पिरामिड के बनने का काम चलता रहा। पिछले दिनों
जैसे ही ध्यान का कमरा टूटा था और जो लोग ध्यान करने के लिए आना बंद हो गये थे।
इन कुछ ही महीनों के इंतजार के बाद उन की तादाद बढ़ गई थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था। ऐसा कैसे हो गया। क्योंकि
शायद निषेद को निमंत्रण है। और धीरे—धीरे लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। जैसे हर चीज
का एक समय होता है। जब पेड़ बड़ा होगा तो उसमें फूल आएंगे और उसके बाद फलों से लद
जायेगा। यहीं शायद यहां हो रहा था। पिरामिड का ढांचा बन कर तैयार तो गया था परंतु
अभी उस के अंदर पलास्टर नहीं हुआ था। लेकिन लोगों को कहां सब्र था। वह तो मौके की
तलाश में ही थे। कि जैसे ही ध्यान के लिए द्वार खुले और वो आये।
क्योंकि पापा जी ने ध्यान
का समय ऐसा र्निधारित कर रखा था जो उन्हें सुविधा जनक हो। जैसे दिन के 10 बजे
दूकान बंद कर के आते थे और 11 बजे ध्यान शुरू हो जाता था। ध्यान के बाद भी पापा
जी को बहुत काम होता था। वरूण भैया को स्कूल से लेकर आते थे। क्योंकि शायद वरूण
भैया सबसे ज्यादा दूर पढ़ने के लिए जाते थे। पता नहीं अब कितनी दूर मैं यह कहा
नहीं सकता। हिमांशु भैया के तो स्कूल की बस आती थी। और दीदी तो बड़ी हो गई थी वह
तो खूद स्कूल चली जाती थी और आ भी जाती थी। लेकिन वरूण भैया को स्कूल छोड़ना और
फिर लेने जाना। वो भी घड़ी की सूईयों कि तरह। जल्दी भी नहीं जाया जा सकता है और
देर भी नहीं की जा सकती क्योंकि फिर वहां पर भैया इंतजार करेगा।
छूटी जिस दिन होती तो उस
दिन बहुत ही अधिक लोग ध्यान करने के लिए आ जाते थे। एक परिवार तो मेरे को फूटी
आंखों नहीं सुहाता था। वह लोग तो हर रविवार के दिन नियम से आते। ध्यान करते और
खाना भी खाते। मेरी समझ में नहीं आता की लोगों के मन में जरा शर्म है या नहीं। इसी
तरह से एक और स्वामी जी। जो शायद राजस्थान के थे। वह भी शनिवार की श्याम को आ
जाते और इतवार को रहते और सोमवार के दिन जाते। हो न हो ये तो लोगों इस घर के लोगों
को थोड़ा पागल समझे होंगे। और इसे सांड आश्रम बना लिया था। जरा मेरी चल जाती तो
इनका पागल पन मैं एक ही दिन में दूर कर देता।
मैंने इस मामले में पड़ने
की कई बार कोशिश की। जब वह स्वामी जी आते तो उसकी जगह जान बूझ कर बैठ जाता। तो
उसे पापा जी हर से दूर हट कर बैठ कर खाना पड़ता और बीच—बीच में उसके कान के पास
अपना मुंह ले जा कर बहुत धीरे से घूर......कर देता। कि या तो मुझे खाना दे—दे या फिर तेरी खेर
नहीं। पर वह लोग भी किस मिट्टी के बने थे इसे मैं आज तक नहीं समझ पाया।
एक
ही दूकान से पिरामिड के बनने का काम। और घर का खर्च। बच्चों के स्कूल की फीस और
उपर ये लोग आकर खाना खाते परंतु इतने दिन से देखता हूं नित नियम से कभी लाते कुछ
नहीं थे। भले आदमी तुम आश्रम में जा रहे हो किसी होटल में तो नहीं जा रहे कि वहां
आप पिकनिक मना रहे हो।
वह लोग जब आते तो मुझे बड़ा गुस्सा आता। कम से कम जो
लोग पास ही गांव से ध्यान करने के लिए आते थे वह ध्यान कर के या चाय पी कर तो
चले जाते थे परंतु यह तो 5—6 घंटे की फांसी हो गई। और वह राजस्थान के स्वामी जी
जब आते थे तो मुझे उन्हें डराने का बड़ा मजा आता था। क्योंकि मैं उनमें पागल पन
की कुछ सुगंध महसूस करता था। और सच कहूं पागल लोगो से हमें बड़ा डर लगता है। इसी
लिए तो हम उन्हें भोंकते है। तब आप कहोगे की आप पुलिस के सिपाही को क्यों भोंकते
हो साधु संन्यासियों को क्यों भोंकते हो। तब मेरा यही जवाब है। उन से भी डर लगता
है।
हजारों सालों से ये
सिपाही लड़ते मरते रहे। खून खराब करते है। जहां भी जाते मृत्यु का तांडव होता था।
गांव के गांव शहर के शहर खाली कर दिये जाते। चारों और मार काट मची होती। अब लोग ही
नहीं होंगे तो भोजन कोन बनायेगा। और जब बनेगा नहीं तो क्या खायेंगे। हमारी जाती
इतने सालों से मनुष्य के संग साथ रह कर इतनी तो शाकाहारी बन गई थी कि मनुष्य का
मांस तो नहीं खा सकती थी। क्योंकि वह तो अपने ही परिवार का हिस्सा था। इस लिए
कोई भी जानवर अपनी ही जाति का मांस नहीं खाती। मार सकती है। लेकिन खा नहीं सकती।
आज कुछ विरोधा भास मिल जाये तो कहां नहीं जा सकता।
छूटी जिस दिन होती तो उस
दिन तो बहुत से लोग ध्यान करने के लिए आ जाते
थे। इसमें एक परिवार तो मेरे को फूटी आंखों नहीं सुहाता था। वह हर रविवार के दिन नियम से आते। ध्यान करते
और खाना भी खाते। मेरी समझ में नहीं
आता की लोगों के मन में जरा शर्म है या नहीं। इसी तरह से एक और स्वामी जी। जो शायद राजस्थान के थे। वह
भी शनिवार की श्याम को आ जाते और इतवार
को रहते और सोमवार के दिन सुबह यही से काम पर चले जाते। हो न हो इन लोगों ने तो इसे सांड आश्रम बना लिया था।
एक ही दूकान से पिरामिड के बनने का
काम। और घर का खर्च।
बच्चों के स्कूल की फीस
और उपर ये लोग। वो लोग आकर खाना खाते
परंतु इतने दिन से देखता हूं नित नियम से कभी लाते कुछ नहीं थे। भले आदमी तुम आश्रम में जा रहे हो किसी होटल में तो नहीं जा रहे
कि वह पिकनिक मना रहे हो। और आध्यात्मिक
में कंजुसियत एक महारोग है। वह लोग जब आते
तो मुझे बड़ा गुस्सा आता। कम से कम यहां आस पास से जो लोग यहां से ध्यान करने के लिए आते थे वह ध्यान कर
के या चाय पी कर तो चले जाते थे परंतु
यह तो 5—6 घंटे की फांसी हो गई।
और वह सहज स्वामी जी जब
आते थे तो मुझे उन्हें डराने का बड़ा
मजा आता था। और उनकी एक और मजे दार बात वह खाना खाने के लिए भी ठीक बीच में बैठते थे। परंतु मैं भी अपने आप में एक
ही था। मैं चुप से उसके पीछे जाकर उसके
कान के पास बार—बार अपना मुंह कर के ग़ुर्राता
कि चुप से मुझे अपने खाने में से खाना दे दो वरना तुम्हें बाद में देख लूंगा। और सच में वह मेरे
गुर्राने से डर जाता था और चुप से अपनी थाली
में से कुछ मेरे सामने रख देता था। लेकिन मैं भी कहां चेन लेने वाला था। खाना खाने के बाद वह कुछ भी काम नहीं
करते थे। बस चींटी की तरह इधर से उधर
घूमते थे।
मुझे उसके अंदर से ही पागलपन की दुर्गंध आने
लगी थी। और उसकी आंखों में भी पागल पन का जाला से बनना शुरू हो गया था। शायद ये
बात पापा जी ने भी देख ली और उसे समझाया। की तुम अब नौकरी करते हो अच्छा पैसा
कमाते हो। अपने इस सब कामों को छोड़ कुछ दिन के एकांत और ध्यान के लिए पूना चले जाओ।
वह मनुष्य सुनता सबकी है और करता अपने मन की है। वह हां हूं करता रहा। और
धीरे—धीरे ऐसा समय आ गया की आप अपनी मदद खुद भी नहीं कर सकते। तब बहुत लाचारी है।
पहले जब आप किसी की सहायता से मदद पाकर अपना उद्घार कर सकते थे। और अब तो कुछ नहीं
किया जा सकता। और सच में मेरी देखे ध्यान इतना सरल जरूर है। परंतु अगर आप अंदर से
दो हिस्सों में बंटे हो तो वह आपके लिए नहीं है। इस लिए प्रत्येक गुरु ध्यान के
लिए समरपर्ण मांगता है। दो हिस्से जीवन को सरल नहीं बना सकते वह और जटिल बना
देंगे। आप के अंदर कुछ है और बहार दिखावा करना पड़ रहा है। समाज में तो चल जाता है
क्योंकि उसकी दूरी कम है। आप दस कदम ये चहरा बना सकते है और वापस आकर फिर दूसरा
चेहरा पहन सकते है। लेकिन ध्यान करने से दूरी और अधिक से अधिक बढ़ती जाती है इस लिए
ऐक्टिंग करना कठिन से कठिनतम होता चला जाता है। वहां तो जो आपके अंदर है वहीं
चेहरे पर रहने दिया जाये। इसी में आपकी भलाई है। वारना तो बज गया आपका डंबरू।कितने लोग मैने अपने यहां आने के बाद पागल पन की और जाते दिखाई दिये। मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही थी की जब ध्यान पागल पन की और ले जाता है ये लोग करते क्यों है। या यहां पर ही कुछ खास बात है। असल में जहां आपको गहराई अधिक मिलेगी वहीं दूरी अधिक बढ़ती जायेगी। एक औरत और इसी तरह से अपने अंदर डूबती चली गई। और जब वह यहां पर आई अपने पति के साथ तो उसकी हालत अधिक खराब थी। पापा जी ने उसके पति को कहां की आप चाहे तो इसे बचा सकते है।
तब उसके पति ने पापा जी बात मान ली क्योंकि शायद वह पापा जी पर अधिक
विश्वास करता था। पापा जी ने कहां की मैंने इसे पहले भी कहा था तुम कुछ क्रियाशील
के साथ कार्य करो। ये बैठ कर ध्यान ठीक नहीं है। परंतु यह मानी ही नहीं। इस लिए
आप इन्हें इक्कीस दिन के लिये रोज यहां पर लाना। और यहां पर सक्रिय ध्यान करने
देने। और देखना ये ठीक हो जायेगी। और सच में ऐसा ही हुआ। वह बिन नाग के इक्कीस
दिन ध्यान करने आई। कभी अपने लड़के के साथ कभी पति के साथ। और उन दिनों भी खुब
रौनक मेला होता था।
और सच में वह 21 दिन के ध्यान के
बाद ठीक हो गई। और पापा जी ने कहां की अभी घर पर भी यह सक्रिय ध्यान जरूर करे। और
सच पापा ने के सीने से लग कर वह महिला कितना राई। उसके अंदर जमी सभी धूल बह गई। और
पापा जी कहते थे कि वह एक मात्र साधक है जो पागल पन के इतने पास जाकर वास संसार
में लोट आई। क्योंकि उसने अपने को छोड़ा किसी के हाथ में और यही तो सन्यास है।
हम जो भी करते है करते है अपने मन की ही बात।इसी बीच जब रोज ध्यान होता तो खाना खाने के बाद सब को मिठाई मिलती। मेरा भी बहुत मन करता। परंतु मुझे मिठाई नहीं दी जाती। तब उस महिला के पति ने एक चमत्कारी काम किया। और वह मेरे लिए एक किलो का पेटी गिर ले आय। और सच मैंने उसे पहली बार जब खाया तो मेरे मन बल्लीयों उछलने लगा। और मैंने भी मन से उस महिला के ठीक होने की दुआ मांगी। कितनी अद्भुत चीज थी वह कितना सुस्वाद थी। और फिर जाने के एक दिन पहले वह मेरे लिए एक मीठी और टाइट सी कुछ हड्डी की तरह लेकर के आई थी। मैंने उसे छोटी ची परंतु मीठी से वस्तु को कितनी मुश्किल से खाया। मेरा पूरा मुंह चिकना हो गया था। एक प्रकार के झाग से मेरे मुख में आ रहे थे। असल में वह पति पत्नी कुत्तों को बहुत प्रेम करते थे। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते पाल रखे थे। जिन्हें वह ये सब खाने के लिए देती थी। और यह दूसरी चीज दाँत साफ करने की हमारी पेस्ट थी। और सच ही मेरे दाँत पहले से अधिक साफ हो गये थे। बस फिर तो क्या ता भला हो उन पति पत्नी का जो उन्होंने यह पहली बार मुझे खाने के लिए दिल वाई। अब तो हमारे घर में भी वहीं सब बिना नागा के आने लगा। परंतु पहल का अधिक महत्व होता है। और उन लोगों ने की थी। और सच उनके साथ हुआ भी अच्छा जैसा तुम बोओगे वैसा ही काटोगे।
वह महिला ठीक हो गई। और वह स्वामी जी आज भी पागल है शायद जीवित भी है या नहीं। क्योंकि बाद में पता चला कि उसकी नौकरी छूट गई। पहले जो भाई मान सम्मान देते थे। अब उन्होंने उसे घर से निकाल दिया। अब उन्हें कोन सम्हाले। इस लिए जब भी छोड़ना है पूरा का पूरा छोड़ना। और वह परिवार भी अब कभी नहीं आता। पता नहीं उन का क्या हाल होगा। परंतु वह थे बड़े कंजूस कभी मेरे लिए एक टॉफी भी नहीं लाये………परंतु में इतना जरूर जानता हूं वे कभी ध्यान के मार्ग पर नहीं चल सकते। समाज में चल रहे हो तो कह नहीं सकता। परंतु पहाड़ी पर चढ़ना या तलवार की धार पर चलना ध्यान है। असल में हम किसी को छलते तो दिखते है, और अंदर ही अंदर खुश भी बहुत होते है कि देखो हम किसी को बेवकूफ बना सकते है। परंतु छलते हम अपने आप को ही है। दूसरे का छलना अपना ही छलना है। एक आईना है, एक परछाई है……मैं तो केवल एक दर्शक की भांति देखता भर था। मैं मूक रहना चाहता तो रह नहीं सकता था। क्योंकि मुझे भौंकने से कोई रोक नहीं सकता था। सत्य वचन कहना मेरी मजबूरी हो जाती है।
अगर ऐसा न हो तो आप गली में झांक कर देख सकते हो मेरी ही जाति के अनेक भाई बहनों को अपने रहने के लिए ठीकाना नहीं है। और पूरे मोहल्ले कि रक्षा की जिम्मेदारी उन की है। जरा सा भी मोहल्ले में कुछ गलत हो जाये तो भौंक—भौंक गली सर पर उठा लेते है। इस को कहते है वफादारी। वह अंदर और बहार से एक होते है। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है की कल रस्ते पर चलते हुए आपने उसे लात मारी थी, और आज आपकी गली में कुछ चौर आ जोते है तो हम क्यों भौंके यह तो खराब आदमी है। इसने तो मुझे खाने को भी नहीं दिया था और उपर से लात भी मारी थी। ये भेद भाव उनके मन में नहीं है। और इस सब के बाद भी बेचारे की मोत भी कितनी बुरी होती है। कुत्ते की मोत चलो जो भी हो हम किसी का बुरा नहीं चाहते। अगर कुछ कभी गलती से हो जाये तो हम कह नहीं सकते।
आज तो केवल मैने भी ज्ञान का पूरा पिटारा ही खोल दिया…..चलो जो भी हो मन का उदगार तो आपको कह गया….दिल पर एक बोझ बना रहता तो कितना कठिन था।
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