मिटो: देखो: जानो—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक 28 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना
प्रश्नसार :
1—भगवान, क्या
संतोष रखकर जीना ठीक नहीं है?
2—भगवान, इटली के
नए वामपक्ष (न्यू लेफ्ट) के अधिकांश नौजवान आपसे संबंधित होते जा रहे हैं। आप क्या
इसे वामपक्ष विकास मानेंगे या अपने प्रयोग के सही बोध की विकृति?
3—नीति और धर्म में क्या
भेद है?
4—भगवान, भक्त की
चरम अवस्था के संबंध में कुछ कहें!
पहला प्रश्न:
भगवान, क्या
संतोष रखकर जीना ठीक नहीं है?
देवदास, संतोष और
संतोष में बड़ा भेद है। एक तो है संतोष मरे हुए आदमी का, पराजित
आदमी का, हारे हुए आदमी का। वह संतोष मालूम होता है लेकिन
संतोष है नहीं। भीतर तो लपटें हैं असंतोष की, लेकिन बाहर से
टीम-टाम किया, समझा लिया अपने को; जीत
तो सके नहीं, हार को भी सहना कठिन मालूम होता है, तो हार को लीप-पोत लिया संतोष की भांति।
ईसप की पुरानी कहानी है कि एक लोमड़ी छलांग
लगता है--बहुत छलांग लगाती है--अंगूर के गूच्छों को पाने के लिए; फिर नहीं
पहुंच पाती, बहुत छोटी पड़ जाती है; हारी-थकी,
उदास चित्त वापस लौटती है; पर कम से कम एक
आश्वासन है कि किसी ने उसकी हार देखी नहीं; लेकिन तभी खरगोश
पास की झाड़ी में छिपा बाहर आता है और कहता है, चाची, क्या हुआ? अंगूरों तक पहुंच न सकी? लोमड़ी ने कहा कि नहीं, पहुंच क्यों न सकूं, मेरी पहुंच के बाहर क्या है, चांदत्तारे तोड़ लाऊं,
लेकिन अंगूर खट्टे थे पहुंचने योग्य ही न थे।
एक तो यह संतोष है--जिन अंगूरों तक न पहुंच
पाओ, उन्हीं खट्टा मान लेना। खट्टे मान लेने से कम से कम अहंकार को थोड़ी रक्षा
मिल जाएगी। पहुंचने योग्य ही थे, तो पहुंच कर करते भी क्या?
मैं इसे संतोष नहीं कहता। और तुम्हारे
तथाकथित धर्मगुरुओं ने इसी को संतोष कहा है। यह संतोष का धोखा है, यह मिथ्या
आत्मवंचना है, इससे सावधान रहना!
क्योंकि जो इस तरह के संतोष से घिर गया, उसे संतोष
की परम अनुभूति कभी भी न हो सकेगी। जो झूठे फूलों से राजी हो जाता है, उसकी बगिया में असली फूल नहीं खिलते हैं। फिर तुम समझाने की कितनी ही
चेष्टाएं करो! समझाने में तुम बड़ी कुशलता भी दिखला हो, बड़ी
तर्क युक्तता, बड़ी चतुराई।
मुझसे अब मेरी मोहब्बत के फसाने न कहो
मुझको कहने दो कि मैंने उन्हें चाहा ही नहीं
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गई
मैंने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं
मुझको कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूं
इश्क नाकाम सही जिंदगी नाकाम नहीं
उन्हें अपनाने की ख्वाहिश उन्हें पाने की
तलब
शौके-बेकार सही, सइ-ए-गम
अंजाम नहीं
वही गेसू, वही नजरें, वही आरज वही जिस्म
मैं जो चाहूं तो मुझे और भी मिल सकते हैं
वो कंवल, जिनको कभी उनके लिए लिखना था
उनकी नजरों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं
समझा लो, सांत्वना दे लो--
वो कंवल जिनको कभी उनके लिए खिलना था
उनकी नजरों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं
फिर खिलते क्यों नहीं? फिर रो
क्यों रहे हो? फिर यह लौट-लौटकर पीछे देखना क्या? फिर यह पश्चात्ताप क्यों?
वही गेसू, वही नजरें, वही आरज, वही जिस्म
मैं जो चाहूं तो मुझे और भी मिल सकते हैं
चाहने से तुम्हें रोकता कौन है? चाहो,
पा लो! पर नहीं, यह सब तो मन को सांत्वना देने
के उपाय हैं।
इस संतोष के मैं विरोध में हूं।
हां, जरूर एक और भी संतोष है। वह संतोष
हारी हुई आकांक्षाओं का संतोष नहीं, समझी गयी आकांक्षाओं का
संतोष है। जब तुम किसी आकांक्षा को ठीक-ठीक समझ लेते हो, जब
तुम देख लेते हो उसकी गहराई में और पाते हो कि उसके पूरे होने में भी कुछ पूरा
नहीं होगा, पूरी हो जाए तो भी तुम अधूरे रहोगे, मिल जाए यह संपदा तो भी तुम्हारी विपदा कम न होगी, और
मिल जाए यह प्यारा तो भी तुम्हारी प्रीति की अभीप्सा पूरी न होगी, जब तुम्हारी दृष्टि ऐसी निखार पर होती है, तुम्हारा
अंतर्बोध इतना स्पष्ट होता है, जब तुम्हारे चैतन्य के दर्पण
में चीजें साफ-साफ जैसी है वैसी परिलक्षित होती हैं, तब एक
और संतोष पैदा होता है। वह संतोष सांत्वना नहीं है, सत्य का
साक्षात्कार है। जैसे कोई देख ले कि मैं रेते को निचोड़ कर तेल निकालने की कोशिश कर
रहा था।
एक संतोष है कि निचुड़ा नहीं तेल, तो तुम यह
कहने लगे कि मुझे तेल की जरूरत न थी, इसलिए मैंने श्रम छोड़
दिया। और एक संतोष है कि तुमने गौर से देखा, पहचाना, परखा, साक्षी बने और पाया कि रेत में तेल होता ही
नहीं, तुम लाख करो उपाय तो भी रेत से तेल निचुड़ेगा नहीं,
ऐसी प्रतीति में, ऐसे साक्षात्कार में एक
संतोष की वर्षा हो जाती है।
पहले संतोष में अभीप्सा का दमन है, दूसरे
संतोष में अभीप्सा का विसर्जन है। दूसरे संतोष को साधना नहीं होता, समझना होता है। पहले संतोष को साधना होता है। पहले संतोष से आदमी साधु बन
जाता है, दूसरे संतोष से आदमी प्रबुद्ध हो जाता है। साधु
होने से बचना, बुद्ध होने से कम पर मत रुकना--वही तुम्हारी
परम क्षमता है।
सत्य की छाया की तरह संतोष आना चाहिए।
पिटे-कुटे, कपड़े झाड़-झूड़कर किसी तरह अपने को मना लेना, समझा
लेना, ऐसे नपुंसक, ऐसे लचर संतोष से
सावधान रहना! इसी लचर संतोष ने इस देश के प्राणों को विषाक्त किया है। इसी लचर
संतोष ने सारी दुनिया के तथाकथित धार्मिकों को एक थोथे धर्म में आबद्ध कर दिया है।
न उनकी आंखों में रस है, न उनके प्राणों में गीत है, न उनके पैरों में नृत्य है--यह कैसा संतोष! यह संतोष गाता नहीं, यह संतोष नाचता नहीं, इस संतोष से फूल झरते नहीं--यह
कैसा संतोष! वसंत आ गया और एक भी फूल नहीं खिलता, यह कैसा
वसंत! वसंत आए तो प्रतीक भी तो हों, प्रमाण भी तो हों। हां,
कोई वीणा बजे, कोई घूंघर नाचें, कोई मीरा उठा ले अपना इकतारा और हो जाए मगन, तो
संतोष। मैं नाचते हुए संतोष का पक्षपाती हूं। मुर्दों की तरह, गोबर-गणेशों की तरह बैठ गए लोगों को मैं संतुष्ट नहीं मानता। सिर्फ
हारे-थके लोग हैं, सिर्फ डरे हुए लोग हैं और इतना भी उनमें
साहस नहीं है, इतनी भी हिम्मत नहीं है कि कह देते कि मैं हार
गया, कि मैं कभी हार नहीं सकता। जी तो सुनिश्चित थी, मगर मैंने बीच से ही अपने पैर मोड़ लिए, जाने योग्य
ही न माना मंजिल को।
जब तुम्हारे जीवन में साफ-साफ दिखायी पड़ने
लगे कि यहां हर कामना,
हर वासना, हर आकांक्षा पराजित होने को आबुद्ध
है--क्योंकि हर कामना असंभव की कामना है--तब उस बोध की झलक, उस
बोध का सरगम तुम्हारे भीतर बजेगा--उसका नाम संतोष। जब तुम देखोगे कि धन कितना ही
पा लो, कुछ भी नहीं पाया जाता... सिकंदर भी तो खाली हाथ विदा
होता है...खाली हाथ हम आते, खाली हाथ हम विदा होते, फिर यह बीच में थोड़ी देर के लिए हाथ को भर लेना और हाथ को भरने के धोखे
खाने बेमानी हैं, अर्थहीन हैं। जिस दिन तुम्हें दिखायी पड़ेगा
कि कितना ही धन बाहर हो, भीतर की निर्धनता अछूती रह जाती है;
एक बूंद भी भीतर की प्यास को नहीं मिलती--बाहर सागर लहराता है और
भीतर प्यास लहराती है; बाहर जल का सागर, भीतर प्यास का सागर, और दोनों का कोई मिलन नहीं
होता। कितने ही बड़े पदों पर चढ़ जाओ, कितनी ही ऊंची सीढ़ियों
को चढ़ जाओ, लेकिन तुम जैसे हो वैसे के वैसे रहते हो। न कहीं
कोई फूल खिलता, न कहीं कोई दीया जलता, न
कोई रत्नों की खान हाथ आती है। जिस दिन तुम्हारे सारे जीवन के अनुभव एक बात कह
जाते हैं कि यहां मिलने को कुछ भी नहीं है, दौड़ने को बहुत है;
पाने को कुछ भी नहीं, दौड़-दौड़ कर जीवन रिक्त
होता है, मिलता कुछ भी नहीं; जिस दिन
इस बोध में तुम ठिठक जाते हो, बोध से, इस
अनुभव से, इस सघन प्रतीति से तुम्हारे पैर रुक जाते
हैं--नहीं कि तुम रोकते हो, नहीं कि तुम अपने को संभालते हो,
नहीं कि तुम कसमें लेते हो कि अब धन की आकांक्षा न करूंगा, कि धन का त्याग करता हूं--यह तो मूढ़ों के काम हैं। जो कहता है, अब धन की आकांक्षा का त्याग करता हूं, वह यही कह रहा
है कि संसार में कुछ था जिसका मैं त्याग कर रहा हूं। अभी बोध नहीं हुआ। जिसको बोध
होता है, क्या छोड़ना, क्या पकड़ना! जहां
है, जैसा है, ठीक है। न यहां पकड़ने को
कुछ है, न छोड़ने को कुछ है, तब
तुम्हारे भीतर जो शांति की वर्षा होती है--उसका नाम संतोष।
जिंदगी में सिर्फ मैंने की तुम्हारी कामना
और वह भी लालसा ऐसी कि जो पूरी न हो।
विश्व ने मांगी जगत की संपदा
और मैंने स्नेह के दो-चार कण,
सत्य ने मुझको कहा खोटा-खरा
मैं रहा पर जोड़ता टूटे सपने।
जिंदगी में सिर्फ मैंने की तुम्हीं से
याचना।
और वह लालसा ऐसी कि जो पूरी न हो।
तन मिले इतने कि जो संभले नहीं
पर न मांगे भी तुम्हारा मन मिला,
बे-कहे तो बाग सारा हंस दिया
पर जिस चाहा सुमन वह अनखिला।
मैं तुम्हें पाने बहुत से रूप धर क्या-क्या
बना
और वह भी लालसा ऐसी कि जो पूरी न हो।
मैं बहुत कुछ आस्तिक जैसा न था
पर तुम्हारी खोज में मंदिर गया,
कुछ पता शायद बताए इसलिए
मैं नर्क तक के चरण पर गिर गया।
यों तुम्हारे बोल सुनने के लिए क्या-क्या
सुना
और वही भी लालसा ऐसी कि जो पूरी न हो।
यहां कोई लालसा पूरी होती नहीं। न हुई है, न होगी:
लालसा का वह स्वभाव नहीं। इस स्वभाव का बोध जिसे हो जाता है कि मांगों कि भिखमंगे
ही रहोगे, कि खोजो कि कभी नपा सकोगे, कि
दौड़ो कि हार निश्चित है; जिसे यह प्रतीतियां सघन हो जाती हैं,
वह ठहर जाता, रुक जाता, दौड़
गिर जाती; वासना, कामना का जाल अपने-आप
हाथ से छुट जाता है। और उस ठहरे हुए क्षण में, उस विश्राम की
घड़ी में जो न कभी सोचा था, जो न कभी मांगा था, जो न कभी सपना देखा था, वह सब उतर आता है। परमात्मा
आता है। मोक्ष उतर आता है। मोक्ष की छाया है संतोष!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, इटली के
नए वामपक्ष (न्यू लेफ्ट) के अधिकांश नौजवान आपसे संबंधित होते जा रहे हैं। आप क्या
इसे वामपक्ष का विकास मानेंगे, या अपने प्रयोग के सही बोध की
विकृति?
सिल्वानो, एक
महत्वपूर्ण घटना मनुष्य के जीवन में घट रही हैं। वह महत्वपूर्ण घटना है कि सारी
क्रांतियां जो आज तक की गयी हैं, सफल हो गयी हैं। क्रांति
मात्र असफल हो गयी है। और क्रांति के सफल होने की कोई संभावना शेष नहीं रह गयी है।
सब उपाय किए जा चूके, लेकिन क्रांति की मौलिक प्रक्रिया में
कुछ भूल है।
रूप में क्रांति हुई, और क्षणभर
को ऐसा लगा कि सूरज ऊगा कि अब मनुष्य के जगत में फिर अंधेरा न होगा। लेकिन बस
क्षणभर का आभास हुआ। झूठी सुबह थी वह, काम न आयी, जल्दी ही गहन अंधकार हो गया--और इतना गहन अंधकार, जितना
क्रांति के पहले भी न था। रूस और भी बड़ी गुलामी में पड़ गया। जिनसे सत्ता छीनी गयी
थी, वे इतने खतरनाक न थे; जिनके हाथ मग
सत्ता आयी, वे और भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हुए। रूस का जार,
इवान टैरिबल भी स्टेलिन के सामने ना कुछ साबित हुआ। जितने लोग
स्टलिन ने मारे...लाखों, निरीह, निहत्थे,
निर्बल दीन-दरिद्र...जिनके लिए क्रांति हुई थी, वे ही क्रांति के द्वारा काटे गए। और रूस में एक सामंतवाद आया, जो जारशाही से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि जारशाही के खिलाफ क्रांति हो
सकती थी, इस नए सामंतवाद के सामने क्रांति भी नहीं हो सकती।
आज पृथ्वी पर रूस जैसे देश बड़े कारागृह हैं, और कुछ भी नहीं।
क्रांतियां बार-बार असफल होती रही। क्या
कारण था? कारण एक था: जिनसे तुम लड़ोगे, उन जैसे ही हो जाओगे।
यह उसका मूल आधार है क्रांति की असफलता का। तुम जिससे लड़ोगे, लड़ने की सारी की सारी तकनीक, ढांचा उससे ही तो सीखना
पड़ेगा। दोस्ती तो किसी से भी कर लेना, इतना खतरा नहीं है,
दुश्मनी सो-समझकर करना! क्योंकि दुश्मन तुम्हें बदल देगा, तुम दुश्मन जैसे हो जाओगे। अगर दुश्मन बेईमान है, तो
तुम्हें बेईमानी करनी पड़ेगी तो ही जीत सकोगे। अगर दुश्मन हत्यारा है, तो तुम्हें हत्यारा होना पड़ेगा, तभी तुम जीत सकोगे।
नहीं तो दुश्मन से जीतने का कोई भी उपाय नहीं। इसलिए दुश्मन एक जैसे हो जाते हैं।
जोरों से लड़-लड़कर लेनिन और स्टेलिन की क्रांति क्रांति न रही, जोरों के ही सामंतवाद का हिस्सा हो गयी।
और यह तो मैंने उदाहरण के लिए कहा, यही सारी
क्रांतियों में हुआ है।
अभी इस देश में जयप्रकाश नारायण की तथाकथित
थोथी क्रांति हुई। उसको वह दूसरी क्रांति कहते हैं। लेकिन उस क्रांति का परिणाम
क्या है? सत्ता उसी तरह के लोगों के हाथ में चली गयी। सच तो यह है, और भी बदतर लोगों के हाथ में चली गयी। कम से कम क्रांति के पहले सत्ता
युवकों के हाथ में थी। क्रांति के बाद सत्ता मुर्दों के हाथ में चली गयी। जयप्रकाश
ने जरूर बड़ी क्रांति की--जो गड़ गए थे कभी के कब्रों में, उन
सबको उखाड़ लिया। उन सबको शेरवानी इत्यादि पहना कर, अचकन
इत्यादि पहना कर, गांधी टोपी लगा कर उन सबके हाथ में सत्ता
दे दी।
क्रांतियां हारती रहती हैं। कारण? क्रांति
को हारना ही पड़ेगा। इसलिए क्रांति शब्द में मुझे रस नहीं है। मैं एक शब्द तुम्हें
देता हूं: विद्रोह। रिवलूशन, नहीं रिबेलियन।
फर्क क्या है?
क्रांति होती है सामूहिक। और जब भी तुम
सामूहिक क्रांति करते हो,
तुम्हें समूह की मान्यताएं, धारणाएं, अंध विश्वास स्वीकार करने होते हैं। बगावत, विद्रोह,
रिबेलियन होता है व्यक्तिगत, निज का। तुम किसी
से लड़ते नहीं, सिर्फ अपने को बदलते हो। इसलिए दुश्मन तुम्हें
अपने ढांचे में नहीं ढाल सकता।
मेरा संन्यास विद्रोह है, रिबेलियन
है, क्रांति नहीं, रिवलूशन नहीं। मेरा
संन्यासी इस बात की घोषणा है कि समाज गलत है, मैं गलत नहीं
होऊंगा। मैं अपने ढंग से जीऊंगा--फिर कोई भी परिणाम हो। जिंदगी रहे तो ठीक और
जिंदगी जाए तो ठीक, मगर मुझे कोई झुका न सकेगा। यह वैयक्तिक
विद्रोह है। और जिनको भी समझ है दुनिया में उन सभी को इस व्यक्तिगत विद्रोह में
आकर्षण अनुभव होता।
इसलिए सिल्वानो, इटली के
नए वामपक्ष के बहुत से युवा संन्यस्त हुए हैं। इटली में वामपक्ष की क्रांति का जो
जन्मदाता है, वह भी संन्यासी हो गया हैं। इटली में हवा बड़ी
गर्म है। क्योंकि यह किसी को भरोसा ही नहीं आ रहा है कि यह हो क्या रहा है! जिन
लोगों से आशा थी कि बम बनाएंगे, वे ध्यान कर रहे हैं! जिनसे
आशा थी कि हत्याएं करेंगे, वे प्रेम के गीत गा रहे हैं!
जिनसे आशा थी, अपेक्षा थी कि गुरिल्ले हो जाएंगे, उन्होंने गैरिक वस्त्र पहन लिए! वे नाच रहे हैं, गीत
गुनगुना रहे हैं; आकाश तारों के रहस्य में लीन हो रहे हैं?
इसलिए मेरे प्रति नाराजगी भी है। उनके
संगी-साथियों को भरोसा ही नहीं आ रहा है कि यह क्या हुआ! लेकिन यह आग फैलेगी, क्योंकि
इस आग के पीछे ऐतिहासिक आधार हैं। अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गयी हैं,
अब एक ही आशा और बची है कि देखें शायद विद्रोह सफल हो जाए! एक-एक
व्यक्ति अपने ढंग से जीना शुरू कर दे, एक-एक व्यक्ति अपने
भीतर से घृणा के, क्रोध के, वैमनस्य के,र् ईष्या के, जलन के सारे बीजों को दग्ध कर दे--और
यही तो ध्यान की अग्नि में घटित होता है!
इस संसार में इतनी हिंसा क्यों हैं? क्योंकि
इस संसार में अधिक लोगों के प्राण हिंसा से भरे हैं। इस संसार में इतना वैमनस्य,
इतने युद्ध क्यों हैं? क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति लड़ने को मरने-मारने को आतुर है। क्योंकि सदियों-सदियों से हमें जीना तो
सिखाया नहीं गया, मरना सिखाया गया है। लोग कहते हैं: मरो देश
पर; मरो देश के झंडे पर; मरो जाति पर;
मरो धर्म पर ; मरो चर्च पर, मस्जिद पर, मंदिर पर। मगर तुमसे कोई भी नहीं कहता कि
जीओ! कपड़े के टुकड़े, जो झंडे बन जाते हैं, उन पर मरो! जिंदगी जो परमात्मा की भेंट है, उसे आदमी
के चीथड़ों पर बर्बाद करो! देश की सीमाएं, जो विक्षिप्त
राजनीतिज्ञों द्वारा खींची जाती हैं, उन पर मरो! और यह अखंड
पृथ्वी, जो परमात्मा ने बिना किसी सीमा के बनायी है, इस पर जीओ मत। मंदिर और मस्जिद पर मरो, जो कि आदमी
की ईजादें हैं। और परमात्मा ने यह विशाल मंदिर बनाया है--जिसमें
आकाश के दीए जल रहे हैं, जिसमें चांद और सूरज हैं, जिसमें अनंत-अनंत फूलों की बहार है--इसमें जीओ मत!
मेरा संदेश है: मरने की भाषा छोड़ो, मरने की
भाषा रुग्ण है। जीने की भाषा सीखो। जीओ, जी भर के जीओ!
समग्रता से जीओ! पूरे-पूरे जीओ! क्योंकि तुम जितनी गहनता से जिओगे, उतने ही परमात्मा के निकट पहुंच जाओगे। परमात्मा जीवन का ही दूसरा नाम है।
ऐसी लपट हो तुम्हारा जीवन जैसे मशाल को किसी ने दोनों ओर से एक-साथ जलाया हो। चाहे
क्षणभर को जीओ, मगर ऐसी त्वरा हो जीवन में कि वह एक क्षण
अनंतता के बराबर हो जाए।
तुम्हें सिखायी गयी है भाषा मरने की।
राजनीति मरने की भाषा ही सिखानी है। वह कहती है: मरो और मारो। क्रांति भी वही भाषा
बोलती है कि मरो और मारो। मैं विद्रोह सिखा रहा हूं। मैं कहता हूं, न तो मरना
है, न मारना है--जीओ और जीने दो। खुद भी जीओ, औरों के जीने के लिए भी आयोजन दो। यह थोड़े दिन, यह
चार दिन परमात्मा की बड़ी भेंट हैं, इन्हें ऐसे गंवा मत दो!
और अगर यह पृथ्वी जीने के गीत गाने लगे, यह पृथ्वी
अगर जीने की बांसुरी बजाने लगे, तो हो जाएगी, क्रांति जो अब तक नहीं हुई है। और उस क्रांति को कोई विकृत न कर सकेगा,
क्योंकि इस क्रांति को हम किसी की प्रतिक्रिया में नहीं कर रहे हैं।
हम किसी से लड़ नहीं रहे हैं। सिर्फ अपने भीतर के अंधेरे को काट रहे हैं, सिर्फ हम अपने भीतर के पत्थरों को अलग कर रहे हैं, ताकि
बह उठे झरना हमारे भीतर के जीवन का। और झरना बह उठे तो सागर दूर नहीं। झरना,
न बहे, तो सागर के किनारे भी डबरा रहेगा और
झरना बहे, तो दूर हिमालय से भी सागर तक पहुंच जाता है।
सिल्वानो, तुम्हारा प्रश्न सार्थक है।
तुम पूछते हो: भगवान, इटली के नए वामपक्ष (न्यू लेफ्ट) के
अधिसंख्यक नौजवान आपसे संबंधित होते जा रहे है। आप क्या इसे वामपक्ष का विकास
मानेंगे, या अपने प्रयोग के सही बोध की विकृति?
यह वामपक्ष का विकास है, मेरे बोध
की विकृति नहीं। यही तो मेरा बोध है। इसी बोध को तो मैं उकसाना चाहता हूं। इसी बोध
के तो दीए जलाना चाहता हूं सारी पृथ्वी पर। यह विकृति नहीं है। उन्होंने मेरी बात
को ठीक-ठीक समझा है। उन्होंने मेरी बात के सार को पकड़ा है। उन्होंने अपनी आंखें
ठीक दिशा में मोड़ ली हैं। उनके पैर ठीक यात्रा पर चल पड़े हैं। मंजिल दूर नहीं है।
प्रेम का गीत उन्होंने गाना शुरू किया है और ध्यान संगीत जन्माना शुरू किया है। बस
प्रेम और ध्यान के दो पंख हों तुम्हारे पास, तो दुनिया की
ऐसी कोई असंभावना नहीं है जो पूरी न हो सके। असंभव से असंभव परमात्मा भी उपलब्ध हो
जाता है।
नहीं, स्मरण रखना, मेरे
बोध की विकृति नहीं है यह। उन्होंने मुझे गलत नहीं समझा है। उन्होंने मुझे ठीक
समझा है। निश्चित ही उनके संगी-साथियों को यह बात बड़ी बेबूझ लगेगी। उनके
संगी-साथियों ने विरोध भी करना शुरू किया है। मेरे पास पत्र आने शुरू हुए हैं कि
आप हमारे मित्रों को बिगाड़ रहे हैं; जो क्रांति के अगुआ थे,
जिन पर हम आशा रखते थे कि जो इटली की सामाजिक व्यवस्था को बदलेंगे,
उन सबको आप पलायनवाद सिखा रहे हैं। जिनसे हमने बड़ी अपेक्षाएं की थीं
कि जो हमारे झंडों को लेकर संघर्ष करेंगे, प्रतिक्रिया के
गढ़ो को तोड़ेंगे, आपने उन्हें यह क्या समझा दिया? आपने उन्हें सम्मोहित कर लिया है कि अब वे क्रांति की बातें ही नहीं करते।
अब वे गीतों की बातें करते हैं। अब वे काव्य रच रहे हैं। अब वे चित्र बना रहे हैं,
मूर्तियां बना रहे हैं।
मैं उनके मित्रो की कठिनाई भी समझ सकता हूं।
लेकिन उनके मित्रो को कुछ,
पता नहीं है। यही असली क्रांति है। जब कोई गीत रचता है, तो क्रांति घटती है। क्योंकि गीतों में तलवारों से ज्यादा धार है। तलवारें
मारती हैं, गीत जिलाते हैं। तलवारें विध्वंसक हैं, गीत सृजनात्मक हैं।
वे नए मित्र जो थोथी क्रांति को छोड़कर
वास्तविक क्रांति में संलग्न हो गए हैं, उनको समझने में इटली के युवकों को
अड़चन तो आएगी। यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि अब न तो वे दास कैपिटल की बात करते
हैं, न माक्र्स की, न एंजिल्स की,
न लेनिन की, न जाओगेत्तुंग की, न सार्त्र की। वे बात कर रहे हैं एक अजीब आदमी की, जिसका
इटली में अभी कोई अधिक लोगों ने नाम भी न सुना होगा। और यह बात कर रहे हैं कुछ बड़ी
बेबूझ, जो कि पश्चिम की क्रांति का हिस्सा कभी नहीं रही।
उन्हें पता ही नहीं है कि एक क्रांति नाचकर भी होती है और एक क्रांति मूर्ति गढ़कर
भी होती है। पूरब में हम परिचित है ऐसी क्रांतियों से जो क्रांति मीरा ने की,
जो क्रांति चैतन्य ने की, जो क्रांति बुद्ध ने
की, जो कृष्ण ने बांसुरी बजाकर की, उसके
मुकाबले पश्चिम में कोई क्रांति कभी नहीं हुई है। पश्चिम उस अर्थ में अधूरा है।
पश्चिम को पता ही नहीं है।
पश्चिम की हालत तो इतनी शोचनीय है कि जीसस
जैसे व्यक्ति को भी क्रांति के लिए कोड़ा हाथ में उठाना पड़ा। कृष्ण ने बांसुरी
उठायी, जीसस को कोड़ा उठाना पड़ा। जीसस भी चाहते तो यही कि बांसुरी उठाएं, मगर कौन समझता बांसुरी को!
यह मजबूरी है। यह दुखद है।
मगर मेरे पास सारी दुनिया से युवक आ रहे हैं, और यह आग
फैलेगी, और यह चिंगारियां जाएंगी दूर-दूर। इसलिए एक हैरानी
की बात घट रही है। मुझसे प्रतिक्रियावादी विरोधी हैं...मोरारजी देसाई मेरे विरोध
में हो, यह समझ में आता है--दकियानूसी, पुराणपंथी, जिनकी गिनती भी मैं जिंदा लोगों में नहीं
करता--वह मेरे विरोधी हों, ठीक है; नहीं,
कम्युनिस्ट पार्टी भी इस बात के प्रस्ताव करती है कि मुझे भारत में
न रहने दिया जाए। तब थोड़ा चौंकाने वाली बात है! तो कम से कम एक बात में तो
कम्युनिस्ट पार्टी और मोरारजी देसाई राजी होते हैं--मेरे संबंध में; कि मुझे भारत में न रहने दिया जाए। कौन सी बात पर यह सहमति होती होगी?
आर. एस. एस. के बीच कम से कम एक संबंध तो हो ही सकता है--मेरे विरोध
में। मगर यह हैरानी की बात है कि जो किसी संबंध में राजी नहीं होते, वे मेरे संबंध में राजी क्यों हैं?
राजी होने का कारण है।
मैं अतीत का भी विरोधी हूं और भविष्य का भी।
क्योंकि मैं मानता हूं,
जिन्होंने अतीत में सपने मान रखे हैं, हमारे
स्वर्णयुग हो चुका--रामराज्य...मोरारजी देसाई मानते हैं, रामराज्य
हो चुका। अलीगढ़ में लपटें उठ रही थीं, हिंदू-मुसलमान
एक-दूसरे को काट रहे थे--और मोरारजी भाई देसाई क्या कर रहे थे? इस देश का प्रधानमंत्री क्या कर रहा था? वह अहमदाबाद
में बैठकर रामायण की कथा कर रहे थे। प्रधानमंत्रियों को इसलिए चुना जाता है?
तुमने नीरो, की कहानी सुनी है, कि जब रोम जल रहा था, तो नीरो बांसुरी बजा रहा था,
इसमें और मोरारजी भाई के व्यवहार में क्या फर्क है? रोम जल रहा है, मोरारजी भाई रामायण की कथा पढ़ रहे
हैं! पिटी-पिटायी कथा! जिसमें अब कुछ कहने को बचा भी नहीं! दस दिन तक अली गढ़ की
लपटों में झुलसता रहा, मोरारजी देसाई दिल्ली में भी नहीं थे!
दिल्ली में किसी को रहने की फुर्सत कहां है! सब भागे रहते हैं। दिल्ली में कैसे
काम चलता है, यह भी हैरानी की बात है! काम चलता ही नहीं।
फाइलें इकट्ठी होती चली जाती है, क्योंकि सब नेतागण दौरों पर
होते हैं। सबको फिकर आगे के चुनाव की। मोरारजी देसाई राम की कथा पढ़ रहे हैं;
उनको खयाल है कि राम के जाने में स्वर्ण युग घट चुका है।
कैसा स्वर्णयुग था यह राम के जमाने में जो
घटा? शंबूक नाम के शूद्र ने चूंकि वेद पढ़ने की कोशिश की थी या सुनने की कोशिश
की थी, तो राम ने अपने हाथों से उसके कानों में सीसा पिघलवा
कर भरवा दिया था। यह कैसा रामराज्य था? और अगर यह रामराज्य
था तो फिर बिहार में शूद्रों को लूटा जाना, जलाया जाना,
उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार, उनके बच्चों
की हत्या, उनको भून देना आग में--यह सब रामराज्य है। इसके
पीछे राम की गवाही है। यह कैसा रामराज्य था!
लेकिन एक है पुराणपंथी, जो देखता
है कि रामराज्य पीछे हो चुका; फिर से रामराज्य आना चाहिए। और
दूसरा है भविष्य-पंथी--कम्युनिस्ट--वह कहता है उटोपिया भविष्य में है, रामराज्य आने वाला है। आएगा कभी--वर्ग-विहीन समाज! शोषण मुक्त समाज!
मैं दोनों कि विपरीत हूं। रामराज्य न तो
अतीत में आया है,
न भविष्य में आएगा। जिनको जीने की कला आती है, वर्ग अभी और यहीं राम के साथ जीते हैं। और जब मैं राम शब्द का उपयोग करता
हूं तो मेरा अर्थ शंबुक के कान में सीसा पिघलवाने वाले राम से नहीं है; जब मैं राम शब्द का उपयोग करता हूं तो मेरा अर्थ--अल्लाह से, ईश्वर से। जो अभी जीना जानता है, वह अभी राम में
होता है, अभी अल्लाह में होता है। जो अभी जीता है, इसी क्षण जीता है, इसी को मैं संन्यासी कहता हूं।
इसलिए मेरे विपरीत दोनों होंगे--पुराणपंथी, भविष्य-पंथी--क्योंकि
मैं वर्तमान के पक्ष में हूं। मैं कहता हूं, सिवाय वर्तमान
के सब समय झूठे हैं। अतीत जा चुका, भविष्य आया नहीं है। और
जो है, यही क्षण! यह जो तुम मुझे सुन रहे हो, यह जो मैं तुमसे बोल रहा हूं, इस बीच क्षण मौजूद
है--यह पक्षियों की चहचाहट, यह सूरज की किरणों का हरे वृक्षों
को पार करके तुम्हारे पास आना, यह सन्नाटा, यह आकाश, यह मेरे और तुम्हारे हृदय का लयबद्ध हो
जाना--यह क्षण अभी और यही रामराज्य है। यही है जिसकी बात जीसस ने कही है; प्रभु का राज्य जिसे उन्होंने कहा है।
वर्तमान के अतिरिक्त और किसी चीज का कोई
अस्तित्व नहीं है।
क्रांतियां होती हैं अतीत के बगावत में, भविष्य के
पक्ष में। विद्रोह होता है अतीत और भविष्य दोनों को छोड़ देने में और वर्तमान में
जीने में।
मंत्रमुग्ध होकर जब कोई गीत गाता, अलगोजा
बजाता, कि बांसुरी पर सुर छेड़ देता, कि
वीणा के तार झनकार देता, कि नाच उठता, कि
चुपचाप बैठ जाता किसी वृक्ष के नीचे, कि देखता आकाश के तारों
को, कि सुबह उठते सूरज को, कि सांझ
डूबते सूरज को, कि उड़ते हुए पक्षियों की पंक्ति--बस उस क्षण
विद्रोह है! और उस क्षण जो आनंद का साक्षात्कार है। वही रोज-रोज गहरा होने लगता है,
तुम्हारे भीतर एक कुआं खुदने लगता है, आज नहीं
कल तुम्हें अपने जीवन के अमृत-स्रोत उपलब्ध हो जाते हैं।
तीसरा प्रश्न:
नीति और धर्म में क्या भेद
है?
नीति है थोथा धर्म
और धर्म है सच्ची नीति। नीति है नकारात्मक, धर्म है विधायक। नीति कहती है,
यह न करो, यह न करो,यह न
करो; धर्म कहता है, यह करो, यह करो, यह करो। नीति भयभीत आदमी को पकड़ लेती है,
धर्म निर्भय आदमी को उपलब्ध होता है। नीति सुरक्षा का उपाय है,
धर्म असुरक्षा में अन्वेषण है। नीति कहती है, बागुड़
उठाओ ताकि तुम्हारी गुलाब की बाड़ियों की कोई जानवर न चर जाएं। नीति बागुड़ ही उठाती
रहती है। और बागुड़ उठाने मग इतनी संलग्न हो जाती है कि याद ही नहीं रहता कि गुलाब
के फूल अभी बोए कहां? धर्म गुलाब के फूल बोता है। धर्म गुलाब
की खेती करता है।
नीति के साथ जरूरी नहीं है कि धर्म हो, लेकिन
धर्म के साथ जरूरी ही नीति होती है--क्योंकि जिसके पास गुलाब के फूल हैं, वह बागुड़ तो लगाएगा। जिसे गुलाब के फूल उपलब्ध रहे हैं, वह उनकी सुरक्षा तो करेगा। लेकिन जो बागुड़ गलाने में ही व्यस्त हो गया है,
उसे याद भी कैसे आएगी गुलाब के फूलों की; गुलाब
के फूलों से उसका कोई संबंध ही नहीं है।
नीति है बहिर्आरोपण और धर्म है अंतरर्जारण।
नीति ऐसे है जैसे अंधे आदमी के हाथ की लकड़ी--टटोल-टटोलकर रास्ता खोजती है। धर्म
ऐसा है--खुली आंख वाला आदमी जिसके हाथ में दीया है। उसे टटोलना नहीं पड़ता, पूछना
नहीं पड़ता, उसे रास्ता दिखायी पड़ता है।
नीति मिलती है समाज से, धर्म
मिलता है, परमात्मा से। नीति सामाजिक सिखावन है। इसलिए
दुनिया में जितने समाज हैं उतनी नीतियां हैं। जो तुम्हारे लिए नीति है, वही तुम्हारे पड़ोसी के लिए अनीति हो सकती है। जो हिंदू के लिए नीति हैं,
वही मुसलमान के लिए अनीति हो सकती है। जो ईसाई के लिए नीति है,
वही यहूदी के लिए अनीति हो सकती है। लेकिन धर्म एक है, नीतियां अनेक हैं क्योंकि समाज अनेक हैं लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा एक है।
धर्म तो एक है, धर्म भिन्न नहीं हो सकता, धर्म के भिन्न होने का कोई उपाय नहीं है। धर्म का स्वाद एक है। बुद्ध ने
कहा है, जैसे सागर को तुम कहीं से भी चखो उसका स्वाद एक है--नमकीन,
खारा--वैसे ही धर्म को तुम कहीं से भी चखो, किसी
घाट से, उसका स्वाद एक है।
लेकिन अक्सर नीति और धर्म के बीच भ्रांति हो
जाती है। इसलिए तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। क्योंकि नीति धर्म-जैसी मालूम होती है।
कागज के फूल भी गुलाब के फूल जैसे मालूम होते हैं। दूर से देखो तो धोखा हो सकता
है। और अगर गुलाब के फूलों के ही जैसा गुलाब का इत्र कागज के फूलों पर भी छिड़का हो, तो शायद
पास आकर भी धोखा हो जाए। और यह भी हो सकता है कि कागज के फूल इतनी कुशलता से बनाए
जाएं कि उनके सामने गुलाब के फूल भी असली न मालूम पड़े। कभी-कभी नकली असली से
ज्यादा असली मालूम होता है। नकल करने की कुशलता पर निर्भर होता है।
असली तो अपने असली होने पर भरोसा करता है, इसलिए
आयोजन नहीं करता। नकली को तो भरोसा होता नहीं, इसलिए सारा
आयोजन करता है कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। सारी भूल-चूकों को निपटा लेता हैं।
असली से तो भूल-चूक हो सकती है, नकली से भूल-चूक नहीं होती।
क्योंकि नकली रिहर्सल करता है, नकली तैयारी करता है। क्या
तुम सोचते हो जब राम की सीता चोरी गयी तो उन्होंने पहले रिहर्सल किया होगा--कि हे
सीता, तू कहां है? वृक्षों से पूछा
होगा कि हे वृक्षों, मेरी सीता कहां खो गई? आंखों में मिर्च इत्यादि डालकर आंसू बहाए होंगे, रोए-रोए
घूमे होंगे, पत्थरों से पूछा होगा, पहाड़ों
से पूछा होगा--मेरी सीता, मेरी सीता! क्या तुम सोचते हो
अभिनय किया होगा? नहीं, बिचारे राम को
यह अवसर नहीं मिला। सीता चोरी चली गयी, एकदम से आघात हुआ
होगा, बिना तैयारी के पूछने लगे होंगे।
लेकिन वह जो रामलीला में खेलता है खेल राम
का, वह बड़ा अभ्यास करके आता है, उसके शब्द-शब्द
नपेत्तुले होते हैं। और इसने एक बार नहीं, हजार बार वृक्षों
से पूछा है। इस तरह पूछा, उस तरह पूछा, सब तरह से अपने को सम्हाल कर आया है।
अगर कही असली राम को रामलीला के रामों के
साथ प्रतियोगिता करनी पड़े तो हार निश्चित है। असली राम जीतेंगे नहीं। और सीता किसी
नकली राम के साथ हो जाए तो तुम हैरान मत होना। क्योंकि नकली राम बिलकुल असली रात
से भी ज्यादा असली मालूम पड़ेंगे। अभ्यास का भी तो कुछ बल होता है!
नीति अभ्यास है, धर्म
स्व-स्फुरणा है। नीति पैदा होती है सामाजिक संस्कार से। समाज सिखाता है--ऐसा करो,
ऐसा करो, ऐसा करना ठीक है। और छोटे- छोटे
बच्चों को सिखाया जाता है, ऐसा करना ठीक है। उन बच्चों को न
बोध होता, न बोध का कोई कारण होता। सीख लेते हैं, मां-बाप जो सिखा देते हैं सीख लेते हैं। फिर जिंदगीभर वही दोहराते रहेंगे।
ग्रामोफोन रेकार्ड हो जाएंगे। उनकी अवस्था वही होती है जो तुमने देखा हो, हिज मास्टर्स वाइस के ग्रामोफोन रेकार्ड पर चोंगे के सामने बैठे कुत्ते की
है। बस वही अवस्था। दोहराते रहते हैं। मालिक की आवाज! जो-जो सिखा दिया गया है,
उसे दोहराते चले जाते हैं। पुनर्विचार करने की क्षमता भी नहीं होती,
हिम्मत भी नहीं होती; पुनर्विचार करने में डर
भी लगता है कि कहीं आधारशिला खिसक न जाए!
किसी तरह भवन बन गया है जीवन का, अस्त-व्यस्त न हो जाए!
पूछते ही नहीं, उलझन भरे प्रश्न पूछते ही नहीं। उलझन भरे
प्रश्नों का एक तरफ हटा कर रख देते हैं।
धर्म संस्कार नहीं है, ध्यान है।
धर्म तो खोदना पड़ता है अपने भीतर। ऐसा समझो कि नीति है हौज की तरह। सीमेंट की हौज
होती है, उसमें पानी ऊपर से भर देते हैं। पानी नहीं होता
उनमें, पानी भरना पड़ता है--पानी उधार, बासा।
फिर एक कुआं होता है, उसमें भी पानी होता है, मगर उसमें बासा पानी नहीं होता, उधार पानी नहीं होता,
उसके पास अपने जलस्रोत होत हैं। ऊपर से देखने पर भ्रांति हो सकती है
कि हौज और कुआं एक-जैसे मालूम पड़ें, लेकिन उनकी आत्माओं में
भेद है। अगर हौज से पानी खींचते चले जाओगे, जल्दी ही हौज चुक
जाएगी। इसलिए नैतिक आदमी से जरा सावधान! उसकी नीति बहुत गहरी नहीं होती, ज्यादा मत उलीचना, नहीं तो वह नीति के बाहर निकल
जाएगा।
एक ईसाई फकीर को किसी ने चांटा मारा तो उसने
बायां गाल उसके सामने कर दिया, क्योंकि यही जीसस ने कह है: जो तुम्हारे एक गाल
पर चांटा मारे, उसके सामने दूसरा कर देना। यह नैतिक शिक्षा
थी। फकीर जीसस को मानता था। उसके दाएं गाल पर चांटा मारा तो उसने बायां भी कर
दिया। मारने वाला भी पहुंचा हुआ आदमी था, वह भी कोई पुराना
नहीं था दकियानूसी, उसने कहा यह मौका भी क्यों चूकना,
उसने उस पर और करारा एक हाथ खींच दिया। लेकिन तभी वह चौंका। जैसे ही
चांटा पड़ा दूसरे फकीर पर, फकीर छलांग लगाकर उसकी गर्दन को
दबाकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। उस आदमी ने पूछा, भाई, फकीर होकर यह क्या करते हो? उसने कहा, अब और मैं क्या करूं? तीसरा गाल ही नहीं हैं। और
मेरे गुरु ने कहा है: एक गाल पर जो चांटा मारे, दूसरा भी
सामने कर देना। अब तीसरे के संबंध में तो कोई सवाल ही नहीं है; उल्लेख ही नहीं है किताब में कोई; अब मैं अपना मालिक
हूं, अब मैं तुझे मजा चखाऊंगा। अब तू भोग!
नैतिक आदमी से जरा सावधान। उसकी नीति बड़ी
छिछली होती है। चमड़ी से भी ज्यादा पतली होती है। जरा खरोंच दो कि बस असली आदमी
बाहर आ जाएगा। उसको खरोंचना ही मत, उससे दूर ही दूर रहना।
धार्मिक व्यक्ति अंतस्तल तक, अंतरात्मा
तक एक ही रस से भरा होता है। धार्मिक व्यक्ति को तुम्हारा कोई आचरण, तुम्हारा कोई व्यवहार बदल नहीं सकता। जीसस ने सूली पर मरते क्षण भी कहा:
प्रभु, इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि
इन्हें पता नहीं कि यह क्या कर रहे हैं!
यह स्रोत हौज में नहीं हो सकता, यह स्रोत
तो कुएं में हो सकता है। कुएं की जलधार सागर से जुड़ी होती है। ऐसे ही धर्म में
जीता है, ध्यान में जो डूबता है, उसका
जीवन परमात्मा के सागर से जुड़ जाता है। उसे तुम चुकता नहीं कर सकते। उसे तुम जितना
खोदोगे, उतनी उसकी गहराई बढ़ती है।
फिर नीति का काम सिर्फ नकारात्मक है--गलत न
करो। यदि फूल नहीं बो सकते,
तो कांटे कम से कम मत बोओ--यह नीति की सार-संपदा है।
यदि फूल नहीं बो सकते, तो कांट
कम से कम मत बोओ!
है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बड़ा
मानव का मन;
ममता की शीतल छाया में होता कटुता का स्वयं
शमन!
ज्वालाएं जब घुल जाती हैं, खुल-खुल
जाते हैं मुंदे नयन,
होकर निर्मलता में प्रशांत बहता प्राणों का
क्षुब्ध पवन।
संकट में यदि मुसका न सको, भय से
कातर हो मत रोओ!
यदि फूल नहीं बो सकते, तो कांट
कम से कम मत बोओ!
हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा
चांदनी का चंदन
मत याद करो, मत सोचो--ज्वाला में कैसे
बीता जीवन
इस दुनिया की है रीति यही--सहता है तन, बहुत है
मन;
सुख की अभिमानी मदिरा में जो जाग सका, वह है
चेतन!
इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज
बिछाकर मत सोओ!
यदि फूल नहीं बो सकते, तो कांटे
कम से कम मत बोओ!
पग-पग पर शोर पचाने से मन में संकल्प नहीं
जमता,
अनसुना-अचीन्हा, करने से
संकट का वेग नहीं कमता,
संशय के सूक्ष्म कुहासों में विश्वास नहीं
क्षणभर रमता,
बादल के घेरों में भी तो जय-घोष न मारुत का
थमता।
यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, सांसों के
मुरदे मत ढोओ;
यदि फूल नहीं बो सकते, तो कांट
कम से कम मत बोओ!
नीति कहती है, कम से कम कांटे मत बोओ। अगर
फूल न बो सको तो चलेगा, कांटे कम से कम मत बोओ। मगर मैं
तुमसे यह कहना चाहता हूं: जो फूल नहीं बोएगा, उसे कांटे बोने
ही पड़ेंगे। मैं इसे फिर दोहरा दूं, क्योंकि यह बहुत आधारभूत
बात है: जो फूल नहीं बोएगा, उसे कांटे बोना ही पड़ेंगे। क्यों?
क्योंकि जो ऊर्जा फूल बनती है, अगर फूल न बने
तो कांटा बनेगी। ऊर्जा नष्ट नहीं होती। या तो सृजन बनाओ या विध्वंस बनती है। या तो
गीत बनाओ; अगर गीत नहीं बना तो गाली बनेगी। अगर ऊर्जा जाएगी
कहां? गीत गीत में प्रकट हो जाए तो ठीक, नहीं तो गालियों में बरसेगी। फूलों में खिल जाए तो ठीक, नहीं तो कांटों में उमगेगी। अगर तुम्हारी ऊर्जा प्रेम की वर्षा नहीं हो
सकती, तो घृणा के अंगार तुम बरसाओगे। तुम्हें बरसाना ही
पड़ेगा। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। और अब तो भौतिकशास्त्र भी इससे राजी है कि
शक्ति का कोई विनाश नहीं होता; सिर्फ रूपांतरण होता है। कुछ
न कुछ करना ही होगा। अगर हंसे नहीं, तो रोओगे। अगर ध्यान में
न उतरे, तो धन की दौड़ में पड़ोगे। अगर प्रेम न किया, तो घृणा करोगे। अगर मित्र न बनाए, तो शत्रु बनाओगे।
अगर ऊर्जा कुछ तो करेंगी।
एडोल्फ हिटलर के जीवन में ऐसा उल्लेख
है--विचारणीय है--कि वह चित्रकार होना चाहता था। मूलतः चित्रकार होना चाहता था।
लेकिन विश्वविद्यालय ने उसे चित्रकार की कक्षा में भर्ती करने से इनकार कर दिया।
कौन जाने, काश, एडोल्फ हिटलर चित्रकार हो गया होता तो दुनिया
को दूसरा महायुद्ध न देखना पड़ता! तब उसकी ऊर्जा रंगों में फैलती, इंद्रधनुष बनाती, फूल बनाती, सुंदर
चेहरे बनाती। लेकिन वही ऊर्जा जो चित्रकार होना चाहती थी, जो
सर्जक होना चाहती थी, अवरुद्ध हो गयी, विषाक्त
हो गयी, घृणा से भर गयी। वही ऊर्जा विध्वंस बनी। जिसने सुंदर
चेहरे बनाए होते, उसने सुंदर चेहरे जलाए। जिसने जीवन को थोड़ा
सौंदर्य दिया होता, उसने जीवन का सारा सौंदर्य छीन लेने की
कोशिश की। यह क्रोध है, यह प्रतिशोध है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम्हारे
राजनेताओं में और तुम्हारे अपराधियों में बहुत भेद नहीं होता। राजनेता यह है जो
ज्यादा चालाक है और अपनी चालबाजियों में नहीं आता। और अपराधी भी वही कर रहे हैं जो
राजनेता कर रहा है,
लेकिन इतना होशियार नहीं। थोड़ा भोला-भोला है, थोड़ा
सीधा-सीधा है, जल्दी पकड़ में आ जाता है--इसलिए अपराधी हो
जाता है। जो अपराधी पकड़ जाते हैं, जेलों में। जो अपराधी नहीं
पकड़ाते, राष्ट्रपति भवनों में; प्रधान
मंत्री, और न मालूम क्या-क्या! मगर दोनों की ऊर्जा एक है।
दोनों के आवरण अलग-अलग होंगे।
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि मेरा
जोर नीति पर नहीं है। क्योंकि नीति तो सिर्फ आवरण है। अच्छे वस्त्र पहिन लेने से
तुम सुंदर न हो जाओगे। सौंदर्य तो आत्मा का होना चाहिए। अच्छा चरित्र बना लेने से
भी तुम सुंदर न होओगे। अच्छे चरित्र में भी जगह-जगह से तुम्हारी अंतरात्मा की
गंदगी, ढंकी हुई गंदगी उभर-उभरकर दिखायी पड़ती रहती।
एक फकीर सुकरात को मिलने गया। वह फकीर चीथड़े
पहनता था--त्यागी था। उसके कपड़ों में जगह-जगह छेद थे। मगर चलता बहुत अकड़ कर था, क्योंकि
उस जैसा कोई त्यागी यूनान में नहीं था। सुकरात से उसने कहा कि तुम अभी तक भोग में
पड़े हो! मुझे देखो, सब छोड़ दिया, चीथड़े
पहनता हूं, यह त्याग है! तुम सत्य की बातें ही करते रहोगे कि
कभी त्याग का जीवन भी जिओगे? सुकरात ने कहा, क्षमा करें, दुख न मानना, मगर
तुम्हारे कपड़ों के छिद्र में से सिवाय तुम्हारे अहंकार के मुझे कुछ और झांकता
दिखायी नहीं पड़ता।
तुम जरा अपने तथाकथित त्यागियों को गौर से
देखना। उसन की त्याग की प्रतिमाओं में छिपे हुए बड़े अहंकार के दर्शन होंगे। बड़े
सूक्ष्म जहर से तुम उन्हें भरा हुआ पाओगे।
नदी बहती रहे तो स्वच्छ रहती है, अवरुद्ध
हो जाए तो जहरीली हो जाती है। ऊर्जा को बहने दो। ऊर्जा को सृजन में लगने दो। इसलिए
कहता हूं: नाचो, गाओ, निर्माण करो।
चित्र बनाओ, मूर्ति बनाओ, गीत सजाओ,
कुछ करो, जीवन को कुछ सृजनात्मकता दो। दुनिया
से धर्म मर गया है क्योंकि धर्म के नाम पर काहिल और निकम्मे लोग मंदिरों और
मस्जिदों में बैठ गए हैं। जिनका कुल धंधा इतना है कि वे वहां बैठे रहें और
तुम्हारी सेवा स्वीकार करते रहें।
सदियों-सदियों से तुम्हारे धार्मिक लोगों ने
सिवाय नपुंसकता के और कुछ भी नहीं किया है। इनके कारण पृथ्वी बड़ी बोझिल हो गयी है।
हां, नीति यह पूरी पालन में गुणवत्ता है? सारे पशु-पक्षी
उठ आते हैं। यह कोई अपने-आप में महिमा नहीं है। एक ही बार भोजन करते हैं। लेकिन
जंगल के बहुत से जानवर एक ही बार भोजन करते हैं। सिंह एक ही बार भोजन करता है। मगर
डरकर कर लेता है एक ही बार। इसलिए तुम्हारे हिंदू संन्यासी, जरा
उनकी तोंद देखते हो! एक ही बार कर लेते हैं, मगर ऐसा डट कर
कर लेते हैं जो कि अनाचार है। चार बार कर लो, हर्जा नहीं है,
मगर अनाचार तो न करो।
जैन मुनि तो बहुत ही सीमित चीजें लेते हैं।
मगर मैं चकित होता हूं,
यह देखकर कि दिगंबर जैन मुनि की भी तोंद होती है। क्यों? जरूर भूख से ज्यादा ले लेते होंगे। लेना ही पड़ेगा। आखिर चौबीस घंटे
गुजारने हैं। जिस आदमी को रात पानी नहीं पीना है, वह सांझ ही
सूरज डुबने के वक्त खूब डटकर पानी पी लेगा। मगर यह तो बोझ है, अस्वाभाविक है, नैसर्गिक नहीं है, शरीर के साथ अनाचार है। जो लोग उपवास करते हैं, जैसे
कल उपवास करना है तो आज ठूंस-ठूंसकर भोजन करेंगे। जब तक समय मिलेगा भोजन करते ही
रहेंगे, क्योंकि कल उपवास करना है। और फिर कल उपवास किसी तरह
जैसे ही पूरा हुआ कि फिर ठूंस-ठूंसकर भोजन कर लेंगे। जितना उपवास में छोड़ा उससे
ज्यादा आगे-पीछे कर लेंगे।
आदमी को जबर्दस्ती जब भी तुम अस्वाभाविक
बनाने की चेष्टा करोगे,
यही पाखंड होता है।
मैं नीति का पक्षपाती नहीं हूं। मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि तुम अनैतिक हो जाओ। नीति का कोई चरम मूल्य नहीं है। नीति तो ऐसे ही
है जैसे रास्ते का नियम कि बाएं चलना है। कोई बाएं चलने की कोई चरम सार्थकता नहीं
है। अमरीका में लोग दाएं चलते हैं! दाएं चलो कि बाएं चलो, एक बात तय
है कि जहां इतनी भीड़-भाड़ है रास्तों पर, वहां कोई नियम बनाना
पड़ेगा, नहीं तो चलना मुश्किल हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन अमरीका जाना चाहता था। खबर
मुझे मिली कि अचानक एक्सीडेंट हो गया, मुल्ला अस्पताल में भर्ती है,
तो मैं उसे देखने गया। मैंने बहुत तरह के एक्सीडेंट देखे हैं,
बहुत तरह के लोग अस्पताल में देख हैं, मगर
मुल्ला गजब की हालत में था। सारे शारीर पर पट्टियां-पट्टियां थीं। न मालूम कितने
फ्रैक्चर हुए थे। मुंह पर भी पट्टी, बस आंखें दो दिखायी पड़ती
थी, नाक पर भी पट्टी, सब
पट्टियां-पट्टियां थीं। मैंने मुल्ला से पूछा, तकलीफ तो नहीं
होती? उसने कहा, होती है, जब हंसता हूं। तो हंसते ही कहे को हो? उसने कहा,
हंसता इसलिए हूं कि मैं अमरीका जाने की तैयारी कर रहा था, उसमें यह एक्सीडेंट हुआ। मैं कुछ समझा नहीं। अमरीका जाने की तैयारी में इस
एक्सीडेंट का क्या संबंध? उसने कहा, मैंने
किताबों में पढ़ा कि वहां बाएं कार नहीं चलानी पड़ती, दाएं कार
चलानी पड़ती है, सो मैंने सोचा कि पूना में जरा एक. जी. रोड
पर अभ्यास कर लूं। जब दाएं चलानी पड़ेगी तो थोड़ा अभ्यास करके जाना ठीक है। सो यह
गति हुए! पड़े-पड़े अब कभी-कभी हंसी आती है कि यह भी मैंने क्या मूर्खता की? तो बस जब मैं हंसता हूं, तब बड़ा दर्द होता है!
अंग-अंग दुखता है!
अमरीका में सभी लोग दाएं चलते हैं, तो दाएं
चलने में अड़चन नहीं है।
न तो दाएं चलने की कोई परम मूल्यवत्ता है, न बाएं
चलने की। लेकिन जहां भीड़-भाड़ है...छोटे-छोटे गांव में तो न कोई दाएं चलता है,
न कोई बाएं चलता है; अपनी भैंस लिए बीच रास्ते
पर चलो! कोई ट्रैफिक ही नहीं है, वहीं भी चलो! जैसी मर्जी आए
वैसे चलो, जहां से मुड़ना हो वहां से मुड़ो, कोई अड़चन नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे हम लोगों के साथ रहते हैं, वैसे-वैसे कुछ नियम जरूरी हो जाते हैं। बस वे नियम व्यावहारिक हैं।
नीति का कोई अंतिम मूल्य मत समझ लेना। वे
नियम व्यावहारिक हैं। ताकि लोगों के बीच टकराहट न हो। मगर नीति को ही धर्म मत मान
लेना, नहीं तो चुक जाओगे। यह मत समझ लेना कि हम हमेशा बाएं चलते हैं तो जब
परमात्मा मिलेगा तो अकड़कर खड़े हो जाएंगे कि देखो, मैं
महात्मा हूं, क्योंकि मैं हमेशा बाएं चलता था! एक भी बार न
पुलिस ने मुझे पकड़ा, न एक भी बार चलना हुआ हमेशा बाएं चलता
था, मुझे स्वर्ग में ठीक-ठीक जगह मिलनी चाहिए! तो परमात्मा
भी हंसेगा, कि बाएं चलना ठीक था, उसके
तुम्हें लाभ हुए कि हाथ-पैर न टूटे, इससे ज्यादा और अपेक्षा
मत करना।
नीति सामाजिक है, धर्म
आध्यात्मिक है। धर्म का अर्थ है, परमात्मा के साथ मैं कैसे
रहूं? और नीति का अर्थ है, लोगों के
साथ कैसे रहूं? लोगों के साथ सुविधापूर्ण है नीति। इससे
व्यर्थ की झंझटें कम हो जाती हैं। मगर नीति काफी नहीं है। यदि फूल नहीं बो सकते,
तो कांटे, तो कांटे कम से कम मत बोओ! बस,
इतना ठीक है! मगर अगर फूल बो सकते हो, तो क्या
कांटे न बोना पर्याप्त है? क्या तुम्हारे हृदय में उल्लास
उठेगा इस बात से कि मैंने जिंदगी में कांटे नहीं बोए? उल्लास
तो तब उठेगा जब कमल खिलेंगे तुम्हारी झील में, जब फूल
नाचेंगे तुम्हारी बगिया में, जब चमेली के फूल झर-झर झरेंगे
तब उल्लास होगा, तब महोत्सव होगा। इतना ही कहते फिरो सब जगह
कि देखो मेरी बगिया, मैंने कांटे बिलकुल नहीं बोए, कांटे का पता ही नहीं, बगीचा बिलकुल साफ रखता हूं--न
रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी--ऊगने नहीं देता पौधों को, कौन
जाने किसी पौधे में कांटा ऊग आए, झंझट हो जाए! मगर इसको तुम
बगिया तो न कहोगे। जमीन है, अच्छी जमीन है, कंकड़-पत्थर भी बीन लिए, कांटे भी नहीं, सब साफ-सुथरी है,मगर जमीन है, बगिया
तो नहीं है। रेगिस्तान है। इसको मरूद्यान बनाओ।
नीति केवल सफाई है। धर्म सफाई के आगे का कदम
है। फूल बोओ। फूल बोने के लिए तुम हो। तुम्हारी नियति फूल बनना है। मनुष्य के जीवन
में सबसे महत्वपूर्ण फूल खिलता है। इसीलिए तो हमने उस फूल को सहस्रार कहा है।
सहस्रदल कमल। जब तुम्हारी चेतना तुम्हारे सबसे ऊंचे शिखर को छूती है, तो
तुम्हारे भीतर एक कमल खिलता है जो शाश्वत है। जो एक बार खिल गया तो फिर कभी
मुर्झाता नहीं। और जिसकी सुगंध का ही नाम परमात्मा है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, भक्त की
चरम अवस्था के संबंध में कुछ कहें।
चरम अवस्था के
संबंध में कभी कुछ कहा नहीं जा सकता। और भक्त की चरम अवस्था के संबंध में तो और भी
कुछ नहीं कहा जा सकता।
एक तो चरम अवस्था का अर्थ ही होता है, शब्दों के
जो पर गयी। फिर भक्त भी चरम अवस्था, भाव की चरम अवस्था,
वह तो शब्दों से बहुत दूर चली गयी, बहुत दूर
चली गयी! शब्दों की पृथ्वी बहुत पीछे छूट गयी। भक्त तो मिट ही जाता है अपनी चरम
अवस्था में, भगवान ही शेष रह जाता है। तो या तो कुछ भक्तों
ने कहा है: मैं नहीं हूं, तू है। या कुछ भक्तों ने कहा: मैं
ही हूं, तू नहीं है। दोनों बातें कही जा सकती हैं। दोनों का
एक ही अर्थ है। एक ही बचा, अब उसे भक्त कहो, या भगवान कहो, यह तुम्हारी मौज। अहं ब्रह्मास्मि।
मैं ही बचा हूं, मैं ही ब्रह्म हूं; या
ब्रह्म ही बचा है, अब मैं कहां? उस चरम
अवस्था में तो सब शून्य हो जाता है।
पर तुम्हारे प्रश्न प्रीतिकर है। तुम्हारी
जिज्ञासा मधुर है। मीठी है। थोड़ी-थोड़ी चेष्टा करें, थोड़ी-थोड़ी अंगुलियां उठाएं,
उस दूर के चांद की तरफ।
नियाजे-इश्क को समझा है क्या ऐस
बाइजे-नादां!
हजारों बन गए काबे, जहां
मैंने जबीं रख दी।।
प्रेम-विभोरता को ऐ समझदार लोगों, तुमने
क्या समझा है? ऐ पंडितो, तुमने
भाव-विभोर अवस्था को क्या समझा है? जहां जिस चौखट पर मैंने
सिर रख दिया, वहां काबा बन गया।
नियाजे-इश्क को समझा है क्या ऐ
वाइजे-नादां...
पंडितों को तो भक्त सदा नादान कहते हैं, पंडितों
को तो भक्त सदा अज्ञानी कहते हैं--पांडित्य अज्ञान का ही दूसरा नम है भक्त की भाषा
में।
नियाजे-इश्क को समझा है क्या ऐ वाइजे-नादां!
हजारों बन गए काबे, जहां
मैंने जबीं रख दी।।
जहां मैंने सिर झुकाया, वहां एक
क्या हजार काबे बन गए, हजार मंदिर उठ गए। ऐसी है वह परम दशा
कि भक्त जहां झुक जाए, वहां परमात्मा के चरण चिन्ह बन जाते
हैं। जहां भक्त सिर टेक दे, वहां परमात्मा के चरण चिन्ह बन
जाते हैं। तुम भक्त की छाया भी छू लो, तो परमात्मा का
तुम्हें स्वाद आ जाए। भक्त के साथ बैठ लो तो भगवान के साथ बैठना हो जाए।
क्या दर्दे-हिज्र और यह लज्जते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नजर मुझ।।
कहना मुश्किल है क्या मिला है। प्रेम जब उस
परम स्थिति में पहुंच जाता है तब उसके लिए मिलन और सुख और विरह-दुख कुछ भी अर्थ
नहीं रखते। विरह के दुख में बहुत दुख पाया था। लेकिन अब जो मिला है, उसको
सोचकर उसकी याद भी नहीं आती। विरह-दुख के कांटे भी अब फूल-जैसे मालूम होते हैं। और
मिलन का सुख भी बहुत मिला था--झलके आयी थी; यही परम अवस्था
आने के पहले कभी-कभी द्वार-झरोखा खुल गया था; एक लहर आयी,
एक किरण आयी, परमात्मा छू गया, नहला गया--बड़ा सुख पाया था, लेकिन अब वह सुख भी इस
परम अवस्था के सामने ना कुछ है।
क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज्जते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नजर मुझे।।
और अब तूने जो मुझे आंख दी है, वह उन सब
बातों से बुलंद है, उन सबसे ऊंची है, उसका
कोई ओर-छोर नहीं, उसका कोई अंत नहीं, आदि
नहीं।
यह ऐसी आंख है जहां प्रेम और प्यारा एक हो
जाते हैं।
अब न यह मेरी जात है, अब न यह
काएनात है।
मैंने नवाए-इश्क को साज से यू मिला दिया।।
अब न तो मैं हूं, न कोई
सृष्टि है। अब न यह मेरी जात है...जब न तो मेरा कोई अहंकार है, अस्मिता है; अब न यह कायनात है...अब न मुझे कोई
सृष्टि दिखायी पड़ती, अब तो तू ही तू है; मैंने नवाए-इश्क को साज से यूं मिला दिया...मैंने तो अपने प्रेम संगीत को
तेरे साज में डुबा दिया। अब तो तेरी वीणा बज रही है, मैं
उसका संगीत हूं। कि मेरा संगीत है और तेरी वीणा बज रही है। अब तो मैं बांसुरी हूं
तेरे हाथ, तू गीत गा रहा है। अब मैं कहां! बांस की पोली
पोंगरी हूं।
इक सूरते उफ्तागीए-नक्शे-फना हूं।
अब राह से मतलब न मुझे राहनुमा से।।
अब न तो मुझे मार्ग की चिंता है--मंजिल आ
गयी--न मुझे मार्गदर्शकों की चिंता है। अब मुझे न कहीं जाना है, न कुछ
होना है।
इस सूरते उफ्तादगीए-नक्शे-फना हूं...अब तो
मिट गया हूं,
जैसे रेत पर खड़ा हुआ चरणचिन्ह हवा का झोंका आए और मिट जाए। इक सूरते
उफ्तादगीए-नक्शे-फना हूं...मेरी तो बात ही पूछो मत, मेरा
चिन्ह भी मिट गया। अब राह से मतलब न मुझे रहनुमा से।
मेरे महाके शौक का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूं, कि तसवीरे
यार को।
अब बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। आईने के
सामने खड़े होकर देखता हूं तो यह मेरी समझ में नहीं आता कि मैं खुद को देख रहा हूं
कि तुझको देख रहा हूं।
मेरे मजाके शौक का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूं, कि
तसवीरे-यार को।।
इसलिए भक्त कभी-कभी कह देता है: अनलहक। मैं
वही हूं। बुरा मानना। भक्त को समझना। किसी अहंकार से यह बात नहीं कही जाती है। यह
अत्यंत निर-अहंकारिता का उदघोष है: अनलहक। मंसूर बेचारा समझा न जा सका! उसे नाहक
सूली दे दी गयी! जिन्हें हमें सिंहासन देना था, उन्हें हमने सूलियां दे दीं। और
जिन्हें सूलियों पर चढ़ाना था, वे सिंहासनों पर बैठे हैं।
हुजूमे-शौक में अब क्या कहूं मैं क्या न
कहूं?
मुझे तो खुद भी नहीं, अपना
मुद्दआ मालूम।।
और अब तुम पूछते हो कि कुछ कहो उस चरम
अवस्था की बात! अब बड़ा मुश्किल है।
हुजूमे-शौक में अब क्या कहूं मैं क्या न
कहूं?
मुझे तो खुद भी नहीं, अपना
मुद्दमा मालूम।।
अब तो मुझे यह भी पता नहीं कि मैं हूं, यह भी पता
नहीं कि मेरे होने का कोई अर्थ है; मुझे तो यह भी पता नहीं
कि मैं कभी था कि एक स्वप्न देखा था। रेत पर बने एक चरणचिंह की भांति मिट गया हूं।
मगर इसी मिटने में महा गौरव है। इसी शून्य हो जाने में पूर्ण का उतरना है।
जहान है कि नहीं जिस्मो जान हैं कि नहीं।
वोह देखता है मुझे, उसको
देखता हूं मैं।।
अब न तो जान है, न जहान
है। अब तो वह मुझे देखता है, मैं उसे देखता हूं। बोलने को भी
कुछ शेष नहीं है। बस आंखें आंखों में झांकती हैं। एक सन्नाटा है। एक अपूर्व
सन्नाटा। मगर सन्नाटा भी ऐसा कि जहां अनाहत का नाद है।
बेखुदी का आलम है, महवे-जिबिहसाई
हूं।
अब न सरसे मतलब है, और न
आस्ताने से।।
बेखुदी का आलम है...अब तो नहीं हूं, इसके मजे
ले रहा हूं। लेने में मजा ही बेखुदी का है, लेना हो तो मजा
ही बेखुदी का है। जो हैं, वे तो केवल दुख भोगते हैं। होना
यानी दुख। होना है पर्यायवाची दुख का। न होना है पर्यायवाची आनंद का। सच्चिदानंद
का।
बेखुदीका आलम है, महवे-जिबिहसाई
हूं...और आत्मलीन हूं, नतमस्तक हूं, झुक
गया हूं, खाली हूं। अब न सर से मतलब है, और न आस्ताने से...न मुझे अपने सर का कुछ पता है, न
तेरी चौखट का। कहां करूं पूजा, कहां करूं अर्चना? कहां पढूं नमाज? कौन पढ़े नमाज? किसकी करे नमाज?
अब न कहीं निगाह है, अब न कोई
निगाह में।
महव खड़ा हुआ हूं, हुस्न की
जलवागाह में।।
अब न कहीं निगाह है...अब आंख कहीं जाती
नहीं। अब न कोई निगाह में...और अब आंख में भी कोई नहीं, कोरी
आंखें रह गयी हैं, खाली आंखें रह गयी हैं, शून्य आंखें रह गयी हैं। शून्य आंख ही तो समाधि है। महव खड़ा हुआ हूं मैं,
हुस्न की जलवागाह में...तल्लीन खड़ा हूं, लवलीन
खड़ा हूं; तेरा जलवा बरस रहा है, तेरी
रोशनी बरस रही है, तेरा महोत्सव हो रहा है।
जुनूने-इश्क हस्तीए-आलम पै नजर कैसी?
रूखे-लैला को क्या देखेंगे महमिल
देखनेवाले।।
अब देखने को कुछ बचा नहीं है। जिसे देखना था, देख लिया।
जो देखने योग्य था, उसे देख लिया। आंखें जिसके लिए तरसती थीं,
उससे आंखें भर गयी।
अब मुझे खुद भी नहीं होता है कोई इम्तियाज।
मिट गया हूं इस तरह उस नक्शे-पा-के सामने।
अब मुझे भेद-भाव भी नहीं है। क्या पाप है, क्या
पुण्य, समझ में नहीं आता। क्या अंधेरा, क्या उजाला; क्या जिंदगी, क्या
मौत--भेद सब गिर गए।
अब मुझे खुद भी नहीं होता है कोई इम्तियात।
मिट गया हूं उस तरह उस नक्शे-पा-के सामने।।
तूने मुझे ऐसा मिटाया, तूने मुझे
ऐसा मिटाया, कि अब कोई भेद-भाव नहीं।न पापी है कोई, न पुण्यात्मा है कोई; न संसार है कोई, न मोक्ष है कोई; तूने मुझे ऐसा पोंछ डाला। मगर यही
धन्य भागिता है! धन्यभागी हैं वे, जिन्हें परमात्मा ऐसे मिटा
देता है। क्योंकि उनके इसे मिटने में ही वे परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
जितने हम हैं, उतनी ही दूर है। जितने हम
नहीं हैं, उतनी ही निकटता है। अब हम बिलकुल नहीं हैं तो एक
हो गए।
नजर में वोह गुल समा गया है, तमाम
हस्ती पै छा गया है।
चमन में हूं या कफस में हूं मैं मुझे अब
इसकी खबर नहीं है।।
अब तो आंखें फूल से भर गयी हैं। अब तो आंखें
फूल हो गयी है। अब तो खिल गया है वह सहस्रदल कमल।
नजर में वोह गुल समा गया है, तमाम
हस्ती पै छा गया है...
और जो मेरे भीतर खिला है वह मेरे भीतर ही
नहीं खिला है,
वह फैलते-फैलते सारे अस्तित्व के साथ एक हो गया है।
नजर में वोह गुल समा गया है, तमाम
हस्ती पै छा गया है।
चमन में हूं या कफस में हूं मैं मुझे अब
इसकी खबर नहीं है।।
अब मधुमास आए कि पतझड़, कुछ भेद
नहीं पड़ता। वह फूल खिल गया जो एक बार खिलाता है तो फिर कभी मुर्झाता नहीं है। अब
तो मधुमास ही मधुमास है, अब तो वसंत ही वसंत है।
अक्स किस चीज का आईन-ए-हैरत में नहीं।
तेरी सूरत में है क्या जो मेरी सूरत में
नहीं।।
भक्त की मौज देखते हो? भक्त यह
कहता है कि अब मैं जानता हूं कि जो तुझमें है, वही मुझमें
है। नाहक मैं तुझे तलाशता था। व्यर्थ ही मैं दौड़ा-दौड़ा था। कहां-कहां तुझे नहीं
खोजा। किन-किन चांदत्तारों के किनारे नहीं भटका! कितने-कितने जन्मों, अनंत-अनंत जन्मों कितना तुझे नहीं पुकारा!
अक्स किस चीज का आईन-ए-हैरत में नहीं।
तेरी सूरत में है क्या जो मेरी सूरत में
नहीं।।
आज जानता हूं कि तू और मैं दो नहीं, एक हैं।
मैं नाहक ही खोज रहा था। शायद खोज रहा था इसीलिए खोता चला जा रहा था। तू खोजने
वाले में ही छिपा था।
खुदा जाने कहां है असगरे दीवाना बरसों से।
कि उसके ढूंढते हैं काब-ओ-बुतखाना बरसों
से।।
अब तुम पूछ रहे हो भक्त की चरम अवस्था क्या
है? बड़ा मुश्किल है!
खुदा जाने कहां है असगरे दीवाना बरसों से...
वह जो चरम अवस्था में पहुंच जाता है, वह कहां
है? वह दीवाना, वह पागल, वह मस्त, वह मतवाला कहां है? उसका
कुछ पता लगाना मुश्किल है। लापता है!
खुदा जाने कहां है असगरे दीवाना बरसों से।
कि उसको ढूंढते हैं काब-ओ-बुतखाना बरसों
से।।
कि उसको ढूंढने में लगे हैं मंदिर और
मस्जिदें और गुरुद्वारे कि मिल जाए कहीं दीवाना, वह मिलता नहीं। और ऐसा भी
हनीं है कि बहुत दूर है। और ऐसा भी नहीं है कि आंख से पीछे छिपा है। मगर उस दीवाने
को केवल वे ही देख पाएंगे जो खुद भी दीवाने हैं। पियक्कड़ों को पियक्कड़ ही पहचान
सकते हैं। शराबियों की दोस्ती शराबियों से ही हो सकती है।
खुदा जाने कहां है असगरे दीवाना बरसों से।
कि उसको ढूंढते हैं काब-ओ-बुतखाना बरसों
से।।
तुम चाहते हो जानना, सच में
जानना चाहते हो कि भक्त की चरम अवस्था क्या है? भक्त होना
पड़ेगा। कहीं जाए, ऐसी वह अवस्था नहीं। बतायी जाए, ऐसी वह कोई बात नहीं। लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी
बात--कबीर ठीक कहते हैं--देखा-देखी बात। देखोगे तो जानोगे। मगर चुकानी पड़ती है बड़ी
कीमत। क्योंकि देख वही पाता है जो मिटता है। मिटोगे तो देखोगे। देखोगे तो जानोगे।
लिखा-लिखी की है नहीं...पढ़ जाओ वेद, कुरान, बाइबिल और खूब शब्दों के धनी हो जाओगे तुम मगर उन शब्दों का कोई भी मूल्य
नहीं है।
भक्त की परम अवस्था अनुभव की अवस्था है।
तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। पूछा भी
इसीलिए है कि कहीं कोई अभीप्सा जग रही होगी। यह प्रश्न पात्र जिज्ञासा का नहीं है, यह प्रश्न
अभीप्सा का है, मुमुक्षा का है। खोजो। भक्त की खोज आंसुओं के
मार्ग से गुजरती है। भक्त की खोज तर्क से नहीं जाती, आंसुओं
से जाती है; बुद्धि से नहीं जाती, हृदय
से जाती है।
बंधनों में बंध गई मैं,
मांगकर नित नए बंधन,
हार कर बैठी किनारे,
साथ लेकर थकित तन-मन।
कौन हो तुम? हो कहां?
किसकी शरण पलभर गहूं!
अपनी व्यथा किससे कहूं?
खोजती थी सत्य को
निज प्राण में ले मधुर सपने
कल्पना सब मिट गई औ
दुख बने चिर-मीत अपने।
मृत्यु से डरती नहीं पर,
दुसह दुख कैसे सहूं?
अपनी व्यथा किससे कहूं?
मन नहीं मैं बांध पाई,
स्वयं जग में बंध गई।
भावना ले त्याग की
अनुराग ही मेरा रम गई।
तुम उबारोगे नहीं
कब तक यहां रोती रहूं?
अपनी व्यथा किससे कहूं?
रोओ। भरो रुदन से। तुम्हारे तन-प्राण आंसुओं
से भर जाएं।
तुम उबारोगे नहीं,
कब तक यहां रोती रहूं?
अपनी व्यथा किससे कहूं?
किसी और से कहना भी नहीं। उस एक को ही
पुकारना। उस एक के ही सामने निवेदन करना। और आंसुओं से सुंदर और कोई निवेदन नहीं।
और आंसुओं से बहु-मूल्य और काई निवेदन नहीं। आंसुओं में गलो और बहो। जैसे जलती है
मोमबत्ती--जलती जाती है और टप-टप मोम आंसुओं की तरह गलता जाता है। फिर एक घड़ी आती
है कि पूरी मोमबत्ती जल गयी, आंसुओं का ढेर रह गया, ज्योति
भी उड़ गयी अनंत में। ऐसी ही दशा भक्त की है। रोओ! हृदय से रोओ! पुकारो! जैसे-जैसे
हृदय आंसुओं में बहता जाएगा, वैसे-वैसे ही उस अवस्था की
थोड़ी-थोड़ी झलकें मिलनी शुरू हो जाएंगी
राह लंबी है, मार्ग अनजाना, कभी उस पर चले भी नहीं...
दूर है घर औ अजानी राह
छुद्र अति मेरी कहानी,
स्वयं मुझसे है अजानी,
कब भला मैं पा सकी हूं
निज हृदय की थाह?
व्यर्थ है आंसू बहाना,
व्यर्थ दुख के गीत गाना,
व्यर्थ है इस जगत में
करना सुखों की चाह।
कर सकूं आराधना जब,
मौन होगी साधन तब,
बहुत संभव पा सकूंगी
प्राण मग उत्साह!
नयन दर्शन को तरसते,
आज पल-पल में बरसते,
दीप सा उर जल रहा
पाता नहीं कर आह!
बस वही अड़चन है। पूछने से नहीं होगा, आह भरो।
ऐसी आह उठे तुम्हारे भीतर से कि तुम्हारा रोआं-रोआं उस आह से कंपित हो जाए।
नयन दर्शन को तरसते,
आज पल-पल में बरसते
दीप सा उर जल रहा
पाता नहीं कर आह!
आह कर सको, तो प्रार्थना पूरी हो जाए।
आह में मिट जाओ, तो तुम्हें भी स्वाद लग जाए उस परम अनुभूति
का। एक किरण उतर आए, काफी है। फिर उसी एक किरण का सहार पकड़
परम सूर्यों की यात्रा हो जाती है।
आज इतना ही।
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