देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
बीसवां प्रवचन
वैज्ञानिक विकास और बदलते जीवन-मूल्य
प्रश्न: इस औद्योगिक युग में आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा मनुष्य
आत्म-साक्षात्कार कैसे करे?
दोत्तीन
बातें--एक तो मनुष्य सदा से ही औद्योगिक रहा है, इंडस्ट्रियल रहा है। चाहे
वह छोटे औजार से काम कर रहा हो या बड़े औजार से काम कर रहा हो--छोटे पैमाने पर काम
कर रहा हो, बड़े पैमाने पर काम कर रहा हो, आदमी जब से पृथ्वी पर है तब से इंडस्ट्रियल एक साथ है, वह आदमी के साथ ही था। और जैसे आज हम लगता है कि दो हजार साल पहले आदमी
इंडस्ट्रियल नहीं था, दो हजार साल हम भी इंडस्ट्रियल नहीं
मालूम होंगे।
पहले
तो बात यह समझ लेने जैसी है कि मेरी समझ ही यह है कि आदमी, आदमी होने
की वजह से ही इंडस्ट्रियल है। आदमी को पशु से जो बात भिन्न करती है वह उसका
यंत्रों का उपयोग है। वह कितने ही छोटे पैमाने पर हो, यह
दूसरी बात है। लेकिन हमेशा से आदमी उद्योग में लगा है।
असल में आदमी जी ही नहीं
सकता है बिना उद्योग में लगा हुआ। इसका औद्योगिक, यह कहना
कोई विशेष मूल्य नहीं देता, मनुष्य का पूरा इतिहास ही
औद्योगिक है। इसलिए जो सवाल आपने उठाया है कि औद्योगिक युग में कैसे आदमी
आत्म-साक्षात्कार करे, आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा?
तो, पहली तो
बात यह है कि मेरे लिए सभी युग औद्योगिक हैं। आदमी का इतिहास ही उद्योग है। दूसरी
बात, आत्म-साक्षात्कार आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा नहीं होता।
हां, आत्म-साक्षात्कार से आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा नहीं
होता। हां, आत्म-साक्षात्कार से आत्म-अभिव्यक्ति हो सकती है।
सेल्फ-रियलाइजेशन जो है वह सेल्फ-एक्सप्रेशन है। सेल्फ-रियलाइजेशन से
सेल्फ-एक्सप्रेशन हो सकता है। क्योंकि जिसे आप एक्सप्रेस करते जा रहे हैं वह पहले
से रियलाइज होना चाहिए अन्यथा एक्सप्रेस क्या करिएगा? अगर
मुझे मेरी आत्मा को प्रकट कर ने ही जाना है, तो मैं प्रकट
क्या करूंगा? मेरे पास आत्मा होनी चाहिए प्रकट करने के पूर्व
तो ही मैं प्रकट कर सकूंगा।
इसलिए
जो आम धारणा है कि आदमी अपने व्यक्तित्व को, अपनी आत्मा को पाता है अभिव्यक्ति
से, में नहीं मानता। मैं मानता हूं, अभिव्यक्ति
आ सकती है उपलब्धि से। जरूरी नहीं है कि आ जाए, आ सकती है।
और प्रत्येक को एक जैसी आए, यह भी जरूरी नहीं है। कोई गीत गा
सकता है, कोई चित्र बना सकता है, कोई
नाच सकता है, कोई खेत में काम कर सकता है। कोई हो सकता है
चुप ही बैठ जाए, मौन ही उसकी अभिव्यक्ति हो। कहना कठिन है कि
अभिव्यक्ति कैसी होगी। लेकिन अभिव्यक्ति अगर आत्म-साक्षात्कार के पहले की जाएगी तो
सिर्फ आपकी मानसिक रुग्णता की अभिव्यक्ति होगी, आत्मा की
अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है।
इसलिए
जो लोग भी अभिव्यक्ति पर जोर दे रहे हैं वह मानसिक रोगों की ही अभिव्यक्ति है।
चाहे पिकासो के चित्र हों और चाहे हमारी आधुनिक कविता हो, चाहे
हमारा आधुनिक संगीत हो उसमें आत्म-अभिव्यक्ति नहीं है। जो अभिव्यक्ति हो रही है वह
मानसिक पैथालॉजी की है--रुग्ण जो चित्त है हमारा हजार-हजार बीमारियों से भरा हुआ।
हां, उन बीमारियों को निकालने से यह राहत मिलती है। मैं मना
नहीं करूंगा कि कोई न निकले, लेकिन मैं कहूंगा कि कम से कम
वह आत्म-अभिव्यक्ति नहीं है। ज्यादा से ज्यादा से हम मनस-अभिव्यक्ति कह सकते हैं।
और चूंकि मनस जो है रुग्ण है और तब तक रुग्ण रहेगा जब तक हमने स्वयं को नहीं पाया
है। और चूंकि मनस हमारा खंड-खंड है, कंट्राडिक्ट्री है और
रहेगा, जब तक हमने स्वयं को नहीं पाया है। तो जो इंटीग्रेट
है वह तो स्वयं को पाने से उपलब्ध होता है।
अभी
तक हमारे पास जिसको हम कहें एक व्यक्ति, ऐसा भी नहीं है। अभी तो
मल्टी-साइकिक है हमारा होना। सुबह आप कुछ हैं, दोपहर कुछ हैं,
सांझ कुछ हैं, कल कुछ थे, आज कुछ हैं किसको अभिव्यक्त करिएगा? अभिव्यक्ति होने
के लिए पहले आपका होना जरूरी है। यू मस्ट एग्झिस्ट टु बी एक्सप्रेस्ड। और एक गहरे
अर्थ में तो हम हैं ही नहीं। हम सब एक जोड़त्तोड़ हैं। यानी करीब-करीब बहुत से खंड
हैं हमारे। उनमें से जो खंड हमारा ऊपर होता है उसी को...जब क्रोध ऊपर होता है तब
आप क्रोध होते हैं, जब प्रेम ऊपर होता है तब आप प्रेम होते
हैं; जब घृणा ऊपर होती है तब आप घृणा होते हैं। और जब अशांति
और चिंता पकड़ती है तो आप चिंता होते हैं और जब कभी क्षण भर को आप शांत होते हैं तो
आप शांति हैं।
आप
कौन हैं? अभी आप हैं ही नहीं। वह जिसको क्रिस्टलाइजेशन कहें हम। इन सबके बीच उसका
मिल जाना जो मैं हूं, इन सबसे पृथक, इन
सबसे भिन्न, इन सबके गहरे और जब कोई भी नहीं होता है तब भी
मैं होता हूं, उस व्यक्तित्व का, उस
इंडिविजुअलिटी का। अंग्रेजी का जो शब्द है इंडिविजुअल, वह
बहुत अच्छा है, इसका मतलब है इंडिविजुअल--वह जो बांटा नहीं
जा सकता इंडिविजुअल है, जिसे हम खंड-खंड नहीं बांट सकते हैं।
तो हमारे भीतर वैसी कोई इंडिविजुअलिटी नहीं है। तो जो भी हम प्रकट करेंगे वह हमारी
बीमारी होगी। अगर किसी आदमी ने सेक्स को सप्रेस किया तो उसकी कविता में सेक्स आना
शुरू हो जाएगा। इसलिए आमतौर से जिन कवियों को स्त्रियां कभी नहीं मिलीं वे जिंदगी
के भर स्त्रियों के गीत गाएंगे। अगर किसी के मन में घृणा और हिंसा है तो उसकी ही
अभिव्यक्ति होगी, उसकी कृतियों में।
यूरोप
में एक चित्रकार हुआ है। मरने के पहले एक वर्ष तक उसके कमरे में घुसना मुश्किल हो
गया। सिर्फ दो ही रंग का उपयोग करता था, काला और लाल, और सारे चित्र खून के धब्बे में भरे गए थे और एक अंधेरे की खबर देते थे और
इन सारे चित्रों को देख कर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी आत्महत्या कर सकता है। और
उसने आत्महत्या की। साल भर में यही रंग रहा था। बस उसने कोई न कोई खून डाला हुआ था
सारे कमरे में। सारे मकान में दीवालें पोत डाली गई थीं, काले
और लाल से। सब चीजें पोत दी थीं, दो ही रंगों से, काले और लाल से। और उसके भीतर जो हो रहा था, वह उसे
बाहर फेंक रहा था।
यह
अभिव्यक्ति नहीं है। इस ठीक से हम समझें तो यह पैथालॉजिकल एक्सप्रेशन है। हमारा
रुग्ण चित्त है,
वह प्रकट होना चाहता है। निश्चित ही प्रकट होने से रिलैक्सेशन मिलती
है। आपके भीतर जो दबा है अगर किसी भी तरह से निकल जाए तो आपको थोड़ी सी राहत तो
मिलती है। लेकिन बड़े खतरे हैं। आपको तो राहत मिलती है, लेकिन
आपने किसी और पर निकाला है।
अगर
पिकासो के चित्र को कोई आंख गड़ा कर देखता रहे तो उसका भी सिर घूमने लगेगा। क्योंकि
वह सिर घूमे हुए आदमी से निकला हुआ है। उसे भी शायद राहत मिली होगी। लेकिन जो उसे
देखेगा उसका सिर भी घूमेगा। और अपनी साठवीं वर्षगांठ पर पिकासो ने बहुत मजेदार बात
कही है। साठवीं वर्षगांठ पर उसका बहुत बड़ा जलसा मनाया जा रहा था, तो उसने
कहा कि अब मैं सच्ची बात कह दूं। मैं आज तक सिर्फ लोगों के बेवकूफ बना रहा था जो
मैंने बनाया है, उससे। उसके धक्के से इतना सदमा पहुंचा है कि
जिसका कोई हिसाब नहीं कि अब क्या कहें। वे तो कह रहे थे कि बहुत बड़ी कला है,
महान कला, बड़ी क्रांतिकारी कला का जन्म हो गया
है।
लेकिन
मैं मानता हूं कि पिकासो ने अपनी जिंदगी में बड़ी ईमानदारी की बात कही है। काश, और भी लोग
इस समझ सकें। हो सकता है दूसरे को बेवकूफ न बना रहे हों, वे
खुद को बेवकूफ बना रहे हों। वह और भी आसान है, क्योंकि दूसरा
तो इनकार भी करता है बेवकूफ बनने से लेकिन खुद को तो कठिनाई भी नहीं है। अगर हम
अपने को ही बनाने निकल पड़ें तो कोई कठिनाई भी नहीं है।
तो
मेरी मान्यता है कि आत्म-अभिव्यक्ति साधन नहीं है आत्म-साक्षात्कार का परिणाम है।
जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे जब आत्मा उपलब्ध होती है तो उसके परिणाम भी
होने शुरू होते हैं। क्योंकि जो हमारे पास है वह हमसे प्रकट होना शुरू होता है। जो
हमारे पास नहीं है उसे हम कभी प्रकट कर ही नहीं सकते हैं। इसलिए मेरा सारा देखना
ऐसा है कि कला जो है वह धर्म की अभिव्यक्ति है। इसलिए जब भी कोई युग बहुत गहरे
धर्म में उतरता है, तो कला बड़े ऊंचे शिखर छूती है। चाहे
अजंता हो, चाहे एलोरा हो, चाहे खजुराहो
हो, चाहे कोणार्क हो--यह किसी बहुत ही गहरी धर्म की अनुभूति
के बाद पैदा हुई कृतियां हैं। इसलिए बुद्ध की मूर्ति को देख कर, अगर सिर्फ देखते ही रहें तो भी मन एक तरह की साइलेंस उतरनी शुरू हो जाती
है। क्योंकि जिन चित्रकारों ने उसे बनाया है, जिन
मूर्तिकारों ने उसे गढ़ा है...वह रुग्ण चित्त से नहीं निर्मित हुई है। उपनिषद कोई
सिर्फ गुनगुनाता रहे तो चित्त हलका होता है। गीता को कोई ऐसे ही पढ़ता रहे तो भी
चित्त पर एक तरह की निर्दोष अवस्था का जन्म होना शुरू हो जाता है। आज की कविता को
कोई गुनगुनाएगा तो चित्त भारी हो जाएगा। अगर दरवेश नृत्यों को कोई सिर्फ देखे,
फकीरों को नाचते हुए तो मन शांत होगा। लेकिन आज के नृत्य को कोई
देखेगा तो शांत मत के भी अशांत हो जाने की संभावना है।
हम
जो प्रकट कर रहे हैं,
हो सकता है उससे तुझे तो थोड़ा हलकापन लगता हो कि मेरे मन को जो बोझ
था वह निकल गया है, लेकिन मैं किसी मन पर बोझ थोप रहा हूं।
मैं इसके पक्ष में नहीं हूं। मैं मानता हूं, आत्म-उपलब्धि
पहला आधार होना चाहिए, फिर उससे आत्म-अभिव्यक्ति को मार्ग
मिलता है। अनिवार्यता वह नहीं है, क्योंकि सभी लोग कलाकार
होने को पैदा नहीं हुए हैं। और क्या रास्ता बनेगा उसके बाद, कहना
मुश्किल है।
जिस
दिन आप अपने को पा लेंगे तो आपकी जो पोटेंशियलिटी है, वही आप
करने में लग जाएंगे। अगर आपको एक वैज्ञानिक बनना है तो वह आपकी अभिव्यक्ति होगी।
अगर एक किसान बनना है तो वह आपकी अभिव्यक्ति होगी। लेकिन तब किसानी सिर्फ
रोजी-रोटी कमाना नहीं रह जाएगी, वह आजीविका नहीं होगी,
वह लिविंग ही नहीं होगी, वह जीवन भी बन जाएगी।
जैसे कबीर बुन रहा है, कपड़े बुन रहा है और उपलब्धि के बाद भी
बुनता चला जा रहा है, लेकिन अब कपड़े बुनने में एक गुणात्मक
अंतर पड़ गया है। अब वह कपड़े बुन रहा है, वह आजीविका नहीं है,
अब वह उसका आनंद है। और जब वह कपड़े बुन कर सांझ को गांव बेचने जा
रहा है तो नाचते जा रहा है। और कोई रास्ते में पूछना है कि तुम इतने खुश क्यों हो
रहे हो, वह कह रहा है कि राम बाजार में खरीदने आए होंगे यह
कपड़ा। जल्दी लेकर पहुंच जाऊं और इतना अच्छा बुना...। और जिस ग्राहक को भी कबीर
कपड़ा बेचते उस ग्राहक से वे कहते थे कि राम, बहुत अच्छा बुना
है। बड़ी मेहनत की है, पूरे प्राण डाल दिए हैं। अब यह एक
आजीविका न थी। अब यह दो पैसे, चार पैसे, लेने-देने का सवाल न रहा। अब यह जिंदगी का आनंद हो गया।
फिर
जिंदगी है, तब जिंदगी का आनंद भी हो सकता है। और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि युग
कौन सा है--वह जेट का युग है कि कृषि का युग है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ ये
उद्योग के युग हैं--उद्योग किस दिशा में काम कर रहा था वह बात दूसरी है। कभी कृषि
हमारा उद्योग थी, अब उद्योग हमारी कृषि बन सकता है। इसमें
कोई बहुत अड़चन नहीं है। लेकिन आदमी निरंतर अपनी इंद्रियों को फैलाने का उपाय कर
रहा है, वही उसकी उद्योग है। आदमी के पास नाखून बहुत छोटे
हैं तो उसने तलवार बनाई है। शेर को बनाने की जरूरत नहीं पड़ी, नाखून से काम ले सकते हैं। आदमी के पास आंखें उतनी दूर तक नहीं देख हैं
जितनी दूर तक जंगली जानवर की आंखें देखती हैं, तो उसको
दूरबीन लगानी पड़ी। आदमी उतनी तेजी से नहीं दौड़ सकता जितना घोड़ा दौड़ सकता है तो
उसको हार्स-पावर को ईजाद करना पड़ा। आदमी अपनी इंद्रियों का विस्तार कर रहा है,
निरंतर। अगर आज वह चांद पर भी पहुंच गया है, तो
भी उसके चलने का ही विस्तार है। वह नया उपकरण खोज रहा है। हम अपनी इंद्रियों को
बड़ा करते चले जा रहे हैं। अगर आज हमने रेडियो ईजाद कर लिए हैं तो वह हमारे कान का
विस्तार है। आज हम ज्यादा दूर तक सुनने में समर्थ हैं और ज्यादा दूर तक बोलने में
समर्थ हैं।
समस्त
उद्योग आदमी की इंद्रियों का विस्तार है। और आदमी ने यह कार्य उसी दिन से शुरू कर
दिया है जिस दिन से वह पैदा हुआ है। उद्योग पीछे आया, ऐसा नहीं,
आदमी के साथ ही जन्म गया है। आदमी औद्योगिक है। इसलिए मैं उन लोगों
के पक्ष में नहीं हूं जो कि आदमी को गैर-औद्योगिक करना चाहते हैं, या पीछे लौटाना चाहते हैं, या चरखात्तकली पर ले जाना
चाहते हैं। क्योंकि मैं मानता हूं कि वह उस जगह से गुजर चुका है, वह लौटने लायक नहीं है। आदमी ज्यादा मैच्योर हो गया है। अब वह और बड़े
यंत्र खोजेगा, और बड़ा विस्तार करेगा। पीछे लौटने का कोई उपाय
नहीं है। और समस्त पीछे लौटाने की धारणाएं खतरनाक हैं। क्योंकि जिस मात्रा में हम
उद्योग को पीछे ले गए हैं उसी मात्रा में मनुष्य को भी पीछे ले जा सकते हैं।
इसलिए
मेरे लिए इससे कोई संबंध नहीं है कि आप किस युग में रह रहे हैं। हर युग में
आत्म-उपलब्धि करनी पड़ेगी अन्यथा आदमी एक वैक्यूम में, एक खालीपन
में जीएगा। और एक रिक्तता और अर्थहीनता मालूम पड़ेगी, वह
अर्थहीनता और वह खालीपन मिटेगा उसी दिन जिस दिन मैं जान सकूं कि मैं कौन हूं और
ठीक से मैं पहचान सकूं अस्तित्व को, उसके अर्थ को, उसके प्रयोजन को, मेरे पूरे होने को। इसके बाद
अभिव्यक्ति होनी शुरू होगी; पर वह परिणाम है।
प्रश्न: जिन मान्यताओं के ऊपर एक युग का, एक परिवेश
का, देश या काल का असर है, उनके निकट
होकर आप यह निर्णय ले रहे हैं? ऐसा नहीं लगता है आपको कि देश
काल या परिस्थिति से गुजर चुके हैं? ऐसा समझें आपके ऊपर उसका
भी कुछ असर है जो जा चुका युग है--जानकारी का, मान्यताओं का,
आत्माओं का। तो उस बीते हुए युग की कल्पनाओं को अगर आधार बनाकर हम
सिखा सकते हैं...।
नहीं, यह मैं
नहीं कहता हूं। न तो मुझ पर पीछे का कोई बंधन है।...नहीं; स्थूल
आलोचना नहीं है। उससे ज्यादा सूक्ष्म आलोचना नहीं हो सकती है, क्योंकि मैं कह ही यह रहा हूं कि आत्म-उपलब्धि के पहले जो भी अभिव्यक्ति
है वह हमारे मनस की ही होगी। और हमारा मनस अगर रुग्ण है तो हमारी अभिव्यक्ति भी
रुग्ण होने वाली है। हम वही प्रकट कर सकते हैं, जो हम हैं।
और मैं कह सकता हूं कि पिकासो रुग्ण है तो हमारी अभिव्यक्ति भी रुग्ण होने वाली
है। हम वही प्रकट कर सकते हैं, जो हम हैं। और मैं कह सकता
हूं कि पिकासो रुग्ण हैं। इस रुग्णता को...आज का समस्त कलाकार रुग्ण है। शायद वह
हमें अपील भी इसलिए करता है कि हम भी रुग्ण हैं। और हमारे रोग को उससे राहत मिलती
है। आज की पूरी की पूरी कला, किसी गहरे अर्थों में
पैथालॉजिकल है, साइकिक है, कहीं रोग से
भरी हुई है।
तुम
जान कर हैरान होओगे कि इधर पिछले तीस-चालीस वर्षों का बड़ा चित्रकार, बड़ा कवि,
बड़ा दार्शनिक पागल न हुआ हो, ऐसा कहना कठिन
है। जितना भी इस पिछले तीस-चालीस वर्षों का जिसको हम बड़ा आदमी कहें, महत्वपूर्ण आदमी कहें, वह एकाध बार पागलखाने न हो
आया हो और साइकोएनालिसिस से न गुजरा हो, यह भी बहुत मुश्किल
है। वह चित्त के लिए परेशान है। उसको नींद आ रही है यह भी आसान नहीं मालूम पड़ता।
उसके लिए तो ट्रेंक्वेलाइजर्स की जरूरत है। उसकी जिंदगी सब तरह से अस्त-व्यस्त हो
गई है और वह बीमार और परेशान है और उसके ऊपर चिंता का भारी बोझ है। इस बोझ की वह
एक्सरसाइज भी कर रहा है। जैसे सार्त्र है या कोई और है। वह उस सारे की चिंता को
जस्टिफाई करने की कोशिश में भी लगा हुआ है कि यह चिंता बीमारी नहीं है, यह भी मनुष्य का अस्तित्व है...यह चिंता कोई बीमारी नहीं है, यह मनुष्य का अस्तित्व है। यह जो डिस्पेयर है, यह जो
विषाद है, और यह जो रुग्णता है यह कोई बीमारी नहीं है,
यह कोई हमारी परेशानी नहीं है, ऐसा मनुष्य का
तत्व ही यही है। यह जस्टिफिकेशंस भी खोज रहा है। और जब कोई रुग्ण अपनी बीमारी के
लिए भी संगतियां खोजने लगे, तब समझना चाहिए कि बीमारी सीमा
के बाहर चली गई है; क्योंकि बीमारी को बीमारी ही ले लेगा तो
उसके इलाज का उपाय है। और अगर बीमारी हमारा दर्शन बन जाए तब तो फिर कोई उपाय ही
नहीं है।
तो
मैं जो कह रहा हूं,
किसी पुरानी मान्यता के आधार पर नहीं कह रहा हूं, जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं कह रहा हूं। मुझे
किसी मान्यता से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं ऐसा देखता हूं कि यह हमारा युग और खास
कर इसमें जो लोग समझदार हैं, जो इस युग को अभिव्यक्ति दे रहे
हैं, वे किसी गहरे तल पर रुग्ण हैं, जो
इनके विवेक और इनके प्रतीकों से निकलनी शुरू होती है।
जैसे
यह समझ में पड़ता है कि गुलाब का फूल है, वह आदमी को सदा सुंदर मालूम पड़ता
है, सब युग में। इस युग को गुलाब के फूल का सौंदर्य गौण हो
गया है, उसे तो कैक्टस ज्यादा सुंदर मालूम पड़ता है। कांटे ही
कांटे हों किसी पौधे पर तो वह प्रीतिकर ज्यादा होता है। कैक्टस सदा गांव के बाहर
था, शूद्र था। पहली दफे अभिजात, बुर्जुआ
हुआ है। अच्छे घरों में होना जरूरी हो गया है। और घर में ही, बैठकखाने में ही होना चाहिए, बाहर भी नहीं।
अब
यह तो कैक्टस घर के भीतर आया है, यह सवाल नहीं है कि कांटा सुंदर हो सकता है या
नहीं। सुंदर होना न होना मनुष्य की मान्यताएं हैं। अगर आदमी रुग्ण न हो तो न गुलाब
का फूल सुंदर है और न कांटा सुंदर है और न असुंदर है। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है
कि जिस आदमी को गुलाब का फूल सुंदर मालूम पड़ता है उसका चित्त, और जिस आदमी को कांटा सुंदर मालूम पड़ता है उसके चित्त में बुनियादी फर्क
होगा। क्योंकि कांटे का सुंदर मालूम पड़ना किसी बहुत गहरी पीड़ा और दर्द से ही संभव
हो सकता है। और फिर भी यह जो आदमी, जिसको कांटा सुंदर मालूम
पड़ रहा है, यह भी जब अपनी प्रेयसी को प्रेम करता है तो कांटे
की माला नहीं पहनाता है, यह भी गुलाब का फूल ही पहनाने ले
जाता है। और अगर यह कविता करता है तो भी प्रेयसी के बिस्तर पर कांटे नहीं बिछाता
है, उसमें अभी भी वह लाकर फूल बिछाता है। लेकिन कांटे के
प्रति उसका जो राग जन्मा है वह पीड़ा और दुख के प्रति राग का सूचक है। और कांटा इसे
ऐसा सुंदर लग रहा है कि जैसे बैठकखाने में रखने जैसा हो गया है। यह इस आदमी के
बाबत खबर दे रहा है। कैक्टस से कुछ लेना-देना नहीं है।
अब
जैसे कि पिकासो के चित्र हैं, या किसी और के चित्र हैं--ये सारे के सारे
चित्र बहुत विचारणीय हैं। विचारणीय इन अर्थों में हैं कि इन चित्रों को कैसे जान
कर सब तरफ से कुरूप करने की चेष्टा की जा रही है। जैसे पुराना चित्रकार चित्रों को
जान कर सुंदर बनाने की चेष्टा में रत था--अनुपात, रिदिम,
रंग वह सब तरफ से उन्हें सुंदर बनाने की कोशिश कर रहा था। मैं नहीं
कहता कि ये सुंदर थे। यह हमारी मान्यताओं की बात है, लेकिन
पुराने चित्रकार सुंदर बनाने की चेष्टा में संलग्न थे। नया चित्रकार जैसे सौंदर्य
को खंडित करने की चेष्टा में संलग्न है। जैसे जब तक उसे तोड़ कर, मिटा कर, बिगाड़ कर नहीं रख देगा तब तक उसके भीतर कोई
चीज तृप्त नहीं होगी।
तो
मुझे लगता है कि वह नया चित्रकार जो चित्र बना रहा है उसमें कहीं बहुत गहरे में
डिस्ट्रक्शन है। अब जैसे कि पिकासो का कोई चित्र है, तो उसमें हाथ अलग है,
सिर अलग है, आंखें अलग हैं, पैर अलग हैं और सब टूटा-फूटा है। इसमें अगर पिकासो को सौंदर्य मालूम पड़ता
है, या इसे रचना करनी है ऐसा लगता है तो इससे पिकासो के
चित्त की खबर मिलती है। इस कमरे को मैंने कैसा रखा है, अगर
मैं इस कमरे में रहने वाला हूं तो मेरे बाबत यह कमरा खबर देता है। मैंने इसमें
कैसे रंग लगाए हैं, यह भी मेरे बाबत खबर देता है। अगर मैंने
यहां आदमी की लाशें लटका रखी हैं तो भी मेरे बाबत खबर मिलती हैं। अगर मेरे यहां
बंदूकें लटकी हैं, तो भी मेरे बाबत खबर मिलती है। यहां मैंने
एक फूल लगा रखा है तो भी मेरे बाबत खबर मिलती है। फूल या बंदूक के बाबत इससे कोई
खबर नहीं मिलती है। मेरे संबंध में खबर मिलती है।
फिर
अगर हम पिकासो जैसे व्यक्ति की अंतर्जीवनी में उतरें तो हमें समझ में आना शुरू हो
जाएगा कि कठिनाइयां कैसी भारी हैं। अब मजा यह है कि पिकासो रात को इतना भयभीत और
डरा हुआ आदमी था कि अकेला नहीं सो सकता था कमरे में। बिना पिस्तौल रखे नहीं सो
सकता था। यह जो आदमी है,
यह रात में दस दफे उठ कर पिस्तौल अपनी देख लेगा कि अपनी जगह है या
नहीं। तो थोड़ा सोचना पड़ेगा कि इस आदमी को हो क्या गया है? सिर्फ
इसके चित्र ही देखने लायक नहीं हैं, इस आदमी पर भी विचार
करना पड़ेगा कि मामला कहीं रुग्ण है। कहीं कोई चीज इस आदमी के भीतर नाइट मेयर की
तरह, दुःस्वप्नों की तरह घूम रही है। और इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता कि नाइट मेयर एयरकंडीशन हो। तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी सुविधा के बीच
नाइट मेयर देखा जाएगा। लेकिन जो चित्र पिकासो जन्म दे रहा है, यह पिकासो ही जन्म दे रहा है। ये चित्र इसके मन में कहीं न कहीं होने
चाहिए। ये इसके मन से ही आएंगे। ये टूटे-फूटे लोग और ये मुर्दे जैसी हालतें,
ये सूखे हुए आदमी--ये सब इसके भीतर से आएंगे। यह इसके भीतर कहीं
होना चाहिए; ये सिंबालिक हैं। इसके चित्त में कहीं इस तरह की
घटनाएं घट गई हैं, जिनको यह बाहर निकालने की कोशिश कर रहा
है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि संगीत से निकालेगा कि चित्र बनाएगा, या हो सकता है कि आदमी के साथ व्यवहार करे।
वह
बड़े मजे की बात है,
जानने जैसी है कि हिटलर अपने बचपन में आर्टिस्ट होना चाहता था,
चित्रकार होना चाहता था। मां-बाप नहीं होने दिए। मैं मानता हूं कि
अगर हिटलर चित्रकार होता तो उससे जरूर आदमियों को मारने के, गर्दनें
काटने के, बम गिराने के चित्र बनाए होते और यह अच्छा होता कि
चित्रकार हो जाता। मैं मानता हूं कि यह अच्छा होता कि चित्रकार हो जाता तो एक करोड़
आदमी को नहीं मारता। यह आदमी अगर चित्रकार हो जाता तो इसके चित्र में हिटलर निकल सकता था। लेकिन तब शायद हम इसको
बहुत आदर दे पाते। फिर तब हमें एक सीधी बात पकड़ में न आती। लेकिन यह आदमी चित्रकार
नहीं हो पाया और यह आदमी एक ताकत का आदमी हो गया और डिक्टेटर हो गया। और तब जो उन
चित्रों में इसने बनाया होता वह इस आदमी ने जिंदगी में बना दिया, क्योंकि इसके हाथ में ताकत थी। मैं मानता हूं कि अगर पिकासो जैसे आदमी को
अगर हिटलर जैसी कोई ताकत हो तो पिकासो यही करेगा जो हिटलर कर रहा है। करेगा इसलिए
कि रंग के साथ वही कर रहा है, चित्र के साथ भी वही कर रहा
है। चीजों को तोड़ने-फोड़ने का एक रस है, वह बहुत गहरी वायलेंस
से निकल रहा है, हिंसा से निकल रहा है।
तो
जब मैं यह कह रहा हूं कि मेरा तो मापदंड न तो साहित्य का है न कला का है। मेरा
इनसे कोई प्रयोजन नहीं है। मेरे जो सारे मापदंड हैं मनुष्य के मनस के...आप जो भी
कर रहे हैं। अब एक आदमी बहुत चुस्त कपड़े पहन कर सड़क पर चल रहा है, इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता कि कोई चुस्त पहने कि ढीले पहने है, लेकिन उस
आदमी के बाबत खबर मिलती है। उससे कपड़ों के बाबत हमें पता नहीं चलता है। अगर बहुत
चुस्त तरह के कपड़े आदमी पहने हो तो उसके चित्त में किसी न किसी तरह की गहरी
कामुकता होगी। अगर बहुत चुस्त तरह के कोई आदमी कपड़े पहने हुए है, तो वह लड़ने को तत्काल तैयार रहेगा। अगर उसने ढीले कपड़े पहन रखे हैं तो
लड़ने की संभावना उसकी थोड़ी कम हो जाएगी। ढीले कपड़े के साथ लड़ना जरा मुश्किल मामला
है। और ढीले कपड़े उसने चुने हैं तो इसलिए चुने हैं। अगर आप ढीले कपड़े पहन कर
सीढ़ियां चढ़ रहे हैं तो एक-एक सीढ़ी चढ़ेंगे और चुस्त कपड़े पहन कर चढ़ रहे हैं,
दो सीढ़ी इकट्ठे चढ़ जाएंगे। आपके व्यक्तित्व की बड़ी छोटी सी चीजों से
अंतर पड़ने शुरू होंगे।
तो
पिकासो जैसा व्यक्ति जो जिंदगी भर एक सिलसिले में चित्र बना रहा है, यह सारा
का सारा सिलसिला हिंसा से भरा हुआ है। हमने कभी सोचा नहीं है इस भाषा में कि
अहिंसक चित्रकार भी होता है और हिंसक चित्रकार भी होता है, क्योंकि
हम सोचते हैं कि चित्र में हिंसा का क्या सवाल है? हमने यह
कभी सोचा नहीं कि स्युसाइडल चित्रकार भी होता है, क्योंकि हम
सोचते हैं कि हत्या करने से चित्र का क्या मतलब है? हमने कभी
यह सोचा नहीं कि स्युसाइडल चित्रकार भी होता है, क्योंकि हम
सोचते हैं कि हत्या करने से चित्र का क्या मतलब है? हमने कभी
यह सोचा भी नहीं है कि कामुक चित्रकार भी होता है, गैर-कामुक
चित्रकार भी होता है। लेकिन इस भाषा में सोचा जाना जरूरी है। जब मैं यह कह रहा हूं
तो स्थूल बात नहीं कह रहा हूं, क्योंकि मेरे मापदंड का
साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं है। कला से मेरा कोई संबंध नहीं है। मेरा संबंध है
तो आदमी से है। आदमी क्या कर रहा है? इस कमरे में बैठ कर यह
सितार बजा रहा है या इस कमरे में बैठ कर छुरे पर धार रख रहा है--इससे फर्क पड़ता है,
इससे उस आदमी का पता चलता है।
पिकासो
जैसे चित्र बना रहा है वे छुरे पर धार रखने जैसे हैं। तो वह सितार बजाने जैसे
चित्र नहीं हैं। और मजा यह है कि अगर हम इन चित्रों को अलग कर दें और पिकासो के
व्यक्तित्व को सीधा देखना शुरू करें तो बहुत हैरानी हो जाएगी। तब तो बहुत चीजें
साफ हो जाएंगी कि मामला क्या है। अब जो औरत पिकासो के साथ दस वर्ष रही उसने पिकासो
के साथ के दस वर्षों की पूरी कथा लिखी है। वह समझने जैसी है कि पिकासो आदमी कैसा
है। उसके भीतर क्या हो रहा है? उसके व्यक्तित्व में क्या-क्या पड़ा है? वही सब निकल रहा है।
यह
अभिव्यक्ति अगर आत्म-साक्षात्कार के पहले हो, तो स्वभावतः होने वाला है यह। जुंग
ने बहुत से रुग्ण मनुष्यों से, बहुत से रुग्णचित्त लोगों से
चित्र बनवाए। जैसे कि हम उसके सपनों को देख कर समझ पाते हैं, उसकी बीमारियां क्या हैं, वैसे हम उससे चित्र भी
बनवा कर भी समझ पाएंगे कि उसकी बीमारियां क्या हैं? तो जुंग
ने अपने बहुत से पागल, रुग्णचित्त लोगों से चित्र बनवाए। वे
चित्र बड़े हैरानी के हैं। अब यह बड़े मजे की बात है कि अगर वे चित्र आपके सामने रखे
जाएं और उनका नाम न बताया जाए तो शायद आप कहें, पिकासो का
होना चाहिए। यह बड़ी हैरानी की बात है कि वे लोगों ने बनाए हैं कि जो चित्रकार नहीं
हैं, पर उनको रंग दे दिए हैं और उनको चीजें दे दी हैं और
उनसे कहा है कि तुम कुछ भी बनाओ। तो सीरीज में बना रहे हैं। अशिक्षित हैं, कोई कला में उनकी ट्रेनिंग नहीं है। तो वे कुछ तो बनाएंगे, जो भी बनाएंगे उनके भीतर से ही आने वाला है।
एक
छोटा बच्चा चित्र बनाता है तो आप उस छोटे बच्चे के चित्र में एक हैरानी की बात
देखेंगे कि सिर बनाएगा,
पैर बनाएगा, हाथ बनाएगा, आंख बनाएगा, बीच का हिस्सा छोड़ देगा। सिर बड़ा
बनाएगा। हाथ बनाएगा दोनों, दोनों पैर लगा देगा सीधा। दूसरा
हिस्सा छोड़ देगा। क्यों? सभी दुनिया के बच्चे ऐसा बनाएंगे।
ऐसा नहीं है कि किसी एक घर के या एक गांव के। बच्चों को जो दिखाई पड़ता है, जो उनका चित्त देख रहा है, वही बना सकते हैं। उनको
बीच का हिस्सा नहीं दिखाई पड़ता है। असल में बच्चों को दो ही चीजें दिखाई पड़ती है
उनमें वह मूवमेंट है। हाथ दिखाई पड़ते हैं, पैर दिखाई पड़ते
हैं, सिर दिखाई पड़ते हैं। बीच का हिस्सा अनमूविंग है,
इसलिए बच्चे को दिखाई नहीं पड़ती है। सिर बहुत बड़ा बनाएगा बच्चा,
क्योंकि सिर उसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है। खुद का सिर
भी उसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है। इसलिए हर चीज की जांच भी करनी है तो
वह मुंह में डाल कर करेगा। और कोई उपाय भी उसको नहीं दिखाई पड़ता है।
अगर
एक बड़ा आदमी साठ साल का इस तरह का चित्र बनाए तो हमें सोचना पड़ेगा कि यह आदमी कहीं
रिग्रेस तो नहीं कर गया। अगर एक साठ साल का आदमी इस तरह का चित्र बनाए कि सिर बड़ा
बना दे, हाथ पैर लगा दे सीधे, तो हमें सोचना पड़ेगा कि इस
आदमी की या तो ग्रोथ नहीं हुई है, या तो यह उस जगह रह गया है
जहां चार-पांच साल का बच्चा होता है मेंटली, या यह रिग्रेस
कर गया है। अन्यथा और क्या कारण हो सकता है? लेकिन नहीं,
यह आदमी साठ साल का है, सात साल का, पांच साल का बच्चा जस्टिफाई नहीं कर सकता है। यह कह सकता है यह आर्ट का
नया फार्म है। यह जो है आर्ट का नया फार्म है। यह साठ साल का आदमी है, इसके पास सात साल के शब्द, भाषा, प्रतीक हैं। यह कह सकता है कि यह आर्ट का नया फार्म है। बल्कि यह कह सकता
है कि बच्चा ही असली आर्टिस्ट है।
अभी
कुछ लोगों ने कहना शुरू किया है कि बच्चा ही असली आर्टिस्ट है। बाद में हम आर्ट
भूल जाते हैं और कुछ लोगों को याद रह जाता है और कुछ लोग भूल जाते हैं। जिनको याद
रह जाता है वे चित्रकार हो जाते हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
विज्ञान
का विकास हो तो मनुष्य के जीवन-मूल्य विकसित होते हैं। लेकिन थोड़ी दूर तक ही कह
रहा हूं, क्योंकि जिंदगी सदा ही बड़ी परस्पर निर्भर है। अगर मनुष्य के जीवन-मूल्य
विकसित हों तो विज्ञान का विकास होता है। विज्ञान विकसित हो तो जीवन विकसित होता
है। असल में मनुष्य का जीवन खंडों में बंटी हुई चीज नहीं है, बल्कि अखंड है। वहां कुछ भी हो तो दूसरी चीजों पर उसके परिणाम होते हैं।
अब जैसे, हिंदुस्तान में कभी भी हमारे मन में संपत्ति का कोई
मूल्य नहीं रहा। एक-एक व्यक्ति के मन में रहा लेकिन हमने संपत्ति को भी जीवन-मूल्य
न बताया, बल्कि अनादर, निंदा, त्याग वे हमारे मूल्य रहे। क्योंकि संपत्ति कभी हमारे लिए ऐसी चीज नहीं
बनी जो जीवन के लिए जरूरी चीज हो इसलिए संपत्ति को पैदा करने के जो-जो वैज्ञानिक
विकास होने चाहिए वे हमने नहीं किए, क्योंकि करने का कोई
सवाल ही न था। दरिद्रता को हमने वैल्यू बनाया है। और जो आदमी जितनी दरिद्रता में
उतर जाए स्वेच्छा से, वह उतना बड़ा महात्मा हो गया। तो जब
दरिद्रता को हमने मूल्य बनाया तो दरिद्रता को लाने के लिए कोई वैज्ञानिक विकास की
जरूरत नहीं है। संपत्ति को लाना हो तो वैज्ञानिक विकास करना पड़ता है। तो यह बड़े
मजे की बात है कि हिंदुस्तान दुनिया में पृथ्वी पर सबसे पहले सभ्य हो गए समाजों
में से है, लेकिन आज सबसे ज्यादा असभ्य समाज है।
सबसे
पहले सभ्यता के शिखर जिन्होंने छुए हैं वे अचानक एक दिन दीन-हीन और दुनिया के
पिछड़े हिस्से में गिने जाने लगे। यह सोचने जैसा है कि विज्ञान की सब प्राथमिक
कड़ियां हमने पूरी कीं। और आज से दो हजार साल पहले जब कि हम गणित के संबंध में कुछ
दावा कर सकते थे,
ज्योतिष के संबंध में कुछ दावा कर सकते थे, चांदत्तारों
के ज्ञान के संबंध में थोड़ा दावा कर सकते थे, तब यूरोप
करीब-करीब असभ्य अवस्था में था। क्या हुआ? सबसे पहले विज्ञान
की कुछ क्षमताएं हमारे पास आईं, क्योंकि आज भी गणित के जो
अंक हैं वे हमारे ही हैं, सारी दुनिया में। एक से लेकर नौ तक
जो गणित के डिजिट हैं वे भारतीय हैं, संख्या के लिखने के जो
ढंग हैं, वे भारतीय हैं। बोलने के ढंग भी भारतीय हैं। दो और
टू, एक ही चीज के रूपांतरण हैं। थ्री और तीन एक ही चीज के
रूपांतरण हैं। नाइन और नौ एक ही चीज के रूपांतरण हैं। लिखने के ढंग में वे भारतीय
हैं, बोलने के ढंग में वे भारतीय हैं। सबसे पहले गणित का
हमने हिज्जा खोजा था, लेकिन फिर गणित की ऊंचाइयां हम न खोज
पाए, क्योंकि जो मूल्य हमें चाहिए थे विकास के लिए गणित के,
वे हमारे पास नहीं थे।
जीवन-मूल्य
हमारे पास न थे। विकास के जीवन-मूल्य में बुनियादी बातें हैं, डिस्कंटेंट
होना चाहिए। डिस्कंटेंट हमारे लिए कोई मूल्य नहीं रहा, कंटेंट
मूल्य रहा। संतुष्ट आदमी हमारा आदर्श आदमी था। संतुष्ट आदमी विकासमान नहीं होता,
डायनेमिक नहीं होता। संतुष्ट का मतलब ही है कि वह जहां है वहां होने
को राजी है। उसके पास जो है वह उससे पूरी तरह तृप्त है। अगर उससे हम थोड़ा और छीन
लें तो उससे भी तृप्त होगा। अतृप्ति, डिस्कंटेंट जो है मूल्य
हो, वहां फिर विज्ञान का विकास शुरू हो जाता है। तो
जीवन-मूल्य हमारे पास नहीं थे ऐसे जिनसे विज्ञान विकसित होता। पश्चिम में जहां
विज्ञान विकसित हुआ है, वहां जीवन-मूल्य में फर्क होना शुरू
हो गया है। अब यह बड़े मजे की बात है। जैसे मेरी अपनी समझ यह है कि न तो बुद्ध,
न महावीर, दोनों ने हिंदुस्तान से शूद्र को
नहीं मिटाया। लेकिन रेलगाड़ी ने शूद्र को मिटा दिया। गांधीजी का कुछ मामला नहीं है
उसमें। जो शूद्र के हटने की घटना घटी वह रेलगाड़ी में शुरू हुई। अगर बैलगाड़ी जारी
रहे तो हिंदुस्तान से आप शूद्र को कभी हटा सकते हैं, चाहे आप
कांस्टिट्यूशन में लिख दें, चाहे कुछ भी कर लें। और जहां
बैलगाड़ी है वहां आप भी नहीं मिटा पा रहे हैं। आप गांव में नहीं मिटा सकते। क्योंकि
जो टेक्नालॉजी है वह इस पुराने जीवन-मूल्य के साथ मौजूद है, उसमें
कोई कल्पना नहीं आती। मेरी बैलगाड़ी में तो इतना कह सकते हैं कि आप नहीं बैठ सकते
हैं। ब्राह्मण की बैलगाड़ी में शूद्र को न बैठने दें तो इसमें किसी का कोई हक नहीं
है, क्योंकि कोई कांस्टिट्यूशन हक नहीं देता कि आपको बैलगाड़ी
में बैठने दिया जाए। लेकिन रेलगाड़ी के साथ मुसीबत शुरू होगी। रेलगाड़ी में ब्राह्मण
का सूरत में बैठना संभव नहीं है। ब्राह्मण की बगल में भंगी बैठेगा और भंगी मजे से
खाना खाएगा और ब्राह्मण खाना खाएगा तो उससे वह यह नहीं कह सकता कि तू जा। क्योंकि
किसी के बाप की नहीं है रेलगाड़ी।
अगर
बैलगाड़ी है तो शूद्र चलेगा। कांस्टिट्यूशन में बदलने से, कुछ करने
से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि बुद्ध-महावीर समझा-समझा कर मर गए और यह बड़े मजे की
बात है कि बुद्ध और महावीर का बुनियादी झगड़ा शूद्र भी एक, अवर्ण
व्यवस्था भी एक है। लेकिन बुद्ध और महावीर को मानने वालों ने भी धीरे-धीरे
वर्ण-व्यवस्था का अंगीकार कर लिया। आज हिंदुओं के मंदिर में कोई प्रवेश भी कर जाए,
जैन के मंदिर में कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह
कहता है कि हम हिंदू नहीं हैं। महावीर का सारा झगड़ा यह था कि कोई शूद्र वर्ण में
है, उसका दावा है और हम तो जैन हैं, इसलिए
हमसे तो कोई संबंध नहीं है उसका। और उसे पता नहीं है कि तुम जैन हो सिर्फ इसलिए कि
झगड़ा यह था कि हम वर्ण-व्यवस्था को नहीं मानते। मगर यह नहीं हो सका। टेक्नालॉजी ने
यह संभव किया। अब जैसे पश्चिम में नये मूल्य पैदा होने शुरू हुए हैं, वे टेक्नालॉजी की वजह से हुए हैं। उदाहरण के लिए--
जिस
दिन से पश्चिम में यंत्र आटोमेटिक होने लगा उसी दिन से श्रम का मूल्य गिर गया, जीवन-मूल्य
नहीं रहा। जैसा हमारे साधु और विनोबा जी कहते हैं कि श्रम जीवन है और श्रम
अध्यात्म है और श्रम यह है और श्रम भगवान की देन है--ऐसा अमेरिका का आज कोई विचारक
नहीं कह सकता है, क्योंकि यह गधा-पच्चीसी होगा। अमेरिका
विचारक तो अब यह कह रहा है कि बच्चे को स्कूल में यह समझाओ, क्योंकि
जब यह बच्चा बड़ा होगा तब श्रम बिलकुल गैर-जरूरी हो चुका होगा। अगर तुमने श्रम की
शिक्षा इसे दी तो यह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा, क्योंकि श्रम
तो मिलेगा नहीं, क्योंकि मशीन सारा काम करने लगेगी। इसलिए
बच्चों को स्कूल में कोई लेजर सिखाओ, उनको विश्राम सिखाओ,
उनको विलास सिखाओ कि वे श्रम करना बंद कर दें, नहीं तो वे बीस साल में दिक्कत कर देंगे। अब यह बड़े मजे की बात है कि बीस
साल में चूंकि अमेरिका में सारी की सारी यांत्रिक व्यवस्था स्वचालित हो जाएगी तो
करोड़ों लोग बेकार हो जाएंगे। अब यह जो बेकार आदमी है यह बेकार आदमी अगर श्रम की
मांग करे कि हमें श्रम चाहिए, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाएगी।
अगर इनको श्रम देते हैं तो नई टेक्नालॉजी का उपयोग नहीं हो सकता है और नई
टेक्नालॉजी का उपयोग न हो तो आगे गति नहीं है। अगर इनको श्रम देते हैं तो नई
टेक्नालॉजी का उपयोग नहीं हो सकता है और नई टेक्नालॉजी का उपयोग न हो तो आगे गति
नहीं है। तो इन्हें तो बिना श्रम की नौकरी देनी पड़ेगी। तो इनको नौकरी तो देनी
पड़ेगी, क्योंकि अगर आप मशीन से चीजें भी पैदा कर लें तो
खरीददार न मिलेगा। खरीददार तो चाहिए बाजार में, और खरीददार
तब होगा जिसके पास पैसा होगा। अगर आपने सारे लोगों को काम के बाहर कर दिया तो मशीन
पैदा करेगी चीजों को और खरीदेगा कौन, और खरीदेगा कैसे?
इसलिए बेकार को हमें पैसा देने का खयाल पैदा करना पड़ा।
बल्कि
बहुत मजे की बात है,
अमेरिका इकोनॉमिस्ट के सामने यह बड़े से बड़ा सवाल है कि जो आदमी
दोनों मांगेगा उसको हम कम तनख्वाह देंगे क्योंकि वह काम भी मांगता है और तनख्वाह
भी मांगता है। जो आदमी सिर्फ तनख्वाह मांगता है वह ज्यादा तनख्वाह पा सकता है,
क्योंकि समाज को दोहरी दिक्कत नहीं दे रहा है। वह कह रहा है,
हम सिर्फ तनख्वाह पर राजी हैं, हमें काम नहीं
चाहिए। तो जब काम करने वाला बीस साल बाद काम मांगेगा तो वह अच्छा आदमी न समझा
जाएगा जैसे अभी काम न करने वाला अच्छा आदमी नहीं समझा जाता है। अगर घर में एक आदमी
काम नहीं करता है तो हम कहते हैं यह आदमी बुरा आदमी है। क्योंकि काम नहीं करेगा तो
कौन तेरे को खिलाएगा। बीस साल बाद अमेरिका में जो आदमी काम मांगेगा वह एंटी-सोशल
हो जाएगा, समाज का दुश्मन हो जाएगा, क्योंकि
यह आदमी काम मांगे चला जाता है।
तो
सारे मूल्य बदलने पड़ेंगे,
और तब तक हम सोचते थे कि जो आदमी काम करता है, उसे काम का मूल्य मिलना चाहिए। कम्युनिज्म की आधारशिलाएं हैं कि जितना काम
उतना दाम। अब इसे बदलना पड़ेगा। बीस साल बाद अमेरिका में उनको कहना पड़ेगा--जितना कम
काम उतना ज्यादा दाम। जो नहीं करेगा बिलकुल, पाएगा सबसे
ज्यादा। स्वभावतः श्रमिक दुनिया में जो अब तक की पावर्टी स्ट्रिकन, स्टार्व्ड दुनिया थी, श्रम को मूल्य बनाएगा।
एफ्लुएंट सोसाइटी में श्रम मूल्य नहीं रह सकता। और इस श्रम के आधार पर हमने
जीवन-मूल्य जो निर्धारित किए थे--उद्योग, श्रमिक, सुबह जल्दी उठने वाला, ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाला,
ज्यादा काम करने वाला, आलस्य से हीन, यह सब हमको बदलने पड़ेंगे, क्योंकि वे सबके सब जो हैं
ये पुराने टेक्नालॉजी से जुड़े हैं। नये टेक्नालॉजी में हम कहेंगे, यह आदमी बहुत बढ़िया है जो बारह बजे तक सोता है, क्योंकि
बाहर बजे तक यह सोसाइटी को बाधा नहीं करता। बारह बजे तक वह झंझट खड़ा नहीं करता,
बारह बजे ही उठ कर कहता है, काम चाहिए। हमें
कुछ नई चीजों के मूल्य बढ़ाने पड़ेंगे, नाच के, गाने के, संगीत के, पेंटिंग के,
इनके हमें मूल्य बहुत बढ़ाने पड़ेंगे। हम उस आदमी को बुरा आदमी कहेंगे,
जो न पेंट कर सकता है, न नाच सकता है, न मछली मार सकता है, कुछ बेकार काम नहीं कर सकता है,
एकदम एंटी-सोशल आदमी है, क्योंकि यह आदमी मांग
करेगा फौरन, आदमी को कुछ तो चाहिए आकुपेशन, नहीं तो आदमी मर जाएगा, जी नहीं सकता। तो जो लोग
शतरंज खेल सकेंगे, ताश खेल सकेंगे, मछली
मारने जा सकेंगे, गीत गा सकेंगे, वे
बहुत अच्छे आदमी हैं। आने वाली सोसाइटी में, टेक्नालॉजी इतनी
तीव्रता से बदलाहट ले आ रही है, कि हमें मूल्य बदल देना
पड़ेगा।
अब
यह जो मूल्य बदलते हैं,
जीवन-मूल्य, विज्ञान के विकास से भी बदलते हैं,
जीवन-मूल्यों को बदलते से भी विज्ञान बदलता है। पश्चिम में पिछले
तीन सौ वर्षों में जो भी विकास हुआ है वह एक अर्थ में निरीश्वरवादियों के द्वारा
हुआ है। पश्चिम में तीन सौ साल की जो भी वैज्ञानिक क्रांति है वह एथिस्ट के द्वारा
शुरू हुई है। असल में उन लोगों ने, जिन्होंने सेक्स से लड़ना
शुरू किया है, उन लोगों ने विज्ञान को विकसित किया है।
विज्ञान का विकास कोई करोड़ों लोगों ने नहीं किया है, बहुत
थोड़े से लोगों ने किया है। यह कहा जाता है कि अगर हम दुनिया के इतिहास से तीन सौ
आदमियों को खतम कर दें तो हम बंदरों की हालत में पहुंच जाएंगे। इससे ज्यादा
आदमियों के देन नहीं है। और ये थोड़े से जो लोग हैं इधर तीन सौ वर्ष में, ये सबके सब एक अर्थ में एस्टैब्लिश चर्च के खिलाफ थे और इन्होंने एक नया
मूल्य देना शुरू किया। अब जैसे कि जो यह मानता है कि बीमारी, मौत सब भाग्य से होती है, स्वभावतः मेडिकल साइंस
इसकी खोज नहीं बन सकती, क्योंकि "होती ही है'--यह बात ही खतम हो गई। जो आदमी मानता है कि न तो हम इस बात को मानने को
राजी हैं कि मौत निश्चित है, न हम इस बात को मानने को राजी
हैं कि बीमारी कोई भगवान भेजता है वह आदमी फर्क लाना शुरू करेगा।
अभी
और फर्क लाने शुरू हो रहे हैं जो हमारी कल्पना में भी नहीं आते हैं, क्योंकि
हमारे मुल्क में अभी भी जीवन-मूल्य बहुत पुराने हैं। जीवन-मूल्य के बारे में हम
बहुत ही दकियानूसी हैं। हमारे पास कोई नया मूल्य नहीं है, क्योंकि
अभी भी हम जीवन को दुख मानते हैं। तो जो कौम जीवन को दुख मानेगी, जिसने अभी जीवन में सुख को मूल्य नहीं बनाया, हमारे
लायक जरूरी नहीं है सुख। दुख--इसीलिए आवागमन से छुटकारा कैसे हो, वह हमारी खोज है। जीवन में दुख, तो मोक्ष कैसे मिले,
स्वर्ग कैसे मिले--हम उसके बाबत बहुत खोजबीन करेंगे। जीवन तो दुख
है। इसकी तो स्वीकृति है हमारे मन में। लेकिन विज्ञान तब विकसित होता है जब हम
मानते हैं कि जीवन सुख है और अगर नहीं है सुख तो मेरे अज्ञान की वजह से नहीं है।
हम इसे और सुखी बना सकते हैं।
अब
अभी भी आदमी आ जाता है पूछने, अभी पंद्रह-बीस दिन पहले कोई मेरे पास आया और
उसने कहा कि लड़का हमारा अंधा हो गया है। अब इसके लिए कौन जिम्मेवार है? अब इस आदमी को समझाना मुश्किल पड़ता है कि अंधा होने के लिए भी हम ही
जिम्मेवार हैं। अगर मैं आपकी आंखें फोड़ दूं तो मैं जिम्मेवार हूं, क्योंकि आप सबने देख लिए हैं, आंखें फोड़ते हुए।
लेकिन मैंने एक स्त्री से संभोग किया और जो जीव उस स्त्री में डाला वह आंखों वाला
नहीं था, वह किसी ने नहीं देखा तो जिम्मेवार भगवान है।
जिम्मेवार मैं हूं। जिम्मेवार अज्ञान था और मुझे पता ही नहीं कि क्या हो रहा है?
लेकिन
अब विज्ञान कहता है कि भविष्य में अंधे बच्चे पैदा होने की कोई जरूरत नहीं है।
क्योंकि अब तो हम बीज की परख कर सकेंगे, सिर्फ पंद्रह साल के भीतर। जैसे आप
बाजार में फूलों और फलों की दुकान पर पैकेट में आपको बीज मिल जाता है, आदमी का बीज भी मिल जाएगा, सिर्फ पंद्रह साल के
भीतर। एक्सपेरिमेंटल बीज तो तैयार हो गया है, बाजार में आने
में वक्त लगेगा। तो आपको बिलकुल फ्रोजन बीज मिल जाएगा। उसके ऊपर जैसे एक फूल की
तस्वीर बनी रहती है वैसे बच्चे की तस्वीर बनी रहेगी कि इस तरह का बच्चा चाहिए। तो
बीज काम में लाओ और इसको इंजेक्ट करवाओ अपनी पत्नी में और कृपा करके आप अंधेरे में
मत बीज फेंकते रहो, नहीं तो बच्चे अंधे हो सकते हैं, लंगड़े हो सकते हैं, पागल हो सकते हैं, कुछ भी हो सकते हैं। उस पैकेट के ऊपर पंद्रह साल के भीतर हमारी जरूरत की
वह घटना घट जाएगी, क्योंकि एक्सपेरिमेंट लेबोरेटरी में पूरी
हो गई है। अब हम पूरी जांच करके उस पैकेट में बीज रखे दें जिसमें हम कह सकते हैं
कि इस बच्चे की आंखें नीली होंगी कि हरी होंगी कि काली होंगी, इसकी ऊंचाई छह फुट होगी...। इतनी इंद्रिय इसको साधारणतः होगी, इसको यह-यह बीमारियां संभव हो सकती हैं, यह-यह बीमारियां
नहीं होंगी। इसका मुंह ऐसा होगा, नाक ऐसी होगी, यह इसकी एप्राक्सिमेट तस्वीर है। इसकी आयु कुल कितनी होगी, इसकी बौद्धिक क्षमता कितनी होगी, यह कितना दौड़ सकेगा,
यह सब दिया जा सकेगा। क्योंकि अब हम वह जो क्रोमोसोम है आदमी का,
उसके भीतर प्रवेश कर गए। जैसे अब हमने एटम तोड़ लिया है, ऐसा हममें क्रोमोसोम दिखाई देगा। अब हम जानते हैं कि अंधा क्यों होता है
बच्चा। भगवान को उसके लिए दोषी ठहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह उन लोगों से आ
रहा है, जिन्होंने भाग्य को पहले इनकार कर दिया है। पहले
उन्होंने जीवन-मूल्य इनकार कर दिया भाग्य वगैरह का। उन्होंने कहा हमें कुछ पता
नहीं है, इसलिए हम नहीं मानेंगे। हम जानते हैं कि बच्चा अंधा
पैदा होता है। क्यों होता है इसका हम पता लगाएंगे।
हम
कहते हैं कि बच्चा पैदा होता है, इसका फौरन एक्सप्लेनेशन खोज लिया कि भाग्य से
पैदा होता है। अब पता लगाने की जरूरत न रह गई। तो अगर हमारे जीवन-मूल्य इग्नोरेंस
को जस्टीफाई करते हैं तो विज्ञान विकसित नहीं होता। अगर हम अपने अज्ञान के प्रेम
में भी निरंतर रत रहते हैं और किसी एक्सप्लेनेशन से, किसी
व्याख्या से अज्ञान को न्यायोचित नहीं ठहराते तो विज्ञान विकसित होता है। और जब
विज्ञान विकसित होता है तो प्रत्येक विज्ञान का घटना फौरन जीवन-मूल्यों को बदल
देती है।
अब
जैसे, अगर हम इधर पिछले बीस वर्षों में विज्ञान में जो-जो घटनाएं घटी हैं,
उनको हम ठीक से देखें तो हमें पता चलेगा कि जीवन-मूल्य किस भांति
बदलते हैं। यूरी गागरिन जब पहली दफा अंतरिक्ष में गया, उससे
जो पहली बात लौट कर पूछी कि तुम्हें पहली दफा अंतरिक्ष में पहल खयाल क्या आया?
तो उसने कहा, मुझे खयाल आया "माई अर्थ।' मुझे खयाल आया
मेरी पृथ्वी। तो जो उससे पूछ रहा था उसने कहा कि तुम्हें यह पहले खयाल नहीं आया,
मेरा रूस? तो उसने कहा, रूस
का मुझे कोई खयाल नहीं आया। रूस का खयाल आ ही नहीं सकता। रूस का खयाल जमीन पर चलने
वालों का खयाल है। जब आप आकाश में उठेंगे तो कहां रूस है, कहां
हिंदुस्तान है, पृथ्वी रह जाती है। स्वभावतः अगर हम चांद की
यात्रा करते हैं तो नेशंस नहीं बचेंगे, क्योंकि चांद पर गए
हुए मनुष्य के लिए पृथ्वी ही रह जाएगी, उसका फोकस तो पृथ्वी
रह जाएगी।
तो
अगर सारी दुनिया के लोग समझा-बुझा कर मर जाएं कि राष्ट्र हटाओ, हटाओ,
वे न हटें। एक दफा आदमी चांद और मंगल पर सहज यात्रा करने लगे,
वे हट जाएंगे। टेक्नालॉजी हटा देगी, एकदम हटा
देगी। आज आप अमेरिका जाते हैं तो वहां आप यह नहीं कहते हैं कि मैं नागपुर से आ रहा
हूं। नागपुर एकदम हट जाता है, हिंदुस्तान रह जाता है। यह बड़े
मजे की बात है कि हिंदुस्तान से जैन अमेरिका जो तो हिंदू हो जाता है, मुसलमान अमेरिका जाए तो हिंदू हो जाता है। बौद्ध अमेरिका जाए तो हिंदू हो
जाता है, क्योंकि बेमानी हो जाती है यह। क्योंकि किसको
कहिएगा की आप जैन हैं। वह पचास बातें पूछेगा कि कौन श्वेतांबर है, क्या है। हिंदू हो या मुसलमान खतम हो गई बात। इतने दूर पहुंच
जाइए...नागपुर के पास कोई गांव का आदमी बंबई आता है तो वह नागपुर बताता है। पृथ्वी
से जैसे ही हम गए, टेक्नालॉजी जैसे ही हमें चांद और मंगल पर
उतार देगी, वह बिलकुल बेमानी हो जाने वाली है।
मार्शल
मैक मोहन ने एक बहुत अच्छी बात लिखी है--उसने एक किताब लिखी है कि "मीडियम इज़
दि मैसेज।' आमतौर से हम कहते हैं कि मीडियम बात और है, मैसेज
बात और है। वे जो कह रहे हैं बात और है और जो लोग कहने से कह रहे हैं वह बात और
है। शब्द और हैं, अर्थ और हैं। तो मैक मोहन कहता है, मीडियम इज़ दि मैसेज। मीडियम ही मैसेज है। और वह बड़ी कीमती बात कह रहा है।
वह यह कह रहा है कि जैसे ही मीडियम बदलता है...।
अब
जैसे, जो बच्चे अमेरिका में बड़े हो गए हैं, वे टेलीविजन
देख रहे हैं। सुबह, रात वे टेलीविजन देख रहे हैं। तो जो
स्कूल में शिक्षक अभी कान से ही पढ़ाए चले जा रहे हैं, वे आउट
ऑफ डेट हो गए हैं। बच्चा जो है, वह आंख उसका आधार हो गई है
और शिक्षक अभी कान से पढ़ा रहा है। कान से कल पढ़ा रहा था क्योंकि आंख कोई आधार न
थी। मैसेज सीधी कान से दी जाती थी। वह कान से पढ़ा रहा था। तो अब अमेरिका को उनकी
फिक्र करनी पड़ रही है कि जल्दी हम बदलें इस व्यवस्था को, नहीं
तो हम बच्चे को...बच्चे को मजा नहीं आ रहा है उसके पढ़ने में। उसको अब आंख वाला
चाहिए, इसलिए माइक्रोबुक्स ईजाद करनी पड़ रही है, जो किताबें पर्दे पर दिखाई पड़ेंगी। पढ़ेंगे तो भी पर्दे पर, देखेंगे तो भी पर्दे पर।
अब
हमारा पुराना शिक्षक था...तो हमने जो स्कूल बनाया था, शिक्षक
सामने खड़ा हुआ है, सामने बच्चे बैठे हुए हैं--वह गलत है। पुराने
दिनों में ठीक था, क्योंकि गुरु दबा रहा था। दबाना जिसको हो
उसको सामने होना चाहिए, छाती पर होना चाहिए। इसलिए अभी भी
शिक्षक जब ब्लैक बोर्ड पर जब लौटता है, लड़के उतनी देर में
गड़बड़ कर देते हैं। इसलिए शिक्षक सदा डरा रहता है। लेकिन वह पुराना रुख था, जब तुम बच्चे को दबा रहे थे। अब नई टेक्नालॉजी ने सारा रुख बदल दिया है।
वह कहती है बच्चे को दबाना नहीं है, विकसित करना है। तो जब
विकसित करना है तो, कंफेंट्री ठीक नहीं है। इसलिए अब गोल,
सर्कुलर कमरा होना चाहिए, जिसमें शिक्षक बीच
में हो और चारों तरफ बच्चे हों तो उनके बीच फ्रेंडलीनेस पैदा होगी और दुश्मनी कभी
न होगी। और उसके प्रयोग किए गए हैं तो हैरानी का फर्क पड़ा है। शिक्षक को खुद भी
अकड़ कम हो गई, उसका पिडिस्टल, उसका वह
खड़ा हुआ या अकड़ा हुआ होना, वह जो रोग ही दूसरा था। अब तो वह
कहते हैं शिक्षक को धीरे-धीरे हट जाना चाहिए, पीछे शैडो में।
उसको तभी आना चाहिए सामने जिस दिन बहुत जरूरत पड़ जाए। अन्यथा टेलीविजन काम करेगा,
टेपरिकार्डर काम करेगा, माइक्रोबुक्स होंगी,
वे काम करेंगी। कोई बहुत जरूरत पड़ जाए तो उसे शैडो में से बाहर आ
जाना चाहिए और चुपचाप पीछे हट जाना चाहिए। उसको बहुत ज्यादा सामने नहीं होना
चाहिए।
यानी
अभी हम कल कहते थे बच्चे को डराना चाहिए, उसके सामने होने से ही तो बच्चा
डरता है, अभी उसको थोड़ा पीछे हट जाना चाहिए। धीरे-धीरे हम
शिक्षक को पीछे हटा देंगे क्योंकि जैसे टेक्नालॉजी विकसित होती है, एक बात साफ हो गई है--क्योंकि सारे लोग तो पैदाइशी शिक्षक नहीं होते हैं।
मुल्क में दो-चार लोग पैदाइशी शिक्षक होते हैं। सब बच्चों को इतना लाभ नहीं मिल
सकता था। राजाओं के लड़के पढ़ लेते, रईसों के लड़के पढ़ लेते थे,
उनके पास। अब वे कहते हैं, अब इसकी कोई जरूरत
नहीं है। अब तो टेलीविजन से वह शिक्षक पूरे मुल्क के बच्चों को एक साथ पढ़ा सकता
है। दस साल में टेलीविजन डबल वेव हो जाएगा। अभी चूंकि एक ही तरफ से मैसेज जा सकती
है, इसलिए दिक्कत होती है। दस साल में डबल वेव हो जाएगा,
बच्चे क्वेश्चन भी पूछ सकते हैं। यहां बच्चे क्वेश्चन भी पूछ सकते
हैं वहां से शिक्षक उत्तर भी दे सकता है। तो एक शिक्षक तो आथेंटिक शिक्षक है मुल्क
का, वह अकेला पूरे मुल्क के बच्चों के पढ़ा देगा। अलग-अलग
शिक्षकों की कोई जरूरत नहीं होगी। फिर स्कूल खतम हो जाएगा। अगर टेलीविजन से पढ़ना
है तो स्कूल की बिल्डिंग बनाने की क्या जरूरत है? टेलीविजन
तो घर में है, बच्चे अपने घर में पढ़ें। स्कूल बन रहे हैं न,
वह कारागृह काहे के लिए खड़ा कर रहे हो, जहां
सारे बच्चों को खदेड़ कर भरो। वह तो इसलिए हम भरते थे कि कोई उपाय नहीं था। अब जो
शिक्षक भी नहीं हो जाएगा, बच्चे अपने घर में टेलीविजन पर पढ़
सकेंगे।
जिस
दिन बच्चे घर में पढ़ सकेंगे उस दिन शिक्षक और बच्चों के बीच जो हमने जीवन-मूल्य तय
किए थे, उनका क्या होगा? गया! गुरु का आदर करो और उनके पैर
छुओ...। अब यह बेटे मान ही नहीं रहे हैं टेलीविजन के पैर पढ़ो, यह करो, वह करो। यह क्या है, पागलपन
हो गया! गांव में औरत नाचती थी तो पैसा फेंक देते थे। उन्हें खयाल नहीं है कि बात
बदल गई है, पैसा गांव में जब कोई औरत नाचती थी तो वे बेचारे
फेंकते रहे। अब इसमें फेंक रहे हैं।
या
तो जीवन-मूल्य बदले तो बदलता है विज्ञान या विज्ञान बदले तो जीवन-मूल्य बदले।
प्रगतिशील समाज वह है जो दोनों काम जारी रखे। अगर विज्ञान बदले तब आपके जीवन-मूल्य
बदलें तो आप बैकवर्ड सोसाइटी में हैं। और जीवन-मूल्य पहले बदले तब विज्ञान पीछे
बदले तो आप फारवर्ड सोसाइटी में हैं, क्योंकि जीवन-मूल्य तो विचार से
बदलते हैं। जब एक दफे हम जीवन-मूल्य का पर्सपैक्टिव बड़ा कर लेते हैं तो उसका मतलब
है कि हम बुद्धि से जी रहे हैं। वह भविष्य में होगा तो हम उसकी कल्पना, उसकी योजना कर रहे हैं। फिर विज्ञान धीरे-धीरे आता है तो बदल देता है।
लेकिन विज्ञान जब बदलता है, फिर हमें जीवन-मूल्य बदलने पड़ते
हैं, तो हम बहुत पिछड़ी हुई कौम हैं। उसका मतलब यह है कि जब
स्थिति घट जाती है तभी हमारे मन पीछे सरक-सरक कर उसके पास जाता है। फिर वह बहुत
वक्त लगा देता है, क्योंकि हमारा मन पीछे से चिपकना चाहता
है।
अभी
भी बहुत सी चीजें बदल गई हैं। अब हमें पुराने खयाल छोड़ देने पड़ेंगे। लेकिन नहीं
खयाल छूटते हैं। अभी भी,
एक घर में दीया जलता था तो लोग नमस्कार कर लेते थे, अब बिजली जलती है, उसको भी कर लेते हैं। किसी ने बटन
दबाई तो वह धीरे से नमस्कार कर लेगा। शायद किसी जमाने में जब पहली दफा आग जली थी
तो नमस्कार करने योग्य बात थी, इससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं
था। आग ने इतना आदमी को दिया कि अगर नमस्कार हमने की तो कोई बुरा नहीं किया। आग ने
हमको बचाया है, जिंदगी दी है, सब उसने
दिया है। बड़ा आश्चर्य है, अब बिजली को भी कर रहे हैं। अब
उन्हें पता नहीं है कि टेक्नालॉजी बदल गई है। अब बिजली को नमस्कार करने की कोई
जरूरत नहीं है। अब यह निपट पागलपन है।
तो
जिन कौमों का दिमाग पीछे सरकता है और जब सब बदल जाता है तब वे मजबूरी में बदलती
हैं तो वह बहुत पिछड़ी हुई कौमें हैं। इधर भारत में ऐसा ही हो रहा है। टेक्नालॉजी
से हम सब बदलने जा रहे हैं लेकिन हमारे जीवन-मूल्य बहुत पुराने हैं। अभी भी हम जो
भी हमारे जीवन-मूल्य हैं वे कम से कम दो हजार साल पुरानी वैज्ञानिक व्यवस्था से
संबंधित हैं। अभी भी उनको पीटे चले जा रहे हैं। जैसे बंबई में एक आदमी आकर रहने
लगता है तो वह भी अपेक्षा करता है कि पड़ोसी उसकी उतनी ही फिकर करे जितना उसके गांव
में करता रहा है। नहीं करता है तो दुखी होता है।
गांव
में अगर कोई बीमार होता था,
सर्दी हो जाती थी तो पूरा गांव उससे पूछता था कि क्या हो गया है?
शाम को लोग उसके घर आकर पूछते थे। उसे लगता था कि बड़ी मैत्री भावना
है। मैत्री भावना का कोई सवाल नहीं है। गांव की टेक्नालॉजी है। असल में गांव इतना
छोटा यूनिक है कि उसमें हर आदमी की आंख हर दूसरे आदमी पर है। इसके फायदे हैं,
इसके नुकसान हैं इसका फायदा यह है कि आप बीमार पड़ गए हैं तो पूरा
गांव पूछने आया है। अगर पड़ोसी किसी औरत से बोलिए तो पूरा गांव मारने भी आएगा।
दोनों हैं। अगर आपने सिगरेट पी ली है तो पूरे गांव को पता चल जाएगा। अगर आपको
जुकाम होगा तो पूरे गांव को पता चलेगा। अगर आप मंदिर नहीं गए तो पूरे गांव में
निंदा हो जाएगी। तो गांव जो है चूंकि इतना छोटा है कि एक-एक आदमी पर सबकी आंख है।
उसकी गुलामी भी है, उसके थोड़े सुख भी हैं। वह आदमी बंबई आ
गया। अब यह बंबई के पूरे फायदे उठा रहा है। मजे से सड़क पर सिगरेट पीता है, मंदिर नहीं जाता है, इसकी उसे फिकर नहीं है। लेकिन
जब वह बीमार पड़ता है और पड़ोसी, उसे पूछने नहीं आता तो कहता
है, बंबई में कोई हृदय नहीं है। पागल हो गए हो तुम? अगर हृदय चाहिए तो गांव चले जाओ, फिर वह भी झेलना
पड़ेगा जो उसके साथ जुड़ा है। टेक्नालॉजी की बात है। अब बंबई में अगर एक-एक पड़ोसी एक
पड़ोसी की फिकर करें तो बंबई में इतने लाख पड़ोसी हैं कि एक आदमी पड़ोसियों की फिकर
करने में मर जाए। वह अपने लिए कब जीए?
बड़ा
यूनिट जो है इंडिविजुअल...अगर आप पच्चीस आदमी पिकनिक पर जाएं तो आप फौरन पाएंगे कि
तीन-चार टुकड़े हो जाएंगे। पच्चीस आदमी अगर पिकनिक पर गए तो चार हिस्से हो जाएंगे।
क्योंकि पांच-छह से ज्यादा का टुकड़ा नहीं झेला जा सकता। छह ग्रुप हो जाएंगे।
स्वाभाविक है कि पच्चीस का कोई ग्रुप नहीं हो सकता। पच्चीस में तो कोई बातचीत नहीं
की जा सकती। छह टुकड़े हो जाएंगे। छह का ग्रुप हो जाएगा तो एक ही टुकड़ा रहेगा। तो
छोटे गांव की भी अपनी जिंदगियां हैं। उसके अपने टेक्नीक, अपने जीने
के ढंग हैं, अपनी रफ्तार है। पर हमारा मन वही रहता है।
टेक्नालॉजी बदल जाती है। आकर बंबई में रहने लगेंगे लेकिन चित्त गांव का रहेगा। तो
यहां जुकाम हो जो पूरा गांव पूछने आएगा। पूरा गांव आएगा तब आपको पता चलेगा कि इससे
तो बेहतर था कि आप न आते तो ही अच्छा था। तो जुकाम के लिए इतना बड़ा बंबई पूछने आए
तो जो मेरी मुसीबत है वह उनकी भी मुसीबत है। नहीं, बंबई में
अपना जुकाम आप भोगिए, लेकिन बंबई में डाक्टर हैं जो गांव में
नहीं है। वह जुकाम दूर कर देगा, पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
इतना परेशान होने की भी जरूरत नहीं है।
अभी
में एक किताब पढ़ रहा हूं। तो तीस साल बाद, इस सदी के पूरे होते, एक मां को उसका बेटा पेकिंग से न्यूयार्क फोन करता है। तब तक फोन के साथ
टेलीविजन जुड़ गया होगा, तो वह साथ में दिखाई पड़ता है और थ्री
डायमेंशनल हो गया वह। इसलिए सिर्फ चित्र नहीं दिखाई पड़ता है। पूरा दिखाई पड़ता है,
जैसा कि ऐसे दिखाई पड़ेगा। तो पूरा दिखाई पड़ता है। तो वह मां उस बेटे
से कह रही है कि तुझे बहुत दिन पहले देखा है, तू आ जा। तो वह
कहता है, तू देख तो रही है। आप देख तो रही हैं। मुझे और क्या
देखिएगा। मैं पेकिंग से आया हूं न्यूयार्क तो और क्या देखना है? मैं पूरा दिखाई पड़ रहा हूं। लेकिन मां का मन नहीं मानता है, वह पुरानी टेक्नालॉजी में पली है। वह कहती है यह देखना नहीं, तू बिलकुल सामने आ जा। वह कहता है मैं बिलकुल सामने हूं। लेकिन उसके मन पर
कुछ फर्क पड़ेगा ही नहीं। उसके मन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
दुनिया
में जितना बड़ा भाईचारा होगा उतना ही कम मुसीबत तुम्हारे लिए है, क्योंकि
कहीं भी कुछ भी होता रहे तो सारा नुकसान हमें होता है। अगर आज वियतनाम में युद्ध
हो रहा है, तो उसका नुकसान हमें हो रहा है। आज जितनी ताकत
वियतनाम में लग रही है, उतनी कल अगर हिंदुस्तान में अकाल पड़
जाए, तो उतनी ताकत हिंदुस्तान को मिल सकती थी, वह अब मिल नहीं रही है। लेकिन हम बैठ कर देखते रहेंगे कि वियतनाम से हमें
क्या लेना-देना है? लेकिन वियतनाम में अमेरिका की ताकत लग
रही है, वियतनाम में अमेरिका की शक्ति लग रही है, वह शक्ति कल आपके अकाल में भी काम आ सकती थी, वह कभी
न आ सकेगी। क्योंकि शक्ति की सीमाएं हैं। और दुनिया में आदमी निरंतर लड़ता रहा है
इसलिए इतनी शक्ति नहीं बच पाती है कि जिससे हम स्वर्ग बना सकें। अगर हम आदमी के
निपट स्वार्थी होने की शिक्षा दे सकें तो उससे अच्छी कोई शिक्षा नहीं है। स्वार्थ
शब्द बहुत अच्छा है। अब बिगड़ गया, बहुत कुरूप हो गया,
लेकिन उसका मतलब इतना ही होता है, आत्मा के
लिए, स्वयं के लिए, दैट व्हिच इज़
मीनिंगफुल टु योरसेल्फ, वह जो तुम्हारे लिए सार्थक है।
जिसको
हम परमार्थ कहते हैं,
अगर बहुत ठीक से, गौर से समझें तो परमार्थ का
मतलब हुआ, दी अल्टीमेट मूवमेंट। स्वार्थ ही विकसित होते-होते
परम अर्थ बनेगा।
आज इतना ही।
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