गुरुवार, 9 नवंबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-05)-प्रवचन-121


सगुण प्रतीकसृजनात्‍मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के(प्रवचनआठवां)

गीता दर्शन-(भाग-05)प्रवचन-121
अध्‍याय—10
सूत्र: 

      आदित्यानामहं विश्वर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मस्तामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।। 21।।
वेदानां सामवेदोउस्थि देवानामस्मि वासव:।
ड़न्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। 22।।

और हे अर्जुन मैं अदिति के बारह मुन्नों में विश्व और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं तथा मैं वायु देवताओं में मरीचि नामक वायु देवता और नक्षत्रों में नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूं।
और मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं, और ड़ंद्रियों में मन हूं, भूत—प्राणियों में चेतनता अर्थात ज्ञान— शक्ति हूं।

 नहीं कहा जा सकता, उसे भी प्रतीक से कहने के उपाय किए जाते हैं। और जिसे बताया नहीं जा सकता, जो अशात है, उसकी ओर भी, जो हम जानते हैं उसके माध्यम से इंगित किए जा सकते हैं। इस सूत्र को समझने के पहले इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
ईश्वर अज्ञात है। नहीं, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। लेकिन जो हमें पता है, क्या उसके आधार पर हम उस अज्ञात के संबंध में कुछ इशारे भी कर पा सकते हैं या नहीं? एक छोटे बच्चे को भाषा पढानी पड़ती है, तो भाषा तो उसे अज्ञात होती है। लेकिन कहीं से शुरू करना पड़ेगा। जो उसे ज्ञात होता है, उसके आधार पर ही शुरू करना पड़ेगा।
छोटे बच्चे के लिए हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। अगर छोटे बच्चों की किताब आप देखते हैं, तो आपको साफ मालूम होगा, शब्द होते हैं कम, चित्र होते हैं ज्यादा। चित्र ही प्रमुख होते हैं, शब्द गौण होते हैं। चित्रों के आधार पर ही शब्दों को समझाने की कोशिश होती है। क्योंकि बच्चे का मन चित्र को तो समझ पाता है, शब्द को नहीं समझ पाता है। शब्द अभी अतात है। लेकिन चित्र? चित्र बच्चा देख सकता है।
मनुष्य का जो मन है, वह पहले चित्रों की भाषा में सोचता है, फिर शब्दों की भाषा विकसित होती है। और अभी भी रात जब आप सपने देखते हैं, तो चित्रों की भाषा में देखते हैं, क्योंकि सपने में आप अपनी शिक्षा—दीक्षा सब भूल जाते हैं। जो भाषा आपको सिखाई गई है प्रतीकों की, संकेतों की, गणित की, व्याकरण की, वह सब आप भूल जाते हैं। सपने में आप फिर प्रिमिटिव हो जाते है, सपने में फिर उन पुरानी अवस्थाओं में पहुंच जाते हैं, जहां हम चित्रों से सोच सकते हैं।
दुनिया की जो प्राचीनतम भाषाएं हैं, वे चित्रों वाली हैं। जैसे चीनी है, वह चित्र की भाषा है। अभी भी उसके पास वर्णाक्षर नहीं हैं। बहुत कठिन है, क्योंकि हर चीज का चित्र, बहुत लंबी प्रक्रिया है। अगर चीनी भाषा को किसी को पढ़ना हो, तो कम से कम दस वर्ष तो लग ही जाएंगे और तब भी प्राथमिक ज्ञान ही होगा। कम से कम एक लाख शब्द—चित्र तो याद होने ही चाहिए साधारण ज्ञान के लिए भी। हर चीज का चित्र है। जो प्राचीनतम भाषा होगी, वह चित्रों में होगी
बच्चों का मन प्राचीनतम मन है। वे चित्रों से समझते हैं। तो हमें कहना पड़ता है, ग गणेश का। ग से गणेश का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि ग गधे का भी उतना ही है। लेकिन गणेश का या गधे का चित्र हम बनाएं, तो बच्चे को ग समझाना आसान हो जाता है। पुरानी किताबों में गणेश का चित्र होता था, नई किताबों में गधे का चित्र है, इसलिए मैं कह रहा हूं। क्योंकि सेक्युलर है गवर्नमेंट, धर्म— निरपेक्ष है राज्य। गणेश का चित्र नहीं बना सकते! तो पुरानी किताबों में ग गणेश का होता था, नई किताबों में ग गधे का है।
ग को समझाना हो, तो गणेश को रखना पड़ता है। फिर जब बच्चा समझ लेगा, तो गणेश को छोड़ देगा, ग रह जाएगा। अगर बाद में भी आप पढ़ते वक्त हर बार कहें कि ग गणेश का, तो फिर पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। फिर गणेश को भूल जाना पड़ेगा और ग को याद रखना पड़ेगा। लेकिन ग को याद करने में पहले गणेश का उपयोग लिया जा सकता है, लिया जाता है। और अब तक कोई शिक्षा—पद्धति विकसित नहीं हो सकी, जिसमें हम बिना चित्रों का उपयोग किए बच्चों को शब्दों का बोध करा दें।
कृष्‍ण ने मौलिक बात कह दी है कि मैं समस्त आत्माओं में आत्मा हूं। मैं समस्त आत्माओं का केंद्र हूं। मैं समस्त हृदयों का हृदय हूं। मेरा ही विस्तार है सब कुछ— आदि भी, मध्य भी, अंत भी।
लेकिन वह बहुत गहरा भाव है और अर्जुन को भी पकड़ में नहीं आएगा। इसलिए कृष्‍ण अब चित्रों का प्रयोग करते हैं, और चित्रों के माध्यम से उस भाव की तरफ इशारा करते हैं। अर्जुन जो चित्र समझ सकेगा, निश्चित ही उनका ही उपयोग किया गया है।
कृष्‍ण ने कहा, और हे अर्जुन, मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु हूं। इस प्रतीक को हम समझें।
तीन नाम से हम निरंतर परिचित रहे हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
हिंदू चितना में ब्रह्मा सृजन के प्रतीक हैं, महेश विसर्जन के, अंत के, विनाश के और विष्णु मध्य के, विस्तार के। विष्णु सम्हालते हैं अस्तित्व को। जो सम्हालने की शक्ति है, वह विष्णु का नाम है। जो जन्म की शक्ति है, सृजन की, वह ब्रह्मा। और जो विनाश की, प्रलय की शक्ति है, वह शिव या महेश।
इन तीन शब्दों को हिंदुओं ने बहुत मौलिक मूल्य दिया है। क्योंकि हिंदू चितना को ऐसा हजारों—हजारों वर्ष पहले खयाल में आया कि अगर हम सारे अस्तित्व को मोटे—मोटे हिसाब से बांटें, तो अस्तित्व तीन हिस्सों में बंट जाता है। इस अस्तित्व में कुछ तो होनी चाहिए सृजनात्मक ऊर्जा, क्रिएटिव एनर्जी, अन्यथा जगत हो नहीं. सकेगा। और यह सृजनात्मक शक्ति ही अगर जगत में हो, तो फिर विश्राम असंभव हो जाएगा। इसलिए विनाश की भी उतनी ही मूल्यवान शक्ति, डिस्ट्रक्टिव एनर्जी भी जगत में होनी चाहिए, तभी दोनों में संतुलन होगा।
लेकिन अगर ये दोनों ही शक्तियां हों, तो बीच में मौका अस्तित्व को बचने का बचेगा ही नहीं। एक तीसरी शक्ति भी चाहिए, जो अस्तित्व को सम्हालती हो। जन्म के और मृत्यु के बीच में जो अस्तित्व को सम्हालती हो; सृजन के और प्रलय के बीच में जो अस्तित्व को धारण करती हो, वैसी एक तीसरी शक्ति भी चाहिए। ये तीन मौलिक शक्तियां हैं। इन तीन मौलिक शक्तियों के प्रतीक और शब्द—चित्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।
हिंदुओं की यह अंतर्दृष्टि धीरे— धीरे इतनी व्यापक और मूल्यवान सिद्ध हुई कि करीब—करीब जगत में जहां भी इस विचार की खबर पहुंची, वहां—वहां तीन शक्तियों का स्वीकार हो गया। जैसे ईसाइयत तीन शक्तियों को स्वीकार करती है, गॉड दि फादर, गॉड दि सन और दोनों के बीच में एक तीसरी शक्ति, होली घोस्ट। नाम कोई भी दिए जा सकते हैं। नाम का चुनाव निजी है। लेकिन त्रिमूर्ति का यह भाव ईसाइयत स्वीकार करती है। उसको वे ट्रिनिटी कहते हैं। ये जो तीन अस्तित्व की शक्तियां हैं, इनके बिना अस्तित्व नहीं हो सकता है, इसकी स्वीकृति ईसाइयत के धर्म—विचार में भी है।
और आधुनिक वितान ने भी पदार्थ के विश्लेषण पर, बहुत चकित होकर जाना कि पदार्थ के विश्लेषण पर तीन ही शक्तियां शेष रह जाती हैं। जैसे ही हम परमाणु का विस्फोट करते हैं, विश्लेषण करते हैं, तो इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्‍यूट्रान, ये तीन अंतिम अस्तित्व हमारे हाथ में आते हैं। और मजे की बात तो यह है कि इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्‍यूट्रान, इन तीनों का भी व्यवहारिक रूप वही है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश का है। उन तीनों का काम भी वही है। उनमें एक विधायक है, एक विनाशक है, और एक तटस्थ है। उसमें एक सृजनात्मक है, एक समाप्त करने वाला है और एक सम्हालने वाला है।
अगर हम धर्म की दिशा से यात्रा करें, तो जो शब्द हम चुनते हैं, वे वैयक्तिक होते हैं, पर्सनल होते हैं। क्योंकि धर्म चित्रों में सोचता है। इसलिए हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन को बनाया है। हमने तीनों की त्रिमूर्ति बनाई है, जिनमें शरीर एक है और चेहरे तीन हैं। इस बात की सूचना देने के लिए कि ये तीन हमें बाहर से दिखाई पड़ते हैं, भीतर से एक हैं।
इन तीनों में कृष्‍ण ने कहा कि मैं विष्णु हूं।
इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। इन तीनों में कृष्ण ने कहा कि मैं विष्णु हूं। सृजन एक क्षण में हो जाता है। और विनाश भी एक क्षण में हो जाता है। काल का लंबा विस्तार विष्णु के हाथ में है। सृजन हुआ, बात समाप्त हो गई; स्रष्टा का उपयोग समाप्त हो गया। और

 विनाशक शक्ति का उपयोग अंत में होगा, जब प्रलय होगा। इसलिए विराटतम ऊर्जा, जो काम में निरंतर आती है, वह मध्य में है, वह विष्णु है।
कृष्ण कहते हैं, इन तीनों में मैं विष्णु हूं।
हिंदुओं के सारे अवतार विष्णु के अवतार हैं। हिंदुओं ने माना है कि ईश्वर जब भी प्रकट होता है, तो वह विष्णु का अवतार है। इसे थोड़ा हम समझें कि इसका क्या प्रयोजन और क्या अर्थ होगा! क्या अभिप्राय होगा!
जब सृष्टि नहीं हुई हो, तब तो मनुष्य भी नहीं होता, और अवतार का कोई अर्थ और कोई प्रयोजन नहीं है। और जब सृष्टि विनष्ट हो गई हो, विलीन हो गई हो, तब भी अवतार का कोई प्रयोजन नहीं है। अवतार का प्रयोजन तो सृजन और अंत के बीच में, जब सृष्टि चलती हो, प्रक्रिया में हो, जीवंत हो, तभी प्रयोजन है।
शिव का अवतार, विनाश का अवतार होगा। उसकी कोई आवश्यकता मध्य में नहीं हो सकती। और ब्रह्मा का अवतार सृजन का अवतार होगा, उसकी कोई आवश्यकता मध्य में नहीं हो सकती। और जीवन है मध्य में। प्रारंभ और अंत तो दो छोर हैं। हम ऐसा कह सकते हैं कि ब्रह्मा और महेश तो छोर पर उपयोगी हैं, लेकिन पूरा जीवन का जो फैलाव है, वह फैलाव विष्णु का फैलाव है। इसलिए इस मध्य के काल में, जीवन के काल में जो भी ईश्वर की अवधारणाएं हैं, वे सभी अवधारणाएं विष्‍णु की अवधारणाएं हैं। वही शक्ति, जो जीवन को धारण करती है, वही अवतरित होगी।
इसलिए बहुत मजे की बात है, ब्रह्मा का एकाध मंदिर खोजे से मिलेगा। ब्रह्मा की पूजा भी चलती हुई मालूम नहीं पड़ती है। सृजन तो हो चुका, इसलिए ब्रह्मा भुलाए जा सकते हैं। वह बात हो चुकी। अभी ब्रह्मा का कोई संस्पर्श जीवन से नहीं है। वह घटना घट चुकी; ब्रह्मा का काम पूरा हो चुका। विष्णु की पूजा चलती है। चाहे राम के रूप में, चाहे कृष्‍ण के रूप में, चाहे बुद्ध के रूप में— क्योंकि हिंदू मानते हैं, बुद्ध भी विष्णु का ही अवतार हैं— अनेक—अनेक रूपों में विष्णु की पूजा चलती है, क्योंकि जीवन का प्रतिपल संबंध विष्णु से है।
शिव के भी बहुत मंदिर हैं, और शिव के भी बहुत भक्त हैं। वह घटना भी अभी घटने को है, वह भविष्य है। मृत्यु, प्रलय, वह घटना अभी घटने को है। अभी शिव भी बहुत सार्थक हैं और उनकी पूजा में भी अभिप्राय है।
आदमी तो पूजा भी करेगा, तो अभिप्राय से करेगा। इसलिए ब्रह्मा की पूजा नहीं चलती, क्योंकि कोई भी संबंध नहीं रह गया है। वह घटना घट चुकी, अतीत हो गई बात। अब ब्रह्मा की जरूरत पड़ेगी नई सृष्टि के जन्म के समय। तब भी कोई ब्रह्मा की पूजा नहीं करेगा, क्योंकि पूजा करने वाले लोग ही नहीं होंगे। जब पूजा करने वाले लोग आ जाते हैं, तो ब्रह्मा का काम समाप्त हो चुका होता है। इसलिए ब्रह्मा का भक्त खोजना जरा मुश्किल है, कठिन है, क्योंकि कोई भी संबंध हमारा उनसे जुड्ने का— हमारे लोभ से, हमारे भय से, हमारे स्वार्थ से, हमारे कल्याण से ब्रह्मा का कोई भी संबंध नहीं जुड़ता।
इसलिए यह घटना घटी है कि तीनों सृष्टि के प्रधान देवता हैं, लेकिन ब्रह्मा बिलकुल ही उपेक्षित हैं। वे रहेंगे ही। विष्‍णु की सर्वाधिक पूजा होगी, क्योंकि जीवन का दैनंदिन, प्रतिपल का संबंध उनसे है। और जितने भी रूप परमात्मा के प्रकट होंगे, हिंदू कहता है कि वे सभी विष्‍णु के ही रूप हैं। होंगे ही। एक ही ऊर्जा जो धारण करती है, वही जीवन के इस लंबे विस्तार में बार—बार प्रवेश करेगी। शिव का प्रयोग अंतिम होगा, लेकिन वह भी हमारा भविष्य है। और आदमी की चिंता भविष्य के लिए भी होती है, शायद वर्तमान से भी ज्यादा भविष्य के लिए होती है। आदमी के भय और आदमी के लोभ वर्तमान से भी ज्यादा भविष्य में निर्भर होते हैं। आने वाले कल में सब कुछ निर्भर होता है। तो शिव की भी पूजा चलेगी।
लेकिन कृष्‍ण ने कहा कि मैं विष्‍णु हूं। यह जीवन का जो केंद्रीय तत्व है सम्हालने वाला, वह मै हूं।
इसे आप ठीक से समझ लेंगे कि यह केवल चित्रों के द्वारा, प्रतीकों के द्वारा अर्जुन को बोध देना है। कृष्ण ने गहरी बातें भी अर्जुन को कही हैं, वे शायद उसकी पकड़ में नहीं आती। वह कहता है, मुझे और विस्तार से कहें। विस्तार में जानने का मतलब ही यह है कि जो उसे कहा गया है, वह उसे साफ नहीं हो सका। तो कृष्‍ण अब बिलकुल ठीक अर्जुन को एक बच्चे की तरह मानकर चल रहे हैं। वे उसे कह रहे हैं कि मैं विष्णु हूं।
यह अर्जुन की समझ में आ सकता है। यह आसान है। यह सरल होगा। यह हमारे जगत की भाषा का हिस्सा हो जाता है। परमात्मा— एक तो इस अवस्था में उसकी चर्चा की जा सकती है कि जहां से भी हम पहुंचने की कोशिश करें, हमारे हाथ छोटे पड़ जाएं। कितनी ही हम आंखें ऊपर उठाएं, वह हमें दूर ही मालूम पड़े।
विष्‍णु के माध्यम से कृष्‍ण कहते हैं कि मैं बहुत निकट हूं। प्रतिपल मैं ही जीवन को धारण किए हुए हूं। आती हुई श्वास में भी मैं हूं जाती हुई श्वास में भी मैं हूं। खून की रफ्तार में भी मैं हूं वृक्ष के खिलने में भी मैं हूं। यह जो जीवन को सम्हाले हुए हूं इस जीवन का सारा आधार मैं हूं।
विष्णु का अर्थ है, जीवन का आधार। प्रतिपल, प्रतिक्षण, जो सम्हाले हुए है, वही मैं हूं। यह अर्जुन को समझना आसान हो सकेगा। विष्‍णु हूं मैं, और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं।
जैसे भौतिक वैज्ञानिक पदार्थ की आखिरी इकाई परमाणु मानते हैं, वैसे ही अगर हम समस्त अस्तित्व के विराट रूप को ध्यान में रखें, तो सूर्य सबसे छोटी इकाई है। जैसे परमाणु, हम पदार्थ को तोड़ते चले जाएं, तो आखिरी इकाई है, ऐसे ही अगर हम पूरे अस्तित्व की इकाई खोजने जाएं, तो सूर्य पूरे अस्तित्व की प्राथमिक इकाई है।
रात में आप आकाश को तारों से भरा हुआ देखते हैं, तो आपको खयाल भी नहीं आता होगा कि इनमें तारा कोई भी तारा नहीं है, ये सभी सूर्य हैं। और हमारे सूर्य से बहुत बड़े सूर्य हैं। हमारा सूर्य बहुत मीडियाकर, मध्यमवर्गीय है। ऐसे तो बहुत बड़ा है, हमारी दृष्टि से। पृथ्वी से तो साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और महासूर्य हैं, जिनके मुकाबले वह कुछ भी नहीं है।
ये जो रात में हमें तारे दिखाई पड़ते हैं, ये सभी सूर्य हैं। बहुत छोटे दिखाई पड़ते हैं। छोटे दिखाई इसलिए पड़ते हैं कि बहुत फासला है, लंबा फासला है। इस फासले का हम थोड़ा ध्यान रखें, तो हमें खयाल में आए कि सूर्य को प्राथमिक इकाई, यूनिट मानने का क्या कारण है।
जमीन से अगर हम सूरज की तरफ यात्रा करें, सूरज की किरण की ही रफ्तार से यात्रा करें, तो हमें पहुंचने में कोई साढ़े नौ मिनट लगेंगे। लेकिन सूरज की किरण की रफ्तार से चलें तो! अभी तो हमारे पास जो बड़ी से बड़ी रफ्तार है, उससे भी हम पूरे जीवन भी चलते रहें, तो सूरज तक पहुंच पाएंगे। सूरज कि किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील! एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील! इसमें साठ का गुणा करें तो एक मिनट में, और उसमें भी साठ का गुणा करें, तो एक घंटे में।
लेकिन सूरज हमारे बहुत करीब है, साढ़े नौ, दस मिनट का फासला है। अगर हम इन तारों की तरफ यात्रा करें, तो जो सबसे निकट तारा है, उस तक अगर हम सूरज की किरण की रफ्तार से चलें, तो हमें पहुंचने में चार साल लगेंगे। सूरज की किरण की रफ्तार से चलने में सूरज के बाद जो सबसे निकट का सूर्य है, हमें पहुंचने में चार साल लगेंगे।
अभी तक वैज्ञानिक मानते हैं कि हम उस रफ्तार से कभी चल न सकेंगे, क्योंकि उस रफ्तार पर कोई भी चीज, उतनी रफ्तार पकड़ते ही सूर्य की किरण बन जाएगी। जो भी वाहन हम उपयोग करेंगे, जो यात्रा का साधन उपयोग करेंगे, वह किसी भी धातु का हो, उतनी रफ्तार पर वह सूर्य की किरण हो जाएगा। और उसके भीतर के यात्री भी किरण हो जाएंगे। उतनी तेज रफ्तार पर इतनी गर्मी पैदा होगी कि जो भी होगा, वह आग हो जाएगा।
इसलिए आशा नहीं है अभी कि उतनी रफ्तार पर हम कभी यात्रा कर सकेंगे। अब तक की जो व्यवस्था है, उसमें कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती। एक ही संभावना है, जो कि अभी बिलकुल कल्पना है, वह संभावना यह है कि सूरज की किरण की हैसियत से, सूरज की किरण बनकर ही कोई आदमी यात्रा करे और एक विशेष टेंपरेचर पर सूरज की किरण बन जाए और जब दूसरे सूरज पर पहुंचे, तो वापस टेंपरेचर पर आदमी बनाया जा सके, री—कनवर्ट किया जा सके। लेकिन वह शायद हजारों—लाखों वर्ष बाद कभी संभव हो सके।
चार वर्ष लगेंगे हमें, जो निकटतम सूर्य है वहां तक पहुंचने में। लेकिन वह निकटतम है, उससे दूर सूर्य हैं। और अब तक वैज्ञानिकों ने कोई तीन अरब सूर्यों का पता लगाया है। यह भी अंत नहीं है। यह भी केवल हमारी खोज की सीमा है, अस्तित्व की सीमा नहीं है।
इनमें जो तीन अरब सूर्य हैं, उनमें से कुछ सूर्य तो ऐसे हैं कि उनकी किरण हम तक पहुंचने में अरबों वर्ष लग जाते हैं, उसी रफ्तार से, एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से! कुछ ऐसे सूर्य हैं जिनकी किरण अब हमारी पृथ्वी पर पहुंची है, और तब चली थी, जब हमारी पृथ्वी बनी थी। हमारी पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हुए हैं। चार अरब वर्षों में चली हुई किरण जो पहले दिन चली थी पृथ्वी के बनने पर, वह अब पहुंच पाई है!
और वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे भी सूर्य हैं, हमारी पृथ्वी बन जाएगी, हम रह चुके होंगे अरबों—खरबों वर्ष और समाप्त हो जाएगी, और उनकी किरण जो चली होगी बनने के पहले, वह हमारे मिटने के बाद यहां से गुजरेगी।
उस किरण को पता ही नहीं चलेगा कि बीच में यहां एक पृथ्वी बनी, उस पर करोड़ों लोग रहे, अरबों वर्ष तक युद्ध चले, कलह चली, लोभ, भय चला; निर्माण हुआ, विनाश हुआ; उस किरण को कुछ भी पता नहीं चलेगा। वह किरण जब चली थी, तब पृथ्वी नहीं थी, और जब यहां से गुजरेगी, तब फिर पृथ्वी शून्य हो गई होगी। उस किरण के लिए इस स्थान पर कभी कोई घटना ही नहीं घटी। हमारा सारा इतिहास, लंबे से लंबा इतिहास भी उस किरण की यात्रा के बीच में पता ही नहीं चलेगा। लेकिन यह भी अंतिम सूर्य नहीं है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि इस विस्तार का कोई अंत नहीं है।
इसको अगर हम ध्यान में रखें, तो सूर्य जो है, वह इस विराट का यूनिट है, इकाई है। इस विराट को अगर हम तौलें, तो सूर्य से तौल सकते हैं। एक—एक सूर्य का अपना—अपना सौर—परिवार है। पृथ्वी है, चांद है, मंगल है, बृहस्पति है, यह सब एक सूर्य का परिवार है। वैज्ञानिक कहते हैं, ये सब सूर्य से ही पैदा हुए हैं। ये सब सूर्य के ही टुकड़े हैं। एक सूर्य के नष्ट होने पर उसका पूरा परिवार नष्ट हो जाता है। और एक सूर्य के पैदा होने पर उसका पूरा परिवार निर्मित होता है। जिस दिन हमारा सूर्य नष्ट हो जाएगा, उस दिन सब हमारे सूर्य का परिवार नष्ट हो जाएगा।
और यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। रोज सैकड़ों सूर्यों के परिवार नष्ट होते हैं और रोज नये सैकड़ों सूर्यों के परिवार जीवित होते हैं, जन्म लेते हैं। जब एक सूर्य कहीं मरता है, तो तत्काल दूसरा
सूर्य कहीं पैदा हो जाता है, क्योंकि उसकी निकली हुई सारी किरणें पुन: दूसरी जगह संगठित हो जाती हैं।
सूरज भी रोज चुकता चला जाता है। हमारी जमीन को यह सूरज कोई चार अरब वर्ष से प्रकाश दे रहा है। उसका प्रकाश रोज कम होता जा रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, कोई चार हजार साल और, और सूरज का ईंधन चुक जाएगा, वह ठंडा पड जाएगा, बुझ जाएगा। उसके बुझते ही सब बुझ जाएगा। हमारा सौर—परिवार बुझ जाएगा। लेकिन तब तक उसकी सारी किरणें किसी दूसरे कोने में विराट के इकट्ठी होकर नये सूर्य को जन्म दे देंगी और नया सूर्य—परिवार निर्मित हो जाएगा। जैसे एक व्यक्ति मरता है और बच्चे को जन्म दे जाता है, ऐसे ही सूरज भी मरते रहते हैं और नये सूर्यों को जन्म देते चले जाते हैं। इस विराट की व्यवस्था में सूरज छोटी से छोटी चीज है।
इसलिए कृष्‍ण ने कहा कि ज्योतियों में मैं किरणों वाला सूर्य हूं। इस विराट की दृष्टि से सूर्य छोटी से छोटी चीज है, लेकिन हमारे अनुभव और अर्जुन की समझ में आने वाली सूर्य सबसे बड़ी चीज है। सूर्य हमारे अनुभव में आने वाली सबसे विराट घटना है। अस्तित्व की दृष्टि से सूर्य सबसे छोटी चीज है। कृष्‍ण अगर अपनी तरफ से बोलें, तो अर्जुन की समझ में नहीं आता है। इसलिए कृष्ण अब अर्जुन की तरफ से बोल रहे हैं। सबसे छोटी चीज को वे कह रहे हैं। अर्जुन के लिए वह सबसे बड़ी है।
ध्यान रखें, सारे वक्तव्य रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। जब भी हम कहते हैं छोटा और बड़ा, तो किसी की तुलना में कहते हैं। अर्जुन की दृष्टि से सूरज बड़ी से बड़ी घटना है। इससे बड़ी और कोई घटना क्या हो सकती है! कृष्‍ण की दृष्टि से सूरज छोटी से छोटी घटना है, छोटी से छोटी इकाई है।
बर्ट्रेड रसेल ने एक बहुत प्यारी कहानी लिखी है। बर्ट्रेड रसेल ने थोड़ी ही कहानियां लिखी हैं। वे कोई कहानी—लेखक नहीं थे। लेकिन कुछ बातें कहनी हों और ऐसी हों कि दर्शन की भाषा में न कही जा सकें, तो कभी—कभी कहानियों की भाषा में कही जा सकती हैं। तो रसेल ने लिखी है एक कहानी। उस कहानी को नाम दिया है, एक धर्मगुरु का दुखस्वप्न— नाइटमेयर आफ ए थियोलाजियन। एक धर्मगुरु रात सोया और उसने स्वप्न देखा कि उसकी मृत्यु हो गई है। तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। क्योंकि जीवन में कभी उसने कोई पाप नहीं किया था कि नर्क जाने का भय उसे लगे। न कभी झूठ बोला, न कभी बेईमानी की, न किसी का दिल दुखाया। निश्चित था कि स्वर्ग उसे मिलने वाला है। और दिन—रात ईश्वर का ही गुणगान किया। स्वाभाविक था कि उसके मन में गहरी आशा हो कि स्वर्ग के द्वार पर स्वयं ईश्वर ही मेरा स्वागत करेगा।
लेकिन जब वह धर्मगुरु स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, तो वह बहुत मुश्किल में पड़ गया। द्वार इतना बड़ा था कि उस धर्मगुरु को उसका ओर—छोर दिखाई नहीं पड़ता था। उसने बहुत ताकत लगाकर द्वार को पीटा। लेकिन उसको खुद भी समझ में आ गया कि इतना बड़ा द्वार है, यह मेरे हाथ की आवाज भीतर तक पहुंच नहीं सकती। तब उसका चित्त उदास भी होने लगा। क्योंकि सोचा था, बैंड—बाजे के साथ ईश्वर खुद मौजूद होगा। वहां कोई भी नहीं था। न मालूम कितने वर्ष उसे बीतते मालूम पड़ने लगे। चीखता है, चिल्लाता है। रोता है। छाती पीटता है, दरवाजा पीटता है।
फिर एक खिड़की खुली और एक चेहरा बाहर झांका। हजार आंखें थीं और एक—एक आंख जैसे एक—एक सूर्य हो! वह घबड़ाकर नीचे दुबक गया और चिल्लाने लगा कि थोड़ा पीछे हट जाएं। हे परम पिता, हे परमेश्वर, आपके प्रकाश को मैं नहीं सह सकता हूं। आप थोड़ा पीछे हट जाएं।
लेकिन उस आदमी ने कहा कि क्षमा करें। आप भूल में हैं। मैं सिर्फ यहां का पहरेदार हूं। मैं कोई परमेश्वर नहीं हूं। परमेश्वर का मैंने कभी कोई दर्शन नहीं किया। मैं सिर्फ यहां का पहरेदार हूं। परमेश्वर और मेरे बीच बड़ा फासला है। वहां तक पहुंचने की अभी मेरी सुविधा नहीं बन पाई।
तब तो वह धर्मगुरु बहुत घबड़ाया। एक कीड़े—मकोड़े की तरह दुबककर वह नीचे बैठ गया। और उसने कहा, फिर भी, आप अगर परमेश्वर तक खबर पहुंचा सकें या कोई उपाय करें, कहें कि मैं पृथ्वी से आया हूं फलां—फलां धर्म का मानने वाला, फलां—फलां धर्म का सबसे बड़ा धर्मगुरु। लाखों लोग मेरी पूजा करते हैं, लाखों लोग मेरे चरणों में गिरते हैं। मैं आ रहा हूं मेरी खबर कर दें। मेरा यह—यह नाम है।
तो उस द्वारपाल ने कहा कि क्षमा करें। आपके नाम का तो पता लगाना बहुत कठिन पड़ेगा। आपके संप्रदाय का भी पता लगाना बहुत कठिन पड़ेगा। आप किस पृथ्वी से आ रहे हैं, उसका नाम बताइए। उस धर्मगुरु ने कहा, किस पृथ्वी से! पृथ्वी तो बस एक ही है, हमारी पृथ्वी! उस द्वारपाल ने कहा कि आपका अज्ञान गहन है। अनंत—अनंत पृथ्वियां हैं इस विराट विश्व में। किस पृथ्वी से आते हो, इंडेक्स नंबर बोलो! तुम्हारी पृथ्वी का नंबर क्या है?
वह धर्मगुरु बड़ी मुश्किल में पड़ गया। किसी धर्मशास्त्र में भी पृथ्वी का कोई इंडेक्स नंबर दिया हुआ नहीं था। क्योंकि सभी धर्मशास्त्र इसी पृथ्वी पर पैदा हुए हैं। और यह मानकर चलते हैं कि यही पृथ्वी सब कुछ है।
धर्मगुरु को दिक्कत में देखकर उस द्वारपाल ने कहा कि अगर तुम्हें पृथ्वी का कोई नंबर याद न हो, तो तुम किस सूर्य के परिवार से आते हो, उसका इंडेक्स नंबर बोलो। किस सूर्य के परिवार से आते हो? तो कुछ खोज—बीन हो सकती है, अन्यथा बड़ी कठिनाई है।
धर्मगुरु इतना घबड़ा गया! सोचता था, उसकी भी खबर होगी परमात्मा को। बड़ा धर्मगुरु है। हजारों उसके मानने वाले हैं। सोचता था, मेरी खबर होगी। मेरे मंदिर, मेरे चर्च की खबर होगी। लेकिन यहां उस पृथ्वी का ही कोई पता नहीं। यहां उस सूर्य के लिए भी नंबर बताना जरूरी है। और तब भी उसने कहा कि अनेक वर्ष लग जाएंगे, तभी खोज—बीन हो सकती है कि आप कहां से आते हैं।
घबड़ाहट में उसकी नींद खुल गई, वह पसीने से तरबतर था। यह सपना देख रहा था।
आदमी अपने को केंद्र मान लेता है, नासमझी के कारण। आदमी अपने को मान लेता है कि मैं आधार में हूं नासमझी के कारण। अस्तित्व बहुत विराट है।
इस विराट अस्तित्व की बात तो अर्जुन के समझ में नहीं आएगी। इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, समस्त ज्योतियों में, समस्त प्रकाशों में मैं सूर्य हूं।
यह अर्जुन की भाषा में समझ में आ सके, वहां परमात्मा के लिए प्रतीक निर्मित करना है। इसलिए सारे धर्मों ने प्रतीक निर्मित किए। सूर्य भी बहुत धर्मों के लिए परमात्मा का प्रतीक रहा है। उसका कुल कारण इतना है कि हमारे अनुभव में सूर्य सबसे ज्यादा प्रकाशवान है। और हमारे अनुभव में सूर्य ही प्राणों का केंद्र है। और हमारे अनुभव में हमारे जीवन का समस्त आधार सूर्य है।
इसलिए हजारों साल पीछे भी हम लौट जाएं, अशिक्षित से अशिक्षित, जंगली से जंगली आदमी का समाज रहा हो, सूर्य के लिए हाथ जोड़कर वह नमस्कार करता रहा है। सूर्य, पृथ्वी के अनेक—अनेक कोनों में परमात्मा का प्रतीक बन गया है। और फिर उस प्रतीक से हम और छोटे प्रतीक बनाते हैं। आग भी परमात्मा का प्रतीक बन गई, क्योंकि वह भी सूर्य का अंश है।
हेराक्लतु ने यूनान में कहा है कि फायर, आग ही समस्त जीवन का आधार है। आग ही जीवन है। आग के ही विभिन्न क्रमों में जीवन प्रकट होता है और लीन होता है।
हेराक्लतु की बात हमें ठीक शायद न भी मालूम पड़े, लेकिन अब वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत ही जीवन है। विद्युत नई भाषा है, लेकिन विद्युत आग है। और अगर हिंदू कहते थे कि सूर्य ही जीवन है, तो यह भाषा कितनी ही पुरानी हो, लेकिन इसका अर्थ वही है। सूर्य कहे कोई, अग्नि कहे कोई, विद्युत कहे कोई, लेकिन जीवन किसी न किसी रूप में अग्नि के ही स्फुल्लिंगों से जुड़ा हुआ है।
कृष्‍ण कहते हैं कि मैं समस्त प्रकाशों में सूर्य हूं।
यह इशारा कर रहे हैं अर्जुन को कि तू समझ सके, सूर्य पर रुक जाना नहीं है। कृष्ण कहते हैं कि मैं समस्त प्रकाशों में सूर्य हूं। सिर्फ एक तुलना, प्रकाशों में एक इशारा, कि अर्जुन की आंख सूरज तक उठ सके, तो फिर सूरज के पार भी ले जाया जा सकता है। इसी कारण बहुत—सी भ्रांतियां हुईं।
भारत में भी हिंदू विचार ने सूर्य को परम देवता माना। लेकिन जैनों और बौद्धों ने इसका विरोध किया। उनका विरोध भी सही है और हिंदुओं का मानना भी सही है। उनका विरोध ऊपर के दृष्टिकोण से है। क्योंकि वे कहते हैं कि क्या सूरज को कहते हैं कि परमात्मा! परमात्मा बहुत विराट है, सूरज बहुत क्षुद्र है।
वह ठीक वैसा ही झगड़ा है कि वे कहते हैं कि क्या कहते हैं कि ग गणेश का! ग तो अनंत—अनंत चीजों का है; गणेश से क्यों बांधते हैं?
लेकिन प्राथमिक चरण में ग गणेश का उपयोगी है। और प्राथमिक चरण में सूर्य भी अगर परमात्मा बन जाए, तो उपयोगी है। सच बात यह है कि कोई भी प्रतीक, कितना ही छोटा क्यों न हो, अगर किसी की दृष्टि में ईश्वर बन जाए, तो वह व्यक्ति ऊपर उठना शुरू हो जाता है। यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रतीक क्या है। महत्वपूर्ण यह है कि किसी प्रतीक को परमात्मा जानने का भाव, परमात्मा मानने का भाव अगर किसी में पैदा हो गया, तो ऊर्ध्व गति शुरू हो जाती है।
परमात्मा न मानने से, किसी भी चीज को परमात्मा मान लेना बेहतर है। वह चीज परमात्मा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। वह मान लेने वाला, मानने के साथ ही यात्रा पर निकल जाता है। सूर्य को भी कोई ईश्वर मानता हो, और वृक्ष को भी कोई ईश्वर मानता हो, और नदी को भी कोई ईश्वर मानता हो, तो बातें बहुत प्राथमिक मालूम होती हैं, लेकिन न मानने वाले से यह व्यक्ति भी अंतर्जीवन में ज्‍यादा गति कर जाएगा। कहीं भी कोई है, जहां सिर रख सकता है चरणों में। कहीं भी कोई है, जहां अहंकार विसर्जित हो सकता है। कहीं भी कोई है, जहां अपने से बड़ा माना जा सकता है, अपने से ऊपर देखा जा सकता है, अपने से पार जाने का रास्ता खुल जाता है।
अपने से निरंतर पार होते जाना ही साधना है। अपने से निरंतर ऊपर उठते जाना ही कम है। उस सीमा तक अपने से ऊपर उठते जाना है, जब तक कि अपनापन बचे। जब अपनापन बचे ही नहीं, तो जानना कि अंतिम मंजिल आ गई।
कृष्‍ण ने कहा कि मैं सूर्य हूं प्रकाशों में, वायु देवताओं में मरीचि हूं श्रेष्ठतम, सबसे तीव्र गति वाला देवता हूं। नक्षत्रों में नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूं।
ये सब प्रतीक हैं। और जो भी श्रेष्ठतम है, उसकी तरफ कृष्‍ण इशारा कर रहे हैं।
और मैं वेदों में सामवेद हूं देवों में इंद्र हूं इंद्रियों में मन हूं भूत— प्राणियों में चेतना अर्थात ज्ञान हूं।
यह अंतिम सूत्र बहुत समझने जैसा है।
वेदों में सामवेद हूं! यह बड़ी हैरानी का मालूम होता है। क्योंकि हमको लगेगा, कहना था, वेदों में ऋग्वेद हूं। प्रथम और सर्वाधिक मूल्य का समझा जाने वाला वेद तो ऋg है। कृष्‍ण ने क्यों कर सामवेद चुना होगा? और सब तो ठीक है कि प्रकाशों में सूर्य हूं और वायु देवताओं में मरीचि हूं यह ठीक है। अदिति के पुत्रों में विष्णु हूं यह ठीक है; इसमें कोई अड़चन नहीं, कोई दुविधा नहीं। लेकिन यह आखिरी वक्तव्य बहुत दुविधापूर्ण है कि मैं वेदों में सामवेद हूं। और पंडितों को बड़ी कठिनाई पडी है, इसको, सामवेद को श्रेष्ठतम रखने में। ऋग्वेद के ऊपर रखना इसे बहुत मुश्किल है। लेकिन कृष्‍ण ने यह क्यों पसंद किया होगा?
पुन: ऋग्वेद और सामवेद का सवाल नहीं है, पुन: अर्जुन का सवाल है। और अर्जुन को देखकर ही बात की जा रही है। यह भाषा अर्जुन के लिए है। और कृष्ण के व्यक्तित्व का भी सवाल है। और कृष्‍ण के व्यक्तित्व में भी सामवेद ही श्रेष्ठ मालूम पड़ेगा। और कृष्‍ण अपना तादात्म्य भी ऋग्वेद से नहीं कर पाते हैं, सामवेद से कर पाते हैं।
सामवेद संगीत का, गीत का वेद है; पांडित्य का नहीं, सिद्धांत का नहीं, गीत का, संगीत का। कृष्‍ण का व्यक्तित्व एक गणित के सिद्धांत की बजाय, गीत की कड़ी जैसा ज्यादा है। कृष्‍ण का व्‍यक्‍तित्‍व एक शुद्ध चिंतन,शुद्ध विचार—ऐसा कम; शुद्ध नृत्य— ऐसा ज्यादा है।
कृष्‍ण को हम बिना बांसुरी के सोच ही नहीं सकते। कृष्‍ण से छीन लें बांसुरी, तो कृष्ण का सब कुछ छिन जाता है। बुद्ध के पास बांसुरी रखें, बहुत असंगत मालूम पड़ेगी, इररेलेवेंट। बुद्ध से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ेगा। महावीर के हाथ में बांसुरी दे दें, और महावीर सामने खड़े हों, तो आप सोच भी नहीं पाएंगे कि हाथ में जो चीज है, वह बांसुरी हो सकती है!
सुना है मैंने, एक अंग्रेज विचारक भारत आया हुआ था। वह शिव के एक मंदिर को देखने गया था। बाहर तो बड़ी धूप थी, तो उसने अपना टोप लगा रखा था। भीतर तो छाया थी गहन और ठंडक थी, तो उसने शिव की पिंडी के पास ही अपना टोप उतारकर रख दिया और मंदिर को घूमकर देखने लगा। जब वह खुद दरवाजे पर मंदिर के आया और उसने लौटकर देखा, तो अपने मित्र से जो साथ में था, एक हिंदुस्तानी, उससे उसने पूछा कि शिव की पिंडी के पास जो चीज रखी है, वह क्या है?
तो शिव की पिंडी के पास हैट का क्या संबंध! तो उसके मित्र को खयाल आया कि मालूम होता है, शिव का घंटा किसी ने उलटा रख दिया है। एसोसिएशंस होते हैं। शिव के पास हैट का क्या संबंध होगा?
हम जो देखते हैं, उसमें सिर्फ देखते ही नहीं, उसमें हमारी व्याख्या भी होती है। अगर महावीर के हाथ में बांसुरी हो, तो हम सोच ही नहीं सकते कि बांसुरी है। महावीर और गीत का कोई संबंध नहीं। महावीर और काव्य में क्या लेना—देना! कृष्‍ण के हाथ में बांसुरी, कृष्‍ण के अंतरतम का प्रतीक हो जाती है।
इसलिए कृष्ण ने जब अर्जुन को कहा कि मैं वेदों में सामवेद हूं तो यह सार्थक है। इसमें कृष्‍ण ने यह कहा कि शब्द और सिद्धांत और शास्त्र मैं नहीं हूं। गीत, संगीत, लय और नृत्य मैं हूं। और जीवन का जो परम रहस्य है, वह सिद्धांतों से नहीं हल होता, क्योंकि सिद्धांतों से तो एक दूरी बनी रहती है। जीवन का जो परम रहस्य है, वह तो किसी तल्लीनता में पूरा होता है।
सामवेद तल्लीनता का शास्त्र है। इसलिए ऋग्वेद को कृष्‍ण ने नहीं कहा; सामवेद को कहा। यह खुद उनके व्यक्तित्व की भी झलक है उसमें, और अर्जुन को भी समझ में आ सके। इसे भी थोड़ा हम समझ लें कि अर्जुन की समझ में क्यों आ सके।
अर्जुन खुद भी कोई तर्क—शास्त्री नहीं है; एक योद्धा है। और कई बार हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक योद्धा का गीत से, संगीत से क्या संबंध? विपरीत मालूम पड़ते हैं ऊपर से देखने में। कहां तलवार और कहां बांसुरी!
लेकिन जो गहन अध्ययन करते हैं जीवन का, वे कहते हैं कि योद्धा भी जब युद्ध की सघनता में पूरा डूबता है, तो वैसा ही डूब जाता है, जैसा कोई संगीतज्ञ अपने संगीत में डूबता हो और जैसे कोई नर्तक अपने नृत्य में डूबता हो। जब कोई योद्धा तलवार चला रहा होता है, तो तलवार के साथ इतना एक हो गया होता है कि तलवार ही होती है, योद्धा नहीं होता। युद्ध का अपना एक संगीत है, और युद्ध का अपना एक काव्य है, और युद्ध की अपनी एक लयबद्धता है।
जापान में तो समुराई होते हैं। वे ठीक जैसा भारत ने क्षत्रियों का एक गहन प्रयोग किया था, उससे भी गहन प्रयोग जापान ने समुराइयों का किया है। समुराई जापान के क्षत्रियों का नाम है। इस समुराई को तलवार चलाना भी सिखाया जाता है, नृत्य भी सिखाया जाता है, ध्यान भी सिखाया जाता है। और जब तक नृत्य, ध्यान और तलवार तीनों में कुशल न हो जाए समुराई, तब तक ठीक योद्धा नहीं माना जाता।
क्योंकि नृत्य का अर्थ ही यही है कि शरीर का एक—एक अंग जीवित हो गया। और शरीर सिर्फ सिर से नहीं चलता है अब, शरीर का रोआं—रोआं सचेतन हो गया। एक नर्तक तो हो भी सकता है कि शरीर के किसी अंग में जड़ हो, लेकिन युद्ध के मैदान पर जहां तलवार हाथ में होगी और जीवन संकट में होगा, शरीर का एक भी अंग जड़ नहीं होना चाहिए। शरीर के सभी अंग चेतन होने चाहिए; रोआं—रोआं सजग होना चाहिए; और शरीर एक तरलता बन जानी चाहिए कि तलवार के साथ शरीर बह सके।
समुराई को ध्यान भी सिखाते हैं। क्योंकि जापान में वे कहते हैं कि जो ध्यान में नहीं उतर सकता, वह बड़ा योद्धा नहीं हो सकता। क्योंकि अगर थोड़े से विचार मन में चल रहे हैं, तो तलवार और विचारों के बीच में आने से योद्धा पूरा का पूरा उतर नहीं पाएगा। विचार शांत हो जाने चाहिए, ताकि योद्धा पूरा का पूरा उतर जाए। एक अनहोनी घटना घटती रही है जापान में। कभी अगर दो बड़े समुराई योद्धा युद्ध में उतर जाएं, तो हार—जीत तय नहीं हो पाती। क्योंकि दोनों ही इतने ध्यानपूर्वक युद्ध में उतरते हैं! और ध्यान की जब गहराई बढ़ती है, तो तलवार को चलाना नहीं पड़ता, तलवार चलना शुरू हो जाती है और हमला होने के पहले तलवार रक्षा के लिए तैयार हो जाती है।
समुराई कहते हैं कि जब दुश्मन हमला करे, तो समय इतना कम है कि उसकी तलवार आपकी गर्दन को काट जाएगी, अगर उसके हमले का खयाल—हमला नहीं, हमले का खयाल ही— अगर आपका मन पकड़ ले और आपकी तलवार पहले ही आपके गले की रक्षा को उठ जाए, तो ही आप बच सकेंगे।
समुराई शास्त्र कहता है कि विचार से जो लड़ने जाएगा, वह हारेगा। ध्यान से जो लड़ने जाएगा, वह दूसरे के विचार उसके ध्यान में प्रतिफलित होने लगते हैं। शांत मन दूसरे के विचारों को प्रतिफलन देने लगता है। इसके पहले कि दूसरे के विचार में आए कि मैं हमला करूं गर्दन पर, रक्षा की व्यवस्था हो जाएगी। इसलिए दो समुराई जब लड़ते हैं, तो तय नहीं हो पाता, जीत—हार तय नहीं हो पाती। असंभव है।
अर्जुन को भी समझ में आ सकता है यह, क्योंकि अर्जुन के शरीर को अगर हम समझें, तो वह किसी नर्तक से कम नहीं उसके पास शरीर था। नर्तक जैसा ही लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल शरीर चाहिए युद्ध के लिए भी। अर्जुन समझ सकता है, गीत को भी समझ सकता है; संगीत को भी समझ सकता है; नृत्य को भी समझ सकता है। एक युद्ध के नृत्य को वह जानता भी है। एक युद्ध के संगीत को भी वह जानता है। उसमें जरा भी लय टूट जाए, तो उसे पता है। जीवन के एक गहरे काव्य का उसे अनुभव है।
यह जरा कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन योद्धा जिस जीवन को अनुभव कर पाता है, उसे घर बैठे लोग कभी अनुभव नहीं कर पाते। शायद जीवन अपनी पूरी प्रगाढ़ता में युद्ध के मैदान में ही प्रकट होता है। जहां मौत चारों तरफ मौजूद हो जाती है, वहां आप पूरी इंटेंसिटी में जीवित होते हैं। जब मौत प्रतिपल आपको चारों तरफ से घेर लेती है, और किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है, उस दिन आपके जीवन की ज्योति पूरी भभककर जलती है। शायद युद्ध का आनंद भी वही है।
लेकिन हवाई जहाज से बम गिराने से उसका कोई संबंध नहीं है। हवाई जहाज से बम गिराना, युद्ध का संगीत भी नष्ट हो जाता है। युद्ध की सारी कुरूपता तो मौजूद रह जाती है, और युद्ध का सारा सौंदर्य खो जाता है। आदमी— आदमी का सामने—आमने जो युद्ध था, उसकी एक ज्ञान थी, उसमें एक गरिमा थी। बंदूक भी आदमी— आदमी को दूर कर देती है, युद्ध की गरिमा खो जाती है। लेकिन दो हाथों में तलवार हों, और आमने—सामने दो जीवन लड़ते हों, दोनों शांत हों; और दोनों नृत्य से भरे हों; तो उस क्षण में वे जिस रहस्य को अनुभव कर पाते हैं, वह समाधि का ही रहस्य है।
इसलिए हमने तो इस देश में क्षत्रिय को नहीं कहा था कि वह जंगल भाग जाए समाधि के लिए।
वही कृष्‍ण अर्जुन को भी समझा रहे हैं कि तेरी नियति, तेरा स्वभाव क्षत्रिय का है। तू अगर जीवन के परम उत्कर्ष को भी पाएगा, तो युद्ध से ही पाएगा। भागकर तो तू जंग खा जाएगा। भागकर तो तू बेकार हो जाएगा। तू दूसरे के धर्म की तलाश कर रहा है। उससे तू अपनी नियति को नहीं पा सकता है; वह तेरी डेस्टिनी नहीं है। तू युद्ध से ही.।
और निश्चित ही, अर्जुन जैसा व्यक्ति युद्ध के गहन क्षण में ही सत्य के क्षण को उपलब्ध होगा। जब चारों तरफ मृत्यु खड़ी होगी और जब इस मृत्यु के बीच में भी बिना किसी भय के वह संघर्ष में रत होगा, जब संघर्ष प्रतिपल चिंता पैदा करता होगा, तब भी निर्विचार, तब भी मौन और ध्यानस्थ, निर्भीक और अभय, वह युद्ध में लीन होगा, तभी, उसी गहराई में वह समाधि को जानेगा। जंगल की समाधि उसके लिए नहीं हो सकती।
कृष्‍ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना जगत में मुश्किल है, जो व्यक्तियों के टाइप को, उनके स्वभाव को इतनी प्रगाढ़ता से पहचानता हो। अब तक मनुष्य—जाति ठीक अर्थों में व्यक्ति के प्रकार का विज्ञान विकसित नहीं कर पाई। बहुत प्रयास किए गए हैं। लेकिन अब तक कोई प्रयास बहुत गहन रूप से सफल नहीं हो सका।
अभी नये—नये, कुछ ही वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जुग ने बहुत मेहनत की और व्यक्तियों के चार प्रकार बांटे। लेकिन हिंदू व्यक्तियों के चार प्रकार लाखों वर्ष से बांटते रहे हैं। और बीसवीं सदी का कोई बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक पुन: यह कहेगा कि व्यक्ति चार प्रकार के हैं..! जब कि हिंदुस्तान में थोड़े अधकचरे पढ़े—लिखे लोग, सारी पुरानी पद्धति को तोड्ने में संलग्न हों, इस खयाल से कि वे कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी कार्य कर रहे हैं, तब पश्चिम में पुन: इस संबंध में सोच—विचार शुरू हो गया है कि व्यक्ति विभाजित है, उनके प्रकार विभाजित हैं। और जो व्यक्ति का प्रकार है, वही प्रकार उसके आनंद का मार्ग बन सकता है। दूसरे किसी भी मार्ग से जाकर वह दुख पाएगा।
और अगर आज पृथ्वी पर बहुत गहन दुख हो गया है, तो उसका बड़े से बड़ा कारण न तो गरीबी है, क्योंकि गरीबी सदा से थी, आज से ज्यादा थी। न उसका कारण बीमारी है, क्योंकि बीमारी आज सबसे कम है, बहुत ज्यादा बीमारी इसके पहले थी। न उसका कारण अशिक्षा है, क्योंकि अशिक्षा आज न्यूनतम है। उसका गहरे से गहरा कारण एक है कि किसी व्यक्ति को पता नहीं कि उसका प्रकार क्या है। और बिना प्रकार के पता के व्यक्ति अपना गंतव्य खोज रहा है।
जो मेरी मंजिल हो ही नहीं सकती, वह मैं खोज रहा हूं। अगर न पाऊं, तो मैं दुखी रहूंगा। और अगर पा लूं तो भी दुखी होऊंगा, क्योंकि वह मेरी मंजिल नहीं है। मैं अपनी मंजिल को खोजते हुए रास्ते में भी मर जाऊं, तो भी मुझे एक तृप्ति होगी। एक कदम भी मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंचूं जो मेरी नियति है, मेरा स्वभाव है, तो वह कदम मेरे लिए तृप्तिदायी हो जाएगा। लेकिन दूसरे की मंजिल पर भी मैं पहुंच जाऊं, तो भी कोई तृप्ति होने वाली नहीं है। क्योंकि तृप्ति का संबंध मंजिल से कम है, तृप्ति का संबंध आपसे ज्यादा है। जब आप और मंजिल में तालमेल बैठ जाता है, एक लयबद्धता आ जाती है, तब तृप्ति उपलब्ध होती है।
अर्जुन के लिए युद्ध ही उसकी मंजिल का रास्ता है।
अर्जुन समझ सकेगा कृष्‍ण की इस बात को, इसलिए वे कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूं। सामवेद से वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं समस्त ध्वनियों में लयबद्धता हूं। मैं समस्त ध्वनियों में संगीत हूं। मैं समस्त शब्दों में संगीत हूं। और संगीत हो किसी शब्द में, तो मैंइ वहां मौजूद हूं।
देवों में इंद्र हूं और इंद्रियों में मन हूं।
देवों में इंद्र हम समझ सकते हैं। श्रेष्ठतम देव इंद्र है, देवताओं का राजा है, इसलिए कृष्ण कहते हैं। इंद्रियों में मन हूं यह थोड़ा समझना पड़ेगा।
साधारणत: हम सोचते हैं, इंद्रियां अलग हैं और मन अलग है। इसलिए तो हम पांच इंद्रियों की बात करते हैं। अगर हम मन को भी इंद्रिय समझें, तो हमें छह इंद्रियों की बात करनी चाहिए। हम सब कहते हैं, आदमी पंचेंद्रिय है। कृष्‍ण के हिसाब से आदमी के पास छह इंद्रियां हैं, पांच नहीं। मन भी एक इंद्रिय है। सूक्ष्मतम, श्रेष्ठतम, लेकिन मन भी एक इंद्रिय है।
इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें।
आंख देखती है। कान सुनता है। हाथ छूते हैं। नाक से गंध आती है। जीभ से स्वाद आता है। ये सारी इंद्रियां इकट्ठा करती हैं। मन, इन सब इंद्रियों से जो इकट्ठा होता है, उसका नाम है। मन सभी इंद्रियों का संग्रह है। आंख देखती है आपको, आवाज कान सुनते हैं। मन तय करता है कि जिसको देखा, उसी को सुना है। क्योंकि आंख यह जोड़ नहीं कर सकती। आंख सिर्फ देख सकती है। आंख
को यह पता नहीं चलेगा कि जिसको मैं देख रहा हूं वही बोल भी रहा है। आंख को यह पता नहीं चलेगा।
कान को यह पता नहीं चलेगा कि जिसको मैं सुन रहा हूं आंख उसी को देख भी रही है। आंख और कान के बीच कोई सेतु नहीं है। आंख और कान के बीच कोई लेन—देन नहीं है, कोई कम्युनिकेशन नहीं है। कान देख नहीं सकता, आंख सुन नहीं सकती। तो कैसे कान तय करता है, कि जिसको आंख ने देखा है, उसी को मैंने सुना है! इन दोनों के बीच कोई बोलचाल नहीं है।
पांचों इंद्रियां अलग—अलग हैं। और अगर पांचों इंद्रियां बिलकुल अलग—अलग हों, तो आप इसी वक्त टूटकर गिर जाएंगे, आपके भीतर जान की घटना ही नहीं घट पाएगी। पैर कहीं जाएंगे, आंख कुछ देखेगी, कान कुछ सुनेगा। इसको जोड़ेगा कौन? इसको इकट्ठा कौन करेगा? इसको एक फोकस कौन देगा?
मन इंद्रियों का जोड़ है। सारी इंद्रियां अपने अनुभव को मन में उंडेल देती हैं। मन उन्हें इकट्ठा कर लेता है, संयुक्त कर लेता है। उनकी व्याख्या करता है, उनको नियोजित करता है। लेकिन मन भी एक इंद्रिय है, इसीलिए। पांचों इंद्रियों की केंद्रीय इंद्रिय है मन।
समझें कि पांच रास्ते हैं और मन उनका बीच का जोड़ है, जहां पांचरास्ते मिल जाते हैं। मन आंख से देखता है, कान से सुनता है, हाथ से छूता है, ऐसा समझें। या ऐसा समझें कि हाथ छूते हैं, कान सुनते हैं, आंख देखती है और ये तीनों संवेदनाएं मन को उपलब्ध हो जाती हैं। मन इनको जोड़ लेता है, इकट्ठा कर लेता है। लेकिन मन इंद्रियों से जुड़ा हो, तो इंद्रियों से ज्यादा नहीं हो सकता। और मन अगर इंद्रियों का ही जोड़ करने वाला हो, तो इंद्रियों से ऊपर नहीं हो सकता। मन इंद्रियों से पार नहीं हो सकता। मन भी इंद्रियों का ही हिस्सा है।
इसलिए अगर आपकी आंख चली जाए, तो आपका मन कमजोर हो जाएगा; आपके मन की संपत्ति कम हो जाएगी। अंधे आदमी के पास जो मन होता है, उसकी संपदा कम होगी। क्योंकि आंख का कोई अनुभव उसके पास नहीं होगा। बहरे आदमी के पास जो मन होगा, उसका मन और भी संकीर्ण और दरिद्र और गरीब हो जाएगा। अगर हाथ—पैर को छूने की क्षमता भी चली जाए, लकवा लग जाए, तो मन और दरिद्र हो जाएगा। अगर आपकी पांचों इंद्रियां अलग कर दी जाएं, आपका मन तत्काल मुर्दा हो जाएगा, मर जाएगा।
मन इंद्रियों के बिना नहीं जी सकता। इंद्रियां बिना मन के नहीं जी सकतीं। अगर आपका मन बेहोश हो जाए, तो सब इंद्रियां काम बंद कर देती हैं। जब आप शराब पीते हैं, तो आपकी इंद्रियों पर अलग— अलग शराब का असर नहीं पड़ता। असर तो पड़ता है मन पर। लेकिन चूंकि केंद्रीय बिंदु बेहोश हो जाता है, सभी इंद्रियां बेकार हो जाती हैं। इंद्रियां फिर भी काम करती रहती हैं। कान फिर भी सुनता है, लेकिन मन नहीं पकड़ पाता। आंख फिर भी देखती है, लेकिन मन नहीं पकड़ पाता।
इसलिए शराबी आदमी आप देखते हैं सड़क पर चलता हुआ, एक पैर कहीं पड़ता है, दूसरा पैर कहीं पड़ता है। पैर अभी भी चलते हैं, लेकिन अब दोनों पैरों के बीच में भी जोड़ रखने वाला तत्व बेहोश होने से कोई व्यवस्था नहीं रह जाती, सब अस्तव्यस्त हो जाता है। कुछ देखते हैं, कुछ सुनाई पड़ता है। कुछ बोलते हैं। जो नहीं बोलना चाहते थे, वह निकल जाता है। जिस तरफ नहीं जाना था, वहां चले जाते हैं। जो नहीं करना था, वह कर लेते हैं।
मन समस्त इंद्रियों का सार है, सूक्ष्मतम, इसेंस। कृष्‍ण उसे भी इंद्रिय कहते हैं।
अर्जुन को क्यों इंद्रियों से समझाने की जरूरत पड़ी? कहना तो चाहिए कृष्‍ण को— उन्होंने कहा भी— कि मैं आत्मा हूं कहा कि मैं हृदय हूं और अब इस सूत्र में वे कहते हैं कि समस्त इंद्रियों में मैं मन हूं! यह बहुत नीचे उतरकर बात करनी पड़ रही है। पहला वक्तव्य है कि मैं हृदयों में हृदय, सबकी आत्माओं की आत्मा! और अब कृष्‍ण को कहना पड़ रहा है कि मैं इंद्रियों में मन।
अर्जुन शायद आत्मा की बात नहीं समझ पाया। उसे शायद पता ही नहीं है कि आत्मा क्या है? शब्द सुन लिया, उसकी समझ में कुछ आया नहीं होगा। कृष्‍ण ने देखा होगा, उसकी आंख में कोई भाव नहीं उठा। शब्द सुन लिया उसने, लेकिन शब्द से कोई प्रतिध्वनि पैदा नहीं हुई। भीतर कोई संगीत नहीं छिड़ा। भीतर कोई तार पर चोट नहीं पडी। भीतर कुछ हुआ ही नहीं, सन्नाटा रहा।
आत्मा, परमात्मा, हम शब्द तो सुन लेते हैं, कान हमारे पास हैं। शब्द भीतर गूंजते हैं और निकल जाते हैं। भीतर कुछ उनसे होता नहीं। जब मैं कहूं कि आपके भीतर आत्मा है, कहूं आपके भीतर परमात्मा है; तो आपके भीतर कुछ भी होता नहीं। और आपसे मैं कहूं कि खयाल किया आपने, आपके खीसे में लाख रुपए का हीरा है, तब तत्‍क्षण कुछ होता है। आपका हाथ फौरन खीसे में जाएगा। और हीरा समझ में आता है, एकदम बात साकार हो जाती है कि क्या है। कोई रूप में अंतर नहीं रहता। कोई भूल—चूक नहीं होती। हम समझ जाते हैं, क्या है।
अर्जुन शायद नहीं समझ पाया आत्मा के तल की बात, इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं। श्रेष्ठतम इंद्रिय हूं।
लेकिन यह बच्चे को समझाने के लिए लिया गया प्रतीक है। क्योंकि कृष्‍ण इंद्रियों में मन हैं, यह ठीक है, इंद्रियों की तरफ से हम सोचें तो! और जरा पीछे हटें, तो कृष्‍ण मन नहीं हैं! मन के भी पीछे जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, वह हैं। और पीछे हटें, तो द्रष्टा भी नहीं, क्योंकि द्रष्टा भी दृश्य से बंधा होता है, द्वैत का थोड़ा संबंध होता है। फिर पीछे तो सिर्फ शुद्ध चैतन्य है, सिर्फ ज्ञान की क्षमता।
महावीर ने कहा है, केवल जान, जस्ट नोइंग। फिर तो पीछे सिर्फ ज्ञान मात्र ही रह जाता है, ताता भी नहीं। लेकिन जितने हम पीछे की, गहरे की बात करें, उतना ही समझना मुश्किल हो जाता है। इसलिए दरवाजे से ही कृष्‍ण शुरू कर रहे हैं।
ऐसा समझें कि एक मंदिर है और मंदिर के गहन गर्भ में प्रतिमा स्थापित है। और एक आदमी से हम बात कर रहे हैं, जो कभी किसी मंदिर के भीतर नहीं गया, मंदिर के बाहर ही खड़ा है। तो कृष्‍ण उससे कहते हैं कि ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं। ये सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। मकान के बाहर से, मंदिर के बाहर से, सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। कृष्ण कहते हैं, ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं।
इतना भी क्या कम है कि ये नौ सीढ़ियां छूट जाएं और नौ सीढ़ियों के पार आदमी दसवीं पर पहुंच जाए, तो शायद फिर पीछे उससे, कहा जा सके कि ये जो दरवाजे दिखाई पड़ते हैं, इसमें दसवां दरवाजा मैं हूं। तो नौ दरवाजे छूट जाएं, दसवें दरवाजे तक पहुंच जाए। और ऐसे क्रमश: अंततः उस जगह ले जाया जा सके, जहां वस्तुत: कृष्‍ण का होना है।
सीढ़ियां भी मंदिर का हिस्सा हैं, निश्चित ही। और जो प्रतिमा मंदिर के गर्भ में स्थापित है, उससे भी सीढ़ियां जुड़ी हैं, निश्चित ही। पहली सीढ़ी भी उसी से जुड़ी है, दसवीं सीढ़ी भी उसी से जुड़ी है। लेकिन सीढ़ियां प्रतिमा नहीं हैं।
पर अर्जुन मंदिर के बाहर खड़ा है। और उसकी समझ के बाहर है मंदिर के भीतर की भाषा। उससे बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। इस बाहर की भाषा बोलने के कारण बड़ी दुर्घटनाएं हो गई हैं। क्योंकि इन शास्त्रों को पढ़कर फिर हम ऐसा मानकर बैठ जाते हैं। क्योंकि हमको लगता है, कह तो दिया कृष्‍ण ने कि इंद्रियों में मन मैं हूं। तो ठीक है। तो हम मन को पकड़कर बैठ जाते हैं। दसवीं सीढ़ी की पूजा शुरू कर देते हैं।
यह कहा गया है, ताकि नौ सीढ़ियां छूटें, दसवीं पकड़े नहीं। ध्यान रखना, यह इसलिए नहीं कहा है कि दसवीं पकड़े। यह इसलिए कहा है कि नौ छूटें। और नौ छूट जाएं, तो फिर दसवीं भी छोड़ी जा सके।
लेकिन हम बहुत मजेदार लोग हैं। हम दसवीं तो पहुंचने की बात अलग, नौ को छोड़ने की बात अलग, हम दसवीं को इतने जोर से पकड़ते हैं कि उसकी वजह से नौ भी पकड़ जाती हैं। और दसवीं पर हम इस बुरी तरह रुक जाते हैं कि हमें बाकी नौ पर भी अपना घर बनाना पड़ता है।
जब भी कोई परम सत्य को मनुष्य की भाषा में कहा जाए, तो खतरा मोल लेना है। क्योंकि यह भी हो सकता है कि भाषा को छोड्कर परम सत्य तक वह पहुंचे, और यह भी हो सकता है कि परम सत्य को छोड़े और भाषा में जो कहा गया है, उसे पकड़ ले।
मैं चांद को इशारा करूं अपनी अंगुली से। यह भी हो सकता है, आप मेरी अंगुली पकड़ लें और कहें कि यही चांद है, क्योंकि आपने ही तो कहा था कि यह रहा चांद! चांद तो मैं आकाश की तरफ बताऊं अंगुली से, और अगर आपने चांद कभी देखा न हो और देखें कि ठीक है, अंगुली बताई जा रही है और मैं कह भी रहा हूं कि यह रहा चांद, तो आप मेरी अंगुली पकड़ ले सकते हैं।
लेकिन अंगुली से चांद का कोई भी संबंध नहीं है। अंगुली से चांद बताया जा सकता है, संबंध कोई भी नहीं है। इतना ही संबंध है कि अगर आप अंगुली को छोड़ दें और भूल जाएं और चांद को देखें, तो चांद दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर आप अंगुली को ही पकड़ लें, तो चांद फिर कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। इशारे पकड़ लिए जाते हैं, और जिसकी तरफ इशारा किया जाता है, वह चूक जाता है।
यह भी इशारा है कि कृष्ण कहते हैं, मैं इंद्रियों में मन हूं।
इतना भी क्या कम है कि तुम इंद्रियों से ऊपर उठो। कम से कम पांच से ऊपर उठो, छठवीं पर पहुंचो। कम से कम बाहर की इंद्रियों से ऊपर उठो, भीतर की इंद्रिय पर पहुंचो। थोड़ा तो भीतर प्रवेश होगा। थोड़ा भी भीतर प्रवेश हो, तो और भीतर की संभावना खुल जाती है, और नये द्वार खुल सकते हैं।
लेकिन खतरा भी हम ध्यान रखें। इसे पकड़ा भी जा सकता है; जोर से पकड़ा जा सकता है। और हम जैसे लोग हैं, जो हमारी समझ में आए, उसे हम पकड़ लेते हैं।
और धर्म का मामला ऐसा है कि जो—जो आपकी समझ में आए, ठीक से समझ लेना कि उसे पकड़ना नहीं है। जो—जो आपकी समझ में आए, समझ लेना ठीक से कि उसे पकड़ना नहीं है, क्योंकि आपकी समझ में बहुत बड़ी बात नहीं आ सकती। और जो आती है, वह आपकी समझ के अनुसार आएगी। और अगर आपको अपनी समझ बड़ी करनी है, तो धीरे— धीरे जो आपको समझ में आता है, उसे छोड़ना; और जो समझ में नहीं आता, उसको पकड़ने की कोशिश करना।
यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन समस्त विकास का मार्ग यही है। जो आपको समझ में आए, उसे धीरे— धीरे छोड़ना; और जो समझ में न आए, धुंधला समझ में आए, उस तरफ कदम उठाना। तो आप आगे बढ़ेंगे।
एक आदमी एक सीढ़ी पर खड़ा है। पहली सीडी पर खड़ा है। दूसरी सीढ़ी पर जाना चाहता हो, तो जिस सीढ़ी पर खड़ा है, उसे छोड़ना पड़ेगा। पैर ऊपर उठाना पड़ेगा, जिस पर खड़ा है। और दूसरी सीढ़ी जो अपरिचित है, अनजान है, जिस ?भी खड़ा नहीं हुआ, उस पर पैर रखना पड़ेगा। और जब एक पैर उस पर रख जाए, तो दूसरा पैर भी पहली सीढ़ी से हटा लेना पड़ेगा।
हमें क्रमश: अगर अंतिम की खोज करनी है, तो जो हमारे पास है, उसे धीरे— धीरे छोड्कर और हमें आगे बढ़ते जाना होगा। जो लोग बहुत भयभीत होते हैं, अज्ञात से डरते हैं, जो समझ में नहीं आता, उस तरफ कैसे जाएं; वे लोग अपनी ही समझ में कैद हो जाते हैं। उनकी छोटी—सी समझ उनके लिए यात्रा नहीं बनती, कारागृह बन जाती है।
हम सभी लोग अपनी—अपनी बुद्धि में बंद हैं। हम सब अपने— अपने कैदी हैं। जेलर भी कोई नहीं, हम ही जेलर भी हैं। हम ही कैदी हैं। हम ही कारागृह हैं। और हम ही कारागृह पर पहरा देते हैं कि कहीं कैदी बाहर न निकल जाए!
यह जो स्थिति बनती है, भय के कारण बनती है। क्योंकि जो हम जानते हैं, वह सुरक्षित है, सिक्योर्ड है। जो हम नहीं जानते, उसमें डर लगता है, उसमें भय लगता है। लगता है, पता नहीं, ठीक चूक जाए और गलत पर पैर पड़ जाए!
लेकिन ध्यान रखना, गलत पर भी पैर पड़े, तो रुके रहने से बेहतर है। भूल भी हो जाए, तो सदा ठीक बने रहने से और रुके रहने से बेहतर है। जो भी आदमी विकास करता है, वह भूलें करता है। करेगा ही। और अगर कोई आदमी कहता है, मुझसे भूलें होती ही नहीं, तो समझ लेना कि वह आदमी विकास कभी भी नहीं करेगा और उसने विकास किया भी नहीं। विकास करने वाला आदमी बहुत भूलें करता है।
हां, एक बात है, एक ही भूल दुबारा नहीं करता। भूलें बहुत करता है, एक ही भूल दुबारा नहीं करता। और कहीं भी रुके होने से भूल करना बेहतर है। क्योंकि भूल भी सिखाती है, आगे ले जाती है।
अंधेरे में बढ़ना बेहतर है। जो रोशनी में ही घिरे रह जाते हैं— अपना छोटा—सा दीया है बुद्धि का, जितनी रोशनी पड़ती है, उसी के भीतर घेरा लगाते रहते हैं— वे जिंदगी में सत्य से वंचित रह जाएंगे। परम धन्यता उनकी कभी भी नहीं होगी। उनके ऊपर उस प्रसाद की वर्षा कभी नहीं होगी, जो उनके ऊपर होती है, जो इस प्रकाश के घेरे को तोड़कर अंधेरे में भी बढ़ते हैं।
ध्यान रहे, अंधेरे में जब हम बढ़ते हैं, तो अंधेरा भी धीरे— धीरे प्रकाश बनने लगता है। और जितना हम अंधेरे से परिचित होते हैं, आंखें जितना अंधेरे को जानने लगती हैं, उतना अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगता है।
और एक बार अंधेरे में देखने की क्षमता आ जाए, तो इस जगत में फिर कोई भी अंधेरा नहीं है। और एक बार अंधेरे को भी प्रकाश में बदलने की कला आ जाए, जो कि साहस से बढ़ने वाले आदमी को आ जाती है, तो इस जगत में सब जगह प्रकाश है। फिर कहीं कोई अंधेरा नहीं है।
विकासमान चाहिए चित्त। प्रतीक खतरनाक हैं, अगर हम पकड़ लें।
मैंने सुना है, एक घर में ऐसा हुआ, छोटे थे बच्चे और बाप मर गया। मां पहले मर चुकी थी। छोटे ही थे बच्चे, बड़े हुए। बाप के बाबत उन्हें कुछ ज्यादा पता नहीं था, लेकिन कुछ—कुछ बातें खयाल रह गई थीं। और बाप की याददाश्त रखनी थी, तो उन्होंने सोचा, कुछ तो बाप की याददाश्त में, मेमोरी में, कुछ बचा लें। क्या बचा लें?
बच्चों को इतना याद था कि पिता उनको खाना खिलाता था। मां का काम भी उसी को करना पड़ता था। फिर पीछे खुद खाना खाता था। सब बच्चों को इतना याद था कि खाने के बाद चौके के आले में उसने एक छोटी—सी लकड़ी रख रखी थी। वह उससे दांत साफ करता था। यह उन्हें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन आले में वह लकड़ी अभी भी रखी थी। वह लकड़ी दांत साफ करने का छोटा—सा टुकड़ा था। बेटों ने सोचा कि बाप की याददाश्त रखनी है, तो इस छोटी—सी लकड़ी से क्या होगा! तो एक चंदन की बड़ी लकड़ी खुदाई करवाकर आले में उन्होंने लगा दी।
फिर बेटे बड़े हुए। वे उसकी रोज पूजा कर देते थे। क्योंकि बाप को उन्होंने रोज आले के पास जाते देखा था। वे भी रोज भोजन के बाद जाकर नमस्कार करके कभी दो फूल चढ़ा देते थे।
फिर बड़े हुए। उन्होंने बड़ा मकान बनाया; पुराना मकान तोड़ा। तो उन्होंने सोचा, आले की अब क्या जरूरत है, एक छोटा मंदिर ही बना दें। तो आले की जगह उन्होंने एक संगमरमर का मंदिर बना दिया। फिर उन्होंने सोचा, लकड़ी! अब तो हमारे पास पैसे भी हैं, तो उन्होंने एक चंदन की प्रतिमा स्थापित कर दी। वे नियमित भोजन के बाद उसकी पूजा करते थे।
सुना है मैंने, उस घर में अब भी पूजा चलती है। वह जो लकड़ी थी, वह दांत साफ करने के काम आती थी। लेकिन अब वह लकड़ी मंदिर की प्रतिमा बन गई और उसकी पूजा होती है।
अगर हम अपनी जिंदगी में तलाश करने जाएंगे, तो हमें सौ में निन्यानबे इस तरह की चीजें मिलेंगी, जिनका कोई भी संबंध समझ और विकास से नहीं है। जिनका संबंध किन्हीं चीजों को अंधे की तरह पकड़ लेने से है। और जब कोई आदमी धर्म के जगत में किसी चीज को अंधे की तरह पकड़ लेता है, तो बहुत महंगा सौदा है। क्योंकि उसकी सारी आगे की यात्रा ठहर जाती है और रुक जाती है। कृष्‍ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं।
वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम कम से कम पांच इंद्रियों से हटो और मन तक पहुंचो। इतना भी कुछ कम नहीं है कि तुम जानो कि कान तुम नहीं हो, बल्कि वह हो, जो कान से आवाज को सुनता है। इतना भी कुछ कम नहीं है, तुम जानो कि आंख तुम नहीं हो। आंख से जो देखता है, आंख से जो झांकता है, वह मन तुम हो। अगर इतना तुम जान लो, तो कल इतना भी समझ सकते हो कि मन भी तुम नहीं हो, मन को भी जो जानता है, मन को भी जो साक्षी— भाव से देखता है, मन का भी जो ज्ञाता है, वह तुम हो।
और इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, भूत—प्राणियों में चेतना, चेतनता अर्थात ज्ञान—शक्ति हूं।
तत्‍क्षण! इंद्रियों में मन हूं उसके बाद ही शीघ्र दूसरा सूत्र कहा कि मन के भी जो पार चेतना है, जानने की क्षमता है, कांशसनेस है, वह मैं हूं। यह इसी कारण दूसरे सूत्र में तत्काल कहा, कि पहला सूत्र खतरनाक हो सकता है। कोई अपने को मन ही मान ले!
इस जगत में चार तरह के लोग हे। एक, जो अपने को शरीर ही
मानते हैं। ये बिलकुल मकान के आस—पास ही घूमते हैं। मकान की सीढ़ियां भी नहीं चढ़ते। दूसरे, जो अपने को मन मानते हैं। ये थोड़ी— सी सीढ़ियां चढ़ते हैं, लेकिन द्वार पर अटक जाते हैं। तीसरे, जो अपने को आत्मा मानते हैं। ये और भी गहरे जाते हैं, लेकिन फिर भी जो प्रतिमा मंदिर में स्थापित है, उसके आस—पास ही चक्कर लगाते हैं। चौथे वे, जो अपने को परमात्मा ही जानते हैं। ये वे हैं, जो प्रतिमा के साथ एक हो जाते हैं। ये चार तरह के लोग हैं।
अधिकतम लोग अपने को शरीर मानते हैं। अधिकतम लोग! जो कहते हैं कि नहीं, हम आत्मा मानते हैं, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उनकी हम जीवन—चर्या देखें, तो हमें पता चल जाएगा। वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। उनका अगर हम व्यवहार देखें, तो हमें पता चल जाएगा, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उन्हें हम कठिनाई में डाल दें, तो हमें पता चल जाएगा कि वे भी अपने को शरीर मानते हैं।
जो आदमी कहता है, मैं आत्मा हूं आत्मा अमर है, एक छुरा उसके कंधे पर रखें और अंधेरे में उसको पकड़ लें, वह फौरन चिल्लाका कि मुझे क्यों मारे डाल रहे हो। वह जो कहता था, आत्मा अमर है, छुरे को देखकर कहेगा, मुझे क्यों मारे डाल रहे हो! छुरा आत्मा को नहीं मार सकता। छुरा तो शरीर को ही मार सकता है। लेकिन तब वह यह नहीं कहेगा कि क्यों मेरे शरीर को व्यर्थ काट रहे हो? वह कहेगा, क्यों मुझे मारे डाल रहे हो!
इपिटैक्टस को यूनान के सम्राट ने अपने पास बुलवाया था। क्योंकि सम्राट को किसी ने कहा कि इपिटैक्टस कहता है कि आत्मा अमर है। सम्राट शरीरवादी था। उसने इपिटैक्टस को बुलवाया और कहा कि मैंने सुना हैं—सोचकर जवाब देना— मैंने सुना है कि तुम कहते हो, आत्मा अमर है। मैं कोई सिद्धांत की चर्चा के लिए नहीं बुलाया हूं मैं तो सीधी परीक्षा लूंगा। क्योंकि मैं तो मानता हूं शरीर के सिवाय कुछ भी नहीं है।
इपिटैक्टस ने कहा, तो परीक्षा शुरू करो! क्योंकि वक्तव्य देने की क्या जरूरत है, परीक्षा ही वक्तव्य देगी। और जब तुम मानते ही नहीं हो कि शरीर के अलावा कुछ है, तो मैं समझाऊं भी तो किसको समझाऊं! तुम परीक्षा शुरू करो।
सम्राट ने दो आदमियों को आशा दी और कहा कि इपिटैक्टस का एक पैर मोड़कर तोड़ डालो। इपिटैक्टस ने पैर आगे बढ़ा दिया और उन दोनों आदमियों से कहा कि इस तरह बाएं तरफ घुमाओ, जल्दी टूट जाएगा। सम्राट ने कहा, यह मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। यह पैर सच में ही तोड़ दिया जाएगा। इपिटैक्टस ने कहा, आप मजाक कर भी नहीं सकते हैं, मैं मजाक कर सकता हूं क्योंकि मैं पैर से अलग हूं। मैं मजाक कर सकता हूं। पैर तोड़े।
वह पैर तोड़ दिया गया। इपिटैक्टस ने कहा कि और कुछ परीक्षा लेनी है? पैर टूट गया, और मैं साबित हूं। मैं उतना का ही उतना हूं। मैं लंगड़ा नहीं हुआ; शरीर लंगड़ा हो गया।
लेकिन जो आत्मवादी भी अपने को कहते हैं, उनके भी, उनके भी जीवन में हम झांकें, तो पता चलेगा, शरीर ही है। शरीर ही सब कुछ है।
यह जो पहली कोटि है, शरीर सब कुछ, उनके लिए कृष्ण का यह वचन उचित है। अर्जुन को ऐसा ही लग रहा है कि शरीर ही सब कुछ है। इसलिए वह कह रहा है कि कैसे मैं इन प्रियजनों को काटू? कैसे अपनों को मारूं? कैसे यह हत्या करूं? यह मुझसे नहीं होगा। इतने लोगों को मैं मारने का पाप क्यों लूं?
शरीर को ही वह जीवन मान रहा है। क्योंकि उसकी तलवार केवल शरीर को ही काट सकती है और किसी को भी नहीं। पर उसे उस सत्य का कोई भी पता नहीं है कि भीतर एक और भी अस्तित्व है, जिसको तलवार छेद नहीं सकती और आग जला नहीं सकती। पर उसका उसे कोई पता नहीं है।
इसलिए कृष्‍ण उससे कहते हैं कि इंद्रियों में मैं मन हूं। इंद्रियां शरीर हैं, भीतर प्रवेश करें तो मन है। लेकिन कृष्ण को भी लगा होगा कि अर्जुन को कहीं यह पकड़ न जाए, तो दूसरे ही सूत्र में वे कहते हैं, और समस्त भूतों में मैं चेतना हूं कांशसनेस हूं।
चेतना शब्द को हम थोड़ा समझ लें। चेतना का अर्थ होता है, मैं आपको देख रहा हूं। तो मैं आपके प्रति चेतन हूं। और जिसके प्रति भी मैं चेतन हो जाता हूं उससे मैं अलग हो जाता हूं। जिसके प्रति भी मैं चेतन हो जाता हूं उससे मैं अलग हो जाता हूं।
मैं अपने इस हाथ को देख रहा हूं! मैं अपने इस हाथ के प्रति चेतन हूं। बाहर से ही नहीं, भीतर से भी मैं अपने इस हाथ को देख रहा हूं। इसकी हड्डी, इसकी मांस—पेशियां, इसके प्रति मैं चेतन हूं। मैं इस हाथ से भी अलग हो गया। क्योंकि चेतन मैं उसी के प्रति हो सकता हूं जिससे मैं अलग हूं। भेद जरूरी है, फासला जरूरी है, चेतन होने के लिए।
फिर आंख बंद करके मैं अपने विचारों के प्रति भी चेतन हो सकता हूं। मैं देखता हूं कि विचार चल रहे हैं। जैसे आकाश में बादल चल रहे हों, ऐसे मन में विचार चल रहे हैं। या रास्ते पर जैसे लोग निकल रहे हों, ऐसे मन में विचार निकल रहे हैं। या फिल्म के पर्दे पर जैसे चित्र निकल रहे हों, ऐसे मन के पर्दे पर विचार निकल रहे हैं। आंख बंद करके मैं इन चलते हुए विचारों को भी देख सकता हूं। तो मैं विचारों के प्रति भी चेतन हो गया। मैं विचारों से भी अलग हो गया।
मैं अपने मन को भी देख सकता हूं। कभी आपने खयाल किया, जब आप क्रोध से भरे होते हैं, आंख बंद करके देखें, तो आपको पता लगेगा, आपका मन क्रोध से भरा है। कभी आप प्रेम से भरे होते हैं, आंख बंद करके मेडिटेट करें, ध्यान करें, तो आपको पता चलेगा, मन प्रेम से भरा है। कभी लोभ से, कभी कामवासना से, कभी भय से। तो आंख बंद करके अनुभव करें, तो पता चलेगा, मन किससे भरा है। मन इस समय भय हो गया, क्रोध हो गया, लोभ हो गया, काम हो गया। किसको पता चलता है? कौन चेतन होता है? कौन जानता है इसको? जो जानता है, वह अलग हो गया।
चेतना का अर्थ है, जिसके द्वारा आप जानते हैं, पहचानते हैं। जिसके द्वारा आप बोध से भरते हैं। और जिसके प्रति आप कभी चेतन नहीं हो सकते। आप सब चीजों के प्रति चेतन हो सकते हैं, लेकिन अपनी चेतना के प्रति चेतन नहीं हो सकते। आप सब चीजों के प्रति चेतन हो सकते हैं, सिर्फ अपनी चेतना के प्रति चेतन नहीं हो सकते। क्योंकि जो चेतन होगा, वही आपकी चेतना है। तो आप अपनी चेतना को आब्जेक्ट नहीं बना सकते। वह सब्जेक्ट है, वह जानने वाला है। वह कभी जाने जानी वाली चीज नहीं हो सकती।
तो चेतना का यह विचार, योग की गहनतम धारणाओं में से एक है। योग को अगर हम एक शब्द में कहना चाहें, तो वह उसको जानने की कोशिश है, जिसके द्वारा सब जाना जाता है, और जो किसी के द्वारा भी नहीं जाना जाता। जिसके द्वारा हम जगत में सब जान सकते हैं, सिर्फ उसी को छोड्कर। उसको नहीं जान सकते। क्योंकि उसको कौन जानेगा! जानने के लिए दूरी चाहिए, फासला चाहिए, जानने वाला अलग चाहिए। ज्ञाता अलग चाहिए, ज्ञेय अलग चाहिए।
हम सब चीजों को ज्ञेय बना सकते हैं इस जगत में। आपको मैं ज्ञेय बना सकता हूं। अपने शरीर को ज्ञेय बना सकता हूं। अपने विचार को, अपने मन को, सबको जेय बना सकता हूं। सिर्फ मेरी चेतना, मेरा होश, मेरी अवेयरनेस, वह भर ज्ञेय नहीं बनती। वह हमेशा पीछे हटती चली जाती है। इट कैन नाट बी रिडभूस्ड टु एन ऑब्जेक्ट, उसको हम कोई वस्तु नहीं बना सकते। वह हमेशा.....।
सोरेन कीर्क—गार्ड ने कहा है, कांशसनेस मीन्स सब्जेक्टिविटी, अल्टिमेट सब्जेक्टिविटी, आखिरी जानना। उसके पार, पीछे नहीं हट सकते हम।
हम कितने ही भागते चले जाएं, कितने ही पीछे हटें, जो हट रहा है पीछे, वही चेतना है। हम चेतना से पीछे नहीं हट सकते। चेतना से पीछे नहीं हटा जा सकता, इसीलिए चेतना हमारा स्वभाव है। और कृष्‍ण कहते हैं, चैतन्य, चेतनता, ज्ञान की शक्ति मैं हूं।
सूर्य से, विष्णु से बात शुरू की है उन्होंने। और पास हटते—हटते इंद्रियों, मन की बात की है। और पीछे हटते—हटते उन्होंने मौलिक आखिरी सूत्र अर्जुन को दिया कि मैं चेतना हूं।
जो व्यक्ति भी ऐसा जान ले कि मैं चेतना हूं उसने जो भी जानने योग्य था, वह जान लिया। और जो व्यक्ति ऐसा न जान पाए कि मैं चेतना हूं तो उसने और कुछ भी जान लिया हो, जो भी जानने योग्य है, उससे वह वंचित रह गया है। गहनतम जो हमारे भीतर केंद्र है, सबसे गहरे में छिपा हुआ जो केंद्र है, वह चैतन्य का है।
इसलिए हम परमात्मा के लक्षण में सत्—चित्—आनंद— सत्य उसे कहा है, चैतन्य उसे कहा है, आनंद उसे कहा है। चैतन्य को हम परमात्मा के भी केंद्र में रखे हैं। सत कहा है कि वह सत्य है, शुरू में। फिर कहा चित, चैतन्य है, बीच में। और फिर कहा आनंद, अंत में।
सत्य की हम खोज करें, तो चैतन्य हमें उपलब्ध होगा; और चैतन्य में हम स्थापित हो जाएं, तो आनंद हमारा स्वभाव होगा। यह जो चैतन्य, कांशसनेस है, यह हम कैसे उपलब्ध करें?
हम तो जीते हैं बिलकुल सोए—सोए, मूर्च्छित। हम जो भी करते हैं, ऐसे करते हैं, जैसे नींद में कर रहे हों, नशे में चल रहे हों। आपको क्रोध आ जाता है, तो आप कहते हैं, आ गया। पता नहीं क्यों आ गया! किसी को गाली दे दी, निकल गई। कोई ऐसा नहीं कि आप होश में हैं; बेहोश चल रहे हैं। आपका बेहोश और होश के बीच डांवाडोल होता रहता है अस्तित्व। ज्यादातर बेहोशी में कभी—कभी क्षणभर को कोई होश का क्षण आता है, नहीं तो नहीं आता। जीवन ऐसे ही गुजर जाता है।
इस बेहोशी की हालत में उस चैतन्य का पता लगाना बहुत कठिन मालूम पड़ेगा, बहुत दूर मालूम पड़ेगा। लेकिन वह इतना दूर नहीं है, जितना दूर मालूम पड़ता है। थोड़ी चेष्टा चाहिए। थोड़ी—सी चेष्टा।
रास्ते पर चल रहे हैं, होशपूर्वक चलें। जानते हुए चलें कि चलने की घटना हो रही है, मेरा बायां पैर उठा, मेरा दायां पैर उठा। ऐसा कहना नहीं है भीतर कि मेरा दायां पैर उठा, मेरा बायां पैर उठा! न ऐसा जानना है कि यह बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। इसका होश रखना है। आप रास्ते पर चलते—चलते अचानक चकित हो जाएंगे कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल रहे हैं। भोजन करने बैठे हैं, तो यह मैंने कौर बनाया है, यह कौर मैं मुंह में ले गया। इसको होशपूर्वक करें।
बेहोश की तरह कर रहे हैं लोग! खाना खा रहे हैं, वह एक यंत्र की तरह डालते जा रहे हैं। हो सकता है, उस वक्त वे वहां भोजन की टेबल पर मौजूद ही न हों, दफ्तर में पहुंच गए हों; या किसी अदालत में मुकदमा लड़ रहे हों, या पता नहीं, क्या कर रहे हों! होशपूर्वक भोजन करें, तो आप थोड़े ही दिन में इस अनुभव को उपलब्ध हो जाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, आप में नहीं। क्योंकि वह जो होश है, वह आप हैं। तब आप बिलकुल साफ देख पाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, और आप अछूते रह गए हैं, पार रह गए हैं। आप देख रहे हैं।
फिर आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मुझे भूख लगी। आपके सोचने का, देखने का ढंग ही बदल जाएगा। फिर आप कहेंगे, मेरे शरीर को भूख लगी। और फिर आप ऐसा नहीं कहेंगे कि मैं तृप्त हो गया। आप ऐसा कहेंगे कि शरीर की तृप्ति हो गई। शरीर को प्यास लगी। फिर आप कहेंगे, शरीर का हो गया।
और जो आदमी चलने में जान ले कि मैं नहीं चलता, शरीर चलता है। भोजन में जान ले कि मैं नहीं करता, शरीर करता है। सोते में जान ले, मैं नहीं सोता, शरीर सोता है। वह मरते क्षण में भी जानने में समर्थ हो जाएगा, मैं नहीं मरता, शरीर मरता है। लेकिन इसको क्रमश: चैतन्य को बढ़ाए जाने से यह आत्यंतिक अनुभव उपलब्ध होता है।

आज इतना ही।
लेकिन रुके पांच मिनट। कोई उठे न। पांच मिनट संगीत और कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं!

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