुन लगी है, कहीं अखंडपाठ हो रहा है माइक लगा कर। माइक वगैरह सब पहुंच गए!
तो थोथूमल तेरापंथी स्वर्ग के प्रमुख देवदूत हो गए। फिर उनके बाद ही हेमामालिनी भी मरी। वह भी स्वर्ग पहुंच गई। कैसे पहुंची कहना मुश्किल है। मगर रिश्वत कहां नहीं चलती! और फिर द्वारपाल हेमामालिनी को देख कर इनकार करे भी तो कैसे करे? खोल दिया होगा जल्दी से द्वार, घबड़ाहट में ही खोल दिया होगा। खुल ही गया होगा, पता ही नहीं चला होगा कि कब द्वार खुल गया। राह ही देख रहा होगा द्वारपाल भी कि कब हेमामालिनी आए, कब मरे। आज शुभ घड़ी आई, शुभ दिन आया।
द्वारपाल ने द्वार खोला, हेमामालिनी को देख कर बोला, आप जब यहां आ ही गई हैं तो एक बात बता देनी उचित होगी कि स्वर्ग में प्रवेश आपको एक ही शर्त पर मिल सकता है।
हेमामालिनी बोली, वह क्या है शर्त, आखिर बताइए?
द्वारपाल ने कहा, शर्त यह है कि आपको हमारे यहां के प्रधान देवदूत मुनि थोथूमल के साथ एक संकरे पुल से गुजरना होगा। वह पुल बहुत ही संकरा है और उसकी एक विशेषता है जिसे आप खयाल में रख लें तो अच्छा। आपके भले के लिए कह रहा हूं। वह विशेषता यह है कि उस पुल पर से गुजरते समय यदि आपके मन में कोई दुर्भावना या वासना इत्यादि देवदूत के प्रति मन में उठी कि आप फौरन ही नीचे गिर जाएंगी। और गिरते ही नरक पहुंच जाएंगी। सो पहले से ही सोच लें।
हेमामालिनी ने कहा, ठीक है, मैं तैयार हूं।
हेमामालिनी और मुनि थोथूमल उस पुल पर पहुंचे। और अभी अभिनेत्री दस-पांच कदम ही आगे बढ़ी होगी कि मुनि थोथूमल धड़ाम से पुल के नीचे गिर गए।
इसके पहले कि ऐसा कुछ घटे, आनंद वीतराग, जाओ! थोथूमल को जगाओ, चेताओ! अभिनेत्रियां गुजर जाएंगी, शायद वासना का विचार भी न उठे; मगर तुम्हारे मुनि, तुम्हारे महात्मा न गुजर पाएंगे। वासना ही वासना से भरे हैं। मगर इस वासना को प्रकट भी नहीं कर सकते, कह भी नहीं सकते किसी से। उनका दुख भी समझो! उनकी पीड़ा भी समझो! मैं उनका दुख भी समझता हूं, उनकी पीड़ा भी समझता हूं। इसीलिए इतनी कठोरता से भी बोलता हूं।
यह कठोरता वैसी है जैसे सर्जन की, कि चीर-फाड़ करनी पड़ेगी, मवाद निकालना होगा। मेरे मन में, उनका कुछ मंगल और कल्याण हो सके, यही कामना है। वे तो नहीं कह सकते किसी के सामने कि भीतर की क्या हालत है, क्योंकि भीतर की हालत लोगों को पता चल जाए तो जो भीड़ जय-जयकार कर रही है वह विदा हो जाएगी, तत्क्षण विदा हो जाएगी।
वह भीड़ जय-जयकार कर रही है, क्योंकि भीड़ मानती है कि तुम परम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए, परम समाधि को उपलब्ध हो गए। और तुम्हें यह धोखा बनाए रखना पड़ता है। तुम्हें यह आडंबर रचे रखना पड़ता है कि तुम उपलब्ध हो गए। तुम्हें भीड़ की ही मान्यताओं को मान कर चलना होता है, भीड़ जैसा कहे वैसा ही। नहीं तो भीड़ सम्मान नहीं देगी। यह पारस्परिक समझौता है।
भीड़ सम्मान उन्हें देती है जो भीड़ की मानते हैं। और भीड़ की वे ही मान सकते हैं जिनके जीवन में प्रज्ञा की कोई किरण नहीं फूटी है। भीड़ की कौन मान सकता है? भेड़ें मान सकती हैं, सिंह नहीं। सिंहों के नहीं लेहड़े! उनकी भीड़-भाड़ नहीं होती। सिंह तो अकेला चलता है; अकेला चल सकता है। भेड़ें नहीं चल सकतीं अकेली। भेड़ों की सुरक्षा तो भीड़ में है।
आनंद वीतराग, जाओ, जगाओ! और चूंकि तुम भी कभी तेरापंथी रहे हो, यह तुम्हारा दायित्व है कि आज तुम्हें अगर सूरज की एक किरण दिखाई पड़ने लगी है और आज अगर तुम्हें गीत की एक कड़ी पकड़ में आने लगी है, तो जरूर जाओ, जरूर उनको अपना गीत सुनाओ, जरूर अपना हृदय उनके सामने खोलो, अपने आनंद की थोड़ी उन्हें खबर दो। इतना भरोसा सदा रखना कि कोई आदमी इतना भटका हुआ नहीं है कि उसे मार्ग पर न लाया जा सके। महात्मा भी मार्ग पर लाए जा सकते हैं।
वह जो मैंने कल तुमसे कहा, वह तो सिर्फ मजाक थी। कल मैंने तुमसे कहा, किसी ने मुझसे पूछा कि क्या परमात्मा सभी जगह है? तो मैंने कहा, सिर्फ तुम्हारे महात्माओं को छोड़ कर। वह सिर्फ मजाक थी। तुम्हारे महात्माओं में भी है; बहुत गहरा सोया है, घुर्राटे भर रहा है, मगर है तो।
जरूर जाओ, जगाओ! स्मरण रखो, दूसरे को जगाने की चेष्टा में तुम्हारे स्वयं का जागरण भी घना होता है।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें