अध्याय—11
सूत्र: (132)
त्वमक्षरं
परमं
वेदितव्यं
त्वमस्य
विश्वस्य परं
निधानम।
त्वमध्यय:
शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्ल पुरुषो
मतो मे।।। 18।।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं
शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि
त्वां
दीप्तहुताशवक्तं
स्वतेजसा विश्वमिदं
तपन्तम्।।
19।।
द्यावायृथिव्योरिदमन्तरं
हि व्याप्त
स्वयैकेन
दिशश्च
सर्वा:।
दृष्ट्वाइभुतं
रूयमुग्रं
तवेदं
लोकत्रय प्रव्यथितं
महात्मन्।।
20।।
अमी हि
त्वां सुरसंधा
विशन्ति
केचिद्रभीता
प्राज्जत्नयो
ग्दाणन्ति।
स्वस्तीत्युक्ता
महर्षिसिद्धसंधा: स्तुवन्ति
ना खतिभि
पुष्कलाभि।। 21।।
रुद्रादित्या
वसवो ये व
साध्या
विश्वेउश्विनौ
मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा
वीक्षन्ते
त्वां विस्मिताश्चैव
सर्वे।। 22।।
इसलिए
हे भगवन— आय ही
जानने योग्य
परम अक्षर हैं
अर्थात
परब्रह्म
परमात्मा हैं
और आय ही हल
जगत के परम
आश्रय हैं तथा
आय ही अनादि
धर्म के रक्षक
हैं और आय ही
अविनाशी
सनातन पुरुष
हैं, ऐसा मेरा मत
है।
हे
परमेश्वर मैं
आपको आदि अंत
और मध्य से
रहित तथा अनंत
सामर्थ्य से युक्त
और अनंत हाथों
वाला तथा
चंद्र— सूर्य
रूप नेत्रों
वाला और
प्रज्वलित
अग्निरूप मुख
वाला तथा अपने
तेज से हम जगत
को तपायमान
करता हुआ
देखता हूं।
और
हे महात्मन्—
यह स्वर्ग और
पृथ्वी के बीच
का संपूर्ण
आकाश तथा सब
दिशाएं एक आय
से ही परिपूर्ण
हैं तथा आपके इस
अलौकिक और
भयंकर रूप को
देखकर तीनों
लोक अतिव्यथा
को प्राप्त हो
रहे हैं।
और
हे गोविंद वे
सब देवताओं के
समूह आपमें ही
प्रवेश करते
हैं और कई एक
भयभीत होकर
हाथ जोड़े हुए आपके
नाम और गुणों
का उच्चारण
करते हैं तथा
महर्षि और
सिद्धों के
समुदाय
कल्याण होवे
ऐसा कहकर उत्तम—
उत्तम
स्तोत्रों
द्वारा आपकी
स्तुति करते
हैं।
और
हे परमेश्वर
जो एकादश
रुद्र और
द्वादश आदिल
तथा आठ वसु और
साध्यगण
विश्वेदेव
तथा अश्विनी
कुमार और
मस्दगण और
पितरों का
समुदाय तथा गंधर्व
यक्ष राक्षस
और सिद्धगणों
के समुदाय हैं
वे सब ही
विस्मित हुए
आपको देखते हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आपने
कहा कि गीता
चार
व्यक्तियों
के संयोग के
कारण हमें
उपलब्ध हो सकी
है—कृष्ण, अर्जुन, संजय और
धृतराष्ट्र।
लेकिन गीता
श्रीमद्भागवत
का एक अंश है
और
श्रीमद्भागवत
को महर्षि व्यास
ने लिखा है।
इसलिए महर्षि
व्यास या संजय,
कौन उसका मूल
स्रोत है?
इस संबंध में
कुछ बातें
विचारणीय हैं।
एक तो
जो लोग
श्रीमद्भागवत
को या गीता को
केवल साहित्य
मानते हैं, लिटरेचर
मानते हैं, ऐतिहासिक
घटनाएं नहीं,
जो ऐसा नहीं
मानते कि कृष्ण
और अर्जुन के
बीच जो घटना
घटी है, वह
वस्तुत: घटी
है; जो ऐसा
भी नहीं मानते
कि संजय ने
किसी
वास्तविक
घटना की खबर
दी है या कि
धृतराष्ट्र
कोई वास्तविक
व्यक्ति हैं,
बल्कि जो
मानते हैं कि
वे चारों, व्यास
ने जो
महासाहित्य
लिखा है, उसके
चार पात्र हैं।
जो ऐसा
मानते हैं, उनके लिए
तो व्यास की
प्रतिभा
मौलिक हो जाती
है, मूल
आधार हो जाती
है और शेष सब
पात्र हो जाते
हैं। तब तो
सारा व्यास की
ही प्रतिभा का
खेल है। जैसे
सार्त्र के
उपन्यास में
उसके पात्र
हों या
दोस्तोवस्की
की कथाओं में
उसके पात्र
हों, ठीक
वैसे ही इस
महाकाव्य में
भी सब पात्र
हैं और व्यास
की प्रतिभा से
जन्मे हैं।
ऐसा
भारतीय
परंपरा का
मानना नहीं है।
और न ही जो
धर्म को समझते
हैं, वे
ऐसा मानने को
तैयार हो सकते
हैं। तब
स्थिति
बिलकुल उलटी
हो जाती है।
तब व्यास केवल
लिपिबद्ध
करने वाले रह
जाते हैं। तब
घटना तो कृष्ण
और अर्जुन के
बीच घटती है।
उस घटना को
पकड़ने वाला
संजय है। वह
पकड़ने की घटना
संजय और
धृतराष्ट्र
के बीच घटती
है। लेकिन उसे
लिपिबद्ध
करने का काम
हमारे
और व्यास के
बीच घटित होता
है। वह तीसरा
तल है। जो हुआ
है, उसे
संजय ने कहा
है। जो संजय
ने कहा है
धृतराष्ट्र
को, उसे
व्यास ने
संगृहीत किया
है, उसे
लिपिबद्ध
किया है।
अगर
साहित्य है
केवल, तब
तो व्यास
निर्माता हैं,
और कृष्ण, अर्जुन, संजय,
धृतराष्ट्र,
सब उनके हाथ
के खिलौने हैं।
अगर यह
वास्तविक
घटना है, अगर
यह इतिहास है,
न केवल बाहर
की आंखों से
देखे जाने
वाला, बल्कि
भीतर घटित
होने वाला भी,
तब व्यास
केवल
लिपिबद्ध
करने वाले रह
जाते हैं। वे
केवल लेखक हैं।
और पुराने
अर्थों में
लेखक का इतना
ही अर्थ था, वह लिपिबद्ध
कर रहा है।
हमारे
और व्यास के
बीच गहरा
संबंध है।
क्योंकि संजय
ने जो कहा है, वह
धृतराष्ट्र
से कहा है।
अगर बात कही
हुई ही होती, तो खो गई
होती। हमारे
लिए संगृहीत
व्यास ने किया।
हमारे तो
निकटतम व्यास
हैं। लेकिन
मूल घटना
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
घटी, और
मूल घटना को
शब्दों में
पकड़ने का काम
संजय और
धृतराष्ट्र
के बीच हुआ है।
हमारे और
व्यास के बीच
भी कुछ घट रहा
है—उन शब्दों
को संगृहीत
करने का।
और
इसीलिए व्यास
के नाम से
बहुत—से ग्रंथ
हैं। और जो
लोग
पाश्चात्य
शोध के नियमों
को मानकर चलते
हैं, उन्हें
बड़ी कठिनाई
होती है कि एक
ही व्यक्ति ने,
एक ही व्यास
ने इतने ग्रंथ
कैसे लिखे
होंगे
सच तो
यह हैं कि
व्यास से
व्यक्ति के
नाम का कोई
संबंध नहीं है।
व्यास तो
लिखने वाले को
कहा गया है।
किसी ने भी
लिखा हो, व्यास ने
लिखा है, लिखने
वाले ने लिखा
है। कोई एक
व्यक्ति ने ये
सारे शास्त्र
नहीं लिखे हैं।
लेकिन लिखने
वाले ने अपने
को कोई मूल्य
नहीं दिया, क्योंकि वह
केवल
लिपिबद्ध कर
रहा है। उसके
नाम की कोई
जरूरत भी नहीं
है। जैसे टेप—रिकार्डर
रिकार्ड कर
रहा हो, ऐसे
ही कोई
व्यक्ति
लिपिबद्ध कर
रहा हो, तो
लिपिबद्ध
करने वाले ने
अपने को कोई
मूल्य नहीं
दिया। और
इसलिए एक
सामूहिक
संबोधन, व्यास,
जिसने लिखा।
वह सामूहिक
संबोधन है; वह किसी एक
व्यक्ति का
नाम भी नहीं
है।
लेकिन
हमारे लिए तो
लिखी गई बात
अत्यंत महत्वपूर्ण
है, इसलिए
व्यास को हमने
महर्षि कहा है।
जिसने लिखा है,
उसने हमारे
लिए संगृहीत
किया है, अन्यथा
बात खो जाती।
निश्चित
ही, संजय
के कहने में
और व्यास के
लिखने में कोई
अंतर नहीं है,
क्योंकि
लिखने में और
कहने में किसी
अंतर की कोई
जरूरत नहीं है।
अंतर तो घटित
हुआ है, कृष्ण
के देखने में
और संजय के
कहने में। जो
कहा जा सकता
है, वह
लिखा भी जा
सकता है।
लिखना और कहना
दो विधियां
हैं। कहने में
और लिखने में
कोई अंतर पड़ने
की जरूरत नहीं
है।
इसलिए
मैंने व्यास
को छोड़ दिया
था, कोई
बात नहीं उठाई
थी। वे परिधि
के बाहर हैं।
हमारे लिए
उनकी बहुत जरूरत
है। हमारे पास
गीता बचती भी
नहीं। व्यास
के बिना बचने
का कोई उपाय न
था। लेकिन
घटना के भीतर
वे नहीं हैं, इसलिए मैंने
उनकी चर्चा
नहीं की है।
ये चार
व्यक्ति ही
घटना के भीतर
गहरे हैं।
व्यास का होना
बाहर है, परिधि
पर है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि क्या
दिव्य—चक्षु
सिद्धावस्था
के पूर्व भी
उपलब्ध हो
सकता है?
न हीं, दिव्य—चक्षु
सिद्धावस्था
के पूर्व
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
क्योंकि
दिव्य—चक्षु
का उपलब्ध
होना और
सिद्धावस्था
एक ही बात के
दो नाम हैं।
लेकिन
टेलीपैथी, दूर—दृष्टि
उपलब्ध हो
सकती है। उससे
कोई
सिद्धावस्था
का संबंध नहीं
है। और वह तो
ऐसे व्यक्ति
को भी उपलब्ध
हो सकती है, जिसकी कोई
साधना भी न हो।
टेलीपैथी
तो हमारे मन
की ही क्षमता
है। हमारे मन
के पास
संभावना है कि
वह दूर की
चीजों को भी
देख ले, आंख के बिना।
हमारे मन के
पास संभावना
है कि दूर की
वाणी को सुन
ले, कान के
बिना। और बहुत
बार तो हममें
से अनेक लोग
देख लेते हैं,
सुन लेते
हैं। लेकिन
हमें खयाल
नहीं कि हम
क्या कर रहे
हैं। बहुत बार
हमें पीछे पता
चलता है, तो
आज के युग की
वजह से हम सोच
लेते हैं, संयोग
की बात है।
अगर
बेटा मर रहा
हो, तो
दूर मां को भी
प्रतीत होने
लगता है। कोई
सिद्धावस्था
की बात नहीं
है, सिर्फ
एक प्रगाढ़
लगाव है। तो
कितना ही
फासला हो, अगर
बेटा मर रहा
हो, तो मां
को कुछ
परेशानी शुरू
हो जाती है।
वह समझ पाए या
न समझ पाए।
अगर बहुत निकट
मित्र कठिनाइ
में पड़ा हो, तो मित्र को भीतर
बचवा शुरू हो
जाती है, फासला
कितना भी हो।
कोई धक्के आंतरिक
तरंगों के
लगने शुरू हो
जाते हैं, कोई
संवाद किसी
द्वार से
मिलना शुरू हो
जाता है, जिसके
हम ठीक—ठीक
उपयोग को नहीं
जानते हैं।
लेकिन
कुछ लोग इसका
ठीक उपयोग
करना सीख लें, तो जरा भी
अड़चन नहीं है।
आप छोटे—मोटे
प्रयोग खुद भी
कर सकते हैं, तब आपको
खयाल आएगा कि
टेलीपैथी, दूर—दृष्टि,
दूर— श्रवण,
साधना से
संबंधित नहीं
है, अध्यात्म
से इनका कोई
लेना—देना
नहीं है।
आप
छोटे—मोटे
प्रयोग कर
सकते हैं।
छोटे बच्चे के
साथ करें, तो बहुत
आसानी होगी।
छोटे बच्चे को
बिठा लें एक
कमरे के कोने
में, कमरे
में अंधेरा कर
दें, दरवाजे
बंद कर दें।
आप दूसरे कोने
में बैठ जाएं
और उस बच्चे
से कहें कि तू
मेरी तरफ
ध्यान रख
अंधेरे में और
सुनने की
कोशिश कर कि
मैं क्या कह
रहा हूं। और
अपने कोने में
बैठकर आप एक
ही शब्द मन
में दोहराते
रहें— बाहर नहीं,
मन में— कमल,
कमल, कमल,
या राम, राम,
राम। एक ही
शब्द दोहराते
रहें। आप दो—तीन
दिन में
पाएंगे कि
आपके बच्चे ने
पकड़ना शुरू कर
दिया। वह कह
देगा कि राम।
क्या
हुआ? फिर
इससे जब आपका
भरोसा बढ़ जाए
कि बच्चा पकड़
सकता है, तो
फिर मैं भी
पकड़ सकता हूं।
तब उलटा
प्रयोग शुरू
कर दें। बच्चे
को कहें कि वह
एक शब्द को
दोहराता रहे—
कोई भी—बिना
आपको बताए। और
आप सिर्फ शांत
होकर बच्चे की
तरफ ध्यान रखें।
बच्चे ने अगर
तीन दिन में
पकड़ा है, तो
नौ दिन में आप
भी पकड़ लेंगे।
नौ दिन इसलिए
लग जाएंगे कि
आप विकृत हो
गए हैं; बच्चा
अभी विकृत
नहीं हुआ है।
अभी उसके
यंत्र ताजे
हैं, वह
जल्दी पकड़
लेगा।
और अगर
एक शब्द पकड़
लिया, तो
फिर डरिए मत, फिर पूरे
वाक्य का
अभ्यास भी आप
कर सकते हैं।
और अगर एक
वाक्य पकड़
लिया है, तो
कितनी ही
बातें पकड़ी जा
सकती हैं। और
बीच में एक
कमरे की दूरी
ही सवाल नहीं
है। जब बच्चा
एक शब्द पकड़
ले कमरे में, तो उसको छह
मंजिल ऊपर भेज
दीजिए; वहां
भी पकड़ेगा।
फिर दूसरे
गांव में भेज
दीजिए, वहां
भी पकड़ेगा।
ठीक समय नियत
कर लीजिए, कि
ठीक रात नौ
बजे बैठ जाए आंख
बंद करके, वहां
भी पकड़ेगा। आप
भी पकड़ सकते
हैं। इसका कोई
आध्यात्मिक साधना
से संबंध नहीं
है।
लेकिन
बहुत—से साधु—संन्यासी
इसको करके
सिद्ध हुए
प्रतीत होते हैं।
इससे
सिद्धावस्था
का कोई भी
लेना—देना
नहीं है। यह
मन की साधारण
क्षमता है, जो हमने
उपयोग नहीं की
है और
निरुपयोगी
पड़ी हुई है।
इसका उपयोग हो
सकता है। और
जितने
चमत्कार आप
देखते हैं
चारों तरफ, साधुओं के
आस—पास, उनमें
से किसी का भी
कोई संबंध
आध्यात्मिक
उपलब्धि से
नहीं है। वे
सब मन की ही
सूक्ष्म
शक्तियां हैं,
जिनका थोड़ा
अभ्यास किया
जाए, तो वे
प्रकट होने
लगती हैं। और
अक्सर तो ऐसा
होता है कि जो
व्यक्ति इस तरह
की शक्तियों
में उत्सुक
होता है, वह
धार्मिक होता
ही नहीं है, क्योंकि इस
तरह की
उत्सुकता ही
अधार्मिक व्यक्ति
का लक्षण है।
अक्सर
अध्यात्म की
साधना में ऐसी
शक्तियां अपने
आप प्रकट होनी
शुरू होती हैं, तो
अध्यात्म का
पथिक उनको
रोकता है, उनका
प्रयोग नहीं
करता है।
क्योंकि उनके
प्रयोग का
मतलब है, भीतर
की ऊर्जा का
अनेक—अनेक
शाखाओं में
बंट जाना। हम
शक्ति का
प्रयोग ही
करते हैं
दूसरे को प्रभावित
करने के लिए।
और दूसरे को
प्रभावित
करने का रस ही
संसार है।
कोई
आदमी धन से
प्रभावित कर
रहा है कि
मेरे पास एक
करोड़ रुपए हैं।
कोई आदमी एक
आकाश छूने
वाला मकान खड़ा
करके लोगों को
प्रभावित कर
रहा है कि
देखो, मेरे
पास इतना
आलीशान मकान
है। कोई आदमी
किसी और तरह
से प्रभावित
कर रहा है कि
देखो, मैं
प्रधानमंत्री
हो गया, कि
मैं
राष्ट्रपति
हो गया। कोई
आदमी बुद्धि
से प्रभावित
कर रहा है कि
देखो, मैं
महापंडित हूं।
कोई आदमी हाथ
में ताबीज
निकालकर
प्रभावित कर रहा
है कि देखो, मैं
चमत्कारी हूं?
मैं
सिद्धपुरुष
हूं। कोई राख
बांट रहा है।
लेकिन सबकी
चेष्टा दूसरे
को प्रभावित
करने की है।
यह अहंकार की
खोज है।
अध्यात्म
का साधक दूसरे
को प्रभावित
करने में
उत्सुक नहीं
है। अध्यात्म
का साधक अपनी
खोज में
उत्सुक है।
दूसरे इससे
प्रभावित हो
जाएं, यह
उनकी बात; इससे
कुछ लेना—देना
नहीं है, इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है। यह
लक्ष्य नहीं
है।
लेकिन
दिव्य—नेत्र
अलग बात है।
इसलिए ध्यान
रखना, दूर—
दृष्टि और
दिव्य—दृष्टि
का फर्क ठीक
से समझ लेना।
दूर—दृष्टि तो
है संजय के
पास, दिव्य—दृष्टि
उपलब्ध हुई है
अर्जुन को।
दिव्य—दृष्टि
का अर्थ है, जब हमारे
पास अपनी कोई
दृष्टि ही न
रह जाए। यह
थोड़ा उलटा
मालूम पड़ेगा।
अध्यात्म के
सारे शब्द बड़े
उलटे अर्थ
रखते हैं।
उसका कारण है
कि जिस संसार
में हम रहते हैं
और जिन शब्दों
का उपयोग करते
हैं, इनका
यही अर्थ
अध्यात्म के
जगत में नहीं
होने वाला है।
वहां चीजें
उलटी हो जाती
हैं।
करीब—करीब
ऐसा, जैसा
आप झील के
किनारे खड़े
हैं और आपका
प्रतिबिंब
झील में बन
रहा है। अगर
झील में रहने
वाली मछलियां
आपके प्रतिबिंब
को देखें, तो
आपका सिर नीचे
दिखाई पड़ेगा
और पैर ऊपर।
वह आपका
प्रतिबिंब है।
प्रतिबिंब
उलटा होता है।
अगर मछली ऊपर
झांककर देखे,
पानी पर
छलांग लेकर
देखे, तो
बहुत हैरान हो
जाएगी; आप
उलटे मालूम
पड़ेंगे ऊपर!
मछली को लगेगा
कि आप
शीर्षासन कर
रहे हैं, क्योंकि
सिर ऊपर, पैर
नीचे! और उसने
सदा आपको नीचे
देखा था, सिर
नीचे, पैर
ऊपर। आप उलटे
दिखाई पड़ेंगे।
प्रतिबिंब
उलटा हो जाता
है।
संसार
प्रतिबिंब है।
इसलिए संसार
में शब्दों का
जो अर्थ होता
है, ठीक
उलटा अर्थ
अध्यात्म में
हो जाता है।
यही खयाल
दृष्टि के
बाबत भी रखें।
दृष्टि का
अर्थ है, देखने
की क्षमता।
दृष्टि का
अर्थ है, दूसरे
को देखने की
योग्यता।
लेकिन
अध्यात्म में
तो दूसरा कोई
बचता नहीं है।
इसलिए दूसरे
का तो कोई
सवाल नहीं है।
और दृष्टि का
अर्थ सदा
दूसरे से बंधा
है, आब्जेक्ट
से, विषय
से। तो दृष्टि
का वहां क्या
अर्थ होगा?
महावीर
ने कहा है कि
जब सब दृष्टि
खो जाती है, तब दर्शन
उपलब्ध होता
है। जब सब
देखना—वेखना
बंद हो जाता
है, जब कोई
दिखाई पड़ने
वाला भी नहीं
रह जाता, जब
सिर्फ देखने
वाला ही बचता
है, तब
दर्शन उपलब्ध
होता है। जब
देखने वाला, द्रष्टा ही
बचता है, तब,
तब दिव्य—दृष्टि
उपलब्ध होती
है।
यहां
दिव्य—दृष्टि
कहना बड़ा उलटा
मालूम पड़ेगा।
क्यों कहें
दृष्टि? जब
दृष्टियां खो
जाती हैं सब, जब सब बिंदु,
देखने के
ढंग खो जाते
हैं, जब सब
माध्यम देखने
के खो जाते
हैं और शुद्ध
चैतन्य रह
जाता है, तब
दृष्टि क्यों
कहें? लेकिन
फिर हम न समझ
पाएंगे।
हमारा ही शब्द
उपयोग करना
पड़ेगा, तो
ही इशारा
कारगर हो सकता
है।
दूर—दृष्टि
तो दृष्टि है।
दिव्य—दृष्टि, समस्त
दृष्टियों से
मुक्त होकर
द्रष्टा मात्र
का रह जाना है।
तब जो अनुभव
होता है, वह
अनुभव ऐसा
नहीं होता कि
मैं बाहर से
किसी को देख
रहा हूं। तब
अनुभव होता है
कि जैसे मेरे
भीतर कुछ हो
रहा है। सारा
जगत जैसे मेरे
भीतर समा गया
हो। सब कुछ
मेरे भीतर हो
रहा हो।
स्वामी
राम को जब
पहली दफा
समाधि का
अनुभव हुआ, तो वे
नाचने लगे।
रोने भी लगे, हंसने भी
लगे, नाचने
भी लगे। जो
पास थे इकट्ठे,
उन्होंने
कहा कि आपको
क्या हो रहा
है? आप
उन्मत्त तो
नहीं हो गए
हैं? स्वामी
राम ने कहा कि
समझो कि
उन्मत्त ही हो
गया हूं।
क्योंकि आज
मैंने देखा कि
मेरे भीतर ही
सूरज उगते हैं,
और मेरे
भीतर ही चांद—तारे
चलते हैं। और
आज मैंने देखा
कि मैं आकाश
की तरह हो गया
हूं; सब
कुछ मेरे भीतर
है। और आज
मैंने देखा कि
वह मैं ही हूं
जिसने सबसे
पहले सृष्टि को
जन्म दिया था।
और वह मैं ही
हूं जो अंत
में सारी
सृष्टि को
अपने में लीन
कर लेगा। मैं
उन्मत्त हो
गया हूं।
यह बात
पागल की ही है।
हमें भी लगेगा
कि पागल की है।
लेकिन लगना
इसलिए
स्वाभाविक है
कि हमें ऐसा कोई
भी अनुभव नहीं
है, जहां
दूसरा विलीन
हो जाता है और
केवल देखने वाला
ही रह जाता है।
यह जो
अर्जुन को
घटित हो रहा
है, वह
दिव्य—दृष्टि
है। जो संजय
के पास है, वह
दूर—दृष्टि है।
अब हम
सूत्र को लें।
इसलिए
हे भगवन्, आप ही
जानने योग्य
परम अक्षर
हैं।
परमब्रह्म परमात्मा
हैं। आप ही इस
जगत के परम
आश्रय हैं। आप
ही अनादि धर्म
के रक्षक हैं।
आप ही अविनाशी
सनातन पुरुष
हैं। ऐसा मेरा
मत है।
अर्जुन
अति विनम्र है।
और जो भी जान
लेते हैं, वे अति
विनम्र हो
जाते हैं।
विनम्रता
जानने की शर्त
भी है और
जानने का
परिणाम भी। जो
जानना चाहता
है, उसे
विनम्र होना
होगा, झुका
हुआ। और जो
जान लेता है, वह अति
विनम्र हो
जाता है। शायद
जान लेने के
बाद उसे
विनम्र होना
ही नहीं पड़ता,
विनम्रता
उस पर छा जाती
है, वह एक
हो जाता है
विनम्रता के
साथ।
अर्जुन
देख रहा है
अपनी अनुभूति
में सब घटित
हुआ, फिर
भी कहता है, ऐसा मेरा मत
है।
यह
थोड़ा विचारें।
अर्जुन
देख रहा है।
वह कह सकता है
कि मैं देख
रहा हूं। वह
कह सकता है कि
मेरा अनुभव है।
लेकिन कहीं
मेरा अनुभव
कहने से मैं
को बल न मिले।
वह कहे कि
मेरी प्रतीति
है, तो
कहीं प्रतीति गौण
न हो जाए और
मेरा होना
महत्वपूर्ण न
हो जाए!
इसलिए
अर्जुन कहता
है कि हे
भगवन्। आप ही
हैं अक्षर, अविनाशी,
परम आश्रय,
रक्षक, ऐसा
मेरा मत है—दिस
इज माई
ओपिनियन। यह
सिर्फ मेरा मत
है, यह गलत
भी हो सकता है।
यह सही भी हो
सकता है। मैं
कोई आग्रह
नहीं करता कि
यह सत्य है।
इस कारण कई
बार बड़ी
कठिनाई खड़ी
होती है। जो
अहंकारी हैं,
वे अपने मत
को भी इस
भांति कहते
हैं, जैसे
प्रतीति हो कि
यह सत्य है।
वे जो नहीं
जानते, केवल
सोचते हैं, उसको भी इस
भांति
घोषणापूर्वक
कहते हैं कि
लगे कि यह
उनका अनुभव है।
और जो जान लिए
हैं, वे इस
भांति कहते
हैं कि ऐसा
लगे कि
उन्होंने भी
किसी से सुना
होगा।
पुराने
ऋषियों की बड़ी
पुरानी आदत है
कि वे कहते
हैं, ऐसा फलां
ऋषि ने फलां
ऋषि से कहा।
उन्होंने फिर
किसी और से
कहा; फिर
उन्होंने
किसी और से
कहा, फिर
मैंने किसी से
सुना। यह
मात्र गहन
विनम्रता का
परिणाम है।
मैंने देखा, इसे कहने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। इसे कहने
में कोई अड़चन
भी नहीं है।
अर्जुन अभी कह
सकता है कि
मैंने देखा।
लेकिन अर्जुन
कहता है, मेरा
मत। बस, मेरा
ऐसा विचार है।
आग्रह नहीं है
कि मैं जो कह
रहा हूं वह
सत्य ही है।
क्यों?
शायद
इस आघात के
क्षण में, इस गहन
शक्ति का आघात
हुआ है उसके
ऊपर, इस
क्षण में उसे
मैं का कोई
पता भी नहीं
चल रहा होगा।
इस क्षण में
उसे खयाल भी
नहीं आ रहा
होगा कि मैं
भी हूं। इसलिए
कह रहा है, मेरा
मत है। यह मत
माना भी जाए
तो ठीक, न
भी माना जाए
तो ठीक। यह
गलत भी हो।
मत और
सत्य में इतना
ही फर्क होता
है। जब कोई
कहता है, यह सत्य है, तो उसका
अर्थ यह है, यह गलत नहीं
हो सकता। और
जब कोई कहता
है, यह मत
है, तो वह
यह कह रहा है
कि यह गलत भी
हो सकता है।
यह मेरा है, इसलिए गलत
भी हो सकता है।
हमारी
स्थिति उलटी
है। जिस चीज
को हम कहते
हैं सत्य, हम उसे
सत्य ही इसलिए
कहते हैं, क्योंकि
वह मेरा है।
अगर आपसे कोई
पूछे कि हिंदू
धर्म सत्य
क्यों है? या
कोई पूछे कि
मुसलमान धर्म
सत्य क्यों है?
या कोई पूछे
कि जैन धर्म
सत्य क्यों है?
तो जैनी
कहेगा कि जैन
धर्म सत्य है।
हजार कारण
बताए, लेकिन
मूल में कारण
यह होगा कि वह
मेरा धर्म है।
हिंदू हजार
कारण बताए, लेकिन मूल
में कारण होगा
कि वह मेरा
धर्म है। चाहे
वह कहे और
चाहे न कहे।
लेकिन अगर
विश्लेषण करे,
तो उसे पता
चलेगा कि जो
भी मेरा है, वह सत्य
होना ही चाहिए।
यह
अहंकार का
आरोपण है।
सत्य, मेरे
होने से सत्य
नहीं होता। सच
तो यह है कि
मेरे होने से
मेरा सत्य भी
असत्य हो जाता
है। सत्य होता
है अपने कारण।
और मैं जितना
कम रहूं उतना
ज्यादा होता
है। और मैं
जितना ज्यादा
हो जाऊं, उतना
क्षीण हो जाता
है।
इसलिए
अर्जुन कहता
है, मेरा
मत है।
महावीर
इस दिशा में
अनूठे
व्यक्ति हैं।
महावीर से कोई
पूछे कि आत्मा
है? तो
वे कहते हैं, है; ऐसा
भी कुछ लोगों
का मत है, वे
भी ठीक कहते
हैं। और ऐसा
भी कुछ लोगों
का मत है कि
नहीं है, वे
भी ठीक कहते
हैं। और ऐसा
भी कुछ लोगों
का मत है कि
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता, वे भी ठीक
कहते हैं।
हम
अड़चन में पड़
जाएंगे
महावीर के साथ, कि अगर
सभी लोग ठीक
कहते हैं, तो
फिर ठीक क्या
है? महावीर
कहते हैं कि
बड़े से बड़े
असत्य में भी
थोड़ा—बहुत
सत्य तो होता
ही है। उतना
सत्य तो होता
ही है। उस
सत्य को हम
पकड़ लें। और
महावीर कहते
हैं कि बड़े से
बड़े सत्य में
भी व्यक्ति का
अहंकार थोड़ा न
बहुत प्रवेश
कर जाता है, उतना असत्य
हो जाता है।
उस असत्य को
हम छोड़ दें।
इसलिए
वे कहते हैं
कि जो कहता है, आत्मा
नहीं है, उसकी
बात में भी
थोड़ा सत्य है।
कम से कम इतना
सत्य तो है ही
कि संसारी
व्यक्ति का
अनुभव यही है
कि आत्मा नहीं
है। आपका भी
अनुभव यही है
कि आत्मा नहीं
है। आपका
अनुभव यही है
कि शरीर है।
तो महावीर
कहते हैं, अगर
चार्वाक कहता
है कि आत्मा
नहीं है, तो
ठीक ही कहता
है। करोड़ों
लोगों का
अनुभव है कि
हम शरीर हैं।
आत्मा का पता
किसको है!
इतना सत्य तो
है ही।
और अगर
हम लोकतंत्र
के हिसाब से
सोचें, तो शरीर वादी
का ही सत्य
जीतेगा।
आत्मवादी का
कैसे जीतेगा?
कभी करोड़
में एक आदमी
अनुभव कर पाता
है कि आत्मा
है। करोड़ में
एक! बाकी शेष
तो अनुभव करते
हैं कि वे शरीर
हैं।
इसलिए
हमने एक बड़ी
अदभुत बात की
है। हमने
चार्वाक को जो
नाम दिए हैं—
नास्तिक विचार
को भारत में—वे
बड़े विचारणीय
हैं। दो नाम
हैं चार्वाक
के, एक
तो चार्वाक और
दूसरा लोकायत।
दोनों बड़े
मीठे हैं।
लोकायत
का मतलब है, जिसे लोग
मानते हैं, जो लोक में
प्रभावी है।
बड़े मजे की
बात है, अगर
आप खोजने जाएं,
तो एक भी
आदमी जनगणना
के वक्त अपने
को नास्तिक नहीं
लिखवाता है।
कोई हिंदू है,
कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई जैन है,
कोई बौद्ध
है। लेकिन
हमारी परंपरा
कहती है कि
चार्वाक को मानने
वाले
सर्वाधिक लोग
हैं। हालांकि
कोई नहीं
लिखवाता कि
मैं
चार्वाकवादी
हूं। मगर
हमारी परंपरा
कहती है कि
करोड़ में एक
को छोड्कर बाकी
तो सब चार्वाक
को ही मानते
हैं। चाहे
समझते हों, न समझते हों;
चाहे कहते
हों, चाहे
न कहते हों।
उनका अनुभव तो
यही है कि वे
शरीर हैं। और
इंद्रियों से
ज्यादा कुछ भी
नहीं हैं। और
जो इंद्रियों
का भोग है, वही
जीवन है।
इसलिए
हमने चार्वाक
को— हालांकि
कोई संप्रदाय
मानने वाला
नहीं है—कहा, लोकायत, कि लोक
जिसको मानता
है। और
चार्वाक शब्द
भी बड़ा अदभुत
है, उसका
मतलब होता है
चारु—वाक, जिनके
वचन बड़े
मधुर हैं। बड़ी
उलटी बात है।
क्योंकि हमें
तो बुरे
लगेंगे
चार्वाक के
वचन। जो भी
सुनेगा कि
ईश्वर नहीं है, आत्मा
नहीं है, हमें
तो बुरे
लगेंगे, कटु
लगेंगे।
लेकिन हमारी
परंपरा ने नाम
दिया है चारु—वाक,
जिनके वचन
बड़े मधुर हैं।
हम बड़े
सोचकर शब्द
दिए हैं। हम
ऊपर से कितना
ही कहें कि
हमें यह बात
जंचती नहीं कि
ईश्वर नहीं है, भीतर यह
बात बडी
प्रीतिकर
लगती है। भीतर
बड़ा रस आता है
कि ईश्वर नहीं
है, बेफिक्र!
कोई फिक्र
नहीं। चोरी
करो, बेईमानी
करो, हत्या
करो। ऊपर से
हम भला कहें
कि नहीं, यह
बात जंचती
नहीं; भीतर
बहुत जंचती है।
तो फिर कोई भी
पाप नहीं है।
दोस्तोवस्की
ने लिखा है कि
अगर ईश्वर
नहीं है, देन
एवरीथिंग इज
परमिटेड। अगर
ईश्वर नहीं है,
तो फिर हर
चीज की आशा
मिल गई। फिर
कुछ भी करने
में कोई हानि
नहीं है। अगर
ईश्वर है, तो
अड़चन है।
ईश्वर का डर
घेरे ही रहता
है। कितने ही
अकेले में
चोरी कर रहे
हों, फिर
भी लगा रहता
है कि कम से कम
कोई एक देख
रहा है। अगर
नहीं है कोई, तो आदमी स्वतंत्र
है। प्रीतिकर
लगेगा भीतर कि
कोई ईश्वर
नहीं है।
नीत्शे
ने कहा है, गॉड इज
डेड। ईश्वर मर
गया। और अब
तुम्हें जो भी
करना हो, तुम
कर सकते हो।
आदमी
स्वतंत्र है।
नाउ मैन इज
फ्री। ईश्वर
ही उसका बंधन
था, नीत्शे
ने कहा है, वही
इसकी जान लिए
ले रहा था कि
यह मत करो, वह
मत करो। यह
बुरा है, यह
भला है, यह
पाप, यह
पुण्य; यह
नर्क, यह
स्वर्ग।
नीत्शे ने कहा
कि ईश्वर मर
चुका है और अब
मनुष्य
स्वतंत्र है,
और अब
तुम्हें जो
करना हो, करो।
स्वतंत्रता
तो हम सभी
चाहेंगे।
इसलिए ऊपर से
हम भला कहते
हों कि
चार्वाक के वचन
कटु मालूम
पड़ते हैं, भीतर हम
भी चाहते हैं
कि ईश्वर न हो।
क्यों? क्योंकि
अगर ईश्वर न
हो, तो
हमारे ऊपर से
सारा दबाव हट
गया। फिर कोई
दबाव नहीं है।
फिर आदमी
उत्तरदायित्वहीन
है। फिर कोई
दायित्व नहीं
है। फिर कोई
जवाब मांगने
वाला नहीं है।
फिर जिंदगी
स्वच्छंद
होने के लिए
मुक्त है। तो
भला हम कहते
हों कि ये
बातें जंचती
नहीं हैं।
लेकिन
चार्वाक की
बातें हमारे
मन को बड़ी
प्रीतिकर
लगती हैं।
चार्वाक ने
कहा है कि अगर
ऋण लेकर भी घी
पीना पड़े, तो
लेते रहना ऋण,
क्योंकि
मरने के बाद न
कोई लेने वाला
है, न कोई
देने वाला है,
न कोई
चुकतारा है।
कोई लेना—देना
नहीं है, कोई
ऋणी नहीं है, कोई धनी
नहीं है।
सिर्फ नासमझ
और समझदार लोग
हैं।
चार्वाक
ने कहा है, जो
समझदार हैं, वे सब तरह से
अपनी
इंद्रियों को
तृप्त कर लेते
हैं। जो नासमझ
हैं, वे
बुद्ध बन जाते
हैं और तृप्त
नहीं कर पाते।
हमको भी लगेगी
यह बात भीतर—ऊपर
से हम कहेंगे
कि नहीं—लेकिन
भीतर हमको
लगेगी कि बात
तो बड़ी रुचिकर
है, कि भोग
लो। चार्वाक
ने कहा है, क्षण
की खबर नहीं
है। अगला क्षण
होगा या नहीं
होगा, नहीं
कहा जा सकता।
इसलिए इस क्षण
को निचोड़ लो
पूरा। जितना
भोग सकते हो, भोग लो। हम
कहते कुछ हों,
करते यही
हैं। न कर
पाते हों, तो
पछताते हैं।
और जो कर लेता
है, उससे
हमारी
ईर्ष्या है।
उससे हमारी
ईर्ष्या पकड़
जाती है।
आप
किसी को भी
सुख में देखकर
बड़े दुखी हो
जाते हैं। भला
आप कहते हों, धन में
कुछ भी नहीं
है, लेकिन
जिसके पास धन
है, उसको
देखकर आपको
विपदा शुरू हो
जाती है, भीतर
कष्ट शुरू हो
जाता है। भला
आप कहते हों
कि शरीर में
क्या रखा है, यह तो मल—मूत्र
है। लेकिन एक
सुंदर स्त्री
दूसरे के साथ
देखकर बेचैनी
शुरू हो जाती
है।
हम ऊपर
से कुछ कहते
हों, लेकिन
भीतर से हम सब
चार्वाकवादी
हैं। इसलिए
हमने दो शब्द
दिए हैं, लोकायत,
और मधुर वचन
वाले लोग, चार्वाक।
यह जो
चार्वाक कहता
है, इसमें
भी महावीर
कहते हैं, थोड़ा
सत्य है।
क्योंकि अधिक
लोगों का
अनुभव तो यही
है। हम जो
कहते हैं, महावीर
कहेंगे, वह
तो कितने थोड़े
लोगों का सत्य
है! इसलिए महावीर
कहते हैं, जो
भी कहा जाए, उसको मत की
तरह व्यक्त
करना, सत्य
की तरह व्यक्त
मत करना। कहना
कि यह हमारा
एक मत है, विपरीत
मत भी हो सकते
हैं। वे भी
ठीक हो सकते
हैं। अनेक मत
हो सकते हैं, वे भी ठीक हो
सकते हैं।
आग्रह मत करना
कि यही सत्य
है। क्योंकि
यह आग्रह सत्य
को कमजोर कर
देता है, मैं
को मजबूत कर
जाता है।
थोड़ा
ध्यान रखें, जितना
आग्रह हम करते
हैं, आग्रह
सत्य को नहीं
मिलता, अहंकार
को मिलता है।
इसलिए
धार्मिक आदमी
विनम्र होगा।
और अगर
धार्मिक आदमी
विनम्र नहीं
है, तो
धार्मिक नहीं
है।
इसलिए
हमने अपने इस
मुल्क में कभी
किसी आदमी के
धर्म को
कनवर्ट करने
की चेष्टा
नहीं की। कभी
आग्रह नहीं
किया कि हम एक
आदमी को समझा—बुझा
कर, जबर्दस्ती,
कोई भी उपाय
करके, एक
धर्म से दूसरे
धर्म में खींच
लें। क्योंकि
यह कृत्य ही
अधार्मिक हो
गया। यह आग्रह
करना कि मैं
जो कहता हूं
वही ठीक है, और तुम जो
कहते हो, वह
गलत है, मान
लो मेरे धर्म
को; चाहे
धन देकर, चाहे
पद देकर और
चाहे तर्कों
से समझा—बुझाकर,
किसी भी तरह
आक्रमण करके
किसी व्यक्ति
को उसके धर्म
को बदलने की
कोशिश हमने इस
मुल्क में नहीं
की। कनवर्शन
हमने कभी उचित
नहीं माना।
और
उसका कुल कारण
इतना था कि
कनवर्शन के लिए—
हिंदू को ईसाई
बनाने के लिए, ईसाई को
हिंदू बनाने
के लिए—मतांध
आदमी चाहिए, आग्रहपूर्ण,
जो कहें कि
यही ठीक है।
जो इतने
पागलपन से कह
सकें कि यही
ठीक है, और
दूसरे की
सुनने को
बिलकुल राजी
ही न हों।
महावीर
कैसे किसी को
कनवर्ट करें!
अगर उनके विपरीत
भी आप जाकर कहें, तो
महावीर
कहेंगे कि आप
भी ठीक हैं।
इसमें भी सचाई
है। आप जो कह
रहे हैं, बड़ा
कीमत का है।
महावीर के
विपरीत कहें,
तो भी! तो
कनवर्शन
असंभव है।
इसलिए महावीर
जैसे बहुत
विचार का आदमी
भी हिंदुस्तान
में बहुत जैन
पैदा नहीं
करवा पाया।
उसका कारण था।
क्योंकि
कनवर्ट करने
का कोई उपाय
ही नहीं था।
मतांध
आदमी दूसरे पर
जबर्दस्ती छा
जाते हैं।
लेकिन जो
मतांध है, वह
राजनैतिक हो
सकता है, धार्मिक
नहीं। दूसरे
को बदलने की
चेष्टा ही असल
में राजनीति
है। स्वयं को
बदलने की
चेष्टा धर्म
है। दूसरे पर
छा जाना, अहंकार
की यात्रा है।
अपने को सब
भांति पोंछकर
मिटा देना, धर्म की।
अर्जुन
कहता है, यह मेरा मत
है। और अभी
अनुभव हो रहा
है उसे। अभी
प्रत्यक्ष है,
अभी क्षण भी
नहीं बीता है।
अभी वह अनुभव
के बीच में
खड़ा है। चारों
तरफ घटनाएं घट
रही हैं उसके।
द्वार खुल गया
है अनंत का।
और ऐसे क्षण
में भी अर्जुन
कहता है, यह
मेरा मत है, यह बहुत
कीमती है।
आप ही
जानने योग्य
परम अक्षर हैं।
जानने
योग्य! जानने
योग्य क्या है? किस चीज
को कहें जानने
योग्य? आमतौर
से जिसका कोई
उपयोग हो, उसे
हम जानने
योग्य कहते
हैं। विज्ञान
जानने योग्य
है, क्योंकि
उसके बिना न
मशीनें
चलेंगी, न
रेलगाड़ियां
दौड़ेगी; न
रास्ते
बनेंगे, न
कारें होगी; न यंत्र
होंगे, न
टेक्यालॉजी
होगी। वितान
जानने योग्य
है, क्योंकि
उसके बिना
जीवन की सुख—सुविधा
असंभव हो
जाएगी।
चिकित्साशास्त्र
जानने योग्य
है, क्योंकि
उसके बिना
बीमारियों से
कैसे लडेंगे? उपयोगिता! हमारे
जानने योग्य
का अर्थ होता
है, जिसकी
अइटलिटी है, जिसकी
उपयोगिता है।
इसीलिए
जिन चीजों की
उपयोगिता है, उनकी तरफ
हम ज्यादा
दौड़ते हैं।
अगर आज
युनिवर्सिटी
में जाएं, तो
इंजीनियरिंग
की तरफ, मेडिकल
साइंस की तरफ
दौड़ते हुए
युवक मिलेंगे।
फिलॉसफी, दर्शनशास्त्र
के कमरे खाली
होते जाते हैं।
वहां कोई जाता
नहीं। या
जिनको कहीं
जाने के लिए
उपाय नहीं
बचता, वे
वहां चले जाते
हैं। सब
दरवाजे जिनके
लिए बंद हो
जाते हैं, वे
सोचते हैं कि
चलो, अब
दर्शनशास्त्र
ही पढ़ लें।
सारी
दुनिया में
दर्शनशास्त्र
की तरफ लोगों का
जाना कम होता
जाता है।
क्यों? क्योंकि
उसकी कोई
उपयोगिता
नहीं है। क्या
करिएगा? अगर
दर्शन में कोई
उपाधि भी ले
ली, तो
करिएगा क्या?
उससे न रोटी
पैदा हो सकती
है, न
यंत्र चलता है।
किसी काम का
नहीं है, बेकाम
हो गया, उपयोगिता
गिर गई। हमारे
लिए जानने
योग्य वह
मालूम पड़ता है,
जो उपयोगी
है।
लेकिन
यहां अर्जुन
कहता है, आप ही जानने
योग्य परम
अक्षर हैं।
क्या
अर्थ होगा
इसका? भगवान
की क्या
उपयोगिता
होगी? क्या
करिएगा भगवान
को जानकर? रोटी
पकाइएगा? दवा
बनाइएगा? यंत्र
चलवाइएगा? क्या
करिएगा? अगर
उपयोगिता की
दृष्टि से
देखें, तो
भगवान बिलकुल
जानने योग्य
नहीं है।
जानकर करिएगा
भी क्या? अगर
आज पश्चिम के
मस्तिष्क को
हम समझाना
चाहें कि
भगवान, तो
वह पूछेगा कि
किसलिए? क्या
करेंगे जानकर?
क्या होगा
जानने से? उपयोगिता
क्या है?
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, ध्यान!
लेकिन ध्यान
से होगा क्या?
मिलेगा
क्या? उपयोगिता
क्या है? स्वभावत:,
ध्यान के
बाबत भी वे
वही सवाल
पूछते हैं, जो रुपए के
बाबत, धन
के बाबत
पूछेंगे, मकान
के बाबत
पूछेंगे।
उपयोग ही
मूल्य है। तो
ध्यान का
उपयोग क्या है?
प्रार्थना
का उपयोग क्या
है? कोई
उपयोग तो
मालूम नहीं
पड़ता। और
परमात्मा तो
परम निरुपयोगी
है। क्या
उपयोग है? उपादेयता
क्या है उसकी?
उससे क्या
कर सकते हैं? कोई प्राफिट
मोटिव, कोई
लाभ का विचार
लागू नहीं
होता। क्या
करिएगा? और
यह अर्जुन कह
रहा है कि आप
ही जानने
योग्य परम
अक्षर हैं!
जानने
योग्य की
हमारी
परिभाषा और है।
हम कहते हैं
उसे जानने
योग्य, जिसे जानने
के बाद कुछ
जानने को शेष
न रह जाए। हम
कहते हैं उसे
जानने योग्य,
जिसको जान
लिया, तो
फिर जानने को कुछ
बाकी न रहा।
तो वह जो
जानने की दौड़
थी, समाप्त
हो गई। वह जो अज्ञान
की पीड़ा थी, तिरोहित हो
गई। वह जो
जिज्ञासा का
उपद्रव था, विलीन हो
गया।
जब तक
जानने को कुछ
शेष है, तब तक मन में
अशांति रहेगी।
जब तक जानने
को कुछ भी शेष
है, तब तक
तनाव रहेगा।
जब तक जानने
को कुछ भी शेष
है, चिंता
पकड़े रहेगी कि
कैसे जान लूं।
तो हम
जानने योग्य
उसे कहते हैं, जिसे
जानकर फिर और
कुछ जानने को
शेष नहीं रह जाता।
जिज्ञासा
शून्य हो जाती
है। तनाव
विलीन हो जाता
है। सब जान
लिया जैसे। एक
को जान लिया, सबको जान
लिया जैसे।
जानने
योग्य, पाने योग्य,
कामना करने
योग्य, इन
सबका भारतीय
परंपरा में जो
गहन अर्थ है, वह यह एक ही
है। पाने
योग्य वह है, जिसको पाने
के बाद फिर
पाने को कुछ
बचे न। कामना
करने योग्य वह
है, जिसके
साथ ही सब
कामनाएं शांत
हो जाएं।
पहुंचने
योग्य वह जगह
है, जिसके
बाद पहुंचने
को कोई जगह न
बचे। उसको हम
कहते हैं, अल्टीमेट,
परम। वह है
परम बिंदु
अभीप्सा का।
अर्जुन
कहता है, अनुभव कर
रहा हूं ऐसा
प्रतीत हो रहा
है कि आप ही
जानने योग्य
परम अक्षर हैं,
परम ब्रह्म
परमात्मा हैं।
आप ही इस जगत
के परम आश्रय
हैं, आप ही
अनादि धर्म के
रक्षक हैं, आप ही
अविनाशी
सनातन पुरुष
हैं, ऐसा
मेरा मत है।
हे परमेश्वर!
मैं आपको आदि,
अंत और मध्य
से रहित तथा
अनंत
सामर्थ्य से
युक्त और अनंत
हाथों वाला
तथा चंद्र, सूर्य रूप नेत्रों
वाला और
प्रज्वलित
अग्निरूप मुख
वाला तथा अपने
तेज से इस जगत
को तपायमान
करता हुआ
देखता हूं।
अब
दूसरा रूप
शुरू होता है।
एक रूप था
सुंदर, मोहक, मनोहर,
मन को भाए, लुभाए, आकर्षित
करे। लेकिन यह
एक पहलू था।
अब दूसरा रूप
भी होगा। जो
जीवन को तपाए,
भयंकर अग्निमुखों
वाला, मृत्यु
जैसा विकराल,
विनाश करे।
अर्जुन
कहता है कि
देख रहा हूं
कि आपके अनंत
मुख हैं, प्रज्वलित
अग्निरूप, आपके
हर मुख से आग
जल रही है।
आभा
नहीं, प्रकाश
नहीं, आग।
पहले ऐश्वर्य
की आभा देखी
उसने, फिर
सूर्यों का
प्रकाश देखा
उसने, अब
अग्नि, अब
आग्नेय अनुभव
है।
मुखों
से अग्नि की
लपटें निकल
रही हैं और
आपके इस तेज
से इस जगत को
तपायमान करता
हुआ देखता हूं।
लोग जल जाएंगे, लोग तप
रहे हैं, लोग
भस्मीभूत हो
जाएंगे। ऐसा
अग्निरूप
अर्जुन के
सामने प्रकट
होना शुरू हुआ।
जीवन
जोड़ है विपरीत
द्वंद्वों का, डायलेक्टिकल
है, द्वंद्वात्मक
है। यहां जन्म
है, तो
दूसरे छोर पर
मृत्यु है।
यहां प्रेम है,
तो दूसरे
छोर पर घृणा
है। यहां सुख
है, तो
दूसरे छोर पर
दुख है। यहां
सफलता है शिखर,
तो वहां खाई
है असफलता की।
जोड़ है। और
द्वंद्व के
आधार पर ही
सारे जीवन की
गति है।
हम सब
की आकांक्षा
हो गई है, इसमें जो
प्रीतिकर है,
वह बच रहे; जो
अप्रीतिकर है,
वह समाप्त
हो जाए। हम
चाहते हैं कि
सुख बच रहे और
दुख नहीं। और
मजे की बात यह
है कि जो ऐसा
चाहता है, वह
इसी चाह के
कारण दुख में
गिरता है।
क्योंकि इस दो
में से एक को
बचाया नहीं जा
सकता। ये
दोनों जीवन के
अनिवार्य
हिस्से हैं।
जैसे
कोई चाहे कि
खाइयां तो मिट
जाएं और शिखर बचें, तो वह
पागल है। खाई
और शिखर साथ—साथ
हैं। एक ही
तरंग है। जब
शिखर बनता है,
तो खाई बनती
है। और खाई
मिटती है, तो
शिखर मिट जाता
है। कोई चाहे
कि जवानी तो
बचे और बुढ़ापा
मिट जाए। हम
सभी चाहते हैं!
लेकिन जवानी
शिखर है, तो
बुढ़ापा खाई है।
जवान होने के
साथ ही आप के
होने शुरू हो
जाते हैं।
जवानी बुढ़ापे
की शुरुआत है।
जिस दिन जवान
हुए, उस
दिन जान लेना,
अब बुढ़ापा
ज्यादा दूर
नहीं है, अब
करीब है।
हम
चाहते हैं, सौंदर्य
तो बचे, कुरूपता
विलीन हो जाए।
लेकिन हमें
पता ही नहीं
कि अगर
कुरूपता
विलीन हो जाए,
तो सौंदर्य
बचेगा कैसे!
सौंदर्य है ही
अनुभव कुरूपता
के विपरीत, उसी की
पृष्ठभूमि
में होता है।
जब
आकाश में काले
बादल घिरे
होते हैं, तो बिजली
चमकती दिखाई
पड़ती है। हम
चाहते हैं, बिजली तो
खूब चमके, काले
बादल बिलकुल न
हों। वह काले
बादल में ही
चमकती है। और
काले बादल में
चमकती है, तो
ही दिखाई पड़ती
है। यह जीवन
की सारी चमक
मृत्यु की ही
पृष्ठभूमि में
दिखाई पड़ती है।
हम चाहते हैं,
मृत्यु
विदा हो जाए।
मृत्यु हो ही
न दुनिया में,
बस जीवन ही
जीवन हो। हमें
खयाल ही नही
है कि हम क्या
कह रहे हैं! हम
असंभव की मांग
कर रहे हैं।
और असंभव की
जो मांग करता
है, वह दुख
में पड़ता चला
जाता है। यह
होने वाला
नहीं। समझदार
वह है, जो
संभव को
स्वीकार कर
लेता है और
असंभव को विदा
कर देता है
अपनी कामना से।
द्वंद्व
जीवन का
स्वरूप है। हर
चीज दो में है।
जिससे हम
प्रेम करते
हैं, सोचते
हैं, कभी
इस पर क्रोध न
करें। करना ही
पड़ेगा। जिससे
हम प्रेम करते
हैं, उससे
क्रोध भी होगा,
घृणा भी
होगी, संघर्ष
भी होगा, द्वंद्व
भी होगा, झगड़ा
भी होगा।
प्रेम के साथ
ही घृणा जुड़ी
हुई है। इसलिए
जितने प्रेमी
हैं, लड़ते
रहते हैं। और
जब प्रेमी
लड़ना बंद कर
दें, समझ
लेना कि प्रेम
समाप्त हो गया।
वह जुड़ा है।
उसमें एक को
बचाने का कोई
भी उपाय नहीं
है। या तो
दोनों बचते
हैं, या
दोनों विदा हो
जाते हैं।
अर्जुन
ने एक रूप
देखा
परमात्मा का।
हम भी वह रूप
देखना
चाहेंगे।
लेकिन दूसरे
रूप से भी
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि अगर
जन्म उससे
होता है, तो मृत्यु
भी उसी से
होती है। और
अगर अच्छाई
उससे पैदा
होती है, तो
बुराई भी उसी
से पैदा होती
है। और अगर
जगत में
सौंदर्य का
जन्म उससे
होता है, तो
कुरूपता भी
उसका ही पहलू
है। वह भी
देखना ही
पड़ेगा। वह
दूसरी तरफ
यात्रा शुरू
हो गई। जो लोग
भी परमात्मा
के अनुभव में
जाते हैं, उन्हें
इसकी तैयारी
रखनी चाहिए।
दुनिया
में दो तरह के
धर्म हैं इन
दो रूपों के कारण।
एक तो वे धर्म
हैं, जिन्होंने
इस ऐश्वर्य, महिमा वाले
रूप को
प्रमुखता दी
है। और एक वे
धर्म हैं, जिन्होंने
उस भयंकर रूप
को प्रमुखता
दी है। जैसे
कि पुराना
जरथुस्त्र या
पुराना
यहूदियों का
धर्म ओल्ड
टेस्टामेंट
का, वहां
ईश्वर विकराल
है, भयंकर
है। बहुत कूर
और कठोर है, दुष्ट मालूम
पड़ता है। हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
इसीलिए
जीसस की बात
यहूइदयों को
स्वीकृत न हो सकी।
उसका कारण
जीसस नहीं थे।
उसका कारण था
ओल्ड
टेस्टामेंट, पुराने
यहूदी की जो
ईश्वर की
धारणा थी, उससे
बिलकुल उलटी
बात जीसस ने
कही है।
पुरानी
धारणा यह थी
कि ईश्वर, अगर
तुमने उसके
खिलाफ जरा— सा
भी काम किया, तो तुम्हें
जलाएगा, मारेगा,
सड़ाका, अनंत
काल तक भयंकर
कष्ट देगा, दंड देगा।
नर्क उसने
बनाए हैं।
पुराने
टेस्टामेंट
का जो नर्क है,
वह इटरनल है,
अनंत है।
उसमें जरा से
पाप के लिए भी
फेंका जाएगा
आदमी, तो
फिर दुबारा
वापसी का कोई
उपाय नहीं है।
और ईश्वर एक
भयंकर विकराल
व्यक्तित्व
है, जिसकी आंखों
से लपटें निकल
रही हैं। और
जिसको शांत
करने का एक ही
उपाय है, भय,
स्तुति, प्रार्थना,
उसके चरणों
में सिर को रख
देना। और वह
जो कहता है
उसको मान लेना,
उसकी आशा के
अनुकूल। उसकी
आज्ञा से जरा—सी
प्रतिकूलता
हुई कि वह
भस्म कर देगा।
यह था
यहूदी रूप
ईश्वर का। यह
एक पहलू है।
यह गलत नहीं है।
यह भी ईश्वर
का एक पहलू है।
और ऐसा लगता
है, मोजेज
को इसका अनुभव
हुआ होगा।
मोजेज भूल—चूक
से ईश्वर के
भयंकर पहलू को
पहले देख लिए।
और वह भयंकर
पहलू मोजेज पर
इस तरह आविष्ट
हो गया कि
उन्होंने जो
बात कही, उसमें
वह भयंकर पहलू
केंद्र बन गया।
जीसस
उलटी बात कहते
हैं। वे कहते
हैं, गॉड
इज लव। ईश्वर
प्रेम है।
इसलिए यहूदी
मन जीसस को
स्वीकार नहीं
कर पाया। कहां
ईश्वर था
भयंकर! और
यहूदियों की
सारी साधना
पद्धति यह थी
कि उससे भयभीत
होओ, उससे
डरो। उससे
डरोगे, यही
धार्मिक होने
का लक्षण है।
और जीसस ने
कहा कि ईश्वर
है प्रेम। तो
जिससे प्रेम
है, उससे
डरने की क्या
जरूरत है! और
जिससे हमारा प्रेम
है, उससे
डर समाप्त हो
जाता है। और
जब डर समाप्त
हो जाता है, तो यहूदियों
ने कहा, फिर
ईश्वर का वह
जो रूप— उसको
उन्होंने कहा,
ट्रिमेंडम,
वह जो भयंकर
रूप है, वह
जो विकराल
तांडव करता
रूप है—तो
सारा धर्म
नष्ट हो जाएगा।
इसलिए
जीसस को यहूदी
मन स्वीकार न
कर पाया। ओल्ड
टेस्टामेंट
और न्यू
टेस्टामेंट
बड़ी विपरीत
किताबें हैं, दो पहलू
वाली। लेकिन
एक अर्थ में
बाइबिल पूरी
किताब है।
ओल्ड
टेस्टामेंट, न्यू
टेस्टामेंट
दोनों मिलकर
बाइबिल पूरी किताब
है, क्योंकि
उसमें परमात्मा
के दोनों पहलू
हैं। मोजेज ने
जो देखा
अग्निरूप और
जीसस ने जो
देखा
प्रेमरूप, वे
दोनों समाहित
हैं, दोनों
इकट्ठे हैं
अगर
किसी तरह
यहूदी और
ईसाइयत दोनों
का तालमेल हो
जाए गहरा, तो वह
ईश्वर की पूरी
छवि हो गई।
लेकिन बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि जो
उसके
प्रेमपूर्ण
रूप को प्रेम
कर पाता है, वह सोच ही
नहीं पाता कि
वह भयंकर और
विकराल भी हो
सकता है।
मैं
पीछे जार्ज
गुरजिएफ की
बात कर रहा था।
जार्ज
गुरजिएफ
अनूठा आदमी था।
जैसा हम
साधारणत: साधु
को मानते हैं, ऐसा भी; और जैसा हम
कभी सोच भी
नहीं सकते
साधु को, वैसा
भी। अमेरिका
के बहुत
विचारशील
साधक अलन वाट
ने गुरजिएफ को
रास्कल सेंट
कहा है।
रास्कल सेंट!
बड़ा अजीब शब्द
है। हिंदी में
बनाएं तो और
कठिनाई हो
जाएगी। शैतान
साधु, या
कुछ ऐसा अर्थ
करना पड़े।
मगर
ठीक कहा है
उसने।
गुरजिएफ ऐसा
आदमी था। और
लोगों के ऐसे
अनुभव हैं कि
गुरजिएफ बैठा
है अपने
शिष्यों के
बीच और वह इस
तरफ मुंह
करेगा और उसका
मुंह इतना
प्रेमपूर्ण
होगा और
जो लोग
उसे देखेंगे, प्रफुल्लित
हो जाएंगे। और
वह दूसरी तरफ
मुंह करेगा और
उसकी आंखें
इतनी दुष्ट हो
जाएंगी कि जो
लोग उसको
देखेंगे, वे
एकदम थर्रा
जाएंगे। और ये
दोनों तरफ
बैठे हुए आदमी,
जब उसके
मकान के बाहर
जाकर बात
करेंगे, तो
इनकी बातों का
कोई मेल
ही नहीं हो
सकेगा।
क्योंकि एक ने
चेहरा देखा था
उसका बड़ा
प्यारा; और एक ने
चेहरा देखा
उसका बड़ा
दुष्टता से
भरा हुआ, कि
वह गर्दन दबा
देगा, मार
डालेगा, क्या
करेगा! और वे
दोनों जाकर
बाहर कहेंगे;
एक कहेगा, वह रास्कल
है, और एक
कहेगा, वह
सेंट है।
अलन
वाट कहता है, वह दोनों
था। रास्कल—सेंट
एक ही साथ था
वह आदमी। वह
एक आंख से
क्रोध प्रकट
कर सकता था, और एक से
प्रेम।
बहुत
कठिन है। बहुत
कठिन है। कोई
चालीस साल की
लंबी साधना थी
उसकी इस तरह का
अभिनय करने की, कि वह एक आंख
से क्रोध
प्रकट कर सके
और एक से
प्रेम। और एक
हाथ से प्रेम
दे सके और
दूसरे हाथ से
जहर, एक
साथ! लेकिन एक
अर्थ में वह
पूरा संत था, पूरा।
अगर हम
परमात्मा के
दोनों रूप लें, तो वे जो
संत मछलियों
को दाना चुगा
रहे हैं और
चींटियों को आटा
डाल रहे हैं, वे एक ही
हिस्से वाले
मालूम पड़ते
हैं, अधूरे।
तो दूसरे
हिस्से का
क्या होगा?
कृष्ण
में जरूर
परमात्मा के
दोनों रूप एक
साथ प्रकट हुए
हैं। इसलिए कई
लोगों को
कठिनाई होती
है कि कृष्ण
को समझें कैसे? क्योंकि कृष्ण
का
व्यक्तित्व
बहुत
कंट्राडिक्टरी
है। एक तरफ
आश्वासन देते
हैं कि मैं
युद्ध में अस्त्र
नहीं उठाऊंगा;
मौका आता है,
उठा लेते
हैं। वचन का
कोई भरोसा
नहीं उनके।
बेईमान! हम
सोच भी नहीं
सकते कि साधु,
और वचन दे
और पूरा न करे।
लेकिन
कारण है कि हम
ईश्वर के एक
ही पहलू को
पकड़ते हैं। कृष्ण
में ईश्वर के
दोनों पहलू एक
साथ हैं।
इसलिए कृष्ण
एक तरफ गीता
जैसा अदभुत
ग्रंथ दे पाते
हैं, दूसरी
तरफ
स्त्रियों के
साथ नाच भी
पाते हैं। और
इसमें उन्हें
कोई अड़चन नहीं
है। इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
एक तरफ प्रेम
की बात भी कर
पाते हैं और
दूसरी तरफ
अर्जुन को
युद्ध में
जाने के लिए
सलाह भी दे
पाते हैं।
काटो! इसकी भी
कोई चिंता
नहीं है।
दूसरी तरफ
बांसुरी भी
बजा पाते हैं।
यह बांसुरी
बजाने वाला
कभी कहेगा कि
उठाओ तलवार और
काटो, क्योंकि
कोई कटता ही
नहीं, बेफिक्री
से काटो।
हमारी समझ के
बाहर हो जाता
है।
इसलिए
कृष्ण के भक्त
भी बंटे हुए
हैं। पूरे कृष्ण
को कोई
स्वीकार नहीं
करता। कोई
बांसुरी
बजाने वाले को
स्वीकार करता है, तो बाकी
हिस्से को छोड़
देता है, कि
वह अपने काम
का नहीं है!
सिलेक्ट करना
पड़ता है कृष्ण
में से। कोई
दूसरे हिस्से
को स्वीकार
करता है, तो
फिर बांसुरी
वाले को मानता
है कि यह
कवियों की
कल्पना होगी,
हटाओ।
लेकिन
पूरे कृष्ण
को स्वीकार
करना वैसे ही
मुश्किल है, जैसे
पूरे जीवन को
स्वीकार करना
मुश्किल है।
और जो पूरे
जीवन को
स्वीकार करता
है, वही
केवल कृष्ण
को पूरा
स्वीकार कर
सकता है। और
पूरे जीवन को
स्वीकार करने
का अर्थ है, परमात्मा की
दोनों शक्लें
एक साथ।
दो
शक्लें नहीं
हैं लेकिन
परमात्मा की।
हमने अपने
मुल्क में तीन
शक्लों की बात
की है, दो
तो छोर हैं।
एक उसका
जन्मदाता का
छोर, मां
का। एक
विध्वंस का, मृत्यु का।
ये दो छोर हैं,
ये दो
शक्लें खास
हैं। पर बीच
में एक शक्ल
और है।
क्योंकि जहां
भी दो हों, वहां
जोड्ने के लिए
तीसरे की
जरूरत पड़ जाती
है। ये दो
इतने विपरीत
हैं कि इनको
जोड्ने के लिए
एक तीसरे की
जरूरत है, जो
दोनों के मध्य
में हो।
इसलिए
हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीन
शक्लें, त्रिमूर्ति
की धारणा की
है। उन तीनों
मूर्तियों के
पीछे एक ही
व्यक्ति है।
एक ही शक्ति
है, कहें।
एक ही विराट
ऊर्जा है।
लेकिन एक तरफ
से वह बनाती
है, एक तरफ
से मिटाती है,
बीच में
सम्हालती भी
है। क्योंकि
बनने और मिटने
के बीच में
कोई सम्हालने
वाला भी चाहिए।
अगर
ब्रह्मा और
महादेव ही हों
जगत में, तो बनना—मिटना
काफी होगा, लेकिन और
कुछ नहीं होगा।
बीच में कुछ
भी नहीं होगा।
इधर ब्रह्मा
बना नहीं
पाएंगे, वहां
महादेव मिटा
डालेंगे! आपको
रहने का बीच में
मौका नहीं
मिलेगा।
संसार के लिए
उपाय नहीं
रहेगा। इसलिए
विष्णु!
इसलिए
हमने सारी
जमीन पर जो
मंदिर बनाए, वे
विष्णु के
मंदिर हैं। और
सारे अवतार
विष्णु के
अवतार हैं।
उसका कारण है।
क्योंकि वे
बीच में हैं।
वही संसार है
हमारा।
विष्णु संसार
हैं। दो छोर
हैं, ब्रह्मा
और महादेव तो।
महादेव की हम
पूजा करते हैं,
तो भय के
कारण, कि
मना—बुझा लो, समझा—बुझा
लो।
आपको
पता है कि भय
के कारण हम
बहुत पूजा
करते हैं। सभी
लोग अपनी बही—खाता
शुरू करते हैं, श्री
गणेशायनम:, गणेश जी की
स्तुति से।
आपको पता नहीं
कि क्यों? शायद
आप भी करते होंगे,
लेकिन पता
नहीं। गणेश जी
की स्तुतइr मकान पर
बनाए रखते हैं।
हर जगह पहले
कुछ करना हो, तो गणेश जी
की पहले पूजा—
प्रार्थना
करनी पड़ती है।
उसका
कुल कारण इतना
है कि पुराने
शास्त्र कहते
हैं कि गणेश
जो हैं, वे पहले
बहुत
विध्वंसकारी
थे, बहुत
उपद्रवी थे।
और जहां भी कुछ
शुभ कार्य हो
रहा हो, वहां
विध्न खड़ा
करना उनका काम
था। विध्नेश्वर
उनका पुराना
नाम है। तो
चूंइक उपद्रव
वे न करें, इसलिए
पहले उनकी
स्तुति करके
हम समझा—बुझा
लेते हैं कि
कोई गड़बड़ न
करना महाराज!
श्री
गणेशायनम:। तो
उनका हम पहले
स्मरण करते
हैं।
यह
अक्सर हो जाता
है। जिससे भय
होता है, उसको पहले
स्मरण करना
होता है। अब
तो हम भूल भी
गए कि वे विध्नेश्वर
हैं। अब तो हम
समझते हैं कि
वे
मंगलमूर्ति
हैं। उपद्रवी
हैं! उपद्रव
से बचने के
लिए, कि
आपको पहले
मनाए लेते हैं,
फिर किसी और
की करेंगे
पूजा और
प्रार्थना।
आप पहले राजी
रहें, नहीं
तो सब उपद्रव
हो जाएगा।
शंकर
की भी हम पूजा—प्रार्थना
करते हैं भय
के कारण।
ब्रह्मा की हम
कोई पूजा नहीं
करते। शायद एक
मंदिर है
मुल्क में
ब्रह्मा के
लिए और कोई
मंदिर नहीं है।
क्योंकि क्या
करना, वह
तो बात खतम हो
गई। ब्रह्मा
ने जन्म दे
दिया, अब
कुछ और काम है
नहीं उनका।
शंकर का अभी
थोड़ा डर है, क्योंकि मौत
वे देंगे।
विष्णु के
सारे मंदिर
हैं। और सब
रूप—राम हों, कृष्ण हों—
सब विष्णु के
रूप हैं। और
हम उनके मंदिर
में पूजा करते
हैं, प्रार्थना
करते हैं।
विष्णु संसार
हैं। वह मध्य
है। ये दो छोर
द्वंद्व हैं।
और इन दोनों
छोरों को
जोड्ने वाली
लकीर विष्णु।
दूसरा
छोर अर्जुन को
दिखाई पड़ना
शुरू हो रहा है।
अग्निरूप
मुख वाला तथा
अपने तेज से
इस जगत को तपायमान
करता हुआ
देखता हूं। और
हे महात्मन्!
यह स्वर्ग और
पृथ्वी के बीच
का संपूर्ण
आकाश तथा
दिशाएं एक
आपसे ही
परिपूर्ण हैं।
तथा आपके इस
अलौकिक और
भयंकर रूप को
देखकर, अलौकिक और
भयंकर रूप को
देखकर, तीनों
लोक अतिव्यथा
को प्राप्त हो
रहे हैं।
अर्जुन
को दिखाई पड़
रहा है, यह दूसरा
रूप। और उसे
साथ में दिखाई
पड़ रहा है, इस
दूसरे रूप के
कारण सारा लोक
व्यथित हो रहा
है।
आप
व्यथित हो रहे
हैं किसलिए? बीमारी
है, दुख है,
मौत है, यह
दुख है।
मृत्यु गहन
दुख है। और
सारे दुख उसी
की छायाएं हैं।
हर आदमी कैप
रहा है, दुखी
हो रहा है, घबड़ा
रहा है, मिट
न जाऊं। जब
कोई इस विराट
को अनुभव करता
है दूसरे रूप
में, तो
देखा होगा
अर्जुन ने कि
सारे लोग
मृत्यु के मुंह
में चले जा
रहे हैं, चाहे
वे कुछ भी कर
रहे हों, चाहे
वे दुकान जा
रहे हों, मंदिर
जा रहे हों, घर लौट रहे
हों। कहीं भी
जा रहे हों आप,
आपका जाना—आना
कुछ अर्थ नहीं
रखता। एक बात
तय है कि आप
मौत के मुंह
में जा रहे
हैं। चाहे
दुकान जा रहे
हैं, चाहे
घर आ रहे हैं।
हर हालत में
आप मौत के
मुंह में जा
रहे हैं।
जब
अर्जुन को
प्रतीत हुआ
होगा यह
विकराल अग्निमुख, तब उसने
देखा होगा, सारा लोक, सारे प्राणी,
मौत के मुंह
में चले जा
रहे हैं और हर
एक कंप रहा है।
यह एक
बहुत गहन
अनुभव है। अगर
आप भी आंख बंद
करके लोगों के
बाबत सोचें—यहां
इतने लोग बैठे
हैं, अगर आंख
बंद करके
क्षणभर को
सोचें— तो
यहां जो लोग
बैठे हैं, वे
सब मौत के
मुंह में जा
रहे हैं। एक
घंटा व्यतीत
हुआ, तो आप
मौत के मुंह
में सरक गए और
थोड़ा ज्यादा।
कोई आज मरेगा,
कोई कल
मरेगा, कोई
परसों मरेगा,
समय का ही
फासला है। हम
सब लाशें हैं,
जिन पर
तारीखें लिखी
हैं कि कब
घोषणा हो
जाएगी। लाशें
चल रही हैं, गिर रही हैं,
उठ रही हैं
और कैप रही
हैं, क्योंकि
वह तारीख..!
गुरजिएफ कहा
करता था कि अगर
इस जमीन को अब
धार्मिक
बनाना हो, तो
एक ही उपाय है।
और वह कहता था,
वैज्ञानिकों
को सारी चिंता
छोड्कर एक
यंत्र खोज
लेना चाहिए
घड़ी की तरह, जो हर आदमी
के हाथ पर
बांध दिया जाए,
जो हमेशा
उसको बताता
रहे कि अब मौत
कितने करीब है।
वह कांटा उसका
घूमता रहे।
यह हो
सकता है, कठिन नहीं
है। लेकिन
वैज्ञानिक
अगर बनाएंगे
भी, तो हम
उस वैज्ञानिक
को ही मार
डालेंगे, वह
यंत्र भी तोड़
देंगे। यंत्र
बन सकता है, क्योंकि
शरीर के
स्पंदन बताते
हैं कि अब
आपमें कितना
जीवन शेष है, आज नहीं कल।
क्योंकि
बच्चा जब पैदा
होता है, तो
उसके जो
क्रोमोसोम
हैं, उसकी
जो बनावट के
बुनियादी
ढांचे हैं, जिस पर खड़ा
है सारा जीवन,
उनकी नाप—जोख
हो सकती है कि
ये कितनी देर
चलेंगे! जैसे
आप घड़ी खरीदते
हैं, तो दस
साल की गारंटी
हो सकती है।
तो
बच्चा पैदा
होता है, उसकी सारी
की सारी, जिस
दिन हम शरीर
की व्यवस्था
को पूरा समझ
लेंगे, उसके
जीवन—कोष्ठ की
व्यवस्था को,
उस दिन हम
कह सकेंगे कि
यह बच्चा
सत्तर साल चलेगा,
कि अस्सी
साल चलेगा। तो
फिर एक यंत्र
उसके हाथ पर
बिठाया जा
सकता है, जो
बताता रहेगा
कि अब कितना
कम होता जा
रहा है। घडी
का कांटा
घूमता रहेगा
और मौत की तरफ
आता रहेगा। और
एक दिन आकर
मौत पर रुक
जाएगा।
लेकिन
गुरजिएफ कहता
है कि अगर यह
यंत्र खोज लिया
जाए, तो
दुनिया आज फिर
से धार्मिक हो
सकती है।
वह ठीक
कहता है।
यंत्र चाहे
खोजा जाए या न
खोजा जाए, जिस आदमी
को भी मौत का
खयाल आना शुरू
हो जाता है, उसकी जिंदगी
में परिवर्तन
शुरू हो जाता
है। क्योंकि
जिसको भी यह
पता चल जाए कि
मैं मिट जाऊंगा,
उसकी सारी
वासनाओं का
अर्थ खो जाता
है। सब फ्यूटायल,
सब व्यर्थ
मालूम होने
लगता है। क्या
अर्थ है फिर
एक मकान बनाने
का? फिर
क्या अर्थ है
इतना धन
इकट्ठे करने
का? फिर
क्या अर्थ है
कि इतने लोग
इज्जत दें, प्रतिष्ठा
करें?
कुछ भी
अर्थ नहीं है।
मुर्दे
मुर्दों से
प्रतिष्ठा
मांग रहे हैं!
मुर्दे
मुर्दों से
इज्जत इकट्ठी
कर रहे हैं।
और कुल फर्क
इतना है कि हम
आते थोड़ी देर
से हैं, आप जाते
थोड़े जल्दी
हैं। या हम
जाते थोड़े
जल्दी हैं, आप आते थोड़ी
देर से हैं।
क्यू है। वह
जो बस के पास
क्यू लगा रहता
है! क्यू लगाकर
हम मौत के पास
खड़े हैं। आपके
पिता जरा आगे
होंगे, आपका
बेटा जरा पीछे
होगा, आप
जरा क्यू के
बीच में होंगे।
बाकी क्यू लगा
हुआ है और उधर
मुंह है।
अर्जुन
को दिखा होगा, सारा
प्राणी—जगत
क्यू लगाए खड़ा
है, और मौत
के मुंह में
जा रहा है, और
लपटें हर एक
के ऊपर घूम
रही हैं।
इसलिए वह कह
रहा है कि
सारा जगत, आपके
इस अलौकिक और
भयंकर रूप को
देखकर तीनों लोक
अतिव्यथा को
प्राप्त हो
रहे हैं।
अलौकिक
भी है यह रूप
और भयंकर भी!
अलौकिक क्यों? भयंकर
कैसे अलौकिक
कहा होगा
अर्जुन ने?
अगर आप
पूरे को देख
पाएं, तो
जब पतझड़ हो
रही है और पत्ते
गिर रहे हैं
और वृक्ष नग्न
हो गए हैं— अगर
आपको दिखाई
पड़ता हो थोड़ा
गहरा, अगर
आपके पास
झांकने की
क्षमता हो— तो
ये जो पत्ते
गिर गए हैं और
वृक्ष नग्न हो
गए हैं, यह
आने वाली बहार
की खबर है। ये
गिरते हुए
पत्ते नये आने
वाले पत्तों
के द्वारा
धक्का दिए गए
हैं। भीतर से
नये पत्ते आ
रहे हैं, वह
जगह बना रहे
हैं। वे
पुराने पत्तों
को धक्का देकर
गिरा रहे हैं।
वृक्ष थोड़ी
देर को नग्न
हो गया है, क्योंकि
फिर दुल्हन की
तरह सजने की
उसकी तैयारी
है। तो एक तरफ
पतझड़ बहुत
विकराल है, और दूसरी
तरफ पतझड़ वसंत
के आगमन की
खबर है, वह
जो आने वाला
है, वह जो
हो रहा है। एक
तरफ मौत दुख
है। लेकिन हर
मौत जन्म की
खबर है। जब एक
का आदमी मर
रहा है, तो
हमें सिर्फ एक
मरता हुआ आदमी
दिखाई पड़ता है।
हमें पता नहीं
कि जैसे नया
पत्ता पुराने
पत्ते को
धक्का देकर
गिरा रहा है।
कोई नया बच्चा
इस जगत में
प्रवेश कर रहा
है, एक
पुराने शरीर
को गिरा रहा
है।
अगर हम
इस पूरे को
देख पाएं, तो हम
देखेंगे कि एक
नया बच्चा
किसी गर्भ में
प्रवेश कर गया
है, और एक
का आदमी कब के
किनारे आ गया
है। वह नया
बच्चा गर्भ
में बढ़ने
लगेगा और यह
का आदमी कब्र
में प्रवेश
करने लगेगा।
वह नया बच्चा
गर्भ को छलांग
लगाकर बाहर आ
जाएगा, यह
का आदमी छलांग
लगाकर कब्र
में प्रवेश कर
जाएगा। ये जरा
दूर हैं फासले
पर, इसलिए
हमें दिखाई
नहीं पड़ते, जरा बड़ा
पर्सपेक्टिव,
जरा बड़ा
परिप्रेक्ष्य,
देखने की
नजर चाहिए। तो
का आदमी जब मर
रहा है, तो
नया बच्चा
पैदा हो रहा
है।
इसलिए
अर्जुन कहता
है, अलौकिक
और भयंकर। इधर
देखता हूं कि
जन्म हो रहा
है। इधर देखता
हूं कि मौत हो
रही है। और
देखता हूं कि
जन्म और मौत
किसी एक ही
चीज के दो पैर
हैं, जिसे
हम जीवन कहते
हैं। तो बहुत
अलौकिक है।
अलौकिक
क्यों? क्योंकि लोक
में ऐसा दिखाई
नहीं पड़ता।
अलौकिक का
मतलब है, जैसा
लोक में दिखाई
नहीं पड़ता।
यहां तो हम
बच्चे को
बच्चा देखते
हैं, के को
बूढ़ा देखते
हैं। पतझड को
पतझड़ और वसंत
को वसंत देखते
हैं। यहां हम
दोनों को
जोड़कर नहीं
देखते।
लेकिन
जो आदमी जरा
ऊपर उठता है
और दृष्टि
उसकी खुलती है, उसे
दिखाई पड़ता है,
ये दोनों तो
जुड़े हैं। कल
तक हमने समझा
था, जन्म
अलग, मौत
अलग। अब हम
देखते हैं, वे एक ही हैं।
वे एक ही लहर
के दो छोर हैं।
यह अलौकिक है।
इसलिए
अर्जुन को
लगता है, बड़ा अलौकिक!
क्योंकि हम तो
सोचते थे, सुंदर
अलग, कुरूप
अलग। हम तो
सोचते थे, मित्र
अलग, शत्रु
अलग। हम तो
सोचते थे, अपना—पराया।
यहां तो दोनों
एक हैं।
द्वंद्व, हम
सोचते थे, विपरीत
हैं; यहां
पता चलता है
कि द्वंद्व तो
मिले हैं। यह
तो साजिश है।
यह तो जन्म और
मौत की साजिश
है। ये दोनों
एक साथ जुड़े
हैं। अब तक
हमने विपरीत
समझा था। हमने
सोचा था, मृत्यु
जो है, वह
जन्म के खिलाफ
है। और हमने
चाहा था कि
मृत्यु को रोक
दें, ताकि
जगत में जन्म
ही जन्म रह
जाए।
लेकिन
हमें पता नहीं
है कि हम जो
सोचते हैं, वह हो
नहीं सकता, क्योंकि
व्यवस्था
अस्तित्व की
हमारे खयाल में
नहीं है। जिस
दिन जन्म हुआ,
मौत हो गई।
जन्म के साथ
ही मरना शुरू
हो गया। आप कल
मरेंगे, लेकिन
मरने का काम
आपको जीवनभर
करना पड़ेगा, तब तो
मरेंगे। एकदम
से कैसे
मरेंगे! इस
जगत में कुछ
भी एकदम से
नहीं घटता।
प्रक्रिया है,
सीढ़ी—सीढ़ी
चढ़ेंगे और
मरेंगे।
तो
जन्म पहला कदम
है मौत की तरफ।
अगर जन्म पहला
कदम है मौत की
तरफ, तो
जो देखता है
उसको दिखाई
पड़ेगा, मौत
फिर पहला कदम
है नये जन्म
की तरफ।
हम
मरते आदमी को
देखते हैं कि
मर गया, क्योंकि
हमें आगे कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। हमें
लगता है कि बस,
एक खाई के
किनारे जाकर
एक आदमी गिर
गया, खतम
हो गया।
क्योंकि हमें
आगे दिखाई
नहीं पड़ता।
लेकिन जहां
मौत घट रही है,
तत्क्षण
उससे जुड़ा हुआ
जन्म घट रहा
है। क्योंकि
इस जगत में
कुछ भी मिट
नहीं सकता।
मिटने का कोई
उपाय ही नहीं
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, रेत के एक
छोटे—से कण को
भी नष्ट नहीं
किया जा सकता।
इस जगत में
जितना है, जो
है, वह
उतना ही है, उतना ही
रहेगा। न हम
उसमें कुछ जोड़
सकते हैं, न
कुछ घटा सकते
हैं।
तो फिर
एक आदमी मरता
है, मर
कैसे सकेगा? कुछ मिटता
नहीं है, तो
यह आदमी कैसे
मिट सकेगा? यह केवल
हमारी नजर से
ओझल हुआ जा
रहा है। जहां
तक हम देख
सकते हैं, वहां
तक दिखाई पड़
रहा है; उसके
पार हम नहीं
देख सकते। यह
किसी नये
डायमेंशन में,
किसी नये
आयाम में
प्रवेश कर रहा
है, जहां
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
जैसे
एक जहाज जाता
है पानी में।
दिखाई पड़ता है, दिखाई
पड़ता है, दिखाई
पड़ता है। फिर
फीका होता
जाता है, फीका
होता जाता है।
फिर अचानक
तिरोहित हो
जाता है।
क्योंकि जमीन
गोल है। जैसे
ही जमीन की उस
गोलाई को जहाज
पार कर लेता है,
जिसके पार
गोलाई उसको
छुपाने का
कारण बन जाएगी,
हमारी आंख
से ओझल हो
जाता है, गया!
मृत्यु
भी एक वर्तुल, एक
गोलाकार घटना
है। जन्म और
मृत्यु तक आधा
वर्तुल पूरा
होता है। फिर
मृत्यु से
जन्म तक आधा
वर्तुल पूरा
होता है।
मृत्यु के
किनारे जाकर
एक चेतना उस
ओझल होते जहाज
की तरह आगे
निकल जाती है,
जहां तक हम
देखते हैं उस
सीमा के आगे।
हम कहते हैं, आदमी मर गया।
शरीर गिरकर
हमारे पास रह
जाता है, चेतना
नये जन्म की
यात्रा पर
निकल जाती है।
जब अर्जुन ने
देखा होगा कि
जन्म और मौत एक
ही वर्तुल के
हिस्से हैं, सुंदर—कुरूप
एक ही वर्तुल
के हिस्से हैं,
मित्र—शत्रु
एक ही बात है, तो अलौकिक
लगा होगा!
क्योंकि लोक
में ऐसा अनुभव
नहीं होता। और
भयंकर भी लगा
कि यह क्या है
सब! घबड़ाने
वाला भी लगा।
और यह
देखकर कि सारा
जगत इसमें
फंसा हुआ है, वह कहने लगा,
और हे
गोविंद! वे
देवताओं के
समूह आप में
ही प्रवेश कर
रहे हैं और कई
एक भयभीत होकर
हाथ जोड़े हुए
आपके नाम और
गुणों का
उच्चारण कर
रहे हैं।
देवता
भयभीत होकर, हाथ जोड़े
हुए, आपके
ही नाम और
गुणों की
स्तुति कर रहे
हैं! यह थोड़ा
विचारें।
मनस्विद, समाजशास्त्री
कहते हैं कि
धर्म का जन्म
भय से हुआ है।
उनके कारण
दूसरे हैं। वे
कहते हैं, आदमी
डरता रहा है
प्रकृति की
शक्तियों से।
और डर की वजह
से उन्हें
फुसलाने के
लिए हाथ जोड़कर
प्रार्थना
करता रहा है।
आकाश में बादल
गरजते हैं, अगर आप गुफा
में रहते रहे
होंगे कभी, तो घबड़ा गए होंगे।
प्रकृति की
विराट
शक्तियां हैं,
विध्वंस कर
सकती हैं।
क्षण में पहाड़
गिर जाते हैं,
लोग दबकर
नष्ट हो जाते
हैं। भूकंप
होता है, लोग
विनष्ट हो
जाते हैं, खो
जाते हैं।
गर्जना होती
है बिजली की, कुछ समझ
नहीं आता।
तूफान आते हैं,
बाढ़ आती है,
और कुछ आदमी
कर नहीं सकता।
तो
विज्ञानविद
कहते हैं कि
आदमी उस भय की
स्थिति में एक
ही बात सोच
सका, और
वह यह था कि यह
जो इतनी भयभीत
करने वाली शक्तियां
हैं, इनसे
प्रार्थना की
जाए, इन्हें
परसुएड, फुसलाया
जाए कि नाराज
मत होओ। वह
यही सोच सका
कि नाराज हो
गई है नदी, इसलिए
हाथ जोड़कर
प्रार्थना
करो। नाराज हो
गए हैं बादल, इसलिए पानी
नहीं गिर रहा
है। हाथ जोड़कर
प्रार्थना
करो। कुछ पूजा
करो, स्तुति
करो, महिमा
गाओ।
वैज्ञानिक
कहते हैं, इसी भय से
धर्म का जन्म
हुआ है। थोड़ी
दूर तक उनकी
बात सच है, लेकिन
बहुत ज्यादा
दूर तक नहीं
है। बहुत
ज्यादा दूर तक
नहीं है। थोड़ी
दूर तक इसलिए
सच है कि जरूर
भय का थोड़ा हाथ
है। लेकिन
इतना ही भय
काफी नहीं है।
असली
भय न तो
नदियों का है, असली भय न
तो पहाड़ों के गिरने
का है, असली
भय न तो
ज्वालामुखियों
के फूटने का
है, असली
भय तो मौत का
है। मौत के भय
के कारण ही
बाढ़ भी भयभीत
करती है, ज्वालामुखी
भी भयभीत करता
है, गिरता
पहाड़ भी भयभीत
करता है।
लेकिन अगर
पहाड़ गिरे और
आप न मरें और
वैसे के वैसे
ही वापस निकल
आएं, फिर
पहाड़ भयभीत
नहीं करेगा।
बाढ़ आए और कुछ
न बिगाड़ पाए, पृथ्वी कंपे
और आप अडिग
बैठे रहें और
आपका बाल भी
बांका न हो, तो फिर भय
नहीं होगा।
तो न तो
पहाड़ों का भय
है, न
नदियों का भय
है, न
सूर्यों का भय
है, भय तो
सिर्फ एक है, मौत का।
उसको अगर हम
ठीक से समझें,
तो एक ही भय
है, मिट
जाने का। मैं
नहीं हो
जाऊंगा। मैं
नहीं बचूंगा।
मेरा मिटना हो
जाएगा, मैं
शून्य हो
जाऊंगा। ना—कुछ
हो जाऊंगा।
मेरी सब
रेखाएं खो
जाएंगी, जैसे
रेत पर बनी
रेखाएं, हवा
का झोंका आए
और मिट जाएं।
ऐसा मैं नहीं
हो जाऊंगा, यह नथिगनेस.......।
सार्त्र
ने एक किताब
लिखी है, बीइंग एंड
नथिगनेस—होना
और न होना।
सारी कथा जीवन
की यही है।
हैं हम, और
न होना हमें
चारों तरफ से
घेरे हुए है।
और कुछ भी
करें, वह
कंपाता है कि
आज नहीं कल, आज नहीं कल
मैं नहीं हो
जाऊंगा। यह है
भय।
निश्चित
ही, इस
भय से धर्म का
विचार पैदा
हुआ होगा। और
यह खयाल में
आना शुरू होगा
कि अगर नहीं
ही हो जाना है,
तो इसके
पहले कि मैं
नहीं हो जाऊं,
मैं थोड़ा इसका
भी तो पता लगा
लूं कि क्या
कुछ मेरे भीतर
ऐसा भी है, जिसे
दुनिया की कोई
शक्ति मिटा
नहीं सकती? क्या सारी
मृत्यु भी आ
जाए, तो भी
मेरे भीतर कोई
अमृत बचेगा? क्या मैं
बचूंगा? सारे
मिटने की घटना
के बाद भी
क्या कुछ बच
रहेगा? वह
कुछ क्या है? उसको ही हम
आत्मा कहते
हैं। वही सार
है। जिसको
मृत्यु नहीं
मिटा पाती, उसका नाम
आत्मा है।
अगर
आपको ऐसा पता
चलता हो कि जो
भी आप अपने
बाबत जानते
हैं, वह
मृत्यु में
मिट जाएगा, तो आप पक्का
समझना, आपको
आत्मा का कोई
पता नहीं है।
अगर आपको ऐसी
किसी चीज का
अनुभव होता हो
आपके भीतर जो
मृत्यु में
नहीं मिटेगा,
तो ही समझना
कि आपको आत्मा
का कोई अनुभव
शुरू हुआ है।
आत्मा मानने
की बात नहीं
है, अनुभव
की बात है।
आत्मा मृत्यु
के विपरीत खोज
है।
तो
अर्जुन देख
रहा है कि
आदमी की तो
बिसात क्या, देवता भी कंप
रहे हैं। वे
भी हाथ जोड़े
खड़े हैं। उनके
भी घुटने टिके
हैं। वे भी
प्रार्थना कर
रहे हैं। वे
आपका नाम लेकर
उच्चारण कर
रहे हैं, स्तुति
कर रहे हैं!
क्यों? क्योंकि
देवता भी
मिटने से उतना
ही डरा हुआ है।
बुरा
आदमी ही मिटने
से डरता है, ऐसा मत
समझना; भला
आदमी भी मिटने
से डरता है।
बल्कि कई दफे
तो बुरे आदमी
से ज्यादा भला
आदमी मिटने से
डरता है।
क्योंकि भले
को लगता है कि
इतना सब भला
किया और मिट
गए। बुरे को
लगता है, डर
भी क्या है!
ऐसा कुछ किया
भी क्या है, जिसको बचाने
की जरूरत हो।
मिट गए, तो
मिट गए। और
बुरा तो
चाहेगा कि मिट
ही जाएं तो
अच्छा है, क्योंकि
जो किया है, कहीं उसका
फल न भुगतना
पड़े। भला
चाहता है कि
बचे, क्योंकि
इतना उपद्रव
किया, इतनी
साधना की, इतने
व्रत—उपवास
किए, इतनी
पूजा—प्रार्थना
की, और मिट
गए। तो इसका
पुरस्कार? तो
नाहक ही जीवन
गया!
देवता
भली चेतनाओं
के नाम हैं, शुद्धतम
चेतनाओं के
नाम हैं।
लेकिन देवता
वासना के बाहर
नहीं हैं।
शुद्धतम
चेतना है, लेकिन
वासना के भीतर
है। इसलिए
हमने मनुष्य
से देवता को
एक अर्थ में ऊपर
रखा है, कि
वह मनुष्य से
ज्यादा
शुद्धतर
स्थिति है।
लेकिन एक अर्थ
में नीचे भी
रखा है, क्योंकि
अगर उसको
मुक्त होना हो,
तो उसे
मनुष्य में वापस
लौट आना पड़ेगा।
मनुष्य
चौराहा है।
पशु होना हो, तो
मनुष्य की तरफ
से यात्रा
जाती है।
देवता होना हो,
तो मनुष्य
की तरफ से
यात्रा जाती
है। और अगर
समस्त जीवन के
पार जाना हो, तो भी
मनुष्य से ही
यात्रा जाती
है।
तो
देवता एक छोर
है शुद्ध होने
का। इसे हम
ऐसा समझें कि
अगर नैतिक
आदमी सफल हो
जाए पूरी तरह, तो देवता
हो जाएगा।
नैतिक आदमी
अगर सफल हो
जाए पूरी तरह,
जो दस
धर्मों को
मानकर चलता है,
अगर सफल हो
जाए पूरी तरह,
अहिंसा, सत्य,
अपरिग्रह, अचौर्य, सब
सध जाए, सारे
पाप क्षीण हो
जाएं और सारे
पुण्य उसे उपलब्ध
हो जाएं, तो
जो हमारी
अंतिम कल्पना
है, वह यह
है कि वह
देवता हो
जाएगा। वह
शुद्धतम होगा,
उसके पास
शरीर नहीं
होगा, सिर्फ
चेतना होगी।
उसके पास
इंद्रियां
नहीं होंगी, लेकिन वासना
होगी।
इंद्रियों के
कारण वासना को
जो बाधा पड़ती
है, वह उसे
नहीं पड़ेगी।
उसकी वासना, उसकी इच्छा,
पैदा होते
ही पूर्ण हो
जाएगी, उसी
क्षण। वह
सोचेगा, यह
हो, वैसा
हो जाएगा।
उसकी वासना
में और वासना
के पूरे होने
में समय का
व्यवधान नहीं
होगा।
आपको
भूख लगती है, तो फिर
रोटी बनानी
पड़ती है, भोजन
पकाना पड़ता है,
या होटल
जाना पड़ता है,
आर्डर करना
पड़ता है, समय
लगता है।
देवता को भूख
लगेगी, भोजन
हो जाएगा। बीच
में कोई
इंद्रियां
नहीं हैं, जिनकी
वजह से समय के
लिए कोई बाधा।
पड़े, कोई
माध्यम नहीं
है। उसकी
वासना उसकी
तृप्ति होगी।
लेकिन वासना
होगी, शुद्ध
वासना होगी।
लेकिन
वासना जहां
होती है, वहां अहंकार
भी होता है।
और जहां ' अहंकार
होता है, वहां
मिटने का डर
भी होता है।
जब तक लगता है,
मैं हूं तब
तक मिटने का
डर भी रहेगा।
तो देवता भी
डर रहा है।
बल्कि सच तो
यह है कि
देवता आपसे
ज्यादा डर रहे
हैं, क्योंकि
उनके पास खोने
को ज्यादा है।
कम्युनिस्ट
कहते हैं कि
जब तक जमीन पर
किसी मुल्क
में बड़ी
संख्या ऐसी न
हो जाए जिसके
पास खोने को
कुछ भी नहीं, तब तक
क्रांति नहीं
हो सकती। वे
ठीक कहते हैं।
मध्यवर्गीय
आदमी कभी
क्रांतिकारी
नहीं होता। और
धनपति तो क्रांतिकारी
होगा कैसे!
क्योंकि
क्रांति का
मतलब है, जो
है, वह खो
जाएगा।
मध्यवर्गीय
भी
क्रांतिकारी
नहीं होता।
इसलिए
अमेरिका में
कोई क्रांति
नहीं हो रही।
क्योंकि
अमेरिका में
पूरा देश
मध्यवर्गीय हो
गया है। गरीब
से गरीब आदमी
भी। बिलकुल
गरीब नहीं है, उसके पास
भी कुछ है। और
वह जो कुछ है, वह खुद उसको
बचाना चाहता
है, तो
क्रांति की
बातचीत में वह
नहीं पड़ सकता।
क्योंकि
क्रांति में
खोने का डर है।
और अगर तुम
दूसरों से
छीनने जाओगे,
तुम्हारा
भी छिन जाएगा।
तो क्रांति
रोकने का एक
ही उपाय
अमेरिका में सफल
हो पाया है, और वह यह कि
जो क्रांति कर
सकते हैं, उनके
पास कुछ होना
चाहिए। अगर
पास कुछ भी
नहीं है, तो
फिर बहुत
उपद्रव है, फिर क्रांति
होगी।
डर
क्या है? डर हमेशा यह
है कि जो मेरे
पास है, वह
खो न जाए।
इसलिए
आपने
कहानियां
सुनी हैं
पुरानी, लेकिन कभी
इस कोण से
नहीं देखा
होगा। इस पूरे
प्राणियों के
विस्तार में
इंद्र से ज्यादा
भयभीत, पुरानी
कहानियों में
कोई भी नहीं
मालूम पड़ता। हमेशा
उसका सिंहासन
डगमगा जाता है।
जरा ही किसी
ने तपस्या की
कि उनको तकलीफ
शुरू हुई! कोई
साधु—मुनि
बेचारा
ब्रह्मचारी
हुआ, कि वे
मुश्किल में
पड़े, कि
उन्होंने
अपनी
अप्सराएं
भेजीं, कि
करो भ्रष्ट
इसको! आखिर
इंद्र को इतना
डर क्या है 2:
इतना क्या भय
है? भय का
कारण है। उसके
पास है। वह
शिखर पर बैठा
है वासना के।
देवता
शुद्धतम
वासना हैं। और
देवताओं में
श्रेष्ठतम
वासना, आखिरी
शिखर, एवरेस्ट,
गौरीशंकर, वह इंद्र है।
वहां एक ही
पहुंच सकता है।
वह शिखर आखिरी
है, चोटी।
वहां दो नहीं
हो सकते।
तो जब
भी नीचे से
कोई ऊपर चढ़ने
की कोशिश शुरू
करता है, तब वह शिखर
कंपने लगता है।
और इंद्र
घबड़ाता है।
इसके पहले कि
यह आदमी चढ़े, इसको उतारने
की कोशिश करो।
और आदमी चढ़े, इसको
उतारने के लिए
स्त्री से
ज्यादा बेहतर
और कुछ भी
नहीं है। भेजो
स्त्री को! वह
तो स्त्रियों
ने साधना नहीं
की, नहीं
तो आदमियों को
भेजना पड़ता, वह कोई बात
नहीं है!
स्त्रियां इस
झंझट में नहीं
पड़ी कि क्यों
तकलीफ दो!
इंद्र को काहे
को हिलाओ!
किसी को क्यों
तकलीफ दो!
यह जो
भय है इंद्र
का, यह
बहुत
साइकोलॉजिकल
है, यह
बहुत मनस के
गहरे में है।
जो भी शिखर पर
होगा किसी चीज
के, वह
उतना ही ज्यादा
भयभीत हो
जाएगा। आप जिस
मजे से सोते
हैं, प्रधानमंत्री
नहीं सो सकता।
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
कई ऋषि—मुनि
नीचे कोशिश कर
रहे हैं! वे चढ़
रहे हैं! कुछ भेजो
उनके लिए। कोई
अप्सरा भेजो।
कोई पद भेजी।
कहीं गवर्नर
बनाओ। कुछ।
करो। नहीं तो
वे ऋषि—मुनि आ
रहे हैं! वे चढ़
दौड़ेंगे। आज
नहीं कल
उतारकर
प्रधानमंत्री
को, राष्ट्रपति
को, नीचे
करेंगे। खुद!
आखिर वहां एक
ही बैठ सकता
है। तो वह जो
एक बैठा हुआ
है, दिक्कत
में है।
लाओत्से
ने कहा है, उस जगह
रहना जो आखिरी
हो, ताकि
कोई तुम्हें
धक्का देने न
आए। आखिरी जगह
खड़े हो जाना, ताकि
तुम्हें कोई
धक्का न दे।
अगर पहले जाने
की कोशिश
करोगे, तो
अनेक तुम्हें
पीछे खींचने
की कोशिश
करेंगे।
तो
इंद्र बेचैन
है।
कृष्ण
से अर्जुन कह
रहा है कि
देवताओं को भी
मैं देख रहा
हूं कि वे कंप
रहे हैं, भयभीत होकर
हाथ जोड़े हुए
हैं, आपके
नाम और गुणों
का उच्चारण कर
रहे हैं।
महर्षि और
सिद्धों के
समुदाय, ; कल्याण
होवे, ऐसा
कहकर उत्तम—उत्तम
शब्दों
द्वारा आपकी
प्रशंसा ! कर
रहे हैं।
महर्षि
और सिद्धों के
समुदाय भी कह
रहे हैं, कल्याण, कल्याण
होवे। दया हो,
कृपा हो, अनुग्रह हो!
महर्षि और
सिद्धों के
समुदाय भी क्यों
घबड़ा रहे हैं?
मिटने
का भय आखिरी
सीमा तक है।
आखिरी सीमा
तक! जिसने
बहुत—सी
सिद्धियां पा
ली हैं, उसको सिद्ध
कहा है। ये
सिद्ध महावीर
और बुद्ध के
अर्थों में
नहीं हैं।
सिद्ध उसको
कहा है, जिसने
बहुत—सी
सिद्धियां पा
ली हैं, ऋद्धियां—सिद्धियां
पा ली हैं, चमत्कार
कर सकता है।
वह भी कैप रहा
है। महर्षि, जो बहुत
जानते हैं, शान का
अंबार जिनके
ऊपर है, जिनकी
जानकारी का
कोई अंत नहीं
है, वे भी
कंप रहे हैं।
वे भी कह रहे
हैं, कल्याण,
कल्याण।
दया करो, क्षमा
करो। भयभीत हो
रहे हैं।
क्यों? दूसरी
तरफ से समझें।
बुद्ध
ने कहा है, जब तक
तुम्हें खयाल
है कि तुम हो, तब तक
तुम्हारा भय
नहीं मिट सकता।
तो बुद्ध ने
कहा है, अगर
तुम भय से
मुक्त होना
चाहते हो, तो
तुम पहले ही
मान लो कि तुम
हो ही नहीं।
और तुम इस तरह
जीयो जैसे
नहीं हो। और
तुम्हारी एक
ही साधना हो
कि तुम हो ही
नहीं। फिर
तुम्हें कोई
भयभीत न कर सकेगा।
और एक क्षण भी
जिस दिन
तुम्हें यह
अनुभव हो जाएगा
कि तुम हो ही
नहीं, शून्य
हो, उस दिन
तुम्हें कहीं
भी भय का कोई
कारण नहीं रह
गया। क्योंकि
जो मिट सकता
था, उसे
तुमने खुद ही
त्याग दिया।
अब तो वही बचा
है, जो मिट
ही नहीं सकता।
हमारे
भीतर जो मैं
का भाव है, वह मिट
सकता है। और
हमारे भीतर जो
मैं—शून्यता
की अवस्था है,
वह नहीं मिट
सकती। मैं
स्ट्रक्चर है,
ढांचा है
हमारे चारों
तरफ, वह
मिटेगा। जैसे
शरीर का एक
ढांचा है, वह
मृत्यु में
मिटेगा। ऐसे
ही मैं का भी
एक ढांचा है, वह भी
मिटेगा। इस
ढांचे के भीतर
एक शून्य है।
ऐसा
समझें कि आपने
एक मकान बनाया।
मकान तो
मिटेगा, दीवालें तो
गिरेंगी, खंडहर
होगा, देर—अबेर।
लेकिन मकान के
भीतर जो शून्य
आकाश था, वह
नहीं मिटेगा।
जब आपकी
दीवाले नहीं
थीं, तब भी
था। फिर आपने
दीवालें उठाई,
तो आपने उस
शून्य आकाश को
दीवालों के
भीतर घेर लिया।
फिर आपकी
दीवालें गिर
जाएंगी, वह
शून्य आकाश
वहीं का वहीं
रहेगा।
और
ध्यान रखें, मकान है
क्या? दीवालों
का नाम मकान
नहीं है, क्योंकि
दीवालों में
कौन रह सकता
है! रहते तो शून्य
आकाश में हैं।
दीवाल में रह
सकते हैं आप? रहते कमरे
में हैं।
अंग्रेजी का
शब्द रूम बहुत
अच्छा है। रूम
का मतलब होता
है, स्पेस।
आप रहते रूम
में हैं, खाली
जगह में हैं, दीवालों में
नहीं रहते।
अगर अकेली
दीवालें ही
हों मकान में
और खाली जगह न
हो, तो
उसको कौन मकान
कहेगा?
आप
रहते खाली जगह
में हैं, वहीं जीवन
है। दीवालें
सिर्फ खाली
जगह को घेरे
हुए हैं।
दीवालें नहीं
थीं, तब भी
यह खाली जगह
थी। यह रूम था,
बिना दीवाल
के था। कल
दीवालें गिर
जाएंगी, तब
भी यह रूम
रहेगा, बिना
दीवाल के
रहेगा। अगर
आपने दीवालों
से समझा कि
अपना मकान, तो आप घबडाए
रहेंगे, कि
आज मिटा, कल
मिटा। अगर
आपने इस खाली
जगह, रूम
को समझा कि
मेरा मकान, फिर आपको भय
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
मैं दीवाल है।
भीतर जो शून्य,
शांत, चैतन्य
है, वह
आकाश है।
देवता
भी कपेंगे, मुनि भी
कपेंगे, सिद्ध
भी कंपेंगे।
वे सभी के सभी
किसी न किसी
तरह के मैं से
अभी जुड़े हुए
हैं।
और हे
परमेश्वर! जो
एकादश रुद्र, द्वादश
आदित्य, आठ
वसु, साध्यगण,
विश्वेदेव,
अश्विनी
कुमार, मरुदगण
और पितरों का
समुदाय तथा
गंधर्व, यक्ष,
राक्षस और
सिकलों के
समुदाय हैं, वे सभी
विस्मित हुए
आपको देख रहे
हैं। उनकी
किसी की समझ
में नहीं आता
कि यह क्या है!
जहां
द्वंद्व खो
जाते हैं, वहां समझ
भी खो जाती है
और केवल विस्मय
रह जाता है।
समझ चलती है
तब तक, जब
तक द्वंद्व को
अलग—अलग करके
हम रखते हैं।
जहां एक हो
जाती हैं
दोनों बातें,
वहां समझ खो
जाती। और यह
जो नासमझी है,
समझ के खो
जाने पर जो
आती है, इस
नासमझी को
ज्ञान कहा है।
यह जो नासमझी
है, इसे
शान कहा है।
इस
ज्ञान के क्षण
में सिर्फ
भीतर का शून्य, बाहर का
शून्य दिखाई
पड़ता है, जो
एक हो गए। और
बाहर— भीतर भी
दिखाई नहीं
पड़ता कि क्या
बाहर है, क्या
भीतर है।
दोनों एक हो
गए होते हैं।
इस बाहर— भीतर
की एकता में, इस शून्य
में ही भय
तिरोहित होता
है। तो अर्जुन
कह रहा है कि
सभी भयभीत हो
रहे हैं। आपका
यह रूप देखकर
सभी विस्मित
हो गए हैं, किसी
की कुछ समझ
में नहीं पड़
रहा है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके।
कीर्तन के बाद
जाएं।
❤️🌹 ओशो स्नेह वंदन 🙏🙏
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