गीता दर्शन-(भाग-05)-प्रवचन-118
अध्याय—10
अर्जुन उवाच:
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
गुरुक शाश्वतं दिव्यमादिदेवमज विभुम्।। 12।।
आहुस्त्वमृषय सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे।। 13।।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवच्छक्तिं क्ट्रिर्देवा न दानवा:।। 14।।
हम प्रकार श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर
अर्जुन बोला हे भगवन— आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं क्योंकि आपको
सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं
वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी ऐसा
मेरे प्रति कहते हैं।
और हे केशव जो कुछ भी मेरे प्रति आय कहते
हैं ड़स समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन— आप के लीलामय स्वरूप को न दानव
जानते हैं और न देवता ही जानते हैं।
कृष्ण ने
जो भी अर्जुन को कहा, वह बुद्धि से मानने जैसा
नहीं है; तर्क उसके विरोध में जाएगा, विचार
उस पर संदेह करेंगे। अहंकार अस्वीकार करना चाहेगा उस सबको। क्योंकि कृष्ण ने जो
कहा है, उससे ज्यादा कठिन बात, अहंकार
को मानना, दूसरी नहीं हो सकती।
कृष्ण भी वैसे ही हड्डी—मांस—मज्जा से
बने हैं, जैसे हड्डी—मांस— मज्जा
से अर्जुन बना है। कृष्ण को भी वैसे ही भूख लगती है, जैसी
अर्जुन को लगती है। कृष्ण भी वैसे ही थकते हैं और विश्राम करते हैं, जैसा अर्जुन थकता है और विश्राम करता है। कृष्ण को अर्जुन मान सकता है
महामानव सरलता से, लेकिन ईश्वर मानने में बड़ी कठिनाई है।
ईश्वर मानने का अर्थ ही ठीक से हम समझ लें, तो कठिनाई भी समझ
में आ जाए।
जब हम एक किसी व्यक्ति को महामानव मानते
हैं, तो भी हम अपने और उसके
बीच जो अंतर देखते हैं, वह क्वांटिटी का, डिग्रीज का, कम का, परिमाण का
है। हमारे जैसा ही, हमारे ही आयाम में, हमसे थोड़ा ज्यादा। लेकिन जैसे ही हम किसी व्यक्ति को भगवान मानते हैं,
हमारा उससे सब संबंध टूट जाता है। और हमारे और उसके बीच जो अंतर है,
वह क्वांटिटेटिव नहीं, क्यालिटेटिव हो जाता है।
वह फिर गुण का अंतर है। फिर वह परिमाण और मात्रा का भेद नहीं है। फिर हमारे और
उसके बीच कोई सेतु, कोई संबंध नहीं है। वह दूसरे ही लोक का
अस्तित्व है। हमारे और उसके बीच एक अलंध्य खाई है।
इसलिए किसी व्यक्ति को महामानव मान लेने
में अड़चन नहीं है, महात्मा मान लेने में
अड़चन नहीं है। हमसे संबंध नहीं टूटता। हमारे ही रास्ते पर कोई हमसे दो कदम आगे
होता है, कोई दस कदम आगे होता है। अहंकार को तकलीफ होती है
इसमें भी कि किसी को मैं आगे मानूं! लेकिन फिर भी अहंकार इससे नष्ट नहीं होता। हम
किसी को अपने से आगे मान सकते हैं।
कभी—कभी ऐसा भी होता है कि अपने से किसी
को आगे मानने में भी अहंकार को तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति जरा सूक्ष्म है। जिसे
हम अपने से आगे मानते हैं, यह मानने के कारण ही हम
उससे संयुक्त हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम उसको पहचानने वाले हो जाते
हैं। और यह मानने के कारण ही हम भी अपने भविष्य में कभी उस जैसा होने की संभावना
का अहंकार पोषित कर सकते हैं।
लेकिन किसी व्यक्ति को ईश्वर मानने में
हमारी सारी तर्क—सरणी टूट जाती है, हमारी सारी अंतर्व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाती है। ईश्वर मानने का अर्थ ही
यह हुआ कि वह हमसे बिलकुल भिन्न है। भिन्नता इतनी गहरी है कि हम उसे समझ भी नहीं
पा सकते कि वह क्या है।
कृष्ण ने जो भी कहा है, वह असंभव है। असंभव है बुद्धि के लिए। अर्जुन उसके
उत्तर में जो कह रहा है, वह बहुत सोचने जैसा है। और जैसा ऊपर
से दिखाई पड़ता है, वैसा उसका अर्थ नहीं है। और जैसा भी आपको
अर्थ दिखाई पड़ता रहा होगा, थोड़ा गहरे उतरेंगे, तो उससे बिलकुल विपरीत अर्थ पाएंगे।
अर्जुन ने कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर
कि मैं परमात्मा हूं; मैं ही सबमें व्याप्त हूं;
सब कुछ मेरे ही द्वारा धारण किया गया है, समस्त
ऋषियों में मेरे ही भाव प्रकट हुए हैं; और समस्त श्रेष्ठताओं
और समस्त शक्तियों का मैं ही आधार और बीज हूं; और जहां भी
जीवन में कोई सुगंध ऊंचाई छूती है, और जब भी कोई शिखर
गौरीशंकर होता है, तब उस श्रेष्ठता की अंतिम स्थिति में जो
खिलता है, जो फूल खिलता है, वह मैं ही
हूं। मैं ही इस जीवन का आभिजात्य, मैं ही इस जीवन का रस,
मैं ही इस जीवन का प्राण, मैं ही इस जीवन का
केंद्र हूं। ये बातें कृष्ण ने कहीं, जो बड़ी असंभव
हैं किसी बुद्धि को मानने के लिए। अर्जुन ने जो
उत्तर दिया, इसलिए बहुत सोचने जैसा है।
इस प्रकार कृष्ण के वचनों को सुनकर
अर्जुन ने कहा, हे भगवन्, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं। आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य
पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते
हैं। वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी
ऐसी ही घोषणा मेरे प्रति करते हैं। और हे केशव, जो कुछ भी
मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे
भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता
ही जानते हैं।
ठीक ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन ने
सब कुछ स्वीकार कर लिया। काश, अर्जुन
यह सब कुछ स्वीकार कर ले, तो गीता यहीं समाप्त हो जाती;
आगे गीता निष्प्रयोजन है। फिर कहने को कुछ और बचता नहीं, और समझाने को भी कुछ बचता नहीं। आखिरी बात पूरी हो गई। अल्टिमेट, जो आत्यंतिक घटना घटनी चाहिए अर्जुन के भीतर, वह घट
गई। लेकिन गीता समाप्त नहीं होती है और कृष्ण को और भी श्रम लेना पड़ता है। यह
वक्तव्य जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं होगा, इसीलिए। इसमें तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं।
अर्जुन कहता है कि आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र हैं,
क्योंकि ऐसा ही ऋषियों ने भी कहा है, महर्षियों
ने भी कहा है।
अर्जुन को अभी भी यह सीधी प्रतीति नहीं है।
अभी भी गवाह की जरूरत है; साक्षी की, विटनेस की जरूरत है। अर्जुन मानता है, क्योंकि सब
ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, अजन्मा और
सर्वव्यापी आपको स्वीकार करते हैं। देवऋषि नारद—ये बड़े नाम हैं, उस युग के बड़े नाम हैं— असित और देवल और महर्षि व्यास, और इतना ही नहीं, आप स्वयं भी मेरे प्रति ऐसा ही
कहते हैं।
ध्यान रहे, जब भी हमें साक्षी की, गवाह की जरूरत पड़ती है,
तो उसका अर्थ होता है, सत्य का साक्षात्कार
सीधा नहीं है। अर्जुन यह नहीं कहता कि ऐसा मैं अनुभव करता हूं। अर्जुन कहता है,
जिनकी बात मानी जा सके, वे भी ऐसा ही कहते हैं।
अर्जुन कहता है, आप जो कह रहे हैं, वह
प्रामाणिक मालूम पड़ता है; क्योंकि जो भी विचारशील हैं,
जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने भी ऐसा ही कहा
है।
यह इमीजिएट, यह सीधा—सीधा अनुभव नहीं है। कहीं ऐसा अगर हो कि महर्षि व्यास ऐसा न कहें,
और देवल और असित इनकार कर दें, और नारद कह दें
कि नहीं, ये कृष्ण भगवान नहीं हैं, तो
अर्जुन की क्या गति हो? तो अर्जुन डांवाडोल हो जाए।
उसका सत्य, उसका अपना सत्य नहीं है, गवाहों का सत्य है। किन्हीं
की गवाही पर वह अपनी मान्यता को निर्धारित कर रहा है। गवाही बहुत मजबूत है।
साधारण आदमी की यही मनोदशा है। उसके पास
अपना कोई सत्य नहीं होता। कोई और कहता है, तो वह मान लेता है। कोई और बदल जाएगा कल, तो वह भी बदल
जाएगा।
लेकिन महर्षि व्यास जो कहते हैं, वह सत्य कहते हैं, यह अर्जुन
कैसे जानेगा! बड़ी मजे की बात है। तब अर्जुन खोजेगा कि और कौन—कौन ऋषि हैं, जो महर्षि व्यास को महर्षि मानते हैं! वह भी निर्भर करेगा किसी गवाही पर।
यह तो इनफिनिट रिग्रेस है, इसमें तो कहीं कोई उपाय नहीं हो सकता। अ को आप मानते
हैं, क्योंकि ब कहता है। ब को आप मानते हैं, क्योंकि स कहता है। स को आप मानते हैं, क्योंकि द
कहता है। लेकिन आप दूसरे पर निर्भर हैं। और जो मान्यता दूसरे पर निर्भर है,
वह कभी भी गहरी नहीं हो सकती। क्योंकि जब कृष्ण को सीधा सामने पाकर
सीधा नहीं माना जा सकता, तो महर्षि व्यास के वक्तव्य को कैसे
गहरे में माना जा सकता है?
कृष्ण सामने खड़े हैं—यह बहुत मजे की बात
है— यह ऐसी स्थिति है कि अंधा सूरज के सामने खड़ा हो और कहे कि ही, मैं मानता हूं कि तुम सूरज हो और तुममें प्रकाश है,
क्योंकि अ ने भी ऐसा कहा है, ब ने भी ऐसा कहा
है, स ने भी ऐसा कहा है! बड़े— बड़े ज्ञानी भी यही कहते हैं कि
सूरज में प्रकाश है; और तुम भी मेरे प्रति कहते हो कि तुम
प्रकाशवान हो!
लेकिन अंधे को खुद दिखाई नहीं पड़ रहा।
क्योंकि अगर अंधे को खुद दिखाई पड़ता हो, तो गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य के लिए गवाही की कोई भी जरूरत
नहीं है। केवल असत्य के लिए गवाही की जरूरत पड़ती है। सत्य तो स्वयं ही अपनी गवाही
है। और अगर सत्य स्वयं अपनी गवाही नहीं दे सकता, तो फिर और
कौन उसकी गवाही दे सकेगा?
अर्जुन को प्रतीति सीधी नहीं है। अर्जुन
अभिभूत है, प्रभावित है, लेकिन बड़े गवाहों के नाम से; सीधे कृष्ण से नहीं।
अगर उसे पता चल जाए कि महर्षि व्यास ने नहीं कहा है ऐसा, तो
उसके सब आधार डगमगा जाएं, उसकी श्रद्धा का पूरा भवन गिर जाए।
दूसरे की गवाही पर निर्भर जो भी व्यक्ति
जीता है, वह बहुत दरिद्र है,
उसके पास सीधी देखने की आंख नहीं है। एक बात।
दूसरी बात, अर्जुन कृष्ण को प्रेम करता हे, यह जरूर सच। और
प्रेम करता है इसीलिए उसने, अर्जुन ने उन लोगों की गवाहियां
चुन ली हैं, जो कृष्ण को भगवान कहते हैं। अगर अर्जुन कृष्ण
को प्रेम न करे, तो वह दूसरे गवाह चुनेगा, जो भगवान कृष्ण को नहीं कहते। और ऐसा नहीं है कि दूसरे गवाह नहीं हैं।
कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ जैनियों के
तीर्थंकर हैं। वे जैन—दीक्षा लेकर जैन संन्यासी हो गए थे। और फिर जैनों के चौबीस
तीर्थंकरों में एक स्थान पर पहुंच गए। लेकिन आप जानकर हैरान होंगे कि जैन मानते
हैं कि कृष्ण ने इतना पाप किया और करवाया कि वे सातवें नर्क में सड़ रहे हैं! बहुत
कठिनाई मालूम पड़ेगी।
जैनों की दृष्टि से बात में थोड़ा मजा है, सोचने जैसा मजा है। क्योंकि जैन यह कहते हैं कि
अर्जुन तो भाग रहा था और अहिंसक होना चाहता था। कहता था, नहीं
करूंगा युद्ध। इन अपने लोगों को काटने से क्या है सार? और धन
भी पाकर क्या मिलेगा? और राज्य भी मिल गया, तो क्या होगा? वह तो विरत हो रहा था, विराग जग रहा था। वह तो छोड्कर जा रहा था युद्ध को। वह तो संन्यास,
त्याग, पलायन में प्रवेश कर रहा था। लेकिन कृष्ण
ने उसे समझा— बुझाकर युद्ध में जूझने को राजी कर लिया।
निश्चित ही, महाभारत का अगर कोई भी पाप है, तो कृष्ण के नाम
जाएगा, अर्जुन के नाम नहीं जा सकता— अगर कोई पाप है। अर्जुन
तो भाग ही रहा था। यह पूरी गीता अर्जुन को समझाने के लिए कृष्ण ने कही है कि वह
युद्ध में खड़ा रहे, भागे न। अगर कोई पुण्य है, तो वह कृष्ण के नाम जाएगा; अगर कोई पाप है, तो कृष्ण के नाम जाएगा। अब यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उसे पुण्य मानें
या पाप मानें।
जैनों की दृष्टि में चूंकि अहिंसा कसौटी
है समस्त पाप—पुण्य की; चूंकि भयंकर हिंसा हुई,
इसलिए पाप हुआ। जिम्मेवार कृष्ण हैं। इसलिए जैनों ने बड़ी हिम्मत की
है। हिम्मत की बात है। कृष्ण जैसे व्यक्ति को नर्क में डालना हिम्मत की बात है।
हाथ में तो हमारे है, क्योंकि किताब हम लिखते हैं, नर्क हमारे हैं। कृष्ण नर्क में हैं या नहीं, इसका
तो कोई जानने का उपाय नहीं है। लेकिन जैन की दृष्टि में कृष्ण नर्क में होने
चाहिए। तो सातवें नर्क में उनको डाला है। लेकिन पीड़ा तो जैनों को भी मन में रही है,
क्योंकि आदमी तो लाजवाब था, उनके सिद्धांत से
मेल नहीं खाया। आदमी तो गजब का था, प्रतिभा तो उसकी अनूठी थी।
सिद्धांत से मेल नहीं खाया, इसलिए सातवें नर्क में डाला है।
लेकिन अपराध भी भीतर मन में लगा होगा कि यह आदमी नर्क में डालने जैसा नहीं है,
स्वर्ग में बिठाने जैसा है। इसलिए फिर उन्होंने एक तरकीब की
व्यवस्था की। आदमी का मन बड़ी चालाकियां करता है, बड़े गणित
बिठाता है।
तो जैनों ने एक नियम बनाया कि कृष्ण इस
युग में तो सातवें नर्क में हैं, लेकिन
आने वाले कल्प में जैनों के पहले तीर्थंकर होंगे! एक बैलेंस, एक संतुलन हो गया। श्रेष्ठतम वे जो कर सकते थे, वह
यह कि आने वाले कल्प में जब सृष्टि विनष्ट हो जाएगी और पुनर्निर्मित होगी, तो जो पहला तीर्थंकर होगा जैनों का, वह कृष्ण की
आत्मा ही पहली तीर्थंकर होगी।
इस महाभारत की हिंसा में उलझने के कारण
तीर्थंकर की हैसियत के आदमी को सातवें नर्क में डालने की मजबूरी है। लेकिन इस दुख
को भोगकर और अनुभव से गुजरकर ऐसी भूल कृष्ण अब दुबारा नहीं करेंगे। आदमी तो गजब
के हैं, अब यह भूल उनसे दुबारा
नहीं होगी। तो वे पहले तीर्थंकर हो सकते हैं।
निश्चित ही, अर्जुन के मन में अगर कृष्ण के प्रति प्रेम न होता, तो उसने गवाही दूसरी चुनी होतीं। ये तीन—चार जो गवाहों के नाम लिए हैं,
ये ही गवाह नहीं थे, और भी गवाह थे। वे लोग भी
थे, जिन्होंने कृष्ण को नर्क में डाला है।
हम अपने प्रेम से अपनी गवाही चुन लेते हैं।
अर्जुन का प्रेम है कृष्ण के प्रति, लगाव है। उसने जो कृष्ण के अनुमोदन में हैं, उन
लोगों के नाम चुन लिए हैं। लेकिन यह प्रेम श्रद्धा नहीं है, यह
मित्र के प्रति प्रेम है। यह लगाव समान तल पर है। अर्जुन कहता है कि मानता हूं आप
जो भी कहते हैं, सत्य मानता हूं। लेकिन यह मान्यता सीधी नहीं
है, यह बात ठीक से समझ लें।
काश यह मान्यता सीधी होती, तो उसी क्षण गीता समाप्त हो जाती। बात पूरी हो गई थी।
फिर कृष्ण का आदेश मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। लेकिन अभी भी आदेश माना
नहीं जा सकता। अर्जुन कहता है कि आप भगवान हैं, लेकिन अभी भी
संदेह किए चला जाएगा। और जब कृष्ण बुद्धि से उसे सब जगह से काट—छांट डालेंगे और
जब उसकी बुद्धि को कोई उपाय नहीं मिलेगा, तो वह कहेगा कि ऐसे
मेरी तृप्ति नहीं होती। आप तो अपना विराट भगवान का रूप दिखाएं, तब शायद!
नहीं, अभी उसका स्वयं का राजी होना नहीं हुआ है। बुद्धि से गवाह जुटाकर वह अपने
को समझा रहा है। इस सूत्र में जगह—जगह उसकी खबर है।
ऋषि तो कहते हैं कि आप परम ब्रह्म हैं, और इतना ही नहीं, स्वयं आप भी
ऐसा मेरे प्रति कहते हैं। वह कृष्ण को भी गवाहियों की कतार में खड़ा कर रहा है। वह
इनकी बात भी न मानता। लेकिन बड़ी मुश्किल है। कृष्ण खुद कह रहे हैं कि मैं भगवान
हूं। तो वह कहता है कि और आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते हैं। तो उसकी हिम्मत नहीं
जुट पाती कि वह संदेह खड़ा करे। लेकिन संदेह उसके भीतर है।
जिसके भीतर संदेह नहीं है, वह गवाह नहीं जुटाएगा:। गवाह हम जुटाते इसलिए हैं कि
भीतर के संदेह को काटने का और कोई उपाय नहीं है। भीतर के संदेह जितने बड़े होंगे,
उतने बड़े गवाह हम जुटाएंगे।
अर्जुन को अगर सड़क चलता हुआ कोई भी आदमी
कह दे कि कृष्ण भगवान हैं, तो वह मानेगा नहीं;
उसका संदेह बड़ा है। जब महर्षि व्यास ही तराजू पर न बैठकर कहें कि
हां, ये भगवान हैं, तब तक वह मानेगा
नहीं!
जितना बड़ा हो संदेह, उतनी बड़ी गवाही चाहिए। यह थोड़ा उलटा मालूम पड़ेगा! हम
जितनी बड़ी गवाही खोजते हैं, उतने बड़े संदेह की खबर देते हैं।
अगर संदेह बिलकुल न हो, तो गवाही की बिलकुल जरूरत न पड़ेगी।
अगर संदेह शून्य हो, तो सारी दुनिया भी विपरीत गवाही दे,
तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा।
विवेकानंद रामकृष्ण के पास गए पूछने कि
क्या ईश्वर है? रामकृष्ण को कहना चाहिए
था कि महर्षि फलां कहते हैं कि है, उपनिषद कहते हैं कि है,
वेद कहते हैं कि है। ऐसा कहना चाहिए था। ऐसा किसी भी पंडित के पास
विवेकानंद जाते, तो वह यही कहता। गए भी थे वे। रवींद्रनाथ के
पिता के पास गए थे।
महर्षि देवेंद्रनाथ बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे। उनके पास भी विवेकानंद, रामकृष्ण से मिलने के पहले, गए थे। आधी रात— गंगा
में बजरे पर महर्षि का निवास था— तो कूदकर आधी रात अंधेरे में बजरे पर चढ़ गए;
द्वार खोला। रात आधी; महर्षि अपने ध्यान में
बैठे थे आंख बंद करके। जाकर कालर पकड़कर उनका गला हिलाया और कहा कि मैं यह पूछने
आया हूं क्या ईश्वर है?
महर्षि समझा सकते थे, बता नहीं सकते थे। तर्क दे सकते थे, खुद का कोई अनुभव नहीं था। तो महर्षि ने कहा, युवक,
बैठो।
मैं तुम्हें शास्त्रानुसार समझाऊंगा।
लेकिन विवेकानंद छलांग लगाकर वापस गंगा में कूद गए। महर्षि ने आवाज दी कि लौट आओ, मैं तुम्हें सब तरह से समझाऊंगा। विवेकानंद ने कहा,
समझने मैं नहीं आया हूं। अगर आप जानते हों, तो
हां कह दें, या न कह दें। आप जानते हों, तो बोलें, अन्यथा चुप रह जाएं। क्योंकि शास्त्र तो
मैं भी पढ़ लूंगा। देवेंद्रनाथ की हिम्मत न जुटी कहने की कि हां, मैं जानता हूं।
बाद में विवेकानंद कहते थे कि देवेंद्रनाथ
की झिझक ने सब कुछ कह दिया। जानते थे बहुत, लेकिन वह सब किसी और के द्वारा जानते थे; सीधी कोई
प्रतीति न थी।
फिर यही युवक रामकृष्ण के पास गया। उतनी
ही अकड़ से, उतने ही जोर से। रामकृष्ण
को भी हाथ पकड़कर पूछा है कि ईश्वर है? लेकिन हालत बिलकुल बदल
गई। जैसे देवेंद्रनाथ कंप गए थे आधी रात इसका सवाल सुनकर; रामकृष्ण
ने जब देखा आंख उठाकर विवेकानंद की तरफ, तो विवेकानंद खुद
कंप गए। रामकृष्ण ने कहा, है या नहीं, यह
छोड़ो। तुम्हें जानना हो तो बोलो? और
अभी जानना है? हाथ—पैर कंप गए विवेकानंद के। विवेकानंद ने कहा कि मैं जरा सोचकर आऊं। यह
मैं सोचकर नहीं आया! रामकृष्ण ने कहा, है या नहीं, यह सवाल बेकार है। तुम्हें जानना, तो मैं जना सकता
हूं।
रामकृष्ण ने विवेकानंद का हाथ पकड़ लिया।
इस बातचीत में विवेकानंद ने जो हाथ पकड़ा था, वह छूट गया था। रामकृष्ण ने हाथ पकड़ लिया और कहा कि ऐसे नहीं जाने दूंगा।
जब आ ही गए हो, तो अच्छा होगा, जानकर
ही जाओ! विवेकानंद ने कहा है कि फिर मेरी हिम्मत रामकृष्ण से कभी कुछ पूछने की न
पड़ी। क्योंकि यहां पूछना आग से खेलना था—सीधा।
रामकृष्ण ने नहीं कहा कि उपनिषदों ने कहा
है, वेद ने कहा है, बुद्ध ने कहा है, कृष्ण ने कहा है। बेकार हैं बातें।
अगर रामकृष्ण को खुद ही पता है, तो ये सब गवाहियां हैं या
नहीं, निर्मूल्य है। और अगर रामकृष्ण को खुद पता नहीं है,
तो दुनिया में सबने कहा हो, तो भी उनकी सबकी
गवाहियों का जोड़ भी सत्य नहीं बन सकता। कितनी ही गवाहियों का जोड़ भी सत्य नहीं बन
सकता; और एक छोटे—से सत्य को भी सारी दुनिया के गवाह मिलकर
विपरीत कहें, तो भी असत्य नहीं कर सकते।
लेकिन यह अर्जुन जो कह रहा है, इसकी बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि उस पर
ही आगे की पूरी समझ निर्भर करेगी। अर्जुन को भरोसा जरा भी गहरे में नहीं है,
ऊपर— ऊपर है। लगाव है उसका। मानना चाहता है कि कृष्ण भगवान हों;
मान नहीं पाता है। अपने को मनाना भी चाहता है। यह चेष्टा वास्तविक
है, प्रामाणिक है। चाहता है कि मान ले कि कृष्ण भगवान हैं,
इसलिए गवाही भी जुटाता है। लेकिन फिर भी गवाहियां ऊपर ही रह जाती
हैं। और तब वह कहता है, स्वयं आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते
हैं।
और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं
सत्य मानता हूं।
यह मानना जानना नहीं है। यह मानना वस्तुत:
मानना नहीं है, क्योंकि इतने बड़े सत्य को
मानते ही तो जीवन रूपांतरित हो जाता है। यह तो मानते ही अर्जुन का दूसरा जन्म हो
जाए। लेकिन अर्जुन वही का वही रहता है यह मानने के बाद भी।
जिस धर्म को मानने के बाद आपका जीवन न
बदले, तो आप समझना कि आपने धर्म
को माना नहीं। जिस आग में हाथ डालें और हाथ भी न जले, तो
समझना कि वह आग झूठी होगी, सपने की होगी, कल्पना की होगी, कागजी होगी। होगी नहीं। चित्र पुता
होगा आग का, उसमें आप हाथ डाल रहे हैं।
ऐसा अगर अर्जुन जान ले कि कृष्ण भगवान
हैं, तो अर्जुन वैसे ही खो जाएगा,
जैसे बूंद सागर में खो जाती है। इसी क्षण खो जाएगा। लेकिन यह भी
उसकी चेष्टा है, यह मानना भी उसका बौद्धिक प्रयास है। यह भी
प्रयत्न है, यह भी एक श्रम है, यह भी
एक कोशिश है। और इसलिए कोशिश कभी भी गहरी नहीं जाती, ऊपर—ऊपर
रह जाती है; और भीतर विपरीत दशा मौजूद रहती है। भीतर विपरीत
दशा मौजूद रहती है। वह विपरीत दशा अर्जुन के भीतर भी मौजूद है। यद्यपि उसे थोड़ा
आनंद आ रहा है यह बात कहने में कि इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं।
हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं।
इससे उसके अहंकार को थोड़ा आनंद भी आ रहा
है, लेकिन मैं जानता हूं। न देवता
जानते हैं, न दानव जानते हैं। आपके इस लीलामय स्वरूप को कोई
भी नहीं जानता, लेकिन मैं, अर्जुन,
जानता हूं। यह उसकी सारी मान्यता भी उसके गहन अहंकार को संपुष्ट
करती है। मैं जानता हूं! इसीलिए वह माने ले रहा है।
इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत
बार हम इसलिए मान लेते हैं कि मानने से अहंकार पुष्ट होता है। इसलिए आप देखकर हैरान
होंगे कि अगर आपको नास्तिकों के बीच में छोड़ दिया जाए, तो आप नास्तिक हो जाएंगे। आपको आस्तिकों के बीच में
छोड़ दिया जाए, आप आस्तिक हो जाएंगे। क्योंकि जिनकी भीड़ होती
है, उनके विपरीत जाने में अहंकार को तकलीफ होती है।
रूस उन्नीस सौ सत्रह के पहले ऐसा ही
आस्तिक था, जैसा भारत आज है। और करीब—करीब
सब तरह से हालत ठीक वैसी है भारत की, जैसी उन्नीस सौ सत्रह
के पहले रूस की थी। परम आस्तिक था रूस। चर्चों में भीड़ होती थी। लोग धर्म—प्रवचन
सुनते थे। बाइबिल पढ़ते थे। मस्जिदों में प्रार्थना करते थे। बड़े आस्तिक लोग थे!
फिर क्रांति हुई और कम्युनिस्टों ने
आस्तिकता के विपरीत पहली दफा दुनिया में एक राष्ट्र निर्मित किया। दस साल के भीतर
आस्तिक खो गए! हजारों साल पुराने आस्तिक दस साल में पिघलकर बह गए; उनका पता चलना बंद हो गया। समाज नास्तिक हो गया। जो
कल आस्तिक होकर जीसस की पूजा करते थे, वे ही नास्तिक होकर
लेनिन के चरणों में सिर रख दिए। जो कल चर्च और जेरूसलम की तरफ नमस्कार करते थे,
या मक्का और मदीना की तरफ जिनके सिर झुकते थे, उनके ही सिर क्रेमलिन के लाल सितारे की तरफ झुकने लगे। सारा मुल्क नास्तिक
हो गया।
बड़ी हैरानी की बात है! इतनी सस्ती बात है
कि पूरा का पूरा मुल्क दस साल, दस—पंद्रह
साल में आस्तिक से नास्तिक हो जाए! नास्तिक होना आसान हो गया, आस्तिक होना कठिन हो गया। अभी आपकी आस्तिकता, हमारी
आस्तिकता भी ऐसी ही है। क्योंकि आस्तिक होना आसान है, इसलिए
हम आस्तिक हैं। और नास्तिक होना आसान हो जाए, तो हम नास्तिक
हो जाएं। जो भी कनवीनिएंट है। हमारा धर्म एक तरह की कनवीनिएंस है, एक तरह की सुविधा है। जिस बात में सुविधा होती है, वह
हम करते रहते हैं। मंदिर जाने में सुविधा होती है, तो हम
करते रहते हैं।
एक मित्र मेरे पास आए थे कुछ दिन हुए।
उन्होंने कहा कि मुझे भरोसा बिलकुल नहीं है, न मंदिर में, न भगवान में। लेकिन लड़की की शादी करनी
है, इसलिए मंदिर जाना पड़ता है। और किसी से कह भी नहीं सकता
कि मेरा भगवान में कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि छोटे बच्चे
हैं। इन सबको पालना और बड़ा करना है।
एक सामाजिक कृत्य है, एक सामाजिक सुविधा है। और फिर अहंकार है। अहंकार को
जिसमें भी तृप्ति मिलती हो, अहंकार मानने को राजी हो जाता है।
अर्जुन को सुख मालूम हो रहा है। क्योंकि न
देवता जानते हैं, न दानव जानते हैं;
कोई भी नहीं जानता कि कृष्ण क्या हैं, क्या है
उनका रहस्य, लेकिन मैं मानता हूं।
ये दो बातें ध्यान में रखने की हैं इस
सूत्र में। एक तो अर्जुन मानता नहीं, गहरे में अस्वीकार है। उस अस्वीकार को भरने की, गवाही
से, चेष्टा है। हम अपने मतलब की गवाही सदा खोज लेते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक
तीर्थयात्रा पर निकला था। अकेला था। रास्ते में एक मौलवी और साथ हो लिया। फिर एक
योगी भी साथ हो लिया। फिर तीनों एक गांव में रुके। लेकिन मौलवी ने कहा कि मेरा तो
अभी नमाज का समय है, और योगी ने कहा कि अभी तो
मैं अपने योगासन, अपनी साधना करूंगा। तो नसरुद्दीन से कहा कि
तू जाकर गांव से कुछ थोड़ी—सी भिक्षा जुटा ला!
तो नसरुद्दीन कुछ पैसे जुटाकर हलुवा
खरीदकर ले आया। आते ही उसने कहा कि बेहतर हो कि हम जल्दी इस हलुवे का विभाजन कर
लें। और स्वभावत: पहला हिस्सा मुझे मिलना चाहिए, क्योंकि इस हलुवे को उपस्थित करने में मैंने साधन का काम किया है। लेकिन
मौलवी ने कहा कि अभी तो मुझे भूख नहीं है, और योगी ने कहा कि
मैं तो सूरज डूबने के पहले ही सिर्फ तीन दिन में एक बार भोजन करता हूं इसलिए सांझ
को ही भोजन लूंगा। तो अभी रखो, अभी हम यात्रा करें, सांझ को देखेंगे।
सांझ भी आ गई, लेकिन तब सवाल बड़ा गहन यह हो गया कि उस हलुवे को
बांटा किस तरह जाए! मौलवी ने कहा कि मैं एक धर्म का दीक्षित पुरोहित हूं तो पहला
हक और बड़ा हक मेरा है। और योगी ने कहा, आप हों कितने ही
दीक्षित पुरोहित, लेकिन मुझसे बड़ी योग की आपकी कोई संपदा
नहीं है। मैं समाधि को उपलब्ध हो चुका हूं इसलिए हक पहला मेरा है। और नसरुद्दीन ने
कहा कि आप भला कितने ही पहुंच गए हों, लेकिन हलुवा लाने में
साधन रूप मैं ही सिद्ध हुआ हूं।
बात इतनी झगड़ने की हो गई कि सांझ भी हो गई, सूरज भी डूब गया। और तब तो योगी ने कहा कि अब सुबह ही
कुछ हो सकता है, क्योंकि सूरज डूब चुका है; मैं सुबह सूरज उगने पर ही भोजन ले सकता हूं। तो यह तय पाया गया कि हम
तीनों सो जाएं और जो रात सबसे अच्छा सपना देखे, श्रेष्ठतम,
सुबह हम अपने सपने कहें, जो श्रेष्ठतम सपना
देखे, वही हलुवे का मालिक हो, और वह
जिसको जितना दे दे। वे रात सो गए।
सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही तीनों उठ आए।
मौलवी ने कहा कि मैंने देखा कि मेरे धर्म का संस्थापक मेरे सिर पर हाथ रखे हुए
सपने में खड़ा है। और मुझे आशीर्वाद दे रहा है और मुझसे कह रहा है कि तुझसे श्रेष्ठ
शिष्य मेरा कोई दूसरा नहीं है।
योगी ने कहा, यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैंने देखा कि मैं परम
मोक्ष में प्रवेश कर गया सपने में और मेरे ऊपर फूलों की अनंत वर्षा हो रही है। और
ऐसी शांति है कि जिसको कभी कोई बुद्ध उपलब्ध हो पाता है। मैं उसका दर्शन करके सपने
से लौटा हूं।
दोनों ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि
तुम्हारा क्या है? उसने कहा कि मेरा तो सपना
बड़ा साधारण है। मेरा गुरु, सूफियों का गुरु खिज़, मुझे दिखाई पड़ा। उसने कहा कि मुल्ला नसरुद्दीन, उठ।
तू मेरा शिष्य है, तो मेरी आज्ञा मान, इसी
वक्त उठ और हलुवा खा। दिस वेरी मोमेंट! गुरु की आज्ञा मानने के लिए मजबूरी हो गई।
मैं आधी रात उठकर हलुवा खा चुका हूं।
आदमी अपने मतलब से सब कुछ खोजता है। उसके
सपने भी उसके मतलब से निर्मित होते हैं, उसके सत्य भी। उसकी कल्पनाएं भी उसके मतलब से जन्मती हैं, उसके सिद्धांत भी। आदमी बहुत जटिल, बहुत जटिल घटना
है।
अर्जुन की जटिलता को खयाल में लें। जटिलता
यह है कि वह मानना भी नहीं चाहता कि कृष्ण भगवान हैं और मानना भी चाहता है, ईदर—ऑर। दोनों उसके सामने हैं। और ऐसे दोनों ही हम
सबके सामने सदा होते हैं।
हम सब का ही प्रतीक है अर्जुन। हम सबके
भीतर ही ऐसा द्वंद्व है। हम मानना भी चाहते हैं और नहीं भी मानना चाहते हैं। हम
करना भी चाहते हैं और नहीं भी करना चाहते हैं। हम जीना भी चाहते हैं और नहीं भी
जीना चाहते हैं। हम शांत भी होना चाहते हैं और नहीं भी होना चाहते हैं। दोनों
विरोध हमारे भीतर एक साथ खड़े हुए हैं। और हम जीवनभर यही करते रहते हैं। कि जैसे
कोई एक सिक्का हो आपके पास, तो कभी उसे उलटा कर लें
और कभी उसे सीधा कर लें। दूसरा पहलू नीचे दब जाता है, लेकिन
मौजूद रहता है। फिर ऊब जाते हैं एक पहलू से, तो दूसरा ऊपर कर
लेते हैं। हम जिंदगीभर इस द्वंद्व के बीच ही डोलते रहते हैं।
हम सबका मन एक ही साथ विपरीत को करना
चाहता है। हम श्रद्धा भी करना चाहते हैं और अश्रद्धा भी हमारी गहरी है। यह जटिलता
है। और इस जटिलता को बिना समझे जो चलेगा, वह इस जटिलता के बाहर कभी भी नहीं हो पाएगा। इस जटिलता को जो समझ लेगा,
वह इसके बाहर हो सकता है।
अर्जुन को भी पता नहीं है। यह बहुत अनकांशस, यह बहुत अचेतन है। अगर अर्जुन से भी हम यह कहें कि
नहीं, ये तू जो गवाहियां इकट्ठी कर रहा है, ये इसलिए इकट्ठी कर रहा है कि तुझे संदेह है। तो वह भी चौंकेगा कि आप क्या
कह रहे हैं! मैं भगवान मानता हूं। और अगर कृष्ण जिद्द करें कि नहीं, तू मानता नहीं है। तो वह और भी जिद्द करेगा कि मैं मानता हूं।
लेकिन उसकी जिद्द भी यही बताएगी। हम जिद्द
ही उन बातों की करते हैं, जिनके विपरीत हमारे भीतर
कोई स्वर होता है। जितने जिद्दी लोग होते हैं, वे
द्वंद्वग्रस्त लोग होते हैं। जिसके भीतर का द्वंद्व विसर्जित हो जाता है, उसकी जिद्द भी चली जाती है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बुढ़ापे में गांव में
मजिस्ट्रेट बना दिया गया था, आनरेरी मजिस्तेट। पहला ही
मुकदमा आया, तो एक पक्ष ने अपनी कहानी प्रस्तुत की। मुल्ला
इतना अभिभूत और प्रभावित हो गया, तो उसने कहा कि बिलकुल ठीक,
बिलकुल सत्य! कोर्ट के क्लर्क ने झुककर मुल्ला से कहा, आप यह क्या कर रहे हैं! अभी दूसरा, दूसरा पहलू तो
आपने सुना ही नहीं! अभी एक ही आदमी बोला है; अभी इसका दुश्मन
मौजूद है। और मजिस्ट्रेट को इस तरह का वक्तव्य देना उचित नहीं है। मुल्ला ने कहा,
दूसरे का भी सुन लेते हैं।
दूसरे ने उसके खिलाफ सारी बातें कहीं और
मुल्ला इतना प्रभावित हो गया कि उसने कहा कि बिलकुल ठीक, बिलकुल सत्य! क्लर्क ने झुककर कहा कि महानुभाव,
आप कर क्या रहे हैं! थोड़ा सोचिए—विचारिए। और दोनों ही एक साथ सत्य
कैसे हो सकते हैं? पहला भी सत्य, दूसरा
भी सत्य! मुल्ला क्लर्क से इतना प्रभावित हो गया, उसने
क्लर्क से कहा कि तुम जो कह रहे हो, वह बिलकुल सत्य है।
दोनों सत्य कैसे हो सकते हैं? बिलकुल ठीक कह रहे हो।
हमें कठिनाई मालूम पड़ेगी कि यह आदमी नासमझ
है। लेकिन हम सब ऐसे ही आदमी हैं। हां, इतने स्पष्ट हम नहीं हैं।
मुल्ला ने तीनों बातों में कह दिया कि
तीनों सत्य हैं। अगर हम होते, तो
हम थोड़ी होशियारी करते। हम एक में कहते, सत्य। दूसरा भी हमें
ठीक लगता, तो उसे फिर हम छिपाते, क्योंकि
यह इनकसिस्टेंट हो जाएगा। जब पहले को सत्य कह दिया, तो अब
दूसरे को सत्य कैसे कहें! तो दूसरे को हम दबाते। और तीसरे को तो हम कहते ही कैसे!
क्योंकि यह बात बिलकुल पागलपन की हो जाएगी। लेकिन हमारा मन भी ऐसा ही चलता है। ऐसा
ही चलता है।
कृष्ण को कोई अगर नर्क में डालने की बात
कहे, वह भी हमें सत्य मालूम पड़
सकती है। नहीं तो कुछ लोगों ने डाला ही क्यों होता! उनको सत्य मालूम पड़ी है। और आप
भी अगर जिद्द न करें और समझने की कोशिश करें और दूसरे पहलू को बिलकुल भूल जाएं कि
आप कृष्ण को भगवान मानते हैं—मानकर ही बैठे हैं, तब तो बहुत
मुश्किल है— तो आपको भी दलील में कुछ रस मालूम पड़ेगा कि बात में कुछ सचाई है। यही
आदमी तो जिम्मेवार है सारी हिंसा का, हत्या का, उपद्रव का। तो नर्क में डालना ठीक मालूम पड़ता है। और अगर इसको भी नर्क में
नहीं डालते, तो जो छोटी— मोटी हत्या कर रहे हैं, इनको काहे के लिए डालना!
लेकिन अगर कृष्ण के भगवान होने की तरफ
विचार करें, तो वह बात भी उतनी ही
बलशाली मालूम पड़ती है। वहां भी मन हां कहने की कोशिश करेगा कि बिलकुल ठीक है। और
फिर अगर कोई आपसे कहे कि दोनों ठीक? दोनों कैसे ठीक हो सकते
हैं! तो निश्चित आपको कहना पड़ेगा कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप; दोनों ठीक कैसे हो सकते हैं!
यह हमारा मन ऐसा काम करता है। लेकिन हम
संगत होने की दृष्टि से एक को ऊपर रखते हैं, दूसरे को नीचे दबा देते हैं। जिसको हम नीचे दबा देते हैं, आज नहीं कल वह बदला लेगा। वह ऊपर उभरेगा, वह निकलकर
बाहर आएगा। और जिसे हमने आज ऊपर रखा है, उससे हम ऊब जाएंगे।
सब चीजों से आदमी ऊब जाता है। और जिन चीजों के साथ रहता है सचेतन रूप से, उनसे जल्दी ऊब जाता है। तो जिसको आपने ऊपर रखा है, थोड़ी
देर में दिल बदल जाएगा और मन ऊब जाएगा; फिर नीचे की बात
ज्यादा सार्थक मालूम होने लगेगी। इस तरह मन घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलता रहता है।
अर्जुन इस सूत्र में दोनों बातें कह रहा
है। अगर आपको दोनों बातें दिखाई पड़ जाएं, तो आगे गीता को समझना बहुत सुगम हो जाए। कृष्ण को दोनों बातें दिखाई पड़
रही हैं। इसलिए गीता समाप्त नहीं की गई। गीता को जारी रखना पड़ा है। कृष्ण को पता
है कि अर्जुन जो कह रहा है, यह अभी भी उसका अपना सत्य नहीं
है।
और उधार सत्य, दूसरे के सत्य, असत्य से भी
बदतर होते हैं। असत्य भी अपना हो, तो उसमें एक प्रामाणिकता
होती है, एक सिंसिअरिटी होती है। और सत्य भी दूसरे का हो,
तो इनसिंसिअर होता है, अप्रामाणिक होता है।
दूसरे के सत्य का क्या अर्थ? मेरा असत्य भी मेरा अनुभव बनेगा।
दूसरे का सत्य भी मेरा अनुभव नहीं बन सकता है।
महर्षि व्यास क्या कहते हैं, इससे अर्जुन का क्या लेना—देना? और महर्षि व्यास को मानने का अर्जुन को कारण क्या है? कृष्ण को मानने में जिसे कठिनाई हो रही हो, वह
महर्षि व्यास को इतनी सुविधा से कैसे माने ले रहा है?
नहीं; वह ऊपर से लीपापोती कर रहा है। वह अपने मन को समझा रहा है। वह कोशिश कर
रहा है कि मान जाऊं कि कृष्ण भगवान हैं। लेकिन भीतर प्रबल प्रवाह है अहंकार का। वह
कहता है कि यह कैसे माना जा सकता है?
और ध्यान रहे, क्षत्रिय का अगर कोई सबसे ज्यादा विकसित हिस्सा है,
तो वह अहंकार है। वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। क्षत्रिय का अगर कोई
सबसे विकसित हिस्सा है, तो वह अहंकार है। वही उसकी कमजोरी भी
है। वही उसकी हिंसा है, वही उसकी कलह है। उसी को वह बर्दाश्त
नहीं कर सकता। और अर्जुन तो कहना चाहिए, क्षत्रियों में
श्रेष्ठतम क्षत्रिय है; शुद्धतम अहंकार है। उसके पास जो
अस्मिता है, जो ईगो है, वह शुद्धतम
क्षत्रिय की है। उसको बहुत मुश्किल है यह बात मानने की कि कृष्ण भगवान हैं। उसे
सिर उनके चरणों में रखना बहुत कठिन है। अति कठिन है।
लेकिन कृष्ण की प्रतिभा, कृष्ण की आभा, कृष्ण का प्रकाश
भी उसे छूता है। कृष्ण का प्रेम, उनकी अनुकंपा भी उसे
स्पर्शित करती है। उसकी हृदय की पंखुड़ियां उनकी निकटता में खिलती भी हैं। उसके
भीतर कुछ प्रतिध्वनित भी होता है। उनको पास पाकर वह जानता है कि सिर्फ आदमी के
निकट नहीं है। यह कहीं गहरे में अहसास भी होता है। एक तल पर इनकार भी चलता है,
एक तल पर इसका स्वीकार भी होता है। और इन दोनों द्वंद्व के बीच में
फंसा हुआ अर्जुन है। यह द्वंद्व इस वक्तव्य में पूरी तरह साफ है। लेकिन एक मजा वह
ले लेना चाहता है, और वह मजा यह है कि कुछ भी हो, आप जो कहते हैं, वह मैं सत्य मानता हूं। और देवता और
दानव भी जिसे नहीं जान पाते, वह भी कम से कम मैं तो मानता
हूं।
इस मानता शब्द पर भी थोड़ा विचार कर लेना
उपयोगी है। आप मानते किन चीजों को हैं, कभी आपने खयाल किया है?
आप उन्हीं चीजों को मानते हैं, जिन पर आपको शक होता है। आप कभी कहते हैं, घोषणा करते हैं कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं? आप
कभी घोषणा करते हैं कि पृथ्वी पर मेरा पक्का विश्वास है? कभी
आप कहते हैं कि शरीर में मेरी बड़ी श्रद्धा है?
न, आप कहते हैं, आत्मा में मेरी बड़ी श्रद्धा है।
परमात्मा में मेरा बड़ा विश्वास है। मोक्ष में, मैं मानता हूं
कि मोक्ष है।
कभी आपने खयाल किया है कि आप उन्हीं चीजों
पर मान्यता का बल डालते है, जिनको आप नहीं जानते हैं।
जिनको मानना बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है, उन्हीं को आप कहते
हैं, मैं मानता हूं। और जिनको मानना बिलकुल आसान है, प्रत्यक्ष है, उनको आप कभी मानने की बात नहीं करते।
शरीर को आप जानते हैं, आत्मा को आप मानते हैं। यह फर्क समझ लें। पदार्थ को
आप जानते हैं, परमात्मा को आप मानते हैं। जिस दिन परमात्मा
भी जानना बनता है और जिस दिन आत्मा भी जानना बन जाती है, उसी
दिन, उसी दिन आपके भीतर एकस्वर का जन्म होता है। अन्यथा आपके
भीतर द्वंद्व और कलह मौजूद ही रहेंगे।
फिर जो आदमी जितना मान्यता में कमजोर होगा, उस मान्यता को वह जिद्द से पूरा करता है। इसलिए कमजोर
आस्था वाले लोग डाग्मैटिक हो जाते हैं। जितनी कमजोर आस्था वाले लोग होंगे, उतने ज्यादा मतांध होंगे। क्योंकि उन्हें खुद से ही डर लगता है कि अगर
कहीं दूसरा मेरी मान्यता को खंडित कर दे या गलत कर दे, तो
उन्हें खुद ही पता है कि हम तो भीतर तैयार ही हैं कि अगर कोई गलत कर दे, तो हम भी गलत मान लेंगे। इसलिए किसी की बात मत सुनो, विपरीत विचार को मत सुनो, विपरीत शास्त्र को मत पढ़ो।
हिंदुस्तान में.. .हिंदुस्तान को हम कहते
हैं, बहुत उदार देश है। लेकिन
एक अनुदार धारा भी इसके नीचे गहरे में प्रवाहित रही है। और हमारा मन होता है अच्छी—अच्छी
बातें मान लेने का, लेकिन खतरनाक है। क्योंकि बुरी बातें भी
भीतर प्रवाहित होती हैं, और उनको अगर हम भूले बैठे रहें,
तो वे नासूर बन जाती हैं, घाव बन जाती हैं;
भीतर फोड़े पैदा करती हैं।
हिंदू शास्त्रों में लिखा है, और ऐसा ही जैन शास्त्रों में भी लिखा है, और ऐसा ही बौद्ध शास्त्रों में भी लिखा है। करीब—करीब वक्तव्य एक से हैं।
वह मैं आपको कहूं।
शास्त्रों में लिखा है हिंदू जैनों और
बौद्धों के, वक्तव्य एक से हैं। लिखा
है कि अगर कोई जैन मंदिर हो और हिंदू मंदिर के सामने से गुजर रहा हो और पागल हाथी
हमला कर दे, तो पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर
है, लेकिन जैन मंदिर में शरण लेना ठीक नहीं है! ठीक ऐसा ही
जैन शास्त्रों में भी लिखा है कि पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर,
लेकिन हिंदू देवालय में शरण लेना बेहतर नहीं है। कैसा यह डर! कैसा
यह भय!
ये तो खैर हिंदू और जैन तो दो धर्म हैं, लेकिन राम— भक्त हैं जो कान में अंगुली डाल लेंगे,
अगर कोई कृष्ण का नाम ले! कृष्ण— भक्त हैं, जो
अंगुली डाल लेंगे, अगर कोई राम का नाम ले!
सुना है मैंने एक बौद्ध भिक्षुणी के संबंध
में, कि उसके पास एक स्वर्ण की
बुद्ध की प्रतिमा थी। वह रोज उसकी पूजा करती, धूप जलाती,
धुंआ देती, फूल चढ़ाती। एक बार उसे चीन के बड़े
बौद्ध मंदिर में ठहरने का मौका मिला। दस हजार बुद्धों का मंदिर, उस मंदिर का नाम है; उसमें दस हजार बुद्ध की छोटी—बड़ी
प्रतिमाएं हैं। वहां वह ठहरी। कोने—कोने में बुद्ध की प्रतिमा है, दीवाल—दीवाल में बुद्ध की प्रतिमा है। दस हजार प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाओं
के सिवाय मंदिर में कुछ भी नहीं है।
जब उसने सुबह अपने बुद्ध की— अपने बुद्ध
की— प्रतिमा रखी और धूप जलाई, तो
उसे लगा कि धूप तो उड़ जाएगी और दूसरे बुद्धों की नाक में चली जाएगी। और अपने बुद्ध
की धूप और दूसरे बुद्धों की नाक में चली जाए! तो उसने एक बांस की पोंगरी बनाई। धूप
के ऊपर पोंगरी लगाई और अपने बुद्ध की नाक के पास पोंगरी लगाई। बुद्ध का मुंह काला
हो गया। हो ही जाएगा। हो ही जाएगा! सुगंध तो न मिली, मुंह
काला हो गया। और मतांध भक्तों ने सबके मुंह काले कर दिए हैं—चाहे राम, चाहे बुद्ध, चाहे कृष्ण, चाहे
क्राइस्ट, चाहे मोहम्मद—सबके मुंह काले कर दिए हैं। इसमें भी
भय पकड़ता है कि दूसरा बुद्ध! बुद्ध की दूसरी प्रतिमा, वह भी
दूसरा बुद्ध!
मैं एक गांव में रहता था। वहां गणेशोत्सव
पर बड़ी गणेश की प्रतिमाएं निकलती हैं, प्रवाहित करने के लिए, विसर्जन करने के लिए। लेकिन
नियमित बंधा हुआ क्रम है। ब्राह्मणों के मुहल्ले की प्रतिमा आगे होती है, चमारों के मुहल्ले की प्रतिमा पीछे होती है। एक वर्ष ऐसी भूल हो गई कि
ब्राह्मणों की प्रतिमा के आने में देर लग गई और चमारों के टोले की प्रतिमा पहले आ
गई, तो जुलूस के आगे हो गई। तो जब ब्राह्मणों की प्रतिमा आई,
तो उन्होंने कहा, हटाओ चमारों के गणेश को
पीछे!
चमारों के गणेश! ब्राह्मणों के गणेश, बात ही अलग है। चमार और ब्राह्मण तो ठीक, गणेश भी चमारों के और ब्राह्मणों के! बेचारे चमारों के गणेश को पीछे जाना
पड़ा। अपना— अपना भाग्य! चमारों के गणेश हो, पीछे जाना ही
पड़ेगा!
यह मतांधता, यह संकीर्णता, यह अनुदारता पैदा होती है। भीतर एक भय
है। भीतर एक भय है कि कहीं दूसरा सही न हो। कहीं दूसरे की बात सुनाई पड़ जाए,
वह सही न हो। अपना तो कोई सत्य नहीं है, भीतर
तो कोई सत्य नहीं है। दूसरे पर ही निर्भर है। कहीं औरों की बात सुनकर डांवाडोल न
हो जाऊं। इसलिए सुनो ही मत, पढ़ो ही मत, समझो ही मत, दूसरे को जानो ही मत। और दूसरे से लड़ते
भी रहो, और दूसरे से बचते भी रहो, और
अपने को ही अंधे की तरह ठीक मानो और सबको गलत मानो।
यह सारा का सारा खेल एक बहुत मनोवैज्ञानिक
बीमारी है। और वह बीमारी यह है कि मुझे ठीक पता नहीं है कि सत्य क्या है। तो जब तक
मैं दूसरों को असत्य सिद्ध करता रहूं तभी तक मुझे भरोसा रहता है कि मैं सत्य हूं।
और अगर मैं दूसरों की भी गौर से सुनने लगू तो मेरे भीतर सब डांवाडोल हो जाता है कि
मैं सत्य हूं या नहीं हूं! सत्य क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन जिस राजधानी में था, वहां बहुत बेईमानी बढ़ गई। और राजधानी में बेईमानी
बढ़ेगी ही, क्योंकि बेईमान सब राजधानियों में इकट्ठे हो जाते
हैं। सब चोर, सब डाकू इकट्ठे हो जाते हैं। अभी जयप्रकाश जी
वहां चंबल में छोटे डाकुओं का समर्पण बड़े डाकुओं के प्रति करवा रहे हैं!
तो राजधानी थी, डाकू इकट्ठे हो गए थे। सम्राट बहुत चिंतित था कि कैसे
इनको हटाया जाए। गांव के बुद्धिमानों से पूछा, कोई रास्ता न
मिला। फिर किसी ने कहा कि वह मुल्ला नसरुद्दीन भी अपनी तरह का एक बुद्धिमान है।
शायद, हमारी बुद्धि काम नहीं करती, उसकी
काम कर जाए। उसे बुलाया। सम्राट ने उससे पूछा कि क्या करें, लोग
असत्यवादी होते जा रहे हैं!
तो नसरुद्दीन ने कहा, इसमें क्या कठिनाई है! जो असत्य बोलते हैं, कम से कम एक असत्य बोलने वाले को पकड़कर रोज फांसी लगा दो चौरस्ते पर,
लटका दो। तहलका छा जाएगा, लोग घबड़ा जाएंगे,
फिर कोई असत्य—वसत्य नहीं बोलेगा। सम्राट ने कहा, बिलकुल दुरुस्त। तो कल राजधानी के द्वार पर सिपाही तैनात रहेंगे और जो
आदमी असत्य बोलता हुआ पकड़ा जाएगा, वह द्वार पर ही सूली पर
लटका दिया जाएगा। नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर मैं कल सुबह
द्वार पर ही मिलूंगा। सम्राट समझा कि शायद वह अपने सिद्धांत को प्रतिपादित होता
हुआ देखने के लिए द्वार पर आएगा।
जब सुबह कल द्वार खुला नगर का, तो नसरुद्दीन अपने गधे पर प्रवेश किया। सम्राट भी
मौजूद था। सम्राट के हत्यारे भी मौजूद थे। फांसी का तख्ता लटका दिया गया था।
सम्राट ने नसरुद्दीन से पूछा, नसरुद्दीन, सुबह—सुबह गधे पर कहां जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा,
सूली के तख्ते पर चढ़ने। सम्राट ने कहा कि झूठ बोल रहे हो! तो नसरुद्दीन
ने कहा कि तय हुआ था कि जो झूठ बोलेगा, उसको सूली पर चढ़ा
देंगे। तो चढ़ा दो सूली पर, अगर मैं झूठ बोल रहा हूं। सम्राट
ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। अगर तुम्हें सूली पर चढाऊं,
तो तुम सच बोल रहे हो। और अगर तुम्हें छोड़ दूं तो मैंने झूठ बोलने
वाले को छोड़ दिया।
तो नसरुद्दीन ने कहा कि यही समझाने के लिए
कि कौन तय करेगा कि क्या सत्य और क्या असत्य है! फांसी लगाना तो बहुत आसान है झूठ
बोलने वाले को, लेकिन तय कौन करेगा,
कौन सत्य है, कौन असत्य है! नसरुद्दीन ने
सम्राट से कहा कि पहले अपना ही पता लगाने की कोशिश करो कि सत्य हो कि असत्य,
तब कहीं दूसरे का कुछ हिसाब करना।
कठिन है। लेकिन कठिन इसीलिए है कि भीतर
कोई क्रिस्टलाइजेशन, कोई केंद्रीकरण नहीं है।
भीतर हम खाली, कोरे हैं; कचरे से भरे
हैं। दूसरों ने जो डाल दिया है, उससे भरे हैं। अपनी कोई
अनुलुह न होने से हमारे पैर के नीचे कोई जमीन नहीं है। इसलिए हम नीचे देखने में भी
डरते हैं। हम दूसरों को बताते रहते हैं, तुम गलत हो, तुम गलत हो, वह असत्य है। लेकिन हम कभी यह फिक्र
नहीं करते कि मेरे पास भी कोई मेरा सत्य है!
और जब तक कोई आदमी अपने सत्य की तलाश में
न लगे, तब तक महर्षियों ने क्या
कहा है, व्यास क्या कहते हैं, खुद कृष्ण
भी क्या कहते हैं, इसका मूल्य बड़ा नहीं है। अर्जुन क्या
अनुभव करता है, इसका मूल्य है। कृष्ण क्या कहते हैं, इसका कोई मूल्य अर्जुन के लिए नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव करता है,
इसका मूल्य है। और उसकी अनुभूति इस सूत्र में जैसी प्रकट होती है,
वह न तो गहरी है, न एकस्वर वाली है, न उसमें सामंजस्य है। उसमें विपरीत एक साथ मौजूद हैं। दिखाई नहीं पड़ते हैं,
वही खतरा है। वही खतरा है।
अगर दिखाई पड़े कोई द्वंद्व, तो हम उसके बाहर हो सकते हैं। दिखाई न पड़े, तो बड़ा खतरा है। अर्जुन को भी पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है। हम को भी
पता नहीं है।
जब आप मंदिर में जाकर कहते हैं कि हे
प्रभु, मैं आप में श्रद्धा रखता
हूं और समर्पण करता हूं। आपको भी पता नहीं है, आप क्या कह
रहे हैं! क्योंकि जो आप कह रहे हैं, वह बड़ा क्रांतिकारी
वक्तव्य है। अगर सच है, तो आप उस दुनिया में प्रवेश कर
जाएंगे, जो अमृत की है, आनंद की है। और
अगर झूठ है, तो आपके साधारण झूठ उतना नुकसान नहीं करेंगे,
जो आपने दुकान पर बोले हैं, लेकिन यह मंदिर
में बोला गया झूठ भयंकर है।
क्या आपने कभी इसकी फिक्र की कि हम जो भी
श्रद्धा के, भक्ति के, समर्पण के वक्तव्य देते हैं, उनमें हमारे प्राणों की
कोई भी गहरी छाप होती है! बिलकुल नहीं होती है। सच तो यह है कि हम अपनी अश्रद्धा
से इतने घबड़ा जाते हैं कि ऊपर से श्रद्धा का रंग पोत लेते हैं। नास्तिक भीतर छिपा
है। आस्तिक हमारे वस्त्रों से ज्यादा गहरा नहीं है।
इस जमीन पर आस्तिक खोजना कठिन है, हालांकि आस्तिक सब दिखाई पडते हैं। और इस जमीन पर ऐसा
आदमी खोजना कठिन है, जो नास्तिक न हो। यद्यपि नास्तिक एकदम
से दिखाई नहीं पड़ता। यह मजा है। इसलिए दुनिया नास्तिक है। और एक— एक आदमी से मिलिए,
तो वह आस्तिक है! सबका जोड़ नास्तिकता है। और सब अलग—अलग आस्तिक होने
का दावा किए चले जाते हैं। उनकी जिंदगी में हम उतरें, तो
नास्तिकता के सिवाय कहीं कुछ नहीं मिलता।
साईं, शिरडी के साईं के जीवन में एक उल्लेख है। उनके एक भक्त ने कहा कि अब तो
मैं सभी में परमात्मा को देखने लगा हूं। तो साईं बाबा ने कहा कि अगर तुम सबमें
परमात्मा को देखने लगे होते, तो इस भरी दोपहरी में मुझे
नमस्कार करने किसलिए आते हो? कहीं भी नमस्कार कर लेना था।
अगर मैं ही तुम्हें सब जगह दिखाई पड़ने लगा हूं तो इस भरी दोपहरी में इतनी दूर आने
की क्या जरूरत थी? मैं वहीं तुम्हें मिल जाता, मैं वहीं था।
वह जो भक्त था, रोज भोजन लेकर आता था बाबा के लिए। और जब तक वे भोजन
न कर लेते, तब तक वह खुद भी भोजन नहीं करता था।
तो साईं बाबा ने कहा, कल से अब तुम भोजन लेकर मत आना, मैं वहीं आ जाऊंगा। तुम मुझे पहचान लेना, क्योंकि
तुम्हें दिखाई पड़ने लगा है! वह भक्त बडी मुश्किल में पड़ा। भोजन की थाली लगाकर वह
अपने द्वार के वृक्ष के नीचे बैठ गया। अब वह प्रतीक्षा कर रहा है। और एक कुत्ता
उसे परेशान करने लगा। भोजन की सुगंध, वह कुत्ता बार—बार आने
लगा। और वह डंडे से कुत्ते को मार—मारकर भगाने लगा। वक्त बीतने लगा और साईं बाबा
का कुछ पता नहीं, तो फिर वह थाली लेकर पहुंचा उस मस्जिद में,
जहां साईं बाबा रहते थे।
अंदर गया, तो देखा कि साईं बाबा की आंख से आंसू बह रहे हैं। तो पूछा कि आप आए नहीं?
और मैं राह देखता रहा। साईं बाबा ने कहा, मैं
आया था। मेरी पीठ देख! पीठ पर उसकी लकडी के निशान थे, जो
उसने कुत्ते को लकड़ियां मारी थीं। मैं आया था। तू तो कहता था, सबमें तू देखने लगा, इसलिए मैंने सोचा, किसी भी शक्ल में जाऊंगा, तू पहचान लेगा। तो मैं
कुत्ते की शक्ल में आया था। उस भक्त ने कहा, जरा भूल हो गई।
ऐसे तो मैं सबमें आपको देखने लगा हूं लेकिन जरा कुत्ते में देखने का अभी अभ्यास
नहीं है। अब आइएगा, बराबर पहचान लूंगा।
फिर दूसरे दिन हुआ वही। लेकिन इस बार
कुत्ता नहीं आया, एक कोढ़ी आ गया। और उसने
दूर से कहा, दूर रहना! यहां बाबा का भोजन रखा है, अपवित्र मत कर देना! दूर रह, छाया मत डाल देना!
लेकिन वह कोढ़ी सुनता ही नहीं है, पास आए चला जाता है। तो वह
अपनी थाली लेकर भागा और कोढ़ी उसके पीछे भाग रहा है। और वह थाली लेकर भाग रहा है
साईं बाबा की तरफ।
जब वह भीतर पहुंचा, तो देखा, वहां साईं बाबा नहीं
हैं। पीछे लौटकर देखा, तो कोढ़ी की जगह साईं बाबा खड़े हैं। और
साईं बाबा ने कहा, लेकिन तू पहचानता ही नहीं है! उसने कहा,
नया— नया रोज—रोज अभ्यास करवाते हैं! आज पक्का कर लिया था कि कुत्ते
में देखेंगे, और आप कोढ़ी होकर आ गए! कल आइए।
अभ्यास धर्म नहीं है। चेष्टा करके कोई बात
दिखाई पड़ने लगे, उसका कोई मूल्य नहीं।
दिखाई पड़े।
यह अर्जुन चेष्टा कर रहा है। व्यास ने कहा
है, देवल ने कहा है, इसने कहा है, उसने कहा है। और फिर आप भी कहते हैं,
तो मैं मानता हूं आप जो कहते हैं, वह सत्य ही
कहते हैं। यह चेष्टा है, यह अभ्यास है! यह प्रयत्न है मान
लेने का कि कृष्ण भगवान हैं। लेकिन भीतर कोई स्वर बजे चला जा रहा है कि नहीं। उसी
को दबाने के लिए सब उपाय हैं।
आदमी की यह जो दोहरी व्यवस्था है, डबल बाइंड, यह बड़ी जटिल है,
यह गांठ बड़ी गहरी है। इसलिए ऊपर से आप कहते हैं कि मैं बहुत प्रेम
करता हूं और भीतर झांककर देखेंगे, तो प्रेम का कोई पता नहीं।
ऊपर से कहते हैं, मेरी श्रद्धा अपार है। और भीतर देखेंगे,
तो उतनी ही अपार अश्रद्धा मौजूद है। ऊपर से कुछ, भीतर से कुछ! हर आदमी दो में बंटा है।
और जब तक आदमी दो में बंटा है, तब तक किसी भी स्थिति में भगवत्ता को पहचानना संभव
नहीं है। जब आदमी के भीतर का जोड़ यह दो का समाप्त हो जाता है और एक ही पैदा होता
है। जब आदमी के भीतर एक निर्मित होता है, तब भगवत्ता को कहीं
भी पहचान लेना—पहचान लेना कहना ठीक नहीं, तब भगवत्ता को कहीं
भी न पहचानना असंभव है। वह सब जगह मौजूद है। सब
जगह मौजूद है। सब जगह मौजूद है। फिर ऐसा नहीं है
कि उसे देखना पड़े, और फिर ऐसा भी नहीं है कि
गवाहियां खोजनी पड़े। यहां एक मजे की बात है और वह यह कि अगर वितान का अतीत खो जाए,
तो विज्ञान का सारा भवन गिर जाए। अगर हम न्यूटन को अलग कर लें,
गैलीलियो को अलग कर लें, तो न्यूटन और
गैलीलियो के हटते ही आइंस्टीन जमीन पर गिर जाएगा। आइंस्टीन खड़ा नहीं हो सकता अपने
पैरों पर।
विज्ञान एक परंपरा है, एक ट्रेडीशन है। और मजे की बात है कि धर्म को हम
परंपरा कहते हैं, विज्ञान को परंपरा नहीं कहते। विज्ञान
परंपरा है, एक ट्रेडीशन है, एक
कलेक्टिव एफर्ट। बहुत लोगों का उसमें हाथ है। अगर उसमें से एक ईंट खींच लें,
तो ऊपर का शिखर नीचे गिर जाएगा।
लेकिन धर्म परंपरा नहीं है, धर्म वैयक्तिक अनुभव है। अगर अतीत के सारे महापुरुष
भी धर्म के विलीन हो जाएं और एक भी न हुए हों, तो भी आप
धार्मिक हो सकते हैं इसी वक्त। क्योंकि धार्मिक होना निजी अनुभव है। किसने कहा है
और नहीं कहा है, अगर वे सब खो जाएं, अगर
दुनिया में सारे धर्म—ग्रंथ नष्ट हो जाएं, तो भी धर्म नष्ट
नहीं होगा।
यह मजे की बात है। अगर वितान की एक किताब भी
खो जाए, तो बाकी सब किताबें
अस्तव्यस्त हो जाएंगी। और सब किताबें खो जाएं, तो विज्ञान
बिलकुल नष्ट हो जाएगा। क्योंकि विज्ञान निर्भर करता है दूसरों के वक्तव्यों पर।
उसकी एक श्रृंखला है, कड़ी से कड़ी जुड़ी है। अगर पीछे की कड़ी
खोती हैं, तो यह कड़ी निर्मित नहीं हो सकती।
आप सोचते हैं, अगर साइकिल न बनी हो दुनिया में, तो हवाई जहाज नहीं बन सकता। अगर बैलगाड़ी न बनी हो, तो
चांद पर पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। हालांकि बैलगाड़ी से कोई चांद पर नहीं
पहुंचता। लेकिन बैलगाड़ी अगर न बनी होती, तो चांद पर पहुंचने
का कोई भी उपाय नहीं है। जिसने बैलगाड़ी बनाई थी, वह भी चांद
पर पहुंचाने में उतना ही अनिवार्य अंग है, जितना चांद पर
उतरने वाला आदमी।
लेकिन धर्म की बात बिलकुल अलग है। अगर
महावीर न हों, बुद्ध न हों, कृष्ण न हों, राम न हों, कोई
अंतर नहीं पड़ता। कोई अंतर नहीं पड़ता। आप चाहें तो उनके बिना धार्मिक हो सकते हैं।
क्योंकि धार्मिक होना निजी सत्य का साक्षात्कार है। उसका परंपरागत सत्य से कुछ
लेना—देना नहीं है।
यह अर्जुन अभी भी जो बात कर रहा है, परंपरा की बात कर रहा है। अभी तक इसे निजी कोई बोध
नहीं है।
परमात्मा सामने खड़ा हो, और कैसी फीकी—फीकी बातें अर्जुन कर रहा है! कृष्ण के
सामने क्या है अर्थ व्यास का? कृष्ण के सामने क्या है अर्थ
देवल ऋषि का, देव ऋषियों का? कृष्ण के
सामने क्या है अर्थ? ऐसे जैसे सूरज सामने खड़ा हो और कोई दीए
को लेकर गवाहियां देता हो कि निश्चित, मैं दीए में देखकर
कहता हूं कि तुम सूरज हो। ये गवाहियां ऐसी हैं।
लेकिन अर्जुन को खयाल नहीं है। वह सोच रहा
है, बड़े—बड़े नाम ला रहा है वह,
बड़े वजनी। वजनी वे हैं अर्जुन के लिए, कृष्ण
के सामने वे दीए की तरह व्यर्थ हैं। सूरज के सामने जैसे दीया खो जाए; कोई अर्थ नहीं है। उनका मूल्य ही इतना है कि अंधेरा जब हो गहन, तब वे रोशनी देते हैं। और जब सूरज ही सामने हो, तो
उनका कोई भी उपयोग नहीं है।
लेकिन अर्जुन उनकी गवाहियां ला रहा है, कृष्ण को बहुत अदभुत लगा होगा! आज तक कृष्ण और बुद्ध
को कैसा लगा है, उन्होंने कोई वक्तव्य दिए नहीं हैं। लेकिन कृष्ण
को बहुत हैरानी का लगा होगा कि मैं सामने खड़ा हूं और अर्जुन कह रहा है कि महर्षि
व्यास भी कहते हैं कि आप भगवान हो। मैं भी मानता हूं; और भी
मानते हैं। जैसे कि उसके मानने पर निर्भर हो कृष्ण का भगवान होना!
हम सबको यह खयाल है कि अगर हम न मानें और
हमारी वोट न मिले, तो भगवान गए! हमारे ऊपर
निर्भर हैं। हम मानते हैं, तो भगवान हैं। हम नहीं मानते,
तो दो कौड़ी की बात, समाप्त हो गई। आपके मानने
पर कोई निर्भर बात नहीं है। किसी के मानने पर कोई निर्भर बात नहीं है। भगवत्ता एक
सत्य है। और उस सत्य को जो इस भांति घूम—फिर कर चलेगा, वह सीधा
न जाकर व्यर्थ ही चक्कर काट रहा है। केंद्र के आस—पास परिधि पर घूम रहा है,
भटक रहा है, परिभ्रमण कर रहा है; केंद्र को चूक रहा है।
यह अर्जुन सामने नहीं देख रहा, कौन खड़ा है। यह घूम रहा है। यह चारों तरफ चक्कर लगाकर
कह रहा है कि ठीक है; परिक्रमा कर रहा हूं। और लोग भी कहते
हैं! मत इकट्ठे कर रहा है। लेकिन सामने जो खड़ा है, उससे चूक
रहा है।
हम सबकी भी अवस्था यही है। परमात्मा सदा
ही सामने है— सदा ही। क्योंकि जो भी सामने है, वही है। लेकिन हम पूछते हैं, परमात्मा कहां है?
हम पूछते हैं, किस शास्त्र को खोलें कि
परमात्मा का पता चले? किस गुरु से पूछें कि उसकी खबर दे?
और वह सामने मौजूद है। और हम बिना गुरु से पूछे उसको नहीं देख सकते!
और हम बिना शास्त्र पढ़े उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकते!
जो सामने नहीं देख सकता उसकी मौजूदगी, वह शास्त्र में कैसे देखेगा? जो
उसे नहीं देख सकता, वह गुरु को कैसे पहचानेगा कि यह रहा
गुरु!
लेकिन हम चक्करों में घूमते हैं। चक्कर
बड़े—छोटे, अपने—अपने पसंद के हम
बनाते हैं और उनमें घूमते हैं। मंदिर में परिक्रमा होती है। बीच में मूर्ति होती
है, चारों तरफ परिक्रमा होती है। हम परिक्रमा में ही घूमते
रहते हैं जन्मों—जन्मों। उस बीच की मूर्ति से हमारा कोई संबंध ही नहीं हो पाता।
बीच की मूर्ति सदा ही मौजूद है।
ये कृष्ण अर्जुन के सामने ही मौजूद हों, ऐसा नहीं है। वे हर अर्जुन के सामने मौजूद हैं। और
अर्जुन जो कर रहा है, वही हर अर्जुन करता है, इनडायरेक्ट पूक्स खोजता है।
ईसाई विचारक एनसेल्म ने ईश्वर के लिए चार
प्रमाण जुटाए हैं, कि वह है, ये चार प्रमाण हैं। एनसेल्म बेचारा आस्तिक नहीं है। यद्यपि ईसाइयत मानती
है कि एनसेल्म के जो तर्क हैं, बड़े कीमती हैं और आस्तिकता
पश्चिम में उन पर ही टिकी है। लेकिन मैं कहता हूं वह आस्तिक नहीं है। क्योंकि उसने
जो तर्क दिए हैं, वे बचकाने हैं। और उन तर्कों से अगर ईश्वर
सिद्ध होता है, तो वे सब तर्क काटे जा सकते हैं।
वे सब तर्क काटे जा सकते हैं। ऐसा कोई भी
तर्क नहीं है दुनिया में, जो काटा न जा सके।
अतर्क्य तर्क होता ही नहीं। और जो भी तर्क एक तरफ गवाही देता है, वही तर्क दूसरी तरफ भी गवाही दे सकता है। तर्क पक्षधर नहीं होते, तर्क वेश्याओं की तरह होते हैं; प्रोफेशनल! तर्क तो
किसी के भी साथ खड़ा हो जाता है! तर्क की कोई अपनी श्रद्धा नहीं होती। जहां जरूरत
पड़े, जो खींच ले, तर्क उस तरफ खिंच
जाता है।
इसलिए अगर कोई सोचता हो तर्क से, जैसे एनसेल्म ने तर्क दिए हैं ईश्वर के होने के,
वे सब तर्क काट दिए गए हैं। कोई भी काट सकता है। एक स्कूल का बच्चा
भी, जो थोड़ा तर्क जानता है, उनको काटकर
रख देगा। तर्क से ईश्वर का कोई संबंध नहीं है, गवाही से
ईश्वर का कोई संबंध नहीं है।
बुद्ध के पास एक आदमी आया है और वह बुद्ध
से कहता है कि जीवन के बाद, मृत्यु के बाद भी जीवन
बचता है? अगर आप गवाही दे दें, तो मैं
मान लूं। बुद्ध ने कहा, अगर मैं गवाही दे दूं तो
फिर तुझे और भी गवाहियों की जरूरत पड़ेगी, जो कहें कि बुद्ध झूठा आदमी नहीं है। फिर तुझे उन
गवाहियों का भी पता लगाना पड़ेगा कि वे झूठ तो नहीं बोल रहे हैं; कोई सांठ—गांठ तो नहीं है बुद्ध से भीतरी; कोई लेन—देन
तो नहीं है!
एक अंग्रेज विचारक भारत आया था, कुछ योगियों, साधुओं के संबंध
में चमत्कार की बातों का पता लगाने। एक योगी के संबंध में सुना कि उसकी उम्र नौ सौ
वर्ष है। तो वह बहुत चकित हुआ। मिरेकल था, चमत्कार था। नौ सौ
वर्ष! बात झूठ होनी चाहिए।
गया, वहां बड़ी भीड़— भाड़ थी। बड़े भक्त थे। बड़ा उत्सव चल रहा था। उसकी हिम्मत न
पड़ी। एक आदमी के पास बैठकर उसने थोड़ा मित्राचार, थोड़ी दोस्ती
बढ़ाई। फिर जब बातचीत शुरू हो गई, तो उसने पूछा कि क्या मैं
आपसे पूछ सकता हूं कि आप इनके शिष्य हैं? उसने कहा, ही। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इनकी उम्र कितनी है? मैंने
सुना, नौ सौ वर्ष है! उस शिष्य ने कहा, मैं कुछ ज्यादा नहीं कह सकता। मैं सिर्फ पांच सौ वर्ष से इन्हें जानता हूं।
तब उसने अपना सिर पीट लिया कि अब मुसीबत
खड़ी हुई। अब मैं किससे पता लगाऊं कि इनकी उम्र कितनी है! और इसका अंत कहां होगा?
जब भी हम कोई इनडायरेक्ट विटनेस, परोक्ष गवाही की तलाश में जाते हैं, तब हम भ्रांति में जा रहे हैं।
अच्छा होता अर्जुन सीधा कृष्ण की आंखों
में आंखें डालकर खड़ा हो जाता। छोड़ता व्यास को, छोड़ता देवल को, छोड़ता ऋषि— मुनियों को, सीधा कृष्ण की आंख में आंख डालकर खड़ा हो जाता। तो अर्जुन जितना जान लेता,
उतना इन गवाहियों से, कितनी ही ये गवाहियां
हों, कभी भी नहीं जाना जा सकता।
लेकिन सामने देखने की हिम्मत शायद उसकी
नहीं है। शायद वह डरता है कि कहीं सामने देखकर सच में ही पता न चल जाए कि कृष्ण
भगवान हैं। वह भी भय है। वह भी भय है। क्योंकि कल हम यह भी कह सकते हैं कि व्यास
को गलती हुई होगी। जिम्मेवारी हमारी क्या? व्यास ने कहा था, इसलिए हमने मान लिया था। लेकिन अगर
हमें ही दिखाई पड़ जाए, तो फिर जिम्मेवारी सीधी हो जाती है।
फिर मैं ही जिम्मेवार हो जाता हूं। वह भी भय है; वह भी डर है।
ये सारे डर हैं। और हर आदमी के डर हैं।
यहां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार—संक्षिप्त है।
है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता
के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार—संक्षिप्त हैं। कृष्ण
जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका
निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डांवाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है।
इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, दो अलग—अलग आयाम जो समानांतर दौड़
रहे हैं, उनके बीच चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी
दूसरी किताब नहीं है, क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है।
रामायण है, वह राम के जीवन की लंबी कथा है। बाइबिल है, वह जीसस
के अनेक—अनेक अवसरों पर अनेक—अनेक अलग— अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। कुरान है,
वह ईश्वर का संदेश है मनुष्य—जाति के प्रति, मोहम्मद
के द्वारा निवेदित। लेकिन कोई भी डायलॉग नहीं है सीधा।
गीता सीधा डायलॉग है। मैं—तू की हैसियत से
दो दुनियाएं सामने खड़ी हैं। एक तरफ सारी मनुष्यता का डांवाडोल मन अर्जुन में खड़ा
है और एक तरफ सारी भगवत्ता अपने सारे निचोड़ में कृष्ण में खड़ी है। और इन दोनों के
बीच सीधी मुठभेड़ है, सीधा एनकाउंटर है। यह
बहुत अनूठी घटना है। इसलिए गीता एक अनूठा अर्थ ले ली है। वह फिर साधारण धार्मिक
किताब नहीं है। उसको हम और किसी किताब के साथ तौल भी नहीं सकते। वह अनूठी है।
लेकिन अगर हम उसके इस गहरे आयाम में
प्रवेश करें और अर्जुन की पर्त—पर्त तोड़ते चले जाएं, तो ही हमें खयाल में आएगा। तो अर्जुन के साथ कई बार मैं नाहक ज्यादा कठोर
हो जाऊंगा, सिर्फ इसलिए ताकि मनुष्य की पर्त—पर्त का खयाल आ
जाए। और अर्जुन पूरा उघड जाए, तो ही कृष्ण को हम पूरा उघाड़
सकते हैं। और जिस अर्थ में अर्जुन का द्वंद्व स्पष्ट हो, उसी
अर्थ में कृष्ण का संदेश और संवाद भी स्पष्ट हो सकता है।
आज इतना ही।
लेकिन पांच मिनट रुके। और कल कीर्तन जब हो
रहा था, आप उठ—उठकर पास आ गए।
उससे तकलीफ होती है। अपनी जगह ही पांच मिनट बैठे रहें। इतनी तो कम से कम आत्मा
प्रकट करें कि पांच मिनट बैठे रह सकते हैं। वहीं बैठे रहें। कीर्तन जब समाप्त हो,
तभी उठें।
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