मंगलवार, 7 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--111



कर्ताभाव का अर्पण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--111
अध्‍याय9
सूत्र:

पत्रं पष्पं फलं तोर्य यो मे भक्या प्रकछीत।
तदहं भक्मुष्ठतमश्नामि प्रयतात्मन:।। 26।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्‍जुएषि ददासि यत्।
यत्तयस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्य मदर्यणम्।। 27।।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कमंबन्धनै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विख्सुाए मामुयैष्यसि।। 28।।

तथा है अर्जुनमेरे पूजन में पत्रपुष्यफलजल हत्यादि जो कुछ कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता हैउस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्रपुष्य,  फल आदि मैं ही ग्रहण करता है।

हसलिए हे अर्जुन तू जो कुछ कर्म करता हैजो कुछ खला हैजो कुछ हवन करता हैजो कुछ दान देता है जो कुछ स्वधर्माचरण रूप तय करता ह्रे वह सब मेरे अर्पण कर। हम प्रकार कर्मो को मेरे अर्पण करने रूप संन्यासयोग से युक्त हुमन वाला तू शुभाशुभ फलरूय कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होवेगा।

 रमात्मा की पूजा भी करनी होतो भी हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है उसे देने कोजिसे हम अपना कह सकें। और जो हमारा ही नहीं हैउसे देने का भी क्या अर्थ हैजो कुछ भी हैउसका ही है। तो पूजा में उसके द्वार पर भी हम जो रखेंगे,उसका ही उसे लौटा रहे हैं।
मनुष्य के पास ऐसा क्या है जो परमात्मा का दिया हुआ नहीं हैअगर उसकी ही चीजें उसे लौटा रहे हैंतो बहुत अर्थ नहीं है। कुछ ऐसा उसे देंजो उसका दिया हुआ न होतो ही पूजा में चढ़ायातो ही पूजा में हमने कुछ अर्पित किया।

इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। बड़ी कठिनाई होगी खोजने में। क्योंकि क्या है जगत में जो उसका नहीं हैअगर वृक्षों से तोड़कर फूल मैं चढ़ा आता हूं उसके चरणों मेंवे फूल तो उसके चरणों में चढ़े ही हुए थे! और अगर नदी का जल भरकर उसके चरणों में ढाल आता हूं तो वह नदी तो सदा से अपना सारा जल उसके चरणों में ढाल ही रही थी! मैं इसमें क्या कर रहा हूं?और इस करने से मेरे जीवन का रूपांतरण कैसे होगा?
लेकिन एक बात जरूर मनुष्य के पास ऐसी हैजो परमात्मा की दी हुई नहीं है। एक ही बात ऐसी है। कर्ता का भावमैं कुछ कर रहा हूं यह परमात्मा का दिया हुआ नहीं हैयह आदमी का अपना अर्जित है। यह अहंकार कि मैं कुछ कर रहा हूं आदमी की अपनी खोज है। यह आदमी का अपना आविष्कार है। और जब तक कोई आदमी इस भाव को उसके चरणों में न चढ़ा देतब तक वह रूपांतरण घटित नहीं होताजिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं।
इसलिए वे कहते हैं कि तू खाए तोतू चले तोबैठे तोहवन करे तोतू जो कुछ भी करेवह सब मेरे अर्पण कर। कर्मों को मेरे अर्पण कर। कर्ता होने के भाव को मुझे अर्पण कर। और जिस क्षण तू यह कर पाएगाउसी क्षण तू संन्यस्त हो गया।
यह बहुत अदभुत बात है। क्योंकि संन्यास का अर्थ होता हैकर्म को छोड़ देनाकर्म का त्याग। कृष्ण कर्म के त्याग को नहीं कह रहे हैं। वे कह रहे हैंकर्म तो तू करलेकिन मुझे अर्पित होकर। कर्म को छोड़ नहीं जाना हैकरते जाना है। लेकिन वह जो करने वाला हैउसे छोड़ देना हैवह जो भीतर मैं खड़ा हो जाता हैउसे विसर्जित कर देना है।
अहंकार अकेली चीज है आदमी के हाथ मेंजो पूजा में चढ़ाई जा सकती है। वह आदमी की अपनी हैबाकी तो सब परमात्मा का है। लेकिन दोतीन बातें और इस संबंध में समझ लेनी जरूरी होंगी। कठिन भी है उसे ही चढ़ाना। धन आदमी चढ़ा सकता है। जोश में होतो जीवन भी चढ़ा सकता है। गर्दन भी काटकर रख सकता है। इतना कठिन नहीं है। ऐसे भक्त हुए हैं,जिन्होंने गर्दन काटकर चढा दीअपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उतना कठिन नहीं हैक्योंकि जीवन भी उसी का ही है। लेकिन जिसने गर्दन चढ़ाई हैवह भी भीतर समझता रहता है कि मैं गर्दन चढ़ा रहा हूं! याद रखनास्मरण रखनाभूल मत जानामैं गर्दन चढ़ा रहा हूं!
गर्दन जब कटती हैतब भी भीतर मैं खड़ा रहता है। मैं को बचाकर भी गर्दन चढ़ाई जा सकती है। और अगर मैं बच गयातो जो हम चढ़ा सकते थेवह बच गयाऔर जो चढ़ा ही हुआ थावही वापस लौट गया। धन कोई चढ़ा देजीवन कोई चढ़ा देपदप्रतिष्ठा कोई चढ़ा देसब कुछ चढ़ा देलेकिन पीछे मैं बच जाएतो जो चढ़ाना थावह बच गया और जो चढ़ा ही हुआ थावह हमने चढ़ा दिया। और चढ़े ही हुए को चढ़ाकर हम और अपने मैं को मजबूत कर लेते हैं कि मैंने इतना चढ़ाया है। चढ़ाने वाले भी हिसाब रखते हैं!
एक आदमी कुछ दिन पहले मेरे पास आया था। उसने मुझे कहा कि मैं इतने लाख दफा राम का नाम स्मरण कर चुका हूं। वह हिसाब रखे हैकापी बनाए हुए है! सारा हिसाब है कि कितने लाख दफा उसने राम का नाम लिया। यह आदमी राम के पास भी जाएगातो कापी लेकर जाने वाला है। और कहेगा कि याद हैकितना मैं चिल्लाया! कितने मैंने नाम लिए! यह सब हिसाब मेरे साथ है। लोग प्रेम में भी गणित को ले आते हैं! लोग प्रार्थना में भी हिसाबबहीखाते रख लेते हैं! सब व्यर्थ हो गया। क्योंकि यह हिसाबकिताब जो रख रहा हैवह अहंकार है। यह जो कह रहा है कि मैंने इतने नाम लिएअब यह नाम भी संपत्ति हो गई। अब ये करोडों सिक्के हो गए मेरे पास। अब इन करोड़ों सिक्कों के साथ मैं उसके पास पहुंचूंगा।
कीर्कगार्ड नेएक ईसाई फकीर ने और एक अदभुत विचारक ने अपनी डायरी में एक वक्तव्य लिखा है। उसने लिखा है कि मैंने सब उसके लिए चढ़ा दियासमस्त बुरे कर्म छोड़ दिएसब पापों से अपने को बचा लियासब तरह की अनीति से अपने को दूर कर लिया। एक दुर्गुण मुझ में न रहा। और तब मुझे एक दिन ऐसा पता चला कि मुझ में गुण ही गुण हैं! और मैंने पाया कि मेरे भीतर अहंकार लपट की भांति खड़ा हो गया है। और तब मुझे पता चला कि ये मेरे गुण भी मेरे अहंकार का ही भोजन बन गए हैं। यह मेरा सदाचरण भीयह मेरा नैतिक जीवन भीमेरे अहंकार का ही पोषण बन गया है। और उस दिन मैं रातभर रोयाउसने लिखा हैकि हे परमात्माइससे तो बेहतर था कि मैं पापी थाबुरा थाकम से कम यह अहंकार तो खड़ा नहीं होता था। बुराई से मैं छूट गयाअब भलाई से तू मुझे छुड़ा। यह भलाई नया कारागृह बन गई।
और ध्यान रहेबुरे आदमी के पास जो अहंकार होता हैदीन होता हैऔर भले आदमी के पास जो अहंकार होता हैबड़ा सबल हो जाता है। इसलिए बुरे आदमी की बुराइयां बाहर हैं और भले आदमी की बुराई भीतर हो जाती है।
बुरा आदमी चोरी करता हैबेईमानी करता हैधोखा देता है। उसकी बुराइयां बाहर हैं। भला आदमी न चोरी करतान बेईमानी करता। समय पर पूजा करता हैप्रार्थना करता है। नियम का पालन करता है। मर्यादा से जीता है। बाहर उसकी कोई बुराई नहीं है। लेकिन सब के मुकाबले भीतर एक बुराई खड़ी हो जाती है कि मैं भला आदमी हूं। जहां भी वह चलता हैवह भले आदमी का अहंकार साथ चलता है। इसलिए भला आदमी जब दूसरे की तरफ देखता हैतो गहरे में छानबीन करनातो पता चलेगावह ऐसे देखता हैजैसे दूसरा आदमी कीड़ामकोड़ा हो!
यह तो बुरे आदमी से भी बुरा होना हो गया। यह तो बुराई गहरी हो गई। और बुरे आदमी ने दूसरों के साथ बुरा किया,इस भले आदमी ने अपने साथ भी बुरा कर लिया है। और बुरे आदमी ने दूसरों को धोखा दिया थाइस भले आदमी ने अपने को भी धोखा दे लिया है।
पूजा और प्रार्थना करने वाले का भी बडा सात्विक अहंकार मजबूत हो जाता है। और ध्यान रहेजब अहंकार सात्विक होता हैतो बहुत जहरीला हो जाता है।
कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। बुराभला सब मुझ पर छोड़ दे। तू जो भी कर रहा हैउसमें तू करने वाला मत रह। तू जान कि मैं तेरे भीतर से कर रहा हूं। तू ऐसा अर्पित हो जा।
कर्म छोड़ने को वे नहीं कह रहे हैं। इसलिए कृष्ण ने जो बात कही हैवह अति क्रांतिकारी है। कर्म छुड़ा लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। आदमी कर्म छोड़कर जंगल जा सकता है। लेकिन कर्ता छुड़ा लेना असली कठिनाई है। और आदमी जंगल भी चला जाए कर्म को छोड़करतो यह अकड़ साथ चली जाती है कि मैं सब कर्मों को छोड़कर चला आया हूं। कर्ता पीछे साथ चला जाता है। कर्म तो बस्ती में छूट जाएंगेकर्ता नहीं छूटेगा। कर्ता आपके साथ जाएगा। वह आपकी भीतरी दशा है। आप मकान छोड़ देंगेघरदुकान छोड़ देंगेकामधाम छोड़ देंगेसब तरफ से निवृत्त होकर भाग जाएंगे जंगल मेंलेकिन वह जो भीतर कर्ता बैठा हैवह इस निवृत्ति के ऊपर भी सवार हो जाएगा। निवृत्ति भी उसी का वाहन बन जाएगी। और जाकर जंगल मेंवह अकड़ से कहेगा कि सब छोड़ चुका हूं। यह छोड़ना कर्म हो जाएगा। यह छोड़ना कर्म हो जाएगायह त्यागना कर्म हो जाएगा। और अहंकार इससे भी भर लेता है।
इसलिए कृष्ण ने कहाकर्म छोड़कर कुछ भी न होगा अर्जुनकर्ता को छोड़ दे!
यह दुरूह हैयह अति कठिन है। क्योंकि कर्म तो बाहर हैं। और जो भी बाहर हैउसको पकड़ना भी आसान हैछोड़ना भी आसान है। जो भीतर हैउसे पकड़ने में भी जन्मोंजन्मों लग जाते हैंउसे छोड़ना भी उतना ही कठिन है।
मेरे हाथ में कोई चीज हैउसे मैं छोड़ दूं आसान है। मेरी खोपड़ी में जब कोई चीज होती हैतो छोडनी मुश्किल हो जाती है। खोपड़ी में होउसे भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन जो मेरी चेतना
में प्रवेश कर जाए उसे फिर छोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। यह अहंकारहमारे भीतर गया गहरे से गहरा संसार है। संसार का तीर हमारे भीतर जो गहरे से गहरे में चला गया हैउसका नाम अहंकार हैउस घाव का नाम अहंकार है। वह हमारे भीतर है। वह हमारे भीतर है। और हमारा मजा ऐसा है कि हम उस तीर को और दबाए चले जाते हैंताकि अहंकार और भीतर चला जाए। खाज हो जाती है न किसी कोतो खुजलाने से भी आनंद मालूम पड़ता है। अहंकार आत्मिक खाज हैउसे खुजलाने से भी आनंद मालूम पड़ता है। पीछे कितनी ही पीड़ा होलेकिन जब खुजाते हैंतब लगता हैबड़ा सुख मिल रहा है! जिसको भी कभी खाज हुई होउसे पता होगा। लेकिन अहंकार तो सभी को हुआ हैसभी को पता होगा। उसे खुजलाने में सुख मिलता है। हालांकि सभी दुख उसी खुजलाने से पैदा होते हैं।
खाज को खुजलाने से लहूलुहान हो जाता है शरीरपीछे पीड़ा आती है। और अहंकार को खुजलाने से आत्मा लहूलुहान हो जाती हैऔर जन्मोंजन्मों तक पीड़ा की सतत श्रृंखला बन जाती है। लेकिन फिर भी हम खुजलाए चले जाते हैंऔर तीर को भीतर धंसाए चले जाते हैं। घाव में भी तीर लगता हैतो हमें रस आता है।
कृष्ण कहते हैंइसको ही छोड़ दे। यह मैं कर रहा हूं इस भाव को छोड़ दे।
इस भाव को छोड़ना होतो दो अनिवार्य शर्तें हैं।
कहा है कृष्ण नेउस शुद्ध बुद्धिनिष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ सभी कुछ मैं ग्रहण करता हूं।
दो शब्दों का उपयोग किया हैशुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेमी। बुद्धि कब शुद्ध होती हैऔर प्रेम कब पवित्र होता हैबुद्धि तब शुद्ध होती है. .जैसा हम आमतौर से सोचते हैंतब नहीं। हम सब सोचते हैं कि अगर बुद्धि में शुद्ध विचार होंतो बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इससे ज्यादा भांति की कोई दूसरी बात नहीं है। इसलिए यह समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। हम समझते हैं कि बुद्धि के शुद्ध होने का अर्थ हैशुद्ध विचारअच्छे विचारसात्विक विचारसद विचार हों तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है। लेकिन बुद्धि तब तक शुद्ध नहीं होतीजब तक विचार होंचाहे वे सद विचार ही क्यों न हों। जब विचार ही नहीं रह जातेतभी बुद्धि शुद्ध होती है।
जैसे एक आदमी के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। वह कारागृह में पड़ा है। कल हम उसे सोने की जंजीरें पहना दें। शायद वह खुश हो कि अब मैं स्वतंत्र हो गयाक्योंकि जंजीरें अब सोने की हो गईं।

 अच्छी जंजीरेंहीरेजवाहरात जड़े हों! लेकिन वह स्वतंत्र नहीं हो गया। स्वतंत्र तो वह तभी होता हैजब जंजीरें अच्छी नहींजंजीरें होती ही नहीं!
ध्यान रखेंविचार की तीन अवस्थाएं हैं। एक विचार की अवस्था हैजिसको हम अशुद्ध विचार कहें। अशुद्ध विचार का अर्थ हैजो वासना के पीछे दौड़ता होवृत्तियों के पीछे दौड़ता होशरीर को मालिक मानता होखुद गुलाम हो जाता हो! जहां वासना मालिक है और विचार गुलाम हैवहा बुरा विचार हैअसद विचार हैअशुभ विचार है।
इसे हम बदल सकते हैं। बदलने का अर्थ यह है कि विचार मालिक हो गयावासना गुलाम हो गई। अब वासना के पीछे विचार नहीं चलताविचार के पीछे ही वासना को चलना पड़ता है। यह शुभ विचार हुआसद विचार हुआअच्छा विचार हुआ। लेकिन विचार भी मौजूद है और वासना भी मौजूद हैसिर्फ संबंध बदल गया। कल वासना मालिक थीविचार गुलाम थाअब विचार मालिक हैवासना गुलाम है।
लेकिन ध्यान रहेआप गुलाम के मालिक भी हो जाएंतो भी उससे बंधे रहते हैं। आप गुलाम की छाती पर भी बैठ जाएं,तो भी गुलाम आपको बाधें रखता है। आप छोड़कर हट नहीं सकते। गुलाम तो हट ही नहीं सकताक्योंकि आप उसकी छाती पर चढ़े हैं। आप भी नहीं हट सकतेक्योंकि आप हटे कि छाती से उतरे। आपको गुलाम को दबाकर बैठे रहना पड़ेगा। शायद आप सोचते होंगेगुलाम मुझसे बंधा है। गुलाम भी जानता है कि आप उससे बंधे हैंहट नहीं सकते।
सुना है मैंने कि एक आदमी एक गाय को बांधकर अपने घर लौट रहा है। फकीर हसन उसे रास्ते में मिल गया और हसन ने पूछा कि मेरे मित्रमैं एक बात जानना चाहता हूं। तुम गाय से बंधे हो कि गाय तुमसे बंधी है ग्र
उस आदमी ने कहातू पागल मालूम होता है! यह भी कोई पूछने की बात हैजाहिर है कि गाय मुझसे बंधी हैमैं गाय को बांधकर ले जा रहा हूं।
तो फकीर हसन ने कहाएक काम कर। अगर गाय तुझसे बंधी हैतो तू छोड़कर बता। तू छोड़ दे। फिर अगर गाय तेरे पीछे चलेतो हम समझें।
उस आदमी ने कहाअगर मैं छोड़ दूंगागाय भाग खड़ी होगीमुझे उसके पीछे भागना पड़ेगा।
तो फकीर हसन ने कहाफिर तू ठीक से समझ ले। यह हाथ में जो रस्सी लिए हैइस धोखे में मत पड़ना। अगर गाय भागेतो तू उसके पीछे भागेगागाय तेरे पीछे नहीं भागेगी। अगर तू गाय को छोड़ देतो गाय तेरा पता लगाती हुई नहीं आने वाली है,तू ही उसका पता लगाता हुआ जाएगा। तो तू इस भ्रम में है कि तू गाय को बांधे हुए है।
जिसे हम बांधते हैंउससे हम बंध भी जाते हैंजीवन का यह एक अनिवार्य नियम है। इसलिए जो मुक्त होना चाहता है,वह किसी को बांधेगा नहीं। बांधा कि आप फिर मुक्त नहीं हो सकते। अगर आपकी वासना को आपने दबा लिया और अच्छा विचार आप ऊपर ले आएतो भी वासना नीचे कुलबुलाती रहेगीभभकती रहेगीलपटें उसकी उठती रहेंगी। आपको रोजरोज दबाना पड़ेगा। जिसे एक दिन दबाया हैउसे रोजरोज दबाना पड़ेगा। और दबाने से कोई वासना मिटती नहीं हैभभक भी सकती है और तेजी सेक्योंकि दमन से रस भी पैदा होता है। और जिसे हम दबाते हैंउसमें आकर्षण भी बढ़ जाता है। और जिसे हम दबाते हैंउसकी शक्ति भी इकट्ठी होती चली जाती है। फिर यह संघर्ष सतत है।
इसलिए जिसे हम बुरा आदमी कहते हैंवह बाहर लोगों से लड़ता रहता हैजिसे हम अच्छा आदमी कहते हैंवह भीतर अपने से लड़ता रहता है। जिसे हम बुरा आदमी कहते हैंवह दूसरों को सताने की कोशिश में लगा रहता हैजिसे हम अच्छा आदमी कहते हैंवह खुद को सताने की कोशिश में लगा रहता है। जिसे हम बुरा आदमी कहते हैंवह इसीलिए बुरा है कि उसको वासना के पीछे भागना पड़ता हैजिसको हम अच्छा आदमी कहते हैंउसे इसीलिए अच्छा कहते हैं कि वह अपनी वासना की छाती पर सवार होकर बैठ जाता है। लेकिन यह बैठ जाना भी स्टैटिक है। यह बैठ जाना भी मर जाना है। यह बैठ जाना भी रुक जाना है।
एक तीसरी भी अवस्था है बुद्धि कीजब विचार और वासना दोनों नहीं होते। उस स्थिति का नाम शुद्ध बुद्धि है। शुद्ध बुद्धि का अर्थ है कि संघर्ष गयाजो लड़ने वाले थेवे रहे ही नहीं। न बांधने वाला है अबऔर न वह जिसे बांधना था। न अब कोई मालिक है और न अब कोई गुलाम है। क्योंकि जहां मालिक और गुलाम हैंवहा एक अंतर्संघर्ष जारी रहेगा ही।
चाहे समाज होजब तक समाज में मालिक और गुलाम हैंतब तक समाज में एक 'संघर्ष जारी रहेगा ही। मार्क्स उसे क्लास स्ट्रगल कहता हैं। तो वर्गसंघर्ष जारी रहेगा।
ठीक ऐसी ही घटना भीतर भी घटती है। जब तक भीतर भी मालिक और गुलाम में बंटावट हैजब तक बंटावन है भीतर,विभाजन हैतब तक भीतर भी एक संघर्षएक अंतर्संघर्ष जारी रहेगाएक इनर काफ्लिक्टएक अंतर्द्वंद्व भीतर भी बना रहेगा। शुद्ध नहीं है वह स्थिति।
कृष्ण कहते हैंशुद्ध बुद्धि।
उसका अर्थ हैजिसकी बुद्धि इतनी शुद्ध हो गई कि अब वहा विचार की कोई तरंग भी नहीं है। एकदम निर्मल झील की तरह हो गई। बुरा विचार तो चला ही गयागंदी लहर तो चली ही गईवह लहर भी अब नहीं हैजिसको हम निर्मल लहर कहें,वह भी नहीं है। लहर ही न रही। मन झील की तरह मौन हो गयाजिस पर कोई भी तरंग नहीं है।
यहां ठीक से समझ लें।
नीति का संबंध सिर्फ इतने से है कि आपकी बुद्धि इस अर्थ में शुभ हो जाए कि अशुभ दब जाए और शुभ ऊपर आ जाए। नीति की दौड़ इतनी है। इसलिए नीति धर्म नहीं है। धर्म और बड़ी बात है! एक अधार्मिक आदमी भी नैतिक हो सकता हैकोई अड़चन नहीं है। एक नास्तिक भी नैतिक हो सकता हैकोई अड़चन नहीं है।
नैतिकता का मतलब ही इतना है कि आप अपनी वासना को अपने विचार के नियंत्रण में कर लिए हैं। एक संयम उपलब्ध हुआ है। अब आपकी वासना आपको खींच नहीं पाती। अब आप उसे रोक पाते हैं। वासना की लगाम आपके हाथ में आ गई। घोड़ा जिंदा हैलगाम से आप उसे चला लेते हैं। लेकिन चौबीस घंटे उसको चलाने में ही व्यय होता हैऔर घोड़ा पूरे समय तलाश में होता है कि कब उसे मौका मिल जाए और वह छूटकर निकल भागे। उसके पीछे चौबीस घंटे आपको सजग चेष्टा में रत रहना पड़ता है।
और इसलिए कोई भी आदमी चौबीस घंटे तो सतत चेष्टा नहीं कर सकताहर चेष्टा का अनिवार्य रूप विश्राम है। कोई भी आदमी चौबीस घंटे चेष्टारत नहीं हो सकताविश्राम तो करना ही पड़ेगा। जो दिनभर जागा हैउसे रात सोना भी पड़ेगा। और जिसने दिनभर गड्डा खोदा हैउसे हाथपैर को आराम भी देना पड़ेगा।
इसलिए नैतिक आदमी को बीचबीच में विश्राम भी लेना पड़ता है। उसी विश्राम में उसकी अनीति प्रकट होती है। नैतिक आदमी को भी बीचबीच में विश्राम लेना पड़ता है। कई बहाने खोजकर विश्राम लेता है। कभी कहता हैहोली का उत्सव मना रहे हैंतब वह गालियां बक लेता है। जो बेहूदगियां उसने सालभर नहीं कींअब वह मजे से कर लेता है।
नैतिक आदमी को भी बहाने खोजखोजकर अपनी अनीति को छुट्टी का अवसर देना पड़ता है। क्योंकि थक जाएगा;विश्राम जरूरी हैछुट्टी का दिन जरूरी है। और अगर जागने में नहीं दे पातातो नींद में छुट्टी देनी पड़ती है। तो सपनों में सब बुरे कर्म कर लेता हैजो दिनभर दबाए रखेवह रात सपनों में प्रकट हो जाते हैं।
अगर हम अच्छे आदमी के सपने देखेंतो वे अनिवार्य रूप से बुरे होते हैं। बुरे आदमी के सपने इतने बुरे नहीं होते। कारण नहीं है। बुरा आदमी दिन में ही बुरा कर लेता हैरात मजे से सो जाता है। अक्सर तो ऐसा होता है कि बुरा आदमी रात में बड़े अच्छे सपने देखता है। काप्लिमेंट्री है। दिनभर बेचैन रहता है। कई दफा मन में उसके भी आता है कि अच्छा आदमी हो जाऊं। हो नहीं पातावह वासना अतृप्त रह जाती है। बुरा तो वह कर लेता हैजो करना है उसे। अच्छे की वासना अतृप्त रह जाती हैरात सपना बन जाती है।
अच्छा आदमी रात बुरे सपने देखता है। दिनभर तो अच्छा कर लेता है सम्हालकरलेकिन भीतर बुरे का रंग और राग बजता रहता हैभीतर बुरे की ध्वनि बजती रहती है। वह मांग करती रहती है कि छुट्टी थोड़ी मुझे दोबहुत ज्यादा लगाम मत खींचो। थोड़ा मुझे फुर्सत दोमैं दौड़ सकूं। हवाएं अच्छी हैंरास्ता साफ हैसुबह का वक्त हैथोड़ा मुझे दौड़ लेने दो। नहीं देता,तो रात जब सो जाता हैलगाम छूट जाती है ढीलीतब मन दौड़ना शुरू हो जाता है।
एक मजे की बात है कि आदमी ने दिन में जो दबाया होवही रात उसके सपनों में प्रकट होता है। जोजो दबाया हो,वही प्रकट हो जाता है। सपने सहयोगी हैं। फ्रायड कहता हैसपने सहयोगी हैं।
अगर अच्छा आदमी सो न सकेतो पागल हो जाएगा। अगर बुरा आदमी न सो सकेवह भी पागल हो जाएगा। क्योंकि विश्राम चाहिए। वह जो दूसरा हिस्सा मांग कर रहा हैजिसको आप दबाकर बैठ गए हैंउसको भी मौका चाहिए। वह भी आपका हिस्सा है।
कृष्ण इस आदमी को शुद्ध बुद्धि नहीं कहेंगे। वे कहेंगे कि ये दोनों एक जैसे हैं। सिर्फ एक चीज नीचे थीवह ऊपर आ गईजो ऊपर थावह नीचे आ गया। लेकिन टोटलजोड़ वही है।। मैंने सुना है कि एक सर्कस में बंदरों की एक जमात है। और बंदरों को सम्हालने वाला जो आदमी हैवह रोज सुबह उन्हें चार रोटी देता है और सांझ को तीन रोटी देता है। एक दिन रोटी की कुछ कमी थीतो उसने यह व्यवस्था बदल दी। उसने बंदरों को बुलाकर कहा कि आज से नियम बदलता हैसुबह तुम्हें तीन रोटी मिलेंगी और शाम तुम्हें चार रोटी मिलेंगी।
बंदरों ने बगावत कर दी। बंदर बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहायह नहीं चलेगा। यह हो ही नहीं सकता। सुबह चार रोटी ही चाहिए और शाम को तीन रोटी ही चाहिए।
उस आदमी ने बहुत समझाया कि तुम बिलकुल पागल होजोड़ तो करो। जोड़ तो सात ही होता है। बंदरों ने कहाजोडवोड़ से हमें मतलब नहीं है। चार रोटी सुबह चाहिएतीन रोटी शाम चाहिए। सुबह तीन रोटी दे दी जाएंशाम चार रोटी दे दी जाएंबंदर बड़े नाराज हुए।
लेकिन बंदर जोड़ नहीं जानतेक्षमा किए जा सकते हैं। आदमी भी जोड़ नहीं जानता है! नीचे को ऊपर कर लेते हैंऊपर को नीचे कर लेते हैं। सोचते हैंसब ठीक हो गया। सिर्फ जोड़जोड़ तो वही रहता है।
अच्छे और बुरे आदमी का जोड़ बराबर है। यह जरा कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूंअच्छे और बुरे आदमी का टोटलजोड़ बराबर हैऊपर और नीचे का फर्क है। एक में चार रोटी सुबह हैंतीन रोटी शाम हैंएक में तीन रोटी सुबह हैंचार रोटी शाम हैं।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि अगर आप अच्छे आदमी होंतो बुरे आदमी हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है। इसका यह मतलब है कि आप अगर अच्छे आदमी हैंइr? तो अच्छे आदमी ही मत रह जाना।
क्योंकि अच्छे आदमी की उपयोगिता है। जहां तक समाज का संबंध हैसमाज का काम पूरा हो गया। उसे आपके भीतर से कोई मतलब नहीं है कि जोड़ क्या है। समाज का काम पूरा हो गया। आपका अच्छा चेहरा ऊपर आ गयाबुरा चेहरा आपके भीतर चला गया। वह आपकी बात हो गई। उसका कोई सामाजिक अर्थ नहीं है। समाज जानता है कि आप अच्छे आदमी हैं। आप समाज के लिए अच्छे आदमी हो गएसमाज की बात पूरी हो गई।
समाज को इससे ज्यादा चिंता नहीं है कि अब आप और कुछ हों। अच्छे आदमी से समाज राजी है। पर्याप्त है। समाज चाहता हैबुरे आदमी आप न हों। आपका बुरा पहलू आपके भीतर होअच्छा पहलू बाहर हो। क्योंकि समाज का मतलब ही है कि हमारे बाहरी पहलुओं का जो मिलन हैउसका नाम समाज है।
मेरी आत्मा गंदी हैइससे आपको मतलब नहींमैं नहाधोकरसाफ कपड़े पहनकर आपके पास आऊंपर्याप्त है। क्योंकि आपका जो मिलन होने वाला हैवह मेरे शरीर से और मेरे कपड़ों से होने वाला हैमेरी आत्मा से नहीं। अगर मैं यह कहूं कि मेरी आत्मा बहुत पवित्र हैलेकिन मैं सब गंदगी ओढ़कर आपके पास आऊंगातो आप कहेंगेआत्मा आप जानेंकृपा करके यह गंदगी मेरे पास न लाएं।
समाज का अर्थ हैहमारे बाहरी व्यक्तित्व के मिलन का स्थल। समाज को इससे चिंता है कि आपका बाहर का पहलू ठीक हो जाएभीतर की आप जानें। वह आपकी निजी समस्या है।
लेकिन धर्म इतने पर नहीं रुकता। धर्म कहता है कि असलीनिजी समस्या को ही हल करना है। अच्छा है कि आप अच्छे आदमी हूऐं बुरे नहीं हैं। बेहतर है। लेकिन धर्म कहता हैयह पर्याप्त नहीं है। जरूरी हैपर्याप्त नहीं है। अच्छे हैंबहुत अच्छा है। लेकिन अच्छे पर ही रुक गएतो धोखे में हैं। अच्छे से भी पार जाना होगा।
शुद्ध बुद्धि का अर्थ हैजहां न वासना रहीन विचार रहाजहां दोनों खो गए। तब सिर्फ शुद्ध चेतना रह जाती है।
तो एक शर्त तो कृष्ण ने कही कि शुद्ध बुद्धि हो और दूसरी बात कही कि निष्काम प्रेमी हो। प्रेम भी उसका निष्काम हो।
बुद्धि अशुद्ध होती है विचार सेप्रेम अशुद्ध हो जाता है वासना सेकामना से। ऐसा समझें कि बुद्धि से अर्थ है आपके चिंतन की क्षमता काऔर प्रेम से अर्थ है आपके हृदय के अनुभव की क्षमता का। आपका मस्तिष्क अशुद्ध होता है विचार से,और आपका हृदय अशुद्ध होता है कामना सेवासना से। और जब तक हृदय और बुद्धि दोनों शुद्ध न होंतब तक भक्त का जन्म नहीं होता। तब तक भक्त का जन्म नहीं होता।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भक्त को आप ऐसा मत समझना कि वह सरल बात है। ऐसा लोग अक्सर समझाते हुए सुने जाते हैं कि भक्ति बड़ी सरल चीज हैज्ञान तो बड़ा कठिन है।
लेकिन ध्यान रहेज्ञान की एक ही शर्त है कि बुद्धि शुद्ध हो। और भक्ति की शर्त दोहरी हैकि बुद्धि शुद्ध हो और हृदय निष्काम हो। इसलिए जो आपको समझाते हैं कि भक्ति सरल हैमैं नहीं समझ पाता कि वे कैसे समझाते हैंक्योंकि बुद्धि तो शुद्ध हो हीजितनी ज्ञान मांग करता हैउतनी तो माग भक्ति करती ही हैउससे थोड़ी ज्यादा मांग भी करती है। हृदय भीप्रेम की क्षमता भी वासनारहित हो।
तो भक्त सरल मामला नहीं है। लेकिन सरल इसलिए दिखाई पड़ने लगा कि भक्ति से हमने जो कुछ जोड़ रखा हैवह सब ऐसा बचकाना हैऐसा चाइल्डिशजुवेनाइल हैकि लगता है कि सरल है! एक आदमी माला फेर रहा हैतो हम सोचते हैं,भक्त हो गया। एक आदमी जाकर मंदिर की घंटी बजा लेता हैहम सोचते हैंभक्त हो गया। एक आदमी दीया भगवान के सामने घुमा लेता हैतो हम सोचते हैंभक्त हो गया।
अगर भक्ति इतनी ही हैतो मैं आपसे कहता हूंभक्ति से फिर आप कभी पहुंच ही न सकेंगे। इतना सस्ता यह रास्ता नहीं हो सकता। भक्ति अति जटिल हैअति कठिन है।
इसलिए दुनिया में अगर हम ठीक से खोजने जाएंतो ज्ञानी जितनी बड़ी मात्रा में हुए हैंउतनी बड़ी मात्रा में भक्त नहीं हुए हैं। यह सुनकर आपको हैरानी होगी। इसलिए ज्ञानियों के जगत में जो नाम हैं ऊंचाई परउतनी ऊंचाई पर भक्तों के नाम आप खोजकर न बता सकेंगे। बुद्ध हैंकि महावीर हैंकि शंकर हैंकि याज्ञवल्ल हैंइनकी कोटि मेंइस ज्वलंत कोटि में भक्तों को रखना मुश्किल पड़ जाएगा। और उसका कारण यह है कि भक्त होना दुरूह हैकठिन है। दोहरी शर्त है वहां।
और बुद्धि को शुद्ध कर लेना आसान भी हैहृदय को शुद्ध करना और भी जटिल हैक्योंकि बुद्धि ऊपर हैहृदय गहरे में है। और बुद्धि तो मैनिपुलेट की जा सकती हैहाथ से उसमें कुछ किया जा सकता है। लेकिन हृदय तो इतना अपना मालूम पड़ता है कि उसमें दूरी ही नहीं होती हैउसमें कुछ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसे ऐसा समझें। अगर मैं आपसे कहूं कि फला व्यक्ति को आप कोशिश करें प्रेम करने कीतब आपको पता चलेगा कि कितना कठिन मामला है! कैसे कोशिश करेंगे प्रेम करने कीक्या कभी भी कोई कोशिश से प्रेम कर पाया हैकौन कर पाया है कोशिश से प्रेम कभीजितनी कोशिश करेंगेउतना ही पाएंगेप्रेम मुश्किल हुआ चला जाता है!
आपसे बुद्धि का कोई भी सवाल हल करवाना होकोशिश से हल हो सकता है। कोई भी विचार कितना ही जटिल हो,कोशिश से हल हो सकता है। किसी भी विचार को समझने में कितनी ही अड़चन होकोशिश से हल हो सकती है। प्रेम कोशिश से हल नहीं होताप्रयत्न बिलकुल ही व्यर्थ है।
इसलिए प्रेमी को हम अंधा कहते हैं। इसीलिए कहते हैं कि है तो हैनहीं है तो नहीं है। और कोई उपाय नहीं है। प्रेम है तो हैऔर नहीं है तो नहीं हैउपाय नहीं है। इसलिए प्रेमी एकदम असहाय मालूम पड़ता हैकिसी विराट शक्ति के हाथों में पड़ गयाअपना कोई वश नहीं चलता मालूम पड़ता। खिंचा चला जा रहा है। भागा चला जा रहा है। खुद का नियंत्रण नहीं मालूम पड़ता। इसलिए भक्त होना दुरूह बात है। पर अगर बुद्धि शुद्ध हो और प्रेम निष्काम होतो वह महान घटना भी घटती है और भक्ति का फूल भी खिलता है। खिलता हैकभी किसी चैतन्य मेंकभी किसी मीरा में खिलता है। लेकिन बहुत रेयर फ्लावरिंग हैबहुत कठिनाई की बात है।
इसलिए मैं कहता हूं कि बुद्ध होना या महावीर होना कितना ही कठिन होफिर भी बहुत कठिन नहीं है। एक ही शर्त है कि बुद्धि पूरी शुद्ध हो जाए। लेकिन मीरा का होना थोड़ा अनूठा हैचैतन्य का होना थोड़ा अनूठा है। इस अनूठे में एक तत्व और जुड़ता हैएक दिशा और जुड़ती हैकि हृदय भी निष्काम हो।
इसलिए बुद्ध शांत होंगेशांति उनमें गहरी होगीनिर्विकार होंगेशुद्ध होंगेलेकिन एक अर्थ में निगेटिवनकारात्मक मालूम पड़ेंगे। यह तो हम कह सकते हैंउनकी अशांति मिट गईयह भी हम कह सकते हैंउनका दुख मिट गयायह भी हम कह सकते हैं कि उनकी सब पीड़ासंताप खो गयायह भी कह सकते हैंचिंता अब न बचीलेकिन यह सब नकार है। क्याक्या नहीं रहावह हम कह सकते हैंलेकिन यह बताना मुश्किल है कि क्या हुआ!
मीरा में हमें सिर्फ यही नहीं दिखाई पड़ता है कि उसकी अशांति मिट गईचिंता मिट गईसंताप मिट गयादुख मिट गयासाथ में उसमें नाचता हुआ आनंद भी दिखाई पड़ता हैविधायकपाजिटिव। क्या हुआ हैवह भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। क्या खो गया हैवह तो दिखाई ही पड़ता हैलेकिन क्या हुआ हैक्या मिल गया हैउसकी भी प्रत्यक्ष झलक मालूम होती है।
बुद्ध को जो भी हुआ हैवह भीतर हैवह बाहर नहीं आ पाता। क्योंकि हृदय के बिना कोई भी चीज बाहर नहीं आ सकती। हृदय अभिव्यक्ति का द्वार है। बुद्ध को जो हुआ हैवह भीतर हुआ हैजो नहीं हो गया हैवह बाहर गिरा है। हमने देखा है उनको पहले अशांतअब अशांति गिर गई है। हमने देखा है पहले उन्हें चिंतितअब चिंता नहीं है। हमने देखा है उन्हें पहलेउनके माथे पर सलवटेंदुख कीपीड़ा कीसंताप की। वे खो गई हैं। लेकिन यह सब निषेध है। उनके भीतर क्या हुआ है,यह वे ही जानें।
लेकिन मीरा का नृत्य बाहर भी फूट रहा है। बाहर भी बह रही है यह धारा। जो भीतर हुआ हैवह बाहर भी तोड़कर आ रहा है। उसकी तरंगें दूर तक जा रही हैं। निश्चित हीकुछ और भी बात हुई है। वहदूसरी शर्त पूरी होतब होती है।
हम सोच भी नहीं सकते बुद्ध को नाचता हुआ। जब बुद्धि पूरी तरह शुद्ध हो जाती हैतो जो अनुभूति होती हैवह आंतरिक हैअत्यंत आंतरिक हैउसको बाहर तक ले जाने का द्वार नहीं है। और जब हृदय भी कामना से मुक्त हो जाता हैतो वह द्वार भी खुल जाता हैजो बाहर ले जाता है।
इसे आप ऐसा समझें कि जब तक आपके पास हृदय नहीं होता हैतब तक आप दूसरे से संबंधित हो ही नहीं सकते। सब संबंध हार्दिक हैं। जितना बड़ा हृदय होता हैउतना संबंधों का विस्तार होता है। असल में हृदय के द्वारा ही हम दूसरे को सवांदित कर पाते हैं। दूसरे से जो हम जुड़ते हैंकम्मुनिकेट होते हैंवह हृदय के द्वारा होते हैं।
मीरा जब नाचती हैतो जो बुद्ध नहीं कह पातेवह उसके घूंघर की झनकार से कहा जाता है। और जब चैतन्य कीर्तन में डूब जाते हैंतो जो बुद्ध नहीं बता पातेचेष्टा करते हैंसमझाते हैं पूरे जीवनफिर भी पाते हैं कि असमर्थता है कोईचैतन्य असमर्थ नहीं मालूम पड़ते। आंसू से भी कह देते हैं। नाचकर भी कह देते हैं। दौड़कर भी कह देते हैं। अभिव्यक्ति चैतन्य को सरल मालूम पड़ती है। लेकिन भक्ति के साथ एक वहम जुड़ गयाइसलिए कठिनाई हो गई। हमने भक्ति को बहुत सस्ती समझा। और समझा कि ज्ञान तो सबके वश की बात नहीं हैभक्ति सबके वश की बात है। इससे भांति हो गई। मैं आपसे कहता हूं ज्ञान थोडे ज्यादा लोगों के वश की बात हैभक्ति थोड़े कम लोगों के वश की बात है। क्योंकि अच्छी बुद्धि पा लेना बहुत कठिन नहीं हैअच्छा हृदय पाना बहुत कठिन है। और बुद्धि की शिक्षा के तो बहुत उपाय हैं जगत मेंहृदय की शिक्षा का अब तक कोई उपाय नहीं है।
बुद्धि के लिए विश्वविद्यालय हैंशिक्षक हैंशिक्षापर्द्धातेया हैं। हृदय के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं हैकोई शिक्षक नहीं हैकोई शिक्षापद्धति नहीं है। हृदय अब तक अछूता पड़ा है। हृदय अब तक एक अंधेरा महाद्वीप हैजिसमें कभीकभी कोई उतरता है।
लेकिन अगर यह दूसरी शर्त पूरी हो सके कि प्रेम होऔर कामनारहित हो। बड़ी कठिन शर्त है। बड़ी कठिन शर्त है। कठिन शर्त ऐसी हैजैसे मैं आपसे कहूंनदी से तो गुजरेंलेकिन पानी में पैर न छुएआग से तो गुजर जाएंलेकिन जलन जरा भी न हो। आप कहेंगेबिना आग से गुजरे जलन नहीं होतीतो मैं बिना आग से गुजर जाऊंजलन नहीं होगी। लेकिन शर्त यह हैआग से गुजरें और जलन न हो।
ध्यान रहेकोई अगर चाहे तो प्रेम को छोड़ देतो वासना छूट जाती है। यह कठिनाई है। अगर आग में न जाएंतो जलने का कोई सवाल नहीं है। अगर पानी में न जाएंतो भीगने का कोई सवाल नहीं है। बहुत लोग हैंजो प्रेम से इसीलिए भयभीत हो जाते हैं कि प्रेम में गएतो जलेभीगेप्रेम में गएतो वासना रहेगी ही।
इसलिए जो ज्ञान की दिशा में चलने वाले लोग रहेउन्होंने कहाप्रेम से सावधान रहना। प्रेम में पड़ना ही मत। सावधान करने का कारण इतना ही था कि आशा बहुत कम है कि प्रेम में पड़े और वासना में न पड़ जाएं। प्रेम और वासना के बीच इतना गहरा संबंध है कि प्रेम में गएतो वासना में चले ही जाएंगे। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि वासना से तो बचना जरूरी है। प्रेम से बच जानातो वासना से बच जाओगे।
भक्त की शर्त बड़ी कठिन है। कृष्ण कहते हैंप्रेम में तो जानावासना से बच जानाआग में चलनाजलना मतपानी में उतरनाभीगना मत।
इसलिए मैं कहता हूंभक्ति थोड़ी कठिन बात है। लेकिन बड़ी क्रांति भी है।
अब इसे हम थोड़ा समझें कि प्रेम अनिवार्य रूप से वासना क्यों बन जाता हैक्या यह अनिवार्यता प्रेम में है कि प्रेम वासना बनेगा ख?
अगर ऐसा अनिवार्य होतो फिर कृष्ण यह शर्त नहीं लगाएंगे। यह अनिवार्यता प्रेम में नहीं है। यह अनिवार्यता कहीं मनुष्य की बुनियादी समझ की भूल का हिस्सा है।
असल में जब भी हम प्रेम करते हैंतो वासना के कारण ही करते हैं। वासना पहले आ जाती हैप्रेम पीछे आता है। वासना पहले हमारे द्वार को खटखटा जाती है और तब प्रेम प्रवेश करता है। हमने जो भी प्रेम जाना हैवह वासना के पीछे जाना है। हमने जो भी प्रेम जाना हैवह वासना की छाया की तरह जाना है। इसलिए हमारे प्रेम के अनुभव में वासना छा गई है। और हमने जन्मोंजन्मों तक जब भी प्रेम जाना हैवासना के पीछे जाना है। हमारा प्रेम जो हैवह हमारी कामवासना की छाया से ज्यादा नहीं है। इसलिए हमें डर लगता है कि जब भी हम प्रेम में पड़ेंगेतो कामवासना पीछे आ जाएगी।
एक और भी प्रेम हैजो वासना की छाया की तरह नहीं जाना जातावरन एक अंतर्निहित दशा की तरह जाना जाता है।
इसे थोड़ा समझ लें।
जब भी मैं कहता हूं प्रेमतो मेरा मतलब होता है किसी से। और जब भी मैं कहता हूं शानतो मतलब होता है मुझमें। और जब भी मैं कहता हूं प्रेमतब तीर किसी और की तरफ झुक जाता हैइशारा किसी और की तरफ हो जाता है। जब भी मैं कहता हूं शानतो दूसरे की तरफ तीर नहीं जाताशान होता है मेरा। तो जब भी मैं कहता हूं प्रेमतब दूसरा भीतर प्रवेश कर गयाप्रेम शब्द कहते ही मैं अकेला नहीं रह जातादूसरा आ जाता है।
इसका मतलब हुआ कि हमारा समस्त प्रेम का अनुभव किसी आंतरिक अवस्था का अनुभव नहीं हैकेवल व्यक्तियों के बीच जो वासना के संबंध हैंउनका ही अनुभव है। इसी वजह से प्रेम शब्द का उपयोग करते ही. अगर मैं अपने कमरे में अकेला बैठा हूं और आप आएंऔर मैं कहूं कि मैं ज्ञान में थातो आप कमरे में चारों तरफ नहीं देखेंगे कि कोई मौजूद है या नहीं! अगर मैं कहूंमैं बड़े प्रेम में थातो आप चारों तरफ कमरे के देखेंगे कि कोई मौजूद है! आप अकेले प्रेम में थे! तो फिर शायद सोचेंगेआंख बंद करके कोई कल्पना कर रहे होंगे। लेकिन दूसरा जरूरी मालूम पड़ता हैचाहे कल्पना में ही सही।
जिस प्रेम की कृष्ण बात कर रहे हैंवह ज्ञान की तरह ही बात हैध्यान की तरह ही बात है। दूसरे से उसका संबंध नहीं हैस्वयं का ही आविर्भाव है। इसे आप ऐसा समझें कि जैसे ध्यान की साधना होती हैऐसे ही प्रेम की साधना होती है।
बैठे हैं कमरे मेंप्रेम अनुभव करेंअपने चारों तरफ प्रेम फैलता हुआ अनुभव करेंभीतर प्रेम भरा हुआ अनुभव करें। लोकलोकातर तक आपका प्रेम फैल जाएलेकिन दूसरे की अपेक्षा को मौजूद न करें। एक घंटा रोज दूसरे की अपेक्षा को बीच में न लाएं।
प्रेम दूसरे से संबंध नहींवरन मेरे भीतर एक घटना हैजो चारों तरफ फैलती चली जाती हैजैसे दीए से प्रकाश फैलता है। ऐसा बैठ जाएं घंटेभर। और मुझसे प्रेम फैल रहा है चारों तरफ। कमरे की दीवालों को पार करके नगर की दीवालों में भर गया है। और नगर की दीवालों को पार करके राष्ट्रऔर राष्ट्र की दीवालों को पार करके पूरी पृथ्वी को उसने घेर लिया है। और दूर चादतारों तक फैलता जा रहा है। सारा आकाश मेरे प्रेम से भर गया है।
इसको अगर एक घंटा रोज आप फिक्र करते रहेंतो धीरेधीरेधीरेधीरेप्रेम दूसरे से संबंध हैयह आपकी धारणा टूट जाएगी। और एक घड़ी आपके भीतर आ जाएगीजब आपको लगेगाप्रेम मेरी अंतरदशा है। तब आप प्रेम करेंगे नहींप्रेम हो जाएंगे। तब प्रेम करने के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं होगी। दूसरा हो या न होआप प्रेम में रहेंगे ही। तब आप चलेंगेतो आपका प्रेम आपके साथ चलेगाउठेंगेतो आपका प्रेम आपके साथ उठेगाबैठेंगेतो आपका प्रेम आपके साथ आएगा।
कभीकभी किसी व्यक्ति के पास जाकर आपको अचानक लगता है कि इस व्यक्ति को न आप जानतेन आप पहचानते;न इसका कुछ बुरा जाना हैन इसके किसी दुराचरण की खबर है। लेकिन पास जाकर अचानक आपको लगता है रिपल्शन,विकर्षणहट जाओदूर हट जाओ। किसी व्यक्ति के पास जाकर अचानकअजनबी के पासलगता है कि गले मिल जाओ। न उसे जानान उसे पहचानान कोई संबंध है! आकर्षण।
जिस व्यक्ति के पास आपको जाकर लगता है कि कोई आकर्षणकोई मैग्नेटिज्म खींच रहा हैसमझना कि उस व्यक्ति के पास प्रेम की एक क्षमताएक मात्रा है। छोटी ही हैलेकिन एक मात्रा है। जिस व्यक्ति के पास आपको विकर्षण मालूम होता हैहट जाओकोई शक्ति जैसे दूर हटाती हैबीच में कोई शक्ति खड़ी हो जाती है और पास नहीं आने देतीतो समझना कि उस व्यक्ति के पास प्रेम का बिलकुल अभाव हैजो खींच सकता हैउसका बिलकुल अभाव है। तो आप धकाए जा रहे हैं। और यह भी हो सकता है अभ्यास से कि प्रेम का अभाव तो हो हीसाथ में घृणा। का आविर्भाव हो गया होघृणा एक स्थिति बन गई होएक दशा। बन गई हो।
अभी तो वैज्ञानिकों ने चित्त की इस दशा को नापने के लिए यंत्र भी निर्मित किए हैं। यह जानकर आप चकित होंगे। और अब तो ऐसे यंत्र हैंजिनके सामने खड़े होकर हम कह सकते हैं कि यह व्यक्ति खींचता है लोगों को कि हटाता है। क्योंकि वह जो भीतर प्रेम की ऊर्जा हैमैग्नेटिक है। अगर प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति उस यंत्र के सामने खड़ा होगातो यंत्र का कांटा खबर देता है कि यह आदमी लोगों को अपनी तरफ खींच लेता है। अगर यह आदमी घृणा से भरा होतो कोटा उलटा घूमता है और खबर देता है कि इस आदमी से जो ऊर्जा निकल रही हैवह लोगों को धकाती है और हटाती है।
अब तो इसे मापा भी जा सकता है। लेकिन धर्म सदा से जानता रहा है कि प्रेम संबंध नहीं हैअंतरऊर्जा हैइनर एनर्जी है।
जब मैं कहता हूं प्रेम शक्ति हैएनर्जी हैऊर्जा हैतब उसका अर्थ यह हुआ कि दूसरे से उसका संबंध करने से वह ऊर्जा वासनाग्रस्त हो जाती है। दूसरे से संबंधित बनाने सेदूसरे से बांध लेने से अशुद्ध हो जाती है। दूसरे से बांध लेने से विकृत हो जाती हैकुरूप हो जाती है।
निष्काम प्रेम का अर्थ हैप्रेम की ऊर्जा हो और किसी से बंधी न होकिसी कामना के लिए न हो।
तो कृष्ण कहते हैंबुद्धि हो शुद्धविचार का कंपन न होहृदय हो प्रेम से भरावासना की जरासी भी झलक न होतो भक्त का जन्म होता है।
और ऐसा भक्त ही अपना सब कुछ परमात्मा के चरणों में छोड़ पाता हैअपना कर्तापन छोड़ पाता है।
अब इस सूत्र को हम पूरा देख लें।
हे अर्जुन! मेरे पूजन में पत्रपुष्पफलजल इत्यादि जो कुछ भी कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता हैउस शुद्ध बुद्धिनिष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्रपुष्पफल आदि मैं ही ग्रहण करता हूं।
ऊपर से देखने में तो बहुत सीधा लगेगा। पत्रपुष्पफलजलहम सब जानते हैंहम सबने चढ़ाया है। जल चढ़ाया है,फूल चढ़ाया हैपत्ते चढ़ाए हैंहम सबको पता है। लेकिन कृष्ण जैसे लोग इस तरह की क्षुद्र बातें करते नहीं हैं। क्या मतलब है पत्रपुष्पफल चढ़ाने का?
एक मतलब आपको पता हैवह मतलब च्छईं है। जो मतलब आपको पता नहीं हैवही मतलब है। वह मैं आपसे कहता हूं।
पत्रपुष्पफल व्यक्तित्व के खिलावट की तीन अवस्थाएं हैं। क्या कहते हैं कि तू जैसा भी हैअगर अभी सिर्फ पत्ता ही हैअभी फूल तक नहीं पहुंचातो भी कोई फिक्र नहींपत्ते को ही चढ़ा दे। अगर तू पत्ते से आगे निकल गया है और फूल बन गया हैतो फल की फिक्र मत कर कि जब फल बनूंगातब परमात्मा को चढूंगा। फूल ही चढ़ा दे। अगर तू फल हो चुका हैतो फल ही चढ़ा दे। लेकिन तब शायद उन्हें खयाल आया होगा कि ऐसे लोग भी तो हैंजो अभी पत्ते भी नहीं हैंअभी पानी ही हैं। तो उन्होंने कहाअगर तू अभी जल ही है.।
जल जो हैबिलकुल प्राथमिक है। उससे नीचे फिर और कुछ नहीं हो सकता। जल ही बनता है पत्ता। फिर बढ़ता हैतो पत्ता बन जाता है फूल। फिर बढ़ता हैतो फूल बन जाता है फल।
तो कृष्ण ने कहा कि तू हो चाहे पत्ताचाहे फूलचाहे फलतू जो भी होचढ़ा देतू जो भी होवैसा ही चढ़ जा।
हममें से बहुत लोग कहते हैंये सब हमारी बेईमानी के हिस्से हैंहममें से बहुत लोग कहते हैं कि अभी तो कुछ है ही नहीं मेरे पासतो अभी परमात्मा को चढ़ाऊं भी क्या?
कभी भी नहीं होगा आपके पास जिस दिन आप अनुभव कर सकें कि परमात्मा को चढ़ाने योग्य कुछ मेरे पास है। आप पोस्टपोन करते जा सकते हैं।
ये तीन अवस्थाएं हैंया चार। जल की अवस्था का अर्थ है कि आप में किसी तरह का विकास नहीं हुआ है। लेकिन कृष्ण कहते हैंउसे भी मैं स्वीकार कर लूंगा। मैं तोजो भी चढ़ाया जाता हैउसे स्वीकार कर लेता हूं। सवाल यह नहीं है कि क्या चढ़ायासवाल यह है कि चढ़ायाअर्पित किया। अगर तू पत्ता हैतो पत्ते की तरह आ जाअगर फूल हो गया हैतो फूल की तरह आ जाअगर फल हो गया हैतो फल की तरह आ जा। जिस भी अवस्था में हो।
ये चार अवस्थाएं हैं चेतना की। पानी उस अवस्था को कहेंगेजल उस अवस्था को कहेंगेजिसमें चेतना आपकी बिलकुल ही प्रिमिटिव हैबिलकुल प्राथमिक है। पत्र उस अवस्था को कहेंगेजिसमें आपकी चेतना ने थोड़ा विकास कियारूप लिया,आकार

 लिया। फूल उस चेतना को कहेंगेजिसमें आपकी चेतना ने न केवल रूपआकार लियाबल्कि सौंदर्य को उपलब्ध हुई। फल उस अवस्था को कहेंगेजिसमें आपकी चेतना सौंदर्य को ही उपलब्ध नहीं हुईऔर चेतनाओं को जन्म देने की सामर्थ्य को भी उपलब्ध हुईपक गई।
नीत्शे ने कहा हैराइपननेस इज आलपक जाना सब कुछ है।
लेकिन कृष्ण नहीं कहेंगे यह। कृष्ण कहेंगेपक जाना सब कुछ नहीं हैचढ़ जाना सब कुछ है।
नीत्शे ठीक कहता हैक्योंकि नीत्शे की दृष्टि में कोई ईश्वर नहीं है। तो नीत्शे कहता हैआदमी पक जाएपूरा पक जाए। उसकी बुद्धिउसकी प्रतिभाउसका व्यक्तित्व एक पका हुआ फल हो जाएतो सब है। राइपननेस इज आल। बात पूरी हो गई। सुपरमैन पैदा हो गया। महामानव पैदा हो गया। पक गया मनुष्य।
कृष्ण नहीं कहेंगे कि राइपननेस इज आल। वे कहेंगेसरेंडर इज आलपक जाना नहींसमर्पित हो जाना। और तब वे यह कहते हैं कि समर्पित होने के लिए फल के तक रुकने की भी कोई जरूरत नहीं है। फल ही चढ़ेगाऐसा नहींपत्ता भी चढ़ जाएगापानी भी चढ़ जाएगाफूल भी चढ़ जाएगा। जो जहां हैवहीं से अपने को अर्पित कर देकल की प्रतीक्षा न करेकल के लिए बात को टाले नस्थगित न करे। यह तो अर्थ है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जो पत्तेफूल चढ़ा आते हैंवह बंद कर देना। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जब फूल चढ़ाएतब याद रखना कि इस फूल के चढ़ाने से संकेत भर मिलता हैहल नहीं होता। जब पता चढ़ाएऔर जब पानी ढालें परमात्मा के चरणों मेंजरूर ढालते चले जानालेकिन याद रखनायह पानी ढालना केवल प्रतीक हैसिंबल है। ध्यान रखना कि कब तक इस पानी को ढालते रहेंगेएक दिन अपने पानी को ढालने की तैयारी करनी हैएक दिन अपना फूल चढ़ा देना हैएक दिन अपना फल समर्पित कर देना हैं।
उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ सब कुछ मैं ही ग्रहण करता हूं!
यह तो हम देखते हैं कि फल हम चढ़ा आते हैंपुजारी ग्रहण करता है। पक्की तरह पता है। यह भी हम देखते हैं कि फूल हम चढ़ा आते हैंवे फिर बाजार में बिक जाते हैं।
एक मंदिर की दुकान को मैं जानता हूं क्योंकि दुकानदार मेरे परिचित हैं। उन्होंने मंदिर नया बना थातब वह दुकान खोली थी। कोई पंद्रह वर्ष पहले। तब उन्होंने पहली बार जो नारियल खरीदे थेवह दुकान उनसे ही चल रही है। क्योंकि वे नारियल रोज चढ़ जाते हैंरात दुकान में वापस लौट आते हैं। फिर दूसरे दिन बिक जाते हैंफिर चढ़ जाते हैंरात फिर वापस लौट आते हैं! उन्होंने दुबारा नारियल नहीं खरीदेक्योंकि पुजारी रात बेच जाता है। नारियल के सारी दुनिया में दाम बढ़ गए,उनकी दुकान पर अभी तक नहीं बढ़े। सस्ते से सस्ते में वे देते हैं। नारियल के भीतर अब कुछ बचा भी नहीं होगा!
हमें पता है कि फूल हम चढ़ा आएंगेतो वह उसको नहीं मिल सकता। जब तक कि चेतना का फूल न चढ़ाया जाएतब तक परमात्मा का भोजन नहीं हो सकता। जब तक हम स्वयं को ही न चढ़ा देंतब तक हम उसके हिस्से नहीं बनते।
कृष्ण कहते हैं कि मैं उस सबको ग्रहण कर लेता हूं सबकोजो भी मुझे चढ़ाया जाता हैवह सब मेरा ही अंग हो जाता है।
इसलिए हे अर्जुनतू जो कुछ कर्म करता हैजो कुछ खाता हैजो कुछ हवन करता हैदान देता हैजो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप करता हैवह सब मुझे अर्पण कर। इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण करने रूप संन्यासयोग से युक्त हुए मन वाला तू शुभअशुभ फल रूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगाऔर उससे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होगा।
इस सूत्र में अंतिम दोतीन बातें और खयाल ले लेने जैसी हैं। जो व्यक्ति अपना सब समर्पित कर देगाअपने को पीछे बचाए बिनाविद नो विदहोल्डिगपीछे अपने को जरा भी बचाए बिना जो अपने को अशेष भाव सेसब कुछपूरा का पूरा,समग्रीभूत रूप से समर्पित कर देगावह परमात्मा का हिस्सा हो जाता है। हिस्सा कहना भी ठीक नहींभाषा की भूल हैवह परमात्मा ही हो जाता है। क्योंकि परमात्मा में कोई हिस्से नहीं होतेकोई विभाग नहीं होता।
जब एक नदी सागर में गिरती हैतो सागर का हिस्सा नहीं हो जातीसागर हो जाती है। सागर का हिस्सा तो हम तब कहेंजब कि उसका कोई अलगथलग रूप बना रहे। खोजने जाएं और मिल जाएकि यह रही गंगा। सागर में उसकी धारा अलग बहती रहे। कहीं नहीं बचतीसागर हो जाती हैफैल जाती हैएक हो जाती है।
तो ध्यान रखनाजब कोई परमात्मा से एक होता हैतो वह उसका अंश नहीं होतापरमात्मा ही हो जाता हैपूरा सागर हो जाता हैफैल जाता हैएक हो जाता है। हम परमात्मा के हिस्से नहीं हो सकतेक्योंकि परमात्मा कोई यंत्र नहीं हैजिसके हम हिस्से हो सकें। परमात्मा सागर जैसे चैतन्य का नाम है। उसमें कोई दीवालें और विभाजन नहीं हैं। उसमें हम होते हैंतो हम पूरे ही हो जाते हैं। हम उसके साथ पूरे एक हो जाते हैं।
इसलिए कृष्ण अगर इतनी हिम्मत से अर्जुन से कह सके कि मैं ही हूं वहतो उसका कारण है। अगर इतनी हिम्मत से कह सके कि छोड़ अर्जुन तू सबऔर मुझ पर ही समर्पित हो जा! तो यह कृष्ण उस व्यक्ति के लिए नहीं कह रहे हैंजो अर्जुन के सामने खड़ा थायह उस व्यक्ति के लिए कह रहे हैं कृष्णजो उस सागर में गिरकर हो गए हैं। यह सागर की तरफ से कही गई बात है। लेकिन अब चूंकि नदी अलग नहीं बची हैइसलिए नदी सीधी बात कहती है कि मेरे साथ एक हो जा। क्योंकि नदी अब सागर हो गई है। कृष्ण इतना भी नहीं कहते कि तू परमात्मा के साथ एक हो जा। कहते हैंमेरे साथ एक हो जा।
अनेक लोगों को कृष्ण का यह वक्तव्य अहंकार से भरा हुआ मालूम पड़ता रहा हैसदियोंसदियों से। और जो लोग नहीं समझ पातेउन्हें लगता हैथोड़ी अड़चन मालूम पड़ती हैकि कृष्ण भी कैसा आदमी हैथोड़ा तो संकोच खाना था! अर्जुन से सीधे ही कहे चले जाते हैंछोड़ दे सब मुझ पर! सब धर्मवर्म को छोड़ देमेरी शरण में आ!
जरूर कृष्ण किसी और चैतन्य से बोलते हैं। यह उस नदी की आवाज हैजो सागर में गिर गई। अब नदी अगर यह भी कहे कि सागर में गिर जातो झूठ होगा। अब तो नदी यही कहती है कि मुझ सागर में मिल जा।
और अर्जुन को कठिनाई नहीं हुई इस बात से। गीता जिन्होंने भी पढ़ी हैउनको कभी न कभी कठिनाई होती है। गीता के बड़े भक्त हैंउनको भी भीतर थोड़ासा खयाल आता है कि बात क्या हैकृष्ण को ऐसा नहीं कहना थाकोई और तरकीब से कह देते। यह सीधा क्या कहने की बात थीक्या कृष्ण को भी अहंकार हैवह क्यों बारबार इस मैं शब्द का उपयोग करते हैं?अर्जुन को तो कहते हैंतू सब छोड़! और खुद अपना मैं जरा भी नहीं छोड़ते हैं! संदेह उठता ही रहा है। लेकिन अर्जुन के मन में जरा भी नहीं उठा। अर्जुन ने बहुत सवाल पूछेयह सवाल जरा भी नहीं पूछा कि यह क्या बात हैमेरे मित्र होमेरे सखा हो,फिलहाल तो मेरे सारथी होड्राइवर होथोड़ा तो खयाल करो कि मैं तुमसे ऊपर बैठा हूं तुम मुझसे नीचे बैठे होकेवल मेरे रथ को सम्हालने के लिए तुम्हें ले आया हूं और तुम कहे जाते हो कि सब छोड़ और मेरी शरण आ!
जब कृष्ण ने कहा होगामेरी शरण आतो अर्जुन भी उनकी आंखों में उस सागर को देख सका होगा। नदी उसे भी दिखाई पड़तीतो वह भी पूछ लेता। उसे नदी नहीं दिखाई पड़ी होगी।
लेकिन यह बड़ा आत्मीय संबंध था। एक शिष्य और एक गुरु के बीच थादो मित्रों के बीच अगर भीड़भाड़ वहां भी खड़ी होतीतो जरूर भीड़ मैं से कोई चिल्लाता कि बंद करो! यह क्या कह रहे होअपने ही मुंह से कह रहे हो कि मेरी शरण आ! मैं भगवान हूं!
बड़ा आत्मीय नैकटघ का वास्ता था। यह अर्जुन और कृष्ण के बीच निजी संबंध की बात थी। अर्जुन समझा होगा। देखी होगी उसने आंखकि भीतर कोई मैं नहीं है। मैं सिर्फ भाषा का प्रयोग है।
सब छोड़ देतो मेरे साथ एक हो जाएगा। और इसे ही वे कहते हैंइस अर्पण को ही वे कहते हैं संन्यास। इतनी हिम्मत की परिभाषा संन्यास की किसी और ने नहीं की है।
अर्जुन संसारी है पक्का। इससे पक्का और संसारी क्या होता हैसंसार में भेज रहे हैं उसे युद्ध मेंऔर कहते हैं कि इसे मैं कहता हूं संन्यास से युक्त हो जाना! तू युद्ध में जा और कर्ता को मेरी तरफ छोड़ दे। लड़ तू और जान कि मैं लड़ रहा हूं। तलवार तेरे हाथ में होलेकिन जानना कि मेरे हाथ में है। गर्दन तू काटेलेकिन जानना कि मैंने काटी है। और गर्दन तेरी कट जाए तो भी जानना कि मैंने काटी है। कर्म और कर्तृत्व को सब मुझ पर छोड़ देनातो तू संन्यास से युक्त हुआ।
अर्जुन संन्यासी होना चाहता थालेकिन पुराने ढब का संन्यासी होना चाहता था। वह भी संन्यासी होना चाहता था। वह यही कह रहा था कि बचाओ मुझे। और बड़े गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे कोई ढंग का आदमी चुनना चाहिए था। जो कहता कि बिलकुल ठीक! यही तो ज्ञान का लक्षण है। छोड़! सब त्याग कर! चल जंगल की तरफ!
गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे पूछने के पहले ही सोचना था कि यह आदमी जो परम ज्ञानी होकर बांसुरी बजा सकता है,इससे जरा सोचकर बोलना चाहिए! पूछ बैठा। लेकिन शायद वहा कोई और मौजूद नहीं थाऔर कोई उपाय नहीं थापूछ बैठा। सोचा उसने भी होगा कि कृष्ण भी कहेंगे कि ठीक है। यह संसार सब मायामोह हैछोड़कर तू जा! कैसा युद्धक्या सार है?कुछ मिलेगा नहीं। और सीधीसी बात है कि हिंसा में पड़ने से तो पाप ही होगा। तू हट जा।
इसी आशा में उसने बड़ी सहजता से पूछा था। लेकिन कृष्ण ने उसे कुछ और ही संन्यास की बात कहीएक अनूठे संन्यास की बात कहीशायद पृथ्वी पर पहली दफा वैसे संन्यास की बात कही। उसके पहले भी वैसे संन्यासी हुए हैंलेकिन इतनी प्रकट बात नहीं हुई थी। कहा कि तू सब कर्म करसिर्फ कर्ता को छोड़ देतो तू संन्यास से युक्त हो गया। फिर तुझे कहीं किसी वनउपवन में जाने की जरूरत नहीं। किसी हिमालय की तलाश नहीं करनी है। तू यहीं युद्ध में खड़ेखड़े संन्यासी हो जाता है।
पहली दफा आंतरिक रूपांतरण का इतना गहरा भरोसा! बाहर से कुछ बदलने की चिंता मत करबाहर तू जो हैवही रहा आ। भीतर से तू बदल जा। भीतर की बदलाहट एक ही बदलाहट है!
भीतर का केंद्र या तो अहंकार हो सकता हैया परमात्मा। बसदो ही केंद्र हो सकते हैं। भीतर दो तरह के केंद्र संभव हैं,या तो परमात्मा केंद्र हो सकता हैया मैंअहंकारकेंद्र हो सकता है। और जिनका भी परमात्मा केंद्र नहीं होतावे भी बिना केंद्र के तो काम नहीं कर सकतेइसलिए अहंकार को केंद्र बनाकर चलना पड़ता है।
अहंकार जो है. सूडो सेंटर हैझूठा केंद्र है। असली केंद्र नहीं हैतो उससे काम चलाना पड़ता है। वह सकीटघूट सेंटर है,परिपूरक केंद्र है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा को केंद्र बना लेता हैइस परिपूरक की कोई जरूरत नहीं रह जातीयह विदा हो जाता है।
इसलिए कृष्ण का जोर है कि तू सारे कर्ता के भाव को मुझ पर छोड़ दे। और जो ऐसा कर पाता हैवह समस्त कर्मफल से मुक्त हो जाता हैशुभ और अशुभ दोनों से। उसने जो बुरे कर्म किए हैंउनसे तो मुक्त हो ही जाता हैउसने जो अच्छे कर्म किए हैंउनसे भी मुक्त हो जाता है।
बुरे कर्म से तो हम भी मुक्त होना चाहेंगेलेकिन अच्छे कर्म से मुक्त होने में जरा हमें कष्ट मालूम पड़ेगा। कि मैंने जो मंदिर बनाया थाऔर मैंने इतने रोगियों को दवा दिलवाई थीऔर अकाल में मैंने इतने पैसे भेजे थेउनसे भी मुक्त कर देंगे?वह तो मेरी कुल संपदा है!
बुरे से छोड़ दें! मैंने चोरी की थीबेईमानी की थी। क्योंकि बेईमानी न करतातो अकाल में पैसे कैसे भिजवा पाताऔर अगर चोरी न करतातो यह मंदिर कैसे बनतातो चोरी की थीबेईमानी की थीकालाबाजारी की थीउनसे मेरा छुटकारा करवा दो! लेकिन कालाबाजारी करके जो मंदिर बनाया थाऔर अकाल में जो लोगों की सेवा की थीऔर रोटी बांटी थीऔर दवादारू भेजी थीउसको तो बचने दो!
लेकिन कृष्ण कहते हैंदोनों सेशुभ अशुभ दोनों से!
क्योंकि कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि शुभ करने में भी अशुभ हो जाता है। शुभ भी करना होतो अशुभ होता रहता है। वे संयुक्त हैं। अगर शुभ भी करना होतो अशुभ होता रहता है। अगर मैं दौड़करआप गिर पड़े होंआपको उठाने भी आऊंतो जितनी देर दौड़ता हूं उतनी देर में न मालूम कितने कीड़ेमकोड़ों की जान ले लेता हूं! न मालूम कितनी श्वास चलती हैकितने जीवाणु मर जाते हैं!
मैं कुछ भी करूं इस जगत मेंतो शुभ और अशुभ दोनों संयुक्त हैं। दोनों संयुक्त हैं। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि कालाबाजारी करके मंदिर बनाया हैऐसा नहीं। कुछ भी करिएगातो आप पाएंगे कि अशुभ भी साथ में हो रहा है। इस जगत में शुद्ध शुभ नहीं किया जा सकताशुद्ध अशुभ भी नहीं किया जा सकता। अशुभ करने भी कोई जाए तो शुभ होता रहता हैशुभ करने भी कोई जाएतो अशुभ होता रहता है। वे संयुक्त हैंवे एक ही चीज के दो छोर हैं। विभाजन मन का हैअस्तित्व में कोई विभाजन नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैंशुभअशुभ दोनों से मुक्त हो जाता है। और उनसे मुक्त हुआ मुझको ही प्राप्त होता है। क्योंकि परमात्माअर्थात मुक्ति।
इसलिए जिन्होंने मुक्ति को बहुत जोर दियाउन्होंने परमात्मा शब्द का उपयोग भी नहीं करना चाहा। महावीर ने परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं किया। क्योंकि महावीर ने कहामुक्ति पर्याप्त हैमोक्ष पर्याप्त है। मोक्ष शब्द काफी है। मुक्त हो गएसब हो गया। अब और चर्चा छेड़नी उचित नहीं है।
लेकिन महावीर के लिए मोक्ष का जो अर्थ हैवही हिंदुओं के लिए मुसलमानों के लिए ईश्वर का अर्थ है। ईश्वर का और कोई अर्थ नहीं हैपरम मुक्तिदि अल्टिमेट फ्रीडम।
क्योंकि जब तक अहंकार मौजूद हैतब तक मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अहंकार की सीमाएं हैंकमजोरिया हैं। अहंकार की सुविधाएंअसुविधाएं हैं। अहंकार कुछ कर सकता हैकुछ नहीं कर सकता। बंधन जारी रहेगा। सीमा बनी रहेगी।
सिर्फ परमात्मा ही जब मेरा केंद्र बनता हैमेरी सब सीमाएं गिर जाती हैं। उसके साथ ही मैं मुक्त हो जाता हूं। उसके साथ ही मुक्ति है। वही मुक्ति है।

आज इतना ही।
पांच मिनट बैठेंगे। जल्दी न करेंगे। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। और बीच में पांच मिनट कोई भी न उठेअन्यथा बैठे लोगों को तकलीफ होती है।

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