जैसे—जैसे मैं बड़ा हो रहा था, मेरी शरारतें भी बढ़ती
जा रही थी। हालांकि में उन पर काबू पाने की भरसक कोशिश कर रहा था। परंतु पशु स्वभाव
से जो मुझे पीढ़ी दर पीढी मिला था वह मेरे बस के बहार हो जाता था। कितना ही कोशिश
करू परंतु अंदर धक्के मारती उर्जा मुझे कुछ न कुछ गलती करने को मजबूर कर देती थी।
शरीर का विकास भी इन घटनाओं की जड़ था। जैसे नये दांतों का उगना। अब वह दाँत किसी
चीज को फाड़ना चाहते है। वही अभ्यास उनकी मजबूती की जड़ है। अब इस बात का पता
नहीं चलता कि किसे काटे या किसे फाड़े।
जब सब लोग ध्यान में चले
जाते तब मुझे बहुत अकेला पन खलता था। और मुझे उस समय यह सधन महसूस होता था कि मैं
कुत्ता हूं, मनुष्य नहीं। इसी सब की हीनता मुझे क्रोध
करने को उकसाती थी। कि सब लोग अंदर चले गये और मुझे बहार छोड़ दिया। जब की मुझे
अंदर जाना बहुत अच्छा लगता था। और मैं किसी को कुछ कहता भी नहीं था किसी एक कोने
में आराम से बैठ कर आंखे बद कर लेता था।
मेरे हिसाब से उनमें सबसे
ज्यादा ध्यानी और शांत। कभी—कभी कुछ अंजान लोग भी आ जाते थे ध्यान करने के लिए।
उस दिन तो मुझे और भी बुरा लगता था कि बाहर से अंजान लोग तो अंदर चले जाते है। और
में यहां बाहर बैठा सूख रहा हूं। उस दिन मुझे कुछ ज्यादा ही जीद्द चढ़ गई। अंदर
जैसे ही ध्यान का संगीत बजा मुझे अकेले पन ने घेर लिया। धीरे—धीरे श्याम हो रही
थी। अभी सूर्य डूबा नहीं था। पर कुछ देर में अँधेरा हो जायेगा। तब एक अंजान सा डर
भी मुझे लगने लगा। इस सब से घबरा कर मैं दरवाजे को पंजों से नोचने लगा। अंदर ध्यान
चलता रहा। और मैं लगा तार पंजों से दरवाजे को खरोचता रहा। इतनी ताकत मुझमें कहां
से आ गई ये बात मेरी समझ में नहीं आ रहा था। एक प्रकार से मुझे जुनून एक पागल पन
ने घेर लिया था। मेरे सोचने समझने की शक्ति खत्म हो गई थी। लेकिन मुझे तब झटका
लगा जब संगीत खत्म हुआ। क्या इतनी जल्दी, पूरा एक घंटा गुजर गया।
हो नहीं सकता। परंतु सच ही ऐसा हुआ।
संगीत खत्म होते ही मैं
अपने होश में आया। और मैं डर गया। कि मैं क्या कर रहा था। मेरे इस हरकत के कारण अंदर ध्यान करने वालो को
कितनी बाधा पहूंच रही होगी। परंतु अब तो समय हाथ से जा चूका था। और धीरे—धीरे एक
अंजान से भय ने मुझे घेरना शुरू कर दिया। तब मैं नीचे भागा। वैसे तो इतने महीने
मुझे इस घर में आये हो गये थे। मैंने कभी कोई घर की चीज चुरा कर नहीं खाई थी। खेर
ये मैं अपनी तारीफ नहीं कर रहा हूं, ये इस घर के लोगों की
महानता अधिक थी। कि मुझे हर वो चीज खाने को मिलती थी जो इस घर में बनती थी। फिर
भला चोरी करने की जरूरत ही कहां थी। फिर भी हम पशु है। और मनुष्य—मनुष्य है। हम
उनका मुकाबला कहा कर सकते थे। पर अभी तक ऐसा नहीं
हुआ था कि मुझे चोरी करनी पड़ती। परंतु आज ने जाने मेरी बुद्धि को क्या हो
गया था। उपर तो अभी एक घंटा सब को ध्यान में बाधा पहुँचाता रहा और नीचे आकर देखा
की दही के डोंगे जमे थे। वैसे तो वह रोज ही दूकान के लिए जमाये जाते थे।
आँगन में जब पनीर बना था
तब बड़े—बड़े दूध के वर्तन भरे रखे होते। और कई बार तो बचा हुआ दूध पूरी रात अंगन
में मेरे भरोसे पर ही रख होता था। परंतु मैं कभी उस की और देखता भी नहीं। मेरे मन
में ही चोरी कर पीने का प्रश्न ही नहीं उठता था। हां कभी—कभी कोई बिल्ली जब दूध
पीने आती तो उसे भगा देता। इस सब बातों से घरे के प्रत्येक प्राणी के मन में मेरा
एक आदर—एक सम्मान था। की में बहुत ही अच्छा हूं। और आज उस अच्छाई पर न जाने क्यों
मैं जान बुझ कर कालिख पोते जा रहा हूं। नीचे जाते ही दही के डोंगे से मैने दाही को
खाया। खाना कहना भी गलत है एक प्रकार से उसे झूठा किया। क्योंकि पेट तो मेरा पहले
ही भरा हुआ था।
परंतु आज सोचता हूं उस दिन मुझे क्या हो गया
था। वो मेरी जीद्द थी या बदले की भावना। फिर भी जो गलत था वह तो गलत ही था। अब उस
झूठी दही को कोन खायेगा। उसे दूकान पर
बेचा नहीं जा सकता था। कम से कम मम्मी—पापा तो ऐसा कभी नहीं कर सकते। वह पैसे
कमाने के लिए अपने सिद्धांतों को कभी ताक पर नहीं रखेंगे। आखिर इसे फेंकना होगा।
जो एक बरबादी ही होगी। पैसे की भी मेहनत की भी।
या फिर हो सकता है मम्मी गली के कुत्तों को खिलायेगे। और मजे की बात वह भी
उसे वे भी नहीं खाते क्योंकि, ये उनके नखरे कह लीजिए
या इतनी अधिक चीज देखने की उनकी आदत नहीं होती। या अधिक चीज देख कर उनके खाने की
भूख ही खत्म हो जाती है।
ध्यान खत्म होने पर
पापा जी नीचे आये, मैं आँगन में बैठा उन्हें
आते देखता भर रहा आज अपने चिरपरिचित पूंछ हिलाने के अंदाज को भी भूल गया। एक हलकी
सी अकड़ और एक नाराजगी। मैं ऐसे बैठा रहा जैसे मैंने उन्हें आते देखा ही नहीं।
पापा जी अंदर साल में गये। तब मैं थोड़ा डर गया। अंदर से जब बाहर आये तो मुझे
गर्दन से पकड़ कर अंदर ले गये और दिखाने लगे वो दही का कूँड़ा जो मैंने खराब कर
दिया था। परंतु मैं उनके हाथ में ही ऐसे गुर्राया कि जैसे मुझे छोड़ दो वरना काट
लुंगा। फिर तो क्या था पापा जी पास ही पडा वह डंडा उठाया और एक लगया मेरी पीठ पर
मारे दर्द के मेरी जान निकल गई।
मैंने कभी सोचा भी न था
कि डंडा लगने से इतना दर्द होता है। फिर तो क्या था। मारे डर के मैं
प्यांऊ—प्यांऊ कर के वहीं लेट गया। मेरा सूसू भी वहीं निकल गया। और लेट कर मैंने
टाँग उपर कर ली। कि मुझे छोड़ दो में मज जाऊँगा....और एक प्रकार से दया भी भीख
मांगने लगा। मेरी सारी अक्ल पल भर में काफूर हो गई। मैं डर के मारे पापा जी की
आंखों की और देखे जा रहा था। पापा जी का चेहरा एक दम से बदल गया। उन्होंने डंडा
दूर रख दिया। तब जाकर मुझे चैन आया। फिर उन्होंने मेरे शरीर पर हाथ फेरा और जहां
पर अभी—अभी डंडा मारा था उसे सहलाने लगे।
धीरे—धीरे वहां पर दर्द
की जलन कम हो रही थी। कम से कम इतना तो था की और दर्द नहीं मिलेगा। अब मुझे अपनी
गलती का एहसास हुआ। पापा जी ने मुझे चूमा और कहा की गंदे बच्चे कोई ऐसा काम करते
है। तब मैंने अपने कान बोच लिए और डरी सहमी सफेद आंखें निकाल कर उनका चटाने लगा।
फिर तो उसके बाद मैंने कान पकड़ लिये कि बाबा
ऐसी गलती कभी नहीं कुरुँगा। परंतु एक गलती हो तो। हर कदम पर मैं कुछ न कुछ ऐसा कर
जाता की वह गलती होती। परंतु एक गलती दूसरी बार न करने का संकल्प जरूर कर लेता
था।
अब दूसरी बड़ी गलती। जिस पर मुझे बड़े
विचित्र ढंग से डंडा पडा। वह भी कथा बड़ी मजेदार है। ज्यादा गर्मी या बरसात के
दिनों में हम जंगल नहीं जाते थे। क्योंकि उस समय जंगल में साँपों का खतरा सबसे
अधिक होता था। श्याम के समय सांप अपने बदन को ठंडा करने के लिए रास्ते की उस
ठंडी मुलायम रेत पर आकर लेट जाते थे। जो श्याम होने के कारण छदम मिटी के ही रंग
के होने के कारण दिखाई नहीं पड़ते थे। जो जान लेवा भी हो सकता था। प्रत्येक प्राणी का छदम रूप उनकी सुरक्षा के
मध्य नजर रख कर बनाती है।
दूसरा अधिक बरसात होने पर
बरसाती नालें पानी से इतने भर जाते की उन्हें किसी भी कीमत पर पास नहीं किया जा
सकता था। उनका बहाव इतना तेज होता की उन्हें देख कर डर लगता था। जब अगले दिन या
बाद में हम घूमने के लिए आते तो वहां पर मुडित हुई घास और टूटे पेड़ की टहनियाँ देख कर अंदाज लगाया जा
सकता था कि किस बेग से यहां पानी बहता है।
एक दिन श्याम को सुहाना मौसम था, हम सब जंगल में घूमने के लिए चल दिये। श्याम के समय
जब भी हम जाते तो मम्मी जी हमारे साथ नहीं होती थी। क्योंकि किसी न किसी को तो
दूकान पर रहना होता था। ठंडी हवा चल रही थी। पास ही एक पीली कोठी थी जो पूरे जंगल
में अलग ही दिखाई देती थी। मैं यही सोच कर अचरज करता था कि इतने जंगल में इस घर को
बनाने की क्या जरूरत थी। कच्चा और
साफ सुथरा करीब दो—तीन मील रस्ता बना रखा था। जिस पर भैया लोग साईकिल चलाते थे।
परंतु कहीं—कहीं पर अधिक रेत होने के कारण साईकिल के टायर फंस जाते थे। और चलाने
वाला गिर भी जाता था। परंतु घोड़ों के लिए या हम पशु के लिए तो वह रस्ता स्वर्ग
तुल्य था। वहां पर दौड़ना कितना अच्छा लगा था।
वहां मैं सब को दौड़ में
हरा देता था। चाहे वह साईकिल पर है या पैदल। शायद पापा जी बच्चों को बता रहे थे
जब भारत में एशियाड़ खेल हुए थे, तब यह गौरव इसी जंगल को
मिला था। घोड़ों की दौड़, उनके करतब और न जाने
अनेक खेल यहाँ हुए थे। कितनी रौनक मेला हुआ था। खेर मेरा तो जन्म भी नहीं हुआ था।
परंतु पापा जी जब बच्चों को ये सब किस्से सुनते थे तो मैं भी उसे बड़े चाव से
सुनता था। यहां पर एक बहुत बड़ा खेल का मैदान था। जिस में पापा जी हर कभी क्रिकेट
खेला करते थे। वह आज भी इतना ही साफ सुथरे है। बस उसमें छोटे—मोटे झाड़ों ने अपना
प्रभुत्व जमा लिया था। परंतु वह इतना स्थाई नहीं था।
उस मैदान को देख कर लगता
था जंगल के अंदर यही एक मात्र जगह है जहां, खेल का मैदान बनाया जा
सकता था। उसके दो और तो पहाडियाँ थी। उसके चिकने नीले पत्थर, दर्शकों को बैठ कर मैच देखने का काम करते थे। जब
पापा जी यहां खेलते होंगे तो कितना रौनक मेला यहाँ होता होगा। यह मैदान गांव से
करीब एक या डेढ मील दूर तो जरूर होगा। गर्मी के दिनों में जब हम घूमने के लिए यहां
आते है तो कितनी जल्दी प्यास लग जाती है। और खेलने या दौड़ने वालो को और भी अधिक
लगती होगी। कहां से पानी लाते होंगे। खेर इसी मैदान को और विस्तरित और साफ सुथरा
कर के उसके एक कोन पर पीली कोठी का निर्माण किया है।
जो दो मंजिल होने पर भी
बहुत उँची लगती थी। उस की घुमावदार सीढ़ी या। कितनी सुंदर थी। एक बार हम सब को पापा
जी उस के उपर ले गये थे। मैं तो पहली बार उस पर चढ़ भी नहीं रहा था। परंतु नीचे
अकेला रहने के कारण हिम्मत कर के चढ़ गया था। दूर—दूर तक जहां नजर जाती थी। जंगल
का नजारा कितना सुहाना लगता। पाप जी बता रहे थे कि एशियाड़ खेलों में यहाँ पर
दूरदर्शन की टीम अपने—अपने केमरे ले कर बैठ थे। ताकी खेल को टेलीविजन पर दिखाया जा
सके। अंदर, बड़े—बड़े हाल कमरे थे। जो अब उजाड़ हो गये
थे। कितनी गर्मी में भी वह ठंडक महसूस हो रही थी। उसे आज भी गांव के लोग पीली कोठी
के नाम से जाने है। क्योंकि उस पर जो रंग रोगन हुआ है पीला है।
इस तरह जब बहुत गर्मी या बरसात का मौसम होता
तब हम लोग जंगल नहीं जाते थे। अगर कभी जाते भी तो श्याम के समय कभी नहीं जाते थे।
आज सुहाना मौसम होने के कारण शायद दूसरा बच्चें आज घर पर ही थे। इस लिए रोज—रोज
स्कूल जाकर या घर पर रह कर बच्चें कुछ ऊब सी महसूस करते थे। मैं अपनी बात क्या
कहूं, मुझे तो ये घर सारा दिन एक कैद ही लगता था।
और जिस दिन जंगल जाना होता तो में हफ्ते भर की थकान अपने शरीर में भर लेता था।
इतना दौड़ता भागता था कि दो तीन दिन तो मैं हड्डियां सेंकता रहता था।
और अपने शरीर के दर्द में
मन का तनाव भूलने कि कोशिश करता था। हम नाला पार कर के मैदान की और चले ही थे। दूर
आसमान पर सूर्य पीले रंग बिखेर रहा था। दूर कहीं—कहीं आसमान पर फैल बादलों को
सूर्य कि किरणों ने पीला और नारंगी कर दिया था। कहीं—कहीं आसमान पर बादलों के धब्बे
थे वो कैसे गुच्छा कार थे। जो किसी चित्रकार की कुच्ची की अभद्रता ही दर्श रहे
थे। परंतु परमात्मा की कृति में वही धब्बे भी एक सौंदर्य दे रहे थे। सूर्य की
चमक में अचान धूल का गुब्बार हवा में उठा, वह मेरे लिए एक अप्रत्यक्षित
घटना थी। वह धूल का गुब्बार धीरे—धीरे हमारी और आ रहा था।
मैं चित्र वत भयाक्रांत
सा उस और बिना पलक मारे देखता ही रह गया। देखते ही देखते वह धूल का गुब्बार नाले
के अंदर गायब हो गया। दूर तक धूल की लंबी चादर फैल गई थी। जो मन को मोह रही थी।
परंतु उस सौंदर्य में मुझे कुछ भय भी लग रहा था। वह क्या है जो इतनी धूल उड़ाता
हुआ आ रहा है। और मेरा भय सच ही निकला।
चार घोड़े सरपट दौड़ते हुए हमारी और आ
गये। न जाने कौन सा भय जो अचेतन में मेरे अंदर समाया था निकल कर बहार आ गया। मैं डर कर जमीन पर बैठ गया।
उस ऊंचे तगड़े प्राणी को देख कर मेरी सांस
अटक गई थी। कुछ देर में मुझे तीन बड़े से जानवर आते दिखाई दिये। उन कि पीठ पर आदमी
भी बैठे थे। कितने ताकत वर थे वह पशु अपनी पीठ पर मनुष्य को बैठा कर कितने आराम
से दौड़ रहे थे। एक बार तो में उन्हें देख कर इतना डर गया की दौड़ कर पापा जी के
पास आ कर खड़ा हो गया। कि न जाने ये क्या है। परंतु जैसे—जैसे वह पास आ रहे थे।
मैं डर के मारे जमीन पर बैठ गया। ताकी वह मुझे देख न पाये। परंतु यह देख कर अचरज कर रहा
था कि मेरे सिवाय और कोई नहीं डर रहा था। सबसे छोटा हिमांशु भैया भी खड़ा हो कर
उन्हें बड़े आराम से उन्हें देखे जा रहा था। इस सब की तो कोई कल्पना
भी नही कर सकता। हाथी चल सकता है, क्योंकि वह डील—डौल में बलिष्ठ है, बैल वज़न ढो सकता है। परंतु पीठ पर बिठाना ये एक अगल
ही बात है। आपकी कमर की रीढ़ में ही नहीं आपके पैरों में भी अधिक जान चाहिए। न
जाने क्यों हम किसी—किसी से अचानक बहुत भय खा जाने है जैसे हमने पहले देखा और
जाना भी न हो।
या किसी को देख कर हमारे
अंदर एक तरह की सिहरन एक आनंद की पुलक भर जाती है। इसी तरह से न जाने इन घोड़ों को
देख कर न जानें क्यों मैं भय के मारे सुकड़—सिमट गया। मुझे इस तरह से अपने पैरों
में छुपा देख कर सब बच्चे मुझे बड़े गोर से देखने लगे। पापा जी मेरे सर पर हाथ रख
कर मेरे पास बैठ गये। मेरा पूरा शरीर थर—थर कांप रहा था....किसी अंजान भय के कारण।
तब पापा जी न एक लोक कथा बच्चों को सुनाई, बच्चों को अपनी मन चाही मुराद आज श्याम को ही मिल
गई वह भी इस खुले आसमान के तले। हम सब पापा जी घेर कर उसी जगह रेत पर बैठ गये और
उस कहानी को चास से सुनने लगे। हमारे बैठने के बाद पापा जी ने फिर से कहाना शुरू
किया—— किसी जमाने में जब सभी प्राणी जंगल में रहा करते थे। उनमें आपस में एक
दूसरे को अपनी सीमा में या घूस पेट करने पर एक दूसरे से युद्ध हो जाता था। इसी तरह
घोड़ा, गाय, और कुत्ता...भी जंगल
में ही रहते थे।
एक बार कुछ गाय चरते हुए
एक घास के मैदान पर घोड़ों के झुंड के पास आ गई। और उनके उस सुंदर इलाके पर अपना
प्रभुत्व जमा लिया। अब घोड़ों के सर पर तो सींग भी नहीं थे। जो उन सींग वाली गायों
के साथ लड़ कर भगा सके। इस लिए उन्हें मजबूरी में अपना वह प्रिय स्थान गायों के
लिए छोड़ना पडा। परंतु कहते है उनके मन में बदले की एक भावन समा गई कि किस तरह से
अपना वह पुश्तैनी स्थान कैसे हासिल किया जा सके। घोड़े उस शानदार चरागाह को
छोड़कर कही भी गये उन्हें दुतकारा गया।
धीरे—धीरे वह कमजोर होते
चले गये। एक दिन कुछ कुत्तों के झुंड ने भी उन्हें वहां से भगा दिया। अब लगभग
उनके पास जंगल में कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां वह रह सके या अपना पेट भर सके। इस तरह
से घोड़े आत्म हत्या के कागर पर पहूंच गये। और उनके सरदार ने कहा की मैं मनुष्य
के पास के पास जाकर उससे सहायता मांगता हूं। खेत में काम कर रहे किसानों के झुंड
के पास घोड़ा गया। इस खूबसूरत जंगली प्राणी को देख कर सब लोग खुश भी हुए और डरे
भी। तभी घोड़ों के सरदार ने कहां आप मुझसे भयभीत न हो, में तो आपसे सहायता
मांगने और आप की सहायता करने के लिए आया हूं।
किसानों को उसकी इस बात में कुछ रुचि लगी। क्योंकि
तब तक वह किसी पशु का शोषण कर उससे काम नहीं कराते थे। खेती बाड़ी का काम भी खुद
ही करते थे। घोड़े ने कहा की कुछ ऐसे पशुओं को मैं जानता हूं जो बहुत ताकत वर है।
जो आपकी खेती में आपका हाथ बटा सकते है। और मादाएं बहुत मीठा दूध प्रचुर मात्रा
में देती है। किसान को उसकी बात कुछ समझ में नहीं आई, उसने अपने और साथियों को
पास बुला लिया, और सब उसकी बात ध्यान
से सुनने लगे। नदी के पार जो घास को मैदान है। वहां पर कुछ ऐसे पशु रहते है। जो
आपकी खेती में आपकी मदद करेंगे। वह खतरनाक भी नहीं है। किसानों ने कहा की फिर भी
हम उन्हें पकड़ कैसे सकते है। वह तो बहुत तेज भागते है। तब घोड़े ने कहा की आप
मेरी पीठ पर बैठो, में उनसे भी तेज दौड़
सकता हूं।
किसानों के मन में लड्डू फूटे, उनमें से एक न पूछा फिर आप उन्हें क्यों पकड़वाना
चाहते है। घोड़े ने कहा की उन्होंने हमारा पुश्तैनी चरागाह हड़प लिया। हमें घर से
बेघर कर दिया। न हम अब पेट भर खा सकते न पीने को कही पानी है। तब कहते है मनुष्य
ने घोड़े की पीठ पर पहली बार सवारी की और उन जंगली गयों को पकड़ा,साथ की कुछ कुत्तों के बच्चों का भी पकड़ा, जो उनके खेतों की रक्षा कर सके। कई दिनों के मेहनत
के बाद जब गाये पकड़ ली गई तब घोड़े भी बहुत अधिक थक गये थे। और वह आराम करना
चाहते थे। अपनी उस पुश्तैनी चरागाह में जाकर अपनी थकान मिटाना चाहते थे।
तब उन घोड़ों के सरदार ने
मनुष्य से जाने की आज्ञा मांगी। की अब हमारा काम हो गया अब हमें जाने दो। तब
मनुष्य हंसा। कि ये कैसे हो सकता है। की तुम जैसी प्यारी चीज की सवारी कर के हम
तुम्हें कैसे छोड़ सकते है। हम बेलों से खेती करायेंगे, सामान ढुलवायेंगे। कुत्तों से अपने घरों और खेतों
की रक्षा करेंगे। परंतु तुम्हारी पीठ पर बैठ कर जो दौड़ने का वैग प्राप्त हुआ
है। उस आनंद को हम खोना नहीं चाहते। अब तुम हमें छोड़ कर कभी नहीं जा सकते। कहते
है उसी दिन से घोड़ा और गाय,कुत्ते मनुष्य के गुलाम
हो गये। गुलाम बनाने में जिस पशु ने अपनी बलि दी वह भी गुलाम बन गया।
पापा जी ने यह कहानी बड़ी
चतुराई से सुनाई, सच आज भी गांव में जब
घोड़े आ जाते है तो गाये डर के मारे भाग जाती है। और कुत्ते उनका रास्ता रोक कर
भोंकते है....इसका कुछ तो मनोविज्ञान होगा ही।
कहानी के चक्कर में सूर्य अस्त हो गया।
धीरे—धीरे छदम रूप से प्रकृति पर अंधकार अपना आवरण फैला रहा था। इतने आहिस्ता से
कि किसी को कानों कान खबर भी नहीं हो रही थी। परंतु दूर कहीं सियारों की
हाऊ.....हाऊ......जरूर इस शांति को भंग कर रही थी। पिछली बार की तरह से अंधकार
होने से पहले हमने नाला पार किया। और घर की और चल दिये। आज की संध्या बहुत सुंदर
रही...रुचि कर भी और ज्ञान वर्धक भी। बच्चे भी खुशी के मारे उछलते कूदते धूल
उड़ाते घर की और चल दिये.....
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