शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-087



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-087 
    
अध्याय ७
आठवां प्रवचन
श्रद्धा का सेतु

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। २१।।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।। २२।।
जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है।

प्रभु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोई, यह महत्वपूर्ण नहीं है; और किस मंदिर से प्रवेश किया उसने, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को माना, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता है, कि कृष्ण को भजता है, कि जीसस को भजता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता है, इससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच सेतु निर्मित करता है, वे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर है; वह श्रद्धा ही सार्थक है।

इसे ऐसा समझें कि यदि परमात्मा का सवाल भी न हो, और कोई व्यक्ति परम श्रद्धा से आपूरित हो; किसी के प्रति भी नहीं, सिर्फ श्रद्धा का उसके हृदय में आविर्भाव होता हो, श्रद्धा उसके हृदय से विकीर्णित होती हो; किसी के चरणों में भी नहीं, लेकिन उसके भीतर से श्रद्धा का झरना बहता हो, तो भी वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा। नास्तिक भी पहुंच सकता है वहां, अगर उसके हृदय से श्रद्धा के फूल झरते हैं। और आस्तिक भी वहां नहीं पहुंच पाएगा, अगर उसके जीवन में श्रद्धा का झरना नहीं है।
तो श्रद्धा को थोड़ा इस सूत्र में ठीक से समझ लेना जरूरी है।
श्रद्धा से क्या अर्थ है? श्रद्धा से अर्थ, विश्वास नहीं है, बिलीफ नहीं है।
यह बहुत मजे की बात है कि जो लोग भी विश्वास करते हैं, वे अविश्वासी होते हैं। उनके भीतर अविश्वास छिपा होता है। उसी अविश्वास को दबाने के लिए वे विश्वास करते हैं। भीतर अविश्वास होता है, उसे दबाने के लिए, उसे झुठलाने के लिए, भुलाने के लिए, मिटाने के लिए, वे विश्वास करते हैं। लेकिन भीतर का अविश्वास और गहरे उतर जाता है, मिटता नहीं है।
विश्वासी कभी भी अविश्वास को नहीं मिटा पाता। क्योंकि विश्वास होता ही किसी अविश्वास के खिलाफ है। विश्वास की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है।
श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है।
इस बात को ठीक से समझ लें।
श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है। जिसके हृदय में अविश्वास नहीं है, वह विश्वास भी नहीं करता, क्योंकि विश्वास किसलिए करेगा! एक आदमी जब कहता है कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं, तब वह जितना जोर लगाकर कहता है कि मैं विश्वास करता हूं, जानना कि उतना ही ताकतवर अविश्वास भीतर बैठा है। वह उसी अविश्वास को इतना जोर लगाकर दबाता है। अन्यथा अविश्वास न हो, तो विश्वास करने का कोई कारण नहीं रह जाता।
आप कभी भी ऐसा नहीं कहते कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। आप कभी नहीं कहते कि यह आकाश, जो चारों तरफ है मेरे, इसमें मैं विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। और अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं, तो क्या उसका विश्वास इस बात की खबर न होगा कि वह आदमी अंधा है! सिर्फ अंधे ही सूरज में विश्वास कर सकते हैं। जिनके पास आंख है, उनकी सूरज में श्रद्धा होती है। श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास नहीं होता।
आप सूरज में विश्वास नहीं करते हैं, आप जानते हैं कि सूरज है। संदेह ही नहीं किया कभी, तो विश्वास करने का कोई सवाल नहीं है। बीमार ही नहीं हुए कभी, तो किसी दवा लेने की कोई जरूरत नहीं है।
विश्वास जो है, एंटीडोट है डाउट का। वह जो संदेह भीतर बैठा है, उसको दबाने का इंतजाम है विश्वास। इसलिए आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। लेकिन कभी नहीं कहता कि मैं पदार्थ में विश्वास करता हूं। पदार्थ में कोई अविश्वास ही नहीं है, इसलिए विश्वास की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। और अगर कोई कहता हो, तो उसे शक होगा कि वह आदमी अंधा है। आंख वाला आदमी सूरज में विश्वास नहीं करता, श्रद्धा करता है।
इस फर्क को आप ठीक से समझ लें।
श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास उठता ही नहीं। विश्वास का अर्थ है, अविश्वास मौजूद है। किसी भय के कारण, किसी लोभ के कारण, वह जो अविश्वास मौजूद है, उसे हम दबा लेना चाहते हैं, छिपा लेना चाहते हैं, झुठला देना चाहते हैं, भुला देना चाहते हैं।
धर्म की यात्रा पर विश्वास से काम नहीं चलता। विश्वास सब्स्टीटयूट है श्रद्धा का; लेकिन इमिटेशन, नकली; उससे काम नहीं चलता। इसीलिए तो दुनिया में इतने विश्वासी लोग हैं, फिर भी धर्म कहीं दिखाई नहीं पड़ता। विश्वासियों की कोई कमी है? सच पूछा जाए, तो अधिकतम लोग विश्वासी हैं। वे जो अविश्वास करते हुए मालूम पड़ते हैं, वे भी विश्वासी हैं। सिर्फ उनके विश्वास नकारात्मक हैं।
पृथ्वी विश्वासियों से भरी है, लेकिन धर्म की कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती। मंदिर, मस्जिद और चर्चों में विश्वासी प्रार्थना कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थना का आनंद कहीं विकीर्णित होता नहीं दिखाई पड़ता। वह हरियाली जो प्रार्थना से हमारे हृदय पर छा जानी चाहिए, नहीं छाती दिखाई पड़ती। हम रूखे के रूखे, सूखे के सूखे, मरुस्थल रह जाते हैं। कहते हैं कि प्रार्थना कर आए, लेकिन मरुस्थल का मरुस्थल रह जाता है, कोई वर्षा नहीं होती उस पर।
विश्वास धोखा है श्रद्धा का, लेकिन धोखे से कुछ काम नहीं चलेगा।
एक व्यक्ति संध्या अपने घर लौटा है। उसकी पत्नी का जन्मदिन है। आते ही उसने कहा कि देखती हो, हीरे की अंगूठी लाया हूं तुम्हारे लिए। पत्नी ने कहा, हीरे पर इतना खर्च क्यों किया? इतने दिन से हम सोचते थे, अच्छा होता कि तुम एक कार ही खरीद लाते और मुझे भेंट कर देते। उस आदमी ने आंख बंद कर ली और फिर सिर ठोंका, और उसने कहा कि क्या करूं, इमिटेशन कार मिलती नहीं; नकली कार मिलती नहीं। नकली हीरा मिल जाता है। नकली कार मिलती होती, तो वह ले आता।
श्रद्धा की जगह जिसने भी विश्वास को पकड़ा है, वह नकली हीरे को पकड़े हुए है। असली हीरे का उसे पता ही नहीं है। इसलिए विश्वासी बहुत डरता है कि कोई उसके विश्वास का खंडन न कर दे; कोई विपरीत तर्क न दे दे; कोई उलटी बात न कह दे; कहीं विश्वास डगमगा न जाए।
ध्यान रहे, विश्वास डगमगाता ही रहेगा, क्योंकि विश्वास की कोई जड़ ही नहीं है। श्रद्धा नहीं डगमगाती। इसलिए श्रद्धा से ज्यादा अभय, फियरलेस, इस जगत में कोई भी चीज नहीं है। खुद भगवान भी आकर किसी श्रद्धावान हृदय को कहे कि भगवान नहीं है, तो वह कहेगा कि रास्ते से हटो! लेकिन आपके विश्वास को तो एक छोटा-सा बच्चा डिगा सकता है। एक छोटा-सा बच्चा तर्क उठा दे, और आपके विश्वास मिट्टी में लोट जाते हैं।
इसलिए कोई आदमी अपने विश्वासों की चर्चा नहीं करना चाहता। क्योंकि विश्वास की चर्चा करनी खतरनाक है। उसके नीचे कोई जड़ नहीं है। ऊपर-ऊपर है सब। जरा में गिर जाएगा।
कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा जो करता है। फिर वे कहते हैं कि वह श्रद्धा चाहे किसी कामना से प्रेरित होकर किसी देवता में ही क्यों न करता हो। और यहां एक बहुत कीमती बात वे कहते हैं! कहते हैं, किसी कामना से प्रेरित होकर ही, अर्थार्थी, किसी वासना से प्रेरित होकर ही किसी देवता में श्रद्धा क्यों न करता हो, मैं उसकी श्रद्धा नहीं मिटाता। मैं उसकी श्रद्धा को परिपुष्ट और मजबूत करता हूं।
दो रास्ते संभव हैं।
कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि देवता की श्रद्धा मुक्ति तक, सत्य तक, परम सत्य तक नहीं ले जाएगी। यह भी भलीभांति जानते हैं कि कामना से प्रेरित होकर जो आदमी श्रद्धा कर रहा है, उसकी श्रद्धा बड़ी सांसारिक है। उसके लगाव में परमात्मा की तरफ बहाव कम है, संसार में ही बहने के लिए परमात्मा की सहायता की अपेक्षा ज्यादा है। यह भलीभांति जानते हैं।
दो रास्ते हैं। या तो कृष्ण कह सकते हैं कि छोड़ो कामवासना, छोड़ो वासनाएं, हटाओ वासनाओं को, और छोड़ो देवताओं को, क्योंकि देवताओं से परम मुक्ति नहीं होगी। आओ मेरे पास, सब वासनाओं को छोड़कर, परम ऊर्जा के पास। वही मुक्ति है, वही स्वातंत्र्य है, वही अमृत है। एक रास्ता तो यह है।
लेकिन कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि ऐसा कहकर इस बात की तो सौ में एक ही संभावना है कि कोई देवताओं को और वासनाओं को छोड़कर कृष्ण के पास आए। सौ में निन्यानबे संभावना यह है कि कृष्ण के पास तो आए ही नहीं, देवता के पास भी जाना बंद कर दे। इसकी संभावना सौ में निन्यानबे है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं उसके ही देवता में उसकी श्रद्धा को स्थापित करता हूं। क्योंकि श्रद्धा आज देवता में स्थापित हो जाए, तो कल एक कदम आगे उसे और बढ़ाया जा सकता है। कृष्ण कहते हैं, वह कामवासना से भरे व्यक्ति को भी मैं एकदम से नहीं कहता कि तेरी कामवासना गलत है। मैं कहता हूं कि ठीक है। मेरी शक्ति तेरी वासनाओं की पूर्ति में भी सहयोगी बनेगी।
इतने भरोसे के साथ उसकी कामवासना में भी सहायता देने की जो बात है, वह सोचने जैसी है, उसमें कुछ राज है। उसमें राज यह है कि तू अपनी कामवासना पूरी कर ले। पूरी करके तू पाएगा कि कुछ पूरा नहीं हुआ। तू अपनी वासनाओं को पूरा कर ले। पूरा करके तू पाएगा कि तूने व्यर्थ की मांग की। पूरा करके तू पाएगा कि परमात्मा की जो शक्ति तेरी वासनाओं की पूर्ति के लिए मिली, उस शक्ति से तो स्वयं तू परमात्मा हो सकता था। तूने उसे व्यर्थ गंवाया है।
इस भरोसे के साथ, कृष्ण कहते हैं, मैं उसकी श्रद्धा को मजबूत करता हूं उसी देवता में, जिसकी तरफ उसका लगाव है। और उसी वासना के लिए कहता हूं कि ठीक। चलो, यही सही। शायद परमात्मा की शक्ति मिलनी शुरू हो। आपने भला किसी और चीज के लिए मांगी हो, लेकिन जब वह मिलेगी और उसके आनंद की चारों तरफ वर्षा होने लगेगी, तो वह घटना भी घट सकती है कि जिसके लिए आपने मांगा था, वह आप ही भूल जाएं, और जो बरस रहा है, वही स्मरण में रह जाए, और उसी तरफ यात्रा शुरू हो जाए।
दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि पहले आपसे गलत छुड़ाया जाए और तब आपको सही दिया जाए। दूसरा रास्ता यह है कि आपको सही दिया जाए, ताकि गलत आपसे छूटे। कृष्ण सही को देने के लिए अति आतुर हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि सही मिलना शुरू हो, तो गलत छूटना शुरू होता है।
और गलत छुड़वाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जिनके हाथ में सही नहीं है, वे गलत के सहारे जीते हैं। अगर हम उनसे उनका गलत छुड़वाना शुरू करें, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि वे गलत को छोड़ें और सही की यात्रा पर निकलें। इस बात की ही संभावना ज्यादा है कि वे हमारी बात सुनना बंद कर दें, और अपने गलत को पकड़े रहें। या यह भी डर है कि वे गलत को भी छोड़ दें, और सही की यात्रा पर भी न निकलें। तब एक त्रिशंकु की हालत में, बीच में, अधर में लटक जाएं। जैसा कि आज करीब-करीब पश्चिम में हुआ है।
इन पिछले तीन सौ वर्षों में पश्चिम के विचारकों ने क्या गलत है, इस पर इतनी चर्चा की कि गलत तो छूट गया; क्या सही है, उसका कुछ पता नहीं रहा। पश्चिम में तीन सौ साल के अच्छे लोगों का परिणाम यह हुआ है कि आज पश्चिम का मन, एंटी आल एंड प्रो नथिंग, हर चीज के खिलाफ और किसी चीज के पक्ष में नहीं रह गया है।
जो लोग कृष्णमूर्ति को सुनते रहे हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही बन जाती है--एंटी आल, प्रो नथिंग। हर चीज के विरोध में, हर चीज के निषेध में। यह भी गलत, यह भी गलत, यह भी गलत; और सही क्या है, उसकी कोई किरण उतरती नहीं। तब व्यक्ति बीच में अटका रह जाता है।
कृष्ण की पद्धति बिलकुल दूसरी है। वे कहते हैं कि तुम गलत हो, गलत होओगे ही। क्योंकि जब तक परमात्मा न मिले, तब तक सही हो भी कैसे पाओगे? तुम कंकड़-पत्थर पकड़े हो, स्वाभाविक है। क्योंकि जब तक हीरे न मिलें, कंकड़-पत्थर छोड़ोगे कैसे? तुम मिट्टी के घर बना रहे हो, स्वाभाविक है। क्योंकि जब तक तुम्हें अमृत का घर न मिल जाए, तुम और करोगे क्या?
कृष्ण की करुणा अपरिसीम है। वे कहते हैं कि ठीक है, तुम बच्चे हो, इसलिए सीप और पत्थर इकट्ठे कर रहे हो। ठीक है। मैं तुमसे सीप नहीं छीनता; मैं तुम्हें प्रौढ़ करने की कोशिश करूंगा, ताकि एक दिन तुम्हारे हाथ से सीपें छूट जाएं, और तुम हीरों की खदान को खोदने में लग जाओ।
ध्यान रहे, कृष्ण की विधि पाजिटिव है, विधायक है। इधर इन तीन सौ वर्षों में सारी दुनिया की बुद्धि नकारात्मक ढंग से सोचने की आदी बनी है। और हमें ऐसा लगता है कि हम अंधेरे को मिटा दें, तो प्रकाश आ जाएगा। जब कि बात उलटी है। प्रकाश आ जाए, तो अंधेरा मिटता है।
एक आदमी अंधेरे में बैठकर अब दीया जलाने की कोशिश कर रहा है; अंधेरे में ही करेगा, क्योंकि दीया अभी जला नहीं। और अंधेरे में जो कोशिश होंगी, भूल-चूक से भरी होंगी, यह निश्चित है। कभी बाती ठीक जगह न लगेगी, कभी तेल ढुल जाएगा, कभी माचिस ढूंढ़ने निकलेगा और नहीं मिलेगी, क्योंकि अंधेरा है, दीया जला हुआ नहीं है।
अंधेरे में भूल-चूक बिलकुल स्वाभाविक है। अगर हम भूल-चूक पर बहुत नाराज हो जाएं और उस आदमी से कहें कि बंद करो। पहले अंधेरे को मिटा लो, फिर दीए को जलाना; तब भूल-चूक बिलकुल नहीं होगी।
होगी तो नहीं बिलकुल भूल-चूक, लेकिन अंधेरे को मिटाया नहीं जा सकता, और दीए को जलाया नहीं जा सकता। अंधेरे में टटोलकर, भूल-चूक करते हुए ही दीया जलता है। यद्यपि दीया जल जाए, तो भूल-चूक बंद हो जाती है।
जीवन को पाजिटिवली, जीवन को विधायक दृष्टि से देखने का रुख यह है। इसलिए कृष्ण गलत को भी समर्थन दे रहे हैं। भलीभांति जानते हुए कि वासनाओं से भरा हुआ चित्त गलत है। यह भी जानते हुए कि देवताओं की शरण में गया चित्त वासनाओं की पूर्ति के लिए ही जाता है। यह भी जानते हुए कि जो आदमी देवताओं के चरणों में बैठ रहा है, उस आदमी की अभी परम खोज शुरू नहीं हुई। और यह भी जानते हुए कि वह जो मांगने आया है, वह बहुत बच्चों जैसी चीज है; देने योग्य भी नहीं है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, वह हम तुझे देंगे। तेरे ही देवता में तेरी प्रतिष्ठा कर देंगे। तेरा और लगाव बढ़ाएंगे तेरे ही देवता में। तेरे देवता में भी मेरी शक्ति प्रवाहित होकर, तेरे देवता से ही तुझे मिल जाएगी, ताकि तू अपनी श्रद्धा में दृढ़ हो जाए।
और आदमी एक-एक कदम अगर श्रद्धा में दृढ़ होता जाए, तो एक दिन वह अनिर्वचनीय घटना भी घटती है, वह विस्फोट भी, जब श्रद्धा पूर्ण होती है, जब कोई संदेह की रेखा भी नहीं रह जाती भीतर। उस निस्संदिग्ध श्रद्धा में परम की यात्रा अपने आप हो जाती है।
इस कमजोर आदमी को देखकर दिया गया यह वक्तव्य है।
कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति कमजोर आदमी की जरा भी फिक्र करते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। उनके वक्तव्य उनके लिए हैं, जो कभी भूल नहीं करते। लेकिन जो कभी भूल नहीं करते, उनके लिए किसी के वक्तव्य की कोई भी जरूरत नहीं है। वे जो भूल करते हैं, वे जो अंधेरे में खड़े हैं, उनके लिए वे वक्तव्य खतरनाक हैं। खतरनाक इसलिए हैं कि उस तरह की बातें उन्हें बौद्धिक रूप से स्मरण हो जाएंगी। वे रट लेंगे उन बातों को। वे कहेंगे कि दीए को जलाया नहीं जा सकता, जब तक अंधेरा है। क्योंकि अंधेरे में जो भी दीया जलाया जाएगा, वह गलत होगा।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, यू कैन नाट टेक एनी स्टेप इन कनफ्यूजन, बिकाज ए स्टेप टेकेन इन कनफ्यूजन मस्ट बी कनफ्यूज्ड। कनफ्यूजन में आप कोई कदम नहीं उठा सकते, भ्रमित दशा में, क्योंकि भ्रमित दशा में उठाया गया कोई भी कदम और भ्रम में ही ले जाएगा। वही बात, अंधेरे में आप दीया नहीं जला सकते, क्योंकि अंधेरे में जो आप दीया जलाएंगे, अंधेरे में भूल-चूक हो ही जाएगी।
लेकिन सब दीए अंधेरे में जलाए जाते हैं; और दुनिया में सब कदम कनफ्यूजन में ही उठाए जाते हैं।
(अब वर्षा की कुछ बूंदें प्रवचन स्थल पर गिरने लग गई हैं। भगवान श्री बोलना जारी रखते हैं।)
घबड़ाएं न। थोड़ा पानी गिरेगा, तो इतने घबड़ा न जाएं। कृष्ण की बात सुनने आए हों, तो थोड़ा-सा इतना परेशान न हों कि दो-चार बूंदें आपके कपड़े पर गिरेंगी, तो आप मिट जाएंगे, कि मर जाएंगे, कि समाप्त हो जाएंगे। दो-चार बूंदें गिरती हैं, उन्हें गिर जाने दें। इतने कमजोर लोगों को गीता सुनने नहीं आना चाहिए।
वे कृष्ण समझा रहे हैं कि आग से जलती नहीं आत्मा। आपकी तरफ देखेंगे, तो उनको बड़ी निराशा होगी कि पानी से गल जाती है! अभी कोई दो-चार बूंद! अभी कोई पानी भी नहीं आ गया। अभी सिर्फ आसार हैं पानी के। बादल थोड़ी आवाज दे रहे हैं, आपको देखने के लिए कि आदमी किस तरह के इकट्ठे हैं यहां!
तो अपनी जगह बैठे रहें। कोई भी आदमी उठे, तो पास के लोग उसे पकड़कर नीचे बिठाल दें। क्योंकि नाहक इतने लोग उसको देखेंगे कि इतना कमजोर आदमी है। उस पर थोड़ी दया करें, उसे पकड़कर वहीं के वहीं बिठा दें। कुछ कहने की जरूरत नहीं; उसे चुपचाप बिठा दें।
पानी गिरेगा, कृष्ण की बात का पता चल जाएगा, कि आत्मा गलती है कि नहीं गलती है। नहीं गले, तो समझना कि कृष्ण ठीक कहते हैं। और गल जाए, तो समझना कि कृष्ण गलत कहते हैं। तो आज प्रयोग करके ही चलेंगे। पानी को गिरने दें। देखें कि गलते हैं कि नहीं गलते हैं।
बच्चों जैसे काम न करें। और बच्चों जैसे काम करने हों, तो जगत में जो थोड़े-से बुद्धिमान हुए हैं, उन लोगों की बातें सुनने नहीं आना चाहिए।
कृष्ण की करुणा उन लोगों पर है, जो हर तरह से भूल से भरे हैं; हर तरह से जिनसे गलत ही होने का डर है; जिनसे सही न हो पाएगा। कहते हैं, तुम्हारी गलती को भी मैं स्वीकार कर लूंगा। तुम भूल से जाओगे मंदिर में, वह भी मैं मान लूंगा। तुम नासमझी से प्रार्थना करोगे, वह भी मैं स्वीकार कर लूंगा।
बिठा दें; जो भी आपके पास भागता हो, उसे पास के लोग पकड़कर बिठा दें। और आप घबड़ाएं नहीं। मैं यहां मंच पर बैठा हुआ हूं, तो यहां पानी नहीं गिर रहा है। बाथरूम में जाकर खड़ा हो जाऊंगा कपड़े पहने आधा घंटा, आपकी तरफ से। तो उसको झेल लूंगा। आप परेशान न हों। एक पांच मिनट में पानी चला जाएगा और आनंद दे जाएगा।
तो दूसरा सूत्र पढ़ो, हूं।
प्रश्न: भगवान श्री, पिछले श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति वासनाओं की पूर्ति के लिए जिन देवताओं को पूजते हैं, वे देवता मेरे द्वारा विधान किए हुए फलों को प्रदान करते हैं। मेरे द्वारा विधान किए हुए फलों को, कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करें।


इस जगत में कुछ भी ऐसा नहीं होता है, जो परमात्मा के विधान से विपरीत हो। ऐसा कुछ भी नहीं होता है, जो उसके नियम के बाहर हो। ऐसा कुछ भी हो नहीं सकता है, जो उसकी शक्ति से ही, उसकी ऊर्जा से ही संचालित न होता हो।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो भी देवता मनुष्यों की वासनाओं से भरी चित्त दशा में भी, उनकी प्रार्थनाओं को पूरा करते हैं, वे भी मेरे ही द्वारा किए हुए विधान के माध्यम से! मैं ही, मेरी शक्ति ही, उस सारे विधान के पीछे सक्रिय होती है।
अब बैठे रहे हैं। अब तो भागने से भी कुछ न होगा। आप भीग ही गए हैं। अब भागने से कुछ भी ज्यादा होने का नहीं है। अब बैठे रहें।
कीर्तन कर लेते हैं आनंद में, और फिर बंद कर देते हैं। कल बात कर लेंगे।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें