घर जाते—जाते
दिन निकल आया था। चारों और चहल पहल थी। परंतु मेरी और किसी का ध्यान नहीं गया। बस
एक आधा गली के कुत्ते ने देख और स्वभाव अनुसार मुझे भौंका। लेकिन ये केवल उनके
संदेश मात्र ही माना जायेगा। कि हम सतर्क है अपने इलाके में। हमारी नजरों से कोई
बच कर नहीं जा सकता। बस वह बैठे—बैठे ही भोंकते रह, परंतु वह भी आगे आने कि
हिम्मत नही कर सके। मैं घर जाने का एक ही
रास्ता जानता था। पीछे की तरफ से जहां से अक्सर में भागने के लिए तो उपयोग करता था। परंतु छत से घर जाने
के लिए वापसी में बहुत कठिन होता था। क्योंकि उपर से तो 8—10 फीट भी कूद
कर आ सकता था परंतु वापस तो इतना कूद कर चढ़ नहीं सकता था। अपने साथ मामी का मकान
था।
मैं वहीं पर अक्सर पहूंच
जाता था। वहीं अपनी हीरों कुत्ते वाली कथाएं। परंतु आज ऐसा कुछ नहीं कर सका। केवल
छत पर खड़ा हो कर रोता रहा। कि मुझे कोई उतरा लो। मामी हमारे घर पर गई और मम्मी
जी को बुला कर कहने लगी तोहरा पौनी आया है। गली में आज भी भीड़ लग गई थी। परंतु
मेरे उपर से न कूदने के कारण लोग तरह—तरह की बातें कर रहे थे। लगता है हीरों कुत्ता
अब बूढ़ा हो गया है। मम्मी ने दीदी को कहा की पोनी आज उतर नहीं पा रहा। और लकड़ी
की सीढ़ीयों से तू उतार नहीं सकेगी।
इस लिए पीछे से जाकर जय नारायण का दरवाजा खोल कर उसे उतार ला। मेरे दो दिन से घर न आने
के कारण सब घर के लोग उदास हो गये थे। दीदी और बच्चे मुझे आया देख कर खुश हो गये।
पड़ोस के घर से चढ़ कर दीदी मेरे पास आई तब मुझे बड़ा अचरज हुआ कि दीदी कहां से
गई। उसने मुझे चैन से बांधा। और मेरे गले से चिपट का रोने लगी कि तुम कहां चले गये
थे।
हमने तुझे कहां—कहां नहीं
खोजा। वह स्कूल के कपड़े पहने थे। उसको ऐसे रोते देख कर मेरा भी दिल भर आया कि
देखो मनुष्य कितना प्रेम वाला है। मुझे भी ये लोग कितना प्यार करते है। जब आपको
कोई प्यार करता है तो आपको एक खास तरह का गर्व होता है। परंतु उसे अहंकार नहीं
बना लेना चाहिए। उसमें एक तरलता ही सौंदर्य पूर्ण होती है वहीं आपको विलय की और ले
जाती है। एक मिटने की और जो सच एक अभूत पूर्ण आनंद का क्षण होता है।
पीछे का दरवाजा मैंने देखा तो था परंतु वह
हमेशा रात को बंद होता है इस लिए उस रास्ते से मैं घर नहीं आ सकता। मम्मी ने
मेरे लिए गर्म—गर्म दूध डाल रखा था। दो दिन से कुछ खाया नहीं था। परंतु उस दूध को
देख कर मुझे रह—रह कर मां की याद आ रही थी। वरूण और हिमांशु भाईयाँ भी मुझे देख कर
खुशी के मारे पागल हो गये। और मुझे चारों और घेर लिया कि बताओ तुम दो दिन कहां
रहे। हिमांशु ने कहां की पोनी अब शैतान हो
गया है। अब ये हमारे बस के बाहर है। परंतु ऐसा कुछ नहीं था। क्योंकि अगर मुझे
मेरी मां नहीं मिलती तो मैं सुबह ही आ जाता। और कुदरत शायद यही चाहती थी।
उसने अंतिम समय मुझे मेरी
मां से मिला दिया ये क्या कम उपकार है उसका। सच कहूं तो कुदरत मुझ पर बहुत अधिक
मेहरबान है। हर मोड़ पर, इस परिवार से जोड़ा में
भी तो उसी का हाथ....इसे किस्मत नहीं कहा जाना चाहिए। जरूर मैंने कुछ ऐसा किया कि
कभी कोई प्रेम का बीज बोया होगा। उसके बदले ये सब मिला। शायद इस जन्म में मेरी
मां भी ऐसा बीज बो कर गई। की अगले जन्म में उसे कोई महत्व पूर्ण परिवार मिले जिस
की वह पात्र थी।
लेकिन सब देख रहे थे कि पोनी कुछ बदला—बदला
जरूर लग रहा है। परंतु शायद बाल मन के कारण मेरे ह्रदय में जो उथल—पुथल चल रही थी
वह उनकी समझ के परे थी। मन कुछ खिन्न था। मेरे सामने दूध से भरा कटोरा रखा था।
मम्मी और सब बच्चे मुझे प्यार कर रहे थे। मैं भी एक दम से सही समय पर घर आ गया
और कुछ देर से आता तो बच्चे स्कूल चले जाते और नाहक मेरी याद में एक ओर दिन उदास
रहते । अब उनके चेहरे पर एक ताजा खुशी थी। बच्चों को स्कूल जाने के लिए देर हो
रही थी। इस लिए सब मुझे बाए—बाए कर के भारी कदमों से स्कूल की और चले गये। वरना
तो शायद मेरे आने की खुशी के कारण वह आज स्कूल से जरूर नागा कर लेते....लेकिन
शायद दो दिन से पहले ही स्कूल की छूटी होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं हुई।
मैं दूध के कटोरे के पास बैठ गया। इस समय घर
पर और कोई नहीं था। मैंने कटोरे में झांक कर देखा। मुझे मेरी मां की छवि दिखाई दी।
जैसे वह मुझे देख रही है। और वह मुस्कुरा रही है। परंतु ये सत्य नहीं हो सकता।
काश ये दूध मुझे वहां मिल जाता तो मैं इसे अपनी मां को दे देता। दूध और दवा पाकर
वह शायद जीवित हो जाती। पर ये सब मेरे सामर्थ्य के बाहर था। परंतु सच मां मुझे
जीवित देख कर कैसी प्रसन्न थी।
मैंने दूध को पीना चाहा।
परंतु आज लगा गला कुछ भरा—भरा सा है। कुछ अंदर नहीं जा रहा था। जैसे किसी ने उसे
बंद कर दिया है। हां ऐसा एक बार और हुआ। वह जब मैं मर रहा था वो घटना समय आने पर
आपको बताऊंगा। क्योंकि जब आपको मृत्यु घेर ले तो वही सब प्रतिक्रिया घटित होने
लग जाती है। खेर दूध अंदर नहीं गया तो में पास रखी बालटी में जाकर पानी को पिया।
ये चमत्कार है। पानी मृत्यु के एक क्षण पहले भी कोई प्राणी पी सकता है। लेकिन
दूध भी उतना ही तरह है लेकिन वह आपके कंठ से नीचे नहीं जाता। पानी पाने के बाद
मुझे कुछ राहत हुई। में वही धूप में लेट गया।
पूरा घर सूनसान था। केवल
में और मेरी तनहाई चारो और फैली हुई थी। मम्मी के जाने के काफी देर बार दरवाजा
खुला। मैने देखा पापा जी आ रहे है। पापा जी को देख कर एक तो मुझे भय लगा। फिर कुछ
अपने पन का भी एहसास हुआ। परंतु भय की मात्रा आज कम थी। आज पीड़ा में अपना पन उस
पार छाया हुआ था। पापा जी पास आकर मेरे पार बैठ गये। मैंने अपनी पूंछ जोर से
हिलाई। पापा जी ने मेरे शरीर पर हाथ फेरा। मानों मेरा पूरा शरीर पीड़ा से भरा था।
एक जलती पीड़ा। मैंने आंखें बंद कर ली। और पापा जी का वो स्पर्श मुझे शांत किए जा
रहा था। कुछ ही क्षण में मेरी सारी पीड़ा न जाने कहा गायब हो गई। एक अनोखा चमत्कार
की आपको जब कोई सहला रहा हो तो मात्र उसके स्पर्श से ही आप एक नई उर्जा के संचार
को महसूस करे। और प्राणों से खालीपन को आप पल भर में प्राणों से लबालब भर जाये।
मैंने आंखें खोली उनमें एक दर्द था, एक टीस थी। अपने किसी के खोना का एहसास था। जो पापा
जी ने शायद देख लिया। और मेरी आंखों से झर—झर आंसू बहने लगे। मैंने पापा जी की गोद
में सर रख दिया। अब ये मैं नहीं कह सकता की पापा जी मेरे दूःख को समझ पाये या नहीं
परंतु इतना तो सत्य है कि मैंने अपना दु:ख पापा जी से बांटा। और उन्होंने उसे
आत्मसात किया। मैंने प्यार से उनके हाथ को चाटा। उन्हें दांतों से पकड़ा। और
अपने अंदर का भरा दर्द बहार पापा जी की झोली में डाल दिया। कैसे मैं पल में ही
निर्भर हो गया। पर शायद मैं लाचार था अपना दर्द में जब तक सहता रहा उस चुबे कांटे
की तरह। जो मेरे शरीर के अंदर गड़ा था।
और वह पल—पल गहरा होता जा
रहा था। उसे निकालने के लिए मेरे पास ह्रदय था परंतु शब्द नहीं थे। अब पापा जी को
पास पाकर वह अचानक दर्द पिघल तरल हो गया। और आँखो और छूआन के माध्यम से बाहर फैल
गया। शायद शब्दों के बिना भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। हम पूरी पृथ्वी पर कौन
प्राणी शब्दों का इस्तेमाल करते है। मनुष्य को छोड़ कर। परंतु ये कुदरत के
खिलाफ एक विक्रिति है। जिस के जंजाल में मनुष्य ने खुद आपने आप को फंसा लिया है।
वो मेरे अंतस का दर्द था। अगर बाहर का दर्द
होता तो जरूर बहार से सहायता मिल सकती थी। मैं रो सकता था, तड़प कर चाट कर बता सकता था की मुझे यहां चोट लगी
है। लेकिन अब तो वही वैध उसे ठीक कर सकता था। जो केवल नब्ज देख कर रोगी का दर्द
पहचान सकता हो। और इत्तफाक से पापा जी ऐसे वैद्य थे। पापा जी मुझे प्यार करते
रहे। और आखिर मुझे उठ कर वह दूध पीनी ही पडा, किस अद्भुत शक्ति ने ये
सब मुझ से करवाया और कैसे। ये सब मेरी समझ के परे था परंतु ये था एक चमत्कार ही।
मरे मन से न चाहते हुए भी एक सम्मोहन की अवस्था में मैंने दूध पिया। दूध पीने के
कुछ ही देर में उस दर्द को भूलने लगा। पापा जी मेरी और देख रहे थे। उनके चेहरे पर
एक खस तरह की मुस्कुराहट फैली हुई थी। जो मेरे दर्द पर मरहम का काम कर गई।
धीरे—धीरे मन इस हादसे को भूलता चला गया। मन
का स्वभाव बड़ा विकट है। इससे जितना दूर जाया जाये उतना ही जीवन सूख और आनंद से
गुजरता है। एक याद तो मन पर छपी रही परंतु वह दुःख और पीड़ा कम से कम होती चली गई।
घर मैं पिरामिड बनने का काम चल ही रहा था। वह काना मजदूर। जिस का जिक्र मैंने पहले
भी किया था। पांचु, वह शक्ल से ही चालबाज
और धूर्त लगाता था।
परंतु उसके अंदर एक गुण
जो सारे अवगुणों को दबा देता था वह मेहनती था। वह कामचोर नहीं था। इस लिए शायद
यहां पर वह काम कर सकता। वरना मेरे देखते कितने ही मजदूर जो काम चोर थे। वह 10—15
दिन तक अपनी चालबाजी दिखाते रहे। और जब जूबान से काम नहीं चला। लिपा पोती नहीं चली
जो भाग गये। उन्हें किसी ने भगाया नहीं। परंतु काम ही ऐसा था कि जो जरूरी है वह
तो होना ही चाहिए। कोई बड़ा चौड़ा फैला काम तो नहीं था कि उसमें कुछ काम चोर भी खप
जाये। असल में यहां जो भी काम होता वह प्रत्यक्ष था1 उसके कुछ सफाई देने की जरूरत
नहीं था। और न ही किसी को दिखाने की।
पूरा दिन पांचु इँट लाकर
इक्कट्ठे करता। क्योंकि गली भिड़ी होने के कारण इंटो का ट्रक यहां नहीं आ सकता था।
12बजे तक पांचु वह इँट घर के आँगन में ढेर लगा देता था। पापा जी 11 बजे तक दूकान
से घर आते थे। फिर उसके बाद कपड़े बदल कर पांचु की मदद करते। इन दिनों ध्यान नहीं
होता था। क्योंकि ध्यान का कमरा तो टूट गया था। अब तो जब तक वह नहीं बन जाता से
तो संभव ही नहीं था। इतनी सारी इँट धीरे—धीरे कर के उपर चढ़ानी होती थी। काम बहुत
मेहनत था।
अंगन से पांचु एक हाथ से इँट उपर फेंकता।
पहली मंजिल पर पापा जी उसे लपकते। मुझे तो यह देख कर डर लगता था। अगर वह इट लग
जाये या आपका ध्यान चूक जाये तो आपको चोट भी अधिक लगा सकती है। परंतु पांचु के
साथ पापा जी भी गजब के खिलाड़ी निकले। क्या गजब की इँट फेंकी जाती। और पापा जी
उसे एक हाथ से लपक कर रखते जाते। कैसा तालमेल था दोनों का। पाप जी भी विकट थे।
किसी भी काम को कितनी
सहजता से कर लेते थे। फिर उन इंटो को उठाकर अंदर पिरामिड में ले जाया जाता। और
एक—एक करके पेड़ दर पेड़ उन्हें वहां रखा जाता जहां आज काम होना था। राम रतन
मित्र। चार बजे के बाद घर आते थे। शायद वह कोई दूसरा काम भी कर रहे थे। फिर चार या
पाँच बजे के बाद। वह दो तीन घंटे काम करते। काम बस यही होता की उन इंटो के तीन
रद्दे ही लगाये जाते। इंटो को खसके की तरह बहार—बहार बढ़ानी होती थी। करीब दो इंच
मात्र। तो इस के एक दिन में केवल तीन चक्र ही लगया जा सकते थे। अगर ज्यादा लगने
का लालच करोगे तो सब इंटे नीचे गिरने का डर भी रहता था।
काम काफ़ी खतरनाक और जोखिम भरा था। परंतु जिस
सहज और सरलता से पापा जी उस में खड़े होकर करवा रहे थे। वह एक दम आसान हो गया था।
पहले दुकान भी देखते और इन लोगो के साथ मदद भी करते। रात होने के कारण रोशनी का भी
इंतजाम किया जाता था। परंतु एक बात थी इस सब के कारण मुझे बहुत मजा आता था। एक
रौनक मेला लगा रहा था रात तक। और इस सब के कारण मैंने एक काम ओर सीख लिया था। कहो
तो बता दूं परंतु आप समझोगे कि में उड़ा रहा हूं। परंतु यह एक दम सत्य है। मैं इस
लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ना भी सीख गया था। अगली दोनों टांगें फँसाता रहता और धीर—धीर
संतुलन कर के उपर और उपर चढ़ता रहता। इतनी पतली लकडी की सीढ़ी पर अपने छोटे—छोटे
पिछले पैर कैसे में संतुलन करके चढ़ना सिख रहा था। ये कोई सर्कस से कम नहीं था।
परंतु ये था एक दम सत्य ही। परंतु कोई भी काम साहस से अधिक बढ़ कर किया जाये तो
वह खतरनाक भी हो सकता था।
पिरामिड धीरे—धीरे उपर उठ
रहा था। तो इसकी पेड भी उँची और ऊँची उठती जा रही थी। इसी तरह पापा जी, पांचु और राम रतन के साथ मिल कर एक सीढ़ी बनाई जो
करीब 18—20 फिट की थी। सीढी पैड बांधने के लिए इस्तेमाल होने वाली दो मजबूत बल्लीयां
ली गई। और बल्ली की लकड़ी काट कर उसके डंडे लगाये गये जो। साधारण सीढ़ी से उँची
और माटी भी थी। साधारण सीढ़ियाँ 8—10 फीट की ही होती थी जो आम तोर पर बांस की ही
बनी होती है।। अब जो पेड़ बंधी और उस पर मचान बनाया गया वह 20 फीट का था। वह एक ही
सीढ़ी वहां सीधी लगा दि गई। और पहली पेड़ को बीस फीट उँचा बाँध दिया गया। वरना तो
उतनी जगह में करीब तीन पेड़ बांधी जाती जिस पर नीचे से सारी इंटे फेंक कर इकट्ठा
करना आसान नहीं था।
अब पहली पेड़ पर जो 20
फिट थी उस पापा जी बैठ जोते और पांचु नीचे से इंटे फेंकता। और पापा जी उन्हें लपक
कर वहाँ सहेजते जाते। फिर पैड—दर पैड उन्हें उपर ले जाना थोड़ा आसान हो जाता था।
एक दिन ऐसा हादसा हुआ की मैं बहुत डर गया। क्योंकि जब इंटे उपर फेंकी जाती तो
मुझे पिरामिड में अंदर नहीं आने दिया जाता था। क्योंकि कभी—कभी भूल से या चूक से
वह इँट वास जमीन पर गिर जाती थी। या तो पांचु ने उसे छोटा या गलत फेंका था या पापा
जी उसे पकड़ने भूल कर गये। और वह इँट जब
नीचे गिरी तो कितनी भंयकर आवज करती थी। पूरा का पूरा घर हिल जाता था। इस तरह से
नीचे खड़े व्यक्ति को इतनी चोट लग सकती थी कि वह मर भी सकता था। काम काफी खतरनाक
था। इस लिए उस समय दरवाजा बंद कर दिया जाता था कि मैं भूल से भी वहां न आ सकूँ। इस
लिए जब वह काम चल रहा होता तो मुझे अंदर नहीं आने दिया जाता था।
परंतु उस दिन क्या हुआ। इंटे सारी की सारी
उपर मचान पर फेंक दी गई थी। और सब लोग मचान पर ही बैठ कर चाय पी रहे थे। वहां
थोड़ी धूप होने के कारण धूप का आनंद भी ले रहे थे। मैं अकेला नीचे रह गया था। अब
अकेले में मेरा जरा भी मन नहीं लगता था। मुझे ये बिमारी मां के मरने के बाद हुई।
कोई संग साथ तो चाहिए चाहे मैं सोता हुआ हूं या जागा हुआ हूं। एक बच्चे की तरह
पीछे—पीछे लगा रहता था। परिवार का कोई तो सदस्य चाहिए ही। और कुछ नहीं मिले तो
मैं मम्मी जी का कोई कपड़ा पकड़ कर अपने पास रख लेता उसकी खुशबु के साथ सोता
रहता। सब लोग ऊपर बैठे थे।
मैंने एक दो बार आवाज भी
देकर उन्हें बुलाना चाहा। परंतु शायद वह बातों में तल्लीन थे। या और कोई कारण हो
सकता है। सीढ़ी चढ़ने का साहस तो मुझमें आ ही गया था। और धीरे—धीरे सीढी पर चढ़ने
का मैं बहुत आदी हो गया था। परंतु वह एक बांस की छोटी सीढ़ी होती थी जिस पर 8—10
डंडे ही लगे होते थे। परंतु इस सीढ़ी का मुझे तनिक भी अंदाज नहीं था की यह इतनी
उँची है। ये सीढ़ी उन सीढ़ियों से दो गुणी बड़ी थी। अब मैं तो अपने को मास्टर समझ
गया और मैं सीढ़ी चढ़ने लगा। मैं चढ़ रहा था ओर वह सीढ़ी तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
मैंने एक बार नीचे झांक
कर देखा तो मैं बहुत उपर आ गया था। और मचान तो काफी दूर था। शायद में आधी से कुछ
ही अधिक चढ़ा था। सीढ़ी उँची होने के कारण झूल भी रही थी। मेरा संतुलन बिगड़ रहा
था। परंतु अगर मैं गिर जाता या कूद जाता तो मेरी हड्डियां चकना चूर हो जाती। जितना
में हिम्मत कर के चढ़ सकता था चढ़ता रहा। परंतु एक समय के बाद मेरी हिम्मत जवाब
दे गई। मैं अपने आप को वहां किसी तरह से संतुलित कर के खड़ा हो गया। और
कुं.....कुं ....कर के रोने लगा। मेरा पूरा शरीर मारे भय के थर—थर कांप रहा था। और
रह—रह कर मुझे लग रहा था कि अब क्या होगा। मेरी ओखों के सामने अंधेरा छा रहा था।
शायद पापा जी या मम्मी जी चाय पी रहे थे। बातों के कारण या वो सोच नहीं सकते कि
मैं ऐसा कर सकता हूं। मैं काफी देर इसी तरह से खड़ा रोता रहा।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ
रहा था कि क्या करू। कुछ ही देर में पांचु ने मेरे रोने की आवाज सूनी और पापा जी
को कहा। कि पोनी को देखो कहां चढ़ा हुआ है। पाप जी तो मुझे इस हालत में देखा तो वह
भी बहुत घबरा गये। परंतु उन्होंने साहस से काम लिया। वो उपर ही थे। अगर वह नीचे
होते तो पीछे से आकर मुझे बड़ी ही आसानी से पकड़ सकते थे। परंतु पापा जी ने मुझे
प्यार से पूकार और धीरे—धीरे उतर कर मेरे नजदीक आते गये। पापा जी के पास आने के
कारण सीढ़ी और जोर से हिलने लगी। मुझे और अधिक डर लगने लगा। परंतु पापा जी मुझे
बुलाते रहे। मेरा ध्यान अपने और खींचे रहे। ताकि मैं डरूं न। और दूसरा पापा जी पर
मेरा पूरा भरोसा था। की वो जरूर आकर कर
मुझे बचा लेंगे। इस लिए उस झूलती सीढ़ी के करण मुझे कम भय लग रहा था वरना और कोई
समय होता तो मैं नीचे कूद जात चाहे फिर जो भी होता इस के बारे में नहीं सोचा जाता।
परंतु पापा जी की वजह से
मुझे लग रहा की वह जो भी कर रहे है मेरी भलाई के लिए ही कर रहे है। इसलिए मैं जहां
खड़ा था जरा भी नहीं हीला। अगर हम अपने पर अधिक भरोसा करते है तो वह हमारा मैं या
अंहकार ही होता है। दूसरों पर भरोसा करना ही तो समर्पण बन जाता है। साहस है, पापा जी धीरे—धीरे कर के मेरे पार आये। उपर से झुक
कर उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा। मेरा पूरा शरीर डर के मारे कांप रहा था। फिर
मुझे आराम से पकड़ कर अभी उन्हें मेरे से नीचे की सीढ़ी पर जाना था। जो काम बहुत
जोखिम भरा था। मेरे लिए ही नहीं पापा जी के लिए। मुझे कम से कम छुए हुए नीचे जाना।
और इस स्थिति में वह अपना संतुलन खोकर खुद भी नीचे गिर सकते थे। परंतु पापा जी ने
वह कार्य ये कार्य कर दिया, वह उपर से उतर कर मेरे पीछे से नीचे पहूंच गये। पापा
जी नीचे जाने के बाद कुछ देर इसी तरह से खड़े रहे। शायद अपना संतुलन भी बना रहे
होंगे।
क्योंकि अभी तो आधा ही
कार्य ही हुआ है। मुझे भी तो नीचे उतरना है वह कैसे संभव है यह मेरी समझ में नहीं
आ रहा था। पापा जी ने पीछे खड़े होकर मुझे प्यार से बहुत सहलाया। दो—तीन मिनट तक
हम इस तरह से खड़े रहे। शायद पापा जी का मेरे पीछे आकर खड़ा होने के कारण मेरा भय
कम हो गया। यही शायद वह करना चाहता थे। क्योंकि अब अगर में गिरता भी हूं तो पीछे
पापा जी है वह मुझे सम्हाल लेंगे। मेरे गिरने के बीच में पापा जी एक दीवार बन आ
गये। अब मेरा भय मेरा कापना कम हो गया था। तभी अचानक पापा जी ने मुझे एक हाथ से
अपनी गोद में उठा लिया और एक हाथ से सीढ़ी को पकड़ कर नीचे उतरने लगे। बहुत
धीरे—धीरे हम नीचे आ रहे थे।
मेरी जान में जान आ रही
थी। लेकिन मैंने भी समझदारी से काम लिया पापा जी ने जिस तरह से मुझे पकड़ा हुआ था
मैं जरा भी नहीं हिला। अगर मैं हिलता या अपने को छुड़ाने कि कोशिश करता तो हम
दोनों नीचे गिर सकते थे। क्योंकि एक तो उलटे पैरो पापा जी नीचे उतर रह थे। दूसरा
एक ही हाथ से सीढ़ी को पकड़े थे। और जो दूसरा हाथ था उस में इतना वज़न उठाये हुआ
था। और तीसरा सीढी मैं और पापा जी एक समान्तर रेखा में आ गये थे। जिस के कारण
पापा जी का सीढ़ी से दूरी अधिक हो गई थी। पर सब ठीक हो गया। हम नीचे सही सलामत
पहूंच गये और पापा जी ने मुझे जैसे ही नीचे छोड़ा मैं मारे खुशी के पिरामिड
दौड़—दौड़ कर पापा जी का धन्यवाद कर रहा था।
रो—रो कर अपनी खुशी और
जीवत होने का उत्सव भी मना रहा था। सच आज पापा जी ने जो साहस का काम किया वह मेरे
लिए भगवान बन आये। और इस घटना के बाद पापा जी के प्रति मेरे मन में और अधिक
श्रद्धा और विश्वास बढ़ गया। अगर पापा जी मुझे आग में भी कूदने के लिए कहते तो
शायद में बिना किसी झिझक और भय के कूद जाता। आज भी मुझे जीवन दान देकर पापा जी ने
मुझे अपना कायल कर दिया....मेरे पास धन्यवाद
के शब्द नहीं है केवल ह्रदय में आभार है....एक प्रेम है, एक श्रद्धा है......
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