मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-050



गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-050

अध्याय ५
तीसरा प्रवचन
सम्यक दृष्टि

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। ५।।
तथा ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधर्म प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को फलरूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।

देखते सभी हैं; यथार्थ बहुत कम लोग देखते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं होता, जो है। वरन हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि दर्शन को विकृत कर जाती है। हमारी आंखें दृश्य को देखती ही नहीं, दृश्य को निर्मित भी कर जाती हैं।
जीवन में चारों ओर बिना व्याख्या के हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते हैं। और व्याख्या के साथ किया गया अनुभव विकृत अनुभव है। जो भी हम देखते हैं, उसमें हम भी सम्मिलित हो जाते हैं। दर्शन विकृत हो जाता है।

एक छोटी-सी घटना मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि रामदास ने हजारों वर्षों बाद, राम के होने के हजारों वर्षों बाद, राम की कथा पुनः लिखी। राम तो एक हुए हैं, लेकिन कथाएं तो उतनी हो सकती हैं, जितने लिखने वाले हैं। लेकिन कथा कुछ ऐसी थी कि हनुमान को खबर लगी कि तुम्हारे भी सुनने योग्य है। हनुमान तो प्रत्यक्षदर्शी थे कथा के। फिर भी रोज-रोज खबर आने लगी, तो हनुमान चोरी से उस कथा को सुनने जाते थे जिसे रामदास दिनभर लिखते और सांझ इकट्ठे भक्तों के बीच सुनाते। कहानी है, पर अर्थपूर्ण है। और बहुत बार कहानियां सत्य से भी ज्यादा अर्थपूर्ण होती हैं।
राम की कथा चलती रही। हनुमान आनंदित थे। हैरान थे यह बात जानकर, कि रामदास हजारों साल के बाद, कथा को ठीक वैसा कह रहे हैं, जैसी वह घटी थी। यह बड़ी कठिन बात है। जो आंख के सामने देखते हैं, वे भी ठीक वैसा ही वर्णन नहीं करते, जैसा घटता है। आंख सम्मिलित हो जाती है। दृष्टि प्रवेश कर जाती है। हजारों साल बाद यह आदमी कहानी कह रहा है और ठीक ऐसी कि हनुमान भी भूल-चूक नहीं निकाल पाते हैं। कहीं जैसे कोई व्याख्या नहीं है। जैसे घटना सामने घटती हो।
लेकिन एक जगह हनुमान को भूल मिल गई। हनुमान ने खड़े होकर कहा कि माफ करें, और सब तो ठीक है, इसमें थोड़ी-सी बदलाहट कर लें। आप कह रहे हैं कि हनुमान जब अशोक वाटिका में गए, तो चारों तरफ शुभ्र, चांद की चांदनी की तरह फूल खिले थे। यह बात गलत है। हनुमान जब अशोक वाटिका में गए, तब फूल सुर्ख चारों ओर खिले थे, सफेद फूल नहीं खिले थे। लेकिन रामदास ने कहा, चुपचाप बैठ जाओ। बकवास मत करो। फूल सफेद थे।
अभी हनुमान अप्रकट थे। जाहिर होकर उन्होंने नहीं कहा था कि मैं हनुमान हूं। उन्होंने फिर कहा कि महाशय, सुधार कर लें। मैं किसी कारण से कह रहा हूं। रामदास ने कहा, बीच में गड़बड़ मत करो। फूल सफेद थे। और चुपचाप बैठ जाओ। मजबूरी में हनुमान को क्रोध आ गया। और खुद की देखी हुई बात को कोई आदमी झूठ कहे! तो वे प्रकट हुए और उन्होंने कहा, मैं खुद हनुमान हूं। अब बोलो तुम क्या कहते हो? फूल लाल थे। सुधार कर लो! रामदास ने कहा कि फिर भी कहता हूं कि चुपचाप बैठ जाओ और गड़बड़ मत करो। हनुमान हो, तो भले हो। फूल सफेद थे।
यह तो बहुत उपद्रव की बात हो गई। कोई रास्ता न था, तो हनुमान और रामदास को राम के सामने ले जाया गया। और हनुमान ने कहा कि यह एक आदमी है जिसको मैं कह रहा हूं कि फूल लाल थे, और जो कहता है कि फूल सफेद थे। मैं हनुमान हूं। हजारों साल बाद ये सज्जन कहानी लिख रहे हैं। लेकिन हद जिद्दी आदमी है! मुझसे कहता है, चुपचाप बैठ जाओ। अब आप ही निर्णय दे दें।
राम ने कहा, हनुमान, तुम क्षमा मांग लो। फूल सफेद ही थे; रामदास ठीक कहते हैं। तुम इतने क्रोध में थे कि तुम्हारी आंखें खून से भरी थीं। तुमने लाल फूल देखे होंगे। लेकिन फूल सफेद ही थे।
संभव है। कहानी भला संभव न हो, लेकिन खून से भरी आंखों में सफेद फूल लाल दिखाई पड़ सकते हैं, यह संभव है।
हम जो देखते हैं, उसमें हमारी आंख तत्काल प्रविष्ट हो जाती है। हम वही नहीं देखते, जो है। और जो व्यक्ति वही देखने में समर्थ हो जाता है, जो है, उसे ही कृष्ण ज्ञानी कहते हैं।
कृष्ण यहां कह रहे हैं कि कर्म से, निष्काम कर्म से या कर्म-संन्यास से; कर्मयोग से या कर्मत्याग से, एक ही परम स्थिति उपलब्ध होती है।
लेकिन ऐसा तो केवल वे ही देख पाते हैं, जो वही देखते हैं, जो है। जिनकी दृष्टि दर्शन में बाधा नहीं बनती। जिनके अपने खयाल यथार्थ के ऊपर आरोपित नहीं होते, इम्पोज नहीं होते। जो अपने को हटाकर देखते हैं, या ऐसा कहें कि जो शून्य होकर देखते हैं, जो बीच में नहीं आते। वे तो ऐसा ही देखते हैं कि चाहे कोई कर्म के जगत में जीकर आकांक्षाओं को छोड़कर चले, या कोई कर्म को ही छोड़कर चल दे, अंतिम उपलब्धि एक ही होती है।
लेकिन यह उनकी प्रतीति है, जिनके पास अपने कोई विचार आरोपित करने को नहीं हैं। यह उनकी स्थिति है, जो निर्विचार हैं। यह उनकी स्थिति है, जिनके पास अपना कोई भी खयाल यथार्थ के ऊपर रोपने को नहीं है। लेकिन बाकी शेष सारे लोग दोनों में विरोध देखेंगे।
विरोध दिखाई पड़ता है। कहां तो कर्म का जीवन, और कहां सारे कर्म को छोड़कर चले जाने वाला जीवन! अगर ये दोनों विरोधी नहीं हैं, तो फिर इस जगत में क्या विरोधी हो सकता है! कहां तो एक व्यक्ति, जो दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे कर्मों में घिरा है! कृष्ण, युद्ध के मैदान पर खड़े हैं। कहां बुद्ध, जीवन का सारा संघर्ष छोड़कर हट गए हैं। कहां जनक, महलों में, जीवन के घने बाजार के बीच, साम्राज्य के बीच खड़े हैं! कहां महावीर, वस्त्र के भी रहने से शरीर पर कहीं कर्म का कोई लेप न चढ़ जाए, इसलिए वस्त्र भी छोड़कर नग्न हो गए हैं! कहां मोहम्मद, तलवार लेकर जूझने को तैयार। कहां महावीर, पैर भी फूंककर रखेंगे कि चींटी न दब जाए! इन दोनों आदमियों को एक देख पाना अति कठिन है। सहज ही प्रतीत होता है कि विपरीत हैं दोनों बातें। विपरीत ही दिखाई पड़ती हैं दोनों बातें।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, विपरीत उसे दिखाई पड़ती हैं, जो अज्ञानी है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए।
इस जगत में जो-जो चीज विपरीत दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही विपरीत दिखाई पड़ती है। जहां-जहां भेद, जहां-जहां द्वैत, डुअलिटी दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही दिखाई पड़ती है। अंधेरे और प्रकाश में भी विरोध नहीं है। और जन्म और मृत्यु में भी विरोध नहीं है। जन्म भी वही है, जो मृत्यु है। और अंधेरा भी वही है, जो प्रकाश है।
लेकिन यह उसे दिखाई पड़ता है, जिसकी आंखों से सारा धुआं विचार का हट गया और जिसके प्राणों से अहंकार की बदलियां हट गईं। और जिसका अंतःप्राण पारदर्शी, ट्रांसपैरेंट हो गया। जो दर्पण की तरह हो गया। जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; जो दिखाई पड़ता है, वही झलकता है।
जो दर्पण की तरह हो गया, निर्द्वंद्व, उसे तो सारे रास्ते परमात्मा तक ही पहुंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह तो कहेगा कि रावण भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहा है। और राम भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहे हैं। उतना गहरा देखने पर तो राम और रावण के बीच का भी फासला गिर जाएगा। लेकिन उतना गहरा देखना तभी संभव है, जब हमारे भीतर विचार का द्वैत विसर्जित हो गया हो।
हम देखते नहीं, हम विचार से देखते हैं। इस फर्क को खयाल में ले लें। एक फूल के पास खड़े हैं; गुलाब का फूल खिला है। आप सोचते होंगे, गुलाब के फूल को देखते हैं, तो गलत सोचते हैं। गुलाब के फूल को देख भी नहीं पाते कि मन के जगत में विचारों का जाल खड़ा हो जाता है। लगता है मन को, सुंदर है फूल! एक विचार आ गया। अतीत में जो-जो गुलाब का अनुभव है, उस सबकी स्मृति बीच में खड़ी हो गई। जो-जो सुना है, बचपन से जो-जो कंडीशनिंग हुई है। जरूरी नहीं है कि अगर आपको बचपन से न समझाया गया हो कि गुलाब सुंदर है, तो आपको सुंदर दिखाई पड़े। जरूरी नहीं है। बहुत कुछ तो सिखावन है।
अगर चीन में जाकर पूछें, तो गाल पर अगर हड्डी निकली हो, तो सुंदर है। हिंदुस्तान में नहीं होगी। बचपन से जाना है जिसे सुंदर, वह सुंदर प्रतीत होने लगा है। सारी दुनिया में सौंदर्य के अलग-अलग मापदंड हैं। नीग्रो के लिए ओंठ का मोटा होना बहुत सुंदर है। इसलिए नीग्रो स्त्रियां अपने ओंठ में पत्थर बांधकर और लटकाकर उसको चौड़ा करती रहेंगी। लेकिन हमारे मुल्क में ओंठ का पतला होना सौंदर्य है। ओंठ किसी का मोटा है, तो उसको भीतर दबाता रहेगा कि मोटा ओंठ बाहर दिखाई न पड़ जाए।
गुलाब का फूल सुंदर दिखाई पड़ता है, यह सुना-सीखा संस्कार है। यह विचार है या कि यह दर्शन है? यह दर्शन तो तभी होगा, जब गुलाब के फूल के पास खड़े हों और सिर्फ खड़े हों, सोचें जरा भी न। आंख से गुलाब को उतर जाने दें, विचार को बीच में न आने दें। उसे प्राणों तक पहुंच जाने दें, विचार को बीच में न आने दें। वह घुल जाए, मिल जाए श्वासों में। वह एक हो जाए प्राणों से। चेतना भीतर की, और गुलाब की चेतना कहीं आलिंगन में बद्ध हो जाए; कोई विचार न उठे; तब जो आप जानेंगे, वह गुलाब को जानना है। अन्यथा जो आप जानते हैं, वह गुलाब के संबंध में जाने हुए को दोहराना है। वह गुलाब को जानना नहीं है।
जो व्यक्ति जीवन में इस भांति निर्विचार देखने में समर्थ हो जाता है, उस व्यक्ति को अत्यंत विरोधी मार्ग भी एक ही मालूम पड़ते हैं। वह कह सकता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मूढ़जन को तो, बुद्धिहीन को तो बड़े विपरीत मालूम पड़ेंगे। लगेगा कि कहां संसार के कर्म का जाल और कहां सब छोड़कर किसी गुफा में बैठ जाना मौन, बड़ी विपरीत हैं बातें। लेकिन कृष्ण कहते हैं, नहीं हैं विपरीत। क्यों नहीं हैं विपरीत? नहीं हैं विपरीत इसलिए, कि चाहे कोई आकांक्षाओं को छोड़ दे, और चाहे कोई कर्म को छोड़ दे, दोनों से चित्त में एक ही अवस्था घटित होती है।
जिसने आकांक्षा को छोड़ दिया, उसके लिए कर्म अभिनय से ज्यादा, एक्टिंग से ज्यादा नहीं रह जाता। जिसने फल की आकांक्षा छोड़ दी, उसे कर्म खेल से ज्यादा, लीला से ज्यादा नहीं रह जाता। वह कर्म को छोड़े या न छोड़े, कर्म की कोई भी प्रभावना उसकी चेतना पर अंकित नहीं होती है। क्योंकि कर्म अंकित नहीं होते, फल की आकांक्षा अंकित होती है।
कभी आपने सोचा कि आप कर्म से कभी पीड़ित नहीं हैं, आप पीड़ित फल की आकांक्षा से हैं! और अगर कर्म से पीड़ित होते हैं, तो फल की आकांक्षा के कारण पीड़ित होते हैं। पीड़ा का जो जहर है, वह फल की आकांक्षा में है, अपेक्षा में है, एक्सपेक्टेशन में है। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कर्म देता है। जितनी छोटी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कम हो जाती है। जितनी शून्य अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा विदा हो जाती है। लेकिन हम कोई कर्म जानते नहीं, जो हमने बिना फल की अपेक्षा के किया हो।
प्रयोग करें। चौबीस घंटे में तय कर लें कि एक छोटा-सा काम बिना फल की आकांक्षा के करेंगे। राह पर जा रहे हैं। किसी आदमी का छाता गिर गया है। उसे उठाकर दे दें। लेकिन लौटकर रुकें न, कि वह धन्यवाद दे। और धन्यवाद न दे, तो मन में देखें कि कहीं पीड़ा तो नहीं खटकती है? अगर धन्यवाद न दे, तो जरा मन में देखें कि कहीं विषाद का धुआं तो नहीं उतरता है? कहीं ऐसा तो नहीं लगता है कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी न दिया!
अगर धन्यवाद की भी अपेक्षा है, जो कि बहुत छोटी अपेक्षा है, नामिनल, न के बराबर...।
इसीलिए समझदार आदमी दिनभर धन्यवाद देते रहते हैं, ताकि जो व्यर्थ की अपेक्षाएं हैं लोगों की, वे उनकी तृप्त होती रहें। धन्यवाद देने वाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता, लेकिन लेने वाले को बहुत कुछ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। अपेक्षा पर निर्भर है।
छोटा-सा शब्द धन्यवाद, भीतर जैसे फूल खिल जाता है। नहीं दिया धन्यवाद, भीतर की कली कुम्हला जाती है। इतनी छोटी-सी अपेक्षा भी प्राणों को उदास करती और प्रफुल्लित करती है। जितनी बड़ी अपेक्षाएं होंगी, फिर उतनी ही उदासी और प्रफुल्लता की अपेक्षा के अनुपात में दुख का भार बढ़ता चला जाएगा।
दिन में चौबीस घंटे में जो आदमी एक काम अपेक्षारहित कर ले, उसने प्रार्थना की, उसने नमाज पढ़ी, उसने ध्यान किया। एक काम आदमी अगर चौबीस घंटे में अपेक्षारहित, फलरहित कर ले, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसके कर्मों का जाल धीरे-धीरे अपेक्षारहित होने लगे। क्योंकि उस छोटे-से काम को करके वह पहली दफे पाएगा कि जीवन न दुख में है, न सुख में है, वरन परम शांति में उतर गया। उस छोटे-से कृत्य के द्वारा शांत हो गया।
अपेक्षा सुख का आश्वासन देती है, दुख का फल लाती है। अपेक्षारहित कृत्य गहन शांति के सागर में डुबा जाता है। अपेक्षारहित कृत्य आनंद के द्वार खोल देता है।
देखें, प्रयोग करें। और जैसे-जैसे खयाल में आएगा, वैसे-वैसे समझ में आएगा कि अगर अपेक्षारहित कृत्य किया, तो वही अंतिम फल मिलता है, जो कर्म को छोड़ने वाले को मिलता होगा। जो आदमी कर्म छोड़कर भाग गया है, वह भी शांत हो जाता है, अशांति का कोई कारण नहीं रह जाता। लेकिन जिस आदमी ने फल की आकांक्षा छोड़ दी है, अशांति के सारे कारण मौजूद रहते हैं, लेकिन भीतर अशांति को पकड़ने वाली ग्राहकता, रिसेप्टिविटी नष्ट हो जाती है।
दो रास्ते हैं। एक दर्पण है। और मैं उसके सामने खड़ा हूं। मैं हट जाऊं, तो दर्पण पर तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, मैं खड़ा रहूं, तो भी तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। मैं हट जाऊं, दर्पण को बना रहने दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। दोनों कृत्य बहुत अलग हैं। लेकिन परिणाम दोनों का एक है कि तस्वीर मिट जाती है।
दर्पण को तोड़ना कर्म को छोड़ने जैसा है। और आकांक्षा को तोड़ना स्वयं दर्पण से हट जाने जैसा है। दर्पण अपनी जगह है, मैं ही हट गया। कर्म अपनी जगह है, मैंने ही कर्म से अपनी आकांक्षा हटा ली, अहंकार को हटा लिया। मैं पीछे हो गया।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दोनों में से कुछ भी हो जाए अर्जुन, परिणाम एक ही होता है। लेकिन ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। और जो ऐसा जानते हैं, उनका ही दर्शन सम्यक है। उनका ही देखना ठीक देखना है। जो ऐसा नहीं जानते, उनका देखना मिथ्या देखना है।
एक अंतिम बात और इस संबंध में आपसे कहूं, और वह यह है, न देखना, गलत देखने से बेहतर है। न देखना, आंख का बंद होना, मिथ्या देखने से बेहतर है। न देखने वाला किसी न किसी दिन जल्दी ही देखने पर पहुंच जाएगा। लेकिन गलत देखने वाले की ठीक देखने पर पहुंचने में बड़ी लंबी यात्रा है।
अज्ञान मिथ्या ज्ञान से भी खतरनाक है। फाल्स नालेज इग्नोरेंस से भी खतरनाक है। क्योंकि अज्ञान में एक विनम्रता है, मिथ्या ज्ञान में विनम्रता नहीं है। अज्ञानी कहता है, मैं नहीं जानता। एक गहरी विनम्रता है, ईगोलेसनेस है। अज्ञानी अनुभव करता है कि मैं नहीं जानता, तो जानने की संभावना निरंतर मौजूद रहती है।
मिथ्या ज्ञानी सोचता है कि मैं जानता हूं, बिलकुल ठीक से जानता हूं, जानने का द्वार भी बंद हो गया। जानने की यात्रा भी शुरू नहीं होगी। और मिथ्या ज्ञानी को खयाल है कि मैं जानता हूं, तो वह जिस चीज को जानता है, उसे जोर से पकड़े बैठा रहता है। और जब तक मिथ्या ज्ञान न हट जाए, तब तक सम्यक ज्ञान के उतरने का कोई उपाय नहीं है।
हाथ खाली हो, बेहतर। तो किसी दिन हीरे दिखाई पड़ जाएं, तो खाली हाथ उन्हें उठा ले सकते हैं। लेकिन हाथ कंकड़-पत्थर को हीरे समझकर बांधकर मुट्ठियां बंद हुए बैठे हों, तो खतरनाक। क्योंकि हीरे भी दिखाई पड़ जाएं, तो शायद ही दिखाई पड़ें। क्योंकि जिसकी मुट्ठी में रंगीन पत्थर बंद हैं और जो सोच रहा है कि मेरे पास हीरे हैं, वह शायद ही अपनी मुट्ठी को छोड़ इस बड़े जगत में खोजने निकले कि हीरे कहीं और हैं। हीरे तो उसके पास हैं ही, इसलिए उसकी यात्रा बंद है।
कृष्ण कहते हैं, जो इन दो विरोधों के बीच एक को देख पाता है, वही ठीक देखता है।
दो विरोधों के बीच एक को देख पाना इस जगत का सबसे बड़ा अनुभव है। दो विरोधों के बीच एक को देख पाना गहरी से गहरी, सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि है। नहीं दिखाई पड़ता। आकाश और पृथ्वी एक नहीं दिखाई पड़ते। कहां आकाश, कहां पृथ्वी! दो दिखाई पड़ते हैं साफ। जन्म और मृत्यु एक दिखाई नहीं पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं। पत्थर और चेतना एक नहीं दिखाई पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं।
लेकिन हमारा साफ दिखाई पड़ना बहुत ही गलत है। आकाश और पृथ्वी दो नहीं हैं। बता सकते हैं, कहां पृथ्वी समाप्त होती है और कहां आकाश शुरू होता है? आकाश पृथ्वी को सब ओर से घेरे हुए है। गङ्ढा खोदें पृथ्वी में। तो कुआं खोदते हैं, तब आप सोचते हैं कि आप पृथ्वी खोद रहे हैं? आप गलती कर रहे हैं। आप सिर्फ मिट्टी अलग कर रहे हैं और आकाश को प्रकट कर रहे हैं। जब आप गङ्ढा खोदकर कुआं खोदते हैं, तो जमीन के भीतर आकाश मिल जाता है। खोदते चले जाएं और आकाश मिलता चला जाएगा। आर-पार हो जाएं; यहां से खोदें और अमेरिका में निकल जाएं, तो बीच में आकाश ही आकाश मिलता चला जाएगा।
वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी भी श्वास लेती है, पोरस है। पृथ्वी भी छिद्रहीन नहीं है; सछिद्र है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम पृथ्वी को कनडेंस कर सकें, उसमें जितना आकाश है उसको बाहर निकाल सकें, तो एक छोटी-सी बच्चे के खेलने की गेंद के बराबर कर सकते हैं। लेकिन वह बच्चे की गेंद भी पोरस होगी और विज्ञान अगर किसी दिन और समर्थ हो जाए, तो उसे और छोटा कर सकता है।
आकाश और पृथ्वी अलग नहीं, एक ही हैं। पृथ्वी आकाश से ही बनती है, वैज्ञानिक कहते हैं। आकाश से ही जन्मती है। जैसे पानी में भंवर पड़ती है, पानी की ही भंवर। ऐसे ही आकाश जब भंवर से भर जाता है, नेबुला बन जाता है, तो पृथ्वी बनती है। फिर एक दिन पृथ्वी आकाश में खो जाती है।
रोज न मालूम कितने ग्रह आकाश में वापस खो रहे हैं, जैसे रोज आदमी मृत्यु में खो जाते हैं। और रोज बच्चे पैदा होते रहते हैं। आदमी ही पैदा होते हैं, ऐसा नहीं; चांदत्तारे भी रोज पैदा होते हैं। और रोज चांदत्तारे मरते रहते हैं। पैदा होते हैं शून्य आकाश से, विलीन हो जाते हैं शून्य आकाश में। आकाश और पृथ्वी दो नहीं।
गेहूं आप खा लेते हैं, खून बन जाता है। चेतना बन जाती है। कहते हैं, पत्थर और चेतना अलग है। सिर्फ नासमझ कहते हैं। क्योंकि मिट्टी भी आपके भीतर जाकर चेतन हो जाती है। आपका शरीर मिट्टी से ज्यादा क्या है? इसलिए कल जब मर जाएंगे, तो डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। मरे हुए आदमी को हम कहते हैं कि मिट्टी उठाओ जल्दी। कल तक आदमी था, जिंदा था, जीवित था। कोई कह देता, मिट्टी हो, तो छुरा निकालकर खड़ा हो जाता। आज हम कहते हैं, मिट्टी जल्दी उठाओ।
सब मिट्टी में खो जाता है। मिट्टी से ही आया था, इसीलिए मिट्टी में खो जाता है। रोज मिट्टी ही खा रहे हैं। जिसको आप भोजन कहते हैं, मिट्टी से ज्यादा नहीं है। हां, दो-चार स्टेजेज पार करके आता है, इसलिए खयाल में नहीं आता।
अभी अमेरिका में एक वैज्ञानिक ने, एक वनस्पति-शास्त्री ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया और बहुत हैरान हुआ। उसने एक वट-वृक्ष लगाया एक गमले में। गमले की मिट्टी नापकर लगाया। जितना पानी उसमें डालता था, उसका नाप रखता था। वृक्ष बड़ा होने लगा। फिर जब वृक्ष पूरा बड़ा हो गया, तो वृक्ष और गमले को उसने नापा। हैरान हुआ। वृक्ष को निकालकर नापा, तो और हैरान हुआ। वृक्ष तो सैकड़ों पौंड का हो गया और गमले की मिट्टी केवल डेढ़ पौंड कम हुई। और वह भी उसका कहना है कि वृक्ष में नहीं गई। वह डेढ़ पौंड मिट्टी भी पानी डालने में, हवा में, यहां-वहां उड़ गई।
यह वृक्ष कहां से आया? यह सैकड़ों पौंड का वृक्ष! इसमें थोड़ा-सा दान मिट्टी ने दिया, बड़ा दान आकाश ने दिया, हवाओं ने दिया, पानी ने दिया।
और शायद अभी हमें पता नहीं--विज्ञान को कम से कम पता नहीं--कि इस सब दान के बाद भी एक और अज्ञात स्रोत है परमात्मा का, जो प्रतिपल दे रहा है। उसने दिया। पर उसका तो किसी पौंड में वजन नहीं नापा जा सकता। वह किसी माप के बाहर है। लेकिन वैज्ञानिक सोचते थे कि शायद यह सारी की सारी मिट्टी है, तो गलत हो गई बात। इसमें आकाश भी समाया हुआ है। इसलिए जब इसको जला देंगे, तो आकाश आकाश में चला जाएगा। पानी पानी भाप बन जाएगा। मिट्टी जितनी है, वह फिर वापस राख होकर मिट्टी में खो जाएगी।
नहीं, आकाश और पृथ्वी अलग नहीं हैं। नहीं, मिट्टी और चेतना भी अलग नहीं हैं। नहीं, पदार्थ और परमात्मा भी अलग नहीं हैं। लेकिन अज्ञानी सब चीजों को दो में करके देखते हैं--विरोध में, पोलेरिटी में। जब तक अज्ञानी दो न बना ले, तब तक देख ही नहीं पाता है। और ज्ञानी जब तक दो में एक को न देख ले, तब तक देख ही नहीं पाता।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा देखता है, वही देखता है। कर्म-संन्यास भी और कर्मयोग भी एक ही परम स्थिति को उपलब्ध करा देते हैं।


प्रश्न: भगवान श्री, पहले दिन आपने कहा कि कर्म-संन्यास अंतर्मुखी व्यक्ति की साधना है तथा निष्काम कर्म बहिर्मुखी व्यक्ति की साधना है। लेकिन लोगों का अनुभव है कि कभी वे बहिर्मुखी होते हैं, तो कभी अंतर्मुखी। इस स्थिति में कृपया समझाएं कि कोई व्यक्ति ठीक-ठीक कैसे निर्णय करे कि वह अंतर्मुखी है अथवा बहिर्मुखी है?


बहिर्मुखता का अर्थ है, कि व्यक्ति की चेतना निरंतर बाहर की तरफ दौड़ती है। वह बाहर कोई भी हो सकता है। धन हो सकता है, धर्म हो सकता है। पद हो सकता है, परमात्मा हो सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता। किस चीज की तरफ दौड़ती है, इससे फर्क नहीं पड़ता। बहिर्मुखी चेतना, एक्सट्रोवर्ट कांशसनेस, बाहर की तरफ दौड़ती है। भीतर से बाहर की तरफ यात्रा होती रहती है।
इसका पता लगाया जा सकता है। कभी आंख बंद करके बैठें। देखें कि चेतना कहां दौड़ रही है। अगर बहिर्मुखी हैं, तो चेतना बाहर की तरफ दौड़ती हुई पाएंगे। धन के संबंध में सोच रहे होंगे, मित्रों के संबंध में, शत्रुओं के संबंध में या परमात्मा के संबंध में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर, कोई और, कोई आब्जेक्ट चित्त को पकड़े रहेगा। दौड़ते रहेंगे बाहर की तरफ।
बहिर्मुखी लोगों ने ही परमात्मा को ऊपर आकाश में बना रखा है। हाथ भी जोड़ेंगे वे, तो आकाश के परमात्मा को जोड़ेंगे। पूछें, परमात्मा कहां है? तो बहिर्मुखी आकाश की तरफ देखेगा। पूछें, परमात्मा कहां है? तो अंतर्मुखी आंख बंद करके भीतर की तरफ देखेगा।
अंतर्मुखी का लक्षण यह है कि जब आप आंख बंद करके बैठें, तो पाएं कि बाहर की तरफ चित्त नहीं दौड़ता। भीतर की तरफ डूबता जा रहा है, सिंकिंग की फीलिंग होगी, जैसे कोई नदी में डूब रहा है। भीतर की तरफ डूबते जा रहे हैं। बहिर्मुखी को बाहर दौड़ने में बड़ा रस मालूम पड़ेगा। अंतर्मुखी को भीतर डूबने में बड़ा रस मालूम पड़ेगा। बहिर्मुखी को भीतर डूबना मौत जैसा मालूम पड़ेगा कि मर जाएंगे। इससे तो बेहतर है कि कुछ और कर लें। अंतर्मुखी को बाहर की बात सोचना-विचारना बहुत ही कष्टपूर्ण, बहुत भारी, बहुत बोझिल हो जाएगा। अंतर्मुखी एकांत मांगेगा, बहिर्मुखी भीड़ चाहेगा। ये लक्षण बता रहा हूं।
अंतर्मुखी को एकांत में छोड़ दो, तो प्रसन्न हो जाएगा। भीड़ में खड़ा कर दो, तो उदास हो जाएगा। अंतर्मुखी भीड़ से लौटेगा, तो उसको लगेगा, कुछ खोकर लौट रहा हूं। और एकांत से लौटेगा, तो फुलफिल्ड, कुछ भरकर लौट रहा हूं; कुछ पाकर लौट रहा हूं। बहिर्मुखी को एकांत में रख दो, तो निर्जीव हो जाएगा। फीका, पीला पड़ जाएगा। जिंदगी लगेगी बेकार है। कुछ सार नहीं। क्लब में रख दो, मंदिर में रख दो, मस्जिद में रख दो, भीड़ में ले आओ--जिंदगी वापस लौट आएगी। पत्ते लहलहा उठेंगे। फूल खिलने लगेंगे।
यह एक-एक व्यक्ति को अपने जीवन की स्थितियों में जांचते रहना चाहिए कि उसकी अंतर्धारा बाहर की तरफ बहने को आतुर रहती है या भीतर की तरफ बहने को आतुर रहती है। टघनग इन, ऐसी है उसकी धारा, भीतर की तरफ मुड़ती चली जाती है; कि ऐसी है धारा कि बाहर की तरफ दौड़ती है, टघनग आउट।
यह प्रत्येक व्यक्ति अपने को कस ले सकता है। भीड़ में अच्छा लगता है कि अकेले में? कोई नहीं होता है कमरे में, सन्नाटा होता है, तब अच्छा लगता है? कि कमरे में कोई हो, तभी अच्छा लगता है? खाली बैठे रहते हैं, तो बेचैनी मालूम पड़ती है? कि खाली बैठे रहते हैं, तो रिलैक्स्ड, शांत, मौन मालूम पड़ता है? घर में मेहमान आते हैं, तब अच्छा लगता है? कि जब जाते हैं, तब अच्छा लगता है?
इसकी थोड़ी जांच करते रहना चाहिए। नहीं मेहमान आते हैं, तो बेचैन हो जाती है तबियत, उठाकर फोन करने लगते हैं? अखबार में जरा देर हो जाती है आने में, तो बेचैनी होती है, रेडियो खोल लेते हैं? कभी अपने को अकेला छोड़ते हैं या नहीं छोड़ते हैं? कोई न कोई होना ही चाहिए--कंपेनियन, साथी, संगी, मित्र, पत्नी, पति, बच्चे--कोई न कोई होना ही चाहिए? कि कभी ऐसा भी लगता है कि कोई भी न हो? अकेला! किस चीज का स्वाद है, इसे पहचानना चाहिए।
आज के युग में सौ आदमी में मुश्किल से एक आदमी स्वभावतः अंतर्मुखी है। निन्यानबे मौके पर आप पाएंगे, आप बहिर्मुखी हैं। और अगर लगता है कि आप बहिर्मुखी हैं, तो भूलकर भी अंतर्मुखी धर्म की बातों में मत पड़ जाना, अन्यथा बहुत कठिनाई में पड़ेंगे। और उसका एक ही परिणाम होगा, फ्रस्ट्रेशन। अगर बहिर्मुखी व्यक्ति अंतर्मुखी बातों में पड़ जाए, तो वह अपने को पापी, अपराधी, गिल्टी, नारकीय समझेगा। क्योंकि वह अंतर्मुखी तो हो नहीं पाएगा। तब वह समझेगा कि हम न मालूम किन जन्मों का पाप भोग रहे हैं! ध्यान करने बैठते हैं, एक क्षण ध्यान नहीं लगता! न मालूम कहां-कहां की बातें खयाल आती हैं!
नहीं, आप अपने स्वधर्म को नहीं पहचान रहे हैं। इसलिए परेशान हैं। और चूंकि पूरब का धर्म का बड़ा हिस्सा, अगर हम कृष्ण को छोड़ दें पूरब में, तो पूरब के बुद्ध और महावीर, नागार्जुन और शंकर, सब के सब अंतर्मुखी हैं। उन सब की बातों ने पूरब के मन को अंतर्मुखी धर्म का खयाल दे दिया है। और सौ में से निन्यानबे आदमी बहिर्मुखी हैं। इसलिए बड़ी बेचैनी हो गई, बड़ी मुश्किल हो गई।
तो बहिर्मुखी आदमी सोचता है, अपने वश का नहीं है धर्म। अपने भाग्य में नहीं है। मौन तो होता ही नहीं मन; ठहरता ही नहीं। भीतर तो कुछ पता ही नहीं चलता। भीतर तो जाना होता ही नहीं। तो जरूर हम किसी पिछले जन्मों के पापों और कर्मों का फल भोग रहे हैं।
नहीं; जरूरी नहीं है। आप सिर्फ एक भ्रांति का फल भोग रहे हैं। आप ठीक से समझ नहीं पाए कि आप बहिर्मुखी हैं। अगर बहिर्मुखी हैं, तो धर्म की रूप-रेखा आपके लिए बिलकुल अलग होगी। अगर बहिर्मुखी हैं, तो आपको धर्म भी ऐसा चाहिए, जो आपकी बहिर्मुख चेतना का उपयोग कर सके। अंतर्मुखी धर्म के लिए, ध्यान; बहिर्मुखी धर्म के लिए, प्रार्थना।
कभी आपने खयाल किया कि ध्यान और प्रार्थना बड़े अलग रास्ते हैं! ध्यान का मतलब है, अंतर्मुखी का धर्म। प्रार्थना का अर्थ है, बहिर्मुखी का धर्म। ध्यान में परमात्मा की भी गुंजाइश नहीं है। ध्यान का मतलब है, अकेले, अकेले, और अकेले। ध्यान का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना है, जहां मैं ही अकेला रह जाऊं और कुछ न बचे। और प्रार्थना का मतलब है, परमात्मा; अकेले नहीं, दो। और प्रार्थना का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना अंततः कि परमात्मा ही बचे, मैं न बचूं। इन दोनों का अंतिम फल एक हो जाएगा। लेकिन प्रार्थना दूसरे से शुरू होगी, परमात्मा से; और ध्यान स्वयं से शुरू होगा।
इसलिए ध्यान के जो धर्म हैं, जैसे जैन, वे परमात्मा को इनकार कर देंगे। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह है कि महावीर का स्वधर्म अंतर्मुखी है। महावीर इंट्रोवर्ट हैं। परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, नान एसेंशियल है। महावीर के लिए परमात्मा की कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए महावीर कहेंगे, मैं ही परमात्मा हूं, और कोई परमात्मा नहीं है। जब वे अंतर्मुख होकर पूरे अपने भीतर पहुंचेंगे, तो पहुंच जाएंगे वहीं, जहां बहिर्मुखी व्यक्ति परमात्मा को प्रार्थना कर-करके पहुंचता है।
खयाल किया आपने! परमात्मा की यात्रा करने वाला आखिर में कहेगा, परमात्मा है, मैं नहीं हूं। अंतर्मुखी अंत में कहेगा, मैं ही हूं, अहं ब्रह्मास्मि, और कोई परमात्मा नहीं है। दोनों एक ही जगह पहुंच गए। लेकिन उनके वक्तव्य बड़े भिन्न हैं। उनकी यात्रा बड़ी भिन्न है। भिन्न है, विरोधी नहीं। और चूंकि एक ही जगह पहुंचाती है, इसलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक ही है।
मैंने कहा आपसे कि कृष्ण जो संदेश दे रहे हैं अर्जुन को, वह बहिर्मुखी के लिए है। इसलिए इस बात की बहुत संभावना है कि आने वाले भविष्य में गीता का मूल्य रोज-रोज बढ़ता जाएगा। बुद्ध और महावीर से भी ज्यादा शायद कृष्ण भविष्य के लिए ज्यादा उपयोगी सिद्ध होंगे। क्योंकि चेतना बहिर्मुखी होती चली जाती है। आदमी बाहर, और बाहर, और बाहर भटकता है।
अगर बाहर ही भटकना है, तो परमात्मा पर भटके, प्रार्थना का इतना ही मतलब है। बाहर ही भटकना है, धन पर भटकते हैं, धन पर न भटकें, परमात्मा पर भटकें। बाहर ही चेतना जाती है, मित्र ही खोजना है, तो शरीरधारी मित्र को न खोजें, अशरीरी मित्र को खोज लें। बिना कंपेनियन के नहीं चलता, तो साधारण साथी मत खोजें; परम साथी खोज लें। अगर पढ़ना ही है अखबार, तो अखबार न पढ़कर गीता ही पढ़ लें। अगर सुनना ही है संगीत, तो जरूरी क्या है कि फिल्म का संगीत सुनें! मीरा का पद या कबीर का पद सुन लें। बाहर ही जाएं, लेकिन बाहर की यात्रा को ही धर्म की यात्रा बना लें। तब आप अपराधी अनुभव नहीं करेंगे और ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूं।
अगर बहिर्मुखी धर्म में कोई अंतर्मुखी व्यक्ति फंस जाए, तो वह भी दिक्कत में पड़ेगा। वह अगर परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो, आंख बंद करेगा, परमात्मा खो जाएगा। मूर्ति नदारद हो जाएगी, वह अकेला ही रह जाएगा। वह भी पछताएगा। वह भी कहेगा कि मैं कैसा पापी हूं! परमात्मा का इतना ध्यान करता हूं, लेकिन भीतर मूर्ति नहीं बनती।
अंतर्मुखी के भीतर परमात्मा की मूर्ति नहीं बनेगी, सिर्फ बहिर्मुखी के भीतर बन सकती है। अंतर्मुखी तो तत्काल भीतर चला जाएगा, मूर्ति सब बाहर रह जाएंगी। परमात्मा की मूर्ति भी बाहर रह जाएगी। मूर्ति मात्र बाहर रह जाएगी। क्योंकि मूर्त का अर्थ है, बाहर। अमूर्त ही रह जाएगा। तो बेचारा वह भी तकलीफ में पड़ेगा, वह भी घबड़ाएगा।
इसलिए अगर क्रिश्चियनिटी में या इस्लाम में अंतर्मुखी व्यक्ति पैदा हो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि वे धर्म बहिर्मुखी हैं। अगर महावीर के धर्म में बहिर्मुखी पैदा हो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि वह धर्म अंतर्मुखी है।
इसलिए मोहम्मद के पीछे चलने वाले लोगों ने नासमझी से मंसूर जैसे अंतर्मुखी को काटकर दो टुकड़े कर दिया। क्योंकि मंसूर उनकी समझ में नहीं पड़ा। मंसूर कहने लगा, अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक, मैं ही ब्रह्म हूं। उन्होंने कहा, पागल हो गए हो! कभी भूलकर यह मत कहना कि तुम परमात्मा हो। कहां परमात्मा और कहां हम नाचीज? यह तो कुफ्र है। यह तो तुम काफिर की बात बोल रहे हो। तुम परमात्मा होने का दावा नहीं कर सकते हो। लेकिन मंसूर ने कहा कि मेरे अलावा और कौन परमात्मा होने का दावा कर सकता है! मैं कहता हूं, तुम भी परमात्मा होने का दावा कर सकते हो। तब तो उन्होंने कहा कि यह हद की बात कर रहा है! यह आदमी पागल हो गया।
बहिर्मुखी व्यवस्था है धर्म की, तो अंतर्मुखी व्यक्ति पागल मालूम होने लगेगा। मंसूर को काट डाला, मार डाला। और कठिनाई यह है कि बहिर्मुखी व्यक्ति कभी भी अंतर्मुखी की भाषा नहीं समझ पाएगा। अंतर्मुखी की भाषा बहिर्मुखी नहीं समझ पाएगा। उन दोनों की भाषाएं बड़ी दूर हैं। बड़ी कठिनाई है।
इसलिए मैंने कहा कि बहिर्मुखता के लिए निष्काम कर्मयोग; अंतर्मुखता, इंट्रोवर्शन के लिए कर्म-संन्यास।
असल में जो व्यक्ति अंतर्मुखी है, उसे करने की इच्छा ही नहीं होती। उसे कर्म का भाव ही पैदा नहीं होता। क्योंकि कर्म का अर्थ ही बाहर जाकर करना है। भीतर तो कर्म हो नहीं सकता। भीतर कर्म का कोई उपाय नहीं है। एक्शन बाहर ही जाकर करना पड़ेगा। भीतर कोई कर्म नहीं हो सकता। भीतर तो सिर्फ चैतन्य हो सकता है, कांशसनेस हो सकती है, एक्शन नहीं हो सकता। और अगर किसी को कर्म करना हो, तो बाहर ही हो सकता है, भीतर नहीं हो सकता। भीतर आप क्या कर्म करिएगा? भीतर सिर्फ चेतना हो सकती है।
इसलिए जो व्यक्ति अंतर्मुखी चेतना में साधना कर रहा हो, वह धीरे-धीरे कर्म से हटता चला जाएगा। कहना ठीक नहीं है कि कर्म से हटता चला जाएगा, धीरे-धीरे कर्म उससे हटते चले जाएंगे।
अब जैसे कि रमण हैं। सारा कर्म गिर जाएगा। बस उठने-बैठने के, खाने-पीने के, इतने ही अत्यंत अत्यल्प, जीवन के लिए बिलकुल ही अनिवार्य कर्म शेष रह जाएंगे। वह भी रमण जैसा आदमी इस तरह करेगा, जैसे कि न करना पड़ता, तो अच्छा! अगर बिना उठे चल जाता, तो अच्छा। देखी है रमण की फोटो! वह एक ही गद्दी पर बैठे रहेंगे दिनभर। वह तो हाथ ही मुश्किल में पड़ जाएगा टिका-टिका और हाथ ही कहेगा कि अब बहुत हो गया, जरा करवट बदल लो, तो वे करवट बदल लेंगे।
एक्सट्रोवर्ट को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आएगी कि यह आदमी आलसी है! यह क्या कर रहा है? यह तो तमस हो गया, यह तो आलस्य हो गया। कुछ कर्म करो! लेकिन ऐसे व्यक्ति के भीतर कर्म उठता ही नहीं। वह हंसेगा। सब शांत हो गया भीतर। भीतर लौट गई धारा। वह अपने में लीन हो गया। कर्म तक पहुंचने की कोई संभावना नहीं रही। कोशिश भी करे, तो नहीं पहुंच सकता।
बहिर्मुखी उलटी हालत में होता है। बहिर्मुखी एक जगह बैठ जाए, तो टांग ही हिलाता रहेगा, कुछ नहीं तो। कुछ भी नहीं हिलाने का मौका है, तो बैठकर टांग ही हिला रहा है!
बुद्ध के सामने एक दिन एक आदमी बैठकर टांग हिला रहा है। बोल रहे हैं बुद्ध। उन्होंने बोलना बीच में बंद कर दिया। उन्होंने कहा, यह टांग क्यों हिला रहे हो? उस आदमी ने कहा, आप भी कहां की फिजूल की बात में आ गए! यों ही हिला रहे हैं। हमको कुछ पता ही नहीं था। बुद्ध ने कहा, तेरी टांग, और तुझे पता नहीं, और हिल रही है! टांग किसकी है यह? उस आदमी ने कहा, है तो मेरी। फिर तू क्यों हिला रहा है? उसने कहा, आप बड़ा कठिन सवाल पूछते हैं! इतना ही कह सकता हूं कि बिना हिलाए मैं रह नहीं सकता। कुछ न कुछ हिलाता ही रहूंगा। रात में भी बड़बड़ाता हूं, नींद में भी बोलता हूं।
महावीर जैसा आदमी एक ही करवट सोता है रातभर। करवट नहीं बदलेंगे रातभर। रातभर जहां पैर है वहीं पैर, जहां हाथ है वहीं हाथ! रात में एक दफा करवट न बदलेंगे। कोई पूछता है महावीर को या बुद्ध को...। बुद्ध भी करवट नहीं बदलते रातभर। वे कहते, अकारण! एक ही करवट से चल जाता है।
अब यह जो भाव दशा है। हम तो जागे में भी करवट बदलते रहते हैं। वे कहते हैं, नींद में एक ही करवट से...। एक करवट भी जैसे मजबूरी है! यानी एक करवट के बिना तो सो ही नहीं सकते। एक करवट तो लेनी ही पड़ेगी, इसलिए लेते हैं। मिनिमम, जो न्यूनतम संभव है, वह लेते हैं। आप कितनी करवट लेते हैं? मैक्जिमम! जितनी ज्यादा संभव है। बिस्तर भी थक जाता है रातभर!
अपने को पहचानें। यदि आपकी चित्त-दशा कर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, निष्काम कर्म। अगर आपकी चित्त-दशा अकर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, कर्म-संन्यास। दोनों से ही पहुंच जाते हैं। दोनों से ही लोग पहुंचते रहे हैं। दोनों से ही सदा पहुंचते रहेंगे।
लेकिन प्रत्येक युग में पलड़ा बदल जाता है। कभी अंतर्मुखता की धारा होती है जगत में, तो अंतर्मुखी धर्म निर्मित होते हैं। और जितने धर्म निर्मित हुए भारत में, वे करीब-करीब सब अंतर्मुखी हैं। वही धारा थी। भारत के बाहर जितने धर्म निर्मित हुए, वे सब बहिर्मुखी हैं। चाहे इस्लाम हो और चाहे ईसाइयत हो, धारा बहिर्मुखता की थी। इसलिए ईसाइयत और इस्लाम में ध्यान की धारणा विकसित न कर पाए वे। प्रेयर, प्रार्थना से आगे बात नहीं गई। प्रार्थना से काम चल गया। ध्यान की धारणा तो अंतर्मुखी साधकों ने विकसित की।
आप अपने लिए खोज लें। और कठिन नहीं है खोजना। जांच बड़ी आसान है। इसलिए और भी आसान है कि सौ में से निन्यानबे मौके पर बहिर्मुखी होंगे आप। एकाध आदमी अंतर्मुखी होता है। लेकिन दोत्तीन जांच-परख के लिए नियम बना लें: अकेले में कैसा लगता है, भीड़ में कैसा लगता है? स्वाद क्या है दोनों बातों का? अकेले में स्वाद मुंह का कड़वा हो जाता है कि मिठास से भर जाता है? भीड़ में स्वाद मधुर हो जाता है कि तिक्त हो जाता है? कर्म में अच्छा लगता है कि विश्राम में डूब जाते हैं, तो अच्छा लगता है?
ध्यान रहे, विश्राम का मतलब आलस्य नहीं है। आलस्य और विश्राम में बड़ा फर्क है। आलसी विश्राम में नहीं होता, सिर्फ श्रम से बचाव में होता है; एस्केप में होता है। विश्राम तो बड़ी पाजिटिव स्थिति है, निगेटिव नहीं है। विश्राम तो बड़ी जीवंत अवस्था है।
बुद्ध की मूर्ति देखें, तो आलसी नहीं मालूम पड़ते। चेहरे पर चमक है। आंखों में ज्योति है। शरीर पर आलस्य की छाया नहीं है। शरीर पर जागती हुई सुबह की रोशनी है। महावीर को देखें, खड़े हुए उनकी मूर्ति को देखें, तो भीतर से प्राण फूटे पड़ रहे हैं, बहे जा रहे हैं। आलस्य नहीं है, विश्राम है।
आलस्य, कहना चाहिए, चमकहीन होता है। विश्राम चमक से भरा होता है। विश्राम--भीतर तो झरना लबालब भरा है ऊर्जा का, लेकिन कर्म की इच्छा नहीं है। आलस्य--कर्म की तो इच्छा है, लेकिन शक्ति नहीं है, ऊर्जा नहीं है, इसलिए पड़े हैं! कर्म की तो बड़ी इच्छा है। दिल तो अपना भी है कि सिकंदर हो जाते, कि इंदिरा गांधी हो जाते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाकी ऊर्जा नहीं है; भीतर एनर्जी नहीं है। पड़े हैं अपने बिस्तर से टिके हुए। ऊर्जा नहीं है, शक्ति नहीं है। इरादे तो बहुत हैं कि जीत लें दुनिया को। इरादे कर रहे हैं आंख बंद करके वहीं दुनिया को जीतने के। आलस्य में पड़े हुए लोग भी सिकंदर से कम यात्राएं नहीं करते! लेकिन भीतर ही भीतर करते हैं, बाहर नहीं। आलस्य और विश्राम में भेद है।
कर्म-संन्यास विश्राम की अवस्था है, आलस्य की नहीं। कर्मयोग और कर्म-संन्यास दोनों के लिए शक्ति की जरूरत है। दोनों के लिए। आलसी दोनों नहीं हो सकता। आलसी कर्मयोगी तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि कर्म करने की ऊर्जा नहीं है। आलसी कर्मत्यागी भी नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म के त्याग के लिए भी विराट ऊर्जा की जरूरत है। जितनी कर्म को करने के लिए जरूरत है, उतनी ही कर्म को छोड़ने के लिए जरूरत है। हीरे को पकड़ने के लिए मुट्ठी में जितनी ताकत चाहिए, हीरे को छोड़ने के लिए और भी ज्यादा ताकत चाहिए। देखें छोड़कर, तो पता चलेगा। एक रुपए को हाथ में पकड़ें। पकड़े हुए खड़े रहें सड़क पर, और फिर छोड़ें। पता चलेगा कि पकड़ने में कम ताकत लग रही थी, छोड़ने में ज्यादा ताकत लग रही है।
कर्म-संन्यास भी शक्ति मांगता है। और कर्मयोग तो शक्ति मांगता ही है। आलसी के लिए दोनों मार्ग नहीं हैं। आलसी, अगर हम ठीक से कहें, तो थर्ड सेक्स है, नपुंसक। बहिर्मुखी भी नहीं है वह, अंतर्मुखी भी नहीं है; बीच की देहली पर खड़े हैं! थर्ड सेक्स, न पुरुष हैं, न स्त्री। न अंतर्मुखी, न बहिर्मुखी। बीच में खड़े हैं। उनकी कोई भी यात्रा नहीं है। न वे भीतर जाते, न वे बाहर जाते। वे कहीं जाते ही नहीं। वे अपनी देहली पर बैठे हुए हैं! भीतर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जाने के लिए तो हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। यात्रा कोई भी हो, कहीं से भी जाना हो, बिना ऊर्जा, बिना साहस के कोई यात्रा संभव नहीं है।


संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।। ६।।
परंतु हे अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत् स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।
फिर पुनः कृष्ण कहते हैं! शायद फिर अर्जुन की आंख में झलक लगी होगी कि जब दोनों ही मार्ग ठीक हैं, और जब कर्म को छोड़ने वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां कर्म को करने वाला। तो अर्जुन के मन को लगा होगा, फिर कर्म को छोड़ ही दूं। छोड़ना चाहता है। छोड़ना चाहता था, इसीलिए तो यह सारा संवाद संभव हो सका है। सोचा होगा, कृष्ण अब बिलकुल मेरे अनुकूल आए चले जाते हैं। अब तो वही कहते हैं मेरे मन की, मनचाही, मनचीती बात। यही तो मैं चाहता हूं कि छोड़ दूं सब। और जब छोड़ने से भी पहुंच जाते हैं वहां, तो इस व्यर्थ के युद्ध के उपद्रव को मैं मोल क्यों लूं!
ये सब सपने उसकी आंखों में फिर तिर गए होंगे। ये सब उसकी आंखों में भाव फिर आ गए होंगे। उसे फिर जस्टीफिकेशन मिला होगा। उसे फिर लगा होगा कि फिर मैं ही ठीक था, फिर कृष्ण क्यों इतनी देर तक लंबी बातचीत किए! जब मैंने गांडीव रखा था और शिथिल गात होकर बैठ गया था, तभी मुझसे कहते कि हे अर्जुन, हे महाबाहो, तू तो कर्म-संन्यासी हो गया है। और कर्म-संन्यास से भी लोग वहीं पहुंच जाते हैं, जहां कर्म करने वाले पहुंचते हैं। प्रसन्न हुआ होगा मन में कहीं। जो चाहता था, वही करीब दिखा होगा। वही कृष्ण के मुंह से भी उसे सुनाई पड़ा होगा। वही कृष्ण की बात में भी ध्वनित हुआ होगा।
उसे देखकर ही कृष्ण तत्काल कहते हैं, लेकिन अर्जुन, जब तक आकांक्षा न छूट जाए और कर्म में निष्कामता न सध जाए, तब तक कोई व्यक्ति कर्म को छोड़ना आसान नहीं पाता है।
फिर दुविधा उन्होंने खड़ी कर दी होगी! अर्जुन से फिर छीन लिया होगा उसका मिलता हुआ आश्वासन। सांत्वना बंधती होगी, कंसोलेशन उतर रहा होगा उसकी छाती पर, वह फिर हटा दिया होगा। कहा कि नहीं, आकांक्षा छोड़कर कर्म का जो अभ्यास न कर ले, वह कर्म भी छोड़ पाए, यह बहुत कठिन है। क्योंकि जो आकांक्षा नहीं छोड़ पाता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! जो आकांक्षा तक छोड़ नहीं सकता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! और जो आकांक्षा नहीं छोड़ सकता और कर्म छोड़कर भाग जाएगा, बहुत डर तो यही है कि सिर्फ कर्म ही छूटेगा, आकांक्षा न छूटेगी। खतरा है। कर्म छोड़ना एक लिहाज से आसान है।
एक चोर है। हम जब उसे जेल में बंद कर देते हैं, तो चोरी का कर्म छूट जाता है। कर्म-संन्यास हो गया? कर्म तो छूट गया। चोरी तो नहीं कर पाता है अब। लेकिन चोर होना बंद नहीं होता। चोर होना जारी है। चोर वह अब भी है। प्रतीक्षा कर रहा है, कब अवसर मिले। शायद और बड़ा चोर होकर बाहर निकलेगा।
अब तक तो यही हुआ है। अब तक कोई कारागृह किसी चोर को चोरी से मुक्त नहीं करा पाया है, सिर्फ निष्णात चोर बनाकर बाहर भेजता है--ट्रेंड! क्योंकि और सदगुरु वहां उपलब्ध हो जाते हैं! और भी गहन ज्ञानी, अनुभवी पुरुष! और चोर को भी पता चल जाता है कि यह चोरी का दंड नहीं मिल रहा है। यह दंड तो चोरी ठीक से न करने का मिल रहा है। अभ्यास करूं, और-और साधूं कुशलता, तो फिर यह भूल नहीं होगी।
कोई अदालत, कोई जेलखाना अब तक किसी चोर को चोरी से नहीं छुड़ा पाया। कर्म से छुड़ा देता है। वही भ्रम है, जो कई बार कर्मत्यागी भी कर बैठता है
कर्मत्यागी सोचता है कि ठीक है, बाजार में बैठता हूं, तो लोभ पकड़ता है। तो बाजार छोड़ दूं। जैसे कि बाजार में लोभ पैदा करने का कोई उपाय हो! लोभ तो होता है भीतर। बाजार में तो लोभ नहीं होता। सोचता है, बाजार में लोभ पकड़ता है, बाजार छोड़ दूं। स्त्री को देखकर वासना जगती है, स्त्री की तरफ पीठ कर लूं। पद को देखकर मन होता है कि पद पर चढ़कर बैठ जाऊं, तो ऐसी जगह चला जाऊं, जहां पद ही न हो। तो कोई कर्म को छोड़कर भाग सकता है। सौ में से निन्यानबे मौके पर डर इस बात का है कि कर्म तो छूट जाए और आकांक्षा और वासना न छूटे। तब वह जंगल के झाड़ के नीचे बैठकर भी वही आदमी होगा, जो बाजार में था। आदमी में कोई क्वालिटेटिव, कोई गुणात्मक अंतर नहीं पड़ेगा। परिस्थिति बदल जाएगी, मनःस्थिति नहीं बदलेगी।
मनःस्थिति बदलनी बड़ी कठिन बात है! और जो मन:स्थिति बदल सकता है, कृष्ण कहते हैं, वह छोड़कर भी क्यों जाएं? वह यहां भी बदल सकता है। और जो यहां नहीं बदल सकता, क्या भरोसा है कि वह वहां बदल सकेगा? जाऊंगा तो मैं ही, मैं चाहे बाजार में रहूं और चाहे हिमालय पर चला जाऊं। बाजार तो यहीं रह जाएगा बंबई में, मैं हिमालय चला जाऊंगा। लेकिन मैं तो अपने साथ ही चला जाऊंगा। मेरे सारे रोग, मेरे सारे मन की रुग्णताएं मेरे साथ चली जाएंगी। उनको यहां नहीं छोड़कर जा सकूंगा।
हां, अवसर हो सकता है यहां छूट जाए। हो सकता है, दर्पण यहां छूट जाए, लेकिन चेहरा तो मेरा मेरे साथ चला जाएगा। और यह भी हो सकता है कि दर्पण न हो, तो चेहरा दिखाई न पड़े। लेकिन इससे चेहरा नहीं है, यह तो नहीं है। चेहरा तो है ही। कभी किसी झील में दिखाई पड़ जाएगा। कभी किसी पानी के झरने में दिखाई पड़ जाएगा। कभी कोई राहगीर गुजरता होगा, उसकी आंख में दिखाई पड़ जाएगा।
सुना है मैंने कि एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय पर था। तीस वर्ष जिस चीज को छुड़ाने आया था, वह कभी की छूट गई। फिर आश्वस्त हो गया। अहंकार से पीड़ित था, उसी से बचने सब छोड़कर हिमालय आया था। गल गया, हिमालय की ठंड! नहीं बचा होगा। लेकिन कहीं ठंड से, सर्दी से अहंकार गलते हैं? हिमालय की ऊंचाई अहंकार न चढ़ पाया होगा! इतनी ऊंचाई पर थक गया होगा, सांस भर गई होगी! नीचे ही रुक गया होगा, संन्यासी ऊपर चला गया होगा! लेकिन अहंकार कहीं थकता है ऊंचाइयां चढ़ने से?
सच तो यह है कि अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने से बड़ा प्रसन्न होता है। अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने की आकांक्षा का नाम है। जितना ऊंचा शिखर हो, उतना ही उसका दम फूलता नहीं और मजबूत होता है।
लेकिन तीस साल अहंकार की रेखा भी पता न चलती थी। भरोसा हो गया पक्का। बहुत तरह से खोजकर देखा, कहीं अहंकार न था। फिर उसने सोचा, अब क्या डर है! अब वापस चलूं। नीचे उतरकर एक गांव के पास रहने लगा। गांव के लोग आने लगे। दर्पण वापस लौट आए। कोई पैर छूने लगा, कोई महात्मा कहने लगा। भीतर कोई चीज जो तीस साल से बिलकुल पता न थी, धीरे-धीरे उठने लगी। पर अभी भी उसे पता नहीं है, क्योंकि पहचान भूल गई, रिकग्नीशन भूल गया। तीस साल से देखा नहीं, एकदम से समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। लेकिन कुछ हो रहा है। कोई चीज, कोई गर्मी, कोई ऊष्मा चारों तरफ खून में फैलती चली जाती है।
फिर बड़ा मेला भरता था, कुंभ का भरता होगा। कुंभ का मेला महात्माओं की परीक्षा के लिए बड़ी अच्छी जगह है!
गांव के लोगों ने कहा, इतने बड़े महात्मा और कुंभ के मेला नहीं चलेंगे, तो नहीं चलेगा। बड़ा महात्मा और कुंभ के मेला न जाए, ऐसा हो नहीं सकता। चलना ही पड़ेगा। फिर महात्मा ने कहा, अब डर भी क्या है! जिस चीज से डरते थे, वह तो खतम ही हो चुकी। चल सकते हैं।
लेकिन यह खयाल भी आ जाना कि मेरा अहंकार खतम हो चुका है, बड़ा गहरा अहंकार है। इसका उसे पता नहीं। चल पड़ा। जब कुंभ के मेले में पहुंचे, भीड़ थी भारी, महात्मा को कोई पहचानता न था। और महात्मा को पहचानते न हों आप, तो महात्मा और गैर-महात्मा में कोई फर्क होता है? पहचान का ही फर्क होता है। ऐसा नहीं कि महात्मा और गैर-महात्मा में फर्क नहीं होता, लेकिन वह भीतरी फर्क है, वह आपकी पकड़ में नहीं आता। आप तो पहचान से ही पकड़ते हैं। अगर बगल में एक महात्मा बैठा हो और आप पहचानते न हों, तो बिलकुल नहीं पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। पहचानते हों, तो पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। पहचानते हों कि चोर है, तो पता चलेगा कि चोर बैठा है। बेईमान है, तो बेईमान बैठा है। भीतर जो है, वह तो बहुत गहरे में है, उसका आपको पता नहीं चलता। उसका तो खुद को भी पता चल जाए, तो काफी है। दूसरे को पता चलना तो बहुत मुश्किल है।
वहां कोई पहचानता नहीं था महात्मा को। गांव के थोड़े-से लोग पहचानते थे। वहां भारी भीड़; धक्का-मुक्की हो गई। किसी ने पैर पर जूता रख दिया महात्मा के। महात्मा को गुस्सा आ गया। उचककर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, गर्दन दबा दूंगा! जानता नहीं मैं कौन हूं!
तब अचानक खयाल आया कि तीस साल विलीन हो गए एकदम! तीस साल पहले का आदमी वापस खड़ा हो गया। तीस साल पहले यही आदमी था वह, कि कोई पैर पर जूता रख देता, तो गर्दन पकड़ लेता और कहता, जान से मार डालूंगा। जानता नहीं मैं कौन हूं! वे तीस साल बीच के एकदम तिरोहित हो गए, जैसे थे ही नहीं। जैसे फिल्म में सिनेमा के पर्दे पर कैलेंडर एकदम से उड़ता है न; तारीख एकदम बदलती चली जाती है। तीन घंटे में कई साल बिताने पड़ते हैं। एक सेकेंड में तीस साल का कैलेंडर एकदम हवा में उड़ गया! वापस वह आदमी वहीं खड़ा हो गया, जिस दिन हिमालय गया था--अहंकार अपनी जगह, गर्दन पर हाथ कसे हुए!
लेकिन फिर उसने झुककर उस आदमी के पैर पड़ लिए, जिसकी गर्दन पकड़ी थी। वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह क्या करते हो! उस संन्यासी ने कहा कि आपने मुझ पर बड़ी कृपा की जो मेरे पैर पर जूता रख दिया। हिमालय तीस साल तक जो मुझे न बता पाया, वह आपके जूते ने मुझे बता दिया। तीस साल हिमालय में मुझे पता न चला कि अहंकार है, वह एक आदमी की जरा-सी चोट से पता चल गया। आपकी बड़ी अनुकंपा है। बड़ी कृपा है।
कृष्ण कहते हैं, कर्म से छोड़कर भाग जाना तो कठिन नहीं है, लेकिन अगर आकांक्षा न गई हो और अगर निष्काम कर्म न सध गया हो, तो कर्म छोड़ने से भी कुछ होगा नहीं।
अर्जुन की आंख में देखकर उन्होंने फिर बात खड़ी की होगी। और अर्जुन से कहा होगा, ऐसा मत सोच कि मैं कह रहा हूं कि तू छोड़कर चला जा। पहले तू निष्काम कर्म साध। यदि निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग भी कर सकता है।
लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग करना, न करना बराबर है। कोई भेद नहीं है। फिर वह व्यक्ति की अंतर्मुखता या बहिर्मुखता पर निर्भर करेगा। अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो बहिर्मुखी व्यक्ति कर्म को करता चला जाएगा, अंतर्मुखी व्यक्ति कर्म को अचानक पाएगा कि वे बंद हो गए हैं। लेकिन वासना से मुक्ति तो सधनी ही चाहिए, निष्कामता तो सधनी ही चाहिए। वह तो अनिवार्य शर्त है। उससे कोई बचाव नहीं है। इसलिए कृष्ण ने पुनः अर्जुन को याद दिला दी।
कृष्ण पूरे समय अर्जुन को पढ़ते चलते हैं। और गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले। शिष्य तो गुरु को कैसे पढ़ेगा! वह तो बहुत मुश्किल है, असंभव है। अगर शिष्य गुरु को पढ़ सके, तो वह खुद ही गुरु हो गया। उसके लिए अब किसी गुरु की जरूरत नहीं है। गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले खुली किताब की तरह, उसके एक-एक अध्याय को उसके जीवन के; उसके मन की एक-एक पर्त को झांक ले। गुरु वह नहीं है कि शिष्य जो कहे, वह उसे बता दे। गुरु वह है, जो वही बताए, जो शिष्य के लिए जरूरी है। गुरु वह नहीं है, जो शिष्य के लिए सिर्फ सिद्धांत जुटा दे। गुरु वह है, जो शिष्य के लिए ट्रांसफार्मेशन, रूपांतरण, क्रांति का मार्ग व्यवस्थित कर दे।
अर्जुन तो यही चाहता है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, छोड़ दे, तो अर्जुन प्रफुल्लित हो जाए। और सारी दुनिया में डंके से कह दे कि कोई मैंने छोड़ा, ऐसा मत कहना। असल में अर्जुन चाहता है कि कृष्ण की गवाही मिल जाए, तो वह सारी दुनिया को कह सके कि मैं कोई कायर नहीं हूं। डर तो उसे यही है गहरे में, बहुत गहरे में। क्षत्रिय है वह। एक ही डर है उसे कि कोई कायर न कह दे। इसलिए वह फिलासफी की बातें कर रहा है। वह यह कह रहा है कि मुझे कोई दार्शनिक सिद्धांत मिल जाए, जिसकी आड़ में मैं पीठ दिखा सकूं और मैं दुनिया से कह सकूं कि मैं कोई कायर नहीं हूं। मैंने कर्म-त्याग कर दिया है। और अगर तुम कहते हो कि मैं गलत हूं, तो पूछो कृष्ण से। कृष्ण की गवाही से छोड़ा है। ये गवाह हैं।
लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिस आदमी को गवाह बना रहा है, उस आदमी को गवाह बनाना बहुत आसान नहीं है। और जिस आदमी से वह अपनी कायरता के लिए, भागने के लिए, एस्केप के लिए, पलायन के लिए सहारे खोज रहा है, उस आदमी से इस तरह के सहारे खोजने संभव नहीं हैं। कृष्ण उसे क्रांति दे सकते हैं, सहारा नहीं दे सकते। कृष्ण उसे रूपांतरित कर सकते हैं, लेकिन पलायन नहीं करवा सकते। कृष्ण उसे नया व्यक्तित्व दे सकते हैं, लेकिन उसके भीतर छिपी हुई कमजोरियों के लिए आड़ नहीं बन सकते हैं।
इसलिए बार-बार कृष्ण जब भी--जब भी--कर्म-संन्यास की कोई बात कहते हैं, अर्जुन प्रफुल्लित मालूम होता है। वह कहता है, यही, यही! बिलकुल ठीक कह रहे हैं।
ऐसा मैं देखता हूं रोज। रोज मैं देखता हूं, साधुओं और संन्यासियों और गुरुओं के पास जो लोग बैठे होते हैं, वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज! वे उसी वक्त कहते हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, जहां उनको कोई सहारा मिलता है; जहां उन्हें लगता है कि ठीक, अपनी बेईमानी में कुछ सहारा मिल रहा है; अपनी चोरी में कुछ सहारा मिल रहा है। अगर कोई महात्मा समझाता है कि आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है, आत्मा ने कभी पाप ही नहीं किए; तो पापी बड़े सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक! यही तो हम कहते हैं। पापी को बड़ा रस आता है कि बिलकुल ठीक। महात्मा भी यही कह रहे हैं।
इसलिए महात्माओं के पास अगर पापी इकट्ठे हो जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन हिम्मत कृष्ण जैसी महात्माओं में जब तक न हो, तब तक सुनने वालों का कोई भी लाभ नहीं होता, हानि होती है। और मेरा ऐसा अनुभव है कि सौ में निन्यानबे महात्मा सुनने वालों को हानि पहुंचाते हैं, सहारा बन जाते हैं।
कृष्ण सहारा नहीं बनेंगे। इसलिए जरा-सी भी कोई बात ऐसी होती है कि अर्जुन उसको मैनिपुलेट कर सके, उसको घुमा-फिराकर अपना सहारा बना सके, कृष्ण फौरन छिन-भिन्न कर देते हैं; तलवार उठाकर काट देते हैं। वे कहते हैं, इस भूल में मत पड़ जाना। यह मत समझ लेना तू कि कर्म छोड़ना आसान है। जब तक निष्कामता न सध जाए, तब तक कर्म छोड़ना बहुत कठिन है।
और दूसरी बात यह कहते हैं कि अर्जुन, निष्काम कर्म सरल है। जो अर्जुन को कठिन मालूम पड़ रहा है, उसे वे सरल कहते हैं; और जो अर्जुन को सरल मालूम पड़ रहा है, उसे वे कठिन कहते हैं। इसे खयाल में रख लें।
अर्जुन को यही सरल मालूम पड़ रहा है, कर्म-त्याग बिलकुल सरल है। पत्नी को छोड़कर भाग जाना कोई कठिन बात है! दूकान को छोड़कर भाग जाना कोई बहुत कठिन बात है! जब कि दिवाला भी निकल रहा हो, तब तो और भी सरल है, तब तो कर्म-त्याग बिलकुल ही आसान है! दुख की घड़ी में कर्म को छोड़ देना कोई कठिन बात है? सुख की घड़ी में कोई छोड़ता नहीं।
यह अर्जुन कभी भी नहीं आज तक इसके पहले--यह कोई अर्जुन की कृष्ण की पहली मुलाकात नहीं है। जिंदगीभर के साथी हैं। गीता को अब तक पैदा होने का मौका नहीं आया था। अर्जुन अब तक ऐसे उपद्रव में, ऐसी क्राइसिस, ऐसे संकट में पड़ा नहीं था। और वह तो जरा दुविधा हो गई, नहीं तो वह संकट में पड़ता नहीं।
अगर दुश्मनी साफ-साफ होती, जैसे कि हिंदू-मुसलमानों का दंगा हो जाता है, तो कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि उस तरफ न कोई अपनी पत्नी का भाई होता, न कोई मामा होता, न कोई गुरु होता, न कोई रिश्तेदार होता। हिंदू-मुस्लिम का दंगा हो जाता, तो दंगा बड़ा मजेदार होता--सीधा। कोई झगड़ा नहीं। कोई कांसिएंस को अर्जुन की दिक्कत न होती, अगर हिंदू-मुस्लिम का दंगा होता।
लेकिन यह दंगा हिंदू-मुस्लिम का नहीं, एक परिवार का था, एक घर का था। उस तरफ भी अपने लोग थे, जिनके साथ खेले और बड़े हुए, जिनसे सीखे और जिनकी गोद में बैठे। गुरु थे, पितामह थे, भाई थे, मित्र थे--सब अपने थे। उस तरफ भी अपने थे, इस तरफ भी अपने थे। दोनों तरफ परिवार बंटकर खड़ा था।
इसलिए प्रासांगिक रूप से आपसे कहता हूं, अगर कभी दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्धों के दंगे मिटाने हों, तो जब तक हिंदू-मुसलमान परिवार नहीं बन जाते, तब तक दंगे नहीं मिट सकेंगे। जब उस तरफ भी अपना कोई मरने को हो, तभी मरने से रोका जा सकता है, नहीं तो नहीं रोका जा सकता। इसलिए धार्मिक लोग शादी नहीं होने देते हैं एक-दूसरे में। क्योंकि शादी हो गई, तो दंगे नहीं करवाए जा सकते। अगर मेरी पत्नी मुसलमान के घर में है, और मेरे भाई की पत्नी ईसाई के घर में है, और मेरी बहन किसी जैन के घर में है, और मेरी मां यहूदी है, तो दंगा करना बहुत मुश्किल मामला हो जाएगा। दंगा होगा किससे? दंगा हो सकता है, क्योंकि चीजें कटी हैं।
अर्जुन क्राइसिस में पड़ गया, क्योंकि परिवार सब बंटा हुआ सामने खड़ा था। यहां भी अपने थे। जीतेंगे तो, हारेंगे तो, मरेंगे अपने ही। कुछ भी हो, अपने मर जाएंगे। इससे बेचैनी खड़ी हो गई। इसलिए मुश्किल में पड़ गया। इसलिए अब वह राह खोजने लगा, ज्ञान की बातें करने लगा। उसके मन में कभी भी, कभी भी हिंसा के प्रति कोई अड़चन न थी। वह इतनी मौज से मार सकता था कि वह हाथ भी नहीं धोता और मजे से खाना खाता। उसको कोई मारने में तकलीफ नहीं थी। मारने में वह कुशलहस्त है। उससे ज्यादा कुशलहस्त आदमी खोजना मुश्किल है मारने में। लेकिन आज क्या अड़चन थी! सोचता है, सरल तो यही है कि सब छोड़ दूं। और कृष्ण कैसा उलटा आदमी मिल गया! कहां गलत आदमी को सारथी बना लिया!
इसलिए भगवान को सारथी बनाने से जरा बचना चाहिए। वे दिक्कत में रखेंगे। आपके रथ को ऐसी जगह ले जाएंगे, जहां आप नहीं चाहते कि जाए। उसी दिन गलती हो गई, जिस दिन कृष्ण को सारथी बना लिया। जिसने भी कृष्ण को सारथी बनाया, फिर रास्ता सुगम नहीं है। रास्ता अड़चन का होगा, यद्यपि परम उपलब्धि आनंद की होगी। मार्ग कठिन होगा, फल अमृत के होंगे। और गलत सारथी मिला, तो मार्ग तो बड़ा सरल होगा, लेकिन फल नर्क हो सकता है। अंधेरी रात के गङ्ढ में गिरा देता है।
जैसे ही कृष्ण को दिखाई पड़ा कि उसको लग रहा है कि अब मैं उसके करीब आ रहा हूं, वे तत्काल हट जाते हैं। आते हैं और हट जाते हैं। उन्होंने फौरन कहा कि ध्यान रख, निष्काम कर्म साधे बिना कर्म-त्याग नहीं हो सकता। पहले तू युद्ध कर। ऐसे कर कि फल की कोई आकांक्षा न हो। अगर तू युद्ध करके फल की आकांक्षा के पार उठ गया, तो ठीक है; फिर तू कर्म भी त्याग कर देना। अर्जुन कहेगा, फिर कर्म-त्याग करने से मतलब ही क्या है! वक्त ही निकल गया। फिर तो राज्य हाथ में होगा। फिर त्याग करने का क्या मतलब है? कृष्ण कहते हैं, युद्ध तो कर ले, फल की आकांक्षा छोड़कर। और जब राज्य मिल जाए और युद्ध गुजर जाए और तू निष्काम साध ले, तब तू त्याग कर देना!
अर्जुन को यह बहुत कठिन लगता है। दुख की घड़ी तो गुजारो और सुख की घड़ी में छोड़ देना! लेकिन ध्यान रहे, धर्म की यही अपेक्षा है। सुख की घड़ी में जो छोड़े, वही धर्म को उपलब्ध होता है। दुख की घड़ी में कोई कितना ही छोड़े, धर्म को उपलब्ध नहीं होता है। दुख की घड़ी में कोई भी छोड़ना चाहता है। दुख की घड़ी में छोड़ना नैसर्गिक है, धार्मिक नहीं। सुख की घड़ी में छोड़ना एक बड़ी इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक बड़ी असंभव क्रांति से गुजरना है। वह कृष्ण कहते हैं, उस असंभव क्रांति से गुजरना ही होगा अर्जुन!
आज इतना ही।
अब पांच मिनट उठेंगे नहीं जरा भी! एक भी नहीं उठेगा। क्योंकि और कोई प्रसाद बांटने के लिए हमारे संन्यासियों के पास नहीं है। वे अपना कीर्तन पांच मिनट आपको बांट देंगे। वह आपके मन में गूंजता हुआ घर ले जाएं। वह उनका प्रसाद लेकर जाएं। और बीच में कोई न उठे। एक जन उठ जाता है, तो बाकी लोगों को भी उठना पड़ता है। पांच मिनट बैठे रहें और पांच मिनट इस आनंद को लें और फिर चुपचाप चले जाएं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें