कैप्शन जोड़ें |
अध्याय १-२
दसवां प्रवचन
जीवन की
परम धन्यता--
स्वधर्म की पूर्णता में
प्रश्न: भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात
हुई--
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।।
इसमें
कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत
में अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव
होता है। और जो अप्रकट है, उसमें
अद्वैत का दर्शन किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने के लिए आप
कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे?
अव्यक्त
है प्रारंभ में,
अव्यक्त
है अंत में;
मध्य
में व्यक्त का जगत है।
जिब्रान
ने कहीं कहा है,
एक रात, अंधेरी अमावस की रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया जलाकर।
टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के
बाहर भी अंधकार था। सब ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की थोड़ी-सी
रोशनी थी। और एक रात का पक्षी फड़फड़ाता हुआ झोपड़े के द्वार से प्रविष्ट हुआ, उसने दो या तीन चक्कर झोपड़े
के भीतर टिमटिमाती रोशनी में लगाए, और पीछे के द्वार से बाहर हो गया। जिब्रान
ने उस रात अपनी डायरी में लिखा कि उस पक्षी को अंधेरे से प्रकाश में दो क्षण के
लिए आते देखकर,
फिर
प्रकाश में दो क्षण फड़फड़ाते देखकर और फिर गहन अंधकार में खो जाते देखकर मुझे लगा
कि जीवन भी ऐसा ही है।
अव्यक्त
है प्रारंभ में,
अव्यक्त
है बाद में;
दो
क्षण की व्यक्त की फड़फड़ाहट है। दो क्षण के लिए वह जो मैनिफेस्टेड है, वह जो प्रकट है, उसमें फूल खिलते हैं, पत्ते आते हैं, जीवन हंसता है, रोता है और फिर खो जाता है।
अव्यक्त में अद्वैत है--पहले भी, अंत
में भी,
दोनों
ओर। मध्य में द्वैत है; द्वैत
ही नहीं है,
अनेकत्व
है। दो ही नहीं हैं, अनेक
हैं। सब चीजें पृथक-पृथक मालूम होती हैं।
तो पूछ
रहे हैं कि उस अपृथक को, उस
अभिन्न को,
उस एक
को, उस अद्वय को, उस मूल को और आदि को, मध्य के इन व्यक्त क्षणों में
जानने का क्या कोई प्रयोग है?
निश्चित
ही है।
एक
वृक्ष के नीचे खड़े हैं। पत्ते हवाओं में हिल रहे हैं। सूरज की रोशनी में पत्ते चमक
रहे हैं। एक-एक पत्ता अलग-अलग मालूम होता है। और अगर पत्ते सचेतन हो जाएं, अगर एक-एक पत्ता होश से भर
जाए, तो सोच भी न पाएगा कि साथ का
जो पड़ोसी पत्ता है, वह और
मैं कहीं एक हैं,
कहीं
नीचे शाखा पर जुड़े हैं। पड़ोस में हिलते हुए पत्ते को देखकर जागा हुआ, होश में आ गया पत्ता सोचेगा, कोई पराया है।
सोचना
ठीक भी है;
तर्कयुक्त
भी है। क्योंकि पड़ोस में कोई पत्ता बूढ़ा हो रहा है और यह पत्ता तो अभी जवान है।
अगर ये दोनों एक होते, तो
दोनों एक साथ बूढ़े हो गए होते। पड़ोस में कोई पत्ता गिरने के करीब है, पीला होकर सूखकर गिर रहा है।
गिर गया है कोई,
जमीन
पर सूखा पड़ा है,
हवाओं
में उड़ रहा है। अगर वह इस पत्ते से एक होता, तो वह वृक्ष पर और जिससे एक है, वह पृथ्वी पर कैसे हो सकता
था! वह हरा है,
कोई
सूख गया है। वह जवान है, कोई
बूढ़ा हो गया है। कोई अभी बच्चा है, किसी की अभी कोंपल फूटती है। उस पत्ते का
सोचना ठीक ही है कि वह अलग है।
लेकिन
काश! यह पत्ता बाहर से न देखे। अभी बाहर से देख रहा है, देख रहा है दूसरे पत्ते को।
काश! यह पत्ता अपने भीतर देख सके और भीतर उतरे, तो क्या बहुत दूर वह रस-धार है, जहां से ये दोनों पत्ते जुड़े
हैं! वह भी जो बूढ़ा, वह भी
जो जवान;
वह भी
जो आ रहा है,
वह भी
जो जा रहा है;
क्या
वह रस-धार बहुत दूर है? यह
पत्ता अपने भीतर उतरे, स्वयं
में उतरे,
तो उस
शाखा को जरूर ही देख पाएगा, जान
पाएगा,
जहां
से सब पत्ते निकले हैं।
लेकिन
फिर वह शाखा भी समझ सकती है कि दूसरी शाखा से अन्य है, भिन्न है। वह शाखा भी भीतर
उतरे, तो उस वृक्ष को खोज लेने में
बहुत कठिनाई नहीं है, जहां
सभी शाखाएं जुड़ी हैं। लेकिन वह वृक्ष भी सोच सकता है कि पड़ोस में खड़ा हुआ वृक्ष और
है, अन्य है। लेकिन वह वृक्ष भी
नीचे उतरे,
तो
क्या उस पृथ्वी को खोजना बहुत कठिन होगा, जिस पर कि दोनों वृक्ष जुड़े हैं और एक ही
रस-धार से जीवन को पाते हैं! पृथ्वी भी सोचती होगी कि दूसरे ग्रह-मंडल, तारे, चांद, सूरज अलग हैं। काश! पृथ्वी भी
अपने भीतर उतर सके, तो
जैसे पत्ते ने उतरकर जाना, वैसे
पृथ्वी भी जानती है कि सारा ब्रह्मांड भीतर एक से जुड़ा है!
दो ही
रास्ते हैं देखने के। एक रास्ता है जो तू से शुरू होता है, और एक रास्ता है जो मैं से
शुरू होता है। जो रास्ता तू से शुरू होता है, वह अनेक के दर्शन में ले जाता है। जो रास्ता
मैं से शुरू होता है, वह एक
के दर्शन में ले जाता है। जो तू से शुरू होता है, वह अनमैनिफेस्टेड में नहीं ले
जाएगा,
वह
अव्यक्त में नहीं ले जाएगा, वह
व्यक्त में ही ले जाएगा। क्योंकि दूसरे के तू को हम बाहर से ही छू सकते हैं, उसकी आंतरिक गहराइयों में
उतरने का कोई उपाय नहीं; हम उसके
बाहर ही घूम सकते हैं। भीतर तो हम सिर्फ स्वयं के ही उतर सकते हैं।
इसलिए
प्रत्येक के भीतर वह सीढ़ी है, जहां
से वह उतर सकता है वहां, जहां
अब भी अव्यक्त है। सब व्यक्त नहीं हो गया है। सब कभी व्यक्त हो भी नहीं सकता। अनंत
है अव्यक्त। क्योंकि जो अद्वैत है, वह अनंत भी होगा; और जो व्यक्त है, वह सीमित भी होगा। व्यक्त की
सीमा है,
अव्यक्त
की कोई सीमा नहीं है। जो अव्यक्त है, वह अनंत है, वह अभी भी है। उस बड़े सागर पर
बस एक लहर प्रकट हुई है। उस लहर ने सीमा बना ली है। वह सागर असीम है।
लेकिन
अगर लहर दूसरी लहर को देखे, तो सागर
तक कभी न पहुंच पाएगी। दूसरी लहर से सागर तक पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है।
क्योंकि दूसरी लहर के भीतर ही पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। हम सिर्फ अपने ही भीतर
उतर सकते हैं। और अपने ही भीतर उतरकर सबके भीतर उतर सकते हैं। स्वयं में उतरना
पहली सीढ़ी है,
स्वयं
में उतरते ही सर्व में उतरना हो जाता है।
और यह
बड़े मजे की बात है कि जो दूसरे में उतरता है, उसको ही लगता है कि मैं हूं। और जो मैं में
उतरता है,
उसे
लगता है,
मैं
नहीं हूं,
सर्व
है। मैं की सीढ़ी पर उतरते ही पता चलता है कि मैं भी खो गया, सर्व ही रह गया।
लेकिन
हम जीवन में सदा दूसरे से शुरू करते हैं, दि अदर। बस वह दूसरे से ही हम सब सोचते हैं।
अपने को छोड़कर ही हम चलते हैं, उसको
बाद दिए जाते हैं। जन्मों-जन्मों तक एक चीज को हम छोड़ते चले जाते हैं, निग्लेक्ट किए जाते हैं, एक चीज के प्रति हमारी
उपेक्षा गहन है--स्वयं को हम सदा ही छोड़कर चलते हैं। सब जोड़ लेते हैं, सब हिसाब में ले लेते हैं। बस
वह एक,
जो
अपना होना है,
उसे
हिसाब के बाहर रख देते हैं।
वेई वू
ने एक किताब लिखी है, दि
टेंथ मैन,
दसवां
आदमी। और बहुत पुरानी भारतीय कथा से वह किताब शुरू की है। उस कहानी से हम सब
परिचित हैं,
कि दस
आदमियों ने नदी पार की। वर्षा थी, बाढ़
थी। नदी पार उतरकर सहज ही उन्होंने सोचा कि कोई बह न गया हो! तो उन्होंने गिनती
की। निश्चित ही,
गिनती
उन्होंने वैसी ही की जैसी हम करते हैं। लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई। थे तो दस, लेकिन गिनती में नौ ही निकले।
एक ने की,
दूसरे
ने की,
तीसरे
ने की,
फिर तो
कन्फर्म हो गया कि नौ ही बचे हैं, एक खो
गया।
जैसे
सभी की जिंदगी का ढंग एक ही था--हम सभी का है--प्रत्येक ने स्वयं को छोड़कर गिना।
गिनती नौ हुई। अब वह जो एक खो गया, उसके लिए बैठकर वे रोने लगे। यह भी पक्का
पता नहीं चलता था कि वह कौन खो गया! ऐसे शक भी होता है कि कोई नहीं खोया। लेकिन शक
ही है,
क्योंकि
गणित कहता है कि खो गया। अब गणित इतना प्रामाणिक मालूम होता है कि अब शक को अलग ही
हटा देना उचित है। रो लेना भी उचित है, क्योंकि जो खो गया मित्र, उसके लिए अब और तो कुछ कर
नहीं सकते। वे वहां बैठकर एक वृक्ष के नीचे रोते हैं।
वहां
से एक फकीर गुजरा है। उसने पूछा कि क्या हुआ? क्यों रोते हो? उन्होंने कहा, एक साथी खो गया है। दस चले थे
उस पार से,
अब
गिनते हैं तो नौ ही हैं! वे फिर छाती पीटकर रोने लगे। उस फकीर ने नजर डाली और देखा
कि वे दस ही हैं। पर समझा वह फकीर। संसारी आदमी की बुद्धि और संसारी आदमी के गणित
को भलीभांति जानता था। जानता था कि संसारी की भूल ही एक है। वही भूल दिखता है, हो गई है।
उसने
कहा, जरा फिर से गिनो। लेकिन एक
काम करो,
मैं
एक-एक आदमी के गाल पर चांटा मारता हूं। जिसको मैं चांटा मारूं, वह बोले, एक! दूसरे को मारूं, दो! तीसरे को मारूं, तीन! मैं चांटा मारता चलता
हूं। चांटा इसलिए,
ताकि
तुम याद रख सको कि तुम छूट नहीं गए हो।
बड़ी
हैरानी हुई,
गिनती
दस तक पहुंच गई। वे बड़े चकित हुए और उन्होंने कहा, क्या चमत्कार किया? यह गिनती दस तक कैसे पहुंची? हमने बहुत गिना, लेकिन नौ पर ही पहुंचती थी!
तो उस
फकीर ने कहा,
दुनिया
में गिनने के दो ढंग हैं। दुनिया में दो तरह के गणित हैं। एक गणित जो तू से शुरू
होता है और एक गणित जो मैं से शुरू होता है। जो गणित तू से शुरू होता है, वह गणित कभी भी अव्यक्त में
नहीं ले जाएगा। नहीं ले जाएगा इसलिए कि तू के भीतर प्रवेश का द्वार ही नहीं है। जो
गणित मैं से शुरू होता है, वह
अव्यक्त में ले जाता है।
इसलिए
धर्म की परम अनुभूति परमात्मा है। और धर्म का प्राथमिक चरण आत्मा है। आत्मा से
शुरू करना पड़ता है, परमात्मा
पर पूर्णता होती है। स्वयं से चलना पड़ता है, सर्व में निष्पत्ति होती है।
तो
अपने भीतर से गिनती शुरू करें। अभी भी आपके भीतर अव्यक्त मौजूद है। झांकते ही नहीं
वहां, यह दूसरी बात है। आपके भीतर
अव्यक्त मौजूद है।
इसे
थोड़ा समझ लेना उचित होगा कि अव्यक्त आपके भीतर कैसे है! आपके ठीक पैरों के नीचे
है। जिस जमीन पर आप खड़े हैं, वहीं!
वहीं थोड़े ही दो कदम नीचे। चले नहीं कि अव्यक्त मौजूद है। कौन चला रहा है आपकी
श्वास को?
आप? तो जरा बंद करके देखें, तो पता चलेगा, आप नहीं चला रहे हैं। जरा
रोकें,
तो पता
चल जाएगा,
आप
नहीं चला रहे हैं। श्वास धक्के देगी और चलेगी, तब आपको पता चलेगा, आपके नीचे से भी कोई और गहरे
में इसे चला रहा है। खून चल रहा है चौबीस घंटे, आप नहीं चला रहे हैं। आपने कभी चलाया नहीं, चलाना पड़ता तो बहुत मुश्किल
में पड़ जाते। वह काम ही इतना होता कि और कोई काम न बचता। और मिनट दो मिनट भी चूक
जाते, भूल जाते, तो समाप्ति हो जाती। वह श्वास
आदमी पर अगर होती चलाने की, तो
दुनिया में आदमी बचता नहीं, कभी का
समाप्त हो गया होता। एक क्षण चूके कि गए। नहीं, आप सोए रहें, बेहोश पड़े रहें, शराब पीए पड़े रहें, वह श्वास चलती रहेगी, वह खून दौड़ता रहेगा।
खाना
तो आप खा लेते हैं, पचाता
कौन है?
आप? अभी तक बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक
प्रयोगशाला रोटी को खून में बदलने में समर्थ नहीं हो पाई है। और वैज्ञानिक कहते
हैं कि आदमी का छोटा-सा पेट जो करता है, अगर किसी दिन हम समर्थ हुए, तो कम से कम सैकड़ों मील जगह
घेरे, इतनी बड़ी फैक्टरी और लाखों
लोग काम करें,
इतना
इंतजाम,
एक
आदमी के पेट में जो रहा है, उसके
लिए करना पड़ेगा। लेकिन फिर भी पक्का नहीं है कि यह हो सकेगा। कौन चला रहा है? आप?
निश्चित
ही, एक बात पक्की है कि आप नहीं
चला रहे हैं। तो आपके भीतर अव्यक्त, आपके भीतर छिपी हुई कोई ताकत, आपके मैं की सीमा के पार...!
आप
सोते हैं रोज। लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप सोते हैं, क्योंकि सोना कोई एक्ट नहीं
है, कोई क्रिया नहीं है। भाषा में
है। भाषा से कोई लेना-देना नहीं है। सोना बिलकुल ही क्रिया नहीं है। क्योंकि जिसको
नींद नहीं आती है,
उसको
भलीभांति पता है कि कितनी ही करवट बदलता है, कितने ही उपाय करता है, नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती। सच तो यह है कि
जितने उपाय करता है, उतनी
ही नहीं आती। और अगर कभी आती है तो उसके उपाय की वजह से नहीं आती, उपाय कर-कर के थक गया होता है, तब आती है। नींद ला नहीं सकते
आप कि ले आएं। कहां से आती है? आपके
भीतर अव्यक्त से आती है। मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो उसे थोड़ी-सी समझ मिली है
उस अव्यक्त की,
उसे वह
अनकांशस कह रहा है। वह कह रहा है, अचेतन
से आती है।
पैर पर
चोट लग गई है। तत्काल, तत्काल
मवाद से भर जाता है घाव। आपने कुछ किया? आपने कुछ भी नहीं किया। लेकिन पता नहीं, पूरे शरीर से वे जीवाणु दौड़कर
उस घाव के पास पहुंच जाते हैं। जिसको आप मवाद कहते हैं, वह मवाद नहीं है; वह उन जीवाणुओं की पर्त है, जो तत्काल उसे चारों तरफ से
घेर लेते हैं,
बाहर
के जगत से सुरक्षा देने के लिए। चमड़ी तो टूट गई है, दूसरी पर्त चाहिए। वह पर्त
उसे घेर लेती है। और भीतर अव्यक्त तत्काल, जो घाव बन गया है, उसे ठीक करने में लग जाता है।
साधारण
चिकित्सक सोचता है कि हम ठीक कर देते हैं बीमारी को। लेकिन जो असाधारण चिकित्सक
हैं जगत में,
जो जरा
गहरे उतरे हैं मनुष्य की बीमारी में, वे कहते हैं कि नहीं, ज्यादा से ज्यादा हम थोड़ा-सा
सहयोग पहुंचाते हैं; इतना
भी कहना अतिशयोक्ति है। शायद इतना ही कहना उचित है कि हम थोड़ी-सी बाधाएं अलग करते
हैं; बाकी हीलिंग फोर्स भीतर से
आती है।
और अब
तो मनोवैज्ञानिक निरंतर इतने गहरे उतर रहे हैं, वे कहते हैं कि अगर एक आदमी के भीतर जीने की
इच्छा चली गई है,
तो घाव
भरना मुश्किल हो जाता है। अगर एक आदमी के भीतर से जीवन की इच्छा चली गई है, तो बीमारी को चिकित्सा ठीक
नहीं कर पाती। क्योंकि अव्यक्त ने, जीने की जो शक्ति थी, वह देनी बंद कर दी, वापस ले ली। बूढ़े आदमी के
शरीर में कोई बुनियादी फर्क नहीं हो गए होते हैं। लेकिन अव्यक्त सिकुड़ने लगता है।
वह शक्ति वापस लौटने लगती है। उतार शुरू हो गया।
अगर हम
अपने भीतर थोड़ा-सा झांकें, तो
हमें पता चलेगा कि हम जहां जी रहे हैं, वह शायद किसी एक बहुत बड़ी ऊर्जा का ऊपरी
शिखर है। बस,
उस
शिखर से ही हम परिचित हैं, उसके
पीछे हम बिलकुल परिचित नहीं हैं। उसके पीछे अव्यक्त अभी भी मौजूद है। सभी व्यक्त
घटनाओं के पीछे अव्यक्त मौजूद है। सभी दृश्य घटनाओं के पीछे अदृश्य मौजूद है। सभी
चेतन घटनाओं के पीछे अचेतन मौजूद है। सभी दिखाई पड़ने वाले जगत और रूप के पीछे अरूप
मौजूद है। जरा रूप की परत में गहरे उतरें।
कैसे
उतरें?
क्या
करें?
दूसरे
को भूलें। बहुत कठिन है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही याद आता है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही दिखाई पड़ता
है। आंख बंद करें,
तो भी
दूसरे से ही मिलना होता रहता है। दूसरे से आब्सेस्ड हैं, दूसरे से रुग्ण हैं। दूसरा है
कि पीछा छोड़ता ही नहीं; बस, चित्त में घूमता ही चला जाता
है। यह जो दूसरे की भीतर भीड़ है, इसे
विदा करें।
विदा
करने का उपाय है,
इस भीड़
के प्रति साक्षी का भाव करें। भीतर आंख बंद करके, वे जो दूसरों के प्रतिबिंब
हैं, उनके साक्षी भर रह जाएं। देखते
रहें, कुछ कहें मत। न पक्ष लें, न विपक्ष लें। न प्रेम करें, न घृणा करें। न किसी चित्र को
कहें कि आओ;
न किसी
चित्र को कहें कि जाओ। बस बैठे रह जाएं और देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें। धीरे-धीरे चित्र
विदा होने लगते हैं। क्योंकि जिन मेहमानों को आतिथेय देखता ही रहे, वे मेहमान ज्यादा देर नहीं
टिक सकते। मित्रता दिखाए तो भी टिक सकते हैं, शत्रुता दिखाए तो भी आ सकते हैं। कुछ भी न
दिखाए...।
तो
बुद्ध ने एक सूत्र दिया है, उपेक्षा, इंडिफरेंस। बस, रह जाए, कुछ भी न दिखाए; न पक्ष, न विपक्ष। तो धीरे-धीरे दूसरे
के चित्र बिखर जाते हैं। विचार खो जाते हैं।
और जिस
क्षण भी दूसरे के चित्र नहीं होते, उसी क्षण स्वयं के होने का बोध पहली दफा
उतरता है। जिस क्षण दूसरा आपके भीतर मौजूद नहीं है, उसी क्षण अचानक आपको अपनी
प्रेजेंस का,
अपने
होने का अनुभव होता है; कहीं
से कोई झरना फूट पड़ता है जैसे। जैसे पत्थर रखा था दूसरे का झरने के ऊपर, वह हट गया और झरने की धारा
फूट पड़ी। आप पहली दफा अपनी प्रेजेंस को, अपने होने को, अपने अस्तित्व को अनुभव करते
हैं और अव्यक्त में यात्रा शुरू हो जाती है। उसके आगे आपको कुछ नहीं करना है।
जैसे
एक आदमी छत से कूद जाए। कूद जाए, तब तो
ठीक है। कूदने के पहले पूछे कि मैं छत से कूद तो जाऊंगा, लेकिन फिर जमीन तक आने के लिए
क्या करूंगा?
तो हम
कहेंगे,
तुम
कुछ करना ही मत,
बाकी
काम जमीन कर लेगी। तुम छत से कूद भर जाना, बाकी काम जमीन पर छोड़ देना। वह बड़ी कुशल है।
उसका ग्रेविटेशन है, उसकी
अपनी कशिश है,
अपना
गुरुत्वाकर्षण है,
वह
तुम्हें खींच लेगी। तुम सिर्फ एक कदम छत से उठा लेना।
बस, दूसरे से एक कदम उठा लेना आप, बाकी अव्यक्त खींच लेगा। उसका
अपना ग्रेविटेशन है; उससे
बड़ा कोई ग्रेविटेशन नहीं है; उससे
बड़ी कोई कशिश नहीं है। वह खींच लेगा। लेकिन हम दूसरे को पकड़े हैं। वह दूसरे को
पकड़े होने की वजह से, दूसरे
के साथ हम इतने जोर से चिपके हुए हैं कि वह द्वार ही नहीं खुल पाता, जहां से अव्यक्त हमें पुकार
ले और खींच ले और बुला ले और अपने में डुबा ले।
और एक
बार अव्यक्त में डूबकर लौटे, तो फिर
दूसरे में भी वही दिखाई पड़ेगा, जो
स्वयं में दिखाई पड़ा है। क्योंकि दूसरे को हम वहीं तक जानते हैं, जितना हम स्वयं को जानते हैं।
जिस दिन आपको अपने भीतर अव्यक्त दिखाई पड़ जाएगा, वह इटरनल एबिस, वह अंतहीन खाई अव्यक्त की
अपने भीतर मुंह खोलकर दिखाई पड़ जाएगी, उस दिन प्रत्येक आंख में और प्रत्येक चेहरे
में वही अव्यक्त दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। फिर पत्ते में और फूल में और आकाश में, सब तरफ उस अव्यक्त की मौजूदगी
अनुभव होने लगती है।
लेकिन
यात्रा का पहला कदम स्वयं के भीतर है। उपेक्षा या साक्षी या कोई भी नाम दें, अवेयरनेस, कुछ भी नाम दें--दूसरे के जो
चित्र भीतर हैं,
दूसरे
के जो प्रतिबिंब भीतर हैं, उनके
प्रति होश से भर जाएं और कुछ मत करें, वे गिर जाते हैं। कुछ किया कि वे पकड़ जाते
हैं। कुछ मत करें और अचानक आप पाएंगे कि घटना घट गई और आप अव्यक्त में उतर गए।
कृष्ण
उसी अव्यक्त की बात कर रहे हैं। वह पहले भी था, बाद में भी है, अभी भी है। सिर्फ व्यक्त से
ढंका है। जरा व्यक्त की परत के नीचे जाएं और वह प्रकट हो जाता है।
प्रश्न:
भगवान श्री,
हम अगर
जीने की इच्छा छोड़ दें, तो
क्या अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है? या अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है, इसके प्रभाव से हम जीने की
इच्छा खो बैठते हैं? प्रश्न
यह है कि आरंभ कहां से होता है? क्या
पारस्परिक असर नहीं होता?
जीवन
की इच्छा हम छोड़ दें तो अव्यक्त सिकुड़ना शुरू हो जाता है, या अव्यक्त सिकुड़ना शुरू हो
जाता है,
इसलिए
हम जीवन की इच्छा छोड़ देते हैं--ये अगर दो घटनाएं होतीं, तो मैं कोई उत्तर दे पाता। ये
दो घटनाएं नहीं हैं; यह
साइमलटेनियस,
युगपत
घटना है। अव्यक्त का सिकुड़ना और हमारा जीने की इच्छा छोड़ देना, एक ही घटना है। हमारा जीने की
इच्छा छोड़ देना और अव्यक्त का सिकुड़ना भी एक ही घटना है। क्योंकि हम अव्यक्त से
पृथक नहीं हैं,
हम
उससे अन्य नहीं हैं, हम
उससे दूसरे नहीं हैं। यह एक ही चीज है।
हां, हमें सबसे पहले जो पता चलता
है, उसमें फर्क हो सकता है।
अस्तित्व में दोनों एक चीज हैं; पता
चलने में फर्क हो सकता है। एक आदमी को पहले पता चल सकता है कि मेरी जीवन की इच्छा
मरती जाती है। एक आदमी को पता चल सकता है कि मेरी तो इच्छा कोई मरी नहीं, लेकिन भीतर कुछ सिकुड़ना शुरू
हो गया है। यह आदमियों पर निर्भर करेगा कि उनकी कहां से शुरुआत होगी।
अगर
कोई आदमी निरंतर अहंकार में ही जीया है, तो उसकी प्रतीति और होगी। और कोई आदमी
निरंतर निरहंकार में जीया है, तो
उसकी प्रतीति और होगी। वह प्रतीति अहंकार के अस्तित्व पर निर्भर करेगी, घटना के अस्तित्व पर नहीं।
घटना तो एक ही है। घटना एक ही है। वे घटनाएं दो नहीं हैं। लेकिन हम तो अहंकार में
ही जीते हैं। इसलिए साधारणतः जब जीवन सिकुड़ना शुरू होता है, अस्तित्व जब डूबना शुरू होता
है, तो हमें ऐसा ही लगता है...।
बूढ़े
आदमी कहते हुए सुने जाते हैं कि अब जीने की कोई इच्छा न रही। अब जीना नहीं चाहते।
अब तो मौत ही आ जाए तो अच्छा है। लेकिन अभी भी वे यह कह रहे हैं कि अब जीने की कोई
इच्छा न रही,
जैसे
कि अपनी इच्छा से अब तक जीते थे। लेकिन सब चीजों को अपने से बांधकर देखा है, तो इसको भी अपने से ही बांधकर
वे देखेंगे।
हमारी
स्थिति करीब-करीब ऐसी ही है। मैंने सुना है कि जगन्नाथ की रथ-यात्रा चल रही है।
हजारों लोग रथ को नमस्कार कर रहे हैं। एक कुत्ता भी रथ के आगे हो लिया। उस कुत्ते
की अकड़ देखते ही बनती है। ठीक कारण है। सभी उसको नमस्कार कर रहे हैं! जो भी सामने
आता है,
एकदम
चरणों में गिर जाता है। सामने जो भी आ जाता है, चरणों में गिर जाता है। उस कुत्ते की अकड़
बढ़ती चली जा रही है। फिर पीछे लौटकर देखता है, तो पता चलता है कि सामने ही नहीं स्वागत हो
रहा है,
पीछे
भी रथ चल रहा है। स्वभावतः, जिस
कुत्ते का इतना स्वागत हो रहा हो, उसके
पीछे रथ चलना ही चाहिए। यह रथ कुत्ते के पीछे चल रहा है! ये लोग कुत्ते को नमस्कार
कर रहे हैं!
हमारा
अहंकार करीब-करीब जीवन की घटनाओं और पीछे अव्यक्त के चलने वाले रथ के बीच में, कुत्ते की हालत में होता है।
सब नमस्कार इस मैं को होते हैं; सब
पीछे से घटने वाली घटनाएं इस मैं को होती हैं। लेकिन कौन इस कुत्ते को समझाए? कैसे समझाए?
इस पर
निर्भर करेगा कि आपने पूरे जीवन को कैसे लिया है। जब आपको भूख लगी है, तब आपने सोचा है कि मैं भूख
लगा रहा हूं या अव्यक्त से भूख आ रही है! जब आप बच्चे से जवान हो गए हैं, तो आपने समझा कि मैं जवान हो
गया हूं या अव्यक्त से जवानी आ रही है!
यह
इंटरप्रिटेशन की बात है, यह
व्याख्या की बात है। घटना तो वही है, जो हो रही है, वही हो रही है। लेकिन कुत्ता
अपनी व्याख्या करने को तो स्वतंत्र है। रथ चल रहा है, नमस्कार रथ को की जा रही है, लेकिन कुत्ते को व्याख्या
करने से तो नहीं रोक सकते कि नमस्कार मुझे हो रही है, रथ मेरे लिए चल रहा है!
आदमी
जो व्याख्या कर रहा है, उसी से
सभी कुछ अहंकार- केंद्रित हो जाता है। अन्यथा अहंकार को छोड़ें, तो फिर दो बातें नहीं रह
जातीं,
एक ही
बात रह जाती है,
क्योंकि
हम भी अव्यक्त के ही हिस्से हैं। हम अगर अलग होते, तब उपाय भी था; हम भी अव्यक्त के ही हिस्से
हैं। हम भी जो कर रहे हैं, वह भी
अव्यक्त ही कर रहा है। हम भी जो सोच रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही सोच रहा है। हम भी जो हो
रहे हैं,
वह भी
अव्यक्त ही हो रहा है।
जिस
दिन हमें ऐसा दिखाई पड़ेगा, उस दिन
यह सवाल नहीं बनेगा। लेकिन अभी बनेगा, क्योंकि हमें लगता है, कुछ हम कर रहे हैं। कुछ हम कर
रहे हैं,
वह
मनुष्य की व्याख्या है। उसी व्याख्या में अर्जुन उलझा है, इसलिए पीड़ित और परेशान है। वह
यह कह रहा है कि मैं मारूं! इन सबको मैं काट डालूं! नहीं, ये सब मेरे हैं, मैं यह न करूंगा। इससे तो
बेहतर है कि मैं भाग जाऊं। लेकिन भागना भी वही करेगा, मारना भी वही करेगा। वह कर्ता
को नहीं छोड़ पाएगा, वह मैं
की व्याख्या नहीं छोड़ पा रहा है।
कृष्ण
अगर कुछ भी कह रहे हैं, तो
इतना ही कह रहे हैं कि तू जो व्याख्या कर रहा है मैं के केंद्र से, वह केंद्र ही झूठा है, वह केंद्र कहीं है ही नहीं।
उस केंद्र के ऊपर तू जो सब समर्पित कर रहा है, वहीं तेरी भूल हुई जा रही है।
लेकिन
हमें सब चीजें दो में टूटी हुई दिखाई पड़ती हैं। यह श्वास मेरे भीतर आती है, फिर दूसरी श्वास बाहर जाती
है। ये दो श्वासें नहीं हैं, एक
श्वास है। कोई पूछ सकता है कि मैं श्वास को बाहर निकालता हूं, इसलिए मुझे श्वास भीतर लेनी
पड़ती है?
या
चूंकि मैं श्वास भीतर लेता हूं, इसलिए
मुझे श्वास बाहर निकालनी पड़ती है? तो हम
कहेंगे,
भीतर
आना और बाहर जाना एक ही श्वास के डोलने का फर्क है। एक ही श्वास है; वही भीतर आती है, वही बाहर जाती है।
असल
में बाहर और भीतर भी दो चीजें नहीं हैं अव्यक्त में। बाहर और भीतर भी अव्यक्त
में--बाहर और भीतर भी अव्यक्त में--एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन जहां हम जी रहे
हैं, मैनिफेस्टेड जगत में, व्यक्त में, जहां सब अनेक हो गया है, वहां सब भिन्न है, वहां सब अलग है। फिर उस अलग
से हमारे सब सवाल उठते हैं।
बुद्ध
के पास एक व्यक्ति आया है। और बहुत सवाल पूछता है। तो बुद्ध ने कहा, ऐसा कर, तू सवालों के उत्तर ही चाहता
है? उसने कहा, उत्तर ही चाहता हूं। बुद्ध ने
कहा, और कितने लोगों से तूने पूछा
है? उसने कहा, मैं बहुत लोगों से पूछकर थक
चुका हूं,
अब
आपके पास आया हूं। बुद्ध ने कहा, इतने
लोगों से पूछकर तुझे उत्तर नहीं मिला, तो तुझे यह खयाल नहीं आता कि पूछने से उत्तर
मिलेगा ही नहीं! उसने कहा कि नहीं, यह खयाल नहीं आया। मुझे तो इतना ही खयाल आता
है कि अब और किसी से पूछें, अब और
किसी से पूछें,
अब और
किसी से पूछें। बुद्ध ने कहा, तो कब
तक तू पूछता रहेगा? मैं भी
तुझे उत्तर दे दूं उसी तरह, जैसे
दूसरों ने तुझे दिए थे? या कि
तुझे सच ही उत्तर चाहिए। उसने कहा, मुझे सच ही उत्तर चाहिए।
तो
बुद्ध ने कहा,
फिर तू
रुक जा;
फिर तू
सालभर पूछ ही मत। उसने कहा, बिना
पूछे उत्तर कैसे मिलेगा? बुद्ध
ने कहा,
तू
प्रश्न छोड़। सालभर बाद पूछना। सालभर पूछ ही मत, सालभर सोच ही मत, सालभर बात ही मत कर, सालभर मौन ही हो जा। उसने कहा, लेकिन इससे क्या होगा? यह, बुद्ध ने कहा, सालभर बाद ठीक इसी दिन पूछ
लेना। जब बुद्ध ने उससे यह कहा कि ठीक इसी दिन पूछ लेना, तो एक भिक्षु वृक्ष के नीचे
बैठा था,
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
उस
आदमी ने उस भिक्षु से पूछा, हंसते
हैं आप,
क्या
बात है?
हंसने
की क्या बात है?
उस
भिक्षु ने कहा,
पूछना
हो तो अभी पूछ लेना, क्योंकि
इसी धोखे में हम भी पड़े। हम साल बिता चुके हैं। जब सालभर बाद खुद ही जान लेते हैं, तो पूछने को बचता नहीं है।
पूछना हो तो अभी पूछ लेना, नहीं
तो फिर पूछ ही न पाओगे। ये बुद्ध बड़े धोखेबाज हैं। मैं भी इसी धोखे में पड़ा और
पीछे मुझे पता चला कि और लोग भी इस धोखे में पड़े हैं। बुद्ध ने कहा, मैं अपने वचन पर अडिग रहूंगा।
अगर सालभर बाद तू पूछेगा, तो मैं
उत्तर दूंगा।
साल
बीत गया। फिर वही दिन आ गया। और बुद्ध ने उस आदमी को कहा कि मित्र, अब खड़े हो जाओ और प्रश्न पूछ
लो! वह हंसने लगा और उसने कहा कि जाने दें, बेकार की बात-चीत में कोई सार नहीं है। पर
बुद्ध ने कहा,
वायदा
था मेरा,
तो मैं
तुम्हें याद दिलाए देता हूं। पीछे मत कहना कि मैंने धोखा दिया।
उसने
कहा कि नहीं,
आप उस
दिन उत्तर देते तो ही धोखा होता। क्योंकि जब मैं चुप हुआ, तब मैंने देखा कि सारे प्रश्न
विचार से निर्मित थे, क्योंकि
विचार ने अस्तित्व को खंड-खंड में तोड़ा हुआ था। और अस्तित्व था अखंड। अब जब मैं
भीतर निर्विचार हुआ, तो
मैंने पाया कि सारे प्रश्न झूठे थे; क्योंकि अस्तित्व को तोड़कर खड़े किए गए थे।
उस
अव्यक्त में,
उस
अखंड में सब प्रश्न गिर जाते हैं, लेकिन
व्यक्त में सब प्रश्न उठते हैं। तो या तो हम प्रश्न पूछते रहें, तो जिंदगी दर्शनशास्त्र बन
जाती है। और या हम भीतर उतरें, तो
जिंदगी धर्म बन जाती है। और अधर्म धर्म के खिलाफ उतना नहीं है, जितनी फिलासफी है, जितना दर्शन है धर्म के
खिलाफ। क्योंकि वह विचार, और
विचार,
और
विचार में ले जाता है। और हर विचार चीजों को तोड़ता चला जाता है। आखिर में सब चीजें
टूट जाती हैं;
प्रश्न
ही प्रश्न रह जाते हैं; कोई
उत्तर नहीं बचता।
भीतर
उतरें,
वहां
एक ही है,
वहां
दो नहीं हैं। और जहां दो नहीं हैं, वहां प्रश्न नहीं हो सकता। प्रश्न के लिए कम
से कम दो का होना जरूरी है कम से कम। पूछा जा सके, इसलिए कम से कम दो का होना
जरूरी है।
वह जो
पहले था अव्यक्त,
वह जो
बाद में रह जाएगा अव्यक्त, वह अभी
भी है। उसमें उतरना, उसमें डूबना
ही मार्ग है।
देही
नित्यमध्योऽहं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि
भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।। ३०।।
स्वधर्मपि
चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि
युद्धाच्छे्रयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।। ३१।।
हे
अर्जुन,
यह
आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए तू शोक
करने को योग्य नहीं है।
और
अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से
बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।
कृष्ण
अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दो, तो भी क्षत्रिय हो, और क्षत्रिय के लिए युद्ध से
भागना श्रेयस्कर नहीं है।
इसे
थोड़ा समझ लेना जरूरी है, कई
कारणों से।
एक तो
विगत पांच सौ वर्षों में, सभी
मनुष्य समान हैं,
इसकी
बात इतनी प्रचारित की गई है कि कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी, कि तुम क्षत्रिय हो। समाजवाद
के जन्म के पहले,
सारी
पृथ्वी पर,
उन
सारे लोगों ने,
जिन्होंने
सोचा है और जीवन को जाना है, बिलकुल
ही दूसरी उनकी धारणा थी। वह धारणा यह थी कि कोई भी व्यक्ति समान नहीं है। एक।
और
दूसरी धारणा उस असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैं, व्यक्तियों के विभिन्न प्रकार
हैं। बहुत मोटे में, इस देश
के मनीषियों ने चार प्रकार बांटे हुए थे। वे चार वर्ण थे। वर्ण की धारणा भी बुरी
तरह, बुरी तरह निंदित हुई। इसलिए
नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है, बल्कि इसलिए कि वर्ण की धारणा
मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए। वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर
रहे हैं,
अत्यंत
प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं। संग-साथ से सिद्धांत तक मुसीबत में पड़
जाते हैं!
इसलिए
आज बड़ी मुश्किल पड़ती है यह बात कि कृष्ण का यह कहना कि तू क्षत्रिय है। जिस दिन यह
बात कही गई थी,
उस दिन
यह मनोवैज्ञानिक सत्य बहुत स्पष्ट था। अभी जैसे-जैसे पश्चिम में मनोविज्ञान की समझ
बढ़ती है,
वैसे-वैसे
यह सत्य पुनः स्थापित होता जाता है। कार्ल गुस्ताव जुंग ने फिर आदमी को चार टाइप
में बांटा है। और आज अगर पश्चिम में किसी आदमी की भी मनुष्य के मनस में गहरी से
गहरी पैठ है,
तो वह
जुंग की है। उसने फिर चार हिस्सों में बांट दिया है।
नहीं, आदमी एक ही टाइप के नहीं हैं।
पश्चिम में जो मनोविज्ञान का जन्मदाता है फ्रायड, उसने तो मनोवैज्ञानिक आधार पर
समाजवाद की खिलाफत की है। उसने कहा कि मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन जितना ही मैं मनुष्य के
मन को जानता हूं,
उतना
ही मैं कहता हूं कि मनुष्य असमान है। इनइक्वालिटी इज़ दि फैक्ट, और इक्वालिटी सिर्फ एक झूठी
कहानी है,
पुराणकथा
है। समानता है नहीं; हो
नहीं सकती;
क्योंकि
व्यक्ति-व्यक्ति बुनियाद में बहुत भिन्न हैं।
इन
भिन्नताओं की अगर हम बहुत मोटी रूप-रेखा बांधें, तो इस मुल्क ने कृष्ण के समय
तक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को विकसित कर लिया था और हमने चार वर्ण बांटे थे। चार
वर्णों में राज है। और जहां भी कभी मनुष्यों को बांटा गया है, वह चार से कम में नहीं बांटा
गया है और चार से ज्यादा में भी नहीं बांटा गया; जिन्होंने भी बांटा है--इस
मुल्क में ही नहीं, इस
मुल्क के बाहर भी। कुछ कारण दिखाई पड़ता है। कुछ प्राकृतिक तथ्य मालूम होता है
पीछे।
ब्राह्मण
से अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसके
प्राणों का सारा समर्पण बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है। जिसके प्राणों की सारी
ऊर्जा बुद्धि में रूपांतरित होती है। जिसके जीवन की सारी खोज ज्ञान की खोज है। उसे
प्रेम न मिले,
चलेगा; उसे धन न मिले, चलेगा; उसे पद न मिले, चलेगा; लेकिन सत्य क्या है, इसके लिए वह सब समर्पित कर
सकता है। पद,
धन, सुख, सब खो सकता है। बस, एक लालसा, उसके प्राणों की ऊर्जा एक ही
लालसा के इर्द-गिर्द जीती है, उसके
भीतर एक ही दीया जल रहा है और वह दीया यह है कि ज्ञान कैसे मिले? इसको ब्राह्मण...।
आज
पश्चिम में जो वैज्ञानिक हैं, वे
ब्राह्मण हैं। आइंस्टीन को ब्राह्मण कहना चाहिए, लुई पाश्चर को ब्राह्मण कहना
चाहिए। आज पश्चिम में तीन सौ वर्षों में जिन लोगों ने विज्ञान के सत्य की खोज में
अपनी आहुति दी है,
उनको
ब्राह्मण कहना चाहिए।
दूसरा
वर्ग है क्षत्रिय का। उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्रोत, उसकी आकांक्षा का स्रोत शक्ति
है, पावर है। व्यक्ति हैं पृथ्वी
पर, जिनका सारा जीवन शक्ति की ही
खोज है। जैसे नीत्से, उसने
किताब लिखी है,
विल टु
पावर। किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच--नीत्से कहता है--वे सभी
शक्ति को पाने में आतुर हैं, शक्ति
के उपासक हैं,
वे सब
शक्ति की खोज कर रहे हैं। इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए
सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रोशनी में मुझे दिखाई पड़ती
हैं, इतना सुंदर संगीत मैंने कोई
नहीं सुना।
ब्राह्मण
को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन
की चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के एक साथ पड़ते हुए कदमों की
चाप में कोई संगीत होता है? संगीत
तो होता है कंटेंप्लेशन में, चिंतना
में, आकाश के नीचे वृक्ष के पास
बैठकर तारों के संबंध में सोचने में। संगीत तो होता है संगीत में, काव्य में। संगीत तो होता है
खोज में सत्य की। यह पागल है नीत्से!
लेकिन
नीत्से किसी एक वर्ग के लिए ठीक-ठीक बात कह रहा है। किसी के लिए तारों में कोई
अर्थ नहीं होता। किसी के लिए एक ही अर्थ होता है, एक ही संकल्प होता है कि
शक्ति और ऊर्जा के ऊपरी शिखर पर वह कैसे उठ जाए! उसे हमने कहा था क्षत्रिय।
कृष्ण
पहचानते हैं अर्जुन को भलीभांति। वह टाइप क्षत्रिय का है। अभी बातें वह ब्राह्मण
जैसी कर रहा है। इसमें कनफ्यूज्ड हो जाएगा। इसमें उपद्रव में पड़ जाएगा। उसके
व्यक्तित्व का पूरा का पूरा बनाव, स्ट्रक्चर, उसके मनस की एनाटामी, उसके मनस का सारा ढांचा
क्षत्रिय का है। तलवार ही उसकी आत्मा है; वही उसकी रौनक है, वही उसका संगीत है। अगर
परमात्मा की झलक उसे कहीं से भी मिलनी है, तो वह तलवार की चमक से मिलनी है। उसके लिए
कोई और रास्ता नहीं है।
तो
उससे वे कह रहे हैं, तू क्षत्रिय
है; अगर और सब बातें भी छोड़, तो तुझसे कहता हूं कि तू
क्षत्रिय है। और तुझसे मैं कहता हूं कि क्षत्रिय से यहां-वहां होकर तू सिर्फ
दीन-हीन हो जाएगा,
यहां-वहां
होकर तू सिर्फ ग्लानि को उपलब्ध होगा, यहां-वहां होकर तू सिर्फ अपने प्रति अपराधी
हो जाएगा।
और
ध्यान रहे,
अपने
प्रति अपराध जगत में बड़े से बड़ा अपराध है। क्योंकि जो अपने प्रति अपराधी हो जाता
है, वह फिर सबके प्रति अपराधी हो
जाता है। सिर्फ वे ही लोग दूसरे के साथ अपराध नहीं करते, जो अपने साथ अपराध नहीं करते।
और कृष्ण की भाषा में समझें, तो
अपने साथ सबसे बड़ा अपराध यही है कि जो उस व्यक्ति का मौलिक स्वर है जीवन का, वह उससे च्युत हो जाए, उससे हट जाए।
तीसरा
एक वर्ग और है,
जिसको
तलवार में सिर्फ भय के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा; संगीत तो कभी नहीं, सिर्फ भय दिखाई पड़ेगा। जिसे
ज्ञान की खोज नासमझी मालूम पड़ेगी कि सिरफिरों का काम है। तो तीसरा वर्ग है, जिसके लिए धन महिमा है। जिसके
लिए धन ही सब कुछ है। धन के आस-पास ही जिसके जीवन की सारी व्यवस्था निर्मित होती
है। अगर वैसे आदमी को मोक्ष की भी बात करनी हो, तो उसके लिए मोक्ष भी धन के रूप में ही
दिखाई पड़ सकता है। अगर वह भगवान का भी चिंतन करेगा, तो भगवान को लक्ष्मीनारायण
बनाए बिना नहीं रह सकता। इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। सिर्फ फैक्ट, सिर्फ तथ्य की बात कर रहा हूं
मैं। ऐसा है। और ऐसा आदमी अगर छिपाए अपने को, तो व्यर्थ ही कठिनाई में पड़ेगा। अगर वह दबाए
अपने को,
तो
कठिनाई में पड़ेगा। उसके लिए जीवन की जो परम अनुभूति का द्वार है, वह शायद धन की खोज से ही
खुलने वाला है। इसलिए और कहीं से खुलने वाला नहीं है।
अब एक
राकफेलर या एक मार्गन या एक टाटा, ये कोई
छोटे लोग नहीं हैं। कोई कारण नहीं है इनके छोटे होने का। ये अपने वर्ग में वैसे ही
श्रेष्ठ हैं,
जैसे
कोई याज्ञवल्क्य,
जैसे
कोई पतंजलि,
जैसे
कोई अर्जुन अपने वर्गों में होंगे। इसमें कोई तुलना नहीं है, कोई कंपेरिजन नहीं है।
वर्ण
की जो धारणा है,
वह
तुलनात्मक नहीं है, वह
सिर्फ तथ्यात्मक है। जिस दिन वर्ण की धारणा तुलनात्मक हुई कि कौन ऊपर, कौन नीचे, उस दिन वर्ण की वैज्ञानिकता
चली गई और वर्ण एक सामाजिक अनाचार बन गया। जिस दिन वर्ण में तुलना पैदा हुई--कि
क्षत्रिय ऊपर,
कि
ब्राह्मण ऊपर,
कि
वैश्य ऊपर,
कि
शूद्र ऊपर,
कि कौन
नीचे, कि कौन पीछे--जिस दिन वर्ण का
शोषण किया गया,
वर्ण
के वैज्ञानिक सिद्धांत को जिस दिन सामाजिक शोषण की आधारशिला में रखा गया, उस दिन से वर्ण की धारणा
अनाचार हो गई।
सभी
सिद्धांतों का अनाचार हो सकता है, किसी
भी सिद्धांत का शोषण हो सकता है। वर्ण की धारणा का भी शोषण हुआ। और अब इस मुल्क
में जो वर्ण की धारणा के समर्थक हैं, वे उस वर्ण की वैज्ञानिकता के समर्थक नहीं
हैं। उस वर्ण के आधार पर जो शोषण खड़ा है, उसके समर्थक हैं। उनकी वजह से वे तो डूबेंगे
ही, वर्ण का एक बहुत वैज्ञानिक
सिद्धांत भी डूब सकता है।
एक
चौथा वर्ग भी है,
जिसे
धन से भी प्रयोजन नहीं है, शक्ति
से भी अर्थ नहीं है, ज्ञान
की भी कोई बात नहीं है, लेकिन
जिसका जीवन कहीं बहुत गहरे में सेवा और सर्विस के आस-पास घूमता है। जो अगर अपने को
कहीं समर्पित कर पाए और किसी की सेवा कर पाए, तो फुलफिलमेंट को, आप्तता को उपलब्ध हो सकता है।
ये जो
चार वर्ग हैं,
इनमें
कोई नीचे-ऊपर नहीं है। ऐसे चार मोटे विभाजन हैं। और कृष्ण की पूरी साइकोलाजी, कृष्ण का पूरा का पूरा
मनोविज्ञान इस बात पर खड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा तक पहुंचने का जो
मार्ग है,
वह
उसके स्वधर्म से गुजरता है। स्वधर्म का मतलब हिंदू नहीं, स्वधर्म का मतलब मुसलमान नहीं, स्वधर्म का मतलब जैन नहीं; स्वधर्म का मतलब, उस व्यक्ति का जो वर्ण है। और
वर्ण का जन्म से कोई संबंध नहीं है।
लेकिन
संबंध निर्मित हो गया। हो जाने के पीछे बहुत कारण हैं, वह मैं बात करूंगा। हो जाने
के पीछे कारण थे,
वैज्ञानिक
ही कारण थे। संबंध था नहीं जन्म के साथ वर्ण का, इसलिए फ्लुइडिटी थी, और कोई विश्वामित्र यहां से
वहां हो भी जाता था। संभावना थी कि एक वर्ण से दूसरे वर्ण में यात्रा हो जाए।
लेकिन जैसे ही यह सिद्धांत खयाल में आ गया और इस सिद्धांत की परम प्रामाणिकता
सिद्ध हो गई कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण से ही, अपने स्वधर्म से ही सत्य को उपलब्ध
हो सकता है,
तो एक
बहुत जरूरी बात पैदा हो गई और वह यह कि यह पता कैसे चले कि कौन व्यक्ति किस वर्ण
का है! अगर जन्म से तय न हो, तो
शायद ऐसा भी हो सकता है कि एक आदमी जीवनभर कोशिश करे और पता ही न लगा पाए कि वह
किस वर्ण का है। उसका क्या है झुकाव, वह क्या होने को पैदा हुआ है--पता ही कैसे
चले? तो फिर सुगम यह हो सकता है कि
अगर जन्म से कुछ निश्चय किया जा सके।
लेकिन
जन्म से निश्चय किया कैसे जा सके? कोई
आदमी किसी के घर में पैदा हो गया, इससे
तय हो जाएगा?
कोई
आदमी किसी के घर में पैदा हो गया, ब्राह्मण
के घर में,
तो ब्राह्मण
हो जाएगा?
जरूरी
नहीं है। लेकिन बहुत संभावना है। प्रोबेबिलिटी ज्यादा है। और उस प्रोबेबिलिटी को
बढ़ाने के लिए,
सर्टेन
करने के लिए बहुत से प्रयोग किए गए। बड़े से बड़ा प्रयोग यह था कि ब्राह्मण को एक
सुनिश्चित जीवन व्यवस्था दी गई, एक
डिसिप्लिन दी गई। यह डिसिप्लिन इसलिए दी गई कि इस आदमी को या इस स्त्री को जो नई
आत्मा अपने गर्भ की तरह चुनेगी, तो उस
आत्मा को बहुत स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वह उसके टाइप से मेल खाता है कि नहीं खाता
है।
इसलिए
मैंने परसों आपसे कहा कि वर्णसंकर होने के डर से नहीं, क्योंकि वर्णसंकर से तो बहुत
ही विकसित व्यक्तित्व पैदा हो सकते हैं, लेकिन दो जातियों में शादी न हो, उसका कारण बहुत दूसरा था।
उसका कुल कारण इतना था कि हम प्रत्येक वर्ण को एक स्पष्ट फार्म, एक रूप दे देना चाहते थे। और
प्रत्येक वर्ण को इतना स्पष्ट ढांचा दे देना चाहते थे कि आत्माएं, जो चुनाव करती हैं अपने नए
जन्म के लिए,
उनके
लिए एकदम सुगम व्यवस्था हो जाए। फिर भी भूल-चूक हो जाती थी। इतने बड़े समाज में
बहुत वैज्ञानिक प्रयोग भी भूल-चूक ले आता है। तो कभी किसी...।
अब एक
पिता और एक मां,
जिनके
दोनों के जीवन की खोज ज्ञान रही है, निश्चित ही ये जिस गर्भ को निर्मित करेंगे, वह गर्भ किसी ज्ञान की खोजी
आत्मा के लिए सुगमतम होगा। इसलिए बहुत संभावना है कि ब्राह्मण के घर में ब्राह्मण
का टाइप पैदा हो। संभावना है, निश्चय
नहीं है। भूल-चूक हो सकती है। इसलिए भूल-चूक के लिए तरलता थी, थोड़ी यात्रा हो सकती थी।
इन चार
हिस्सों में जो स्ट्रैटिफिकेशन किया गया समाज का, चार हिस्सों में तोड़ दिया गया, ये चार हिस्से नीचे-ऊपर की
धारणा से बहुत बाद में भरे। पहले तो एक बहुत वैज्ञानिक, एक बहुत मनोवैज्ञानिक प्रयोग
था, जो इनके बीच किया गया। ताकि
आदमी पहचान सके कि उसके जीवन का मौलिक, उसके जीवन का मौलिक पैशन, उसके जीवन की मौलिक वासना
क्या है। क्योंकि वह उसी वासना से यात्रा करके निर्वासना तक पहुंच सकता है।
कृष्ण
अर्जुन को कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है। और सब बातें छोड़ दे, तो भी मैं तुझे कहता हूं कि
तेरे लिए यही उचित है, तू
लड़ने से मत भाग। तू लड़। तू लड़ ही सकता है। तेरा सारा व्यक्तित्व ही योद्धा का
व्यक्तित्व है। तू हाथ में किताब लेकर नहीं बैठ सकता। हाथ में किताब रहेगी, लेकिन तेरे प्राणों तक किताब
नहीं पहुंच सकती। तू सेवा करने की फिक्र में पड़ जाए कि सेवक हो जाऊं, लोगों के पैर दबाऊं, तो तेरे हाथ पैर दबाते रहेंगे, तेरी आत्मा वहां नहीं होगी।
तू धन कमाने में लग जा, तो तू
रुपये इकट्ठा करता रहेगा, लेकिन
वे रुपये तेरे लिए निर्मूल्य होंगे; उनका मूल्य नहीं होगा।
मूल्य
रुपये में नहीं होता, मूल्य
व्यक्ति के वर्ण में होता है। उससे रुपये में आता है। मूल्य रुपए में नहीं होता, मूल्य व्यक्ति के वर्ण में
होता है। अगर वैश्य के हाथ में रुपया आ जाए तो उसमें मूल्य होता है, क्षत्रिय के हाथ में रुपये का
इतना ही मूल्य हो सकता है कि वह तलवार खरीद ले, इससे ज्यादा मूल्य नहीं होता। इंट्रिंजिक
वैल्यू नहीं होती रुपये की क्षत्रिय के हाथ में; हां, एक्सटर्नल वैल्यू हो सकती है
कि एक तलवार खरीद ले।
एक
ब्राह्मण के हाथ में रुपये का कोई मतलब नहीं होता, कोई मतलब ही नहीं होता; ठीकरा होता है। इसलिए
ब्राह्मण रुपये को ठीकरा कहते रहेंगे। वैश्य की समझ में कभी नहीं आता कि बात क्या
है! यह हो नहीं सकता। उसे तो दिखाई पड़ेगा कि इस जगत में कुछ चल नहीं सकता, पैसा ही सब कुछ चला रहा है।
इसलिए
अब तक दुनिया में जो भी व्यवस्थाएं बनी हैं, वे भी गहरे में वर्ण की ही व्यवस्थाओं के
रूपांतरण हैं। अब तक पृथ्वी पर कोई भी व्यवस्था ब्राह्मण की नहीं बन सकी। संभावना
है आगे। आज जो पश्चिम में बहुत बुद्धिमान लोग मेरिटोक्रेसी की बात कर रहे हैं, गुणतंत्र की, तो कभी ऐसा वक्त आ सकता है कि
जगत में ब्राह्मण की व्यवस्था हो। शायद वैज्ञानिक इतने प्रभावशाली हो जाएंगे आने
वाले पचास सालों में कि राजनीतिज्ञों को अपने आप जगह खाली कर देनी पड़े। अभी भी
बहुत प्रभावशाली हो गए हैं। अभी भी एक वैज्ञानिक के ऊपर निर्भर करता है बड़े से बड़ा
युद्ध,
कि कौन
जीतेगा।
अगर
आइंस्टीन जर्मनी में होता, तो जीत
का हिसाब और होता। आइंस्टीन अमेरिका में था, तो हिसाब और हो गया। हिटलर को अगर कोई भी
भूल-चूक पछताती होगी अभी भी नर्क में, तो एक ही भूल-चूक पछताती होगी कि इस यहूदी
को भाग जाने दिया,
वही
गलती हो गई। यह एक आदमी पर इतना बड़ा निर्णय होगा...।
ज्ञान
निर्णायक होता जा रहा है! क्षत्रिय दुनिया पर हुकूमत कर चुके। वैश्य आज अमेरिका
में हुकूमत कर रहे हैं। शूद्र आज रूस और चीन में हुकूमत कर रहे हैं। शूद्र यानी
प्रोलिटेरिएट,
शूद्र
यानी वह जिसने अब तक सेवा की थी, लेकिन
बहुत सेवा कर चुका, अब वह
कहता है,
हटो!
अब हम मालकियत भी करना चाहते हैं।
लेकिन
ब्राह्मण के हाथ में भी कभी आ सकती है व्यवस्था। संभावना बढ़ती जाती है। क्योंकि
क्षत्रियों के हाथ में जब तक व्यवस्था रही, सिवाय तलवार चलने के कुछ भी नहीं हुआ।
अमेरिका के हाथ में, जब से
वैश्यों के हाथ में धन की सत्ता आई है, तब से सारी दुनिया में सिवाय धन के और कोई
चीज विचारणीय नहीं रही। और जब से प्रोलिटेरिएट, सेवक, श्रमिक के हाथ में व्यवस्था आई है, तब से वह दुनिया में
एरिस्टोक्रेसी ने जो भी श्रेष्ठ पैदा किया था, उसे नष्ट करने में लगा है।
चीन
में जिसे वे सांस्कृतिक क्रांति कह रहे हैं, वह सांस्कृतिक क्रांति नहीं, सांस्कृतिक हत्या है। जो भी
संस्कृति ने पैदा किया है चीन की, उस
सबको नष्ट करने में लगे हैं। बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं, मंदिर गिराए जा रहे हैं!
विहार,
मस्जिदें, गुरुद्वारे गिराए जा रहे हैं।
कीमती चित्र,
बहुमूल्य
पेंटिंग्स,
वे सब
बुर्जुआ हो गई हैं, उन
सबमें आग लगाई जा रही है।
यह जो
कृष्ण उसको कह रहे हैं अर्जुन को, वह एक
बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि तू अन्यथा हो नहीं
सकता। और इसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि क्यों नहीं हो सकता। अगर अर्जुन चाहे, तो क्यों ब्राह्मण नहीं हो
सकता? अगर बुद्ध क्षत्रिय घर में
पैदा होकर ब्राह्मण हो सकते हैं, और
बुद्ध जैसा ब्राह्मण नहीं हुआ। अगर महावीर क्षत्रिय घर में पैदा होकर ब्राह्मण हो
सकते हैं,
और
महावीर जैसा ब्राह्मण नहीं हुआ। जैनों के तो चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं, लेकिन क्षत्रिय का कोई काम
नहीं किया;
शुद्धतम
ब्राह्मण की यात्रा पर निकले। तो क्यों कृष्ण जोर देते हैं कि अर्जुन, तू क्षत्रिय ही हो सकता है।
जब बुद्ध हो सकते हैं, महावीर
हो सकते हैं,
पार्श्व
हो सकते हैं,
नेमिनाथ
हो सकते हैं--नेमिनाथ तो कृष्ण के चचेरे भाई ही थे--वे जब हो सकते हैं, तो इस अर्जुन का क्या कसूर है
कि नहीं हो सकता! तो थोड़ी-सी बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
आज
मनोविज्ञान कहता है कि तीन साल की उम्र तक आदमी जितना सीखता है, वह पचास प्रतिशत है पूरे जीवन
के ज्ञान का,
फिफ्टी
परसेंट। बाकी शेष जीवन में वह पचास प्रतिशत और सीखेगा। पचास प्रतिशत तीन साल में
सीख लेता है;
शेष
पचास प्रतिशत आने वाले जीवन में सीखेगा। और वह जो पचास प्रतिशत उसने तीन वर्ष की
उम्र तक सीखा है,
उसे
बदलना करीब-करीब असंभव है। बाद में जो पचास प्रतिशत सीखेगा, उसे बदलना कभी भी संभव है।
तीन वर्ष तक मानना चाहिए, समझना
चाहिए कि व्यक्ति का मन करीब-करीब प्रौढ़ हो जाता है भीतर।
अगर
बुद्ध और महावीर क्षत्रिय घरों में पैदा होकर भी ब्राह्मण की यात्रा पर निकल जाते
हैं, तो उनके लक्षण बहुत बचपन से
साफ हैं। बुद्ध को एक प्रतियोगिता में खड़ा किया गया कि हरिण को निशाना लगाएं, तो वे इनकार कर देते हैं। इस
अर्जुन ने कभी ऐसा नहीं किया। यह अब तक निशाना ही लगाता रहा है; इसकी सारी यात्रा अब तक की
क्षत्रिय की ही यात्रा है। आज अचानक, आकस्मिक, एक क्षण में यह कहने लगा कि नहीं। तो इसके
पास जो व्यक्तित्व का ढांचा है, वह
पूरा का पूरा ढांचा ऐसा नहीं है कि बदला जा सके। उसकी सारी तैयारी, सारा शिक्षण, सारी कंडीशनिंग बहुत व्यवस्था
से क्षत्रिय के लिए हुई है। आज अचानक वह भाग नहीं सकता।
कृष्ण
उससे कहते हैं कि तू जो छोड़ने की बात कर रहा है, वह उपाय नहीं है कोई; कठिन है। तू क्षत्रिय है, यह जान। और अब शेष यात्रा
तेरी क्षत्रिय की तरह गौरव के ढंग से पूरी हो सकती है, या तू अगौरव को उपलब्ध हो सकता
है और कुछ भी नहीं। तो वे कहते हैं कि या तो तू यश को उपलब्ध हो सकता है क्षत्रिय
की यात्रा से,
या
सिर्फ अपयश में गिर सकता है।
यदृच्छया
चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः
क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।। ३२।।
हे
पार्थ,
अपने
आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान
क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।
इस
दूसरे सूत्र में भी वे क्षत्रिय की धन्यता की स्मृति दिला रहे हैं। क्षत्रिय की
क्या धन्यता है। क्षत्रिय के लिए क्या ब्लिसफुल है। क्षत्रिय के लिए क्या
फुलफिलमेंट है। वह कैसे फुलफिल्ड हो सकता है। वह कैसे आप्तकाम हो सकता है, कैसे भर सकता है पूरा।
युद्ध
ही उसके लिए अवसर है। वहीं वह कसौटी पर है। वहीं चुनौती है, वहीं संघर्ष है, वहां मौका है जांच का; उसके क्षत्रिय होने की
अग्निपरीक्षा है। कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे स्वर्ग और नर्क के द्वार पर कोई खड़ा हो
और चुनाव हाथ में हो। युद्ध में उतरता है तू, चुनौती स्वीकार करता है, तो स्वर्ग का यश तेरा है।
भागता है,
पलायन
करता है,
पीठ
दिखाता है,
तो
नर्क का अपयश तेरा है। यहां स्वर्ग और नर्क किसी भौगोलिक स्थान के लिए सूचक नहीं
हैं। क्षत्रिय का स्वर्ग ही यही है...।
मैंने
सुना है कि अकबर के दरबार में दो राजपूत गए। युवा, जवान, अभी मूंछ की रेखाएं आनी शुरू
हुई हैं। दोनों अकबर के सामने गए और उन्होंने कहा कि हम दो बहादुर हैं और सेवा में
उपस्थित हैं;
कोई
काम! तो अकबर ने कहा, बहादुर
हो, इसका प्रमाण क्या है? उन दोनों ने एक-दूसरे की तरफ
देखा, हंसे। तलवारें बाहर निकल गईं।
अकबर ने कहा,
यह
क्या करते हो?
लेकिन
जब तक वह कहे,
तब तक
तलवारें चमक गईं,
कौंध
गईं। एक क्षण में तो खून के फव्वारे बह रहे थे; एक-दूसरे की छाती में तलवारें घुस गई थीं।
खून के फव्वारों से चेहरे भर गए थे। और वे दोनों हंस रहे थे और उन्होंने कहा, प्रमाण मिला? क्योंकि क्षत्रिय सिर्फ एक ही
प्रमाण दे सकता है कि मौत मुस्कुराहट से ली जा सकती है। तो हम सर्टिफिकेट लिखवाकर
कहां से लाएं?
सर्टिफिकेट
कोई और हो भी नहीं सकता बहादुरी का।
अकबर
तो घबड़ा गया,
उसने
अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि इतना मैं कभी नहीं घबड़ाया था। मानसिंह को उसने
बुलाया और कहा कि क्या, यह
मामला क्या है?
मैंने
तो ऐसे ही पूछा था! तो मानसिंह ने कहा, क्षत्रिय से दोबारा ऐसे ही मत पूछना।
क्योंकि जिंदगी हम हाथ पर लेकर चलते हैं। क्षत्रिय का मतलब यह है कि मौत एक क्षण
के लिए भी विचारणीय नहीं है। लेकिन अकबर ने लिखवाया है कि हैरानी तो मुझे यह थी कि
मरते वक्त वे बड़े प्रसन्न थे; उनके
चेहरों पर मुस्कुराहट थी। तो मानसिंह से उसने पूछा कि यह मुस्कुराहट, मरने के बाद भी! तो मानसिंह
ने कहा,
क्षत्रिय
जो हो सकता था,
हो
गया। फूल खिल गया। तृप्त! कोई यह नहीं कह सका कि क्षत्रिय नहीं! बात खतम हो गई।
वह जो
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि स्वर्ग और नर्क, जिसके सामने दोनों के द्वार खुले हों, ऐसा क्षत्रिय के लिए युद्ध का
क्षण है। वहीं है कसौटी उसकी, वहीं
है परीक्षा उसकी। जिसकी तू प्रतीक्षा करता था, जिसके लिए तू तैयार हुआ आज तक, जिसकी तूने अभीप्सा और
प्रार्थना की,
जो
तूने चाहा,
वह आज
पूरा होने को है। और ऐन वक्त पर तू भाग जाने की बात करता है! अपने हाथ से नर्क में
गिरने की बात करता है!
क्षत्रिय
के व्यक्तित्व को उसकी पहचान कहां है? उस मौके में, उस अवसर में, जहां वह जिंदगी को दांव पर
ऐसे लगाता है,
जैसे
जिंदगी कुछ भी नहीं है। इसके लिए ही उसकी सारी तैयारी है। इसकी ही उसकी प्यास भी
है। यह मौका चूकता है वह, तो सदा
के लिए तलवार से धार उतर जाएगी; फिर
तलवार जंग खाएगी,
फिर
आंसू ही रह जाएंगे।
अवसर
है प्रत्येक चीज का। ज्ञानी का भी अवसर है, धन के यात्री का भी अवसर है, सेवा के खोजी का भी अवसर है।
अवसर जो चूक जाता है, वह
पछताता है। और जब व्यक्तित्व को उभरने का आखिरी अवसर हो, जैसा अर्जुन के सामने है, शायद ऐसा अवसर दोबारा नहीं
होगा, तो कृष्ण कहते हैं, उचित ही है कि तू स्वर्ग और
नर्क के द्वार पर खड़ा है। चुनाव तेरे हाथ में है। स्मरण कर कि तू कौन है! स्मरण कर
कि तूने अब तक क्या चाहा है! स्मरण कर कि यह पूरी जिंदगी, सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, तूने किस चीज की तैयारी की
है! अब वह तलवार की चमक का मौका आया है और तू जंग देने की इच्छा रखता है?
अथ
चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः
स्वधर्मं कीघत च हित्वा पापमवाप्स्यसि।। ३३।।
अकीघत
चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य
चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।। ३४।।
और यदि
तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा, तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को
प्राप्त होगा।
और सब
लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय
पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।
अभय
क्षत्रिय की आत्मा है, फियरलेसनेस।
कैसा भी भय न पकड़े उसके मन को, कैसे
भी भय के झंझावात उसे कंपाएं न। कैसा भी भय हो, मृत्यु का ही सही, तो भी उसके भीतर हलन-चलन न
हो। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, उससे
खयाल आ सकेगा।
सुना
है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा धनुर्धर हुआ। उसने जाकर सम्राट को कहा कि अब मुझे
जीतने वाला कोई भी नहीं है। तो मैं घोषणा करना चाहता हूं राज्य में कि कोई
प्रतियोगिता करता हो, तो मैं
तैयार हूं। और अगर कोई प्रतियोगी न निकले--या कोई प्रतियोगी निकले, तो मैं स्पर्धा के लिए आ गया
हूं। और मैं यह चाहता हूं कि अगर कोई प्रतियोगी न निकले या प्रतियोगी हार जाए, तो मुझे पूरे देश का श्रेष्ठतम
धनुर्धर स्वीकार किया जाए। सम्राट ने कहा, इसके पहले कि तुम मुझसे कुछ बात करो, मेरा जो पहरेदार है, उससे मिल लो। पहरेदार ने कहा
कि धनुर्धर तुम बड़े हो, लेकिन
एक व्यक्ति को मैं जानता हूं, कुछ
दिन उसके पास रह आओ। कहीं ऐसा न हो कि नाहक अपयश मिले।
उस
व्यक्ति की खोज करता हुआ वह धनुर्धर जंगल पहुंचा। जब उस व्यक्ति के पास उसने देखा
और रहा,
तो पता
चला कि वह तो कुछ भी नहीं जानता था।
तीन
वर्ष उसके पास सीखा। सब सीख गया। तब उसके मन में हुआ कि अब तो मैं सब सीख गया, लेकिन फिर भी अब मैं किस मुंह
से राजा के पास जाऊं, क्योंकि
मेरा गुरु तो कम से कम मुझसे ज्यादा जानता ही है। नहीं ज्यादा, तो मेरे बराबर जानता ही है।
तो अच्छा यह हो कि मैं गुरु की हत्या करके चला जाऊं।
अक्सर
गुरुओं की हत्या शिष्य ही करते हैं--अक्सर। यह बिलकुल स्वाभाविक नियम से चलता है।
तो
गुरु सुबह-सुबह लकड़ियां बीनने गया है जंगल में; वह एक वृक्ष की ओट में खड़ा हो गया। धनुर्धर
है, दूर से उसने तीर मारा, गुरु लकड़ियां लिए चला आ रहा
है। लेकिन अचानक सब उलटा हो गया। वह तीर पहुंचा, उस गुरु ने देखा, एक लकड़ी सिर के बंडल से
निकालकर उस तीर को मारी। वह तीर उलटा लौटा और जाकर उस युवक की छाती में छिद गया।
गुरु
ने आकर तीर निकाला और कहा कि इतना भर मैंने बचा रखा था। शिष्यों से गुरु को
थोड़ा-सा बचा रखना पड़ता है। लेकिन तुम नाहक...। मुझसे कह देते। मैं गांव आऊंगा
नहीं। और शिष्य से प्रतियोगिता करने आऊंगा? पागल हुए हो? तुम जाओ, घोषणा करो, तुम मुझे मरा हुआ समझो।
तुम्हारे निमित्त अब किसी को सिखाऊंगा भी नहीं। और मेरे आने की कोई बात ही नहीं; तुमसे प्रतियोगिता करूंगा!
जाओ, लेकिन जाने के पहले ध्यान
रखना कि मेरा गुरु अभी जिंदा है। और मैं कुछ भी नहीं जानता। उसके पास दस-पांच साल
रहकर जो थोड़े-बहुत कंकड़-पत्थर बीन लिए थे, वही। इसलिए उसके दर्शन एक बार कर लो।
बड़ा
घबड़ाया वह आदमी। महत्वाकांक्षी के लिए धैर्य बिलकुल नहीं होता। तीन साल इसके साथ
खराब हुए। लेकिन अब बिना उस आदमी को देखे जा भी नहीं सकता। तो गया पहाड़ों में
खोजता हुआ,
और
ऊंचे शिखर पर। उसके गुरु ने कहा था कि मेरा बूढ़ा गुरु है, कमर उसकी झुक गई है, तुम पहचान लोगे। जब वह उसके
पास पहुंचा,
तो
उसने जाकर देखा कि एक अत्यंत वृद्ध आदमी, सौ के ऊपर पार हो गया होगा, कमर झुक गई है, बिलकुल गोल हो गया है। सोचा
कि यह आदमी!
उसने
कहा कि क्या आप ही वे धनुर्धर हैं, जिनके पास मुझे भेजा गया है? तो उस बूढ़े ने आंखें उठाईं, उसकी पलकों के बाल भी बहुत
बड़े हो गए थे,
बामुश्किल
आंखें खोलकर उसने देखा और कहा, हां, ठीक है। कैसे आए हो? क्या चाहते हो? उसने कहा, मैं भी एक धनुर्धर हूं।
तो वह
बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, अभी
धनुष-बाण साथ लिए हो! कैसे धनुर्धर हो? क्योंकि जब कोई कला में पूर्ण हो जाता है, तो यह व्यर्थ का बोझ नहीं
ढोता है। जब वीणा बजाने में वीणावादक पूर्ण हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है, क्योंकि फिर वीणा पूर्ण संगीत
के मार्ग पर बाधा बन जाती है। और जब धनुर्धर पूरा हो जाता है, तो धनुष-बाण किसलिए? ये तो सिर्फ अभ्यास के लिए
थे।
बहुत
घबड़ाया वह धनुर्धर। उसने कहा, सिर्फ
अभ्यास ही! तो आगे और कौन-सी धनुर्विद्या है? तो उस बूढ़े ने कहा, आओ मेरे साथ। वह बूढ़ा उसे
लेकर पहाड़ के कगार पर चला गया, जहां
नीचे हजारों फीट का गङ्ढ है।
वह
बूढ़ा आगे बढ़ने लगा, वह
धनुर्धर पीछे खड़ा रह गया। वह बूढ़ा आगे बढ़ा, उसके पैरों की अंगुलियां पत्थर के बाहर
झांकने लगीं। उसकी झुकी हुई गरदन खाई में झांकने लगी। उसने कहा कि बेटे, और पास आओ; इतने दूर क्यों रुक गए हो!
उसने कहा,
लेकिन
वहां तो मुझे बहुत डर लगता है। आप वहां खड़े ही कैसे हैं? मेरी आंखें भरोसा नहीं करतीं, क्योंकि वहां तो जरा श्वास भी
चूक जाए...!
तो उस
बूढ़े ने कहा,
जब अभी
मन इतना कंपता है,
तो
निशाना तुम्हारा अचूक नहीं हो सकता। और जहां भय है, वहां क्षत्रिय कभी पैदा नहीं
होता है। उस बूढ़े ने कहा, जहां
भय है,
वहां
क्षत्रिय कभी पैदा नहीं होता है। वहां धनुर्धर के जन्म की संभावना नहीं है। भयभीत
किस चीज से हो?
और अगर
भय है,
तो मन
में कंपन होंगे ही, कितने
ही सूक्ष्म हों,
कितने
ही सूक्ष्म हों,
मन में
कंपन होंगे ही।
तो
कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, तू और
भयभीत?
तो कल
जो तेरा सम्मान करते थे, कल
जिनके बीच तेरे यश की चर्चा थी, कल जो
तेरा गुणगान गाते थे, कल तक
जो तेरी तरफ देखते थे कि तू एक जीवंत प्रतीक है क्षत्रिय का, वे सब हंसेंगे। अपयश की चर्चा
हो जाएगी,
कीर्ति
को धब्बा लगेगा। तू यह क्या कर रहा है? तेरा निज-धर्म है जो, तेरी तैयारी है जिसके लिए, जिसके विपरीत होकर तू जी भी न
सकेगा;
कीर्ति
के शिखर से गिरते ही, तू
श्वास भी न ले सकेगा।
और ठीक
कहते हैं कृष्ण। अर्जुन जी नहीं सकता। क्षत्रिय मर सकता है गौरव से, लेकिन पलायन करके गौरव से जी
नहीं सकता। वह क्षत्रिय होने की संभावना में ही नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं, जो तेरी संभावना है, उससे विपरीत जाकर तू पछताएगा, उससे विपरीत जाकर तू सब खो
देगा।
इस
संबंध में दोत्तीन बातें अंत में आपसे कहूं, जो खयाल ले लेने जैसी हैं; उनसे बड़ी भ्रांति होती है, अगर वे खयाल में न रहें। लग
सकता है कि कृष्ण क्या युद्धखोर हैं, वार-मांगर हैं! लग सकता है कि युद्ध की ऐसी
उत्तेजना! युद्ध के लिए ऐसा प्रोत्साहन! तो भूल हो जाएगी, अगर आपने ऐसा सोचा।
कृष्ण
सिर्फ एक मनस-शास्त्री हैं। अर्जुन की पोटेंशियलिटी को समझते हैं; अर्जुन क्या हो सकता है, यह समझते हैं; और अर्जुन क्या होकर तृप्त हो
सकता है,
यह
समझते हैं। और अर्जुन क्या होने से चूक जाए, तो सदा के लिए दुख और विषाद को उपलब्ध हो
जाएगा और अपने ही हाथ नर्क में, आत्मघाती
हो जाएगा,
यह भी
समझते हैं।
अब आज
सारी दुनिया में मनस-शास्त्र के सामने जो गहरे से गहरा सवाल है, वह यही है कि हम प्रत्येक बच्चे
को उसकी संभावना,
उसकी
पोटेंशियलिटी बता सकें, वह
क्या हो सकता है। सब अस्तव्यस्त है।
रवींद्रनाथ
के पिता रवींद्रनाथ को कवि नहीं बनाना चाहते हैं। कोई भी पिता नहीं बनाना चाहेगा।
मैंने तो सुना है कि महाकवि निराला के घर एक रात एक छोटी-सी बैठक चलती थी।
सुमित्रानंदन पंत थे, महादेवी
थीं, मैथिलीशरण गुप्त थे, और कुछ लोग थे। मैथिलीशरण
गुप्त बहुत दिन बाद आए थे। तो जैसी उनकी आदत थी, निराला के भोजन बनाने वाले
महाराज को भी पूछा कि ठीक तो हो? सब ठीक
तो है?
उसने
कहा, और तो सब ठीक है महाराज, लेकिन मेरा लड़का, किसी तरह उसे ठीक करें, बर्बाद हुआ जा रहा है। तो
मैथिलीशरण ने पूछा, क्या
हुआ तुम्हारे लड़के को? क्या
गुंडा-बदमाश हो गया? चोर-लफंगा
हो गया?
उसने
कहा कि नहीं-नहीं,
मेरा
लड़का कवि हो गया है।
इन सब
कवियों पर क्या गुजरी होगी, पता
नहीं।
रवींद्रनाथ
के पिता भी नहीं चाहते थे कि कवि हो जाए लड़का। सब चेष्टा की, पढ़ाया, लिखाया, पूरा परिवार बड़ा ही धुआंधार
पीछे लगा था--इंजीनियर बन जाए, डाक्टर
बन जाए,
प्रोफेसर
बन जाए--कुछ भी बन जाए, काम का
बन जाए।
रवींद्रनाथ
के घर में एक किताब रखी है, जोड़ासांको
भवन में। बड़ा परिवार था, बहुत
बच्चे थे,
सौ लोग
थे घर में। हर बच्चे के जन्मदिन पर उस किताब में उस बच्चे के संबंध में घर के सब
बड़े-बूढ़े भविष्यवाणियां लिखते थे। उस किताब में रवींद्रनाथ के सारे भाई-बहन--काफी
थे, दर्जनभर--सबके संबंध में बहुत
अच्छी बातें लिखी हैं। रवींद्रनाथ के संबंध में किसी ने अच्छी बात नहीं लिखी है।
रवींद्रनाथ की मां ने खुद लिखा है कि रवि से हमें कोई आशा नहीं है। सब लड़के बड़े
होनहार हैं;
कोई
प्रथम आता है,
कोई
गोल्ड मेडल लाता है, कोई
युनिवर्सिटी में चमकता है। यह लड़का बिलकुल गैर-चमक का है।
लेकिन
आज आप नाम भी नहीं बता सकते कि रवींद्रनाथ के उन सब चमकदार भाइयों के नाम क्या
हैं! वे अचानक कहीं खो गए।
मनोविज्ञान
इस समय बहुत व्यस्त है कि यह जो जगत इतना दुखी मालूम पड़ रहा है, इसका बहुत बुनियादी कारण जो
है, वह डिसप्लेसमेंट है। हर आदमी
जो हो सकता है,
वह
नहीं हो पा रहा है। वह कहीं और लगा दिया गया है। एक चमार है, वह प्रधानमंत्री हो गया है।
जिसे प्रधानमंत्री होना चाहिए, वह
कहीं जूते बेच रहा है। सब अस्तव्यस्त है। किसी को भी पता भी तो नहीं है कि वह क्या
हो सकता है! धक्के हैं, बिलकुल
एक्सिडेंटल है जैसे सब, सांयोगिक
है जैसे सब। बाप को एक सनक सवार है कि लड़के को इंजीनियर होना चाहिए, तो इंजीनियर होना चाहिए। अब
बाप की सनक से लड़के का क्या लेना-देना! होना था तो बाप को हो जाना चाहिए था। लेकिन
बाप को सनक सवार है, बेटे
को इंजीनियर होना चाहिए। फिर बाप भी क्या कर सकता है, उसे कुछ भी तो पता नहीं है।
इसलिए
आज सारी दुनिया में मनोवैज्ञानिक इस बात के लिए आतुर हैं कि प्रत्येक बच्चे की
पोटेंशियलिटी की खोज ही मनुष्यता के लिए मार्ग बन सकती है।
वह जो
कृष्ण कह रहे हैं,
वह
युद्ध की बात नहीं कह रहे हैं, भूलकर
भी मत समझ लेना यह। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। कृष्ण जब यह कह रहे हैं, तो यह बात स्पेसिफिकली, विशेष रूप से अर्जुन के टाइप
के लिए निवेदित है। यह बात, अर्जुन
की जो संभावना है,
उस
संभावना के लिए उत्प्रेरित है। यह बात हर किसी के लिए नहीं है। यह हर कोई के लिए
नहीं है।
लेकिन
इतने बड़े मनोविज्ञान की समझ खो गई। महावीर ने अहिंसा की बात कही। वह कुछ लोगों के
लिए सार्थक है,
अगर
पूरे मुल्क को पकड़ ले तो खतरा है। कृष्ण ने हिंसा की बात कही। वह अर्जुन के लिए
सार्थक है,
और कुछ
लोगों के लिए बिलकुल सार्थक है, पूरे
मुल्क को पकड़ ले तो खतरा है।
लेकिन
भूल निरंतर हो जाती है। वह निरंतर भूल यह हो जाती है कि हम प्रत्येक सत्य को
जनरलाइज कर देते हैं; उसको
सामान्य नियम बना देते हैं। कोई सत्य व्यक्त जगत में सामान्य नियम नहीं है।
अव्यक्त जगत की बात छोड़ें, व्यक्त
जगत में,
मैनिफेस्टेड
जगत में सभी सत्य सशर्त हैं, उनके
पीछे शर्त है।
ध्यान
रखेंगे पूरे समय कि अर्जुन से कही जा रही है यह बात, एक पोटेंशियल क्षत्रिय से, जिसके जीवन में कोई और स्वर
नहीं रहा है,
न हो
सकता है। उसकी आत्मा जो हो सकती है, कृष्ण उसके पीछे बिलकुल लाठी लेकर पड़ गए हैं, कि तू वही हो जा, जो तू हो सकता है। वह भाग रहा
है। वह बचाव कर रहा है, वह डर
रहा है,
वह भयभीत
हो रहा है,
वह
पच्चीस तर्क खोज रहा है।
कृष्ण
युद्धखोर नहीं हैं। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं यह। और आप भूलकर भी यह मत समझ लेना
कि सबके लिए,
अर्जुन
से कहा गया सत्य,
सत्य
है। ऐसा भूलकर मत समझ लेना।
हां, एक ही बात सत्य है उसमें, जो जनरलाइज की जा सकती है; और वह यह है कि प्रत्येक की
संभावना ही उसका सत्य है। इससे अगर कोई भी बात निकालनी हो, तो इतनी ही निकलती है कि
प्रत्येक की उसकी निज-संभावना ही उसके लिए सत्य है।
गीता
की इस किताब को अगर महावीर पढ़ें, तो भी
पढ़कर महावीर महावीर ही होंगे, अर्जुन
नहीं हो जाएंगे। क्योंकि वे राज समझ जाएंगे कि मेरी पोटेंशियलिटी क्या है, वही मेरी यात्रा है। इस किताब
को बुद्ध पढ़ें,
तो
दिक्कत नहीं आएगी जरा भी। वे कहेंगे, बिलकुल ठीक, मैं अपनी यात्रा पर जाता हूं, जो मैं हो सकता हूं।
प्रत्येक
को जाना है अपनी यात्रा पर, जो वह
हो सकता है। और प्रत्येक को खोज लेना है व्यक्त जगत में कि मेरे होने की क्या
संभावना है। गीता का संदेश इतना ही है, युद्धखोरी का नहीं है। लेकिन भ्रांति हुई है
गीता को पढ़कर। युद्धखोर को लगता है कि बिलकुल ठीक, होना चाहिए युद्ध।
गैर-युद्धखोर को लगता है, बिलकुल
गलत है,
युद्ध
करवाने की बात कर रहे हैं!
कृष्ण
का युद्ध से लेना-देना ही नहीं है। जब मैं ऐसा कहूंगा, तो आपको जरा मुश्किल होगी, लेकिन मैं फिर पुनः-पुनः कहता
हूं, कृष्ण को युद्ध से लेना-देना
नहीं है। कृष्ण एक मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। वे कह रहे हैं अर्जुन से, यह तेरा नक्शा है, यह तेरा बिल्ट-इन-प्रोसेस है।
तू यह हो सकता है। इससे अन्यथा होने की चेष्टा में सिवाय अपयश, असफलता, आत्मघात के और कुछ भी नहीं
है।
शेष कल
सुबह बात करेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें