श्रीमद्रभगवइगीता अथ दशमोउध्याय
गीता दर्शन-(भाग-05)-प्रवचन-(114)
अध्याय—10
श्रीभगवानुवाच:
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच:।
यतेउहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।। 1।।
न मे बिंदु:— सुरगणा: प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।। 2।।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढ़ स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते।। 3।।
भगवान श्रीकृष्ण बोले हे महाबाहो फिर भी
मेरे परम वचन श्रवण कर जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की हच्छा
से कहूंगा।
हे अर्जुन मेरी उत्पति को अर्थात
विभूतिसहित लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते
हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूं।
और जो मेरे को अजन्मा अनादि तथा लोकों का
महान र्ड़श्वर तत्व से जानता है वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से
मुक्त हो जाता है।
जीवन है एक
रहस्य। गणित की पहेली जैसा नहीं कि श्रम से उसे हल किया जा सके। रहस्य जीवन का कोई
सांयोगिक गुण नहीं है; रहस्य जीवन का स्वभाव है।
जीवन है रहस्य ही।
अज्ञात है बहुत कुछ, अननोन है बहुत कुछ, लेकिन वह
ज्ञात हो जाएगा। आज नहीं कल, हम उसे जान लेंगे। जो आज नहीं
जाना है, वह भी कल जाना जा सकेगा। जो कभी भी जाना जा सकता है,
उसका नाम रहस्य नहीं है।
रहस्य से अर्थ है, जो कभी भी जाना नहीं जा सकेगा, जो
अज्ञेय है, अननोएबल है। जानने की आकांक्षा प्रगाढ़ है जिसके
लिए, जिस तक पहुंचने के लिए जीवन दौड़ता है, जिससे मिलने की प्यास है और फिर भी समस्त श्रम और समस्त इच्छाएं और सारी
अभीप्सा और सारी प्यासे व्यर्थ रह जाती हैं और हम उसके निकट ही पहुंच पाते हैं,
उसका स्पर्श होता है, लेकिन उसे जान नहीं पाते।
अज्ञेय से अर्थ है, जिसे हम किसी भांति पहचान भी लेते हैं, फिर भी नहीं कह सकते कि हमने उसे जान लिया। ऐसे अज्ञात, ऐसे अशेय के संबंध में जो वचन हैं, कृष्ण उन्हें
परम वचन कहते हैं। इस सूत्र में जो बहुत कीमती शब्द है, वह
है परम वचन। उसे हम थोड़ा समझें।
कृष्ण ने कहा, हे महाबाहो, फिर भी मेरे परम
वचन श्रवण कर, जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए
हित की इच्छा से कहूंगा।
साधारणत:, परम वचन शब्द को पढ़ते समय कोई विशेष खयाल मन में नहीं आता है। और इसीलिए
उसके विशेष अर्थ भी चूक जाते हैं। एक वचन तो होता है, जिसे
हम कहते हैं, सत्य वचन। एक वचन होता है, जिसे हम कहते हैं, असत्य वचन। परम वचन क्या है?
अगर भाषाकोश में खोजने जाएंगे, तो भाषाकोश कहेगा,
सत्य वचन ही परम वचन है। लेकिन वह ठीक नहीं है बात। सत्य वचन का
अर्थ ही होता है, जिसके विपरीत भी असत्य वचन हो सकता है।
परम वचन का अर्थ होता है, जिसके विपरीत कोई वचन नहीं हो सकता, जिसके विपरीत किसी वक्तव्य की कोई संभावना नहीं है। पहली बात।
सत्य, जो आज सत्य मालूम पड़ता है, कल असत्य हो सकता है। जो
आज असत्य मालूम पड़ता है, कल खोज से पता चले कि सत्य है।
इसलिए विज्ञान जिसे सत्य कहता है, कल उसे असत्य कहने को
मजबूर हो जाता है। न्यूटन का जो सत्य था, वह आइंस्टीन का
सत्य नहीं है। और आइंस्टीन का जो सत्य है, वह आने वाली सदी
का सत्य नहीं होगा। और आज कोई भी वैज्ञानिक यह नहीं कह सकता कि हम जो सत्य उदघोषित
कर रहे हैं, वह सदा ही सत्य रहेगा।
सत्य असत्य हो सकते हैं। असत्य भी कल खोजे
जाएं और पता चले, तो सत्य बन सकते हैं।
परम वचन का अर्थ है, जिसे हम न सत्य कह सकते हैं और न असत्य कह सकते हैं।
क्योंकि हम जिसे सत्य कह सकते हैं, वह हमारे कारण कल असत्य
भी हो सकता है। परम वचन का अर्थ है कि हमारे सत्य और असत्य दोनों के जो पार है;
हम जिसके संबंध में कभी भी निर्णायक न हो सकेंगे।
इस संबंध में जो लोग आधुनिक चिंतन से
परिचित हैं, उन्हें शात होगा कि
बर्ट्रेड रसेल, विट्गिस्टीन, ए. जे. अय्यर,
ऐसे कुछ पश्चिम के मनीषियों ने, जिन्हें कृष्ण
ने परम वचन कहा है, उन्हीं वचनों को नॉनसेंस, उन्हीं वचनों को व्यर्थ वचन कहा है। ए.जे. अय्यर ने बड़ी मेहनत की है यह
बात सिद्ध करने की कि कुछ वचन ऐसे हैं, जो अर्थहीन हैं,
मीनिंगलेस हैं, नॉनसेंस हैं।
उन वचनों को अय्यर ने अर्थहीन कहा है, जिनको न तो हम सत्य सिद्ध कर सकें, और न असत्य। जिनके पक्ष में भी कोई प्रमाण न दिया जा सके और जिनके विपक्ष
में भी कोई प्रमाण न दिया जा सके। जैसे कोई आदमी कहता है कि ईश्वर है। अय्यर,
विट्गिस्टीन और रसेल कहेंगे कि यह वचन अर्थहीन है। क्योंकि ईश्वर है,
यह भी अब तक सिद्ध नहीं किया जा सका, और नहीं
है, यह भी सिद्ध नहीं किया जा सका। और आदमी के पास कोई भी उपाय
नहीं है इस वचन की सत्यता या असत्यता को परखने के लिए। वेरीफिकेशन के लिए कोई उपाय
नहीं है।
तो जिस वक्तव्य की जांच का कोई उपाय ही न
हो, उस वक्तव्य को न तो सत्य कहा जा
सकता है, और न असत्य। क्योंकि असत्य का अर्थ हुआ कि जांचा और
पाया कि गलत है। सत्य का अर्थ हुआ कि जांचा और पाया कि सत्य है।
लेकिन ईश्वर है, इस वक्तव्य के पक्ष या विपक्ष में कोई भी प्रमाण आज
तक इकट्ठे नहीं किए जा सके। आस्तिक कहे चले जाते हैं, ईश्वर
है; नास्तिक कहे चले जाते हैं, ईश्वर
नहीं है। आस्तिकों की दलीलों का नास्तिकों पर कोई प्रभाव नहीं है, और नास्तिकों की दलीलों का आस्तिकों पर कोई प्रभाव नहीं है। और कभी—कभी
ऐसा भी होता है कि आस्तिक नास्तिक हो जाते हैं, नास्तिक
आस्तिक हो जाते हैं। लेकिन वक्तव्य वैसे के वैसे ही खड़े रहते हैं।
खलील जिब्रान ने एक छोटी—सी कहानी लिखी है।
लिखा है, एक गांव में एक महाआस्तिक
और एक महानास्तिक था। सारा गांव परेशान था उनके कारण। क्योंकि आस्तिक लोगों को
समझाता था कि ईश्वर है, नास्तिक समझाता था कि नहीं है। आखिर
गांव ने उन दोनों से कहा कि तुम निर्णय पर पहुंच जाओ कुछ, ताकि
हमारी परेशानी कम हो।
पूर्णिमा की एक रात, गांव ने विवाद का आयोजन किया और नास्तिक और आस्तिक ने
प्रबल प्रमाण दिए। आस्तिक ने ऐसे प्रमाण दिए, जिनका खंडन
मुश्किल था। नास्तिक ने ऐसा खंडन किया कि आस्तिकता के पैर डगमगा जाएं। रातभर विवाद
चला और विवाद बड़ा परिणामकारी रहा। आस्तिक के प्रमाण इतने प्रभावशाली सिद्ध हुए कि
सुबह होते—होते नास्तिक आस्तिक हो गया, और नास्तिक के तर्क
इतने प्रभावशाली सिद्ध हुए कि सुबह होते — होते आस्तिक नास्तिक हो गया। गांव की
मुसीबत जारी रही! गांव में एक महाआस्तिक और एक महानास्तिक बना रहा।
अब तक जितने भी वक्तव्य आस्तिकों और
नास्तिकों ने दिए हैं, उनसे कुछ भी सिद्ध नहीं
होता। न तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर है, और न यह सिद्ध
होता है कि ईश्वर नहीं है। और ऐसी कोई कसौटी नहीं है, जिस पर
जांचा जा सके कि कौन सही है। इसलिए अय्यर और उनके साथी दार्शनिक कहते हैं कि ये
वक्तव्य नानसेंस हैं। इन वक्तव्यों से कुछ अर्थ नहीं निकलता, ये अर्थहीन हैं। तो अय्यर कहता है कि न तो ईश्वर है, यह सत्य वचन है और न यह असत्य वचन है। यह दोनों नहीं है। यह व्यर्थ वचन है।
कृष्ण इसी वचन को परम वचन कहते हैं। तो
थोड़ा समझना पड़ेगा कि कृष्ण का प्रयोजन क्या है? अगर अय्यर और विट्गिस्टीन सही हैं, तो कृष्ण का वचन
अर्थहीन वचन है। लेकिन कृष्ण उसे परम वचन कहते हैं। और अर्जुन से वे कहते हैं कि
मैं तुझे तेरे प्रेम के कारण और तेरे हित की दृष्टि से कुछ परम वचन कहूंगा,
तू उन्हें सुन।
इसे हम ऐसा बांट लें। सत्य वचन उसे कहते
हैं, जिसके लिए यथार्थ से
प्रमाण उपलब्ध हो जाएं। अगर मैं कहूं, आग हाथ को जलाती है,
तो यह सत्य वचन है। क्योंकि आप आग में हाथ डालकर देख सकते हैं और
प्रमाण मिल जाएगा कि आग जलाती है या नहीं जलाती है। अगर मैं कहूं आग शीतल है,
तो आप हाथ डालकर देख सकते हैं कि यह वचन असत्य है। क्योंकि आग शीतल
नहीं है, इसका प्रमाण मिल जाता है, वचन
के अतिरिक्त प्रमाण उपलब्ध हो जाता है।
अय्यर कहता है कि एक तीसरे तरह का वचन है, और समस्त धार्मिक वचन, मेटाफिजिकल
स्टेटमेंट्स अय्यर के हिसाब से व्यर्थ हैं, क्योंकि उनका कोई
भी प्रमाण नहीं मिलता। कृष्ण के हिसाब से ः वे वचन परम हैं, क्योंकि उनका इस जगत के अनुभव में तो कोई प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन अगर दूसरे जगत में कोई प्रवेश करने को तैयार हो, तो उनका प्रमाण मिलता है। अप्रमाणित वे नहीं हैं। एक अंधे आदमी के लिए,
प्रकाश है, यह अप्रमाणित वचन होगा। क्योंकि
अंधे के सामने कोई भी प्रमाण नहीं जुटाया जा सकता कि प्रकाश है या नहीं है। अंधा अय्यर
के साथ राजी हो जाएगा और कहेगा कि यह वचन व्यर्थ है, क्योंकि
न तो इसके पक्ष में तुम कोई प्रमाण दे सकते हो, और न विपक्ष
में। क्योंकि अंधा तैयार है, अगर प्रकाश हो तो मैं उसे हाथ
से छूकर देख लूं; कान से सुनकर देख लूं; या जीभ से चखकर देख लूं। अंधा राजी है। उसके पास जो भी इंद्रिया हैं,
उन इद्रियों के माध्यम से प्रमाण मिल सकता हो, तो अंधा प्रमाण खोजने के लिए राजी है।
लेकिन हाथ प्रकाश को छू नहीं सकते, फिर भी प्रकाश है। और कान प्रकाश को सुन नहीं सकते,
फिर भी प्रकाश है। और जीभ प्रकाश का स्वाद नहीं ले पाएगी, फिर भी प्रकाश है। और नासारंध्र प्रकाश की गंध नहीं पा सकेंगे, फिर भी प्रकाश है। और अंधे की चार इंद्रियां, जिसको
कहें कि कोई प्रमाण नहीं है, अंधा कैसे मानने को राजी हो कि
जो वक्तव्य है, वह व्यर्थ नहीं है! अंधे की सीमा के भीतर
प्रमाण नहीं जुटाए जा सकते, इससे कोई चीज गलत नहीं हो जाती।
इससे यह भी हो सकता है कि अंधे की सीमा बहुत सीमित है। अंधे की सीमा भी बड़ी की जा
सकती है। अंधे की आंखें ठीक की जा सकती हैं। आंखों के ठीक होते ही प्रकाश का
प्रमाण मिल जाएगा।
लेकिन हमारी कठिनाई यह है कि स्वभावत: हम
सभी अंधे हैं। जिस आंख से जीवन के परम सत्य का अनुभव हो सके, वह आंख सबके पास है, लेकिन बंद
है। इसलिए कभी अगर एक व्यक्ति की आंख भी खुल जाए, तो वह
प्रमाण उसके लिए ही प्रमाण होता है, शेष के लिए प्रमाण नहीं
होता है।
हमने मीरा को नाचते देखा है, लेकिन मीरा हमें पागल मालूम पड़ती है। क्योंकि हमें
मीरा का नाच ही दिखाई पड़ता है; वह नहीं दिखाई पड़ता है,
जिसको देखकर मीरा नाच रही है। हमने कबीर को गीत गाते देखा है। लेकिन
हमें कबीर के गीत ही सुनाई पड़ते हैं, कबीर के भीतर गीत का
जन्म हुआ है जिसके स्पर्श से, उसका हमें कोई पता नहीं चलता।
हमने बुद्ध को मौन होते देखा है, हमने बुद्ध को शांत होते
देखा है, ऐसी शांति जैसी कि पृथ्वी पर कभी—कभार उभरती है,
कभी—कभार उतरती है। लेकिन क्या देखकर बुद्ध शांत हो गए हैं, क्या देखकर उनका मन ठगा रहकर चुप हो गया है, उसका
हमें कोई भी पता नहीं।
तो हमारे भीतर जिसकी आंख भी खुलती है, वह हम अंधों के बीच अंधा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि हमने अपने अंधेपन को आंख समझा हुआ है। हमसे जो भिन्न होता है,
वह हमें अंधा मालूम पड़ता है।
परम वचन कृष्ण की दृष्टि में वे वचन हैं, जो हमारी मौजूद हालत में तो प्रमाण नहीं बन सकते,
लेकिन अगर हम अपनी हालत बदलने को राजी हों, तो
उनके हमें प्रमाण मिल सकते हैं। परम वचन का अर्थ हुआ, हम
जैसे हैं, वैसे ही रहकर अगर हम उनका प्रमाण चाहें, तो प्रमाण नहीं मिलेंगे। अगर हम अपने को बदलने को राजी हों, तो प्रमाण मिल जाएंगे।
यहां दो बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
विज्ञान आदमी को बदलने की कोई जरूरत नहीं
मानता। विज्ञान मानता है कि आदमी जैसा है, सत्य वैसे ही पाया जा सकता है। विज्ञान चीजों को बदलता है, चीजों को तोड़ता है, चीजों का विश्लेषण करता है। अगर
अणु की खोज करनी पड़ी है, तो दो हजार वर्ष लग गए हैं।
हेराक्लतु से लेकर आइंस्टीन तक दो हजार वर्षों तक अणु का चिंतन चला है, अणु की शोध चली है, अणु का खंडन चला है, और तब जाकर हमें अणु के सत्य का पता चला है। दो हजार साल हमें अणु के साथ
मेहनत करनी पड़ी है।
विज्ञान वस्तु के साथ मेहनत करता है, धर्म व्यक्ति के साथ मेहनत करता है। विज्ञान कहता है,
वस्तु को हम ऐसी स्थिति में ले आएं, जहां सत्य
का उदघाटन हो जाए। धर्म कहता है, व्यक्ति को हम ऐसी स्थिति
में ले आएं, जहां वह सत्य को देखने में समर्थ हो जाए।
विज्ञान की सारी चेष्टा वस्तु के साथ है, धर्म की सारी चेष्टा व्यक्ति के साथ है। व्यक्ति बदले,
तो सत्य का पता चलेगा। विज्ञान कहता है, वस्तु
को हम समझ लें, तो सत्य का पता चल जाएगा। स्वभावत:, विज्ञान की खोज पदार्थ की खोज है, धर्म की खोज चेतना
की खोज है।
कृष्ण कहते हैं, ये परम वचन हैं। परम वचन का अर्थ है, अर्जुन, अगर तू बदले, तो इनके
प्रमाण को जान सकेगा। पहली बात। अर्जुन की बदलाहट पर ही तय होगा कि ये वचन सत्य
हैं या असत्य। अर्जुन जैसा है, वैसा रहते हुए इन वचनों के
संबंध में कुछ भी नहीं बोल सकता है।
इसलिए धर्म ने श्रद्धा को आधारभूत बनाया
है। क्योंकि इन परम वचनों को मानकर चले बिना कोई उपाय नहीं है।
एक सूफी बोध—कथा मुझे स्मरण आती है। एक
छोटी—सी नदी सागर से मिलने को चली है। नदी छोटी हो या बड़ी, सागर से मिलने की प्यास तो बराबर ही होती है, छोटी नदी में भी और बड़ी नदी में भी। छोटा—सा झरना भी सागर से मिलने को
उतना ही आतुर होता है, जितनी कोई बड़ी गंगा हो। नदी के
अस्तित्व का अर्थ ही सागर से मिलन है।
नदी भाग रही है सागर से मिलने को, लेकिन एक रेगिस्तान में भटक गई, एक मरुस्थल में भटक गई। सागर तक पहुंचने की कोशिश व्यर्थ मालूम होने लगी,
और नदी के प्राण संकट में पड़ गए। रेत नदी को पीने लगी। दो—चार कदम
चलती है, और नदी खोती है, और सिर्फ
गीली रेत ही रह जाती है।
नदी बहुत घबड़ा गई। सागर तक पहुंचने के
सपने का क्या होगा? नदी ने रोकर, चीखकर रेगिस्तान की रेत से पूछा कि क्या मैं सागर तक कभी भी नहीं पहुंच
पाऊंगी? क्योंकि रेगिस्तान मालूम पड़ता है अनंत, और चार कदम मैं चलती नहीं हूं और रेत में मेरा पानी खो जाता है, मेरा जीवन सूख जाता है! मैं सागर तक पहुंच पाऊंगी या नहीं?
रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का एक उपाय
है। ऊपर देख, हवाओं के बवंडर जोर से
उड़े चले जा रहे हैं। रेत ने कहा कि अगर तू भी हवाओं की तरह हो जा, तो सागर तक पहुंच जाएगी। लेकिन अगर नदी की तरह ही तूने सागर तक पहुंचने की
कोशिश की, तो रेगिस्तान बहुत बड़ा है, यह
तुझे पी जाएगा। और हजारों—हजारों साल की कोशिश के बाद भी तू एक दलदल से ज्यादा
नहीं हो पाएगी, सागर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। तू हवा की
यात्रा पर निकल।
उस नदी ने कहा कि रेत, तू पागल तो नहीं है? मैं नदी
हूं मैं आकाश में उड़ नहीं सकती! रेत ने कहा कि तू अगर मिटने को राजी हो, तो आकाश में भी उड़ने का उपाय है। अगर तू तप जाए, वाष्पीभूत
हो जाए, तो तू हवाओं पर सवार हो सकती है, हवाएं तेरे वाहन बन जाएंगी और तुझे सागर तक पहुंचा देंगी।
उस नदी ने कहा, मिटने को! मैं स्वयं रहते ही सागर से मिलने की
आकांक्षा रखती हूं, मिटकर नहीं। मिटकर मिलने का मजा ही क्या?
अगर मैं मिट गई और सागर से मिलना भी हो गया, तो
उसका सार क्या है? मैं बचते हुए, रहते
हुए सागर से मिलना चाहती हूं।
नदी की बात को सुनकर रेत ने कहा, तब फिर कोई उपाय नहीं है। आज तक सागर से मिलने जो भी
चला है, मिटे बिना नहीं मिल पाया है। और जिसने अपने को बचाने
की कोशिश की है, वह मरुस्थल में खो गया है। मैंने और नदियों
को भी मरुस्थल में खोते देखा है, और मैंने कुछ नदियों को
आकाश पर चढ़कर सागर तक पहुंचते भी देखा है। तू मिटने को राजी हो जा। तुझे अभी पता
नहीं कि मिटकर ही तू वस्तुत: सागर हो पाएगी।
लेकिन नदी को भरोसा कैसे आए! नदी ने कहा, यह मेरा अनुभव नही है। मिटने की हिम्मत नहीं जुटती।
और फिर अगर मैं सागर से मिल भी गई मिटकर, तो सागर में मेरा
होना रहेगा! मैं बचूंगी! क्या भरोसा? कैसे श्रद्धा करूं?
जो मेरा अनुभव नहीं है, उसे कैसे मानूं?
तो उस मरुस्थल की रेत ने कहा, दो ही उपाय हैं। या तो अनुभव हो, तो मानना आ जाता है; और या मानना हो, तो अनुभव की यात्रा शुरू होती है। अनुभव तुझे नहीं है, और बिना यह माने कि मिटकर भी तू बचेगी, तुझे अनुभव
भी कभी नहीं होगा। इसे तू श्रद्धा से स्वीकार कर ले।
परम वचन का अर्थ है, जो हमारा अनुभव नहीं है, लेकिन जिसकी
हमें प्यास है। जिससे हमारा परिचय नहीं है, लेकिन जिसकी
हमारे हृदय में आकांक्षा है। जिसे हमने जाना नहीं है, लेकिन
जिसे खोजना है। ऐसी जिसकी अभीप्सा है, उसे कहीं न कहीं किसी
न किसी क्षण में ऐसा कदम भी उठाना पड़ेगा, जो अज्ञात में है,
अननोन में है।
अर्जुन सरिता की भांति है। उसे कुछ भी पता
नहीं है। वह जिस अज्ञात सत्य को जानने की प्रेरणा से भर गया है, उसका उसे कोई भी अनुभव नहीं है। वह जिस परम गुह्य की
तलाश कर रहा है, प्रश्न पूछ रहा है, जिज्ञासा
कर रहा है, उसकी उसे कोई भी प्रतीति नहीं है। इसलिए कृष्ण
उससे कहते हैं कि मैं परम वचन तुझसे कहता हूं।
परम वचन का दूसरा अर्थ हुआ कि अर्जुन, अभी तुझे श्रद्धा से ही मान लेना पड़ेगा। जैसा तू है,
ऐसी स्थिति में तेरी बुद्धि काम नहीं पड़ेगी। अगर तू श्रद्धा से मान
ले और यात्रा पर निकल जाए रूपांतरण की, तो तू भी जान सकेगा।
जो मैं कह रहा हूं, वह सत्य है। लेकिन वह सत्य तेरे
रूपांतरित चित्त को ही अनुभव में आएगा। तू जैसा है, वैसा ही
उस सत्य से तेरा कोई संबंध नहीं हो सकता। परम वचन का यह भी अर्थ है कि उसे श्रद्धा
से ही स्वीकार कर लेना पड़ेगा।
और तीसरा अर्थ भी खयाल में ले लें, तो फिर यह सूत्र हमारी समझ में आसान हो जाएगा।
परम वचन का अर्थ तीसरा, आत्यंतिक अर्थ है, ऐसा वचन,
जो समय और काल से रूपांतरित नहीं होता, परिवर्तित
नहीं होता। हमारे सारे सत्य सामयिक हैं। समय बदल जाए, सत्य
को बदलना पड़ता है। हमारे सभी सत्य समय की शर्तों से बंधे हुए हैं। लेकिन क्या कोई
ऐसा सत्य भी है, जो समय की शर्त से बंधा हुआ नहीं है?
कितना ही समय बदले और जीवन का कितना ही रूपांतरण हो जाए, उस सत्य में कोई अंतर नहीं पड़ेगा।
आपने रास्ते पर बैलगाड़ी को चलते हुए देखा
है। चाक चलता है, चलता चला जाता है।
प्रतिपल चलना ही उसका काम है। लेकिन उस चाक के बीच में एक कील है, जो खड़ी रहती है, जो चलती नहीं। मीलों चल जाए चाक,
कील अपनी जगह ही बनी रहती है। कील ठहरी हुई है। और मजा यह है कि
ठहरी हुई कील के आधार पर ही चाक का घूमना होता है। अगर कील भी घूम जाए, तो चाक इसी वक्त गिर जाए और रुक जाए। चाक चलता है इसलिए, क्योंकि कील ठहरी है। इस कील और चाक के बीच गहरा समझौता है। कील के ठहरे
होने पर चाक की गति है।
जीवन तो पूरा ही बदलता रहता है चाक की तरह, इसलिए हमने उसे संसार कहा है। संसार का अर्थ होता है,
दि व्हील, उसका अर्थ होता है, चाक, घूमता हुआ। चाक की तरह है संसार तो। लेकिन क्या
कुछ कील भी है इस संसार में?
क्योंकि भारतीय मनीषा का ऐसा अनुभव है कि
जहां भी परिवर्तन हो, उसके आधार में कुछ जरूर
होगा, जो अपरिवर्तित है। जहां गति हो, वहां
केंद्र में कुछ होगा, जो ठहरा हुआ है। जहां तूफान हो,
वहां बिंदु होगा बीच में कोई एक, जहां परम
शांति है। क्योंकि जीवन विपरीत के बिना असंभव है। जन्म होगा, तो मृत्यु होगी। गति होगी, तो कोई ठहरा हुआ होगा।
चाक होगा, तो कील होगी।
विपरीत अनिवार्य है। दिखाई पड़े, न दिखाई पड़े; समझ में आए,
न समझ में आए; विपरीत अनिवार्य है। विपरीत के
बिना जीवन के खेल का कोई उपाय नहीं है।
परम वचन का अर्थ है, जब सारे सत्य बदल जाते हैं, सारे
दर्शन और धर्म बदल जाते हैं, सिद्धांत बदल जाते हैं, चिंतन की धाराएं बदल जाती हैं, तब भी जो ठहरा ही
रहता है, जिसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसे कुछ वचन कृष्ण
अर्जुन से कहना चाहते हैं।
एक और कीमती बात इस सूत्र में उन्होंने
कही है। और वह कहा है कि तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए, तेरे हित की इच्छा से कहूंगा।
एक तो परम सत्य केवल उनसे ही कहे जा सकते
हैं, जो अतिशय प्रेम से भरे
हों। एक सिम्पैथी, एक गहरी सहानुभूति चाहिए। क्षुद्र बातें
कहने के लिए सहानुभूति की कोई भी जरूरत नहीं है। जितनी गहरी कहनी हो बात, उतना गहरा संबंध चाहिए। दो व्यक्तियों के बीच जितना गहरा हो संबंध,
उतने ही गहरे सत्य संवादित किए जा सकते हैं। तो सत्य कह देना,
सिर्फ कह देने वाले पर निर्भर नहीं है। सत्य कहना, सुनने वाले पर भी उतना ही निर्भर है, जितना कहने
वाले पर।
कृष्ण अर्जुन से ये सत्य कह सके, क्योंकि एक बहुत गहरी मैत्री और गहरे प्रेम का संबंध
था। ठीक यही सत्य हर किसी से नहीं कहे जा सकते। जब सत्य कहा जाता है, तो कहने वाला और सुनने वाला, दोनों एक ऐसी समरसता
में होने चाहिए, जहां सत्य कहा जा सके, और सुना भी जा सके। प्रेम वैसा द्वार है, जहां से
गहरी बातें की जा सकती हैं।
सिर्फ पूरब ही इस राज को समझ पाया। पश्चिम
में शिक्षक होते हैं, लेकिन गुरु केवल पूरब की
उत्पत्ति है। गुरु मात्र शिक्षक नहीं है। गुरु और शिक्षक में यही फर्क है। शिक्षक
को प्रयोजन नहीं है कि विद्यार्थी का कोई संबंध भी है उससे या नहीं। उसे जो कहना
है, वह कह देगा; वह एकतरफा है, वन वे ट्रैफिक है।
शिक्षक स्कूल में पढ़ा रहा है, यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा है। विद्यार्थी सहानुभूति से
सुन रहा है, श्रद्धा से सुन रहा है, सुन
भी रहा है, नहीं सुन रहा है, ये बातें
प्रयोजनीय नहीं हैं। शिक्षक जैसे दीवाल से बोल रहा हो। यह प्रोफेशनल, व्यावसायिक वक्तव्य है। दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है, शिक्षक को बोलने से प्रयोजन है। उसे जो कहना है, वह
कह देगा।
गुरु और शिक्षक में यही अंतर है। गुरु जो
कहना है, वह तभी कह सकेगा, जब सुनने वाला तैयार हो। जब सुनने वाला खुला हो, उम्मुक्त
हो, उसके हृदय के द्वार बंद न हों। और जब सुनने वाला सिर्फ
सुनने वाला ही न हो, बल्कि अपने को रूपांतरित करने की आकांक्षा
से भी, अभीप्सा से भी भरा हो। और जब कि सुनने वाला केवल सत्य
की खोज में ही न आया हो, बल्कि उस व्यक्ति के प्रेम का
आकर्षण भी उसे खींचा हो।
ध्यान रहे कि जहां प्रेम नहीं है, जहां एक आंतरिक संबंध, एक
इटिमेसी नहीं है, वहां सत्य नहीं कहे जा सकते।
महावीर के पास एक युवक आया है। और वह
जानना चाहता है कि सत्य क्या है। तो महावीर कहते हैं कि कुछ दिन मेरे पास रह। और
इसके पहले कि मैं तुझे कहूं, तेरा
मुझसे जुड़ जाना जरूरी है।
एक वर्ष बीत गया है और उस युवक ने फिर
पुन: पूछा है कि वह सत्य आप कब कहेंगे? महावीर ने कहा कि मैं उसे कहने की निरंतर चेष्टा कर रहा हूं लेकिन मेरे और
तेरे बीच कोई सेतु नहीं है, कोई ब्रिज नहीं है। तू अपने
प्रश्न को भी भूल और अपने को भी भूल। तू मुझसे जुड्ने की कोशिश कर। और ध्यान रख,
जिस दिन तू जुड़ जाएगा, उस दिन तुझे पूछना नहीं
पड़ेगा कि सत्य क्या है? मैं तुझसे कह दूंगा।
फिर अनेक वर्ष बीत गए। वह युवक रूपांतरित
हो गया। उसके जीवन में और ही जगत की सुगंध आ गई। कोई और ही फूल उसकी आत्मा में खिल
गए। एक दिन महावीर ने उससे पूछा कि तूने सत्य के संबंध में पूछना अनेक वर्षों से
छोड़ दिया? उस युवक ने कहा, पूछने की जरूरत न रही। जब मैं जुड़ गया, तो मैंने सुन
लिया। तो महावीर ने अपने और शिष्यों से कहा कि एक वक्त था, यह
पूछता था, और मैं न कह पाया। और अब एक ऐसा वक्त आया कि मैंने
इससे कहा नहीं है और इसने सुन लिया!
महावीर की परंपरा कहती है कि महावीर ने
अपने गहनतम सत्य वाणी से उदघोषित नहीं किए, उन्होंने वाणी से नहीं कहे। जो सुन सकते थे, उन्होंने
सुने; महावीर ने कहे नहीं।
यह बहुत मजेदार बात है। इससे उलटी बात भी
सही है, कि जो नहीं सुन सकते हैं,
उनसे महावीर कितना ही कहें, तो भी नहीं सुन
सकते। सुनना एक बहुत बड़ी कला है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तुझसे कहूंगा, क्योंकि तू अतिशय प्रेम से भरा है। अतिशय प्रेम!
साधारण प्रेम भी कृष्ण ने नहीं कहा। कहा, अतिशय प्रेम। इतने
प्रेम से भरा है, जहां आदमी प्रेम में पागल हो जाता है।
पागल होने से कम में वह घटना नहीं घटती, जिसे हम आंतरिक संबंध कहें। अगर प्रेम भी बुद्धिमान
हो, तो होता ही नहीं। अगर प्रेम भी गणित की तरह हिसाब—किताब
से हो, तो होता ही नहीं। प्रेम तो जब होता है, तब अतिशय ही होता है।
एक मजे की बात है, प्रेम में कोई मध्य स्थिति नहीं होती; अतियां होती हैं, एक्सट्रीम्स होती हैं। या तो प्रेम
होता ही नहीं, एक अति। और या प्रेम होता है, तो बिलकुल पागल होता है; दूसरी अति। प्रेम में मध्य
नहीं होता। इसलिए प्रेम में बुद्धिमान आदमी खोजने बहुत मुश्किल हैं। कोई मध्य
बिंदु नहीं होता।
कनफ्यूशियस ने कहा है कि बुद्धिमान आदमी
मैं उसको कहता हूं जो मध्य में ठहर जाए। कनफ्यूशियस एक गांव में गया। गांव के रास्ते पर ही था कि एक
गांव के निवासी से मिलना हुआ। तो कनफ्यूशियस ने पूछा कि तुम्हारे गांव में सबसे ज्यादा
बुद्धिमान आदमी कौन है? तो उस आदमी ने उस आदमी का
नाम लिया, जो गांव मे सबसे ज्यादा बुद्धिमान था। कनफ्यूशियस ने पूछा कि उसे बुद्धिमान मानने का कारण क्या है?
तो उस ग्रामीण ने कहा, कारण है कि वह अगर एक
कदम भी उठाए, तो तीन बार सोचता है। इसलिए गांव उसे बुद्धिमान
कहता है। कनफ्यूशियस ने कहा कि मैं उसे
बुद्धिमान न कहूंगा। क्योंकि जो एक ही बार सोचता है, वह कम
बुद्धिमान है। और जो तीन बार सोचता है, वह दूसरी अति पर चला
गया। दो बार सोचना काफी है। मध्य में रुक जाना चाहिए।
बुद्धिमान आदमी को मध्य में रुक जाना
चाहिए। लेकिन प्रेम में कोई मध्य नहीं होता, इसलिए तथाकथित बुद्धिमान आदमी प्रेम से वंचित रह जाते हैं। प्रेम में होती
है अति। कनफ्यूशियस खुद भी प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम में मध्य होता ही नहीं। या
तो इस पार, या उस पार।
तो कृष्ण कहते हैं, तेरा अतिशय प्रेम है मेरे प्रति, इसलिए तुझसे कहूंगा। अतिशय, टु दि एक्सट्रीम,
आखिरी सीमा तक, जहां अति हो जाती है।
जब प्रेम अतिशय होता है, तो सोच—विचार बंद हो जाता है। और जहां सोच—विचार बंद
होता है, वहीं आंतरिक संवाद हो सकते हैं। जहां तक सोच—विचार
जारी रहता है, वहां तक संदेह काम करता है, वहां तक डाउट काम करता है।
अगर कृष्ण को परम वचन कहने हैं, तो ऐसी अवस्था चाहिए अर्जुन की, जहां सोच—विचार बंद हो। जहां अर्जुन सुने तो जरूर, सोचे
नहीं। जहां अर्जुन खुला तो हो, लेकिन उसके भीतर विचारों की
बदलिया न हों। जहां अर्जुन आतुर तो हो, लेकिन अपनी कोई
धारणाएं न हों। जहां अर्जुन के पास अपने कोई सिद्धात न हों, अपनी
कोई समझ न रह जाए।
शिष्य बनता ही कोई तभी है, जब उसे पता चलता है कि अपनी कोई समझ काम नहीं पड़ेगी।
तभी समर्पण है, उसी अतिशय क्षण में समर्पण है।
कृष्ण कहते हैं, तेरे अतिशय प्रेम के कारण मैं तुझसे परम वचन कहूंगा।
और एक बात कहते हैं कि तेरे हित के लिए। इसे थोड़ा समझ लें।
ऐसे सत्य भी कहे जा सकते हैं, जिनसे किसी का हित न होता हो। ऐसे सत्य भी कहे जा
सकते हैं, जिनसे किसी का अहित होता हो। ऐसे सत्य भी खोजे जा
सकते हैं, जिनसे अकल्याण हो। विज्ञान ऐसे बहुत—से सत्यों को
खोज रहा है, जिनसे अहित होगा, अहित हो
रहा है। अभी पश्चिम के अनेक विचारशील वैज्ञानिक यह सोचने लगे हैं कि सभी सत्य
हितकारी नहीं हैं। इसलिए किसी बात का सत्य होना काफी नहीं है।
और फ्रेड्रिक नीत्शे ने तो एक बहुत अनूठी
बात कही है। उसने कहा है कि बहुत बार तो असत्य भी हितकारी होते हैं। अगर सभी सत्य
हितकारी नहीं होते, तो दूसरी बात भी सही हो
सकती है कि असत्य भी हितकारी हो सकते हैं। और नीत्शे ने यह भी कहा है कि यह जो आज
के मनुष्य के चित्त की इतनी विकृत दशा है, इसका एक मात्र
कारण यह है कि हम बिना समझे—जूझे कि क्या हितकर है और क्या अहितकर है, निपट सत्य की खोज में लगे हुए हैं। सत्य अपने आप में मूल्यवान नहीं है।
सत्य भी एक डिवाइस, एक उपाय है। सत्य भी कहीं पहुंचने का
साधन है।
मनुष्य का परम मंगल, जिस सत्य से फलित हो, कृष्ण
कहते हैं, वह मैं तुझसे कहूंगा, तेरे
हित के लिए।
अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। हम आमतौर
से सोचते हैं कि सत्य तो अपने आप में हितकारी है। और हममें से बहुत—से लोग सत्य का
इस तरह उपयोग करते हैं, जिससे दूसरे को नुकसान
पहुंचे। इतना काफी नहीं है। मंगल ध्यान में रखना जरूरी है। और इसलिए कृष्ण उसी
सत्य की बात करेंगे, जो अर्जुन के लिए मंगलकारी है, जो उसके जीवन को रूपांतरित करे।
सत्य की भी अंतिम कसौटी आनंद ही होगी। इसे
थोड़ा ठीक से समझ लें। सत्य की एक कसौटी तो तर्क है, कि जो तर्क से सिद्ध हो वह सत्य है। सत्य की परम कसौटी आनंद है, कि जिससे आनंद फलित हो, वह सत्य है।
बुद्ध ने कहा है, जो पहुंचा दे परम स्थिति तक, वह
सत्य है। और हम दूसरी कसौटी नहीं जानते हैं। बुद्ध ने कहा है, नाव हम उसे कहते हैं, जो उस पार पहुंचा दे। हम और
दूसरी कसौटी नहीं जानते। कई बार यह भी हो सकता है कि तर्क से जो सही मालूम पड़ता है,
वह इसी किनारे पर बांधकर रोक रखे। तर्क से जो सही मालूम पड़ता है,
वह उस पार भी ले जा सकेगा या नहीं! और कई बार यह भी हो सकता है कि
इस पार के तर्क से जो गलत मालूम पड़ता है, वह भी उस पार ले
जाने की नाव बन जाए।
बुद्ध ने कहा है, सवाल यह नहीं है कि तुम क्या मानते हो। सवाल यह है कि
तुम क्या हो जाते हो उसे मानकर। सवाल यह नहीं है कि तुम्हारा क्या है मार्ग। सवाल
यह है कि तुम किस मंजिल पर पहुंचते हो उस मार्ग पर चलकर। मार्ग अपने आप में व्यर्थ
है— मंजिल!
तर्क अपने आप में व्यर्थ है— निष्पत्ति! और सत्य
अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है— आनंद!
कृष्ण कहते हैं, तेरे हित की कामना से, तेरे हित
की इच्छा से कहूंगा। यहां कोई सत्य को कहना ही मेरा प्रयोजन नहीं है। और न ही सत्य
को सिद्ध करना प्रयोजन है। तेरा हित, तेरा कल्याण, तेरा आनंद फलित हो सके, इस दृष्टि से कहूंगा।
यहां धर्म और साधारण विचार में फासले पड़
जाते हैं। एक आदमी कहता है, ईश्वर है, क्या यह सत्य है? एक आदमी कहता है, मुक्ति है, क्या यह सत्य है? सवाल
यह नहीं है। सवाल यह है कि जिन्होंने मुक्ति की बात कही, उनके
चेहरों में देखें और उनकी आंखों में झांकें। और जिन्होंने ईश्वर को कहा कि है,
उनके जीवन की सुगंध और उनके जीवन के प्रकाश को देखें। और जिन्होंने
कहा, ईश्वर नहीं है, उनके जीवन के आस—पास
जो अंधेरा घिर गया है, उसे देखें।
ईश्वर का होना सत्य है या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है। जो, ईश्वर है, इस आधार पर जीता है, उसके होने में एक और तरह की सुगंध है, एक और तरह के
जगत का आविर्भाव हो जाता है, पंख लग जाते हैं, वह किसी और आकाश में उड़ने लगता है।
यह सवाल नहीं है कि बुद्ध ने जो कहा है, वह सही है या गलत। बुद्ध का होना ही काफी प्रमाण है।
यह भी सवाल नहीं है कि नीत्शे ने जो कहा, वह सही है या गलत।
नीत्शे का होना ही काफी प्रमाण है। नीत्शे ने बहुत तर्कयुक्त बातें कहीं, लेकिन जीवन का अंत पागलखाने में हुआ। नीत्शे ने बहुत तर्कयुक्त बातें कही
हैं। संभवत: मनुष्य—जाति के इतिहास में नीत्शे के मुकाबले दूसरा आदमी खोजना कठिन
है, जो इतना तर्कयुक्त हो, और जिसने
सत्य के संबंध में ऐसी तार्किक खोज की हो। लेकिन नीत्शे का अंत एक पागलखाना है। और
नीत्शे का पूरा जीवन दुख की एक लंबी कथा है, जहां सिवाय
उदासी के और पीड़ा के और संताप के कुछ भी नहीं है। नीत्शे का तर्क हम देखें या
नीत्शे को देखें?
कृष्ण ने जो कहा, वह तर्कयुक्त है या नहीं, उसे
हम देखें, या कृष्ण को और कृष्ण की बांसुरी को देखें?
नीत्शे को और कृष्ण को देखने चलें, तो ही पता
चलेगा कि सत्य भी सप्रयोजन है। समस्त सिद्धांत सप्रयोजन हैं। उनसे मनुष्य का हित,
उनसे मनुष्य का मंगल सधता है या नहीं सधता है?
तो कृष्ण ने कहा है कि मैं तेरे हित की
दृष्टि से यह परम वचन कहूंगा।
हे
अर्जुन, मेरी उत्पत्ति को अर्थात विभूतिसहित लीला से प्रकट होने को न देवता लोग
जानते हैं और न महर्षिजन, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं
और महर्षियों का भी आदि कारण हूं।
मेरी
उत्पत्ति को,
मेरी विभूति को, मेरे सत्य को न देवता जानते
हैं और न महर्षि!
बहुत
आश्चर्यजनक वचन है। और परम श्रद्धा हो, तो ही समझ में आ सकता है। देवता भी
नहीं जानते, और जिन्हें हम जानने वाले कहते हैं, वे महर्षि भी नहीं जानते मेरी उत्पत्ति को। क्यों नहीं जानते? तीन बातें।
एक
तो, इस जगत का जो भी मूल आधार है, उस मूल: आधार को कोई
भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि वह मूल आधार सभी के होने के पहले
है। देवता नहीं थे, तब भी वह था; और
महर्षि जब नहीं थे, तब भी वह था।
मैं
अपनी आंखों से सबको देख सकता हूं अपनी आंखों भर को नहीं देख सकता। मैं अपनी आंखों
से आंखों के बाहर सब कुछ देख सकता हूं आंखों के पीछे नहीं देख सकता। मैं अपनी इस
मुट्ठी से सब कुछ पकड़ सकता हूं लेकिन इस मुट्ठी को ही नहीं पकड़ सकता। जो मौलिक है, जो मूल है,
जिससे देवता भी पैदा होते और महर्षि भी, जिससे
सब पैदा होते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, उसके जन्म
को, उसके होने को, उसके अस्तित्व के
मूल कारण को कोई भी नहीं देख पाएगा। कोई उपाय नहीं है। उसका स्वयं का वक्तव्य ही
केवल एकमात्र वक्तव्य है। और उस वक्तव्य को श्रद्धा के अतिरिक्त स्वीकार करने का
और कोई उपाय नहीं है।
महर्षि
तो हम कहते ही उसे हैं,
जो जानता है। लेकिन कृष्ण के इस सूत्र का अर्थ हुआ कि जो जानते हैं,
वे भी नहीं जानते। तब महर्षि का एक और भी परम गुह्य अर्थ प्रकट
होगा। तब जो सोचते हैं कि महर्षि हैं, वे महर्षि नहीं हैं।
तब तो केवल वे ही जानते हैं, जो इस अनुभव पर आ जाते हैं कि
उन्हें कुछ भी पता नहीं है। कोई सुकरात, कोई उपनिषद का ऋषि,
जो कहता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं, वही,
शायद उसे ही थोड़ा पता लगा है।
नहीं
जान सकेगा कोई भी,
क्योंकि हम सब उसके हिस्से हैं। सागर तो बूंद को जान सकता है,
बूंद सागर को जानेगी भी तो कैसे! और वृक्ष की पत्तियां जड़ों से बंधी
हैं, लेकिन जड़ों को जानेगी तो कैसे! और वृक्ष की पत्तियां
अगर उस बीज को जानना चाहें, जिससे वृक्ष हुआ, तो उस बीज को कैसे जानेगी! जिससे सब हुआ है, वह
अज्ञात ही रहेगा, अज्ञेय ही रहेगा।
मेरी
उत्पत्ति को न देवता जानते,
न महर्षि, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं
और महर्षियों का भी आदि कारण हूं।
समस्त
दिव्यता मेरा ही रूप है,
और समस्त शान मेरा ही ज्ञान है। मेरा ही ज्ञान लौटकर मुझे नहीं जान
पाएगा, जैसे मेरी ही आंख लौटकर मुझे नहीं जान पाएगी। लेकिन आंख
एक काम कर सकती है। दर्पण में अपने को देख सकती है। यद्यपि दर्पण में जो दिखाई
पड़ता है, वह आंख नहीं है; केवल
प्रतिबिंब है, केवल छाया है। ऋषियों ने भी जिसे जाना है,
वह भी परमात्मा की छाया है, परमात्मा नहीं। और
देवता भी जिसकी अर्चना करते हैं, वह परमात्मा का प्रतिबिंब
है, परमात्मा नहीं।
जिस
दिन प्रतिबिंब भी छूट जाते हैं, जिस दिन जानने वाला भी अपने को भूल जाता है,
जिस दिन जानने वाला भी शेष नहीं रहता, उस दिन!
लेकिन उस दिन ऋषि ऋषि नहीं होता; देवता देवता नहीं होता;
उस दिन तो लहर खो जाती है सागर में और सागर ही हो जाती है।'
कृष्ण
महर्षि नहीं हैं,
और उन्हें महर्षि न कहने का यही कारण है। वे कोई ज्ञाता नहीं हैं,
और न कृष्ण कोई देवता हैं। कृष्ण अपने को छोड़ दिए हैं उस परम के
साथ। कृष्ण अब नहीं हैं, अब वह परम ही अपनी अभिव्यक्ति उनके
द्वारा कर रहा है।
इसलिए
एक बहुत मजे की बात,
और बहुत विचित्र, और जिसके कारण बहुत विवाद
दुनिया में चला है, वह आपको इस संदर्भ में कहूं।
हिंदू
मानते हैं कि वेद ईश्वरीय वचन है। इस्लाम मानता है कि कुरान इलहाम है, रिवीलेशन
है; ईश्वर से सीधा प्रकट हुआ है। ईसाई भी मानते हैं कि
बाइबिल ईश्वरीय, रूहानी किताब है। लेकिन ये कोई भी ठीक से
सिद्ध नहीं कर पाते कि इनका मतलब क्या है। और जो भी सिद्ध करने जाते हैं, वे बहुत बचकानी बातें इकट्ठी कर लेते हैं। और उनको गलत करना बहुत कठिन
नहीं है।
जो
कहते हैं कि वेद ईश्वर की किताब है, उनको गलत करना बहुत कठिन नहीं है।
क्योंकि वेद में जो भी बातें हैं, वे बिलकुल मानवीय हैं और
मनुष्यों के वक्तव्य मालूम होते हैं। कुरान में भी जो बातें हैं, वे भी मानवीय हैं और मनुष्यों के वक्तव्य मालूम होते हैं। अत्यंत
बुद्धिमत्तापूर्ण, लेकिन फिर भी मनुष्यों के। और बाइबिल में
भी वही बात है। कोई भी, एक भी वचन ऐसा नहीं है, जो मनुष्य न दे सके। कोई भी वचन मनुष्य दे सकता है। कोई भी वचन ऐसा नहीं
है, जो कि मानने को मजबूर करे कि वह ईश्वरीय है।
अत्यंत बुद्धिमान लोगों के वचन होंगे, श्रेष्ठतम प्रतिभाओं के वचन होंगे, लेकिन ईश्वरीय होने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता। इसलिए जो इनके विपरीत
बातें करते हैं, वे सरलता से बातें कर सकते हैं। लेकिन
ईश्वरीय मानने का कारण दूसरा है, वह इस सूत्र में है।
इस जगत के मौलिक आधार के संबंध में जो भी
वक्तव्य है, वह वक्तव्य इस जगत के मूल
से ही आ सकता है, किसी दूसरे के द्वारा नहीं दिया जा सकता।
और अगर दूसरा उस वक्तव्य को देगा, तो वह वक्तव्य मिथ्या होगा,
फाल्स होगा।
यह जगत ही अपने संबंध में अपना वक्तव्य है।
ईश्वर ही कहे अगर, तो ही सार्थक है बात।
सागर ही अगर कहे कि मैं ऐसा हूं तो ठीक है। कितनी ही बड़ी लहर सागर के संबंध में
कुछ भी कहे, वह वक्तव्य अधूरा होगा, और
लहर का ही होगा।
यह वेद, बाइबिल या कुरान का जो आग्रह है कि ये वचन ईश्वरीय हैं, इनका क्या कारण है? इनका कारण यह है कि इन वचनों को
मानकर जो भी यात्रा करता है, एक दिन उसका लहर होना मिट जाता
है और सागर होना हो जाता है। इन वचनों को मानकर जो भी यात्रा पर निकलता है,
वह खुद भी एक दिन मिट जाता है और ईश्वर ही शेष रह जाता है।
जिन लोगों ने इन्हें ईश्वरीय कहा, उनके कहने का प्रयोजन इतना ही है कि इन वचनों को
मानकर अगर कोई चले, तो अंतत: मनुष्य और मनुष्यता की सीमा के
पार चला जाता है। और जिस क्षण इन वचनों की अंतिम घड़ी उपलब्ध होती है, उस क्षण व्यक्ति स्वयं भी मौजूद नहीं रहता, बूंद खो
जाती है, सागर ही शेष रह जाता है। तो जिन वक्तव्यों को मानकर
अंतत: बूंद मिट जाती हो और सागर ही बचता हो, वे वक्तव्य बूंद
के नहीं हो सकते। वे वक्तव्य सागर के ही होंगे। क्योंकि बूंद तो जान ही कैसे सकती
है!
लेकिन हमारी तकलीफ है। हम अगर कुरान या
बाइबिल या वेद को पढ़ते हैं, तो हम जैसे हैं, वैसे ही पढ़ना शुरू करते हैं, बिना किसी यात्रा पर गए।
हम अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर वेद पढ़ सकते हैं। बिना किसी रूपांतरण में गए, बिना जीवन को बदले, बिना किसी अल्केमी से गुजरे,
बिना अपने अनगढ़ पत्थर को हीरा बनाए, हम जैसे
हैं, वैसे ही वेद को पढ़ें, कुरान को
पढ़ें, बाइबिल को पढ़ें— वे वक्तव्य हमें मनुष्य के ही वक्तव्य
मालूम पड़ेंगे। क्योंकि हम वही पढ़ सकते हैं, जो हमारी क्षमता
है। जो हमारी क्षमता नहीं है, वह हमारी सीमा के बाहर छूट
जाता है।
सूफियों के ग्रंथ हैं। एक—एक ग्रंथ के सात—सात
अर्थ हैं। और सूफी फकीर जब किसी साधक को साधना में प्रवेश करवाता है, तो किताब को पढ़वाता है। एक किताब है सूफियों की,
किताबों की किताब उसका नाम है, दि बुक आफ दि
बुक। छोटी—सी है; वह साधक को पढ़ाई जाएगी। और उससे कहा जाएगा,
इसका अर्थ तू लिख डाल। जो भी अर्थ तुझे सूझता हो, वह लिख।
फिर छह महीने साधना चलेगी। और छह महीने के
बाद वही किताब, वही छोटी—सी किताब फिर
पढ़ाई जाएगी। और साधक से कहा जाएगा, इसके अर्थ अब तू जो भी
चाहे लिख। उसे पहले अर्थ नहीं दिखाए जाएंगे। लेकिन इन छह महीनों में उसने यात्रा
की है, वह ध्यान की किसी अवस्था को पार हुआ है, वह दूसरे अर्थ लिखेगा। और ऐसा सात बार किया जाएगा। ध्यान की सात सीढ़ियां
पार कराई जाएंगी, और यह किताब सात बार पढ़ाई जाएगी, और सात बार अर्थ लिखवाए जाएंगे।
जब सातों अर्थ पूरे हो जाएंगे, तो उस साधक को वे सातों अर्थ दिए जाएंगे, और उससे कह जाएगा, क्या तू भरोसा कर सकता है कि ये
सातों तेरे ही अर्थ हैं? आज लौटकर वह खुद भी भरोसा नहीं कर
सकता कि ये उसके ही अर्थ हैं। और उसी एक ही आदमी ने एक ही किताब से ये सात अर्थ
निकाल लिए!
हम जो भी अर्थ निकालते हैं, वह निकालते कम हैं, डालते
ज्यादा हैं। जब भी हम वेद पढ़ते हैं, तो हम वेद नहीं पढ़ते,
वेद के द्वारा अपने को पढ़ते हैं। तो जो हम होते हैं, वह अर्थ निकलता है। जब हम बदल जाते हैं तब वेद पढ़ते हैं, तब जो अर्थ होता है, वह दूसरा होता है। और जब हम
स्वयं उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां व्यक्ति का अहंकार खो
जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है, तब जो अर्थ निकलता
है, वह दूसरा ही अर्थ होता है।
जिन्होंने ये सात सीढ़ियां पूरी की हैं
ध्यान की, उन्होंने जाना है कि यह
वक्तव्य कुरान में जो है, मोहम्मद का नहीं है। उन्होंने जाना
कि ये जो वेद में वक्तव्य हैं, ये ऋषियों के नहीं हैं।
उन्होंने जाना कि ये जो बाइबिल में वक्तव्य हैं, ये मनुष्य
से इनका कोई संबंध नहीं है। ये मनुष्य के पार से आए हुए हैं। मनुष्य के पार से
लेकिन तभी कोई चीज आती है, जब मनुष्य मिटने को और दरवाजा
बनने को राजी हो जाता है।
तो कृष्ण कहते हैं, न मुझे ऋषि जानते हैं, न मुझे
देवता जानते हैं, क्योंकि मैं उनका भी आदि कारण हूं, मैं उनसे भी पहले हूं। और जो मेरे को अजन्मा, अनादि
तथा लोकों का महान ईश्वर तत्व से जानता है, वह मनुष्यों में
ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
तब फिर क्या किया जाए? महर्षि नहीं जानते, ज्ञानी नहीं
जानते, दिव्य पुरुष नहीं जानते, फिर
क्या किया जाए? फिर इस परम तत्व को जानने के लिए क्या है
उपाय?
तो कृष्ण कहते हैं, जो मेरे को अजन्मा.।
अब यह बड़ी कठिन बात शुरू हुई। और मनुष्य
की श्रद्धा की कसौटी वहां है, जहां
कठिन बात शुरू होती है। अति कठिन, बल्कि कहें असंभव।
ईसाई फकीर तरतूलियन ने कहा है कि मैं
ईश्वर को मानता हूं क्योंकि ईश्वर असंभव है। उसके भक्तों ने उससे कहा, आपका मस्तिष्क तो ठीक है? तरतूलियन
ने कहा कि अगर ईश्वर संभव है, तो फिर मुझे उसे मानने की कोई
जरूरत ही न रही। सूरज को मैं मानता नहीं, क्योंकि सूरज संभव
है। आकाश को मैं मानता नहीं, क्योंकि आकाश है। मैं ईश्वर को
मानता हूं क्योंकि ईश्वर का होना बुद्धि के लिए असंभावना है, इंपासिबल है।
और जब बुद्धि किसी असंभव को मानती है, तो बुद्धि टूट जाती है और शून्य हो जाती है। असंभव से
टकराकर नष्ट होती है बुद्धि। असंभव से टकराकर विचार खो जाते हैं। असंभव की
स्वीकृति के साथ ही अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं मिलती। यह असंभव की बात शुरू
होती है। यह आपने बहुत बार गीता में पढ़ी होगी और आपको कभी खयाल में न आया होगा कि
असंभव है।
और जो मेरे को अजन्मा, कृष्ण कहते हैं, जो मुझे मानते
हैं अजन्मा, अनबॉर्न, जो कभी पैदा नहीं
हुआ। अनादि, जिसका कोई प्रारंभ नहीं है। ऐसा जो मुझे तत्व से
मानते हैं, ऐसा ईश्वर, वे मनुष्यों में
ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं।
यह अत्यंत कठिन बात है। इसे हम थोड़ा समझें।
हम सभी जानते हैं, तथाकथित धार्मिक लोग
लोगों को समझाते हैं कि ईश्वर है। क्योंकि अगर ईश्वर न होगा, तो जगत को बनाया किसने? आस्तिक सोचते हैं, बडी गहरी दलील दे रहे हैं। बहुत बचकानी है दलील। आस्तिक सोचते हैं कि बड़ी
गहरी दलील दे रहे हैं कि अगर ईश्वर न होगा, तो जगत को बनाया
किसने? आस्तिक कहते हैं कि एक छोटा—सा घड़ा भी बनाना हो,
तो कुम्हार की जरूरत होती है। अगर घड़ा है, तो
कुम्हार भी रहा होगा। होगा। बिना बनाए घड़ा भी नहीं बन सकता। और इतना विराट,
इतना व्यवस्थित जगत बिना ईश्वर के बनाए नहीं बन सकता।
आस्तिक यह दलील शायद इसलिए देते हैं कि
उनकी बुद्धि भी, जगत बिना बनाया है,
ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन उन्हें पता नहीं है कि एक
ही कदम आगे बढ़कर मुसीबत शुरू हो जाएगी। और नास्तिक पूछते हैं कि अगर जगत बिना
बनाया नहीं बन सकता, तो तुम्हारे ईश्वर को किसने बनाया है?
और तब आस्तिक के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है। तब अक्सर आस्तिक
क्रोध में आ जाएगा, क्योंकि आस्तिक बड़े कमजोर हैं। वह कहेगा,
ईश्वर को बनाने वाला कोई भी नहीं है।
लेकिन तब उसके अपने ही तर्क के प्राण निकल
गए। और नास्तिक उससे कहता है कि अगर ईश्वर को बनाने वाले की कोई जरूरत नहीं है, तो तुम स्वीकार करते हो कि बिना बनाए भी कुछ हो सकता
है। तो फिर जगत के ही बिना बनाए होने में कौन—सी तकलीफ है! तत्वत: यह स्वीकार करते
हो कि कुछ हो सकता है जो बिना बनाया है, तो इस जगत को क्या
अड़चन है! और जब यह मानना ही है, तो जगत पर ही रुक जाना बेहतर
है, और एक ईश्वर को बीच में लाने की क्या जरूरत है? यहां आपको तकलीफ होगी।
कृष्ण कहते हैं कि वही मुक्त होगा अज्ञान
से, जो मुझे अजन्मा जानता है। जो
मुझे मानता है कि मेरा कोई जन्म नहीं, और मैं हूं; और मेरा कोई प्रारंभ नहीं, और मैं हूं।
इसलिए जो छोटा—मोटा आस्तिक है, वह तो दिक्कत में पड़ेगा, क्योंकि
उसकी तो सारी तर्क की व्यवस्था ही यही है कि अगर कुछ है, तो
उसका बनाने वाला चाहिए। इसलिए हमने ईश्वर को भी स्रष्टा, दि
क्रिएटर, बनाने वाला, इस तरह के शब्द
खोज लिए हैं, जो कि गलत हैं।
ईश्वर बनाने वाला नहीं है, ईश्वर अस्तित्व है। वही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी
नहीं है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह कोई ईश्वर से भिन्न और
अलग नहीं है। उसकी ही अभिव्यक्ति है, उसका ही एक अंश है,
उसका ही एक हिस्सा है। सागर का ही एक हिस्सा लहर बन गया है। अभी
थोड़ी देर बाद फिर सागर हो जाएगा। फिर लहर बन जाएगा। लहर सागर से अलग नहीं है।
यह जो सृष्टि है...। हमारे शब्द में ही
कठिनाई घुस गई है, हमने सोचते—सोचते इसको
सृष्टि ही, क्रिएशन ही कहना शुरू कर दिया है। यह जो दिखाई पड़
रहा है हमें चारों तरफ, यह जो प्रकृति है, यह प्रकृति परमात्मा का ही हिस्सा है। यह उतनी ही अजन्मी है, जैसा परमात्मा अजन्मा है।
लेकिन तब बिना बनाए कोई चीज हो सकती है? बिना प्रारंभ के कोई चीज हो सकती है? हमारा प्रारंभ है, हमारा जन्म होता है; हमारी मृत्यु होती है। हम जगत में ऐसी किसी चीज को नहीं जानते, जिसका प्रारंभ न होता हो और अंत न होता हो। सभी चीजें शुरू होती हैं,
और सभी चीजें समाप्त हो जाती हैं। आप किसी ऐसे अनुभव को जानते हैं
जिसका प्रारंभ न हो, अंत न हो? हमारे
अनुभव में ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है। इसीलिए इस सूत्र को स्वीकार करने में बुद्धि
को अड़चन है, भारी अड़चन है।
अजन्मा, अनादि, ऐसा जो मुझे मानता है, ऐसा
जो मुझे जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और संपूर्ण
पापों से मुक्त हो जाता है। यह ज्ञान कुछ दूसरे ही प्रकार का ज्ञान है। जितना हम
सोचेंगे, जितना हम विचार करेंगे, उतना
ही हमें मालूम पड़ेगा कि सब चीजों का प्रारंभ है और सब चीजों का अंत है। कहीं चीज
शुरू होती है और कहीं समाप्त होती है। जन्म होता है कहीं, मृत्यु
होती है कहीं। हम खुद अपने ही भीतर खोज करें, तो कुछ पता
नहीं चलता कि जन्म के पहले भी हम थे, कि मृत्यु के बाद भी हम
होंगे!
झेन फकीर जापान में अपने साधकों को कहते
हैं कि ध्यान करो, और खोजो उस चेहरे को,
जो जन्म के पहले तुम्हारा था, ओरिजिनल फेस। जब
तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारी शक्ल कैसी थी? या तुम जब मर जाओगे, तब तुम कैसे होओगे, इसकी तलाश करो ध्यान में!
जब भी कोई साधक अपने भीतर खोज लेता है उस
सूत्र को, जो जन्म के भी पहले था या
मृत्यु के भी बाद बचेगा, तभी इस सूत्र को समझने में समर्थ हो
पाता है।
नहीं, इस अस्तित्व का न कोई प्रारंभ है, और न कोई अंत है।
हो भी नहीं सकता। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि हम रेत के एक छोटे—से कण को भी
नष्ट नहीं कर सकते। तोड़ सकते हैं, बदल सकते हैं, रूप दूसरा हो सकता है, लेकिन विनाश असंभव है। और
वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि हम रेत के एक छोटे—से नये कण को निर्मित भी नहीं कर
सकते।
इस जगत की जो भी गुणात्मक, परिमाणात्मक स्थिति है, वह उतनी
की उतनी ही है, उसमें रत्तीभर न कभी बढ़ता है और न कभी घटता
है। क्योंकि घटने या बढ़ने का अर्थ होगा, या तो शून्य से कोई
चीज पैदा हो और जगत में बढ जाए; घटने का अर्थ होगा, कोई चीज खो जाए और शून्य में लीन हो जाए। लेकिन इस जगत के बाहर न कोई
स्थिति है, न कोई स्थान है, न कोई उपाय
है।
ईश्वर का अर्थ है, दि टोटेलिटी। इस संपूर्ण अस्तित्व का धार्मिक नाम
ईश्वर है। वितान जिसे एक्सिस्टेंस कहता है, अस्तित्व कहता है,
प्रकृति कहता है, धर्म उसे ही परमात्मा कहता
है।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे अजन्मा, अनादि, ऐसा जानने में समर्थ हो जाए, वह सब पापों के पार हो
जाता है।
लेकिन क्यों? अगर आप जान भी लें कि ईश्वर का कोई प्रारंभ नहीं,
कोई अंत नहीं, तो आप पाप के पार कैसे हो
जाएंगे? यह बहुत अजीब—सी बात है। मैं चोर हूं मैं बेईमान हूं
मैं हत्यारा हूं। अगर मैं यह जान भी लूं कि ईश्वर का कोई जन्म नहीं और ईश्वर का
कोई अंत नहीं, तो मैं पाप के क्यों पार हो जाऊंगा? मेरे इस जान लेने से मेरे पाप के विसर्जन का क्या संबंध है? यह और भी जटिल बात है। लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है।
जैसे ही मैं यह जान लूं कि ईश्वर का कोई
प्रारंभ नहीं है और ईश्वर का कोई अंत नहीं है, वैसे ही मुझे यह भी पता चल जाता है कि मेरा भी कोई प्रारंभ नहीं है और
मेरा भी कोई अंत नहीं है। वैसे ही मुझे यह भी पता चल जाता है कि आपका भी कोई प्रारंभ
नहीं है, आपका भी कोई अंत नहीं है। तो मैंने जो हत्याएं की
हों या मेरी हत्या की गई हो, मैंने जो पाप किए हों या मेरे
साथ पाप किए हों, वे सब मूल्यहीन हो जाते हैं। एक शाश्वत जगत
में खेल से ज्यादा उनकी स्थिति नहीं रह जाती। एक अभिनय और एक नाटक से ज्यादा उनका
मूल्य रह जाता।
अगर मैं मृत्यु के बाद भी शेष रहता हूं और
जन्म के पहले भी मैं था, तो जीवन में जिन बातों का
हम बहुत मूल्य मान रहे हैं, वे मूल्यहीन हो जाती हैं। तब
स्थिति केवल यह हो जाती है कि जैसे एक मंच पर एक नाटक चलता हो, रामलीला चलती हो, और मंच के पात्र पर्दे के पीछे
जाकर गपशप करते हों। यहां राम की सीता खो जाती हो और राम छाती पीटते हों और
वृक्षों से पूछते हों कि सीता कहां है! और पीछे, पर्दे के
पीछे बैठकर भूल जाते हों सीता को, सीता के खो जाने को,
आंसुओ को। क्यों?
अगर यह मंच ही सब कुछ है और मंच के पहले
राम का कोई अस्तित्व नहीं है और मंच के बाद भी राम का कोई अस्तित्व नहीं है, तो फिर बहुत कठिनाई है, फिर
जिंदगी बहुत वास्तविक हो जाएगी।
लेकिन मंच पर आने के पहले भी राम हैं, मंच से उतर जाने के बाद भी राम हैं, तो राम होना एक पात्र, एक लीला का हिस्सा रह गया;
और राम की जो सातत्यता है, जो कंटिन्युटी है,
जो भीतर का अस्तित्व है, वह अंतहीन, अनादि हो गया। उसमें न मालूम कितनी लीलाएं होंगी, न
मालूम कितनी लीलाएं होंगी और न मालूम कितने युद्ध होंगे, लेकिन
अब उन युद्धों का मूल्य एक नाटक से ज्यादा नहीं रहा।
इसलिए हमने राम के इस पूरे खेल को रामलीला
कहा है। उसको हमने बहुत सोचकर लीला कहा है। कृष्ण के जीवन को हमने कृष्णलीला कहा
है, बहुत सोचकर। लीला का अर्थ है कि
इसका मूल्य अब खेल से ज्यादा नहीं है।
एक लहर उठी है सागर में, हवाओं में, थपेड़ों में। उछलेगी,
कूदेगी, नाचेगी, सूरज से
मिलने की होड़ करेगी, फिर गिर जाएगी, खो
जाएगी। अनेक बार उठी है यह लहर पहले भी, अनेक बार बाद में भी
उठेगी। अगर यह लहर यह जान जाए कि जब मैं नहीं उठी। थी, तब भी
थी, और जब गिर जाऊंगी, तब भी रहूंगी,
तो फिर इस ' लहर का होना एक खेल हो गया। तब
इसमें से भार, गंभीरता, बोझ विलीन हो
गया। तब मिटना भी एक आनंद है, होना भी एक आनंद है, न हो जाना भी एक आनंद है। क्योंकि न होकर भी हम मिटते नहीं हैं, और होकर भी हम नये नहीं होते हैं। एक सातत्य है, एक
कंटीनम है।
यह शब्द वैज्ञानिक है। आइंस्टीन ने इस
शब्द का उपयोग किया है, कंटीनम, एक सातत्य। चीजें सदा हैं। इसलिए चीजों का जो रूप आज दिखाई पड़ता है,
वह बहुत मूल्यवान नहीं रह जाता। तब पाप भी मूल्यवान नहीं है और
पुण्य भी मूल्यवान नहीं है। तब मैंने जो किया, वह मूल्यवान
नहीं है, वरन मैं जो हूं वही मूल्यवान है। तब मेरे साथ जो
किया गया, वह भी मूल्यवान नहीं है; तब
होना, बीइंग कीमत की चीज है। डूइंग, करना
गैर—कीमती चीज है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेगा इस सातत्य को—जो मेरे अजन्मा होने को,
अनादि, अनंत होने को जान लेगा—वह सब पापों के
पार हो जाएगा।
लेकिन कोई चाहे कि पापों के पार होना है, इसलिए मान लो कि कृष्ण अनादि हैं, अजन्मा हैं, भगवान का होना सदा से है— इस भूल में आप
मत पड़ना। इससे पाप नष्ट नहीं होंगे। यह आप जान लेंगे, तो पाप
नष्ट हो जाएंगे। लेकिन आप पाप नष्ट करने के लिए ही अगर इसको मान लेंगे, तो पाप नष्ट नहीं होंगे।
पाप तो हम सभी नष्ट करना चाहते हैं, लेकिन बिना ज्ञान की उस ज्योति को उपलब्ध हुए,
जहां पाप का अंधेरा गिर जाता है। पाप हम नष्ट करना चाहते हैं,
लेकिन ज्ञान की ज्योति को जन्माने की चेष्टा नहीं करना चाहते। तो
फिर हम मानकर बैठ जाते हैं कि ठीक है, हम मानते हैं कि जान
की ज्योति है, मानते हैं कि ईश्वर अजन्मा है। लेकिन जो भी हम
करते हैं, उससे सिद्ध होता है कि न हमें ईश्वर का पता है,
न उसके अजन्मा होने का पता है।
कृष्ण के सामने अर्जुन की तकलीफ यही है।
अर्जुन कह यह रहा है कि मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, सगे—संबंधी हैं, युद्ध
में इनको काटू, यह बड़ा पाप है। इनसे लडूं, यह बड़ा पाप है। इससे तो अच्छा है, मैं संन्यास ले
लूं। मैं यह सब छोड़ दूं। मैं भाग जाऊं, मैं विरत हो जाऊं।
कृष्ण उससे कह रहे हैं कि जब तक तू देख
नहीं पा रहा है कि इन सारी लहरों के भीतर एक ही सागर है। जब ये लहरें नहीं थीं, तब भी वह सागर था; और जब कल ये
लहरें सब गिर जाएंगी, तब भी सागर रहेगा। अगर तू इस अनादि,
अजन्मा को देख ले, तो फिर तुझे यह जो पाप की
और पुण्य की धारणा पैदा होती है, यह तत्काल विसर्जित हो जाए।
परम ज्ञानी के लिए न कोई पाप है और न कोई
पुण्य। इसका यह अर्थ नहीं कि वह पाप करता है। वह पाप कर ही नहीं सकता। इसका यह
अर्थ नहीं है कि वह पुण्य नहीं करता। वह पुण्य ही कर सकता है। पुण्य और पाप की
परिभाषा ज्ञानी के जीवन में दूसरी ही हो जाती है।
अभी हम उसे पाप कहते हैं, जो नहीं करना चाहिए, यद्यपि
करते हैं। और उसे पुण्य कहते हैं, जो करना चाहिए और नहीं
करते हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति ईश्वर के इस सातत्य को अनुभव करता है, वैसे ही पाप और पुण्य की परिभाषा बदल जाती है। तब वह व्यक्ति जो करता है,
वह पुण्य कहलाता है। और वह जो नहीं करता है, वह
पाप कहलाता है। और जो नहीं करता है, वह करना भी चाहे,
तो नहीं कर सकता है। और वह जो करता है, अगर
चाहे भी कि न करूं, तो बच नहीं सकता है।
पुण्य अनिवार्यता है ज्ञान में। और पाप
अनिवार्यता है अज्ञान में। लाख उपाय करो, अज्ञान में पाप से बचा नहीं जा सकता, पाप होगा ही।
और लाख उपाय करो, ज्ञान में पुण्य से बचा नहीं जा सकता;
पुण्य होगा ही। ज्ञान में जो होता है, उसका
नाम पुण्य है; और अज्ञान में जो होता है, उसका नाम पाप है। इसलिए अज्ञान में जिन्हें हम पुण्य समझकर करते हैं,
वह हम समझते ही होंगे कि पुण्य हैं, वे पुण्य
होते नहीं।
अज्ञान में एक आदमी मंदिर बनाता है भगवान
का, तो सोचता है, पुण्य कर रहा है। लेकिन मंदिर जिस ढंग से बनाता है, जहां
से पैसा खींचकर लाता है, उसे उसका कोई हिसाब नहीं है। मंदिर
बनाता है शोषण से, सोचता है, पुण्य कर
रहा हूं! और जिस पुण्य को करने के लिए भी पाप करना पड़ता हो, वह
कितना पुण्य होता होगा!
और मंदिर बनाता है भगवान के नाम से, लेकिन तख्ती अपनी लगाता है। वह भगवान तो गौण है,
वह जो मंदिर पर पत्थर लगता है अपने नाम का, वही
असली बात है। मंदिर उसी के लिए बनाया जाता है। भगवान की प्रतिमा भी उसी पत्थर के
लिए भीतर रखी जाती है। अहंकार जिस मंदिर में प्रतिष्ठित हो रहा हो, वह कितना पुण्य है?
इसलिए अज्ञानी कुछ भी करे, कितने ही मंदिर बनाए और कितनी ही तीर्थयात्राए करे—मक्का
जाए, और जेरूसलम जाए, और काशी जाए,
और जो भी करना चाहे करे— अज्ञानी कुछ भी करे, अज्ञान
के कारण वह जो भी करेगा, वह पाप ही होगा। पुण्य के कितने ही
मुलम्मे चढ़ाए और पुण्य के कितने ही वस्त्र ढांके, भीतर जब भी
खोदकर जाएंगे, तो पाप ही मिलेगा।
इससे उलटी बात और भी कठिन है समझनी, कि ज्ञानी कुछ भी करे, पुण्य ही
होगा। इसलिए तो कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू लड़ने की फिक्र छोड़, ज्ञान की फिक्र कर। और अगर तुझे ज्ञान मिल जाए, तो
मैं तुझसे कहता हूं तू काट डाल इन सारे लोगों को, जो तेरे
सामने खड़े हैं, और पाप नहीं होगा। और अगर ज्ञान न हो,
तो तू भाग जा जंगल, चींटी को भी मत मार,
फूंक—फूंककर पैर रख, और मैं तुझसे कहता हूं कि
पाप ही होगा।
यह परम ज्ञान उस सातत्य के साथ अपना एकत्व
अनुभव होने से होता है।
यह कठिन सूत्र है। फिर इस सूत्र को समझाने
के लिए ही पूरा अध्याय है। इस सूत्र को खयाल में ले लें। इसमें परम वचन, ऐसा वचन कृष्ण कहने जाने की घोषणा कर रहे हैं,
जिसे बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, तर्क से
जिस तक पहुंचने का उपाय नहीं है। हां, प्रेम और श्रद्धा का
संबंध हो, तो संवाद हो सकता है। अर्जुन के हित की दृष्टि से
कह रहे हैं। कहने का कोई मजा नहीं है।
एक तो आदमी होते हैं, जिन्हें कहने का मजा होता है। जिन्हें इससे प्रयोजन
नहीं होता कि आपका कोई हित होगा, इसलिए कह रहे हैं। जिन्हें
कहना है, जैसे कि खुजली खुजलानी है। उन्हें कुछ कहना है,
वे कह रहे हैं। दिनभर हम जानते हैं चारों तरफ लोगों को, जो सुबह अखबार पढ़ लिए और फिर निकले किसी से कहने!
उनको कहना है। कहना उनके लिए बीमारी है।
बिना कहे उनसे नहीं चलेगा। अगर उनको चार दिन अकेले बंद कर दो, तो वे दीवालों से बातचीत शुरू कर देंगे। जाना गया है
ऐसा।
कारागृह में कैदी बंद होते हैं, तो थोड़े दिन के बाद दीवालों से बातचीत शुरू कर देते
हैं। मकड़ी हो ऊपर, तो उससे बातचीत करने लगते हैं; छिपकली हो, तो उससे बातचीत करने लगते हैं। कोई न हो,
तो अपने को ही दो हिस्सों में बांट लेते हैं। एक तरफ से प्रश्न
उठाते हैं, दूसरी तरफ से जवाब देते हैं।
हम सभी करते रहते हैं। कोई न मिले, जरूरी भी नहीं। हमेशा श्रोता मिलना आसान नहीं। और
जैसे दिन खराब आते जा रहे हैं, श्रोता बिलकुल नाराज है;
सुनने को कोई राजी नहीं है। पति कुछ कहना चाहता है, पत्नी सुनने को राजी नहीं है। मां कुछ कहना चाहती है, बेटा सुनने को राजी नहीं है। बाप कुछ कहना चाहता है, कोई सुनने को राजी नहीं है! श्रोता मुश्किल होता जा रहा है। और बोलना है,
कहना है! एक बीमारी है।
बर्ट्रेड रसेल ने इक्कीसवीं सदी की कहानी
लिखी है एक। उसमें उसने लिखा है कि जगह—जगह हर बड़े नगर में तख्तियां लगी हैं, जो बड़ी अजीब हैं। उन तख्तियों पर लिखा हुआ है कि आपको
कुछ भी कहना हो, तो हम सुनने को राजी हैं। सुनने की इतनी
फीस! और अभी ऐसा हो रहा है। पश्चिम में जिसको साइकोएनालिसिस कहते हैं, मनोविश्लेषण कहते हैं, वह कुछ भी नहीं है, आपकी बकवास सुनने की फीस! सालों चलता है एनालिसिस। पैसा जिनके पास है,
वे एक बड़े मनोवैज्ञानिक के पास सप्ताह में तीन दफा, चार दफा जाकर घंटेभर, जो उनको बकना है, बकते हैं। वह बड़ा मनोवैज्ञानिक शांति से सुनता है।
सालभर की इस बकवास से मरीजों को लाभ होता
है। लाभ इलाज से नहीं होता है, इस
बकवास के निकल जाने से होता है। यह बीमारी है; कैथार्सिस हो
जाती है सालभर। और एक बुद्धिमान आदमी, प्रतिष्ठित आदमी,
योग्य आदमी, सुशिक्षित आदमी बड़ी लगन से आपकी
बात सुनता है, क्योंकि आप उसको सुनने के पैसे देते हैं। वह
आपकी लगन से बात सुनता है। आप कुछ भी कहिए, वह उसको ऐसे
सुनता है, जैसे कि परम सत्य का उदघाटन किया जा रहा हो!
तो पश्चिम में बड़े घरों के लोग एक—दूसरे
से पूछते हैं, कितनी बार साइकोएनालिसिस
करवाई? कितने दिन तक? पैसे वाले का
लक्षण आज अमेरिका में यही है; खास कर स्त्रियों का। पैसे
वाली
स्त्रियों का लक्षण यही है कि उन्होंने कितने बड़े
मनोवैज्ञानिक के साथ कितने साल तक मनोविश्लेषण करवाया है!
और मनोविश्लेषण का कुल मतलब इतना है कि
मनोवैज्ञानिक कहता है, लेट जाओ इस कोच पर,
और जो भी मन में आए, फ्री एसोसिएशन ऑफ थॉट्स,
जो भी मन में आए, कहे चले जाओ। जो भी आए! संगत—असंगत
का कोई सवाल नहीं। लोग बड़े हल्के होकर लौटते हैं।
एक तो कहने वाले वे लोग हैं, जिन्हें कहना एक बीमारी है। उनके भीतर कुछ भरा है,
उसे निकालना है। लेकिन उससे दूसरे का हित कभी नहीं होता।
कृष्ण कहते हैं, मैं तेरे हित के लिए कहूंगा। कुछ कहने का सवाल नहीं
है। लेकिन तेरे सुनने की घड़ी आ गई, तेरे सुनने का क्षण आ गया,
वह परिपक्क मौका आ गया, जब तेरा हृदय राजी है,
तो मैं तुझसे परम सत्य कहूंगा। और यह परम सत्य, इस सूत्र की व्याख्या होगी अंतत:, कि जीवन अजन्मा है,
अनादि है। अस्तित्व का न कोई प्रारंभ है, न
कोई अंत। और हम इस अस्तित्व में छोटी लहरों से ज्यादा नहीं। हमारे कृत्य इस परम
विस्तार को ध्यान में रखकर सोचे जाएं, तो लीला मात्र,
खेल मात्र रह जाते हैं।
अगर इस परम विस्तार को छोड़ दिया जाए, तो हमारे कृत्य बड़ी महिमा ले लेते हैं, बड़ी गरिमा ले लेते हैं, बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
और हम सबकी नजर इतनी छोटी है कि इस विस्तार को हम नहीं देख पाते।
अपने घर में आप बैठे हैं अपनी कुर्सी पर, अपने कमरे के भीतर, तो आप
सम्राट मालूम होते हैं। थोड़ा बाहर आइए; फिर फैले हुए इस
विराट आकाश को देखिए, फिर इन चांद—तारों को देखिए, तब आपको अपना अनुपात अलग मालूम पड़ेगा। तब आपके छोटे—से कमरे में आप जो
सम्राट मालूम होते थे, वह अब नहीं मालूम पड़ेंगे। यह छोटे—छोटे
दड़बों में आदमी बंद है, फ्लैट्स में, छोटी—छोटी
कोठरियों में आदमी बंद है, उसकी वजह से उसकी अकड़ बहुत बढ़ गई
है। उसे थोड़ा खुले आकाश के नीचे लाना चाहिए, तो उसे पता चले
कि अपना अनुपात कितना है!
विराट आकाश! और जितना आकाश आपको दिखता है, उतना ही नहीं है, यह तो आपकी आंख
की कमजोरी की वजह से इतना दिखता है। यह आकाश और भी विराट है। तो एक बड़े दूरदर्शी
यंत्र से देखिए। तब आपको दिखाई पड़ेगा कि जितने तारे आपको दिखाई पड़ते हैं, ये तो कुछ भी नहीं हैं। आपने हालांकि सोचा होगा, क्योंकि
हमारी गणना कितनी है! आप रात में तारे देखते हैं? तो कहते
हैं, असंख्य! गलती में मत पड़ना।
आम आंख से आदमी चार हजार तारों से ज्यादा
तारे नहीं देखता। अच्छी से अच्छी आंख चार हजार तारे देखती है, बस। चूंकि आप गिन नहीं पाते, इसलिए
सोचते हैं, असंख्य। लेकिन दूरदर्शक यंत्र से देखिए, तो तीन अरब तारे अब तक देखे जा चुके हैं। लेकिन वे तीन अरब तारे जगत की
सीमा नहीं हैं। जगत उनके भी पार, उनके भी पार, उनके भी पार है। अब वैज्ञानिक कहते हैं, हम कहीं भी
तय न कर पाएंगे कि जगत की सीमा है।
अगर इस असीम का पता चले, तो आपको अपना कमरा और आपका राजा होना उस कमरे में,
कितना मूल्यवान मालूम पड़ेगा? अगर आपको इस अनंत
विस्तार का पता चले, तो पड़ोसी से आपकी एक इंच जमीन के लिए जो
अदालत में मुकदमा चल रहा है, वह मुकदमा कितना मूल्यवान मालूम
पड़ेगा? उसकी कोई रेलिवेंस, उसकी कोई
संगति मालूम नहीं पड़ेगी।
अगर आप पीछे लौटकर देखें, तो अरबों— अरबों लोग इस जमीन पर रहे हैं। वैज्ञानिक
कहते हैं कि जहां आप बैठे हैं, उस जगह पर कम से कम दस
आदमियों की कब्र बन चुकी है, हर जगह पर। जहां आप बैठे हैं,
वहां दस मुर्दे गड़े हैं। इतने आदमी हो चुके हैं कि अगर हम पूरी जमीन
पर भी गड़ाएं, तो हर इंच पर दस मुर्दे गड़ जाएंगे! उनके भी
झगड़े थे, उनकी भी अकड़ थी, उनकी भी
राजनीति थी, उनके भी छोटी—छोटी बातों पर बड़े—बड़े विवाद थे,
वे सब खो गए। आज उनका कोई विवाद नहीं है। कल हमारा भी कोई विवाद
नहीं होगा।
अगर हम इस सातत्य को, इस विस्तार को अनुभव करें, तो
कहां टिकेगा पाप? कहां टिकेगा पाप? कहां
टिकेगा अहंकार? कहां टिकूंगा मैं? वे
सब खो जाएंगे। और उनके खो जाने पर व्यक्ति नहीं बचता, परमात्मा
ही बचता है।
आज इतना ही।
लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट बैठेंगे।
पांच मिनट हमारे संन्यासी कीर्तन में लीन होंगे, उनके साथ आप भी लीन हों। तालियां बजाए। कीर्तन में
भाग लें। कोई भी उठेगा नहीं। यह प्रसाद समझें, और इसको लेकर
जाएं।
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