सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-21



अध्याय21 मेरा पापा जी को काटना

      पनी एक आदत से मैं बहुत परेशान था, जो इतनी खराब थी कि उसने मुझे ही नहीं जिनके साथ मैं रहता था उन्‍हें कष्‍ट ही नहीं दिये उन्‍हें सताया भी बहुत। ऐसा नहीं था की मैं इस कमजोरी को नहीं जानता था। परंतु मेरी मजबूरी थी या उसे मेरा जंगलीपन कह लीजिए जो मेरे बार—बार चाहने से भी मुझसे छूट नहीं रही थी। शायद यहीं तो बंधन जो हमें अपने में कैद किये हुए है। जो सामने आकर हमें अपनी आदत लगती है।
घर में इतना प्‍यार मिलता है, कोई बंधन नहीं, पूर्ण मुक्‍ति है। कहीं बैठो, परंतु न जाने क्‍यों फिर भी उस चार दीवारी में एक प्रकार सी घुटन महसूस होती थी। जरा भी मुझे मोका मिले घर से बाहर जाने का तो मैं चूकता नही था। फिर सब भूल जाता था, कोई डांटे, मारे.....कुछ भी करे मुझे बुला नहीं सकता। बस अगर में अपने आप में झांक कर देखू तो वहीं एक मात्र बुराई जो मेरे पूरे जीवन पर छाई रही। उस आजादी के सामने मुझे कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता था।

      इसका पहला कारण तो मेरा जंगली पन है। जो मेरे रंध्र—रंध्र में समाया है, और दूसरा मेरा बलिष्ठ होता शरीर। रोज—रोज में युवा और तंदरूस्‍त होता जा रहा था। और में देखा रहा था कि ताकत के साथ मेरे अंदर अहंकार और गुरूर भी बढ़ रहा है। अब जब भी कोई मुझे डाँटता है या डरता हूं मुझे क्रोध आ जाता है। कारण या अकारण का विशेष महत्‍व नहीं था। बस बाहर निकलना है। जब कुछ देर इधर उधर घूम कर थक जाता तो। मुझे अपनी दूकान का पता था, सोचा क्‍यों न दुकान  की और चला जाये। परंतु  में इस बात को कभी नहीं भूलता था कि जो गली के मेरे साथी कुत्‍ते है वह घर के पालतू कुत्‍ते को कभी पसंद नही करते। पर ये रोज का ही झंझट था इस के आगे में अपनी स्‍वतंत्रता नहीं छोड़ सकता।
फिर मेरे शरीर की बनावट और इन कुत्‍तों के शरीर की बनावट में दिन रात का अंतर था। मेरी चपलता, पैनी आंखें, तना हुआ शरीर,....परंतु किसी ने सच ही कहां था घमंड नहीं करना चाहिए। और ये तो घमंड के साथ अंहकार  भी मिल गया था। उस दिन अचानक उस गली में तीन चार मोटे—मोटे कुत्‍ते न जाने कहां से आ गये। मुझे देखते ही न जाने क्‍यों उनके कान खड़े हो गये। एक मेरी तरफ लपका। मैं भागने कि बजाएं उस पर झपट पड़, वह तो दो मिनट में ही प्याऊ—प्याऊ करता हुआ, भाग गया फिर उन कुत्तों की हिम्‍मत नहीं हुई मेरी ओर आने की। मैं अपनी मस्‍त चाल से दौड़ता हुआ उनके पास से चला गया।
वह मुझे खा जानेवाली नजरों से देखते रहे। कुछ  ही आगे चला था  कि उस कुत्‍ते के रोने की आवाज सून कर दो सरदार कुत्‍ते दौड़ते हुऐ आये। हम कुत्तों की ये भी एक खासियत है जब कोई  कुत्‍ता पीट कर जब रो रहा हो गाता दूर कुत्‍तों का झुंड उसकी पीड़ा को सून का उसके प्रति दया भाव दिखा कर भौकेगा। कि क्‍यों इसे मारा जा रहा है। और अगर वह पास खड़ा है तो इसका उलटा  ही करेगा। यानि वह भी खूद उसे मारने लग जायेगा। ये नियम बड़ा विरोधा भाषी है। जो किसी की भी समझ में नहीं आ सकता।
इस समय मुझे गली के दोनों और के कुत्तों ने घेर लिया। इसमे कुछ ऐसे भी होंगे जिनको मैनें पहले मारा होगा। आज वह इस बात का जी भर कर बदला लेना चाह रहे होंगे। मैं खतरे को भांप गया। एक बार भी मेरे मन में नहीं आया की अपने पूछ अंदर छुपा का आत्‍म समरपर्ण क दिया जाये। मैं लड़ने मरने के लिए तैयार हो गया। एक तरफ दो कुत्‍ते बड़े—बड़े दाँत निकाले लाल—लाल आंखें से खून बरसाते मुझे खा जाना चाहते थे। और एक तरफ चार भी लगभग इसी मुद्रा में खड़े थे।
मैंने उन चार के झुंड की और अटक किया। वो इस बात के लिए तैयार नहीं थे। वो घबराये। मैं अचानक पलटा और आगे बढ़ते उन दो कुत्‍तों के उपर टूट पडा क्‍योंकि वह मुझे पीछे से पकड़ना चाहते थे। और ये काफी खतरनाक था। वो तो आगे बढ़ कर मुझे दबोचना ही चाहते थे उन्‍हें क्‍या पता की मैं मुड़ कर उलटा उनकी और अटेक करूंगा। मैंने एक की गर्दन पकड़ कर दो बार जमीन पर मारा, वह दर्द भरी आवाज के साथ तड़प गया। में चाहता तो उसे खत्‍म कर सकता था। परंतु इतना समय नहीं था। क्‍योंकि मुझे अपनी भी रक्षा करनी थी। उस घायल को छोड़ कर मैं दूसरे पर झपटा और हमारी लड़ाई बड़ी भंयकर हो गयी। इस आवाज को सून कर और भी आस पास के कुत्‍ते ही नहीं आदमी भी तमाशा देखने आ गये। न जाने इन आदमी यों को कोई काम है या नहीं ।
बंदर का खेल होगा तो तमाशा लगा लेंगे। भालू का खोल होगा तो भीड़ लगा लेंगे। जब कही लड़ाई होगी तो भीड़ इकट्ठी कर लेंगे। हम तो किसी मनुष्‍य की लड़ाई को देखने नहीं जाते। मुझे लगता है इन्‍हें कोई काम ही नहीं है। अब मेरे चारों और कुत्‍तों का ही नहीं मनुष्य का जमघट लगता जा रहा था। और मैं समझ गया की अब मेरी खेर नहीं। क्‍योंकि जैसे—जैसे भीड़ इकट्ठी होगी। मेरा बच के भागना भी मुश्‍किल हो जायेगा। मैं खाली जगह देख रहा था। और भागने की तैयारी कर रहा था। दो कमजोर कुत्‍ते सामने ही खड़े थे मैं पूरी ताकत लगा कर उनकी और झपटा वह डर कर रोते हुए भागे। लोग बाग़ इधर—उधर हो गये। मुझे जगह मिल गयी। मैं दूकान की ओर बेपरवाह भाग। परंतु आज मुझे छोड़ा नहीं जाना था। सारे कुत्‍ते मेरे पीछे की और भागे। और भी न जाने कहां—कहां के कुत्‍ते आ गये। परंतु हमारी दूकान के सामने खुला मैदान था। मुझे घेर लिया गया। चारों और से मुझ पर अटेक किया जा रहा था। मैं घूम—घूम कर अपनी रक्षा कर रहा था। भंयकर तांडव मच गया। सुबह दूकान पर बड़ी भीड़ होती है। मैं सोच रहा था कि अगर पापा जी आ जाये तो मेरी जान बचा सकते है। हम दो होकर तो दस कुत्‍तों को भी मार सकते है। मैं जिस कुत्‍ते को पकड़ता उसे हीला कर नीचे रख देता।
परंतु चारों और से मुझे काटा जा रहा था। ये तो भला हो मेरी चमड़ी इतनी कठोर थी जिसे पकड़ना कठिन था। और मेरे इन गांव के कुत्‍तों की तरह ढीली नहीं थी। और कुछ मोटी भी थी। और बाल इतने चिकने की आपके दाँत उसे पकड़ ही न पाये। अपने बचाव के साथ—साथ में हमला भी कर रहा था। परंतु वे तो न जाने कितने थे, पल—पल बढ़ते ही जा रहे थे। लगता था आज सारे गांव के कुत्‍ते एक होकर मुझे मारना चाहते है। मुझे लगा की आज बचना बहुत ही कठिन है। मैं थकता ही जा रहा था। परंतु वह तो बढ़ते ही जा रहे है। फिर अचानक न जाने क्‍या हुआ मैं उसे देख नहीं पाया। और कुछ कुत्‍ते प्याऊ....कर के भाग रहे है।
मेरे सोचने समझने की शक्‍ति जवाब दे रही थी। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था। मेरी ताकत कम होती जा रही थी और मुझे मोत दिखाई दे रहे थी। परंतु अचानक न जाने क्‍या हुआ हवा के झोंके की तरह घने बादल पल में ही छट गये। एक लाट मेरे पार से गुजरी मैं एक कुत्‍ते की और झपट कर दूसरे की और झपट रहा था वह लाट मेरे पास से गई। कुत्‍ते भी कम हो गये थे। मैंने भय में उसे ही पकड़ लिया। और पूरी ताकत से उस में अपने दाँत गड़ा दिये। परंतु उस की सुगंध कुछ जानी पहचानी लगी।
मैं जाग गया। और उपर की और मुंडकर के देखा पापा जी समने खड़े है। बस मैं अपनी गर्दन हिलाकर मरोड़ने ही वाला था। एक क्षण की देरी थी। अचानक मैंने आपने अपने गड़े दाँत निकाल लिये। पापा जी पैर में मेरे तीन इंच के दाँत गड़ गये उन से खून की धारा बहने लगी।
      कुत्‍तों का झुंड तो भाग गया पर मैंने ये क्‍या अनर्थ कर दिया। जो मुझे बचाने आया था मैंने उसे ही घायल कर दिया। मैं बहुत डर गया। थक भी गया था। और मुझे लगा अब मैं नहीं बचूंगा। मैं घर की और भागा। पापा जी भी मम्‍मी जी को ये कह कर घर की और भागे की मैं अभी आता हूं। मैं आगे—आगे पापा जी पीछे—पीछे मैं सोच रहा था वे मुझे मारने आ रहे है। मैं घर के दरवाजे के पास कान बोच कर बैठ गया क्‍योंकि वह तो बंद था जिसे में खोल भी नहीं सकता था। कुछ ही देर में पापा जी आये और उन्‍हें दरवाजा खोला।
मुझे कुछ भी नहीं कहां। मैं डर के मारे जल्‍दी से घर के अंदर भाग गया। और एक अंधेरे कमरे में जाकर छुप गया। जहां मुझे कोई ही नहीं मैं अपने को खुद भी न देख सकूँ। मुझे अपने पर बड़ी गिलानि हो रही थी। तू कैसे वफा दार है। अपने ही मालिक का काट रहा है और उस समय जब वह तुझे बचा रहा था। सच अगर पापा जी अपने साहस और हिम्‍मत से उस दिन उन कुत्तों पर नहीं टूट पड़ते तो मैं आज नहीं  होता। उन्‍हें अपनी परवाह भी नहीं थी और पीछे से उन को लात से मार—मार कर भगा दिया। मैने तो काटा ही ये काम वे भी कर सकते थे।
      मैं इतना सतर्क था कि घर में क्‍या हो रहा है उस पर भी कान लगाये हुए था। पापा जी का पूरा जूता खून से भर गया। वह जमीन पर लेट गये। पैर को उपर की और कर के दीवार पर रख लिया। शायद जिससे कुछ का प्रवाह पैर की और न जाये। खून लगातार बहे जा रहा था। उन्‍होंने अपनी टाँग को जोर से पकड़ रखा था इतनी देर में दीदी आई और इतना खून देख कर डर गई। पापा जी ने कहा की कोई बात नहीं। पैर में तीन इंच गहरा घाव दोनो और हो गया  था। दीदी जल्‍दी से बर्फ लेकिर आई और उस जगह पर बर्फ लगा कर बैठ गई। फिर भी लगातार खून बहे जा रहा था।
शायद दाँत किसी नस का फाड़ कर आर—पार हो गया है। कितनी ही देर इस तरह से बैठे रहने के बाद। पापा जी ने दीदी को कहां की अब ठीक है। बात शायद मम्‍मी तक भी गई। वह भी दूकान छोड़ कर घर आई और पापा जी की हालत देख कर घबरा गई। और मुझे डांटने लगी। मैं तो पहले ही डरा हुआ कांप रहा था। मेरे शरीर पर जो जख्‍म थे में तो उन्‍हें भी भूल गया था। पापा जी के दर्द के सामने मेरा जख्‍म क्‍या था। पापा जी ने मम्‍मी को समझाया की इस में उसकी कोई गलती नहीं है। ये सब अनजाने में हुआ है। मम्‍मी जी बार—बार कह रही थी फिर उन सब के बीच आप को यू जाने की जरूरत क्‍या थी।
      बात तो सच थी। परंतु पाप जी क्‍या करते मेरी ये हालत देख कर किसी हथियार के ढूंढने की देरी मेरे लिये खतरनाक हो सकती थी। डॉ आया, और पापा जी के सूई लगाई पापा जी जमीन पर ही लेटे रहे। उस ने पैर के जख्‍म को धोने के बाद एक दवाई लगा कर पट्टी बाँध दी। खून अब भी नहीं रूक रहा था।
मम्‍मी जी पापा जी के लिए दूध लेने जा रहा थी कि पापा जी ने कहा की पोनी को देखो उसे कितनी चोट लगी है। ये सब सून के मेरी आंखों में पानी आ गया। और उसे भी थोड़ा दूध दे दो। फिर मैं खूद देखता हूं उसके जख्‍म। मम्‍मी ने पापा को डटा तुम अब नहीं उठोगे। उस सांप को हम दूध पिलायेगें। परंतु ऐसा नहीं हुआ मम्‍मी जी जब पापा जी के लिए दूध लेकर आई तो मेरे वर्तन भी दूध से भरा उनके हाथ में था। जो मेरे सामने रख दिया। क्‍योंकि में तो अंधेरे में एक चार पाई के नीचे छुपा बैठा था। पापा जी ने मेरे ओर देखा और कहां की चल दूध पी ले। लेकिन में बहार नहीं आया। एक तो डर दूसरा गिलानि भाव।
      मेरा मन पापा जी को देखने को कर रहा था। परंतु डर भी लग रहा था। आखिर हिम्‍मत कर के मैं बाहर आया की गलती तो मैंने की है फिर मार से क्‍या डरना। और मैं धीरे—धीरे कान बोच कर पापा जी के पास गया। उन्‍हें मेरे सर पर हाथ फेरे। फिर मेरे शरीर पर हाथ फेर कर शायद जख्‍म देखे। कई जगह दर्द हो रहा था। मैं जाकर पापा जी के पैरों के पास बैठ कर उन्‍हे चाटनें लगा।
वह मुझे सहलाते रहे मेरा ह्रदय शरीर के जन्मों से ज्‍यादा जख्मी थी। वह तार—तार हो कर फटना चाह रहा था। मैंने अपना सर पापा जी की गोद में रख दिया। उन्‍होंने हंस कर मुझे चूमा और कहां मैं ठीक हूं तू भी जाकर अब दूध पी लो। फिर कुछ देर में तेरे ज़ख़्मों पर भी दवाई लगाऊंगा। इतनी देर में दीदी आ गई और वह मेरे जख्‍मों को ढूंढ—ढूंढ कर उन पर दवाई लगा रही थी। और मैं गिलानि और शौक के बोझ से दबा जा रहा। मैं जोर से रोना चाह रहा था। कि ये मनुष्‍य भी कैसा है। मैंने इन्‍हें जख्‍म दिये और ये मेरा ही उपचार कर रहा था। यही महानता तो हम पशुओं को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। क्‍या ये सब मेरी समझ में आता जो मैं ऐसे मनुष्‍य के साथ मैं नहीं जीता। तब तो आपस में हम केवल लड़ते और मर जाते। पूरा जीवन लड़ने और खाने पर ही खत्‍म हो जाता।
      आज की घटना के बाद मेरे मन जो भी कूलशीत था इस मनुष्‍य के प्रति वह खत्‍म हो गया। मेरे लिए मनुष्‍य मिल का पत्‍थर बन गया। उसका वाक्‍य अटल वाक्‍य।
      अब हम हर रविवार के दिन पूरा परिवार जंगल में जाता था। वहां दीदी और मम्‍मी जी बहते निर्मल पानी में कपड़े धोती, और बाकी परिवार के हम सब मोज मस्ती करते। कभी क्रिकेट भी खेलते। पर ये खेल मुझे कभी समझ में नहीं आया। परंतु में अकेला करता भी क्‍या। इस सब को देखने और समझे की कोशिश करता।
जब समझ में कुछ नहीं आत तो इधर उधर अपने सुगंध ज्ञान को बढ़ाने की कोशिश करता। इस समय नाले के आस पास बहुत बड़ी—बड़ी घास उग आई थी। जिससे उसकी गहराई का पता नहीं चलता था। ये लोग जब यहां क्रिकेट खेलते तो मुझे बाल दिखाई ही नहीं देती। मुझे बड़ा अचरज होता की ये लोग केवल उसे देख नहीं लेते बल्कि एक लकड़ी के टुकडे से इतनी जोर से मारते की वह बहुत दूर चली जाती। कई बार वह बाल जब मेरे पास से होकर गुजरती तब मुझे वह दिखाई दे जाती और मैं उसके पीछे भाग कर उसे पकड़ लेता। और उसे मुंह में पकड़ कर भाग जाता। सब लोग मेरे पीछे भागते और दूर मम्‍मी जी के पास चला जाता। अब उन सब का खेल खत्‍म हो जाता। वो सब मुझे डाँटते, परंतु मम्‍मी मुझे बचा लेती।
      लेकिन वरूण भैया जब पापा जी के साथ घर में क्रिकेट खेलते तो मैं वहां बड़े आराम से बाल को पकड़ सकता था। और मुहँ में पकड़कर पापा जी को दे देता था। तब मुझे ताली बजाकर शाबाशी मिलती थी। कभी—कभी उत्‍साह के जोश में पापा जी हाथ से फेंकी गई बाल के साथ ही झपट पाड़ता और एक दिन वरूण भैया ने बाल के साथ मेरे मुंह पर भी बहुत जौर से बैट को मारा। मुझे दिन में तारे नजर आने लगे। एक बार तो लगा की मेरा जबड़ा ही बाहर निकल कर गिर गया। पापा जी ने भाग कर मेरा मुहँ सहलाया। और वरूण को डांटा। परंतु गलती मेरी थी मैं खेल के नियम को नहीं जानता था।
      आस पास गाये अपने झूड़ के साथ चर रही होती थी। कभी—कभी मुझे कोई जंगली तीतर भी उस घास में दिखाई दे जाता था। मैं दबे पाँव उसकी ओर चलता। परंतु उसके पास जाते ही वह उड़ कर कि...कि...कि कर के भाग जाता। पास ही मम्‍मी–दीदी अपना काम कर रही होती थी। में पानी में घूस कर खूब खेलता। दीदी मुझे दोनों हाथों से पानी फेंक—फेंक कद खूब भिगोती। पानी से में कभी नहीं डरता था। और मजे की बात यह है कि मैंने कभी किसी से तैरना भी नहीं सीखा था। जब कभी पापा जी तैर कर उस पार चले जाते तो मैं भी उनके पीछे—पीछे चल देता। सब मेरे इस अदंभ साहस को देख कर गद्द—गद्द हो कर मुझे प्रोत्साहित करते। एक दिन तो कमाल हो गया। मैं और पापा जी दोनों तैरते जा रहे थे।
पापा जी मुझे से कुछ तेज तैरते है। में बार—बार पीछे रह रहा था वह मुझे मुड़ कर बुला रहे थे। इसी बीच जब उनका ध्‍यान मेरी और था। एक पानी का सांप हमारी और आया। मैं डर गया। दूर तक जहां भी नजर जाती थी  पानी ही पानी था। और पानी में हम सांप से तेज तैर भी नहीं सकते। परंतु यहां के साँपों की कुछ खासियत है। ये मनुष्‍य पर अटेक नहीं करते। महाभारत में भी खांडव बन को नागों की भूमि बताया है। और ये सच है। आज भी शायद कोई ऐसा दिन कभी गया हो जब हम जंगल में आये और सांप दिखाई न दे। इतने खतरनाक परंतु शांत सांप शायद पूरी पृथ्‍वी पर कहीं पर भी नहीं है।
हमारे देश का इतिहास कुछ कुचक्र में पंश विक्रीत हो गया है। वरना आज भी इंद्रप्रस्थ का किले के अवशेष है। और कुतुब की मीनार के पास भीम की किल्‍ली। भला उस महान लाट के पास जैसे मुगल कहते है हमने बनाया है। भीम कि किल्‍ली क्‍यों है। परंतु हमारे यहां के शोध करता भी कायर हो गये। उन्‍हें सच्‍चाई जानने से कोई मतलब नहीं। बस डिग्री चाहिए। हजारों हिंदू देवी देवता की तस्‍वीरे। उनके अवशेष—और महान कुतुबुद्दीन जो एक दासी से जन्‍मा वह उस लाट को बना देता है। और पास ही एक इलाही मीनार—जो बीस साल के श्रम के बाद भी केवल एक मंजिल का ढांचा ही रह गई।
फिर जब एक मीनार है तो उसके पास दूसरी बनाने की क्‍या जरूरत है। सब गोलमाल है। ये बात पापा जी बच्‍चों को बताते तब मैं भी उनके पास होता। पर मुझे इनके विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह सांप हमारे पास से गुजर गया। पापा जी केवल रूक भर गये। और वो बड़ मजे से दूसरे किनारे पर जाकर लोप हो गया। उसने हम पर हमला क्‍यों नहीं किया। जब की हम लाचार थे। ये भूमि नाग लोक क्‍यों कही जाती थी, कौन वीर इस पर खोज करे......खेर इस बात को यहीं छोड़ देते है।
जंगल मेरा अपना घर था। वहां पर मैं एक तरह का अपना पन महसूस करता था। क्‍यों इस का मुझे पता बाद में चला। हर चीज वहां मेरे लिए एक खेल बन जाती थी। चारो और मस्‍ती ही मस्‍ती फैली मुझे दिखाई देती थी। मैं अपने आप में समा नहीं पाता था। क्‍या उत्पात करूं। क्‍या न करूं। इधर—अधर खड़ा हो मैं पूरे जंगल को देखने की कोशिश करता। परंतु इतने ऊंचे वृक्ष जहां तक मेरी नजर जाती वृक्षों की कतार ही नजर आती थी। एक दिन एक गाय चरती हुई हमारी और आ गई। वैसे तो मैं जब छोटा था गाय से डरता था। परंतु अब मैं उसके पास जा कर उसे गोर से देखना चाहता था।
क्‍योंकि हम जिस चीज को भी गोर से देख लेंगे उससे हमारा भय कम हो जायेगा। जितना हम उसे कम जानेंगे उतने ही हम अंदर से भयभीत रहते है। में दबे पाव उसकी और बढ़ा, जो डर बचपन में अंदर था, वो एक हीनता तो दे ही रहा था। लगता था मैं इससे हार गया। और कहीं जीतने की या डराने की वृति तो मन में थी। मेरे इस तरह से दबे पाँव अपनी और आते देख कर वह गाये कुछ डर गई। एक तो वह अकेली थी। अचानक मैं भागा वह डर कर दूसरी और भागी। जिस और दीदी और मम्‍मी कपड़े धो रही थी। मैंने भी सोचा चलो आज उन्हें भी कुछ अपनी बहादुरी दिखा देता हूं।
परंतु ये नहीं जानता था अगर गाय उन कपड़े धोती दीदी के उपर कूद गई तो वह कितनी घायल हो जायेगी। बस ये बात मेरी समझ में कहां थी। में तो अपनी बहादुरी के ताव में दौड़ रहा था। नाले के पास बड़ी—बड़ी घास थी। बड़े नाले के सहायक नाले भी थे। जो उस पास के पानी के बहाव के कारण कट के बन गये थे। परंतु इस समय वह घास में ढक गये थे। इस दौड़ में भी गाए को तो पता था कि आगे नाला है। वह तो एक छलांग लगा कर कूद गई। परंतु में तो अंधा हो कर दौड़ रहा था। और घास इतनी बड़ी—बड़ी थी कि मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। दौड़ते—दौड़ते में अचानक हवा में रह गया। मेरे पैर जमीन को नहीं छू रहे थे। करीब बीस फीट गहरे में जाकर रेत में गिरा। कुछ देर तक तो मुझे समझ ही नहीं आया कि ये क्‍या हुआ। न यहां गाय है, न घास। ये सब इतनी जल्‍दी हुआ कि मेरी मछली बाहर आ गई। कुछ देर बाद मुझे समझ में नहीं आया कि ये क्‍या हो गया। नाला बहुत गहरा था,वहां पर प्रकाश की किरण भी नहीं आ रही थी। और मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था कि किस और जाना है।
मैं खड़ा होकर आवाज़ों को सुनने की कोशिश करने लगा। इतनी देर में मुझे दूर कहीं दीदी की आवाज सुनाई दी ‘’पोनी’’  और उसके साथ हंसी भी। अब मैने अंदाज लगया कि किस ओर चलू? आवाज की और में चल दिया कितनी ही देर में चलता रहा। दोनों तरफ ऊंचे—ऊंचे पेड़ थे। मिट्टी की बनी दीवारे, और उस पर उपर से ढकी घास। आसमान दिखाई नहीं दे रहा था। मैं कितनी ही देर तक चलता रहा। धीरे—धीरे जैसे समय बीत रहा था में अंदर—अंदर डर भी रहा था। परंतु एक उम्‍मीद थी की परिवार के सब लोग मेरे आसपास है। करीब आधा मील चल कर में एक मैदान में आया। वहां पर नाला चारों ओर से मिल रहा था। और आवागमन के कारण कट कर काफी चौड़ा हो गया था।
अब मेरी सांस में सांस आई और अब मैंने देखा कि मैं किस और से आया था। और इसी बीच मुझे पापा जी और वरूण की आवाज दाई और से सुनाई दी। मेरे डर के कांपते शरीर को कुछ राहत मिली। रास्‍ता कुछ रेतीला हो गया था। मैं उपर की और  भागा सामने मुझ वरूण भैया दौड़ते हुए आ रहे थे । शायद मेरे गिरने की खबर उन लोग तक पहूंच गई थी। वरूण भैया के हाथ में खेलने वाला बैट था। मैं उसे देख कर पागल हो गया। मैं इतनी तेजी से उस की और दौड़ा। और पास जाकर उसके सीने पर अगले पैरो से खड़ा होकर उसका मुंह चाट गया। उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया। इतनी देर में पापा जी भी आ गये। मैं पूछ हीला—हीला कर उनका स्‍वागत करने लगा।
जब हम सब दीदी—और मम्‍मी जी के पास पहुँचे तो वह मेरी इस मूर्खता पर बहुत जोर से हंस रही थी। ये देख कर मुझ बहुत गुस्‍सा आया की ये देखो मैं तो कितने खतरे से बच कर आ रहा हूं, अगर दीदी वहां गिर जाती तो उसकी हड्डी पसली चूर—चूर हो जाती। मुझे बहुत बूरा लगा। की इन्‍हें मेरे जीवित बच कर आने की कोई खुशी नहीं है और उपर से दाँत निकालकर हंस रहे है। मैं अपने झेप को मिटाने के लिए दूर एक पेड़ की छांव के नीचे जाकर अपनी लम्‍बी जीब निकाल कर गहरी—गहरी चैन की साँसे लेने लगा।
      वसंत के मौसम में पेड़—पौधों पर नर्म मुलायम पत्‍ते निकल आये थे। सभी पेड़ पौधों का रंग अलग—अलग था। उपर नीला आसमान, दूर पहली के सौंदर्य को कई गुणा कर रहा था। सभी पेड़ पौधों ने अपने फूल खिला दिये थे। अमलतास के पेड़ के फूल तो पूरे जंगल के सौंदर्य को चार चाँद लगा रहे थे। उनके लटकते फूलों के गुच्छे कितने सुंदर लग रहे थे। जो मन को ही नहीं आंखों को भी सीतल कर रहे थे। उधर मधुमक्खियों के झूड़ के झुंड की बन आई थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतना रास हम कैसे खत्‍म करे।
अमलतास का पेड़ भी बड़ा विकट है बसंत से लेकर जेठ मास की ग्रीष्‍म ऋतु तक वह फूलों से लदा ही नही रहता, जंगल की उसी उष्‍णता को शीतलता का एहसास भी कराता रहता है। बीच—बीच में ढाक के फूल अपने आग के चटकीले रंग के कारण जंगल में एक दिग्भ्रमित सा वातावरण निर्मित कर रहे थे। पास ही चार पाँच सहमल के विशाल वृक्ष जो बरसाती नाले के किनारे खड़े आसमान को चूम रहे थे।
वह भी अपने लाल फूलों का सौंदर्य ही चारों और ही नहीं बिखेर रहे थे। कितने ही पक्षी को अपने मधुर से उन्‍हें तृप्‍त कर रहे थे। उसके फूलों की गंध इतनी मधुर थी की मीलों दूर से पशु पक्षी उसकी और खींचे चले आते थे। नीचे जो दूब की मुलायम घास इतनी सुकोमल थी कि उन फूलों को जब वह अपनी गोद में लेती तो लगाता मानों इस वसंत में पूरी प्रकृति अपने यौवन के उन्माद में मद—मस्‍त होकर उन फूलों को अपने जुडे में सज़ा कर अपने प्रीतम को लुभा रही हो।
      कपड़े धोकर घास में सूखा दिये गये थे। और एक वृक्ष की छांव में चादर बिछा कर खिलाड़ियों को खेल खत्‍म कर आने के लिये कह दिया गया। सभी इस बात का मानों इंतजार ही कर रहे थे। सब ने आकर नाले में पहले अपने हाथ पैर धोये सब खाने पर टूट पड़े में भी बैठा देख रहा था। कि शायद आज मुझे खाना न मिले क्‍योंकि मैंने गलत काम किया था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। मेरे लिए भी मेरे हिस्‍से का खाना रख दिया गया। सब खाने का आनंद ले रहे थे।
में केवल उन लोग को देख रहा था और अपना खाना छोड़ कर बारी—बारी से सब के पास जाकर खाड़ा हो रहा था। न जाने क्‍या आदत थी जब तक सब के हिस्‍से का एक—एक कौर न मिल जाये मेरा पेट भरता ही नहीं। हिमांशु और वरूण भैया ने मेरे मजाक भी उड़ाया कि अपना खाना छोड़कर हमारे हिस्‍से का खाने आया है पेटू कहीं का। परंतु इस बात का मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा। उसके बाद सब लोगों ने कुछ देर आराम किया। और श्‍याम होते—होत हम सब खुशी—खुशी घर की और चल दिये।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें