देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
तेईसवां प्रवचन
गांधी की रुग्ण-दृष्टि
मेरे प्रिय आत्मन्!
जॉर्ज बर्नार्डशा ने एक छोटी सी किताब लिखी है। वह किताब सूक्तियों की
मैक्सिम्स की किताब है। उसमें पहली सूक्ति उसने बहुत अदभुत लिखी है। पहला सूत्र
उसने लिखा है: द फर्स्ट गोल्डन रूल इज़ दैट देअर आर नो गोल्डन रूल्स। पहला
स्वर्ण-सूत्र यह है कि जगत में स्वर्ण-सूत्र हैं ही नहीं।
यह मुझे इसलिए स्मरण आता है कि जब मैं सोचते बैठता हूं, गांधी-विचार पर बोलने के लिए, तो पहली बात तो मैं यह
कहना चाहता हूं कि गांधी-विचार जैसी कोई विचार-दृष्टि है ही नहीं। गांधी-विचार
जैसी कोई चीज नहीं है। "गांधी-विश्वास' जैसी चीज है,
"गांधी-विचार' जैसी चीज नहीं है। गांधी
के विश्वास हैं कुछ, लेकिन गांधी के पास कोई वैज्ञानिक
दृष्टि और कोई वैज्ञानिक विचार नहीं है। गांधी के विश्वासों को ही हम अगर
गांधी-विचार कहें, तो बात दूसरी है। क्योंकि विचार का पहला
लक्षण है--संदेह। विचार शुरू होता है संदेह से। विचार की यात्रा ही चलती है डाउट,
संदेह से। और गांधी संदेह करने को जरा भी राजी नहीं हैं।
उनके जीवन
की सारी चिंतना चलती है, श्रद्धा से, विश्वास
से। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि जो व्यक्ति संदेह करने को राजी नहीं है,
वह विचार के जगत में कोई गति नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति विश्वास
करने को पकड़े बैठा हुआ है, वह विचार नहीं कर सकता है। उसे
विचार करने की जरूरत ही नहीं है।
ऐसी भूल गांधीजी के साथ हो गई हो, ऐसा नहीं है। अगर
उनके अकेले के साथ हुई होती तो हम पहचान जाते कि गांधीजी के पास विचार नहीं हैं,
विश्वास हैं, श्रद्धा है। यह हम नहीं पहचान
पाए कि भारत के पास हजारों साल से विचार नहीं है। और विश्वासों की संपत्ति को ही
हम विचार समझते हुए जी रहे हैं। भारत ने हजारों साल से विचार करना बंद कर रखा है।
विचार हम करते ही नहीं। क्योंकि विचार का जो पहला सूत्र है, उसे
हमने इनकार कर दिया है। हमने भारतीय दृष्टि को खड़ा किया है श्रद्धा की ईंट पर। और
ध्यान रहे, जो कौम भी श्रद्धा की ईंट पर मनुष्य के
व्यक्तित्व को खड़ा करना चाहती है, यह विचार की दुश्मन हो
जाती है।
विचार और श्रद्धा में बुनियादी विरोध है। श्रद्धा कहती है, मानो, सोचो मत। श्रद्धा कहती है, आस्था रखो अनास्था प्रकट मत करो। श्रद्धा कहती है, तुम्हें
विचार की जरूरत नहीं है। विचार किया जा चुका है। महापुरुषों ने, अवतारों ने, शास्त्रकारों ने विचार कर लिया है,
तुम्हारा काम है सिर्फ मानो। विचार मत करो। जब कि विचार की यात्रा
बिलकुल विपरीत है। विचार की यात्रा शुरू होती है संदेह से, प्रश्न
से। विचार चलता ही है, बीज है उसका संदेह--शक करो, संदेह करो। मान मत लो, खोजो, अन्वेषण
करो, और जब कि माने बिना रहने का कोई उपाय ही न रह जाए,
जब तुम सारी परीक्षा कर डालो, सारी खोज-बीन कर
डालो और संदेह के लिए आगे कोई मौका ही न रह जाए, तभी स्वीकार
करो। और वह स्वीकृति भी हाईपोथैटिकल हो, वह स्वीकृति भी इस
तरह की हो--कल और विचार करेंगे, अगर बदलाहट होगी, तो बदल लेंगे।
भारत सैकड़ों वर्षों से श्रद्धा के आधार पर अपने व्यक्तित्व को खड़ा
किया है, इसलिए भारत की प्रतिभा मर गई है, और जंग खा गई है। हमने सैकड़ों वर्षों से सोचा ही नहीं है सिर्फ माना है।
कोई महावीर को मानता है, कोई कृष्ण को मानता है, कोई राम को मानता है। यह दूसरी बात है कि कौन किसको मानता है। लेकिन हम
मानते हैं। सोचते हम नहीं हैं। इसलिए गांधीजी के संबंध में भी यह भ्रांति
स्वाभाविक थी, क्योंकि हमारी परंपरा के अनुकूल पड़ती है।
गांधीजी संदेह के लिए राजी नहीं हैं। वे भी आस्थावान हैं। आस्थावान विचार करता
नहीं है, केवल विचारों को ग्रहण करता है। आस्थावान के पास सब
विचार उधार होते हैं, मौलिक नहीं हो सकते हैं। आस्थावान यह
कहता है कि मैं स्वीकार करने को तैयार हूं, कहीं से मिलते
हों तो मैं ले लेता हूं। वह सुन लेता है और ले लेता है। गांधीजी के पास एक भी
मौलिक विचार नहीं है। गांधीजी के पास सब उधार विचार हैं जो इस देश की परंपराओं से
या बाहर की परंपराओं से लिए गए हैं। गांधीजी की चिंतना में उनका अपना कुछ भी नहीं
है सिवाय इसके कि जोड़ भी नया हो सकता है। अगर मैं गांव में जाऊं और थोड़ा-थोड़ा
सामान एक-एक घर से इकट्ठा करूं, सब उधार हो और उस सामान को
जोड़ कर एक ढेर लगा दूं, तो वह ढेर एक अर्थ में सिर्फ नया
होगा--ढेर के अर्थ में, बाकी सब चीजें बासी, उधार होंगी।
गांधीजी के विचार में एक भी विचार उनका अपना नहीं है, निजी नहीं है। उनके सब विचार परंपरा, रूढ़ियों,
शास्त्रों से गृहीत हैं। इसका भी कारण है। इसका भी बुनियादी कारण है।
और गांधीजी का ही, ऐसा नहीं है हम सबका भी अधिक में ऐसा ही
है। भारत के साथ ऐसा घट गया है। यह दुर्भाग्य पूरी भारतीय प्रतिभा का है, और गांधीजी की सफलता का राज भी यही है। भारत में विचारशील व्यक्ति के सफल
होने की कम उम्मीद है। भारत में परंपरागत रूढ़िगत, भारत की
हजारों साल से खून में मिल गई बात है, उस पर ही खड़े होकर सफल
हुआ जा सकता है। भारत में सफल होना हो तो विचारवान होना उचित नहीं है। उसमें कोई
तालमेल नहीं बैठ सकेगा।
आप कह सकते हैं कि गांधी का अगर कोई विचार नहीं तो इतनी बड़ी सफलता
कैसे? इतनी बड़ी सफलता सिर्फ इसलिए कि कोई विचार नहीं है। इस
सफलता के पीछे कारण यही है कि हम, न विचार करने वालों के बीच
में विचार करने वाला तो निरंतर कठिनाई में पड़ जाएगा। हमारे बीच तो न विचार करने की
धारा का व्यक्ति ही अंगीकार हो सकता है।
यह विचार कब कोई व्यक्ति दूसरे से ग्रहण करता है, जब उसके स्वयं के भीतर से वे पैदा नहीं होते तो। ऐसा क्या कारण है,
जिससे कोई व्यक्ति आस्थावान, श्रद्धावान हो
जाता है? सच तो यह है कि बच्चे के जन्म के साथ श्रद्धा नहीं
होती, बच्चे में संदेह होता है--स्वाभाविक संदेह। श्रद्धा
सिखाई जाती है। छोटे-छोटे बच्चों में संदेह होता है, बड़ा
जीवंत संदेह होता है। वे हर चीज पर संदेह करते हैं। लेकिन हम उनके संदेह को मिटाते
चले जाते हैं। हम उनके संदेह की जड़ काट देते हैं। हम इसलिए जड़ काट देते हैं कि
संदेह में छिपे हुए विद्रोह के बीच हैं, संदेह रिबेलियस है,
संदेह में खतरा है। अगर बच्चे सब चीजों पर संदेह करें, तो हमने जो व्यवस्था बना रखी है, वह सब टूट जाए।
इसलिए हम सबसे पहला काम यह करते हैं कि बच्चे का संदेह तोड़ देते हैं।
बाप उससे कहता है कि मैं तुम्हारा पिता हूं, इसलिए मेरी बात मानो।
वह कहता है, मेरी उम्र ज्यादा है, इसलिए
मेरी बात मानो। वह कहता है, यही किताब कृष्ण ने भी कही-लिखी
है, यही बुद्ध ने भी कहा है, इसलिए
मेरी बात मान लो। वह बेटे पर, बच्चे पर विश्वास को थोपने की
चेष्टा करता है। समाज की पूरी इच्छा संदेह को मिटाने की और विश्वास को थोपने की
है। क्योंकि पुराने समाज का ढांचा तभी जिंदा रह सकता है, जब
हम आने वाले बच्चों में संदेह को मिटा दें। लेकिन यह प्रक्रिया बड़ी आत्मघाती है,
क्योंकि अगर संदेह मिट जाए, तो आने वाले समाज
के निर्माण का उपाय नहीं रह जाता।
भारत में पुराना समाज ही चलता जा रहा है। नया समाज पैदा नहीं होता।
क्योंकि नये समाज को पैदा होने का जो मूल सूत्र है "संदेह', वह हम बच्चों में जड़ से काट देते हैं। हम उसकी पहले ही जड़ों में गैप रख
देते हैं, उसको समाप्त कर देते हैं। संदेह, बच्चा पैदा नहीं कर पाता है, इसलिए बैलगाड़ी से हम
कभी भी राकेट पर नहीं पहुंच सकते हैं। क्योंकि बैलगाड़ी से राकेट तक जाने की पहली
बात तो यह है कि बैलगाड़ी पर संदेह हो। बैलगाड़ी चलाने वाले पर संदेह हो, बैलगाड़ी बनाने वाले पर संदेह हो और यह हो कि इससे बेहतर हो सकता है,
इससे अच्छा हो सकता है। यहीं तक रुक जाने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन यह संदेह भारत की प्रतिभा से हमने हटा दिया है। इसलिए भारत ने एक जड़,
स्टैगनेंट सोसाइटी, एक ठहरा हुआ समाज पैदा
किया है जिसमें कोई गति नहीं। इसलिए भारत विज्ञान को पैदा नहीं कर पाया है।
संदेह पहला सूत्र है विचार का, और अगर विचार चले तो
विज्ञान उसका परिणाम है। संदेह प्रारंभ है, विचार यात्रा है,
विज्ञान परिणाम है।
भारत में कोई विज्ञान पैदा न हो सका। न होने का कारण सिर्फ इतना है कि
उसका पहला चरण संदेह को ही हमने काट दिया है। हम प्रत्येक को सिखाते हैं कि मानो।
लेकिन मानो, यह सिखाने का रास्ता क्या है, इसका
सीक्रेट क्या है? और गांधीजी क्यों मानने वाले व्यक्ति हैं,
विचारने वाले व्यक्ति नहीं हैं? क्या कारण है?
मेरी दृष्टि में, जो बच्चा जितना भयभीत होगा,
उतना श्रद्धावान होगा। जितना अभय होगा, उतना
संदेहशील होगा। जितना फियरलेस होगा, जितना निर्भय होगा,
उतना संदेह करेगा। जितना भयभीत होगा, उतना
श्रद्धावान होगा। गांधीजी के व्यक्तित्व को समझने में यह सूत्र बहुत उपयोगी होगा
कि गांधी का प्रारंभिक व्यक्तित्व अत्यंत भय से आक्रांत है। अत्यंत भयभीत व्यक्ति
हैं। उनके प्रारंभिक जीवन की सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है। यद्यपि बाद में बहुत
निर्भयता उनमें प्रकट हुई। इस सूत्र को समझना जरूरी होगा, क्योंकि
इससे उनके व्यक्तित्व में और उनकी जो स्थिति है उसमें प्रवेश करने में बड़ा सहयोग
मिलेगा। गांधीजी अत्यंत भयातुर हैं। उतना भयभीत आदमी खोजना जरा मुश्किल है।
गांधीजी हिंदुस्तान से यूरोप की यात्रा पर जा रहे हैं। रास्ते में
जहाज पर कुछ मित्र हैं। कैरो में जहाज रुकता है, तो वे मित्र कहते हैं
कि चलो सांझ है, रात हम यहीं रुकेंगे, वेश्या
के घर हो आएं। गांधी इतना साहस नहीं जुटा पाते कि उनसे कह दें कि मैं वेश्या के घर
नहीं जाना चाहता हूं। उन्हें डर लगता है कि पता नहीं वे क्या समझेंगे। शायद वे
सोचेंगे कि यह कमजोर है। शायद वे सोचेंगे यह भयभीत है। वे यह कहने की हिम्मत नहीं
जुटा पाते कि मैं वेश्या के घर नहीं जाऊंगा। वे उनके साथ हो लेते हैं। अब दोहरा भय
उनको पकड़ता है। वे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि मैं वेश्या के घर नहीं
जाऊंगा। वे उनके साथ हो लेते हैं। अब दोहरा भय उनको पकड़ता है। एक तो यह भय है कि
यह मित्र हंसेंगे अगर न जाऊं, इनकार करूं। दूसरा भय यह है कि
घर से चलते वक्त उनकी मां ने आज्ञा दी है और संकल्प दिलवा दिया है कि दूसरी स्त्री
से सावधान रहना, बचकर रहना। अब ये दोनों भय उनके प्राणों को
पकड़ लेते हैं। वे उस वेश्या के द्वार पर पहुंच गए हैं। मित्र उनको वेश्या के
दरवाजे के भीतर पहुंचा देते हैं। दरवाजा बंद हो जाता है। हाथ-पैर उनके कंप रहे हैं,
पसीना छूट रहा है। वे घबड़ा कर बिस्तर पर बैठ गए हैं। अब वह उस
वेश्या को भी यह नहीं बता पाते हैं कि मैं किस मुसीबत में फंसा हुआ हूं। अब एक
तीसरा भय सामने खड़ा हो गया है कि वेश्या बैठी हुई है, वह
क्या सोचेगी! कोई सोच भी नहीं सकता कि यह व्यक्ति बाद के दिनों में इतना निर्भय
कैसे हो गया!
गांधीजी वकालत पास करके हिंदुस्तान वापस लौट आए हैं। रात भर वे तैयारी
करते हैं अदालत में प्रकट होने की। रात भर सोते नहीं हैं। कंठस्थ कर लेते हैं, जो बोलना है। और दूसरे दिन अदालत में "माई लार्ड' से ज्यादा नहीं बोल पाते हैं। इतना ही बोल पाते हैं। और उसके बाद चक्कर
खाकर गिर पड़ते हैं। जो व्यक्ति अदालत में अपना पूरा वक्तव्य न दे सका--वकालत सीख
कर आया है; रात भर तैयारी की है; चक्कर
आ गया। हाथ-पैर ढीले पड़ गए। आंखें बंद हो गईं। कुर्सी पर बैठ गया। यह व्यक्ति बाद
में इतनी बड़ी हुकूमत से लड़ता है और उसकी जड़ें हिला देता है। जरूर इसके व्यक्तित्व
में कोई गहरी आंतरिक ग्रंथि है, जिसको समझना जरूरी है। नहीं
समझेंगे तो बहुत कठिनाई होगी।
मेरी दृष्टि में गांधीजी के व्यक्तित्व को भय के बिना समझा ही नहीं जा
सकता है। इतने वे भयभीत...। वे पश्चिम जाकर मांसाहार नहीं करते हैं, दूसरी स्त्री के साथ दोस्ती नहीं करते हैं, नाचने
नहीं जाते हैं, डरते हैं, भयभीत हैं।
आमतौर से आप सोचते होंगे कि शायद वे बड़े धार्मिक हैं। नहीं, मां
से जो उन्होंने संकल्प लिए हैं, उसे तोड़ने की हिम्मत भी वे
नहीं जुटा सकते। एक घर में अतिथि होकर ठहरते हैं। उस घर की महिला यह सोच कर कि यह
युवक बड़ा अकेला अकेला है, एक लड़की से दोस्ती करवा देती है। वे
यह भी नहीं कर पाते हैं कि मैं विवाहित हूं। अब यह कौन सा डर है कहने में कि मैं
विवाहित हूं? लेकिन वे यह भी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं कि
उस घर की गृहिणी को यह कह दें कि मैं विवाहित हूं, कृपा करके
मुझे मित्रता मत कराइए। और वह महिला यह कोशिश करती है कि इनका प्रेम बन जाए और
इनका विवाह भी हो जाए। वह उस लड़की को भी नहीं कह पाते हैं कि मैं विवाहित हूं और
इस प्रेम के जाल में मुझे मत फंसाओ। वह प्रेम में फंसते चले जाते हैं और यह नहीं
बता पाते हैं कि मैं विवाहित हूं। एक दिन बात वहां आ जाती है कि अंतिम निर्णय लेना
है। तब वह घर छोड़ कर, चिट्ठी लिख कर भाग खड़े होते हैं कि मैं
तो विवाहित हूं।
यह थोड़ा सोचने जैसा है कि इतना भय इनके भीतर--इस भय के कारण ही वे
आस्थावान बन जाते हैं। इस भय के कारण ही वे संदेह नहीं कर सकते हैं। जो भयभीत है, वह संदेह नहीं कर सकता है। और इसलिए अगर किसी को आस्थावान बनाना हो,
तो पहले उसे भयभीत करना जरूरी है। बच्चों को भी हम भयभीत करके
आस्थावान बनाते हैं। शिक्षक डंडा लिए हुए खड़ा है, बाप डंडा
लिए हुए खड़ा है। हम उसे भयभीत करते हैं छोटे से बच्चे को। जितना वह भयभीत हो जाता
है उतना वह श्रद्धायुक्त हो जाता है। अगर हम उसे निर्भय करें तो वह संदेह करेगा।
निर्भय के साथ संदेह आना जरूरी है। संदेह के साथ विचार आएगा।
गांधी में विचार नहीं आता है। वे पश्चिम में जाते हैं तो भी वे इस तरह
की संस्थाओं और इस तरह के लोगों से संबंधित होते हैं जो निपट अवैज्ञानिक हैं। जब
वे इंगलैंड में थे तो वहां डार्विन की चर्चा थी, लेकिन गांधीजी का
डार्विन की चर्चा से कोई संबंध नहीं हुआ। क्योंकि डार्विन की चर्चा बड़ी संदेहपूर्ण
थी। डार्विन ने सारी दुनिया के विचार को एक धक्का दे दिया था। सारी दुनिया में यह
खयाल था कि आदमी परमात्मा से पैदा हुआ है, परमात्मा का बेटा
है। आदमी के अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिलती है कि हम परमात्मा के बेटे हैं।
इसलिए आदमी ने इस तरह की बातें ईजाद कर रखी थीं कि भगवान ने अपनी ही शक्ल में आदमी
को बनाया है।
डार्विन ने एक बहुत बड़ा संदेह प्रकट किया, उसने कहा कि आदमी को देख कर यह पता नहीं चलता कि तुम भगवान से पैदा हुए
हो। तुम्हें गौर से देख कर यह पता चलता है कि तुम्हारा पिता किसी न किसी अर्थ में
बंदर रहा होगा। आदमी की सारी स्थिति को देख कर उसने कहा कि यह बात बिलकुल संदिग्ध
मालूम होती है कि तुम भगवान से पैदा हुए हो। यह ज्यादा सही, वैज्ञानिक
और तर्कयुक्त मालूम पड़ता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। इतनी बड़ी क्रांति इसने
खड़ी कर दी, क्योंकि हजारों वर्ष का खयाल था कि भगवान का बेटा
है आदमी। उसने कहा, बंदर का बेटा है। एकदम भगवान की जगह पिता
को हटा कर और बंदर को रखना बड़ा कठिन मामला था। बड़ी हिम्मत की जरूरत थी। लेकिन
डार्विन ने जो तर्क दिए थे, एकदम वैज्ञानिक थे।
आपको खयाल भी नहीं है, आज भी आप जब रास्ते
पर चलते हैं, तो आपने खयाल किया है, बाएं
पैर के साथ दायां हाथ हिलता है और दाएं पैर के साथ-साथ बायां हाथ हिलता है। कोई
पूछे कि इनको हिलाने की क्या जरूरत है। डार्विन ने पहली दफा बताया है कि बंदर चार
हाथ-पैर से चलता था। वह आदत हाथ की अब भी नहीं मिटी। वह हाथ अब भी हिलता है। अब भी
बाएं के साथ बाएं हिलता है, दाएं के साथ बायां हिलता है। वह
क्यों हिल रहा है? वह दस लाख साल पहले की पुरानी आदत पड़ी अभी
भी नहीं भूल पाया है, वह उसी तरह हिल रहा है। अब कोई जरूरत
नहीं है। चलने में उससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन वह हिलने की गति तो थिर हो गई
शरीर के भीतर। वह शरीर के क्रोमोसोम में, शरीर के सेल्स में
घुस गई है। वह वहां बैठी हुई है। डार्विन ने हजार तरह से यह प्रमाणित किया है कि
आदमी जो है बंदर को ही विकसित रूप है। लेकिन गांधीजी का डार्विन के विचार से
इंगलैंड में रह कर कोई संपर्क नहीं हुआ, जब कि सारी हवा
डार्विन की थी।
माक्र्स के खिलाफ ने सारी दुनिया के मस्तिष्क को बेचैन कर दिया था, लेकिन गांधी का संबंध उससे भी नहीं हुआ। माक्र्स ने एक अदभुत, इससे भी बड़ी क्रांति कि बात कही है। उसने पहली दफा यह कहा था कि संपत्ति
की नहीं है, और व्यक्ति ने धोखा पैदा किया है संपत्ति
व्यक्ति की है। संपत्ति समाज की है। और उसने यह भी कहा कि यह सब जालसाजी की बातें
हैं कि अपने-अपने कर्मों के फल के अनुसार कोई गरीब है और अमीर है। गरीब और अमीर
समाज की व्यवस्था का परिणाम है, किसी कर्मों के फल का परिणाम
नहीं है।
माक्र्स की यह बात सारी दुनिया के विचारशील लोग विचार कर रहे थे। उसने
भी बहुत धक्का दे दिया था। क्योंकि अब तक का नियम यह था कि हर आदमी अपने कर्मों का
फल भोग रहा है। अब तक का यह विचार था कि अगर कोई गरीब है तो उसने पाप किए हैं
इसलिए गरीब है। अमीर है तो उसने पुण्य किए हैं इसलिए अमीर है। कोई राजा है तो
पुण्य का फल है, कोई भिखारी है तो पाप का फल है। इस सारी चिंतना
से--सारी दुनिया में माक्र्स ने एक क्रांति खड़ी कर दी है। उसकी क्रांति की बात ठीक
मालूम पड़ती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि यह अमीरों के द्वारा ईजाद किया गया सिद्धांत
है--गरीब को गरीब रखने के लिए और अमीर को अमीर बने रहने के लिए। लेकिन गांधी से
उसका भी कोई संबंध नहीं हुआ। गांधी का संबंध किनसे हुआ? गांधीजी
इंगलैंड में थे जहां इतनी जोर का ऊहापोह चल रहा था--इस सदी का जन्म हो रहा था। इस
सदी की क्रांतिकारी चिंतना के सारे बीज इंगलैंड की हवा में थे, लेकिन गांधी को कोई संबंध ही नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि गांधी को पता ही
नहीं चला कि डार्विन भी हुआ है। गांधी ने उन्नीस सौ बयालीस में जेल में माक्र्स की
किताब पढ़ी--पचास साल बाद! और पचास साल पहले जब वे इंगलैंड में थे, तो यह सारी हवा थी।
गांधी का संबंध किनसे हुआ? गांधी का संबंध बड़े
अजीब लोगों से हुआ! वेजिटेरियन, शाकाहारियों के सम्मेलन में
वे उपस्थित रहे। शाकाहार की बातें उन्होंने चुनी। चाय पीनी चाहिए कि नहीं पीनी
चाहिए, और यह सब्जी खानी चाहिए कि नहीं खानी चाहिए, और दूध लेना चाहिए तो बकरी का कि गाय का लेना चाहिए! गांधीजी इन सारे
लोगों से इंगलैंड में संबंधित हुए। यह थोड़ा सोचने जैसा है। जहां इतनी क्रांति की
चर्चा थी, जहां सब तरह की क्रांतियों के सूत्र निकल रहे थे,
गांधी का संबंध बहुत अजीब लोगों से हुआ! और वे उन्हीं के संपर्क में
गए और वे उन्हीं की सब बातें सीख कर लौटे हैं।
पश्चिम से वे तीन आदमियों के खयाल लेकर भारत की तरफ आए। इसलिए एक और
खयाल आप समझ लेना, कि आमतौर से लोग समझते हैं कि गांधीजी भारत के बड़े
प्रतिनिधि हैं, इस भूल में मत पड़ जाना। गांधीजी के तीनों
गुरु पश्चिमी हैं। टालस्टाय, रस्किन, थोरो--ये
तीनों गुरु उनके पश्चिम के थे। और जो इन तीन ने कहा है और किया है, गांधीजी उसे लेकर चुपचाप चले आए हैं श्रद्धा से स्वीकार किए। उन तीनों की
विचारधारा से वे प्रभावित हैं। उन तीनों के विचारों को उन्होंने आत्मसात कर लिया
है। वे उन्हीं का फिर जिंदगी भर प्रयोग करते रहे हैं। ये तीनों व्यक्ति बिलकुल
अवैज्ञानिक विचार के हैं। इनकी चिंतना में कोई वैज्ञानिकता नहीं है। इनका विचार
ऐसा है कि अगर आदमी मान ले, अगर थोड़ी सी बात आदमी मान ले
जिसको गांधीजी अपना गुरु स्वीकार करते हैं, तो जंगली दुनिया
फिर वापस आ जाएगी। थोरो रेलगाड़ी के खिलाफ है, और उसी के
प्रभाव में गांधीजी ने उन्नीस सौ सात में एक किताब लिखी "हिंद स्वराज्य'। और उसमें लिखा है कि रेलगाड़ी के मैं सख्त खिलाफ हूं। टेलिग्राफ के खिलाफ
हूं। पोस्ट आफिस के खिलाफ हूं। इन सबके खिलाफ हूं। इनसे मनुष्य का पतन होने वाला
है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
लेकिन आपको पता होना चाहिए कि मनुष्य का जितना विकास हुआ है, वह सारा विकास इसलिए हो सका है कि मनुष्य ने हाथ की जगह मशीन की ईजाद की
है। सारा विकास इसलिए हो सका है। मशीन का मतलब केवल इतना है कि हम अपने उपकरणों को,
अपनी इंद्रियों को हजार करोड़ गुना बड़ा कर लेते हैं। मनुष्य की सारी
जीवन-व्यवस्था यंत्र पर विकसित हुई। लेकिन वे तीन यंत्र विधियों की बात सुन कर आ गए
और उन्होंने भी यहां यंत्र-विरोध की बात शुरू कर दी।
उनकी बात न तो वैज्ञानिक है, न विचारपूर्ण।
क्योंकि पहली तो बात यह है कि मनुष्य को पीछे लौटाया नहीं जा सकता। यह असंभव है।
यह इसलिए असंभव है कि पीछे लौटना प्रकृति का नियम ही नहीं है। कोई चीज पीछे नहीं
लौटती। जवान बूढ़ा होगा, बच्चा जवान होगा। बूढ़े को जवान बनाना,
जवान को बच्चा बनाना, बच्चे को गर्भ में ले
जाना संभव नहीं है। जिंदगी सदा आगे की तरफ जाती है। व्यक्ति भी आगे की तरफ जाता है,
समाज भी आगे की तरफ गति करता है। पीछे लौटना संभव ही नहीं है। पीछे
लौटा ही नहीं जा सकता। और अगर पीछे बड़ा सुख था तो आदमी आज की दुनिया में आया ही
कैसे! वह आया ही इसलिए है कि पीछे बड़ा दुख है। लेकिन पीछे का दुख भूल गया है। मैं
अभी काश्मीर के एक छोटे से गांव में था। एक मुसलमान मेरा खाना बनाता था, मीर मुहम्मद उसका नाम था। वे दोत्तीन दिन मेरे साथ था। उसने कहा, किसी तरह मुझे यहां से ले चलिए। मैंने कहा कि तू बिलकुल पागल हो गया है।
गांधीजी और उनके अनुयायी तो कहते हैं, सब बड़े शहर मिटा दो,
छोटे गांव बना दो। और फिर तू इतनी सुंदर जगह में है--पहाड़ पर बर्फ
छायी हुई है। हिमालय की निकटता है। बर्फ है। हरियाली है। झरने हैं! उस आदमी ने कहा,
न मुझे दरख्तों से मतलब है, न पहाड़ से,
न हरियाली से। क्योंकि पेट भूखा है, यह सब
नहीं दिखाई पड़ते। यह भरे पेट को दिखाई पड़ने वाली चीजें हैं। यह बंबई से जो लोग आते
हैं, उसने कहा, उनको दिखाई पड?ता है कि पहाड़ पर बड़ी सुंदर बर्फ जमी है। इधर पेट इतना भूखा है कि बर्फ के
जमा होने में कोई सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता है। उसने कहा, मुझे
तो किसी तरह आप शहर में ले चलिए।
सारे गांव के लोग शहर की तरफ भाग रहे हैं, अकारण नहीं भाग रहे हैं। भागना ही पड़ेगा। जो नहीं भाग पा रहे हैं वे भी
दुखी हैं वहां रुक कर। वहां कोई आनंदित नहीं हैं। लेकिन गांधी मानते हैं कि शहरों
को विसर्जित करके वापस गांव की तरफ लौट जाना चाहिए। यह सभ्यता, यह संस्कृति मनुष्य की अब गांवों की तरफ वापस नहीं लौटेगी। गांवों से आई
है, गांवों की तरफ वापस नहीं लौटेगी, क्योंकि
गांवों में उसने बहुत तरह के दुख जाने हैं लेकिन हमें पता नहीं चलता। क्योंकि एक
पीढ़ी जो शहर में पैदा हुई है, उसे पता ही नहीं है कि गांव की
तकलीफ क्या है? उसकी कल्पना के बाहर है। जब कार से वह गांव
के पास से गुजरता है तो कहता है, अहा, कितना
खुला आकाश है! कितने अच्छे बादल घूम रहे हैं! कितना अच्छा सूरज निकला है! उसे यही
दिखाई पड़ रहा है। उसे पता नहीं है कि गांव के आदमी ने हजारों-लाखों साल में कितनी
तकलीफ और कितना कष्ट उठाया है, कितनी मुसीबत उठाई है। किस
तरह चौबीस घंटे मेहनत करके बामुश्किल पेट भरता आया है, फिर
भी पेट नहीं भर पा रहा है!
गांव का वातावरण हमें कुछ देर के लिए हमारे अनुकूल तो लगता है, लेकिन वैज्ञानिक नहीं है, हमारे हित में नहीं है।
ध्यान रहे, अनुकूल होना एक बात है, हित
में होना बिलकुल दूसरी बात है। अनुकूल होना एक बात है। अगर हम सब एक आंख के हों और
मैं भी या तो एक आंख फोड़ लूं तो आपके अनुकूल पड़ेगा। क्योंकि यह लगेगा कि यह आदमी
बड़ा अपने जैसा है, कितना अदभुत आदमी है कि उसने हमारे साथ
खड़े होकर एक आंख फोड़ ली। लेकिन मेरा एक आंख का जाना आपके हित में नहीं है। हित में
तो यह है कि मैं आपको भी दो आंख का बनाने की कोशिश करूं। इस फर्क को आप समझ लेना।
गांधीजी का दरिद्र हो जाना हित में नहीं। हित में तो यह है कि दरिद्र
को गांधीजी संपन्न बनाने की कोशिश में संलग्न हों। गांधीजी को दरिद्र बना लेने से
क्या होगा? चालीस करोड़ की जगह चालीस करोड़ एक दरिद्र हो जाएंगे।
और क्या होने वाला है? इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? दरिद्रता और बढ़ जाएगी, एक आदमी और दरिद्र हो जाएगा।
हां, दरिद्रों को तृप्ति मिल जाएगी, लेकिन
उनका मंगल सिद्ध होने वाला नहीं है। मंगल तो उसमें सिद्ध होगा कि विचारशील व्यक्ति,
जो दरिद्र हैं, उनको संपन्न बनाने की कीमिया
और केमिस्ट्री के बाबत सोचे कि वे दरिद्र क्यों हैं? लेकिन
गांधीजी ने जो भी हमसे कहा है वह वही है, जिसकी वजह से हम
दरिद्र हैं। अगर मान लें तो और दरिद्र हो जाएंगे।
हिंदुस्तान पांच हजार साल से दरिद्र है, और दरिद्र होने का
सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने धन का सम्मान नहीं किया है। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति
धन का सम्मान करेगा। धन का मोह नहीं कह रहा हूं, सम्मान कह
रहा हूं। अगर आपको स्वस्थ रहना है, तो खून का सम्मान करना
पड़ेगा। खून चलेगा शरीर में, तभी आप स्वस्थ रहेंगे और अगर
आपने कहा कि हम तो खून को इनकार करते हैं, हम खून को मानते
ही नहीं, तो फिर पीलिया पकड़ लेगा और बीमार हो जाएंगे और सब
समाप्त हो जाएगा।
धन समाज की नसों में दौड़ता हुआ खून है। जितना खून समाज की नसों में
दौड़ता है, उतना समाज स्वस्थ होता है। धन खून है। और इसलिए अगर
कोई खून हाथ में रोक ले बांध कर, तो बीमार पड़ जाएगा, क्योंकि खून अगर रुकता है तो गति बंद हो जाती है। इसलिए जो लोग धन को
तिजोरियों में रोकते हैं, वे समाज की खून की गति में बाधा
डालते हैं। खून की गति रुक जाती है, समाज बीमार पड़ जाता है।
लेकिन जितना अतिरिक्त खून हो, उतना जरूरी है। जितना अतिरिक्त
धन हो, उतना जरूरी है। लेकिन गांधीजी का विचार यह कहता है,
धन? नहीं, धन की कोई
जरूरत नहीं है। वे तो असल में उन लोगों से प्रभावित हैं--टालस्टाय जैसे लोगों
से--जो कहते हैं, मुद्रा समाप्त कर देनी चाहिए। जो कहते हैं,
रुपया होना नहीं चाहिए। वे चाहते तो अंत में यह हैं कि एक बार्टर
सिस्टम, जैसा पुराना था दुनिया में लेन-देन का, मैं आपको गेहूं दे दूं, आप एक बकरी दे दें। मैं एक
मुर्गा दे दूं, आप मुझे एक जूते की जोड़ी दे दें। वे तो चाहते
हैं कि अंततः समाज ऐसा हो जहां चीजों का लेन-देन हो।
लेकिन ध्यान रहे, चीजों का लेन-देन करने वाला समाज
कभी भी सुखी और संपन्न नहीं हो सका है। यह तो लेन-देन इतना उपद्रवपूर्ण है कि मुझे
जूता चाहिए, आपकी बकरी बेचनी है; और
आपको जूता नहीं चाहिए, आपको गेहूं चाहिए। अब यह गेहूं वाले
आदमी को हम खोजने जाते हैं, जो उसे गेहूं दे सकेगा। लेकिन
उसे जूता नहीं चाहिए, आपको गेहूं चाहिए। अब यह गेहूं वाले
आदमी को हम खोजने जाते हैं, जो उसे गेहूं दे सकेगा। लेकिन
उसे न जूता चाहिए, न बकरी चाहिए, उसे
मुर्गी चाहिए। अब हम एक आदमी को खोजने जाते हैं जो मुर्गी बेचे। रुपये ने यह
व्यवस्था कर दी है कि किसी को कुछ भी चाहिए हो, रुपया माध्यम
बन जाता है। कोई फिक्र नहीं, आपको जूता चाहिए, मुझे मुर्गी चाहिए, रुपये से काम हो जाएगा।
रुपया बहुत अदभुत चीज है। अगर मेरे खीसे में एक रुपया नहीं पड़ा है, तेरे खीसे में एक ही साथ करोड़ों चीजें पड़ी हैं। वैकल्पिक संभावनाएं पड़ी
हैं। अगर मैं चाहूं तो एक रुपये में खाना ले लूं, मेरे खीसे
में खाना पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो जूता खरीद लूं; मेरे खीसे
में जूता पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो एक मोची खरीद लूं; मेरे
खीसे में मोची पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो दवा ले लूं; मेरे
खीसे में दवा पड़ी हुई है। रुपये ने इतना अदभुत काम किया है। लेकिन गांधी जैसे विचारक
रुपया और मुद्रा के विरोध में हैं। अगर रुपया दुनिया से हट जाए, तो आदमी वहां पहुंच जाएगा, जहां जंगली आदमी हैं,
आज भी आदिवासी हैं। उसको तेल चाहिए तब बेचारा गेहूं लाकर देगा,
तब तेल देगा। गेहूं लाकर देगा, तो नमक ले
पाएगा! लेकिन वैसी दुनिया में...!
रुपया जो है वह गति है, वह स्पीड है जिंदगी
में चलने की। अगर थिर बनाना हो समाज को, जड़ बनाना हो तो
रुपया हटा दो। लेकिन इस मुल्क में रुपये का बहुत पुराना...। हम धन के दुश्मन हैं
इसलिए हम दरिद्र हैं। हम धन के ऐसे दुश्मन हैं, जिसका कोई
हिसाब नहीं। हम कहते हैं, धन की कोई जरूरत ही नहीं है। हम
कहते हैं, जो धन छोड़ देता है, वह बड़ा
संन्यासी है। हम कहते हैं, जो धन को मानता ही नहीं है,
वह बड़ा त्यागी है। वह होगा बड़ा त्यागी, होगा
बड़ा संन्यासी, लेकिन वह समाज के लिए खतरनाक है। क्योंकि समाज
के भीतर चाहिए धन को पैदा करने की तीव्र व्यवस्था। समाज के भीतर चाहिए कि हम धन का
सृजन कर सकें, तो हमारी साख चारों दिशाओं में फैल सकेगी।
गांधीजी का विचार हमारे अनुकूल है। इसलिए गांधी हमें बड़े प्यारे लगते
हैं। लेकिन अनुकूल और प्यारे लगने से कोई चीज ठीक नहीं हो जाती। अगर एक आदमी बीमार
पड़ा हो और कहता हो कि मुझे मिठाई खाने को दो, तो जो चिकित्सक उससे
कहे, हां मिठाई खाओ, वह अनुकूल मालूम
पड़ेगा। लेकिन नुकसान पहुंचाएगा और जान भी ले लेगा।
अनुकूल और प्रीतिकर होने से कोई चीज श्रेष्ठ नहीं हो जाती। तर्क की और
विज्ञान की कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि इससे हित क्या होगा? इससे अहित बहुत हो चुका। हम जमीन पर सबसे पुरानी सभ्यता हैं। सच तो यह है
कि अगर हमने समझदारी बरती होती तो आज दुनिया में हमसे ज्यादा समृद्ध कोई भी नहीं
होता। जितने लंबे दिनों से हमने खेती की है, किसी ने भी नहीं
की है। जितने लंबे दिनों में हम जिंदगी को पार कर रहे हैं, उतने
लंबे दिनों से किसी कौम ने नहीं किया है। सब कौमें जीतती आई हैं, और जीत कर आने वाली कौमों ने खेती में बड़ी प्रगति की है।
आज की हालत में रूस उन्नीस सौ चालीस से लेकर उन्नीस सौ पचास तक अपने
रेल के इंजनों में कोयले की जगह गेहूं जलाता था, क्योंकि कोयला ज्यादा
महंगा था, गेहूं ज्यादा सस्ता था। क्योंकि कोयले को बनने में
लाख वर्ष लग जाते हैं और गेहूं हर साल पैदा होता है। वह एक मुल्क है कि जो अपने
रेल के इंजन में गेहूं जलाता है, और यह मुल्क है कि जो अपने
शरीर की जरूरतों के लिए गेहूं नहीं जुटा पा रहा है। थोड़ा सोचने वाली बात है। रूस
भी इतना गरीब था। आज से पचास साल पहले हमसे भी ज्यादा गरीब था। रूस की गरीबी का
कोई हिसाब न था। लेकिन पचास साल में वह न केवल अमीर हो गया, बल्कि
सारी दुनिया में सिक्का बिठा दिया अपनी अमीरी का, अपने
स्वास्थ्य का, अपनी उम्र का। आज रूस में सौ वर्ष के ऊपर के
हजारों वृद्ध हैं, डेढ़ सौ वर्ष के लोग भी हैं। अभी एक बूढ़ी
औरत मरी है, जिसकी उम्र एक सौ बहत्तर वर्ष है। वह परिपूर्ण
स्वस्थ मरी।
समृद्धि, स्वास्थ्य और जीवन का आनंद और जीवन की सारी व्यवस्था
उन्होंने जुटा ली है। और हम? हम सबसे पुरानी कौम क्यों हार
गए? हम एक हजार साल तक गुलाम रहे। कभी सोचा किसकी वजह से
गुलाम रहे? कोई कहेगा कि मीर कासिम ने धोखा दे दिया। कोई
कहेगा, फला ने धोखा दे दिया। ये सब झूठी बातें हैं। धोखे-ओखे
की वजह से यह नहीं हुआ है। धोखेबाज दुनिया में होते हैं। इसके होने का कुल कारण
इतना है कि जब भी जो कौम हमारे ऊपर आई, वह टेक्नालाजिकली,
यांत्रिक रूप से हमसे ज्यादा विकसित थी। बस, यांत्रिक
रूप से जो विकसित था, वह जीत गया। अगर आप एक बंदूक लिए खड़े
हैं, मैं तोप लेकर आ जाऊं तो आप कितने ही बुद्धिमान हों,
कितने ही देशभक्त हों, करेंगे क्या? और आप तोप लिए खड़े हैं, मैं एटम बम लेकर आ जाऊं,
तो आप करेंगे क्या?
हिंदुस्तान हमेशा तकनीकी दृष्टि से पीछे रहा इसलिए गुलाम होता रहा। और
अभी भी तकनीकी दृष्टि से हम दुनिया में सबसे पिछड़ी हुई कौम हैं। आप इस भ्रांति में
मत रहना कि अगर चीन से टक्कर हो तो आप जीत जाएंगे। कविताएं वगैरह करना एक बात है
कि "हम शेर हैं, हम ऐसे हैं और हम चीर कर दो कर देंगे, हमसे जूझो मत!' वह सब कविताएं करना ठीक है, लेकिन कविताओं से कोई युद्ध नहीं जीते जाते। चीन का हमला हुआ, सारा हिंदुस्तान कविता करने लगा। कोई पूछे कि पागल हो गए हो? कविताओं से क्या होगा? क्यों अपनी मजाक करवाते हो?
लेकिन कवियों ने कविताएं कर लीं, शोरगुल हो गए,
तालियां बज गईं, उन कवियों को पद्म-भूषण और सब
उपाधियां मिल गईं और हिंदुस्तान हार गया और जमीन पर चीन का कब्जा है।
मैं एक नेता से बात कर रहा था कि वह लाखों मील जमीन के बाबत क्या खयाल
है? वे शेर कहां गए जिन्होंने कविताएं लिखी थीं? उनसे
पद्म-विभूषण की समाधि वापस लो। राष्ट्रकवि बन गए, तो उनसे
वापस लो। क्योंकि क्यों मजाक उड़वाते हो सारी दुनिया में? जमीन
का क्या हुआ? अब क्यों चुप बैठे हो? तो
उन्होंने कहा कि वह जमीन तो बिलकुल बेकार है। उसमें घास भी पैदा नहीं होता। उसका
करना भी क्या है? अगर घास भी पैदा नहीं होता है और जमीन
बेकार है तो पूछता हूं, लड़े क्यों थे? अपने
सैनिकों को क्यों व्यर्थ कटवाया? अगर जमीन बेकार थी और घास
पैदा नहीं होता था तो जमीन वैसे ही दे देनी थी, वह बड़ा अच्छा
होता, बड़ा गांधीवादी कृत्य होता। चीन भी प्रसन्न होता,
सारी दुनिया भी खुश होती कि बड़ा अच्छा काम किया। फिर दे क्यों न दी,
लड़े क्यों थे? वहां नाहक गरीब हिंदुस्तानियों
को क्यों कटवाया? तब जमीन बड़ी कीमती थी!
मैं आपसे कह रहा हूं कि हमारा चिंतन का ढंग हमेशा वह लोमड़ी वाला ही है; अंगूर खट्टे हो जाते हैं, अगर हम न छू पाएं। अब वह
जमीन बेकार हो गई; अब उसका कोई मतलब नहीं है। सब चुप हैं। सब
शेर नदारद हो गए। सब शांत हो गए।
चीन से आप जीत नहीं सकते। बहादुरी से जीत नहीं होती। यह पुराना खयाल
छोड़ दें कि बहादुर जीत जाता है। बहादुरी का मामला गया। अब तकनीक से जीत होती है, बुद्धिमान जीतता है। अब तकनीक हमारे पास क्या है? हमारे
पास तकनीक कुछ भी नहीं है।
जब हिंदुस्तान में सिकंदर ने हमला किया तो सिकंदर से पोरस कोई कम ताकत
का आदमी नहीं था। हो सकता, दोनों मैदान में लड़ते तो शायद पोरस जीत जाता। पोरस
बहुत हिम्मत का आदमी था, लेकिन तकनीक में पिछड़ा था। पोरस
हाथियों को लेकर लड़ रहा था और सिकंदर घोड़ों पर सवार होकर आया था। मुश्किल हो गई।
क्योंकि हाथी बारात वगैरह के लिए ठीक है, युद्ध के लिए ठीक
नहीं है। युद्ध की दृष्टि से टेक्नालाजिकल नहीं है। हाथियों को लेकर युद्ध पर जाना
नासमझी है। क्योंकि घोड़ा तेज जानवर है, थोड़ी जगह घेरता है,
जल्दी गति करता है। जल्दी मुड़ता है। कहीं से भी बचता है, भागता है। हाथी इतना बड?ा जानवर कि आप बारात निकालते
हैं और बाराती चले जा रहे हैं जनवासे की तरफ, तो बिलकुल ठीक
है, उसके पीछे चले जाइए। लेकिन हाथी जल्दी मुड़ नहीं सकता।
इतना बड़ा जानवर है, जगह ज्यादा है, जगह
ज्यादा घेरता है। और अगर गड़बड़ हो जाए, घबरा जाए तो अपने ही
सैनिकों को कुचल देता है। पोरस और सिकंदर की लड़ाई में पोरस की हार अपने ही हाथियों
की वजह से हुई।
फिर हिंदुस्तान में बाबर आया और हम उससे हारे, क्योंकि हम तलवारों से लड़ रहे थे। बाबर बारूद ले आया था। बारूद के सामने
तलवार बेकार है। लेकिन यह कोई नहीं कहेगा। हम यही समझेंगे कि हिंदुस्तान फूट की
वजह से हार गया, दगाबाजों की वजह से हार गया। ये सब झूठी
बातें हैं। असली बात यह है कि बारूद के सामने तलवार जीतेगी कैसे? फिर हम अंग्रेजों से हारे। अंग्रेजों से भी हारने का कारण कुल इतना था कि
हमारे पास बंदूकें थीं, बारूद थी, लेकिन
अंग्रेजों के पास तोपें थीं। और तोपों के सामने हमारी बंदूकें एकदम ठंडी पड़ गईं।
वे कुछ भी न कर पाईं। आज भी हम उसी हालत में हैं। आज भी कोई फर्क नहीं पड़ गया है।
आज भी जमीन पर अगर हम किसी से लड़ें तो हमारी हार सुनिश्चित है, क्योंकि उनके पास एटम बम हैं, हाइड्रोजन बम हैं। और
हमारे पास कुछ भी नहीं है।
नहीं, देश को वैज्ञानिक होने की जरूरत है, टेक्नालाजिकल विकास की जरूरत है। अगर पचास साल में हम दुनिया की दौड़ के
साथ खड़े नहीं हो गए, तो शायद फिर हम कभी साथ खड़े नहीं हो
सकेंगे, क्योंकि दौड़ का फासला बढ़ता ही चला जा रहा है। एकदम
बढ़ता चला जा रहा है। हमारे उनके प्रश्न अलग हुए जा रहे हैं। हमारे उनके सवाल अलग
हुए चले जा रहे हैं। अमरीका में आज वे उस आदमी को भी तनख्वाह दे रहे हैं जो बेकार
बैठा हुआ है। वह उसको बेकारी की तनख्वाह दे रहे हैं। वे कहते हैं कि जो आदमी बेकार
है, वह भी समाज पर बड़ी कृपा कर रहा है, क्योंकि वह मांग नहीं करता कि हमको नौकरी चाहिए। तो उसको भी तनख्वाह मिलनी
चाहिए। एक कौम उस जगह पहुंच गई, जहां बेकार को तनख्वाह
बेकारी की दी जा रही है कि आप बेकार होने को राजी हैं। आप यह तनख्वाह ले लें। नहीं
तो वह झंझट खड़ा करे कि हमको नौकरी चाहिए!
अब अमरीका में चिंतन चल रहा है कि धीरे-धीरे आने वाले पच्चीस वर्षों
में सभी व्यवस्था आटोमेटिक, स्वचालित हो जाएगी। और लाखों-करोड़ों लोग मुक्त हो
जाएंगे काम से। जहां दस हजार आदमी काम करते हैं, वहां एक
आदमी बटन दबाएगा और काम कर लेगा। दस हजार आदमी मुक्त हो जाएंगे। तो अमरीका के
सामने सवाल यह है कि जब दस हजार आदमी मुक्त हो जाएंगे तो साहित्य की, संगीत की, कला की किन दिशाओं में लगाओ, नहीं तो बड़ी मुश्किल होगी। इनको किन्हीं दिशाओं में लगाना जरूरी होगा। और
तनख्वाह तो इनको देनी पड़ेगी। क्योंकि कमाओगे किसलिए? वह दस
हजार की जगह जो कारखाना चल रहा है, वह कमाएगा किसके लिए?
आखिर इन्हीं के लिए कमाएगा। तो पश्चिम में तो वे वहां पहुंचे जा रहे
हैं जहां आदमी श्रम से मुक्त हो जाएगा। और जैसे ही आदमी श्रम से मुक्त होगा उसकी
प्रतिभा छलांग लगा कर उन सीमाओं को छू लेगी, जिसको कभी-कभी
कोई छू पाया है। कोई बुद्ध, किसी राजा का लड़का, कोई महावीर, किसी राजा का लड़का जिस प्रतिभा को कभी
छू पाता है, उस प्रतिभा को रूस और अमरीका का मजदूर का बेटा
भी छूने की हालत में आ गया है।
लेकिन हम? हम नहीं छू पाएंगे और हम बैठ कर रामधुन करते रहेंगे।
"अल्ला ईश्वर तेरे नाम' कहते रहेंगे। हम जो कर रहे हैं,
वह इतना वैज्ञानिक है कि जीवन को बदलने से उसका कोई संबंध नहीं है।
गांधीजी की पूरी दृष्टि अवैज्ञानिक है। विचार वहां नहीं है। अंधे
विश्वास की तरह वे वहां चल रहे हैं। और जो भी पुराना है, उसको वे नई बोतलों में ढाल कर हमको दिए चले जा रहे हैं। वह हमको अच्छा लग
रहा है, क्योंकि हम इसके आदी हो गए हैं।
दो-चार बातें और कहना चाहूंगा, जिससे मैं आपको यह
खयाल दिला सकूं कि गांधीजी ने जो भी किया उससे अंततः हमें बहुत नुकसान पहुंचे
हैं--अंततः। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि बहुत फायदा हो गया, अंततः
नुकसान पहुंचा है। हम कहते हैं, आजादी मिली। आजादी मिलती,
आजादी गांधी की वजह से नहीं मिल जाती। गांधी जिन मुल्कों में नहीं
हैं, वे भी आजाद हो गए हैं। सारी दुनिया आजाद हो गई है। असल
में दुनिया में किसी को गुलाम रखना आर्थिक रूप से महंगा काम हो गया, और कोई कारण नहीं है। आज दुनिया में किसी को गुलाम रखना आर्थिक रूप से
महंगा काम हो गया है।
जैसे, उदाहरण के लिए--एक जमाना था, गुलाम
हम रखते थे। आदमी को खरीद लेते थे। जिस राम-राज्य की गांधीजी बातें कहते हैं,
शायद उन्हें पता नहीं है, उस राम-राज्य में
आदमी बिकता था। गुलाम खरीदे और बेचे जाते थे, औरतें खरीदी और
बेची जाती थीं। बाजार भरे थे जहां आदमी बिकता था! आदमी बिकता था एक दिन। आदमी
गुलाम बन लेता था दूसरे को, खरीद लेता था जिंदगी भर के लिए।
लेकिन बाद में पता चला धीरे-धीरे कि गुलाम महंगा पड़ता है। उससे मजदूर सस्ता पड़ता
है। गुलाम इसलिए महंगा पड़ता है कि वह बीमार हो जाए तो इलाज करो। कम से कम उसे इतना
खाना तो दो कि वह काम कर सके। बूढ़ा हो जाए, तो उसका इंतजाम
रखो। हाथ-पैर टूट जाएं तो सिर पर पड़ जाता था। तो गुलाम महंगा पड़ने लगा। फिर गुलाम
की व्यवस्था अपने आप उखड़ गई। समझ में आया कि इसकी जगह तो मजदूर बेहतर है। मजदूर का
मतलब है--छह घंटे की गुलामी, चौबीस घंटे की नहीं। हम छह घंटे
के लिए खरीदते हैं, बाकी तुम जानो। छह घंटे के लिए हम
तुम्हें खरीदते हैं, उससे हमारा संबंध है। बाकी अठारह घंटे
में तुम जानो, तुम्हें क्या होता है। दुनिया से दासता उठ गई,
क्योंकि मजदूर सस्ता पड़ा।
आपको मैं कहना चाहता हूं, राजनीतिक गुलामी
दुनिया से उठ गई इस सदी में आकर, क्योंकि राजनीतिक गुलामी
महंगी पड़ने लगी। राजनीतिक की जगह आर्थिक गुलामी, इकोनामिक
स्लेवरी--नई ईजाद आ गई। राजनीतिक गुलामी का मतलब है, एक
मुल्क पर पूरा कब्जा रखो। आखिर कब्जे का फायदा यह है कि उसका शोषण करो। यह पुराना
ढंग था। अब नया ढंग यह है कि कब्जा रखने में बड़ी मुश्किल होती है, तो मुल्क इनकार करता है शोषण से। झगड़ा करता है, विरोध
करता है। दिन-रात गोली चलाओ, पुलिस बिठाओ, मिलिट्री बिठाओ, फिर भी झंझट जारी रहती है। तब एक
दूसरी नई तरकीब ईजाद की गई है, वह इकोनामिक स्लेवरी, वह है आर्थिक गुलामी; राजनीतिक नहीं। राजनीतिक रूप
से मुक्त कर दो और आर्थिक रूप से भीतर बाजार में हाथ डाल कर शोषण जारी रखो।
इसलिए दुनिया में सब मुल्क आजाद हो गए और सब मुल्कों को, जो उनके मालिक थे उन्होंने आजाद कर दिया है, सिर्फ
उनके बाजारों पर कब्जा कर लिया है। उनके बाजारों से शोषण जारी है। हम समझते हैं
स्वतंत्र हो गए, लेकिन बाजार में जाकर देखें तो आलपिन से
लेकर हवाई जहाज तक सब किसी कहीं और से बन कर चला आ रहा है। वहां का शोषण जारी है;
आर्थिक शोषण जारी है। सारी दुनिया में यह समझ आ गई कि अब राजनीतिक
गुलामी बड़ी महंगी पड़ती है, अब आर्थिक गुलामी ही उचित है।
बाजार पर कब्जा रखो। इसलिए सारी दुनिया स्वतंत्र हो गई।
लेकिन गांधीजी की वजह से हिंदुस्तान का विभाजन जरूर हुआ। आजादी तो फिर
भी आ सकती थी, बिना विभाजन के आ सकती थी, लेकिन
वह गांधीजी की वजह से नहीं आ सकी। क्यों? आप कहेंगे कि
गांधीजी तो विभाजन के बिलकुल खिलाफ थे। वे बिलकुल खिलाफ थे, लेकिन
उनका चिंतन बिलकुल पक्ष में था। वे बिलकुल खिलाफ में थे, लेकिन
वे जिस ढंग की बातें कर रहे थे, उससे यह होना सुनिश्चित था।
पहली तो बात यह है कि गांधीजी ने इस तरह की वेश-भूषा, इस तरह की व्यवस्था, इस तरह का आचरण, इस तरह की महात्मागिरी का इंतजाम किया कि गांधीजी पक्के हिंदू मालूम पड़ने
लगे। उनका भजन-कीर्तन, प्रार्थना, उनके
आश्रम के अंतेवासी उन्होंने सारे मुसलमानों को सचेत कर दिया कि अगर हिंदुस्तान
गांधीजी के हाथ में जाता है तो बहुत गहरे हिंदू संस्कृति के हाथ में चला जाएगा।
गांधीजी हिंदू संस्कृति के बिलकुल प्रतीक बन गए। और हमने उनको इसलिए पूजा, महात्मा कहा। नहीं तो हम नहीं पूजते, महात्मा नहीं
कहते। हिंदू संस्कृति उनको पूजा देने लगी। उसने उनको अवतार मानना शुरू कर दिया
क्योंकि वह हिंदू संस्कृति के बिलकुल प्रतीक बन गए, मालिक बन
गए। लेकिन मुसलमान सचेत हो गया।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि गांधीजी ज्यादा हिंदू थे, बजाय जिन्ना के ज्यादा मुसलमान होने के। जिन्ना इतना मुसलमान नहीं था,
जितना गांधीजी पक्के हिंदू थे। लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ा कि
गांधीजी का महात्मापन को हिंदू से अलग करता चला गया। और गांधीजी ने जितनी कोशिश की
हिंदू-मुसलमान को एक करने की, एक बनाने की, वह कोशिश भी गलत साबित हुई क्योंकि यह भी अवैज्ञानिक थी, विचारपूर्ण नहीं थी। हिंदू-मुसलमान कभी एक नहीं हो सकते। अगर हिंदू हिंदू
रहेगा और मुसलमान मुसलमान रहेगा तो एकता कभी नहीं हो सकती। असल में हिंदू के हिंदू
होने में मुसलमान से झगड़ा छिपा हुआ है। मुसलमान के मुसलमान होने में हिंदू से झगड़ा
छिपा हुआ है। ज्यादा से ज्यादा दो बातें हो सकती हैं--या तो वे लड़ें या थोड़ी देर
वे रुक कर लड़ने की तैयारी करें, और कोई फर्क नहीं हो सकता
है। या वे दंगे फसाद करें, या थोड़े दिन के लिए अमन कमेटियां
बना कर भाषणबाजी करें, थोड़े दिन शांत रहें, फिर तैयारी करें और लड़ें। ठीक वैज्ञानिक बात तो यह थी कि अगर गांधी ने यह
कहा होता कि मैं न हिंदू हूं, और सिर्फ अकेला आदमी हूं,
मनुष्य हूं। हिंदू होने की मुझे कोई चिंता नहीं है, हिंदू होना सब फिजूल है, अगर गांधी ने यह कहा होता;
हिंदू को हिंदू होने से मिटाया होता और मुसलमान को मुसलमान होने से
मिटाने की कोशिश की होती; हिंदू-मुसलमान को एक करने की कोशिश
नहीं, हिंदू को हिंदू होने से मिटाने की, मुसलमान को मुसलमान होने से मिटाने की कोशिश की होती तो हिंदुस्तान में
आदमी बचता।
पाकिस्तान-हिंदुस्तान पैदा नहीं हुआ होता। फिर गांधीजी ने इतना जोर
दिया हिंदू-मुसलमान की एकता पर, जोर से भी खयाल पैदा होने लगा।
इतना जोर देना, कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं, शक पैदा कर देता है।
आपको पता है कि हिंदुस्तान और चीन के झगड़े के पहले हम यह भी चिल्ला
रहे थे कि हिंदी-चीनी भाई-भाई। अब ध्यान रखना कि जब भी कोई नारा पैदा हो
फलाने-फलाने भाई-भाई, तब समझ लेना कि लड़ाई होने वाली है। असल में भाई-भाई
का शोरगुल यह हम तब मचाते हैं जब लड़ाई पैदा होने के करीब आ जाती है। और दिखता है
कि अब झंझट होगी। तो भाई-भाई कह कर उस झंझट को मिटाना चाहते हैं, झंझट के मूल कारण नहीं मिटाना चाहते। झंझट का मूल कारण कोई नहीं मिटाना
चाहता। भाई-भाई कह कर झंझट मिटने वाली है? मूल कारण देखना
पड़ेगा कि मूल कारण कहां है? बुनियाद में कारण कहां है,
वह तो देखा नहीं ऊपर से लीपा-पोती शुरू होती है कि अल्ला-ईश्वर तेरे
नाम, हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, कुरान को
भी पढ़ लो, गीता को भी पढ़ लो, सब साथ कर
लो। इससे कुछ हुआ नहीं। जितने जोर से उन्होंने कहा, हिंदू-मुस्लिम
भाई-भाई, उतना मुसलमान को यह पक्का दिखाई पड़ गया कि मेरे
बिना साथ यह आजादी नहीं मिल सकती। इतना साफ होता चला गया कि गांधी और उनके अनुयायी
मुझे मिलाने को अति आतुर हैं। उतना वह सख्त होता चला गया।
दूसरी मजे की बात यह है, खयाल में हमें नहीं
आती कि जब हम किसी को भाई-भाई होने पर जोर देते हैं, और अंत
में यह सिद्ध हो जाए कि वे भाई-भाई हैं, फिर भी झगड़ा न मिटता
हो तो बंटवारे का सवाल अपने आप पैदा होता। बंटवारा भाइयों के बीच होता है, और किसी के बीच नहीं होता है। हिंदुस्तान में हमने हिंदू-मुसलमान के
भाई-भाई होने की इतनी बकवास की, इतना शोरगुल मचाया कि उन
दोनों के दिमाग में पार्टिशन का खयाल पैदा हो गया। अगर यह भाई-भाई की बातचीत न की
गई होती तो बंटवारे का खयाल ही पैदा न होता। दुनिया में यह पहला मौका है जब देश का
बंटवारा हुआ। दुनिया में कभी देशों के बंटवारे नहीं हुए आज तक। यह पहला मौका है,
उसके बाद तो सिलसिला शुरू हुआ, अब और भी हो
सकता है। दुनिया में कभी देश का बंटवारा नहीं हुआ है क्योंकि दुनिया में यह
हिंदू-मुसलमान के भाई-भाई का इतना शोरगुल नहीं मचाया गया था।
दो भाइयों में बंटवारा होता है। अगर मेरे आप भाई हैं और झगड़ा हो जाए
तो एक ही रास्ता है कि मकान को बांट दो, बीच में दीवाल खींच
दो। भाई-भाई के शोरगुल मचाने का परिणाम है पाकिस्तान। आखिरी नतीजा यह था कि अब साथ
नहीं बनता तो बंटवारा कर लो, क्योंकि भाई-भाई तो हैं। जब
भाई-भाई हैं तो बंटवारा तो मानना ही पड़ेगा। क्योंकि भाई-भाई बंटवारा कर लेते हैं।
फिर बंटवारे से इनकार करना मुश्किल हो गया। जब भाई-भाई की फिलासफी स्वीकार की तो
बंटवारा उसका लाजिकल कांसिक्वेंस था, उसका तार्किक परिणाम
था। वह बंटवारा हुआ। मुल्क दो हिस्सों में टूट गया, और दो
हिस्सों में एक दिन के लिए नहीं टूट गया, सदा के लिए उपद्रव
हो गया। और वह उपद्रव जारी रहेगा। उपद्रव को मिटाना मुश्किल है। लेकिन गांधी यह न
कह सके कि मैं हिंदू नहीं, सिर्फ आदमी हूं। अगर गांधी यह
हिम्मत जुटा लेते, तो यह हो सकता था कि हिंदू की मान्यता
गांधी में कम हो जाती, लेकिन हिंदुस्तान का हित होता।
हिंदुस्तान का बड़ा हित हो सकता था। लेकिन उनके विचार में कोई वैज्ञानिक बात नहीं
है।
वैज्ञानिक बात यह है कि जब तक दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध हैं, तब तक दुनिया में झगड़े किसी न किसी भांति
जारी रहेंगे। ये झगड़े की सीमाएं बनी हुई हैं। इनसे झगड़ा पैदा होता ही रहेगा। अगर
झगड़ा मिटाना हो तो यह मत कहो कि हिंदू, मुसलमान, जैन भाई-भाई हैं। यह कहो कि हिंदू एक तरह का पागलपन है, मुसलमान दूसरे तरह का पागलपन है। हम सब तरह के पागलपन मिटाना चाहते हैं।
हम स्वस्थ आदमी चाहते हैं; सीधा आदमी चाहते हैं, जिसके साथ कोई लेबल न लगा हो। हम बिना लेबल का आदमी चाहते हैं। बहुत झगड़ा
हो चुका, बहुत लेबल के साथ पागलपन हो चुका, वह हम मिटाना चाहते हैं। लेकिन वे यह नहीं कह सके। उन्होंने तो कोशिश यह
की कि कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक सब ठीक। किसी भांति जुड़े
रहो, सब ठीक। लेकिन भीतर बुनयादी कारण है जिनसे यह सब ठीक
नहीं सकता। वह सब एक भी नहीं हो सकता।
और गांधी के मन में भी एक नहीं हो गया था। गांधीजी ने जिंदगी भर
दोहराया, "अल्ला ईश्वर तेरे नाम' लेकिन
जब गोली लगी, तो अल्लाह का नाम नहीं निकला। निकला राम का ही
नाम। जब गोली लगी तो निकला, "हे राम!' अल्लाह नहीं निकल सका। जिंदगी भर दोहराने के बाद भी वह भीतर जो हिंदू है,
वह मौजूद है। वह कह रहा है, "हे राम!'
उस वक्त अगर "हे अल्लाह' निकला होता तो
थोड़ा सोच में आता कि इस आदमी के भीतर भी कहीं जाकर कोई बात मिल गई होगी। वह भी
भीतर नहीं मिल पाई। वह भी एक राजनीतिक व्यवस्था थी समझौतावादी, कि किसी भांति इकट्ठे, किसी तरह सब इकट्ठे होकर एक
हो जाएं, तो अच्छा हो।
गांधी के व्यक्तित्व में बुनियादी रूप से भय है और भय के कारण यह
समझौतावादी हैं, कंप्रोमाइजिंग हैं। असल में भयभीत आदमी हमेशा समझौते
के लिए उत्सुक होता है--कोई भी समझौता। वे निरंतर समझौते करते रहे। हिंदुस्तान-पाकिस्तान
का बंटवारा आखिरी समझौता है। वह भी समझौता हो गया कि उससे भी टूट जाओ। वह
हिंदुस्तान के मन को समझौते की एक प्रवृत्ति में डाल दिया। हर चीज--समझौता है। वह
भी समझौता हो गया कि उससे भी टूट जाओ। वह हिंदुस्तान के मन को समझौते की एक
प्रवृत्ति में डाल गया। हर चीज--समझौता हो गया कि उससे भी टूट जाओ। वह हिंदुस्तान
के मन को समझौते की एक प्रवृत्ति में डाल गया। हर चीज--समझौता करते चले जाओ। आंध्र
वाले अलग बनाना चाहें प्रांत, तो अलग बनाओ; पंजाबी बनाना चाहें, पंजाबी का बनाओ। सारे मुल्क को
समझौतावादी प्रवृत्ति पर छोड़ गए। वह यह फिकर नहीं दे गए कि मुल्क का कल्याण किसमें
है, इसमें विचार करें।
और उन्होंने एक बहुत बड़ी नासमझी की, अत्यंत अविचारपूर्ण
बात की। उन्होंने उन्होंने कभी भी जो वे कहते थे, उसके लिए
तर्क नहीं दिए। हमेशा उन्होंने कहा, मेरी अंतरात्मा की आवाज
है। यह बहुत खतरनाक बात है। क्योंकि आपकी अंतरात्मा की आवाज गलत हो सकती है। किसी
की अंतरात्मा ने ठेका नहीं लिया हुआ है कि उसकी अंतरात्मा की आवाज ठीक ही होगी। और
आपकी अंतरात्मा की आवाज एक हो सकती है, मेरी दूसरी हो सकती
है, फिर क्या करिएगा?
और उन्होंने दूसरी एक बहुत खतरनाक ईजाद की इस मुल्क में--धमकी की। वह
यह कि अगर आप मेरी बात नहीं मानते हैं तो मैं भूखा, अनशन करके मर जाऊंगा।
इसका परिणाम हम हजारों साल तक भुगतेंगे। यह इतनी खतरनाक बात उन्होंने इस मुल्क को
सिखा दी कि अब कोई भी नासमझ खड़े होकर कह सकता है कि मेरी अंतरात्मा की आवाज है,
चंडीगढ़ जो है वह पंजाब में होना चाहिए, नहीं
तो मैं मर जाऊंगा! अब रोशनी है। अब डरो उससे, अब घबड़ाओ उससे।
सत्याग्रह के नाम पर आत्महत्या की धमकी उन्होंने सिखा दी, सबको सिखा दी कि आत्महत्या की धमकी दे दो। अगर कोई आदमी कहता है कि मैं आग
लगा कर मर जाऊंगा तो आप यह मत समझना कि वह आदमी कुछ गलत कह रहा है। वह गांधीवादी
चिंतन का ही फल है। वह यह कह रहा है कि धीरे-धीरे क्या मरना सत्तर दिन में! हम अभी
आग लगा कर पेट्रोल डाल कर मरते हैं। वह फिर भी वैज्ञानिक है। सत्तर दिन में
धीरे-धीरे क्या मरना! पेट्रोल डाल कर मर जाते हैं। जल्दी खतम किए लेते हैं। जल्दी
तय करो, नहीं तो हम मर जाएंगे।
हिंदुस्तान की बहुत सी बीमारियां गांधीजी के अविचारपूर्ण चिंतन से
पैदा हुई हैं। हिंदुस्तान में आज विद्यार्थियों की जो स्थिति है, उसके लिए गांधीजी के सिवाय और कोई जिम्मेवार नहीं है। हिंदुस्तान की
यूनिवर्सिटी, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय
और स्कूलों से गांधीजी ने विद्यार्थियों को आजादी के लिए बाहर निकाला। रवींद्रनाथ
ने इसका विरोध किया, तो रवींद्रनाथ देशद्रोही मालूम पड़े।
एनीबीसेंट ने इसका विरोध किया तो एनीबीसेंट की इज्जत खतम हो गई। क्योंकि गांधीजी ने
कहा, जब देश में आजादी का सवाल है तो पढ़ने का कोई सवाल नहीं
है। पहले आजादी, फिर पढ़ना हम देखेंगे। रवींद्रनाथ ने कहा,
यह खतरनाक बात आप कर रहे हैं, क्योंकि एक बार
विद्यार्थियों के सामने अगर राजनीतिक पकड़ शुरू हो गई, तो इसे
मिटाना मुश्किल हो जाएगा।
आज रवींद्रनाथ सही साबित हो रहे हैं, क्योंकि एक बार
विद्यार्थियों के सामने अगर राजनीतिक पकड़ शुरू हो गई, तो इसे
मिटाना मुश्किल हो जाएगा।
आज रवींद्रनाथ सही साबित हो रहे हैं, गांधी पूरे के पूरे
गलत साबित हो गए हैं, सोलह आने गलत साबित हो गए हैं। लेकिन
उस दिन रवींद्रनाथ देशद्रोही मालूम पड़े कि वे देशद्रोही की बातें कर रहे हैं।
गांधीजी ने हिंदुस्तान के विद्यार्थी को उठा लिया राजनीति में, अब वह वापस नहीं लौटता। अब वह कहता है, हड़ताल
करेंगे। अब वह कहता है, कांच फोड़ेंगे, बस
में आग लगाएंगे। अब वह कहता है, यह चाहिए, वह चाहिए। और हम कहते हैं कि तुम कैसे गांधी के देश के बेटे हो! तुम यह
क्या कर रहे हो? वह ठीक पिता गांधी का अनुकरण ही कर रहा है।
कोई फर्क नहीं कर रहा है। वह यह कह रहा है, हमें पढ़ना-लिखना
पीछे, पहले राजनीति।
विद्यार्थी को राजनीति में खींचना बहुत महंगा पड़ा है। और अब कब इससे
छुटकारा होगा, कहना मुश्किल है। यूनिवर्सिटीज व्यर्थ पड़ी हुई हैं।
आज वहां शिक्षा का कोई काम नहीं हो पा रहा है, क्योंकि
राजनीति पहले। आज हिंदुस्तान का कोई विद्यार्थी पढ़ ही नहीं रहा है। सारी दुनिया के
विद्यार्थी सारी शक्ति लगा कर पढ़ रहे हैं, सोच रहे हैं,
विचार कर रहे हैं, खोज कर रहे हैं। हिंदुस्तान
का विद्यार्थी कुछ भी नहीं कर रहा है। उसका जिम्मा किस पर है? कौन जिम्मेवार है? अवैज्ञानिक थी बात।
विद्यार्थी को ज्ञान से बड़ी आजादी भी नहीं है। ध्यान रहे, ज्ञान से बड़ी आजादी भी नहीं है। युवकों को उपद्रवों में डालना ठीक नहीं
है। उनको सारी शक्ति ज्ञान में लगा देनी उचित है। यूनिवर्सिटी के बाहर आकर लड़ाई लड़
लेंगे। फिर हिंदुस्तान में आजादी की लड़ाई लड़ने वालों की कोई कमी थी? चालीस-पचास करोड़ का मुल्क है, क्यों विद्यार्थी को
घसीटते हो? और लोग नहीं हैं? लेकिन सच
बात यह है कि उपद्रव करवाया है। अब वे वापस नहीं लौटे हैं। अब वे कहते हैं,
उपद्रव जारी रहेगा। हिंदुस्तान की सारी शिक्षा अस्त-व्यस्त हो गई
है। कैसे व्यवस्थित होगी, कहना मुश्किल है। बहुत मालूम पड़ता
है कि वह व्यवस्थित हो जाए।
अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में दो सौ साल में शिक्षा का एक व्यवस्थित
ढंग दिया था। गांधीजी ने वह सब अव्यवस्थित कर दिया। और उन्होंने इस तरह की बातें
कहीं कि हम तो बुनियादी तालीम चाहते हैं। बुनियादी तालीम का मतलब है, चरखा चलाना सीखो, तकली चलाना सीखो, चटाई बुनना सीखो। बुनो चटाइयां, चर्खे चलाओ, लेकिन दुनिया से इस बुरी तरह से पिछड़ जाओगे कि उनके पैरों में खड़े होने की
स्थिति भी न रह जाएगी। पश्चिम का लड़का चांद पर जाने का उपाय कर रहा है और हमारा
लड़का बुनियादी तालीम लेगा, बेसिक एजुकेशन ले रहा है। वह यह
कह रहा है कि हम तकली में से कैसे सूत निकालें। तो तुम निकालते रहो सूत, अमरीका के लड़के के सामने हारेंगे; बच नहीं सकते। खो
जाओगे, मिट जाओगे। लेकिन यह वैज्ञानिक चिंतना हमें समझ में
नहीं आ सकी।
और अब जब मैं ये बातें कहता हूं तो लोग मुझे गाली देने आ जाते हैं। वे
कहते हैं कि आप गांधीजी के लिए ऐसा कहते हैं! मैं गांधीजी के लिए कुछ भी नहीं कह
रहा हूं। गांधीजी से मुझे क्या लेना-देना है! कह इसलिए रहा हूं कि अगर यह
अवैज्ञानिक चिंतन हमको दिखाई नहीं पड़ा, तो हम आत्मघात कर
लेंगे।
यह हिंदुस्तान बुरी तरह से नुकसान में पड़ता जा रहा है और पड़ जाएगा।
रोज हम गङ्ढे में उतरते जा रहे हैं और अंधकार में उतरते जा रहे हैं। और मैं आपसे
कहना चाहता हूं कि उसका सबसे बड़ा जिम्मा गांधीजी पर है। उससे बड़ा जिम्मा किसी के
ऊपर नहीं है। और अगर हम समय रहते चेत जाएं और चीजों को सोच लें, समझ लें और भविष्य का निर्णय ले लें और गांधीजी से सावधान हो जाएं,
उनकी अविचारपूर्ण बातों से सावधान हो जाएं...।
लेकिन वह हम हो न पाएंगे, क्योंकि हमारी पुरानी
आदत यह है कि अगर एक आदमी गलत बात कहता हो, लेकिन चरित्रवान
हो तो हम उसकी बात मान लेंगे। जैसे कि चरित्र किसी बात के सही होने का सबूत है! एक
आदमी कहता है, दो और दो पांच होते हैं और रात को पानी नहीं
पीता है, तो हम कहेंगे बिलकुल ठीक है। क्योंकि वह आदमी रात
को पानी नहीं पीता है; क्योंकि वह आदमी दूध छान कर पीता है;
क्योंकि वह आदमी चोरी नहीं करता; बेईमानी नहीं
करता। वह दो और दो पांच जो कहता है, ठीक कहता होगा!
और मैं आपसे यह कहना चाहता हूं--यह आखिरी बात कि हिंदुस्तान चरित्र को
तर्क मान रहा है हजारों साल से, इससे बहुत नुकसान उठा रहा है।
चरित्र तर्क नहीं है। तर्क की अपनी जगह है जो चरित्र से बिलकुल अलग है। हिंदुस्तान
में अगर कोई आदमी अच्छा चरित्र निर्मित कर ले तो फिर हम पूछना ही छोड़ देते हैं कि
वह जो कह रहा है वह साइंटिफिक है, वैज्ञानिक है? फिर हम पूछना छोड़ देते हैं। हम कहते हैं, चरित्रवान
है, बस फिर ठीक है। फिर वह जो कह रहा है ठीक कह रहा है।
लेकिन ऐसा कोई ठेका है कि चरित्र से कोई ठीक होने का संबंध है?
गांधीजी के पास एक चरित्र है, एक नैतिक चरित्र है। मैं
उन्हें धार्मिक आदमी नहीं मानता हूं। एक अतिनैतिक व्यक्ति मानता हूं। जिन्होंने
बहुत श्रम करके एक तरह का चरित्र निर्माण किया है। बहुत श्रम उठाया है। लेकिन वह
सारा श्रम सप्रेसिव है, दमन का है। वह दबा-दबा कर उन्होंने
बदला है। उनका सारा ब्रह्मचर्य, सेक्स का दमन है। अति कामुक
व्यक्ति थे बचपन से। जिस दिन पिता मरे हैं, पिता के पैर दबा
रहे हैं, लेकिन मन उनका लगा है पत्नी पर। पिता मरने को हैं।
पिता बचेंगे नहीं आज रात। लेकिन फिर भी मन लगा है; आज की रात
पत्नी को छोड़ नहीं सकते। और पत्नी भी अच्छी हालत में नहीं है। चार ही दिन बाद उसको
बच्चा हुआ। वह गर्भवती है। लेकिन किसी ने कहा, लाओ मैं दवा
देता हूं। वे मौका पाकर भाग गए हैं। अभी चार दिन बाद उसको बच्चा पैदा होने वाला
है। वह बच्चा भी मर गया। और उस बच्चे के मरने का कारण भी वह संभोग हो सकता है।
क्योंकि चार दिन शेष रहे गर्भ में अगर संभोग किया जाए, तो
बच्चा मर सकता है। वह बच्चा मर गया चार दिन बाद पैदा हो कर।
गांधी अपनी पत्नी के साथ बिस्तर पर सोए हैं, तब घर में हाहाकार मच गया कि पिता मर गए हैं। उनको बड़ा सदमा पहुंचा। और वह
सदमा यह पहुंचा कि मैं कैसा कामुक हूं, कैसा सेक्सुअल हूं!
फिर इसके खिलाफ वे जिंदगी भर ब्रह्मचर्य साधते रहे और दमन करते रहे अपने सेक्स का,
और ब्रह्मचर्य साधते रहे। यह सारा ब्रह्मचर्य उनके चित्त में काम की
प्रवृत्ति से जो पहुंची पीड़ा और दुर्घटना है, उसका फल था।
और मैं कहता हूं, उनकी सारी अहिंसा उनके भीतर जो
छिपा हुआ भय था उस भय से बचने का उपाय थी।
लेकिन अभी तो लंबी चर्चा होगी। दुबारा आता हूं तो आपसे मैं बात करूंगा
कि गांधीजी की अहिंसा भय पर खड़ी है। और गांधीजी का ब्रह्मचर्य सेक्स के दमन पर खड़ा
है। इसलिए गांधीजी का व्यक्तित्व बहुत अर्थों में पैथालाजिकल है, मानसिक रूप से रुग्ण है। और अगर उसको हमने आदर्श मान कर हिंदुस्तान के
व्यक्तित्व को ढालने की कोशिश की तो हम सारे हिंदुस्तान को पैथालाजिकल, बीमारी बना दे सकते हैं।
जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मानी जाएं। यह धोखा हम बहुत दफा खा
चुके हैं इस मुल्क में। अब किसी की सब बातें मत मानना। जरूरी नहीं है कि मैं जो
कहता हूं, वह सब सही ही हो--ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है, इसलिए मैं कहता हूं। और अगर कल मुझे दिखाई पड़ जाए कि गलत है तो कह दूंगा,
वह गलत है। मुझे दिखाई पड़ता है कि ऐसा है। आपको जरूरी नहीं है मेरी
बात मान लेने की। आप सोचना। हो सकता है मेरी सारी बातें गलत हों। अगर गलत हों तो
उनको कचरे में फेंक देना, अगर लेकिन ठीक मालूम पड़ें तो सिर्फ
इस वजह से इनकार मत कर देना कि गांधीजी के विरोध में हम कैसे स्वीकार कर लें!
सिर्फ इस वजह से इनकार मत कर देना, सोचना। और मेरा किसी से
विरोध नहीं है। गांधीजी की छाया अब हिंदुस्तान के भविष्य पर नहीं चाहिए। उनकी
मूर्तियां गांव-गांव में खड़ी हैं, खड़ी रहें, लेकिन हिंदुस्तान के भविष्य पर उनकी मूर्ति की छाप नहीं होनी चाहिए अन्यथा
हिंदुस्तान भटक सकता है।
मेरी कड़वी बातों को भी इतने प्रेम और शांति से
सुना, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में आप सबके भीतर
बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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