अबरि के बार सम्हारी—(प्रवचन—पहला)
दिनांक 21 जनवरी 1976;
श्री ओशो आश्रम, पूना
सारसूत्र :
भीतर मैल चहल कै
लागी,
ऊपर तन धोवै है।
अविगत मुरति महल
कै भीतर,
वाका पंथ न जोवे है।।
जगति बिना कोई भेद
न पौवे,
साध-सगति का गोवे हैं।।
कह दरिया कुटने बे
गोदी,
सीस पटकि का रोवे है।।
विहंगम, कौन दिसा
उड़ि जैहौ।
नाम बिहूना सो
परहीना,
भरमि-भरमि भौर रहिहौ।।
गुरुनिन्दर वद संत
के द्रोही,
निन्दै जनम गंवैहौ।
परदारा परसंग
परस्पर,
कहहु कौन गुन लहिहौ।।
मद पी माति मदन तन
व्यापेउ,
अमृत तजि विष खैहौ।
समुझहु नहिं वा
दिन की बातें,
पल-पल घात लगैहौ।।
चरनकंवल बिनु सो
नर बूड़ेउ,
उभि चुभि थाह न पैहौ।
कहै दरिया सतनाम
भजन बिनु,
रोइ रोइ जनम गंवैहौ।।
बुधजन, चलहु अगम
पथ भारी।
तुमते कहौं समुझ
जो आवै,
अबरि के बार सम्हारी।।
कांट कूस पाहन
नहिं तहवां,
नाहिं बिटप बन झारी।
वेद कितेब पंडित
नहिं तहवा,
बिनु मसि अंक सवारी।।
नहिं तहं सरिता
समुंद न गंगा,
ग्यान के गमि उजियारी।
नहिं तहं गनपति
फनपति बरह्मा,
नहिं तहं सृष्टि संवारी।।
सर्ग पताल मृतलोक
के बाहर,
तहवां पुरुष भुवारी।
कहै दरिया तहं
दरसन सत है,
संतन लेहु बिचारी।।
अबरि के बार
सम्हारी
निर्वाण को शब्द में
कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं।
फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा
की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है--उसे कहने की
चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो
नहीं बताया जा सकता।
और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए
हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द
ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके
साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न
थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। उन्होंने निर्णय ही कर लिया था न सुनने का, न देखने का। लेकिन जिन्होंने हृदय से गहा, जिन्होंने
प्रेम की झौली फैलायी और बुद्धपुरुषों के वचनों को झेला, उन
तक वह भी पहुंच गया जो नहीं पहुंचाया जा सकता। उन तक उसकी भी खबर हो गयी जिसकी खबर
की ही नहीं जा सकती है। उसी अर्थ में दरिया कहते हैं--दरिया कहै शब्द निरबाना। कि
मैं कह रहा हूं, निर्वाण से भरे हुए शब्द, निर्वाण से ओतप्रोत शब्द, निर्वाण में पगे शब्द। जो
सुन सकेंगे, जो सुनने को सच में राजी हैं, जो विवाद करने में उत्सुक नहीं, संवाद में जिनका रस
जगा है, जो मात्र कुतूहल से नहीं सुन रहे हैं वरन जिनके भीतर
मुमुक्षा की अग्नि जन्मी है, सुन पाएंगे। शब्दों के पास-पास
बंधा हुआ उन तक निकलने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है
तो वह एक ही है--उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता।
उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।
और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए
हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द
ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके
साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न
थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। उन्होंने निर्णय ही कर लिया था न सुनने का, न देखने का। लेकिन जिन्होंने हृदय से गहा, जिन्होंने
प्रेम की झौली फैलायी और बुद्धपुरुषों के वचनों को झेला, उन
तक वह भी पहुंच गया जो नहीं पहुंचाया जा सकता। उन तक उसकी भी खबर हो गयी जिसकी खबर
की ही नहीं जा सकती है। उसी अर्थ में दरिया कहते हैं--दरिया कहै शब्द निरबाना। कि
मैं कह रहा हूं, निर्वाण से भरे हुए शब्द, निर्वाण से ओतप्रोत शब्द, निर्वाण में पगे शब्द। जो
सुन सकेंगे, जो सुनने को सच में राजी हैं, जो विवाद करने में उत्सुक नहीं, संवाद में जिनका रस
जगा है, जो मात्र कुतूहल से नहीं सुन रहे हैं वरन जिनके भीतर
मुमुक्षा की अग्नि जन्मी है, सुन पाएंगे। शब्दों के पास-पास
बंधा हुआ उन तक निःशब्द भी पहुंचेगा। क्योंकि जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो
मस्तिष्क से नहीं बोलता। जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो अपने अंतर्तम की
गहराइयों से बोलता है। वह आवाज सिर में गूंजते हुए विचारों की आवाज नहीं है वरन
हृदय के अंतर्गृह में सतत बह रही अनुभव की प्रतिध्वनि है।
दरिया जैसे व्यक्ति के शब्द दरिया के भीतर
जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं।
वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर
हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे
फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों को आलिंगन न भी करे, लेकिन
हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके
वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कही कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखी ही,
अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के
पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे
ही शब्द जब किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की
थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भनी है। गंध अनाक्रामक है। गंध बड़ी
सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। जो हृदय को बिलकुल खोलकर सुनेंगे, शायद
उनके नासापुटों को भर दे; शायद उनके प्राण में उमंग बनकर
नाचे; शायद उनके भीतर की वीणा के तार छू जाएं; शायद उनके भीतर अनाहत का जागरण होने लगे; शायद उनकी
आंखें खुलें, उन्मेष हो, उन्हें भी पता
चले कि रात ही नहीं है, दिन है, और
उन्हें भी पता चले कि अंधियारा सच नहीं है, सच तो आलोक है।
और हम अंधियार में जीते थे, क्योंकि हमने आंखें बंद कर रखी
थीं। और शोरगुल सिर्फ मस्तिष्क में है। जरा नीचे मस्तिष्क से उतरे कि संगीत ही
संगीत है। ओंकार का नाद अहर्निश बज रहा है।
उस ओंकार के नाद में लिपटे हुए शब्द जब आते
हैं--बस कोई श्रावक चाहिए,
कोई जो पी ले! जो विचारों को हटाकर एक तरफ रख दे, जो अपने सिर को उतारकर एक तरफ हटा दे और जो सिर्फ प्यास की तरह अपनी झोली
को फैला दे, तो जरूर दरिया ठीक कहते हैं--दरिया कहै शब्द
निरबाना। मगर ये निर्वाण के शब्द केवल शिष्यों को सुनायी पड़ते हैं, प्रेमियों को सुनायी पड़ते हैं, भक्तों को सुनायी
पड़ते हैं। इन शब्दों का पांडित्य से कोई संबंध नहीं है। और तुम भाषा समझते हो
इसलिए तुम, इन्हें समझ लोगे, ऐसी
भ्रांति में न पड़ना। ये शब्द शून्य से आते हैं। अगर तुम्हें भी इस शून्य की
थोड़ी-थोड़ी झलकें आने लगी हो तो ही तुम इन अपूर्व, अद्वितीय
वचनों का रस पी सकोगे।
और शून्य की झलके बड़ी स्वाभाविक झलकें है।
बस यही कि तुमने उन पर ध्यान नहीं दिया। आती हैं तुम्हें भी, तुम्हारा
भी द्वार कभी खुल जाता है, तुम्हारे भी झरोखे कभी खुल जाते
हैं, कभी चांदत्तारे तुममें भी झांक जाते हैं, कभी हवाएं तुम्हारे हृदय को भी आकर कंपित कर जाती है, कभी सूरज की किरणें तुम्हारे भीतर भी प्रवेश करती है, मर तुम ऐसे बेहोश, तुम ऐसे अनुपस्थित, कि तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। परमात्मा घटता रहता है तुम्हारे चारों तरफ,
अनंत-अनंत रूपों से, और तुम अपने में बंद,
तुम अपनी आंखों को बंद किए, अपने हृदय के
कपाटो को बंद किए परमात्मा के सागर में जीते हुए भी उससे परिचित रह जाते हो।
थोड़े मौके शून्य के अपने भीतर उतरने दो, और तब समझ
सकोगे दरिया के शब्दों को। कभी सुबह उठकर चुपचाप नीले आकाश को देखो, टकटकी बांधकर, होश से भरकर, और
तुम चकित होओगे--कभी-कभी ऐसा क्षण आएगा--कभी-कभी आएगा--ऐसा क्षण आएगा जब बाहर भी
नीला आकाश और भीतर भी नीला आकाश, एक क्षण को तुम आकाश के साथ
आबद्ध हो जाओगे, आलिंगनबद्ध हो जाओगे। एक क्षण को आकाश
तुम्हें अपनी बांहों मग ले लेगा और तुम कहीं खो गए...किसी दूर के लोक में खो गए
आयाम में खो गए...उस क्षण जो तुम्हें स्वाद मिलेगा, वही
शून्य का स्वाद है। अभी बूंद का है, फिर कभी सागर का भी हो
सकता है। अभी थोड़ा सा है--आया और गया; हवा के झोंके में गंध
आई और उड़ गयी, तुम पकड़ भी न पाओगे--मगर अगर यह स्मरण आना
शुरू हो जाए। कि ऐसी गंधें हैं और ऐसी किरणें हैं, तो फिर
अपने द्वार तुम कभी-कभी खोलने लगोगे। रात आकाश तारों से भरी हो, लेट जाओ पृथ्वी पर, मिट जाओ पृथ्वी पर, भूल जाओ कि मैं हूं, मिलन जाने दो शरीर को मिट्टी
में, भूल जाओ कि मैं हूं--इधर शरीर मिट्टी में मिला कि उधर
आत्मा आकाश में मिली। यह बातें एक ही साथ घटती हैं।
तुम दोनों के जोड़ हो। पृथ्वी के और आकाश के।
दृश्य के और अदृश्य के। मर्त्य के और अमर्त्य के। मिट्टी मिट्टी में मिल जाने दो
थोड़ी देर। ऐसे तो मिलेगी ही आज नहीं कल। आज नहीं कल देह तो गिरेगी, मिट्टी
में समाहित हो जाएगी। एक दिन मिट्टी से ही उठी थी, एक दिन
मिट्टी में ही वापिस लौट जाएंगी। हर वस्तु आपने मूलस्रोत पर लौट जाती है।
कभी-कभी स्वेच्छा से इसे मिट्टी में पड़ जाने
दो। भूल ही जाओ कि तुम्हारी देह भी है। और भूल ही जाओ कि तुम भी हो। उस भूने में
ही पहली बार स्मृति आती है। उस की जो तुम हो। उस विस्मरण में ही आत्मस्मरण जगता
है। उसी क्षण तुम आकाश हो जाओगे। सारे तारे तुम्हारे भीतर हो जाएंगे। तुम तारों को
अपने भीतर घूमते देखोगे। वह शून्य की घड़ी ध्यान की घड़ी है। ऐसे तुम अगर थोड़ी
चेष्टा करो तो अपनी साधारण जिंदगी में भी साधारण मौके बना सकते हो। और इन मौकों के
लिए किसी मंदिर और मस्जिद और किसी गुरुद्वार में जाना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है
कि अगर तुम गुरुद्वारे,
मंदिर और मस्जिदों में ही उलझे रहे, तो यह
परमात्मा का गुरुद्वारा--यह आकाश तारों से भरा हुआ, यह सूरज
रोशनी बरसाता हुआ, यह वृक्ष उसके रस से आकंठ भरे हुए,
यह सरिताएं उसकी गूंज लिए हुए सागर की तरफ भागती हुई, इन सब से तुम वंचित रह जाओगे।
और यह भी मैं तुमसे कह दूं, अगर तुम
इन सबसे परमात्मा का अनुभव करने लगो, फिर जाना गुरुद्वार!
फिर मजा है! फिर जाना मस्जिद, फिर जाना मंदिर, तब तुम पहचानोगे कि कौन वहां है मंदिर में और कौन वहां मस्जिद में और कौन
गुरुद्वारा में और कौन चर्च में। पहले आंख तो हो तुम्हारे पास। आंख को निखार लो!
फिर पत्थर की मूर्ति में भी तुम्हें वही परमात्मा दिखायी पड़ेगा। और नहीं होगी
मूर्ति, तो भी वही दिखायी पड़ेगा। उपस्थिति भी उसकी है,
अनुपस्थिति भी उसकी है। होना भी उसका है, न
होना भी उसका है। जीवन भी उसका है और मृत्यु भी उसकी है। सब कुछ उसका है क्योंकि
सब कुछ वही है। मगर इसकी प्रतीति तो हो जाए! और इसकी प्रतीति तुम्हें प्रकृति के
करीब होगी। क्योंकि प्रकृति उसके हाथों की छाप है। हर फल पर उसके हस्ताक्षर है।
जो आंखें हों तो चश्मे-गौर से औराके-गुल
देखो।
किसी के हुस्न की शरहें, हैं इन
रिसलों में।।
अगर आंखें हों तो जरा फूलों के पृष्ठ उलटो, मुर्दा
किताबों में मत खोए रहो।
जो आंखें हों तो चश्मे-गौर से औराके-गुल
देखो।
जरा फूलों के, पत्तियों के पृष्ट उलटो।
किसी के हुस्न की शरहें, लिखी हैं
इन रिसालों में।।
इन किताबों में किसी अपरिसीम सौंदर्य की
टीकाएं लिखी हैं। गीता की टीका में नहीं मिलेगा वह तुम्हें अभी। अगर गुलाब की
टीकाओं में न मिला,
तो गीता की टीका में नहीं मिलेगा। अगर कमल में नहीं दिखाई पड़ा तो
कुरान में नहीं दिखाई पड़ेगा। और उसको कमल में दिखाई पड़ा, उसे
कुरान में दिखायी पड़ कसता है। उल्टी बात नहीं हो कसती कि पहले कुरान मग दिखाई पड़े,
फिर कमल में दिखाई पड़े। क्योंकि कुरान परमात्मा से बहुत दूर हो गयी।
कमल अभी भी परमात्मा में खिला है। कमल में अभी भी परमात्मा बह रहा है--वही तो उसकी
लाली है, वही तो उसकी सुवास है। तुमसे ज्यादा समझ तो भौंरों
में है। रखो एक कुरान और एक कमल और तुम पहचान लो। कमल के पास चला जाएगा भौंरा।
सम्राट सोलोमन के जीवन में ऐसा उल्लेख है।
प्रसिद्धि थी कि उससे बड़ा कोई बुद्धिमान नहीं है। तो इथोपिया की रानी सम्राट के
दर्शन करने आई,
और उनकी परीक्षा लेनी चाही उसने कि सच में वे बुद्धिमान हैं या
नहीं। और जरूर उसने जो तरकीब खोजी थी परीक्षा की, बड़ी
महत्वपूर्ण थी। वह इथोपिया की महारानी अपने हाथ में नकली फूलों का एक गुलदस्ता और
दूसरे हाथ में असली फूलों का गुलदस्ता लेकर आई। बड़े कलाकारों ने वे नकली फूल बनाए
थे। वे इतने अली मालूम होत थे कि एक दफे असली पर शक हो जाए, मगर
उन नकली पर शक नहीं हो सकता था। दोनों हाथों में फूल लिए वह रानी आकर दूर सम्राट
से खड़ी हो गई परबार में और उसने कहा--अभी और पास न आऊंगी, पहले
एक सवाल है, कौन से फूल असली हैं, कौन
से नकली? सोलोमन ने एक क्षण सोचा, दरबारी
भी मुश्किल में पड़े कि आज अड़चन आई! दरबारियों को भी मुश्किल हो रहा था यह तय करना
कि कौन असली कौन नकली? बड़ा संदिग्ध मालूम हो रहा था--दोनों
असली मालूम होते थे, एक से ज्यादा दूसरा असली मालूम होता था।
एक-दूसरे से ज्यादा असली मालूम होते थे। सोलोमन ने कहा कि रोशनी जरा कम है,
सारे खिड़कियां और सारे दरवाजे खोल दो, ताकि
मैं ठीक से देख सकूं, मैं बूढ़ा भी हो गया हूं। बात भी ठीक थी,
दरवाजे--खिड़कियां खोल दी गई। और जैसे ही दरवाजे-खिड़कियां खोली गयी,
एक क्षण सोलोमन देखता रहा और फिर उसने कह दिया कि बाएं हाथ में जो
फूल हैं वे नकली हैं।
इथोपिया की रानी तो बड़ी चकित हुई। दोनों
हाथों मग वह फूल लिए खड़ी थी, उसको भी याद रखना पड़ रहा था कि किस हाथ में
नकली लिए है--क्योंकि वे इतने असली मालूम होते थे! हाथ पर लिख छोड़ा था उसने कि इस
हाथ में नकली हैं और इसमें असली; नहीं तो खुद ही खुद ही भूल
जाए। सम्राट ने कैसे जान लिया? उसने कहा कि क्षमा करें,
मगर आपने चकित कर दिया, आपने कैसे जाना?
सोलोमन ने कहा, अब झूठ क्या बोलना, फूल तो मुझे पहले भी दिखाई पड़ रहे थे, रोशनी की कोई
ज्यादा जरूरत न थी ये जो मैंने दरवाजे-खिड़कियां खुलवाई, ये
मधुमक्खियों के लिए। बगीचे से दो मधुमक्यिा भीतर आ गई। वे जिन फूलों पर आकर बैठ गई
तेरे हाथों में वह असली। आदमी को आंखों को धोखा दिया जा सकता है, सोलोमन ने कहा; सोलोमन की आंखों को भी धोखा दिया जा
सकता है, सोलोमन ने कहा, मगर
मधुमक्खियों की आंखों को कैसे धोखा दोगे?
तुम्हारी किताबें-चाहे वे कितनी ही कीमती
हों; चाहे कुरान हो, चाहे बाइबिल हो और चाहे हों और चाहे
गुरुग्रंथ हो--न तो तितलियां आएंगी उन पर, न मधुक्खियां
बैठेगी, न भौंरे गुंजार करेंगे। तुम भी जरा सोचो, भौंरे कहां गुंजार कर रहे हैं, तितलियां कहां उड़ी जा
रही हैं? उन्हीं का पीछा करो, उन्हीं
के साथ हो लो, उन्हीं जैसे हो लो, तो
तुम्हें शून्य का अनुभव हो, तो तुम्हें पहली बार ध्यान की
थोड़ी सी समझ आए। और वह समझ हो तो फिर बुद्धपुरुषों के वचन सार्थक हैं। दरिया कहै
शब्द निरबाना। फिर दरिया के कहे शब्द निर्वाण को खोल देंगे, उघाड़
देंगे, बेपर्दा कर देंगे, घूंघट उठा
देंगे। फिर नानक के शब्द परमात्मा से मिला देंगे। फिर मोहम्मद की वाणी अपूर्व है।
अगर तुम्हारे भीतर शून्य हो; तो उसी शून्य में वह वाणी जाकर
गुंजन पैदा कर सकती है, गुन-गुन पैदा कर सकती है। तुम्हारे
भीतर शून्य ही न हो, तुम्हारा पात्र ही कूड़ा-कर्कट से भरा हो,
तो कुछ नहीं हो सकता है। तुम्हारे पात्र में शून्यता होनी चाहिए।
और शून्यता सीखनी हो तो प्रकृति के पास जाओ; जाओ पहाड़ों के पास बैठो वृक्षों
के पास। अदभुत थे वे लोग जिन्होंने वृक्षों की पूजा की, प्यारे
थे वे लोग जिन्होंने सूरज-चांदत्तारों को नमस्कार किया और इनको देवता कहा, ज्ञानी थे वे लोग जिन्होंने अग्नि की पूजा की, दिए
जलाए और दिए की ज्योति पर अपने ध्यान को जमाया। अग्नि उसकी है, चांदत्तारे उसके हैं, वृक्ष उसके हैं, नदी-नद, सागर-सरोवर उसके हैं। बेहतर थे वे लोग,
समझदार थे वे लोग, उन्होंने प्रकृति के साथ
संबंध जोड़ने की कोशिश की थी। और प्रकृति से जिसका संबंध जुड़ता है, परमात्मा बहुत दूर नहीं है--बस प्रकृति के ही घूंघट में तो छिपा है।
प्रकृति उसकी ही ओढ़नी है। जरा प्रकृति को तुम समझने लगो तो परमात्मा से ज्यादा देर
दूर न रह सकोगे। और जो परमात्मा से दूर है, वह है ही क्या?
एक अंधेरी रात। एक दुखस्वप्न।
सारी रात हवा गरजी है बादल बरसे सारी रात
सिसक रह था जब सन्नाटा तारे तरसे सारी रात
फूट-फूट कर फैल-फैल कर वन-पथ रोए सारी रात
बिजली की तड़पन में मेरे प्राण न सोए सारी
रात
डोले भूधर, वृक्ष सशंकित भय से कांपे
सारी रात
उमड़ असंख्य सजल स्रोतों ने जन-पथ नापे सारी
रात
लड़ती रही असंख्य पहाड़ी कज्जल काली सारी रात
पीती रही हृदय जन-जन का भय की प्याली सारी
रात
थी डरावनी सृष्टि रही, आशंकित
जगती सारी रात
नीड़ों में भय-विकल खगों की आंख न लगती सारी
रात
धंसे रहे पंखों में उनके शावक विह्वल सारी
रात
खोहों में थे खड़े कंटवित, वनपशु
प्रतिपल सारी रात
झंझा से झुंझला-झुंझला अंधियारा बोला सारी
रात
नभ से भू पर उतरा तम का उड़नखटोला सारी रात।
तुम्हारी जिंदगी है क्या? एक
लंबी-लंबी रात, जिसकी सुबह आती ही नहीं! एक ऐसी रात जिसकी
प्रभात पता नहीं कहां खो गयी! और एक ऐसी रात जिसमें न चांद है, न सितारे हैं! और एक ऐसी रात, चांद-सितारों की तो
बात दूर, जुगनुओं की भी रोशनी नहीं! और एक ऐसी रात जिसमें न
कोई दिया है, न कोई शमा है। बस तुम हो--लड़ाते, गिरते-उठते, दीवालों से सिर फोड़ते। और इसी को तुम
जीसस समझे हो? जीवन तो उनका है जिनकी आंख खुली। क्योंकि
जिनकी आंख खुली, उनकी सुबह हुई। जीवन तो उनका जिनकी अपने से
पहचान हुई। अपने से पहचान हुई तो सबसे पहचान हुई। जीवन तो उनका है जिन्हें चारों
तरफ परमात्मा का नृत्य दिखाई पड़ना शुरू हुआ। बस वे ही जीते हैं! शेष सारे लोग तो
मरते हैं।
हाथ थे मिटे यूं ही, रोजे-अजल
से ऐ अजल
रूए-जमी पै हैं तो क्या, जेरे-जमी
हुए तो क्या?
क्या फर्क पड़ता है कि तुम जमीन के ऊपर हो कि
जमीन के भीतर हो। मिटे ही हुए हो।
हम थे मिटे हुए यूं ही, रोज-अजल
से ऐ अजल
मौत आई है तो तुम्हें भी यह कहना पड़ेगा कि ऐ
मौत, तू नाहक आई है! हम तो मरे ही हुए थे। हम तो पहले से ही मरे हुए हैं। इतना
ही फर्क होगा कि अभी जमीन के ऊपर थे, तू जमीन के नीच कर
जाएगी। और क्या फर्क होगा?
हम थे मिटे हुए यूं ही, रोज-अजल
से ए अजल
रूए-जमी पै हैं तो क्या, जेरे-जमी
हुए तो क्या?
जिंदगी भर की यह सारी तलाश कहां ले जाती है? कब्र के
अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जाती मालूम होती। यह भी कोई जिंदगी हुई जो कब्र में
समाप्त हो जाए! जिंदगी तो वह जो अमृत में समाप्त हो। मृत्यु में समाप्त हो,
तो समझना कि तुम जिए ही नहीं, जीने का धोखा
खाते रहे।
बहुत कुछ पांव फैलाकर भी देखा शाद दुनिया
में।
मगर आखिर जगह हमने दो गज के सिवा पाई।।
और खूब चेष्टा करते हो तुम--ऐसा हनीं किसी
ने की चेष्टा नहीं करते--बड़े उपाय करते हो, बड़े उपद्रव करते हो, बड़ा शोरगुल मचाते हो, मगर आखिरी उपलब्धि क्या है?
बस एक छह फीट जमीन मिल जाए, एक दो गल जमीन मिल
जाए! उतना बहुत। वही है उपलब्धि, वही है सार-निचोड़। इसे
जिंदगी हो! नहीं यह जिंदगी नहीं है।
दरिया के शब्द सुनो, जिंदगी की
थोड़ी तलाश करो--दरिया कहै शब्द निरबाना
ये प्यारे सूत्र हैं, इनमें बड़ा
माधुर्य है, बड़ी मदिरा है। मगर पीओगे तो ही मस्ती छाएगी।
इन्हें ऐसे ही मत सुन लेना जैसे और सब बातें सुन लेते हो; इन्हें
बहुत भाव-विभोर होकर सुनना। आंख गीली हों तुम्हारी--और आंखें ही नहीं, हृदय भी गीला हो। उसी पीले पन की राह से, उन्हीं
आंसुओं के द्वार से ये दरिया के शब्द तुम्हारी हृदय-वीणा को झंकृत कर सकते हैं। और
जब तक यह न हो जाए तब तक एक बात जानते ही रहना कि तुम भटके हुए हो। भूलकर भी यह
भ्रांति मत बना लेना--कि मुझे क्या खोजना है! भूलकर भी इस भ्रांति में मत पड़ जाना
कि मैं जानता हूं, मुझे और क्या जानना है!
उड़ा-उड़ा सा जी रहता है
चूर-चूर विश्रांत शरीर,
दूर देश जाने को आतुर
अकुलाए से प्राण अधीर
जाने क्यों मुझको घर-बाहर,
सब कुछ हुआ पराया आज।
छिन जिसका आधार गया हो
हूं मैं ऐसी छाया आज।
खोया-खोया मन रहता है।
सोया सा सुन संसार!
कभी-कभी ऐसा लगता है
अब टूटा जीवन का तार!
लगता ही क्यों अब टूटा, तब टूटा,
यह सच ही है। यह जीवन का तार कब टूट जाएगा, क्या
पता? इसके पहले कि यह तार टूटे, उस
संगीत को जन्मा लो जो कभी टूटता। तार बनते हैं और मिट जाते हैं, संगीत शाश्वत है। इस जीवन की वीणा को टूटने के पहले जगा लो, झंकृत करो। यह झंकृत हो जाए, तुम्हें पंख लग जाएं,
तुम उड़ चलो। तुम उड़ चलो अपने गंतव्य की ओर, अपने
गृह की ओर। नहीं तो अजनबी हो यहां, यह तुम्हारा घर नहीं। यह
किसी का भी घर नहीं। घर की हमें तलाश करनी है। यह तो सराय है।
सराए-दहर में ऐ रूह! अपना जी नहीं लगता।
खुदा जाने, यहां कितने दिनों रहने को
आए हैं।।
यहां जी मत लगा लेना। जिन्होंने ली जगाया है, सिर्फ दुख
पाया है। जी तो लगाना हो तो उसी जीवन के परम स्रोत से लगाना। क्योंकि वही मिले तो
समझना कि कुछ मिला। निर्वाण मिले तो समझना कि कुछ मिला। और जब तक निर्वाण न मिले,
तब तक समझना--कूड़ा बटोरते रहे। और क्षण-भर को भी भूलना मत। क्योंकि
भूलने की हमारी बड़ी तैयारी रहती है। हमारा अहंकार यह बात भूलना चाहता है कि हम
कूड़ा बटोर रहे हैं। अहंकार को बड़ी चोट लगती है इस बात से कि मैं और कूड़ा बटोर रहा
हूं! अहंकार तो कंकड़-पत्थर बीनता है तो भी मानता है कि हीरे-जवाहरात इकट्ठा कर रहे
है। धर्मशालाओं में रहता है और सोचता है अपने निवास-स्थान हैं। यह शब्द बहुमूल्य
हैं, मगर उनके लिए ही बहुमूल्य हैं जिन्हें यह समझ में आनी
बात शुरू हो गई कि मेरी जिंदगी अकारण जा रही है, बिना गीत
गाए मैं विदा हुआ जा रहा हूं।
भीतर मैल चहल के लागी, ऊपर तन का
धोवै है।
और क्रांति घटती है भीतर, और हम सब
आयोजन बाहर कर रहे हैं। दिया जलना है भीतर, और हम बाहर
दीपावली जला रहे हैं। जलती रहें दीपमालाएं बाहर, मगर तुम
अंधेरे हो, अंधेरे रहोगे--जब तक भीतर का दिया न जले। और बाहर
हम कितने आयोजन कर रहे हैं, कितना स्नान; ध्यान कब करोगे? स्नान से देह की धूल धूल अति है,
आत्मा की धूल कब धोओगे? ध्यान आत्मा का स्नान
है। स्नान से शरीर प्रफुल्लित हो जाता है, ताजा हो जाता है,
आत्मा को कब ताजा करोगे?
आत्मा तुम्हारी मुर्दा हो रही है, आत्मा
तुम्हारी दिन-हीन होती जा रही है, आत्मा को तुमने बिलकुल
उपेक्षित कर दिया है, शरीर की सेवा में सौ प्रतिशत तुमने
अपनी शक्ति लगा दी है, और शरीर आज नहीं कल मौत छीन लेगी। यह
घर ताश के पतों का घर है, यह नाव कागज की नाव है, यह डूबने ही वाली है। इसे कोई बचा नहीं सका है। इसी गांव को सजाने में
फूल-पत्ती काढ़ने में तुम जिंदगी गंवा दोगे, या कुछ उस भीतर
के परम सत्य की भी तलाश करोगे? जो जन्म में भी तुम्हारा है,
मृत्यु में भी तुम्हारा है; जन्म के पहले भी
तुम्हारा है, मृत्यु के बाद भी तुम्हारा है। तुम्हारा है,
ऐसा कहना ठीक नहीं, तुम हो वह सत्य। तत्वमसि,
वह तुम ही हो। वह तुमसे भिन्न नहीं है।
भीतर मैल चहल कै लागी,
...भीतर तो कीचड़ भरी है...
ऊपर तन का धोवै है।
किस कीचड़ की बात करते दरिया? वही कीचड़
की जिसकी सारे बुद्धों ने बात की है। कौन सी कीचड़ भीतर भरी है? विचार की, वासना की, स्मृतियों
की, कल्पनाओं की--यही सब कीचड़ है। इसी कीचड़ में तो तुम उलझे
हो, इसी कीचड़ में तो आकंठ फंसे हो। वासनाएं ही वासनाएं भीतर
सिर उठाए खड़ी हैं। और विचार और विचार का ताता लगा है। एक क्षण विश्राम नहीं,
एक क्षण विराम नहीं। एक क्षण को भी यह रास्ता खाली नहीं होता--विचार
हैं कि चलते ही जाते हैं, चलते ही जाते हैं। और कसे विचार?
जो अतीत अब नहीं है, उसके विचार। कल किसी ने
कुछ कहा था, उसके विचार। जो अब न हो गया, उसको क्यों ढोते हो? क्यों भूत-प्रेतों को ढोते हो?
अब जो नहीं है, नहीं है, उसे जाने दो। उस कचरे को क्यों लिए फिरते हो? क्यों
लाशें ढोते हो?
तुमने शिव की कथा सुनी होगी, कि जब
पार्वती की मृत्यु हो गयी, तो शिव पार्वती की लाश को अपने
कंधे पर लेकर सारे देश में भटकते फिर, कि मिल जाए कोई हकीम,
मिल जाए कोई वैद्य, हो जाए कोई चमत्कार--कोई
जिला दे पार्वती को! लाश सड़ने लगी। लाश लाश है। प्रकृति कोई अपवाद नहीं करती,
पार्वती की लाश है तो क्या हुआ! सड़ने लगी, दुर्गंध
उठने लगी; अंग-अंग लाश के गिरने लगे सड़-सड़ कर। कथा यही है कि
जहां-जहां एक-एक अंग गिरा पार्वती का, वही-वही हिंदुओं का
एक-एक तीर्थ बना।
मगर लाश को ढोते हुए शिव!
यह तुम्हारी कथा है। यह कोई पुराण नहीं है, यह
तुम्हारा मनोविज्ञान है। हर व्यक्ति लाशें ढो रहा है। और लाशें सड़ जाती हैं। और
लाशों के अंग जहां-जहां गिरते हैं, वहीं-वहीं तो तुम्हारी
स्मृतियों के तीर्थस्थल हैं। बुढ़ापे में भी लोग लौट-लौटकर देखते हैं जवानी के
तीर्थस्थल। कभी किसी स्त्री को प्रेम किया, किसी स्त्री को
चाहा था; कभी सफलता मिली थी, कभी जगत
में झंडा फहराया था, लौट-लौट कर देखते रहते हैं। अब सिवाय
दुर्गंध के और कुछ भी नहीं है। अब सिवाय याददाश्त के और कुछ भी नहीं। तुम्हारी
स्मृतियों के अतिरिक्त अतीत का कोई अस्तित्व नहीं है। जिस व्यक्ति में थोड़ी भी
बुद्धिमत्ता है, वह तत्क्षण अतीत से अपना संबंध तोड़ लेगा।
क्योंकि इस कचरे को क्यों ढोना?
और एक मजे की बात, जो अतीत
से संबंध तोड़ लेता है, तत्क्षण उसका भविष्य से संबंध टूट
जाता है। क्यों? क्योंकि भविष्य कुछ और नहीं है, अतीत को फिर से जीने का, अच्छे ढंग से और परिमार्जित
ढंग से जीने की आकांक्षा है। भविष्य क्या है, कल तुम क्या
चाहते हो? कल तुम वही चाहते हो जो तुम्हें कल अनुभव हुआ था
और प्यारा लगा था। अब और-और चाहते हो। कल जो तुम्हें अनुभव हुआ था, उसमें शायद थोड़े-थोड़े कांटे भी थे। अब तुम कल ऐसा चाहते हो कि वे कांटे भी
न हों, बस फूल ही फूल रह जाएं। शायद थोड़ी पीड़ाएं भी थी,
वे पीडाएं भी तुम नकार कर देना चाहते हो--शुद्ध सुख बच जाए जल,
दुख से मुक्त सुख बच जाए कल।
तुम्हारा भविष्य क्या है? तुम्हारा
भविष्य अतीत का ही सुधारा हुआ रूप है। जिस दिन अतीत गिरता है, उसी दिन अतीत का प्रक्षेपण भविष्य गिर जाता है। और भविष्य और अतीत दोनों
गिर जाएं तो तुम इसी क्षण में आबद्ध हो जाओगे, इसी क्षण में
ठहर जाओगे। उस ठहरने का नाम विराम है, विश्राम है, विश्राम है। और उसी ठहरने में, इसी विराम में राम से
पहले मिलन है। ठहरने में, जब तुम्हारे भीतर सब ठहर जाता है,
कोई तरंगें विचार की नहीं, कोई वासना की
तरंगें नहीं; न कोई अतीत है, न कोई
भविष्य है: न पीछे लौट कर देखते हो, न आगे दौड़ रहे हो;
यहां और अभी; बस कीचड़ गयी। वर्तमान में जो ठहर
गया, उसका अंतर शुद्ध हो जाता है।
भीतर मैल चहल कै लागी। और भीतर तो कितना मैल
लगा है! ढेर लगे कीचड़ के ऊपर तन का धोवै है। और हम हैं कि ऊपर-ऊपर आयोजन किए चले
जाते हैं। घावों के ऊपर इत्र छिड़क रहे हैं, कि बदबू न आए। घावों के ऊपर
फूलमालाएं चढ़ा रहे हैं, ताकि किसी को घाव दिखाई न पड़े। भीतर
की गंदगी को बाहर के आरोपित सौंदर्य में ढांकने की चेष्टा चल रही है। भीतर की
रिक्तता को बाहर के धन से भरने का उपाय हो रहा है। यही तो तुम्हारा संसार है। यही
तुम्हारा जीवन है। कर क्या रहे हो तुम? किसी तरह भीतर की
दरिद्रता ढंक जाए बाहर के आभूषण में। भीतर का भिखमंगापन बाहर के हीरे-जवाहरातों
में छिप जाए। मगर यह हो सकता है? यह नहीं हो सकता। बाहर की
पड़ी रह जाती है, भीतर पहुंचती ही नहीं। बाहर और भीतर का कोई
मिलन नहीं होता है। यह आया अलग। बीमारी भी भीतर है, इलाज
बाहर चल रहा है। ये औषधियां सिर्फ धोखे हैं।
दरिया कहते हैं--
भीतर मैल चहल कै लागी, ऊपर तन का
धोवै है।
अविगत मुरति महल कै भीतर, वाका पंथ
न जोवै है।।
और दौड़ रहे हो, दौड़ रहे
हो, यह मिल जाए, वह मिल जाए और जो सब
मिलने का मिलना है, वह मुरति तुम्हारे महल के भीतर, तुम्हारे घर के भीतर, तुम्हारे हृदय में विराजमान
है। इस मंदिर में चले, उस मंदिर में चले, यहां सिर पटको, वहां सिर पटको, और जिसकी तुम तलाश कर रहे हो जन्मों-जन्मों से, वह
एक क्षण को भी तुम्हें छोड़ा नहीं, तुम्हारे हृदय के गृह में
बैठा तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। तुम्हारा मालिक तुम्हारे भीतर तुम्हारी
प्रतीक्षा कर रहा है।
अवितगत मुरति पहल कै भीतर, वाका पंथ
न जावै है।।
न मालूम कितने-कितने रास्तों पर दौड़ रहे हो
और एक रास्ते भर का भूल बैठे हो--भीतर जाने का रास्ता। इसके पहले कि बाहर खोजने
निकलो, कम से कम भीतर झांक कर तो देख लो, कहीं ऐसा न हो कि
हम उसे बाहर खोजते रहे और वह भीतर मौजूद है। जिन्होंने झांका, पाया। और जो बाहर दौड़ते रहे, खाली हाथ जिए, खाली हाथ मरे।
जुगति बिना कोई भेद न पावै, साधु-संगति
का गावै है।
लेकिन इस भीतर के महल का जो रास्ता है, वह
तुम्हें वही बता सकता है जो भीतर के महल में विराजमान हो गया। तुम्हें भूले तो
इतना काल हो चुका, इतना अनंत काल, इतनी
पर्तों पर पर्तें जम गयी हैं तुम्हारे भीतर भ्रांतियों की, कि
तुम अगर इन पर्तों को उलटने लगोगे तो जन्मों-जन्मों तक खोदते रहो, कुछ पता न चलेगा। तुम्हें भीतर का मार्ग तो वही दे सकता है जो भीतर पहुंच
गया हो। जुगति बिना कोई भेद न पावै, तुम्हें कुंजी चाहिए।
और तुमने देखा?
ताला कितना ही बड़ा हो, कुंजी
छोटी सी होती है। और ताला ही जटिल हो, कुंजी सरल होती है। और
कुंजी हाथ में न हो तो तुम तोड़ते रहो ताले को हथौड़ी से, खुलेगा
नहीं। और कुंजी हाथ में हो तो छोटा सा बच्चा भी खो लेता है। कोई बड़े पहलवानों की
जरूरत नहीं होती ताला खोलने के लिए। कोई बड़ी शक्ति नहीं लगती। यह जो ताले को खोलने
की कुंजी है, ऐसी ही युक्ति भी, योग की
युक्ति भी सरल बात है। हाथ लग जाएं तो बच्चा खोल ले।
दरिया बीस ही वर्षा के थे तब परम बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए। और यहां अस्सी-अस्सी साल के बूढ़े बुद्धत्व तो दूर, अभी उसी
कूड़े-कर्कट की तलाश में हैं जिसको जवान खोजें तो माफ भी कर दो, मगर बूढ़े भी उसी को खोज रहे हैं! तो बड़ा आश्चर्य होता है! अगर कोई जवान
महत्वाकांक्षी हो, क्षमा कर दो--जवान ही है आखिर, अभी जवानी का अंधापन है--लेकिन बूढ़े भी महत्वाकांक्षी हैं। एक पैर कब्र
में है, फिर भी चाहते हैं कि अभी कोई और महत्वाकांक्षा पूरी
हो जाए--एक पद, और, थोड़ी देर और कुर्सी
पर बैठ लें, या और बड़ी कुर्सी मिल जाए। यह किस्सा कुर्सी का
समाप्त ही नहीं होता। इसका कोई अंत आता नहीं दिखायी पड़ता बच्चे माफ किए जा सकते
हैं, जवान भी माफ किए जा सकते हैं, बूढ़ों
को माफ नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर कोई हिम्मत कर ले सदगुरु के पास होने की,
तो बच्चों को भी, युवाओं को भी वह परम सत्य
उपलब्ध हो सकता है।
दरिया बीस ही वर्ष के थे तब बुद्ध हुए। हाथ
कुंजी लग जाए तो बात बड़ी सरल है, आसान है--दो और दो चार होते हैं, इतनी आसान है। जुगति बिना कोई भेद न पावै, इतना
स्मरण रखना कि जुगति के बिना, ठीक-ठीक युक्ति के बिना,
ठीक-ठीक विज्ञान के बिना भेद न पा सकोगे, रहस्य
न पा सकोगे। साधु-संगति का गोवै है। लेकिन लोग अजीब हैं, अगर
परमात्मा की भी तलाश करने की कभी आकांक्षा उठती है, तो भी
साधु-संगति से भागते हैं। सोचते हैं खुद ही कर लेंगे। अगर भाषा सीखनी हो, तो शिक्षक के पास जाते है; गणित सीखना हो, तो शिक्षक के पास जाते है; भूगोल-इतिहास जैसी व्यर्थ
की चीजें सीखनी हों, तो भी शिक्षक के पास जाते हैं; कुछ भी सीखना हो तो किसी पाठशाला में जाते हैं; सिर्फ
परमात्मा को सोचते हैं--किसी के पास क्या जाना! खुद ही कर लेंगे! और इस सदी में यह
रोग बहुत फैला, इसलिए इस सदी में परमात्मा करीब-करीब हमसे
बिछुड़ ही गया, हम उससे बिछुड़ गए हैं। इस सदी में एक अहंकार
जगा है आदमी को, कि स्वयं पा लेंगे, किसी
से सीखें? और ऐसा भी नहीं है कि कभी-कभी किसी ने स्वयं को
नहीं पा लिया है। कभी करोड़ों में एकाध व्यक्ति स्वयं की भी सत्य को उपलब्ध हो जाता
है। मगर वह अपवाद है। और अपवाद नियम नहीं है। अपवाद से तो नियम ही सिद्ध होता है।
अपने अहंकार को मत संभाले बैठे रहना। साधु-संगति से बचने का जो कारण है, वह इतना ही है कि साधु-संगति की पहली शर्त है--समर्पण, झुकना; और अहंकार झुकना नहीं चाहता। लोग भाग रहे
हैं।
हुस्नो-इश्क एक है, जाहिर में
फकत नाम हैं दो।
यह अगर सच है तो क्या, उनके
बराबर हम है?
अक्ल से राह जो पूछी तो पुकारा यह जुनूं--
वह तो खुद भटकी हुई फिरती है, रहबर हम
हैं।।
बुद्धि तो स्वयं भटकी हुई फिर रही है, उलझी हुई
फिर रही है। अगर तुमने बुद्धि की सुनी और पीछे लग गए, तो
बहुत पछताओगे।
खलील जिब्रान की एक कहानी है। एक आदमी
गांव-गांव कहता फिरता था कि जिसे परमात्मा को पाना हो, मेरे पीछे
आए। न कभी कोई उसके पीछे जाता था, न कभी कोई झंझट पैदा होती
थी। लेकिन एक गांव में ऐसा हुआ, कि एक युवक खड़ा हो गया,
उसने कहा कि मैं आता हूं आपके पीछे। वह आदमी थोड़ा डरा, झिझका, फिर उसने कहा कि ठीक है, आओ, कोई बात नहीं। उसको भटकाया खूब जंगलों में,
पहाड़ों में, मरुस्थलों में।मगर वह भी एक
जिद्दी था। सोचता था वह आदमी कि थककर महीने दो महीने में भाग जाएगा। मगर वह पीछे
ही लगा रहा। साल बीता, दो साल बीते, तीन
साल बीते, वह तो नहीं थका, लेकिन वह
आदमी ही थकने लगा कि अब कब तक इसको थकाते रहें? थकाने में भी
थकना पड़ता है। और जब देखा कि यह जाता ही हनीं है, तीन साल
बीत गए, तो यह तो जिंदगी खराब करवा दोगे, हमारी भी जिंदगी खराब करवा देगा! छह साल जब बीत गए तो एक दिन उस आदमी ने
उसके पैर पकड़ लिए युवक के और कहा कि महाराज, मुझे क्षमा करो,
अब आप जाओ! तो उसने कहा--मैं जाऊं कहा? आपने कहा
था ईश्वर मिलाएंगे, तो मैं आपके पीछे चल रहा हूं। उसने कहा
कि मैं क्या खाक तुम्हें ईश्वर से मिलवाऊंगा! तुम्हारी वजह से मेरा तक रास्ता खो
गया। पहले मुझे रास्ता पता था। जब से तुम आए हो तब से मुझे भी रास्ता खो गया है,
अब तुम मुझ पर कृपा करो। और अब मैं भूलकर कभी किसी से न कहूंगा। कि
मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें पहूंगा दूंगा।
तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम से कहे जाते हैं, पीछे आओ,
पहुंचा देंगे। और उनकी सुरक्षा इसी मग है कि तुम कभी पीछे नहीं
जाते। और तुम्हारी सुरक्षा उन्हीं पंडित-पुरोहितों के साथ है। क्योंकि वे भी झूठे
हैं, तुम भी झूठे हो, झूठ और झूठ में
एक तालमेल बैठ जाता है। लेकिन जब भी तुम दरिया, कबीर,
नानक, फरीद, ऐसे किसी
व्यक्ति के साथ खड़े हो जाओगे तो घबड़ाहट होगी, पैर कंपने
लगेंगे, गिर पड़ोगे वहीं। डर लगेगा कि अब मौत आयी, अब मुश्किल आयी। इस आदमी के साथ चलना हो तो मिटना पड़ेगा। अपने को पोंछ
देना होगा। दरिया ने ठीक शब्द प्रयोग किया है--साधु संगति का गोवै है। गोवै का
अर्थ है, छिपाना, भागना, छिपना, डरना। साधु-संगति से डर रहे हो, छिप रहे हो, भाग रहे हो। मगर आदमी जब भागता भी है तो
अपने भागने के लिए बड़े तर्क तय कर लेता है कि वहां रखा क्या है! इसलिए वहां नहीं
जाता हूं! इसलिए तुमने सदा ही बुद्धपुरुषों के संबंध में न मालूम कैसी-कैसी
अफवाहें फैलाई हैं। और उन अफवाहों के फैलाने के पीछे एक कारण है। उन्हीं अफवाहों
के सहारे तुम अपने को छिपा पाते हो, नहीं तो छिपा नहीं
पाओगे। उन्हीं अफवाहों की आड़ में तुम यह बहाना खोज लेते हो कि जाने की जरूरत ही
क्या है, वहां है ही कौन? वहां रखा
क्या है? या वहां जो भी है सब गलत है। तुम बड़े अच्छे-अच्छे
शब्द खोज लेते हो, जिनका तुम्हें अर्थ भी पता नहीं होता।
एक मित्र ने मुझ पत्र लिखा है--अनेक ऐसे
पत्र आते हैं--कि मैं आना चाहता हूं, लेकिन मैंने यह सुना है कि वहां जो
आता है वह सम्मोहित हो जाता है। तो मैं डरता हूं कि अगर आया और सम्मोहित हो गया,
तो फिर? सम्मोहन क्या है, शायद उन्हें पता भी न हो। लेकिन एक शब्द पकड़ गया। और हर शब्द के साथ हमारे
अर्थ जुड़े हैं, संबंध जुड़े हैं। अब उन्हें घबड़ाहट लग रही है,
आना भी चाहते हैं लेकिन डर भी लग रहा होगा कि कहीं ऐसे ही सम्मोहित
न हो जाएं, जैसे दूसरे हो गए हैं। और लगता उनको होगा कि
प्रमाण भी मालूम होते होगे कि लोग वहां भले-चंगे जाते हैं, अच्छे-भले,
और गैरिक वस्त्र पहन कर चले आते हैं! कहीं ऐसा हो सकता है? जरूर कोई सम्मोहन हो रहा है। कुछ बात समझ में नहीं आती। यही उन्होंने लिखा
है, कि मेरे गांव से कई लोग गए, वे सब
गेरुवा वस्त्र पहन कर आ गए। और जब से आए है तो उल्टी ही उल्टी बातें करते हैं। ढंग
की बातें नहीं करते! और इनको मैं पहले से जानता हूं, अच्छे-छले
आदमी थे; जब गए लिए, बिलकुल ठीक-ठीक गए
थे। इससे भय लगता है कि कहीं मैं भी जाकर उलझ न जाऊं।
तो पहले तो इस तरह के जाल बनकर आदमी रोकता
है। फिर अगर आ भी जाए,
तो बहुत सधा-बधा आता है। जागरूक रहता है कि कहीं कोई झंझट खड़ी हो,
उसके पहले निकल जाना है। दूर-दूर रहता है, पास
नहीं आता। यहां लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं हम आ तो गए,
पहले ध्यान दूसरों को करते देखेंगे, फिर हम
करेंगे। जब हमें पक्का भरोसा आ जाएगा। कि इसमें कुछ बड़बड़ नहीं है, तब करेंगे। मगर दूसरों को ध्यान करते देखकर तुम क्या देखोगे? अगर कोई नाच रहा है अपनी मस्ती में, तो नाच तो
दिखायी पड़ जाएगा, मस्ती कैसे दिखाई पड़ेगी? और क्यों नाच रहा है? उसके भीतर जो नाच हो रहा है,
बाहर का नाच तो केवल उसकी प्रतिछाया है। जैसे कोई नाच रहा हो तो
उसकी छाय भी नाचती है। अब तुम छाया को अगर देखते रहोगे, तो
क्या तुम नाचने वाले पहचान लोगे, समझा लोगे? देह के बाहर तो छाया ही बनती है।
तुम मीरा को नाचते देखकर समझ सकते थे
क्योंकि उसके हृदय में कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं? क्या तुम समझ सकते थे यह
बात मीरा को नाचते देखकर कि मीरा कृष्ण के सामने नाच रही है, तुम्हारे सामने नहीं? कि मीरा का नाच नाच नहीं है,
जैसा नर्तकियों का होता है। मीरा कोई बड़ी नर्तकी भी नहीं थी। कभी
नाच सीखा हो, इसका कोई उल्लेख भी नहीं है। तुम्हारी कोई भी
नर्तकी मीरा को हरा देती नृत्य में, किसी प्रतियोगिता में
मीरा जीतनी इसकी आशा रखना उचित नहीं है। लेकिन फिर भी मीरा है और तुम्हारी
नर्तकियां सिर्फ नर्तकियां हैं। उसके नाच में कुछ और है। उसके नाच में एक प्राण है,
एक भाव है, एक भक्ति है। आविष्ट है मीरा कृष्ण
से। मीरा कहती है: पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे। यह तो तुम्हें सुनाई पड़ जाएगा।
उसका नाच भी दिखाई पड़ जाएगा, पैर में बंधे घुंघरू भी दिखायी
पड़ जाएंगे, आवाज भी सुनायी पड़ जाएगी, मगर
भीतर कृष्ण की बांसुरी बज रही है, इसलिए उसने पग मग घुंघरू
बांधे हैं। उस बांसुरी की धुन पर मीरा नाच रही है। कृष्ण के आसपास नाच रही है। रास
हो रहा है। मीरा अकेली नहीं है। मगर तुम्हें अकेली दिखाई पड़ेगी।
तुम ध्यान करते देखते दूसरे लोगों को क्या
समझोगे? तुम जो भी समझोगे, गलत समझोगे। और तुम कहते जब तक
मैं दूसरों को करते न देख लूं, मैं करूंगा! और तुम जो भी
समझोगे, गलत समझोगे। और जो भी तुम बाहर से देखोगे, उससे भीतर की कोई तुम्हें खबर न मिलेगी। फिर शायद तुम करोगे ही नहीं। कि
यह कोई ध्यान है! इस तरह नाचता, इस तरह दीवाना होना, इस तरह जुनून, यह कोई ध्यान है!
तुमने ध्यान की भी धारणा बना ली है। तुमने
ध्यान का भी स्पष्ट आधार,
रूपरेखा, व्याख्या कर ली है। बस ध्यान ऐसा
होना चाहिए। अगर झेन आएगा तो वह समझता है ध्यान ऐसा होना चाहिए, जैसे महावीर बैठे हुए हैं। तो फिर मीरा को ध्यान नहीं हुआ; तो चैतन्य को ध्यान नहीं हुआ। और ध्यान रखना, अगर
मीरा के ही ध्यान को तुम ध्यान मानते हो तो फिर बुद्ध को तुम या महावीर को शांत
बैठे देखकर समझोगे--यह क्या है, खाली बैठे हैं! नाच कहां है?
घूंघर कहां? तुम धारणाएं बना लेते हो। और
प्रत्येक व्यक्ति मग परमात्मा अनूठे ढंग से घटता है, किसी
अपेक्षा के अनुसार नहीं घटता। प्रत्येक के भीतर परमात्मा मौलिक रूप से घटता है,
अद्वितीय रूप से घटता है। वह तो तुम्हारे भीतर घटेगा तो तुम जानोगे।
मगर तुम डरते हो--करेंगे नहीं, देखेंगे। जैसे कोई सागर को
देखकर तृप्त होगा? कि भोजन को देखकर भूख मिटेगी? यह तो पचाना होगा! इसे तो पचाकर जीवन रस बनाना होगा।
रक्त-मांस-मज्जा में रूपांतरित करना होगा। मगर डर लगता है कि वह तो रक्त-मांस-मज्जा
में जिन्होंने रूपांतरित किया, वे तुम्हें लगते हैं कि कुछ
अटपटा गए, कुछ बेबूझ हो गए; कहीं मैं
भी बेबूझ न हो जाऊं!
अभी कुछ दिन पहले...यहां मेरी एक संन्यासिनी
है, अमरीका में गोपा, उसके पिता आए। बहुत प्यारे आदमी
थे! गोपा प्रसन्न है, आनंदित है--इसलिए उसे देखने आए थे।
उसके आनंद, उसकी प्रसन्नता को देखकर खुद भी धीरे-धीरे डूबे।
मुझसे बोले कि संन्यास लेने का मेरा मन है, लेकिन मेरी पत्नी
कभी न समझ पाएगी। वह यहां है भी नहीं। उसे कुछ पता भी नहीं है। और वह बड़ी बौद्धिक
किस्म की स्त्री है। और उससे हम सब घर के लोग डरकर ही जी रहे हैं। मैंने उनको कहा
कि अगर इतनी झंझट हो, तो फिर दोबारा जब आएं तक देखना। मगर
नहीं उनका मन माना--जैसे-जैसे नाचे, जैसे-जैसे ध्यान किया,
अंततः कहने लगे कि नहीं, संन्यास लेकर जाऊंगा।
गए। कल फोन आया है कि उनकी पत्नी ने उन्हें पागलखाने में भर्ती करवा दिया है। कारण?
क्योंकि पत्नी यह मान नहीं सकती है कि मस्ती सच कैसे हो सकती है?
वह कभी हंसे नहीं उसके सामने, उससे सदा डरते
रहे, अब वह नाचते हैं उसके सामने। स्वभावतः पागल हो गए।
अमरीका में तो स्वभावतः कहीं यह कोई बातें है होश की! कि पत्नी कुछ कहती है तो
खिलखिलाकर हंसते हैं। पत्नी समझाने की कोशिश करती है कि गेरुवा वस्त्र अलग करो,
यह माला क्यों पहन रखी है, यह पहन कर बाहर
कैसे निकलोगे घर के, तो मुस्कुराते हैं, हंसते हैं, नाचते हैं। स्वभावतः पत्नी ने समझा होगा
कि दिमाग खराब हो गया।
और अड़चन ऐसी है, अगर तुम्हारा
दिमाग खराब न हो, घर के लोग समझें कि दिमाग खराब है, तो तुम्हें और हंसी आएगी। कि यह भी खूब रही! तो वह समझाते होंगे, कि मैं पाग नहीं हूं। मगर जब भी कोई समझाने लगे कि मैं पागल नहीं हूं,
तो और शक होता है कि होना ही चाहिए पागल, नहीं
तो समझाओगे क्या? वह चिकित्सक को समझाते होंगे मैं पागल नहीं
हूं, तो उनकी पत्नी उनसे कहती होगा--चुप रहो, तुम्हें बीच में बोलने की जरूरत नहीं है! हमको पता नहीं है कि पागल यानी
क्या होता है? तुम चुप रहो! डाक्टर को जांच करने दो।
और जब भी तुम डाक्टर के पास जाओ--कभी तुम
स्वस्थ हालत में भी जाकर देख लेना, वह कोई न कोई बीमारी निकालेगा। तुम
चले जाना, जब बिलकुल स्वस्थ अनुभव हो कि कोई बीमारी नहीं है,
सब ठीक है, डाक्टर के पास चले जाना। वह कोई न
कोई बीमारी जरूर निकाल लगो। एक नहीं अनेक निकाल सकता है। उसका धंधा यही है कि
बीमारी निकाले, बीमारी खोजे। तुम आए उसके पास, यही काफी प्रमाण है कि तुम बीमार होने ही चाहिए। और बीमार भी पसंद नहीं
करते अगर डाक्टर कोई बीमारी न निकाले। अगर डाक्टर कह दे कि तम बिलकुल ठीक हो,
तो मरीज सोचता है, किसी और डाक्टर के पास जाएं,
यह भी कोई डाक्टर है! यह कोई बात हुई कहने की कि तुम बिलकुल ठीक हो!
कि हम तो इतनी मुसीबत में आए हैं और यह कहता है कि यह सिर्फ विचार की बात है!
तुम्हारे मन में भांति हो गयी है! ऐसे आदमियों को लोग पसंद नहीं करते। फिर डाक्टर
ने फीस ली है। तो फीस को न्याययुक्त ठहराना भी चाहिए न! यह तो ऐसे ही फीस ले ली,
न कोई बीमारी है, न कोई किरण है। तो डाक्टर
कोई न कोई बीमारी खोजेगा। खोज ही लेगा। और मनोचिकित्सक के पास अगर तुम हंसोगे,
प्रसन्न होओगे, तो वह जरूर समझेगा कि कुछ गड़बड़
हो गयी।
फ्रांस से एक युवक संन्यास लेकर गया। फ्रांस
में नियम है--जैसा बहुत से देशों में है--कि एक उम्र के बाद दो साल फौज में भर्ती
होना पड़ेगा। वह जाते वक्त मुझसे पूछने लगा कि अब मैं क्या करूं, मैं फौज
में भर्ती होना हनीं चाहता। यहां रहकर मैंने प्रेम का पाठ सीखा है, अब मैं किसी का पाठ नहीं सीखना चाहता। मैं क्या करूं? मैंने कहा, तू कुछ मत करना, जब
कभी वे तुझे बुलाएं, तू कुंडलिनी ध्यान करना। उसको भी बात
जंची। उसने कहा, यह बात बिलकुल ठीक है। कुछ दिन पहले उसकी
खबर आयी कि उन लोगों ने करार दे दिया कि यह पागल है, इसको
मिलिट्री में लेना ही मत! क्योंकि जब भी मैं जाता हूं दफ्तर में, बस जल्दी से हाथ-पैर हिलाकर एकदम कुंडलिनी ध्यान करने लगता हूं। उन लोगों
ने सब जांच करके देख लिया, पाया कि बिलकुल पागल है। अब मुझे
बड़ी हंसी आती है, यह भी क्या जांच है! ये यह भी नहीं समझ पा
रहे कि कुंडलिनी ध्यान है, इसमें पागलपन कुछ भी नहीं है।
आदमी तर्क खोज लेता है। आदमी शब्द खोज लेता
है। आदमी बड़े तर्काभास पैदा कर लेता है अपने को बचाने के लिए। वैसे आदमी के लिए
कहा है--जुगति बिना कोई भेद नहीं पावै, साधु-संगति का गोवै है। क्यों भाग
रहे हो साधुओं की संगति से?
मंजिलें-दोस्त का निशां देखिए किस तरह मिले।
अकल तो खुद बहक गयी, अब किसे
रहनुमा करें?
किसी ऐसे व्यक्ति को खोजना होगा, ऐसा साथ
खोजना होगा, जो अक्ल से ज्यादा गहरा हो, जो बुद्धि से ज्यादा गहरा हो। जिसकी रोशनी हृदय से उठती हो। सिर्फ विचार
का ही सवाल न हो, अनुभव हो। जिसे दर्शन हुआ हो। जिसने जाना
हो, जिसने देखा हो। जिसने वह चमत्कार देखा हो परमात्मा का।
सरापा सोज है ऐ दिल! सरापा नूर हो जाना।
अगर जलना तो जलकर, जलवागाहेत्तूर
हो जाना।।
हमारे-जख्म-दिल ने दिल्लगी अच्छी निकाली है।
छुपाए से तो छुप जाना मगर नासूर हो जाना।।
खयाले-वस्ल को अब आर्जू झूला झुलाती है।
करीब आना दिले-मायूस के फिर दूर हो जाना।।
शबे-वस्ल अपनी आंखों ने अजब अंधेर देखा है।
नकाब उनका उलटना रात का काफूर हो जाता।।
मिलन की रात में, सुहागरात
में आंखों ने एक अंधेर देखा है।
शबे-वस्ल अपनी आंखों ने अजब अंधेर देखा है।
नकाब उनका उलटना नरात का काफूर हो जाना।।
ऐसे किसी आदमी को खोजना होगा, जिसकी
भांवरें पड़ गयी परमात्मा से, जिसकी सुहागरात हो चुकी। जिसके
माथे पर सुहाग का टीका है, और जिसने वह सब से बड़ा अंधेर देख
लिया कि उस परम प्यारे के मुंह से घूंघट का उठना कि सारे जगत से अंधेरे का विदा हो
जाना, रोशनी ही रोशनी हर जाती, न भक्त
बचता न भगवान बचता, बस दोनों एक महा-रोशनी के हिस्से हो जाते
हैं। ऐसे किसी व्यक्ति को खोजे बिना युक्ति नहीं मिल सकती।
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं?
आर्जुओं से फिरा करती हैं तकदीरें कहा?
बैठे-बैठे सोचते ही मत रहना से किसी का मिलन
नहीं हुआ है। सोचने से किसी को दर्शन नहीं हुआ है। सोचने से बाधा भला पड़ जाए, सेतु नहीं
बनता है।
आर्जुओं से फिरा करती हैं तकदीरें कहीं?
और सिर्फ आकांक्षाओं से कि ऐसा हो, वैसा हो,
कल्पनाओं से किस्मतें नहीं बदला करतीं। कोई युक्ति चाहिए, कोई योग की विधि चाहिए।
कह दरिया कूटने बे गोदी, पटकि का
रोवै है।।
भाग रहे हो साधु-संगति से और फिर सीस पटक कर
रोते हो कि जिंदगी न मिली,
कि जिंदगी का राज न जाना, कि आनंद न मिला,
कि सत्य न मिला, कि हम यूं ही व्यर्थ जिए।
रोते हो सिर पटकर और भागते हो वहां से जहां से कुंजी मिल सकती थीं। वहां से पलायन
कर जाते हो। इसलिए बड़ी कठोरता से--लेकिन फिर भी बड़ी करुणा से--दरिया ने कहा है: कह
दरिया कूटने बे गोदी...कूटने का अर्थ होता है, धूर्त,
चालबाज...कह दिरया कूटने बे गोदी, कूटनीतिज्ञ,
कूटने, धूर्त, धोखेबाज,
बेईमान; और बे गोदी का अर्थ होता है, कायर।
तुम्हारे सारे तर्कजाल या तो तुम्हारी
चालबाजियां हैं,
या तुम्हारी कायरताएं हैं।जिसमें न चालबाजी है, न कायरता है, उसे साधु-संगति मिलेगी ही, मिल ही जाएगी--वह अपने घर में भी बैठा रहे तो गुरु से उसे खोजता हुआ आ
जाता है।
कुछ भी हासिल न हुआ, जुहद से
नखरत के सिवा।
शुग्ल बेकार हैं सब उसकी मोहब्बत के सिवा।।
कुछ भी हासिल न हुआ, जुहद से
नखवत के सिवा।
झूठी उपासनाओं से काम न होगा। और तुमने
जितनी उपासनाएं की है,
बिना गुरु के हैं। इसलिए झूठी हैं। आरती भी उतार ली, पूजा भी कर ली, यज्ञ-हवन भी किया, मगर किसने तुम्हें यह युक्ति दी? जिसने तुम्हें हवन
करवाया, उसे परमात्मा मिला है?--यह तो
जरा पूछ लो! उसकी हवा मगर परमात्मा का पराग उड़ता है?--यह तो
जरा पूछ लो! उसकी आंखों में तो थोड़ा झांक लो!--वहां तारों की शीतलता है? उसका हाथ तो हाथ में लेकर लो!--वहां से कोई चुंबकीय ऊर्जा तुम्हें आकृष्ट
करती, खींचती है? उसके पास चुप होकर
बैठ लो, कोई बांसुरी सुनायी पड़ती है? नहीं,
किराए का पंडित है, तुमने चार पैसे किराए के
पंडित को दे दिए, उसने आकर हवन करवा दिया। तुम जैसा ही है।
तुमसे जरा भी भिन्न नहीं है--तुमसे गया बीता भी हो सकता है।
कुछ भी हासिल न हुआ, जुहद से
नखवत के सिवा।
झूठी उपासनाओं से कुछ भी कभी हासिल नहीं हुआ
है।
शुग्ल बेकार हैं सब उसकी मोहब्बत के सिवा।।
सिवाय प्रेम के कोई प्रार्थना कभी सच्ची
नहीं होती। मगर कौन तुम्हें प्रेम सिखाएं? जिसने प्रेम जाना हो, वही तुम्हें स्वाद लगाए। यह प्रेम समझाया नहीं जाता, सिखाया नहीं जाता। यह तो एक तरह की छूत की बीमारी है। प्रेम कातो संक्रमण
होता है। यह तो छूत की तरह लगता है। सत्संग का अर्थ इतना ही है--कोई उस परम प्यारे
को उपलब्ध हो गया, तुम उसके पास उठते रहो, बैठते रहो, उठते रहो, बैठते
रहो, आज नहीं कल, कल नहीं परसाग,
एक दिन बीमारी लग जाएगी। और यह बीमारी परम स्वास्थ है, परम सौभाग्य है!
विहंगम, कौन दिसा उड़ि जैहौ।
जरा सोचो तो! कहां से आए, कुछ पता
नहीं। क्यों आए, कुछ पता नहीं। और पक्षी, किस दिशा में उड़ जाओगे मरने के बाद, कुछ पता है?
उसके पहले जिनको कुछ पता हो उनके साथ संबंध जोड़ो, उनसे कुछ नाता बनाओ।
विहंगम, कौन दिसा उड़ि जैहौ।
पूछो अपने से--कहा रहे हो? और मौत
आती है जल्दी। फिर देह तो यहीं पड़ी रह जाएगी और यह भीतर छिपा हंस कहां जाएगा।?
नाम बिहूना सो परहीना...
और जिसने परमात्मा को स्मरण नहीं किया, उसके पंख
नहीं हैं--ध्यान रखना--उसे उड़ाना नहीं हो सकेगा।
नाम बिहूना...
जिसके पास नमा नहीं है, परमात्मा
का स्मरण नहीं है...
सो परहीना,
वह पंखरहित है।
भरमि-भरमि-भौ रहिहौ।।
यहीं-यहीं गिर जाओगे, तड़फड़ाओगे
और यहीं-यहीं गिरते रहोगे। इसी तरह की देहों में गिरते रहोगे। इन्हीं तरह के
अंधेरे गर्भों में गिरते रहोगे।
नाम बिहूना सो परहीना, भरमि-भरमि
भौ रहिहौ।।
गुरुनिंदक वद संत के द्रोही, निंदै जनम
गंवैहौ।
लेकिन लोग किसी सदगुरु के पास भी आ जाए तो
भी संबंध नहीं जोड़ते संवाद नहीं जोड़ते, विवाद जोड़ते हैं। कुछ ऐसे लोग हैं
कि अगर तुम गुलाब की झाड़ी के पास ले जाओ तो कांटों की गिनती करेंगे और फूलों को
बिलकुल देखेंगे ही नहीं। और जो कांटों की गिनती करेगा, उसके
हाथों में अगर कांटे चुभ जाएं तो आश्चर्य क्या? अगर उसके हाथ
लहूलुहान हो जाएं, तो आश्चर्य क्या? और
जिसके हाथ लहूलुहान हो जाएं कांटों से, वह अगर गुलाब की झाड़ी
पर नाराज हो जाए तो भी तर्कसंगत है। और जिसके हाथों में लहू हो और जिसकी आंखों में
क्रोध हो, उसको गुलाब कैसे दिखाई पड़ेंगे? उसे गुलाब दिखाई नहीं पड़ेंगे। उसके लिए गुलाब भी कांटे हो गए। इससे उल्टे
लोग भी हैं, जो गुलाब के फूलों को देखते हैं और ऐसे रस
विमुग्ध हो जाते हैं कि उन्हें कांटे दिखायी ही नहीं पड़ते। उनके लिए धीरे-धीरे
कांटे भी चूंकि गुलाब के फूल के रक्षक हैं, दुश्मन नहीं,
प्यारे हो जाते हैं।
जीवन को देखने का विधायक ढंग है और एक
नकारात्मक। किसी सदगुरु के पास जाकर भी तुम दोनों ही काम कर सकते हो। या तो
नकारात्मक ढंग से देखो,
तो हजार तुम्हें चूकें दिखायी पड़ जाएंगी। तुम खोज लोगे हजार चूकें।
ऐसा नहीं होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन इससे तुम्हें क्या मिलेगा, यह सोचो! तुम्हें किसी ने पूछने के लिए बुलाया भी न था कि क्या होना चाहिए
और क्या नहीं होना चाहिए। और बिना मांगे जो सलाह देता है, वह
मूढ़ है। तुमसे किसने पूछा था कि गुलाब में कांटे होना चाहिए कि नहीं होने चाहिए?
तुम आए थे गुलाब का रास ले लेते, गुलाब की गंध
ले लेते, गुलाब के साथ नाच लेते, गुलाब
के थोड़े गीत गा लेते, गुलाब जैसे हो जाते, गुलाब हो जाते। मगर तुमने वह छोड़ दिया वह मौका, तुमने
कांटों का हिसाब किया।
सदगुरु के पास एक विधायक भावदशा हो तो ही
संबंध जुड़ता है। अगर जरा भी नकारात्मक भावदशा हो तो संबंध जुड़ना तो दूर, संबंध
जुड़ने की भावी संभावनाएं भी समाप्त हो जाती है।
गुरुनिंदक वद संत द्रोही, निंदै जनम
गंवैहौ।
और गुरुओं की निंदा करके, संतों का
विद्रोह करके, विरोध करके क्या मिलेगा तुम्हें? सिर्फ तुम्हारा जनम व्यर्थ चला जाएगा।
परदारा परसंग परस्पर, कहहु कौन
गुन लहिहौ।
और दौड़े फिर रहे हैं लोग, व्यर्थ की
चीजों के प्रति। और व्यर्थ की चीजों में बड़े विधायक हैं। अगर दूसरे की स्त्री है,
तो बड़ी सुंदर मालूम होती है। उसकी भूलचूक नहीं दिखायी पड़ती। अगर
दूसरे का महल है, बड़ा सुंदर मालूम पड़ता है; उसकी भूलचूक नहीं दिखायी पड़ती। उस महल का मालिक रात में सो भी सकता है कि
नहीं, इसका पता ही नहीं चलाते लोग। जिस सुंदर स्त्री को
देखकर तुम मोहित हुए जा रहे हो, उसके पति की क्या गति है,
इसका तुम्हें कुछ पता नहीं। गति कब से दुर्गति हो गयी है, इसका तुम्हें कुछ पता हनीं।
व्यर्थ चीजों को तुम बड़ा विधायक ढंग से
देखते हो--यह समझ लेना,
यह एक ही आदमी के दो पहलू हैं। जो व्यर्थ की चीजों को विधायक ढंग से
देखता है, वह आदमी सार्थक चीजों को नकारात्मक ढंग से
देखेगा--यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जो आदमी व्यर्थ की चीजों को नकारात्मक
ढंग से देखता है, वह आदमी सार्थक चीजों को विधायक ढंग से
देखता है। दोनों बातें सभी में होती हैं।
यह तो तुम्हारे पास प्रतिभा है, यह दुधारी
तलवार है। इससे गलत को काटो और ठीक को बचाओ। लेकिन कुछ लोग ठीक को काटते और गलत को
बचाते। तो तलवार वह भी कर सकती है। जरा सोच-समझ कर कदम रखना जिंदगी में। अगर
व्यर्थ में उलझना होने लगे, तो काटने की फिकर करना। तर्क का
उपयोग करना। तलवार उठा लेना। और अगर कहीं सार्थक की थोड़ी सी भी गंध मिले, तलवार ढाल एक तरफ हटा देना। वहां डुबकी मारना।
परदारा परसंग परस्पर, कहहु कौन
गुन लहिहौ।।
क्या मिल जाएगा, इस बाहर
की दौड़-घूप से, स्त्रियों के पीछे पुरुषों के पीछे, धन के पीछे, पद के पीछे, कौन
सा गुण होगा? क्या लाभ होगा? किसको कब
हुआ है?
मद पी माति मदन तन व्यापेउ, अमृत तति
विष खैहौ।
और जितने ही कामवासना से भरे जाओगे और जितने
ही मतवाले हो जाओगे काम से,
मद पी माति मदन तन व्यापेउ, और जितना ही यह
तृष्णा का जहर, कामना का जहर तुम्हारी देह में, रोएं-रोएं में समा जाएगा, उतना ही मुश्किल होती
जाएगी। अमृत पीने के लिए, अयोग्य होते जाओगे। अब अमृत तजि
विष खैहौ। और अमृत भी मिल सकता था, मगर लोगों ने विष चुन
लिया है।
सच तो यह है, पीने के ढंग की ही बात है,
पीने के अंदाज की बात है, जहर अमृत हो जाता है,
अमृत जहर हो जाता है। यही दुनिया तो तुम्हें मिली है, यही दुनिया बुद्ध को। यही दुनिया तुम्हें मिली, यही
दरिया को। मगर इसी दुनिया में दरिया ने परमात्मा खोज लिया, तुम
कूड़ा-कर्कट बटोरते रहे। इसी दुनिया में बुद्ध ने निर्वाण पा लिया,तुम क्या पा रहे हो? दुनिया वही है, इसी में कोई अमृत पी लेता है, कोई जहर। बस पीने के
अंदाज की बात हैं; पीने की शैली और ढंग की बात है।
समुझहु नहिं वा दिन की बातें, पल-पल घात
लगैहौ।।
और जरा सोचो तो, मौत
प्रतिक्षण करीब आ रही है। हर वक्त उसका तीर तुम्हारे करीब से करीब आता जा रहा है।
वह बिलकुल तुम्हारी घात में बैठी है। किस क्षण उसकी नंगी तलवार तुम्हारी गर्दन को
काट देगी, कुछ पता नहीं। कल होगा भी या नहीं, पता नहीं! और फिर भी तुम व्यर्थ में उलझते हो! मौत भी तुम्हें जगा नहीं
पाती! कैसी होगी गहरी तुम्हारी निद्रा!
चरनकवल बिन सो बूड़ेउ...
और जिसने किसी ऐसे सदगुरु की रोशनी में
आंखें खोलना नहीं सीखा है,
जिसने किसी सदगुरु के चरणों में झुकना नहीं सीखा है, और जिसने किसी सदगुरु के हाथों में अपना हाथ नहीं दे दिया है, वह डूबेगा।
...उभि चुभि थाह न पैहौ।
डुबकिया खाओगे, दुख पाओगे
और थाह भी न मिलेगी इस सरोवर की--इस जीवन-सरोवर की। थाह भी पायी है लोगों ने। जिनने
पायी है, उनके पास बैठो, संग साधो। डरो
मत! डरना स्वाभाविक है। क्योंकि उनके पास बैठने का अर्थ है, एक
तरह की मृत्यु। अहंकार की मृत्यु। और अहंकार मरे तभी तो तुम्हारे भीतर आत्मा का
उजियारा प्रकट हो सकता है। अहंकार टूटे तो आत्मा जन्मे।
तुम पर मिटे तो जिंदए-जावेद हो गए।
हमको बका नसीब हुई है, फना के
बाद।।
जो भी मिटना सीख गया है सत्य के राह में, परमात्मा
की राह में...
तुम पर मिटे तो जिंदए-जावेद हो गए...
उसने अमृत जीवन पा लिया।
हमको बका नसीब हुई है, फना के
बाद।।
यही रजा है। मिटने के बाद होना मिलता है।
फना के बाद बका। जिसने अपने को शून्य कर लिया, उसमें पूर्ण उतर आता है।
तुम पर मिटे तो जिंदए-जावेद हो गए।
हमको बका नसीब हुई है, फना के
बाद।।
और मिटना भी कुछ ऐसा-वैसा नहीं, थोड़ा बहुत
नहीं, आंशिक नहीं, समग्र। कुछ भी न बचे,
तो ही सत्संग।
सुबह तक वह भी न छोड़े तूने ऐ बादे-शबा
यादगारे-रौनके-महफिल थी परवाने की खाक
परवाना तो मिट ही जाता है, लेकिन
सुबह होते-होते उसकी राख भी हवा उड़ा ले जाता है, वह भी नहीं
बचती।
सुबह तक वह भी न छोड़ी तूने ऐ बादे-शबा
यादगार-रौनके-महफिल थी परवाने की खाक
कम से कम परवाने की खाक तो रह जाने देती। एक
याद दास्त रहती। मगर नहीं,
सुबह होते-होते हवा उसे भी उड़ा ले जाती है। परवाना तो रात ही जल
जाता है, सुबह होते-होते उसकी राख भी उड़ जाती है। और तभी,
उस अपूर्व क्षण में, जब तुम नहीं हो, परमात्मा का पदार्पण होता है, अवतरण होता है।
कहै दरिया सतनाम भजन बिनु, रोइ रोइ
जनम गंवैहौ।
कर लो याद। कर लोग आयोजन मिटने का। वही
आयोजन भजन है। भजन का अर्थ है, जिसमें तुम डूबो और मिटो। भजन का अर्थ है,
जिसमें तुम न बचो।
कहै दरिया सतनाम भजन बिनु, रोइ-रोइ
जनम गंवैहौ।
विहंगम, कौन दिसा उड़ि जैहौ। थोड़ा सोच लो।
क्षणभर रुककर पुनर्विचार कर लो।
बुधजन, चलहु अगम पथ भारी।
ऐ सोचने-समझने वाले लोगो, बुधजन,
चलहु अगम पथ भारी, अगर सच में ही तुम सोचते-
समझने वाले हो, अगर बुद्धिमान हो, तो
आओ, अगम्य के इस पथ पर चलें! खोजें इस अनंत को! पाएं इस
अज्ञात और अज्ञेय को! चलें इस महायात्रा पर, तीर्थयात्रा पर!
हजूम-गम ने सिखाने की लाख की कोशिश...
हमें तो आह भी करना न उम्र भर आया।
लहद में शाना हिलाकर यह मौत कहानी है--
ले अब तो चौंक मुसाफिर कि अपने घर आया।
सबक तो मकतबे-उल्हत में सबका था यकसां।
किसी को शुक्र, किसी को
फकत गिला आया।।
शराब दे कि न दे तुझ पै मैं फिदा साकी!
मुझे तो बात में तरी बड़ा मजा आया।।
सबूके आते ही अल्लाह रे खुशी ऐ मस्त!
इमाम आए, रसूल आ गए, खुदा
आया।।
यह दुनिया एक ही है, सिर्फ
बुद्धिमत्ता की बात है। थोड़ी बुद्धि की क्षमता जन्माओ। और बुद्धिमत्ता से मेरा
अर्थ बौद्धिकता नहीं है। बुद्धिमत्ता से मेरा अर्थ है--विवेक, प्रज्ञा। बौद्धिकता का अर्थ होता है, पढ़ो खूब
शास्त्र और किताबें और खूब इकट्ठा कर लो सूचनाएं--तो बौद्धिकता, इंटेलेक्चुऍ?लिटी। और जीवन को परखो, जीवन को समझो--तर्क से नहीं, शास्त्र से नहीं
साक्षात से, जीवन के अनुभव से--तो एक और ही बात पैदा होती
है: बुद्धिमत्ता, इंटलिजेन्स।
इंटेलीजेन्स और इंटेलिक्ट में बड़ा फर्क है।
बुद्धिमत्ता और बौद्धिकता में बड़ा फर्क है। बौद्धिकता के हृदय का कोई हाथ ही नहीं
होता। और बुद्धिमत्ता में हृदय ही आधार होता है। बुद्धिमत्ता में बुद्धि हृदय की
सेवा करती है,
बुद्धि हृदय के काम आती। और बौद्धिकता में हृदय को तो फांसी लगा दी
जाती है जिसे गुलाम होना था--बुद्धि--वह मालिक होकर बैठ जाती है। बुद्धि मालिक की
तरह खतरनाक है, सेवा की तरह बड़ी उपयोगी है। बुद्धिमत्ता में
बुद्धि सेवक होती है, बौद्धिकता में बुद्धि मालिक होती है।
हजमे-गम ने सिखाने की लाख की कोशिश
हमें तो आह भी करना न उम्र भर आया।
और जिंदगी तो बहुत कोशिश कर रही है सिखाने
की। इतने दुख हैं,
लेकिन फिर भी तुम्हें आह भरना नहीं आ सका! जिंदगी सिखाती है और तुम
सीखते नहीं। अगर ठीक से आह भरो तो उसी से प्रार्थना पैदा हो जाए। अगर जिंदगी के
दुख ठीक से देख लो, उसी से परमात्मा की प्यास पैदा हो जाए।
हुजूमे-गम ने सिखाने की लाख की कोशिश
हमें तो आह भी करना न उम्र भर आया।
लहद में शाना हिलाकर यह मौत कहती है--
ले अब तो चौंक मुसाफिर कि अपने घर आया।
मगर मौत भी आ जाती है भी कुछ हैं कि नहीं
जागते, नहीं जागते!
एक आदमी मर रहा था--रहा होगा शुद्ध
मारवाडी--पत्नी बैठी है,
आखिरी घड़ी है, मारवाड़ी ने पूछा कि चुन्नू की
मां, चुन्नू कहां है? सोचा चून्नु की
मां ने कि बेटे की याद आ रही है। बड़े बेटे का नाम चुन्नू। रहा होगा चुन्नीलाल
सेठिया इत्यादि, चुन्नू घर का नाम। कहा--घबड़ाएं न, चिंता न करें, चुन्नू आपके पास बैठा है, उस तरफ बिस्तर के। और मुन्नू कहा है? कहा कि मुन्नू
भी बैठा हुआ है, आप चिंता न करें और छुन्नू कहां है? और पत्नी ने कहा, आप बिलकुल आरा करें--वह उठने की
चेष्टा करने लगा बूढ़ा! तो उसने कहा, सब यहीं हैं तो दुकान
कौन चला रहा है? मरने के वक्त! और यह कह के ही गिरा और मर
गया।
यह कोई प्रेम के कारण नहीं पूछ रहा था कि
चुन्नू कहां है,
मुन्नू कहां है, छुन्नू कहां है, इससे प्रेम का कोई लेना-देना नहीं, दुकान चल रही है
कि नहीं? दुकान कौन देख रहा है? तो
नालायकों, दुकान क्या नौकरों के ऊपर ही छोड़कर आ गए हो?
इधर जिंदगी खतम हुई जा रही है, उधर अभी
दुकान चलाने के खयाल उठ रहे हैं। नहीं, बहुत कम हैं जिनको
मौत में भी याद आती है।
लहद में शाना हिलाकर यह मौत कहती है--
ले अब तो चौंक मुसाफिर कि अपने घर आया।
मगर कहां? न जिंदगी चौंकाती है
तुम्हें, न मौत चौंकाती है, तुम्हारी
नींद बड़ी गहरी है। तुम तो अगर सत्संग करो तो शायद जगो!
तीन ही उपाय हैं इस जिंदगी में जागने के। एक
तो जिंदगी उपाय है,
सबसे कारगर उपाय है। मगर हम तो जिंदगी बहुत बार जी लिए तो हम आदी हो
गए हैं। जिंदगी शोरगुल मचाती रहती है, हम सुनते ही नहीं।
हमारी हालत वैसी है जैसे जो आदमी रेलवे-स्टेशन पर काम करता है, उसे रेलो की आवाज सुनाई नहीं पड़ती, वह वहीं मजे से
सो जाता है।
मेरे एक मित्र है, उनका काम
ही, एजेंट हैं किसी कंपनी के तो सफर ही करना उनका काम है,
वह घर नहीं सो पाते। वह कहते हैं, जब तक मैं
ट्रेन में न होऊं, नींद नहीं आती है। जब तक खटर-पटर न हो
ट्रेन की, तब तक उन्हें नींद नहीं आती। वह जब किसी गांव में
भी जाते हैं तो होटल में नहीं ठहरते, स्टेशन पर ही ठहरते
हैं। उनको उतना उपद्रव चाहिए ही। जिंदगी हो गयी है सफर करते-करते, वह अब आदत का हिस्सा हो गया है। ऐसे ही तुम अनेक-अनेक बार जी लिए हो,
इसलिए जिंदगी चूक जाती है। तुम आदमी हो गए हो। और अनेक बार तुम मर
भी चुके हो--दूसरा उपाय है मौत, कि मौत तुम्हें जगा दे,
मगर अनंत बार तुम मर चुके हो, मौत के भी तुम
आदी हो गए हो। अब तो बस तीसरा एक ही उपाय बचता है--सदगुरु। सदगुरु के पास तुम कभी
नहीं गए हो, क्योंकि गए होते तो तुम होते नहीं। जन्मे भी
बहुत बार, मरे भी बहुत बार, सिर्फ
सदगुरु से बचते रहे हो। तो अब एक ही उपाय बचा है कि तुम किसी सदगुरु की शरण गह लो।
बुधजन, चलहु अगम पथ भारी।
सदगुरु की शरण गह लो तो बस अब आ जाए।
सबूके आते ही अल्लाह रे खुशी ऐ मस्त!
इमाम आए, रसूल आ गए, खुदा
आया।।
सब आ जाए।
तुमते कहौं समुझ जो आवै, अबरि के
बार सम्हारी।।
कितनी बार तो चूक गए, दरिया
कहते हैं, इस बार न चुको। अब की बार न चूको। अबरि के बार
सम्हारी। सब तो सम्हाल जाओ। तुमते कहौं समुझ जो आवै, सुन लो,
समझ लो, तुमसे कहता हूं बार-बार, अबरि के बार सम्हारी। कितना तो चूके हो, इस बार
चौंको, मत चूको! इस बार चुनौती लो, जाओ!
दरिया तुमसे जो कहते, वही मैं तुमसे कहता--अबरि के बार
सम्हारी।
कांट कूस पाहन नहिंह तहवां, उस यात्रा
पर चलना है जहां न घास-पात है, कुश इत्यादि नहीं जिसको पड
में, हवन में काम लाया जाता है, पूजा-पाठ
में काम लाया जाता है। कांट कूट पाहन नहिं तहवां...वहां कोई पत्थर की मूर्तियां
नहीं--पत्थर ही वहां नहीं--उस मंजिल पर चलना है...नाहिं बिटप बन झारी। न वहां झाड़
हैं, न पीपल देवता है, और न और तरह की
झाड़ियां हैं जिनको पूजा चले, तुलसी इत्यादि।
वेद कितेब पंडित नहिं तहवा, न वहां
वेद हैं, न कितेब--न कुरान--न कोई और किताबें हैं वहां।
पंडित नहहिं तहवां, और वहां तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित
नहीं हैं, शब्दों के जाल नहीं, सिद्धांतों
के जाल हनीं। बिनु मसि अंक संवारी। वहां तो कुछ लिखा है जरूर, लेकिन वह स्याही से लिखा हुआ नहीं है। वहां जरूर कोई उच्चार हो रहा है,
लेकिन वह उच्चार शब्द का नहीं है, शून्य का
है। वहां जरूर कोई नाद है, कोई संगीत है, मगर वह वीणा पर पैदा किया गया संगीत नहीं है, आहत
नाद नहीं है, वहां ओंकार गूंज रहा है।
नहिं तहं सरिता समुंद न गंगा, न वहां
सागर है, न कोई सरिता है, न कोई गंगा
है। ग्यान के गमि उजियारी, वहां तो बस ज्ञान का उजियाला
है--उजियाला ही उजियाला, उजियाले का सागर, उजियालग की सरिता, उजियाले की गंगा।
नहिं तहं गनपति फनपति बरह्मा, न तो वहां
गणपति हैं--गणेश ही--न फनपति--न शेषनाग--न बरह्मा, वहां
ब्रह्माभी नहीं हैं। नहिं तहं सृष्टि संवारी। वहां न कोई स्रष्टा है, न कोई सृष्टि है। वहां तो सब शांत है और सब शून्य है और सब मौन है। वहां
तो बस उजियाला है। प्रकाश स्वरूप है परमात्मा। वहां तो वह है जो सृष्टि के पहले था
और सृष्टि के बाद भी होगा। वहां कोई सपना नहीं है।
सर्ग पताल मृतलोक के बाहर, न तो वहां
स्वर्ग है, न नर्क, न मुत्यृलोक। वह
तीनों के बाहर है। तहवां पुरुष भुवारी। और वही असली मालकियत है। वहीं तुम सम्राट
हो जाओगे। वहीं तुम भूपाल हो जाओगे--भुवारी। वहीं तुम स्वामी बनोगे। उसके पहले
भिखमंगे ही रहोगे। नर्क मग तो, स्वर्ग में रहो तो, पृथ्वी पर रहो तो, सब जगह भिखारी रहोगे।
तुम देखते हो न, पृथ्वी पर
तो हम जानते ही हैं कि सब भिखारी ही भिखारी हैं। मां रहे हैं, यह मिल जाए, हम मिल जाए, यह
मिल जो। जो मांगता है, वह मांगना। वासना भिखमंगापन है। और
नर्क तो तुम सोच ही सकते हो, हालत और खराब होगी! पहले तो थी,
अब का कुछ कहा नहीं जा सकता! अब हालत यह है कि यहीं हालत इतनी खराब
है कि कौन जाने नर्क में शायद थोड़ी ठीक भी हो।
मैंने सुना है एक राजनेता दिल्ली में मेरे।
राजनेता थे, बड़े राजनेता थे। राजघाट में उनकी समाधि बनायी गई थी। तो स्वर्ग तो उनकी
जाना निश्चित ही था। जो यहां जमा लेते हैं सांठ-सांठ, वे
कहां भी जमा लेते हैं। जिनको सांठ-सांठ जमाना जाता है, वे
कोई फिकर करते हैं यहां की, वहां की, वे
सब जगह जमा लेते हैं। स्वर्ग जाना निश्चित ही थी। वे पहले ही स्वर्ग जाने की टिकिट
लेकर ही चले थे। मगर पहला पड़ाव उन्होंने नर्क में किया। शैतान बड़ा हैरान हुआ।
शैतान ने कहा, नेताजी, आप के पास तो
सीधी टिकिट स्वर्ग की है--कैसे आपने पाई, मैं पूछता भी नहीं;
लेकिन टिकिट स्वर्ग की है, आप यहां क्यों
रुकते हैं? लेकिन नेताजी ने कहा, ऐसा
है, स्वर्ग जाने के पहले थोड़ी सी शांति और आनंद का अभ्यास तो
कर लूं। थोड़ा स्वर्ग जाने के योग्य तो हो जाऊं। इसलिए नर्क में टिकता हूं। शैतान
बहुत हैरान हुआ, उसने कहा, आप कह क्या
रहे हैं? उन्होंने कहा, हां, दिल्ली से यहां ज्यादा शांति है। दिल्ली तो बड़ी मुश्किल थी! एक क्षण चैन,
ध्यान करना कहां संभव! कोई अचकन खींच रहा है, कोई
चूड़ीदार पजामा खींच रहा है, कोई नाफा ही ले भागा! ध्यान करना,
बैठने की सुविधा कहां! दिल्ली में और ध्यान! इसलिए नर्क में थोड़ा
विश्राम करेंगे, ध्यान करेंगे, थोड़े
सुख का अनुभव लेंगे, फिर दूसरा पड़ाव स्वर्ग। एकदम से ज्यादा
सुख भी शायद सहा जाए, न सहा जाए; उतनी
शांति शायद भाए, न भाई; इसलिए थोड़ी देर
यहां रुक जाने दो।
पहले तो ऐसा था कि नर्क की हालत खराब थी, अब की मैं
नहीं कह सकता। अब तो हालत पृथ्वी पर और भी बुरी है। पृथ्वी तो भिखमंगे हैं,
नर्क में भी भिखमंगे हैं, स्वाभाविक। क्योंकि
जहां दुख है, वहां भिखमंगापन है। लेकिन स्वर्ग में भी
भिखमंगे हैं। तुम अपने पुराणों को उठाकर देखो, तुमको पता चल
जाएगा। स्वर्ग में भी बड़ा भिखमंगापन है। वहां भी बड़ी दौड़ है। कहानियां हैं पुराणों
में, वे कहानियां अर्थपूर्ण हैं। कि स्वर्ग के देवता भी जमीन
पर आ जाते हैं। किसी ऋषि की स्त्री के साथ व्यभिचार कर जाते हैं। स्वर्ग के देवता!
यह तो हद हो गयी भिखमंगेपन की। ऊब जाते होंगे अप्सराओं से, तो
थोड़ा स्वाद बदलने को--आ जाते होंगे पृथ्वी पर! ऊब गए उर्वशी इत्यादि से, तो उन्होंने कहा, चलो जरा हेमामालिनी को मिल आएं! ये
तुम्हारे देवी-देवता? देवियों की भी यही हालत है, कुछ देवताओं से बेहतर नहीं है, क्योंकि वहां समानता
है। वहां देवी-देवता सब बराबर हैं। ऐसा नहीं है जमीन जैसा कि देवता तो कुछ भी करें
लोग कहते हैं, भाई, वे तो पुरुष हैं।
स्त्रियां कुछ करें तो अड़चन आती है। जब शादी होती है तो लड़की का क्वांरापन पक्का
करने की हम चेष्टा करते हैं, लड़के के क्वांरेपन की कोई फिकर
नहीं करता। लड़के तो लड़के हैं! और लड़की लड़की नहीं है? लड़की भी
लड़की है। मगर यहां भेद हैं। यहां पुरुषों ने स्त्री को खूब दबा रखा है। लेकिन
स्वर्ग में कोई भेद नहीं है। तो देवियां भी आ जाती हैं। इंद्र ही नहीं ऊब जाते
उर्वशी से; उर्वशी भी इंद्र से ऊब जाती है। तो कथाएं हैं कि
उर्वशी ऊब गयी एक बार बहुत, तो चली आयी पृथ्वी पर, पुरुरवा के साथ रही। थक गयी देवताओं को भोगते-भोगते! मनुष्यों को भोगने की
आकांक्षा जगी।
यह तो भिखमंगापन ही है। इसमें कुछ भेद नहीं
है। जरा भी भेद नहीं है। यह इसी पृथ्वी का ही विस्तार मालूम होता है। इसी का
इक्सटेंशन। थोड़ा इससे बेहतर होगा। जैसे लोग जिनके पास सुविधा होती है, बीच बाजार
में नहीं रहते, सबअर्ब
में रहते हैं। ऐसे स्वर्ग इसीका सबअर्ब समझो। कि जरा सुविधा है वहां,
थोड़ा बगीचा लगा सकते हो। अगर यही भय और यही परेशानियां वहां हैं।
जरा ही कोई ऋषि मुनि ध्यान ज्यादा कर लेता है कि इंद्र का इंद्रासन डोलने लगता है।
यह तो खूब राजनीति हुई! और इंद्र घबड़ा जाता है। तत्क्षण भेज देता है सुंदर रमणियों
को कि सताओ ऋषि को। यह ऋषि महाराज ज्यादा आगे बढ़े जा रहे हैं। क्योंकि अगर इतने
ज्यादा पुण्य कर लिया, तो यह इंद्र हो जाएंगे। फिर मेरी
गद्दी का क्या होगा?
इसमें तो कुछ बहुत फर्क न हुआ। यह तो बात
कही की कही रही जो दिल्ली की थी। देखते, अभी चरणसिंह ने किसान-रैली कर ली।
मतलब मोरारजी का आसन डगमगाने लगा। अब वह घबड़ाए, कि अब जल्दी
चरणसिंह को पावस मंत्रिमंडल में लो, अब कुछ न कुछ करो! ये
ऋषि-मुनि आगे बढ़े जा रहे हैं! इंद्र भी घबड़ाता है। पुराणों में कथाएं भरी पड़ी हैं,
इंद्र घबड़ा जाता है। जरा ही किसी ऋषि-मुनि ने त्याग किया, उपवास किया--अब ये गरीब ऋषि-मुनि, यह सिर्फ भूखे
बैठे ध्यान कर रहे हैं आंख बंद किए, इनसे क्यों परेशान होते
हो? और अगर स्वर्ग में भी यह चिंता बनी हुई है तो क्या खाक
स्वर्ग है!
इसलिए जिन्होंने जाना है, उन्होंने स्वर्ग
की आकांक्षा नहीं की। हमारे पास, सारी पृथ्वी की भाषाओं में
सिर्फ हमारे पास शब्द है--मोक्ष। दुनिया की किसी भाषा में मोक्ष शब्द का कोई
पर्यायवाची शब्द नहीं है। दुनिया में जितने धर्म भारत के अतिरिक्त पैदा
हुए--ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी--उनके पास
स्वर्ग और नर्क बस दो ही शब्द हैं, मोक्ष जैसा कोई शब्द नहीं
है। मोक्ष की धारणा बड़ी अदभुत धारणा है। नर्क है दुख ही दुख, स्वर्ग है सुख ही सुख। मगर हमने यह अनुभव किया कि सुख और दुख अलग-अलग नहीं
होते, यह एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसलिए स्वर्ग और नर्क
बहुत दूर नहीं हो सकते, पड़ोस में ही होगे। बीच में झीनी सी
दीवार होगी। क्योंकि जहां सुख है वहां दुख होना ही चाहिए। नहीं तो सुख पता ही न
चलेगा। और जहां दुख है वहां सुख होना ही चाहिए। नहीं तो दुख का पता न चलेगा। तो
नर्क में भी समझो कि सुख है--एक प्रतिशत होगा, निन्नयानबे
प्रतिशत दुख होगा और स्वर्ग में भी दुख है--एक प्रतिशत होगा और निन्नयानबे प्रतिशत
सुख होगा--मगर दोनों साथ ही हो सकते हैं। ये सीधा सा मनोविज्ञान है।
इसलिए हमने एक तीसरी अवस्था की तलाश
की--मोक्ष। मोक्ष का अर्थ है, न जहां दुख है, न जहां
सुख है। फिर वहां क्या होगा? वहां परम शांति होगी, शून्यता होगी, सन्नाटा होगा। उस सन्नाटे को ही हमने
ब्रह्म कहा है, उस सन्नाटे को ही हमने सत्य कहा है--सत्यम
शिवम सुंदरम। उसे ही हमने सच्चिदानंद कहा है।
सर्ग पताल मृतलोक के बाहर, तहवां
पुरुष भुवारी।
और वहीं पहुंचकर, मोक्ष में
पहुंचकर ही तुम मालिक होओगे, उसके पहले मालिक नहीं हो सकते।
कहै दरिया तहं दरसन सत है...
और जब ऐसी अवस्था आ जाए जहां न दुख, न सुख,
और परम शाति है--शांति ही शांति है--तब जाननाः
कहै दरिया तहं दरसन सत है...
वहां जो दिखाई पड़े, वही सत्य
है।
...संतन लेहु विचारी।।
अगर विचारना ही हो कुछ, तो इस बात
विचारों, संतों! हे बुधजन, चलहु अगम पथ
भारी। अगर देखने योग्य कुछ है, तो बस सत्य है।
यही है धुन कि तेरी जलवागाह में जाकर।
हजार आंखें हों, और सबसे
यार को देखे।।
आंखें ही आंखें रह जाएं, और चारों
तरफ फैला हुआ प्रकाश, वही प्रीतम है, वही
यार है। उसकी ही तलाश चल रही है। परमात्मा मोक्ष है, मुक्ति
है; परमात्मा परम स्वतंत्रता है।
सोचना हो कुछ, तो ऐसी बात सोचना; भावना हो कुछ, तो ऐसी बात भावना ध्यान में लाने
योग्य कुछ लगे, तो बस यही है, इसका
ध्यान करना, धारणा करना तो शायद यह जीवन व्यर्थ न जाए जैसे और
जीवन व्यर्थ गए हैं।
अबरि के बार सम्हारी--तुमते कहौं समुझ जो
आवै--
बुधजन, चलहु अगम पथ भारी।
आज इतना ही।
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