शनिवार, 19 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-14



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौदहवां प्रवचन
पूंजीवाद का दर्शन

इस वक्त तकलीफ यह है कि समाजवादी तो कह रहा है, और पूंजीवाद चुप है, वह सब देख रहा है। अपने घर में बैठ कर कह रहा है कि यह क्या हो रहा है। तब वह मर ही जाएगा, कोई उपाय नहीं है।

समाजवादी आपके पास आकर कहता नहीं है कि आप गलत बात कर रहे हैं?

मुझसे कोई आकर कहे तो मैं सदा तैयार हूं समझने को, अपनी बात समझाने को। अगर आप किसी बात को ठीक से कह रहे हैं और ठीक है बात, तो बहुत कठिनाई है एंटी सोशलिज्म की बात में। तो फिलासफी नहीं बना सकेंगे आप, इसलिए कहते हैं। जब तक आपके पास अपने आर्ग्युमेंट न हों...सोशलिज्म के पास अपने आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। आपके पास आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। आपके पास आर्ग्युमेंट नहीं हैं। और बिना आर्ग्युमेंट के आप जब कुछ कहते हैं तो ऐसा लगता है कि सिर्फ आपका इंट्रेस्ट है इसलिए आप बकवास कर रहे हैं।

असल में कैपिटलिस्ट खुद ही डिफेंस के मूड में है। यह उसकी तकलीफ है। वह खुद ही मान रहा है कि कैपिटलिज्म है तो खराब चीज, इसलिए वह लड़ नहीं पाया। उसका कारण है कि यह सारा का सारा जो है--हमारे मन तो बहुत कुछ प्रोपेगेंडा पर चलते हैं। सोशलिज्म का प्रोपेगेंडा सौ साल का है और जब भी कोई व्यवस्था बनी होती है, उसके विरोध में यह प्रोपेगेंडा करता है। वह तो प्रोपेगेंडा करता है ठीक से, लेकिन जिसकी व्यवस्था बनी होती है, वह सोचता है क्या कर लेगा? इसलिए वह कुछ प्रोपेगेंडा करता नहीं और अंत में हारता है।
सोशलिज्म ने सौ साल अपनी बात कही। उसके पास अपनी फिलासफी है, अपना रिलीजन है, अपनी साइंटिफिक चीजों के आर्ग्युमेंट हैं और कैपिटलिज्म तो चुपचाप देखता रहा है। कैपिटलिज्म को अपनी डेवलप करनी चाहिए। अगर आप डिफेंस के मूड में रहे तो हार निश्चित है। इस दुनिया में डिफेंस से कोई नहीं जीत सकता। जीतना हो तो एग्रेसिव फिलासफी चाहिए। हां, आप यही न कहें कि सोशलिज्म गलत है। आपको यह भी कहने की हिम्मत करनी पड़ेगी कि कैपिटलिज्म सही है। और उसमें मनुष्यता का कुछ हित होने वाला है, यह आपको साफ करना पड़ेगा। डिफेंस की भाषा ही हारने की भाषा है। जिस आदमी ने डिफेंस की भाषा बोलनी शुरू की, उसको समझना चाहिए कि वह हारेगा, जाएगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

कैपिटलिज्म के लिए कुछ फिलासफी चाहिए कि वह कह सके कि हम इसलिए खड़े हैं। वह फिलासफी न हो तो सिर्फ मालूम पड़ता है आप अपना पैसा बचाना चाहते हैं। पैसा बचाने के लिए इस दुनिया में बहुत उपाय नहीं हैं। और दूसरी बात है कि कैपिटलिज्म की कोई क्लास नहीं है।

तब उसे ऐसा कहना चाहिए कि हम जो कमा रहे हैं, वह आखिर बांटने के लिए कमा रहे हैं।

यह बांटने की बात तो वह शुरू करता है न, वहीं से उसने सोशलिज्म को स्वीकार करना शुरू कर लिया। उसे यह कहना चाहिए कि जो कमा रहा है, वह कमाने का मालिक है। बांटना उसकी खुशी है। किसी का अधिकार नहीं है। जिस दिन आप कहते हैं कि हम बांटने के लिए कमा रहे हैं, उस दिन तो यह भी कहा जा सकता है कि आप काहे के लिए मेहनत कर रहे हैं? मेरा तो कहना यह है कि बांटना खुशी है, किसी का अधिकार नहीं। और जिस दिन हम कमाने वाले को मजबूर करते हैं कि वह गैर कमाने वाले को बांट दे, उस दिन हम इनजस्टिस कर रहे हैं। और ऐसी सोसाइटी अनजस्ट सोसाइटी है।
सच्चाई यह है कि जो नहीं कमा रहा है, उसको भी इंसेंटिव दो कि वह भी कमा सके। और मेरी अपनी समझ यह है कि जिस दिन कैपिटल एफ्लुएंट हो जाती है, उस दिन वह बंटना शुरू हो जाती है। आपको बांटना नहीं पड़ता। मेरा कहना यह है कि सोशलिज्म जो है, इट विल कम एज ए बाइ-प्रोडक्ट।
कैपिटलिज्म ठीक से विकसित हो तो सोशलिज्म आता है, बल्कि तभी आता है। और कोई रास्ता नहीं है उसको लाने का। जिस दिन संपत्ति ज्यादा हो जाए वह बंटेगी; क्योंकि संपत्ति का उपयोग करना पड़ता है। उपयोग से वह बंटती है। और जिस दिन ज्यादा हो जाती है उस दिन करिएगा क्या? अभी असल में उसको पकड़ने का मजा ही यह है कि वह बहुत कम है। दो के पास है और हजार के पास नहीं है। तो वे दो सख्त इंतजाम करते हैं उसको पकड़ने का। कल को हजार के पास हो तो पकड़ ही खो जाती है। असली सवाल यह नहीं है कि कैपिटलिज्म कैसे आ जाए? असली सवाल यह है कि एफ्लुएंट कैपिटल कैसे पैदा हो?
असल में जो है, वह यह है कि इतनी संपत्ति पैदा हो जाए कि संपत्ति पर पकड़ खो जाए। अगर ऐसा नहीं होता है सोशलिज्म संभव ही नहीं है। और जब आप भी कहते हैं कि हम बांटने के लिए ही कमा रहे हैं, तभी आप गलत बात करना शुरू कर देते हैं। वह झूठी बात कह रहे हैं। और जब आप भी कहते हैं कि हम बांटने के लिए ही कमा रहे हैं, तभी आप गलत बात करना शुरू कर देते हैं। वह झूठी बात कह रहे हैं। और यह ध्यान रखिए कि झूठी बात में कोई बल नहीं होता। और जो मैं कह रहा हूं वह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि कैपिटलिस्ट बचना चाहिए। अगर बचाने के लिए कह रहा हूं तो बचने वाला नहीं है मामला।
नहीं, मुझे तो लगता यह है कि कैपिटलिज्म के पास अपनी वैल्यूज हैं, जो सोशलिज्म के पास नहीं है। और उन वैल्यूज को बचाना चाहिए। वह वैल्यू सोशलिज्म में नहीं बचेगी। यानी मुझे कैपिटलिज्म से कोई मतलब नहीं। कुछ वैल्यूज हैं, डेमोक्रेटीज हैं, फ्रीडम हैं। ये वैल्यूज कितनी कीमती हैं, मनुष्य-जाति की हजारों साल की बामुश्किल तकलीफ के बाद हम उन तक पहुंचे हैं। और उनके हम दो मिनट में खो सकते हैं।

वह कोई बोलने को तैयार नहीं है। यह तकलीफ है।

मैं बोलने के तैयार हूं।

आप कैपिटलिस्ट नहीं हैं।

यही सुविधापूर्ण है। मैं अगर कैपिटलिस्ट हूं तो मेरा बोलना बहुत अर्थपूर्ण नहीं है।

सारी दुनिया सोशलिज्म की बात करती है और वे ही नारे लगा रहे हैं।

उसका कुछ मामला नहीं है। सौ साल से प्रचार कर रहे हैं। दूसरी बात यह है धनपति अल्प मत है। दुनिया में इस समय सबसे छोटी माइनारिटी धनपति की है। गरीब मेजारिटी में हैं। तो गरीब कीर् ईष्या को भड़काएगा। लेकिन सवाल यह है कि गरीब कीर् ईष्या को भड़काने से गरीब का हित है? यानी मेरी अपनी समझ यह है कि उसकीर् ईष्या भड़का सकते हो, पूंजीपति को मिटा भी सकते हो, पूंजीवाद की पूरी सिस्टम भी तुड़वा सकते हो। अब इसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन इससे गरीब का कोई हित नहीं होगा। यह गरीब को कहना पड़ेगा। और गरीब को भड़काया जा रहा है जिस बात से वह यही है कि उसका हित होगा।
अगर हम गरीब को यह समझा पाएं कि उसका हित नहीं, अहित होगा तो मामला खतम हो जाए। लेकिन आप सोचते हो कि कैपिटलिज्म के हित के लिए गरीब को राजी किया जा सके तो आप गलती में हैं। गरीब को यह खयाल साफ होना चाहिए कि कैपिटलिज्म उसके हित में है। और इसलिए मैं कह रहा हूं कि कैपिटलिज्म की पूरी फिलासफी, पूरा आर्ग्युमेंट, वह कैसे विकसित हुआ है, उसने क्या दुनिया के लिए दिया है, उसका क्या रोल है, उस सब को साफ करना चाहिए। उसको खोकर क्या खो जाएगा, इसकी बात जाहिर करनी चाहिए कि जस्टिस की सारी हैसियत खो जाएगी। यही सारी बात उसको साफ करनी चाहिए।

आपने अपने लेक्चर में जो समझाया कि आदमी एक मशीन हो जाता है, वह बहुत अच्छी बात आपने बताई। क्योंकि आत्मा बहुत इंपोटेंट है।

क्योंकि सोशलिज्म का सबसे बड़ा खतरा वही है। सोशलिस्ट फिलासफी बेसिकली मैटिरिअलिस्ट है। अब यह बड़े मजे की बात है कि हम आमतौर से कैपिटलिस्ट को मैटिरिअलिस्ट कहते हैं। बेसिकली मैटिरिअलिस्ट सोशलिस्ट है।

उसकीर् ईष्या कुछ कम हो जाए, ऐसा कुछ रास्ता बनाना चाहिए।

उसके रास्ते जरूर बनाने पड़ेंगे। उसकीर् ईष्या बढ़ाने में भी हम रास्ता बनाते हैं। असल में मेरी समझ यह है कि कैपिटलिस्ट एज ए क्लास कांशस होना चाहिए। अगर कैपिटलिस्ट उत्सुक भी होता है तो वह कैपिटलिस्ट इंडिविजुअल की हैसियत से अपने को बचाने को उत्सुक है। अगर "अ' नाम का कैपिटलिस्ट उत्सुक है तो वह अपने को बचाने को उत्सुक है। और अगर "ब' नाम के कैपिटलिस्ट को नुकसान पहुंचाता है तो वह खुश हो रहा है। बल्कि वह सारी कोशिश कर रहा है कि "ब' को नुकसान पहुंच जाए।
कैपिटलिस्ट एज ए क्लास कांशस नहीं है। उसके अपने-अपने इंडिविजुअल इंट्रेस्ट हैं, हित हैं, उसके लिए उत्सुक है। अगर बिड़ला उत्सुक है तो टाटा को नुकसान पहुंचाने में उत्सुक हो जाता है। कैपिटलिज्म की यह जो तकलीफ है नीचे का वर्ग है, दीन है, दरिद्र है, वह क्लास की तरह कांशस हुआ है। अगर आप क्लास की तरह कांशस होते हैं, तो आप सोच सकते हैं कि ह्यूमन रिलेशनशिप हमारी जो आज है, "हैव और हैव नाट' के बीच जो संबंध है, उसे बदलते पड़ेंगे। और थोड़ी सी बदलाहट से बहुत कुछ बदलेगा। यानी मेरी अपनी समझ यह है कि कैपिटलिज्म में अभी जो मैनेजमेंट है, वहर् ईष्या जगाने वाला है। उस मैनेजमेंट में बहुत रेवोल्यूशन चेंज की जरूरत है, और ह्यूमन एलिमेंट की कीमत बढ़ाने की जरूरत है।
मजदूर की हैसियत सिर्फ मजदूरी से नहीं आंकी जानी चाहिए। एक मनुष्य की हैसियत से ही उसकी हैसियत है। और उस मामले में वह बिलकुल आपके बराबर है। एक तो ह्यूमन साइकोलाजी और ह्यूमन रिलेशनशिप, ह्यूमन इंजीनियरिंग पर बहुत काम करने की जरूरत है। सोशलिज्म का सारा प्रभाव गरीब और अमीर के बीच गलत संबंधों का परिणाम है। उन संबंधों को बिलकुल बदला जा सकता है।

मजदूर और जो फार्मर्स हैं, उनको कैपिटलिस्ट की फिलासफी में एक दफा जो इंवाल्वड कर दें। ऐसा कोई आइडिया लगाएं तो मेजारिटी कनवर्ट नहीं हो जाएगी?

यह तो बात ठीक है। लेकिन यह बात बहुत पीछे भी है। लंबी सी नहीं है। एक दफा कैपिटलिज्म एज ए फिलासफी पूरा मुल्क स्वीकार कर ले, तब यह हो सकता है, जो आप कह रहे हैं। जब तक आप पूरा मुल्क कैपिटलिज्म को एज ए फिलासफी स्वीकार न कर ले, एज एक मोड ऑफ लीविंग, स्वीकार न कर ले, तब तक जो आप कह रहे हैं, वह नहीं हो सकता।

समाजवाद से सावधान जो आपकी सीरीज है, उसके साथ मिल कर कुछ करने को हो तो आप उसे कैसे आगे बढ़ाएंगे? यह जो क्लास कांशसनेस पैदा करने की बात है न, उसके लिए निश्चित ही कुछ बातें की जा सकती हैं कि वह क्लास कांशस कैसे हो? एक तो कुछ छोटे ग्रुप सेमिनार--जैसे किसी हिल स्टेशन पर दस-बीस मुल्क के खास तरह के लोग छह-सात दिन के लिए इकट्ठे हो जाएं। एक बार यह खयाल आ जाए कि क्लास की तरह आप बच सकते हैं और कोई रास्ता बचने का नहीं है। और सवाल एक कैपिटलिस्ट के या दूसरे कैपिटलिस्ट के बचने का नहीं है, यह बात खयाल आ जाए। और यह खयाल लाया जा सकता है। इसके लिए चिंतन पैदा किया जा सकता है। इसके लिए ऐसे ग्रुप हो सकते हैं जो इस पर सारी खोजबीन करें। इकोनॉमिस्ट हो सकते हैं, जो इस पर सारी की सारी बात करें। और एक पूरी की पूरी फिलासफी, सोशलिज्म जो भी कह रहा है, उसके ठीक मुकाबले, पॉइंट टू पॉइंट, ठीक मुकाबले फिलासफी रखने की बात है। उसे प्रचारित करने की बात है। सारे मुल्क में उसका साहित्य फैलाने की बात है।
अब क्या मजा हो रहा है? मजा यह हो रहा है कि सोशलिस्ट कंट्रीज से, कम्युनिस्ट कंट्रीज से हिंदुस्तान में जो भी प्रचार करते हैं, उनकी डायरेक्ट योजना है, जो प्रचार करते हैं। बीच में गवर्नमेंट नहीं है मामले में। बीच में कोई और नहीं है। हिंदुस्तान का कम्युनिस्ट है, हिंदुस्तान का सोशलिस्ट है। कम्युनिज्म कंट्रीज से उसका सीधा संबंध नहीं है। साहित्य पहुंचा रहे हैं। कैपिटलिस्ट कंट्री अगर कुछ भी हिंदुस्तान के लिए करती है तो वह वाया गवर्नमेंट करती है। कैपिटलिस्ट कंट्री ने सोशलिस्ट मुल्कों के लिए करोड़ों रुपये खपा दिए। चीन में अमरीका ने करोड़ों अरबों रुपये खपाए। वे फिजूल गए। और हिंदुस्तान में फिजूल जाएगा। उसका कोई मतलब होने वाला नहीं है।
यानी अमेरिका का रुपया अमेरिका के प्रति सदभाव पैदा नहीं करता है, बल्कि यह भाव पैदा करता है कि यह बदमाश है और हमको चूसने के लिए है। पैसा हम उनका खा जाएंगे, गेहूं खा जाएंगे और उसका कोई परिणाम नहीं है। मेरा मानना है, वह वर्ल्ड कैपिटलिज्म ही एज ए क्लास कांशस नहीं है। सारी दुनिया के कैपिटलिस्ट को यह फिक्र करनी चाहिए। जिन-जिन मुल्कों में कैपिटलिज्म डूब रहा है, वहां उसका डायरेक्ट प्रोपेगेंडा होना चाहिए वाया गवर्नमेंट नहीं। क्योंकि एशिया की सभी गवर्नमेंट, आज नहीं कल, सोशलिस्ट हो जाएंगी। क्योंकि जहां गरीब की मेजारिटी है, वहां कोई गवर्नमेंट ज्यादा देर तक कैपिटलिस्ट नहीं रह सकती। वह समस्या ही नहीं है। क्योंकि उसको वोट जिससे लेना है, उसे उसकी बात करनी पड़ेगी। और आज नहीं कल, यह सवाल कोई हिंदुस्तान का नहीं है।
पूरा एशिया एक न एक दिन कम्युनिस्ट हो जाने वाला है। इसलिए गवर्नमेंट के माध्यम से जो भी पैसा आएगा, वह कैपिटलिज्म के किसी काम में आने वाला नहीं है। उसका कोई मूल्य नहीं है। यह समझ लें कि कभी बिहार में कल्पना थी कि दो करोड़ के आस-पास लोग मरेंगे, लेकिन अकाल में चालीस ही लोग मरे। सारी दुनिया से उसके लिए पैसे आए, लेकिन उससे बिहार के गरीब में आप पैसे वालों के प्रति सदभाव पैदा नहीं कर सके। उससे कुछ मतलब नहीं है। वह एक इतना बड़ा मौका था कि सारे हिंदुस्तान के गरीब हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं, उसके प्रति कैपिटलिज्म के प्रति सदभाव पैदा हो सके। या अगर किसी ने कुछ किया या कोई कुछ करता है तो उसको पर्सनल आदर मिलता है। उसके कैपिटलिज्म के लिए कुछ भी नहीं मिलता है। वह एक आदमी को आदर मिल जाता है कि फलां आदमी ने इतना काम किया, बहुत अच्छा काम किया।
आप जो करते हैं, उसका एज ए क्लास कोई मतलब नहीं होता है। आप एक कालेज बनाए, एक युनिवर्सिटी बनाए, हास्पिटल बनाए, वह एक आदमी का होता है। और गरीब जो है वह आपके प्रति क्लास की तरह दुश्मन हो रहा है। यह आपको खयाल में नहीं आ रहा है। यह कांफ्लिक्ट सारी की सारी है। यह कांफ्लिक्ट यह है गरीब एज ए क्लास और कैपिटलिस्ट एज ए इंडिविजुअल। इस फाइट में जीत होना असंभव है। जीत नहीं हो सकती।
दूसरा मेरा मानना यह है कि वर्ल्ड कैपिटलिज्म को भी कांशस किया जाना चाहिए। हिंदुस्तान दस साल में डूब जाएगा और डूब जाने के बाद निकालना असंभव है। एक दफा माओ के हाथ में चीन गया तो अब कोई उपाय नहीं है। एक दफे गया तो कोई उपाय नहीं। और आप हैरान होंगे कि दो साल से ज्यादा बंगाल नहीं रुकेगा अब। रुकना असंभव हो जाएगा। बंबई में जो बैठा है, वह सोचता है बंगाल जा रहा है, क्या मतलब है? और उसको पता नहीं कि बंगाल जाता है तो हिंदुस्तान जाने का दरवाजा खुल जाता है। और बंगाल जाएगा तो आप बैठे देखते रहेंगे। उसके लिए पूरे हिंदुस्तान का कैपिटलिस्ट क्या कर रहा है कि बंगाल न जाए? उसके कोई खयाल में नहीं है बात। यानी सारी ताकत बंगाल में लग जानी चाहिए। सारी फिक्र छोड़ दें। वहां गरीब के लिए क्या कर सकते हैं? वहां रिलेशनशिप बदलने के लिए क्या कर सकते हैं? वहां जो गैंग्स पैदा हो रहे हैं उनके तोड़ने के लिए क्या कर सकते हैं? सारी ताकत बंगाल पर लगा देनी चाहिए।
लेनिन ने आज से पचास साल पहले कहा था कि मास्को से लंदन तक कम्युनिज्म का जो रास्ता है, वह पेकिंग होता हुआ, कलकत्ता होता हुआ जाएगा। और उसकी भविष्यवाणी बड़ी अदभुत है। पेकिंग तो तो गया और कलकत्ता तक पगडंडियां आ गईं, रास्ता बन जाएगा दो साल के अंदर। और मजा यह है, जब भी आप चिंतित होते हैं, जब भी मैं ऐसे आदमी से बात करता हूं, मुझे लगता है कि वह इसी में उत्सुक है कि वह कैसे बच जाए? आपके बचने का कोई मतलब ही नहीं है। आप बचते हैं या नहीं बचते हैं, यह बहुत मूल्य की बात नहीं है। एक सिस्टम बचती है कि नहीं यह सवाल है। तो जब आप उत्सुक होते हैं तो आप सोचते हैं कि मैं कैसे बच जाऊं?
इधर माक्र्स ने सौ वर्ष पहले कम्युनिस्टों के लिए लिखा हुआ है कि दुनिया के गरीबो, इकट्ठे हो जाओ, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है। जब तुम्हारे पास खोने सब खोने को है सिवाय जंजीरों के। और सब खो दोगे तो जंजीरें ही बचेंगी और कुछ बचने वाला नहीं है।
मेरी समझ यह है कि हमें क्लास के लिए कांशसली सारी एफर्ट करनी चाहिए और एफर्ट बिलकुल हो सकती है। आज की दुनिया में, जहां कि प्रोपेगेंडा बिलकुल ही साइंटिफिक मैथडालॉजी हो गई, जहां कि कोई भी फिजूल चीज दिमाग में डाली जा सकती है, जहां कोई भी चीज बेची जा सकती है। आज जब हमारे पास साइंटिफिक मीडिया है सारा का सारा...यानी बड़ा मजा यह है कि गरीब जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह जीतेगा। और अमीर जिसके पास सब कुछ है, वह हार जाएगा। जिसके पास सब इंतजाम है, जो सब कर सकता है, वह हारेगा सिर्फ इसलिए कि उसको खयाल ही नहीं है कि वह भी जीतने के लिए एक कलेक्टिव एफर्ट कर सकता है एज एक क्लास...।
एक तो क्लास कांशसनेस नहीं है इसलिए हारेगा। दूसरा, ज्यादा लंबा वक्त नहीं है। आप दो-चार साल में कुछ करते हैं तो करते हैं, अन्यथा करने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। उसे बहुत तीव्रता से करना है। और हिंदुस्तान में सीधी पोलेरिटी खड़ी करने की जरूरत है।
हिंदुस्तान की पॉलिटिक्स में भी पोलेरिटी लाने की जरूरत है। हिंदुस्तान की पॉलिटिक्स में भी क्या बेवकूफियां हो रही हैं कि वह जो सोशलिज्म की बात कर रहा है, वह तो कर ही रहा है। जो सोशलिज्म नहीं चाहता है, वह भी बात सोशलिज्म की कर रहा है। वह भी यह सोचता है कि सोशलिस्ट शब्द की कीमत है, इसका उपयोग ले लो। उसको पता नहीं है कि इसका उपयोग तुम न ले पाओगे, सोशलिस्ट तुम्हारा उपयोग ले लेंगे। सोशलिस्ट शब्द इतना बड़ा है कि कैपिटलिस्ट भी सोचता है कि हम भी सोशलिस्ट की बात करके और इस शब्द की आड़ में बचा लें अपने को। उसे पता नहीं, वह शब्द का प्रचार करके शब्द उसको भी ले डूबे।
पोलेरिटी साफ होनी चाहिए कि कौन एंटी-सोशलिस्ट है। और इस पोलेरिटी को साफ करने की फिक्र करनी चाहिए। कौन सी पॉलिटिक्स पार्टी सोशलिस्ट है, इसकी बात होनी चाहिए, क्योंकि सोशलिस्ट पार्टी साफ बात बोलती है। वह कंफ्यूज्ड नहीं है, आप कंफ्यूजन क्रिएट करते हैं, आप लफ्फाजी करते हैं। आप मानते हैं कि सोशलिज्म नहीं आने देना है, लेकिन बातें फिर भी सोशलिज्म की करनी हैं। और जब दुश्मन के शब्द का आप उपयोग करें तो समझें कि आपकी हार शुरू हो चुकी है, आप हार चुके हैं। वस्तुतः अब आपके जीतने की आशा बहुत नहीं है।

आप साफ बात करने की सलाह देते हैं, लेकिन उसका मार्क्सिस्ट के ऊपर रिएक्शन क्या होगा?

आप नहीं समझते, मार्क्सिस्ट के ऊपर सत्य का सदा रिएक्शन अच्छा होता है। और कंफ्यूज्ड आदमी पर, और दोहरे चेहरे वाले आदमी पर रिएक्शन अंततः बुरा होता है। आप आज भले थोड़ा सा धोखा दे लें, लेकिन कल देखेंगे कि आपकी सब टैक्टिक्स तो कैपिटलिज्म को बचाने की बात है और बात आप सोशलिज्म की करते हैं। आप बेईमान आदमी हैं। और कैपिटलिस्ट की बाबत जो सबसे बड़ा खयाल है, वह उसकी बेईमानी का है। कैपिटलिस्ट के बाबत आनेस्ट होने का खयाल नहीं है मार्क्सिस्ट को। तो आप ईमानदारी की कोई छाप भी नहीं छोड़ पाते हैं। और उसका कारण यह है कि आप जिसको कहते हैं कि दोहरी चालें हैं, डबल बाइंड खेल खेलना चाहते हैं, वह सब गलत बात है। मैं कहता हूं, हारते हैं तो आनेस्टली हारें यानी अगर कैपिटलिस्ट हारता है तो आनेस्टली हारे--यह जानते हुए कि हम हारे, और हम लड़े और हमने आपसे फाइट की। और दस साल बाद जब हिंदुस्तान मरे सोशलिज्म की बात करेंगे, तो कल आप यह भी लौट कर नहीं कह सकेंगे कि हमने तुमको इनकार किया था, हमने तुम्हें बचाना चाहा, हमने तुम्हें रोकना चाहा--यह कहने के लिए आपके पास मुंह नहीं रहेगा।
मैं यह मानता हूं कि फाइट आनेस्ट हो। इस वक्त आपको पॉलिटिक्स न बचा सकेगी, आनेस्टी बचा सकेगी। फाइट हो और वह इतनी साफ हो तो हमको पता चले कि पोलेरिटी क्या है, तब हम पोलेरिटी पैदा भी कर सकेंगे। आज तकलीफ यह है कि आप किसी राजनीतिज्ञ को पक्का नहीं जानते कि वह क्या है? वह जब देखता है कि आपसे कुछ फायदा है तो आपके पास खड़ा होता है और जब देखता है कि नहीं कुछ फायदा है, तो गरीब के पास खड़ा होता है। वह देखता है कि उसका क्या फायदा है। लेकिन न आपसे मतलब है, न गरीब से मतलब है। आपको साफ करना पड़ेगा कि कैपिटलिज्म क्लास ऐसी पार्टी से, पॉलिटिक्स लीडर से, पोलिटिकल प्रोग्राम से साफ फाइट देगी। ऐसा नहीं कि वह पीछे-पीछे चलाएगी। चैंबूर की बैठक हो तो उसको भी इंदिरा गांधी ही नॉमिनेट करेगी। इस गधा-पच्चीसी से काम नहीं चलेगा, क्योंकि दोहरी तरकीबें हैं। और यह है कि वह आपको ही गाली देगी और करेगी क्या?
मेरा कहना है कि आनेस्ट फाइट की तैयारी करनी चाहिए। डिसआनेस्ट फाइट का तो मुझे कुछ मतलब नहीं मालूम पड़ता है। उससे तो आप हारेंगे और सारी दुनिया में हारेंगे। मजा यह है कि जो आप यहां कर रहे हैं, वही चीन का कैपिटलिस्ट भी कर रहा है--वही टैक्टिक्स। वही बर्मा का भी कर रहा है, वही रूस में भी हो रहा है, वही इंग्लैंड में भी हो रहा है। यानी मजा यह है कि इस इतिहास से कुछ भी नहीं सीखते हैं। हम कभी-कभी रूटीन ट्रिक्स उपयोग करते हैं और देख लेते हैं, वह दस जगह मार नहीं पाते, फिर हम वही करेंगे।

आप आनेस्ट फाइट की बात करते हैं, पहले आनेस्टी तो आनी चाहिए?

आनेस्टी का मामला ऐसा है कि वह आपके लाने से नहीं आने वाली है। कम से कम फाइट तो बिलकुल आनेस्ट हो सकती है। इसमें आप क्या कर रहे हैं, इससे कोई संबंध नहीं है? फाइट तो बिलकुल आनेस्ट हो सकती है। एक दफा यह खयाल आपको साफ हो जाए। मैं मानता हूं कि आपको भी यह साफ नहीं है कि कैपिटलिज्म के पास कोई वैल्यू है। आपको भी यह साफ है कि कैपिटलिज्म में हमारे पास एक बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, बड़ा इंतजाम है।
कैपिटलिज्म के पास कोई वैल्यूज हैं बचाने को, जिनसे मनुष्यता को कोई हित होगा। तो सोशलिज्म के पास कुछ एंटी-वैल्यूज हैं, जो मनुष्यता को नुकसान पहुंचाएगी, यह आपको ही कोई साफ नहीं है। मैं जो समझता हूं वह यह कि कैपिटलिस्ट को ही समझाने की जरूरत है कि कैपिटलिज्म मूल्यवान चीज है, जिसको तुम मर मत जाने देना। बड़ा मामला उलटा है। यानी मामला ऐसा नहीं है कि आपको पता ही है। और जब आप कहते हैं कि हां, बचना चाहिए तो आपको अपना ही खयाल है कि यह बच जाए तो मैं बचता हूं, नहीं तो नहीं। और कुछ मतलब नहीं है आपका। इसलिए मैं कह रहा हूं कि कैपिटलिज्म एज ए फिलासफी ऑफ लाइफ कभी न हो पाएगा। उसकी हमें फिक्र करने की जरूरत है। और वह फाइट न केवल हिंदुस्तान के लिए मूल्यवान होगी, सारे वर्ल्ड के कैपिटलिज्म के लिए मूल्यवान हो सकती है।
असल में अब कंट्री का सवाल ही नहीं है। कैपिटलिस्ट या सोशलिस्ट कंट्री का अब सवाल नहीं है। जैसा कि माक्र्स ने मजदूरों के समझाया है कि तुम्हारी कंट्री नहीं है; और दुनिया में दो कंट्री हैं--एक गरीब है और एक अमीर। लेकिन कैपिटलिस्ट अभी भी बिलकुल आउट ऑफ डेटेड बातें कर रहा है। वह कह रहा है कंट्री फलां। उसको भी साफ होना चाहिए कि दुनिया में दो ही क्लास हैं। और दो ही कंट्री हैं। क्योंकि उसका भी हिंदुस्तान के मजदूरों से उतना संबंध नहीं है, जितना अमेरिका के कैपिटलिस्टों से संबंध है। और कल अगर एग्झिस्टेंस को एक नया ढंग देना है या बदलना है तो सारे वर्ल्ड कैपिटलिस्ट को एक खयाल होना चाहिए कि उसके पास एक फिलासफी है जिसको बचाना है। और यह जो पिछले अतीत की बातें करते हैं, उसके तो बहुत दूसरे कारण हैं। कैपिटलिज्म के ऊपर कभी हमला नहीं हुआ। हमला पहली दफा सौ वर्षों में पैदा हुआ है। यह ऐतिहासिक घटना पहले कभी थी नहीं। हमला था एक मुल्क का दूसरे मुल्क के ऊपर। एक वर्ग का दूसरे वर्ग के ऊपर। दुनिया में कभी हमला ही नहीं हुआ था। यह हमला बिलकुल पचास साल की ईजाद है। और वह ईजाद इसलिए हो सकी, और कारण भी हैं साफ उसके।
दुनिया में मजदूर कभी एक जगह इकट्ठा नहीं हुए; इसलिए क्लास कांशसनेस कभी पैदा न हो सकी। एक आदमी आपके घर में काम करता था और एक मेरे घर में काम करता था। एक आपके प्रति मानता था, किसी के घर में रोटी बनाता था। वह इकट्ठा कभी था नहीं। इंडिस्ट्रीयलाइजेशन के बाद एक-एक लाख मजदूर इकट्ठे होते हैं। जब एक लाख मजदूर इकट्ठा हुआ तो सारा मामला बदल गया। कैपिटलिस्ट अकेला है। मजदूर भी अकेला था, कैपिटलिस्ट भी अकेला था। और कैपिटलिस्ट मजदूर से ज्यादा ताकतवर था। मजदूर तो इकट्ठा हो गया है लाख की तादात में एक जगह, और कैपिटलिस्ट चार रह गए एक जगह। और उन चारों की भी इंट्रेस्ट एक-दूसरे के विपरीत होने से वे कभी खड़े नहीं होते। और मजदूर इकट्ठा खड़ा हो गया। आप समझ रहे हैं?
दुनिया में जो डायनामिक्स है, वह बड़ी अजीब है। जैसे कि यूथ का प्रॉब्लम है, वह कभी भी नहीं था, क्योंकि यूथ भी इकट्ठे नहीं हुए। यूनिवर्सिटी में इकट्ठे हो गए। और प्रॉब्लम ही नहीं था; एक बाप था, उसका बेटा था। बाप हमेशा बेटे को दबा लेता था। आज दस हजार बेटे एक जगह इकट्ठे हो गए हैं और दस हजार बाप कहीं भी इकट्ठे नहीं हो रहे हैं, इसलिए फाइट मुश्किल हो गई है। कठिनाई जो है, बाप अकेला पड़ गया है, दस हजार बेटे इकट्ठे हैं। तो दस हजार बेटे बाप की बात मानने वाले नहीं हैं। एक बेटा तो एक बाप को मानता ही था, मानना ही पड़ता था, कोई उपाय नहीं था। क्योंकि उस फाइट में बाप हमेशा जीत जाता था। इसलिए दुनिया में जेनरेशन की फाइट कभी भी नहीं हुई। यूनिवर्सिटी की वजह से जेनरेशन की फाइट पैदा हो गई। अब वहां दस हजार लड़के हैं जो कि एक जेनरेशन के हैं। और दस हजार बाप कहीं इकट्ठे नहीं हैं जो कि एक जेनरेशन के हैं। लड़ेंगे कैसे? बाप हारेगा। बाप की कोई क्लास नहीं है, बेटे की क्लास है। यह सारी बात साफ करनी पड़ेगी। अगर यह सारी बात साफ हो तो बात हल हो सकती है। इससे कोई अड़चन नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इसमें दो तीन बातें खयाल में लेने की जरूरत है। पहली बात कि जो आप कहते हैं, सोशलिज्म के बहुत से मोड्स और हैं उसमें पचास साल में बहुत फर्क हुआ है। ये दोनों बातें ठीक हैं। लेकिन बेसिकली सोशलिज्म की आत्मा एक है और जो मोड्स का फर्क है वह केवल सिचुएशंस का फर्क है। यानी जिस मुल्क में फ्रीडम ज्यादा है, वहां सोशलिज्म दूसरा रुख होगा। क्योंकि उसको किसान को भड़काना है। जिस मुल्क में मिडिल क्लास ज्यादा बड़ी है, वहां सोशलिज्म कम्युनिज्म की शक्ल नहीं लेगा। वहां सोशलिज्म डेमोक्रेटिक सोशलिज्म और दूसरी शक्ल लेगा। क्योंकि उसको मिडिल क्लास पर निर्भर रहना पड़ेगा। लेकिन बेसिक स्प्रीट सोशलिज्म की एक है। और यह जो जितने मोड ऑफ एग्झिस्टेंड और वहां कौन से क्लास को एक्सप्लाइट करके कम्युनिज्म लाना है, इस पर निर्भर कर रहा है। बाकी बेसिक फर्क नहीं है। बेसिक बुनियाद एक है।
और पचास साल में जो भी फर्क पड़े, वह फर्क फाइट के अनुभव से पड़े। उससे स्प्रीट में कोई फर्क नहीं पड़ा। फाइट के अनुभव में फर्क पड़ा। यह समझ में आया है कि अब जरूरी नहीं है कि तलवार के द्वारा और बंदूक के द्वारा एक क्रांति की जाए। अब डेमोक्रेसी का भी उपयोग किया जा सकता है। इसलिए अब डेमोक्रेसी की बात डाल दी जाए बीच में।
सवाल यह है कि--सोशलिज्म के सामने सवाल है कि किसी भी तरह शासन हाथ में होना चाहिए, स्टेट हाथ में होना चाहिए। वह उसकी बेसिक मांग है, क्योंकि वह स्टेट के बिना कुछ भी कर नहीं सकता। अब एक दफा स्टेट उसके हाथ में हो तो वह नेशनेलाइजेशन कर सकता है सारी व्यवस्था का। वह कैपिटलिस्ट को एज ए क्लास विदा कर सकता है। स्टेट कैसे हाथ में हो इसकी टैक्टिक्स में फर्क पड़ता है। लेकिन स्टेट हाथ में हो यह बेसिक खयाल छूटता नहीं। और स्टेट हाथ में आते ही देश की कैपिटल स्टेट की हो जाए, यह भी खयाल में भेद पड़ता नहीं।
मैं जो बेसिक बातें मानता हूं वह दो हैं--एक तो प्रोडक्शन के जितने भी मीन्स हैं, वे स्टेट के हाथ में हों। यह सोशलिज्म की बेसिक बात है। और दूसरी बात--स्टेट सोशलिस्ट के हाथ में हों। स्टेट ओनरशिप हो और स्टेट पर डिक्टेटरशिप हो, ये उनके दो बेसिक खयाल हैं। इसमें हर मुल्क में अलग-अलग फर्क पड़ता है। उन फर्क की कोई कीमत नहीं है, वे सब धोखे के हैं, जब आप यह कहते हो।
दूसरी बात जब आप कहते हैं कि हमें नई जेनरेशन इधर जो आज--यूनिवर्सिटी हो या कालेज हो या पिछले पचास साल की जो भी हवा हो, वह सारी की सारी हवा में नये जेनरेशन को सोशलिस्ट माइंड ज्यादा अच्छी तरह इंवाल्व किया हुआ है। आप सब उसमें सहयोगी हैं। हम पता नहीं चलता कि हम किस तरह सहयोग दे रहे हैं, लेकिन हम सब सहयोगी हैं। अगर एक कैपिटलिस्ट को भी एक थैली दिलवानी है तो जयप्रकाश नारायण से दिलवानी है। हमको पता नहीं है कि इनडायरेक्टली पूरी जेनरेशन को सोशलिज्म के लिए तैयार कर लिए हैं। तो नई जेनरेशन का जो माइंड है, वह तो सोशलिस्ट पैटर्न में ढला हुआ माइंड है। उसकी तो मांग है। कैपिटलिस्ट की बात सुन कर खयाल में न आएगा कि आप क्या बात कर रहे हैं।
मेरी अपनी समझ यह है कि वह जो ओल्ड जेनरेशन है, बेसिक फाउंडेशन उसको ही बनाना पड़ेगा। बेस उसी को बनाना पड़े और वही बेस बन सकती है। क्योंकि उसके दिमाग में सोशलिज्म का प्रोपेगेंडा इतनी गहराई तक रूटेड नहीं है। उधर से जल्दी काम हो सकता है। जैसे कि सोशलिस्ट को लगता है कि ओल्ड जेनरेशन काम में नहीं लाई जा सकती। सोशलिस्ट को लगता है कि नई जेनरेशन काम में लाई जा सकती है। और आपको भी लगता है कि नई जेनरेशन काम में लाई जा सकती है तो आप गलती में हैं। सोशलिस्ट का लगना ठीक है।
उन्नीस सौ सत्रह के बाद सारी दुनिया में जितने बच्चे पैदा हुए हैं, वे किसी ने किसी रूप से रसिया ओरिएंटेड हैं, चाहे वह किसी घर में पैदा हुआ हो। उन्नीस सौ सत्रह के बाद इतना सतर्क प्रोपेगेंडा है और इतनी तीव्रता से चल रहा है कि आपको पता नहीं है, वह सब तरफ से आपको घेरे हुए है। अल्टीमेट शिफ्ट की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो बेस की बात कर रहा हूं। अल्टीमेट शिफ्ट बाद की बात है, बेस तो आपको ओल्ड जेनरेशन को बनाना पड़ेगा। और अगर ओल्ड जेनरेशन राजी हो जाए, तो अल्टीमेट शिफ्ट नई जेनरेशन में भी दी जा सकती है। क्योंकि ये ताकतें आज भी ओल्ड जेनरेशन के हाथ में हैं।
ओल्ड जेनरेशन एक दफा खयाल से भर जाए तो नई जेनरेशन को शिफ्ट दी जा सकती है। इसमें तकलीफ नहीं है। क्योंकि चाहे प्रोफेसर्स हों, चाहे बाप हो, चाहे सारी जो भी व्यवस्था के की-पाॉइंट हैं, वे ओल्ड जेनरेशन के हाथ में है। अगर वे सारे इस खयाल से भर जाएं तो नई जेनरेशन को बदल देने में कठिनाई नहीं है।
फिर मजा यह है कि नई जेनरेशन का जो लगाव है सोशलिज्म से, वह सोशलिज्म से कम है। सोशलिज्म ने कुछ वैल्यूज की बात की है, उनसे ज्यादा है। और मजा यह है कि जिन वैल्यूज की सोशलिज्म बात करता है, उनकी यह हत्या करता है। यह बड़े मजे की बात है। सोशलिज्म जिन वैल्यूज की बात करता है कि हम दुनिया में समानता ले आएंगे, सोशलिज्म कंट्री असमानता से शुरू होती है, और समानता कभी भी नहीं लाती। और ला सकती नहीं। कहती है, हम स्वतंत्रता ले आएंगे। स्वतंत्रता की हत्या से सब शुरू होता है।
अगर नई जेनरेशन को प्रभावित भी करना है तो आपको दो बातें करनी पड़ेंगी। एक तो यह कि सोशलिज्म जिन वैल्यूज की बात करता है, वह उनकी हत्या करेगा, उनको ला नहीं सकता। झूठा है वह दावा। इस दावे को झूठा सिद्ध करना पड़ेगा। और सोशलिज्म जिन वैल्यूज की बात करता है, कैपिटलिज्म उनको ला रहा है और ला सकता है। और कैपिटलिज्म ही ला सकता है। यह आपको साफ करना पड़ेगा।
और वह जो आप कहते हैं कैपिटलिज्म की बात छोड़ कर हम एक नये विचार को विकसित करें, जो आप कहते हैं, वह असंभव है। असंभव कई कारणों से है। क्योंकि आज फाइट इधर सीधा कैपिटलिज्म और सोशलिज्म के बीच है। और अगर आप नई की बात करते हैं तो आपको इन दो पोलेरिटी में कहीं बंट जाना पड़ेगा। और नई की बात में बहुत संभावना आपको सोशलिस्ट पोलेरिटी के साथ खड़ी होने में होगी। मैं तो कहता हूं फाइट सीधी है। दो पोल सीधे हैं। लड़ाई यहां होने में है।
कम्युनिस्ट निरंतर यह कहते रहे हैं कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। इसलिए कम्युनिस्ट की फाइट बहुत सीधी रही है और पचास साल में वह निरंतर जीता है। उसकी जीत की टैक्टिक्स बहुत साफ है। वह कंफ्यूजन में नहीं रहना चाहता। वह कहता है, या तो आप हमारे साथ हैं या नहीं हैं। वह सेफ नहीं मानता दुश्मनी। वह यह नहीं कहता कि यह दुश्मन थोड़ा हमारे पास ज्यादा है। वह दुश्मन थोड़ा हमसे ज्यादा दूर है। वह दुश्मन कभी राजी हो जाएगा, वह दुश्मन कभी राजी नहीं होगा। वह कहता है या तो आप कम्युनिस्ट हों या एंटी कम्युनिस्ट हों। एंटी कम्युनिस्ट को वह सेफ नहीं मानता, इसलिए उसको फाइट करने में बड़ी सुविधा रही है। वह फिजूल के झंझट में नहीं पड़ा। इसलिए पचास साल में वह निरंतर जीता है। सच बात यह कि सेफ हो भी नहीं सकता।
हिंदुस्तान में भी वही मामला हुआ। जैसे ही बीस साल पहले हमारे हाथ में आजादी आई, हमको यह पागलपन पकड़ा फौरन कि हम दुनिया में जो बंटी हुई पोलेरिटीज हैं, वह उसके साथ में खड़े होकर नया पोल खड़ा करें। उसमें हम मर गए। सबको खयाल पकड़ता है कि कुछ नया खड़ा कर लें तो बंटी हुई पोलेरिटी साफ थी। लेकिन हमने उन दोनों के बीच नया खड़ा कर दिया। नया खड़ा करने में ही हम धीरे-धीरे रोज रूस की तरफ पहुंचते चले गए। क्योंकि नया जो है, उसको अनिवार्य रूप से लेफ्टिस्ट भाषा बोलनी पड़ती है। ओल्ड जो है उसको राइटिस्ट भाषा बोलनी ही पड़ती है। क्योंकि पिछले दो हजार साल में यह भ्रम पैदा हो गया है कि नया अनिवार्य रूप से लेफ्टिस्ट होगा।
यह हमारे माइंड की कंडीशनिंग है। इसलिए बड़ी मुश्किल हो गई; कोई यह कह नहीं सकता कि मैं राइटिस्ट हूं और नया हूं। राइटिस्ट हैं मतलब आप ओल्ड हैं। लेफ्टिस्ट हैं, मतलब आप नये हैं। यह बड़ी कनिंग कंडीशनिंग है। और उस में आपने नये की बात कही कि आप धीरे-धीरे गए। और नये की बात जब आप कहते हैं, तब भीतर कहीं आपकी कांशस में निकल रहा है। आप जानते हैं कि कैपिटलिज्म के पक्ष में कैसे बोलें? तो कुछ नये की बात करनी चाहिए। मैं कहता हूं, अगर है पक्ष में बोलने लायक तो सीधा बोलें। नहीं है पक्ष में बोलने लायक तो मर जाने दें और उसके मरने में सहायता करें। अगर कैपिटलिज्म मर जाने लायक लगता हो तो फिर लड़ें मत। सब हथियार डाल कर कहें कि यह हम मरने को तैयार हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पहली तो बात यह है कि जो चेकोस्लोवाकिया या यूगोस्लाविया या अन्य कम्युनिस्ट कंट्रीज में प्राइवेट ओनरशिप की तरफ जो झुकाव है, वह इस बात का सबूत है कि जो कोर्स सोशलिज्म से लाया गया, वह गलत सिद्ध हुआ। और किसी बात का सबूत नहीं है। वहां कम्युनिज्म नहीं बदल रहा है, वहां कैपिटलिज्म वापस लौट रहा है। आप कहते हैं, वहां कम्युनिज्म बदल रहा है, मैं नहीं कहता। मैं कहता हूं, वहां कैपिटलिस्ट वापस लौट रहा है। आज माओ का जो विरोध है रशिया से, वह भी विरोध बेसिकली यही है कि उसको खयाल है कि रशिया धीरे-धीरे कैपिटलिस्ट में टर्न हो रहा है।
मेरी तो अपनी समझ यह है कि अब दुनिया में अगर कोई भी थर्ड वर्ल्ड वार होगी तो अब रूस और अमेरिका के बीच में नहीं होने वाली है। असंभव हो गई बात। क्योंकि रूस रोज कैपिटलिस्ट होगा। क्योंकि पचास साल के अनुभव ने यह बताया उसको कि प्राइवेट ओनरशिप के बिना उत्पादन को जारी रखना असंभव है। यानी मैं यह कह रहा हूं कि इसका आपको उपयोग करना  चाहिए कि कैपिटलिस्ट सिस्टम जो है, जो आप पूछते हैं कि क्या है; तो मैं उसकी परिभाषा यह करता हूं कि व्यक्ति संपत्ति को पैदा करे और व्यक्ति संपत्ति का मालिक हो--यह धारणा कैपिटलिज्म की बुनियादी धारणा है।
उत्पादन और उत्पादन के साधन की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत मालकियत कैपिटलिज्म की बुनियादी धारणा है। और वह धारणा वापस लौट रही है। क्योंकि पचास साल में रूस ने जबरदस्ती प्रोडक्शन करवाने की कोशिश की, लेकिन फिर भी नहीं हुआ। और मजा यह हुआ कि जिस जेनरेशन ने क्रांति की थी, उसने तो कुछ काम किया, क्योंकि वह क्रांति के फेवर में थी। फिर नई जेनरेशन आई। उसके बाद जिसे क्रांति का कुछ पता नहीं था, उस जेनरेशन ने तो काम करन बंद कर दिया। ख्रुश्चेव ने हटने से पहले यह कहा कि सबसे बड़ी तकलीफ यह है कि रूस का लड़का कोई काम करना नहीं चाहता। क्योंकि काम करने का जो बेसिक इंसेंटिव है, वह खतम हो गया है।
आदमी की जो चेतना है, वह बड़ी छोटी दायरे में जीती है। मेरी पत्नी बीमार है तो मैं पागल की तरह दौड़ता हूं। मुझे यह पता लगे कि मनुष्यता बीमार है तो घर में बैठा रहूं। मुझे कहीं पकड़ में नहीं आता कि मनुष्यता के बीमार होने से मैं कहां दौडूं और क्या करूं? मनुष्यता बीमार है तो अच्छा है, बीमार रहे। जैसे एक छोटा सा दीया जलता है, उसकी चार फीट के घेरे में रोशनी पड़ती है। ऐसे ही आदमी की चेतना की रोशनी चार फीट के घेरे पर पड़ती है। और जितने घेरे पर पड़ती है, उसी को फेमिली कहता हूं, वही परिवार है। वह उसका बेसिक इंसेंटिव है। उसके आगे उसकी चेतना जाती नहीं है। चिल्लाओ कितना ही--मनुष्यता, राष्ट्र, फलां-ढिकां--उसकी चेतना जाती नहीं। उसकी चेतना जितने ऊपर जाती है और वह उतने के लिए ही जीता और मरता है। और कुछ करता है तो रूस या यूगोस्लाविया में, वहां भी झुकाव बदले हैं, उस अनुभव का परिणाम है कि अपने जो एक्सपेरिमेंट किया था, वह असफल हो गया है। लेकिन इसको स्वीकार करना कठिन मालूम होता है। इसलिए धीरे-धीरे...और जो अमेरिका के लिए कहते हैं, वह भी सच है। मेरी तो मान्यता यह है कि कैपिटलिज्म जब ठीक से प्रौढ़ हो जाए तो सोशलिज्म अनिवार्य है। इसलिए अमेरिका रोज सोशलिस्ट हो रहा है बिना जाने और रूस रोज कैपिटलिस्ट हो रहा है जानते हुए।
यह जो आप थर्ड फोर्स की बात करते हैं न, यह असंभव है। क्योंकि थर्ड कोई क्लास नहीं है जिस पर आप फोर्स पैदा कर लें। लेकिन जो सारी तकलीफ है--फोर्स पैदा होती है क्लास से। मिडिल क्लास जो है, वह क्लास नहीं है। वह सिर्फ लिक्विडिटी है, जो डोल रही है दो क्लास के बीच; जिसमें से कुछ लोग आगे चले जाएंगे, कुछ लोग पीछे गिर जाएंगे। क्लास तो दो ही हैं। तो मिडिल क्लास फोर्स बन सकती है अगर क्लास हो, लेकिन मिडिल क्लास कोई क्लास ही नहीं है, क्योंकि मिडिल क्लास में कोई भी आदमी राजी नहीं है। मिडिल क्लास में जो भी आदमी है, वह चाहता है कि या तो नंबर वन हो जाए। तो मिडिल क्लास है ही नहीं कोई आदमी, और वह नहीं नंबर वन हो पाए, तो वह नंबर तीन में जाने की तैयारी कर रहा है। तो यह जो आप कहते हैं थर्ड फोर्स, थर्ड फोर्स को जेनरेट करने के लिए कोई क्लास नहीं है। इसलिए अगर थर्ड फोर्स भी अगर आपको बनाना है तो इन ओल्ड फोर्सों की किसी पोलेरिटी में बनता है। दुनिया में कोई नहीं बना सकता।
अगर बात खयाल में नहीं आती है तो प्रोग्राम बहुत मुश्किल है और बात खयाल में आ जाए तो प्रोग्राम तो बहुत ही आसान बात है। प्रोग्राम कोई बड़ी बात नहीं है, एक दफा खयाल में आ जाए। हमारी सारी उत्सुकता होती है कि प्रोग्राम कहो और फिलासफी हमारे पास नहीं है। बिना फिलासफी के प्रोग्राम होने वाला नहीं है। और प्रोग्राम हुआ तो इंपोटेंट होगा और मर जाएगा। वहां जाकर बचेगा नहीं। मैं प्रोग्राम में उतना उत्सुक नहीं हूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

लेकिन वारफुटिंग के लिए कुछ खयाल तो हो जाए आपको कि कुछ लड़ने को हमारे पास है। यह जो आप कह रहे हैं थाउजंड इयर, यह कभी प्रॉब्लम नहीं था। कम्युनिज्म कभी खतरे में नहीं था और थाउजंड इयर पहले कैपिटलिज्म था भी नहीं। कैपिटलिज्म अभी पचास साल की ग्रोथ है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह आप अगर उनको समझा दें साफ तो इतना जल्दी मरने को राजी नहीं होंगे। उनको लग यही रहा है कि कोई तरकीब से बच जाएंगे। यह हमारे प्रोग्राम का हिस्सा होना चाहिए कि हम साफ कर सकें कि हम दो साल में मर जाएंगे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

उनको जानने का सवाल नहीं है। मेरा जो कहना है, कैपिटलिस्ट के लिए नहीं है कैपिटलिज्म के लिए हैं। कैपिटलिस्ट की कोई मानी नहीं है। सारा सवाल कैपिटलिज्म का है। जो आप प्रैक्टिकल डिफिकल्टी बताते हैं, वह है। लेकिन अगर आपको ऐसा पता चल जाए कि आपको कहूं कि घर में आग लग गई है, आप बाहर निकलिए। आप कहें कि प्रैक्टिकल डिफिकल्टी है, वह यह है कि मेरे पैर में दर्द है, या वह यह है कि दरवाजा बंद है, यह वह यह है कि सीढ़ी टूटी हुई है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि चाहना कांशस नहीं होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि आप कांशस नहीं हो सकते। यह मामला ऐसा नहीं है कि आपके पड़ोस में एक आदमी टी.बी. से मर गया है तो आप कहेंगे कि मैं अस्पताल क्यों जाऊं? बगल वाला टी.बी. में चला गया। वह ले जाया गया अस्पताल, वह नहीं गया है। इसलिए आपको जल्दी जाने का सवाल है। और इसका मतलब यह नहीं है कि वह नहीं गया तो आपका न जाना कोई भाग्य बना गया है। आप जा सकते हैं, लेकिन और तरकीब की बात सिखाई है, और कंडीशनिंग के लिए बड़ी जरूरी है। कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा सच में एक यह भी बात आदमी को सिखाता है कि कम्युनिज्म जो है, वह इनएविटेबल है। उसने भाग्य की पुरानी ट्रिक का उपयोग कर लिया।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इसमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर हमें यह लगे कि वह ठीक है तो हमें लड़ते हुए मरना चाहिए। लड़ते हुए पार जाना चाहिए। यह सवाल नहीं है कि हम जीत पाएंगे कि नहीं। सवाल यह है कि ठीक है क्या? अगर ठीक नहीं है, तब तो लड़ने की कोई जरूरत नहीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आपको मैं कहूं कि यह डेमोक्रेसी की वजह से बहुत कंफ्यूजन पैदा हुआ है। सोशलिज्म की फाइट सीधी है। आप हमेशा कोई न कोई चेहरा अख्तियार करना चाहते हैं। आप कहेंगे, डेमोक्रेसी वर्सेस सोशलिज्म है। आप ऐसा नहीं कहेंगे कि कैपिटलिज्म वर्सेस सोशलिज्म है। असल में डेमोक्रेसी की जब आप बात शुरू करते हैं, तब आपको पता नहीं कि आप सिर्फ कंफ्यूजन पैदा करते हैं। क्योंकि सोशलिज्म भी डेमोक्रेसी की बात करता है। इसमें कोई समस्या नहीं है। आप जिन वैल्यूज की बात करते हैं, अगर वे वैल्यूज सोशलिज्म भी उपयोग कर सकता है, तो आप मरेंगे। क्योंकि आप विचार करें तो वह कहेगा कि डेमोक्रेसी तो हम भी मानते हैं। हम कहां कहते हैं कि डेमोक्रेसी नहीं है। नहीं, आपको तो उसी बिंदु पर खड़ा होना चाहिए जिस पर दावा सोशलिज्म कर ही न सके। आप कहते हैं कैपिटलिज्म के लिए लड़ रहे हैं। इसका दावा सोशलिज्म नहीं कर सकता। इसलिए फाइट सीधी होगी। डेमोक्रेसी की फाइट सीधी नहीं होने वाली है। आपकी गलती क्या है कि कैपिटलिज्म शब्द से आप खुद ही घबड़ाने हुए हैं। बहुत गलत मालूम होता है, कि कैपिटलिज्म शब्द कुछ पाप है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इंवाल्व करने का सवाल ही नहीं। सवाल यह है कि जो सिस्टम मौजूद है कैपिटलिज्म की, वह इंवाल्व होगी तो बहुत नई तरह की हो जाएगी। अपने आप हो जाएगी। हम दुनिया में कुछ भी पुराना टिकता नहीं। वह तो नया होता चला जाता है। मेरी तो समझ यह है कि अगर कैपिटलिज्म ठीक से बढ़ता चला जाए तो बहुत साइलेंटली सोशलिज्म उसकी बाइ-प्रोडक्ट होगी ही। वह कोई सवाल ही नहीं है। जैसे मैं आपसे कह रहा हूं कि सोशलिज्म कहेगा कि डेमोक्रेसी की तो हम भी बात करते हैं, तो बजाय इसके आप कहें कि कैपिटलिज्म में ही बात करते हैं और आप मानते हैं कि कैपिटलिज्म से सोशलिज्म अपने आप बाइ-प्रोडक्ट की तरह आने वाला है। और दूसरा कोई आने का उपाय ही नहीं है। यह फाइट सीधी होनी चाहिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं यह कहता हूं कैपिटलिज्म के जो सबूत हैं, उसको हटा दें, तो कैपिटलिज्म कभी बनने वाला नहीं है। रशिया के अंदर या चीन के अंदर भी हालांकि कम्पलीट कंट्रोल वहां उन्होंने कर दिया है, कब्जा कर दिया है--प्रोपेगेंडा मशीन है, ब्रेन-वाशिंग हो रहा है, फिर भी वे जवाब वे दबा सके। मगर संघर्ष हमारा कम्युनिज्म के साथ नहीं है।

आप हमें कोई तरकीब बताइए जिससे हमारे देश के बुद्धिवादी लोग, जो हमारे देश में हैं उनके दिमाग में यह बात डाल दी जाए कि जब हम लोकशाही की बात करते हैं तो हम सच्ची लोकशाही की बात करने वाले हैं या नहीं।
लोकशाही की जो व्याख्या है, वह हम समझ नहीं सकते हैं। मैं तो कहता हूं कौन सा समाजवाद है हमारे देश में कि जो समाजवाद लोगों के हकों को खतम करने वाला है? आज हमारे देश के समाजवादी हमको यह कहते हैं। इंडिविजुअल राइट की बात करो तो कहते हैं कि रिएक्शनरी बात है! फ्रीडम की बात करो तो रिएक्शनरी बात है! कांस्टीटयूशन के जो फंडामेंटल राइट्स हैं, उसकी हम बात लेकर चलते हैं तो यह रिएक्शनरी बात है? तब हम यह नारा लगाते हैं कि जो किसान खेत में काम करता है, जमीन उसकी होनी चाहिए। मगर वे कहते क्या हैं? और कार्यवाही उनकी यह है कि ऐसी परिस्थिति आ जाए कि इस देश में किसी भी आदमी के पास कोई चीज उसकी अपनी कहने का अधिकार न हो तो किस तरह हमारा यह बुद्धिवादी वर्ग है? बुङ्ढों की तो बात छोड़िए, नई पीढ़ी जो है हमारी, उसके अंदर हमको अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का जो डर होता है, वह डर खतम कर देना चाहिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मधुजी, टैक्टिक्स की बात बहुत मूल्यवान नहीं है। टैक्टिक्स की तो बात है, वह डे टु डे पॉलिटिक्स के लिए मूल्यवान है।
जैसे जस्टिस की वैल्यू है, तो जस्टिस की ठीक-ठीक डेफिनिशन मुल्क के हृदय में पहुंचानी चाहिए। इसकी फिक्र मत करिए आप कि आप अपने को जस्ट सिद्ध करने की कोशिश करें। आप सिर्फ जस्टिस की ठीक डेफिनिशन मुल्क के माइंड में पहुंचाएं। वह डेफिनिशन तय करे कि क्या ठीक है। और अगर आपने जल्दबाजी की कि हम जस्ट हैं सिद्ध करने को, आप खो देते हैं मामले को। इसलिए मैं फिलासफी की बात कर रहा हूं, प्रोग्राम की नहीं। जो मेरा जोर है आप जस्टिस को डिफाइन करिए। मुल्क के सामने जस्टिस को कोई खयाल ही नहीं कि जस्टिस यानी क्या है? तो इसलिए जस्टिस शब्द को कोई भी एक्सप्लाइट करता है।
डेमोक्रेसी, यानी मुल्क के सामने खयाल ही नहीं है, इसलिए कोई भी एक्सप्लाइट करता है। कम्युनिस्ट भी डेमोक्रेट हैं, सोशलिस्ट भी डमोक्रेट हैं, कैपिटलिस्ट भी डेमोक्रेट है। क्योंकि डेमोक्रेसी की मुल्क के माइंड के सामने कोई साफ डेफिनेशन नहीं है। मेरा जो कहना है कि बजाय इसके कि हम यह सिद्ध करें कि मैं डेमोक्रेट हूं--क्योंकि ये सारे लोग सिद्ध करने में लगे हुए हैं--हमें एक व्यवस्था करनी चाहिए कि डेमोक्रेसी क्या है? इससे हमें कोई मतलब नहीं है कि कौन डेमोक्रेट है, कौन नहीं है।
डेमोक्रेसी की बिलकुल ही निष्पक्ष परिभाषा मुल्क के मन पर पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए। समानता यानी क्या? अधिकार यानी क्या? यह सवाल नहीं है कि किसको क्या अधिकार है? प्योर डेफिनिशन नहीं है मुल्क के माइंड में कुछ भी। क्योंकि कोई भी उसको कुछ कह देता है, वह कहता है यह इनजस्टिस हो रहा है। और हमारी समझ में नहीं आता कि क्या इनजस्टिस हो रहा है? मालकियत क्या है? वैल्यूज हमें साफ करने की फिक्र करनी चाहिए।

बेसिक कैरेक्टर क्या चीज है?

वह तो कभी था ही नहीं। अगर मैं आपसे पूछूं कि बेसिक कैरेक्टर किसको आप कहते हैं? तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। कोई नहीं जानता क्या है बेसिक कैरेक्टर? उनको यह लगता है कि मेरे इंट्रेस्ट में ही हो रहा हूं। कोई नहीं कर रहा है अपने इंट्रेस्ट के खिलाफ। तो इसको बेसिक कैरेक्टरलेस नहीं कहूंगा। इसमें कैरेक्टर का कोई सवाल नहीं है मुझे दो इंच तक दिखाई पड़ता है, दस इंच तक नहीं दिखता तो मेरा कैरेक्टर खराब है ऐसा कुछ नहीं। इतना ही कि मेरी आंख बड़ी पास देखती है। इमीजिएट मामला है मेरे सामने। बस इसको मैं देख रहा हूं।

आप वर्ल्ड की बात कर रहे हैं, सारे वर्ल्ड को इंसिस्ट करना भी पड़ेगा।

इंडिया से शुरू करते तो बड़े काम होते। और वह सब तरफ से तो सकता है। सब तरह से हो तो बहुत जल्दी हो। प्रोपेगेंडा की सारी मशीनरी का उपयोग चाहिए। मजा यह है कि मशीन भी आपके हाथ में हो तो भी उपयोग नहीं होगा। मुझे पचास हजार लोग सुन रहे हैं, लेकिन आपका एक अखबार खबर नहीं दे रहा है। बड़ा मजेदार मामला है। पचास हजार लोग मुझे सुन रहे हों तो भी अखबार खबर नहीं दे रहा हैं!

हजारों वर्ष से ऐसा होता आया है कि राम, कृष्ण या बुद्ध ने अपनी बात समझाने के लिए किसी ने किसी प्रकार के संगठन और संप्रदाय बनाए और उन्हें अपनी बातें समझाई। आज भी समय और परिस्थिति ऐसी है कि हम सारे लोगों को समझाएं। साधारण आदमी जो है, वह ऐसे प्रेरित नहीं हो सकता और हर आदमी को हम प्रेरित करने जाएं तो मुश्किल है। हम एटमास्फियर बनाएं और सेंट्रलाइज्ड करें और सिंबल्स का उपयोग भी किया जा सकता है।

बिलकुल किया जा सकता है। पुराने सिंबल्स का भी बहुत अच्छा उपयोग किया जा सकता है।
अभी दो दिन से एक संन्यासी मुझे सुनने आते हैं। उनका काफी प्रभाव है। पंजाब में हजारों लोग उनको सुनने आते हैं। उन्होंने दो दिन के बाद सुन कर कल मुझे कहा कि यह तो बड़ा आश्चर्य है कि मुझे तो पता ही नहीं था कि समाजवादी यानी क्या, और पूंजीवाद यानी क्या! मैं तो परमात्मा और ब्रह्म की बात करता रहा। मैं तो पहले समझा कि मुझे जाना ही नहीं चाहिए ये बातें सुनने। क्योंकि समाजवाद से सावधान सुनने से मुझे क्या मतलब। बंबई में भी सैकड़ों भक्त हैं। बीसवीं सदी में एक संन्यासी, जिसको हजारों लोग सुनते हैं, उसको पता नहीं है कि समाजवाद क्या है?
हिंदुस्तान में पचास लाख संन्यासी हैं! और इतनी बड़ी फोर्स तैयार हो तो पचास लाख संन्यासी में से एक लाख संन्यासी तो आज खींचे जा सकते हैं जो सारे हिंदुस्तान को आज चैनेलाइज कर दें। इसमें कोई कठिनाई नहीं। क्योंकि इनका प्रभाव है, इनकी ताकत है आज। मगर यह क्यों नहीं कर पा रहे हैं? सिंबल्स तो मौजूद हैं। आज अगर एक लाख गेरुआ वस्त्र पहने हुए संन्यासी पूरे हिंदुस्तान को कैपिटलिज्म के वैल्यूज की बात कहें तो आप कहां कम्युनिस्ट को खड़ा कर सकते हैं, कहां चीन को प्रवेश दिलवा सकते हैं? और इसको खड़ा करने की जरा कठिनाई नहीं है। मगर वह आपके खयाल में नहीं है। और सारे ओल्ड सिंबल्स का उपयोग हो सकता है। नये सिंबल्स भी आज खड़े करने की जरूरत नहीं है।
मैं तो कर ही रहा हूं, जो मैं कर सकता हूं। एक आदमी जो कर सकता है, दिन-रात, मुझे जो करना है, वह मैं कर ही रहा हूं। लेकिन एक आदमी जो कर सकता है, वह उतना ही कर सकता है। मैं बोल रहा हूं। मुझे पचास हजार साल सुन लेंगे, फिर मैं चला जाऊंगा। लेकिन पचास हजार से फोर्स बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। अगर पचास हजार मुझे सुन रहे हैं, उनमें से पांच सौ आदमी भी मुझसे राजी हो रहे हैं तो उसका एक फोलोअप होना चाहिए। और पीछे उसके लिए काम की व्यवस्था होनी चाहिए। वह मैं अकेला आदमी कैसे करूंगा? आखिर मेरे करने की सीमाएं हैं।
मैं जो कर सकता हूं, वह तो कर रहा हूं। इसके लिए आप एक प्रोपेगेंडा मशीन पैदा करें। एक इंतजाम करें कि ये सारी की सारी बातें अखबारों में चर्चा हो सके, महफिल में चर्चा हो सके। इस ढंग की फिल्म बनाएं, इस तरह के गीत बनाए जा सकें, नाटक बनाए जा सकें इसके लिए आप कैंप का इंतजाम करें कि मैं एक हजार संन्यासियों को तीन दिन आकर रख सकूं। एक लिटे्रचर बनाएं जो बेसिक हो, किसी को भी दिया जा सके। वह पढ़ सके, समझ सके, उस पर काम कर सके। उस बेसिक लिट्रेचर का इस मुल्क की परंपराओं, इस मुल्क की संस्कृतियों से संबंध जोड़ा जा सके। यह सब बिलकुल सरल सा है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है।
लेकिन कोई सोचता हो कि मैं अकेला ही कर लूं तो पागलपन की बातें सोच रहा है। तीस-चालीस नगरों में आप व्यवस्था करें। मैं समय देने को तैयार हूं और व्यवस्था करने को आप तैयार हों। तीन महीने में मुल्क का पूरा दौरा किया जाए और उस दौरे की हवा पूरे मुल्क में पैदा की जाए। इसके बाद दो-चार कैंप का आयोजन करें, जहां संन्यासी, साधुओं के चार-पांच दिन का कार्यक्रम रखा जाए। उन कैंप की फिक्र कर लें। इस बीच कुछ लिटे्रचर पैदा करने की फिक्र कर लें। बंबई में एक आफिस बना डालें, एक फंड क्रिएट करें उसके लिए। जहां से कुछ मैगजींस, कुछ फ्री बुलेटिन बांटी जा सके। जैसे मैं एक गांव में बोलता हूं जाकर, तो मैं दो दिन बोल सकता हूं, लेकिन पूरे गांव में प्रोपेगेंडा लिट्रेचर--घर-घर पहुंचाया जा सके, उसे मुफ्त बांटा जा सके--उसे खरीदने की फिक्र न करवाई जा सके कि कोई इसे खरीदे।

कितने लोग पढ़ सकते हैं?

आप नहीं समझते हैं। यही तो आपकी कमजोरी है। एक कम्युनिस्ट पचास साल से वही करके आपको मारे डाल रहा है। मगर आप की अक्ल में नहीं आती है बात। वह वही सब टैक्टिक्स का उपयोग कर रहा है, लेकिन आप कहते हैं कितने लोग पढ़ सकते हैं? मास्को फिक्र नहीं कर रहा है कि दस करोड़ किताबें भेजीं, कितने लोग पढ़ते हैं! दस करोड़ देखेंगे तो! कवर तो देखेंगे। अंदर बच्चों की छपी फोटो चेहरे तो देखेंगे कि बच्चे कितने गोल और सुर्ख हैं रशिया में। फेंकी जा रही हैं पत्रिकाएं हर घर में मुक्त। मत पढ़ो, लेकिन कभी तो कोई बैठे क्षण में पन्ने पलट लेता है। और वह इतना तो देख लेता है कि रशिया में कैसा स्वस्थ बच्चा है। किसी स्कूल की बिल्डिंग है। यह सब तो इनडायरेक्टली हो रहा है चुपचाप उसके माइंड में कि रशिया में कुछ है।
यह कोई सवाल नहीं है कि आपने पहुंचा दिया तो वे मान ही लेंगे। मजा यह है कि जब धनपति और धन पैदा करने वाला, सारी प्रोपेगेंडा मशीन का उपयोग कर लेते हैं--आप चिल्लाए जा रहे हैं कि लक्स टायलेट अच्छा साबुन है और पनामा सिगरेट पी लेना उम्दा बात है। और आप अच्छी तरह समझ रहे हैं कि कोई पढ़ेगा कि नहीं पढ़ेगा, इसकी फिक्र नहीं। पनामा शब्द तो दिखाई देगा। दस दफे, पचास दफे सिर्फ पनामा शब्द दिखाई पड़ेगा--वह दुकान में गया कि उसने कहा कि पनामा सिगरेट दे दो। वह सोच रहा है कि मैं ही सोच कर बोल रहा हूं। कोई सोच कर बोल नहीं रहा है। मजा यह है कि हमें साइंटिफिक प्रोसेस से कोई मामला नहीं है। फिल्में ऐसी बनवाएं जो कि सारे मुल्क में दिखाई जा सकें, जिनकी थीम, जिनके गीत मुल्क को पकड़ लें।
आज रामायण जिंदा सिर्फ इसलिए है कि रामलीला चलती है, नहीं तो कभी की मर जाती। कोई किताब जिंदा इतने दिन तक नहीं रह सकती है। दुनिया में कोई किताब इस तरह जिंदा नहीं है, जिस तरह रामायण जिंदा है। उसका ड्रामा बन गया, गांव-गांव में घुस गया। अब कोई वजह नहीं है कि रामायण के स्टेज का उपयोग क्यों न करें? क्यों मुल्क भर में रामलीला की स्टेज पर आपका काम न हो? कोई कठिनाई नहीं है, कोई वजह नहीं है कि सारे मुल्क के मंदिर और मस्जिद, मठ आपके काम में क्यों न आ जाएं? क्योंकि वे सब मिटेंगे। उनमें कांशस वर्क करने की जरूरत है कि कम्युनिज्म आएगा तो सब पोंछ डालेगा। मुश्किल यह है कि आप मुझसे पूछ भी लेंगे, मुझसे रोज लोग पूछ लेते हैं, फिर बात खतम हो जाती है। कठिनाई यह है कि कोई सोचता हो कि मैं यह सब करने जाऊंगा, कितनी मुश्किल हैं ये बातें!


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