गीता दर्शन-(भाग-05)-प्रवचन-(116)
अध्याय—10
सूत्र:
एतां विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्वत:।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय:।। 7।।
अहं सर्वस्व प्रभवो मन: सर्वं प्रवर्तते।
ड़ति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्त्रिता।। 8।।
और जो पुरुष इस मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण
विभूति को और योगशक्ति को तत्व से जानता है वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे
में ही एकीभाव से स्थित होता है ड़समें कुछ भी संशय नहीं है।
मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पति का कारण हूं
और मेरे से ही जगत सब चेष्टा करता है हम प्रकार तत्व से समझ कर श्रद्धा और भक्ति
से युक्त हुए बुद्धिमान जन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं।
और जो
पुरुष इस मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण विभूति को और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव
से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
इस सूत्र में प्रवेश के लिए कुछ बातें
प्राथमिक रूप से समझें। जीवन के परम रहस्य को हमने ईश्वर कहा है। जीवन के परम आधार
को हमने ईश्वर कहा है। और रोज हम ईश्वर शब्द का प्रयोग
भी करते हैं। लेकिन शायद हमें खयाल न हो कि ईश्वर
शब्द ऐश्वर्य का ही रूप है। जहां भी ऐश्वर्य प्रकट होता है, जिस आयाम में भी, वहां ईश्वर की
झलक निकटतम हो जाती है।
जब कोई फूल अपने परम सौंदर्य में खिलता है, तो उस परम सौंदर्य का नाम ऐश्वर्य है। और जब कोई
ध्वनि संगीत की आत्यंतिक ऊंचाई को छू लेती है, तो उस ध्वनि
का नाम भी ऐश्वर्य है। और जब कोई आंखें सौंदर्य की गहनतम स्थिति में डूब जाती हैं,
तो उस सौंदर्य का नाम भी ऐश्वर्य है।
ऐश्वर्य का अर्थ है, किसी भी दिशा में और किसी भी आयाम में जो परम उत्कर्ष
है, जो अंतिम सीमा है, जिसके पार नहीं
जाया जा सकता है। चाहे वह सौंदर्य हो, चाहे वह सत्य हो,
चाहे वह शिवम् हो, कोई भी हो आयाम, लेकिन जहां जीवन अपनी अत्यंत आत्यंतिक स्थिति को छू लेता है, अपने परम शिखर को पहुंच जाता है, गौरीशंकर को छू
लेता है, वहां ईश्वर निकटतम प्रकट होता है।
ईश्वर तो सब जगह छिपा है, उस पत्थर में भी जो रास्ते के किनारे पड़ा है। लेकिन
वही पत्थर जब एक सुंदर मूर्ति बन जाता है, तब उससे प्रकट
होना उसे आसान हो जाता है। ईश्वर तो कण—कण में है, लेकिन
उसके दो रूप हैं। छिपा हुआ रूप, गुप्त रूप, जब वह दिखाई नहीं पड़ता और अनुभव में नहीं आता; और
उसका प्रकट रूप, जब उसकी अभिव्यक्ति होती है और वह दिखाई
पड़ता है। ऐश्वर्य का अर्थ है, जीवन के परम रहस्य की
अभिव्यक्ति, उसका एक्सप्रेशन, उसकी
अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा।
कृष्ण ने इस सूत्र में कहा है कि जो पुरुष
मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण विभूति को......।
हम सभी सुनते हैं और कहते भी हैं कि सब
जगह ईश्वर छिपा है, लेकिन बड़े आश्चर्य की बात
है कि जब भी उस ईश्वर की परम विभूति प्रकट होती है, तो हम
उसे नहीं पहचान पाते हैं। जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, वे
भी कहते थे, कण—कण में ईश्वर छिपा है, लेकिन
जीसस को वे न पहचान पाए। जिन लोगों ने बुद्ध को पत्थर मारे, वे
लोग भी कहते थे कि कण—कण में परमात्मा का वास है, लेकिन
बुद्ध को वे न पहचान पाए। जिन्होंने महावीर के कानों में खीले ठोक दिए, वे भी सोचते थे कि परमात्मा तो सब जगह छिपा है, लेकिन
महावीर में उन्हें वह परमात्मा दिखाई न पड़ा।
यह बहुत आश्चर्य की बात है कि जो लोग
मानते हैं कि सब जगह छिपा है, वे
भी जब उसकी परम अभिव्यक्ति होती है, तो न केवल उसे नहीं
पहचान पाते, बल्कि उसके विपरीत खड़े हो जाते हैं। निश्चित ही,
इनका कहना सिर्फ कहना ही होगा; इन्होंने जाना
नहीं है, इन्होंने पहचाना नहीं है। अन्यथा जीसस को सूली लगनी
असंभव थी, क्योंकि वह परमात्मा को ही सूली है। अन्यथा बुद्ध
को पत्थर मारे जाने असंभव थे, क्योंकि वे परमात्मा को ही
मारे गए पत्थर हैं।
और मजे की बात तो यह है कि पत्थर में भी
परमात्मा छिपा है, लेकिन उसे कोई पत्थर
मारने नहीं जाता है। लेकिन बुद्ध में जब परमात्मा प्रकट होता है, तो लोग पत्थर मारने पहुंच जाते हैं! जहां परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता,
वहां शायद हम पूजा भी कर लें, लेकिन जहां
परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहां हम शत्रु हो जाते हैं। जरूर
कुछ गहरा कारण होगा। और गहरा कारण समझने जैसा है।
जहां परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, वहां हम कितना ही कहें कि परमात्मा है, हम उस परमात्मा से बड़े बने रहते हैं और हमारे अहंकार को कोई बाधा नहीं
पहुंचती। लेकिन जब परमात्मा अपने परम ऐश्वर्य में प्रकट होता है कहीं भी, तो हमारे अहंकार को चोट लगनी शुरू होती है। हम छोटे पड़ जाते हैं, हम नीचे हो जाते हैं।
तो हम पत्थर की मूर्ति पूज सकते हैं, लेकिन जीवित बुद्ध को हम पत्थर मारेंगे ही। फिर हम
मरे हुए जीसस के आस—पास बड़े—बड़े चर्च और बड़े कैथेड्रल खड़े कर सकते हैं, लेकिन जीसस को तो हम सूली देंगे ही। जीसस में पहचानना तो तभी संभव है,
जब हम कृष्ण के इस सूत्र को समझ जाएं, कि जो
व्यक्ति तत्व से मेरे परम ऐश्वर्य को पहचानता है!
मान लेना परंपरा से, तत्व से पहचानना नहीं है। मान लेना सुनकर, संस्कार से, तात्विक पहचान नहीं है। क्योंकि वह.
पहचान हमारी क्षणभर में डगमगा जाती है। और सबसे ज्यादा वहां डगमगाती है, जहां परमात्मा का ऐश्वर्य प्रकट होता है।
कृष्ण को आज भगवान मान लेना बहुत आसान है।
कृष्ण की मौजूदगी में भगवान मानना बहुत कठिन था। कृष्ण की गैर—मौजूदगी में भगवान
मान लेने में कोई अड़चन नहीं है, क्योंकि
हमारे अहंकार को कोई भी पीड़ा, कोई तुलना नहीं होती। लेकिन
कृष्ण की मौजूदगी में भगवान मानना बहुत कठिन है।
शायद अर्जुन भी मन के किसी कोने में कृष्ण
को भगवान नहीं मान पाता होगा। शायद अर्जुन के मन में भी कहीं न कहीं किसी अंधेरे
में छिपी हुई यह बात होगी कि कृष्ण आखिर कर मेरे सखा हैं, मेरे मित्र हैं, और फिलहाल तो
मेरे सारथी हैं! किन्हीं ऊंचाई के क्षणों में मन के भला लगता हो कि कृष्ण अद्वितीय
हैं, लेकिन अहंकार के क्षण में तो लगता होगा कि मेरे ही जैसे
हैं।
अगर अर्जुन भी मान पाता कि कृष्ण भगवान
हैं, तो शायद इतनी चर्चा की कोई
जरूरत भी न थी। इतना समझाना पड़ रहा है उसे कृष्ण को, उसका
कारण यही है। उसका कारण यही है। कृष्ण जो कह रहे हैं, इसके
लिए भी कृष्ण को तर्क देने पड़ रहे हैं, क्योंकि अर्जुन की
समझ—कृष्ण जो कह रहे हैं, वह परमात्मा का वचन है—ऐसी नहीं
है। एक मित्र की सलाह है। तो विवाद जरूरी है, चर्चा जरूरी है।
और राजी हो जाए चर्चा से, तो ठीक है, मान
भी लेगा। लेकिन परमात्मा की आवाज हो, तो फिर सोचने—विचारने
का उपाय नहीं रह जाता। फिर सोचना—विचारना गिर ही गया।
कृष्ण का अर्जुन से यह कहना महत्वपूर्ण
है कि जो मेरे परम ऐश्वर्य को तत्व से जान पाता है!
यह परम ऐश्वर्य बहुत रूपों में प्रकट होता
है। अगर ठीक से समझें, तो ऐश्वर्य के सभी रूप
परमात्मा के रूप हैं। और जहां भी श्रेष्ठतर दिखाई पड़े, दिशा
वह कोई भी हो, वहां परमात्मा पारदर्शी हो जाता है। चाहे कोई
एक संगीतज्ञ अपने संगीत की ऊंचाई को छूता हो। और चाहे कोई एक चित्रकार अपनी कला की
अंतिम सीमा को स्पर्श करता हो। चाहे कोई बुद्ध अपने मौन में डूबता हो। चाहे कोई भी
हो दिशा, जहां भी अभिजात्य है, जहां भी
जीवन किसी अभिजात्य को छूता है, वहीं परमात्मा अपनी सघनता
में प्रकट होता है और पारदर्शी हो जाता है, ट्रांसपैरेंट हो
जाता है।
नीचे भी वही है; हमारे पैरों के नीचे भी जो जमीन है, वहां भी वही है, लेकिन वहां उसे देखना बहुत मुश्किल
होगा। वहां हम मान भी लें, तो भी देखना मुश्किल होगा। आसान
होगा कि हम आंखें उठाएं और आकाश के तारों की विभूति में उसे देखें। वहां आसान होगा।
लेकिन हमें कठिनाई है। हम पैर के नीचे की
जमीन में मान लें, लेकिन आकाश के तारों में
मानना बहुत मुश्किल हो जाता है। जो भी हमसे ऊपर है, उसे
मानना बहुत मुश्किल हो जाता है। जो हमसे नीचे है, उसे हम मान
भी लें, क्योंकि उसे मानकर भी हम ऊपर बने रहते हैं।
इसलिए यह दुर्घटना मनुष्य के इतिहास में
घटी कि हमने क्षुद्र लोगों को मान लिया है। मंदिर के पुजारी को मानना बहुत कठिन
नहीं है, लेकिन अगर मंदिर की
मूर्ति जीवित हो जाए, तो पूजा करने वाले ही दुश्मन हो जाते
हैं!
दोस्तोवस्की ने एक छोटी—सी कथा लिखी है।
लिखा है कि जीसस के मरने के अठारह सौ वर्ष बाद जीसस को खयाल आया कि मैं पहले जो
गया था जमीन पर, तो बेसमय पहुंच गया था।
वह ठीक वक्त न था, लोग तैयार न थे और मुझे मानने वाला कोई भी
न था। मैं अकेला ही पहुंच गया था। और इसलिए मेरी दुर्दशा हुई; और इसलिए लोग मुझे स्वीकार भी न कर पाए, समझ भी न
पाए। और लोगों ने मुझे सूली दी, क्योंकि लोग मुझे पहचान ही न
सके। अब ठीक वक्त है। अगर मैं अब वापस जमीन पर जाऊं, तो आधी
जमीन तो ईसाइयत के हाथ में है। हर गांव में मेरा मंदिर है। जगह— जगह मेरे पुजारी
हैं। जगह—जगह मेरे नाम पर घंटी बजती है, और जगह—जगह मेरे नाम
पर मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। आधी जमीन मुझे स्वीकार करती है। अब ठीक वक्त है,
मैं जाऊं।
और जीसस यह सोचकर एक रविवार की सुबह
बैथलहम, उनके जन्म के गांव में
वापस उतरे। सुबह है। रविवार का दिन है। लोग चर्च से बाहर आ रहे हैं। प्रार्थना
पूरी हो गई है। और जीसस एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए हैं। उन्होंने सोचा है कि आज
वह अपनी तरफ से न कहेंगे कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं। क्योंकि पहले एक दफा कहा था,
बहुत चिल्लाकर कहा था कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं; मैं ईश्वर का पुत्र हूं मैं तुम्हारे लिए संदेश लेकर आया परम जीवन का,
और जो मुझे समझ लेगा, वह मुक्त हो जाएगा,
क्योंकि सत्य मुक्त कर देता है। लेकिन इस बार, अब तो वे लोग मुझे वैसे ही पहचान लेंगे, घर—घर में
तस्वीर है। अब तो कोई जरूरत न होगी मुझे घोषणा करने की। वे चुपचाप खड़े रहे।
लोगों ने पहचाना जरूर, लेकिन गलत ढंग से पहचाना। भीड़ इकट्ठी हो गई, और लोग हंसने लगे, और मजाक करने लगे। और किसी ने कहा
कि बिलकुल बन—ठन कर खड़े हो! बिलकुल जीसस जैसे ही मालूम पड़ते हो! खूब स्वांग रचा
है! अभिनेता कुशल हो, जरा भी भूल—चूक निकालनी मुश्किल है!
जीसस को कहना ही पड़ा कि तुम गलती कर रहे
हो। मैं कोई अभिनय नहीं कर रहा हूं। मैं वही जीसस क्राइस्ट हूं जिसकी तुम पूजा
करके बाहर आ रहे हो। तो लोग हंसने लगे और उन्होंने कहा कि जल्दी से तुम यहां से
भाग जाओ, इसके पहले कि मंदिर का
प्रधान पुरोहित बाहर निकले। नहीं तो तुम मुसीबत में पड़ोगे। और रविवार का दिन है,
चर्च में बहुत लोग आए हुए हैं, व्यर्थ
तुम्हारी मारपीट भी हो जा सकती है। तुम भाग जाओ।
जीसस ने कहा, क्या कहते हो, ईसाई होकर! पहली
दफा जब मैं आया था, तो यहूदियों के बीच में आया था, कोई ईसाई न था; तो मुझे कोई पहचान न सका। यह
स्वाभाविक था। लेकिन तुम भी मुझे नहीं पहचान पा रहे हो!
और तभी पादरी आ गया। चर्च के बाहर और लोग
आ गए और बाजार में भीड़ लग गई। जीसस पर जो लोग हंस रहे थे, वे जीसस के पादरी के चरणों में झुक—झुक कर नमस्कार
करने लगे! लोग जमीन पर लेट गए। बड़ा पादरी! बड़ा पुरोहित मंदिर के बाहर आया है!
जीसस बहुत चकित हुए। फिर भी जीसस के मन
में एक आशा थी कि लोग भला न पहचान पाएं, लेकिन मेरा पुजारी तो पहचान ही लेगा! लेकिन पादरी के जब लोग चरण छू चुके,
और उसने आंखें ऊपर उठाकर देखा, तो कहा कि
बदमाश को पकड़ो और नीचे उतारो! यह कौन शरारती आदमी है? जीसस
एक बार आ चुके, और अब दुबारा आने का कोई सवाल नहीं है।
लोगों ने जीसस को पकड़ लिया। जीसस को अठारह
सौ साल पहले का खयाल आया। ठीक ऐसे ही वे तब भी पकडे गए थे। लेकिन तब पराए लोग थे
और तब समझ में आता था। लेकिन अब अपने ही लोग पकडेंगे, यह भरोसे के बाहर था। और जीसस को जाकर चर्च की एक
कोठरी में ताला लगाकर बंद कर दिया गया। आधी रात किसी ने दरवाजा खोला, कोई छोटी—सी लालटेन को लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ। जीसस ने उस अंधेरे में
थोड़े से प्रकाश में देखा, पादरी है, वही
पुरोहित!
उसने लालटेन एक तरफ रखी, दरवाजा बंद करके ताला लगाया। फिर जीसस के चरणों में
सिर रखा और कहा कि मैं पहचान गया था। लेकिन बाजार में मैं नहीं पहचान सकता हूं।
तुम हो पुराने उपद्रवी! हमने अठारह सौ साल में किसी तरह व्यवसाय ठीक से जमाया है।
अब सब ठीक चल रहा है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं; हम तुम्हारा काम कर रहे हैं। तुम हो पुराने उपद्रवी! अगर तुम वापस आए,
तो तुम सब अस्तव्यस्त कर दोगे, तुम हो पुराने
अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब नियम भ्रष्ट हो जाएंगे। और तुम फिर परम
जीवन की बात कहोगे, और लोग स्वच्छंद हो जाएंगे। हमने सब ठीक—ठीक
जमा लिया है, अब तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं है। अब तुम्हें
कुछ भी करना हो, तो हमारे द्वारा करो। हम तुम्हारे और मनुष्य
के बीच की कड़ी हैं। तो मैं तुम्हें भीड़ में नहीं पहचान सकता हूं। और अगर तुमने
ज्यादा गड़बड़ की, तो मुझे वही करना पड़ेगा, जो अठारह सौ साल पहले दूसरे पुरोहितों ने तुम्हारे साथ किया था। हम मजबूर
हो जाएंगे तुम्हें सूली पर चढ़ाने को। तुम्हारी मूर्ति की हम पूजा कर सकते हैं और
तुम्हारे क्रास को हम गले में डाल सकते हैं, और तुम्हारे लिए
बड़े मंदिर बना सकते हैं, और तुम्हारे नाम का गुणगान कर सकते
हैं, लेकिन तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है।
जब भी ईश्वर अपने परम ऐश्वर्य में कहीं
प्रकट होगा, तब उसकी मौजूदगी खतरनाक
हो जाती है। वे जो हमारे क्षुद्र अहंकार हैं, उन क्षुद्र
अहंकारों को बड़ी पीड़ा शुरू हो जाती है। जब भी विराट ईश्वर सामने होता है, तो हमारा क्षुद्र अहंकार बेचैन हो जाता है। हम मरे हुए ईश्वर को पूज सकते
हैं, जीवित ईश्वर को पहचानना मुश्किल है।
कृष्ण का यह सूत्र कीमती है। इसमें
ऐश्वर्य शब्द को ठीक से पहचान लेना। और जहां भी, जहां भी कोई झलक मिले उसकी, जो पार है, दूर है, तो उसे प्रणाम करना, उसे
स्वीकार करना।
पदार्थ में भी झलक मिलती है उसकी। फूल
पदार्थ ही है। लेकिन जीवंत होकर जब खिलता है, तो पदार्थ के पार जो है, उसकी खबर आती है उसमें।
वीणा भी पदार्थ है। लेकिन जब कोई गहरे प्राणों से उसके तारों को छूता है, तो उन स्वरों में भी उसका ही स्वर आता है।
जहां भी कोई चीज श्रेष्ठता को छूती है, अभिजात्य को छूती है, वहीं उसकी
झलक मिलनी शुरू हो जाती है। लेकिन उतनी ऊंची आंखें उठाना हमें बड़ा मुश्किल है।
मंसूर को सूली लगी, और मैसूर के लोगों ने हाथ—पैर काट डाले। क्योंकि
मंसूर ने कहा कि मैं परमात्मा हूं। और जब मैसूर को सूली पर लटकाया गया और उसके पैर
काट डाले गए, .तो एक आदमी ने मंसूर की तरफ आंख उठाकर देखा।
यह थोड़ी बारीक घटना है। भीड़ इकट्ठी थी। एक
लाख आदमी थे सूली देने को। सूली देने में हमारी इतनी उत्सुकता है, जिसका हिसाब नहीं! दूर—दूर से लोग चलकर आए थे। और उस
आदमी का कसूर कुल इतना था कि उसने घोषणा की थी कि मैं मिट गया हूं और केवल
परमात्मा है। उसकी घोषणा में इतनी ही गलती थी कि उसने परम ऐश्वर्य को घोषित किया
था। और उस आदमी में था। उसकी आंखों में थी बात। उसके हृदय में थी बात।
और जब कोई मैसूर से कहता था कि तुम अपने
को ईश्वर कहते हो! तो मंसूर कहता था, जब तक मैं था, तब तक तो मैंने अपने को आदमी भी नहीं
कहा। जब से मैं नहीं रहा हूं तब से ही मैंने कहा है कि ईश्वर हूं। मैं नहीं हूं
ईश्वर ही है। लेकिन लोग कहते कि सब बातें हैं।
भीड़ इकट्ठी थी, लेकिन कम ही लोगों की आंखें ऊपर की तरफ थीं, जहां मैसूर के गले में सूली लगने वाली थी। लोग तो नीचे पत्थर उठा रहे थे
झुके हुए; पत्थर मारने की तैयारियां कर रहे थे।
एक आदमी ने मैसूर की तरफ देखा तो चकित हुआ, क्योंकि उसके ओंठों पर मुस्कुराहट थी। और मैसूर बड़े
आनंद से भरा था। तो उस आदमी ने पूछा कि मैसूर, तुम किस आनंद
से भरे हो? तो मैसूर ने जो कहा था, उसे
मैं बहुत धीरे से आपसे कहता हूं। मैसूर ने कहा, मैं इसलिए
खुश हो रहा हूं कि शायद मुझे देखने को ही तुम्हारी आंखें थोड़ा ऊपर उठ सकें। सूली
लंबी है, शायद मुझे देखने को ही तुम्हारी आंखें थोड़ी ऊपर उठ
सकें। इस बहाने ही सही, तुम एक बार ऊपर देख सको, तो मेरा सूली लगना भी सार्थक हुआ। लेकिन पता नहीं, वे
लोग समझ पाए कि नहीं समझ पाए। क्योंकि यह तो बडी प्रतीक की बात थी। हम ऊपर देखने
के आदी ही नहीं हैं। हमारी आंखें जमीन में गड़ गई हैं। हमारी आंखें जमीन की कशिश से
बंध गई हैं। ऊपर उठाने में हमें आंखों को बड़ी पीड़ा होती है। क्षुद्र को देखकर हम
बड़े प्रसन्न होते हैं। उससे हमारी बड़ी सजातीयता है। श्रेष्ठ को देखकर हम बड़े बेचैन
होते हैं। उससे हम अपना कोई समझौता नहीं कर पाते, उसके साथ
हमें बड़ी अड़चन होने लगती है।
नीत्शे ने कहा है कि अगर कहीं कोई ईश्वर
है, तो मैं उसे तभी बर्दाश्त कर सकता
हूं, जब उसी के बराबर के सिंहासन पर मैं भी विराजमान होऊं।
और अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं इनकार करता ही रहूंगा तब
तक, जब तक कि मैं भी उसी ऊंचाई पर न बैठ जाऊं।
इसलिए श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन
हो जाता है।
यही तो कठिनाई है। अगर कोई आदमी आपसे आकर
कहे कि फलां आदमी असाधु है, बेईमान है, चोर है, तो हम बड़ी प्रफुल्लता से स्वीकार कर लेते
हैं। कोई आकर कहे कि फलां आदमी साधु है, सज्जन है, संत है, तो कभी आपने खयाल किया है कि आपके भीतर
स्वीकार का भाव बिलकुल नहीं उठता। आप कहते हैं कि तुम्हें पता नहीं होगा अभी,
पीछे के दरवाजों से भी पता लगाओ कि वह आदमी साधु है? क्योंकि हमने बहुत साधु देखे हैं। तुमने सुन लिया होगा किसी से। कोई दलाल,
कोई एजेंट तुम्हें मिल गया होगा साधु का, उसने
तुमसे प्रशंसा कर दी। जरा सावधान रहना। इस तरह के जाल में मत फंस जाना।
अगर हम यह न भी कहें, तो यह भाव हमारे भीतर होता है। अगर यह भाव हमें पता
भी न चले, तो भी हमारे भीतर होता है। कोई श्रेष्ठ है,
इसे स्वीकार करने में बड़ी बेचैनी है। कोई निकृष्ट है, इसे स्वीकार करने में बड़ी राहत है।
जब हमें पता चलता है कि दुनिया में बहुत
बेईमानी हो रही है, चोरी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, तो हमारी छाती फूल जाती है। तब
हमें लगता है, कोई हर्ज नहीं, कोई मैं
ही बुरा नहीं हूं सारी दुनिया बुरी है। और इतने बुरे लोगों से तो मैं फिर भी बेहतर
हूं। रोज लोग अखबार पढ़ते हैं, उसमें पहले वे देखते हैं,
कहां हत्या हो गई, कहां चोरी हो गई, कौन किस की स्त्री को लेकर भाग गया है। तब वे छाती फुलाकर बैठते हैं कि
मैं बेहतर हूं इन सबसे। किसी की स्त्री को भगाने की योजना तो मैं भी करता हूं
लेकिन कार्यरूप में कभी नहीं लाता! हत्या करने का मेरे मन में भी कई बार विचार
उठता है, लेकिन सिर्फ विचार है। ऐसे तो मैंने किसी को कभी
कंकड़ भी नहीं
मारा। ऐसे चोरी तो मेरे .मन में भी आती है, लेकिन सपनों में ही आती है; बस्तुत:
मैं चौर हूं।
अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं आता। इसलिए अखबार साधुओं की
कोई खबर नहीं दे सकते, क्योंकि उनको पढ़ने में किसी की कोई
उत्सुकता नहीं है। अखबारों को चोरों को खोजना पड़ता है, बेईमानों
को खोजना पड़ता है, हत्यारों को, बीमारों
को, रूण—विक्षिप्तो को खोजना पड़ता है। इसलिए अखबार अगर
निन्यानबे प्रतिशत राजनीतिज्ञों की खबरों से भरा रहता है, तो
उसका कारण है, क्योंकि राजनीति में निन्यानबे प्रतिशत चोर और
बेईमान और सब हत्यारे इकट्ठे हैं।
लेकिन हमें क्यों रस आता है इतना?
आप भागे चले जा रहे हैं दफ्तर। और रास्ते
पर दो आदमी छुरा लेकर लड़ने खड़े हो जाएं, तो आप भूल गए दफ्तर! साइकिल टिकाकर आप भीड़ में खड़े हो जाएंगे। और अगर झगड़ा
ऐसे ही निपट जाए; कोई बीच में आकर छुड़ा दे, तो आप बड़े उदास लौटेंगे कि कुछ भी नहीं हुआ। कुछ होने की घड़ी थी, एक्साइटमेंट था, उत्तेजना थी, रस
आने के करीब था। कुछ होता; लेकिन कुछ भी नहीं हुआ! कोई नासमझ
बीच में आ गया और सब खराब कर दिया। इतना बुराई को देखने का इतना रस क्यों है?
बुराई में इतनी उत्सुकता क्यों है?
उसका कारण है। जब भी हमें कोई बुरा दिखाई
पड़ता है, हम बड़े हो जाते हैं। जब
भी हमें कोई भला दिखाई पड़ता है, हम छोटे हो जाते हैं।
लेकिन जो बड़े को देखने में असमर्थ है, वह परमात्मा को समझने में असमर्थ हो जाएगा। इसलिए
जहां भी कुछ बड़ा दिखाई पड़ता हो, श्रेष्ठ दिखाई पड़ता हो,
कोई फूल जो दूर आकाश में खिलता है बहुत कठिनाई से, जब दिखाई पड़ता हो, तो अपने इस मन की बीमारी से
सावधान रहना। परम ऐश्वर्य को कोई समझ पाए, तो ही आगे गति हो
सकती है।
दूसरा शब्द कृष्ण ने कहा है, और मेरी योगशक्ति को।
यह थोड़ा कठिन है। क्योंकि आदमी के लिए योग
तो अर्थपूर्ण है, क्योंकि योग का अर्थ होता
है, वह शक्ति, जो व्यक्ति को परमात्मा
से जोड़ दे। इसे थोड़ा समझें। योग का अर्थ है आदमी के लिए, क्योंकि
योग का अर्थ है, वह जोड्ने वाली शक्ति, जो परमात्मा से जोड़ दे व्यक्ति को, जो क्षुद्र को
विराट से जोड़ दे, जो बूंद को सागर से जोड़ दे। लेकिन परमात्मा
की योगशक्ति क्या होगी? आदमी की योग की प्रक्रिया समझ में
आती है, कि आदमी योग साधे और परमात्मा को उपलब्ध हो जाए।
लेकिन परमात्मा की तरफ से योगशक्ति क्या होगी?
ठीक विपरीत शक्ति परमात्मा की तरफ से
योगशक्ति है। जिसके द्वारा परमात्मा की विराटता क्षुद्रता से जुड़ी होती है, और जिसके द्वारा सागर बूंद से जुड़ा होता है।
कबीर ने कहा है कि मेरी बूंद सागर में गिर
गई, अब मैं उसे कैसे खोजूं!
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।
बूंद खो गई सागर में, उसे कैसे निकालूं वापस। और कबीर खोजते—खोजते खुद ही
खो गया। खोजने निकला था प्रभु को, खुद खो गया। बूंद उसके
सागर में गिर गई। अब मैं उस बूंद को कैसे वापस पाऊं!
यह पहला वक्तव्य है। लेकिन कबीर ने तत्काल
दूसरा वक्तव्य इसी के नीचे लिखा है और उसमें लिखा है
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरा जाई।।
खोजते—खोजते कबीर खो गया। और यह तो बड़ी
मुश्किल हो गई। पहले तो मैंने समझा था, बूंद सागर में गिर गई, अब उसे कैसे वापस पाऊं! अब
मैं पाता हूं कि यह तो सागर ही बूंद में गिर गया, अब मैं
बूंद को कैसे वापस पाऊं!
बूंद सागर में गिरती है, वह हमारा योगशास्त्र है। और जब सागर बूंद में गिरता
है, तब वह भगवान का योग, वह भगवान की
योगशक्ति है।
निश्चित ही, मिलन तो दो का होता है। यात्रा दो तरफ से होगी। एक यात्रा के संबंध में
हमने सुना है कि आदमी परमात्मा की तरफ जाता है। एक और भी यात्रा है, जिसमें परमात्मा आदमी की तरफ आता है। सच तो यह है कि हम एक कदम चलते हैं
परमात्मा की तरफ, तो तत्काल परमात्मा का एक कदम हमारी तरफ उठ
जाता है। यह संतुलन कभी नहीं खोता। जितना आप बढ़ते हैं, उतना
परमात्मा आपकी तरफ बढ़ आता है।
आप यह मत सोचना कि जब परमात्मा से मिलना
होता है, तो परमात्मा के घर में
होता है। बिलकुल नहीं। यह बीच यात्रा में होता है। आप चलकर पहुंचते हैं कुछ,
परमात्मा चलकर आता है कुछ, और ठीक बीच में यह
मिलन होता है।
आप ही मिलने को आतुर हैं परम से, ऐसा अगर होता, तो जीवन बड़ा
साधारण होता। परम भी आतुर है आपसे मिलने को। वही जीवन का रस और आनंद है। अगर आदमी
ही परमात्मा की तरफ दौड़ रहा है और यह वन वे ट्रैफिक है, एक
ही तरफ से यात्रा होती हो, और परमात्मा जरा भी उत्सुक नहीं
है आदमी के भीतर आने को, तो आप परमात्मा से मिल भी जाते,
तो भी तृप्ति न होती, क्योंकि यह प्रेम एकतरफा
होता।
नहीं, जितने आतुर आप हैं, उतना ही आतुर परमात्मा भी है।
सागर भी उतना ही आतुर है सरिता से मिलने को, जितनी सरिता
आतुर है सागर से मिलने को। ये प्रेम की धाराएं दोनों तरफ से प्रवाहित हैं।
वह जो परमात्मा के मिलने की शक्ति है, उस शक्ति का नाम यहां योगशक्ति है।
इसके तो बहुत अर्थ होंगे। इससे तो पूरा एक
जीवन—दर्शन विकसित होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जब आप परमात्मा की तरफ चलते हैं..।
सूफी फकीरों में कहावत है कि उसे खोजने तब तक कोई नहीं निकलता, जब तक वह खुद ही उसे खोजने न निकल आया हो। कहावत है
कि परमात्मा की तरफ तब तक कोई नहीं चलता, जब तक कि परमात्मा
ने ही साधक की तरफ चलना शुरू न कर दिया हो। कहावत है कि प्यास ही नहीं जगती,
जब तक उसकी पुकार न आ गई हो।
सूफी फकीर हुआ झुनून, इजिप्त में हुआ। कहा है झुनून ने अपने संस्मरणों में
कि जब मेरी मुलाकात हुई उस परम शक्ति से— प्रतीक कथा है— कि जब मैं प्रभु से मिला,
तो मैंने प्रभु से कहा कि कितना तुझे मैंने खोजा! तो प्रभु
मुस्कुराए और उन्होंने कहा कि क्या तू सोचता है, तूने ही
मुझे खोजा? काश, तुझे पता हो कि कितना
मैंने तुझे खोजा! और परमात्म शक्ति ने झुनून को कहा कि तूने मुझे खोजना ही तब शुरू
किया, जब मैं तुझे खोजना शुरू कर चुका था। क्योंकि अगर मैं
ही तुझे खोजने न निकलूं तो तू मुझे खोजने में कभी समर्थ न हो सकेगा!
अज्ञानी कैसे खोज पाएगा? नासमझ कैसे खोज पाएंगे? जिन्हें
कुछ भी पता नहीं है, जिन्हें यह भी पता नहीं है कि वे खुद
कौन हैं, वे कैसे खोज पाएंगे? अगर यह
परम विराट ऊर्जा भी साथ न दे रही हो इस खोज में, अगर उसका भी
हाथ न हो इसमें, अगर उसका भी सहारा न हो, अगर उसका भी इशारा न हो, तो यह खोज न हो पाएगी।
इसलिए धर्म व्यक्ति से परमात्मा की तरफ
संबंध का नाम ही नहीं है। धर्म व्यक्ति से परमात्मा की तरफ और परमात्मा से व्यक्ति
की तरफ संवाद, मिलन, आलिंगन का संबंध है। यह खोज इकतरफा नहीं है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, तत्व से जो इसे जान ले कि परमात्मा भी खोज रहा है।
वह भी खोज रहा है। विराट भी आपको पुकार
रहा है। सागर ने भी आह्वान दिया है, आओ! तो बूंद की शक्ति हजार गुना हो जाती है। सामर्थ्य बढ़ जाता है, साहस बढ़ जाता है, यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है।
यात्रा फिर यात्रा ही नहीं रह जाती है, बहुत हलकी हो जाती है,
निर्भार हो जाती है।
अगर विराट भी मुझे खोज रहा है, तो फिर मिलन सुनिश्चित है। अगर मैं ही उसे खोज रहा
हूं तो मिलन सुनिश्चित नहीं हो सकता। मैं क्या खोज पाऊंगा उसको! मेरी सामर्थ्य
क्या? मेरी शक्ति कितनी? लेकिन अगर वह
भी मुझे खोज रहा है, तो मैं कितना ही भटकूं, और कितना ही भूलूं और कितना ही चूकूं, कुछ भी हो जाए,
मिलन होकर रहेगा।
परमात्मा की तरफ से योगशक्ति का अर्थ है, परमात्मा की हमसे मिलने की शक्ति। निश्चित ही,
हम जिस दिन परमात्मा को पा लेंगे, उस दिन हम
कहेंगे कि पा लिया। लेकिन परमात्मा तो अभी भी जानता है कि उसने हमें पाया हुआ है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो बुद्ध को देवताओं ने पूछा कि तुम्हें क्या मिला?
तो बुद्ध ने कहा, मुझे कुछ मिला नहीं। जो मुझे
मिला ही हुआ था, केवल उसका पता चला। जो मेरे पास था ही,
जो मेरी संपत्ति ही थी, मेरे ही भीतर, लेकिन मुझे जिसका कोई स्मरण न था, उसकी स्मृति आई।
तो मुझे कुछ मिला नहीं है, जो मिला ही हुआ था, उसका मुझे पता चला।
परमात्मा से जिस दिन हमारा मिलन होगा, हमें पता चलेगा कि मिलन हुआ। परमात्मा को पता चलने का
कोई कारण नहीं कि मिलन हुआ; मिलन हुआ ही हुआ है। वह हमारे
चारों तरफ मौजूद है। बाहर— भीतर, रोएं—रोएं में, श्वास—श्वास में वह मौजूद है। हम उसमें मौजूद नहीं हैं। वह हममें मौजूद है;
हम उसमें मौजूद नहीं हैं। जैसे अंधा आदमी खड़ा हो सूरज की रोशनी में।
बरसती हो रोशनी चारों तरफ। रोएं—रोएं पर चोट करती हो कि द्वार खोलों। और उस आदमी
को कोई भी पता न हो कि सूरज है। और फिर वह आदमी आंख खोले, और
तब वह पाए कि चारों तरफ सूरज है।
आंख का मिलन हुआ सूरज से। सूरज तो तब भी
मिल रहा था आंख से, भला आंख बंद रही हो। सूरज
तो तब भी द्वार पर ही खड़ा था। सूरज के लिए कोई नई घटना नहीं घट रही है। लेकिन सूरज
भी दस्तक दे रहा था, वह भी द्वार खटखटा रहा था।
परमात्मा के लिए तो हम उसके ही भीतर हैं, लेकिन वह हमारे भीतर नहीं है। जब मैं कहता हूं वह
हमारे भीतर नहीं है, तो यह कोई अस्तित्वगत वक्तव्य नहीं है।
जब मैं कहता हूं, वह हमारे भीतर नहीं है, तो इसका कुल इतना मतलब हुआ कि वह तो हमारे भीतर है, लेकिन
हमें उसके भीतर होने का कोई भी पता नहीं है। यह ज्ञानगत वक्तव्य है।
आपके खीसे में हीरा रखा है। आपको पता नहीं
है। आप सड़क पर भीख मांग रहे हैं। हीरे के होने और न होने में कोई फर्क नहीं है। न
होता, तो भी आप भीख मांगते,
है, तो भी भीख मांग रहे हैं। आप भिखारी हैं।
हीरा आपकी जेब में पड़ा है। हीरा है या नहीं है, बराबर है।
उसके होने, न होने का कोई भी बाजार के मूल्य में फर्क नहीं
है।
लेकिन आपका हाथ खीसे में जाए। कोई आपको
खीसे का पता बता दे। आप हाथ भीतर डालें। हीरा आपको मिल जाए। तो आप यही कहेंगे कि
हीरा मुझे मिला। लेकिन ज्यादा उचित होगा कहना
कि हीरा मेरे पास था, मुझे मिला ही हुआ था, सिर्फ
मुझे पता नहीं था। मुझे स्मरण आया। मुझे पहचान आई। मैंने जाना कि हीरा है। कृष्ण
का अर्थ है यहां कि जो पुरुष मेरी योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह निश्चित हो जाता है। वह जानता है कि परमात्मा में मैं स्थापित ही हूं
मिला ही हुआ हूं। उसका हाथ मेरे हाथ तक आ ही गया है। सिर्फ मुझे मेरे हाथ को
बांधना है, सिर्फ मुझे मेरे हाथ को उसके हाथ में दे देना है।
हाथ उसका दूर नहीं है। उसके हृदय की धड़कन मेरे हृदय की ही धड़कन है। मेरे हृदय की
धड़कन ही उसके हृदय की धड़कन भी है।
ऐसा जो तत्व से जानता है!
यह 'तत्व' शब्द का बहुत प्रयोग कृष्ण जगह—जगह करते हैं,
सिर्फ एक फासला बनाने को कि सुनकर जान लेने से नहीं कुछ होगा। मैंने
आपसे कहा, आपने सुन लिया। एक अर्थ में आपने जान लिया। आप मान
सकते हैं कि ठीक है। मान लिया। लेकिन इससे कुछ भी न होगा। आपकी जिंदगी तो वैसी ही
चलती रहेगी, जैसी तब चलती थी, जब आपने
यह नहीं जाना था। और जिंदगी में कोई फर्क न पड़ेगा। आदमी क्या मानता है, इससे उसके धार्मिक होने का कोई पता नहीं चलता। आदमी कैसा जीता है, इससे उसके धार्मिक होने का पता चलता है।
अठारह सौ सत्तावन में एक मौन संन्यासी को
अंग्रेजों ने छाती में भाला भोंक दिया था, भूल से। नग्न संन्यासी था, मौन था वर्षों से। रास्ते
से गुजर रहा था नाचता हुआ। अंग्रेजों की छावनी पड़ी थी, गदर
का मौसम था, हवा खराब थी। अंग्रेजों के लिए संकट का समय था।
उन्होंने पकड लिया उसे। उससे पूछा, कौन हो? संदिग्ध पाया, क्योंकि न वह आदमी बोले। नाचे जरूर,
हंसे जरूर, बोले नहीं! तो समझा कि कोई जासूस
है और छावनी के इर्द—गर्द कुछ पता लगाने आया है। तो उसकी छाती में भाला मार दिया।
उस संन्यासी ने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि
मरते वक्त एक बार बोलूंगा। छाती में भाला लगा, तो बस एक मौका था उसे जीवन में बोलने का। उसने जो शब्द बोले, वह तत्व से जानता होगा, इसलिए बोले।
उसने उपनिषद के महावचन का उपयोग किया, तत्वमसि श्वेतकेतु। उसने कहा, दैट
आर्ट दाउ श्वेतकेतु। उस अंग्रेज से, जिसने छाती में भाला
भोंका, उससे कहा कि तुम भी परमात्मा हो, श्वेतकेतु। और गिर गया।
मृत्यु के क्षण में जब कोई छुरा भोंक रहा
हो छाती में या भाला भोंक रहा हो, तब
भी उसमें परमात्मा को देखने की क्षमता तत्व से आती है, विश्वास
से नहीं आती। मान लेने से नहीं आती, समझ लेने से नहीं आती,
जान लेने से आती है।
तो एक तो ईश्वर की धारणा है, जो हम समझ लेते हैं बुद्धिगत रूप से, इंटलेक्ट्रअली। उसका बहुत मूल्य नहीं है। एक ईश्वर की प्रतीति है, जो हम संवेदना से जानते हैं, सेसिटिवली। इन थोड़े दो
शब्दों को ठीक से समझ लें—इंटलेज्यूअली, बुद्धि से, संवेदना से, सेसिटिवली, प्रतीति
से।
हवाएं छूती हैं शरीर को, तो अनुभव होता है, वही छू रहा
है। आंख उठती है सूरज की तरफ, तो अनुभव होता है, उसी की रोशनी है। फूल खिलता है, तो लगता है, उसी की सुगंध है। कोई सुंदर चेहरा दिखाई पड़ता है, तो
लगता है, उसी का सौंदर्य है। रोएं—रोएं से, उठते—बैठते, सोते—चलते, जो भी
संवेदना होती है, सभी संवेदनाओं में उसी का संदेश प्रतीत
होता है। तो धीरे— धीरे जीवन के सब द्वार उसी की खबर लाने लगते हैं। और भीतर एक
क्रिस्टलाइजेशन, एक तत्व संगृहीत होता है। और भीतर एक केंद्र,
एक सेंटरिग घटित होती है।
उस जानने को, कृष्ण तत्व से जानना कहते हैं। उस जानने को, तत्व से जानना कहते हैं।
क्या करें इसके लिए? हमारी तो संवेदना बोथली हो गई है, मर गई है। किसी का हाथ भी छूते हैं, तो कुछ पता नहीं
चलता। चमड़ी से चमड़ी भला स्पर्श करती हो, लेकिन चमड़ी के पार
भी कोई चीज छुई जा रही है, इसका पता नहीं चलता।
अभी योरोप और अमेरिका में बड़े व्यापक
पैमाने पर प्रयोग चलते हैं सेसिटिविटी के, संवेदना के। लोग गिरोहों में इकट्ठे होते हैं, एक—दूसरे
के शरीर को छूने और जानने के लिए कि छूने का अनुभव क्या है। उसका प्रशिक्षण चलता
है। आपको मैं थोड़ा—सा कोई उदाहरण दूं तो खयाल में आ जाए।
आप गए हैं जुहू के तट पर, रेत में बैठे हुए हैं। आंख बंद कर लें, रेत को हाथ से छुए, कांशसली। रेत तो बहुत बार छुई है,
बहुत बार उस पर चले हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं रेत की आपको कोई
संवेदना नहीं है। आंख बंद कर लें, शांत हो जाएं, विचार शांत हो जाने दें, फिर रेत को हाथ से छुए।
उसका टेक्सचर, उसको अनुभव करें—क्या है— हाथ से छूकर। उलटे
हाथ से छुए; उसकी ठंडक, उसकी गर्मी,
एक—एक दाने का अलग—अलग भाव। लेट जाएं, सिर रेत
में रख लें। आंखें रेत में गपा दें, बंद आंखें। अनुभव करें आंखों
की पलकों पर— रेत की प्रतीति, रेत का फैलाव, रेत का अस्तित्व। मुट्ठी में बांधें, अनुभव करें।
एक घंटेभर रेत के साथ संवेदना को विकसित
करें। और तब आप पहली दफा अनुभव करेंगे कि रेत में भी बड़े आयाम हैं। उसका भी अपना
होना है। रेत के भी बड़े अनुभव हैं, रेत की भी बड़ी स्मृतियां हैं, रेत का भी बड़ा लंबा
इतिहास है। रेत भी सिर्फ रेत नहीं है। वह भी अस्तित्व की एक दिशा है। और तब बहुत
कुछ प्रतीति होगी। बहुत कुछ प्रतीति होगी।
हरमन हेस ने किताब लिखी है, सिद्धार्थ। उसमें सिद्धार्थ एक पात्र है, वह नदी के किनारे वर्षों रहता है, नदी को अनुभव करता
है। कभी नदी जोर में होती है, तूफान होता है, आधी होती है, तब नदी का एक रूप प्रकट होता है। कभी
नदी शांत होती है, मौन होती है, लीन
होती है अपने में, लहर भी नहीं हिलती है, तब नदी का एक और ही रूप होता है। कभी नदी वर्षा की नदी होती है, विक्षिप्त और पागल, सागर की तरफ दौड़ती हुई, उन्मत्त। तब नदी में एक उन्माद होता है, एक मैडनेस
होती है, उसका भी अपना आयाम है, अपना
अस्तित्व है। और कभी धूप आती है, गर्मी के दिन आते हैं,
और नदी सूख जाती है, क्षीण हो जाती है;
दीन—दुर्बल हो जाती है, पतली, एक नांदी की चमकती धार ही रह जाती है। तब उस नदी की दुर्बलता में,
उस नदी के मिट जाने में कुछ और है।
धीरे—धीरे सिद्धार्थ उस नदी के किनारे
रहते—रहते नदी की वाणी समझने लगता है। धीरे— धीरे नदी के भाव समझने लगता है, मूड समझने लगता है। नदी कब नाराज है, नदी कब खुश है, कब नदी नाचती है और कब नदी उदास होकर
बैठ जाती है! कब दुखी होती है, कब संतप्त होती है, कब प्रफुल्लित होती है, वह उसके सारे स्वाद, उसके सारे अनुभव, नदी की अंतर्व्यथा और नदी का
अंतर्जीवन, नदी की आत्मकथा में डूबने लगता है।
धीरे—धीरे नदी उसके लिए बड़ी शिक्षक हो
जाती है। वह इतना संवेदनशील हो जाता है कि वह पहले से कह सकता है कि आज सांझ नदी
उदास हो जाएगी। वह पहले से कह सकता है कि आज रात नदी नाचेगी। वह पहले से कह सकता
है कि आज नदी कुछ गुनगुना रही है, आज
उसके प्राणों में कोई गीत है। वर्षों—वर्षों नदी के किनारे रहते—रहते, नदी और उसके बीच जीवंत संबंध हो जाते हैं।
तब नदी ही परमात्मा हो जाएगी। इतनी
संवेदना अगर आ जाए, तो अब किसी और परमात्मा
को खोजने जाना न पड़ेगा।
जिन ऋषियों को गंगा में परमात्मा दिखा, वे कोई आप जैसे गंगा के तीर्थयात्री नहीं थे, कि गए, और दो पैसे वहां फेंके, और पंडे से पूजा करवाई, और भाग आए अपने पाप गंगा को
देकर! जिन्होंने
अपने पुण्य गंगा को नहीं दिए, वे गंगा को कभी नहीं जान पाएंगे। पाप भी देकर कहीं
कोई जान पा सकता है?
इसलिए हमारे लिए गंगा एक नदी है। हम कितना
ही कहें कि पवित्र है, हम भीतर जानते हैं कि बस
नदी है। हम कितना ही कहें, पूज्य है, लेकिन
सब औपचारिक है।
लेकिन जिन्होंने वर्षों—वर्षों गंगा के तट
पर रहकर उसके जीवन की धार से अपनी जीवन की धार मिला दी होगी, उनको पता चला होगा। तब किसी भी गंगा के किनारे पता चल
जाएगा। तब किसी खास गंगा के किनारे ही जाने की जरूरत नहीं है, तब कोई भी नदी गंगा हो जाएगी और पवित्र हो जाएगी।
संवेदना— रेत में भी, वृक्ष के पत्ते में भी, फूल में
भी, व्यक्ति के हाथों में भी, लोगों की
आंखों में भी—जीवन को एक संवेदना बनाएं। सब तरफ से जितना ज्यादा जीवन को स्पर्श कर
सकें, उतना स्पर्श करें। इस स्पर्श से आपके भीतर एक केंद्र
का जन्म होगा। वही केंद्र परमात्मा की योगशक्ति को जान पाता है। —उसी केंद्र को
पता चलता है कि जब मैं बहता हूं संवेदना में, और जब मेरे
द्वार खुलते हैं संवेदना के लिए, जब मैं एक नदी के लिए अपने
हृदय के द्वार खोल देता हूं जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए खोल दे या कोई
प्रेयसी अपने प्रेमी के लिए खोल दे, तब एक नदी से भी परमात्मा
का ही आगमन शुरू हो जाता है। और जो व्यक्ति अपनी संवेदना के सभी द्वार खुले रख दे,
उस व्यक्ति को, परमात्मा भी मुझसे मिलने को
आतुर है, इसका पता चलेगा।
बुद्धि से यह पता नहीं चलेगा। बुद्धि बहुत
आशिक घटना है, और बहुत पुरानी और बासी।
संवेदना ताजी, जीवंत घटना है। और मजा यह है किं बुद्धि तो
उधार भी मिल जाती है, संवेदना उधार नहीं मिलती। अगर पानी को
छूकर मैंने जाना है कि वह ठंडा है या गर्म, अगर पानी को छूकर
मैंने जाना है कि मैत्रीपूर्ण है कि मैत्रीपूर्ण नहीं, तो यह
मैं ही जान सकता हूं। पानी की ठंडक या पानी की गर्मी, या
पानी की मैत्री या अमैत्री, मेरा ही अनुभव होगी। यह दूसरे के
अनुभव से मैं नहीं जान सकता हूं।
संवेदनाएं उधार नहीं मिलती। लेकिन बुद्धि
उधार मिल जाती है। हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय बुद्धि को उधार देने का काम कर रहे हैं। बुद्धि उधार मिल जाती है,
शब्द उधार मिल जाते हैं, संवेदनाएं स्वयं जीनी
पड़ती हैं। और इसीलिए तो हम संवेदनाओं से धीरे— धीरे टूट गए। क्योंकि हम इतने उधार
हो गए हैं कि जो उधार मिल जाए, बाजार से खरीदा जा सके, वह हम खरीद लेते है। जो उधार मिल जाए, वह हम ले
लेते हैं, चाहे जिंदगी ही उसके बदले में क्यों न चुकानी पड़े।
लेकिन जो खुद जानने से मिलता है, उतनी झंझट, उतना श्रम कोई उठाने को तैयार नहीं है।
तो हमने धीरे— धीरे जीवन के सब संवेदनशील
रूप खो दिए। और उन्हीं की वजह से हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा भी पुकारता है, वह भी आता है, वह भी हम से
मिलने को आतुर है। चारों तरफ से उसके हाथ हमारी तरफ आते हैं, लेकिन हमें संवेदनहीन पाकर वापस लौट जाते हैं।
परमात्मा की योगशक्ति का अर्थ आपको तभी
पता चलना शुरू होगा, जब आप उसके मिलन की
संभावनाएं जहां—जहां हैं, वहां— वहां अपने हृदय को खोलें।
लेकिन जिसको हम साधक कहते हैं आमतौर से, वह तो और बंद कर लेता है। वह अपनी संवेदनाएं और सिकोड़
लेता है। वह अपने द्वार—दरवाजे और घबड़ाहट से सब तरफ खीलें ठोक देता है कि कहीं से
कुछ भीतर न आ जाए। सौंदर्य देखकर डरता है कि कहीं वासना न जग जाए। सुंदर फूल देखकर
डरता है कि कहीं यह शारीरिक सौंदर्य का स्मरण न बन जाए। गीत सुनने में भयभीत होता
है, क्योंकि गीत की कोई गहरी कड़ी भीतर छिपी किसी वासना को
जगा न दे। संगीत से डरता है। सब तरफ से भयभीत हो जाता है। जिसको हम धार्मिक कहते
हैं, तथाकथित धार्मिक, वह धार्मिक कम,
पैथालाजिकल, रुग्ण ज्यादा है। और सब तरफ से
अपने को बंद कर लेता है।
ठीक धार्मिक तो सब तरफ से अपने को खोल
देगा। ठीक धार्मिक तो जहर में भी अमृत को खोज लेगा। और गलत धार्मिक अमृत में भी
जहर को खोज लेता है। ठीक धार्मिक तो निकृष्ट में भी श्रेष्ठ को अनुभव कर लेगा, और गलत धार्मिक श्रेष्ठ में भी निकृष्ट को ही पकड़
पाता है।
यह हम पर निर्भर करता है। अगर हमारी
संवेदनशीलता प्रगाढ़ है, तीव्र है, तो हम जीवन में कहीं से भी प्रवेश कर सकते हैं। और परमात्मा हममें कहीं से
भी प्रवेश कर सकता है। परमात्मा की विभूति, उसका ऐश्वर्य
हमारे स्मरण में हो, हम उसके ऐश्वर्य को स्वीकार करने की
क्षमता जुटाएं, इतने विनम्र हों कि उसके ऐश्वर्य को स्वीकार
कर सकें और इतने संवेदनशील हों कि उसकी जो योगशक्ति है, वह
भी हमारी प्रतीति का विषय बन सके।
तो कृष्ण ने कहा है, वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव
से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ऐसा जो पुरुष
है, वह निश्चल ध्यान योग द्वारा मुझमें ही एकीभाव से स्थित
हो जाता है, यह निस्संदिग्ध है।
इसमें एक बात है, निश्चल ध्यान योग द्वारा।
व्यक्ति का परमात्मा की तरफ जाने का जो
उपक्रम है, वह जाने जैसा कम और ठहर
जाने जैसा ज्यादा है। व्यक्ति की परमात्मा की तरफ जो यात्रा है, वह दौड़ने जैसी कम और सब भांति रुक जाने जैसी ज्यादा है। इसे थोड़ा ठीक से
समझ लें।
जगत में हम जो भी खोजते हैं, वह दौड़कर खोजते हैं। इसलिए जगत में जो जितनी तेजी से
दौड़ सकता है, उतना सफल होगा। जो दूसरों की लाशों पर से भी
दौड़ सकता है, वह और भी ज्यादा सफल होगा। जो पागल होकर दौड़
सकता है, उसकी सफलता सुनिश्चित हो जाएगी, जगत में। जितनी तेजी से दौड़ेंगे, उतना ज्यादा इस जगत
में आप सफल हो जाएंगे। लेकिन भीतर आप विक्षिप्त और पागल भी हो जाएंगे। ठीक
परमात्मा की तरफ जाने वाली बात बिलकुल दूसरी है। वहां तो जो जितना शांति से खड़ा हो
जाता है, उतना ज्यादा सफल हो जाता है।
जब आप दौड़ते हैं, तो आपका मन भी दौड़ता है। मन दौड़ता है, इसीलिए तो आप दौड़ते हैं। आप तो पीछे जाते हैं मन के, मन बहुत पहले जा चुका होता है। अगर आपको लाख रुपए पाने हैं, तो मन तो पहुंच गया लाख पर, अब आपको दौड़कर यात्रा
पूरी कर लेनी है। मन तो पहुंच चुका, अब आप आ जाएं।
अगर आपको एक बड़ा मकान बनाना है, मन ने बना डाला। अब आप जो और जरूरी काम रह गए करने के,
वे कर डालें और वहां पहुंच जाएं। लक्ष्य तो मन पहले ही पा लेता है,
फिर शरीर. उसके पीछे घसिटता रहता है। और जब आप बड़े महल में पहुंचते
हैं, तब तक आपके मन ने दूसरे बड़े महल आगे बना लिए होते हैं।
इसलिए मन आपको कहीं रुकने नहीं देता, दौड़ाता रहता है।
मन दौड़ता है, इसलिए आप दौड़ते हैं। आपकी दौड़ आपके मन का ही प्रतिफलन
है। जब मन ठहर जाता है, तो आप भी ठहर जाते हैं। परमात्मा में
जिसे जाना है, उसे संसार से ठीक उलटा उपक्रम पकड़ना पड़ता है।
उसे ठहर जाना पड़ता है, उसे रुक जाना पड़ता है।
निश्चल ध्यान योग का अर्थ है, मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई दौड़
नहीं है। मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई भविष्य नहीं है। मन की
ऐसी अवस्था, जहां कोई लक्ष्य नहीं है। मन की ऐसी अवस्था कि
मन कहीं आगे नहीं गया है; यहीं है, अभी,
इसी क्षण, कहीं नहीं गया है। इसका नाम है,
निश्चल ध्यान योग।
आमतौर से लोग सोचते हैं, ध्यान का मतलब है, परमात्मा पर
ध्यान लगाना। अगर आपने परमात्मा पर ध्यान लगाया, तो परमात्मा
तो बहुत दूर है, आपका ध्यान दौड़ेगा; परमात्मा
की तरफ दौड़ेगा, लेकिन दौड़ेगा। और जब तक चित्त किसी भी तरफ
दौड़ता है, तब तक परमात्मा को नहीं जान सकता। एक बहुत
पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी बात है।
जो लोग परमात्मा को पाना चाहते हैं, उन्हें परमात्मा को पाने की चिंता भी छोड़ देनी पड़ती
है। वह चिंता भी बाधा है। वह भी वासना है। आखिरी वासना है, लेकिन
वासना है। तो जो परमात्मा को भी पाने के लिए बेचैन है..। कोई धन पाने के लिए बेचैन
है, कोई यश पाने के लिए बेचैन है, कोई
ईश्वर को पाने के लिए बेचैन है। लेकिन बेचैनी है।
ध्यान रहे, धन मिल सकता है बेचैनी के साथ। यश भी मिल सकता है बेचैनी के साथ। परमात्मा
को पाने की तो पहली शर्त ही यही है कि चैन उन। जाए, भीतर सब
चुप और मौन हो जाए, सब ठहर जाए। ईश्वर को वे पाते हैं,
जो खड़े हो जाते हैं, ठहर जाते हैं, रुक जाते हैं। उलटी बात है। सूत्र बना सकते हैं हम।
संसार में कुछ पाना हो तो दौड़ो; और परमात्मा में कुछ पाना हो तो ठहरो, स्टाप। जहां हो भीतर, वहीं ठहराव हो जाए; कोई चीज दौड़ती न हो, कोई तरंग न उठती हो। बड़ा कठिन
है। हम तरंगें बदल सकते हैं, वह आसान है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम समझे। लेकिन
कुछ सहारा चाहिए! आप कहते हो, धन के बाबत मत सोचो, नहीं सोचेंगे। लेकिन फिर हम क्या सोचें? कुछ सोचने
को दें। तो हम धर्म के बाबत सोचेंगे। आप कहते हैं, हिसाब—किताब,
खाता— बही को भूल जाएं; ठीक। तो हमें कोई
रामायण, कोई महाभारत, कोई गीता,
कुछ हमें पकड़ा दें, हम उसमें लग जाएं। लेकिन
कुछ चाहिए!
ध्यान रहे, खाते—बही में लगा हुआ मन, दूसरा खाता—बही मिल जाए,
तो उसे कोई अड़चन नहीं है; उसमें लग जाएगा। नाम
कुछ भी हो, उसमें लग जाएगा। लेकिन उससे कहो, नहीं, किसी में भी मत लगो। बस, खाली रह जाओ थोड़ी देर। तो बहुत घबड़ाहट होती है कि यह कैसे हो सकता है! यह
कैसे हो सकता है!
एक पागल आदमी पश्चिम की तरफ दौड़ रहा है।
हम उससे कहते हैं, रुक जाओ। व्यर्थ मत दौड़ो।
वह कहता है, मैं रुक सकता हूं पश्चिम की तरफ नहीं दौडूगा;
तो मुझे पूरब की दिशा में दौड़ने दो। मगर दौड़ने दो।
अब पागलपन उसका पश्चिम में दौड़ने के कारण
नहीं है, दौड़ने के कारण है। तो
पूरब में दौड़े, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; कि दक्षिण में दौड़े, कि उत्तर में दौड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन वह पागल यह कहता है कि पश्चिम से दिक्कत होती
है? पश्चिम न दौड़ेंगे! पूरब दौड़ने दो, दक्षिण
दौड़ने दो, उत्तर दौड़ने दो। कहीं भी दौड़ने दो। पूरब को छोड़
देते हैं, लेकिन दौड़ को नहीं छोड़ सकते।
पागलपन दौड़ में है, पूरब में नहीं है। धन में पागलपन नहीं है, ध्यान रहे। इसलिए जनक जैसा आदमी धन के बीच भी गैर—पागल हो सकता है। धन में
कोई पागलपन नहीं है। यश में भी कोई पागलपन अपने में नहीं है। पागलपन दौड़ में है।
धन का पागल जब कभी—कभी धन से ऊब जाता है— और सभी चीजों से जिंदगी में हम ऊब जाते
हैं— धन हो गया, हो गया, दौड़ भी हो गई,
तो वह कहता है, अब धर्म के लिए दौड़ेंगे,
लेकिन दौड़ेंगे जरूर।
दुनिया के तर्क अंत तक पीछा करते हैं। दौड़
एक तर्क है, कि सब चीजें दौड़कर पाई जा
सकती हैं। कोई चीज ऐसी भी है, जो दौड़ छोड्कर पाई जा सकती है,
वह हमारे तर्क का हिस्सा नहीं है।
परमात्मा अगर कहीं और होता, तो आपको दौड़कर मिल जाता। लेकिन परमात्मा वहीं है,
जहां आप हैं। इसलिए दौड़कर वह नहीं मिलेगा। दूसरे को पाना हो,
तो दौड़कर पा सकते हैं। खुद को पाना हो, तो
दौड़कर कैसे पाइका! खुद को पाने के लिए दौड़ बिलकुल बेमानी है, पागलपन की बात है।
इसलिए झेन फकीर हुवांग पो ने कहा है कि जो
ईश्वर को खोजने निकलेगा, वह खो देगा। निकलना ही मत
खोजने।
बुद्ध घर लौटे। रवींद्रनाथ ने एक बहुत
व्यंग्य—कथा लिखी है, एक व्यंग्य—गीत लिखा है।
बुद्ध घर लौटे। यशोधरा नाराज थी। छोड्कर, भागकर चले गए थे।
गुस्सा स्वाभाविक था। और बुद्ध इसीलिए घर लौटे कि उसको एक मौका मिल जाए। बारह वर्ष
का लंबा क्रोध इकट्ठा है, वह निकाल ले। तो एक ऋण ऊपर है,
वह भी छूट जाए।
बुद्ध वापस लौटे। तो रवींद्रनाथ ने अपने
गीत में यशोधरा द्वारा बुद्ध से पुछवाया है; और बुद्ध को बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। यशोधरा से पुछवाया है
रवींद्रनाथ ने। यशोधरा ने बुद्ध को बहुत— बहुत उलाहने दिए और फिर कहा कि मैं तुमसे
यह पूछती हूं कि तुमने जो घर से भागकर पाया, वह क्या घर में
मौजूद नहीं था?
बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए। यह तो वे भी
नहीं कह सकते कि घर में मौजूद नहीं था। और अब पाकर तो बिलकुल ही नहीं कह सकते। अब
पाकर तो बिलकुल ही नहीं कह सकते। आज से बारह साल पहले यशोधरा ने अगर कहा होता कि तुम
जिसे पाने जा रहे हो, क्या वह घर में मौजूद
नहीं है? तो बुद्ध निश्चित कह सकते थे कि अगर मौजूद घर में
होता, तो अब तक मिल गया होता। नहीं है, इसलिए मैं खोजने जा रहा हूं। लेकिन अब तो पाने के बाद बुद्ध को भी पता है
कि जो पाया है, वह घर में भी पाया जा सकता था। तो बुद्ध बड़ी
मुश्किल में पड़ गए।
रवींद्रनाथ तो बुद्ध को मुश्किल में देखना
चाहते थे, इसलिए उन्होंने बात आगे
नहीं चलाई। लेकिन मैं नहीं मानता हूं कि बुद्ध उत्तर नहीं दे सकते थे। वह
रवींद्रनाथ बुद्ध को दिक्कत में डालना चाहते थे, इसलिए बात
यहीं छोड़ दी उन्होंने। यशोधरा ने पूछा, और बुद्ध मुश्किल में
पड़ गए। लेकिन निश्चित मैं जानता हूं कि अगर बुद्ध से ऐसा यशोधरा पूछती, तो बुद्ध क्या कहते!
बुद्ध ने निश्चित कहा होता कि मैं
भलीभांति जानता हूं कि जिसे मैंने पाया, वह यहां भी पाया जा सकता है। लेकिन बिना दौड़े यह पता चलना मुश्किल था कि
दौड़ व्यर्थ है। यह दौड़कर पता चला। दौड़—दौड़कर पता चला कि बेकार दौड़ रहे हैं। जिसे
खोजने निकले थे, वह यहीं मौजूद है। लेकिन बिना दौड़े यह भी
पता नहीं चलता। दौड़कर भी पता चल जाए, तो बहुत है। हम काफी
दौड़ लिए, फिर भी कुछ पता नहीं चलता। एक चीज चूकती ही चली
जाती है; जो हम हैं, जो भीतर है,
जो यहां और अभी है, वह हमें पता नहीं चलता।
निश्चल ध्यान योग का अर्थ है, दौड़ को छोड़ दें और कुछ घड़ी
बिना दौड़ के हो जाएं; कुछ घड़ी, घडीभर,
आधा घड़ी, बिना दौड़ के हो जाएं। ध्यान का इतना
ही अर्थ है।
ध्यान का यह मतलब नहीं है कि आप लेकर माला, और माला के साथ दौड़ने लगें। वह दौड़ है। एक गुरिया
हटाया, दूसरा हटाया, जल्दी हटाए,
चक्कर लगाए माला का। लंबा दौड़ नहीं लगा रहे हैं आप, माला में चक्कर मार रहे हैं। छोटे बच्चे होते हैं न, उनको एक कोने में खड़ा कर दो, तो वहीं कूदते रहेंगे।
यह माला वाला वही काम कर रहा है। छोटे बच्चे हैं, उनसे कहो,
मत दौड़ो। ठीक है। आन दि स्पाट! वे वहीं उछल—कूद करते रहेंगे। उछल—कूद
जो उनके भीतर चल रही थी, वह जारी रहेगी। इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता कि जगह कितनी घेरी। एक छोटे—से गोल घेरे में आदमी दौड़ सकता है। माला फेर रहा
है कोई। कोई बैठकर राम—राम, राम—राम, राम—
राम किए चला जा रहा है। लेकिन दौड़ जारी है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप माला मत
फेरना। बुरा नहीं है। आधा घंटा माला फेरी, न मालूम कितने उपद्रव नहीं किए, वह भी काफी है। अपनी
जगह पर ही कूद रहे हैं, दूसरे के घर में नहीं कूदे, यह भी काफी है।
मैं यह नहीं कह रहा कि आप माला मत फेरना।
फेरना जरूर, लेकिन मत यह समझ लेना कि
वह ध्यान है। वह ध्यान नहीं है। मैं यह भी नहीं कह रहा कि आप राम—राम मत करना। मजे
से कर लेना। क्योंकि कुछ तो आप करेंगे ही। कुछ तो करेंगे ही, बिना किए तो रह नहीं सकते। तो एक फिल्म स्टार का नाम लेने से राम— राम का
नाम लेना बहुत बेहतर है। कुछ न कुछ तो भीतर चलेगा ही, खोपड़ी
आपकी चुप नहीं रह सकती। तो ठीक है, राम प्यारा शब्द है,
उसको दोहरा लेना। लेकिन उसे ध्यान मत समझ लेना।
ध्यान का तो मतलब ही निश्चल ध्यान होता है।
ध्यान का तो मतलब ही निश्चल हो जाना होता है, मन का बिलकुल न दौड़ना—न माला में, न राम में,
न स्वर्ग में, न मोक्ष में—कहीं भी न दौड़ना।
मन का ठहर जाना, रुक जाना। एक क्षण को भी ऐसी घड़ी बन जाए,
एक क्षण को भी ऐसा परम मुहूर्त आ जाए, जब आपका
मन कुछ भी न कर रहा हो, कहीं भी न जा रहा हो, गोइंग नो व्हेयर, वहीं रह गया हो जहां आप हैं।
तो कृष्ण कहते हैं, निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव से स्थित
होता है। जैसे ही यह निश्चल ध्यान फलित होता है, वैसे ही
व्यक्ति मुझ में एकीभाव से स्थित हो जाता है। तब उसमें और मुझमें जरा भी फासला
नहीं है। तब उसके और मेरे बीच जरा भी दूरी नहीं है।
इसका मतलब हुआ, दौड़ ही दूरी है। जितना आप दौड़ते हैं, उतना ही आप दूर हैं। इसका अर्थ हुआ, रुक जाना ही
पहुंच जाना है। इसका अर्थ हुआ, ठहर जाना ही मंजिल है। जैसे
ही कोई शांत ठहर जाता है, अचानक द्वार खुल जाता है। उस
ठहरेपन में ही, उस शांत क्षण में ही, वह
एक हो जाता है परमात्मा से। द्वैत टूट जाता है, दुई मिट जाती
है।
एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
कृष्ण को न मालूम कितनी बार गीता में
अर्जुन से कहना पड़ता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
अर्जुन की आंख में संशय दिखाई पड़ता होगा बार—बार, इसलिए वे
कहते हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यह अर्जुन के बाबत खबर
है। क्योंकि कृष्ण इसे दोहराएं, यह सार्थक नहीं है। इसको बार—बार
कहने की कोई जरूरत नहीं है कि इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन अर्जुन की आंख में
संशय दिखाई पड़ता होगा।
अभी जब मैं कह रहा था, अगर उस वक्त आपकी आंखों के चित्र पकड़े जा सकें,
जब मैं कह रहा था कि दौड़े मत, ठहर जाएं;
एक क्षण को मन बिलकुल रुक जाए, तो आप परमात्मा
के साथ एक हो जाएंगे; उस वक्त अगर आपकी आंख के चित्र लिए जा
सकें, तो मुझे भी कहना पड़ेगा कि इसमें कोई भी संशय नहीं!
क्योंकि आपकी आंख बता रही है कि यह नहीं होने वाला। यह कैसे होगा! इतनी सरल बात कह
रहे हैं आप!
लेकिन यह बहुत कठिन है, यह रुकना हो नहीं सकता। मन तो चलता ही रहेगा, मन तो चलता ही रहेगा, वह रुकेगा ही नहीं। और उसके
चलने के ढंग इतने अजीब हैं, जिसका हिसाब नहीं है!
मुल्ला नसरुद्दीन अपने तीन मित्रों के साथ
एक गुरु के पास गया था ध्यान सीखने। तो गुरु ने कहा कि एक काम करो, ध्यान तो बहुत दूर की बात है; सांझ
हो गई है, सूरज ढल गया है, तुम एक
घडीभर के लिए चुप बैठ जाओ चारों। एक घंटेभर तुम बिलकुल चुप रहना। फिर मैं तुमसे
पीछे बात कर लूंगा।
गुरु आंख बंद करके अपने ध्यान में चला गया।
वे चारों बड़ी मुश्किल में पड़े! कुछ करने को दे देता, तो ठीक था। कुछ करने को नहीं दिया, और चुप बैठे
रहना! एक दो—चार मिनट ही बीते होंगे, उनमें से एक ने कहा कि
रात हो गई और दीया अब तक जला नहीं। दूसरे ने कहा कि क्या कर रहा है! मौन के लिए
कहा है! तीसरे ने कहा कि दोनों नासमझ हो। मौन तोड़ दिया। नसरुद्दीन अब तक चुप था,
वह खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा कि सिर्फ मुझे छोड्कर और कोई भी मौन
नहीं है!
एक क्षण चुप रहना भी बहुत मुश्किल है। कोई
बहाना मिल ही जाएगा। एक क्षण ठहरना मुश्किल है, दौड़ का कोई कारण मिल ही जाएगा। एक क्षण ठहरना मुश्किल है, कोई न कोई वासना वेग बन जाएगी और आपको उड़ा ले जाएगी। इसलिए जब मैं कह रहा
था, तब मैं आपकी आंखों में देख रहा था, तब मुझे खयाल आया कि यह कृष्ण को बार—बार कहना पड़ता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ये बेचारे अर्जुन को बार—बार देखकर समझते
होंगे कि संशय आ रहा है, अब इसकी पकड़ के बाहर हुई जा रही है
बात। तब उन्हें बलपूर्वक कहना पड़ता है कि अर्जुन, इसमें कोई
संशय नहीं है। ऐसा करेगा, तो ऐसा हो ही जाएगा। बुद्ध ने बहुत
बार कहा है, ऐसा करो और ऐसा होगा ही। ऐसा मत करो, और ऐसा कभी नहीं होगा।
जीवन भी एक गहन कार्य—कारण है, एक गहरी काजेलिटी है। अगर कोई ठहर जाए, तो परमात्मा से मिलन होगा ही। यह हो सकता है कि कभी सौ डिग्री पर पानी भाप
न बने, और यह भी हो सकता है कि कभी आपको ऊपर की तरफ फेंक दें
और जमीन का गुरुत्वाकर्षण काम न करे, जगत के सब नियम भला टूट
जाएं, एक नियम शाश्वत है कि जिसका मन ठहरा, वह परमात्मा से तत्थण एक हो जाता है। उसमें कुछ भी संशय नहीं है। लेकिन वह
ठहरना दुरूह और कठिन बात है।
मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण
हूं और मेरे से ही सब जगत चेष्टा करता है। इस प्रकार तत्व से समझकर, श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ
परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं। आखिरी बात। मैं ही कारण हूं समस्त अस्तित्व का,
मुझसे ही सारा जगत चेष्टा करता है, मैं ही गति
हूं, इस प्रकार तत्व से समझ कर, श्रद्धा
और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ परमेश्वर को निरंतर भजते हैं।
अभी मैंने कहा कि हम राम—राम, कृष्ण—कृष्ण, हरि—हरि,
कुछ कहते रहें, उससे कुछ होगा नहीं। आप कहेंगे,
कृष्ण तो कहते हैं कि मुझे निरंतर भजते हैं!
इसमें ध्यान रखना, निरंतर शब्द कीमती है। अगर आप राम—राम कहते हैं,
तो भी भजन निरंतर नहीं होगा, क्योंकि दो राम
के बीच में थोड़ी—सी जगह तो बिना राम के छूट ही जाएगी। मैंने कहा, राम, मैंने फिर कहा, राम;
बीच में थोड़ी जगह छूट ही जाएगी। इसलिए कोई कितनी ही तेजी से राम—राम
कहे, वह निरंतर भजन नहीं है; उसमें बीच
में गैप होंगे; डिसकटिन्युटी हो जाएगी।
निरंतर भजन का तो एक ही अर्थ हो सकता है
कि शब्द न हो, भाव हो, क्योंकि भाव में गैप नहीं होता। भाव में बीच—बीच में अंतराल नहीं होते,
शब्द में तो अंतराल होते हैं। शब्द में तो अंतराल होंगे ही, नहीं तो एक शब्द दूसरे शब्द के ऊपर चढ़ जाएगा और शब्दों का अर्थ ही खो
जाएगा। वह तो एक्सिडेंट हो जाएगा, जैसे मालगाड़ी टकरा जाएं दो,
और डिब्बे एक—दूसरे के ऊपर चढ़ जाएं। शब्दों में तो अंतराल जरूरी है।
एक शब्द और दूसरे शब्द के बीच में खाली जगह है। उस खाली जगह में क्या है? जब मैं कहता हूं राम, और जब मैं कहता हूं राम,
दो राम के बीच में क्या है? वहां तो राम नहीं
होगा। या आप कहेंगे कि हम तीसरा राम वहां रख लेंगे। तो ध्यान रहे, तीसरा राम रख लेंगे, तीन राम हो जाएंगे तीन
अंगुलियों की तरह, तो दो अंतराल हो जाएंगे एक ही जगह,
दो खाली जगह हो जाएंगी! और आप यह सोचते हों कि हम दो में और दो रख
लेंगे, तो ध्यान रखना, अंतराल उतने ही
बढ़ जाएंगे। अंतराल, इंटरवल, तो रहेगा
ही शब्दों में। सिर्फ भाव अविच्छिन्न होता है।
लेकिन भाव बड़ी और बात है। समझाना कठिन है।
कबीर ने कहा है....। किसी ने कबीर से पूछा कि कैसे उसका स्मरण करें कि अविच्छिन्न
हो? कैसे उसका भजन हो कि बीच में कुछ
अंतराल न हो, सतत हो, निरंतर हो?
तो कबीर ने कहा, बड़ी कठिन बात पूछी। जाओ नदी
के किनारे, वहां से ग्राम—वधुएं पानी भरकर मटकियां सिर पर
लेकर गांव की तरफ लौट रही होंगी। तुम जरा उन्हें गौर से देखना।
गांवों में ग्राम—वधुएं नदी से पानी भरकर
घड़ा सिर पर रखकर लौटती हैं, दोनों हाथ छोड़ देती हैं,
घड़ा सिर पर होता है। चर्चा करती रहती हैं। गीत भी गा सकती हैं।
यात्रा भी करती हैं, चलती भी हैं। लेकिन उस घड़े का स्मरण तो
पूरे समय बना रहता है, नहीं तो वह गिर जाए। लेकिन वह स्मरण
है शब्दरहित, जस्ट ए रिमेंबरिग विदाउट एनी वर्ड्स; सिर्फ स्मरण है। घड़ा सिर पर है, उसका सिर्फ स्मरण है,
भाव है। जरा ही घड़ा डिगेगा, हाथ सम्हाल लेगा।
फिर बातचीत वे करने लगेंगी।
भाव का अर्थ है, शब्दरहित बोध।
एक मां है, सो रही है, उसका बच्चा उसके पास सो रहा है।
वैज्ञानिक चिंतक बड़े हैरान हुए। तूफान आ जाए, आकाश में बादल
गड़गड़ाने लगें, बिजलियां कौंधने लगें, मां
की नींद नहीं खुलती। और बच्चा जरा—सा, जरा—सा हिले—डुले,
जरा—सी आवाज कर दे, और मां का हाथ बच्चे के
ऊपर पहुंच जाता है। क्या मामला होगा? आकाश में बादल गरजते
हों, तो मां की नींद नहीं टूटती; और
बच्चा जरा—सा कुरमुर कर दे, तो उसकी नींद टूट जाती है!
तो मनोचिकित्सक सोचते थे बहुत कि बात क्या
होगी? तब खयाल में आना शुरू हुआ
कि कोई एक शब्दरहित स्मरण, जो भीतर रात नींद में भी मौजूद
रहता है! शब्दरहित स्मरण, नींद में भी बना रहता है।
वह जो प्रतीति है, कृष्ण उसी प्रतीति के लिए कह रहे हैं। श्रद्धा और
भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ परमेश्वर को निरंतर भजते हैं। निरंतर भजते हैं
अर्थात निरंतर मेरे भाव में रहते हैं।
भाव क्या है? भाव, वह निश्चल ध्यान के द्वारा
एकता की जो प्रतीति हुई है, उस प्रतीति को सतत बनाए रखते हैं।
बनाए रखते हैं, कहना ठीक नहीं; बनी
रहती है। निश्चल ध्यान योग से जो प्रतीति होती है, उस
प्रतीति का स्मरण भीतर ऐसे ही बना रहता है, जैसे श्वास चलती
रहती है। श्वास में भी गैप होते हैं, उसमें वह गैप भी नहीं
होते। श्वास भी चलती है, फिर थोड़ी रुकती है, फिर निकलती है; उसमें भी अंतराल होते हैं, आना—जाना होता है। लेकिन स्मरण सतत होता है।
उस सतत भाव की दशा का नाम ही भक्ति है। और
सतत भाव की दशा का नाम ही भजन है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुके। शायद उस भजन का कोई खयाल
यहां चलने वाले भजन से आ जाए। पांच मिनट रुके। कोई उठे नहीं। जब मैं यहां से उठूं, तभी आपको उठना है। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों।
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