रविवार, 5 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--107



मैं ओंकार हूं—(प्रवचन—सातवां)

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--107
अध्‍याय9
सूत्र:
     
पिताहमस्य जगतो माता धाता पिताम्ह:।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।। 17।।
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुह्रत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधान बीजमध्ययम्।। 18।।

और हे अर्जुन! मैं ही इस संपूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वालापितामाता और पितामह हूंऔर जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेदु सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूं।
और है अर्जुन प्राप्त होने योग्य गंतव्य तथा भरण- योषण करने वाला सबका स्वामी,  सबका साक्षीसबका वास स्थान और शरण लेने योग्य तथा हित करने वाला और उत्पत्ति और प्रलयरूय तथा सबका आधारनिधान अर्थात प्रलयकाल में सबका जिसमें लय होता ह्रै और अविनाशीबीज कारण भी मैं ही हूं।


 जैसे मार्ग हैं अनेक और मंजिल एक हैवैसे ही प्रभु के रूप भी हैं अनेकवह जो रूपायित हुआ हैवह एक है। ऐसा नहीं है कि उसे एक ही रूप में देखा जा सके! कोई रूप की सीमा नहीं है। जो जिस रूप में खोजना चाहेउसे खोज ले सकता है। सभी रूप उसके हैं। जो भी हैवही है।

कृष्ण इस सूत्र में बहुत-से शब्दों का संकेत किए हैं। वे शब्द-संकेत समझने जैसे हैंक्योंकि उन शब्द-संकेतों से ही साधना का पथ भी विस्तीर्ण होता है। कहा हैअर्जुनमैं ही इस संपूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वाला हूं।
धर्म शब्द से हम परिचित हैं। धर्म शब्द का अर्थ होता हैजो धारण करेजो धारण किए हुए है! धर्म शब्द से अर्थ रिलीजन नहीं होता। धर्म शब्द से अर्थ मजहब भी नहीं होता। मजहब का अर्थ होता हैपंथसेक्टसंप्रदाय। रिलीजन शब्द का मौलिक अर्थ होता हैजिससे हम बंधे हैंरिलीगेरजिससे हम बंधे हैं। लेकिन यह बड़ी कीमती बात है कि भारत धर्म को इस भाति नहीं सोचता कि जिससे हम बंधे हैंबल्कि इस भांति सोचता है कि जिस पर हम सधे हैं।
बंधन शब्द अप्रीतिकर भी हैकुरूप भी है। शायद पश्चिम ने धर्म को एक बांधने वाली सीमा-रेखा की तरह देखा है,इसीलिए पश्चिम ने धर्म से मुक्त होने की चेष्टा भी की है। जिससे हम बंधे हैंउससे हम मुक्त भी होना चाहेंगे। बंधन चाहे कितना ही स्वर्ण का क्यों न होविद्रोह पैदा करेगा।
भारतीय मनीषा धर्म को एक बंधन नहीं मानतीधर्म को एक मुक्ति मानती है। धर्म एक ग्रंथि नहीं हैजिससे हम बंधे हैंधर्म एक स्वतंत्रता हैजिसमें हम मुक्त हो सकते हैं। धर्म शब्द का अर्थ
जिसके हम धारण किया है। उससे हम बंधे नहीं हैहम उससे ही निष्पन्न हुए हैं।
एक वृक्ष है। वृक्ष के नीचे उतरेंतो जड़ों का फैलाव है। वृक्ष ऐसा भी सोच सकता है कि जमीन वह हैजिससे मैं बंधा हूं। और इस सोचने में भी गलती न होगी। क्योंकि वृक्ष ऐसा देख सकता है कि यह जमीन ही हैजिसमें मेरी जड़ें उलझी हैं और जिससे मैं बंधा हूं। वृक्ष जड़ों और जमीन के बीच के संबंध को बंधन की भांति भी देख सकता है। और वृक्ष इस भांति भी देख सकता है कि जमीन मेरा बंधन नहीं हैयह जमीन ही हैजिस पर मैं सधा हूं। यह जड़ों और जमीन के बीच बंधन नहीं हैजड़ों और जमीन के बीच प्राणों का संबंध है।
अगर वृक्ष ऐसा देखे कि जमीन से मैं बंधा हूंतो जमीन से मुक्त होने की कोशिश शुरू हो जाएगी। इस देखने से ही कोशिश शुरू हो जाएगी। यह दृष्टि ही छुटकारे का प्रारंभ होगी। और अभागा होगा वह वृक्ष। क्योंकि जहां तक देखने का संबंध है,वहा तक तो कोई हर्ज नहीं है कि वृक्ष समझे कि मैं जमीन से बंधा हूं क्योंकि आकाश में उड़ नहीं सकतालेकिन जिस दिन वृक्ष इस बंधन से मुक्त होने की कोशिश करेगाउस दिन वृक्ष अपने ही हाथों अपनी आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि जड़ें बंधन नहीं हैं,जीवन हैं।
धर्म का अर्थ हैजिसने हमें धारण किया है। वह बंधन नहीं हैवह हमारे प्राणों का स्रोत है। जड़ें बंधन नहीं हैंजड़ें वृक्ष के प्राण हैं। और पृथ्वी ने उसे बांधा नहीं हैजीवन दिया है। सच तो यह है कि जड़ों के कारण ही वह आकाश में फैलने में समर्थ हुआ है। जड़ों में जो रसजड़ों में जो प्राणजो ऊर्जा उसे उपलब्ध हो रही हैवही उसके पत्ते और फूल बनकर आकाश में खिली है। यह जो वृक्ष की यात्रा है आकाश की तरफ उठने कीयह जो महत्वाकांक्षा है कि आकाश को छू लूं , यह जड़ों के ही आधार पर है।
और ध्यान रहेजितनी जड़ें गहरी जाएंगी जमीन मेंउतना ही वृक्ष ऊपर जाएगा आकाश में। अगर जड़ें जमीन के पूरे के पूरे प्राणों में प्रविष्ट हो जाएंतो वृक्ष आकाश को स्पर्श कर लेगा। जितनी होगी गहराई जड़ों कीउतनी ऊंचाई हो जाएगी वृक्ष की। जड़ें दुश्मन नहीं हैंऔर जड़ें ऊंचे उठने में बाधा भी नहीं हैंऔर जड़ें आकाश में उड़ने में सहयोगी हैंसाथी हैं। उनके बिना वृक्ष बचेगा ही नहींआकाश में उड़ने का तो सवाल ही नहीं है।
भारतीय मनीषा कहती है कि धर्म है वहजो हमें धारण किए है। इसमें एक और मजे की बात है कि अगर आपको बंधन में डाला जाएतो आपकी जानकारी के बिना नहीं डाला जा सकता। और बंधन में डालने का तो अर्थ ही यह होगा कि पहले कभी आप बंधन के बाहर भी थेऔर कभी बंधन में डाल दिए गए हैंऔर कभी बंधन से फिर अलग भी हो सकते हैं।
यहां एक दूसरा सूत्र आप खयाल ले लें। भारतीय मनीषा की दृष्टि ऐसी है कि धर्म वह हैजिससे हम चाहें तो भी अलग नहीं हो सकतेकोई उपाय नहीं है। हम चाहें तो भी हम धर्म से अलग नहीं हो सकतेक्योंकि धर्म हमारे प्राणों का आधार है। धर्म से अलग होकर हम हो ही नहीं सकतेहमारा अस्तित्व भी नहीं होगा। जैसे वृक्ष जमीन से अलग होकर नहीं हो सकताऔर जैसे मछली सागर से अलग होकर नहीं हो सकती। क्योंकि सागर सिर्फ मछली के लिए माध्यम ही नहीं हैजिसमें वह होती है,वह उसका प्राण भी है। सागर ने उसे धारण भी किया हैजन्माया भी हैजिलाया भी है। सागर उसे लीन भी करेगा अपने में। सागर ही मछली के भीतर भी दौड़ रहा है। इसलिए सागर के बाहर आकर मछली को जीना असंभव है। थोड़ी-बहुत देर जी सकती हैजितनी देर तकभीतर जो सागर थावह सूख न जाए। थोड़ी-बहुत देर वृक्ष भी हरा रहेगाजितनी देर तक जमीन से खींची गई रस- धार मौजूद रहेगी। फिर सूख जाएगा।
धर्म वह हैजिससे हम अलग नहीं हो सकते। वह हमारी आत्मा है। इसलिए धर्म की जो दूसरी बड़ी व्याख्या भारत ने की हैवह महावीर ने की है। हिंदुओं ने व्याख्या की है कि धर्म वह हैजो धारण किए है। महावीर ने व्याख्या की है कि धर्म वह है,जो हमारा स्वभाव है। बात एक ही है। क्योंकि स्वभाव ही हमें धारण किए हुए हैया जो हमें धारण किए हुए हैवही हमारा स्वभाव हैवही हमारा इनट्रिजिक नेचर हैवही हम हैं।
तो कृष्ण अपनी पहली परिभाषा देते हैंवे कहते हैंमैं धर्म हूंमैं धाता हूंमैं वह हूंजो धारण किए है।
जो हमें धारण किए हैउसे हम भूल सकते हैंउससे हम दूर नहीं हो सकते। जो धारण किए हैउसे हम भूल सकते हैं,उससे हम दूर नहीं हो सकते। उसका हम विस्मरण कर सकते हैंउससे हम विच्छिन्न नहीं हो सकते। उसे हम जन्मों-जन्मों तक याद न करेंयह हो सकता हैलेकिन हम क्षणभर को भी उससे भिन्न नहीं हो सकते। इसलिए सारी दुनिया में धर्म को सीखने की भाषा में समझा गया हैधर्म भी एक लर्निग हैएक शिक्षण है। भारत ने उसे इस भाषा में नहीं समझा। भारत के लिए धर्म शिक्षण नहीं हैपुनर्स्मरण हैरिमेंबरिंग है। हम सिर्फ भूल सकते हैंखो नहीं सकते। और जो बहुत निकट होता हैउसे भूलना आसान है।
वृक्ष अगर अपनी जड़ों को भूल जाएतो बहुत कठिन नहीं है। कई कारण हैं। पहला तो कारण यह है कि जड़ें छिपी होती हैं जमीन के भीतर। असल में जहां भी जन्म होता हैवहां गुह्य अंधकार चाहिए। चाहे मां के पेट में बच्चे का जन्म होता होतो भी गुह्य अंधकार चाहिए। और चाहे जड़ों में वृक्ष का जन्म होता होतो भी पृथ्वी का गुह्य अंधकार चाहिए। जहां भी जन्म होता हैवहा इतनी निजता चाहिए कि प्रकाश भी बाधा न डाले। वहा इतना मौन चाहिएइतनी शांति चाहिए कि प्रकाश की किरण भी आकर कंपन पैदा न करे।
प्रकाश के साथ हलन-चलन शुरू हो जाता है। अंधकार महाशांति है। और इसलिए हम अंधकार से डरते हैंक्योंकि हम कोई भी शांति नहीं चाहते। जो भी शांति चाहेगावह अंधकार से नहीं डरेगाअंधकार को प्रेम करने लगेगा। जो जितनी ज्यादा अशांति से भरा होगाउतना अंधकार से डरेगाभयभीत होगा। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो अंधकार में सो भी नहीं सकते! रात को प्रकाश जलाकर ही सोएंगे। यह अशांति की आखिरी सीमा है। जड़ें तो अंधकार में बड़ी होती हैंइसलिए छिपी होती हैं। जो भी महत्वपूर्ण हैवह गुप्त होता है। जो प्रकट होता हैवह महत्वपूर्ण नहीं है।
ध्यान रहेजो भी महत्वपूर्ण हैवह सदा गुप्त होता है। जडें गुप्त हैंवे महत्वपूर्ण हैंउन्हें उघाड़ा नहीं जा सकता। शाखाएं उघडी हैंजो उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं। हम एक वृक्ष की शाखाओं को काट देंनई शाखाएं आ जाएंगी। एक पूरा वृक्ष गिर जाएनए अंकुर निकल आएंगे और नया वृक्ष निर्मित हो जाएगा। क्योंकि वह जो प्राण हैवह नीचे छिपा है। उस पर आघात भी नहीं पहुंचता है। लेकिन जड़ें काट देंफिर सारा वृक्ष कुम्हला जाएगा और मर जाएगा।
तो जहां जीवन का सूत्र हैउसे छिपाकर रखा है जीवन ने। जड़ें छिपी हैंवृक्ष भूल सकता है। बहुत स्वाभाविक है कि वृक्ष को जड़ों की कोई याद न आए। फूल दिखाई पड़ेशाखाएं दिखाई पड़ें।
रोशनी में हैंआकाश में फैली हैंमहत्वाकांक्षा का हिस्सा हैं। पक्षी आते हैंशाखाओं पर विश्राम करते हैं। फूल आते हैंपक्षी गीत गाते हैं। सुबह सूरज निकलता हैहवाएं झोंके देती हैं। तूफान आते हैंआंधिया आती हैं। वर्षा होती हैरात में चांदनी बरसती है। सब वृक्ष के ऊपर घटित होता है। वृक्ष इसमें खो जा सकता हैजड़ें भूल जा सकता है।
लेकिन जब वृक्ष को जडों की बिलकुल भी याद नहीं हैतब भी जड़ें ही उसे धारण किए हुए हैं। जब उसे बिलकुल भी स्मरण नहीं हैजब वह कभी धन्यवाद का एक शब्द भी जड़ों से नहीं कहताजब कभी लौटकर जड़ों का कोई आभार भी नहीं मानतातब भी जड़ें उसे धारण किए हुए हैं।
तो एक व्यक्ति नास्तिक होईश्वर को इनकार कर देतो भी कोई फर्क नहीं पड़ता हैईश्वर ही उसे धारण किए हुए है। और एक व्यक्ति भूल जाएऔर ईश्वर की उसे कोई सुध न रहेतो भी कोई फर्क नहीं पड़ताईश्वर ही उसे धारण किए हुए है।
कृष्ण कहते हैंमैं हूं धातामैं वह हूं जो धारण किए हुए है। कोई जानेन जानेपहचानेन पहचानेस्मृति आती होन आती होचाहे तो इनकार भी कर देतो भी मैं धारण किए हुए हूं।
आप इनकार कर सकते हैंलेकिन ईश्वर से बच नहीं सकते। आप भाग सकते हैंकितने ही भागें! जैसे कोई मछली सागर में सागर से भागती होभागती जाएमीलों के चक्कर लगाए और फिर भी पाए कि सागर में है। ऐसे ही हर व्यक्ति जो ईश्वर से भागता हैएक दिन पाता है कि वह जिसमें भाग रहा थावही तो ईश्वर है। कहौ भागकर जाने का उपाय है?
इसलिए हमने बहुत मौलिक और आधारभूत व्याख्या पकड़ी है धर्म कीऔर वह है कि जो हमें धारण किए है। और आपको ही नहीं।
सारी दुनिया में धर्मों ने मनुष्य को केंद्र बना लिया है। इसलिए बहुत धर्म हैंजो कहेंगे कि जानवरों में तो कोई आत्मा ही नहीं हैइसलिए उनकी हिंसा की जा सकती हैवृक्षों में कोई आत्मा नहीं हैउन्हें काटा जा सकता हैसिर्फ आदमी में आत्मा है। अधिकतर धर्म एन्थोपोसेंट्रिक हैंआदमी को केंद्र मान लिया है।
भारत ऐसा नहीं मानता। भारत यह नहीं कहता कि जो आदमी को धारण किए हुए हैवह ईश्वर है। भारत यह कहता है कि अस्तित्व ही जिसमें सम्हला हुआ हैजो अस्तित्व को ही धारण किए हुए हैवह ईश्वर है। वही नहीं है ईश्वरजो आपको धारण किए हुए हैवह जो वृक्ष को धारण किए हुए हैवह भी ईश्वर है। वह जो नदी में बह रहा हैवह भी ईश्वर है। वह जो सूरज में पिघलकर आग बन रहा हैवह भी ईश्वर है। और वही ईश्वर नहीं हैजो आपको प्रीतिकर हैजो अप्रीतिकर हैवह भी ईश्वर है। अमृत ही ईश्वर नहीं हैजहर भी ईश्वर है। जहर के होने के लिए भी उसका ही आधार चाहिए। उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।
इसे हम ऐसा समझेंकि ईश्वर से हमारा अर्थ हैअस्तित्व का जो सार है। इसलिए ईश्वर हमारे लिए व्यक्ति नहीं है। वह कहीं आकाश में सात आसमानों के ऊपर बैठा हुआ सिंहासन पर कोई व्यक्ति नहीं हैजो राज-काज चला रहा है। इतनी बचकानी हमारी धारणा नहीं है। यह बच्चों का ईश्वर है। इससे और गहरे ईश्वर को बच्चे नहीं समझ सकते। लेकिन हमारे लिए ईश्वर का अर्थ हैजिसमें सभी कुछ धारा हुआ है-सभी कुछजन्म भी और मृत्यु भीऔर सृजन भी और प्रलय भी।
तो इसका साधक के लिए क्या अर्थ होगा?
साधक के लिए अर्थ होगा कि जब भी आप किसी चीज को देखेंतो उसकी शाखाओं पर कमउसकी जड़ों पर ज्यादा ध्यान दें। और जब भी किसी चीज को आप देखेंतो जो प्रकट हैउस पर कमऔर जो अप्रकट हैउस पर ज्यादा ध्यान दें। जो दिखाई पड़ रहा हैउस पर कमऔर जिसके कारण दिखाई पड़ रहा हैउसकी खोज करें। मछली को देखेंतो सागर की याद करें'। और वृक्ष को देखेंतो जड़ों का स्मरण आ जाए। सदा ही उसकी खोज करते रहेंजो नीचे छिपा है और सभी को सम्हाले हुए है।
तो कृष्ण कहते हैंमैं धाता हूं। और अगर कोई धर्म की खोज करता रहेतो मुझ तक पहुंच जाता है।
मैं पिता हूं माता हूंपितामह हूं।
अजीब है बात। क्योंकि वे कह रहे हैंमैं पिता भी हूं! पिता कहते होंतो फिर माता नहीं कहना चाहिएकहते हैंमैं माता भी हूं! और यहां तक भी ठीक थाफिर बात और भी अतर्क्य हो जाती हैवे कहते हैंपिता का पिता भी मैं ही हूंपितामह भी मैं ही हूंऐसा कहकर क्या कहना चाहते हैंऐसा कहकर वे यह कहना चाहते हैं-इसे हम थोड़ा दो-तीन तरफ से समझने की कोशिश करें। आप पैदा हुए। तो शायद आपको खयाल होगाजन्म की एक तिथि है और फिर मृत्यु की एक तिथि हैइन दोनों के बीच आप समाप्त हो जाएंगे। लेकिन इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है। इस जगत में कोई चीज अलग- थलग नहीं है। जन्म के पहले भी आपको किसी न किसी रूप में होना ही चाहिएअन्यथा आपका जन्म नहीं हो सकता। जगत एक श्रृंखला हैजगत एक कड़ियों का जोड़ हैजिसमें हर कड़ी पीछे की कड़ी से जुड़ी हैऔर हर कड़ी आगे की कड़ी से भी जुड़ी है। जिसे आप जन्म कहते हैंवह सिर्फ एक कड़ी की शुरुआत हैपिछली कड़ी पीछे छिपी है। और जिसे आप मृत्यु कहते हैंवह फिर एक कड़ी का अंत हैलेकिन अगली कड़ी आगे मौजूद है। इस जगत में कोई चीज विच्छिन्न नहीं है। जीवन एक सतत श्रृंखला हैएक प्रवाह है।
अगर ईश्वर को खोजना हैतो प्रवाह को देखना पड़ेगाऔर अगर ईश्वर से बचना हैतो व्यक्ति को देखना पड़ेगा। अगर आप व्यक्ति को देखेंगेतो ईश्वर को खोजना मुश्किल है।
मैं पैदा हुआमैं मर जाऊंगाअगर यही जीवन हैतो इस जगत में ईश्वर का कोई अनुसंधान नहीं हो सकता। मेरा जन्म भी तब बेबूझ हैक्योंकि कोई कारण नहींएक एक्सिडेंटएक दुर्घटना मालूम होती है कि मैं पैदा हुआऔर मेरी मृत्यु भी एक दुर्घटना होगी। इन दोनों के पारजगत के अस्तित्व से मेरा क्या संबंध हैजब मैं नहीं थातब भी जगत थाऔर जब मैं नहीं रहूंगातब भी जगत रहेगा। तो मैं इस जगत से अलग हो गयामेरे संबंध टूट गए।
और जब मैं नहीं रहूंगातब भी फूल खिलते रहेंगे। और जब मैं नहीं रहूंगातब भी वसंत आएगा और पक्षी गीत गाते रहेंगे। और जब मैं नहीं रहूंगातब भी झरने बहेंगे और नाचेंगे और सागर की तरफ चलेंगे। तब तो इस जगत से मेरी शत्रुता भी निर्मित हो गई!।क्योंकि मेरे होने न होने से इस जगत की धारा का कोई भी संबंध नहीं मालूम पड़ता। मैं अलग हो गया। मैं टुकड़ा हो गया।
पश्चिम की दृष्टि ऐसी ही हैव्यक्ति को एक टुकडे की तरह देखने की। और इसलिए पश्चिम में जीवन को देखने का ढंग संघर्ष का हो गया। अगर मैं अलग हूं तो जीवन संघर्ष हैऔर अगर मैं एक हूंतो जीवन समर्पण होगा।
अगर मैं इस जगत से अलग हूं और मेरे जन्म से इस जगत को कोई प्रयोजन नहीं हैमैं जब नहीं थातो जगत में कौन-सी कमी थीकोई भी तो मेरे न होने से फर्क नहीं पड़ता था। और जब मैं कल नहीं हो जाऊंगातो जगत में कौन-सी कमी हो जाएगीकोई भी तो फर्क नहीं पड़ेगा।
तो मेरा होना और जगत का होनादोनों संबद्ध नहीं मालूम होते। नहीं तो जब मैं नहीं थातो जगत में कुछ कमी होनी चाहिए। और जब मैं न रह जाऊंतब एक खाली जगहएक रिक्त जगह छूट जानी चाहिएजो फिर भरी न जा सके।
लेकिन ऐसा नहीं होगा। मेरे होने न होने से इस विराट प्रवाह में कहीं भी कोई भनक भी न पड़ेगी। तो फिर मैं अलग हूं और यह जगत अलग है। और निश्चित ही इस जगत और मेरे बीच जो संबंध हैवह मैत्री और प्रेम का नहींसंघर्ष का और शत्रुता का है। इस। जगत से मुझे जीतना हैताकि मैं ज्यादा जी सकूं। इस जगत से मुझे बचना हैताकि यह जगत मुझे पीस न डाले।
जगत बिलकुल बेरुखा मालूम पड़ता है। वृक्ष के नीचे खड़े होंवृक्ष ऊपर गिर जाता है! और जरा भी खबर नहीं देता है कि मैं गिर रहा हूंहट जाओ! .और तूफान आता हैऔर आप गिर जा सकते हैं। आंधी आपको मिटा दे सकती है। सागर आपको डुबा ले सकता है। पहाड़ आपको दबा दे सकता है। इस जगत में चारों तरफ अस्तित्व को आपकी कोई भी चिंता नहीं है। एक शत्रुता हैजगत आपको मिटाने पर तुला है। तो आप जगत से संघर्ष करने को तत्पर हो जाएं।
इसलिए पश्चिम ने एक भाषा खोजी हैवह भाषा युद्ध की भाषा हैसंघर्ष की भाषा है। इसलिए ऐसी किताबें लिखी गई हैं पिछले पचास वर्षों में। बर्ट्रेड रसेल ने भी एक किताब लिखी हैनाम दिया हैकांक्वेस्ट आफ नेचरप्रकृति की विजय!
विजय की भाषा ही संघर्ष और युद्ध की भाषा है। हम उसे कैसे जीत सकते हैंजो हमारा प्राण हैहम उसे कैसे जीत सकते हैंजो हमें धारण किए हैहमारा उससे क्या संघर्ष हो सकता हैमछली का क्या संघर्ष सागर सेवृक्ष की जड़ों का क्या संघर्ष पृथ्वी सेलेकिन दृष्टि पर निर्भर करेगा।
तो कृष्ण कहते हैंमैं तुम में ही नहीं हूंमैं तुम्हारी मां में भी हूंतुम्हारे पिता में भीपिता के पिता में भी।
श्रृंखला की खबर दे रहे हैं वे। वे यह कह रहे हैं कि तुम तुम में ही नहीं होतुम तुम्हारी मां में भी थेतुम तुम्हारे पिता में भी थेऔर तुम तुम्हारे पिता के पिता में भी थे। और तुम अपने बच्चों में भी रहोगेऔर तुम अपने बच्चों के बच्चों में भी रहोगे। यह जगत तुमसे कभी भी खाली नहीं होगाऔर यह जगत तुमसे कभी खाली नहीं था। यह जगत तुमसे सदा ही भरा रहा हैऔर यह जगत सदा तुमसे भरा ही रहेगा। इस जगत के तुम अनिवार्य हिस्से हो। इस जगत में और तुम्हारे बीच एक पारिवारिक नाता है। यह जगत तुम्हारा पड़ोसी ही नहीं हैइस जगत के और तुम्हारे बीचजैसे मां और बेटे के बीचपिता और बेटे के बीच नाता होवैसा नाता है। तुम इसकी ही कड़ी हो।
एक लहर उठती है सागर मेंक्षणभर को नाचती है आकाश मेंसूरज को छूने की कोशिश करती हैऔर फिर गिर जाती है। लहर सोच सकती है कि मैं सागर से अलग हूं। सोच सकती है। अलग होती भी है क्षणभर को। प्रकट ही दिखाई पड़ता है कि सागर से अलग है। छलांग भरती है आकाश की तरफपूरा सागर नीचे पड़ा रह जाता हैसिर्फ लहर उठती है।
तो लहर को यह खयाल अगर आ जाएयह अहंकार अगर आ जाए कि मैं अलग हूं तो गलती तो कुछ भी नहीं है। और जब लहर को सागर नीचे खींचने लगेतो लहर को ऐसा लगे कि सागर मुझे मिटाने को तत्पर हैऔर हवाएं मुझे तोड़ देने को उत्सुक हैंऔर सारा जगत मेरे खिलाफ हैऔर सारा जगत मुझे मिटाने की चेष्टा में लगा हैतो मुझे लड़ना है! यह भी तर्कयुक्त होगा। पहले निर्णय के बादयह दूसरी बात स्वाभाविक है।
लेकिन लहर को सागर मिटाने को उत्सुक हैसागर लहर को मिटाने को उत्सुक हो भी कैसे सकता है! और यह सच है कि लहर सागर में ही मिटती है। फिर भी सागर लहर को मिटाने को उत्सुक नहीं है। क्योंकि लहर को यह पता ही नहीं है कि वह सागर का बढ़ा हुआ हाथ हैऔर कुछ भी नहीं है। वह सागर की ही छाती पर उठी एक तरंग है। वह सागर की ही छाती है। वह सागर की ही महत्वाकांक्षा हैजो छलांग लगा गई है। इससे भिन्न नहीं है। सागर उसे क्यों मिटाएगा! सागर ही है वह।
कृष्ण कहते हैंमैं मां भी हूं पिता भी हूंपितामह भी हूं।
वे यह कह रहे हैं कि मैं वह अनंत श्रृंखला हूंजिसकी तुम एक कड़ी हो। मैं तुम्हारे पीछे तुम्हारे पिता की तरह छिपा हूं;तुम्हारे पीछे तुम्हारी मां की तरह छिपा हूंउनके भी पीछेउनके भी पीछेमैं सदा तुम्हारे पीछे खड़ा हूं। तुम मेरे ही बढ़े हुए हाथ होतुम मेरी ही लहर होतुम मेरी ही तरंग हो। और तुम्हीं नहीं होतुम्हारी मां भी थीतुम्हारे पिता भी थेउनके पिता भी थे।
समझें। एक दृष्टि है व्यक्ति को व्यक्ति मानने कीएटामिकअणु की तरह अलग। लीबनिज ने इसके लिए एक ठीक शब्द पश्चिम में खोजा है। उसने शब्द दिया हैमोनोड। मोनोड का मतलब होता हैएक ऐसा अणुजिसमें कोई खिड़की-दरवाजे नहीं हैंजो सब तरफ से बंद है।
तो हम व्यक्ति को मोनोड समझ सकते हैंविडोलेसडोरलेसएटामिकक्लोब्दसब तरफ से बंद एक मकानजिसमें कोई खिड़की नहींकोई दरवाजा नहीं। सब तरफ से बंद। कहीं बाहर से जुड्ने का कोई सेतु नहीं। कोई चर्चा नहीं हो सकती। पड़ोसी से मिलने का कोई उपाय नहीं। हाथ फैलाकर दोस्ती नहीं बांधी जा सकती। सब तरफ से बंद। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति एक बंद अणु है। अगर ऐसा हैतो जगत एक भयंकर संघर्ष होगा और एक भयंकर असफलता भी।
कृष्ण कहते हैंजगत या व्यक्तिअलग-अलग चीजें नहीं हैंएक लंबी श्रृंखला है। जिसमें हर चीज पिछली कड़ी से और अगली कड़ी से जुड़ी है। यह जो वृक्ष की जड़ हैयह जो वृक्ष के शिखर पर फूल खिला हैइससे जुड़ी है। अगर फूल से बात कर रहे होते अर्जुन की जगह कृष्णतो फूल से वे कहते कि मैं तेरे भीतर तो हूं हीतेरी जडों के भीतर भी मैं ही हूं। और तेरी जड़ें जिस बीज से पैदा हुई थींउसके भीतर भी मैं ही था। और वह बीज जिस वृक्ष पर लगा थावह भी मैं हूं। और वह वृक्ष जिन जड़ों से आया थावह भी मैं। और तू लौटता जा पीछेमैं तेरा पूरा इतिहास हूं दि होल हिस्ट्री। मैं तेरा अनंत इतिहास हूं। सब जो हुआ है पहलेउसमें मैं था। और अभी जो हो रहा हैवह उससे जुड़ा हुआ अंग है।
व्यक्ति अपने को अस्तित्व से अलग न समझेतो ही धर्म के अनुभव में उतरता है। अलग समझेतो अधर्म के अनुभव में यात्रा शुरू हो जाती है। व्यक्ति अपने को जगत से एक जान पाएतो तत्‍क्षण लहर फैलकर सागर बन जाती है।
और काश! मैं यह देख सकूं कि मैं अपने पिता मेंअपनी मां मेंउनके पिता मेंउनकी मां मेंअनंत-अनंत श्रृंखलाओं में किसी न किसी रूप में मौजूद थातो फिर मेरा जन्म कोई अनहोनी घटना नहीं रह जातीएक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हो जाता है। फिर मेरी मृत्यु भी मृत्यु नहीं होगीक्योंकि जब मेरा जन्म मेरा जन्म नहीं हैतो मेरी मृत्यु भी मेरी मृत्यु नहीं हो सकती। मेरा जन्म एक लबी श्रृंखला का हिस्सा है और मेरी मृत्यु भी एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा होगी।
और तीसरी बात कहते हैंऔर जानने योग्य पवित्र ओंकार मैं हूं। अतीत की बात कही कि यह मैं हूं। अतीत की सारी श्रृंखला मैं हूंएम दि पास्टदि होल पास्ट। पूरा बीता हुआ सब मैं हूं। और तत्‍क्षण भविष्य की बात कहते हैं कि जानने योग्य ओंकार भी मैं हूं।
'ओंकार का अनुभव इस जगत का आत्यंतिकअंतिम अनुभव है। कहना चाहिएदि अल्टिमेट फ्यूचर। जो हो सकती है आखिरी बातवह है ओंकार का अनुभव।
तो कृष्ण कहते हैंभविष्य भी मैं हूं। कहते हैंअतीत ही मैं नहीं हूं तुम्हारा पिता ही मैं नहीं हूंपिता का पिता ही मैं नहीं हूंतुम्हारी जो भी संभावना है भविष्य कीवह भी मैं हूं। तुम जो हो सकते होवह भी मैं हूं। तुम जो थेवह मैं हूं ही। तुम जो होवह मैं हूं ही। तुम जो हो सकते होवह फूलजो अभी नहीं खिलाखिलेगावह भी मैं हूं। और वह जो बीज अभी नहीं लगालगेगावह भी मैं हूं। इस जगत का अतीत ही मैं नहीं हूंइस जगत की संपूर्ण संभावना भी मैं हूं। जो कुछ भी हो सकेगा,वह भी मैं हूं।
क्योंकि अगर परमात्मा सिर्फ अतीत है और भविष्य नहींतो व्यर्थ है। क्योंकि अतीत तो हो चुका। जो हो चुकाअब उससे कुछ लेना-देना नहीं है। जो नहीं हुआ हैवही हमारी आशा है। अगर परमात्मा सिर्फ हमारा अतीत हैतो भविष्य अंधकार है। अतीत तो जा चुकामर चुकाहो चुका। मौलिक रूप से परमात्मा को हमारा भविष्य होना चाहिए। तो ही आशासार्थक आशा का जन्म होता हैतो ही सार्थक अभीप्सा काउस महत्वाकांक्षा काजो अंतिम को अनुभव करना चाहती है।।
कृष्ण कहते हैंमैं तुम्हारा भविष्य भी हूं। और भविष्य में अंतिम घटना घट सकती हैवह वे कहते हैं। वे कहते हैं,ओंकार भी मैं हूं।
ओंकार का अर्थ हैजिस दिन व्यक्ति अपने को विश्व के साथ एक अनुभव करता हैउस दिन जो ध्वनि बरसती है। जिस दिन व्यक्ति का आकार में बंधा हुआ आकाश निराकार आकाश में गिरता हैजिस दिन व्यक्ति की छोटी-सी सीमित लहर असीम सागर में खो जाती हैउस दिन जो संगीत बरसता हैउस दिन जो ध्वनि का अनुभव होता हैउस दिन जो मूल-मंत्र गूंजता हैउस मूल-मंत्र का नाम ओंकार है। ओंकार जगत की परम शांति में गंजने वाले संगीत का नाम है।
संगीत दो तरह के हैं। एक संगीत जिसे पैदा करने के लिए हमें स्वर उठाने पड़ते हैंशब्द जगाने पड़ते हैंध्वनि पैदा करनी पड़ती है। इसका अर्थ हुआक्योंकि ध्वनि पैदा करने का अर्थ होता है कि कहीं कोई चीज घर्षण करेगीतो ध्वनि पैदा होगी। जैसे मैं अपनी दोनों ताली बजाऊंतो आवाज पैदा होगी। यह दो तालियों के बीच जो घर्षण होगाजो संघर्ष होगाउससे आवाज पैदा होगी।
तो हमारा जो संगीत हैजिससे हम परिचित हैंवह संगीत संघर्ष का संगीत है। चाहे होंठ से होंठ टकराते होंचाहे कंठ के भीतर की मांस-पेशियां टकराती होंचाहे मेरे मुंह से निकलती हुई वायु का धक्का आगे की वायु से टकराता होलेकिन टकराहट से पैदा होता है संगीत। हमारी सभी ध्वनियां टकराहट से पैदा होती हैं। हम जो भी बोलते हैंवह एक व्याघात हैएक डिस्टरबेंस है।
ओंकार उस ध्वनि का नाम हैजब सब व्याघात खो जाते हैंसब तालियां बंद हो जाती हैंसब संघर्ष सो जाता हैसारा जगत विराट शांति में लीन हो जाता हैतब भी उस सन्नाटे में एक ध्वनि सुनाई पडती है। वह सन्नाटे की ध्वनि हैवॉइस आफ साइलेंसवह शून्य का स्वर है। उस क्षण सन्नाटे में जो ध्वनि गूंजती हैउस ध्वनि काउस संगीत का नाम ओंकार है।
अब तक हमने जो ध्वनियां जानी हैंवे पैदा की हुई हैं। अकेली एक ध्वनि हैजो पैदा की हुई नहीं हैजो जगत का स्वभाव हैउस ध्वनि का नाम ओंकार है।
इस ओंकार को कृष्ण कहते हैंयह अंतिम भी मैं हूं। जिस दिन सब खो जाएगाजिस दिन कोई स्वर नहीं उठेगाजिस दिन कोई अशांति की तरंग नहीं रहेगीजिस दिन जरा-सा भी कंपन नहीं होगासब शून्य होगाउस दिन जिसे तू सुनेगावह ध्वनि भी मैं ही हूं। सब के खो जाने पर भी जो शेष रहेगावह मैं हूं। या ऐसा कहेंजब सब खो जाता हैतब भी मैं शेष रह जाता हूं। जब कुछ भी नहीं बचतातब भी मैं बच जाता हूं। मेरे खोने का कोई उपाय नहीं हैवे यह कह रहे हैं।
वे कह रहे हैंमेरे खोने का कोई उपाय नहीं है। मैं मिट नहीं सकता हूं क्योंकि मैं कभी बना नहीं हूं। मुझे कभी बनाया नहीं गया है। जो बनता हैवह मिट जाता है। जो जोड़ा जाता हैवह टूट जाता है। जिसे हम संगठित करते हैंवह बिखर जाता है। लेकिन जो सदा से हैवह सदा रहता है।
इस ओंकार का अर्थ हैदि बेसिक रियलिटीवह जो मूलभूत सत्य हैजो सदा रहता है। उसके ऊपर रूप बनते हैं और मिटते हैंसंघात निर्मित होते हैं और बिखर जाते हैंसंगठन खडे होते हैं और टूट जाते हैंलेकिन वह बना रहता है। वह बना ही रहता है।
यह जो सदा बना रहता हैइसकी जो ध्वनि हैइसका जो संगीत हैउसका नाम ओंकार है। यह मनुष्य के अनुभव की आत्यंतिक बात है। यह परम अनुभव है।
इसलिए आप यह मत सोचना कि आप बैठकर ओमओम का उच्चार करते रहेंतो आपको ओंकार का पता चल रहा है। जिस ओम का आप उच्चार कर रहे हैंवह तो उच्चार ही है। वह तो
आपके द्वारा पैदा की गई ध्वनि है।
इसलिए धीरे- धीरे होंठ को बंद करना पड़ेगा। होंठ का उपयोग नहीं करना पड़ेगा। फिर बिना होंठ के भीतर ही ओम का उच्चार करना। लेकिन वह भी असली ओंकार नहीं है। क्योंकि अभी भी भीतर मांस-पेशियां और हड्डियां काम में लाई जा रही हैं। उन्हें भी छोड़ देना पड़ेगा। भीतर मन में भी उच्चार नहीं करना होगा। तब एक उच्चार सुनाई पड़ना शुरू होगाजो आपका किया हुआ नहीं है। जिसके आप साक्षी होते हैंकर्ता नहीं होते हैं। जिसको आप बनाते नहींजो होता हैआप सिर्फ जानते हैं।
जिस दिन आप अपने भीतर ओम की उस ध्वनि को सुन लेते हैंजो आपने पैदा नहीं कीकिसी और ने पैदा नहीं कीहो रही हैआप सिर्फ जान रहे हैंवह प्रतिपल हो रही हैवह हर घड़ी हो रही है। लेकिन हम अपने मन में इतने शोरगुल से भरे हैं कि वह सूक्ष्मतम ध्वनि सुनी नहीं जा सकती। वह प्रतिपल मौजूद है। वह जगत का आधार है।
इस संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है। पश्चिमी मनोविज्ञानपश्चिमी विज्ञानपश्चिम की समस्त खोज इस नतीजे पर पहुंची है कि जगत का जो आत्यंतिक आधार हैवह विद्युत हैइलेक्ट्रिसिटी है। और इसलिए पश्चिम का आधुनिक चिंतन कहता है कि ध्वनि मूल नहीं हैविद्युत मूल है। और ध्वनिसाउंड भी विद्युत का एक प्रकार है। साउंड जो हैध्वनि जो हैवह भी विद्युत का ही एक प्रकार हैए मोड।
लेकिन पूरब की बात बिलकुल ही भिन्न है। पूरब कहता है कि साउंडध्वनि जो हैवह अस्तित्व का मूल उपकरण है,और विद्युत जो हैवह ध्वनि का ही एक प्रकार हैए मोड। पश्चिम विद्युत को मूल मानता हैध्वनि को विद्युत का ही एक रूपपूरब ध्वनि को मूल मानता है और विद्युत को ध्वनि का ही एक रूप।
इसलिए पूरब में वे लोग हुएजिन्होंने ध्वनि के माध्यम से दीए जला दिए। जिन्होंने एक राग गाया और बुझा दीया जला। यह बात सही हो कि न होपर पूरब की मान्यता यह है कि विद्युत ध्वनि का ही एक रूप है। तो अगर ध्वनि की एक खास ढंग से चोट की जाएतो आग जल जानी चाहिए। अगर ध्वनि एक खास ढंग से की जाएतो आकाश में बिजली कड़कने लगनी चाहिए। अगर विद्युत ध्वनि का ही एक रूप हैतो ध्वनि की तरंगों के आघात से अग्नि का जन्म हो जाना चाहिए।
भविष्य तय करेगा कि इन दोनों मान्यताओं में क्या संभावना है। जहां तक मेरा संबंध हैमैं मानता हूंयह झगड़ा वैसा ही बचकाना हैजैसा कुछ लोग मुर्गी और अंडे के बाबत किए रहते हैं। कुछ लोग कहते हैंमुर्गी पहले है और अंडा बाद मेंऔर कुछ लोग कहते हैंअंडा पहले है और मुर्गी बाद में। मगर दोनों नासमझ हैं। क्योंकि जब भी हम मुर्गी कहते हैंतो उसके पहले अंडा आ ही जाता है। और जब भी हम अंडा कहते हैंतो उसके पहले मुर्गी आ ही जाती है।
इसलिए ज्यादा उचित हो कि हम मुर्गी और अंडे में पहले कौन हैइसकी फिक्र छोड़े। क्योंकि कोई भी पहले हो नहीं सकता। कैसे अंडा पहले होगा मुर्गी केकैसे होगाउसके होने के लिए ही मुर्गी की जरूरत पड़ जाती है। कैसे मुर्गी होगी पहले अंडे केउसके होने के लिए ही अंडे की जरूरत पड जाती है।
इसलिए शायद कहीं भाषा की भूल हैलिंग्विस्टिक भूल है। असल में अंडा और मुर्गी दो चीजें नहीं हैंअंडा और मुर्गी एक ही चीज के दो रूप हैं। ऐसा कहना चाहिए कि अंडा जो हैवह छिपी हुई मुर्गी हैमुर्गी जो हैवह प्रकट हो गया अंडा है। इनको दो में बांटने की बात ही गलत है। दो में बाटने से फिर कभी हल नहीं होता। मुझे ऐसा खयाल में आता है कि विद्युत और ध्वनि के बीच ठीक वैसा ही संबंध है। इसलिए ध्वनि के बिना विद्युत नहीं हो सकतीऔर विद्युत के बिना ध्वनि नहीं हो सकती। लेकिन पूरब और पश्चिम में यह बुनियादी फर्क क्यों आयाउसका कारण है। उसका कारण कीमती है। वह समझ लेना चाहिए।
वह फर्क इसलिए है कि पश्चिम ने जो खोज की हैवह पदार्थ को तोड़कर की है। पदार्थ को तोड़ाआखिरी परमाणु की खोज कीकि कौन-सी चीज से पदार्थ बना हैविद्युत मिली। पूरब ने जो खोज की हैवह पदार्थ को तोड़कर नहीं की हैवह अपने ही मन को तोड़कर की है। ध्यान रखेंमैटर हैज बीन एनालाइब्द इन दि वेस्ट एंड माइंड इन दि ईस्ट।
अगर आप पदार्थ को तोड़ेंगेतो जो अंतिम अणु हाथ में आने वाला हैवह विद्युत का होगा। अगर आप मन को तोड़ेंगे,तो जो अंतिम अणु हाथ में आने वाला हैवह ध्वनि का होगा। किसी न किसी दिन पदार्थ का जो अंतिम अणु है वहऔर मन का जो अंतिम अणु है वहवे एक ही सिद्ध होंगेया एक के ही दो रूप सिद्ध होंगे।
अगर मुझसे पूछेंतो मैं ऐसा कहूंगा कि वह जो पदार्थ का अणु हैवह अप्रकट मन हैऔर वह जो मन का अणु हैवह प्रकट हो गया पदार्थ है। परमाणु भी पदार्थ का छिपा हुआ मन हैए हिडेन माइंड। क्षुद्रतम में भी विराट छिपा हुआ हैऔर विराट को भी प्रकट होना होतो क्षुद्र का ही सहारा है।
ओंकार कहकर कृष्ण कहते हैं कि मैं वह परम अस्तित्व हूंजहां केवल उस ध्वनि का साम्राज्य रह जाता हैजो कभी पैदा नहीं हुईऔर कभी मरती नहीं हैजो अस्तित्व का मूल आधार है। उस संगीत के सागर का नाम ओंकार है।
उस तक पहुंचना होतो अपने मन से सब ध्वनियां समाप्त करनी चाहिए। अपने मन से एक-एक ध्वनि को छोड़ते जाना चाहिएएक-एक शब्द कोएक-एक विचार को और मन की ऐसी अवस्था ले आनी चाहिएजब मन निर्ध्वनि हो जाएसाउंडलेस हो जाए। और जिस दिन आप पाएंगे कि मन. हो गया ध्वनिशन्यउसी दिन आप पाएंगेओंकार प्रकट हो गया! ओंकार वहां निनादित हो ही रहा था। ओंकार की धुन वहां बज ही रही थी सदा सेअनंत सेअनादि से। लेकिन आप इतने शोरगुल में व्यस्त थेआप इतने जोर में लगे थे बाहर कि आपको वह ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती थी।
आपका यह उपद्रव शांत हो जाएआपका यह बुखार से भरा हुआदौड़ता हुआ पागलपन शांत हो जाएतो जो सदा ही भीतर बज रहा हैवह अनुभव में आने लगता है। वह मनुष्य की आत्यंतिक अवस्था है। वह उसका परम भविष्य है।
कृष्ण कहते हैंमैं ओंकार हूं। और कृष्ण कहते हैंऋग्वेदसामवेदयजुर्वेद भी मैं ही हूं।
ओंकार के बाद वेद की बात कहने का कारण हैप्रयोजन है। कृष्ण कहते हैंवह परम ध्वनि मैं हूं और उस परम ध्वनि को पहुंचने वाले जितने भी शास्त्र हैंवह भी मैं हूं। उस परम ध्वनि की ओर जिन-जिन शास्त्रों ने इशारा किया हैवह भी मैं हूं। वह ध्वनि तो मैं हूं हीलेकिन जो इंगितवह चांद तो मैं हूं हीजिन अंगुलियों ने चांद की तरफ इशारा किया हैवे अंगुलियां भी मैं ही हूं। क्योंकि मेरे अतिरिक्त मेरे उस गुह्यतम रूप की तरफ इशारा भी कौन कर सकेगामेरी तरफ अंगुली भी कौन उठा सकेगा सिवाय मेरे?
तो कृष्ण कहते हैंवेद भी मैं ही हूं।
वेद का अर्थ हैवह सबजिसने ओंकार की ओर इशारा किया है। वेद का अर्थ हैवह सारा ज्ञानजिसने उस परम ध्वनि की तरफ ले जाने का मार्ग खोला है। उन्होंने तीन वेद का नाम लिया है। विचारपूर्वक ही यह बात है। क्योंकि कल मैंने आपसे कहातीन प्रकार के मनुष्य हैं। तो तीन प्रकार के वेद होंगे। तीन प्रकार के मन हैंतो तीन प्रकार के ज्ञान होंगे। तीन तरह के टाइप हैंप्रकार हैंतो तीन प्रकार के इशारे होंगे।
कृष्ण ने कहा कि वे तीनों वेद मैं हूं।
चाहे कोई कर्म से अपने कर्ता को मिटा देतो ओंकार में प्रवेश कर जाता है। चाहे कोई अपने प्रेम से प्रेमी को डुबा देतो ओंकार में प्रवेश कर जाता है। और चाहे कोई अपने ज्ञान से द्वैत के पार हो जाएअद्वैत में प्रवेश कर जाएतो उस ओंकार को उपलब्ध हो जाता है।
वेद का अर्थ हैवे किताबें नहींजो वेद के नाम से जानी जाती हैं। वेद से अर्थ हैवे समस्त इशारेजो मनुष्य-जाति को कभी भी और कहीं भी उपलब्ध हुए होंजो ओंकार की तरफ ले जाते हैं। ध्यान रखेंवेद शब्द बहुत अदभुत है। इसके बड़े विस्तीर्ण अर्थ हैं। वेद शब्द का अर्थ होता हैज्ञान। इसलिए वेद को किसी किताब में बांधा नहीं जा सकता। जहां भी ज्ञान हैवहीं वेद है। जहां भी इशारा हैवहीं वेद है।
उन दिनों तक कृष्ण ने जब यह बात कहीतो वह सारा ज्ञान तीन पुस्तकों में संगृहीत था। इसलिए इन तीन पुस्तकों का नाम लिया। अगर आज कृष्ण होंतो इन तीन का नाम नहीं लेंगे। इसमें कुरान भी सम्मिलित होगाइसमें बाइबिल भी सम्मिलित हो जाएगीइसमें जेंदावेस्ता भी जुड़ेगाइसमें लाओत्से का ताओ तेह किंग भी आने ही वाला है। इन पांच हजार वर्षों मेंकृष्ण के बादजो-जो इशारे उस ओंकार की तरफ हुए हैंवे भी वेद का हिस्सा हो गए।
वेद एक विकासमान धारा है। वेद कोई सीमित किताब नहीं है। इसीलिए वेद का कोई लेखक नहीं है। एक-एक वेद में सैकड़ों ऋषियों के वचन हैं। उस जमाने तक जितने ऋषियों का ज्ञान थावह सब संगृहीत हो गया। फिर वेद के दरवाजे बंद हो गए। और जिस दिन वेद के दरवाजे बंद हुएउसी दिन हिंदू धर्म मुर्दा हो गया। वेद का दरवाजा खुला ही रहना चाहिए। उसमें नए ऋषि होते रहेंगे। उनके वचन संगृहीत होते ही चले जाने चाहिए। चाहे वे कहीं भी हों।
वेद किसी व्यक्ति की किताब नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। वेद न मालूम कितने व्यक्तियों का संग्रह है। उस जमाने तक जितने लोगों ने जाना थाउन सबका संग्रह है। लेकिन फिर द्वार बंद हो गए। जब कोई धर्म जीवंत होता हैतो भयभीत नहीं होताखुले दरवाजे रखकर सोता है। जब कोई धर्म कमजोर हो जाता हैमरने के करीब आता हैबूढ़ा हो जाता हैतो दरवाजे बंद कर देता है और पहरे लगा देता है। ये कमजोरी के लक्षण हैं। लेकिन जिस दिन दरवाजा बंद होता हैउसी दिन ज्ञान तो आगे बढ़ता चला जाता हैकिताब रुक जाती है। किताब रुक जाती है। ठीक वैसी घटना अभी थोड़े दिन पहले फिर घटी। उससे आपको बात समझ में आ जाएगी।
सिक्खों का वेद हैगुरु-ग्रंथ। नानक के समय मेंउस समय के जितने ज्ञानियों के इशारे थेसब उसमें संगृहीत किए गए हैं। उसमें फिक्र नहीं की गई है कि कौन हिंदू हैकौन मुसलमान हैकौन ब्राह्मण हैकौन शूद्र है। उसमें फरीद के भी वचन हैं,उसमें और कबीर के भीउसमें दादू के भी। उस समय जितने भी फकीर इशारे वाले थेउन सबके वचन संगृहीत कर लिए गए हैं।
लेकिन फिर धीरे- धीरे बात मरने लगी। फिर धीरे- धीरे दरवाजे सख्त होने लगे। फिर उसमें वही सम्मिलित हो सकेगा,जो सिक्ख है। फिर दसवें गुरु ने द्वार बंद कर दिए। धर्म कमजोर हो गया। फिर दसवें गुरु ने कहा कि अब इस किताब में आगे नहीं जोड़ा जा सकेगा। उसी दिन यह किताब बूढ़ी होकर मर गई। क्योंकि अब इसमें ग्रोथ नहीं हो सकती। लेकिन दस गुरुओं तक यह किताब विकासमान होती रहीबढ़ती होती रही। इसमें जुड़ता रहा।
शान एक धारा हैजैसे गंगा एक धारा है। गंगा अगर कह दे प्रयाग में आकर कि अब नदी-नाले मुझमें नहीं जुड़ सकेंगे,अब कोई मुझमें आगे नहीं जुड़ेगा। अब मैं गंगा हूं। और एक गंदे नाले को मैं नहीं गिरने दूंगी।
क्योंकि कहां पवित्र गंगाऔर एक साधारण-सा नाला आकर मुझमें गिर जाए और गंदा कर जाए!
जिस दिन गंगा यह कहती है कि एक साधारण-सा नाला मुझमें गिरकर मुझे गंदा कर देगाउस दिन वह गंगा नहीं रही। क्योंकि गंगा का मतलब ही यह है कि जिसमें कोई भी गिरेगिरते से पवित्र हो .जाए। अब नाला गंगा को गंदा कर देगातो नाला ज्यादा शक्तिशाली हो गया!
जब भी कोई धर्म भयभीत हो जाता है और डरता है कि कुछ मिश्रित न हो जाएकुछ गलत न हो जाएइसलिए सब घेराबंदी कर लोउस दिन किताबें बंद हो जाती हैं।
वेद की जब कृष्ण ने यह बात कहीतब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें थीं। अब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें नहीं हैं। एक जगह इनके द्वार बंद हो गए। अगर वे द्वार खुले होतेतो वेद ने जगत के सारे शान को संगृहीत किया होता।
जैसा कि आपने देखा होगावेद ठीक वैसी ही चीज थी इस मुल्क मेंजैसे कि आज इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका है। हर वर्ष उसको नए एडीशन करने पड़ते हैं। क्योंकि ज्ञान विकसित होता हैउसे सम्मिलित कर लेना होता है। रोज ज्ञान बढ़ता हैतो इनसाइक्लोपीडिया को रोज ज्ञान को बढ़ाए जाना पड़ता है। उसके पुराने एडीशन बाहर होते जाएंगे। रोज यह ज्ञान बढ़ता रहेगा। किसी
दिन अगर इनसाइक्लोपीडिया वाले यह सोचें कि बसअब हम और शान को भीतर नहीं आने देंगेउसी दिन इनसाइक्लोपीडिया आउट आफ डेट हो जाएगाउसी दिन मर जाएगा। वेद हमारा इनसाइक्लोपीडिया था। ओंकार की तरफ जितने इशारे किए गए थे,हमने वेद में संगृहीत किए थे।
तो कृष्ण कहते हैंवे तीनों वेद मैं ही हूं।
और हे अर्जुनप्राप्त होने योग्य गंतव्यभरण-पोषण करने वालासबका स्वामीसबका साक्षीसबका वास स्थानशरण लेने योग्यहितकारीउत्पत्तिप्रलय सबका आधारनिधान और वहजिसमें सबका लय होता हैअविनाशीबीज कारण भी मैं ही हूं। इसमें तीन-चार बातें महत्वपूर्ण हैंवह हमें खयाल में ले लेनी चाहिए।
गंतव्यदि एंडआखिरी मंजिलजो पाने योग्य हैवह मैं ही हूं। और अगर मेरे अतिरिक्त कुछ भी तुझे पाने योग्य लगता हैतो थोड़ा सोच-समझ लेनावह पाने योग्य नहीं हो सकता। परमात्मा के अतिरिक्त जो भी व्यक्ति कुछ और पाने में लगा हैसच पूछिए तो पाने में नहींखोने में लगा है।
परमात्मा के अतिरिक्त अगर आपने कुछ पा भी लियातो आखिर में आप पाएंगे कि आपने सब खो दियापाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि और हम कुछ भी पा लेंवह हमारी संपदा नहीं बनतीसिर्फ विपत्ति बनती है। संपत्ति नहींविपत्ति। कुछ भी हम इकट्ठा कर लेंवह हमसे बाहर ही छूट जाता है। वह हमारे प्राणों का विकास नहीं होतासिर्फ प्राणों पर बोझ बन जाता है। और एक न एक दिन मृत्यु सब छीन लेती है। मृत्यु सब छीन लेती है।
मैंने सुना हैमुल्ला नसरुद्दीन अपनी मरणशथ्या पर पड़ा है। आखिरी घड़ी है। वह आंख खोलता है और अपनी पत्नी से कहता है कि मेरा जो सागर के तट पर भवन हैचाहता हूं कि मेरे मित्र अहमद को दे दिया जाए-वसीयत कर रहा है।
उसकी पत्नी कहती हैअहमद कोइस आदमी की शक्ल मुझे पसंद ही नहीं। बेहतर होयह हम रहमान को दे दें!
मुल्ला दुख में आंख बंद कर लेता है। फिर आंख खोलता है और कहता हैठीकमेरा जो पहाड़ पर बंगला हैवह मैं चाहता हूं कि मेरी बड़ी लड़की को दे दिया जाए।
उसकी पत्नी कहती हैबड़ी लड़की कोउसके पास काफी है! मेरी छोटी लडकी के लिए एक मकान की पहाड़ पर जरूरत है। वह उसको दे देना उचित है।
मुल्ला और भी थोड़ी देर तक आंख बंद किए पड़ा रहता है। फिर आंख खोलता है और कहता है कि मेरी जो बड़ी कार है,वह मेरे मित्र मर गए हैंउनका बेटा हैउसको दे देना चाहता हूं।
उसकी पत्नी कहती हैउस पर तो मेरी बहुत दिन से आंख है। वह मैं किसी को नहीं दे सकती हूं। वह तो मेरे छोटे बेटे के काम में आने वाली है।
मुल्ला तब आंख बंद करके कहता है कि एक बात पूछूं आखिरीमैं यह जानना चाहता हूं मर कौन रहा हैमैं मर रहा हूं कि तू मर रही हैतू कम से कम इतना धीरज तो रख कि मुझे मर जाने दे। फिर तुझे जो करना होकरना। इतना तो मुझे पता ही है कि जब जिंदगी अपनी न हुईतो वसीयत क्या अपनी होने वाली है!
मौत सब छीन लेती है। लेकिन फिर भी आदमी वसीयत तो कर जाना चाहता है। यह मरने के बाद भी अपना दावा रखने की चेष्टा है। जो भी हम इकट्ठा कर लेंगेमौत छीन लेगी। सिर्फ एक संपदा हैजो मौत नहीं छीन पाती है। वह संपदा परमात्मा की है। वह संपदा प्रभु के अनुभव की है। वह संपदा उस स्वभाव की हैजो हम में ही छिपा है। वह उस ओंकार की हैजो सदा है और कभी छीना नहीं जा सकता।
कृष्ण कहते हैंगंतव्य मैं हूं सबका स्वामीसबका साक्षीसबका वास स्थान! जहां सब रह रहे हैंवह मैं हूं। जो सबको चला रहा हैवह मैं हूं। और जो सबको देख रहा हैवह भी मैं हूं। शरण लेने योग्यजिसकी शरण तुम आओऐसा भी मैं हूं। हित करने वालाउत्पत्ति-प्रलय-रूप। जन्म मुझसे तुम्हारा हुआसम्हाला मैंने तुम्हेंखोओगे भी तुम मुझमें ही। सबका अंतिम बीज कारण मैं हूं। यह कृष्ण क्यों कह रहे हैं अर्जुन कोवह इसलिए कह रहे हैं कि अर्जुन तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला।
यह अंतिम सूत्र ठीक से समझ लें।
वे यह कह रहे हैंतू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। बनाया मैंनेसम्हाला मैंनेमिटाऊंगा मैंतू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला।
वह अर्जुन कह रहा है कि युद्ध में मैं नहीं जाना चाहता हूं क्योंकि मुझे लगता हैयह पाप है। कृष्ण कहते हैंमालिक मैं हूं साक्षी मैं हूं निर्माता मैं हूं और तुझे लगता है कि पाप है! गवाही मैं हूं तेरी अंतिम गवाही मैं हूंऔर तू कुछ भी करेगामैं ही तेरे भीतर करूंगातू जाने या न जाने। लेकिन तू कहता है कि यह मुझे लगता हैपाप है! तू कहता है कि मेरे मन को पीड़ा होती हैकि अपने ही प्रियजनों से कैसे लडूं!
वह कृष्ण कहते हैंसबका आधार मैं हूं सबका पिता मैं हूं सबका भविष्य मैं हूं लेकिन तू अपने को बीच में क्यों ला रहा हैमतलब यह है कि अहंकार अपने को मालिक समझता हैऔर अहंकार अपने को निर्णायक समझता है। और अहंकार समझता है कि मैं ही निर्णय करूंगावैसा ही मुझे चलना है। अहंकार समर्पण करने को तैयार नहीं है।
समर्पण तो तभी हो सकेगाजब हमें पता चले कि न मैंने मुझे बनाया हैन मैं स्वयं को सम्हाले हुए हूं। अभी यह शब्द मेरे मुंह से निकलता हैदूसरा न निकलेउसे भी निकालने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। एक सांस आती हैऔर फिर न आएतो एक सांस लेने का भी कोई उपाय नहीं है। इतना निरुपायइतना असहायइतना न होने के बराबर मैं हूं। लेकिन फिर भी मैं निर्णय करता हूं कि मैं यह करूंगा और यह नहीं करूंगाऔर यह ठीक हैऔर यह गलत है! निर्णायक मेरा अहंकार बनना चाहता है। कृष्ण उसे यही समझा रहे हैं कि अगर तू गौर से देखेगातो नीचे-ऊपर सब दिशाओं में सब भांति मुझे छाया हुआ पाएगा। और अच्छा हो कि तू अपनी यह मालकियत छोड़ दे। यह मालकियत ही तेरा दुख और तेरा पाप है।
एक ही पाप हैस्वयं की अस्मिता कोअहंकार को मजबूत किए जाना। और एक ही पुण्य हैस्वयं की अस्मिता को,अहंकार को पिघलाते चले जाना। एक घड़ी आ जाएजिस दिन मैं न रहूंमेरा बोध न रहेतो उस दिन मेरे भीतर जो बोलेगा,जो चलेगाजो उठेगाजो करेगावह परमात्मा है। उस दिन न मेरा कोई पाप हैन मेरा कोई पुण्य है। उस दिन न मेरा कोई कर्तव्य है और न कुछ अकर्तव्य है। उस दिन जो होगावह सहज होगाजैसे श्वास चलती हैखून बहता हैहवाएं चलती हैं,सूरज निकलता है। उस दिन मेरी कोई जरूरत ही नहीं है।
कृष्ण उस दिशा में अर्जुन को इशारा कर रहे हैं कि तू थोड़ा समझ। तू यह फिक्र छोड़ कि तू इनका मारने वाला हैकि तू इनका बचाने वाला हो सकता है। तू यह भी फिक्र छोड़ कि तेरे ऊपर यह निर्णय है कि यह युद्ध शुभ है या अशुभ है। तू जरा चारों तरफ गौर से देख। तू सिर्फ एक लहर है। एक क्षण को उठा है और एक क्षण बाद खो जाएगा। मैं सागर हूं। मैं तुझसे कहता हूं कि तू मेरे से ही उठा हैमुझसे ही सम्हाला गया है। मैं ही तेरा अभी भी मालिक हूं अभी भी मैं ही तेरा साक्षी हूं। जब तू नहीं थातब भी मैं थाजब तू नहीं होगातब भी मैं रहूंगा। तू मेरी तरफ देख और अपने कर्ता के भाव को मेरे ऊपर छोड़ दे। मुझे हो जाने दे कर्ता और तू बन जा केवल उपकरणतू बन जा केवल एक बांस की पोगरी। गीत मुझे गाने देतू बीच में मत आ। तू बीच में आएगावही तेरा दुखवही तेरी पीड़ावही तेरा संताप है।
यह सारी की सारी बात समझाने के पीछे अहंकार को पिघलाने का इशारा है। अहंकार बर्फ की तरह हमारे भीतर जमा हुआ हैफ्रोजन। उसे थोड़ा पिघलाना जरूरी है।
कभी आपने खयाल कियासागर में एक बर्फ की चट्टान तैर रही होतो सागर से बिलकुल अलग मालूम पड़ती है। पीछे मैंने कहालहर सागर से अलग मालूम पड़ती है। लेकिन लहर का भ्रम ज्यादा देर नहीं चल सकताक्योंकि लहर कितनी देर उठी रहेगीक्षणभर बाद गिर जाएगी और खो जाएगी। लेकिन लहर अगर फ्रोजन हो जाएजम जाएबर्फ बन जाएफिर लहर का भ्रम बहुत देर चल सकता है। क्योंकि जब तक बर्फ न पिघले! और अगर चारों तरफ दूसरी लहरें भी जमकर बर्फ हो गई होंतो यह भ्रम और भी बहुत देर चल सकता है। क्योंकि गर्मी भी कहीं से नहीं मिलेगीसब तरफ से अहंकार की ठंडक ही मिलेगीयह और जम जाएगी। हम सब ऐसी ही लहरें हैंफ्रोजन वेक। और चूंकि हम चारों तरफ सभी बर्फ बन गए हैं जमकरएक-दूसरे को हम ठंडक देते रहते हैं और जमाते रहते हैं। हम सब एक-दूसरे के अहंकार को जमाने की चेष्टा में लगे रहते हैंहमें पता हो या न पता हो।
बाप बेटे से कहता है कि शाबाशतू पहला नंबर आ गया है स्कूल में! आएगा क्यों नहींआखिर मेरा ही बेटा जो है! ये एक-दूसरे को जमा रहे हैं। बेटे के अहंकार को जमाने की चेष्टा चल रही है।
बेटा आज अगर प्रथम नहीं आया हैतो घर बिलकुल उदास है। मां बेचैन हैबाप पराजित मालूम पड़ रहा है। बेटा भी चिंतित है। क्या हुआ हैजरा बर्फ पिघलने लगी। वह अहंकारमैं-हमारे घर में कभी कोई नंबर दो आया ही नहींऔर यह बेटा नंबर दो आ गया! हम सब एक -दूसरे को जमाने की कोशिश में लगे हैं। हमारी शिक्षाहमारी सभ्यताहमारी संस्कृतिसब एक-दूसरे को जमा रही हैसब जम जाएंसख्त हो जाएं भीतर।
अगर जब सारी लहरें एक-दूसरे को जमाने में लगी होंतो फिर नीचे के सागर का खयाल आना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को समाज को छोड्कर भागना पड़ा-बुद्ध को या महावीर को या जीसस को या मोहम्मद को भी स्वात में भाग जाना पड़ा-उसका कारण अगर मौलिक आप समझना चाहेंतो सिर्फ इतना ही है कि आप सब इतने जमे हुए बर्फ की चट्टानें हैं कि आपके बीच में पिघलना बहुत मुश्किल है! पूरा टेंपरेचर नहीं है पिघलने का वहां। सब जीरो डिग्री से नीचे जमे हुए हैं। वहा अगर कोई पिघलना भी चाहेतो पिघलना मुश्किल है। चारों तरफ जमाने वाले लोग मौजूद हैं।
इसलिए बुद्ध या महावीर को समाज छोड्कर भागना पड़ता है। समाज को छोड्कर भागने का और कोई कारण नहीं है। अकेले में जाना पड़ता हैताकि वहा कम से कम अपनी ही ठंडक से लड़ना पड़ेदूसरों की ठंडक से तो न लड़ना पड़े। अकेले,एकांत मेंजहां चारों तरफ कोई ठंडक न हो।
मैंने सुना हैफकीर बोकोजू जंगल में था। उसके ज्ञान की खबर राजधानी तक पहुंच गई। सम्राट उससे मिलने आया। सम्राट आया था मिलनेतो सम्राट थाकुछ भेंट लानी चाहिए। तो एक बहुत बहुमूल्य;.' लाखों रुपए की कीमत का एक कोट सिलवा लाया। उसमें लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात लगा दिए। बड़ा कीमती वस्त्र था। शायद पृथ्वी पर वैसा खोजना दूसरा मुश्किल हो। सम्राट उसे बड़ी मेहनत से बनवाकर लाया था।
जब सम्राट फकीर के सामने मौजूद हुआतो फकीर एक चट्टान पर नग्नएक वृक्ष से टिका हुआ बैठा है। सम्राट ने चरण छुएभेंट रखी। फकीर भेंट को देखकर हंसा। फिर फकीर ने ऊपर वृक्ष की तरफ देखा। फिर आस-पास हिरण घूमते थेउनकी तरफ देखा। फिर आकाश में चीले उड़ती थींउनकी तरफ देखा।
उस सम्राट ने कहाआप क्या देख रहे हैंतो उसने कहामैं यह देख रहा हूं कि तुम्हारा यह कोट मुझे बड़ी दिक्कत में डालेगा। क्योंकि अगर यह कोट तुमने मुझे राजधानी में दिया होतातो राजधानी में सभी आदमी इस कोट की प्रशंसा करते और कहते कि मैं बहुत महान हो गया हूंक्योंकि मुझे यह राजा का कोट मिल गया है। लेकिन यहां जंगल में बेपढ़े-लिखे जानवर हैं,असभ्यइन को कुछ पता नहीं है। मैंने ऊपर देखा इसलिए कि वे जो तोते बैठे हैंवे हंस रहे हैं। मैंने ऊपर देखा कि वह जो चील उड़ रही हैवह मजाक उड़ाएगी। मैंने हिरण की तरफ देखाउसकी आंख में शरारत
है। आपके जाते ही ये सब कहेंगेबन गए बुद्ध! कैसे मुक्त थेकैसे आनंद में थेनग्न! कैसे स्वतंत्र थेकैसे परमात्मा की हवाएं सीधा छूती थीं! पहन लिया कोट! और फिर यहां हीरे-जवाहरात का कोई पता रखने वाला भी नहीं है। तो मैं शान भी बघारूंगातो किसके सामनेऔर अकड़कर चलूंगा भीतो कहांयहां अगर अकड़कर चलूंगातो यह सारा जंगल मुझ पर हंसेगा। तो यहां मैं सम्राट के द्वारा सम्मानित कम और किसी सर्कस का जोकर ज्यादा मालूम पडूगा। यह कोट तुम ले जाओइतनी कृपा करो।
जंगल में आपके आस-पास ठंडक देने वाला कोई भी नहीं हैआपके अहंकार को ठंडा करने वाला कोई भी नहीं हैपिघल जाएगा आसानी से। इसलिए भागते रहे लोग।
कृष्ण उसी अहंकार को पिघलाने के लिए कह रहे हैंसब मैं हूं। अगर तुझे यह स्मरण आ जाए अर्जुनतो तू जो इस खयाल से भर रहा है कि तू ही केंद्र है और तेरे ऊपर ही सब दारोमदार हैयह खयाल तेरा छूट जा सकता है। और यह खयाल न छूटेतो आदमी की आंखें अंधी ही रह जाती हैं।
अहंकार अंधापन है। और अहंकार के छूट जाते ही प्रज्ञा की आंख खुलती हैऔर जीवन जैसा है वैसा पहली बार दिखाई पड़ता है।
आज इतना ही।
लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। और कीर्तन पूरा हो जाए तभी उठें।

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