अध्याय ७
दूसरा प्रवचन
परमात्मा की खोज
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।
३।।
परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी
प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले
योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात
यथार्थ मर्म से जानता है।
प्रभु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। सरल इसलिए कि जिसे
पाना है, उसे हमने सदा से पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है,
उसे हमने वस्तुतः कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद
है, हमारी प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक
धड़कन में। इसलिए सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ
से उसमें कोई भी बाधा नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे।
प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु सदा ही
अवेलेबल है, सदा ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन
बहुत है, क्योंकि आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा
है।
आदमी की तरफ से सारी कठिनाइयां हैं, प्रभु की तरफ से कोई
भी कठिनाई नहीं है। उसके मंदिर के द्वार सदा ही खुले हैं, लेकिन
हम उन मंदिर के द्वारों की तरफ पीठ किए हैं। पीठ ही नहीं किए हैं, पीठ करके भाग भी रहे हैं। भाग ही नहीं रहे हैं, अपना
पूरा जीवन, अपनी पूरी शक्ति, अपनी पूरी
सामर्थ्य, किस भांति उस मंदिर से दूर निकल जाएं, इसमें लगा रहे हैं।
यद्यपि हम निकल न पाएंगे। हजारों-हजारों जन्मों में दौड़कर भी उस मंदिर
से हम दूर न जा पाएंगे। और जिस दिन भी हम पीठ फेरकर देखेंगे, पाएंगे कि वह मंदिर वहीं का वहीं मौजूद है--वहीं, जहां
से हमने दौड़ना शुरू किया था।
आदमी की तरफ से बहुत कठिनाइयां हैं। इसलिए कृष्ण के इस सूत्र में
उन्होंने कहा, करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है। और प्रयास करने
वाले करोड़ों में कोई कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।
दो बातें। करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास करता है। इसे समझें। और फिर
प्रयास करने वाले करोड़ों में भी कभी कोई एक मुझे परायण हुआ, मुझे समर्पित हुआ, उपलब्ध होता है।
क्यों करोड़ों लोगों में कभी कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे पाए बिना कोई चारा नहीं, जीवन में कोई अर्थ
नहीं? क्यों करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के
लिए, जिसे पाकर सब पा लिया जा सकता है? क्या होगा कारण? होना तो ऐसा चाहिए कि करोड़ों में
कभी कोई एक प्रयास न करे, बाकी सारे लोग प्रयास करें।
क्योंकि परमात्मा आनंद है, जीवन है, अमृत
है। तो करोड़ों में कोई एक क्यों प्रयास करता है? इसके कारण
को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वह उपयोगी है।
सबसे पहला कारण तो यह है कि जो हमें मिला ही हुआ है, उसे पाने के लिए हम क्यों कर चेष्टा करें? सागर की
मछली सब कुछ खोजती होगी, सागर को कभी नहीं खोजती है। सागर की
मछली सब खोजों पर निकलती होगी, लेकिन सागर की खोज पर कभी
नहीं निकलती है। उसी में पैदा होती है, उसी में जीती है,
बड़ी होती है, श्वास लेती है, उसी में समाप्त होती है। उसे पता भी नहीं चलता कि सागर है।
मछली को भी सागर का तभी पता चलता है, जब उसे सागर के बाहर
निकालो। अगर मछली सागर के बाहर न आए, तो उसे कभी भी पता नहीं
चलता कि सागर है। असल में सागर के साथ इतनी एक है कि पता भी कैसे चले! पता चलने के
लिए दूरी चाहिए।
तो मछली तो कभी-कभी सागर के बाहर भी आ जाती है, आदमी तो परमात्मा के बाहर कभी नहीं आता है। मछली को तो कोई मछुवा कभी फांस
भी लेता है जाल में और सागर के तट पर भी तड़फने को छोड़ देता है। आदमी के लिए तो ऐसा
कोई तट नहीं है, जहां परमात्मा मौजूद न हो। आदमी जहां भी जाए,
वहां परमात्मा मौजूद है। जो इतना ज्यादा मौजूद है, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं, उसका हमें खयाल भूल
जाता है।
ध्यान रहे, हमारे ध्यान की जो धारा है, वह
जो गैर-मौजूद है, उसकी तरफ बहती है। जैसे आपका एक दांत टूट
जाए, तो जीभ उस दांत की तरफ चलने लगती है। जो दांत मौजूद हैं,
उनकी तरफ नहीं चलती। और भलीभांति एक दफे पता लगा लिया कि टूट गया,
खाली जगह छूट गई, फिर भी दिनभर जीभ वहीं दौड़ती
रहती है! जहां अभाव है, वहां हम खोजते हैं। जिसका अति भाव है,
जो एकदम मौजूद है घना होकर, वहां हम नहीं
खोजते।
मन के गहरे नियमों में एक यह है कि जो हमें उपलब्ध है, उसकी हम विचारणा छोड़ देते हैं। जो हमें उपलब्ध नहीं है, उसकी हम खोज करते हैं। जो हमारे पास है, उसे हम भूल
जाते हैं। जो हम से दूर है, उसकी हम स्मृति से भर जाते हैं।
जिसे हम खो देते हैं, उसका पता चलता है; और जिसे हम कभी नहीं खोते, उसका पता भी नहीं चलता।
परमात्मा की खोज पर निकलने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह मन का यह नियम है कि हमें उसका ही पता चलता है, जो
नहीं है। निगेटिव का पता चलता है, पाजिटिव का पता नहीं चलता।
टूट गया दांत, तो पता चलता है। वह दांत चालीस साल से आपके
पास था, तब इस जीभ ने कभी उसकी फिक्र न की। आज नहीं है,
तो उसकी तलाश है!
मन निगेटिविटी, मन जो है नकार की तरफ दौड़ता है। वैसे ही जैसे पानी
गङ्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा ही मन अभाव की तरफ, एब्सेंस की तरफ, जो नहीं है, उसकी
तरफ दौड़ता है। जो है, उसकी तरफ मन नहीं दौड़ता।
और परमात्मा सर्वाधिक है। टू मच। इतना ज्यादा है कि उसके सिवाय और कुछ
भी नहीं है। वही वही है। सब तरफ वही है। आंख खोलें तो, आंख बंद करें तो; जागें तो, सो
जाएं तो। सब तरफ वही वही है। सागर की तरह हमें घेरे हुए है। इसलिए करोड़ों में एक
उसकी खोज पर निकलता है।
अगर परमात्मा की खोज पर निकलना हो, करोड़ों में एक बनना
हो, तो इस सूत्र से विपरीत चलेंगे तभी, अन्यथा कभी नहीं। जो आपके पास हो, उसका स्मरण रखें;
और जो आपसे दूर हो, उसे भूल जाएं। जो दांत अभी
मुंह में हो, उसे जीभ से टटोलें; और जो
गिर जाए, उसे मत टटोलें। जो आज सुबह रोटी मिली हो, उसका आनंद लें; जो रोटी कल मिलेगी, उसके सपने मत देखें। जो नहीं है, उसे छोड़ दें;
और जो है, उसे पूरे आनंद से जी लें। तो आप
करोड़ों में एक बनना शुरू हो जाएंगे।
क्योंकि ध्यान रखना, यात्रा सीधी परमात्मा की नहीं हो
सकती, जब तक आपके मन का ढंग, आपके मन
की व्यवस्था न बदले।
कभी आपने खयाल किया कि आप सोचते हैं, एक मकान बना लें। जब
तक नहीं बनाते, तब तक मन बिलकुल आर्किटेक्ट हो जाता है।
कितनी कल्पनाएं करता है! कितने नक्शे बनाता है! फिर मकान बन जाता है। फिर उसी मकान
में जीने लगते हैं, और मकान को भूल जाते हैं। हां, रास्ते से जो निकलते होंगे, उनके मन में आपके मकान
के लिए विचार आता होगा। आपको भर नहीं आता, जो उसके भीतर रहता
है!
पढ़ रहा था मैं, एक युवक का विवाह हो रहा है चर्च में। घंटियां बजी
हैं, और मोमबत्तियां जली हैं। और मित्र उपहार लाए हैं,
और धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन तभी अचानक वह युवक उदास हो गया। तो
चर्च के जिस पादरी ने विवाह करवाया था, उसने पूछा कि इतने
उदास क्यों हो गए हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए, क्योंकि जिसे तुमने चाहा था, वह स्त्री तुम्हें मिल
गई!
वह युवक कहने लगा, इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो
गया है। उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। जिसे चाहा था, वह मिल
गई, इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। उस युवक ने कहा
कि आज मैं सोचता हूं कि मजनू के रास्ते में जिन लोगों ने बाधाएं डालीं और लैला को
न मिलने दिया, उन्होंने बड़ी कृपा की। क्योंकि मजनू लैला को
याद तो करता रहा। जिन मजनुओं को उनकी लैलाएं मिल जाती हैं, वे
और दूसरों की लैलाओं की भला फिक्र करें, अपनी लैलाएं भूल
जाते हैं!
मन का नियम है, जो मिल जाता है, वह भूल जाता
है। और परमात्मा तो मिला ही हुआ है। उसे तो याद करने की सुविधा भी नहीं बनती।
तो मन के नियम को बदलना पड़ेगा। मन का नियम अभी गङ्ढों की तरफ दौड़ना
है। मन को पर्वतों की तरफ दौड़ाना शुरू करना पड़ेगा। और कोई कठिनाई नहीं है।
जिंदगी में बहुत कुछ मिला है, उसमें आह्लाद अनुभव
करें। जो मिला है, उसमें प्रसन्न हों। जो है पास, उसमें संतुष्ट हों। जो पास है, उसके लिए प्रभु को
धन्यवाद दें। जो है, उसे देखें; और जो
नहीं है, उसे छोड़ें। बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि आपकी परमात्मा
की खोज शुरू हो गई।
इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा की खोज में संतोष को अनिवार्य बताया है, उसका कारण भी आप समझ लें, वह इस सूत्र में छिपा हुआ
है। संतोष में अपने आप कोई मूल्य नहीं है। संतोष अपने आप में कोई वेल्यू नहीं है;
उसकी अपने आप में कोई कीमत नहीं है। क्योंकि मरा हुआ आदमी भी,
मरा-मराया आदमी भी संतुष्ट दिखाई पड़ सकता है। ऐसा आदमी भी संतुष्ट
मालूम पड़ सकता है, जिसमें जरा भी दौड़ने की हिम्मत नहीं है।
कायर है, भयभीत है, चुनौती लेने से
डरता है। नहीं; संतोष में अपने आप में मूल्य नहीं है,
लेकिन संतोष का एक ही मूल्य है, वह परमात्मा
की तरफ उन्मुख करने में कीमती है।
इसलिए मैं आपको कहता हूं कि संतोष का अब तक जो भी खयाल दुनिया में
दिया गया कि संतोषी सदा सुखी, वह सब बच्चों की बातें हैं। सच
तो यह है कि संतोषी के जीवन में एक नया दुख पैदा होता है, वह
दुख परमात्मा को पाने का दुख है। वह और किसी की जिंदगी में पैदा नहीं होता। हां,
संतोषी की जिंदगी में आस-पास की चीजों से सुख हो जाता है। क्योंकि
जो उसे है, वह उसमें प्रसन्न है। वह उसे भोग रहा है। वह
परमात्मा के प्रति अनुगृहीत है।
लेकिन इस संतोषी के जीवन में एक नई आग जलनी शुरू होती है, वह परमात्मा की खोज है। क्योंकि जब वह पाता है कि साधारण से भोजन में जो
मुझे उपलब्ध है, अगर मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा झोपड़ा जो मुझे
उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा जीवन जो मुझे उपलब्ध
है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो
इतना रस मिलता है--तो वह जो जीवन का मूलाधार है, जो मेरे
होने के पहले से मेरे पास है, और मेरे न हो जाने पर भी मेरे
पास होगा, मेरी लहर बनेगी और मिटेगी, और
वह रहेगा, उसे पा लेने से क्या होगा! उसको पा लेने की एक नई
पीड़ा, एक नई प्रसव-पीड़ा शुरू होती है।
संतोष को योग ने एक अनिवार्य सूत्र माना है परमात्मा की तलाश के लिए।
अगर आप सोचते हों कि संतोष केवल संसार की दौड़ से बच जाने की तरकीब है, तो आपको संतोष की कीमिया का कोई पता नहीं। वह तो बड़ी गौण बात है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि जो अपने चारों तरफ जो मौजूद है, उससे
संतुष्ट हो जाता है, उसके भीतर उसकी खोज शुरू होती है,
जो सबसे ज्यादा गहराई में सदा से मौजूद है। उसके रस की खोज शुरू हो
जाती है।
करोड़ों में इसीलिए एक आदमी! वह जिसके पास पाजिटिव माइंड है।
हमारे सबके पास निगेटिव माइंड है, हमारे पास नकारात्मक
मन है। हमें मित्र तब दिखाई पड़ता है, जब वह घर से जा चुका
होता है। हमें सुख का भी तब पता चलता है, जब वह हाथ से छूट
गया होता है। हमें प्रेम का भी तब पता चलता है, जब प्रेम का
दीया बुझने लगता है। हमें पता ही तब चलता है, जब कोई चीज
समाप्त होती है। जब कोई मरता है, तभी हमें पता चलता है कि वह
था। जब तक वह था, तब तक हमें पता ही नहीं चलता।
पिता घर में मौजूद है, बेटे को बिलकुल पता
नहीं चलता कि है। जिस दिन मरेगा पिता, उस दिन पता चलेगा। उस
दिन रोएगा, छाती पीटेगा। और जब तक पिता मौजूद था, तब कभी दो क्षण भी उसके पास नहीं बैठा था। बड़े आश्चर्य की बात है। तब तक
कभी फुर्सत न मिली थी कि दो क्षण उसके पैरों पर हाथ रखकर बैठ जाए। अब मुर्दे की
छाती पर सिर पटकेगा।
निगेटिव माइंड है। जो नहीं है, बस, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। जो है, वह
गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है।
इसीलिए दुनिया में कोई आदमी अमीर नहीं हो पाता। कितना ही धन मिल जाए, गरीबी नहीं मिटती। क्योंकि निगेटिव माइंड गरीब है। निगेटिव माइंड कभी अमीर
नहीं हो सकता। क्योंकि जो भी मिल जाएगा, वह भूल जाएगा;
और सदा मिलने को बाकी रहेगा, वह याद रहेगा।
भिखमंगे तो भिखमंगे होते ही हैं, अरबपति भी उतने ही
भिखमंगे होते हैं। जहां तक भिखमंगेपन का सवाल है, भिखमंगे को
जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता; अरबपति
को भी, जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं
पड़ता। भिखमंगे को भी उसकी मांग रहती है, जो पास नहीं है;
अरबपति को भी उसकी ही मांग रहती है, जो उसके
पास नहीं है। फर्क क्या है?
इतना ही फर्क है कि भिखमंगे के पास जो है, वह कम है भूलने को; अरबपति के पास भूलने को ज्यादा
है। लेकिन भूलने को ही ज्यादा है, और तो कुछ अर्थ नहीं है।
भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र को भूलता है, अरबपति अपनी
तिजोड़ी को भूलता है। लेकिन भूलने में आप तिजोड़ी भूलें कि भिक्षा का पात्र भूलें,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न तो भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र का
आनंद ले पाता है, न करोड़पति अपनी तिजोड़ी का आनंद ले पाता है।
जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और परमात्मा अतिशय है। एक
इंचभर जगह नहीं है, जहां वह नहीं है। इसीलिए करोड़ में कभी
कोई एक उसकी खोज पर निकलता है। पाजिटिव माइंड, एक विधायक
चित्त ही परमात्मा की खोज पर जा सकता है।
उसे देखना शुरू करें, जो है। उसे भूलना शुरू करें,
जो नहीं है। खाली स्थानों में मत भटकें; भरे
स्थानों में जीएं। और ध्यान रहे, हर आदमी के पास इतना है कि
काश, वह देखने लगे, तो शायद इस जमीन पर
गरीब आदमी खोजना मुश्किल है।
सुना है मैंने कि एक आदमी रो रहा है, छाती पीट रहा है। और
एक फकीर उसके पास से निकला है और उसने पूछा कि तुम इतने परेशान हो रहे हो कि मुझे
मालूम पड़ता है कि तुम बड़े गरीब आदमी हो। लेकिन मेरे गुरु ने कहा है कि इस जमीन पर
कोई आदमी गरीब नहीं है। या तो मेरे गुरु गलत हैं, या तुम कुछ
गलती समझे हो।
उस आदमी ने कहा, मुझसे गरीब आदमी खोजना मुश्किल
है। आज मैं दो दिन से भूखा हूं। मेरे पास कुछ भी नहीं है। उस फकीर ने कहा, लेकिन मेरे गुरु ने कुछ जांचने की तरकीबें बताई हैं; मैं पहले उनका प्रयोग कर लूं। उस आदमी ने कहा, तुम
कब प्रयोग करोगे? मैं मरने के करीब हूं। मैं नदी में जा रहा
हूं गिरने के लिए। आत्महत्या की तैयारी करके निकला हूं। अब मेरे पास कुछ भी नहीं
है।
उस फकीर ने कहा, तुम थोड़ा समय मुझे दो। तुम थोड़ी
देर बाद भी मर जाओगे, तो दुनिया का कोई हर्ज होने वाला नहीं
है। तुम मेरे साथ आओ। कम से कम मैं अपने गुरु की परीक्षा कर लूं।
उस आदमी को ले गया सम्राट के पास। और सम्राट से जाकर भीतर उसने कुछ
बात की। लौटकर उस आदमी को ले गया और रास्ते में उससे कहा कि सम्राट से मैंने तय कर
लिया है; तुम्हारी एक-एक आंख के लिए वह एक-एक लाख रुपया देने
को तैयार है। तुम दोनों आंखें बेच दो। दो लाख रुपए तुम्हारे हाथ में पड़ते हैं। उस
आदमी ने कहा, तुमने मुझे क्या पागल समझा हुआ है? मैं और आंखें बेच दूं! उस फकीर ने कहा, लाख रुपए मिल
रहे हैं, अगर तुम्हारा इरादा कुछ और ज्यादा का हो, तो बोलो। उसने कहा, तुम करोड़ भी दो, तो मैं आंख नहीं बेच सकता।
क्योंकि जैसे ही खयाल आया अंधे होने का, तब पता चला कि आंख
है। जब तक आंख थी, तब तक थी; बेकार थी।
वह मरने जा रहा था। मरने में आंख भी मिट जाती। और भी सब कुछ मिट जाता।
तो फकीर ने कहा, छोड़ो आंख को। हो सकता है,
तुम्हें मरने जाना है नदी पर, तो आंख की जरूरत
पड़े। इतना रास्ता पार करना पड़े। लेकिन कई चीजें ऐसी हैं, जो
बिलकुल बेकार हैं; मरने के लिए जिनका कोई उपयोग नहीं है। कान
ही बेच दो। हाथ ही बेच दो। कुछ तो बेच दो। क्योंकि मैं तुम्हारे लिए ग्राहक खोज
लिया हूं। उस आदमी ने कहा कि तू आदमी किस तरह का है! मैं नहीं मरना चाहता हूं।
क्योंकि उस आदमी को पहली दफा खयाल आया कि अगर हाथ भर कट जाए, तो कितनी कमी हो जाएगी। तो मौत कितनी बड़ी कमी होगी!
अगर मरने वालों को, स्युसाइड करने वालों को करने के
बाद एक मौका और दिया जाए, तो वे सब पछताते हुए वापस लौटेंगे।
लेकिन मौका नहीं मिलता, इसलिए नहीं लौटते हैं। इसलिए अगर
आपको स्युसाइड करनी हो, तो जल्दी कर लेना; देर मत लगाना। क्योंकि पांच-सात मिनट भी रुक गए, फिर
आप न कर पाएंगे। उतनी देर में तो शायद अभाव का खयाल आ जाएगा कि यह मैं क्या कर रहा
हूं! सब मिट जाएगा।
इसलिए जो लोग भी आत्मघात करते हैं, वे तीव्र भावावेश में
और क्षण में कर लेते हैं। कंसीडर्ड, सोच-विचारकर कभी भी कोई
आत्महत्या नहीं कर पाता।
इस पृथ्वी पर कुछ बहुत विचारशील लोग हुए हैं, जिन्होंने आत्महत्या की तारीफ की है। उनमें यूनान का एक विचारक था,
पिरहो। पिरहो कहता था कि आत्मघात एकमात्र करने जैसी चीज है, क्योंकि जिंदगी बेकार है। लेकिन वह नब्बे वर्ष का होकर मरा। और जब वह मर
रहा था, तब किसी ने संदेह उठाया कि आश्चर्य कि कम से कम पचास
साल से आप लोगों को समझा रहे हैं कि जिंदगी-मौत सब बराबर हैं। मर जाने के सिवाय
कोई ठीक काम नहीं है। देअर इज़ नो डिफरेंस बिटवीन लाइफ एंड डेथ। आप यह समझाते रहे,
कोई अंतर नहीं जीवन और मृत्यु में। आप नब्बे साल तक कैसे जीए?
आप मर क्यों न गए?
पिरहो ने आंख खोली और उसने कहा, बिकाज देअर इज़ नो
डिफरेंस, क्योंकि कोई अंतर नहीं है मरने-जीने में। मैंने
बहुत सोचा और पाया, कोई अंतर नहीं है। तो मरने से भी क्या
फायदा! तो मैंने कहा, ठीक है, जो होता
है, होने देना।
पिरहो बहुत विचारशील आदमी था। और जिंदगीभर मरने के संबंध में सोचता
रहा। मरा नब्बे वर्ष का होकर!
बहुत सोच-विचार वाले लोग आत्मघात नहीं करते। तीव्र भाव के क्षण में
घटना घट जाती है। क्योंकि उस भाव के क्षण में आप इतने आविष्ट होते हैं कि आपका
निगेटिव माइंड सोच नहीं पाता कि कितना बड़ा गङ्ढा पैदा होने जा रहा है। बस एक क्षण
में हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, करोड़ में कोई एक कभी प्रभु की
खोज पर निकलता है। क्योंकि करोड़ में एक आदमी के पास विधायक चित्त है।
कल मैंने कहा था, संदेह से भरा चित्त। आज आपको और
मैं संदर्भ बता दूं। संदेह से भरा चित्त निगेटिव होगा, नकारात्मक
होगा। श्रद्धा से भरा चित्त विधायक होगा, पाजिटिव होगा।
अगर संदेह से भरे चित्त वाले आदमी को हम कहें कि दुनिया के संबंध में
कुछ वक्तव्य दो, तो वह जो वक्तव्य देगा, वे
नकारात्मक होंगे। वह कहेगा, दुनिया बिलकुल बेकार है। यहां दो
अंधेरी रात के बीच में एक छोटा-सा उजाले का दिन होता है। दो अंधेरी रात बड़ी घटना
मालूम होगी। अगर हम विधायक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह
कहेगा, यह दुनिया बड़ी अदभुत है। यहां दो उजेले दिनों के बीच
में एक छोटी-सी अंधेरी रात होती है!
अगर हम निषेधात्मक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह गुलाब के फूल के पास खड़े होकर सिवाय परमात्मा की निंदा के और कुछ न
कर पाएगा। क्योंकि वह कहेगा, जहां इतने कांटे हैं, वहां मुश्किल से एक फूल खिलता है। फूल बेकार हो गया इतने कांटों की वजह
से। अगर हम विधायक चित्त के आदमी से पूछें, तो वह कहेगा,
आश्चर्य! प्रभु का धन्यवाद है। वह गुलाब के पास खड़े होकर घुटने
टेककर प्रभु की प्रार्थना में लीन हो जाएगा। और वह कहेगा, अदभुत
है तेरी लीला कि जहां इतने कांटे हैं, वहां भी फूल पैदा होता
है। चमत्कार है, मिरेकल है।
तो विधायक चित्त जिस व्यक्ति के पास है, वह प्रभु की खोज पर
निकलता है।
लेकिन कृष्ण फिर एक और बात कहते हैं कि करोड़ लोग प्रयत्न करें, तो कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।
इसका क्या अर्थ होगा? इसे भी ठीक से समझ लें।
जो लोग भी प्रभु की दिशा में यात्रा शुरू करते हैं, करोड़ में से एक ही समर्पण करता है। करोड़ में से एक यात्रा करता है। अगर
करोड़ यात्रा करें, तो एक समर्पण करता है। बाकी लोग संकल्प
करते हैं, समर्पण नहीं। बाकी लोग कहते हैं, हम प्रभु को पाकर रहेंगे। तू कहां है, हम खोजकर
रहेंगे। हम अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। जीवन लगा देंगे दांव पर, लेकिन तुझे पाकर रहेंगे।
कभी एक आदमी ऐसा होता है, जो कहता है कि मेरी
क्या सामर्थ्य! मैं असहाय हूं। मेरी कोई शक्ति नहीं है। मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा!
अगर तू ही मुझे खोज ले, तो शायद घटना घट जाए। मैं तुझे कैसे
खोज पाऊंगा! मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। एक छोटी-सी बूंद हूं। न मालूम किस रेगिस्तान
में खो जाऊं! अगर सागर ही मुझ तक आ जाए, तो ठीक। अन्यथा मैं
सागर को खोज पाऊं, इसकी कोई संभावना नहीं है।
जो लोग प्रभु की खोज पर निकलते हैं, वे भी अस्मिता को,
अहंकार को लेकर निकलते हैं। वे कहते हैं, हम
प्रभु को पाकर रहेंगे। साधना करेंगे। योग करेंगे। आसन करेंगे। ध्यान करेंगे। लेकिन
पीछे वह मैं खड़ा रहेगा।
जैन परंपरा में एक बहुत मीठी कथा है। ऋषभ के सौ पुत्र थे। अनेक
पुत्रों ने ऋषभ से दीक्षा ले ली। वे संन्यास की यात्रा पर निकल गए। बाहुबली भी ऋषभ
के एक पुत्र थे। उन्होंने जरा देर की दीक्षा लेने में; कुछ सोच-विचार किया। लेकिन तब तक बाहुबली से छोटे बेटे दीक्षित हो गए। और
जब बाहुबली के मन में दीक्षा का खयाल आया, तो उसके अहंकार को
बड़ी पीड़ा हुई कि अपने छोटे भाइयों को संन्यास के जगत में तो मुझे प्रणाम करना
पड़ेगा। क्योंकि वे मुझसे अग्रणी हो गए। उनके संन्यास की यात्रा बड़ी हो गई। अपने से
छोटों को और मैं नमस्कार करूं, यह न हो सकेगा! तो उसने सोचा,
ऐसी भी क्या जरूरत है। मैं खुद ही साधना क्यों न कर लूं!
बलशाली व्यक्ति था। कमजोर तो हारते ही हैं, कभी-कभी बलशाली बुरी तरह हारते हैं। बल ही उनके हारने का कारण हो जाता है।
तो बाहुबली एकांत में जाकर गहन तपश्चर्या में, सघन तपश्चर्या में लीन हुए। शायद इस पृथ्वी पर कम ही लोगों ने ऐसी
तपश्चर्या की होगी और ऐसी साधना की होगी। सब कुछ दांव पर लगा दिया। सब कुछ। बस,
एक छोटी-सी चीज छोड़कर; वह मैं पीछे खड़ा रहा।
उनकी तपश्चर्या की ख्याति कोने-कोने तक पहुंच गई। जहां भी लोग
सोचते-समझते थे, वहां तक बाहुबली की खबर पहुंची। और लोग हैरान हुए कि
इतना पवित्रतम व्यक्ति, इतना शुद्धतम व्यक्ति, सब कुछ दांव पर लगाए खड़ा है, फिर भी कोई दर्शन नहीं
हो रहा है सत्य का! क्या बात है?
ऋषभ के पास भी खबर पहुंची। ऋषभ मुस्कुराए और उन्होंने बाहुबली की एक
बहन को, जो दीक्षित हो गई थी, बाहुबली
के पास भेजा और कहा, बस, जरा-सा तिनका
अटका हुआ है। लेकिन वह तिनका पहाड़ों से भी भारी है। सब दांव पर लगा दिया है,
सिर्फ मैं को बचा लिया है!
और आप कुछ भी दांव पर न लगाएं, सिर्फ मैं को दांव पर
लगा दें, तो हल हो जाए। लेकिन सब दांव पर लगा दें--धन,
दौलत, यश, शरीर, मन--लेकिन एक पीछे मैं बच जाए, तो सब बेकार है। वह
दांव पर लगाने वाला पीछे बच जाए, तो आप परमात्मा से संघर्ष
कर रहे हैं; आप परमात्मा से प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। तो
आप सत्य को भी विजय करने निकले हैं; सत्य के साथ एक होने
नहीं निकले हैं। यह कोई प्रेम की यात्रा नहीं है; यह कोई
युद्ध, आक्रामक चित्त की दशा है।
सब दांव पर है बाहुबली का। कुछ बचा नहीं लगाने को। वह भी चिंता में
पड़ा, अब और क्या करने को बचा है? जितने
उपवास कहे हैं तीर्थंकरों ने, सब पूरे कर डाले। जितने जागरण
के लिए कहा है, उतनी रातें जागकर बिता दीं। कहा है खड़े रहो,
तो महीनों खड़ा रहा हूं। कहा है कि चित्त को एकाग्र कर लो, तो चित्त एकाग्र है। सब शर्तें पूरी हैं। फिर कुछ हो तो नहीं रहा है। कहीं
कोई कमी तो नहीं दिखाई पड़ती।
फिर ऋषभ के द्वारा भेजी गई बाहुबली की बहन ने--बाहुबली आंख बंद किए।
विशालकाय व्यक्ति था। सुंदरतम शरीर वाला व्यक्ति था। गोमटेश्वर में बाहुबली की
प्रतिमा है, कभी आपने चित्र देखे होंगे। विशालकाय! जिसमें शरीर पर
बेलाएं चढ़ गई हैं। और पक्षियों ने कान में घोंसले बना लिए थे। और शरीर पर बेलाएं
चढ़ गई थीं, उसका उन्हें पता भी नहीं था। क्योंकि वह तो अंतर
के संघर्ष में इतना लीन था कि शरीर पर क्या घट रहा है, उसे
पता भी नहीं था।
बहन ने चारों तरफ से जाकर बाहुबली को देखा। इतना घोर तपस्वी तो कभी
देखा नहीं गया! कान पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए हैं; अंडे रख दिए हैं। सुरक्षित जगह है। बाहुबली हिलता भी नहीं। बेलाएं चढ़ गई
हैं। बेलाओं में फूल आ गए हैं। न मालूम कब से बाहुबली ऐसा ही खड़ा है पत्थर की तरह।
अब और क्या बाकी है?
और तब गहरे और गहरे घूमकर बहन ने भीतर तक झांकने की कोशिश की। और उसे
दिखाई पड़ा कि भीतर बस एक चीज बाकी रह गई, वह मैं। तो एक गीत
बाहुबली की बहन ने गाया कि सब कर चुके तुम, अब जरा सिंहासन
से नीचे उतर आओ! बस, और कुछ न करो, जरा
सिंहासन से नीचे उतर आओ। यह हाथी की पालकी पर कब तक बैठे रहोगे! जरा नीचे उतर आओ।
और बाहुबली को यह सुनाई पड़ा कि हाथी की पालकी पर कब तक बैठे रहोगे!
जरा नीचे उतर आओ। सब शुद्ध था। बस, वह एक पालकी अहंकार
की भारी थी। और उसी क्षण घटना घट गई। इतनी बड़ी तपश्चर्या से जो न हुआ था, पालकी से उतरते ही हो गया। बाहुबली ने झुककर बहन को नमस्कार कर लिया। बात
समाप्त हो गई। घटना घट गई।
करोड़ लोग प्रयास करते हैं, एक पहुंचता है।
क्योंकि वह एक ही अपनी अस्मिता को और अहंकार को खोता है।
इसलिए कृष्ण ने कहा, मुझको परायण हुआ, मेरी तरफ झुक गया, समर्पित हुआ, मेरे चरणों में आ गया!
यहां सवाल बड़ा यह नहीं है कि कृष्ण के चरणों में आ जाओ। बड़ा सवाल यह
है कि झुक जाओ। ध्यान रहे, असली सवाल है झुका हुआ मन, समर्पित,
सरेंडर्ड।
करोड़ में से एक करता है कोशिश। करोड़ कोशिश करते हैं, एक पहुंच पाता है। कोशिश करता है वह, जिसके पास
विधायक मन है। लेकिन विधायक मन का खतरा है कि वह अहंकार को मजबूत कर दे। पहुंच
पाता है वह, जो मैं को समर्पित कर देता है। तब फिर, तब फिर कोई बाधा नहीं रह जाती।
परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है। आदमी की तरफ से दो बाधाएं हैं।
एक, नकारात्मक मन; और दूसरा, अस्मिता
से भरा हुआ भाव, अहंकार से भरा हुआ भाव। इन दो दरवाजों को जो
पार कर जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह
मुझको उपलब्ध हो जाता है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। ४।।
और हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि
और अहंकार भी, ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति
है।
इस सूत्र में दोत्तीन बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, कृष्ण ने प्रकृति को आठ हिस्सों में विभाजित किया। पंच महाभूत--पृथ्वी,
जल, वायु, अग्नि,
आकाश।
पहले तो पंच महाभूत को थोड़ा समझ लें, क्योंकि पंच महाभूत
की धारणा के कारण भारतीय चिंतन को पश्चिम में बहुत धक्का पहुंच रहा है। इस मुल्क
में भी जो लोग सुशिक्षित हैं, उनको भी बड़ी कठिनाई होती है।
चूंकि अब तो पंच महाभूत का कोई सवाल न रहा। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सौ आठ
तत्व हैं। फिर और थोड़े गहरे गए हैं, तो वे कहते हैं, एक ही तत्व है--एक सौ आठ तो उसके प्रकार हैं--वह है विद्युत।
कृष्ण जैसा व्यक्ति जब कहता है, पंच महाभूत, तो यह सिर्फ कोई लोकोक्ति नहीं हो सकती। लोग सदा ऐसा कहते रहे हैं,
पांच महाभूत। मोटा हिसाब है कि इन पांच चीजों से सारा जगत बना हुआ
है। लेकिन कृष्ण जब ऐसा वक्तव्य देते हैं, तो उस वक्तव्य के
पीछे थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा। कृष्ण का वक्तव्य बहुत वैज्ञानिक है। और इसलिए इन पंच
महाभूत की व्याख्या जैसी मैं देखता हूं, और जैसी आज के पूरे
वैज्ञानिक चिंतन के बाद की जानी चाहिए, वह मैं आपसे कहना
चाहता हूं।
पंच महाभूत केवल लोगों की प्रचलित शब्दावली का उपयोग है। और इसलिए
भारत के भी जो लोग सिर्फ शब्दों को सोचते हैं, शास्त्रों को सोचते
हैं, वे भी इस पंच महाभूत की धारणा में गहरे नहीं उतर सके।
अगर ठीक से समझें, तो पश्चिम में विज्ञान ने जो
तत्वों की धारणा पैदा की है, वह तो प्रयोगशालाओं में की गई
है। और भारत ने जो पंच महाभूत की धारणा की है, वह
प्रयोगशालाओं में नहीं, अंतस अनुभूति में की गई है। जो लोग
भी अंतस जीवन की गहराइयों में उतरेंगे, उन्हें एक तत्व का
साक्षात्कार जरूर ही होगा; वह है फायर, वह है अग्नि। जो लोग भी अपने भीतर गहरे में जाएंगे, अंततः
उन्हें अग्नि का अनुभव होगा, विराट अग्नि का अनुभव होगा।
इसीलिए जैसे-जैसे व्यक्ति ध्यान में भीतर प्रवेश करता है, प्रकाश, और ऐसे जैसे हजारों सूरज उतर आए हों,
दिखाई पड़ने लगते हैं। ध्यान में प्रकाश का अनुभव अंतर्गमन की सूचना
है। यह प्रकाश उस अंतर-अग्नि की बहुत दूर की किरण है। जब हम बहुत गहरे में
पहुंचेंगे, तभी हमें पूरी अग्नि का आभास होगा।
हां, अग्नि शब्द से सिर्फ आपके घर में जो आग जलती है,
उससे ही कृष्ण का प्रयोजन नहीं है। अग्नि से अर्थ है, जीवन का समस्त रूप अग्नि का ही रूप है।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके भीतर भी जो जीवन चल रहा है, वह भी आक्सीडाइजेशन से ज्यादा नहीं है। पूरे समय हवाओं में से जाकर
आक्सीजन आपके भीतर की जीवन-ज्योति को जला रही है।
अगर आप, एक दीया जल रहा हो और उसके ऊपर एक कांच का बर्तन ढांक
दें, तब आपको पता चलेगा। कभी ऐसा हो जाता है कि तूफान जोर का
होता है, तो घर में कोई कांच के गिलास को दीए पर ढांक दे। एक
क्षण को तो लगेगा कि दीए को आपने बचा लिया तूफान से। लेकिन ध्यान रखना, तूफान में तो दीया बच भी सकता था, गिलास के भीतर
दीया नहीं बचेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर में आक्सीजन चुक जाएगी। और आक्सीजन के बिना
दीया जल नहीं सकेगा। थोड़ी ही देर में ग्लास के भीतर जितनी हवा है, उसकी आक्सीजन जल जाएगी। और फिर तो कार्बन डाइ आक्साइड रह जाएगा, जो दीए को बुझा देगा। तूफान तो झेल सकता है दीया, लेकिन
आक्सीजन की कमी नहीं झेल सकता। क्योंकि आक्सीजन ही फायर है, अग्नि
है।
आप भी नहीं झेल सकते। आपकी भी श्वास बंद कर दी जाए; नाक तो छोड़िए, अगर नाक आपकी चलने भी दी जाए, और पूरे शरीर पर ठीक से डामर पोत दिया जाए; रोएं-रोएं
सब बंद कर दिए जाएं, नाक चलने भी दी जाए, तो भी आप पंद्रह मिनट से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाएंगे। क्योंकि आपका
रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। वह श्वास जाकर आपके भीतर की जीवन अग्नि को जला रही है।
और अगर श्वास बंद कर दी जाए, तब तो आप अभी ही समाप्त हो
जाएंगे। क्योंकि भीतर भी जीवन एक दीए की भांति है, जिसको
पूरे समय आक्सीजन चाहिए।
जो अग्नि के जलने का नियम है, वही जीवन के जलने का
नियम भी है। जीवन की गहराई में, समस्त तत्वों की गहराई में
अग्नि है। अग्नि महाभूत है। आधारभूत है।
आज विज्ञान की खोज इलेक्ट्रिसिटी पर ले गई है। वे जिसे आज विद्युत कह
रहे हैं, भारत के अंतर्मनीषी ने उसे अग्नि कहा था। और ठीक था,
क्योंकि अग्नि उन दिनों सुपरिचित शब्द था। और उसी से बात प्रकट की
जा सकती थी।
विद्युत भी अग्नि का ही रूप है। तो अग्नि मूल तत्व है। पृथ्वी अग्नि
का एक रूप है, सालिड। अग्नि का ठोस रूप पृथ्वी है। अग्नि का दूसरा
रूप है, जल, लिक्विड, प्रवाह। अग्नि का तीसरा रूप है, वायु।
विज्ञान कहता है, पदार्थ की तीन स्थितियां हैं,
सालिड, लिक्विड और गैसीय। पदार्थ की तीन
स्थितियां हैं, या तो ठोस, जैसे कि
पत्थर है या पानी का बर्फ। फिर जलीय, द्रवीय, जैसे कि जल है। और फिर वायुवीय, जैसे कि पानी की भाप
है। प्रत्येक अस्तित्ववान चीज तीन रूपों में प्रकट हो सकती है।
पृथ्वी, जिसे आज विज्ञान कहता है, सालिड।
उन दिनों पृथ्वी से सालिड और कोई चीज खयाल में आ भी नहीं सकती थी। वह प्रतीक शब्द
है। जल, जल से ज्यादा और प्रवाहवान कोई चीज खयाल में नहीं आ
सकती थी। और वायु; वायु से ज्यादा वाष्पीय, गैसीय और कोई तत्व खयाल में नहीं आ सकता था।
हां, अग्नि है मूल तत्व। अग्नि जब प्रकट होती है, तो तीन रूपों में प्रकट होती है। पदार्थ का एक रूप ठोस, दूसरा रूप जलीय, तीसरा रूप गैसीय।
और यह अग्नि के प्रकट होने के लिए जो जगह चाहिए, वह जगह है आकाश। आकाश से अर्थ है, स्पेस। आकाश से
अर्थ स्काई नहीं है। आकाश से, आपके ऊपर जो चंदोवा तना हुआ है,
उससे प्रयोजन नहीं है। आकाश शब्द बहुत अदभुत है। आकाश का कुल अर्थ
होता है, जिसमें अवकाश मिले, जिसमें
जगह मिले, जिसके बिना कोई चीज न हो सके। जगह तो चाहिए। और
जगह के दो प्रकार हैं।
अगर मैं आपसे कहूं कि हत्या हो गई; तो आप पूछेंगे,
कहां और कब? आप दो शब्द पूछेंगे, कहां और कब? कहां का मतलब है, किस
स्थान में, एक्जेक्ट प्लेस, कौन-सी
जगह। अगर मैं कहूं, नहीं; जगह कोई भी
नहीं है, सिर्फ फलां आदमी की हत्या हो गई है। तो आप कहेंगे
कि गलत कह रहे हैं। क्योंकि बिना किसी जगह में हुए हत्या नहीं हो सकती। जगह तो
चाहिए। लेकिन अकेली जगह में भी हत्या नहीं हो सकती, टाइम भी
चाहिए। तो आप पूछते हैं, कब? व्हेन?
किस समय हुई? अगर मैं कहूं, नहीं, समय में नहीं हुई। स्थान में तो हुई, समय में नहीं हुई। तो आप कहेंगे, नहीं हो सकती है।
किसी भी वस्तु को होने के लिए दो आयामों में स्थान चाहिए, समय
और स्थान, क्षेत्र।
पूछा जा सकता है कि इस पंच महाभूत की धारणा में आकाश को तो गिनाया, स्पेस को; टाइम को, काल को
क्यों नहीं गिनाया?
तो एक और मजे की बात आपसे कहना चाहता हूं कि आइंस्टीन के पहले तक ऐसा
खयाल था कि टाइम और स्पेस दो चीजें हैं, वैज्ञानिकों को।
लेकिन आइंस्टीन ने यह सिद्ध करने का भगीरथ प्रयास किया, और
बात सिद्ध हो गई, कि टाइम और स्पेस दो चीजें नहीं हैं। एक ही
चीज है, टाइम-स्पेस या स्पेस-टाइम-कंटीनम। ये दो चीजें नहीं
हैं। समय और स्थान एक ही चीज के दो पहलू हैं।
इसलिए कृष्ण के समय तक भी यह खयाल था कि समय अलग नहीं है। समय भी
स्थान का ही एक हिस्सा है। इसलिए अलग से उसे नहीं गिनाया गया। पंच महाभूत में
अवकाश देने के लिए जरूरी--आकाश; अस्तित्व के लिए आधारभूत--अग्नि;
और प्रकट अस्तित्व के तीन रूप--पृथ्वी, जल और
वायु; इन पंच महाभूतों की धारणा है।
लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति जब बात करते हैं, तो जिनसे बात करते हैं, उनके ही शब्दों का उपयोग
करते हैं। यही उचित भी है। इसीलिए आज कठिनाई हो गई है। आइंस्टीन मजाक में कहा करता
था कि मेरी बात को समझने वाले इस जमीन पर बारह लोगों से ज्यादा नहीं हैं। वह भी
अनुमान था उसका कि बारह लोग इस जमीन पर हैं साढ़े तीन अरब आदमियों में, जो मेरी बात समझ सकते हैं। हालांकि उसकी पत्नी ने शक जाहिर किया है कि
बारह लोग भी हो सकते हैं।
क्या बात है? आइंस्टीन की बात को समझने के लिए बारह लोग! आइंस्टीन
जो भाषा बोल रहा है, उस भाषा में सारी कठिनाई है। वह गणित की
भाषा है।
कृष्ण जो भाषा बोल रहे हैं, वह लोक-भाषा है।
कृष्ण की बात सब की समझ में आ सकती है। लोक-भाषा में बोलने का एक खतरा है कि चीजें
कभी बहुत तर्कबद्ध और सूक्ष्म नहीं हो सकतीं। लेकिन सूक्ष्म और तर्कबद्ध और गणित
की भाषा में बोलने का दूसरा खतरा है कि चीजें किसी की समझ में नहीं आतीं; समझ के बाहर खो जाती हैं।
तो जिनकी दृष्टि केवल तत्व-अन्वेषण की है, वे तो गणित की भाषा भी बोल सकते हैं। इसलिए आइंस्टीन का खयाल है कि भविष्य
की विज्ञान की भाषा, आम भाषा नहीं रहेगी, सिर्फ गणित की भाषा हो जाएगी। अंकों में बात होगी, शब्दों
में नहीं। क्योंकि शब्दों में गड़बड़ होती है। प्रतीकों में बात होगी, शब्दों में नहीं। क्योंकि शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं।
लेकिन कृष्ण जो बोल रहे हैं, वह तत्व-अन्वेषण के
लिए नहीं, तत्व-साधना के लिए बोल रहे हैं। अर्जुन को समझ में
आ सके, उस भाषा में बोल रहे हैं। तो उन्होंने लोक-प्रचलित
पंच महाभूत की बात कही। लेकिन उस पंच महाभूत की बात में पूरी वैज्ञानिक दृष्टि है।
आधारभूत तो एक ही है, अग्नि, तेज।
इसलिए अग्नि को देवता कहा। इसलिए सारे जगत में अग्नि की पूजा हुई। अभी भी पारसी
अपने मंदिर में चौबीस घंटे अग्नि को जलाए हुए है। शायद उसे ठीक पता भी नहीं कि
किसलिए जलाए हुए है। रीति है, प्रचलित है, जलाए हुए है। उसका मंदिर तो अग्नि का ही मंदिर है। लेकिन खयाल नहीं है कि
क्यों?
अग्नि जीवन का आधारभूत तत्व है; वही देवता है। उससे
ही जीवन का सब रूप विकसित होता है। मंदिर में अग्नि जलाकर बैठने से कुछ हल न होगा।
इस जीवन में सब तरफ अग्नि को ही जलते हुए देखने से अग्नि के देवता का दर्शन होता
है।
जहां भी जो कुछ है, वह अग्नि का ही रूप है। और उस
अग्नि के तीन रूप हैं प्रकट--ठोस, फिर जलीय, फिर वायवीय। और उसकी जगह जिसमें मिली है, समय और
स्थान, उसका नाम आकाश है। इन पंच महाभूतों की कृष्ण ने बात
कही। इनसे प्रकृति बनी है। और तीन और अंतर-रूपों की बात कही। और इन आठों को इकट्ठा
गिनाया। तीन कहा--मन, बुद्धि, अहंकार।
सबसे ज्यादा पहली चीज कही, पृथ्वी। और सबसे
अंतिम चीज कही, अहंकार। पृथ्वी सबसे मोटी और स्थूल चीज है।
अहंकार सबसे सूक्ष्म और बारीक और डेलिकेट चीज है। इस जगत में जो सूक्ष्मतम
अस्तित्व है, वह अहंकार है। और जो स्थूलतम अस्तित्व है,
वह पृथ्वी है। इसलिए इस तरह। और एक-एक के बाद। सबसे पहले भीतर की
यात्रा में कहा, मन।
मन का अर्थ है, हमारे भीतर वह जो सचेतना है, वह
जो कांशसनेस है। मन का अर्थ है, सचेतना। वह जनरलाइज्ड हमारे
भीतर जो मनन की शक्ति है, उसका नाम मन है। मन का बहुत रूप
जानवरों में भी है। जानवर भी मन से जीते हैं, लेकिन बुद्धि
उनके पास नहीं है।
बुद्धि मन का स्पेशलाइज्ड रूप है। सिर्फ मनन नहीं, बल्कि तर्कयुक्त, तर्कसरणीबद्ध चिंतन का नाम बुद्धि
है। और बुद्धि के भी पीछे जब कोई बहुत बुद्धि का उपयोग करता है, तभी भीतर एक और सूक्ष्मतम चीज का जन्म होता है, जिसका
नाम अहंकार है, मैं।
ये आठ तत्वों से मैंने यह सारी प्रकृति रची है, कृष्ण कहते हैं।
यह किसलिए कहते हैं? यह वे इसलिए कहते हैं कि इन आठ
तत्वों में तू प्रकृति को जानना। और जब इन आठ के पार चला जाए, तब तू मुझे जान पाएगा। इन आठ के भीतर तू जब तक रहे, तब
तक तू जानना कि संसार में है; और जब इन आठ के पार हो जाए,
तब तू जानना कि तू परमात्मा में है।
सर्वाधिक कठिनाई और आखिरी मुसीबत तो अहंकार के साथ होगी, क्योंकि बहुत ही बारीक है। हवा को तो मुट्ठी में हम बांध भी लें थोड़ा-बहुत,
उसको मुट्ठी में बांधने का भी उपाय नहीं। हवा तो चलती है, तो उसका धक्का भी लगता है; अहंकार चलता है, तो उसका स्पर्श भी मालूम नहीं पड़ता।
इसीलिए तो दुरूह हो जाता है अहंकार से ऊपर उठना। क्योंकि इतना सूक्ष्म
है कि आप कुछ भी करो, उसी में प्रवेश कर जाता है। आप त्याग करो, वह उसी के पीछे खड़ा हो जाता है। वह कहता है, मैंने
त्याग किया! आप किसी के चरण छुओ, समर्पण करो। वह पीछे से
कहता है कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं! मैंने चरण छुए! आप
प्रार्थना करो, परमात्मा के मंदिर में सिर पटको। वह कहता है
कि देखो, मैं कितना धार्मिक हूं! मैंने प्रभु की प्रार्थना
की। जब कि दूसरे अधार्मिक सड़कों से जा रहे हैं दूकानों की तरफ; मैं धार्मिक, प्रभु की प्रार्थना कर रहा हूं!
वह मैं आपकी प्रत्येक क्रिया के पीछे खड़ा हो जाता है। आप कुछ भी करो, वह सदा पीछे है। वह इतना बारीक है कि आप कहीं से द्वार-दरवाजे बंद नहीं कर
सकते, जहां वह न आ जाए। जहां भी आप होंगे, वहां वह पहुंच जाएगा। जब तक आप होंगे, तब तक वह
पहुंच जाएगा।
तो कृष्ण ने यह विभाजन जो करके कहा, वह इसीलिए कहा है कि
मोटी से मोटी चीज है पृथ्वी, और सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज है
अहंकार। पदार्थ से तो मुक्त होना ही है, अंततः अस्मिता से भी
मुक्त होना है। क्योंकि अहंकार भी पदार्थ का ही सूक्ष्मतम रूप है।
अगर ठीक से समझें, तो मैंने जैसा कहा कि अग्नि के
ही रूप हैं सब बाह्य पदार्थ, वैसे ही अग्नि के ही रूप हैं
भीतर के पदार्थ। जिसको हम मनन कहते हैं, वह भी अग्नि का ही
एक रूप है। और जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह भी अग्नि का ही
एक रूप है।
और इसीलिए मैं आपसे कहूं कि अगर पश्चिम में आज सफलता मिल गई है
कंप्यूटर बनाने में, और जो बुद्धि से आप काम करते थे, वह पेट्रोल या बिजली से चलने वाली मशीन करने लगी है, तो बहुत चकित होने की जरूरत नहीं। क्योंकि आप भी जो काम कर रहे हैं,
वह भी सिर्फ नेचरल कंप्यूटर का है। आपके भीतर भी जो चल रहा है काम,
वह भी अग्नि से ही चल रहा है। ठीक वैसी ही मशीन बाहर भी अग्नि से
काम कर सकती है। और काम करने लगी है। और आदमी से ज्यादा कुशल काम करती है। क्योंकि
उस मशीन के पास कोई अहंकार नहीं है, जो बीच में बाधा डाले।
कोई अहंकार नहीं है; वह बिलकुल कुशलता से काम करती रहती है।
ठीक फ्यूल मिल जाए, ईंधन मिल जाए, मशीन
काम करती रहती है।
आपकी बुद्धि का काम तो मशीन करने लगी है। आज नहीं कल, शायद हम किसी दिन ऐसी मशीन भी ईजाद करने में सफल हो जाएंगे...। अभी किसी
वैज्ञानिक को सूझा नहीं है, और न उन लोगों को सूझा है,
जो विज्ञान के संबंध में उपन्यास और कल्पनाएं लिखते हैं। लेकिन मैं
कहता हूं, किसी दिन यह भी संभव हो जाएगा कि हम ऐसी मशीन
बनाने में सफल हो जाएंगे, जिस मशीन को आप जरा पैर की चोट मार
दे, तो वह कहेगी, देखते नहीं; मैं कौन हूं! तो मशीन कह सकती है। क्योंकि अहंकार भी बहुत सूक्ष्म अग्नि
है।
अगर हमने विचार पैदा कर लिया मशीन से, अगर हमने विचार का
काम ले लिया मशीन से, अगर हमने बुद्धि का काम ले लिया मशीन
से, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसमें हम अस्मिता को भी जन्म
दे दें। और मशीनें भी अकड़कर बैठ जाएं! कुछ मशीनें राष्ट्रपति हो जाएं, कुछ मशीनें प्राइम मिनिस्टर हो जाएं। कुछ कठिनाई नहीं है। मशीनें दावे
करने लगें। मशीनें कभी न कभी दावे करेंगी; क्योंकि हमारे
भीतर भी मशीनें दावे कर रही हैं। हमारे भीतर भी दावे मशीनों के हैं। लेकिन वह है
मशीन, है पदार्थ, है प्रकृति।
सुना है मैंने, एक अदालत में एक आदमी पर, एक
गरीब आदमी पर मुकदमा चल रहा है। और मजिस्ट्रेट उससे पूछता है कि क्या तुमने नेताजी
को बदमाश कहा?
गांव में कोई नेताजी हैं, सभी गांव में हैं।
मानहानि का मुकदमा चल रहा है उस आदमी पर। नेताजी ने मानहानि का मुकदमा चलाया है।
कमजोर नेताजी रहे होंगे। नहीं तो नेता लोग मानहानि की फिक्र नहीं करते; चौबीस घंटे सहनी पड़ती है। जिसको मान चाहिए, उसे
मानहानि सहनी ही पड़ेगी। जिसे सिंहासन पर चढ़ना है, उसे गालियों
के रास्ते से गुजरना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है।
कमजोर नेताजी रहे होंगे, या सिक्खड़, एमेच्योर। अभी नए-नए होंगे। मुकदमा चला दिया। गुस्से में आ गए।
मजिस्ट्रेट उस आदमी से पूछ रहा है--नेताजी सामने खड़े हैं--कि क्या
तुमने नेताजी को बदमाश कहा? उसने कहा, जी हां। नेताजी सोचते
थे, शायद मना करेगा। मजिस्ट्रेट भी सोचता था कि मना करेगा।
मजिस्ट्रेट भी चौंका। कहा कि क्या तुमने चोर भी कहा? उस आदमी
ने कहा, जी हां। कहा, तुमने डाकू भी
कहा? उसने कहा, जी हां। कहा, तुमने हत्यारा भी कहा? उसने कहा, जी हां। मजिस्ट्रेट ने कहा, क्या तुमने गधा भी कहा?
उसने कहा, कहना चाहता था। लेकिन माफ करिए,
कहा नहीं। पूछा, क्यों? उसने
कहा कि जब मैं कहने के करीब आया, तो तुझे खयाल आया कि कहीं
गधे नाराज न हो जाएं। क्योंकि न तो गधे चोर होते, न बेईमान
होते, न बदमाश होते, न हत्यारे होते।
पहले तो मैंने तय किया था कि कहूंगा। लेकिन पीछे मैं, माफ
करिए, मैं छोड़ गया। कहा नहीं मैंने।
आदमी जो भी कर रहा है, उसमें और पशुओं में
बड़ा भेद नहीं है। सिर्फ थोड़ी-सी सूक्ष्मता का भेद पड़ता है, और
कुछ भेद नहीं पड़ता। पशु उसे ही जरा अनगढ़ ढंग से करते हैं; आदमी
गढ़कर करता है।
सब पशु की प्रवृत्तियां आदमी में सूक्ष्म हो जाती हैं, बस। सूक्ष्म होने से और जटिल हो जाती हैं। सूक्ष्म होने से और कनिंग,
और चालाक हो जाती हैं। पशु में एक सरलता भी दिखाई पड़ती है, आदमी में वह भी खो जाती है। क्योंकि वह जटिलता का बिंदु भीतर, अस्मिता, अहंकार पैदा हो जाता है; वह सारी चीजों को उलझा देता है।
और जिसको परमात्मा की यात्रा पर जाना हो, उसे पदार्थ के उस सूक्ष्मतम रूप, अग्नि के उस
सूक्ष्मतम खेल, प्रकृति के उस सूक्ष्मतम रहस्य के ऊपर जाना
पड़ेगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह विभाजन है। यह
मैंने रची प्रकृति। इस तरह आठ हिस्सों में मैंने इस प्रकृति को रचा है।
जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह तू नहीं है। और जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह परमात्मा नहीं है। जो भी रचा जाता है, वह प्रकृति
है; और जो भी रचा नहीं जाता है, वही
परमात्मा है। जो भी बनता है, वह प्रकृति है; और जो कभी नहीं बनाया जाता, वही परमात्मा है। जो
निर्मित होता है, वह प्रकृति है; और जो
सदा अनिर्मित है और है--अनक्रिएटेड, अस्रष्ट--वही परमात्मा
है।
अहंकार भी निर्मित होता है। बच्चों में अहंकार नहीं होता; धीरे-धीरे निर्मित होता है। बुद्धि भी निर्मित होती है। बच्चों में बुद्धि
नहीं होती। और आप ऐसा सोचते हों कि आप बुद्धि लेकर पैदा हुए हैं, तो आप बड़ी गलती में हैं। सिर्फ आप संभावना लेकर पैदा होते हैं, बाद में सब निर्मित होता है। अगर आपको जंगल में भेड़ियों के पास रख दिया
जाए और बड़ा किया जाए, तो आपके पास कोई बुद्धि नहीं होगी। हां,
भेड़ियों के पास जितनी बुद्धि होती है, उतनी
बुद्धि आपके पास होगी। उससे ज्यादा नहीं। अगर आप सोचते हैं कि आपको एकांत में रखा
जाए...।
अकबर ने ऐसा प्रयोग किया। अकबर को किसी फकीर ने कहा कि आदमी वही हो
जाता है, जो उसे बनाया जाता है। इसलिए बनाया हुआ आदमी झूठा है।
हम तो उस आदमी की तलाश में हैं, जो अनबनाया है, जो अनबना है। अकबर ने कहा, मैं यह नहीं मान सकता कि
आदमी में सब बनाया हुआ है। उस फकीर ने कहा, कौन-सी चीज आपको
गैर-बनाई दिखती है? अकबर ने कहा कि जैसे आदमी की बुद्धि,
विचार। ये आदमी के बनाए हुए नहीं हैं। ये तो भीतर से आते हैं।
सबको हमको खयाल है कि भीतर से आते हैं। इसीलिए तो हम लड़ पड़ते हैं। कोई
आदमी अगर कहे कि आपका विचार गलत, तो आप कहते हैं, मेरा विचार गलत! कभी नहीं। मेरा विचार! ऐसा लगता है, जैसे कि मेरे साथ। नहीं, सब विचार बाहर से भीतर डाले
जाते हैं।
तो उस फकीर ने कहा, आप एक प्रयोग कर लें। एक बच्चे
को, जन्मजात बच्चे को, अभी पैदा हुआ और
उठाकर कारागृह में रखा गया। सब तरह उसकी सेवा की जाती; उसे
दूध पहुंचाया जाता; सब किया जाता। लेकिन कहा गया पहरेदारों
को कि वे बोलें न उस बच्चे के सामने कभी भी। उनके मुंह बंद, सी
दिए गए।
वह बच्चा बड़ा हुआ। और अकबर मुसीबत में पड़ने लगा। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उसमें आदमी जैसा कुछ भी प्रकट न हुआ। न तो वह चलना सीख पाया, न वह बैठना सीख पाया, न वह बोलना सीख पाया। वह कुछ
भी नहीं सीख पाया। वह दस साल का हो गया, उससे एक शब्द न
फूटा। वह बारह साल का हो गया, उससे एक शब्द न फूटा। वह सत्रह
साल का होकर मरा। और अकबर सत्रह साल तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा। आखिर उसने कहा कि
नहीं; उसमें कुछ न आया। वह सब बाहर से डाला गया है। वह सब
बनावट है।
सब आदमी बनाए हुए हैं, मैन्युफैक्चर्ड। हां,
कोई मेड इन इंडिया, कोई मेड इन जापान। वह अलग
बात है। बाकी सब आदमी मैन्युफैक्चर्ड हैं। कोई हिंदू, कोई
मुसलमान, कोई जैन--सब मैन्युफैक्चर्ड हैं। क्योंकि अहंकार तक
जो भी है, वह सब प्रकृति है।
बुद्धि भी प्रकृति है, मन भी प्रकृति है।
जैसे बाहर पड़ा हुआ पत्थर है, ऐसे ही भीतर पड़ा हुआ अहंकार है।
इनमें कोई सूक्ष्म अंतर नहीं है। ये दोनों एक ही चीज हैं। यह सब बना-बनाया है।
इसके पार है वह, जो अस्रष्ट, अनक्रिएटेड है। इन सबके पार जाए कोई, तो उसका दर्शन
है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। ५।।
सो यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है।
और हे महाबाहो, इससे दूसरी को मेरी जीवरूप परा अर्थात चेतन प्रकृति
जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है।
यह जो आठ अंगों वाली प्रकृति है, यह अपरा है। अपरा का
अर्थ होता है, निम्न, नीचे की, इस पार की। और इन आठ के पार मेरी वह प्रकृति है, जो
परा है, दि बियांड, उस पार की। ये आठ
विभाजन इस किनारे के हैं। और एक मैं हूं, उस पार, इन सबसे दूर और ऊपर उठकर--परा। इन सबके पार, इन सबको
ट्रांसेंड कर जाता हूं। उस चैतन्य को, उस चेतना को, जो इन सबके पार है, तू इन सबको धारण करने वाली समझ।
वह जो पार है, क्या है? उस संबंध में थोड़ा-सा
समझें। क्योंकि वही सबको धारण करने वाली है। वही धर्म है। वही सबको सम्हाले है। यह
इतना विराट विस्तार उसकी ही छाती पर है, उस परा की। उस पार
की चेतना। वह पार की चेतना क्या है? और हमारे भीतर उस पार की
चेतना की तरफ जाने वाला द्वार कहां है?
समस्त योग का सार, उस परा को पहचानने की प्रक्रिया,
टेक्नीक है। स्वयं के भीतर वह परा, वह बियांड
कहां शुरू होता है?
शरीर में नहीं, क्योंकि शरीर पदार्थ है। मन में नहीं, क्योंकि मन भी बाहर से संगृहीत विचारों का जोड़ है। बुद्धि में नहीं,
क्योंकि बुद्धि भी सूक्ष्मतम अग्नि का रूप है। अहंकार में नहीं,
क्योंकि अहंकार भी स्वनिर्मित धारणा है। फिर कहां? फिर किस में हम उस सेतु को पाएं, उस द्वार को,
जहां से सबको धारण करने वाली चेतना का साक्षात और मिलन है?
इन सबके साक्षित्व में। मैं अपने शरीर का साक्षी हो सकता हूं। यह रहा
मेरा हाथ; मैं इस हाथ को देख सकता हूं। यह हाथ मेरा काट दिया
जाए, तो मैं इस हाथ की पीड़ा को देख सकता हूं। यह हाथ कट जाए,
तो भी मैं देखूंगा कि मैं नहीं कटा, हाथ ही
कटा है। इस हाथ के कट जाने के बाद भी मुझे जरा भी न लगेगा कि मेरे बीइंग, मेरे अस्तित्व में कुछ टुकड़ा अलग हो गया है। मैं उतना का उतना ही रहूंगा।
मेरे होने की जो धारणा है, उसमें खंड जरा-सा भी अलग नहीं
होगा। मैं उतना ही रहूंगा। मेरे पैर भी कट जाएं, तो भी मैं
उतना ही रहूंगा। मेरी आंख भी फूट जाएं, तो मेरे शरीर में कमी
पड़ती जाएगी, लेकिन मेरे होने में, मेरे
अस्तित्व में कोई भेद न पड़ेगा।
सोचें ऐसा, आप रात सोए, रात आपकी आंख चली
जाए नींद में। सुबह जब आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप जाग गए हैं...क्या आपको पता
चल सकेगा आंख बंद में कि आपकी आंख चली गई? अगर आपके भीतर कुछ
कम हो गया हो, तो जरूर पता चलना चाहिए। लेकिन कुछ कम हुआ
नहीं है, इसलिए पता नहीं चलेगा। आंख खोलेंगे, और जब कुछ न दिखाई पड़ेगा, तब पता चलेगा कि कुछ कमी
हो गई। भीतर कोई कमी न होगी। बाहर के संबंध का एक द्वार टूट गया, भीतर आप पूरे के पूरे हैं। भीतर आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
अगर आपको बेहोश करके आपका पैर काट दिया जाए, और जब तक पैर का दर्द न चला जाए, तब तक आपको बेहोश
और डीप फ्रीज में रखा जाए। फिर आपके पैर का दर्द जा चुका हो, आपको होश में लाया जाए। शरीर पर कंबल पड़ा हो। आपको भीतर से जरा भी पता
नहीं चलेगा कि पैर कट गया है, जब तक कि कंबल न उठाया जाए,
जब तक आप देखें न। जब तक आप चलें और गिर न पड़ें, तब तक आपको पता नहीं चलेगा कि पैर कट गया। क्योंकि भीतर कुछ कटता ही नहीं।
तो भीतर पता कैसे चलेगा? पता तो तभी चलेगा, जब बाहर प्रयोग करेंगे शरीर का और कोई कमी मालूम पड़ेगी; तभी पता चलेगा, अन्यथा पता नहीं चलेगा।
शरीर के हम साक्षी हो सकते हैं, विटनेस हो सकते हैं।
जान सकते हैं कि यह मैं नहीं हूं। क्योंकि जिसको भी मैं देख पाता हूं, वह मैं नहीं हो सकता। जो भी दृश्य बन गया, वह मैं
नहीं हो सकता। मैं आपको देख रहा हूं; एक बात पक्की हो गई कि
वह जो आप वहां बैठे हुए हैं, वह मैं नहीं हूं। अन्यथा मैं
आपको देख न पाता। देखने के लिए दूरी चाहिए; परसेप्शन के लिए
पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए, नहीं
तो मैं देख न पाऊंगा आपको।
आपको देख पाता हूं, क्योंकि मैं अलग हूं। दूर खड़ा
हूं। मैं अपने शरीर को भी देख पाता हूं। आप बच्चे थे, तब भी
अपने शरीर को देखा। जवान हो गए, तब भी अपने शरीर को देखा।
फिर भी आपको खयाल न आया कि शरीर तो बिलकुल बदल गया है, लेकिन
आप? आप तो वही के वही हैं! आपके भीतर कुछ भी नहीं बदला,
रत्तीभर। आप बूढ़े भी हो जाएंगे, तब भी आपके
भीतर आप वही होंगे, जो बच्चे थे तब थे। भीतर, वह जो चेतना है, वह अछूती गुजर जाती है।
शरीर मैं नहीं हूं, यह हम शरीर के साक्षी होकर जान
सकते हैं। फिर हम विचारों के भी साक्षी हो सकते हैं। आप भीतर देख सकते हैं कि यह
क्रोध चल रहा है। आप भीतर देख सकते हैं, यह लोभ सरक रहा है।
आप भीतर देख सकते हैं कि यह काम यात्रा कर रहा है।
विचार को आप देख सकते हैं वैसे ही, अपने भीतर के पर्दे
पर, जैसे आप फिल्म को देखते हैं। उसके भी आप साक्षी हो सकते
हैं। तो फिर आप उससे भी अलग हो गए। कठिनाई थोड़ी-सी पड़ेगी मैं को देखने में,
क्योंकि वह सूक्ष्मतम है और हम उससे आइडेंटिफाइड हैं।
लेकिन मैं को भी आप देख सकते हैं। जब आप सड़क पर चलते हैं; एकांत सड़क; कोई भी नहीं है। फिर अचानक दो आदमी सड़क
पर निकलते हैं, तब आपने खयाल किया है कि कोई सांप आपके भीतर
सरककर फन उठा लेता है। उसे जरा गौर से देखना। जब आप अकेले थे, तो आप कुछ और थे। अब दो आदमी सड़क पर आ गए, तो आप कुछ
और क्यों हो गए? यह कुछ और क्या है? यह
भीतर मैं का भाव खड़ा हो गया।
कोई आदमी आपको गाली देता है, तब जरा भीतर गौर से
देखना कि कोई सांप फन उठाता है, जैसे फुफकारता हो, जैसे सोए सांप को चोट मार दी हो, कोई आपके भीतर उठकर
खड़ा हो जाता है। जरा उसे गौर से देखना। जब आप सुंदर कपड़े पहनकर निकलते हैं सड़क पर,
तब आप वही नहीं होते, जब आप दीन-हीन कपड़े
पहनकर निकलते हैं। भीतर थोड़ा-सा फर्क होता है।
आज मैं छोटी-सी कहानी एक मित्र को लिख रहा था। लिख रहा था कि एक हाथी
ने एक दिन एक चूहे को देखा। चूहे जैसा छोटा प्राणी हाथी ने कभी देखा नहीं था।
इसलिए नहीं कि छोटे प्राणी नहीं हैं, बाकी हाथी जैसे
प्राणी को कहां ये छोटे-छोटे प्राणी दिखाई पड़ें! चूहे को एक दिन देख लिया; ऐसे ही फुर्सत में रहा होगा, विश्राम में रहा होगा।
चूहे को देखकर बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि तुझसे क्षुद्र प्राणी मैंने अपने जीवन
में नहीं देखा! बड़ी अकड़ से कहा कि तुझसे क्षुद्र प्राणी मैंने कभी नहीं देखा।
क्षुद्रतम है तू।
चूहे ने पता है क्या कहा? चूहे ने ऊपर हाथी को
देखा और कहा, माफ करें। ऐसा मैं सदा नहीं होता। जरा मेरी
तबियत खराब थी। यह मेरा सदा का रूप नहीं है। आई हैव बीन सिक। यह मेरी सदा की
स्थिति नहीं है। जरा मैं बीमार पड़ गया था।
हाथी का होगा अहंकार, तो चूहे का भी है। वह भी अपने
अहंकार को बचाने की कोशिश करेगा। हम सब कर रहे हैं। फर्क कुछ भी नहीं है। वही चूहे
वाली बुद्धि है। इसको थोड़ा अगर जागकर देखते रहेंगे कि कब-कब खड़ा होता है! जब कोई
आपसे कहता है कि अरे...। तब कई बार आपका मन भी ऐसा होता है न कहने का, कि यह मेरी सदा की हालत नहीं है, मैं जरा बीमार रहा!
वह जो भीतर मैं है, उसको जरा जागकर खोजते रहेंगे कि
वह कहां-कहां खड़ा होता है, तो जल्दी आपकी उससे मुलाकात होने
लगेगी; जगह-जगह मुलाकात होगी। आईने के सामने खड़े होंगे,
तो शक्ल कम दिखाई पड़ेगी, अहंकार ज्यादा दिखाई
पड़ेगा। किसी से हाथ मिलाएंगे, तो आप कम मिलते हुए मालूम
पड़ेंगे, अहंकार ज्यादा मिलता हुआ मालूम पड़ेगा। किसी से बात
करेंगे, तो आप संवाद करते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे, अहंकार भीतर खड़ा हुआ मालूम पड़ेगा।
थोड़ा होश का प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे आपके और
आपके अहंकार के बीच एक गैप, एक फासला पैदा हो जाएगा। और आप
देख पाएंगे, यह अहंकार है; यह रहा
अहंकार।
और जिस दिन आप अहंकार को भी देख पाएंगे, उसी दिन, उसी दिन छलांग। उसी दिन आप इस आठ वाली प्रकृति से छलांग लगाकर उस भीतर की
परा प्रकृति में पहुंच जाएंगे, जिसे कृष्ण कहते हैं, मेरा स्वरूप, मेरी चेतना।
और उसी चेतना ने सब धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपके शरीर को
भी उसी ने धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपकी बुद्धि को भी उसी ने धारण किया
हुआ है। तब आप पाएंगे कि आप कभी भीतर गए ही नहीं, उसको कभी आपने देखा
ही नहीं, जो प्राणों का प्राण है। आपने उसे देखा ही नहीं,
जो सारी परिधि का केंद्र है। आपने कभी मालिक को देखा ही नहीं;
आप नौकरों से ही उलझे रहे। और अनेक बार आपने नौकरों को ही समझ लिया
कि यह मैं हूं। आप मालिक तक कभी पहुंचे नहीं।
कृष्ण अर्जुन को उस मालिक की तरफ ले जाने की एक-एक कदम कोशिश कर रहे
हैं। कहा, यह है आठ की प्रकृति अर्जुन। तू इसे ठीक से समझ ले।
और फिर इसके पार होने के लिए मैं उस बात की तुझे खबर दूं, जो
परा है, वह जो चैतन्य है, पीछे सबसे
छिपा, जो सबका निर्माता, जो सबका आधार
और जो सबको फिर अपने में आत्मसात कर लेता है।
आज इतना ही।
उठेंगे नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। प्रसाद लेकर जाएं। हमारे
संन्यासियों के पास कुछ और देने को आपके लिए नहीं है। इसलिए आप उठेंगे, तो उनके मन को पीड़ा होगी। बैठे रहें।
और सिर्फ बैठे न रहें। प्रसाद तभी मिल सकता है यह, अगर आप इसमें कोआपरेट करें, अन्यथा आप खाली हाथ चले
जाएंगे। गीत गाएं। उनके धुन के साथ धुन गाएं। ताली बजाएं। बगल वाले की फिक्र छोड़
दें। वह बगल वाला क्या कहेगा, उसकी फिक्र छोड़ दें। थोड़े
आनंदित हों। पांच मिनट इस आनंद को लेकर जाएं।
हो सकता है, इस कीर्तन की धुन में आप पूरे आनंदित हो जाएं,
तो परा की तरफ थोड़ा-सा इशारा आपको दिखाई पड़े।
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