गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-073
अध्याय ६
पंद्रहवां प्रवचन
सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। ३१।।
इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में
आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी
सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में बर्तता है।
कृष्ण
इस सूत्र में अर्जुन को सब भूतों में प्रभु को भजने के संबंध में कुछ कह रहे हैं।
भजन का एक अर्थ तो हम जानते हैं, एकांत में बैठकर प्रभु के चरणों में समर्पित
गीत; एकांत में बैठकर प्रभु के नाम का स्मरण; या मंदिर में प्रतिमा के समक्ष भावपूर्ण निवेदन। लेकिन कृष्ण एक और ही रूप
का, और ज्यादा गहरे रूप का, और ज्यादा
व्यापक आयाम का सूचन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति समस्त भूतों में मुझ
सच्चिदानंद को भजता है! क्या होगा इसका अर्थ?
इसका
अर्थ होगा, जब भी कुछ आपको दिखाई पड़े, तब स्मरण करें कि वह
परमात्मा है। राह पर पड़ा हुआ पत्थर हो, कि आकाश से गुजरता
हुआ बादल हो, कि सुबह उगता हुआ सूरज हो, कि आपके बच्चे की आंखें हों, कि आपका मित्र हो,
कि आपका शत्रु हो, जो भी आपको मिले, उसके मिलन के साथ ही जो पहला स्मरण आपके प्राणों में प्रवेश करे, वह यह हो, यह भी प्रभु है। तब सच्चिदानंद रूप को हम
समस्त भूतों में भज रहे हैं, ऐसा कहा जा सकेगा।
रास्ते
पर वृक्ष मिल जाए,
कि गाय मिल जाए, कि नदी बहती हो--जो भी--जो भी
आकार मिले कहीं जीवन में, उन समस्त आकारों में उस निराकार का
स्मरण। इसके पहले कि हमें पता चले कि पत्थर है, पता चल जाए
कि परमात्मा है। तो भजन हुआ, कृष्ण के अर्थों में।
इसके
पहले कि मैं आपको देखूं और समझूं कि आप आदमी हैं, उसके पहले मुझे पता चल जाए
कि आप परमात्मा हैं। आदमी का होना पीछे प्रकट हो। निराकार की स्मृति पहले आ जाए,
आकार पीछे निर्मित हो। मैं पीछे पहचानूं कि आप कौन हैं; पहले तो यही पहचानूं कि परमात्मा है। तो समस्त भूतों में प्रभु को भजा गया,
ऐसा कहा जा सके।
एकांत
में भजन बहुत आसान है,
क्योंकि आप अकेले हैं। प्रतिमा के सामने भी भजन बहुत आसान है,
क्योंकि बहुत ठीक से समझें, तो फिर भी आप
अकेले हैं। लेकिन जीवन के सतत प्रवाह में, जहां न मालूम
कितने रूपों में लोग मिलेंगे; जहां कोई छुरा लिए हुए छाती पर
खड़ा हो सकता है, वहां भी पहले स्मरण आ जाए कि प्रभु छुरा लिए
हुए खड़ा है, तो फिर प्रभु का भजन हुआ।
जीवन
में जहां घना संघर्ष है,
जहां तनाव है, अशांति है, जहां शत्रुता भी फलित होती है, वहां पहला स्मरण यही
आए कि प्रभु है। पीछे पहचानें रूप को, पहले अरूप की पहचान हो
जाए। ऐसे अरूप को प्रतिपल देखने की जो साधना है, उसका नाम
कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, प्रभु को भजना।
जीवंत
साधना तो ऐसी ही होगी। जीवंत साधना कोनों में बंद होकर नहीं होती, जीवन के
विराट घनेपन में होती है। जीवंत साधना द्वार बंद करके नहीं होती, जीवंत साधना तो मुक्त आकाश के नीचे होती है। द्वार तो हम इसीलिए बंद करते
हैं कि बाहर जो है, वह परमात्मा नहीं है; वह कहीं भीतर न आ जाए! मंदिर में तो हम इसीलिए जाते हैं कि मकान में
परमात्मा को देखना कठिन पड़ेगा। लेकिन वह साधना संकुचित है, बहुत
सीमित है; उसके भी प्रयोजन और अर्थ हैं। लेकिन कृष्ण इस
सूत्र में जिस विराट साधना की खबर दे रहे हैं, वह बहुत और
है।
सुना
है मैंने, एक आदमी था महाराष्ट्र में। घोर नास्तिक था। साधु-संतों के पास जाता,
तो साधु-संत बड़ी मुश्किल में पड़ जाते। क्योंकि यह दुर्भाग्य की घटना
है कि नास्तिक भी हमारे तथाकथित साधु-संतों से ज्यादा समझदार होते हैं।
साधु-संत
मुश्किल में पड़ जाते। उस नास्तिक को जवाब देते उनसे न बन पड़ता। वह जो भी पूछता, उन
साधु-संतों को बेचैन कर जाता। साधु-संत होना चाहिए ऐसा कि जिसे कोई बेचैन न कर जाए;
बल्कि बेचैनी से भरा कोई पास आए, तो चैन लेकर
जा सके। लेकिन वह नास्तिक बहुत-से साधु-संतों के लिए तकलीफ और परेशानी का कारण बन
गया था। बड़े-बड़े साधुओं के पास जाकर भी उसने पाया कि उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं
है।
तब
एक साधु ने उससे कहा कि तू इधर-उधर मत भटक। तेरे लायक सिर्फ एक ही आदमी है, एकनाथ नाम
का। तू उसके पास चला जा। अगर उससे उत्तर मिल जाए, तो ठीक।
नहीं तो फिर परमात्मा से ही उत्तर लेना। फिर बीच में दूसरा आदमी काम नहीं पड़ेगा।
उस आदमी ने कहा, लेकिन परमात्मा तो है ही नहीं! तो उस साधु
ने कहा, फिर एकनाथ आखिरी आदमी है। उत्तर मिल जाए, ठीक; न मिले, तो तू जान।
बहुत
आशा से भरा हुआ वह नास्तिक एकनाथ के पास पहुंचा। सुबह थी। कोई सुबह के आठ, साढ़े आठ,
नौ बज रहे थे। धूप घनी थी, सूरज ऊपर निकल आया
था। गांव में पूछता हुआ गया, तो लोगों ने कहा कि एकनाथ के
बाबत पूछते हो! नदी के किनारे मंदिरों में देखना, अभी कहीं
सोता होगा! उसके मन में थोड़ी-सी चिंता हुई। साधु तो ब्रह्ममुहूर्त में उठ आते हैं।
नौ बज रहे हैं; कहीं सोता होगा!
गया
जब मंदिर में,
तो देखकर और मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि एकनाथ शंकर के मंदिर में
सोए हैं, पैर दोनों शंकर की पिंडी से टिके हैं; आराम कर रहे हैं! सोचा कि नास्तिक हूं मैं, अगर इतना
महानास्तिक मैं भी नहीं हूं। शंकर को पैर लगाते मेरी भी छाती कंप जाएगी। कहीं हो
ही अगर! कहता हूं कि नहीं है। लेकिन पक्का भरोसा नहीं है नहीं होने का। कहीं हो ही
अगर? और पैर लग जाए, तो कोई झंझट खड़ी
हो जाए। किसके पास मुझे भेज दिया! लेकिन जब अब आ ही गया हूं, तो इससे दो बात कर ही लेनी चाहिए। वैसे बेकार है। यह मुझसे भी गया-बीता
मालूम पड़ता है!
और
जो आदमी शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सो रहा है, उसको उठाने की हिम्मत न हो सकी।
पता नहीं नाराज हो, क्या करे! ऐसे आदमी का भरोसा नहीं। बैठकर
प्रतीक्षा की। कोई दस बजे एकनाथ उठे।
उस
आदमी ने कहा कि महाराज,
आया था पूछने कुछ ज्ञान; अब तो कोई जरूरत न रही
पूछने की। क्योंकि आप मुझसे भी आगे गए हुए मालूम पड़ते हैं! पूछने कुछ और आया था,
अभी पहले तो मैं यह पूछना चाहता हूं, यह कोई
उठने का समय है? साधु-संत ब्रह्ममुहूर्त में उठते हैं!
एकनाथ
ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त ही है। असल में जब साधु-संत उठते हैं, तभी
ब्रह्ममुहूर्त! न हम अपनी तरफ से सोते हैं, न अपनी तरफ से
उठते हैं। जब वह सो जाता है, सो जाता है; जब वह उठता है, तब उठ जाता है। तो हमने तो एक ही
जाना कि जब नींद खुल गई ब्रह्म की, तो ब्रह्ममुहूर्त है! हम
अपनी तरफ से सोते भी नहीं, अपनी तरफ से जागते भी नहीं।
ब्रह्म को जब सोना है, सो जाता है; ब्रह्म
को जब जगना है, जग जाता है। यह ब्रह्ममुहूर्त है, क्योंकि ब्रह्म उठ रहे हैं!
उसने
कहा, गजब की बात कह रहे हैं आप भी। और मुश्किल में डाल दिया। हम तो पूछने आए थे,
ब्रह्म है या नहीं? अब हम और मुश्किल में पड़
गए! क्योंकि आप तो कह रहे हैं, आप ही ब्रह्म हैं! एकनाथ ने
कहा कि यह ही नहीं कह रहा हूं कि मैं ही ब्रह्म हूं, यह भी
कह रहा हूं कि तू भी ब्रह्म है। फर्क इतना ही है कि तुझे अपने होने का पता नहीं,
मुझे अपने होने का पता है।
उसने
कहा, छोड़िए इस बात को। यह भी आपसे पूछ लूं कृपा करके कि शंकर की पिंडी पर पैर
रखकर सोना कौन-सा तुक है! एकनाथ कहने लगे, मैंने सब जगह पैर
रखकर देखा, शंकर को ही पाया। कहीं भी पैर रखूं, फर्क क्या पड़ता है! जहां भी पैर रखूं, वही है। शंकर
की पिंडी पर रखूं, तो वही है, अगर ऐसा
होता, तो एक बात थी। जहां भी पैर रखूं, वही है। तो फिर मैंने फिक्र छोड़ दी।
उस
आदमी ने कहा,
तो मैं जाऊं! क्योंकि अभी हम भी इस हालत पर नहीं पहुंचे कि शंकर की
पिंडी पर पैर रख सकें! हम तो कुछ ज्ञान लेने आए थे। आस्तिक होने आए थे। आप
महानास्तिक मालूम पड़ते हो। एकनाथ ने कहा, अब इतनी धूप चढ़ गई,
जाओगे कहां। भोजन बनाता हूं, भोजन कर लो,
फिर जाना।
और
एकनाथ गांव में जाकर आटा मांग लाए। फिर उन्होंने बाटियां बनाईं। और जब वे बाटियां
बनाकर रख रहे थे,
तो एक कुत्ता आकर एक बाटी लेकर भाग गया। तो एकनाथ हंडी लेकर घी की
उसके पीछे भागे।
उस
आदमी ने समझा कि यह दुष्ट,
कुत्ते से भी बाटी छुड़ाकर लाएगा। अजीब संन्यासी मिल गया! ले गया
कुत्ता एक बाटी, तो ले जाने दो।
यह
भी उसके पीछे दौड़ा कि देखें, यह करता क्या है? एक मील
दौड़ते-दौड़ते एकनाथ बामुश्किल उस कुत्ते को पकड़ पाए और पकड़कर कहा कि राम, हजार दफे समझाया कि बिना घी की बाटी हमको पसंद नहीं है खानी; तुमको भी नहीं होगी। नाहक एक मील दौड़वाते हो। हम घी लगाकर थोड़ी देर में
रखते; फिर उठाकर ले जा सकते थे! छुड़ाकर बाटी, घी की हंडी में डालकर--कुत्ते के मुंह की जूठी बाटी वापस डालकर--घी में
पूरा सराबोर करके मुंह में लगा दी और कहा कि आइंदा खयाल रखना, नहीं तो हड्डी-पसली तोड़ देंगे। न इस राम को पसंद है, न उस राम को पसंद है! जब हम बाटी में घी लगा लें, तभी
ले जाया करें। नाहक एक मील दौड़वाया!
उस
आदमी ने सोचा कि बड़े मजे का आदमी है! शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सोता है, कुत्ते को
राम कहता है!
अगर
ठीक से समझें,
तो यह भजन चल रहा है। ये दोनों ही भजन के रूप हैं। अगर प्रभु सब जगह
है, ऐसा स्मरण आ जाए, तो शंकर की पिंडी
को अलग कैसे करिएगा! और अगर सब जगह प्रभु है, तो कुत्ते को
बिना घी की बाटी कैसे खाने दीजिएगा!
ये
दोनों विरोधी बातें नहीं हैं, ये एक ही प्रभु के भजन में लीन चित्त के दो रूप
हैं। और संगतिपूर्ण हैं; इनमें कोई विरोध नहीं है। असल में
जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है, वही कुत्ते को राम कह
सकता है। और जो कुत्ते को राम कह सकता है, वही शंकर की पिंडी
पर पैर रख सकता है। यह शंकर की पिंडी पर पैर रखने का साहस, सामर्थ्य,
उसी का है, जो कुत्ते के सामने सिर झुका सके।
और कुत्ते के सामने सिर झुकाने की, समर्पण की स्थिति उसी में
हो सकती है, जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सके।
लेकिन
हमारी कुछ उलटी स्थिति है। हमें जहां भी कुछ दिखाई पड़ता है, पहले
संसार स्मरण आता है, पहले। अगर रास्ते में आप अकेले चले जा
रहे हैं, और अंधेरे में एक आदमी निकल आता है, तो आपको पहले भला आदमी नहीं दिखाई पड़ता है। पहले कोई चोर, बदमाश, लुच्चा! आपका स्मरण ऐसा है, आपका भजन ऐसा चल रहा है! और भगवान न करे कि आपके भजन की वजह से वह कहीं
आदमी लुच्चा हो जाए। क्योंकि भजन प्रभाव तो करता ही है।
आप
जब दूसरे के प्रति एक दृष्टि लेते हैं, तो आप दूसरे को वैसा होने का मौका
देते हैं। जब आप दूसरे के प्रति रुख लेते हैं, तो आप दूसरे
को वैसा होने का अवसर देते हैं। इस जमीन पर हजारों लोग इसलिए बुरे हैं, क्योंकि उनके आस-पास हर आदमी उन्हें बुरा सोचने का मौका दे रहा है।
आपको
खयाल न होगा कि अगर आपको दस ऐसे आदमियों के बीच में रख दिया जाए, जो आपको
भगवान मानते हों, तो आप चोरी करना बहुत मुश्किल पाएंगे--कि
अगर पकड़ा गए भगवान चोरी करते, तो क्या हालत होगी! अगर दस लोग
आप पर भगवान जैसा भरोसा भी करते हों, आपको देखकर भगवान जैसा
प्रणाम करते हों, तो अचानक आप पाएंगे कि आपकी संभावनाएं
रूपांतरित होने लगीं।
एक
भी आदमी भरोसा कर ले,
तो भी आपके भीतर कुछ नए का जन्म होता है। और एक भी आदमी अविश्वास कर
दे, तो आपके भीतर शैतान की प्रतीति शुरू हो जाती है। जो
दूसरे हमसे अपेक्षा करते हैं, हम उसे सिद्ध करने में लग जाते
हैं। जाने-अनजाने जो हमें दूसरे सोचते हैं, हम वैसे ही हो
जाते हैं।
लेकिन
हमें जब भी कोई दिखाई पड़ता है, तो हमें प्रभु का स्मरण नहीं आता, हमें संसार का ही स्मरण आता है। और संसार में भी जो बहुत क्षुद्र है,
अंधकारपूर्ण है, अशुभ है, उसका ही स्मरण आता है।
प्रभु
का इस अर्थ में भजन गहरी बात है, आर्डुअस, कठिन, तपश्चर्यापूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि जहां भी रूप प्रकट हो, वहां तत्काल स्मरण करना कि प्रभु है। और अगर ऐसा स्मरण बैठता चला जाए,
तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि सच में सभी जगह प्रभु है। और धीरे-धीरे
आप पाएंगे कि प्रभु के अतिरिक्त और कोई दिखाई पड़ना असंभव हो गया है।
कृष्ण
बहुत-सी विधियों की बात कर रहे हैं। यह भी एक विधि है। यह भी एक विधि है।
एक
सूफी फकीर हुआ है,
हसन। संस्मरण लिखा है हसन ने अपना कि जब मंसूर को फांसी दी जाती थी,
और लोग मंसूर पर नुकीले पत्थर फेंक रहे थे, और
मंसूर के शरीर से लहूलुहान धाराएं खून की बह रही थीं, तब हसन
भी उस भीड़ में खड़ा था। मंसूर हंस रहा था, और हसन भीड़ में खड़ा
था, और सारे लोग पत्थर फेंक रहे थे।
हसन
का इरादा नहीं था कि मंसूर पर पत्थर फेंके। लेकिन जिस भीड़ में खड़ा था, वह
दुश्मनों की थी। और हसन की इतनी हिम्मत न थी--तब तक इतनी हिम्मत न थी--कि उस भीड़
में खड़ा रहे, जो दुश्मनों की है। कहीं कोई पहचान न ले कि यह
आदमी पत्थर नहीं फेंक रहा है! तो उसके हाथ में एक फूल था, उसने
वह फूल फेंककर मंसूर को मारा। सिर्फ इस खयाल से कि लोग समझेंगे, मैं भी कुछ फेंककर मार रहा हूं।
लेकिन
मंसूर दूसरों के पत्थर खाकर तो प्रसन्न था, हसन का फूल खाकर रोने लगा। हसन
बहुत घबड़ाया। और हसन ने पूछा कि मेरी समझ में नहीं आता! लहूलुहान कर रहे हैं जो
पत्थर, घाव कर रहे हैं जो पत्थर, उनकी
चोट खाकर तुम हंसे चले जाते हो, और मैंने एक फूल मारा और तुम
रोने लगे?
मंसूर
ने कहा कि मैं एक साधना में लगा रहा हूं सदा। वह साधना मेरी यह रही है कि जब भी
मुझे कोई दिखाई पड़े,
तो मैं उसमें पहले परमात्मा देखूं। तो ये जो लोग मुझे पत्थर मार रहे
हैं, इनमें तो मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन तुझे तो मैं
समझता था कि तू परमात्मा है ही, इसलिए मैंने देखने की कोशिश
न की। तुझे तो मैं समझता था, तू ज्ञान को उपलब्ध है ही,
इसलिए तुझे परमात्मा देखने की क्या कोशिश! इनके साथ तो मैं भजन में
रत था। ये पत्थर फेंक रहे थे और मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन तूने जब फूल फेंका,
तो मैं चूक गया। तेरे से मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तेरे बाबत भी
परमात्मा होना मैं पहले सोचूं! तुझे तो मैं परमात्मा मानता ही था, जानता ही था। लेकिन चूक गया भजन एक क्षण को। मैं परमात्मा तुझ में नहीं
देख पाया, तेरा फेंकना ही मुझे पहले दिखाई पड़ गया, यद्यपि फूल था। मैं तेरे फूल की वजह से नहीं रो रहा हूं; मेरा भजन चूक गया, उसकी वजह से रो रहा हूं। तुझसे
अपेक्षा न थी कुछ फेंकने की। कभी सोचा भी नहीं था, इसलिए चूक
गया। लेकिन प्रभु को धन्यवाद कि उसने आखिरी क्षण में तुझसे एक फूल फिंकवा दिया,
तो मुझे पता चल गया कि मुझमें भी अभी कमी है। मेरा भजन पूरा नहीं
है।
इसलिए
कोई कभी ऐसा न समझ ले अपने को कि भजन पूरा हो गया। सतत जारी रखना ही पड़ेगा। जब तक
दूसरा दिखाई पड़ता है,
तब तक उसमें परमात्मा को खोजने की कोशिश जारी रखनी ही पड़ेगी। एक घड़ी
ऐसी आती है जरूर, जब दूसरा ही दिखाई नहीं पड़ता। तब फिर भजन
की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जब परमात्मा ही दिखाई पड़ने लगता है, तब फिर परमात्मा को भजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन जब तक वह नहीं
दिखाई पड़ता, तब तक उसका आविष्कार करना है, पर्तें तोड़नी हैं, उघाड़ना है।
और
आदमी के ऊपर रूप की पर्त-पर्त जमी हैं, जैसे प्याज पर जमी होती हैं--पर्त,
और पर्त, और पर्त। एक पर्त उघाड़ो, दूसरी पर्त आ जाती है। दूसरी उघाड़ो, तीसरी आ जाती
है। लेकिन अगर हम प्याज को उघाड़ते ही चले जाएं, तो एक घड़ी
ऐसी आती है, जब शून्य रह जाता है, कोई
पर्त नहीं रहती। प्याज बचती ही नहीं, शून्य रह जाता है। ठीक
ऐसे ही एक-एक पर्त आदमी की उघाड़ेंगे, उघाड़ेंगे, और जब आदमी के भीतर सिर्फ शून्य रह जाएगा, तब भागवत
चैतन्य का, तब भगवान का अनुभव होगा।
लेकिन
लंबी यात्रा है। जैसे कि कोई कुआं खोदता है। कुआं खोदता है, तो पानी
एकदम से हाथ नहीं लग जाता। पहले तो कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं। लेकिन वह पानी का
ध्यान रखकर कुआं खोदता चला जाता है। मिट्टी हाथ लगती है, पत्थरों
की चट्टानें हाथ लगती हैं। अभी पानी बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन पानी का स्मरण रखकर खोदता चला जाता है। भरोसा ही है कि पानी होगा।
और
भरोसा सच है। क्योंकि कितनी ही गहरी जमीन क्यों न हो, पानी होगा
ही। दूरी कितनी ही हो सकती है, पानी होगा ही। भरोसा झूठा भी
नहीं है। हां, आपकी ताकत कम पड़ जाए और जमीन ज्यादा हो,
तो बात अलग है। वह भी आपकी ताकत की कमी है। और थोड़ा खोदते, और थोड़ा खोदते, तो एक जगह आ जाती, जहां पानी है ही। लेकिन पहले पानी हाथ नहीं लगता। पहले तो कंकड़-पत्थर हाथ
लगते हैं। अब कंकड़-पत्थर से कोई भरोसा नहीं मिलता है कि आगे पानी होगा। कंकड़-पत्थर
से क्या संबंध है पानी का?
लेकिन
आदमी खोदता है। फिर थोड़ी-सी जमीन तर मिलती है; थोड़ी-सी पानी की झलक दिखाई पड़नी
शुरू होती है। लगता है कि अब जमीन गीली होने लगी। आशा बढ़ जाती है, सामर्थ्य बढ़ जाती है, हिम्मत बढ़ जाती है, और हुंकार करके आदमी खोदने में लग जाता है। फिर धीरे-धीरे गंदा पानी झलकने
लगता है। आशा और घनी होने लगती है। और एक दिन आदमी उस जल-स्रोत पर पहुंच जाता है,
जो शुद्ध है।
ठीक
ऐसे ही रूप में अरूप को खोदना पड़ता है। और जब हम खोदने चलते हैं, तब रूप ही
हाथ में मिलता है; अरूप तो सिर्फ स्मरण रखना पड़ता है। जब
रास्ते पर कोई आदमी मिलता है, तो सिर्फ स्मरण ही हम रख सकते
हैं कि प्रभु होगा गहरे में भीतर; अभी कुछ पता तो नहीं। जब
छुएंगे, तो आदमी की हड्डी-पसली हाथ में आएगी। जब मिलेंगे,
तो दोस्ती-दुश्मनी हाथ में आएगी; घृणा,
क्रोध, प्रेम हाथ में आएगा। ये सब कंकड़-पत्थर
हैं। इन पर रुक नहीं जाना है, और इनको अंतिम नहीं मान लेना
है। जो इनको अंतिम मान लेता है, वह प्रभु की खोज में रुक जाता
है।
आप
मुझे मिले और आपने मुझे एक गाली दे दी। बस, मैंने समझ लिया कि अंतिम बात हो
गई। यह आदमी बुरा है। यह अल्टिमेट हो गया मेरे लिए। यह गाली मेरे लिए चरम हो गई।
मैंने पहली पर्त को, कंकड़-पत्थर को कुएं की आखिरी स्थिति मान
ली।
जिससे
गाली मिली है,
उसके भीतर भी परमात्मा है। थोड़ा खोदना पड़ेगा। हो सकता है, थोड़ा ज्यादा खोदना पड़े। जिससे प्रेम मिला है, उसके
भीतर थोड़े जल्दी परमात्मा मिल जाए। जिससे घृणा मिली है, दो
पर्त और ज्यादा आगे मिले। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर्त कितनी ही हो,
भीतर परमात्मा सदा मौजूद है।
परमात्मा
यानी अस्तित्व,
वह जो है। इसलिए वह सब जगह मौजूद है। हम कहीं भी खोजेंगे, वह मिल जाएगा। कहीं भी खोजेंगे, वह मिल जाएगा। और
अगर हमने खोज न की, तो वह कहीं भी न मिलेगा।
यह
बड़े मजे की बात है कि परमात्मा, जो सदा और सर्वदा मौजूद है, हमारी बिना खोज के नहीं मिलेगा। प्रत्येक चीज के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
बिना कीमत कुछ भी नहीं मिलता, न मिलना चाहिए। क्योंकि बिना
कीमत कुछ मिल जाए, तो खतरा यही है कि आप पहचान भी न पाएं कि
आपको क्या मिला है।
एक
छोटी-सी घटना मुझे स्मरण आती है। नंदलाल बंगाल के एक बहुत अदभुत चित्रकार हुए।
रवींद्रनाथ ने एक संस्मरण लिखा है नंदबाबू के संबंध में कि जब नंदलाल बड़े चित्रकार
नहीं थे, सिर्फ विद्यार्थी थे और अवनींद्रनाथ ठाकुर के पास पढ़ते थे। अवनींद्रनाथ एक
दूसरे बड़े चित्रकार थे। अवनींद्रनाथ के पास पढ़ते थे।
एक
दिन रवींद्रनाथ अवनींद्रनाथ के पास बैठे हैं। नंदलाल कृष्ण की एक तस्वीर बनाकर
लाए। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने अपने जीवन में कृष्ण की इतनी सुंदर तस्वीर
नहीं देखी। बड़े से बड़े चित्रकारों ने बनाई है, लेकिन नंदलाल ने जो बनाई थी,
वह बात ही कुछ और थी। मैं तो एकदम विमुग्ध हो गया। मेरे मन में खयाल
उठा कि अवनींद्रनाथ कितने प्रसन्न न होंगे, उनके विद्यार्थी
ने कैसी अदभुत तस्वीर बनाई है!
लेकिन
अवनींद्रनाथ ने वह तस्वीर हाथ में उठाकर दरवाजे के बाहर फेंक दी और नंदलाल से कहा
कि इसको चित्र कहते हो?
इसको कला कहते हो? शर्म नहीं आती? बंगाल में जो पटिए होते हैं, जो दो-दो पैसे का
कृष्ण-पट बनाकर जन्माष्टमी के समय बेचते हैं, अवनींद्रनाथ ने
कहा कि तुमसे अच्छा तो बंगाल के पटिए बना लेते हैं!
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि मुझे जैसे किसी ने छाती में छुरा भोंक दिया हो। यह तो अपेक्षित ही न
था। मुझे खयाल आया कि अवनींद्रनाथ के भी मैंने चित्र देखे हैं, इतना
सुंदर कृष्ण का चित्र उनका भी कोई नहीं है। यह क्या हो रहा है! लेकिन बोलना ठीक न
था। शिष्य और गुरु के बीच बोलना उचित भी न था।
नंदलाल
पैर छूकर विदा हो गए। वह तस्वीर साथ में उठाकर बाहर ले गए। चले जाने पर रवींद्रनाथ
ने कहा कि क्या किया आपने?
देखा--मन था कि अवनींद्रनाथ से लड़ेंगे, जूझ
पड़ेंगे; लेकिन जूझने की हिम्मत टूट गई--आंख उठाकर देखा,
तो देखा, अवनींद्रनाथ की आंखों से आंसुओं की
धारा बह रही है। और मुश्किल में पड़ गए। कहा कि आप रो रहे हैं! बात क्या है?
अवनींद्रनाथ ने कहा कि बड़ा कष्ट होता है, इतना
सुंदर चित्र मैं भी बना नहीं सकता! तो रवींद्रनाथ ने कहा कि यही मैं सोचता था। फिर
फेंका क्यों है?
अवनींद्रनाथ
ने कहा कि बिना मूल्य के कुछ भी मिल जाए, तो रिकग्नीशन, प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसे थोड़ा कष्ट देना ही पड़ेगा। इसलिए भी कष्ट देना
पड़ेगा, ताकि उसे पता हो, जो उसे उपलब्ध
हो रहा है, वह आसान नहीं है, तपश्चर्या
है। और इसलिए भी कष्ट देना होगा कि अभी उसकी और भी संभावना है। यह चित्र आखिरी
नहीं है। अभी इससे बेहतर भी निकल सकता है। अगर वह मेरी आंखों में जरा-सा भी
प्रशंसा का भाव देख लेता, तो यह अंतिम हो जाता। इसके आगे फिर
नहीं निकल सकता था।
परमात्मा
भी हमसे बड़ी संभावनाओं और अपेक्षाओं में है--बड़ी संभावनाओं में। इसलिए जल्दी प्रकट
नहीं हो जाता। तपश्चर्या है, मूल्य चुकाना पड़ता है। और हम पर उसकी आस्था
इतनी है, जितनी हममें से किसी की भी उस पर आस्था नहीं है।
इसलिए तो हजार दफे भूल करते हैं, फिर भी माफ हुए चले जाते
हैं। हजार जन्म लेते हैं, व्यर्थ गंवा देते हैं, फिर जन्म मिल जाता है। लेकिन खोजे बिना नहीं मिलेगा। और खोज जब भी शुरू
होती है, तो जिसे हम खोजने जाते हैं, उससे
उलटी चीजें पहले हाथ आती हैं।
अगर
मैं आपके पास परमात्मा खोजने गया, तो पहले आप मिलेंगे, जो
कि परमात्मा नहीं हैं। पहले आपका शरीर मिलेगा, जो कि निराकार
नहीं है। फिर आपका मन मिलेगा, जो कि हजार गंदगियों से भरा
है। और अगर मैं इनको पार करने की सामर्थ्य नहीं रखता हूं, तो
मैं आपके बाहर से ही लौट आऊंगा और आपके उस मंदिर के अंतर्कक्ष से वंचित ही रह
जाऊंगा, जहां प्रभु विराजमान है। मैं कांटों से ही लौट आया,
फूलों तक पहुंच ही न पाया, यद्यपि सभी फूलों
की सुरक्षा के लिए कांटे होते हैं।
प्रभु
को भजना समस्त भूतों में,
इसका अर्थ है, चाहे कितना ही विपरीत कुछ क्यों
न हो, चाहे बिलकुल शैतान क्यों न खड़ा हो; जहां शैतान खड़ा हो, समझना कि साधना का और भी शुभ
अवसर उपलब्ध हुआ है; वहां भी प्रभु को भजना, वहां स्मरण करना कि प्रभु है।
जिस
रात जीसस को पकड़ा गया,
तो जिस व्यक्ति ने जीसस को पकड़वाया, जुदास ने,
यहूदा ने, तो जीसस ने जाने के पहले उसके पैर
अपने हाथों से धोए। उसी आदमी ने पकड़वाया जीसस को; उसी ने
दुश्मन को खबर दी। उसी ने तीस रुपए की रिश्वत में जीसस की खबर दी कि जीसस कहां
हैं। और विदा होने के पहले आखिरी रात सबसे पहले जीसस ने यहूदा के पैर अपने हाथ से
धोए। फिर बाकी शिष्यों के भी पैर अपने हाथ से धोए।
एक
शिष्य ने पूछा भी कि आप यह क्या करते हैं? हम तो आपके शिष्य हैं। आप हमारे
पैर धोते हैं! तो जीसस ने कहा कि मैं प्रभु का स्मरण करता हूं।
और
जब दूसरे दिन लोगों को पता चला कि यहूदा ने ही उनको पकड़वाया है, तो बहुत
हैरान हुए। अब तक वह बात गुत्थी की तरह उलझी रह गई कि यहूदा के पैर धोना जीसस ने
क्यों किया होगा?
कृष्ण
के इस सूत्र में व्याख्या है। ईश्वर को भजने का यह अवसर छोड़ना उचित न था। जो आदमी
फांसी पर लटकवाने ले जा रहा है, उस आदमी में भी परमात्मा को देखने की आखिरी
कोशिश जीसस ने की।
प्रभु
को इस अर्थ में जो भजना शुरू कर दे, उसे फिर किसी और भजन की कोई भी
जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में देखना शुरू कर दे, उसे
फिर किसी मंदिर और तीर्थ की जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में सोचना, समझना और जीना शुरू कर दे, उसके लिए पूरी पृथ्वी
मंदिर हो गई, उसके लिए सब रूप प्रतिमाएं हो गए प्रभु के,
उसके लिए सब आकार निराकार का निवास हो गए।
कृष्ण
से अर्जुन को मिला यह सूत्र बहुत कीमती है कि जो सब भूतों में मुझ वासुदेव को, मुझ
परमात्मा को, परमात्मा को, प्रभु को
देखना शुरू कर देता है, भजना शुरू कर देता है, वह योगी परम सिद्धि को उपलब्ध होता है।
आत्मौपम्येन
सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं
वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।। ३२।।
और
हे अर्जुन, जो योगी अपनी सादृश्यता से संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख
को भी सब में सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।
समत्व
योग है। समता का बोध श्रेष्ठतम योग है। सुख में, दुख में, अनुकूल में, प्रतिकूल में, सब
स्थितियों में, सब परिस्थितियों में जो सम बना रहता है,
समता को देखता है--एक। इस संबंध में काफी बात कृष्ण ने कही है।
इसमें एक दूसरी छोटी-सी बात वे कह रहे हैं, जो कीमती है। वह
है, जो अपने सादृश्य से सब में ही सम स्थिति देखता है। इसे
थोड़ा समझना जरूरी है।
अपने
सादृश्य से! कठिनतम बात है यह। इसका अर्थ यह है कि जब भी हम दूसरे के संबंध में
कोई निर्णय लें,
तब सदा अपने सादृश्य से लें। हम इससे उलटा ही करते हैं। जब भी हम
दूसरे के संबंध में कोई निर्णय लेते हैं, तो कभी अपने
सादृश्य से नहीं लेते।
अगर
दूसरा बुराई करता है,
बुरा काम करता है, तो हम कहते हैं, वह बुरा आदमी है। और अगर हम बुराई करते हैं, तो हम
कहते हैं, वह मजबूरी है। अगर दूसरा आदमी चोरी करता है,
तो वह चोर है। और अगर हम चोरी करते हैं, तो वह
आपदधर्म है! लेकिन कभी अपने सादृश्य से नहीं सोचते। अगर हम क्रोध करते हैं,
तो वह दूसरे के सुधार के लिए है। और अगर दूसरा क्रोध करता है,
तो वह हिंसक है, हत्यारा है! अगर हम किसी को
मारते भी हैं, तो जिलाने के लिए। और अगर दूसरा जिलाता भी है,
तो मारने के लिए।
दूसरे
को हम कभी भी उस भांति नहीं सोचते, जैसा हम स्वयं को सोचते हैं। स्वयं
में जो श्रेष्ठतम है, उसे हम स्वभाव मानते हैं; और दूसरे में जो निकृष्टतम है, उसे उसका स्वभाव
मानते हैं!
ध्यान
रहे, स्वयं का जो शिखर है, वह हमारा स्वभाव है; और दूसरे की जो खाई है, वह उसका स्वभाव है! उसका भी
शिखर है, और हमारी भी खाई है।
सादृश्य
का अर्थ यह है कि जब मैं दूसरे की खाई के संबंध में सोचूं, तो पहले
अपनी खाई को देख लूं। तो मैं पाऊंगा कि शायद मुझसे बड़ी खाई किसी दूसरे की नहीं है।
जब मैं अपने शिखर के संबंध में सोचूं, तो मैं दूसरों के शिखर
भी सोच लूं, तो शायद मैं पाऊंगा कि मुझसे छोटा शिखर किसी का
भी नहीं है।
लेकिन
हमारे सोचने की विधि,
पद्धति यह है कि दूसरे का जो बुरा है, निकृष्टतम
है, वही उसका सार तत्व है; और हमारा जो
श्रेष्ठतम है, वह हमारा सार तत्व है। इसलिए हमसे निरंतर
अन्याय हुआ चला जाता है। समता होगी कैसे?
ध्यान
रहे, एक समता तो यह है कि मैं दो आदमियों को समान समझूं, अ
और ब समान हैं। यह समता बहुत गहरी नहीं है। असली समता यह है कि मैं, मैं और तू को समान समझूं, जो बहुत गहरी है। दो
आदमियों को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दो
आदमियों को समान समझने में ही मैं ऊपर उठ जाता हूं। मैं पैट्रोनाइजिंग हो जाता
हूं। मैं दो को समान समझने वाला। मैं ऊपर उठ जाता हूं। मैं करीब-करीब मजिस्ट्रेट
की कुर्सी पर बैठ जाता हूं। दो को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है। दूसरे के
साथ स्वयं को समान समझने में सबसे बड़ी कठिनाई है।
सुना
है मैंने, सोरोकिन ने कहीं एक छोटा-सा मजाक लिखा है। लिखा है कि सोरोकिन एक समाजवादी
से बात कर रहा था, जो कहता था, सब
चीजें बांट दी जानी चाहिए समान। सोरोकिन ने उससे कहा कि जिन आदमियों के पास दो
मकान हैं, क्या आपका खयाल है, एक उसको
दे दिया जाए, जिसके पास एक भी नहीं? उस
आदमी ने कहा, निश्चित। बिलकुल ठीक। यही चाहता हूं। जिन
आदमियों के पास दो कारें हैं, सोरोकिन ने कहा, एक उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं? उस आदमी ने कहा कि बिलकुल दुरुस्त। यही तो मेरी फिलासफी है, यही तो मेरा दर्शन है। सोरोकिन ने कहा कि क्या आपका यह मतलब है कि जिस
आदमी के पास दो मुर्गियां हैं, एक उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं? उस आदमी ने कहा, बिलकुल गलत। कभी नहीं! सोरोकिन ने कहा कि कैसा समाजवाद है! अभी तक तो आप
कहते थे, बिलकुल ठीक! उसने कहा, न मेरे
पास दो मकान हैं और न दो कारें हैं, मेरे पास दो मुर्गियां
हैं। यह बिलकुल गलत। यहां तक समाजवाद लाने की कोई जरूरत नहीं है।
दूसरों
को समान कर दिया जाए,
यह बहुत कठिन मामला नहीं है। कृष्ण और गहरी समानता की बात कर रहे
हैं। वे कह रहे हैं, स्वयं के सादृश्य से समता, स्वयं को दूसरे के समान समझना।
यह
बड़ी जटिल बात है। क्योंकि अहंकार भयंकर बाधा डालता है। वह कहता है, कुछ भी
कहो, सब कहो, इंचभर भी जरा मुझे ऊंची
जगह दे दो, बस, फिर ठीक है। सबके साथ!
अभी
भीतर मन में सोचेंगे,
तब पता चलेगा कि सबके साथ मैं समान! यह नहीं हो सकता। सब समान हो
सकते हैं, सबके बीच मुझे जरा बचाओ। भीतर गहरे में मन कहेगा,
मुझे बचाओ। मैं सबको समान करने को राजी हूं। और सबको समान करने में
ही मैं विशेष हो जाऊंगा, मैं अलग हो जाऊंगा, मैं ऊपर उठ जाऊंगा।
इसलिए
समाजवादी नेता हैं सारी दुनिया में, साम्यवादी नेता हैं सारी दुनिया
में, वे सबको समान करने के लिए बहुत पागल हैं, बहुत विक्षिप्त हैं। लेकिन आखिर में कुल फल इतना होता है कि सब समान हो
जाते हैं, वे सबके ऊपर हो जाते हैं! कोई इस बात के लिए राजी
नहीं है कि मुझसे कोई समान हो।
कृष्ण
कहते हैं, स्वयं के सादृश्य से!
जब
भी दूसरे के संबंध में सोचो, तो स्वयं के सादृश्य से सोचना। और तब एक अदभुत
घटना घटेगी। तीन घटनाएं घटेंगी। एक तो घटना यह घटेगी, जो
स्वयं के सादृश्य से सोचेगा, वह दूसरे का निर्णय लेना बंद कर
देगा। नहीं; निर्णय नहीं लेगा। क्योंकि वह पाएगा, मैं कौन हूं निर्णय लेने वाला! मैं भी तो वहीं खड़ा हूं, जहां सारे लोग खड़े हैं।
इसलिए
हमारे जो तथाकथित साधु-संत होते हैं, जो स्वयं को कुछ पवित्र, ऊपर, और शेष सबको नारकीय जीव मानकर देखते हैं,
इन्हें कृष्ण के सूत्र का कोई पता नहीं।
तथाकथित
साधु-संन्यासियों के पास जाओ, तो वे ऐसे देखते हैं कि कहां है, पासपोर्ट ले आए नर्क जाने का कि नहीं! नीचे से ऊपर तक जांच करके उनकी आंख
का भाव यह होता है कि वे कहीं ऊपर, आप कहीं नीचे!
ठीक
संत तो वह है,
जो यह जान लेता है कि सभी सम हैं। क्योंकि वह जो भीतर बैठा है,
वह जरा भी ऊपर-नीचे नहीं हो सकता। एक ही बैठा हुआ है, तो असमानता का सवाल कहां है!
बुद्ध
ने अपने पिछले जन्म की कथा कही है। और कहा है कि अपने पिछले जन्म में, जब मैं
ज्ञान को उपलब्ध नहीं था, तब उस समय एक बुद्धपुरुष थे,
कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गए थे, तो मैं उनके
दर्शन करने गया। मैंने झुककर उनके पैर छुए। स्वाभाविक! उन्होंने जान लिया था,
मैं अज्ञानी था। मैं पैर छूकर खड़ा भी न हो पाया था कि मैं बड़ी
मुश्किल में पड़ गया। मैंने क्या देखा, अनपेक्षित, कि वे बुद्धपुरुष मेरे चरणों में सिर रखे हैं, झुक
गए हैं। घबड़ाकर मैंने उन्हें ऊपर उठाया और कहा कि आप यह क्या करते हैं! यह तो मेरे
साथ...मुझे पाप लगेगा। मैं आपके पैर छुऊं, यह तो ठीक,
क्योंकि आप जानते हैं और मैं नहीं जानता। और आप मेरे पैर छुएं!
तो
उन बुद्धपुरुष ने हंसकर कहा था कि जो तेरे भीतर बैठा है, मैं
भलीभांति जानता हूं, वह वही है जो मेरे भीतर बैठा है। तुझे
पता नहीं है, कभी पता चल जाएगा। जब तुझे पता चल जाएगा,
तब तेरी समझ में आ जाएगा यह राज कि मैंने तेरे पैर क्यों छुए थे!
मैंने तेरे पैर क्यों छुए थे, यह राज तुझे कभी समझ में आ
जाएगा। आज तुझे पता नहीं कि तेरे भीतर वही हीरा छिपा है, जो
मेरे भीतर। तू तो नहीं जानता है, इसलिए अगर मैं तेरे पैर न
भी छुऊं, तो तुझे पता नहीं चलेगा। लेकिन मैं तो जानता हूं;
अगर मैं तेरे पैर न छुऊं, तो मेरे सामने ही
मैं गिल्टी और अपराधी हो जाऊंगा। मैं जानता हूं कि वही तेरे भीतर भी छिपा है,
जो मेरे भीतर छिपा है।
यह
सादृश्य है।
तो
कृष्ण कहते हैं,
यह श्रेष्ठतम स्थिति है योग की। पर यह समता और है। यह अ और ब के बीच
में नहीं; यह मेरे और तेरे के बीच, मैं
और तू के बीच समता है।
मैं
को तू के सम लाना महायोग है। क्योंकि मैं की सारी चेष्टा ही यही है कि तू को नीचे
कर दे। हम जिंदगीभर यही करते हैं। तू को नीचे करने की कोशिश ही हमारी जिंदगी का रस
है। और अगर वस्तुतः न कर पाएं, तो हम दूसरी तरकीबों से करते हैं।
अगर
एक आदमी को धन मिल जाए,
तो जिनके पास धन नहीं है, वह उनके ऊपर खड़ा हो
जाता है। एक को मिनिस्ट्री मिल जाए, तो जिनको नहीं मिली,
वह उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। उसकी चाल बदल जाती है। उसका ढंग बदल
जाता है। उसकी आंखें बदल जाती हैं। लेकिन जिसको नहीं मिली, वह
क्या करे? जो हार गया, वह क्या करे?
वह
दूसरी तरकीबों से नीचा दिखाने की कोशिश करता है। वह कहता है, तुम जीते
नहीं हो, पैसा बांटकर जीत गए हो। मोरारजी भाई से पूछें! जो
जीत गया, वह पैसा बांटकर जीत गया। जैसे जो हार गया, उसने पैसे नहीं बांटे थे! हार जाना, कोई पैसे न
बांटने की प्रामाणिकता है? लेकिन जो जीत गया, उसे अब किस तरह नीचे दिखाएं? वह तो दिखा रहा है नीचे,
छाती पर चढ़ गया। अब जो हार गया है, वह क्या
करे? वह दूसरे रास्ते खोजेगा नीचे दिखाने के। इसीलिए हम
निंदा में इतना रस लेते हैं। हम एक-दूसरे की निंदा में इतना रस लेते हैं।
बहुत
मजे की बात है। अगर मैं आपसे आकर कहूं कि आपका पड़ोसी बहुत अच्छा आदमी है, तो आप
एकदम से मान न लेंगे। आप कहेंगे, अच्छा! भरोसा तो नहीं आता।
पड़ोसी और अच्छा आदमी! मेरे रहते और मेरा पड़ोसी अच्छा आदमी! क्या कह रहे हैं आप!
भला आप ऊपर से कहें या न कहें, भीतर बेचैनी शुरू हो जाएगी।
और आप कहेंगे, मान नहीं सकता। आपको पता नहीं है शायद। जरा
पुलिस की किताब में जाकर देखें ब्लैक लिस्ट में नाम है उसका। इसको आप अच्छा आदमी
कहते हैं! यह आदमी महा दुष्ट है। पत्नी को पीटते मैंने सुना है।
आप
पच्चीस बातें निकालकर दलील देंगे कि यह आदमी अच्छा नहीं है। क्यों? क्योंकि
अगर वह अच्छा है, तो आपके मैं का क्या होगा! आप पच्चीस
दलीलें खोजकर, उसे नीचे करके, अपने
सिंहासन पर पुनः विराजमान हो जाएंगे।
लेकिन
अगर कोई आपसे आकर कहे कि सुना, पड़ोस का आदमी फलाने की स्त्री को लेकर भाग गया!
आप कहेंगे, मैं पहले से ही जानता था कि वह भागेगा।
अब
आप बिलकुल खोजबीन न करेंगे। बिलकुल खोजबीन ही न करेंगे। जरा संदेह-शंका न उठाएंगे।
कोई प्रमाण न पूछेंगे। बिलकुल राजी हो जाएंगे कि दुरुस्त। यह तो हम पहले जानते थे
कि यह होने वाला है। हम पहले ही कह चुके थे कि वह आदमी भाग जाएगा। वह आदमी ही ऐसा
था।
बड़े
मजे की बात है कि जब कोई आपसे किसी की निंदा करता है, तो आप
प्रमाण नहीं पूछते। और जब कोई किसी की प्रशंसा करता है, तब
बड़े प्रमाण पूछते हैं! बात क्या है? निंदा मान लेने में दिल
को बड़ी राहत मिलती है, क्योंकि मैं ऊपर हो जाता हूं। प्रशंसा
मानने में बड़ी पीड़ा होती है, बड़ी चोट लगती है।
सुना
है मैंने, एक विद्यार्थी नंबर तीन पास हुआ। उसके बाप ने उसे डांटा कि हमारे कुल में
कभी न चला ऐसा। ऐसा कभी नहीं हुआ हमारे कुल में कि कोई नंबर तीन आया हो। हालांकि न
होने का कुल कारण इतना था कि कुल में कोई पढ़ा ही नहीं था! नंबर तीन आएगा कैसे?
लड़के ने बड़ी मेहनत की। वह सालभर मेहनत करके नंबर दो आया। बाप ने कहा
कि क्या रखा है! कौन-सी बड़ी उन्नति कर ली! एक ही लड़के को पीछे हटा पाए! लड़के ने और
मेहनत की और तीसरे साल वह नंबर एक आ गया। तो बाप ने कहा कि इसमें कुछ नहीं है।
इससे पता चलता है कि तुम्हारी क्लास में गधों के सिवाय कोई भी नहीं है!
बाप
को भी अड़चन होती है कि बेटा कुछ है। हालांकि सब बाप कोशिश करते हैं कि मेरा बेटा
कुछ हो, दूसरों के सामने। क्योंकि मेरा बेटा कुछ है, ऐसा
दूसरों को बताकर वे भी कुछ होते हैं। लेकिन अगर बेटा सच में कुछ है, तो बाप अड़चन में पड़ जाता है बेटे के साथ। दूसरों के साथ चर्चा करता है,
मेरा बेटा कुछ है। क्योंकि मेरा बेटा! लेकिन बेटा सामने पड़ता है,
तो बेचैनी शुरू होती है। बाप के मन को तक बेटे के मन से बेचैनी शुरू
होती है!
अगर
लड़की सुंदर हो,
तो मां तक चिंतित हो जाती है। और रास्ते पर जब गुजरती है, तो देखती रहती है कि लोग लड़की को देख रहे हैं कि उसको देख रहे हैं। अगर
लड़की को देख रहे हैं, तो बहुत बेचैनी होती है। उसका बदला वह घर
लौटकर लड़की से लेगी!
आदमी
का मन इतने निकट संबंधों में भी मैं को ऊपर रखता है। मां और बेटी के संबंध में भी, बाप और
बेटे के संबंध में भी, वह मैं को ऊपर रखता है। निकटतम के साथ
भी हमारी दुश्मनी चलती है मैं और तू की।
महायोग
है, कृष्ण कहते हैं कि स्वयं के सादृश्य से सब के साथ समता समझ लेना।
जरा
भी फासला न रह जाए,
कि दूसरा ठीक वैसा ही है, जैसा मैं हूं। बुराई
में भी, भलाई में भी, पाप में भी,
पुण्य में भी, दूसरे और मुझमें कोई फासला नहीं
है। ऐसी प्रतीति की जो गहराई है, वह बहुत बड़ा विस्फोट लाती
है।
पर
इसको चाहने के लिए,
इस दिशा में यात्रा करने के लिए, जब भी दूसरे
के संबंध में सोचें, तो एक बार पुनः उसी बात को लेकर अपने
संबंध में पहले सोचना। और अपने मन के धोखों में मत पड़ जाना, क्योंकि
मन कहेगा, ये तो मजबूरियां थीं। ऐसा तो उसका मन भी कहता है,
यह भी जानना। ऐसा मत कहना कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। उसका मन भी
यही कहता है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। जैसा हमें लगता है, वैसा
ही प्रत्येक को लगता है।
महावीर
ने तो इसे अहिंसा कहा,
इस सूत्र को। यह स्वयं के सादृश्य सब को मान लेने को महावीर ने
अहिंसा कहा। महावीर ने कहा कि जैसा हमें लगता है, वैसा सब को
लगता है, इसलिए तुम जो व्यवहार अपने साथ करो, वही दूसरे के साथ करो।
जीसस
ने भी यही कहा। अगर जीसस के पूरे जीवन के उपदेश का सार-निचोड़ हम रखें, तो एक ही
वाक्य है जीसस का, जो परम है, महावाक्य
है, डू नाट डू अनटु अदर्स, दैट यू वुड
नाट लाइक टु बी डन विद यू--मत करो दूसरों के साथ वह, जो तुम
न चाहोगे कि दूसरे तुम्हारे साथ करें।
लेकिन
हम वही कर रहे हैं। और तब अगर हम योग को उपलब्ध नहीं होते, तो
आश्चर्य नहीं। और अगर हम श्रेष्ठ शांति को और आनंद को उपलब्ध नहीं होते, तो आश्चर्य नहीं। यह हमारे ही कर्मों का सुनिश्चित फल है। जो हम कर रहे
हैं, उसकी यह नियति है। यही होगा।
लेकिन
बहुत कठिन है दूसरे के साथ अपने को सम भाव में रखना। सबसे बड़ी कठिनाई उस ईगो और
अहंकार की है,
जो कहता है, मैं! मेरे जैसा कोई भी नहीं।
अरब
में एक कहावत है,
एक मजाक है कि परमात्मा जब लोगों को बनाता है, तो सबके साथ एक मजाक कर देता है। धक्का देते वक्त दुनिया में, उनके कान में कह देता है, तुम जैसा किसी को भी नहीं
बनाया। सभी से कह देता है, दिक्कत तो यह है। अगर एकाध से कहे,
तो चले। झंझट न हो कुछ। सभी से कह देता है!
यह
मजाक, यह कहावत बड़ी प्रीतिकर है, बड़े अनुभव की है। हर एक
से कह देता है कि गजब, तुम जैसा तो लाजवाब, तुम जैसा दूसरा कभी बनाया ही नहीं। और अब बना सकूंगा, इसकी भी कोई आशा नहीं। और हर आदमी इसको दिल में लिए घूमता है जिंदगीभर। कह
भी नहीं पाता, क्योंकि कहे तो झंझट आ जाए, क्योंकि दूसरे भी यही लिए घूम रहे हैं! कह भी नहीं पाता साफ-साफ।
छिपा-छिपाकर कहता है। गोल-मोल बातें करके कहता है। परोक्ष-परोक्ष रूप से घोषणा
करता है। न मालूम कितनी तरकीबें खोजता है कि तुम्हें पता चल जाए कि मुझ जैसा कोई
नहीं। लेकिन बिलकुल पागल हो, क्योंकि दूसरा भी इसी कोशिश में
लगा है कि मुझ जैसा कोई भी नहीं! हम सब इसी खेल में रत हैं।
परमात्मा
यह मजाक करता है या नहीं,
मुझे पता नहीं। लेकिन आदमी का मन जरूर यह मजाक कर रहा है। और गहरी
मजाक है। और पूरी जिंदगी इस मजाक में व्यतीत हो जाती है; व्यर्थ
ही व्यतीत हो जाती है।
मार्क
ट्वेन के संस्मरणों में मैंने कहीं देखा है। वह फ्रेंच नहीं जानता था, और फ्रांस
आया। तो एक बहुत मजेदार घटना हो गई। फ्रांस में उसका लड़का शिक्षित हो रहा था,
यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था। तो उसका स्वागत किया पेरिस के
साहित्यकारों ने। तो उसने अपने लड़के से कहा कि तू जरा मेरे साथ बैठे रहना, क्योंकि लोग जब हंसेंगे, अगर मैं न हंसूं, तो वे समझेंगे, फ्रेंच नहीं जानता।
और
फ्रेंच न जाने कोई उन दिनों, तो अशिक्षित, थोड़ा अनाड़ी,
थोड़ा अश्रेष्ठ। फ्रेंच तो जाननी ही चाहिए, संस्कृति
की भाषा! तो मैं यह चाहता हूं, मार्क ट्वेन ने कहा कि पता न
चले कि मैं नहीं जानता हूं। तो तू मेरे पास बैठ रहना। तू मुझे इशारा कर देना। तो
तू जो करेगा, वही मैं करने लगूंगा। जब तू हंसेगा, मैं हंस दूंगा। जब तू गंभीर हो जाएगा, मैं गंभीर हो
जाऊंगा। तुझ पर ध्यान रखूंगा। तू खयाल रखना। ताकि किसी को यह पता न चल पाए।
लेकिन
बड़ी गड़बड़ हो गई। क्योंकि जब मार्क ट्वेन की तारीफ की जाती थी, तो सारा
हाल ताली बजाता; लड़का भी बजाता और मार्क ट्वेन भी बजाते,
क्योंकि वे समझ नहीं पाते। लड़का बड़ा बेचैन हुआ कि यह तो बड़ी मुसीबत
है! लेकिन अब बीच मंच पर कुछ कहना भी ठीक नहीं है कार्यक्रम चलते वक्त। यह भूल कई
दफे हुई। लोग खिलखिलाकर हंसते। लड़का भी हंसता। मार्क ट्वेन भी हंसता। और उसे पता
ही नहीं चलता कि मार्क ट्वेन के संबंध में कोई मजाक कही गई है।
बाद
में लड़का तो पसीने से तरबतर हो गया। जब रात लौटने लगे, लड़के ने
कहा, आपने तो मुझे दिक्कत में डाल दिया। लोग सब मेरी तरफ भी
देखते थे कि तेरा बाप क्या कर रहा है! मार्क ट्वेन ने पूछा, क्या
गलती हो गई? उसने कहा कि जब लोग ताली बजाते थे, मैं ताली बजाता था, तो वह तो आपकी प्रशंसा की जा रही
थी कि आप बहुत महान हैं। और आप भी ताली बजा देते थे, उससे
बहुत गड़बड़ हो जाती थी।
मार्क
ट्वेन ने कहा,
घबड़ा मत। जिंदगी में पहली दफा, जो मैं सदा
करना चाहता था, वह अपने आप हो गया है। मार्क ट्वेन ने कहा,
घबड़ा मत, जिंदगी में जो सदा करना चाहता था कि
जब लोग मेरी प्रशंसा करें, तो मैं भी ताली बजाऊं! बजाता नहीं
था, क्योंकि मैं समझता था भाषा। आज तो गलती में हो गया।
लेकिन हुआ वही, जो मेरे दिल में सदा से है।
हम
सब के दिल में यही है कि देखो, कैसे मूढ़ हम भी, कि सब तो
हमारे लिए ताली बजा रहे हैं, और हम बैठे हैं! यही तो मौका था,
जब हम भी ताली बजाते। लेकिन भाषा समझ में आती है, इसलिए चुप रह जाते हैं। वह तो भूल से हो गई घटना। लेकिन मन में हमारे यही
होता है। मन हमारा यही करता है।
वह
जो हमारा मैं है,
वह सदा इसी तलाश में है कि कोई कह दे कि तुम महान, तुम यह, तुम वह--और हम फूलकर कुप्पा हो जाएं। फिर
सादृश्य नहीं सधेगा।
इसलिए
बुद्ध कहते थे कि जिसे सादृश्य-योग साधना हो, वह पहले तो तीन महीने मरघट पर जाकर
निवास करे। सादृश्य-योग साधना हो, तो पहले तीन महीने मरघट पर
निवास करे। जब कोई भिक्षु आता, बुद्ध कहते, जा तीन महीने मरघट पर रह। वह कहता, इससे क्या होगा?
मैं योग साधने आया! बुद्ध कहते, पहले जरा मरघट
पर तीन महीने रहकर आ। वह कहता, वहां क्या करूंगा?
तो
बुद्ध कहते, जब भी कोई मुर्दा आए, तो जानना कि ऐसा ही एक दिन मैं
भी आऊंगा। जब उसको जलाया जाए, तो जानना कि ऐसा ही एक दिन मैं
भी जलाया जाऊंगा। जब उसका बेटा खोपड़ी तोड़े, तो जानना कि मेरा
बेटा एक दिन खोपड़ी तोड़ेगा। जब सब लोग उसको जला-बुझाकर जाने लगें, तो जानना कि एक दिन लोग मुझे इसी तरह जला-बुझाकर चले जाएंगे।
पर
वह आदमी पूछता,
इससे होगा क्या? बुद्ध कहते, मौत से सादृश्य शुरू कर, बाद में जिंदगी में आसान हो
जाएगा।
और
बात ठीक कहते हैं। जिंदगी में सादृश्य बनाना जरा मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि
किसी के पास बड़ा मकान है और किसी के पास छोटा मकान है। सादृश्य बनाओ कैसे! और किसी
के पास नाक जरा लंबी है, और लोग कहते हैं, खूबसूरत है। और किसी के पास थोड़ी चपटी है, और लोग
कहते हैं, बिलकुल न होती तो अच्छी। करो क्या? कोई है कि गणित के बड़े सवाल हल कर देता है, और कोई
है कि सोलह आने गिनने में दस दफे भूल कर जाता है। करो क्या? यहां
जीवन में सादृश्य को बनाने में जरा कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि
बहुत-सा असादृश्य प्रकट है।
तो
बुद्ध कहते, पहले मौत से शुरू करो, लेट अस बिगिन फ्राम दि एंड,
चलो पीछे से शुरू करें। क्योंकि मौत में तो बड़ी अटारी वाला भी वहीं
पहुंच जाता है, जहां छोटा झोपड़े वाला। जिसका गणित बड़ा कुशल
था और जो गणित में सदा फेल हुआ, वे भी वहीं पहुंच जाते हैं।
जिसकी शक्ल पर लोग मरे जाते थे और जिसकी शक्ल से लोग ऐसे बचते थे कि कहीं मिल न
जाए, वह भी वहीं पहुंच गया। सब वहीं चले आ रहे हैं। नेता और
अनुयायी, गुरु और शिष्य, साधु और असाधु,
सम्मानित और अपमानित, संत और चोर--सब चले आ
रहे हैं। एक जगह जाकर--मौत। मौत जो है, बहुत कम्युनिस्ट है;
एकदम समान कर देती है! इस बुरी तरह समान करती है कि राख ही रह जाती
है। सब समान हो जाता है।
तो
बुद्ध कहते, वहीं से शुरू करो और जब यह साफ दिखाई पड़ जाए कि अंत में इतना सब सादृश्य
हो जाने वाला है, तो बीच की झंझट में क्यों पड़ते हो। उसमें
कुछ बहुत सार नहीं है। आखिरी तो यह है।
और
जो भी भिक्षु तीन महीने मौत पर स्मरण करके आता, जिंदगी में सादृश्य को उपलब्ध हो
जाता। अगर उससे कोई कभी कहता भी कि तुम तो बहुत ही ज्ञानी हो, तो वह कहता, क्षमा करो। अब मुझे धोखा न दे पाओगे।
मैं देख आया मरघट। वहां मैंने ज्ञानियों को धूल में मिलते देखा। और अगर कोई उससे
कहता कि आपकी आंखें तो बड़ी सुंदर, तो वह कहता, क्षमा करो। अब तुम धोखा न दे पाओगे। मैं देख आया मरघट। सब आंखें राख से
ज्यादा सिद्ध नहीं होतीं।
कृष्ण
कहते हैं, यह सादृश्य-योग उच्चतम योग की स्थिति को पहुंचा देता है।
शुरू
करें कहीं से। मौत से शुरू करें, आसान पड़ेगा। लेकिन हिम्मत न जुटेगी मरघट जाने
की। डर लगता है मरघट जाने में। इसीलिए डर लगता है, क्योंकि
मरघट कुछ बुनियादी खबरें देता है।
एक
अंग्रेज कवि ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, जिसमें कहा है--पुराने ईसाई
आर्थोडाक्स ढंग से, गांव में जब कोई मरता है, तो चर्च की घंटी बजती है--उस कवि ने एक छोटा-सा गीत लिखा है और कहा है कि
जब चर्च की घंटी बजे, तो किसी को पूछने मत भेजना कि किसके
लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है, तुम्हारे लिए ही बजती
है।
जब
चर्च की घंटी बजे,
तो गांव में कोई मर गया। तो स्वभावतः गांव के लोग किसी को बाहर
पूछने भेजते हैं, किसके लिए बजती है? उस
गीतकार ने ठीक लिखा है, मत भेजना किसी को पूछने कि किसके लिए
बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है, तुम्हारे लिए ही बजती
है--इट टाल्स फार दी, इट टाल्स फार दी।
जब
रास्ते से कोई मुर्दा निकले, तो मत पूछना कि कौन मर गया? जानना कि मैं ही मर गया हूं, मैं ही मर गया हूं। जब
कोई अपमानित हो, जब कोई हारे और धूल-धूसरित हो जाए, तो मत सोचना कि कोई और गिर गया है। जानना कि मैं ही गिर गया हूं। और तब
जीवन में भी धीरे-धीरे-धीरे सादृश्य फैलता चला जाएगा।
सादृश्य
के आते ही बड़ी करुणा पैदा होती है; बड़ी करुणा, महाकरुणा
पैदा होती है। अंग्रेजी में शब्द बहुत अच्छा है करुणा के लिए, कंपैशन। उसमें अगर आधे कम को हम अलग कर दें, तो पीछे
पैशन रह जाता है। दो तरह के लोग हैं, पैसोनेट और कंपैसोनेट।
पैशन यानी वासना, और कंपैशन यानी करुणा। जब तक कोई आदमी कहता
है कि मैं दूसरों से भिन्न हूं, तब तक वासना में जीएगा,
पैशन में। और जब जानेगा कि मैं दूसरों के ही समान हूं, तो कंपैशन में प्रवेश कर जाएगा, करुणा में।
दो
ही तरह के लोग हैं,
वासना से जीने वाले और करुणा से जीने वाले। वासना में वे जीते हैं,
जो अहंकार को केंद्र बनाते हैं। करुणा में वे जीते हैं, जो दूसरे के साथ सादृश्य को उपलब्ध हो जाते हैं।
सादृश्य
अहंकार की मृत्यु है। और सादृश्य करुणा का जन्म है। सादृश्य यह खबर देता है कि
दूसरा भी उतना ही कमजोर है,
जितना कमजोर मैं। सादृश्य कहता है, दूसरा भी
उतनी ही सीमाओं में बंधा है, जितनी सीमाओं में मैं। मुझे भी
किसी ने गाली दी है, तो क्रोध आ गया है। और अगर किसी दूसरे
को भी गाली दी गई है, तो क्रोध आ गया है, तो मैं कठोर न हो जाऊं। करुणा अपेक्षित है, अगर
सादृश्य का थोड़ा बोध है।
लेकिन
सादृश्य का बोध हमें नहीं है। और इस बोध को समझने से नहीं समझा जा सकता; इस बोध को
जन्माने से समझा जा सकता है। इसका प्रयोग करना शुरू करें।
जब
आप एक छोटे-से बच्चे को डांट रहे हैं बूढ़े होकर, तब आपको कभी भी खयाल नहीं
आता कि एक दिन आप भी छोटे-से बच्चे थे। इसी तरह डांटे गए थे। और आपको यह भी खयाल
नहीं आता कि यह बच्चा कल इसी तरह बूढ़ा हो जाएगा। अगर बूढ़े को बच्चे में यह सादृश्य
दिखाई पड़ जाए, तो इस दुनिया में बूढ़ों और बच्चों के बीच जो
कलह है, वह विदा हो जाए। वह कलह विदा हो जाए। उस कलह की कोई
जगह न रह जाए।
लेकिन
यह दिखाई नहीं पड़ता है। हम इसके लिए बिलकुल अंधे हैं। इसलिए हमारे जीवन में महा
दुख फलित होता है। लेकिन वह अति उत्तम योग और उससे उपलब्ध होने वाली शांति फलित नहीं
होती।
शेष
कल सुबह हम बात करेंगे।
अभी
कीर्तन में पांच मिनट जाएंगे। नहीं, उठेगा कोई भी नहीं। अपनी जगह बैठे
रहें। और साथ दें, बैठे न रहें। साथ देकर ही कीर्तन को समझा
जा सकता है। देखें, देखने वाले कोई भी मंच पर नहीं आएंगे। आप
वहीं बैठकर ताली बजाएं, गीत गाएं, डोलें,
आंदोलित हों।
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